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[ गाबा ε१६- १२३
इन्द्र एवं चक्रवर्ती प्रश्नानुरूप पर्व के निरूपणार्थ यह दिव्य ध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। महू दिव्यध्वनि भव्य जीवोंको छह-द्रष्य, नौ-पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वोंका निरूपण नानाप्रकारके हेतुओं द्वारा करती है । इसप्रकार घातिया कर्मो के क्षयसे उत्पन्न हुए महान् भावयंअनक थे ग्यारह अलिय सीर्थंकरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ।। १०६ - ६१५।।
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तिलोयपण्णत्ती
देवकृत तेरह श्रतिशय
जोवने
वनं ।
माहत्येन जिमानं संखेनेसु च पल्लव कुसुम फली भरिदं प्रायदि अकासम्म ॥ ११६ ॥
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कंटय- सक्कर-पहूति, अवणिता वादि सुरको बाऊ ।
मोसून पुण्य वेरं जीवा धति मेसीसु ॥१७॥
बम्पण-तल- सारिवा, रमणमई होदि तेतिया भी । गंधोबड वरिसह, मेघकुमारो पि सक्क आणाए ।।११८ ॥
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फल-भार-णमिव-साली जवादि-सहसं सुरा बिकुवंति । समा जीवार्ण, उपनदि विमानंद ॥१६॥
बायदि विक्किरियाए वायुकुमारो हु सोपलो पवणो । तवायावीणि निम्मलसलिसेच पुण्माणि ॥१२०॥
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धूमुक्कपण पहूदीहि विरहिवं होदि णिम्मलं यनं । रोगावीणं बाधा, ण होंति सक्लान जीवानं ॥२१॥
१. ब च संविधा |
जक्लिव मत्पतु, किरगुज्जर- दिग्व धम्म-वाणि ।
व संठियाई' बचारि जणस्स अरिया || १२२ ॥
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पण चदिसासु, कंचन - कमलामि तिरथ-कताएं । एक्कं च पापीढे अच्वण-दच्चाणि शिव्य-विहिवाणि ॥२३॥
| चोलीस अइसया समता ।