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गाना ! ९३२-१३६ ] पउत्यो महाहियारो
[ २८३ भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित प्रातिहार्यजिभर-भति-पसत्ता, मंजलि-हत्या पल्ल-मूह-कमसा ।
पेटुति गणा सम्बे, एकेक वेदिकन' विगं ।।६३२॥
मर्ष : गाढ़ मक्तिमें प्रासक्त हाप जोदे हुए एवं विकसित मुख कमलसे संयुक्त सम्पूर्ण ( बाग ) गण प्रत्येक तीर्थकर को घेर कर ( बारह सभागों में ) स्थित रहते हैं ॥६३२।।
"दुन्दुभिवाद्य प्रातिहार्यविप्तम कसायाससा, 'हब-मोहा परिस जिणपटू सरक।
कहिवु या भग्वानं, गहिरं सुर - धुंदुही सरइ ।।६३३३॥
प्रर्ष :-"विषय-कषायोंमें यासक्त हे जीवों) मोहसे रहित होकर जिनेन्द्र प्रमुको शरणमें जामो," मध्य जीवोंको ऐसा कहने के लिए ही मानो देवोंफा दुन्दुभो बाना गम्भीर शम्द करता है।।९३२।।
पुष्पवृष्टि प्रासिहाम्-- झण-झन-झगत-पय-छण्णा परति मरिव-सुरमुक्का।
गिववि कुसुम - चिट्ठी, जिनिय - पय-कमल • मूले ॥३४॥
म :--मन-मन शन्द करते हुए अमरोंसे ज्याप्त एवं उत्तम भक्तिले युक्त देवों द्वारा छोड़ी इई पुष्पवृष्टि भगवान जिनेम्के वरण-कमलोंके मूलमें गिरतो है ॥९३४॥
प्रभामण्डल प्रातिहार्य - भव-सग-सण-
हे ररिसम - मेतक सयल • सोयरस । भामंश्लं जिणाणं, रवि-कोटि - समुज्जले बयइ ।।९३५॥
पर्य :--जो बर्शन-मावसे ही सब लोगोंको अपने-अपने सात भव देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्योके सरपा उज्ज्वल है तीर्थंकरोंका ऐसा वह प्रभामण्डल जयवन्त होता है ॥९३५।।
उमर प्रातिहायबउटि • चामरेहि, मुणाल - कुवेंदु - संस-पवलेहि । सुर •कर - पलव्यिहिं विजिग्नता जयंतु मिणा ।।६३६॥
। अट्ठ महाबिहेरा समता । १. इ. पेदिकण। २. .. उ, मोहो हद । .. क. ज. स. मोडी पाह।