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गम्या : ३८५-३८९ :... अपलो हानि : है . [ ११७ तारुण्य प्राप्ति एवं सम्यक्त्य ग्रहणकी योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्येक अवस्थामें उनके तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं ।।३८३-३८४।।
___ सम्यक्त्व ग्रहण के कारणजादि - भरनेण केई, केई परिनोहणेण देवान।
धारणपुरण • पहुबोग, सम्मत ताप गेहति ।।३८५।।
पर्ष:-( भोगभूमिज ) कोई जीव जाति-स्मरणसे, कोई देवो प्रतिबोधसे और कोई पारणमुनि भाविकके सदुपदेशसे सम्सस्स्य ग्रहण करते हैं ॥३८५।।
__भोगभूमिज जीवोंका विशेष स्वरूपदेवी-देव-सरिया, बत्तीस-पसस्य-सम्वहि जुवा । कोमल • बेहा - मिहुणा', समचउरस्संग - संठाणा' ॥३८६।। पादुमयंगा वि तहा, छेतु भेस च ते किर' ण सक्का ।
असुचि - बिहीणसादो, मुत्त - पुरीसासबो रिष ।।३८७॥
पर्व:-भोगभूमिम नर-नारी, येव-वेवियोंके सदृश बत्तीस प्रशस्त समरणों सहित, सुकुमार, बेह-रूप-भववाले और समचतुरस्त्र-संस्थान संयुक्त होते हैं। उनका पारीर धातुमय होते हुए भी श्वेवा-भेदा नहीं जा सकता । अशुचितासे रहित होनेके कारण उनके शरीरसे मूत्र तथा विश्वाका पानव नहीं होता ॥३८६-३८४ा
ताण अगलाण वेहा, अ गुष्वट्टणं जग-बिहीणा ।
मुह-त-णयन-धोषण- पह-कट्टण-विरहिका बि रेहति ।।३।।
पर्ष :- उन युगल नर-नारियोंके शरीर, तेस-मर्दन, उबटन और अजनसे तथा मुख, दांत एवं नेत्रों षोने तथा नाखूनों के काटनेसे रहित होते हुए भी शोभायमान होते हैं ॥३८॥
अखर-मालेलेस, गणिो गक्षमा - सिप्प - "पगोस ।
हे बउट्टि - कलासु हॉति सहावेण जिउपयरा ॥३६॥
पर्ष:-वे अक्षर, चित्र, गणित, गन्धर्व पौर शिल्प इत्यादि पौंसठ-कलाओं में स्वभावसे ही अतिशय निपुण होते हैं ।।३८६।।
१... कज. प. उ. विहरणा। २. प.ब.क.ब. स.संठाएं। ..क.प. प. उ. किरण रग सरका। ४. ६. ब.क. ज. स. एम-मंदस। ५. ८. क. ज, य. न. पहरेसु।