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तिलोयपण्णाप्ती [ गाथा : १३६२-१३६६ पर्ष:-इसके पश्चात् पूर्वाभिमुख होते हुए हिमवान् पर्वत-सम्बन्धी वनके मेवी-मार्गसे हिमवान कूटके समीप तक अपकर हे वर्ती भएदे नामसे संसिल नापाक हरा देव दिवान फूटपर स्थित हिमवान नामक ध्यन्सर देवको सिद्ध करते हैं 1११३६०-१३६१॥
वृषभगिरिपर प्रशस्ति लिखकर गङ्गादेवीको वश करना-- अह दक्षिण - भाएणं, बसहगिरि जार ताव वमसि ।
तरिगार - तोरषदारं, पविसते गियराम • सिहरा ॥१३६२।।
म :-अनम्तर चक्रवर्ती दक्षिणभागसे वषगिरि-पर्यन्त जापार अपना नाम जिसने के लिए उस पवंसके तोरणद्वारमें प्रवेश करते हैं ।।१३६२।।
बह - विजय - पसस्थीहि, गय-पाको मिरंतरं भरिद ।
पसह • गिरिरो सम्ने, पवाहिएं 'बिलोवति ॥१३६३॥
प्रर्ष:-वहां जाकर वे गत चऋतियोंकी बहुतसी ( अनेकों विजय-प्रशस्तियोंसे निरन्तर भरे हुए धगिरिको प्रदक्षिणा देते हुए देखते हैं ॥१३६३||
णिय-गाम लिहणाण', सिल - मे पम्बए' अपाता।
गसिव - विजयाभिमागा, चम्की चिताए छति ॥१३६४।।
अर्ष:-अपना नाम लिखने के लिए पर्वत पर तिल-मात्र भो स्थान न पाकर चक्रवर्ती विजयामिमानसे रहित होकर चिन्तायुक्त छड़े रह जाते हैं ।।१३६॥
मंतीचं अमरावं, उबरोष - वसेज पुल - पक्कीगं । नामानि एक • ठाने, निम्णानिय स - स्यगंग ।।१३६क्षा लिहिवनं जिय - गाम, ततो गंतूण उत्तर - मुहेण ।
पाविय गंगा • कूड, गंगादेवी कुगंति बसं ।।१३६६।।
वर्ष :--तन मन्त्रियों मौर देवतामोंके आग्रहवश एक स्थानपर पूर्व चक्रवतियों के नाम दण्डरस्मसे न करके और वपना नाम लिखकर वह से उसरफी ओर जासे हुए गङ्गाफटको पाफर गङ्गादेवीको वशमें करते हैं ।।१३६५-१३६६।।
----..- -- - - . . ... ब. क. प. उ. पुरोति । २ २.. क. ब. स. उ. मिहलाएं। ३ व. प. म. ज.प. न.
पुमएं।