SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८] मार्शल दिस य सहस्सा गउवी, पायाल तले चं . - तिलोयपण्णत्ती - I tooεo 12; 1 धर्म :- इस समान गोस शरीरवाले मेरु-पर्वतका विस्तार पाताल-तलमें दस हजार नम्ब योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे दस भाग [ १००१०२१ को ० ) प्रमाण है ।। १५०५ ।। कम हानीए उपार, धरणी पट्टस्मि जोषण सहस्यमेवकं विस्वारो अभागा । या इस समपट्ट तनुस्त मेहल्स || १८०५ ॥ · • | १०००० | १००० | अर्थ :- फिर क्रमयः हानिरूप होनेसे उसका विस्तार पृथिवोके ऊपर यस हजार (१००००) योजन और शिखर-भूमि पर एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ।। १५०६ ।। - - सरसमय- जलद- 'रिग्गव- बिनयर जिव सोहए मे । विवि-बर-रमन-मंत्रिय बसुम . बस सहस्तानि । सिहर भूमीए ॥११८०६ ॥ [ गाथा : १८०५-१८०९ - मठो उत्तुंग ।। १८०७॥ धणं :- वह उन्नत मेरुपर्वत शरश्कालीन बादलोंमेंसे निकलते हुए सूर्यमालके सहत और विविध उत्तम रहनोंसे मण्डित पृथिवीके मुकुट सह शोभायमान होता है ।१८७।। ब्रम्माभिसेय-सुर-रद-दुदुही' मेरि-तूर - शिग्घोसो । मित्र-महिम-जमिन विक्कम सरब संगोह रमनि ॥१६०६ ॥ :- वह मेद पर्वत जन्माभिषेकके समय देवोसे रखे गये दुंदुभि, मेरी एवं सूर्यके निर्घोष सहित और जिन माहात्म्यसे उत्पन्न हुए पररक्रमवाले सुरेन्द्र समूहोंसे रमरणीय होता है ||१०| A · . सति-हार हंस-भवसुच्छलंत - खोरं- रासि सलिलोघो । सुर किन्नर मित्रानं नामाविह - फोडनेहि चुरो ।। १४०९ ।। अर्थ :---चन्द्रमा, हार एवं हंस सदृश धवल तथा उचलते हुए क्षीरसागरके जल-समूह युक्त वह मैल पर्बत किन्नर-जातिके देव-युगलोंकी नाना प्रकारकी श्रीदामों से सुशोभित होता है ।। १८०२ ।। १. व. ब. क्र. स. म. हि । २. ब. क. प. रहब. क.प.मेरो । . दिग्घिोषो । ४. ५.. . वसि ज. प.
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy