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१२] तिलोयाणासी
[ गापा ३५-४१ प्रासादोंमें अवस्थित आसनकरि-हरि-सुरु-मोरानं, प्रयर-वालाणं गहर-हंसाणं ।
सारियाई तेस', रम्भे आसणाणि असे ॥१७॥
प्रपं:-उन रमणीय प्रासादोंमें हाथी, सिंहः शुक, मयूर, मगर, ग्याल, गरुड़ और हंसके सदृश ( बाकारवाले ) आसन रखे हुए हैं।। ३७ ।।
प्रासाद स्थित सल्माएंवर-रयग-बिरदवाणि, प्रषित-सयणाणि मज-पासाई ।
ऐहति मंदिरेस, वोमास-टियोषषाणामि ॥३॥
पर्व:- महलोंमें उत्तम रत्नोंसे निमित, मृदुल स्पर्शवालो और दोनों पार्श्वभागोंमें तकियोंसे युक्त विषिष शय्याएं शोभायमान हैं।॥ ३८ ||
व्यन्तर देवोंका स्वरूपवायसवा मी "सुगम-णिसासा |
बर-विविह-भूसमपरा, रवि-मंडन-सरिस मर-सिरा ॥३६।। रोग-अरा-परिणीणा, पसेकं बस-चणि उत्तुंगा।
वतर-वा तेस, सहेण कोवि मच्छवा ॥४०॥
घर्ष: स्वर्ण सहया निलेप, निसंस कान्तिको धारक, सुगन्धमय निश्वाससे युक्त, उत्तमोतम विविध आभूषाशोंको धारण करनेवाले। सूर्यमण्डलके समान श्रेष्ठ मुकुट धारण करनेवाले, रोग एवं जरासे रहित और प्रत्येक दस अनुप ऊो व्यन्तर पेष उन नगरोंमें सुखपूर्वक स्वछन्द क्रीड़ा करते है ॥३-४.॥
व्यन्तर नगर अकृत्रिम है"जिममंदिर-अत्तार, विषित-विन्यास भवच पुग्नाई।
सामर्द अट्टिमाई, पेतर-मराणि रेहति ॥४॥
प्र:-जिनमन्दिरोंसे संयुक्त बोर विभित्र रघनावाले भवनोंसे परिपूर्ण वे अकृत्रिम व्यन्तर-नगर सदवाभोभायमान रहते हैं ।।४१ ॥
२..ब. क. प्रातिरा, ब. मालमिरा ।
१. द. ब. क. प. एिकहो. च, शिवसेदो। ..... क. प्रीपेक्षा, प. बानरम 1