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तिलोयपणती
[गामा ! ६३०-५३३ प्र: पूर्वकृत महा पापके उदय जीव माताके रक्त और पिसाफे शुकसे उत्पन्न होकर दस रात्रि पर्यन्त कललरूप ( कर्दम सदृश गाढ़ी ) पर्याय में रहता है । पश्चात दस रात्रि पर्यन्त कलुषीकृत पर्यायमें और इतनी ही अर्थात् दस रात्रि पर्यन्त स्थिरीभूत ( निष्कम्प ) पर्यायमें रहता है । इसके परमात् प्रत्येक मासमें क्रमश: बुदबुद धनभुत ( ठोस ). मांसपेशी, पांच पुखक ( दो हाप, दो पर मोर एक मिर), अशोपाल और चर्म तथा रोम एवं नलोंको उत्पत्ति होती है। पुनः पाठवें मासमें स्पन्दन क्रिया और नौवें या दसवें मासमें निर्गमन चिन्म होता R E E , AK
योनिका स्वरूप एवं गर्भाशयवे दुःखअसूची अपेक्सपीयं, वुग्गंधं मुत्त-सोगिक-दुपाएं ।
वोत्तु पि लग्न-गिन, पोट्टमुहं जम्ममूमो से ॥६३०॥
प्रम :-पशुचि, प्रदर्शनीय, दुर्गन्धसे युक्त, मूत्र एवं खूनका बार सवा जिसका कपन करने में भी सजा पाती है ऐसा जो उदरका मुख ( योनि ) है वह इस मनुष्यका जन्म स्थान है ॥३०॥
आमासयस हेडा, उरि पक्कासयस गुम्मि । मम्झम्मि 'वरिय-पडले, पच्यन्णो मिक-पिज्जती ॥३१॥ प्रच्छवि गाव-वस-मासे, गरमे 'आहरदि सम्भ-मंगेस ।
प्रथरसं अहकुणिम, घोरतरं दुक्ख-संभूयं ॥६३२॥
म:-( यह प्राणी ) गर्भ समयमें आमाशयके नीचे और एक्वायके अपर ममके पौधोंबोच वस्ति-पटल (जरायु पटल ) से प्रान्छादित, वान्ति ( घमन ) को पीता हुआ नौ-दस मास गर्भमें स्थित रहता है और वहां सब बलोंमें दुःबसे उत्पन्न अत्यन्त तीव दुगंग्वसे युक्त विष्टा-रसको आहारके रूपमें ग्रहण करता है ॥६३१-६३२।।
मनुष्यपर्यायका कालोप'बासातम्मि गुरुगं, वुल्वं पत्तो अबाण-मानेन । जोग्यण-काले मजले, इस्पो-पासम्मि संसातो ॥३३॥
२. ब... पाहारदि।
३...क.प, य, उ.
.... क. . . उ. तिम। वासत्तशंपित