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________________ m. ] तिलोयपगाती [ गापा: १४४-१५५१ कल्को द्वारा मुनिराजसे शुल्क प्रहण, उन्हें पवधिनामकी प्राप्ति एवं संघको कासावसानका संकेत-- सोबूण मंति - पयन, भणेवि काको अहिंसबरधारी । कहि' सो बर्वाद पायो, अप्पं मोहनदि सम्बभंगीहि ॥१५४७।। सं तस्स मग्ग • मिर, समकं गेहेह भाप - धाविस्त । यह बाचिम्हि पिडे, गाणं मुणियरो तुरि ॥१४॥ कारणमंतराय, गच्छद पावेवि मोहिणाणं पि । हरकारिप अग्गिलपं, पंसिरी - विरवि - सम्बसिरी' ||१५४६।। भासा पसन्न-हिबमो, गुस्सम • कालस्स बारमबसाणं । तुम्हम्ह ति - विषमाक, एसो प्रबसाग - कपको हु॥१५५०।। :-इस प्रकार मन्त्रीके वचन सुनकर वह कस्की कहता है कि-सब प्रकारसे जो अपनी बामाका बात करता है ऐसा वह महिंसाइतषारी पापी कहा जाता है ? मोकहो मोर उस पारमपाती मुनिका प्रथम पिण्ड शुल्क रूपमें ग्रहण करो । तत्पश्चात् ( कस्कीकी बाजानुसार ) प्रथम पिण्ड ( पास ) मांगे जानेपर मुनीन्द्र तुरन्त प्रास देकर एवं अन्तराय करकं पापिस चले जाते है तथा प्रवधिजान भी प्राप्त कर लेते है । उस समय वे मुनीन्द्र अग्निल श्रावक, पंगुली धाविका और सर्वत्रों सायिकाको दुलाकर प्रसन्नचित्त होते हुए कहते है कि अब दुःषमाकालका अन्त आचुका है. हमारी और तुम्हारी प्रायु मात्र तीन दिनको अवरोष है और यह अन्तिम काकी है ।।१५४-१५५०।। अन्तिम चतुर्विध संघका सन्यास ग्रहण एवं समाधिमरणसाहे पत्तारि बणा, बउबिह • माहार - संग - पहबोनं । जावली इंग्यि, सन्मासं करंति' भत्तीए ।।१५५१।। मर्ष:-तब वे पारों ( मुनि, प्रायिका, श्रावक, भाविका ) जन पारों प्रकारके माहार भोर परिग्रहादिको जीवन भर के लिए छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लेते हैं ॥१५११ १.व. ब. य. कह सो नागरि, स. उ. का मो मदि। २... ब. स. पावणवि ....... ज. प. उ.मेच्छेन । ४. ८.म.क. ज. प. उ. मम्मसिटीहि । ... समाधि। .....क. ब, इ.स. करताए।
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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