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८० ] तिलोयपणतो
[ गापा : २५-२६१ प:-वृषभगिरोन्द्र के शिखर पर पार तोरणों सहित. पुष्करिणियों, वावड़ियों एवं कूपोंसे परिपूर्ण; बज, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन और पपराग परिणविशेषोंसे निर्मित विविध रबमाओसे मनोहर आकृतिको धारण करने वाले मौर देदीप्यमान रत्न-दीपकोंसे युक्त उसम भवन है तया उत्तम रनों एवं स्वर्णसे निमित विविध सुन्दर माकारोंबाले जिनमवन स्थित है। इनका (अन्य) सर वर्णन पूर्व परिणत प्रासादों एवं जिनभवनोंके सदृश है ॥२७५-२७७।।
गिरि - उरिम - पासावे, बसही नामेण घेतरो देवो। बिबिह-परिवार-साहितो, उपसुपरि विषिह-सोसाई ॥२७॥
वृषभेनाको स्तर इस पलक परिमानों अपने विविध परिवार सहित अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग करता है ।।२।।
एक - पलिरोबमाक,- पस-बाव-पमागह-जयहो । पिपुल्यो' 'बीहजो, एसो सम्बंग • सोहिल्लो ॥२७६।।
। एबं गई। प:-यह देव एक पल्योएम प्रायु सहित, पस धनुष प्रमाण शरीर की ऊंचाई वाला है। विस्तृत-वक्षःस्पल और लम्बी भुजानोवाला यह देव सर्वाङ्ग सुन्दर है ।।२७६।
। छह मण्डों का वर्णन समाप्त हुमा ।
कालका स्वरूप एवं उसके भेट तस्सि मज्जा - रे, नाना - मेहि संतुदो कालो।
पट्टा तस्स सहय, बोदामो मागपुग्नीए ॥२०॥
वर्ष :-उस प्रायंचाहमें नाना भेदोंसे संयुक्त कालका प्रवर्तन होता है, उसके स्वस्पको मनुक्रमसे कहता है ॥२८०
फास-रस-गंभ-सम्मेहि' विरहितो अगुस्सा-पुन तो। बहस - लस्थान - कलियं, काल - सकर्ष मे होरि ॥२१॥
१. . रघुगंको, २. क. स. गहमंधी, प... धुनो। २, ... २.प.ब.क... सम्सोबादि ।
. प. उ. विसंबो।