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________________ गाया : २५६६-२५८६ ] अंबूदीय पण्णिव पत्वकं वेडं, पहुवि - उत्थो महाहियारो विजयार्धं पतादिकों का विस्तार - दाहितोय गुण यंदा से - विजयार्थ आदिक पर्वतों में मेरुपर्वतके अतिरिक्त शेष प्रत्येक जम्बूद्वीप में बतलाये हुए विस्तारकी अपेक्षा दुगुने विस्तारवाले हैं ।। २५८६ ॥ मतान्तरले तोंडीपों को А · M णगा कुंड पहूदि जीय-बुधे । मोसू मेहरि, सव्व प्रगाढ वास पहूदी, केई इच्छति सारिच्छा ||२५=७।। १. दो । नगाणं विला मेहं ।। २५८६ ।। 4 [ ६८९ पाठान्तरम् । श्रयं :- मेरुपर्वतके प्रतिरिक्त शेष सब पर्वत और कुण्ड भादि तथा उनके अवगाह एवं विस्तारादि दोनों द्वीपोंमें समान है, ऐसा कितने ही वाचायोंका प्रभिप्राय है ।। २५६७ ।। बारह कुलपर्वत और चार विजयाद्योकी स्थिति एवं आकार मूलम्मि उवरिभागे, बारस-कुल- पध्वया सरिस वा । भयंतेहि लग्गा वणवहि - - पाठान्तर फालजलहीणं ॥ २५८८ ।। अर्थ :- मूल एवं उपरिमभाग में समान विस्तार वाले बारह कुलपवंत अपने दोनों अन्तिम भागोंसे लवणोदधि और कालोदधिसे संलग्न हैं ।। २५८८ ।। वो दो भरहेरावद-वसुम-बहु-भ-वोह' बिजयहूदा । दो पासेसु लग्या, सवरणोर्वाह - कालजलहीणं २२५८६ ।। अर्थ :- भरत एवं ऐरावत क्षेत्रोंके बभ्रुमध्यभागमें स्थित दो-दो दीर्घं विजयापर्यंत दोनों पार्श्वभागों में लवणोदधि और कालोदधिसे संलग्न है ।। २५६६ ।।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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