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fairs - II
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गापा । २१८४-२१८८ ] परयों महाहियारो
[ ५६७ जोउत्पत्ति-सयागं, कारण - मूदो अपाइरिगहणो' सो।
सम्मलि - एक्सों' चामर-किमिरिण-'घंटावि-कय-सोहो ॥२१८४।।
स:-( पृथ्वीकायिक ) जीवोंको उत्पत्ति एवं नाशका कारण होते हुए भी स्वयं मनादिनिधन रहकर वह शाल्मली वृक्ष पामर, किंकिणी और घण्टाविसे सुशोभित है ।।२१४॥
जिनभवन एवं प्रासादसद्दविखरण-साहाए, जिरिंगद-भवणं विचित - रयणमयं । पज-हिद-सि-कोस-उदयं, कोसापामं सबस - विस्तार ।।२१८५॥
को १ ।। प:-उस वृक्षकी दक्षिण शाखापर चारसे भाजित तीन (2) कोस प्रमाण ऊँचा, एक कोस सम्बा और आधे (B) कोस विस्तारवाला पदभुत-रत्नमय जिनभवन है ॥२१॥
जपंग - जिराभवाने, भणिमं पिस्सेस-पग्णनं कि पि ।
एपस्सि बाहय, सुर - दुहि - सह - गहिरपरे ॥२१८६॥
प्र:-पाण्डकवन में स्थित जिनभवनके विषय में जो कुछ भी वर्णन किया गया है वही सम्पूर्ण वर्णन देवदुन्दुभियोंके शब्दोंसे मतिशय गम्भीर इस जिनेन्द्रभवनके विषयमें भी जानना पाहिए ॥२१८६॥
सेसासु साहासु', कोसायामा सवड - विक्लभा'। पादोण - कोस · तुंगा, हवंति एक्केषक - पातारा २१८७॥
को १ ।। *:-अवशिष्ट शाखाओंपर एक कोस लम्बे, आधाकोस चौडे सौर पौन कोस ऊँचे एक-एक प्रासाव है ।।२१७।।
पउ-तोरण-वि-सुवा, रयगमया विविह-विश्व-घूव-घसा। पजसंत - रयण - धोवा, ते सच्चे अय - बनाइन्ना ।।२१।।
१.प. २. सिहसा। २. ६... पला । ३. .. . किकिणिमादिकप सोहा । ४.८... एसि । १...ब.क. गहिरबरो। १.द... क. ब. २. उ. विक्वंभी।