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तिसोयपत्ती [ गाथा : ३५६-३५८ बल्ली-सह-गुल्छु-सदुम्भवाग' सोलस - साहस्स - मेरा।
मासंग - दुमा रेति हु, कुसुमागे विदिह - मालाओ ॥३५६।।
पर्ष:-मालाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुल्यों और सवामोंसे उत्पन्न हुए सोलह हजार भेद रूप पुष्योंकी विविधते हैं
17257!. WE ARE सेजंगा मज्झविम-दिणपर-कोडोम किरण-संकासा।
मत - चंच - सूर - प्पाहवाग कति - संहरगा' ।।३५७।।
प्रः-सेजाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष मध्यंदिनके करोड़ों सूर्योकी किरणोंके सदृश होते हुए मक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादिकको कान्तिका संहरण करते हैं ।।३५७।।
से सम्बे कप्पमा, 'वगप्पयो गो बतरा देवा ।
"णरि प्रवि- सख्या, पुस्प - फलं रति मीषानं ||३५॥
म-वे सर्व कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं। किन्तु पृषियी स्प होते हुए पे वृक्ष बीवोंको उनके पुष्प ( कर्म ) का फल देते हैं ॥३५८।।
भोग भूमि में दस प्रकार के कल्प वृक्षों से भोग सामग्री ग्रहांग भाजनौ। भोजनगंग पार्माग कोंग ।
षणोंग
जाग
१. द.स, बायुम्पवए, क. प. य. छ. मदुम्मवरणा। २. 4.4.क.प. प. उ.बहरणं । ३.१.६ ब. गप्परेको समेतरा, उ. बएफहो। ४ . ब. क. प. य. उ. एवरो।