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तिलोयपणती
[ गापा : २६०७-२९.८ घातकीखण्डस्य भरतक्षेत्रका आदि, मध्य पोर बाय विस्तारएक्क-बर-सोल-संसा, अउ-गुणिदा अनुवीस-पुत्त-सया । मेलिय तिविह - समासं, हरिवे तिहाग-भरह-दिक्खभा १२६०७।।
२१२। मर्ग :-एक, चार और सोलह, इनकी चोगुनी संख्या बोड़में एक सौ अट्ठाईस मिसा देनेपर जो संस्था उत्पन्न हो उसका पर्वत-रुद्ध क्षेत्रसे रहित उपर्युक्त तीन प्रकारके परिधि प्रमाणमें भाग देनेपर क्रमश: तीनों स्थानों में भरतक्षेत्रका विस्तार प्रमाण निकलता है ॥२६०७।।
विशेषार्ष :-भरतक्षेत्रसे और ऐरावतकेवसे विदेह पर्यन्त क्षेत्रोंका विस्तार गोगुना है मतः भरसको शलाका १, हैमवतको । और हरिक्षेपको १६ मलाकाएं हैं। जिनका योग (1+४+१६-) २१ है। (इसीप्रकार विदेहको ६४, रभ्यककी १६, हैरण्यवतको ४ और ऐरावतक्षेत्रको । शलाका है।)
घातकोखण्डमें दो मेक है मतः प्रत्येक मेहके दोनों भागोंका ग्रहण करने के लिए इन्हें (सको) ४ से गुणित करनेको कहा गया है । यथा-२१४४ - ८४ हुए। इनमें दो मेक सम्बन्धी दो विदेह क्षेत्रोंकी ( ६४४२) १२८ शलाकाएं जोड़ देनेसे ( ८४+१२५-) २१२ शलाकाएं पर्वत रहित परिधिका भागहार है।
भरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार१४०२२६११-२१२६६१४१ योजन । मध्यविस्तार–२६६७२.७:२१२=१२५८९यो । बाह्म विस्तार-३६३२१११२१२-१८५४७११ योजन ।
भरतादिकों के विस्तारमें हानि-वृद्धिका प्रमाणभरहादी - विजयागं, बाहिर'-इंम्मि आदिम हई।
सोहिय चउ-लक्ख'-हिये, सय · बढी हच्छिद - पवेसे ॥२१०६।।
पर्ष :-भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्य-विस्तारमेंसे प्रादिके विस्तारको कम कर शेषमें चार लाखका माग देनेपर इच्छित स्थानमें हामि-वृद्धिका प्रमाण पाता है ॥२६०11
१.८. स. य, बाहिरसम्म, र बाहिकुमिमा । २.८.न.क. ब प, 3. लवाइरिहे।