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तिलोपपत्ती
[ गाथा : १३७२-१३७७
- उस वेदोके द्वारसे उसकी उपवन भूमियोंमें लीला मात्रसे प्रवेश करके समस्त संध्य दक्षिणामुखसे निकलता है ।। १३७२ ।।
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गिरि-तड-बेबी-वारं गपि गुह-वार- रमण सोवानं ।
प्रायि सवंग बलं, याविन उभय तीरे ॥१३७३॥ आर्यदर्शक अपने श्री सुि
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अर्थ :---तत्पश्चात् पर्वतकी तट-वेदीके द्वार तक जाकर और फिर गुफाहारके रनसोपानों पर चढ़कर वह पडस बल (सेना ) नदीके दोनों तीरों परसे जाता है ।। १३७३ ।।
तगिरि-वारं पवित्रिय, दो तीरेषु चईए उभयन्तरे ।
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वत्वविदो हो जोयण मेले 'क्त तीर बोहीणं ॥ १३७४ ।।
- उस पर्वतके द्वारमेंसे प्रवेश कर वह सैन्य तवीके दोनों ओर वो वीरोंपर दो-दो योजन विस्तारवाली तट-वोथियों परसे जाता है ॥१३७४ ॥
पुष्यं व गुहा मक्के, गंतुमं निक्कलि संग बसं गंगा व
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वक्तिणेन वारेन । मक्झमाणावि ।। १३७५॥
अर्थ :- पूर्वके सदृश ही ( खण्डप्रपात ) गुफा के बीचसे बाहर और दक्षिण-द्वारमे निकलकर वह घडङ्ग कल गङ्गावनके मध्य में आ पहुँचता है ।।१३७५ ।।
अन्तिम लेख पर विजय एवं नगर प्रवेश
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इ-वण- देवी दारे, गंतूर्ण गिरि वणस्स मम्मि । चेते
चक्करा, अंधावारेग परिवरिया || १३७६ ॥
अर्थ :- इसके पश्चात् संन्यरो परिवारित चक्रवर्ती नदीको वन-वेदीके द्वारमेंसे जाकर पर्वत सम्बन्धी बनके मध्य में ठहर जाते हैं ।। १३७६ ।।
अन्नाए चक्की, सेणवई पुरुष गुम्मासह साहित्य
संघावारं
[स] २.५. प. क्र. ज. य. न. पंतावरण ।
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समस्लियवि ।। १३७७।।