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________________ गाथा ७१२- ७१४ ] 'जे संसार - सरीर भोग-विसए, विश्वेष-निम्वाहिणो । जे सम्मत- बिनसिया सविणया, घोरं भरंता तवं ॥ जे सम्झाय महद्धि-दब गया, भाणं च कम्मंतकं । तानं केवलानमुत्तम-पदं, जाए दि कि को? ॥७१२ ॥ अर्थ :- जो संसार, शरीर और भोग-विषयोंमें निर्वेद धारण करने वाले हैं. सम्यक्स्वसे विभूषित है, विनयसे संयुक्त हैं, घोर तपका धाचरण करते हैं, स्वाध्यायसे महान् ऋद्धि एवं वृद्धिको प्राप्त है और कमौका मन्त करने वाले ध्यानको भी प्राप्त हैं. उनके यदि केवलज्ञानरूप उत्तम पव उत्पन्न होता है तो इसमें क्या प्रारजये है ? ॥चार्य श्री सुविजिगर ज केवलज्ञानोत्पति पश्चात् शरीरका ऊध्यं गमन जाये केवलगाने, परमोरास जिजाण सव्वाणं । गच्छति जबर चाबा, पंच-सहस्सानि बहुहाव ।।७१३।। त्यो महाहियारो केवलज्ञानका स्वामी ( शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ) अर्थ :- केवलज्ञान उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थकरोंका परमोदारिक शरीर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ।।७१३।। इन्द्रादिकों को केवलोत्पत्तिका परिज्ञान · भुवणत्तयस्त ताहे भइसय' कोजील होति पोहो । सोहम पहुविवा शासनाइ पि कंपति ॥७१४॥ १. द. जो :- उस समय दोनों लोकोंमें अतिशय मात्रामें प्रभाव उत्पन्न होता है और सौषर्मा - दिक इन्होंके आसन कम्पायमान होते हैं ।।७१४॥ रु. ब. प. उ. उबरे । क. ज. च. इदा मासं I । ५. [ २०१ २. क्र. ज. उ. लिम्ब . . .ज. प.च. साखो । ६. क्र. प. न. सम्बन्स । १. ब. क. च मया । ४. ६.. ६.म.
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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