________________
गापा : २४३-२४ ] यतत्वो महाड़ियारो
[७३ सेल • गुहागणं, मणि - तोरणदार जिस्सरंतीयो । बना रपवनिम्मिय-कम-पाहबीम 'बिस्मिन्ना ॥२३॥ गण - वेदो - परिखिता, पतरक योनि बोयणायामा ।
पर - रयनमया गंगा - नए पमहम्मि पषिसंति ॥२४४॥
पर्व :-( ये दोनों नदियाँ ) पर्वतीय गुफा-कुण्डोंके मणिमय तोरण द्वारोंसे निकलती हुई रखई (स्थपति ) रलसे निर्मित संक्रम ( एक प्रकारके पुल ) आदिसे विभक्त, वन-वेदीले चेष्टित, प्रत्येक ( नदी ) दो मोजन प्रमाण आयाम सहित पौर उस्कट रत्नोंसे युक्त होती हुई गंगानदीके प्रवाहमें प्रवेश करती है 1१२४३.२४४।। गंगाका विजयास निकलकर समai
ke पन्नास - जोयणाई, अहियं गंगुण पव्यय - पुहाए ।
दक्खिन-दिस - गारेचं. 'खुभिवा भोगीब - पियवा गंगा ।।२४५।।
म:-गङ्गानदी पचास योजन अधिक जाकर पर्वतकी गुफाके दक्षिण विधाके द्वारसे कोधित हुए सर्पके सदृश निकलती है ।।२४५।।
निस्सरिवूनं 'एसा, दक्खिन-भरहम्मि रुप्य सेलायो । उणवीसम्माहिय • सयं, आगच्छवि जोयणा अहिया ॥२४६।।
१६ । ब:- यह नदी विजयार्ष पर्वतसे निकलकर एकसो उनीस योजनोसे कुछ मषिक पक्षिणभरतमें आती है ॥२४६॥
विवा:-भरतक्षेत्रका प्रमाण ५२ योजन है। इसमें से ५० योजन विजयाका व्यास बटा देनेपर (५२६४-५०)=४७१सयोजन अवशेष रहे। इसको भाषा करनेपर (४७६२)-२८॥ योजन दक्षिण भरतक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । गङ्गानदी विषयाकी गुफासे निकलकर पक्षिण भरतके मर्षमाग पर्यन्त आई है मत: { २३ २ )-११ योजन वाकर ही पूर्व दिशामें मुड़ जाती है।
... मुसिया।
... (ब), प.प. बट्टा। २. क. प. प. उ. मिलिया। ४.ब.क.अ. य. एसो। ५. इ.ब.क.प. उ.८।