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तिलोयपण्णत्ती
विवक्षित सूचीकी परिधि प्राप्त करनेका विधान -
शार्थे ir आचार्य श्री
सागर की
प्रादिम-मज्झिम- बाहिर-सूई वग्गा वसेहि संगुणिवा । तस्स य मूला इच्छि सूईए होदि सा परिही ॥२६०२॥
:-मादि, मध्य और बाह्य-सूचीके वर्मको दससे गुणा करके उसका वर्गमूल निकालनेपर इच्छित सूचीको परिधिका प्रमाण आता है ।। २६०२ ।।
धातकीखण्डकी अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण
पारस लक्खाई, इगिसीबि सहस्स ओयक्का सयं ।
उणवाल बुवा धावदसंडे अभंतरे परिही ॥२६०३ ॥
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१४८११३६ ।
अर्थ :- धातकीखण्डद्वयको अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक
सौ उनतालीस ( १५८११३९ ) योजन है ।। २६०३॥
[ गाया : २६०२-२६०४
√ [ ५ लाख ) " × १०
विशेवार्थ :- मभ्यन्तर परिधिका वास्तविक प्रमाण १४८११३८ योजन, ३ कोस, ६४० धनुष, १ रिक्कू, १ वितस्त मोर कुछ कम ५ अंगुल प्राप्त होता है । किन्तु गाथा में यह प्रमाण मात्र १५८११३६ योजन कहा है ।
मध्यम परिधिका प्रमाण
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अट्ठावीसं लक्खा, छावाल सहस्स जोयणा पन्जा' ।
किचूना णावव्या मक्किम परिही य धावई ।। २६०४ ॥
१.व.म.पा सं
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२८४६०५० ।
अ :- घातकी लण्ड द्वीपको मध्यम परिक्षिका प्रमारण बट्टाईस लाब छपालीस हजार पचास ( २८४६०५० ) योजनसे कुछ कम जानना चाहिए ।। २६०४ ।