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तिलोषपण्णसी
[गाया : १३७ :-देवोंके हाथों से मुलाये ( कोरे ) गो मृशाम, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शङ्ख सदृश सफेद चौसठ चामरोंसे वीज्यमान जिनेन्द्र भगवान् जयवन्त होवे ।।९३६।।
। आठ महाप्रातिहार्योका कथन समाप्त हुआ।
गोमठसमर
दुनि
सपा
-हो
नमस्कार
चउतीसतिसप - संबुद्ध'- अट्ट महापारिहेर - संजु । मोक्लयरे तिस्पयरे. तिषण - गाहे णमंसामि ॥१७॥
अर्थ:-जो चाँतीस अतिशयोंको प्राप्त है, पाठ महापातिहायोंसे संयुक्त है, मोक्षको करने वाले ( मोक्षमार्गके नेता ) मोर तीनों लोकोंके स्वामी है ऐसे तीपंकरोंको मैं नमस्कार करता हूँ 1॥१३७॥
१.व.२.क., व.र. मेरे।