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तिलोयपण्णत्तो
[ गाषा : ०१-४.४ पर्व:-मुषमा कालके प्रारम्भमें मनुष्यों के शरीरका उत्सेध बार हार (४०..) अनुक, आयु दो पस्य प्रमाण मोर प्रभा (शरीरकी कान्ति ) पूर्णचन्द्र सदृश होती है 1॥४००॥
पृष्ठभागकी हड्डियोंका प्रमागअट्ठावीसत्तर • सममट्ठी पुट्ठीए होति एरान। अन्धर-सरिसा इस्वी तास-सरिया
TES प्र :-इनके पृष्ठभागमें एकसो अट्ठाईस हडिग्यो होती है। ( उस समय ) स्त्रियों अप्सराओं सवा मोर पुरुष देवों सदृश होते हैं ।।४०१।।
संस्थान एवं प्राहारतस्सि काले मणुषा, अबह-फल-सरिसममिवमाहार'।
चंति छटु • भने, समचउरस्संग - संठागा ॥४.२॥
सर्व :-उस कालमें, मनुष्य समचतुरन-संस्थानसे युक्त होते हुए पष्ठभक्त ( तीसरे दिन) अक्ष { बहेड़ा ) फन बराबर अमृतमय माहार करते हैं ।।४०२॥
. उत्पन्न होने के बाद वृद्धिकमतस्सिं संबादाम, सपनोवरि वासयान सुत्ता।
गिय - अंगुट्ठिय - लिहणे, पंच परिणागि पबति ।।४०३॥
भ:-उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपना अंगूठा चूसनेमें पांच दिन व्यतीत होते हैं ।।४०३।।
बहसग-अस्विरभामणे, पिर-ममण-कला-गुणेज पत्ते । "तपणेगे सम्मत्त - गहण-जोग्ण अंति' रंच - विणा 11४०४।।
:-पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्विरगमन, कलागुण प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्रव ग्रहणकी योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्रेक अवस्थामें उन बालकोंके पांच-पार दिन जाते है ॥४०४॥
१.प. उ, सरिसा। २. ५. मविदमाहार। इ. इ. म. विनी हो । ४... विसानेर स, क. उ. दिवाणेव पहचति । प, पिणाशि परपति। ५.. तलोणं, क. के उ. साक्षणेस । १.८.२.क. ब. स. मोग-युक्ति ।