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तिलोयपत्ती
वैताच वेग एवं विद्याधरों पर विजय
सत्तो गुम्बाहिमुहा पीबोववगस्स बार सोकानं ।
चडिगं वण मज्ने, वसंत उनसहि सीमं ।। १३३० ।।
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:- - वहाँसे पूर्वाभिमुख होकर ट्रोपोपवनके द्वारकी सीढ़ियोंपर चढ़कर उनके मध्य मेंसे उपसमुद्री सीमा तक जाते हैं ।। १३३० ।।
तप्पणिधिदेवि-दारे, पंसंग-बलानि तानि निस्सरिया । सरितीरेण चलंते, वेपतगिरिस जाव वरण- वेबि १११३३१॥
:- समुद्र के समीप
बेदिका तक नदी किनारे-किनारे जाते हैं ।। १३३३ ।।
ततो सम्म देवि जनिं बंति पुष्य विभाए । गिरिमझिम- कूट-यनिधिम्मि
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[ गाथा १३३० - १३३५
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म :- फिर इसके आगे उस बन वेदीका आश्रय करके पूर्व दिशाने उस पर्वतके मध्यमकटके समीप बेदी द्वारपर्यन्त जाते हैं ।। १३३२ ।।
तहारेवं पविलिय, वन पक्के बंति उत्तराहिमुहा ।
रजवाचलय, पाविय सीए वि भेटूति ॥१३१३।।
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हैं और विजयार्धके तरकी वे पाकर वहीं पर ठहर जाते हैं ।। १३३३ ।।
बेदि-वार-परियं ।। १३३२ ।।
प :- पश्चात् उस बेदी द्वारसे प्रविष्ट होकर वनके मध्यमेसे उत्तरकी बोर गमन करते
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गिरिको वन
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तारे' लग्गिरिमझिम कूडे पेय
बॅतरो नाम ।
प्रागंग भय बियलो, पर्णामय चक्कीण पइसरइ ।। १३३४ ।।
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अर्थ :- उस समय विजयागिरिके मध्यम कूटपर रहने वाला वैताच नामक व्यन्तरदेव पागन्तुक मयसे विकल होता हुआ प्रणाम करके कतियोंकी सेवा करता है ।। १३३४६| गरिबक्णि भागे, संख्यि-पन्नास-नयर-सपरगणा । सहय आगच्छंते, पुब्विल्लय तोरन द्वारा ।। १३३५।।
१. द. व.क. न. प. उ.