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गापा : २३५-२३८)
पजत्यो महायिारो प:-मादि जिनेन्द्रकी वे प्रतिमाएं खिने हुए कमलासनपर विराजमान हैं और कमसके उदर ( मध्यभाग) सदृश वर्णवाल उत्तम शरीरसे युक्त है। जो ( भव्य गोव) इनकी उपासना करते हैं उन्हें ये निर्वाण प्रदान करती हैं ॥२३४।।
मनानदीका अवशेग वर्णन या
कुउस्स परिखणेणं. तोरण - वारेण 'जिग्गदा गंगा ।
भूमि - विभागे 'बरका, होहण गवा य रजवागिरि ।।२३।।
प:- गंगानदी इस ( गंगा ) कुण्डके दक्षिरण तोरणद्वारमे निकलती हुई और भूमिप्रदेशमें मुस्ती हुई रजतगिरि ( विजयाधं ) को प्राप्त हुई है ।। २३५।।
रम्मानारा' गंगा, संकुसिणं पि यूरो एसा । विनयड्दगिरि-गुहाए, 'पबिसवि 'खियो - मिले भुषंगी ॥२३॥
मपं:-यह रम्याकार गङ्गानदी दूरसे ही संकुचित होती हुई विजयार्घ पर्वतकी गुफामें इसप्रकार प्रवेश करती है जैसे भूजंगी (मपिणी } मितिबिन (बांथी) में प्रवेश करती है। ॥२३६।।
गंगा • तरंगिणीए, 'उभयत्ता - वेरियाग वण - संडा।
प्रत्त - सरूवेणं, 'संपता रजद - सेलंतं ॥२३७।
मपं:-गङ्गानदीकी दोनों ही तट-वेदियों पर स्थित वन-खण्ड प्रखण्डरूपसे रजत ( विजयानं) पर्वत तक चले गये हैं ।।२३७||
वर - वज • कवाडाग, संवरण - पवेसणाइ मोत्तण ।
सेस - गुहाभतरमे, गंगा - ता - वेरि • वर्ग - संग ॥२३॥
प:-उत्तम पञ्चमय कपाटोंके संवरण और प्रवेशाभागको छोड़फर गङ्गातटवेदी सम्बन्धी शेप वन खण्ड गुफाके भीतर हैं ॥२३॥
१ य. पिग्मता। २ क. अ. य. उ. को। ३. ब. उ. रामायाय, क. ब. ए. रम्मामारा। ४. क, ज. य उ. दूरियो। ५. प. ब. क. उ. परिसदि। ६.८. ब. क.ज.पन, मेदाभिमुमनि । ७, ८, क. प. प. उ. उभपसर। ५E.ब.क. ज. न. संप, 4. संमत्त ।