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कार्यक
गाया: ६१५- ६१९ /
चउरबो महाद्दियारो
[ १७७
:- शान्तिनाथ, कुनाथ वासुपूज्य, सुपतिनाथ एवं पद्मप्रभु ये पाँच ( तोयंकर ) तया सुताविक (सुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ पावनाय एवं वर्धमान ) पांच, इस प्रकार कुल दस तीर्थकर अपने पूर्व ( पिछले जन्मोंके स्मरासे वैराग्यको प्राप्त हुए ।।६१४ ॥
श्री
अजिय-नि-पुप्फवंता, अणंतरेओ य धम्म-सामो-य ।
बट्टू उबकपडणं, संसार सरीर भोग- निम्बिन् ॥ ६१५ ॥
:- अजित जिम, पुष्पदन्त अनन्तदेव और धर्मनाथ स्वामी ( ये चार तीर्थकर ) उल्कापात देखकर संसार शरीर एवं भोमोंसे विरक्त हुए ।।६९५ ।।
अर-संभव- विमल- जिना, अम्भ-विणासेण नाव- देखना । सेयंस- मुपास-जिणा, वसंत- बणलासेण ।।६१६ ।।
अर्थ :- अरनाथ, सम्भवनाथ और विमल जिनेन्द्र मेघ विनाशसे; तथा भगवान् श्रेयोस मौर सुपाद जिनेन्द्र वसन्तकालीन वन-लक्ष्मीका विनाश देखकर वैराग्यको प्राप्त हुए ।। ६१६ ।।
वप्पह-मल्लि जिना, अदभुत-पट्टवीहि जाय- बेरच्या ।
सीमलओ हिम-णासे, उसहो नीलंबनाए मरणाची ।।६१७।।
अर्थ :- न्द्रप्रभ और पत्नि जिनेन्द्र अधू व (बिजली) आदिसे शीतलनाथ हिम-नाम से और ऋषभदेव नीलाञ्जनाके मरणसे वैराग्यको प्राप्त हुए ।।६१७।।
गंघव्य-नयर णासे,
वणवेषो बि जाव-रगो । इप बाहिर हेदूहि जिणा विरागेण जितंति ।।६१८ ||
:- अभिनन्दन स्वामी गन्धवं नगरका नाज़ देख विरक्त हुए। इस प्रकार इन बाह्य हेतुमसे विरक्त होकर वे तीर्थंकर चिन्तवन करते हैं ।।६१
ऋषभादि चौबीस तीर्थकरों द्वारा चिन्तन की हुई वैराग्य भावना के अन्तर्गत नरकगतिके दुःख
गिरए मिसोर, गिमेश्मे तुम्लाद्द* वारुणाई,
१. मैमि । २.व.का
पिणारयान सदा । पत्रचमानानं ।। ६१६ ॥
'वट्टले
३. द. बहुते ।