________________
३४ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १०६-११२
T: १०४-११२ भरतक्षेत्रस्थ विजयापर्वतको अवस्थिति एवं प्रमाण
भरक्खिबि-बहमरझे, विनयको णाम भूषरोतुगो । रजदमओ 'प?दि है. जाणावर-रपण-रमणिजो ॥१०॥ पणुबीस-जोयमबओ, 'यसो तद्गुण-मूल-विश्वंभो। उदय-तुरिमंस-गाहो, जणिहि-पुट्ठो ति-सेति-गयो ।।११०॥
२५ । ५० । २५
प्र:- भरतक्षेत्रके बहुमध्यभागमें नानाप्रकारके उत्तम रनोंसे रमणीय रजतमय विजयार्घ नामक उन्नत पर्वत विद्यमान है । यह पर्वत पच्चीस ( २५ ) योजन ऊँचा, इससे दूने भर्थात् पचास (५०) योजन प्रमाण मूल में विस्तार युक्त, ऊँचाईके चतुर्ष भाग प्रमाण । ६. यो.) नीव सहित, पूर्वापर समुद्रको स्पर्श करने वाला और तीन श्रेणियों में विभक्त कहा गया है ।।१०९-११०॥
विषयाका अवशिष्ट वर्णनबस-जोषणाणि उरि, गंतूणं तस्स बोसु पासेतु। विमाहराण सेतो, एक्केषका जोयणाणि दस ईवा ॥११॥
१०।
प्रम:-दस योजन ऊपर जाकर उस पर्वतके दोनों शवभागों में दस योजन विस्तार वाली विद्याधरों को एक-एक ग्रेणी है 1॥११॥
विजयवायामे, हवंति विमाहराण सेटीओ।
एकेका 'तसदेदो, गाणाबिह-सोरहि कपसोहा ।।११२॥
प्रचं-विजयापके मायाम-प्रमाण विद्याधरोंकी रिगया है तथा यहाँ नानाप्रकारके तोरणोंसे पोभापमान एक-एक तट वेदिका है ।। ११२।।
-.-.-
-... १. का. उ. रे?दि।
- -. -- . .-..--- २. प. प. क.ज.प. उ. जुत्ता। ३.क.ब.प. उ. तद।