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________________ १३८ ] तिनोणती कल्पवृक्ष, मानस्तम्भ एवं जिन भवन आदिका वन तोए पुरदो रसविह कप्पतरू ते समंतदो होंति । विण भवनेषु तिहूवन विम्य अहहह ।।१६५२ ।। : - इसके आगे जिन भवनों में चारों ओर तीनों लोकोंको भारच उत्पन्न करनेवाले स्वरूपसे संयुक्त के इस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं ।। १९५२ ।। गोमेदयमय खंभा, कंचरमय - कुसुम-जियर रमणिया । मरगयमय-पस धरा, विदुम-वेलिय-पम राय-फला ।। १६५३ ।। + - - - सम् अमाइमा मूलेसु घउ दिसासु वारि निणिद पडिमा ।। १९५४ ।। - - अर्थ :- सभी कल्पवृक्ष गोमेदमणिमय स्कन्धसे युक्त, स्वर्णमय कुसुम- समूह से रमणीय, मरकतमणिमय पत्तोंको धारण करनेवाले, मूंगा, नीलमरिण एवं पद्मरागमणिमय फलोंसे संयुक्त अकृत्रिम और अनादि निधन हैं। इनके मूल में चारों ओर चार-चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं ।। १६५३ - १६४४ ॥ [ गाया । १९५२ - १६५७ तरफ लिए वो हि मक्के, वेवलियमयाणि माणभाणि । वीहि पछि पत्तेयं, विविश स्वाणि रेहति ।। १६५५ ।। धर्म: :- उन स्फटिकमणिमय वीथियों के मध्य मेंसे प्रत्येक वौषीके प्रति मदभुत रूपवाले वैदूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित है ।।१६५५ ।। चामर-घंटा किंकिणि केतन पहदीहि उवरि संता । सोहति भाखत्रा, जर वेडी बार तोरचेहि बुदा ।। १२५६ ।। अर्थ :- चार वेदीद्वारों और तोरणोंसे मुक्त ये मामस्तम्भ ऊपर वैवर, घण्टा किंकिणो और षणा इत्यादि संयुक्त होते हुए गोभायमान होते हैं ।। १६५६ ।। - - - - - ताणं मुझे उदरि, निर्भिद पडिमा चउदिशं तेसु । वर - रयन निम्निवाओ, जयंतु अय-बुजिद-वाओं ॥१६६५७॥ अर्थ :- इन मानस्तम्भों के नीचे और ऊपर चारों दिशाओं में विराजमान उत्तम रस्नोसे निर्मित और जनसे कीर्तित चरित्रसे संयुक्त जिनेन्द्र प्रतिमाएँ जयवन्त हों ।। १६७ १. ६. प. पापण पहारा, करु. व. बाजार
SR No.090505
Book TitleTiloypannatti Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages866
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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