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गाया। १५६३ - १५६६ ]
त्यो महाहिम दो
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: उस कालमें सभी मनुष्योंका बाहार मूल, फल और मस्स्यादि होते हैं। उस समयके मनुष्योंको वस्त्र वृक्ष और मकान मादि दिखाई नहीं देखे, इसलिए सब मनुष्य न और मानव रहित होते हुए वनोंमें घूमते हैं। वे मनुष्य सर्वाङ्ग पुत्रवणं ( काले रंगके ). गोधर्मपरायण (पशुओं सह माचरण करने वाले), क्रूर, बहरे, अन्धे, काणे, गूंगे दरिद्रता एवं कुटिलता से परिपूर्ण, दीन बन्दर सा रूपवाले, अतिम्लेच्छ हुण्डकसंस्थान युक्त कुबडे, बौने शरीरवाले, नानाशकारकी ध्यानियों एवं येल्लासःमिल, अनमोल युद्ध नः लानेवाले, स्वभावसे हो पापिष्ट सम्बन्धी, स्वजन, बान्धव, घन, पुत्र, कलत्र और मित्रोंसे विहीन जू एवं लोस प्रादिसे आच्छल दुर्गन्ध युक्त शरोर एवं दूषित केशोंवाले होते हैं ।। १५५६ - १५६२ ॥
गति - आपति
नारय- तिरिय गीयो, भांगर जोबा हु एल्प सम्मति । मरिचून य अघोरे, निरए तिरियमिम जायते ।। १५६३ ।।
:- इस कालमें नरक और तिर्यञ्च गतिसे बाये हुए जीव ही यहाँ जन्म लेते हैं तथा महांसे भरकर वे अत्यन्त घोर नरक एवं तिर्यक गतिमें उत्पन्न होते हैं ।। १५६३ ।।
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उच्छे-भाव-बिरिया, दिवसे दिवसम्म ताब होयते । इस्लाम तान कहिंदु को सबक
- उन जीवोंकी ऊँचाई, बायु और वीयं (शक्ति) दिन-प्रतिदिन होन होते जाते हैं। उनके दुःखको एक जिल्ह्वासे कहने में मना कौन समयं हो सकता है ? ( अर्थात् कोई नहीं ) ।। १४६४ ।।
प्रलय प्रवृत्तिका समय
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एक जीहाए ।। १५६४ ।।
उजवण्ण-दिवस- बिरहिन इगिबीस-सहस्त्र वस्त-विश्वा' ।
जंतु भयंकर हालो, पलयो लि पयडूबे पोरों ।। १५६५ ॥
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अर्थ :- उनणास दिन कम इक्कीस हजार वर्षोंके बीत जानैपर जन्तुओं ( प्राणियों ) को भयोत्पादक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।। १५६५ ।।
संवर्तक वायुका प्रभाव एवं उसकी प्रक्रिया
ताहे गएव गभीरो, पसरवि पवनो रउद्द-संबट्टी' । सद- गिरि-सिल-पहुबीनं, कुजेबि बुभ्णाद सत्त बिषे ।। १५६६ ।।
१.व.व.क. व.प.व. २. द. म. मोरे २.५...... बट्टा