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________________ गया : ८६१-६६३ | पनचोसाहिय इस्सय अदु-विहतं च पास-गाहम्मि । एक्क सर्व पणवीसम्महियं वीरम्मि वोहि हिदं ॥८१॥ - क आचार्य श्री सुनील उत्थां महाहियारो [ २६७ ६००० | श्७५० | ५५० ० | ५२५० | ५००० | ४७४० | ४५०० | ४२४० | ४००° | ३७५० | ८ ८ ५ ५ ८ द ८ ५ ३१०० | ३२५० | ३००० | २७५० ३०००२७५० ० | २५०० | २२५० | २००० | १७१० | १४०० | १२५० | 5 ८ ५ ८ ८ ५ ८ निष्पाही । प्र : - ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरण में पीठकी मेबलाका विस्तार ब्राउसे भाजित छह हजार धनुष प्रमाण पा पुनः इसके मागे नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः उत्तरोतर दोसौ पचास-दोसौ पचास अंक कम होते गये हैं तथा पार्श्वनाथ के यह विस्तार भाउसे भाजित छहसी पच्चीस धनुष एवं बीर प्रभुके दो से माजित एकसौ पच्चीस धनुष प्रमाण या ।।८८०-८१|| गएरादिकों द्वारा की हुई भक्ति T श्ररुहिणं तेसु', 'गणहर देवादि शरस- गणा से । काढून तिप्पवाहिनमति मुहं मुहं नाहं ॥२॥ १००० ५ ००° | ७१० | ६२५ | १२५ | ६ ८ - योण बुद्धि सहि असंखगुगसेडि-कम्म-निरणं । - कातून परावण मना, जिय जिय कोटुसु पविसंति ||८८३॥ | पढन पीडा समता । - - अर्थ :- वे गणधर देवादिक बारह-गरण उन पीठों पर चढ़कर और तीन प्रदक्षिणा देकर बार-बार जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं, तथा संकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मोकी प्रसंख्यातगुणरूप निर्जरा करके प्रसन्न चित्त होते हुए अपने-अपने कोठों में प्रवेश करते हैं। अर्थात् अपनेअपने कोठोंमें बैठ जाते हैं ।।६८२-६६३।० । प्रथम पोठोंका वर्णन समाप्त हुआ । १. द. न. क. ज. य. न. गणनादेवादि । २. व विष्णवाही, क बिप्पीहोणं, न.प..
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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