SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० । तिलोयपष्णती [ गाथा : ८०४-८०६ __4vivaks : १३१२२६PATTI f हत्वा || मर्म:-इसके आगे उत्तम एवं स्वच्छ जलसे परिपूर्ण और अपने-अपने जिनेनकी ऊंचाकि चतुर्थ भाग प्रमाग गहरे खातिका क्षेत्र होते हैं ।।८०३|| फुल्लत-मुस्कुवलय-समल-लामोप-भर'-सुगंपीणि । मणिमय-सोबाचाणि पानि पालोहि' इंस-पहवीह 1०४|| पर्ष :-ये बातिकाएं फूले हुए कुमुद, कुवलय भोर कमल धनों के प्रामोदसे सुसन्धित तपा मरिसमय सोपानों एवं इंसादि पक्षियों सहित होती हैं ॥८०४।। निय-निय-पदम-विवीच, अत्तियमेरी खुमास-परिमा। निय-निय-विदिप-शिवीगं, तेतिपमेरी पत्ते ।।८०५॥ :-अपनी-अपनी प्रथम पृथिवीके विस्तारका जितना प्रमाण होता है, उतना ही विस्तार अपनी-अपनी प्रत्येक वितीय पृयिकीका भी हुमा करता है ।।०५|| पेचम्पासार-हिरि, ई मछति ताम' उपएसे। साइय-विवीण जोपणमुसहे सेतु कम-ही ।।०६|| 1.1.क.ब.प. स. भवरणमुरंगीति। २...ब. F..... परमेश। ...माण।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy