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तिलोयपणत्तो
[ गाथा : ४४२-४४६ तेण तमं वित्परिवं, तारागं मंडल पि गयमतले ।
तुम्हागगरिय किषि वि, एकाग रिसाए भय - हेडू ।।४४२॥
प्रचं:-तब मन्मति नामया कुलकर उन भयभीत हुए भोगभूमिमोंको निर्भय करने वाली वारणीसे कहते हैं कि अब कालवश तेजाङ्ग कम्पका कारण समूह सी मह स कारण भाकामा प्रदेशमें इस समय अन्धकार भोर ( साथ हो ) ताराओंका समूह भी फैल गया है। तुम लोगोंको इमकी ओरसे कुछ भी भयका कारण नहीं है ।।४४१-४४२।।
अरिप सदा अंघारं, तारालो 'मंग - तह • गहि ।
परिहब-किरणा पुवं, काल-बसेनन्ज 'पाया भावा ।।४४३।।
पर:-अन्धकार और तारागण तो सदा ही रहते हैं, किन्तु पूर्व में तेजाङ्ग जातिके कल्पवृक्षोंके समूहोंसे वे प्रतिहत-किरण थे, सो प्राज कालवश प्रगट हो गये हैं ॥४३॥
बगीचे मे, कुम्माप्ति पराहिलं गहा तारा ।
नक्सा निच्छ से, तेग - विणासा तमो होवि ॥४॥
प्र :-वे पह, तारा और नक्षत्र जम्बूद्वीपमें मेरुकी प्रदक्षिणा नित्य किया करते हैं। तेजके विमापसे हो अंधकार होता है l
सोरण तस्स क्यणं, संजादा णिम्भया तदा सम्ले। अचंति चलग - कमसे, पुति "र्शिमहि तुहि ||
तव कुलकरके ये वचन सुनकर वे सब निर्भय हो गये और उसके परग-कमलोंकी पूजा करने लगे तथा अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति करने सगै Imti
मकर नामक कुलकरका निरूपणसम्मादि-लग - पवेसे, अन-सयाशिव-पास-
विने । खेमंकरों सि कुलयर - पुरिसो' उप्पयो सदियो ॥४॥
१. बरु. .. . नमास। २. ८. प. प. तेवळसरबतेहि क... गंगारमहि । १. म. म. पाया। ... क.. य. उ. विविहेमतिहि। .......रिपो । ६ .प. परितो।