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तिलोपएणसी
[ गाथा : ३६६-३७४ भोगभूमिमें उत्पत्तिके कारण भोगमहोए सवे, जायते मिग्छ • भाव - संपत्ता । मंद • कसाया मगुवा, पेमुन्नासूप • दंब - परिहोणा ॥३६॥
विजय • मंसहारा, म • मम्जोपरेहि 'परिषता । 'सच्च-शुदा मव-रहिवा, चोरिय-परवार-परिहोणा ॥३७॥ गुणधर-गुने 'रसा, जिण-पूर्व में कुगंति परवतो। अवबास - तणु - सरोरा, अज्जव - पट्सदोहि संपणा ॥३७१५ आहार-बान-गिरा, जदीतु बर-बिबिह-योग-जुत्ते। निमलसर - संबमेसु य, विमुबक - गं भत्तीए ॥३७२॥
अर्थ:-मोगभूमि में ये सब जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यास्वभावसे युक्त होते हुए भी मन्दपायी है, पशून्य, मसूर्यादि एवं वैसे रोहत है, माँसाहार त्यागी, मधु, म तयाँ दम्बर फलोंके मी त्यागी है. सस्थवादी हैं, अभिमानसे रहित हैं, चोरो एवं परस्त्रीके त्यागी हैं, गुणियोंके पुरणों में मनुरक्त है, ( भक्तिके ) प्राधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपवाससे शरीरको कृश करने वाले हैं, मानवादि ( मुरणों से सम्पन्न है; तपा उत्तम एवं विविध योगोसे युक्त, अत्यन्त निर्मम संयमके धारक और परिग्रहसे रहित यतियोंको भक्तिसे माहारवान देने में तत्पर रहते हैं ॥३६९-३७२।।
पुर्व बब- णराऊ, पच्छा तिस्पयर - पार • लम्मि । पाविध - खाइय - सम्मा, जायते के भोगभूमौए ।।३७३॥
:-पूर्वमें मनुष्य आयु गांधकर पश्चात तोयंकरके पादमूलमें क्षामिक सम्पमत्व प्राप्त करने वाले कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भो भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ।।३७३।।
एवं मिच्छाविदी, णिगंधा जवीण वाणा। दादूण पुन्छ - पाके, भोगमाहो केह जायंति ॥३७॥
१.१.. परिपित्ता। २. द...ब.स. उ. सत्य। १. द....न.प.ज. रतो । ... दीपाई।