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गाचा : १.०२-१००६ ] चउत्यो महाहियारो
[ ३०१ दुर-श्रवणरव-ऋद्धिसोविविय - सवगागावरगाणं बोरिवंतरायाए । चक्कस्स - साबोक्समे, उदिवंगोवंग - गाम - कम्मम्मि ॥१००२॥ सोवुक्कस्स - सिंबोयो, बाहि संखेज्ज - जोयण • पएसे । चिटुताणं माणुस - तिरियाणं बहु - वियप्पाणं ॥१००३॥ अमलर • अणखरमए, बहुषिह - सई पिसेस-संजुत्ते। उप्पो आयम्णा, अं भगिभं दूर - सवरा ॥१००४।।
। दूरसवणत्तं पदं । पर्य:-श्रोरेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और कार्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तपा मगोपाल नामकर्मका उदय होने पर जो श्रोयेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्रसे बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्रमें स्पित-रहने वाले बहुत प्रकारके मनुष्यों एवं तियंग्योंकी विशेषतासे संयुक्त अनेक प्रकारके पक्षरानझरात्मक धम्दोंके उत्पन्न होने पर उनका श्रवण करती है, उसे दूरश्रवणत्व ऋद्धि कहा गया है ॥१००२-१००४।।
। दूरबवरणय-ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ।
दूर-दशिन्य-ऋद्धिहविविय • सुषमाणावरणागं वौरियंतरापाए । उपकस्स • सोवसमें, सविदंगोवंग - गाम - कम्मम्मि ।।१००५॥ छपकस्स-खिवोदो, बाहि संखेज - जोयण - ठिदाई । अंबहुविह • बप्वाइं, वेखाइ चूरपरिसिमं पाम ।।१००६।।
। पूरपरिसिन गई। म:-चक्षुरिन्द्रियावरण, शुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट अयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामरुमका उदय होने पर जो परिन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनोंमें स्मित बहुत प्रकारके व्योंको देखती है, वह दूरदर्शित्व-कृद्धि है ।।१००५-२००६॥
। दूरदर्शित्व-ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ।