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गावा : २२५२-२६६ ] पजत्यो महाहियारो
[ ८.३ विवा :-विदेहमें यह गुणस्पान-पहला. चौथा, पाचशे, छठा, सातवा और तेरहवा निरन्तर पाए जाते हैं । गेष गुणस्थान सानतर हैं। प्रतः अपन्यतः ये छह गुणस्थान ही हमेषा पाए जायेंगे।
सम्मेसु भोगवे, दो पुनारणागि सम्म - कालम्मि । माहीमति घड डिपाम, मुख्या: सिनिमहमिम सिन्धारा २९८२।।
मर्ष-सब भोगभूमिों में सदा दो गुणस्थान ( मिथ्यात्व और असंयतसम्यग्दृष्टि ) तथा ( उत्कृष्ट रूपसे ) चार गुणस्थान रहते हैं। सब म्लेच्छपण्डोंमें एक मिप्यास्व गुणस्यान ही रहता है ।।२६८२।।
विज्जाहर - सेटीए, ति गुणट्ठामाणि सन्म - कालम्मि ।
पण - गुणठामा दोसर ग्वि - विक्माण चोद्दस ठाणं ॥२६६३॥
प्रबं:-विद्याधर श्रेणियोंमें सर्वदा तीन गुणस्थान ( मिथ्यात्व असंयत मौर देशसंयत ) तथा ( उत्कृष्ट रूपसे ) पाच गुणस्थान होते हैं। विद्याएँ छोड़ देनेपर वहाँ चोदइ गुणस्थान मो होते हैं ॥२६८३॥
पज्जताएम्जत्ता, जीवसमासा हति ते बोगि।
पक्षजति' - अपज्जती, छम्मेवा सम्ब - मनुवाणं ।।२९८४||
प्रव:- सब मनुष्योंके पर्याप्त एवं अपर्याप्त दोनों जीवसमास, छहों पर्याप्तियां और मुठों अपर्याप्तियां भी होती है ।।२९८४।।
बस-पाण-सत्त-पाणा, घर-सज्जा मणुस-गविह पंचिदी ।
गदि-विय तस-काया, सेरस-जोगा विकुप-चुम-रहिया ॥२६॥
प:-सब मनुष्यों के पर्याप्त अवस्थामें दस प्रारण और अपर्याप्त अवस्थामें सात प्राण होते हैं। संज्ञाएं चारों हो होती हैं । चौदह मार्गणाओंमेंसे कमणः पतिकी अपेक्षा मनुष्यगसि, इन्द्रियको अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय, स-काय और पन्द्रह योगोंमेंसे वैक्रियिक एवं वैकियिक मिश्रको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥२९८५।।
से वेदसप - सुत्ता, अवगा - घेवा वि का रोसंति ।
सयल - इसाएहि जुरा, अकसाया हॉसि केइ गरा ॥२९८६।।
अ। वे मनुष्य तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं। परन्तु कोई मनुष्य ( पनिवृत्तिकरणके प्रमेहभागसे लेकर ) वेदसे रहित भी होते हैं । कषायकी अपेक्षा वे सम्पूर्ण कषायोंसे युक्त होते हैं। परन्तु कोई ग्यारहवें गुणस्थानसे ) कषाय रहित भी होते हैं
१... क. ज, उ. परबत्तियमययतो।