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गाषा: १५८१-१९८५ ] पउत्यो महाहियारो
[ ४५३ तत्तो पमिर-पयोग, ममिर परिसंति सस विवसानि ।
पमिदेणं' सित्ताए, महिए जाति 'पस्सि - गुम्माये ॥१५८१।।
अ :-इसके पश्चात् सात दिन पर्यन्त अमृतमेघ अमृतको वर्षा करते हैं। इसप्रकार अमृतसे अभिषिक्त भूमि पर मता एवं गुस्म आदि जगने लगते हैं 1.85 WEEEEEE
ताहे रस • जलवाहा, बिम्ब-रसं परिसंति सत्त-विधे।
दिबरसेगाउपणा, रसबंता होति ते सव्ने ।११५८२।।
प:-उस समय रम-मेघ सात दिन पर्मन्त दिव्य-रसको वर्षा करते है । इस दिव्य-रससे परिपूर्ण वे सब ( लता-मुल्म आदि ) रमवाले हो जाते हैं ।।१५५२॥
सष्टि रचनाका प्रारम्भ-- विविड रसोसहि-मरिया, समी सरसार-परिणवा होवि । ततो खोयल-गंध, गाविता णिस्तरंसि पर - तिरिया ।।१५८३॥
प:-विविध रसपूर्ण औषधियोंसे परो हुई भूमि मुस्वाद रूप परिणत हो जाती है। पश्चात् शीतल गन्धको महणकर वे मनुष्य मौर तिर्यम्ब गुफापोंसे बाहर निकल पाते हैं ।।१५८३।।
उस कासका रहन-सहन एवं आहारफल-मुस-वल-पहावि, हिरा हादति मत्त - पहावीणं ।
गगा गो - धम्मपरा, गर - सिरिया मन - पएसेसु ।।१५।।
अब उस समय स्त्री, मनुष्य मोर तिपंच नग्न रहकर पशुषों जैसा पावरया करते हुए बुषित होकर बन-प्रदेशों में मप्त ( धतूरे ) अादि वृक्षोंके फल, मूल एवं पत्त आदि खाते हैं ।।१५८४||
आयु आदिकका प्रमाण एवं उनकी वृद्धितकाल-पाम - भागे, आऊ पणरस सोलस समा बा।
उन्हो इगि - हस्पं, वसते मार • पदोरिण ॥१५८५।।
म।उस कालके प्रथम भागमें आयु पन्द्रह अथका सोलह-वर्ष पौर ऊंचाई एक हाथ प्रमाण होती है । इसके आगे मायु प्रादि बढ़ती ही जाती है ।।१५८५।।
उ. वसि।
३......... गावित।
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...य. अमिदोणं । २. प.न, मिदं ।