________________
गाया : १४६-१५२ ] पउत्यो महाहियारो
[ ४३ घर:-अभियोगपुरेसे पाच योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तारवाला पंतापपर्वतका उत्तम शिखर है जो त्रिदयोन्द्रराप अर्थात् इन्द्रधनुषके सदृश है, विशाल एवं उत्तम वेविकाओंसे वेष्टित है, अनेक तोरणद्वारोंसे संयुक्त है और विचित्र रस्नोंसे रमणीय है ॥१४७-१४८।।
शिखरके ऊपर स्थित नव-कूटोंका वर्णनतस्थ-सममूमि-भागे, 'फुरंत-पर-रयण-किरण-णियरम्म ।
खेटुते णव का, कंचमीण • माhिilki.
म: वहां पर स्फुराममान उत्तम रत्नोंक किरण-समूहोसे युक्त समभूमि भागमें स्वर्ण एवं मोतियोंसे मण्डित विम्म नो कुट स्थित हैं ।।१४।।
मामेण सिडकूणे, पुल्य - विसंतो तबो भरह-री । 'संपवाय - णामो, तुरिमो तह मानिभदो ति ॥१०॥ विजयहन्तुमारो पुष्णभद्द-तिमिस्स-गुहा-बिहामा म ।
उत्तर - भरहो कूशे, पच्छिम - प्रताम्हि समगा ॥११॥
प:-पूर्व विशाके अन्समें सिद्धकूट, इसके पश्चात् भरतकूट, वण्डप्रपात, ( चतुर्ष ) माणिभद्र, विजयाकुमार, पूर्णभद्र, तिमिनगृह, उत्तर भरतकूट और पश्चिम दिशाके अन्समें वैश्रवण, नामक ये नौ कूट हैं ।।१५०-१५१॥
कूटोंके विस्तार आदिका वर्णनकूडानं उच्छहो, पुह पुह छफ्जोयणागि इगि-कोस । लेसिपमेसं णियमा, हवेवि भूम्हि मो ॥१५२।।
जो ६ को १ । जो ६ को प्रपं:-इन कूटोंकी ऊंचाई पृथक्-पृथक् छह योजन पोर एक कोस है तथा नियमसे इतना ही मूलमें विस्तार भी है ।।१५२।।
१. द.अ. य. पुरस, ब, क.. पुरंत । २. ५. क. प. य. ३. तिमिस्। ४.......... विधाए .....म..सिमंत्रा। को यो३।को।।
वण। ३. ... प. उ. ६.4.क.ब.प.च. पो४,