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मार्शल दिस य सहस्सा गउवी, पायाल तले चं
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तिलोयपण्णत्ती
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धर्म :- इस समान गोस शरीरवाले मेरु-पर्वतका विस्तार पाताल-तलमें दस हजार नम्ब योजन और एक योजनके ग्यारह भागोंमेंसे दस भाग [ १००१०२१ को ० ) प्रमाण है ।। १५०५ ।।
कम हानीए उपार, धरणी पट्टस्मि जोषण सहस्यमेवकं
विस्वारो
अभागा ।
या इस समपट्ट तनुस्त मेहल्स || १८०५ ॥
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| १०००० | १००० |
अर्थ :- फिर क्रमयः हानिरूप होनेसे उसका विस्तार पृथिवोके ऊपर यस हजार (१००००) योजन और शिखर-भूमि पर एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ।। १५०६ ।।
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सरसमय- जलद- 'रिग्गव- बिनयर जिव सोहए मे ।
विवि-बर-रमन-मंत्रिय बसुम
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बस सहस्तानि ।
सिहर भूमीए ॥११८०६ ॥
[ गाथा : १८०५-१८०९
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मठो उत्तुंग ।। १८०७॥
धणं :- वह उन्नत मेरुपर्वत शरश्कालीन बादलोंमेंसे निकलते हुए सूर्यमालके सहत और विविध उत्तम रहनोंसे मण्डित पृथिवीके मुकुट सह शोभायमान होता है ।१८७।।
ब्रम्माभिसेय-सुर-रद-दुदुही' मेरि-तूर - शिग्घोसो । मित्र-महिम-जमिन विक्कम सरब संगोह रमनि
॥१६०६ ॥
:- वह मेद पर्वत जन्माभिषेकके समय देवोसे रखे गये दुंदुभि, मेरी एवं सूर्यके निर्घोष सहित और जिन माहात्म्यसे उत्पन्न हुए पररक्रमवाले
सुरेन्द्र समूहोंसे रमरणीय होता
है ||१०|
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सति-हार हंस-भवसुच्छलंत - खोरं- रासि सलिलोघो । सुर किन्नर मित्रानं नामाविह
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फोडनेहि चुरो ।। १४०९ ।।
अर्थ :---चन्द्रमा, हार एवं हंस सदृश धवल तथा उचलते हुए क्षीरसागरके जल-समूह युक्त वह मैल पर्बत किन्नर-जातिके देव-युगलोंकी नाना प्रकारकी श्रीदामों से सुशोभित होता है ।। १८०२ ।।
१. व. ब. क्र. स. म. हि । २. ब. क. प. रहब. क.प.मेरो । . दिग्घिोषो । ४. ५.. . वसि
ज. प.