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तिलोयपण्णत्ती
[ गाया: १६२-१६५
अर्थ :- वह निभवन स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, कमल मौर नीलकमलोंके समूहसे अलंकृत भूमिभागोंसे युक्त और मणिमय सोपान पातयार्स श्राभायमान पुष्करेशियो रमणीय है ।। १६१।।
सि जिणिय परिमा, अट्ट महामंगलेहि संपुष्णा । सिहासगाबिसहिया, चामर-कर- मान-अन-मिट्टण-बुबा || १६२ ||
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उस जिनेन्द्र मन्दिरमें अगृमहामंगलदस्यों से परिपूर्ण सिंहासनादिक सहित और
हाथमें सामरोंको लिए हुए नाग यक्षोंके युगलसे संयुक्त जिनेन्द्र प्रतिमा विराजमान है ।। १६२ ||
भिंगार - कलस - बप्पन दीयण बय-खत- चमर- सुपट्टा ।
इय बहु मंगलाह,
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qi (kaan) :—
पक्कं लट्ठ अहियसयं ॥ १६३ ॥
:-भारी, कलश, दर्पण, व्यंजन (पंखा ), वजा, छत्र, चमर और मुत्र तिष्ठ (ठोना ), इन माठ मंगलद्रव्यों से प्रत्येक वहाँ एकसौ आठ एकसी आठ है ।। १६३ ।।
किलीए वणिज्य, जिणिद पडिमाए 'सासव- दिपीए ।
जा हर सयल दुरियं सुमरण मेलेण भम्वाणं ।। १६४ ॥
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अर्थ :- जो स्मरण मात्रसे ही भव्य जीवोंके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करती है, ऐसी मापद रूपसे स्थित उस जिनेन्द्र प्रतिमाका कितना वर्णन किया जाय ?
१६४ ।।
एवं हि हवं पडिमं जिनस्स, तस्य ट्ठिवं 'भसि-पसत्य-चित्ता । भायंति केई विभिनटु-कम्मा, ते मोक्ल-मानंदकर* लहते ।। १६५ ॥
:- उस जिन मन्दिर में स्थित जिनेन्द्र भगवान्की इसप्रकारको सुन्दर मूर्तिका जो भी कोई ( भव्य जीव ) प्रशस्त चित्त होकर भक्तिपूर्वक ध्यान करते हैं, वे कमको नष्ट कर आनन्दकारी मोक्षको प्राप्त करते हैं ।११६५ ।।
१. ब... सासरीए । २. ब. क. म. म. न. जो ३. ८. क. अति-पत्चित्तो, ब. उ. भहिए। ४. ६. ब... य. व. मारणं ।