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तिलोयपासी
[ गाथा ! १८४३-1010 पुष्वावरेसु बोयण • सब - दोहा परिखातरंसेस।
पण्णासा बहमाझे, कम • हाची सोए उभय • पासेस ॥१३॥
म:-( यह पाण्डक विमा ) पूर्व-पश्चिममें सो योजन सम्बो वौर दक्षिणोतर दिशा गत बहु-मध्यभागमें पचास योजन विस्तार सहित है । ( अर्धचन्द्राकार होनेसे ) यह अपने मध्य भागसे दोनों पायोकी ओर क्रमश: हानि को प्राप्त हुई है 11१८४३।।
जोयण - अछुच्छेहो', सम्मत्वं होवि' कनयमहया ता ।
सम-बट्टा उरिस्मि य, बग-बेगी • पहुदि • संयुत्ता ।।१८४१॥
प :-सर्वत्र स्वर्गमयी वह पाण्डुक चिला पाठ योजन ऊंची, ऊपर समवृत्ताकार और वाम-पेदी आदिसे संयुक्त है ।।१४।।
चउ-जोपण-उच्छेह, पर्ण - संय-वाह सबर - विस्थाएं। सम्गायणि - आइरिया, एवं मासंति पंसिल ॥१८४५।।
४।५००।२५० ।
पाठान्तरम् । प्रबं:-मह पाण्डुकगिला चार योजन ऊंची, पाँचसो ( ५०० ) योषन लारी और इससे अध ( २५.) योजन प्रमाण विस्तार युक्त है। इसप्रकार सगापणी भाचार्य निरूपरस करते है ॥१४॥
पाठान्तर ।
तौए 'बहुमरम-वेसे, "तुगं सोहास विषिह - सोहं।
सरसमम - तरुण • मंडल - संकास - फुरंत-किरणोघं ॥१८४६॥
मई :- पाण्डुक शिलाके बहुमध्य स्थानमें शरत्कालीन सूर्य-मण्डलके समान फैलती हुई। किरणों के समूह पद्भुत शोभायमान सिंहासन है 1॥१४६॥
सिंहासणस बोसु, पासेस विश्व : रयण - रहराई। भदासणाई जिम्मर - फुरंत - घर • किरण-णिवहागि ॥१९४७।।
प.
१. . व पाये , म उलेहो। २.१.स. 8. होहि। ३. ४. सीर। ४. ... बहमले। 1. द. ब. क. ज. स. तुगा ।