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गाषा : १८४८-१८५२ ] पात्यो महाहियारो
पर्व :-सिंहासन के दोनों पाश्व-भागोंमें प्रत्यन्त प्रकायामान उत्तम किरण-समूहसे संयुक्त एवं दिव्य रत्नोंसे रचे गये भाासन नियमान हैं॥१८४७।।
पुह पुह पोह-सयस्स य, उच्यहा पण - सपाणि कोवंडा । तेत्तिय • मेसो मूलो, वासो सिहरे अ सस्सर ॥१८४८||
।५०० । ५० । २५० । अर्थ :-सोनापोटीशी पृथक पृषक गई कार में धनुष हैं। मूल विस्तार भी इसने ही ( ५०० ) धनुष है तपा शिखर पर पीठोंका विस्तार इससे पाधा (२५. धनुष ) है ॥१८४८।।
यवसाववत - जुसा, ते पोढा पायपीठ - लोहिल्ला ।
मंगल - एम्बेहि जुवा, घामर - घंटा • पवारहि ।।१८४६॥
वर्ष :- पादपोठोंसे शोभायमान वे पीठ धवल-छत्र एवं चामर घटा आदि अनेक प्रकारके मङ्गम-दव्यों से संयुक्त हैं ॥१६॥
सम्बे पुश्वाहिमुहा, पोट • बरा तिहुवनस्स विम्हयरा।
एक्क-मुह - एकक - ओहो, को सरकार परिगणा ताणि ११८५०।।
अम: पूर्वाभिमुख स्थित वे सब उत्तम पीठ तीनों लोकोंको विस्मित करनेवाले हैं। इन पीठोंका वर्णन करने में एक मुख पोर एक जिवावाला कौन समर्थ हो सकता है ? ||१६५०॥
वाल-तोयंकरका जन्माभिरेकभरहक्लेस जावं, तित्यपर - कुमारकं गहेन' ।
सपकापडी इंसगैति विमूवीए विविहाए ।। १८५१॥
म :-सौधर्मादिक इन्द्र भरतक्षेत्र में उत्पन हुए तीर्थकर कुमारको महणकर विविध प्रकारकी विभूतिके साथ ( मेव पर्वतपर ) ले जाते हैं ॥१८५१।।
मेरु - पदाहिणे, गछिय पंडू - सिलाए उपरिम्मि ।
मझिय - सिंहासपए, बइसाविय भक्ति - राएम ॥१८५२।।
म :-( वे इन्द्र ) मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए पाण्डुक चिलापर जाकर वीचके सिंहासन पर भक्तिराग पूर्वक ( उन्हें ) बंधाते हैं ।।१-५२।।
१. प. प. व. गहिवरणा।