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तिलोयपणाती
[ गाथा : ६३८-६४२ मपं:-कामसे परिपूर्ण पुरुष तीन लोकमें श्रेष्ठ श्रुव-लाभको को छोड़ देता है और अनन्त संसारको उत्पन्न करनेवाले प्रचुर असंयमको ( ग्रहण करता है ।।६३७॥
'उच्चो घोरो पौरो, बदमामीओ वि विसय-मुख-मई।
सेवि विधं गिच्छ, सहदि हि बडग' पि अवमागं ।।६३८॥
पर्ष :- उच्च, भोर, बीर और बहुत माननीय मनुष्य भी विषयोंमें लुग्ध युधि होकर नोचसे नीचका भी सेवन करता है और अनेक प्रकारकै अपमान सहता है ।।६३८।।
तुम्खं दुम्बास-बहुलं, इह लोगे युगगरि पि परलोगे।
हिदि दूरमपारे, . संसारे बिसय-सब-मई ॥६३६।। म :..श्री विसावत्र
प्र:-विषयों में मासक्त बुद्धिवाला पुरुष इस लोकमें प्रचुर अपकीति युक्त दुःखको सका परसोकरें दुर्गतिको प्राप्त कर अपार संसारमें बहुत काल तक परिभ्रमण करता है ।।६।।
विसयामिहि 'पुष्णो, पणंत-सोलाण हेतु सम्मतं । सम्बारिश महावि, तब लज्ज च मजा ।।६४०॥
:- विषय-भोगोंसे परिपूर्ण पुरुष अनन्तसुखके कारणभूत सम्यक्स्व. सम्पमारित्र तथा लज्जा और मर्यादाको तृण सहन छोड़ देता है ।।६४० ।।
सौर उन्हं तम्हं. छुपं प गुस्सेज-भात-पंच-समं ।
सुकमालको वि कामी, सहदि वहरि भारमवि-गुरुगं ।।६४१॥
प्रमं :-सुकुमार भी फामी पुरुष छीत. उष्ण, तृषा. क्षुधा, दुष्टशय्या, सोटा पाहार पोर मार्गषमको सहता है तथा भायन्त भारी बोझ ढोता है ॥६४१।।
अपि धरयो जीवाणं, मेहुण-समाए होरि महगाणं । तिल-'णालीए 'तत्तायस-प्पवेतो म जोगाए ॥४२॥
१. प. य. स. सम्मा। २.८. क. प. म. ३. का।।... क. च, य.व, बहुवाणि । ४.स. क. व. पुषो। ५... ब. स. आरिह। ६.व.ज. य. सालोए, .. क. चकासोए। .... .प. उ. बत्तय । .....क.ब. स. न. पाणीए ।