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________________ तिलोयपणती [ गाथा : १५६५-१५६८ :- उस समय विविध प्रकारको प्रौषधियोंके रहते हुए भी पृपियो पर अग्नि नहीं रहतो, तब कुलकर विनयसे युक्त मनुष्यों को उपदेश देते हैं ॥१५६४|| मणिपूरण कुलह अग्गिं, पचेह अन्चाणि मुंजा बाहिन्छ । 'परह विवाह बंधव - परिहारेण सोनं ॥१५६५।। म :-मरकर भाग उत्पन्न करो मोर अन्न ( भोजन ] पकाओ । विवाह करो और बान्धवादिकके निमित्तसे इण्यानुसार मुखोंका उपभोग करो ॥१५॥ गरि विवाह - बिहीयो, बसे पडम लामो ॥१५॥ समकालो समयो । प:-जिन्हें कुलकर इसप्रकारको शिक्षा देते हैं, वे पुरुष प्रत्यन्त म्लेच्छ होते हैं । विशेष यह है कि परख कुलकरके समयसे विवाह-विधियां प्रचलित हो जाती हैं ।।१५६६।। । इसप्रकार दुःपमाकालका वर्णन समाप्त हुमा । दुःषमसुषम कालका प्रवेश, उत्सेध भादिका प्रमाण एवं मनुष्योंका स्वरूपतातो दुस्समसुसमो, कालो पबिसेषि तस्स एवमम्मि । सग - हत्या उस्सेहो, वोसम्भहि सर्व आक १५६७॥ I७ । १२०1 प:-इसके पश्चात् दुःषमसुषमाकालका प्रवेश होता है। इसके प्रारम्भमें ऊंचाई सात हाप पोर मायु एकसौ बीस वर्ष प्रमाण होती है ।।१५६७१। पुडी पडवीस, मनुवा तह पंच - वन - वह - गुग। मन्त्राप - विगय - लामा, 'संतुहा होवि संपन्ना ।।१५६८।। प्र:-इस समय पृष्ठभागको हडियो बीबीस होती है तथा मनुष्य पांच वर्षवाले शारीरसे युक्त; मर्यादा, विनय एवं लज्जा सहित; सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं ||१ || १.प.स.क.अ.पन. सरण। २...ब.क.काला तम्मता, प. काम सम्मता।.... .... .चा 1 क.
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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