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तितोषपण्णत्ती [ पाषा : २६२१-२६२४ मेर • तलस्स य ईव, पंच-सया णव-सहस्स जोयरपया । सत्पं खय • घडी, वसमंसं के इच्छति ॥२६२१॥ ६५०० । ।
पाठासरम्। पर्व :-कितने ही प्राचार्य भेरुके तल-विस्तारको नौ हजार पावसौ ( ६५०० ) योजन प्रमाण मानकर सर्वत्र क्षय-वद्धिका प्रमाण दसवां भाग (1) मानते हैं ।।२६२९। [६५००-१०००:५०. ० योजन ।
पाठान्तर । जस्पिासि विक्खंभ, खुल्लम - मेकण 'समविष्णा ।
बस • भजिये 5 लवं, एक-सहस्सेण संमिलियं ॥२६२२॥
पएं:-जितने योजन नीचे जाकर क्षुद्रमेष्यों के विस्तारको जानना हो, उतने योजनों में दसका भाग देनेपर जो सम्म प्रापे उसमें एक हजार जोर देनेपर अभीष्ट स्थानमें मेरुषोंके विस्तारका प्रमाण जाना जाता है ॥२६२२।।
विशेषार्थ:-शिखरसे २१००० योजन नीचे नेरुका विस्तार (२१०००१०) + १... = ३१०० योजन प्राप्त होता है।
चलिकाएंजंबूबीव-पवग्णिव - मंदरगिरि - बलियाए' सरिसाम्रो ।
योग्य' पि चूलियानो, मंदर • सेलाण एस्सि ।।२६२३॥
म :-इस द्वीपमें दोनों मन्दर-पर्वतोंको चूलिकाएँ जम्बूद्वीपके वर्णनमें कही हुई मन्दरपर्वतकी चूलिका सदृश है ।।२६२३॥
चार वनोंका विवेचनपंडग - सोमणमाणि, वणारिण एवणय - भहसालाणि । जंबुदीव - पण्णिव • मेह - समाणाणि मेस ॥२६२४।।
--- - - - - - १. इ.च. ज, य. न. समझदमणावं। २ प.ब.क.अ. य. उ. प्रसिप । ..ब.क. स.दोब्धि । ४... भ.ज.. उ. एपि ।