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गाथा : १३०६-१३९. ] चस्पो महाहियारो
[ ३६६ संकजा - सहस्साई, पुता पुत्तीपो हॉति वकीनं । गणनववेज - गामा, पत्तीस - सहस्स साग तहरपला ॥१३८६।।
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म :-प्रत्येक चक्रवर्तीके संस्थात हजार पुत्र-पुत्रियां होती है और बातीस हजार गणवद नामक देव उनके अङ्गरमक होते है ॥१३०६।।
सन्देज्म'-महाररासिया, कमलो ति-सपाइ सहि-श्रुत्ताई। खोट्स-पर-रयणाई, बोबाचीवम - मेर-हु-विहाई ॥१३८७।।
। ३६० । ३६० । १४। प्रपं:-प्रत्येक पकवीके चिकित्सक ( वंच) तीमसो साठ. महानसिक ( रसोइये ) तौनसो साठ मोर उत्तमरत्न चौवह होते हैं। ये रल जीव और अनोवके भेदसे दो प्रकारके होते हैं ॥१३८७॥
ते तुरय-हरिव-बड़लाइ, मिहवा - सेणावह सि रपणाई। अबइ-पुरोहिब-रयणा, सच जीवाणि ताम अभिहाणा ॥१३॥ पवमंजप-विजयनिरो, 'भहनुहो तह य कामही य ।
होति नरम् सुभहा, बुद्धिसमुद्दो चि पर में ॥१३८६।।
पर्व:-उनमेंसे अश्व. हाथी, सई, गृहपति, सेनापति, युवती और पुरोहित ये सात जीवरत्न है । इमके माम क्रमशः पवनम्जय, विजयगिरि, मनमुब, कामवृष्टि, अयोध्य, सुभद्रा और बुद्धिसमुद्र हैं ॥१५०८-१३८६।।
तुरग-नभ-हस्थि-रयना, विजयवाणिरिस्मि होंति पत्तारि ।
अपसेस - जीव - रपणा, लिप-शिप-णयरेसु अम्मति ।।१३६०॥
प्रबं:-इन सात रत्नोंमेंसे सुरग. हाथों और स्त्री ये तीन रन बिजया पर्वतपर तपा प्रवशिष्ट चार जीव-रत्न अपने-अपने नगरमें उत्पन्न होते हैं ॥१३६०11
१४. र. ६. च. तमुत्तक, कप, तवं च । २. ५. क. प. य... नहा ।