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तिलोयपण्णत्ती
बस जोयणाणि तत्तो, उबर गण होसु पासेमु । अभियोगामर सेठी, वस जोयन बित्थरा' होदि ।। १४३||
- विद्याधर श्रेणियोंसे आगे दस योजन ऊपर जाकर विजया के दोनों पार्श्वभागों में
दस योजन विस्तार वाली भाभियोग्य देवोंको प्रणी है ।। १४३ ।।
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वरकप- हम्ल- रम्भा, फलिदेहि उबवणेहि परिपुष्णा ।
बाबी जाग पड़रा, वर- अच्छार कीडणेहि जुबा ॥१४४॥
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कंचन देवी सदाका
सचिता ।
मणिमय मंदिर बहुला परिवा पावार परिवरिया ।। १४५ ।।
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अर्थ :- यह श्र णौ उत्कृष्ट कल्पवृक्षोंसे रमणीय, फलित उपवनोसे परिपूर्ण, अनेक मापियों एवं तालाबों सहित उत्तम अप्सराओं की क्रीड़ाओंसे युक्त, स्वर्णमय वेदी सहित चार गोपुरोसे सुन्दर, बहुत चित्रोंसे अलंकृत और अनेक मणिमय भवनोंसे युक्त है तथा परिचर एवं प्राकारसे बेष्टित है ।। १४४ - १४५।।
[ गाथा : १४३ - १४८
सोहम्म-सुरिवस् य वाहन-देवा हवंति 'बेतरमा ।
वक्त्रण उत्तर पासेसु लिए वर-विष्य-रूवरा ।।१४६ ।।
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अर्थ :- इस गोके दक्षिण-उत्तर पार्श्वभाग में सौधर्मेन्द्र वानदेव व्यन्सर होते हैं, जो उत्तम दिव्यरूपके धारक होते हैं ।। १४६ ।।
विजया के शिखरका वर्णन
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अभियोग-पुराहितो, गंतूनं पंच-जोयणाणि बो।
वस - जोयण- विविणं, वेषगिरिस्स वर सिहरं ॥ १४७ ॥ तिवसिदचाव- सरिसं विसाल-बर- देवियाहि परिमरियं । बहुतोरणदार-जुदा, विचित्त- श्यमेहि' रमनिक्या ।। १४८ ।।
२८. क... चितरया, ज. मिलरया । ३. क. अ, य. उ, रम