SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४७ गाथा : १६TRA :-- AREER चा हिशो! एसा जिनिवाडमा जणाणं, माणं कुचंतान-प्पयारं । भाषानुसारेण अनंत-सोपखं, निस्सेयसं अम्मुव च देवि ॥१६॥ धर्म:-यह जिनेन्द्र प्रतिमा अनेक प्रकारसे उसका ध्यान करनेवाले भव्य जीवोंको उनके भावोंके अनुसार प्राप्युदय एवं अनन्तसुख स्वरूप मोक्ष प्रदान करती है ।।१६६।। कूटोंपर स्थित क्यन्तरदेवोंके प्रासादोंका वर्णन भरहादिसु तु, अनुसु घेतर-सुराग पासादा । पर • रयत - कंचणमया, वेदी-गोररवार-कय-सोहा ।।१६७॥ उम्बाहिं असा, मणिमय - सयणासणेहि परिपुष्णा । गवंत - षय - पराया, बहुविह • वन्मा विराति ॥११॥ :-भरसादिक आठ कुटोंपर व्यन्तरमेवोंके उत्तम रत्नों और स्वर्णसे निर्मित, पेदी तथा गोपुरद्वारोंसे शोभायमान, उतानोंसे युक्त, मणिमय शय्याओं और आसनोंसे परिपूर्ण एवं नाचती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित अनेक वर्णवाले प्रासाद विराजमान है ।।११७-१६८|| महुवेव - देवि - सहिदा, बेतर - देवाण होति पासावा । जिरवर - भवन • पष्णिव - पासाद-सरिन्छ-रुवायो १६॥ को १ । को। । को । प्रम:-प्यन्तरदेवोंके ये प्रासाद बहुतसे देव-देवियों सहित हैं। जिन-भवनोंक वर्णनमें प्रासाओं के विस्तारादिका जो प्रमाण बतलाया जा चुका है, उसीके सदृश इनका भी विस्तारादिक जानना चाहिए । अर्थात् मे प्रासाद एक कोस लम्बे, आधा कोस घोड़े और पौन (1) कोस ऊंचे हैं ॥१६६1 --- -. - --.-. .- t.. उ.देहि।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy