Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22-10 श्री फतह-प्रताप गुरुदेव स्मृति पुटपः आगम-अनुयोग प्रन्थ माला पुष्प : ४ च र णानु योग [ प्रथम खण्ड ] [ जैन आगमों में आचारधर्म-विषयक सामग्री का प्रामाणिक संकलन | प्रधान-सम्पादक अनुयोग प्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल जी "कमल" संयोजक ____ श्री विनयमुनिजी "वागीश" सम्पादिका महासती श्री मुक्तिप्रभाजी महासती श्री दिव्यत्रभाजी एम. ए. पी-एच. डी. एम. ए. पी-एच. डी. सह सम्पादिका महासती श्री अनुपमाजी महासतो श्री भव्यसाधनाजी महासती श्री विरतिसाधनाजी एम. ए. बी.ए. प्रधान परामर्शक पंडित श्री बलसुखभाई मालवणिया प्रकाशक आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद-३८००१३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशककेबोल भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य सूत्र है-आचार : प्रथमो स्थानकवासी जैनसमाज की प्रख्यात विदुषी स्व०महासती धर्म :-आचार प्रथम धर्म है । जैन परम्परा में "आयारो उज्ज्वल कुमारी जी की सुशिष्या महासती श्री मुक्तिप्रभा पदमो अंगो' आचार प्रथम अंग है-अंग का अर्थ धर्म- जी, महासती श्री दिव्यप्रभा जी तथा उनकी श्र ताशास्त्र तो है ही, किन्तु व्यापक अर्थ लेवें तो सीमानाशी शिताओं की सेवायें इस कार्य में समर्पित हैका मुख्य अंग भी है। भारतीय आगमों में मानवता का यह हम सब का अहोभाग्य है। जितना महत्व कहा है उससे भी कहीं अधिक महत्त्व जैन दर्शन के विख्यात विद्वान श्री दलसूखभाई मालसाधक जीवन में आचार धर्म का कहा है।। बणिया भारतीय प्राच्य विद्याओं के प्रतिनिधि विद्वान है, प्राचीन जैन परम्परा में "आचार" के लिए "चरण" उनका आत्मीय सहयोग अनूयोग सम्पादन कार्य में प्रारम्भ शब्द का प्रयोग होता था। चरण याने चरित्र । मनुष्य से ही रहा है। उन्होंने अत्यधिक उदारता व निःस्वार्थ के आचार धर्म की मर्यादा, संयम-साधना का व्यवस्थित भावना से इस कार्य में मार्गदर्शन किया, सहयोग दिया, मार्ग-चरण हैं। समय-समय पर अपना मूल्यवान परामर्श भी दियाजैन श्रत ज्ञान-शास्त्रों को चार अनुयोगों में विभक्त अतः उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा किया गया है—१. चरणानुयोग २. धर्म कथानुयोग ३. कर्तव्य है। गणितानुयोग एवं ४. द्रव्यानुयोग। इनमें धर्म वथानुयोग दुरुह आगम कार्य को प्रेस की दृष्टि से ०.बस्थित तथा गणितानुयोग का प्रकाशन हम कर चुके हैं। चरणा- कर सुन्दर शुद्ध मुद्रण के लिए जैन दर्शन के अनुभवी नुयोग और द्रव्यानुयोग दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशाल विद्वान श्रीचन्द जी सुराना के म आभारी हैं जिन्होंने ग्रन्थ है। चरणानुयोग ग्रन्थ बहुत बड़ा होगा इसलिये पूर्व दोनों अनुयोगों की भांति इस ग्रन्थ के मुद्रण में भी इसे पाठकों की सुविधा के लिये दो भागों में प्रकाशित पूर्ण सद्भावना के साथ सहयोग किया है। किया जा रहा है। ट्रस्ट के सहयोगी सदस्य मण्डल के भी हम आभारी द्वितीय भाग भी पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है, और हैं जिनके आर्थिक अनुदान से इतना विशाल व्यय साध्य द्रव्यानुयोग का सम्पादन भी पूज्य गुरुदेव श्री कन्हैयालाल कार्य हम सम्पन्न करने में समर्थ हुए हैं। जी महाराज "कमल" सम्पन्न करवा रहे हैं। हमारे ट्रस्ट के मन्त्री अनुभबी एवं सेवाभावी थी चरणानुयोग ग्रन्थ राज पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हिम्मतभाई शागलदास शाह अब काफी वृद्ध हो गये हैं, वारते हुए हमें अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है, साथ ही हम फिर भी वे समय-समय पर अपने अनुभव आदि का लाभ अपने लक्ष्य को अन्च बहुत शीघ्र सम्पन्न कर सकेंगे इसका दे रहे हैं। हमारे कार्यकुशल सहयोगी थी जयन्ती भाई विश्वास पाठकों को दिलाते हैं। चन्दुलाल संघवी एवं अन्य सभी सहयोगी जनों का स्मरण अनुयोग सम्पादन-प्रकाशन कार्य हेतु गुरुदेव श्री कर हम शासनदेव से प्रार्थना करते हैं यह थत ज्ञान कन्हैयालालजी म. "कमल" ने अपना सम्पूर्ण जीवन की अमर ज्योति सबके जीवन को प्रकाणमय करें। समर्पित कर दिया है। ऐसे जीवन दानी श्रत उपासक सम्पादित सामग्री की प्रेस कोपी करने का विशाल सन्त के प्रति आभार व्यक्त करना मात्र एक औपचारि- कार्य श्री राजेन्द्र मेहता माहपुर वाले श्री राजेश भण्डारी कता होगी. आने वाली पीढ़ियाँ युग-युग तक उनका उप- जोधपुर वाले ने तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने श्रद्धा भक्ति कार स्मरण कर श्रत का बहुमान करेंगी यही उनके प्रति एवं विवेकपूर्वक किया है इसलिए ट्रस्ट की ओर से उनका सच्ची कृतज्ञता होगी। इसी के साथ गुरुदेव श्री के परम हम हादिक अभिनन्दन करते हैं। सेवाभावी कार्य दक्ष श्री दिनय मनि जी "वागीश" एवं विनीतबलदेव भाई डोसाभाई पटेल अध्यक्ष Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय -मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' "चरण" प्रवृत्ति एवं पूरुषार्थ का प्रतीक है। "चरण" २-धर्मकथानुयोग-उपदेशप्रद कथा एवं दृष्टान्त में मर्यादा एवं सम्यक विवेक का योग होने पर वह आचरण सम्बन्धी आगम (आङ --मर्यादा) कहलाता है । आचरण अर्थात् 3-गणितानुयोग-चन्द्र-सूर्य-अन्तरिक्ष विज्ञान तथा आचार-धर्म । भू ज्ञान के गणित विषयक आगम चरणानुयोग का अर्थ होता है आचार धर्म सम्बन्धी ४-द्रव्यानुयोग-जीव, अजीव आदि नब तत्वों की नियमावली, मर्यादा आदि की व्याख्या एवं संग्रह। व्याख्या करने वाले आगम । प्रस्तुत चरणानुयोग ग्रन्थ अपनी इसी अभिधा में . | अभिधा में अनुयोग वर्गीकरण के लाभ सार्थक है। यद्यपि अनुयोग वर्गीकरण पद्धति आगमों के उत्तरजैन साहित्य में "अनुयोग" के दो रूप मिलते हैं। कालीन चिन्तक आचार्यों की देन है, किन्तु यह आगम १. अनुयोग-व्याख्या पाठी, थ ताभ्यासी मुमुक्षु के लिए बहुत उपयोगी है। २. अनुयोग वर्गीकरण आज के युग में तो इस पद्धति की अत्यधिक उपयोकिसी भी पद आदि की व्याख्या करने, उसका हार्द गिता है। समझने समझाने के लिये १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगमविणाल आगम साहित्य का अध्ययन कर पाना और ४. नय-इन चार शैलियों का आश्रय लिया जाता है। सामान्य व्यक्ति के लिये बहुत कटिन है। इसलिए जब अनुयोजनमनुयोग:-(अणुजोअणमणुओगो) सूत्र का अर्थ जिस विषय का अनुसन्धान करना हो, तब तविषयक के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसकी उपयुक्त व्याख्या करना आगम पाठ का अनुशीलन करके जिज्ञासा का समाधान इसका नाम है-अनुयोग व्याख्या (जम्बू० वृत्ति) करना-यह तभी सम्भव है, जब अनुयोग पद्धति से अनुयोग-वर्गीकरण का अर्थ है-अभिधेय (विषय) की सम्पादित आगमों का शुद्ध संस्करण उपलब्ध हो। दृष्टि से शास्त्रों का वर्गीकरण करना। जैसे अमुक-अमुक अनुयोग पद्धति से आगमों का स्वाध्याय करने पर आगम,अमुक अध्ययन, अमुक गाथा-अमुक विषय की है। . अनेक जटिल विषय स्वयं समाहित हो जाते हैं, जैसेइस प्रकार विषय-वस्तु की दृष्टि से वर्गीकरण करके आगमों १. आगमों को किस प्रकार विस्तार हुया है यह का गम्भीर अर्थ समझने की शैली-अनुयोग वर्गीकरण पद्धति है। स्पष्ट हो जाता है। २. कौन-सा पाठ आगम संकलन काल के पश्चात् प्राचीन आचार्यों ने आगमों के गम्भीर अर्थ को सर- प्रविष्ट हआ है? लता पूर्वक समझाने के लिये आगमों का चार अनुयोगों . आगम पाठों में आगम लेखन से पूर्व तथा पश्चात् में वर्गीकरण किया है। वाचना भेद के कारण तथा देश-काल के व्यवधान के १-चरणानुयोग-आचार सम्बन्धी आगम कारण लिपिक काल में क्या अन्तर पड़ा है? Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कौन-सा आगम पाठ स्व-मत का है, कौन-सा जी म० ने मुझ पर अनुग्रह करके व्याकरणाचार्य श्रीमहेन्द्र परमन की मान्यता वाला है ? नथा भ्रान्तिवश परमत ऋषि जी म० कोथत-सेवा में सहयोग करने के लिये मान्यता वाला कौन-सा पाठ आगम में संकलित हो भेजा था अतः मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। गया है। सम्पादकीय-सहयोग :इस प्रकार के अनेक प्रश्नों के समाधान इस शैली से सौभाग्य से इस श्रमसाध्य महाकार्य में थी तिलोक प्राप्त हो जाते हैं जिनका आधुनिक शोध छात्रों/प्राच्य छात्रामाण्य मनिजी का अप्रत्याशित सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है। विद्या के अनुसन्धाता विद्वाना के लिय बहुत महत्व है। इसकी अनन्य न त भक्ति और संयम साधना देखकर अनुयोग कार्य का प्रारम्भ :-- ऐसा कौन होगा जो प्रभावित न हो, श्रमण जीवन की लगभग आज से ५० वर्ष पूर्व मेरे मन में अनुयोग- वास्तविक श्रमनिष्ठा आपकी रग-रग में समाहित है। वर्गीकरण पद्धति से आगमों का संकलन करने की भावना आपका चिन्तन और आपके सुझाव मौलिक होते हैं । जगी थी। श्री दलसख भाई मालवणिया ने उस समय गत सात वर्षों से विदुषी महासती डा० मुक्तिप्रभाजी, मोगा दर्शन विना प्रेरणा नी और नि:स्वार्थ निस्पृह १० दिव्यप्रभा जी एवं उनकी साक्षर मिष्या परिवार का भाव से आत्मिक सहयोग दिया। उनकी प्रेरणा व सह- ऐसा अनुपम सुयोग मिला की अनुयोग का कार्य आगे बढ़ता योग का सम्बल पाकर मेरा संकल्प दृढ़ होता गया और गया। मुझे अतीव प्रसन्नता है कि महासती मुक्तिप्रभाजी मैं इस श्र.त-सेवा में जुट गया। आज के अनुयोग ग्रन्थ आदि विदूषी श्रमणियों ने इस कार्य में तन्मय होकर जो उसी बीज के मधुर फल हैं। सहयोग किया है उसका उपकार आगम अभ्यासी जन सर्वप्रथम गणितानुयोग का कार्य स्वर्गीय गुरुदेव श्री युग-युग तक स्मरण करेंगे । इनकी रत्नत्रय साधना सर्वदा फतेहचन्दजी म. सा. के सानिध्य में प्रारम्भ किया था। सफल हो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। किन्तु उराका प्रकाशन उनके स्वर्गवास के बाद हआ । अनूयोग सम्पादन कार्य में प्रारम्भ में तो अनेक बाधाएँ कुछ समय बाद धर्मकथानुयोग का सम्पादन प्रारम्भ आई। जैसे आगम के शुद्ध संस्करण की प्रतियों का किया । वह दो भागों में परिपूर्ण हुआ। तब तक गणिता- अभाव, प्राप्त पाठों में क्रम भंग और विशेषकर "जाव" नयोगका पूर्व संस्करण समाप्त हो चुका था तथा अनेक शब्द का अनपेक्षित/अनावश्यक प्रयोग । फिर भी धीरेस्थानों से मांग याती रहती थी। इस कारण धर्मकथानु- धीरे जैसे आगम सम्पादन कार्य में प्रगति हुई बैसे-वैसे योग के बाद पुनः गणिसानुगोग का संशोधन प्रारम्भ किया, कठिनाईयां भी दूर हई। महावीर जैन विद्यालय बम्बई, संशोधन क्या, लगभग ५० प्रतिशत नया सम्पादन ही हो जैन विश्व भारती लाडन तथा आगम प्रकाशन समिति गया। उनका प्रकाशन पूर्ण होने के बाद चरणानुयोग का व्यावर आदि आगम प्रकाशन संस्थाओं का यह उपकार यह संकलन प्रस्तुत है। ही मानना चाहिए जि. आज आगमों के सुन्दर उपयोगी कहावत है "श्र यांसि बहु बिध्नानि" शुभ व उत्तम संरकरण उपलब्ध हैं, और अधिकांश पूर्वापेक्षा शुद्ध कार्य में अनेक विध्न आते हैं। विघ्न-बाधाएँ हमारी सम्पादित हैं । यद्यपि आज भी उक्त संस्थाओं के निदेदृढ़ता व धीरता, संकल्प शक्ति व कार्य के प्रति निष्ठा की शकों की आगम सम्पादन शैली पूर्ण वैज्ञानिक या जैसी परीक्षा है। मेरे जीवन में भी ऐमी परीक्षाएँ अनेक बार चाहिए बसी नहीं है। लिपि दोष, लेखक के मतिभ्रम व हुई हैं। अनेक चार शरीर अस्वस्थ हुआ, कठिन वीमा- वाचना भेद आदि कारणों से आगमों के पाठों में अनेक रियां आई। सहयोगी भी कभी मिले, कभी नहीं, किन्तु स्थानों पर ट्युत्क्रम दिखाई देते हैं। पाठ-भेद तो है ही, मैं अपने कार्य में जुटा रहा। "जाव' शब्द कहीं अनावश्यक जोड़ दिया है जिससे अर्थ सम्पादन में सेवाभावी विनय मुनि 'वागीश" भी मेरे चैपरीत्य भी हो जाता है, कहीं लगाया नहीं है और कहीं साथ सहयोगी बने, वे आज भी शारीरिक सेवा के साथ- पूरा पाठ देकर भी "जाब" लगा दिया गया है। प्राचीन साथ मानसिक दृष्टि से भी मुझे परम साता पहुंचा रहे हैं प्रतियों में इस प्रकार के लेखन-दोष रह गये हैं जिससे और अनुयोग सम्पादन में भी सम्पूर्ण जागरूकता के साथ आगम का उपयुक्त अर्थ करने व प्राचीन पाठ परम्परा सहयोग कर रहे हैं। का बोध कराने में कठिनाई होती है। विद्वान सम्पादकों खम्भात सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री कान्ति ऋषि को इस ओर ध्यान देना चाहिए था। प्राचीन प्रतियों में Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { བ་། उपलब्ध पाठयों का त्यों रख देना तथा का रूप नहीं है, हमारी श्रुत भक्ति त को व्यवस्थित एवं शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में है। कभी-कभी एक पाठ का मिलान करने व उपयुक्त - पाठ निर्धारण करने में कई दिन व कई सप्ताह भी लग जाते हैं किन्तु विद्वान अनुसंधाता उसको उपयुक्त रूप में ही प्रस्तुत करता है, आज इस प्रकार के आगम- सम्पादन की आवश्यकता है । अस्तु, मैं अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण, विद्वान सहयोगी की कमी के कारण, तथा परिपूर्ण साहित्य की अनुपलब्धि तथा समय के अभाव के कारण जैसा संशोधित शुद्ध पाठ देना चाहता था वह नहीं दे सका, फिर भी मैंने शुक्र सम्बे-लम्बे समाय पद जिनका उच्चारण दुरूह होता है, तथा उच्चारण करते समय अनेक आगम पाठी भी उच्चारण-दोष से ग्रस्त हो जाते हैं। वैसे दुरुह पाठों को सुगम रूप में प्रस्तुत कर छोटे-छोटे पद बनाकर दिया जाय व ठीक उनके सामने ही उसका अर्थ दिया जाय जिससे अर्थ बोध सुगम हो । यद्यपि जिस संस्करण का मूल पाठ लिया है हिन्दी अनु बाद भी प्रायः उन्हीं का लिया है फिर भी अपनी जागरूकता बरती है। कहीं-कहीं उचित संशोधन भी किया है। उपर्युक्त तीन संस्थाओं के अलावा आगमोदय समिति रतलाम तथा सुतागने (पुष्कभिक्खु जी) के पाठ भी उपयोगी हुए हैं। पूज्य अमोलक ऋषि जो म० एवं आचार्य श्री आत्माराम जी म द्वारा सम्पादित अनुदित आगमों का भी यथावश्यक उपयोग किया है। मैं उक्त आगमों के सम्पादक विद्वानों व श्रद्ध ेय मुनिबरों के प्रति आभारी हूँ । प्रकाशन संस्थाएँ भी उपकारक हैं। उनका सहयोग कृतज्ञ भाव से स्वीकारना हमारा कर्तव्य है । अव प्रस्तुत ग्रन्थ चरणानुयोग के विषय में भी कुछ कहना चाहता हूँ । चरणानुयोग आगमों का सार आधार है-अंग कार ? आदारी ! - आचारांग आगम सो अंगों का सारभूत आगम है ही, किन्तु आचार अर्थात् "चारित्र" यह आगम का, त का सार है। ज्ञानस्य फलं विरक्ति:- " ज्ञान का फल विरति है। अत का सार चारित्र है। अतः चारित्र सम्बन्धी विवरण आगमों में यत्र-तत्र बहुत अधिक मात्रा में मिलता है। यूं भी कहा जा सकता है कि "चारित्र" का विषय सबसे विशाल तथा व्यापक है। : धर्मकयानुयोग के समान चरणानुयोग भी वर्णन की दृष्टि से विस्तृत है। अतः इसकी सामग्री अनुमान से अधिक हो गई है। इसलिए इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। २. "आचार" के प्रमुख पांच विभाग हैं- १. ज्ञानागार, दर्शनाचार, ३. चारित्राचार ४ तपाचार, ५. वीर्याचार वर्णन की दृष्टि से पारित्राचार सबसे विशाल है। प्रस्तुत भाग में ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार का वर्णन तो २०४ पृष्ठों में ही आ गया है | चारित्राचार का वर्णन ५४० पृष्ठ होने पर भी पूर्ण नहीं हुआ है। पाँच महात्रत, पांच समिति तीन गुप्ति ( प्रवचन माता) इनका अष्ट वर्णन ही प्रथम भाग में पूर्ण हो सका है। संयम, समा चारी, संघ व्यवस्था, श्रावकाचार आदि अनेक महत्वपूर्ण विषय दूसरे भाग में प्रकाशित हो रहे हैं। साथ ही चरणानुयोग की तुलनात्मक विस्तृत प्रस्तावना सूची सन्दर्भ स्थलों की निर्देशिका आदि द्वितीय भाग में दिये जा रहे हैं। : मैने इस बात का भी ध्यान रखा है कि जो पिय आगमों में अनेक स्थानों पर आया है, वहाँ एक आगम का पाठ मूल में देकर बाकी आगम पाठ तुलना के लिये टिप्पणियों में दिये जायें। जिससे तुलनात्मक दृष्टि से पड़ने वालों को उपयोगी हो । अनेक पाठों के अर्थ में भ्रांति होती है, वहाँ टीका भाग्य आदि का सहारा लेकर पाठ का अर्थ भी स्पष्ट किया गया है, व्याख्या का अन्तर भी दर्शाया है। कुछ गाठों की पूर्ति के लिए वृति, सूणि भाग्य आदि का भी उपयोग किया है। इस प्रकार पूरी सावधानी बरती है कि जो विषय जहाँ हैं, यह अपने आप में परिपूर्ण हो, इसलिए उसके समान, पूरक तथा भाव स्पष्ट करने वाले अन्य आगमों के पाठ भी अंकित किये हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आगम ज्ञान के प्रति रुचि श्रद्धा व भक्ति रखने वाले पाठकों को वह चरणानुयोग उनकी जिज्ञासा को तृप्त करेगा, ज्ञान की वृद्धि करेगा तथा श्रत भक्ति को और अधिक सुर बनायेगा । सम्पादित साहित्य का शुद्ध रूप में मुद्रण हो-यह भी परम आवश्यक है। अनुयोग प्रायों के शुद्ध व सम्यक् रीति से मुद्रण कार्य में रीति से मुद्रण कार्य में श्रीयुत श्रीचन्द जी गुराना "सरस" का भी महत्वपूर्ण सहयोग रहा है। अन्त में इस महान कार्य में प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग देने वाले सभी सहयोगी जनों के प्रति हार्दिक भाव से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । Q Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषय القليل السعر اللي .... . चरणानुयोग-भाग १ सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक स्तव-स्तुति मंगल फल सूत्र १-१८ १-१० धर्म प्रज्ञापना १९-६६ ११-५० बा: महाग १६ ११-१५ धर्म स्वरूप को जिज्ञासा भाव लोक के प्रकार भव की अपेक्षा से ज्ञानादि की प्ररूपणा ग्रह प्रकार के भाव भावं प्रमाण प्ररूपण २४ १७ ज्ञान गुण प्रमाण २५-२६ १८-२३ दर्शन गुण प्रमाण चारित्र गुण प्रमाण नय प्रमाण प्रस्थक दृष्टान्त वसति दृष्टान्त प्रदेश दृष्टान्त धर्म का स्वरूप ३३-६६ ३०-५. अविरोध धर्म आज्ञा धर्म धर्म के परिणाम धर्म के भेद-प्रभेद ३०-३६ ३०-३३ धर्म का माहात्म्य ४०-४१ ३३-३४ धर्म के आराधक ४२ ३४-३६ धर्म के अनधिकारी अनुत्तर धर्म की आराधना धर्म को द्वीप की उपमा केवलि प्रज्ञप्त धर्म की अप्राप्ति ६ केवलि प्रज्ञप्त धर्म की प्राप्ति ४७-४८ ३७-३६ छदमस्थ-यावत् -परमावधियों का क्रम से सिद्ध होने न होने का प्ररूपण फेवली का मोक्ष और सम्पूर्ण ज्ञानिव १० केलि प्राप्त धर्म श्रवण के अनुकूल वय -... मंगल सूत्र नमस्कार सूत्र नमस्कार मन्त्र का महत्व पंचपद बन्दन सूत्र मंगल मूत्र उत्तम मूत्र शरण मूत्र चौबीस तीर्थवरों के नाम चतुविशति संस्तव सूत्र महावीर वन्दन सूत्र श्री वीर-स्तुति वीर शासन स्तुति गणधर वन्दन सूत्र गणधर नाम संघ स्तुति संघ बन्दन सूत्र (१) संघ को नगर को उपमा (२) संघ को चक्र को उपमा (३) संघ को रथ को उपमा (४) संघ को कमल की उपमा (५) संघ को चन्द्र की उपमा (६) मंघ को सूर्य की उपमा (७) संघ को समुद्र की उपमा (८) संघ को मेरु की उपमा श्रुत नमस्कार सूत्र भूत देवता नमस्कार सूत्र मणिपिटक नमस्कार सूत्र लिपि नमस्कार सूत्र बन्दन फ्ल सूत्र चतुविशतिस्तव फल सूत्र . - .. . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूत्रोक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पष्ठाक केव ले प्रज्ञप्त धर्म श्रवण के अनुकूल कान ५२४० ज्ञान की उत्पत्ति के अनुकूल काल धजाराधना के अनुकूल क्षेत्र ४० जिन प्रवचन सुनकर आमिनिबोधिक ज्ञान यावत्धर्म का परित्याग करने वाले को और अधर्म को केवलज्ञान की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति ८५ स्वीकार करने वाले की गाड़ीवान से तुलना ५४ जिन प्रवचन सुने बिना आभिनिबोधिक ज्ञान रमाउलार से तुलना यावत् केवलज्ञान की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति ५. अधर्म करने वाले की निष्फल रात्रियाँ निभंगज्ञान की उत्पत्ति धर्म करने वाले को सफल रात्रियों ज्ञान की प्रधानता धर्म पाथेय से सुखी अपाथेय से दुखी ज्ञान से संयम का परिज्ञान दुर्लप-धर्म ५८-५९ ४२-४५ ज्ञान से मंसार भ्रमण नहीं धर्म साधना में सहायक श्रुत आराधना का फल श्रद्धा के स्वरूप का प्राण ज्ञान से निर्माण प्राप्ति १२ ५६ वरण के प्रकार उपक्रम के भेद प्रथम : काल ज्ञानाचार ६३-१०५ ६२-६६ व्यवसाय (अनुष्ठान) के प्रकार काल प्रतिलेखना का फल संयतादि को धर्मादि में स्थिति स्वाध्याय बाल प्रतिलेखना प्रत्युपकार दुष्कर, प्रत्युपकार सुकर स्वाध्याय ध्यानादि का काल विवेक धर्मार्जित व्यवहार ध्यतिकृष्ट काल में निर्ग्रन्थ के लिए स्वाध्याय निषेध चार-चार प्रकार के धार्मिक और अधार्मिक पुरुष ६५ ' निम्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी के लिए स्वाध्याय विधान Y धर्म निन्दाकरण प्रायश्चित्त निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों हेतु स्वाध्याय काल विधान १८ अधर्म प्रशंसाकरण प्रायश्चित्त निर्बन्थ-निग्रन्थियों हेतु अस्वाध्याय काल विधान १६ चार प्रकार का अस्वाध्याय काल आचार-प्रज्ञप्ति ७०-८०५१-५४ चार महापातिदाओं में स्वाध्याय निषेध १०१ आचार धर्म प्रणिधी दस प्रकार के औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय १०१ आचार के प्रकार शारीरिक कारण होने पर स्वाध्याय का निषेध १०३ पाँच उत्कृष्ट ५१ इस प्रकार के अन्तरिम अस्वाध्याय चार प्रकार का मोक्ष मार्ग अकाल स्वाध्याय करने और काल में स्वाध्याय आराधना के प्रकार ५१ नहीं करने का प्रायश्चित्त १०५ ६८-६६ आराधना के फल की प्ररूपणा तीन प्रकार की बोधि द्वितीय : विनय नानाचार १०६-१४५ ७०-१६ तीन प्रकार के बुद्ध विनयाचार कहने की प्रतिज्ञा तीन प्रकार के मोह विनय प्रयोग तीन प्रकार के भूख अविनय का फल आचार-समाधि ५३ विनय को मूल की उपमा कल्पस्थिति (आचार-मर्यादा) आचार्य की विनय प्रतिपत्ति शिष्य की विनय-प्रतिपत्ति ज्ञानाचार : सूत्र ५१ से २०८, पृष्ठ ५५.१२४ विनय के भेद-प्रभेद ११२ पार पकार की धुत समाधि विगय प्रतिपन्न पुरुष आठ प्रकार के ज्ञानाचार ५५ विनीत के लक्षण ज्ञान की उत्पत्ति के अनुकूल वय ५५ आठ प्रकार के शिक्षाशील ५३ . . . . १११ ११३ r Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ १२३ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय स्रयांक पृष्ठांक पन्द्रह प्रकार के सुविनीत ८२ गुरु और साधमिफ शुश्रूषा का फल १५५१०३ शिष्य के करणीय कार्य गुमकुलबास का माहात्म्य गुरु के समीप बैठने की विधि ११८ प्रश्न करने की विधि प्रश्न पूछने की विधि ११६ उत्तर विधि शिष्य के प्रश्न पर गुरु द्वारा उत्तर समाधि का विधान १०८ गुरु ने प्रति शिष्य के कर्तव्य श्रुतधर के प्रकार शिष्य के प्रति गुरु के कर्तव्य १२२ बहुश्रुत का स्वरूप अनुशासन पालन में शिष्य के कर्तव्य अबहुश्रुत का स्वरूप मुरु के अनुशासन का शिष्य पर प्रभाव १२४ चतुर्थ : उपधानाचार कुपित गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य १२५ शिक्षा के योग्य चार प्रकार की विनय-समाधि १२६ पंचम : अनिन्हवाचार विनय का सुपरिणाम १२७ अभाधु का स्वरूप अविनीत के लक्षण १२८ छठा ठर्यजन-ज्ञानाचार, साता अर्थ-ज्ञानाचार तीन प्रकार के अविनय आठवां तवमय-मानाचार ११२-११२ बौदह प्रकार के अविनीत सूत्रार्थ का न दिपाना अविनीत का' स्वरूप ज्ञानाचार : परिशिष्ट १६६-२०८ ११३-१२३ गुरु आदि के प्रत्यनीक ज्ञान और आचार भेद से पुरुषों के प्रकार १६६ ११३ अविनीत की उपमाएँ ज्ञानी और अज्ञानी अविनीत और विनीत का स्वरूप ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति १६६ ११४ अविनीत-सुविनीत के लक्षण अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति नहीं अविनीत और सुभिनीत के आचरण का प्रभाव' १३६ होने के कारण विनीत-अविनीत का स्वमत चिन्तन अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति के कारण १७१ ११५. शिक्षा प्राप्त न होने के पाँच कारण ज्ञान-दर्शनादि की वृद्धि करने वाले और हानि शिक्षा के अयोग्य १३६ करने वाले तेतीस आशातनाएं १४० अवधिज्ञान के क्षोभक १७३ तेतीस आशातना दूसरा प्रकार) १४१६६ केवलज्ञान-दर्शन के अक्षोभक आशातना के फल का निरूपण १४२१८ ज्ञानसम्पन्न और क्रियासम्पन्न आशातना के प्रायश्चित्त ज्ञाल-युक्त और आचार-युक्त १७६ अविनय करने का प्रायश्चित्त १४५ र ज्ञान-वृक्त और ज्ञान-परिणत १७७ ११७ तृतीय : बटुमान ज्ञानाचार १४६-१५२ १००-११० शान युक्त और वेष युक्त आचार्यों की महिमा शान-युक्त और शोभा युक्त, मयुक्त आचार्य की सेवा का फल १४७ पांच प्रकार की परिज्ञा ११८ वृक्ष के भेद से आचार्य के भेद शरीर सम्पन्न और प्रशा सम्पन्न फन भेद से आचाई के भेद १४६ बाजु-ऋजुप्रश और यक्र-वऋत्रश १५२ करंडिया के समान आचार्य दीन और अदीन, दीन प्रशावान और अदीन आचार्य उपाध्याय की सिद्धि प्रज्ञावान आचार्य की उपासना १०२ आर्य और अनार्य, आर्य प्रज्ञावान और अनार्य गुरु-पूजा प्रज्ञावान तथारूप घमणों माहणों की पपासना सत्य वक्ता और असत्य वक्ता, सत्म प्रज्ञा और का फल असत्य प्रज्ञा १८५ ११६ Arr म ७५ १७८ л १७६ ११८ л ०० л я xxxx Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm ज । २१८ २२१ ६०२ १२१ २२५ १३१ २२६ mr १९७ १२१ m २२६ २३० १३५ विषय सूत्रक पृष्ठोक विषय सूत्रांक पृष्ठोक शील सम्पन्न और दुश्शील सम्पन्न, शील सम्यक्त्व के दस प्रकार (रुचि) २१३ १२६ प्रज्ञावान और दुशील प्रज्ञावान तीन प्रकार के दर्शन २१४१२७ दर्शन का फल शुद्ध और शुद्ध प्रशायान, अशुद्ध और अशुद्ध २१५ १७ दर्शनावरणीय के क्षय से बोधिलाभ और क्षय प्रज्ञावान न होने से अलाभ २१६ वचन दाता अदाता, ग्रहिता, अग्रहिता १२७ दर्शन प्राप्ति के लिए अनुकूल काल २१७ १२६ सूत्रार्थ ग्राहक अग्राहक दर्शन प्राप्ति के लिए अनुकूल वय १२६ प्रश्न कर्ता, अकर्ता दर्शन प्राप्ति के लिए अनुकूल दिशाएँ १२६ सूत्रार्य ध्याख्याता, अव्याख्याता पाँच दुर्लभबोधि जीव २२० श्रुत और शरीर से पूर्ण अथवा अपूर्ण १२६ पाँच सुलभबोधि जीव श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण, पूर्ण सदृश या अपूर्ण तीन दुर्बोध्य २२२ सदृश __१६३ १२१ तीन सुबोध्य २२३ श्रृत से पूर्ण और अपूर्ण, श्रमण वेष से पूर्ण सुलभबोधि और दुर्लभदोधि २२४ __और अपूर्ण १६४ बोधि लाभ में बाधक और साधक श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण, उपकारी और अपकारी १६५ श्रद्धालु-अश्रद्धालु श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण, श्रुत के दाता और सम्यादी थमण का परीषह-जय अदाता असम्यग्दर्शी श्रमण का परीषह पराजय २२७ श्रुत से और शरीर से उन्नत और अवनत सम्यक्त्व पराक्रम के प्रश्नोत्तर २२८ जाति सम्पन्न, जातिहीन, अत सम्पन्न, संवेग आदि का फल श्रुतहीन १६८ १२२ निर्वेद का फल कुल सम्पप भौर कुलहीन, श्रुत सम्पन्न और सम्यक्त्वी का विज्ञान २३१ १३५ सम्यक्त्वदर्शी मुनि २३२ श्रुतहीन १३५ सुरूप और कुरूप, श्रुत सम्पन्न तथा श्रुतहीन २०० सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता २३३ १३५ कूर्म दृष्टान्त बल सम्पन्न भोर बल हीन, श्रुत सम्पन्न और सम्यक्त्वी की चार प्रकार की श्रद्धा २३५ श्रुतहीन १२२ सम्यक्त्व के पांच अतिचार सूत्रधर, अत्यधर १२२ प्रवज्या पूर्व साधक की निर्वेद दशा छहों दिशाओं में ज्ञान वृद्धि एकरन्न भावना से प्राप्त निर्वेद १४० ज्ञान वृद्धिकर दस नक्षत्र १२३ अनुलोत और प्रतिस्रोत २३६ तीन प्रकार के निर्णय १२३ अस्थिरात्मा की विभिन्न उपमाएँ २४० १४२ तीन प्रकार की दिवत्ति २०६ १२३ साधुता से पतित की दशा १४२ तीन प्रकार का विषयानुराग १२३ संयम में रत' को सुख अरत को दुःख तीन प्रकार का विषय सेवन १२३ संयम में अस्थिर श्रमण की स्थिरता हेतु चिंतन २४३ १४५ ज्ञानाचार तालिका मिध्यादर्शन विजय का फल १४७ वर्शनाचार: सूत्र २०६-३०२ पृ. १२५-२०४ चार अन्यतीथियों को श्रद्धा का निरसन १४८ सम्यक्वर्शन : स्वरूप एवं प्राप्ति के उपाय प्रथम तज्जीव तत्शरीरवादी की श्रद्धा का निरसन दर्शन स्वरूप २०६ १२५ द्वितीय पंच महाभूतबादी की श्रद्धा का निरसन २४७ सम्यक्त्व को द्वीप की उपमा २१० १२५ तृतीय ईश्वरकारणिकवादी की श्रद्धा का दर्शन का लक्षण २११ १२५ निरसन २४ सम्यक्त्व के आठ (प्रभावना) अंग १२६ चौथा निर्यातवादी की श्रद्धा का निरसन २०१ २०२ १३८ १२३ २३८ १४२ -rrrr २४१ २४२ १४५ . १४६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xcxxx १६५ र६३ १६७ १६४ असत्या विवय सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक लोक रचना के अनेक प्रकार २५० १५६ मोक्ष मार्ग में अप्रमत भाव से गमन का उपदेश २७ १९४ अकारकवाद २५१ १६० निर्वाण का मूल सम्यग्दर्शन २८८ १६४ एकात्मवाद १६. प्रधान मोक्षमार्ग आत्मपष्टवार १६१ उन्मार्ग से गमन करने वालों की नरक गनि २६० अवतारवाद १६१ निर्वाण मार्ग की माधना २६५ नोकवाद-समीक्षा १६१ सन्मार्ग-उन्मार्ग का स्वरूप २६२ पांच स्कन्धवाद १६१ मोक्षमार्ग जिज्ञासा स्व-स्व-प्रवाद-प्रशंसा एवं सिद्धि लाभ का दावा २५७ १६२ निर्वाण मार्ग २६४ विविध वाद निरसन २५८ १६२ अनुत्तर ज्ञान दर्शन मिथ्यादर्शनों से संसार का परिभ्रमण २५९ १६३ मैत्री भावना १६७ मिथ्यात्य अशान अनावरण २६०-३०२१६४-२०४ सिद्ध स्थान का स्वरूप २६७ १९६ मिथ्या दर्शन के भेद-प्रभेद २६० १६४ सत्यवक्ता, अमत्यवक्ता, दर्शनसत्या दर्शनमिथ्यात्व के भेद-प्रभेद २६१-२६२ २६८ मोहमूह को बोध दान २६३ १६५ सुशील और दुश्शील, सुदर्शन और कुदर्शन २६६ मोहमूढ़ की दुर्दशा १६५ शुद्ध और अशुद्ध, शुद्ध दर्शन वाले कुदर्शन वाले ३०० विवाद-शास्त्रार्थ के छह प्रकार १६६ जन्नत और अवनत, उग्रत दर्शनी और विपरीत प्ररूपणा का प्रायश्चित्त १६७ अवनत दर्शनी अन्यतीथियों के पार वाद १६७ सरल और वक्र, सरल दृष्टि और वक्र क्रियावादियों की श्रद्धा १६७ दृष्टि आदि ३०२ २०१ एकान्त क्रियावादी दर्शनाचार परिशिष्ट २०२-२०३ एकान्त क्रियावाद और सम्यक क्रियावाद सम्यक् दर्शन तालिका प्ररूपक २७० १६८ सम्यक किवादाद के प्रतिपादक और अनुगामी २७१ चारित्राचार : सूत्र ३०३ से १३३८ (प्रथम भाग तक) अक्रियावादी का स्वरूप पृष्ठ २०५ से ७३८ (प्रथम भाग तक) अक्रियावादियों की समीक्षा २७३ १७२ चरण विधि का महत्व अत्रियावादियों का मिथ्या दण्ड प्रयोग २७४ संवर की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति एकान्त ज्ञानवादी २७५ १७८ आथव और संवर का विवेक अज्ञानवाद पांच संवर द्वारों का प्ररूपण ०६ एकान्त अज्ञानवाद-समीक्षा २७७ पाप स्थानों से जीनों की गुस्ता २१२ एकान्त बिनयदादी की समीक्षा २७८ विरति स्थानों से जीवों की लघुता २१२ पौडरिक रूपक २७६ दस प्रकार के असंवर ३०९ २१२ श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफरन चार पुरुष पाँच संवर द्वार उत्तम श्वेत कमल को पाने में सफल नि:स्पृह भिक्षु । १८५ महायज दृष्टान्तों के दान्तिक की योजना २८० दस प्रकार के संवर ३१२ २१३ एकान्त-दृष्टि निषेध २८१ दस प्रकार की असमाधि ३१३ २१३ पावस्थादि बन्दन-प्रशंसन प्रायश्चित्त १९० दम प्रकार की समाधि अन्यतीथियों की मोक्ष प्ररूपणा और उसका असंवृत अणगार का संसार परिभ्रमण ३१४ २१४ परिहार संवत अणगार का संसार परियमन ३१५ २१४ अन्यतीथिकों की प्ररूपणा और परिहार २८४ १९२ चारिख सम्पन्नता का फल मोक्ष विशारद का उपदेश २५५ १९२ कुछ लोग चारित्र के जानने से ही मोक्ष निर्वाण ही साध्य है २८६ १६४ मानते हैं ३१७ 24truturer २७२ mmmmm mar १८२ ३११ १८६ २८२ २१३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ 0 ald ૨૪ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठोक महावत प्राणातिपात से बाल जीवों का पुनः पुनः प्रथम महावत : अहिंसा महावत का स्वरूप जन्म मरण और साधना ३१०-४१६ २१४-२८. अयतका का निषेध २४७ सभी तीर्थंकरों ने सभी प्राण भूत जीब सत्वों छः जीवनिकाय की हिंसा का परिणाम ३४६२४ की रक्षा करनी चाहिए ऐसी प्ररूपणा की है ३१८२१५ ब जीबनिकाय --हिसाकरण -- प्रथम महावत आराधना प्रतिज्ञा २१६ प्रायश्चित्त - ३ ३५०-३५७ २८०-२५१ प्रथम गहावत और उसकी पाँच भावना २१० सनित्त वृक्ष के मूल में आलोकन आदि के अहिमा के साठ नाम २१६ प्रायश्चित्त सूत्र ३५०२४८ भगवती अहिसा की आठ उपमाएँ २२१ सचित्त वृक्ष पर चढ़ने का प्रायश्चित्त सूत्र अहिंसा स्वरूप के प्ररूपक और पाठक २२२ त्रस प्राणियों को बांधने और बन्धन मुक्त आत्म ग़म दृष्टि ३२४२२४ करने के प्रायश्चित्त सूत्र २४३ ष जीवनिकाय का स्वरूप एवं हिंसा का प्रध्वीकाय आदि के आरम्भ करने का निषेध ३२५-३४६ २२५-२४८ प्रायश्चित्त गुम ३५३ भगवान ने छह जीव निकाय प्ररूपित किये हैं ३२५२२५ सचित्त पृथ्वीकायिकादि पर कायोत्सर्ग करने छह जी निकायों का आरम्भ न करने की के प्रायश्चित्त सूत्र प्रतिजा २२५ अंडों वाले काष्ट पर कायोत्सर्ग करने का छह जीबनिकायों की हिंसा नहीं करनी चाहिए ३२७ २२६ प्रायश्चित्त सूम ३५५ २५० पृथ्वीकाय का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा ३२५ २२७ अस्थिर थूणी आदि पर कायोत्सर्ग आदि करने सचित्त पृथ्वी पर निषद्या (बैठने) का निषेध ३२६ २२८ का प्रायश्चित्त सूत्र अचित पृथ्वी पर बैठने का विधान २२८ बस्त्र से पृथ्कीकाय आदि निकालने का पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना जानकर उनके प्रायश्चित्त गुत्र आरम्भ का निषेध किया है ३३० २२८ सदोष-चिकित्सा का निषेध-४ ३५८-३६५ २५२-२५४ अपकायिक जीवों का आरम्भ न करने की मदोष चिकित्सा निषेध ३५८२५२ प्रतिज्ञा २३१ गृहस्थ से व्रण परिकर्म नहीं कराग चाहिए ३५६२५३ अप्कायिक जीयों की हिंसा का निषेध २३१ गृहस्थ रो गण्डादि का परिकर्म नहीं कराना तेजम् कायिक जीवों का आरम्भ न करने की चाहिए ३६०२५३ प्रतिज्ञा २३ गृहस्थ से शल्य चिकित्सा नहीं कराना चाहिए ३६१ तेजस्कायिक एक अमोघ शरत्र २२४ गृहस्थ से बयावृत्य नहीं कराना चाहिए ३६२ २५४ तेजस्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध २३४ गृहस्थकृत चिकित्सा की अनुमोदना का निषेध ३६३ वायुकायिक जीवों का आरम्भ न करने गृहस्थ द्वारा ढूंठा आदि निकालने की की प्रतिज्ञा २३६ अनुमोदना का निषेध वायुकायिक जीवों की हिंसा का निषेध २१७ गृहस्थ द्वारा लीव आदि निकालने की वनस्पतिकायिक जीवों का आरम्भ न करने ___ अनुमोदना का निषेध २५४ की प्रतिज्ञा ३३८ २३८ चिकित्साकरण प्रायश्चित्त-५ २५५ बनस्पतिकागिक जीवों की हिंसा का निषेध ३३६ २३६ (१) परस्पर चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त वनस्पति शरीर और मनुष्य शरीर वण परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र की समानता २४० परस्पर व्रण की चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र ३६७ सकाय का स्वरूप ३४१ २४१ गण्डादि परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ३६८ २५६ असकाय के भेद-प्रभेद ३४२ २४२ एक दुसरे के गण्डादि की चिकित्सा करने के वसकाय के अनारम्भ की प्रतिज्ञा २४२ प्रायश्चित्त सूत्र २५८ श्रसकायिकों की हिंसा का निषेध २४३ कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र ३७० आर्य-अनार्य वचनों का स्वरूप २४५ एक दूसरे के कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र ३७१ ३३२ २५४ ३४० ३६६ २६० . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ मा 9 २८० ir २८० २८१ २८२ ४०२ विषम सूत्रोक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक बमन आदि के परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ३७२ २६. अन्यतीथिकादि द्वारा सूई आदि के उत्तरकरण गृहस्य की चिकित्सा करने का प्रायश्चित्त सूत्र ३७३ २६० . के प्रायश्चित्त मूत्र ३६५ २७६ (२) निय-निप्रन्यिनी परस्पर चिकित्सा के प्रायश्चित्त बिना प्रयोजन सूई आदि मानना का प्रायश्चित्त सूत्र २७७ निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्य के पैरों आदि के परिकर्म अविधि से सूई मादि याचना के प्रायश्चित्त मूल ३६७ २७७ कराने के प्रायश्चित्त मूत्र ३७४ २६१ सूई आदि के विपरीत प्रयोगों के निम्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थी के पैरों आदि के परिकर्म प्रायश्चित्त सूत्र २७७ कराने के प्रायश्चित्त सूत्र ३०५ २६१ सुई आदि के अन्योन्य प्रदान का प्रायश्चित्त निग्रंथी द्वारा निर्ग्रन्थ के व्रणों की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त मूत्र २७६-२:२७ २६१ अन्वतीथिक और गृहस्थ से गृहधूम साफ करने निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के कृमि निकलवाने के का प्रायश्चित्त सूत्र ४०० २७० प्रायश्चित्त सूत्र ३७८ प्रथम महाव्रत का परिशिष्ट-१ निर्ग्रन्य द्वारा निर्ग्रन्थी के द्रणों की चिकित्मा प्रथम महावत की पाँच भावनाएं __ करवाने के प्रायश्चित्त सू न म ५ व: निर्ग्रन्थ द्वारा निग्रन्थी के मण्डादि की विकिल्या द्वितीय भावना __ करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ३० २६५ तृतीय भावना निर्गन्य द्वारा निन्धी के कृमि निकलवाने ये चतुर्थ भावना प्रायश्चित्त सूत्र पंचम भावना उपसंहार (३) भन्यतीधिक या गृहस्थ द्वारा चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित आरम्भ-रा।रम्भ-रामारम्भ के सात-सात प्रकार ४०३ वण की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ३८२ २६८ अनारम्भ असारम्भ और असमारम्भ के गण्ड आदि की चिकित्सा करवाने के सात-साद प्रकार प्रायश्चित्त मूत्र आट सूथम जीवों की हिंसा का निषेध २८३ कृमि निकलवाने का प्रायश्चित्त भूत्र ३८४ २०० आठ सूक्ष्म (४) अन्यतीयिक या गृहस्थ की चिकित्सा करने के प्रायश्चित प्रथम प्राण सूक्ष्म अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के व्रण की चिकित्मा द्वितीय पनक सुश्म २८४ के प्रायश्चित्त सूत्र ३८५ २७१ तृतीय बीज सूक्ष्म २८४ अन्यतीथिक या गृहस्थ की गण्डादि की चतुर्व हरित सूक्ष्म ४०६ २८४ चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र २७२ पनग पुरप सूक्ष्म ४१० २८४ अन्यतीथिक या गृहस्थ के कृमि निकालने छठा अण्ड सूक्ष्म ४११ २५ का प्रायश्चित्त सूत्र सप्तम लयन सूक्ष्म अष्टम स्नेह सूक्ष्म ४१३ २८५ आरम्मजन्य कार्य करने के प्रायश्चित्त-६ पंचेन्द्रिय के घातक दस प्रकार का असंयम पानी बहने की नाली निर्माण करने का करते है ४१४ प्रायश्चित्त सूत्र २७४ दस प्रकार के असंयम २८६ छीका निर्माण करण प्रायश्चित्त सूत्र ३६ २७४ पंचेन्द्रिय जीवों के अघातक दस प्रकार का पदमार्गादि निर्माण करने का थायश्चित्त सूत्र ३६० २७४ संयम करते हैं पदमार्गादि निर्माण सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र ३६१ २७४ दस प्रकार के संयग २८७ दण्डादि परिस्कार सम्बन्धी प्रायश्चित्त २७५ पाप श्रमण का स्वरूप दारुदण्ड करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र २९३ २७५ अन्यतीथिकों का स्थविरों के साथ पृथ्वी हिंसा सूई आदि के परिष्कार के प्रायश्चित्त सूत्र ३६४ २७६ विषयक विवाद ४१६ २७ २८२ २८३ ० ४०७ ० ० ० ४१२ २८५ २८६ २६६ ३६२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय द्वितीय महाय (द्वितीय महाव्रत स्वरूप एवं आराधना ) ४२०-४३५ २८६-२६६ द्वितीय महाव्रत के आराधना की प्रतिज्ञा बिरमण मृषावाद की पांच भावना महाव्रत सत्य सुंदर के प्ररूपक और आराधक सत्य वचन को महिमा सत्य वचन की छ: उपमायें अवक्तव्य सत्य त्य सत्य वचन का फल अल्प मृषावाद का प्रायश्चित्त मूत्र वसुरानिक अबसुरानिक कथन के उपसंहार नहीं बोलने योग्य छः वचनों का निषेध भाषा से सम्बन्धित आठ स्थानों का निषेध (=) सूत्रांक पृष्ठांक विषय दत्त अनुज्ञात मंत्र का स्वरूप अदनान विरमण महात्रत आराधक के अकरणीय कृत्य दत्त अनुज्ञात संवर के आराधक दत्त अनुज्ञात संवर का फल अन्य साधु के उपकरण उपयोग हेतु अवग्रह ग्रहण विधान ४२० २८६ ४२१ २=६ २६१ २६१ राज्य परिवर्तन में अवग्रह अनुज्ञापन अल्प अदत्तादान का प्रायश्चित्त सूत्र शिष्य के अपहरण का या उसके भाव परिवर्तन का प्रायश्चित आचार्य के अपह्रण या परिवर्तनकरण का प्रायश्चित्त सूत्र ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ प्रायश्चित्त सूत्र विपरीत कथन का प्रायश्चित्त सूत्र विपरीत प्रायश्वित कहने के प्रायश्चित द्वितीय महाव्रत का परिशिष्ट मृषावाद - विरमण या सत्य महात्रत की पाँच भावना وا؟؟ ४२८ ४२६ ४३० ४२१ ४३२ ४३३ ४३४ ८३५ तृतीय महाव्रत : स्वरूप एवं आराधना ४३६-४४६ ३००-३१३ तृतीय महाव्रत के आराधन की प्रतिशा तृतीय महाव्रत और उसकी पाँच भावना ४३६ ४३७ ४३८ ४२६ ४४१ ४४२ ४४३ ૪૪૪ ४४५ ४४६ तृतीय महावत का परिशिष्ट तृतीय अदत्तादान महाव्रत की पाँच भावना उपसंहार २९२ २६३ २६३ २६३ ૨૪ ४४.७ ४४५ २६४ २६४ २९४ २६८ २६ Rec ३०० ३०१ ३०३ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०६ २०६ ३०६ ३०६ ४४९ ३१० अन्यतीथिकों द्वारा अदत्तादान का आक्षेप स्थविरों द्वारा उसका परिहार चतुर्थ महाव्रत ४५०-६४५ ३१४ चतुर्थं ब्रह्मचयं महाव्रत के आराधन की प्रतिज्ञा ४५० ३१४-४२८ मेव विरमण यत की गांव भावनाएँ ४५१ ३१५ ४५२ ३१६ ५५३ ३१७ ब्रह्मचर्य महिमा ब्रह्मवर्थ की तील उपका ब्रह्मचर्य के खन्हित होने पर सभी महाव्रत खण्डित हो जाते है । ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर सभी महावतों की आराधना हो जाती है ब्रह्मचर्य के विधानक ब्रह्मचर्य के सहायक ब्रह्मचर्य की आराधना का फल ब्रह्मचर्य के अनुकूल वय ब्रह्मन के अनुकूल प्र ब्रह्म की उत्पति और ब्रह्मचर्य पालन के उपाय ( २ ) धर्माधर्मारामबिहारी महावारी ब्रह्मचर्य समाधि स्थान दस ब्रह्मचर्यं समाधि स्थानों के नाम विविक्त शयनानन सेवन (१) विविक्त जायनामन सेवन का फल (२) स्त्री कथा निषेध सूचांक पृष्ठो *#s अब्रा निषेध के कारण- ३ अधर्म का मूल है। ३०७ ३०६ स्त्री राग निषेध ४५५ ३१६ ४५६ ३२० ४५.७ ३२१ ४५८ ३२१ ४५६ ३२२ ** ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ૪૬૭ (३) स्त्री के आसन पर बैठने का नियेध ४६८ (४) स्त्री की इन्द्रियों के अवलोकन का निषेध ४६६ (५) स्त्रियों के वासनाजन्य शब्द श्रवण का निषेध ४३० (६) भुक्त भोगों के स्मरण का निषेध ४७ १ (७) विकार-वर्धक आहार करने का निषेध ४७२ (८) अधिक आहार का निषेध ४७३ (e) विभूषा करने का निषेध ४७४ (१०) शब्दादि विषयों में आसक्ति का निषेध ४७५ ब्रह्मचर्यं रक्षण के उपाय ४७६ (११) वेश्याओं की गली में आवागमन निषेध ४७७ ब्रह्मचर्ये के अठारह प्रकार ४७८ ३१९ ४७६ ४८० ३२२ ३२२ ३२३ १२३ ३२४ ३२४ ३२५ ३५६ ३२६ ३२७ ३२८ ३२८ ३२६ ३२६ ३३० ३३० ३३१ ३३२ ३३२ ३३३ ३३४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ ४८२ ० ur ३५५ ० , ० निषेध ० ३५६ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय पूत्रक पृष्ठांक परिकम निषेध–४ (२) परिकर्म करण-प्रायश्चित्त गृहस्थत काय क्रिया को अनुगोपना का निषेध ५१ ५३७ स्व-शरीर शरेकर्म-प्रायश्चित्त -१ गृहस्थकृत शरीर के परिकर्मों की अनुमोदना शरीर परिकम के प्रायश्चित्त सूत्र ४६६ का निषेध मैल दूर करने के प्रायश्चित्त सूत्र ३५२ गृहस्थकृत पादपरिकर्म की अनुमोदना पाद परिकर्म के प्रायश्चित्त सुत्र ३५२ का निषेध ४८३ ३३८ मखान भागों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र ५०२ ३५३ उद्यानादि में गृहस्थकृत पर आदि के परिकर्मों जंघादि रोम परिकों का प्रायश्चित्त सूत्र ५०३ ३५३ की अनुमोदना का निषेध ४८४ ओष्ठ परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ३५४ गृहस्थकृत पादपरिकर्म का निषेध ४-५ उत्तरोष्टादि रोम परिकों के प्रायश्चित्त सूत्र ५०५ ३५४ गृहस्थ द्वारा मैल निकालने की अनुमोदना दन्त परिकम के प्रायश्चित्त सूत्र का निषेध चक्षु परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ३५५ गृहस्थकृत रोम परिकों की अनुमोदना का अक्षि पत्र परिकर्म का प्रायश्चित्त सुत्र ४८७ ३४० भौंहादि रोम परिकों के प्रायश्चित्त सूत्र भिक्ष-भिक्षुणी की अन्योन्य परिकर्म किया की केशों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र अनुमोदना का निषेध मस्तक बुकने का प्रायश्चित्त सूत्र ३५७ अन्योन्य पादादि परिकर्म क्रिया की अनुमोदना परस्पर शरीर परिकर्म प्रायश्चित्त-२ ___ का निषेध ४ ३४० एक दूसरे के शरीर परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ५१२ १–चिकित्साकरण प्रायश्चित्त (५) एक दुसरे के मैल निकालने के प्रायश्चित्त सत्र ५१३ ३५% विभूषा के संकल्प से स्व-शरीर की चिकित्सा के प्रायश्चित्त-१ एक दूसरे के पाद परिकर्म के प्रायश्चित्त सत्र ५१४ ३१८ विभुषा के संकल्प से व्रणों को चिकित्सा एक दूसरे के नवाग्र काटने का प्रायश्चित्त सूत्र ५१५ ३५६ करवाने के प्रायश्चित्त सुत्र ४६० एक दूसरे के जंघादि के रोमों के परिकों के विभूषा के संकल्प से गण्डादि की चिकित्सा प्रायश्चित्त सुत्र करने के प्रायश्चित्त मूत्र ४६१ ३४२ एक दूसरे के होठों के परिकमों के विभूषा के संकल्प से कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र । ४६२ ३४३ एक दूसरे के उत्तरोष्ठ रोमादि परिकों के मथुन के संकल्प से स्व-शरीर को चिकित्सा के प्रायश्चित-२ प्रायश्चित्त सूत्र एक दूसरे के दांतों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त मैथुन सेवन के संकल्प से व्रण की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र एक दूसरे के आँखों के परिवों के मैथुन सेवन के संकल्प से गण्डादि चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र ४९४ मयुन सेवन के संकल्प से कृमि निकालने का एक दूसरे के अक्षिपत्र के परिफर्म के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र एक दूसरे के भौंह आदि के परिकर्मों के मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर विकित्सा के प्रायश्चित्त-३ प्रायश्चित्त मूत्र ५२२ ३६२ मैथन सेवन के संकल्प से परस्पर प्रण की एक दुसरे के केशों के परिकर्म का चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त सुत्र ५२३ ३६ मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर गण्डादि की एक दूसरे के मस्तक हुकने का प्रायश्मिस सूत्र ५२४ ३६३ चिकित्सा करने के प्रायश्विन सूत्र ४६७ ३४८ अग्यतीथिकादि द्वारा स्व शरीर का परिकर्म करवाने का मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर कृमि प्रायश्चित्त सूत्र-३ निकलवाने का प्रायश्नित सूत्र ४६८९५० शरीर का परिकाम करवाने के प्रायश्चित सूत्र ५२५ १६३ ३६१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूत्रक पृष्ठांक विषय सूशक पृष्ठांक मल दूर करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५२६ ३६४ निन्धी द्वारा निनन्य का मस्तक ढकवाने का परों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूब ५२७ ३६४ प्रायश्चित्त सूत्र नलाग्न परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५२८ अन्यतीथिकादि द्वारा निग्य-निर्धन्दी के प्रायश्चित्त-५ जंघादि के रोमों का परिकर्म करवाने के निम्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के शरीर परिकर्म प्रायश्चित्त सूत्र करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ३७७ होठों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५३० उत्तरोष्ठादि रोमों के परिफर्म करवाने के निर्गन्य द्वारा निर्गन्थी का (आंखों आदि के) ___ मैल निकलवाने का प्रायश्चित्त सुत्र ५५२ ।। ३७५ प्रायश्चित्त सूत्र दांतों का परिकम करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५३२ निमय द्वारा निर्ग्रन्थी के पैरों का परिकर्म आँखों का परिकम कारवाने के प्रायश्चित सूत्र ५३३ ३६८ करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र अक्षिपषों के परिकर्म करवाने के पापीन निर्ग्रन्थ द्वारा निग्रंन्थी के नाखानों का परिकर्म ५३४ सूत्र करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ३६८ निर्ग्रन्थ द्वारा निर्गन्धी के जंघा आदि के रोमों भौंहों आदि के रोमों का परिकर्म करवाने के का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५५५ प्रायश्चित्त सूत्र ५३५ निग्रंथ द्वारा निर्ग्रन्थी के होठों का केश परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५३६ ३६६ परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५५६ ३०० भस्तक ढकवाने का प्रायश्चित्त सूत्र निग्रन्थ नियन्थी के उत्तरोष्ठादि रोमों का अन्यतीथिकादि द्वारा निर्गन्थी-निर्धन्य के प्रायश्चित्त-४ परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र निम्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्य के शारीरिक परिकर्म निम्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के दांतों का परिफर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५३८ ३७० करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५५८ ३२ निन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ का मैल निकलवाने का निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी की आँखों के परिकर्म प्रायश्चित्त सूत्र ५३६ ३७१ करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र निग्रंन्यो द्वारा निर्ग्रन्थ के पैरों का परिकर्म निर्गन्ध द्वारा निन्थी के अक्षिपत्रों का करवाने का प्रायश्चित्त मूत्र परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५० निर्ग्रन्थी द्वारा निग्रन्थ के मनायों का परिकर्म निर्गन्य द्वारा निर्मन्थी के भौंह आदि के रोमों ___ करवाने का प्रायश्वित्त मूत्र ५४१३७२ का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५६१ निम्रन्थी द्वारा निर्धन्य के जमादि के रोमों का निम द्वारा निर्ग्रन्थी के केशों का परिकम परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५४२ ३७२ करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५६२ ३८४ निन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के होठों का परिफर्म निम्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के मस्तक को ढकवाने करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ___का प्रायश्चित्त सूत्र तिम्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के उत्तरोष्ठ रोमों के परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५४४ अन्यतोथिक के परिकर्म करने के प्रायश्चित्त-६ निन्धी द्वारा निर्ग्रन्म के दांतों का परिकम अन्यतीथिक या गृहस्थ के बारीर परिकर्म का करवाने के प्रायश्चित्त मूत्र ५४५ ३७४ प्रायश्चित्त सूत्र निम्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ की आँखों का परिकर्म अन्यतीथिक या गृहस्थ के मैल निकालने के करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र ३५५ निर्ग्रन्थी द्वारा निर्गन्थ के अक्षिपत्रों का परिकर्म अन्यतीथिक या गृहस्थ के परों के परिकम के करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र निर्गन्थी द्वारा निर्गन्ध के भौंहों आदि के अन्यतीथिक मा गृहस्थ के नखानों में परिकम परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र वा प्रायश्चित्त सूत्र ५६७३७ निम्रन्थी द्वारा निर्मथ के केश परिकर्म अन्यतीथिक या गुहस्थ के जंधादि के रोमों का करवाने के प्रायश्चित सूत्र xve परिकर्म करने के प्रायधिवत्त सूत्र ३०२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अतीक के होठों के परिणामों के आवत सूत्र अन्तर्थिक या गृहस्थ के उत्तरोष्ठ रोम आदि के परिकर्म के प्रायश्चित सूत्र अन्यतीर्थ या गृहस्थ के दाँतों के परिक्रमों के प्रायश्चित्त सूत्र अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के आंखों के परिकर्मी के प्रति प्रायश्चित गुण विभूषा के संकल्प से जंधादि के रोमों के परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा के संकल्प से होठों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा के संकल्प से उत्तरोष्ठादि रोमों में परिकर्म के प्रायश्चित त्र faभूषा के संकल्प से दलों के परिकर्म के अवस्थित सूत्र विभूषा के संकल्प से चक्षु परिकर्म के प्रायश्वितसूभ विभूषा के संकल्प से अक्षिपत्रों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र ५६८ विभूषा के संरूप से भौहों आदि के रोमों के परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ५७० ५७१ ५.७२ ५७३ ५.७४ म अधिक या गृहस्थ के अक्षिपत्रों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के भौहों आदि के परिक्रमों के प्रायश्वित अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के केश परिकर्म का ५६३ प्रायश्चित्त सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से जांघ आदि के रोमों का परिकर्म करने के प्रायवित्त सूत्र विभू के संकल्प से स्व शरीर का परिकर्म करने के मैथुन सेवन के संकल्प से होंठों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र अन्यतीर्थिक मा गृहस्थ के मस्तक ढकने का प्रायश्वित्त सूत्र ५७६ ३६१ -७ प्रायश्चित विभूषा के संकल्प से शरीर परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा के संकल्प से मैन को निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा के संकल्प से पैरों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र विषाखात्रों के परिवा ५.७५ ५७८ ५.७६ ५८० ५५ १ ५.२ ५८३ ५८४ ५७७ ३९१ ५८५ ( 2 ) पृष्ठांविषय ५८६ ईमप ५८७ ३५८ ३८६ ३८६ ३६० ३६० ३६१ ३६२ ३६२ १९३ ३६३ ૧૨૪ EX ३६५ १९६ ३६६ विभूषा के संकल्प से केण परिकर्मका प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा के संकल्प से मस्तक ढकने का प्रायश्चित सूत्र ૩ ૨૭ ५६ मैथुन के संकल्प से स्व शरीर परिकर्म के प्रायश्चित मैथुन क्षेत्र के संकल्प से शरीर का परिक करने के प्रायश्चित्त सूत्र मैथून सेवन के संकल्प से मनाने के परिचत सूत्र मेन सेवन के संकल्प से पैरों का परिकर्म करने के प्रायश्वित सूत्र मैथुम सेवन के संकल्प से नशों का परिकर्म करने के प्रायश्चित सूत्र सेवन के संकल्प से उत्तरोष्ठ रोगों के परिकर्म के प्रायश्चित्त सूज सूत्रांक पुष्क मैथुन सेवन के संकल्प से दाँतों के परिकर्म करने के प्रायश्चित खूप सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से आंखों के परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से अक्षिपत्र परिकर्म काप 255 मेन सेवन के संकल्प से परस्पर पैरों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र ५.६० ५६१ ५६२ ५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६८ ५६६ मैथुन सेवन के संकल्प से भह जादि के रोगों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से केन परिकर्म का प्रायश्चित्त पुत्र ६०२ मैथुन सेवन के संकल्प से मस्तक ढकने का चित मैथुन के संकल्प से परस्पर परिकर्म के प्रायश्चित्त – 8 मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर शरीर के परिक्रमों के प्रायश्वित सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर मल निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र ६०० ६०१ ६०३ ६०४ ६०५ C ३६७ ३६० ३६५ ३६६ ३६६ ४०० ४०० ४० १ ४०२ ४०३ ४०३ ***** له ४०५ ४०५ ४०५ ४०६ ४०७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ari विषय सूत्रक पृष्ठांक विषय नांक पृष्ठांक मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर नखानों के (४) मथुनेच्छा से उपकरण धारणादि के प्रायश्चित्त परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र ६०६ ४०८ मैथुन सेवन के संकल्प से वस्त्र धारण करने के मैथुन के संकल्प से परस्पर जवादि परिकों प्रायश्चित्त सूत्र के प्रायश्चित्त सूत्र विभूषा हेतु उपकरण धारण प्रायश्चित्त सूत्र ६२८४२० मैथुन सेवन के संकल्प से ओष्ठ परिकम के विभूषा हेतु उपकरण प्रक्षालन प्रायश्चित्त सूत्र ६२६ ४२० प्रायश्चित्त सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से आभूषण निर्माण मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर उत्तरोष्ठ - करने के प्रायश्चित्त सूत्र परिक्रम के प्रायश्चित्त सूत्र ६०६ ४१० मैथुन सेवन के संकल्प से माला निर्माण करने मैथन सेवन के संकल्प से परस्पर दन्त परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र के प्रायश्चित्त सूत्र ६१०४१० __ मैथुन सेवन के संकल्प से धातु निर्माण करने मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर अक्षिपत्र के प्रायश्चित्त सूत्र ४२२ परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ६११४११ ११ (५) मैथुनेच्छा सम्बन्धी प्रकीर्णक प्रायश्चित्त ०" पवाराणमायारपत्त मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर अक्षिपत्र मैथुन सेवन के लिए कलह करने का परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर भौह आदि मैथन सेवन के संकल्प से पत्र लिखने का रोमों के परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ६१३ प्रायश्चित्त सूत्र ६३४ ४२२ मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर केश परिकर्म ममैथुन सेवन के संकल्प से प्रणीत आहार करने ___ का प्रायश्चित्त सूत्र का प्रायश्चित्त सूत्र वशीकरण करने का प्रायश्चित्त सूत्र ६३६४२३ मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर मस्तक ढकने अकृत्य सेवन के सम्बन्ध में हुए रिवाद का का प्रायश्चित्त सूत्र ६१५ ४१३ . निर्णय (३) मधुन के संकल्प से निषिध कृत्यों के प्रायश्विस-१० ५ परिशिष्ट मैथुन सेवन संकल्प के प्रायश्चित्त सूत्र चतुर्थ ब्रह्मचर्म महावत को पाँच भावनाएँ ४२४ विकुक्ति रूप से मैथुन संकल्प के प्रायश्चित्त प्रथम भावना : स्त्री युक्त स्थान का वर्जन ६३६ ४२४ ___४१४ द्वितीय भावना : स्त्री कथा विवर्जन ४२५ मैथुन सेवन के संकल्प से चिकित्सा करने तृतीय भावना : स्त्री रूप दर्शन निषेध ४२५ का सूत्र चतुर्थ भावना : पूर्व भक्त भोगों के स्मरण मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करने का का निषेध प्रायश्चित सूत्र पांचवी भावना : विकारवर्धक आहार निषेध ६४३ ४२७ मैथुन सेवन के लिए वस्त्र अपावृत्त करने का उपसंहार प्रायश्चित्त सूत्र ब्रह्मचर्य को नो अगुप्तियां ६४४ ४२८ मैथुन सेवन के लिए अंगादान दर्शन का ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां ६४५ ४२८ प्रायश्चित्त सूत्र ६२१ ४१६ पंचम अपरिग्रह महाव्रत अंगादान परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ६२२ ।। अपरिग्रह महानत की आराधना-१ मैथुन सेवन के संकल्प से अंगादान परिकर्म के अपरिग्रह महाव्रत आराधना की प्रतिज्ञा ६४६ ४२९ प्रायश्चित्त सूत्र ४१७ अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं ६४७ ४२६ हस्त कर्म प्रायश्चित्त सूत्र अपरिग्रह महावत को पादप की उपमा मैथुन सेवन के संकल्प से हस्तकर्म करने का अपरिग्रह महाव्रत आराधक के अकल्पनीय द्रव्य ६४६ प्रायश्चित्त मूत्र ६२५ अपरिग्रह महावत के आराधक-२ शुक्र के पुदगल निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र ६२६ ४१६ अपरिग्रही ६५० ४३४ ६४० ४२६ ४२७ ____४१६ पवन ६२३ ४३२ ४१६ अपारणहर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ur ur ६८६ ४४७ ६६१ Wory xurr Mm ६६२ ४३७ ४५२ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय पत्रांक पृष्ठांक अपरिग्रही श्रमण को पदम की उपमा ६.५१ ४३४ आम्यन्तर परिग्रह से विरत पण्डित ६८४ ४४५ सभी एकान्त पण्डित सर्वत्र समभाव के माधक परिग्रह विरत पापकर्म बिरत होता है होते हैं ६५२ गोलों का रूपक सभी बाल जीव आसक्त हैं, सभी पण्डित भोगों से निवृत्त हो अनासक्त हैं ४३४ मनोज और अमनोज्ञ काम भोगों में राग-द्वेष अनासक्त हो मरण से मुक्त होता है। ४३५ का निग्रह करना चाहिए ६८८ अनासक्त ही हमेशा अहिंसक होता है सभी कामभोग दुःखदायी हैं ४४७ कामभोगों में अनासक्त निग्रन्थ ४३५ काम भोगाभिलाषी दुःखी होता है ६६० त्यागी थमणों के लिए प्रमाद का निषेध __काम-भोगों में आसक्ति का निषेध शल्य को समाप्त करने वाला ही श्रमण होता है ६५८ ४३६ काम गुणों में मूळ का निषेध ६६२ त्यागियों को देव गति ४३६ शब्द थयण की आसक्ति का निषेध ६६३ धीर पुरुष धर्म को जानते हैं रूप दर्शन आसक्ति-निषेध ६६४ ४५१ ध्रुवचारी कर्मरज को धुनते हैं बाल जीवों के दुःखानुभब के हेतु ४५१ श्रामण्य रहित धमण सभी एकान्त बाल जीव ममत्व युक्त होते है ६६६ ४५१ पाँच आम्नव द्वार ६६३ ४३७ आतुर व्यक्तियों को परीषह असह्य होते है ६६७ कषाय कलुषित भाव को बढ़ाते हैं परिग्रह का स्वरूप-३ ४५२ स्वजन शरणदाता नहीं होते ४५३ परिग्रह का स्वरूप ६६४ ४३८ कर्मवेदन-काल में कोई शरण नहीं होता ४५५ परिग्रह पाप का फल दुःख ६६५ ४३८ अपरियड महावन आरधना का फल-५ परिग्रह महाभय परिग्रह-मुक्ति ही मुक्ति है ६६७ ४३६ अपरिग्रह आराधन का फल ४५५ परिग्रह से दुःख - अपरिग्रह से सुख ४३६ मुख-स्पृहा-निबारण का फल सुखी होने के उपाय का प्ररूपण जिनिवर्तना का फल तृष्णा को लता की उपमा ४४० आसक्ति करने का प्रायश्चित्त-६ अर्थलोलुप हिंसा करते हैं भब्द श्रवण शक्ति के प्रायश्चित्त सूत्र लोभ-निषेध ____४४१ वप्रादि (प्राकारादि) शब्द श्रवण के प्रायश्चित्त जीवन विनाशी रोग होने पर भी औषधादि के ४५७ __संग्रह का निषेध ६७३ ४४१ इहलौकिकादि शब्दों में आसक्ति का प्रायश्चित्त अक्षनादि के संग्रह का निषेध ४४१ सूत्र ४५८ बालजीव र कर्म करते हैं ६७५ ४४२ गायन आदि करने का प्रायश्चित्त सूत्र ७०७ ४५६ मूर्ख धर्म को नहीं जानते हैं मुख आदि से वीणा जैसी आकृति करने के आसक्ति-मिषेध-४ प्रायश्चित्त सूत्र ७० ४५ सर्वज्ञ ही सर्व बास्रवों को जानते हैं ६७७ ४४३ मुख आदि से वीणा जैसी ध्वनि निकालने के रति-निषेध ६७८ ४४३ प्रायश्चित्त सूत्र গরি-নি ១ ឱ ४४३ विमादि अवलोकन के प्रायश्चित्त सूत्र ४६० रति-अरति-निषेध ६८० ४४ इहलौकिक आदि रूपों में आसक्ति रखने का भिक्षु को न रति करनी चाहिए और न अरति प्रायश्चित्त सूत्र करनी चाहिए ६८१ ४४४ पात्र आदि में अपना प्रतिबिम्ब देखने के राग यमन के उपाय ६.२ ४४५ प्रायश्चित्त सूत्र ७१२ भाम्पत्तर परिग्रह के पाश से बद्ध प्राणी ६८३४४५, गन्ध संघने का प्रायश्चित्त सूत्र . . : ६७० ४४० ४६० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४१ ७४३ ४८६ विषय सूत्रांक पाठांक विषम सूत्रांक पृष्ठांक अल्प अचित्त जल से हाथ धोने का प्रायश्चित्त दिन में या रत्रि में प्रशनादि ग्रहण करने के सूत्र तथा खाने के प्रायश्चित्त सूत्र ७३५ ४८० कौतुहल के संकल्प से सभी कार्य करने के रात्रि में अगनादि के संग्रह करने के तथा खाने प्रायश्चित्त सूत्र ७१५४६३ के प्रायश्चित्त सूत्र वशीकरण प्रायश्चित्त-७ दिवा-भोजन निन्दा और रात्रि-भोजन प्रशंसा राजा को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र ७१६ के प्रायश्चित्त सूत्र अंगरक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त दिन में या रात्रि में ग्रहण किये गये गोबर के सूत्र लेप के प्रायश्चित सुत्र नगर-रक्षक को वश में करने आदि के दिन में या रात्रि में गृहीत लेप प्रयोग के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र ७३६ ४८२ निगम-रक्षक को वश में करने भादि के उद्गाल गिलने का प्रायश्चित्त सूत्र ७४० प्रायश्चित्त सूत्र अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप सीमा-रक्षक को वश में करने आदि के अष्ट प्रवचन माता प्रायश्चित्त सूत्र आठ समितियां ૨૭૪૨ ४८५ देश-रक्षक को मश में करने आदि के प्रायश्चित्त ईर्यासमिति ४६६ विधिकल्प -१ सर्व-रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त ईयासमिति के भेद-प्रभेद प्रासुक बिहार स्वरूप प्ररूपण ७४४ पांचवे महावत का परिशिष्ट भाषित आत्मा अणगार की क्रिया का प्ररूपण ७४५ पांचवें अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ ७२३ संवृत अपगार की क्रिया का प्ररूपण ४८८ उपसंहार निषेध-कल्प-२ पाँचों महायतों का परिशिष्ट अस्थिर काष्ठादि के ऊपर होकर जाने का निषेध ७४४ ४८६ पांच महाव्रतों की आराधना का फल ७२४ ४७३ मिक्ष कोक्लादि का अतिक्रमण न करे ४८४ आरम्म परिग्रह विरत कर्मों का अन्त करने रात्रिगमन निषेध ७४६ वाला होता है ७२५४७४ सांड आदि के भय से उन्मार्ग रो जाने का रात्रिभोजन-निषेध-१ निषेध ७५० ४८६ दस्यु प्रदेश के मार्ग से गमन का निषेध ७५१ षष्ठ व्रत आराधन प्रतिज्ञा ४८६ निषिद्ध क्षेत्रों में विहार करने के प्रायश्चित सूप ७५२ रात्रि में प्रशनादि ग्रहण का निषेध ७२७ चोरों के भय से उन्मार्ग गमन का निषेध ७५३ रात्रि भोजन निषेध का कारण ७२८ ૨૩૬ चोरों का उपसर्ग होने पर मौन रहे ७५४ ४६० रात्रि भोजन का सर्वथा निषेध चोरों द्वारा उपधि छीन लेने पर फरियाद न करे ७५५ रात्रि में माहारादि के उपयोग का निषेध अन्य से उपधि वहन करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ७५६ रात्रि में लेप लगाने का निषेध ४६१ ७३१ ४७७ पथिकों के पूछने पर मौन रहना चाहिए रात्रि में तेल आदि के मालिश का निषेध मार्ग में गृहस्थों से वार्तालाप का निषेध ७५८ ४६१ रात्रि में कल्कादि के उबटन का निषेध मार्ग में वन आदि अवलोकन निषेध ७५६ रात्रि भोजन के प्रायश्चित्त-२ मार्ग में कच्छादि अवलोकन-निषेध ७६० सूर्योदयास्त के सम्बन्ध में पांका होने पर आहार अन्यतीथिक आदि के साथ निष्क्रमण व करने के पायश्चित्त सूत्र प्रवेश निषेध ४८७ ४८७ ४७५ ४६० ४७६ 6.6 G८६ ४७७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M m सूत्र ७६५ ७६७ ५१८ विषय सूत्रक पृष्ठोंक विषय सूत्रांक पृष्ठोक अन्यतीथिकादि के साथ ग्रामानुग्राम गमन कर भाषा समिति निषेध ७६२४६३ विधिकल्प-१ अन्यतीथिकादि के साथ प्रवेश और निष्क्रमण कालिक तीर्थंकरों ने चार प्रकार की भाषा के प्रायश्चित्त सूत्र प्ररूपी है ७५७५१० अन्यतीयिक आदि के साथ ग्रामानुग्राम विहार विवेक पूर्वक बोलने वाला आराधक, अविवेक करने का प्रायश्चित्त सूत्र से बोलने वाला विराधक निषिद्ध शग्याओं में प्रवेश करने का प्रायश्चित्त भाषा के भेद-प्रभेद ५११ ___४६३ विधिकल्प-२ विधि-निषेध कल्प--३ एक वचन विवक्षा ७६० ५१२ भिक्षु के चलने के विधि-निषेध ७६६ ४६४ बहुवचन विवक्षा ५१३ विषम मार्ग से जाने के विधि-निषेध ४६४ स्त्रीलिंग शब्द ७६२ भिक्षार्थ गमन मार्ग के विधि-निषेध ७६८ ४६४ पुल्लिग शब्द ७६३ ग्रामानुग्राम गमन के विधि-निषेध ७६६ ४६५ नपुंसकलिंग शब्द ७६४ आचार्यादि के साथ गमन के विधि-निषेध ७५० आराधनी भाषा मार्ग में आत्रार्यादि का विनय ४६६ अवधारिणी भाषा ७६६ मार्ग में रलाधिक के साथ गमन के प्रज्ञापनी भाषा ५१५ विधि-निषेध मन्दकुमारादि की भाषा आदि का बोध ७६० ५१७ मार्ग में रत्नाधिक का विनव सोपाहे प्रकार के वचनों को विवेक ७६ स्थविरों की सेवा के लिए परिहार कस्पस्थित असावध असत्यामृषा भाषा बोलना चाहिए ८०० ५१८ भिक्षु के गमन सम्बन्धी विधि-निपेन और कषाय का परित्याग कर बोलना चाहिए। आमन्त्रण के सम्बन्ध में अमावध भाषा विधि ८०२ प्रायश्चित्त ५१६ ४६७ मटबी में जाने के विधि-निषेध ७५५ अन्तरिक्ष के विषय में भाषा विधि विरुद्ध राज्यादि में जाने के विधि-निषेध ७७६ रूपों को देखने पर असावद्य भाषा विधि ५०४ अराज्य और विरुद्ध राज्य में गमनागमन का दर्शनीय प्राकार आदि के सम्बन्ध में असावद्य प्रायश्चित्त सूत्र ४६३ भाषा विधि ८०५ ५२० अभिषेक राजधानियों में बार-बार जाने-आने के उपरात अशनादि के सम्बन्ध में असावद्य प्रायश्चित्त सूत्र भाषा विधि सेना के पड़ाव वाले मार्ग से गमन के विधि पुष्ट शरीर वाले मनुष्यादि के सम्बन्ध में निषेध ५०० असावध भाषा विधि ५२० सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में रात रहने का विधि-निषेध कल्प-२ प्रायश्चित्त सूत्र ५०१ गो आदि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि ८०८ ५२१ प्राणी आदि युक्त मार्ग से जाने के विधि-निषेध ७८१ उद्यानादि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि ८०९ महानदी पार गमन विधि-निषेध के पांच वन फलों के सम्बन्ध में अमावद्य भाषा विधि ५१० ५०१ औषधियों के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि ८११ पाँच महानदी पार करने का प्रायश्चित्त मूष ७८३ ५०२ शाब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शादि के सम्बन्ध नौका विहार के विधि-निषेध ५०२ में असावध भाषा विधि ८१२ ५२२ जंघा प्रमाण जल पारकरण विधि ५८५ ५०५ एकान्त निश्चयात्मक भाषा का निषेध ५२२ मौका बिहार के प्रायश्चित सूत्र ७५६५०६ छर निषिद्ध वचन ८१४५२४ ७७४ ५१६ ४६६ ४६E ५१६ ५२१ कारण ७८२ ५१३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ ८४८ ५३५ विषय सूत्रांक पृष्ठोक विषय सूत्रांक पृष्ठाक आठ निषिद्ध स्थान ८१५ ५२४ अगाढादि वचनों के प्रायश्चित्त सूत्र ८४१ ५३२ चार प्रकार की सावध भाषाओं का निषेध ५२४ एषणा समिति-१ मृषा आदि भाषाओं का निषेध ५२४ एषणा ममिति सत्यामृषा (मिश्र) भाषा आदि भाषाओं का पिवणा स्वरूप एवं प्रकार-२ निषेध ८१८ ५२४ अवर्णवाद' आदि का निषेध सर्व दोष मुक्त आहार का स्वरूप ८४३५३३ सावध वचन का निषेध आहार निष्पादन के कारण व उसे ग्रहण करने ५२५ मटण के सनादिनानिध तथा खाने की विधि पथिकों के सावध प्रश्नों के उत्तर देने का गन्ध में आसक्ति का निषेध ५३४ निषेध मधुकरी वृत्ति ८४६ ५३४ आमन्त्रण में सावद्य भाषा का निषेध मृगचर्या वृत्ति ८४७ रोग आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का कापोति वृत्ति निषेध अदीन वृत्ति ८२४५२७ आहार निमित्त से भिक्षु को घुन की उपमा प्राकार आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का भिक्षावृत्ति के निमित्त से भिक्षु को मत्स्य निषेध २५५२८ की उपमा ८५१ उपस्कृत अशानादि के सम्बन्ध में सावध भाषा भिक्षावृत्ति के निमित्त से भिक्षु को पक्षी की का निषेध उपमा पुष्ट शरीर वाले मनुष्य त्यादि के सम्बन्ध में चार प्रकार के आहार सावध भाषा का निषेध ५३७ ८२७५२८ तीन प्रकार का आहार ८५४ ५३७ गाय आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का अवगृहीत आहार के प्रकार ८५५ निषेध विगय विकृति के नौ प्रकार ५२८ उद्यान आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का विगम के अन्य प्रकार ५२८ निषेध तीन प्रकार की एषणा ८५८ वन-फलों के सम्बन्ध में सावध भाषा का नौ प्रकार की शुद्ध भिक्षा ५३६ निषेध आहार-पाचन का निषेध औषधियों के सम्बन्ध में सावध भाषा का छह प्रकार की गोबरी ८६१ ५३६ निषेध गवेषणा-३ पान्दादि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध ५३२५३० शुद्ध आहार की गवेषणा और उपभोग का विधि-निषेध-कल्प-३ उपदेश कहने योग्य और नहीं कहने योग्य भाषा सामुदानिकी भिक्षा का विधान ८६३ दान सम्बन्धी भाषा-विवेक एषणा कुशल भिक्षु ८६४ अहितकारी भाषा विवेक भिक्षु की गवेषणा विधि साधु के जीवन में भाषा विवेक आहार-उद्गम-गवेषणा संखरि आदि के सम्बन्ध में भाषा-विवेक स्वजन-यरिजन गृह में जाने के विधि-निषेध ६७ ५३१ भदियों के सम्बन्ध में भाषा विवेक स्वजन के घर से आहार ग्रहण का विधि निषेध क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में भाषा विवेक स्वजन के घर पर अकाल में जाने का निषेध ८६६ भाषा समिति के प्रायश्चित्त-४ स्वजन परिजन के घर असमय में जाने का अल्प कठोर वचन कहने का प्रायश्चित्त सूत्र ८४० ५३२ प्रायश्चित्त सूत्र ८७० ५३८ ८५६ ५३६ རY ८३४ ५४१ ___८३८ ८६८ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गवेषणकाल में जाने की विधि गवेषणाकाल में माचरणीय कृत्व भिक्षाकाल में ही जाने का विधान गवेषणाकाल में खड़े रहने आदि की विधि श्रमण आदि को देखकर खड़े रहने की और प्रवेश की विधि गृहत्य के पर में नहीं करने के कार्य संक्लेश स्थान निषेध मिक्षार्थं जाने के समय पात्र प्रतिलेखन की भिक्षा के समय उन्मत्त सांड आदि को देखकर गमन का विधि-विधान विधि असमय में प्रवेश के विधि-निषेध एषणा क्षेत्र का प्रमाण आहार करते हुए प्राणियों के मार्ग में आने-जाने का निषेध सूत्र मिश्राचर्या में मादि पठने की विधि ढके हुए द्वार को खोलने का विधिनिषेध भिक्षावरी में माया करने का निषेध affaरिका में जाने के विधि-निषेध चर्या प्रविष्ट भिक्षु के कर्तव्य चर्या निवृत्त भिक्षु के कर्तव्य नवनिर्मित ग्रामादि में आहार ग्रहण करने का प्रायश्वित्तमूर नई लोहे आदि की खानों में आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र उद्गम-दोष प्राक्कथन आहार दोष मोह दोष उद्गम-बोष -४ ( १७ ) सूपृष्ठांक विषय आधाकर्मी आहार करने से कर्मबन्ध का एक स्थान निषेध कल्पस्थित अकल्पस्थित के निमित्त बने आहार के ग्रहण का निर्णय सक्तिक आधा बाहार करने का फल ६०० आधाकर्म आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त ८६६ सूत्र ८७१ ५४४ ८७२ *૪૪ ८७३ ५४४ ५४५ ८७४ ८८२ खड्डा आदि से युक्त मार्ग में जाने का निषेध ८८३ अति कुलों में गोरी का विरोध ८६४ घूर्णित कुलों में शिक्षा -गमन का प्रायश्चित सूत्र ८८५ अगवेषणीय कुल ८९६ निषिद्ध कुलों में गवेषणा- निषेध ६६७ निषिद्ध कुलों में भिक्षा लेने जाने का प्रायश्चित्त (१) आधाकोष - आधाकर्मो आहार ग्रहण का निषेध ८०५ ८७६ ८७७ ८७६ ८७६ ८८० ८८१ ८६८ ८६६ ८९० = ६१ ८६२ ८१३ = १४ ८६५ ८६६ ८६७ ५४५ ५४६ ५४६ ५४६ ५४७ ५४७ ५४७ ૪ ५४८ ५४०] ५४६ ५४६ ५४६ ५४६ ५४९ ५५० ५५० ५५० ५५१ ५५१ ५५२ ५५२ ५५३ ५५४ -५.५४ प्रतिकर्म दोषयुक्त आहार का निषेध पूतिकर्म दोषयुक्त आहार ग्रहण करने का परिणाम पूतिकर्म दोषयुक्त आहार करने का प्रायश्चित्त ग्रहण (४) स्थापना दोष स्थापना दोष का प्रायश्चित्त सूत्र (५) चैत दोष क्रीत आहार ग्रहण करने का निषेध (९) अभिहुत आहार ग्रहण करने का निषेध अभि दोष का प्राय सूत्र (७) भि दोष - (२) ओशिक दोष--- आहार ग्रहण करने का निषेध १०२ दानार्थ स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध १०३ पुष्यार्थं स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध १०४ भारियों के लिए स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध ६७५ श्रमणार्थं स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध ६०६ (२) लिफर्म दो -- सूत्रांक पृष्ठांक मालोपहृत आहार ग्रहण करने का निषेध मानोपहृत आहार पहण करने का प्रायश्वि ८६८ सूत्र कोठे में रखे हुए आहार को लेने का निषेध कोठे में रखा हुआ आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र ६०१ ६०७ ६०८ उद्भिन्न आहार ग्रहण करने का निषेध ६१४ ५५२ उद्भिन्न आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र ६१५ (२) मालोपत दोष ६०६ εfo ६११ ६१२ ९१३ ६१६ ६१७ ६१८ ६१६ ५५५ ५५६ **૭ ५५८ ५५८ ५५८ ५५८ ५५८ ५५८ ५५६ ५५६ ५५६ ५५६ ५५६ ५६० ५६० ५६० ५६१ ५६१ ५६२ ५.६२ ५६२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक अनिसृष्ट बोष पूर्वकर्मयुक्त (अचित्त) नमक के ग्रहण अनिसृष्ट' आहार ग्रहण करने का विधि-निषेध १२० ५६३ का निषेध उत्पादन दोय-५ पूर्व कर्म युक्त (अचित्त) सिट्टे आदि के ग्रहण [प्राक्कथन] का निषेध सोलह उत्पादन दोष पूर्वकर्म कृत हाथ आदि से आहार ग्रहण अन्तर्धान पिंड का निषेध ५७२ (१) कोपपिंड दोष पूर्वकर्म कृत हाथ आदि से माहार सेने का अमानादि के न मिलने पर क्रोध करने का निषेध ६२१ प्रायश्चित्त सूत्र १४० ५७३ (२) मानपिण्ड कोष ६२२ १६वायुकाय के विराधक से भिक्षा लेने का निषेध (३) लोम-पिण्ड दोष व प्रायश्चित्त (४) पूर्व-पश्चात् संस्तव दोष १२४ ५६५ बनस्पतिकाय के विराधक से आहार लेने पूर्व-पश्चात् संस्तव दोष का प्रायश्चित्त सूत्र ९२५ का निषेध उत्पादन दोषों का वर्जन और शुद्ध आहार विविधकाय विराधक से भिक्षा लेने का निषेध १४३ ग्रहण का उपदेश (४) उन्यिवदोषधातु पिडादि दोषयुक्त आहार करने वाले के प्राणी आदि से युक्त आहार ग्रहण का निषेध प्रायश्चित्त सूत्र ६२७५६६ और गृहीत आहार के परठने की विधि ६४४ ५४४ एषणा दोष-६ अनन्तकाय संयुक्त आहारकरण प्रायश्चित्त सूत्र ६४५ ५७५ प्राक्कथन ५६७ प्रत्येककाय संयुक्त आहारकरण प्रायश्चित्त सूत्र ९४६ ५७५ दस दोष ग्रहणषणा के (५) अपरिणत वोष - (१) शंकित दोष अशस्त्र परिणत कमलकन्द्र आदि के ग्रहण करने शंका के रहते हुए आहार ग्रहण करने का निषेध का निषेध अशस्त्र परिणत पिपल्यादि के ग्रहण का निषेध ४८ (२) निक्षिप्त दोषः अशस्त्र परिणत प्रलंबों के ग्रहण का निध९४६ पृथ्वीकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने अशस्त्र परिणत प्रवालों के ग्रहण का निषेध ६५० का निषेध ६२६५६८ अशस्त्र परिणत कोमल फलों के ग्रहण अपकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेध का निषेध अशस्त्र परिणत इक्षु आदि के ग्रहण का निषेध ६५२ अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने अशस्त्र परिणत उत्पलादि के ग्रहण का निषेध ९५३ ५७७ का निषेध अशस्त्र परिणत अग्रवीजादि के ग्रहण का निषेध ५४ वनस्पतिकाय प्रतिष्टित आहार ग्रहण करने अशस्त्र परिणति इक्षु आदि के ब्रह्म का निषेध ६५५ का निषेध ६३२ ५७० अशस्त्र परिणत लसुण आदि के ग्रहण यसकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेध ९५६ ५७७ का निषेध अशस्त्र परिणत जीव युक्त पुराने आहार के निक्षिप्त दोषयुक्त आहार ग्रहण करने के ग्रहण का निषेध प्रायश्चित्त सूत्र १३४५७१ अपरिणत मिथ बनस्पतियों के ग्रहण का निषेध ६५ (३) दायग दोष अपरिणत-परिणत धान्यों के ग्रहण का गर्भवती के हाथ से आहार ग्रहण का निषेध ६३५ ५७१ विधि-निषेध ६५९ स्तनपान कराती हुई स्त्री के हाथ से आहार कृत्स्न धान्य भक्षण का प्रायश्चित्त सूत्र ६६० प्रहण का निषेध ६३६ ७१ भुने हुए सिट्टे आदि के ग्रहण का विधि-निषेध ६६१ ५७६ ५७६ १३० ५७८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ मा विषय सूत्रक पृष्ठांक विषय सूत्रोक पृष्ठक अपरिणत-परिणत ताल प्रलम्ब के ग्रहण का मूर्धाभिषिक्त राजा के निकाले हुए आहार लेने विधि-निषेध ५८७ के प्रायश्चित्त सूत्र ५६२ अपरिणत-परिणत आम ग्रहण का विधि निषेध ६६३ ५८. विविध स्थानों में राजपिण्ड लेने के प्रायश्चित्त सचित्त अंब उपभोग के प्रायश्चित्त सूत्र अपरिणत-परिणत इक्षु ग्रहण का विधि-निषेध ६६५ ५८२ प्रकीर्णक दोष-८ सचित्त इक्षु खाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५५३ औद्देशिकादि आहार ग्रहण करने के विधि ग्रहण १६० अपरिणत-परिणत लहसुन ग्रहण का विधि-निषेध ६६७ ५८३ निमन्त्रण करने पर भी दोषयुक्त आहारादि (६) लिप्त दोष - लेने का निषेध ९६१ ५६७ संसृष्ट हाथ मादि से आहार ग्रहण के विधि सावध संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध निषेध ६६८ ५६५ आहार की आसक्ति करने का निषेध ५६८ सचित्त द्रव्य से लिप्त हस्तादि से आहार ग्रहण संग्रह करने का निषेध ५६६ के प्रायश्चित्त सूत्र ६६६ संखडी निषेध और शुद्ध आहार का विधान १६५ छदित दोष ५८७ दोषरहित आहार का ग्रहण और उसका एषणा विवेक -७ परिणाम १९६५६६ गर्भवती निमित्त निर्मित आहार का विधि-निषेध ६७१ निर्दोष आहार गवेषक की और देने वाले अदष्ट स्थान में जाने का निषेध ५८७ की सुगति ६६७६०० रजयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध ९७३ ៥៨១ परिमोगेषगा--- पुरुष आदि बिखरे हुए स्थान में प्रवेश आहार करने का उद्देश्य १६८६०० का निषेध आहार करने के स्थान का निर्देश ECE६०० बच्चे आदि के उल्लंघन का निषेध ५८८ गोचरी में प्रविष्ट भिक्षु के आहार करने अधिक त्याज्य भाग वाले आहार ग्रहण की विधि का निषेध १७६ ५८८ उपाश्रम में आकर आहार करने की विधि अपिड के ग्रहण का निषेध ६७७ ५८८ मुनि आहार की मात्रा का ज्ञाता हो ६०२ नित्य दान में दिये जाने वाले घरों से आहार लेप सहित पूर्ण आहार करने का निर्देश ६०२ लेने का निषेध ५८६ रसगृद्धि का निषेध नित्यदान पिंडादि खाने के प्रायश्चित सूत्र १७६ ५८६ आगंतुक श्रमणों को निमन्त्रित करने की विधि आरण्यकादिकों का आहारादि ग्रहण करने के विगपभोक्ता भिक्षु प्रायश्चित सूत्र आचार्य के दिए बिना विकृति भक्षण का नैवेद्यपिंड भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र अत्युषण आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र पुन: भिक्षार्थ जाने का विधान राजपिण्ड' ग्रहण करने और भोगने के पुलाक भक्त ग्रहण हो जाने पर गोचरी जाने का प्रायश्चित्त सूत्र विधि-निषेध अन्तःपुर में प्रवेश व भिक्षा ग्रहण के स.धारण आहार को आज्ञा लेकर बांटने की विधि १० प्रायश्चित्त सूत्र श्रमण ब्राह्मण आदि के लिए गृहीत आहार के मूर्धाभिषिक्त राजा के अनेक प्रकार के आहार बांटने खाने की विधि ११ ६०४ ग्रहण का प्रायश्चित्त सूत्र स्थविरों के लिए संयुक्त गृहीत आहार के परिभोग । मूर्धाभिषिक्त राजा के छः दोषायतन जाने बिना और परठने की विधि १२ ६०५ गोचरी जाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५६ ५६१ बढ़े हए आहार सम्बन्धी विधि यात्रागत राजा का आहार ग्रहण करने के साम्भोगिकों को निमन्त्रित किए बिना परठने प्रायश्चित्त सूत्र का प्रायश्चित्त सूत्र WW ००० ६०४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) विषय ८६०७ ६२० ६०५ र० सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठोक गृहीत आहार में माया करने का निषेध १५६०६ संखडी में जाने के लिए मायास्थान सेवन का आहार का उपभोग करने में माया करने निषेध का निषेध ६०७ रात्रि में संबडी के लिए जाने का निबंध नीरस बाहार गरठने का प्रायश्चित्त सूत्र ६०७ संखडी के लिए जाने के प्रायश्चित्त सूत्र गृहीत लवण के परिभोग और परिष्ठापन सागारिक--१२ की विधि प्राणियों से युक्त आहार के परिभोग और सागारिख के अशनादि ग्रहण वा निषेध परिष्ठापन की विधि परिहरणीय शव्यातर का निर्णय ६१९ संसृष्ट असंसृष्ट शय्यातर पिड के ग्रहण का उदकादि से युक्त आहार के परिभोग और विधि-निषेध परिष्ठापन की विधि अचित्त अनेषणीय आहार के परठने की विधि शय्यातर के असं सृष्ट पिंड के संगृष्ट कराने माचार्य के दिए बिना आहार करने का का निषेध व प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त सूत्र शय्यातर के घर आये आहार के ग्रहण का पत्रों का प्रहार को गागापिचन सत्र विधि-निषेध २३ गृहस्थ के पात्र में आहार भोगने का प्रायश्चित्त शय्यातर के अन्यत्र भेजे गये आहार को ग्रहण करने का विधि-निषेध ६२० पृथ्वी आदि पर अशनादि रखने के प्रायश्चित्त शाय्यातर के अंशयुक्त आहार ग्रहण का विधि निषेध सूत्र २५०६ ६२. परिभोगवणा के वोष-१० पूज्य पुरुषों के आहार के ग्रहण करने के विधि निषेध पांच दोष परिभौगषणा के ६०६ इंगालादि दोष का स्वरूप भय्यातर के आगन्तुक निमित्तका माहार के इंगालादि दोषरहित आहार का स्वरूप ग्रहण का विधि-निषेध क्षेत्रातिकान्त आदि दोष का स्वरूप शाय्यातर के दासादि निमित्तक आहार के आहार लेने के कारण ६१२ ग्रहण का विधि-निषेध ५३६२२ आहार त्यागने के कारण . ६१२ शय्यातर के उपजीवी शाति जन निमित्तक कालातिक्रांत आहार रखने व स्वाने का निषेध आहार के ग्रहण का निषेध ५४ ६२२ व प्रायचित्त ३१ ६१२ शय्यातर के सीरजाली के पदार्थों को ग्रहण माईतिक्रान्त आहार रखने व खाने का निषेध करने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त शय्यातर के सीरवाली भोजन सामग्री के ग्रहण आहार की प्रशंसा और निन्दा का निषेध ३३ ६१३ का विधि-निषेध ६२५ संखडी-गमन-११ शय्यातर के सीरवाली के आम्र फल ग्रहण करने का विधि-निषेध १७६२५ आधा योजन उपरान्त संखडी में जाने का निषेध ३४ ६१४ संखड़ी में जाने से होने वाले दोष सागारिक वा आहार भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र संखडी में भोजन करने से उत्पन्न दोष ३६ सागाखि का आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त आकीर्ण संखडी में जाने का निषेध व उसके दोष ३७ ६१५ उत्सवों में आहार के ग्रहण का विधि-निषेध ३८ ht शय्यातर का घर जाने बिना भिक्षागमन का महामहोत्सवों में माहार के ग्रहण का विधि-निषेध ३६ प्रायश्चित्त सूत्र आकीर्ण या अनाकीर्ण संखडी में जाने का सागारिक की निश्रा में अनादि की याचना विधि-निषेध ४० ६१७ का प्रावश्चित सूत्र ६१६२४ ५२ ६२२ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता E ६२३ ६३० : विषय सूत्रोक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठाक पाणषणा-२ उपस्थान क्रिया का स्वरूप ६४४ प्राक्कथन भिक्षु के एक क्षेत्र में पुनः आने वो काल-मर्यादा ६० ६४४ धौवणपाणी मूचक आगम पाठ अनभित्रान्त त्रिदा का स्वरूप ११ प्रकार के ग्राह्य धोबन पानी वर्य क्रिया का स्वरूप ६४५ १२ प्रकार के अग्राह्य धोवण पानी ६२७ महावज्यं किया का स्वरूप अचित्त जल ग्रहृष्ण विधि सावध निया का स्वरूप ६४५ ग्लान निर्ग्रन्थ के लिए कल्पनीय विकट दत्तियाँ ६३ ६२८ महासाश्य क्रिया का स्वरूप ६४५ अप्रासुन पानी लेने का निषेध ग्राम आदि में निर्जन्थ-नियंन्थियों के रहने का असावधानी से दिमे हुए सचित्त जल के परठने निषेध ६४६ निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों के लिए पानी के किनारे पर की विधि सरस निरस पानी में समभाव का विधान निषित कार्य पानी ग्रहण करने के विधान और निषेध निर्गन्थियों के उपाश्रय में निर्गन्धों के लिए अमनोज्ञ जल परिष्ठापन का प्रायश्चित्त सूत्र निषिद्ध कार्य तत्काल घोये पानी को ग्रहण करने का निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में नियन्थियों के लिए प्रायश्चित्त सूत्र ३२ निषिद्ध कार्य ६४७ शाध्यषणा-विधि-१ स्वाध्याय भूमि में निषिद्ध कार्य श्रमण के ठहरने योग्य स्थान शम्यषणा विधि-निषेध-३ उपाश्रय की याचना अन्तरिक्ष उपाश्रय के विधि-निषेध उपाथय में प्रवेश-निष्क्रमण की विधि ६३३ एषणीय और अनेषणीय उपाथव हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में निम्रन्थों की वसतिवास तृण पराल निर्मित उपायय का विधि-निषेध १०३ ६४६ . मर्यादा कपाटरहित द्वार वाले उपाश्रय का विधि-निषेध १०४ निग्रन्थों के कल्प्य उपाश्रम ६३४ धान्ययुक्त उपाश्रय के विधि-निषेध १०५ हेमन्त और ग्रीष्म में नियंन्धियों की वसतिवाम आहारयुक्त उपाश्रय के विधि-निध ६५१ मर्यादा ग्रामादि में चातुर्मास करने का विधि-निषेध १०७ निन्थियों के कल्प्य उपाश्रय । बइथत बसति निवास विधि-निषेध १०-१०६ ६५२ ६३५ कायोत्सर्ग के लिए स्थान का विधि-निषेध ११० निगन्य-निर्गन्थियों के कल्प्य उपाश्रय ६५२ ग्रामादि में निर्गन्ध-निर्गन्थियों के रहने की विधि ६३५ स्वाध्यायभूमि में जाने के विधि-निषेध ६५२ अभिप्रान्त क्रिया कल्पनीय शय्या ६३५ अन्तर गृहस्थानादि प्रकरण अल्प सावध क्रिया कल्पनीय शय्या अवग्रह ग्रहण विधि-४ शाम्येषणा-निषेध-२ पाँच प्रकार के अवग्रह आज्ञा ग्रहण करने की विधि ११४ गृह निर्माण शय्या निम्रन्थों के अकल्प्य उपाश्रय पूर्वगृहीत अबत्रह के ग्रहण की विधि अवग्रह क्षेत्र का प्रमाण निग्रन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय अथग्रह के ग्रहण करने का और उसमें रहने निम्रन्थ-निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय का विवेक ११७६५४ गृहस्थ प्रतिबद्ध उपाश्रय के दोष शुद्ध उपाश्रय की प्ररूपणा अवाह ग्रहण निषेध-५ बारंबार सार्मिक के आगमन की शम्या का सचित्त पृथ्वी आदि का अवग्रह निषेध निषेध ६४४ अन्तरिक्ष जात अवग्रहों का निषेध ६५५ कालातिक्रान्त क्रिया का स्वरूप ६४४ गृहस्थ संयुक्त उपाथय का अवग्रह निषेध १२० ६५० ६५१ ६३४ ६ Frirmir Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KK १२७ ६५७ ६५८ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय भूत्रांक पाक गृहस्थ के घर से संलग्न उपाश्रय का अवग्रह जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध निषेध १२१६५६ और प्रायश्चित्त अकलनीय उपाश्रयों का अवग्रह निषेध १२२ ६५६ ज्योतियुक्त उपाधय में रहने का विधि-निषेध साँचत्र उपाश्रय का अपग्रह लेने का निध १२३ और प्रायश्चित्त १४६ संस्तारक ग्रहण विधि-६ दीपकयुक्त उपाश्रम में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त आगन्तुक श्रमणों के शय्या संस्तारक की विधि १२४ ६५६ अल्पज्ञों के रहने का विधि-निषेध और शम्या संस्तारक के ग्रहण की विधि १२५ प्रायश्चित्त निर्ग्रन्थों के कल्प्य आसन ६५७ नित्य निवास का प्रायश्चित्त मूत्र १४६ शाम्बा संस्तारक के लाने की विधि ६५७ औद्देशिकादि पाय्याओं में प्रवेश के प्रायश्चित्त शच्या संस्तारक की पुन: आज्ञा लेने की विधि १२८ शय्या संस्तारक के बिछाने की विधि १२६ ६५७ घृणित कुलों में रहने का प्रायश्चित्त सूत्र शय्या संस्तारक पर बैठने व शयन की विधि १३० निर्गन्थियों के उपाथव में अविधि से प्रवेश अन्य सांभोगिक को पीढ़ आदि के निमन्त्रण करने का प्रायश्चित्त सूत्र विधि निग्रंथियों के आगमन पथ में उपकरण रखने सागारिक के पाय्या संस्तारक की प्रत्यर्पण का प्रायश्चित्त सूत्र विधि स्वधर्मी निम्रन्थ को आवास न देने का खोए हुए धाय्या संस्तारक के अन्वेषण की विधि १३३ ६५८ प्रायश्चित्त सूत्र प्रतिलेखन किये बिना शय्या पर शयन करने स्वधर्मी निर्गन्थी को आवास न देने का वाला पाप श्रमण होता है १३४ प्रायश्चित्त सूत्र १५५६६५ अनुकूल और प्रतिकूल शय्यायें स्वजन आदि को उपाश्रय में रखने का संस्तारक ग्रहण विधि निषेध-७ प्रायश्चित्त सूत्र कल्पनीय अपल्पनीय शय्या संस्तारक राजा के समीप ठहरने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र १५७ शय्या संस्तारक ग्रहण का विधि-निषेध १६७ वस्त्रवणा-.संस्तारक प्रत्यर्पण निधि-निषेध वस्त्रंषणा का स्वरूप-१ संस्तारक ग्रहण निषेध निग्रन्थ-निग्रन्थियों को वस्त्रषणा का स्वरूप १५८६६६ निग्रन्थियों के अकल्पनीय आसन वस्त्र का प्रतिलेखन करने के बाद वस्त्र प्रहण दूसरी बार आज्ञा लिए बिना शय्या संस्तारक का विधान ग्रहण का निषेध हमन्त और ग्रीष्म में वस्त्र ग्रहण करने का विधान शय्या संस्तारक लौटाए बिना विहार करने प्रव्रज्या पर्याय के क्रम से वस्त्र ग्रहण का विधान का निषेध १४१ ६६१ निग्रन्थ की वस्त्रषगा विधि - १ (२) संस्तारक सम्बन्धी प्रायश्चित्त निम्रन्थों की वस्त्रोषणा विधि १६२६६७ शय्या संस्तारक सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र १४२ ६६२ सागारिक का शय्या संस्तारक बिना आज्ञा लेने निर्गन्धिनी की वस्त्रेषणा विधि-१ (३) का प्रायश्चित्त सूत्र १४३ ६६२ निर्ग्रन्थी की वस्त्रषणा विधि शरयषणा विधि-निषेध प्रायश्चित्त-१० निर्ग्रन्ची को वस्त्रावग्रह विधि सुरायुक्त उपाथय में रहने का विधि-निषेध निम्रन्थ-निग्रन्थी को वस्त्रवणा का निषेध-१(४) व प्राधिचत्त १४४ ६६३ औद्देशिकादि वस्त्र के ग्रहण का निषेध १६५ ६६६ १३५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ १६६ २०२ শিষ सूत्रोक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक घमणादि की गणना करके बनाया गया वस्त्र अवग्रहानन्तकादि के ग्रहण का विधि-निषेध १६२ ६७६ लेने का निषेध कृत्स्नाकृत्स्न वस्त्रों का विधि- निध अधयोजन से आगे चस्वंषणा के लिए जाने करून वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त मूत्र १९४ ६७६ का निषेध भिन्न-भिन्न वस्त्रों का विधि-निषेध ६७६ बहुमूल्य वस्त्रों के ग्रहण का निषेध अभिन्न वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त सूत्र १६६ ६७६ मत्स्य चर्मादि से निर्मित वस्त्रों के ग्रहण का वस्त्र प्रक्षालन का निषेध ३ निषेध ६७० वस्त्र सुगन्धित करने का और धोने का निषेध १६७ संकेत वचन से वस्त्र ग्रहण का निषेध ६७१ बस्व को सुगन्धित करने और धोने के अप्रासुक वस्त्र ग्रहण करने का निषेध प्रायश्चिन सूत्र १६८ ६८० परिकर्मकृत वस्त्र ग्रहण का निषेध श्रमण के निमित्त प्रक्षालित वस्त्र के ग्रहण का वस्त्र आतापन-४ निषेध विहित स्थानों पर वस्त्र सुखाने का विधान १६६ मान्दादि निकालकर दिये जाने वाले वस्त्र के निषिद्ध स्थानों पर वस्त्र सुखाने का निषेध २०० ग्रहण का निषेध निषिद्ध स्थानों पर वस्त्र सुशने के प्रायश्चित्त वर्षावास में वस्त्र प्रहण का निषेध १७५ निन्य-निग्रन्थिनी वस्त्रषणा के विधि-निषेध- १ (५) वस्त्र प्रत्यर्पण का विधि-निषेध–५ रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण का विधि-निषेध १७६६०३ प्रातिहारिक वरत्र ग्रहण करने में माया करने श्रमणादि के घर से निमस स्त्र लेने का निषेध विधि-निषेध १७७६७३ अपहरण के भय से वस्त्र के विवर्ण करने का निषेध २०३ ६.४ क्रीतादि दोषयुक्त वस्त्र ग्रहण का विधि-निषेध १५८ क्रीतादि दोषयुक्त वस्त्र ग्रहण करने के चोरों के भय से उन्मार्ग से जाने का निषेध २०४ प्रायश्चित्त सूत्र चोरों से अपहरित वस्त्र के याचना का अतिरिक्त वस्त्र वितरण के प्रायश्चित्त सूत्र १८० विधि-निषेध वस्त्र के विवर्ण करने के प्रायश्चित्त सूत्र २०६ वस्त्र धारण २ (१) चर्म सम्बन्धी विधि निषेध -- ६ वस्त्र धारण के कारण सलोम चर्म के विधि-निषेध एषणीय अस्त्र २०७ ६५५ एषणीय वस्त्र धारण का विधान सरोम धर्म के उपयोग का प्रायश्चित्त सूत्र २०८ कृत्स्नाकृत्स्त चर्म का विधि-निषेध २०६ नियन्य के वस्त्र धारण को विधि-२(२) अखण्ड चर्म धारण करने का प्रायश्चित्त सूत्र २१० एक वस्त्रधारी भिक्षु चिलमिलो की विधिदो वस्त्रधारी भिक्षु १८५ तीन वस्त्रधारी भिक्षु चिलमिली रखने का तथा उपयोग करने का विधान निर्ग्रन्यो की वस्त्र धारण की विधि-२ (३) निलमिलिका के स्वयं निर्माण करने का निन्थियों के चादरों का प्रमाण १८७ ५७७ प्रायश्चित्त सूत्र निर्ग्रन्थी की साड़ी सिलवाने का प्रायश्चित्त सूत्र १८८६७७ चिलमिलिका के निर्माण कराने का प्रापिचत्त निर्ग्रन्थ-निग्रन्थिनी वस्त्र धारण के विधि-निषेध-२(४) २१३६५७ वस्त्र ग्रहण के विधि निषेध १८६६७८ वस्त्रेषणा सम्बन्धी अन्य प्रायश्चित्तधारणीय-अधारणीय वस्त्र के प्रायश्चित्त सूत्र १६. ६७८ अन्यनीथिकादि को वस्त्रादि देने का प्रायश्चित्त आकंचनपट्टग के ग्रहण का विधि-निषेध १६१ ६३८ सूत्र ६७४ л २१४ ६८७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEE २४६ ० mmm ० २५३ विषय सूत्रांक पृष्ठांक विषय सूत्रांक पृष्काक अज्ञात वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र २१५ ६८७ कीतादि दोषयुक्त पात्र ग्रहण का विधि-निषेध २४१ ६६७ घृणित कुल से वस्त्रादि ग्रहण करने का क्रोतादि दोषयुक्त पात्र ग्रहण के प्रायश्चित्त सूत्र २४२ ६९७ प्रायश्चिन सूत्र पात्र के ग्रहण का विधि-निषेध मार्गादि में वस्त्र की याचना करने के प्रायश्चित्त धारण करने योग्य और न धारण करने योग्य पात्र के प्रायश्चित्त सूत्र २४४ वस्त्र के लिए रहने के प्रायश्चित्त सूत्र २१८ ६५८ अतिरिक्त पात्र देने का विधि-निषध २४५ ६६८ सचेल अवेल के साथ रहने के प्रायश्चित्त सूत्र २१६ पात्र धारण विधि निषेध-६ गृहस्थ के वस्त्र उपयोग करने का प्रायश्चित्त सवरत पात्र धारण विधान २४६ सूत्र २२० सवृन्त पाष धारण निध ६६६ दीर्घसूत्र बनाने के प्रायश्चित्त सूत्र घटिमात्र धारण का विधान २४८ भिक्ष की नादर मिलबाने का प्रार्याश्चत्त सूत्र २२२ घटिमात्रक धारण का निषेध वस्त्र परिकर्म के प्रायश्चित सूत्र कल्पनीय पात्रों की संख्या २५० निग्रन्थ-निग्रन्थिनी के पात्रषणा की विधि-१ पात्र आतापन के विधि-निषेध-७ एषणीय पात्र विहित स्थानों पर पात्र सुखाने का विधान २५१ ७०० पात्र प्रतिलेखन के बाद पात्र ग्रहण करने का निषिद्ध स्थानों पर पात्र सुखाने का निषेध ५२ ७०० विधान निपिद्ध स्थानों पर पात्र सुस्त्राने के प्रायश्चित्त स्थविर के निमित्त लाये गये पात्रादि की विधि २२६ अतिरिक्त पात्र वितरण के प्रायश्चित्त सूत्र २२७ पात्र प्रत्यर्पण का विधि-निषेध-८ निग्रन्थ-निग्रन्मिनी के पावेषणा का निषेध .२ प्रातिहारिक पात्र ग्रहण करने में माया करने औद्द शिकादि पात्र के ग्रहण वा निषेध २२८६६१ का निषध श्रमणादि की गणना करके बनाया गया पात्र पात्र के विवर्ण आदि करने का निषेध लेने का निषेध पात्र का वर्ण परिवर्तन करने के प्रायश्चित्त आधे योजन की मर्यादा के आगे पात्र के लिए सूत्र ७०२ जाने का निषेध ६६२ पोरों के भय से उन्मार्ग से जाने का निषेध २५७ पात्र हेतु आधे योजन की मर्यादा भंग करने के चोरों से आहारित पात्र के याचना का विधिप्रायश्चित्त सूत्र २३१ निषेध २५८ बहुमूल्य वाले पात्र ग्रहण करने का निषेध पात्र परिकम का निषेध-६ निषिद्ध पात्र के प्रायश्चित्त सूत्र ६६३ पात्र के परिकर्म का निषेध संकेत वचन के पात्र ग्रहण का निषेध ६६४ पात्र परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र २६० अप्रासुक पात्र-ग्रहण करने के निषेध ६६४ पात्र का स्वयं परिष्कार करने का प्रायश्चित्त पारकर्मकृत पात्र-ग्रहण का निषेध श्रमण के निमित्त प्रक्षालित पात्र के ग्रहण का पात्र के परिष्कार करवाने का प्रायश्चित्त सुत्र २६२ ७०५ निषेध पात्र को कोरने का प्रायश्चित्त सूत्र कन्दादि निकालकर दिये जाने वाले पात्र के पात्र मन्धान-बन्धन' के प्रायश्चित्त सूत्र ग्रहण का गिषध पात्रषणा सम्बन्धी अन्य प्रायश्चित्त-१० औद्दशिक पान-भोजन सहित पात्र ग्रहण का पात्र से इस प्राणी आदि निकालने के निषेध प्रायश्चित्त सूत्र निम्रन्थ निन्थिनी पात्रषणा के विधि-निषध--३ पात्र के लिए निवास करने के प्रायश्चित्त सूत्र २६६ ५०७ श्रमणादि के उद्देश्य से निर्मित पात्र लेने के गांग-मांगकर याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र २६७ ७०७ विधि-निषेध ३४०६६७ निजगादि गवेषित पात्र रखने के प्रायश्चित्त सूत्र २६८ २५५ २५६ २३२ २३३ ८० لا اله ७०५ ७०६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवय [ए]] काष्ठदष्ट वाले पादप्रछत का विधि-निषेध aroraण्ड वाले पादत्रों के प्रायश्चित्त सूत्र पादप्रछन के न लौटाने का प्रायश्चित्त सूत्र रजोहरण एवणा एषणीय रजोहरणं रजोहरण सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र गोच्छकादि के वितरण का विवेक (४) आदान-निक्षेप समिति का स्वरूप- १ आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति का स्वरूप उपकरण धारण के कारण सर्व मण्डपकरण सहित गमन विधि उपकरण अवग्रह-ग्रहण विधान एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और उनके आदान-निक्षेपण की विधि दण्डादि के परिष्कार करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र दण्डादि के परठने का प्रायश्चित सूत्र अतिरिक्त उपधि रखने का प्रायश्चित र उपकरण का प्रतिलेखन- २ निश्चित काल में दण्डादि के न लौटाने के प्रायश्विन्त भूर उपधि प्रत्याख्यान का फल पतित या त्रिस्मृत उपकरण की एपणा (५) उधार- प्रस्त्रवण निक्षेप समिति- ( २५ ) सूत्रांक पुण्ठांक विषय परिष्ठापना की विधि – १ परिष्ठापना समिति का स्वरूप २६ε २७० २७१ २७२ ७१० ७१० २७३ २७४ ७११ २७५ २७६ २७७ २७८ २७६ शय्या संस्तारक आदि प्रतिलेखन विधान उपधि को उपयोग में लेने की विधि अप्रमाद प्रमाद प्रतिलेखन के प्रकार प्रतिलेखना में प्रमत्त पाप श्रमण उपधि अप्रतिलेखन का प्रायश्चित्त सूत्र उपकरण का प्रत्यर्पण एवं प्रत्याख्यान --३ प्रातिहारिक सूई आदि के प्रत्ययण की विधि २० अविधि से सूई आदि के प्रत्यर्पण करने के प्रायश्चित सूत्र २८० २-१ २६२ २०६ ७०८ ७०६ ७०६ २६० २६१ २६२ २९३ ७१२ ७१२ ७१२ ७१३ २८३ ७१५ २८४ २७१५ २८५ ७१५ २८६ ७१६ २८७ ७१६ ७१४ ७१४ ७१४ ७१४ ७१७ ७१७ ७२० २६४ स्वनि की गी दस लक्षण युक्त स्थण्डिल में परठने का विधान २९५ उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन का विधान २६६ मलमूत्र की प्रबल बाधा होने पर करने की विधि मनादि को परखने की विधि श्रमण के मृत शरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि परिष्ठापना का निषेध - २ परिकर्म किये हुए स्थण्डिल में मल-मूत्रादि के परठने का निषेध विभिन्न स्थानों में मल-मूत्रादि के परटने क निषेध परिष्ठापना के विधि निषेध - ३ प्रासुक अप्रामुक स्थण्डिल में परठने का विधिनिषेध श्रमण श्राह्मण के उद्देश्य से बनी स्थण्डिल में परटने का विधि-निषेध उद्देशिक आदि स्पंदन में मल-मूत्रादि के परठने का निषेध निषिस परिष्ठापना सम्बन्धी प्रायश्चित -४ निषिद्ध स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण परिष्ठापन के प्रायश्चित्त सूत्र अन्यतीथिकादि के साथ स्थण्डिल जाने का प्रायश्वितम आवृत स्थान में मल-मूत्र परठने जाने का प्रायश्चित्त सूत्र उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन न करने के प्रायश्चित सूत्र वृषादि परने का प्रायश्चित सूत्र स्थण्डिल समाचारी के पालन नहीं करने के प्रायवित्र ७१७ ७१८ गुप्ति- ७१८ सूत्रांक] पुण्ठांक ७२० ७२० * गुप्ति-अयुति-१ गुप्ति का स्वरूप त्रिगुप्ति संपत गुप्ति तथा अगुप्ति के प्रकार ૨૪ २६८ २६६ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३०६ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ७२१ ७२१ ७२१ ७२२ ७२२ ७२३ ७२५ ७२५ ७२६ "૨૬ ७२८ ७२६ ७२६ ७२६ ७३०. ७३० ७३० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arm । Pai N ८८८ form or m m m marar rm or r mar 64666. 20. www.m Hn6m 45 विषय सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक मन गुप्ति वचन गुप्त के कृत्य ३२६ ७३४ मन गुप्ति का स्वरूप बचन गुप्ति का प्ररूपण ववन गुप्ति का फल ७३४ चार प्रकार की मन-गुपित ७३५ वचन-समाधारणा का फल मन को दुष्ट अश्व की उपमा दम चित्त समाधिस्थान ७३१ . काय-गुप्ति-४ व्याकुल चित्तवृत्ति वाले के दुष्कन्य ३१८ कायगुप्ति का स्वरूप ७३५ दस प्रकार की ममाधि कायमुप्ति के अनेक प्रकार ३३१ ७३५ इस प्रकार की असमाधि कायगुप्ति का महत्व मन को वश में करने का करत कायगुप्ति का फल मन समाधारणा का फल ३२२ ७३३ काय समाधारणा का फल मन की एकाग्रता का फल ७२४ इन्द्रियनिग्रह का फल वचन-गुप्ति-३ अधमन मुनि के अध्यवसाय वचन गुरित का स्वरूप कायदण्ड का निषेत्र ३३७ ७३८ चार प्रकार की वचन गुप्ति ३२५ ७३४ अस्थि गसन वाला पाप श्रमण है ३३८ परिशिष्ट नं०१ अवशिष्ट पाठों का विषयानुकम से संकलन सूत्रांक पृष्ठांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक पष्ठांक आकार करने का प्रायश्चित्त मूत्र ७४५ अंग संचालन का प्रायश्चित्त मूत्र ७४५ २०(क) १५ भगवान की धर्म देशना ५१ ४.० ६० (क) निर्गन्धों का आचार धर्म मैथुन के संकल्प से वस्त्र निर्माण करने के प्रायधिवन मूत्र ४५ ज्ञान की उत्पत्ति अनुत्पनि के कारण ३४. अकेली स्त्री के साथ रहने के २६२ (ख) १६५ अन्यतीथिनों को दर्शन प्रजापना प्रायश्चित्त सूत्र ४५८ (ख) ३२२ ब्रह्मचर्य के अनुकूल ज्ञान राजा और उनकी रानियों को देखने के ६१७ (ख) ४१४ सचित्त पृथ्वी आदि पर निषद्या करने के प्रायश्चित्त सूत्र प्रायश्चित्त सूत्र अंक पल्यंक में निषयादि करने के २ (ख) ६६ ग्राम रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र ७४६ प्रायश्चित्त सूत्र धर्मशाला आदि में निषद्यादि करने ७२२ (ग) ४६६ । राज्य रक्षक को वश में करने आदि के के प्रायश्चित्त मूत्र ५४३ प्रायश्चित्त सूत्र ७४६ पुदगल प्रक्षेपणादि के प्रायश्चित सूत्र ७४४ ७२५ (घ) ४७४ ।। भिक्षु के पांच महाव्रतों का पालन ७४६ पशु पक्षियों के अंग संचाननादि के ९ ४२ (ख) ५६२ बाहर गये हुए राजा के आहार ग्रहण प्रायश्चित्त सूत्र करने का प्रायश्चित्त सूत्र भक्त पान आदि के आदान-प्रदान करने १११ (ख) ५६० औषध सम्बन्धी क्रीतादि दोषों के के प्रायश्चित्त मूत्र प्रायश्चित्त सूत्र वाचना देने लेने के प्रायश्चित्त सूत्र ५४५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ # णाणायारो ॥ काले विणये बहुमाणे, saura तहां अणिण्हवणे । अत्थ तदुभए, पंजण अट्ठविधो णाणमायारो ॥ ▼ - निशीथमाष्य, भाग १, गा० चरणानु यो ग [] ज्ञानाचा र] OA Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम नमोऽत्षणं समणस्स भगवओ बड्ढमाणस्स मंगल सुत्ताणि मंगल सूत्र णमोकार सुस्त नमस्कार सूत्र-- १. नमो अरिहंताण १. अरिहन्तों को नमस्कार हो, नमो सिक्षाणं, सिद्धों को नमस्कार हो, नमो आरियाणं, आवायों को नमस्कार हो, नमी उवज्झायाणं, उपाध्यायों को नमस्कार हो, नमो लोए सव्वसारणं, लोक में समस्त साधुओं को नमस्कार हो। –वि. स. १, उ. १, सु. १ णमोक्कारमंत महन्तं नमस्कार मन्त्र महत्वएसो पंच नमुकारो, सधपायप्पणासणो । ये पाँच नमस्कार, सब पापों का नाश करने वाले हैं, और मंगवाणं च सर्वेसि, पढमं हवा मंगलं ।। गर्व मंगलों में प्रथम मंगल है। -आव. अ.१ सु. १ पंचपववंदण सुत्त पंचपदवन्दन सूत्र२. नमिऊण असुर-सुर-पहल-भुयंग-परिवदिए। २. असुर-सुर गरुड़ और नागकुमारों से वन्दित, क्लेश गयकिले से अरिहे सिद्धायरिए उवमाए सब्यसाहणं ॥ रहित अरिहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और सर्व साधुओं का -चंद. मा. २ नमस्कार कर के (चरणानुयोग) भारम्भ किया जा रहा है । मंगल सुत्त' मंगल सूत्र -- ३. चत्तारि मंगलं, ३. चार मंगल हैं, अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगल, अरिहंत मंगल हैं, सिद्ध मंगल हैं, साहू मंगलं, फेलिपणती धम्मो मंगल। साधु मंगल हैं, केवली का कहा हुआ धर्म मंगल है। उत्तम सुस उत्तम सूत्रचत्तारि लोगुत्तमा, चार लोक में उत्तम है, अरिहंता लोगुत्तमा, सिडा लोगुत्तमा, अरिहंत लोक में उत्तम हैं, सिद्ध लोक में उत्तम हैं, साहू लोगुसमा, केवलिपण्णतो धम्मो लोगुसमो । साधु लोक में उत्तम हैं, केवनी का कहा हुआ धर्म लोक में उत्तम है। सरण सुत्त शरण सुत्रचत्तारि सरगं पवज्जामि, चार की शरण ग्रहण करता है, अरिहंते सरणं पनजामि, अरिहंतों की शरण ग्रहण करता हूँ, १ (क) जयु. व. १, सु. १ (ख) सूर. पा. १, सु. १ (ग) चन्द. पा. १, मु..१ २ आव. अ.१ सु. १ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] चरणानुयोग गरोगना सिझे सरणं पवज्जामि, साहू सरगं पवज्जामि, केलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवग्जामि । -आव. अ. ४, सु. १२-१४ सिद्धों को शरण ग्रहण करता हूँ, साधुओं की धारण ग्रहण करता हूँ, केवली के कहे हुए धर्म की शरण ग्रहण करता हूँ। १ (क) बरहंता मंगलं मा, अरहंता मज्म देवया। अरहते फित्तइत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ।। सिद्धा 4 मंगलं मज्झ, सिद्धा य मक्ष देवया। सिद्ध य कित्तइत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं । आयरिया मंगलं मज्म, आयरिया मम देवया। आयरिए कित्तइताणं, वोसिरामित्ति पावगं । उबज्झाया मंगलं मम, उपजाया मजा देवया । उवझाया कित्तइत्ताणं, दोसिरामित्ति पावर्ग ।। माहू य मंगलं मझ, साह य मज्झ देवया। साहू य कित्तइत्ताणं वोसिरामित्ति पावर्ग ।। -पइपणय ६, गा.१-५ (ख) चउसरग गमणं अरिहंत-सिद्धसाहू, केवलि-कहिओ सुहावहो धम्मो। एए चउरो चउगइ-हरणा, सरणं लहइ धन्नो ।। अरिहंता सरणं अह सो जिणभत्ति-भरूफछरंतरोमंच-कंचुअकरालो। पहरिस-पण-उम्मीस, सीसंमी कयंजली भणइ ।। रागदोसारण हता कम्मगाइअरिहंता। बिसय-कसायारीणं, अरिहंता हेतु मे सरणं ।। रायसिरिमुवक्कमित्ता, तबघरणं दुच्चरं अणुचरित्ता । केवल सिरिमरिहता, अरिहंता हुँतु मे सरणं ।। इबंदणमरिहता,- अमरिद-नरिद पूबमरिहंता । सासम-सुहमरहंता, अरिहंता हुँतु मे सरणं ।। परमणगयं मुणंता, जोईद-महिन्दहाणमरहता । धम्मकहं अरिहंता, अरिहंता हुतु मे सरणं ।। सबनजिआणहिस, अरहंता सच्चवयणमरहता । बंभञ्चयम रहता, अरिहंता हेतु मे सरणं ।। ओसरणमवसरित्ता, चउतीसं अइसए निसेवित्ता । धम्मकहं च कहता, अरिहंता हुनु मे सरणं ।। एगाइ गिराऽणेगे, संदेहे देहिणं समं छित्ता । तिहुयणमगुसासंता, अरिहंता हुँतु मे सरण ।। ययणामएण भुवर्ग, निव्वाविता गुणेसु छवंता। जिअलोबमुद्धरता, अरिहंता तु मे सरणं ।। अच्चन्भुयगुणवंबे, निम-जरा-ससहर-पसाहिब-दिअंते। नियमणाइमणते, पडिवघ्नो सरणमरिहते ।। उजिलअ-जर-मरणाणं, समत्त-दुक्खत्त-सत्त-सरणाणं । तिहअण-जणसुहयाणं, अरिहंताणं नमो ताणं ।। सिद्धा सरणं अरिहंत-सरण-मल-सुद्धि-लद्ध-सुविसुद्ध-सिद्ध-बहुमाणो। पणम-सिर-रइय-कर-कमल-रोही-सहरिस भणा ।। कम्मठ्ठपवयसिद्धा, साहाविज-जाण-दसण समिद्धा । सबठ्ठ-तद्धि-सिद्धा, ते सिद्धा हेतु में सरणं ।। तिअलोजमस्थयत्था, परम पयत्था, अचित-समत्था । मंगल-सिद्ध-पयत्था, सिद्धा सरणं मुह-पसत्था ।। गुसुक्खय-पडिवक्खा, अमूडलक्खा सजोगिपञ्चक्खा । साहाविअत्त-मुक्खा, सिद्धा सरणं परममुक्खा ।। गडिपिल्लिअपडिणीया, समग्ग-माणग्गि-दड्ढ-भव-बीआ । जोहसर-सरणीया, सिद्धासरणंसुमरणीआ ।। पाविस-परमाणंदा, गुणीनीसंदा विभिन-भव-कंदा । लहाईकय-रवि-चंदा, सिद्धा सरणं खविअदंदा ।। उबलद्ध-परम-बंभा, दुल्लह-लंभा विमुक्क-सरंभा । भुवण-घर-धरण-खंभा, सिद्धा सरणं निरारंभा ।। साहू सरणं सिद्ध सरणेण नवर्बभ-हेउ-साहु-गुण-जणिअ-बहुमायो । मेइणि-मिलत-सुपसस्थ, मत्थो तथिम भणइ ।। जिअनोज-बंधुणो, दुगह-सिंधुणो पारगा महाभागा । नाणाइएहिं सिव सुषख-सागा साहुणो सरणं ।। केवलिणो परमोही, विउलमई सुअहरा जिणमयंमि । आयरिश-उवज्झाया, ते सव्वे साहुणो सरणं ।। नउदस-दस-नवपुठवी, दुवालसिक्कारसंगिणो जे अ । जिणकप्पाऽहानं दिल, परिहार विसुद्धि-साहू अ ।। खीरासब-महासब-संभिन्नस्साअ- कुबुद्धि अ। चारण-वेचि-पपाणुसारिणो साहुणो सरणं ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र ४-५ चतुर्विगतिस्तवसूत्र मंगल सूत्र ३ आउदोस तित्ययरणामाणि५. वो सभ-अजियं संभवभिनंदणं समइ-सुप्पभ-सुपासं. ससि पुष्फवंत सीयस सिजसं वासुपुज्जं च ॥ दिमलमणतं य धम्भ, संति कुंथु अरं च मल्लिं च। मुणिसुध्वय-मि-ने मि, पासं तह बलमाणं च ॥ --नं. प. गा.१८-१६ चौबीस तीर्थकरों के नाम - ४. १. ऋषभ, २. अजित, 5. सम्भ।, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पदमप्रभ (सुप्रभ), ७. भुपावं, ८. चन्द्रप्रभ (शशि), ६. सुविधि (पुष्पदन्त), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति १७. कुंथु, १८. अर, १६. मल्लि, २०. मुनिसुव्रत, २१, नमि, २२. नेभि (अरिष्टनेमि), २३. पाप और २४. श्रमण भगवान महावीर (वर्द्धमान) को वन्दन करता हूँ। चतुर्विंशति संस्तव सूत्र ५. अखिल विश्व में धर्म का उद्योन ... प्रकाश करने वाले, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाग्ने, (राग-द्वेप को) जीतने वाले, (अंतरंग काम-क्रोधादि) शत्रुओं को नष्ट करने वाले, ऐसे केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों का मैं कीर्तन करूंगा-स्तुति च उबीससंथच सुत्त५, लोगस्स उज्जोयगरे, धम्म-तित्ययरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्स, चउचीस पि केवलो॥ उतभजिपं च चंदे, संभवभिणदणं च सुमहं च । पउमप्पह सुपास, जिणं च चंदप्पह बंदे ।। श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ जी की वन्दन करता है। सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पदमप्रभ, सुपार्श्व, और राग-द्वेष के विजेता चन्द्रप्रभ जिन को नमस्कार करता हूँ। श्री पुष्पदन्त (सुविधिनाथ), शीतल, श्रेयांस, नासुपूज्य, विमलनाथ, राग-द्वेष के विजेता अनन्त, धर्म तथा थी शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ। मुहिं च पुष्फवंत, सीअल-सिज्जस-वासुपुज्जं च। विमलमणंतं च जिणं, धम्म संति च धंदामि ।। उशिय-वइर-विरोहा, निच्चममोहा पसंतमुह-सोहा । अभिमय-गुणसंदोहा, यमोहा साहुणो सरणं ।। खंटिअ-सिणेह-दामा, अकामधामा निकाम-सुहकामा । सुपुरिस-मणाभिरामा, आयारामा मुणी सरणं ।। मिल्हिअ-विसय-काया, उझियघर घरणिसंग सुहसाया । अकलिय-हरिस-विसाया, साहू सरणं गन-पमार्य ।। हिंसाइ-दोस-सुन्ना, क्रय कारुता सयंभुरुप्पन्ना । अजरामर-पह-खुन्ना, साहू सरणं सुक्य-पुन्ना ।। कामविडंबणचुक्का, कलिमलमुयका विविक्क-चोरिक्का । पाव-रय-सुरय-रिक्का, साहू गुण-रयण-चच्चिक्को ।। साहुत्त-सुठ्ठिया जं, आयरियाई तओ य ते साहू । साहभणिएण गहिया, तम्हा ते साहुणो सरणं ।। केपलिकहिलो धम्मो सरणं पडियन-साहु-सरणो, सरणं काउं पुणो वि जिण धम्म । पहरिस - रोमंच - पवंच - कंचुचिअ-तगू भगः ।। पवर-सुकएहिं पत्त, पनेहि वि नवरि केहि वि न पत्तं । तं केवलि-पश्नत्तं धम्म सरणं पनन्नोन्हं ।। पत्तेण अपनेण य, पत्ताणि अ मंण गर-सुरसुहाई। मुक्ख-सुहं पुण पत्तेण, नबरि धम्मो स मे सरणं ।। निदलिअ-कलुसकम्मो, कय-सुह-जम्मोखलीकयअम्मो । पमुह-परिणाम-रम्मो, सरणं मे होउ जिणधम्मो । काल तए दिन मयं, जम्मण-जर-मरण-वाहि-संय-समयं । अमयं व बहुमयं, जिणमयं च सरणं पवन्नोऽहं ।। पसमिअ-काम-पमोहूं, विट्ठादिठेस न कलिय-विरोहं । सिव-सुह फलयममोह, धम्म सरणं पवन्नोऽहं ।। नरप-गइ गमण-रोह, गुण-संबोहं पवार-निक्खोहं । निहणि • दम्मह-जोह, धम्म सरणं पवनोऽहं ।। भासुर-सुवन-सुन्दर • रयणालंकार - गारव • महन्छ । निहिमिव दोगच्च-हरं, धम्मं जिण-देसिझं वदे ।। -पग्णयसुत्तेसु कुसलाणुबंधि अज्झयणं गा.११-४८ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] चरणानुयोग महावीर वन्दन सूत्र वंदे गुणिनच । वंदामि रिहनम पासं तह यद्धमाणं च ॥ एवं माहिय-रममला, महोग-वर-मरणा जिवरा, तिथयरा मे पीयं ॥ किलिय बंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आम्वोहिलाभ समाहिवर दितुं । निलय आइबेनु अहिय बासवरा सागर-बर-गंबोरा सा सिद्धिवितु ॥ - आव. अ. रे, सु. ३-६ महावीरबंदणं सुतानि - ६. । जय जय जीव-बोणी, विवान जग जगामंदी जगनाही जगबंधू जय जगपिधानही भययं ॥ जयइ सुआण पभवो, तित्यथराणं अपच्छिमो जय जयs गुरु लोगाणं, जयह महत्या महावीरो ॥ म सोमरस भजियरस वीरम्स । भवं बुरासुरनमंसिर, मधुमका-रस ॥ - नं. थ. ग्रा. १-३ वयगय जर मरण भए, सिद्धं अभिवंदिकण निविहेणं । दामि जिनवरिद, तेलोषक-गुरु महावीर ॥ - पण्ण. पद. १, या. १ योरवरस्थ भगवओ अरमरण-किसोरहिस। ददामि विजयपणओ सोक्खुप्पाए सया पाए ॥ १ ॥ - सूर. पा. २०, सु. १०७, गा. ६ जयद णवणलि कुवलय वियसियस्य वत्तपत्तलदलच्छी । वीरो गमंदमय गलसल लिय गय विक्कमो भयवं ॥ — चंद. ग्रा. १ सिरि बीरस्युई ७. पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या पर-तित्थिया य । से केंद्र णेगतहियं धम्ममाहू, अर्जेलिस साहु-समिबखयाए ॥ सूत्र ६ " श्रीनाथ अनाथ भगती मी मुनिसुव्रत एवं राग द्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दन करता है। इसी प्रकार अरिष्टनेमि पावंताथ मन्त्रिम तीर्थकर यर्द्धमान ( महावीर ) स्वामी को नमस्कार करता हूँ । जिनकी मैंने इस प्रकार स्तुति की है, जो कर्मरूप ल तथा मल से रहित हैं, जो जरा-मरण दोषों से सर्वथा मुक्त हैं, मे अन्तशुओं पर विजय पाने वाले धर्ती तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों । जिनकी (इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने कीति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध तीर्थकर भगवान मुझे आरोग्य अर्थात् आरमा बोधि सम्मानिय का पूर्ण लाभ तथा उत्तम समाधि प्रदान करें । जो जो अनेक कोटा-कोटि चन्द्रमाओं से भी विशेष निर्माण है. से भी अधिक प्रकाशमान है, जो महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं, वे (तीर्थंकर) सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके आलम्बन से मुझे सिद्धि-मोक्ष प्राप्त हो । महावीर वन्दन सूत्र ६. जगत् की जीव योनियों के शाता जगद्गुरु जगदानन्द जगद्बन्धु जगनाय जगत् पितामह भगवान जयवन्त हैं । श्रत के उत्पत्ति स्थान, लोक के गुरु, अन्तिम तीर्थंकर महात्मा महावीर जयवन्त हैं । कर्मरज रहित, सुरासुर अभिवन्दित सर्वजगद्योतक वीर जिन कल्याणकारी हों । जन्म, जरा, मरण के भय से रहित सिद्धों को वन्दना करके त्रैलोक्य गुरु जिनेन्द्र भगवान महावीर की वन्दना करता हूँ । जरा, मरण, वेग, द्वेष रहित वीरवर भगवान महावीर के सदा सुखदायी पैरों में विनयपूर्वक नमकर उन्हें वन्दना करता हूँ। नवीन विकसे हुए मलिन नीलोत्पल, सौ पांखडीवाले कमल समान दीर्घ मनोहर नेत्रों वाले और अपनी लीला सहित जाता हुआ गजेन्द्र समान गति वाले श्रमण भगवान महावीर रानादि शत्रुओं को निविघ्न जोतते है। श्री वीर स्तुति ७. श्रमण- माहण, गृहस्थ और अन्य संधानुयायियों ने पूछा कि जिस साधु समीक्षापूर्वक अन्य धर्मो से धर्म कहा है, वह कौन हैं ? हितकारी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७ महाबीर वजन सूत्र मंगल सूत्र ५ wrwww कह च नाणं कह सण से, सील कहं नाय-सुयस असा । जिउ- सामान और शील-आचार जाणासि गं भिक्षु । जहातहेणं, अहासुयं हि महा गिसतं ॥ क्या है ? ग्रह आप जानते हैं इसलिए यथावत, यथा अवधारित जो हो वह यथातथ्य कहें । खेयनए से फुसले महेसी, अणतनाणी य अगंतवंसी। वे महषि खेदज्ञ प्राणियों के खेद-दुःख के ज्ञाता, कुमालजससिणो चपखुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिहं च पेहि ।। कर्म रूप कुश के लुनने-छेदने में निपुण, आशुप्रश, अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी (अतीत में) चक्षुपथ में स्थित थे, है जिज्ञासु ! उनके धर्म को जानो और उनके धैर्य को देखो। उलं आहे यं तिरिय दिसास, तसा यथावर जे य पाणा। ऊर्ध्व अधो और तिर्यक दिशाओं में स्थित जो प्राणी हैं अभी और निर्यक दिशाओं में घिर : से णिच्च-णिचहि समिक्खपन्ने, दीये व धम्म समियं उबाहु ।। उन्हें नित्यानित्य व्याथिक और पर्यायाथिक नय से सम्यक प्रकार देखकर उस प्राज्ञ ने समभाव से द्वीप समान आधारभूत धर्म कहा है। से सवसी अभिभूयनाणी, निरामर्गधे धिइम ठियप्पा। वे सर्वदर्शी महावीर अभिभूतज्ञानी- अन्य जानियों से अगुतरे सव-जगंसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अपाऊ॥ अधिक ज्ञानी, निरामगन्ध-निर्दोष चारित्न बाले, धैर्यवान्, स्थितात्मा, इस जगत् में अनुत्तर प्रधान विद्वान, निर्गन्ध अनायु-आवुफर्म के बन्ध्र से रहित थे । से भूइपण्णे अणिएअचारी, ओहतरे धीरे अणंत-चक्खू । वे महावीर भूतिप्रज्ञ-सर्वज्ञ, अनियतचारी-स्वेच्छाविहारी, अण तरे तप्पह मूरिए वा, वइरोणिदे ब तमं पगासे ॥ औषंतर-संसार समुद्र से उत्तीर्ण, सर्वदर्शी, सूर्यसम सर्वाधिक तेजस्वी, वेरोचनेन्द्र-अग्निसम अन्धकार का नाश करने वाले थे। अणुत्तरं धम्ममिणं जिणागं, नेया मुणो कासव आसुपन्ने। जिस प्रकार स्वर्ग में महानुभाव इन्द्र सहस्र देव समूह का इंचे व देयाण महाणुमावे, सहस्सनेता दिवि णं विसिठे। विशिष्ट नेता है, उसी प्रकार आशुप्रज्ञ काश्यप गोती भगवान महावीर ऋषभादि प्रज्ञप्त इस अनुत्तर धर्म के नेता थे । से पन्नया अक्खय-सायरे वा, महोबही वा वि अणंतपारे । वे महावीर सागर सम अक्षय, महोदधि सम अपार प्रज्ञा अणाइले वा अफसाइ मुक्के, सक्के 4 वेवाहिवई जुइमं ॥ वाले थे। वे अकुटिल, अकषाय, मुक्त और देवाधिपति सम द्युतिमान थे। मे वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुसणे था नग-सब्व-सेठे। वे महावीर बीर्य-शक्ति से प्रतिपूर्ण वीर्य, सर्वपर्बत श्रेष्ठ मुरालए बासि-मुदागरे से, विरायए अंग-गुगोववेए। मेरु सम सुदर्शन सूरालयवासियों के मोदवर्धक और भनेक गुण युक्त विराजमान थे। सयं सहस्साण उ जोयणाणं, सिकंञ्चगे पंडग-वेजयते । वह मेरु तीन काण्ड एवं पाण्डुक बनला वैजयन्ती-युतं सौ से जोयणे णबणबए सहस्से, उखुस्सितो हेट्ठ सहस्समेगं ॥ हजार (एक लाख) योजन का है । निन्यानवें हजार योजन भूमि से ऊँचा है और एक हजार योजन भूमि में नीचे है। पुळे नभे चिट्ठई भूमि-बठिए, जं सूरिया अणुपरिबट्टयति । बह नन्दन वन पुत हेमवर्ण मेरू भू-पर स्थित होते हुए भी से हेमवन्ने बहनंदणे य, जंमी रति वेबयंती महिमा । नभ का स्पर्श करता है। सूर्य उसकी परिक्रमा करते हैं और महेन्द्र उस पर बैठकर आनन्द का अनुभव करते हैं। से पव्वए सद्ध-महप्पगासे, विरायती कंचण-मट्ठ-वणे । वह मेरु पर्वतों में श्रेष्ठ, प्रधान दुर्गम पर्वत है तथा वह अजुत्तरे गिरिसुथ पन्ध-धुग्गे, गिरीयरे से जलिए व भोमे ॥ पृथ्वी पर दैदीप्यमान मणि एवं स्वर्णसम द्युतिमान शुद्ध वर्ण वाला अनेक नामों से प्रसिद्ध है । महोइ ममि ठिए गिदे, पनायते सूरिय-मुख-लेसे । वह नगेन्द्र विविध वर्णों से सुशोभित सूर्य सम शुद्ध मनोहर एवं सिरीए उस भूरि-वन्ने, मणोरमे जोयह अश्चिमाली॥ कान्तियुक्त सर्व दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ पृथ्वी के मध्य भाग में स्थित है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) चरणानुयोग महापौर वन्दन पत्र सूत्र ७ सुवस्सस्सेव असो गिरिस्स, पच्चन महतो पस्चयस्स। यह महापर्वत सुदर्शन गिरि का यश कहा है। ज्ञातपुत्र एतोबमे समणे नाय-पुत्ते, जाई-जसो-दसण-नाण-सीले ॥ भगवान महावीर थमण के ज्ञान, दर्शन, पील, जाति और यश को इस (मरु) की उपमा दी जाती है। गिरीबरे वा निसहाययाणं, रुपए व सेठे बलयायताणं । आयत गिरिवरों में जैसे नियधगिरि और वर्तुल पर्वतों में तोवमे से जग-भूइ-पन्ने, मुणीण मज्ने तमुवाह पन्ने ॥ जैसे रुचक पर्वत श्रेष्ठ हैं वैसे ही श्रेष्ठ प्रज्ञ भ० महावीर मुनियों के मध्य में श्रेष्ठ हैं। अणुत्तर धम्ममुईरइत्ता, अणुसरं माणथर मियाई। भ० महावीर सर्वोत्तम धर्म कहकर शंख, इन्दु और निर्दोष सुसुक्कसुक्के अपगंड-सुक्क, संखेंतु-एगंतववात-सुवकं ॥ शुक्ल वस्तु के समान सर्वोत्तम शुरल ध्यान करते थे। अगुत्तरगं परमं महेसी, असेस-कम्मं स विसोहाइस्ता। महर्षि महावीर ज्ञान दर्शन और शील से अशेष कमों का सिद्धिगते साइमणतपसे, नाणेण सीलेण य बसणेण ॥ शोधन करके सर्वोत्तम सादि अनन्त सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं। सखेमू गाए जह सामली वा, अंसो रति वेदयंति मुवन्ना। जिस प्रकार वृक्षों में सुपर्ण देवों का बीड़ा स्थल शाल्मली वणेसु वा नंदणमा सेट्ट, नाणेण सीलेण य भूइपन्न ॥ वृक्ष और वनों में नन्दन वन श्रेष्ठ है। उसी प्रकार ज्ञान और भील में श्रेष्ठ प्रज्ञ भ० महावीर श्रेष्ठ हैं। भणिय य सददाण अगत्तरे उ, चंदो व ताराग महाणुनाव। शब्दों में मेघगर्जन, साराओं में महानुभाव चन्द्र और गन्ध गंधेनु वा चंदणमाह सेठें, एवं मुणीर्ण अपरिशमाह ॥ पदार्थों में चन्दन के समान अप्रतिज्ञ-कामना रहित भ. महावीर श्रेष्ठ माने गये हैं। जहा सर्व उदहोणसेठे, नागेनु वा धरणिदमाहु सेठे। समृद्रों में स्वयं भरमण, नागकुमारों में धरणेन्द्र और रसों खोओदए वा रस-वेजयंते, तयोवहाणे मुणि बेजयते ॥ में इक्षरस के समान तपस्वियों में उपधान तपःप्रधान भ० महावीर हैं। हत्थीसु एरावणमाह जाए, सीहो मियाणं सलिलाण गंगा। हाथियों में एरावण, ममों में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षीसु वा गरुले वेणुदेवे, निवाणवादीमिह नाय पुत्तं ॥ पक्षियों में वेणुदेव गरुड़ के समान निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हैं। जोहेसु णाए जह बोससेणे, पुष्भु चा जह अरविंदमाहु । योद्धानों में विश्वसेन, पुष्पों में अरविन्द और क्षत्रियों में खत्तीण सेठे जह बत-वक्के, इसोण सेठे तह बलमाणे ॥ दन्तवक के समान ऋषियों में वर्धमान श्रेष्ठ हैं। वाणाण सेह्र अभय-प्पयाग, सच्चेसु था अणवावं अयंति । दानों में अभयदान, सत्मों में अनवद्य सत्य, सपों में उत्तम तयेसु वा उत्तम-बंभचेरं, सोगुत्तमे समणे पायपुत्ते । ब्रह्मचर्य के समान, लोकोत्तम ज्ञातपुत्र थमण भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं। ठिईण सेट्ठा लबससमा बा, सभा मुहम्मा व समाण सेवा। स्थितियों में लवसत्तमा स्थिति, सभाओं में सुधर्मा सभा, निम्याण-सैट्ठा जह सत्य-अस्मा, न गायपुत्ता परमत्यि गाणी ॥ और धमों में निर्वाण धर्म से अधिक श्रेष्ठ कोई नहीं है। उसी प्रकार जातपुन्न भगवान महावीर से अधिक ज्ञानी कोई नहीं है। पुरोथमे धुणई विगयगेही, न सणिहि कुवई बासुपन्ने। साधकों के लिए भगवान महावीर पृथ्वी के समान सरिउ समुदं व महाभयोधं, अभयंकरे बीर अणंतचक्खू ॥ आधारभूत हैं, गृद्धि रहित वे भगवान महावीर संचय नहीं करते हैं, आशुप्रज्ञ भगवान महावीर समुद्र के समान संसार समुद्र को तिर चुके हैं और अभयंकर भगवान महावीर अनन्त शानी है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७-१२ संघ स्तुति मंगल सूब [. कोहं च माणं च तहेव मार्य, लोभ अजय अज्मात्य-चोसा। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार अध्यात्म दोषों का एआणि बंता अरहा महेसी, न कुबई पायं न कारवेइ॥ वमन--त्याग कर अहंद महर्षि महावीर न स्वयं पाप करते हैं और न पाप करवाते हैं। किरियाकिरियं घणयाणुवावं, अण्णाणिवाणं पडियच्च ठाणं । भगवान महावीर, अक्रिया, बिनय और अज्ञानवादियों से सध्व-वायं इइ वेयइत्ता, उठ्ठिए संजम दोह-रायं ।। के पक्ष एवं वादों को जानकर दीर्घरात्र-यावज्जीवन-संयम साधना के लिए उपस्थित हुए हैं। से वारिया इत्यि सराहभरतं, उबहाण बुक्ख खपट्ट्याए। इहलोक और परलोक को जानकर दुःख क्षय के लिए लोगं विवित्ता आरं पर च, सव्वं पभू वारिय सम्ब चारं ॥ उपधानवान् प्रभु ने रात्रिभोजन, स्त्री और सर्व वार-पापों का परित्याग कर दिया है। सोच्चा य धम्म अरिहंतभासियं, समाहियं अट्ठपोषसुखें। श्री अरिहन्तदेव द्वारा भाषित, सम्यक् रूप में उक्त युक्तियों तं सद्धहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व वाहिवइ आगमिस्सति ॥ और हेतुओं से अथवा अर्थों और पदों से शुद्ध (निदोष) धर्म -सूव. सु१, अ. ६ गा. १-२६ को सुनकर उस पर श्रद्धा (श्रद्धापूर्वक सम्पन् आचरण) करने वाले व्यक्ति आयुष्य (कर्म) से रहित--मुक्त हो जायेंगे, अथवा इन्द्रों की तरह देवों का आधिपत्व प्राप्त करेंगे। बीर-सासण थुई वीर शासन स्तुति. इ-पह-सात गर्दा गायत्त मध्यभापवेयं __ निवृत्ति मार्ग का शासक, सर्व भार-पदाथों का उपदेशक, कुसमय-मय-नासणयं, जिणिद वर-वीर-सासणयं ॥ जुसमय सिद्धान्त मद का नाशक जिनेन्द्रवर भगवान महावीर -नं. ५. गा. २ का शासन सदा जयवन्त हो । गणहर यण सुतं गणधर वन्दन सूत्र है. णमो गोयमाईण गणहराणं गणधर गौतमादि को नमस्कार हो। -- त्रि. अंतिमसुतं गणहरणामाणि गणधर नाम: १०. पहमित्य इंबई, बीए पुण होई अग्गिभ्इ ति। प्रथम इन्द्रभूति द्वितीय अग्निभूति, तृतीय वायुभूति, चतुर्थ तइए य बाउमूई, तो लियतें सुहम्मे य॥ व्यक, पंचम सुधर्मा, षष्ठ मंडितपुत्र, सप्तम मौर्यपुव, अष्टम मंडिय-मोरियपुत्ते, अकपिए चेव अयलमाया य । अक्रपित, नवम अचलञाता, दशम भतार्य, एकादशम प्रभास, मेयने य पहासे, मणहरा हुंति वीरस ॥ ये भगवान महावीर ने गणधर है। -नं. थ. मा. २०-२१ संघस्स थुई संघ स्तुति : ११. तव नियम विणयबेलो जयह सया नाविमलविउलजलो। तप, नियम और विनयरूप बेला भरतीवाले, निर्मल हेउसयविउलगो संघसमुद्दो गुणविसालो॥ ज्ञानरूप पानी वाले सैकड़ों हेतु स्प विपुल वेग वाले और गुण - वि. स. ४१, उ, १९६, रा.२ से विशाल ऐसे संघसमुद्र की जय हो। संघ वंदण सुस्त संघ वन्दन सूत्र : १२ (१) संघस्स गरोवमा-- (१॥ संघ को नगर की उपमागुण-भयण-गहण | सुय-रयण-भरिय! सणवसुख रत्यागा!। गुण रूप भवनों के गहन ! श्रुतरूप रनों से भरे हुए ! संघ-नगर ! भद्ध ते अखंउचरित्तपागारा !॥ विशुद्ध दर्शन-श्रद्धारूप ! रथ्या-गलियों वाले और अखण्ड पारिवरूप प्राकार वाले हे संघ नगर ! "तू कल्याणकारी है।" (२) संघस्स चक्कोबमा (२१ संघ को चक्र की उपनासंजम-सब-तबारयस्स नमी सम्मत्तपारियल्लस्स। संयम रूप तंब-नाभि, सप सप अर, सम्यक्त्वरूप परिकर अप्पडिचक्कस्स जो होर या संघचक्कस्स। और प्रतिचक-विरोधपक्ष-रहित "संप-पक्र" की सदा जय हो । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५] वरणानुयोग संघ स्तुति सूत्र १२ (३) संघस्स रहोबमा- (३) संघ को रथ की उपमाभवं सील-पडागूसियस्त सव-नियम-तुरम-जुत्तस्स । तप-नियमरूप तरंगों से युक्त, शालरूप पताका से उन्नत संघरहस्स भगवओ समाय-सुनंदिघोसस्स। और स्वाध्याय रूप नंदि-मंगलघोष वाला भगवान "संघ-रथ" कल्याणप्रद हैं। (४) संघस्स पजमोवमा-- (४) संघ को कमल की उपमाकम्म-रव-जलोह-विणिग्गयस्स सुध-रयण-दीह-नालस्म । ध्रुत-रत्नरूप दीर्घ नाल पाले, कर्म-रज रूप जल से बाहर महत्वयनायर-काण्णयस्स गुण-केसरासस्स ॥ निकले हुए पंचमहाव्रत रूप स्थिर कणिका वाले, गुण रूप केसर सावग-जण-मन्वअर-परिवुद्धस्स जिण-सुर-सेय-बबस्स। बाले, श्रावक जनरूप मधुकरों से घिरे हुए जिनरूप सूर्य के तेज संघ-पजमस्स मददं समण-गण-सहस्स-पत्तस्स ।। से बुद्ध-विकसित, श्रमण-गण रूप सहस्र पन वाले "संघ-पदम" कल्याणप्रद हो । (५) संघस्स चोवमा (५) संघ को चन्द्र की उपमातथ-संजम-मय-संछण ! अकिरिय-राह-मूह-दुरिस। णिच्चं। अक्रियावाद प राहु के मुख में अग्राह्य, विशुद्ध सम्यक्त्व जय संघचंद! निम्मल सम्मसयिसुखजोपहाया ! ॥ रूप ज्योत्स्ना-चन्द्रिका बाले "हे संघ-चन्द्र !" तेरी जय हो । (१) संघम्स सूरोवमा (६) संघ को सूर्य की उपमापर-तित्थिय-गह पह-नासगस्स तवन्तेय-वित्त-लेसस्स । तपस्तेज रूप प्रदीप्त लेश्व-कान्ति वाले, जाम रूप उद्योत नाणुज्जोयस्स जए भवं दम-संध-सुरस्स ॥ वाले, गर-तीथिकरूप ग्रहों की प्रभा को नाश करने वाले, दम प्रधान संघ-सूर्य' इस जगत में कल्याणकारी हो । (७) संघस्स समुद्धोवमा-- (७) संघ को समुद्र की उपमाभद्रं ! धिइबेलापारिगयस्स समाय-जोग-मगरस्स। धृतिरूप बेला से घिरे हुए, स्वाध्याय तथा शुभयोगरूप अक्ष्योहस्स भगवओ संघसमुहस्स एन्वस्स ॥ मगरों से युक्त परीषह और उपसर्गों में अक्षुब्ध, सर्व ऐश्वर्य युक्त भगवान "संघ-समुद्र" कल्याणकारी हो। (८) संघस्स मेरुवमा -- (८) संघ को मेरु की उपमासम्मबंसण - वर - बहरदढ - रूद - गाढावगाढ - पेढस्स। सम्यक्त्वरूप श्रेष्ट वज्रमय हद महरी रोपी हुई पीठिका धम्म - वर - रयण - मंडियत्रामीयर - मेहलागस्स ॥ वाले, धर्म रूप श्रेष्ठ रत्नों से मंडित-जड़ी हुई मेखला वाले । नियभूसिय - कणय - सिलायलुज्जल - जलंत - चित्सकहस्स। नियम रूपी ऊँची-ऊंची शिलाओं से उज्ज्वल एवं ज्वलंत नंबण - वर्ण - मणहर मुरभि - सील - गंधुद्धमायस्स ॥ चित्तरूप कूट शिखर वाले, भीलरूप सुगन्धित धूम से भारत नन्दन वन वाले। जीब - दया - मुन्धर - कंवरुदरिय • मुणिवर-मइंव-इनस्स। जीवदयारूप सुन्दर कन्दराओं में उदिप्त-स्वाभिमानी हेउ सय - धाउ • पगलंत - रयण - दिलोसहिगुहस्स॥ नाना मुनिवररूप मृगेन्द्रों वाले, सैकड़ों हेतु रूप धातुओं से भरती हुई दिव्य भावकर ओषधिरत्नबाली गुफाबाले । संबर-बर - जल - पगलिय- उज्नर - पविरायमाण - हारस्स। संवररूप बहती हुई श्रेष्ठ जलधारा से सुशोभित झरणों सावग - जण - पउर - - रवंत - मोर - नच्चंत - कुहरस्स ॥ वाले, प्रचुर श्रावकरूप बोलते व नाचते हुए मयूरों बाली फन्दरा वाले। बिगय - मयप्पवर-मुणियर - फुरंत - विजुण्जलंत -सिहरस्स। विनयावनत प्रवर मुनिवररूप चमकती हुई बिजली से विविह-गण-कप्प-रुक्खग - फल • भर - कुसुमाउल - वणस्स ॥ आलोकित शिखरवाले, विविध गुण रूप पुष्पफलयुक्त कल्पवृक्ष वाले। नाण-बर-रयण - विप्पंत - कंत - कलिय - विमल - चूलस्स। ज्ञानरूप श्रेष्ठ रत्नों से देदीप्यमान कांत बंडूपमय बिमल बंदामि विणय - पणओ संघ - महामवर - गिरिस्स ।। ला-शिखर वाले, संवरूप-महामंदर गिरि को वन्दना करता हूँ। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२-१५ सुब P - बारसंग + सील सुगंधित - सिहरं - नगर रह चक्क परमे जो उवमिन्जर सययं तं धर्मावर संघ गनिपिग णमोकार सुत१४. मोबासंग गरि लिवि णमोक्कार - सुत्त १५. णमो भए लिथीए । श्रुत नमस्कार सूत्र सुयाए पर्णामिमो जीए पसाएम सिक्खियं नाणं । अष्णं पवयणदेवी संतिकरी तं नर्मसामि ॥ ॥ बंबे ॥ भूरे समुद गुणाय रं वंदे ॥ - नं. थ. गा. ४-१९ सुअरस नमोवकार गुसणमो सुअस्स । वि.स.१.१.३ सुदेवया णमोक्कार सुताई १३ नमो देवधाए भगवती । वि. स. १७७.१.१ कुमुय सुसंठियाला अमलिय कोरंटमेंटसंकाला | सुयदेवया भगसई मम मतितिमिरं पणासेउ || - नियतिमिरा वाहिया देवी। यह विणविमादिव्वं ॥ सुदेवाय जो कुंधति मेरो विज्जाय अंतहुंडी देउ अविग्वं लिहंतस्स ॥ — वि. अंतिमसु श्रुत नमस्कार सूत्र - श्रुत को नमस्कार हो। गुण रूप रत्नों से उज्ज्वल कटक- मध्य भाग वाले, शीलरुग एवं भूमि वाले श्रुतरूप शिखर वाले उस संघ महामन्दर को वन्दन करता हूँ । नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, और मेरु की जिसे उपमा की जाती है उस संघ गुणांकर को चन्द्रना करता हूँ । भूतदेवता नमस्कार सूत्र भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो । कछुआ की तरह सुन्दर चरण कमल वाली, निर्मल कोरंट वृक्ष की कली के समान पूज्य श्रुतदेवी मेरे मति अज्ञान का नाश करो - मंगल सूत्र जिसके हाथ में विकसित कमल हैं और बुध पंडित, विबुध देवों ने जिन्हें हमेशा नमस्कार किये हैं ऐसी ता धिष्ठित देवी मुझे वृद्धि अर्पित करो। तदेवता को प्रणाम करता हैं, जिनकी कृपा से ज्ञान सीखा है और इसके अतिरिक्त शान्ति करने वाली प्रवचनदेवी को भी मेरा नमस्कार हो । पिटक नमस्कार सूत्र द्वादशांग गणिटिव को नमस्कार हो । [ ६ श्रुतदेवता, कुम्भर यक्ष, ब्रह्मशान्ति वैरोट्या, विद्या और अंडी विश्वन करने वाले को निविघ्न करो। Nove - लिपि नमस्कार सूत्र - ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो । वि. अंतिमत - बि. स. १, उ. १, सु. १ ११. नगर, २. रख दे. चक्र, ४ प ५. चन्द्र, ६. सूर्य ७ समुद्र की प्रतिष्ठा का द्योतक है। यहाँ अध्यात्म साधकों का संघ उपमेय है। गुणों की प्रतिष्ठा होना आवश्यक बताया गया है जिनसे साधक साधना २ भग. स. २६.१, सु. १ । ३ ब्राह्मी लिपि को नमस्कार - क्यों और कैसे ? अक्षर विन्यामरूप अर्थात् लिपिबद्ध श्रुत द्रव्ययुक्त है. लिखे जाने वाले अक्षरसमूह का नाम लिपि है। भगवान ऋषभदेव अपनी पृथ्वी बाह्मी को दाहिने हाथ से लिखने के रूप में जो लिखाई, यह बाह्मी लिपि कहलाती है। बालको नमस्कार करने के सम्बन्ध में तीन प्रश्न उठते हैं - मे यह उपगा अष्टक मानव में महामानव श्रेष्ठतम उपमानों द्वारा संघ में उन रात्र अनिवार्य में सहज सिद्धि को प्राप्त हो सकता है। (१) लिपि अक्षरस्थापनारूप होने से उसे नमस्कार करना द्रव्यमंगल है, जो कि एकान्त मंगलरूप न होने से यहाँ कैसे उपादेय हो सकता है ? (२) गणधरों ने को लिपिड नहीं किया, ऐसी में उन्होंने पि को नमस्कार क्यों किया ? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] चरणानुयोग वंदना कल - १६. प० बंदणणं भन्ते । जीये कि जगयइ ? उ० बंदणणं नीयागोयं कम्म खवेह | उच्चागोयं निबन्ध | सोहणं व गं अप्पवियं आणाफलं निव्य बाहिणभावं च णं जणय । -उत्स. अ. २६, सु. १२ चवीसपल सुत - १७. प० चवीसत्थए भन्ते ! जीवे कि जणय ? उ० सत्यमोह भव-पुई मंगल फलमुत्त१८. प० पवधुमंगलेणं भंते ! जीवे कि जनयइ ? चवना फल सूत्र - - उत्त. अ. २६, सु. ११ - उ० धवथुमंगले माणसश्चरितोहि लाभं जणयद्र । राजसरि बोलिने अन्तकिरिय कप्पविमाणोषसिगं आराहणं आहे । -उत्त. अ. २९, सु. १६ सूत्र १६-१८ वन्दना फल सूत्र - ? ६. प्र० - भन्ते ! वन्दना से जीव क्या प्राप्त करता है उ०- बन्दना से वह नीच कुल में उत्पन्न करने वाले कर्मों को क्षीण करता है। ऊँचे-कुन में उत्पन्न करने वाले कर्म का अर्जन करता है। जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें वैसे.. अवाधित सौभाग्य को प्राप्त होता है तथा दाक्षिण्यभाव को प्राप्त होता है । चतुर्विशतिस्तव फल सूत्र ११. प्र०—विशतिस्तव (नौबीस तोर्थकरों की स्मृति करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? विशतिस्तव से सम्यक्त्व की विशुद्धि को प्राप्त 70 करता है । स्तवस्तुतिमंगल फल सूत्र ११. प्र० भन्ते ! स्तव और स्तुति रूप मंगल से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०- स्तव और स्तुति रूप मंगल से वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की बोधि का लाभ करता है । ज्ञान, दर्शन और afta के बोधि-लाभ से सम्पन्न व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति या वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता है। (क्रमशःपृष्ठ का ३. प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, फिर शास्त्र के लिए यह मंगल क्यों किया गया ? इनका क्रमशः समाधान यों है- प्राचीनकाल में पाास्त्र को कण्ठस्थ करने की परम्परा थी, लिपिबद्ध करने की नहीं । ऐसी स्थिति में लिपि को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसका आशय वृत्तिकार स्पष्ट करते हैं कि यह नमस्कार प्राचीनकालीन लोगों के लिए नहीं आधुनिक लोगों के लिए है। इसमे यह भी सिद्ध है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, यह नमस्कार शास्त्र को लिपिबद्ध करने वाले किसी परम्परानुगामी द्वारा किया गया है | अक्षरस्थापनारूप लिपि अपने आप में स्वतः नमस्करणीय नहीं होती, ऐसा होता तो लाटी, यवनी, तुर्की, 'राक्षसी आदि प्रत्येक लिपि नमन योग्य होती; परन्तु यहाँ ब्राह्मी लिपि को नमन योग्य बताई है, उसका कारण यह है कि शास्त्र ब्राह्मी लिपि में लिपिबद्ध हो जाने के कारण वह लिपि आधुनिकजनों के लिए श्रुतज्ञान रूप भावमंगल को प्राप्त करने में अस्यन्तु उगकारी है। द्रव्यभूत भावभूत का कारण होने से जाक्षर रूप (ब्राह्मी प्रयत को भी मंगलरूप माना है। वस्तुतः यहाँ नमन योग्य भावश्रुत ही है, वही पूज्य है। अथवा शब्दनय की दृष्टि से शब्द और उसका कर्ता एक हो जाता है । इस अभेद विवक्षा से ब्राह्मी लिपि को नमस्कार भगवान ऋषभदेव ( ब्राह्मीलिपि के आविष्कर्ता) को नमस्कार करना है । अत: मात्र लिपि को नमस्कार करने का अर्थ अक्षरविन्यास को नमस्कार करना लिया जायेगा तो अतिव्याप्ति दोष होगा। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६ धर्म प्रज्ञापक भगवान महावीर धर्म प्रज्ञापना ११ www धम्मपण्णवणा धर्मप्रज्ञापना - - - . १६. ते णं काले णं ते णं समए ण समणे भगवं महावीरे। आइगरे तित्थयरे सर्य संबुझे। पुरिसुत्तमे पुरिससोहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्यी। लोमुत्तमे लोगनाहे लोमहिए लीगपईय लोगपज्जोयगरे । अभयदए चक्यूबए मगरए सरणवए जीववए बोहिवए। धम्मदए धम्मदेसए धम्मनायगे धम्मसारही धम्मवर चाउरंत उक्कवट्टी। श्रीयो तागं सरणगई पइट अप्पडिहयवरणाणवंसणधरे । वियट छतमे। १२. उस काल में उस समय में श्रमण भगवन् महावीर। श्रुत-चारित्र धर्म के प्रवर्तक चतुर्विध तीर्थ के संस्थापक स्वयंबुद्ध। पुरुषों में उत्तम पुरुषों में सिंह समान पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल समान पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ति समान । लोक में उत्तम लोक के नाथ नोकहतकर लोक में दीपक समान लोक में उद्योतकर्ता। अभयदानदाता गानचक्षुदाता मोक्ष) मार्गदर्शक गरणदाता जीवदयाकर्ता बोधिदाता धर्मदाता धर्मोपदेशक धर्मनायक धर्म सारथी धर्म के श्रेष्ठ चतुर्दिक चक्रवतीं। तोप समान रक्षक शरणागत के आधार आवरण रहित अनुत्तर ज्ञान दर्शन के धारक । छद्म-छल से सर्वथा निवृत्त । राग-द्वेष के विजेता राग-द्वेष जीतने का पथ वकाने वाले संसार सागर से उत्तीर्ण भषसागर से तारक बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त परिग्रह से मोचक जिणे जागए तिपणे तारए मुझे मोयाए Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] चरणानुयोग धर्म प्रज्ञापक भगवान महावीर सूत्र १६ marw बुद्ध जीवाजीव द्रव्यों के ज्ञाता बोहए। जीवाजीव द्रव्यों के बोधक । संठवण्णू सर्वज्ञ सम्वदरिसी सर्वदर्शी सिव-मयल-मरुअ- मत-भक्खय-मवावाह-मपुणरावत्ता उपद्रवरहित, स्थिर, रोगरहित, अनन्त, अक्षय, बाधा रहित, अपुनरावर्तक सिद्धिगह नामधेय ठार्य संपाविउकामे सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामना बाले थे अरहा जिणे केवली वे अर्हन्त जिन केवली थे सत्तहत्युस्महे बेसात हाथ ऊँचे थे समचउरंससंठाणसलिए वे समचोरस संस्थान से स्थित थे वस्तारसहनारायसंघयणे वे वज्रऋषभनाराच संहनन वाले थे अगुलोम वाउवेगे उनके शरीर में सभी वायु अनुकूल वेगवाले थे कंकरगहणी कंक पक्षी के समान उनकी ग्रहणी थी कबीयपरिणामे कपोत के समान उनकी पाचन शक्ति थी सणिपोस-पिटुन्तरोरूपरिणए उनके पृष्ठभाग के अन्त में अपान और उस पक्षी के समान सुगठित घे पउमुप्पल गंध सरिस णिस्सास सुरभिवयणे उनका निःश्वास और बदन पदमकमल जैसा सुगंधित था निरायंक-उत्तम-पसत्य-अइसेयणि रुखमपले उनके शरीर में मांस रोगरहित, उत्तम, प्रशस्त अतिश्वेत एवं अनुपम या जस्त-मल-कलंक-सेय-रबदोसज्जियसरीरे णिस्यले उनका शरीर गाढ़मल-मदुमल-दाग-स्वेद-रजदोष रहित एवं अलिप्त था छाया उज्जोदयंगमगे उनकी छाया और प्रत्येक अंग उयोतित थे घण-णिचिय-सुबद्ध-लक्खमुन्नायकडागारणिभ-पिडिय उनका मस्तक सघन-सुबद्ध-स्नायु पुत उत्तम लक्षण संपन्न मसिरए पर्वत के उन्नत शिखर पिण्ड जैसा था सामलिबोंड-धण-गिचियफोडियामा-बिसय-पररथ मुहुम उनके मस्तक पर केश सेमल फल के फटने से निकले लक्षणसुगंध-सुन्दर-मुजमोचक-भिगणील-कज्जल-पहल-अमरगण हुए सघन रेणे' जैसे मदु-विशद-प्रशस्त-सूक्ष्म-लक्षण-सम्पन्न-मुगगिद्ध-गिकुरंब-णिजय-कुंचियपयहिणावत्तमुद्धसिरए न्धित सुन्दर थे, भुजमोचक-नीलभ'ग और कज्जल जैसे तथा भ्रमरगण जैसे काले चमकीले पुष्ट सघन एवं दक्षिणावर्त थे वाडिम-पुष्प-पकास-तवणिज्जसरिसगिम्मल-सुणिड केसंत उनके सिर पर केश उत्पन्न होने वाली त्वचा अनार के केसभूमि पुरप जैसी तथा तपाये हुए स्वर्ण जैसी निर्मल एवं चिकनी थी छत्तागारुत्तमांगदेसे उनके मस्तक का मध्यभाग छवाकार घा णिय्यण-सम-लठ-मह चंदद्धसमणिडाले उनका ललाटवण रहित समपुष्ट - शुद्ध - अर्द्धचन्द्राकार जैसा था उडवाइ-पठिपुण्ण-सोमवयणे उनका मुख प्रतिपूर्ण शशिसम सौम्य था अल्लीण-पमाणजतसवणे उनके श्रवण संगत एवं प्रमाणोपेत थे पौण-मंसल-कवोलदेसभाए उनके कपोल पुष्ट एवं मांसल थे Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५ धर्म प्रशापक भगवान महावीर धर्म प्रतापना [१३ आणामिय चाप-नहस किण्डममराइतणु-कसिणणिव भमुहे अवदालिय-पुंडरीय-णयणे कोआसिय-धवल-पत्तलच्छे गरलाययउज्जु-तुंग-णासे उत्रिय-सिखप्पवाल-बित्रफलसग्णिभाहरोह्र पपुर-ससिसयल-विमल-णिम्मलसंख-गोखीरफेक - कुंव-वग - रयमुणालिया-धवल वंतसेही अखंड दंते उप्फुडिय बंते अविरल दते सुणि दंते सुजाय दंते हुयबह-णित-धोय-तत्त-तबणिज्जरततल-तालु-जोहे अवट्टिय-सुविभत्तचित्त-मंसू। मसल-संठिय-पसस्थ सदूल विउल हणुए चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुबरमरिसग्गीवे उनकी भोंहे नमे हुए धनुष के समान टेढ़ी, काले बादल के समान पूर्ण पतली एवं चिकनी थी उनके नयन विकसित पुण्डरीक कमल जैसे थे आँख के अन्दर के श्वेत-श्याम भाग बहुत तेज ये उनकी नासिका गफड़ की चोंच के समान लम्बी सीधी और ऊँची थी उनके ओष्ठ प्रवाल शिल' अथवा बिम्बफल सहश थे उनकी दन्तधणी चन्द्रखण्ड, विमल निर्मल शंख, गौदुग्ध के झाग, कुन्द पुष्प, और कमलतन्तु जैसी श्वेल थी उनके दांत अखण्ड थे उनके दांत पटे हुए नहीं थे उनके दांत एक दूसरे के साथ धे उनके दांत चिकने थे उनके दांत सुन्दर थे उनका तालु और जिह्वा अम्नि से तपाये हुए एवं जल से धोये हुए स्वर्ण सहश रक्ततल वाले थे उनके दाढ़ी-मूंछ सवा समान एवं सुलझे हुए रहते थे उनकी ठुड्डी शार्दूल सिंह की ठुड्डी के समान मांसलसुस्थित-प्रशस्त एवं पुष्ट श्री उनकी गरदन चार अंगुल (चौड़ी) प्रमाणवाली श्रेष्ठ संख सहश थी उनके स्कन्ध धेष्ट महिष, यूकर, शार्दूल सिंह, वृषभ और श्रेष्ठ हस्ति के स्कन्ध जैसे थे ____ उनकी भुजायें गाड़ी के जुए जैसी पुष्ट एवं सुन्दर विशिष्ट स्नायुओं से सुवद्ध सुदृढ़ सन्धियों से संगत एवं स्थिर बालाइयों से युक्त नगर द्वार के कपाट) की अर्मला जैसी गोल थी उनके हाथों में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक, दक्षिणावर्त स्वस्तिक आदि की सुन्दर एवं स्पाट रेखायें थी। उनके हस्ततल वृद्-मासल तथा प्रातस्त लक्षण युक्त थे और अंगुलियां मिलाने पर उनमें छिद्र नहीं दिखाई देते थे उनकी श्रेष्ठ अंगुलियां पृष्ट एवं कोमल थीं उनके हाथ को अंगुलियों के नख अल्प रक्तवर्ण के स्वच्छ स्निग्ध पतले तथा चमक वाले थे उनका बक्षस्थल स्वर्णशिना सहश उज्ज्वल विशालसमतल-पृष्ट-चौड़ा तथा श्रीवल्स नामक स्वस्तिक से अंकित था उनके पार्श्वभाग श्रमशः संकुचित, गरीगनुसार संगतसुन्दर-पुष्ट-प्रभाणोपेत सुनिष्पन्न थे उनका उदर मत्स्य तथा पक्षी जैसा मुन्दर था उनके उदर की आंतें स्वस्थ थीं वर महिस-बराह-सीहसल उसभ-णागवर-पडिपुष्ण खंधे जुग-सग्णिभ-पीण-रइअ-पीचर पउठिए मुसिसिट्ट-विसिलिट्ठ-घथिर-सुबद्धसंधि-पुरवरफलिहवट्टिय भए चंद-सूर-संख-चक्क-दिसासोत्थिय-विभत्त-सुधिरइय पाणिलेहे रत्ततलोबइय-भउय-सल-सुजाय-लक्षण-पसत्यअछिह जालपाणी पौवर कोमल वरंगुली आयंत्र-तंबन्तलिन सुई-रुइलणिव जखे कण गसिलातलुज्जल-पसत्य-समालउपचिय-वित्यिण - पिट्ठल-सिरिवच्छंकिय वच्छे सण्णध-संगय-सुंदर सुजाय-नियमाइय-पीणराय पासे मस-विहग-सुजायण कुच्छी सुइकरने Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] चरणानुयोग धर्म प्रज्ञापक भगवान महावीर मूत्र १६ गंगावतक - पयाहिणावत्त - तरंगभंगुर- रविकिरण-तरुणचोहिय अकोसायंत-पउमगंभीर विधज-णाभे साहयसोणंद-मुसल-दरमणि करियवरकणगच्छर सरिसवर वइर-वलियमझे पमुद्दय बरतुरग-सोहवर-वट्टिय कही वरतुरगसुजाय-गुज्नदेसे आइण्ण-उच्च-णिरुवलेवे गयससण-सुजाय-सत्रिभोरू ससम्म-णिमग्ग-गूढ जाणु एगी फुलविदावत्त बट्टा पुस्य जंधे संठिय सुसिलिट्ट गूस गुप्फे सुपहट्ठिय-कुम्म-चार चलणे रत्तुप्पलपत्त-मस्य-सकुमाल-कोमल तले नग-नगर-मगर-सागर-चक्ककवरंग-मंगलफियपरणे उनकी नाभि मंगानदी के दक्षिणावतं तरंगों से बने हुए भंवर जैसी गुढ घुमाववाली तरुण सूर्य की किरणों से पूर्ण विकसित कमल जैसी गहन गम्भीर थी उनके शरीर का मध्यभाग तिपाई, पुसल, दर्पणदण्ड, शोधित-श्रेष्ठ स्वर्ण से निर्मित तलवार की मूठ तथा श्रेष्ठ वन के मध्यभाग जैसा था की काटि- मुदित-उत्तम अश्व तथा श्रेष्ठ सिंह की कमर जैसी थी उनका गुप्तांग श्रेष्ठ अपम जैसा सुनिष्पन था जनका मल-मूत्र-विसर्जन का स्थान उत्तम अश्व के समान लेप रहित था उनके उरू हाथी की सूध के समान सुगठित थे उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन के समान सुस्थित थे उनकी पिण्डलियाँ हिरण की पिण्डलियों के समान तथा कुरुविन्द घास के समान क्रमशः वृत्ताकार थीं उनके टखने सुगठित, सुस्थित एवं गूड थे उनके चरण कछुए के समान ऊपर से उन्नत एवं सुप्रतिष्ठित थे उनके पैरों के तलवे रक्त उसाल जैसे मृदु सुकुमार कोमल थे उनके चरणतल में पर्वत, नगर, मकर, सागर, चक्रांक, स्वस्तिक आदि मांगलिक चिन्ह अंकित थे उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः छोटी-बड़ी एक दूसरे स सटी हुई थीं उनके पैरों की अंगुलियों के नख ताम्रवर्ण, उन्नत, स्निग्ध तथा पतले थे उनकी गति पट्टहस्ति की गति के समान पराक्रम पूर्ण थी वे स्वर्णशिला सदृश सुन्दर-रोगरहित देहधारी थे उनके शरीर पर रोमराजि सीधी, समान, एक दूसरे से मिली हुई, श्रेष्ट, सूक्ष्म, काली, चिकनी, उत्तम लावण्य-सम्पन्न एवं रमणीय थी उनका तेज मिळूम प्रज्वलित अग्नि, विद्युत, तरुण सूर्य की किरणों जैसा था ___ वे आस्रवरहित थे, ममत्व रहित थे, अपरिग्रही थे, शोक रहित थे, अलिप्त थे वे प्रेम, राग, द्वेफ स्प मोह से रहित धे वे निर्गन्ध प्रवचन के उपदेष्टा थे वे शास्त्रकारों के नायक थे, प्रतिष्ठापक थे, श्रमण स्वामी थे, श्रमण वृन्द से परिवत थे अगुपुन्च-सुमहयंगुलीए उण्णय-तणु-तंब-गिद्ध णक्खे बरवारणतुल्ल-विक्कम विलसिय गई कणसिलाय-सुजाय-णिरुबहय-देहधारी उन्जय-सम-सहिय-जच्चतणुकसिण-णिद्ध-आइज्जलउहरमणिज्जरोमराई हयवाह-णिङ्कम-जलिय तडितडिएतरुण-रविकिरण सरिस तेए अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए णिश्वलेवे बधगय-पेम-राग-दोस मोहे णिग्गं बस्स परयणस्स देसए सस्थगाइणायगे, पाहावए, समणगपई समणविद परियट्टिए Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६-२२ धर्म स्वरूप जिज्ञासा धर्म प्रज्ञापना [१५ चउतीसबुद्धवयणातिसेस पत्ते वे चौतीस बुरुवचनातिशयों से सम्पन्न थे पणतीससच्चवयणातिसेन पत्ते -उव, मु १६ वे पैतीस सत्यवचनातिशयों से सम्पन्न थे तए णं समणे भगवं महावीरे सोसे य महामहालियाए उस समय श्रम्ण भगवान महावीर ने अनेक सौ, अनेक परिसाए, मुणि परिसाए, जड़ परिसाए, देव परिसाए, अणेग- सौवृन्द, अनेक सौवृन्दों के परिवार वाली उस महान परिषदा सयाए, अगसयार. अगसरा रिपाराए, स में. गुनि रिषदा में, यति परिषदा में, देव परिषदा में, शरद गवत्यणिय-महुर-गम्भीरकोंचणिग्योस-इंदुभिस्सरे ऋतु के नवोन मेघ के गर्जन जैसे, कौंच पक्षी तथा दन्दुभी के घोष जैसे स्वर से, उरे वित्थडाए, कंठे वट्टियाए हृदय में विस्तृत, कण्ठ में स्थित, सिरे समाइण्णाए मस्तिष्क में व्याप्त, अगरलाए अस्पष्ट उच्चारण रहित अमम्मणाए हझलाहट रहित, सुवत्तक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सबभासाणुगामि- व्यक्त अक्षरों के पूर्ण संयोजन सहित सर्वभाषानुगामिनी पीए सरस्सईए वाणी को जोयण णिहारिणासरेणं योजन पर्यन्त नुनाई दे ऐसे रबर से अदमागहाए भासाए धम्म परिकहेइ अर्धमागधी भाषा में धर्म कहासा वियणं अहमागहा मासा तेसिससि आरियमणारि- वह अर्धमागधी भाषा उन सब आर्य-अनार्य श्रोताओं की याणं अप्पणो सभासाए परिणमेण परिणमई - उव. सु. ५६ अपनी-अपनी भाषा में परिणत हुई। धम्मसरूवं जिण्णासा धर्म-स्वरूप की जिज्ञासा-- २०. ५०- कतरे धम्मे अक्खाते माहणेण भतीमता? १३. प्र० मेवलज्ञानसम्पन्न, महामाहन (अहिंसा के उपदेष्ट!) भगवान महावीर स्वामी ने कौन-सा धर्म बताया है ? उ०-अंजु धम्मं अहातच्चं जिणाणं सं सुमेह मे। उ. जिनबरों के द्वारा उपदिष्ट) उस सरत धर्म को -सूग.सु. १, अ. ६. गा.१ यथार्थ रूप से मुझसे सुनो। भावलोअप्पयारा भावलोक के प्रकार..२१.तिविहे सोगे पग्णते, तं जहा-- १४. लोक तीन प्रकार के कहे गये हैं१. गाणलोगे, १. जानलोक, २. सणलोगे, २, दानिलोक, ३. चरित्तलोगे। ३. चारित्रलोक । -ठाणं अ. ३, उ, २, सु.१६१ भवावेक्षया जाणाइणं पवणा-- भव की अपेक्षा से ज्ञानादि की प्ररूपणा२२. ५०-इहमविए भंते ! नाणे ? परभविए नागे ? तनुभय- १५. प्र० हे भगवन् ! क्या ज्ञान इहभविक है ? परभधिक है? भविए ना? या तदुभयभविक है? उ.. .. गोयमा ! इहविए वि नाणे, परमविए वि नाणे, उ० गौतम ! ज्ञान इहभविक भी है, परभविक भी है, सदुश्य भविए बि नाणे । और तदुभयभविक भी है। बसणं पि एवमेव इसी प्रकार दर्शन भी जान लेना चाहिए। १ उबा. मु. २ भगवान महावीर के शरीर का यह वर्णक पाठ औपपातिक सूत्र के सूत्रों से लिया है किन्तु उपलब्ध प्रतियों में विभिन्न वाचना भेद के पाठ है अतः प्रस्तुत वर्णक पाट के संकलन में सभी प्रतियों का उपयोग किया गया है। इस वर्णक में सूत्रों के जितने अंश अपेक्षित थे उतने ही लिर हैं और सूत्रांक आगम प्रकाशन समिति ब्यावर के दिए हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] चरणामुयोग छह प्रकार के पाव सूत्र २२-२३ १०-इहभविए भंते ! चरिस ? परमविए चरित? तदुभयभविए परितं? उ०-गोयमा । इहविए परिने, नो परमविए चरित, नो तवुभयविए चरित्ते। एवं तवे संजमे –वि. स. १, अ.१, सु. १० छव्विहा भावा-. २३. छविहे भावे पण्णते, तं जहा १. ओदइए, प्र. हे भगवन् ! क्या चारित्र इहभबिक है ? परमविक है ? या तदुभयभविक है? उ. गौतम ! 'पारित्र इहभाविक है, वह परभविक नहीं है और न तदुभयभविक है। इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए। छह प्रकार के भाव भाव छह प्रकार के कहे गये हैं । जैसे १. औदयिक भाव-कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मानादि इक्कीस भाव । २. औपशमिक भाव-मोह कर्म के उपशम से होने वाले सम्यक्त्वादि दो भाव है। ३. क्षायिक भाब-वाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञान-दर्शनादि नौ भाव । ४. क्षायोपशमिक भाव-धातिकर्मों के क्षयोपशम से होने वाले मति-श्रुतज्ञामादि अठारह भाव । ५. पारिणामिक भाव-किसी कर्म के उदयादि के बिना अनादि से चले आ रहे जीवत्व आदि तीन भाव । ६. सान्निपातिक भाव-उपयुक्त भावों के संयोग से होने वाले भाव । २. उपसमिए, ३. खइए, ४. खओवसमिए, ५. पारिणामिए, ६, सन्निवाइए। -ठाणं. अ. ६, सु. ५३७ १ (क) अणु. उवक्कम. सु. २०७. (ख) "छविहे भावे" इत्यादि, भवनं भावः पर्याय इत्यर्थः गाहा-ओद इय उवस मिए य, वइए य तहा खओवसमेए य । परिणाम सचिवाए य, छविही भावलोगो उ ।।-11 (१। ततोदयको द्विविध: - १. उदय-२. उदयनिष्पन्नश्च, तत्रोदयोऽष्टानां कर्मप्रकृतिनामुदयः-शान्तावस्थापरित्यागेनोदीरणावलिकामतिक्रम्योदयावलि कायात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः अत्र चैवं व्युत्पत्तिः -उदय एवौदयिक: उदयनिष्पग्रस्तु कोदयजनितो जीवस्य मानुषत्वादिः पर्यायः तत्र च उदयेन निवं तस्तत्र वा भव इत्यौदयिक इत्येव व्युत्पत्तिरिति. (२) तथा औपशमिकोऽपि द्विविध:---१. उपशम, २. उपशमनिष्पपश्च. तयोपशमो वर्णनकर्मणोऽनन्तानुबन्ध्यादि भिन्नस्योपशमणिप्रतिपन्नस्य वा मोहनीय भेदान् अनन्तानुबन्ध्यादीनुपशमयतः, उदयाभाव इत्यर्थः उपशम एवौपशमिकः उपशमनिष्पन्नस्तु उपशान्त क्रोध इत्यादि उदयाभावफलस्वरूप आत्मपरिणाम इति भावना, तत्र च व्युत्पत्तिः–उपशमन निवृत्त औपथमिक इति. (३) तथा क्षायिको द्विविध:-१. क्षय, २. क्षयनिष्पन्नश्च. तर अयोऽष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणादि भेदानां, क्षय कर्माभाव एवेत्यर्थ : क्षयनिष्पमस्तु तत्फलम्पो विचित्र आत्मपरिणामः केवलज्ञानः दर्शनचारिवादि. तत्र क्षयेण निर्वतः "क्षायिक" इति व्युत्पत्तिः । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४ भावप्यमाणपरूवणं— २४. १०- से कि तं भावम्पमाणे ? (शेष टिप्पण पृष्ठ १६ का) (४) तथा ममिको द्विविधः १ यो उपयोपपातिकलशानधिका योऽनुविपातिते। www परिणामो यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ म एवं पारिणामिक इत्पते। भाव प्रमाण प्ररूपण भूत एवमेवं एवेति क्षयोपशन एवं क्षा तस्य प्रदेशानुभवतोयदना अस्मिन वेदनादिति अगं योपशमनिस्वामिनिधिकारितम आत्मन एवं क्षयोपशमेन निर्वृतः क्षायोपशमिक इति व्युत्पत्तिरिति । (५) तथा परिणमनं परिणामः -- अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्‌द्भावगमतमित्यर्थः । उक्तं घ २ च । गाहाओ - उदइए खओवसमिए परिणामिक्षक मौदपिकामिक-पारिणा निविय 1. सादिः जीतादीनां उावस्या २. धर्मास्तिपादन भावस्य तेषामादित्यादिति । (६) तथा सन्निपातो मेकस्तेन निर्वृतः साभिमातिकः अयं चैषां पञ्चानामीदयिकादिभावाना द्वयादि संयोगतः सम्भवासम्भवानपेक्षया । तत्र द्विसंयोगे दशधिक संयोगेऽपि दर्शव चतुष्कसंयोगे पञ्च पञ्चकमयोगंत्येक एवेति । सर्वेऽपि पवियातिरिति । इह चाविरुद्धाः पञ्चदश सनिपातिकभेदा इष्यन्ते ते चैव भवन्ति । • वि स्वयजोगेण वि चउरो, तयभावे उसमे रि ॥ ॥ सिद्धस अविरुद्धसनिदाइ भैया एमेव पनरस ||| एक्के केवल तव भाव प्रमाण प्ररूपण २४. प्र० - भाव प्रमाण कितने प्रकार का है ? ज्ञानावरण-दर्शनावरण-नारायाणां समोवशन इह उदीर्णस्य - माहाओ - उवसमिएर दो, धर्म-पना [10 एकको म तया औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि वारिणानिको जीवत्वमिति । इत्थं तियरामरेष्वपि योजयमिति वा तथा क्षययोगेनापि चत्वार एवं तास्थेव गतिषु । अभिलापस्तु - औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि श्रामिक: सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवं तिर्यगादिष्वपि सन्तादिष्टवान्यचानुपपतेरिति भावनीयमिति । -तय भावे" त्ति, क्षायिकाभावे च शब्दाच्छेषत्रय भावे चौपशमिकेनापि नस्वार एव उपनाममात्रस्य गतिचतुष्टयेऽपि भावादिति । अभिलाषस्तमैव, नवरं सम्यक्त्वस्थाने उपशान्त कषायत्वमिति वक्तव्यनेते चाष्टी भंगाः प्राक्तनाश्चरार इति द्वादग, उपशमण्याant भंगः तस्या मनुष्येष्वेव भावात् । अभिलापः पूर्ववत् नवरं मनुष्य विषय एवं एवं । औदयिको मानुषत्वं क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वं । एकाधिक परिणामको जीवति। प्रयुक्तः दाद अब साविपातिक भेदाः । विवि खयउवसम१८ उदय२१ पारिणामे ३य । हम इन तिि (पृष्ठ १० पर शेष टिप्पण) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] चरणानुयोग उ०- भावप्यमाणे तिविहे पण्णत्ते तं जहा १. गुणमाणे २. यप्यमाणे, २. संखष्पमाणे " - अणु० सु० ४२७ [५० ] कि जीव? उ० तं जहा १. जाणगुणत्वमाणे २. दंसणगुणध्पमाणे, १. बरिस गुणप्यमाने । - अणु० सु० ४३५ माणगुणश्यमार्ण २५.० भागमा ? उ०- णाणगुप्यमाणे चउष्यि पण्णसे, तं जहा१. पच्चमले, २. अणमाणे, २. ओषम्मे, ४. आगने । प० से. किं तं पच? उ०- पचनले तुविहे पण तं जहा हंदि १०- से कि सं इंदियपचचक्ले ? ० इंडियन पंचतं महासोमबा इंदिपव्य ज्ञान गुण प्रमाण से २६. ५० - से कि तं नो इंदिपञ्चष ? २. नो विषय । ०नो इंडिजे तिविहे पण तं जहा - १. ओणपच्चमखे, २. मणपज्जश्रणाणपश्चमले २. सेन। २७. १० - से किं तं अणुमा ० अनुमानेतिविहे पण्णत्ते, सं लहा१.२.२ बिट्ट साहब। सूत्र २४-२७ उ०- भाव प्रमाण तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) गुण प्रमाण (२) नय प्रमाण, (३) संख्या प्रमाण । प्र० - जीव गुण प्रमाण कितने प्रकार का है ? उ०- जीव गुण प्रमाण तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-- ( १ ) ज्ञान गुण प्रमाण, (२) दर्शन गुण प्रमाण, (३) चारित गुण प्रमाण । ज्ञान गुण प्रमाण २५. प्र० - ज्ञान गुण प्रमाण कितने प्रकार का है ? उ० – ज्ञानगुण प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। यथा— (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमा, (४) आगम 1 प्र० - प्रत्यक्ष कितने प्रकार का है ? उ०- - प्रत्यक्ष दो प्रकार का कहा गया है । यथा(१) इन्द्रियप्रत्यक्ष (२) मो प्र० - इन्द्रिय प्रत्यक्ष कितने प्रकार का है ? उ०- इन्द्रियप्रत्यक्ष पाँच प्रकार का कहा गया है। यथाश्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष - पावत् स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष समाप्त २६. प्र० - नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष कितने प्रकार का है ? उ०- नो इन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - ( १ ) अवधिज्ञानप्रत्यक्ष (२) मनः पर्यवज्ञानप्रस्थक्ष, (३) केवलज्ञानप्रत्यक्ष नो इन्द्रियप्रत्यक्ष समाप्त । प्रत्यक्षसमाप्त । प्र० – अनुमान (प्रमाण) कितने प्रकार का है ? उ० – अनुमान तीन प्रकार का कहा गया है। यथा(१) (२) वत् (३) दुष्टसाधर्म्यवत् १. सम्भ चरिते पढने १. दंसण, २. नाणे य, ३. दाण, ४. लाभे य ५. उभोग, ६. भोग, ७. वीरिय, ८ सम्म ६. चरिते तह बीए || (ङ) ४ चउनाण ३ प्राणतियं, ३ दंसणतिय ५ पंचदाणलडीओ । १ समतं १ चारितं चं १ संजमासंजमे तद्दए || ४ चउगड़, ४ चउकसाया ३ लिगत्तियं ६ लेसछक्क १ अनाणं । १ मिच्छत १ मसिद्धत्तं १ असंजमे तह चध्ये उ ॥ ॥ पंचगम्य भावे, १ जीव, २ अभव्यत्त, ३ भव्वत्ता क्षेत्र, पंचविभावा भेया एमेव वा ॥ ॥ -स्थानांग टीका से उद्धत १ (क) यहां गुणप्रमाण और नयप्रमाण लिए हैं- संख्याप्रमाण गणितानुयोग (काल प्रमाण पृ० ६९१ से काललोक में तथा क्षेत्रमाण परिशिष्ट २ पृ० ७५४ पर) में दिया गया है। (ar) इससे आगे का एक सूत्र द्रव्यानुयोग में दिया है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र २७ जामगुण प्रमाण-अनुमान प्रमाण धर्म प्रज्ञापमा १८ ५०-से किं तं पुण्यवं? प्र०-पूर्ववत् कितने प्रकार का है। ज०-पुण्यवं पंचविहं पण्णसे, तं जहा ज-पूर्ववत् पाँच प्रकार का कहा गया है । यया -- १. खतेग या, २. वणेण वा. ३. मसेण बा, ४. संछ- (१) क्षत से, (२) वर्ग से, (३) मसे से, (४) लांछन से, पेण वा ५. तिलएण वा। (५) तिल से। संगहणी गाहा . संग्रहणी गाथामाता पुत्तं जहा गट्ठ, जुवाणं पुणगय । किसी माता का पुत्र बाल्यकाल में भाग गया, जबान होने काई पच्चमिजागेज्जा, पुलिगेण केगद ।।-॥ पर घर आया तो माता ने किसी पूर्व चिन्ह से उसे पहनाना । से तं पुवई । -पूर्ववत (प्रमाण) समाप्त। प०-से कि तं सेसवं? प्र-शेषवत् कितने प्रकार का है? २०-सेसवं पंचविहं पण्णतं, तं जहा-- उ.-शेषवत् पाँच प्रकार का कहा गया है । यथा१. कज्जेण, २. कारणेणं, ३. गुणेणं, ४. अवययेणं, (१) कार्य से, (२) कारण से, (३) गुग ले, (४) अवयव से, ५. आसएणं। (५) आश्रय से। ९०-से कि तं कोण? प्र०--कार्य का स्वरूप कैसा है ? उ०-कम्जेणं- संखं सहेग, भेरि तालिएणं, वसभं किएणं, उ.-कार्य-यथा--शंख शब्द से, भेरी बजाने से, मोर केकाइएणं, हयं हिसिएणं, गयं गुलगुलाइएणं, वृषभ घडुकने से, मयूर केकारव से, अव हिनहिनाट ने, गज रहं धणधणाइएक, से ते कज्जेणं । गुलगुलाट से। -कार्य से समारत। ५०-से कि तं कारणेणं? प्र० -कारण का स्वरूप कैसा है ? उ०-कारणेणं =तंतवो पडस कारणं, न पडो संतुकारणं, उ०—कारण = यथा तन्तु पट के कारण हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है । पोरणा कास्स कारणं, न करो वीरणकारणं, कलाकायें चटाई के कारण हैं, चटाई मालाकाओ का कारण नहीं है। मिपिडो घडस्स कारणं, न घडो मिप्पिडकारणं । मृत्पिश्ट घट का कारण है, घट मृत् पिण्ड का कारण से तं कारणेणं । नहीं है। -कारण से समाप्त ५०-से कि तं गुणणं? प्र०—गुण का स्वरूप कैसा है ? ३०--गुणेणं-सुवणं निकसेगं, पुष्कं गयेणं, लवणं रसेणं, 30-गुण = यथा -सुदणं कसौटी से, पुष्प गन्ध से, लवणी मदिरं आसायिएणं, वत्थ कामेणं, से तं गुणेणं। रस से, मदिरा आस्वाद से, वस्त्र स्पर्ण से। -गुण से समाप्त प०-से कि तं अवयवेणं? प्र-अवयव का स्वरूप कैसा है ? उ०-अवयवेणं महिसं सिंगेणं, कुक्कुडं सीहाए, हथि उ..--अवयव=यपा-भंसा सोंग से, मुर्गा शिखा से, हाथ विसाणे वराहं दाढाए, मोरं पिछेणं, आसं खुरेणं, दान्त से, बराह दाढा से, मोर पिच्छ से, अश्व चुर से, व्याघ्र बग्धं नहेग, चमरं वालपडेणं, दुपयं मणुसमाइ, चन- नखों से, चामर गाय केशों के गुच्छ से, द्विपद-मनुष्यादि, चतुष्पद पर्य गवमाइ, बहुपयं गोम्हियाइ, सोहं केसरेणं, यसहं गाय आदि, बहुपद रोह आदि, सिंह केस जटा से, वृषभ ककुध से, ककुहेणं, महिलं बलयबाहाए । महिला चूड़ा से। संगहाणी याहा संग्रहणी गापार्षपरियर कंधेण मां, जाणिज्ज महिलियं णिवसेणेणं । योधा कमर बन्ध से, महिला वेषभूषा से, सिस्थेण चोणपागं, कवि च एक्काए गाहाए ।।। द्रोणपाक कण से, कवि एक गाथा से । से तं अश्यवेणं । -अवयव से समाप्त १ दन्तभृग-हाथीदांत Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) घरणानुयोग मानगुण-अनुमान प्रमाण पत्र २७ १०-से कि सं आसएवं? प्र०--आश्य का स्वरूप कसा है ? -आसएन माग घूमेणं, सलिलं बलागाहि, बुद्ध ज-आश्रय = यथा-अग्नि धूम से, पानी बगुलों से, वर्षा अविकारेणं, कुलपुत्तं सोजसमायारेणं । बादल से, कुलपुत्र सदाचार से। संगहणी गाहा-- संग्रहणी गाथार्थइंगियागार गेहि किरियाहि भासिएप । अन्तर्मन के भाव अंगचेष्टाओं से, क्रियाओं से, वाणी से, नेत-वक्कविकारेहि गिजमए अंतगं मणं ॥-॥ आँख और मुख के विकारों से जाने जाते हैं। से जानए सस । -आश्रय से समाप्त । शेषवत समाप्त । १०-से कितं विटुसाहम्मवं ? प्र०-दृष्टसाधर्म्य (माम्य) कितने प्रकार का है ? उ०-विटुसाहम्मवं बुविहं पपणतं, तं जहा-- १०-दृष्टसाधर्म दो प्रकार का कहा गया है । यथा-- १. सामाणविटु य, २. बिसेसविट्ठय। (१) सामान्यदृष्ट, (२) विशेषदृष्ट । ५०-से कि तं सामण्णविटु ? प्र०-सामान्यदृष्ट का स्वरूप कैसा है ? ३०-सामण्णविदु-जहा–एगा पुरिसो सहा बहवे पुरिसा, उ०-सामान्यदृष्ट= यथा-सा एक पुरुष है वैसे अनेक पुरुष हैं। जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो। जैसे अनेक पुरुष है वैसा एक पुरुष है। जहा एगो करिसावमो, तहा बहये करिसावणा, जैसा एक कृषक है वैसे अनेक कृषक हैं। महा बहवे करिसावगा, तहा एगो करिसाषणो। जैसे अनेक कृषक हैं वैसा एक कृषक है। से तं सामण्णदिह्र1 -सामान्यदृष्ट समाप्त । प०-से कि त बिसेसविटु? प्र-विशेषदृष्ट का स्वरूप कैसा है ? जल-विसेसहिद'-से जहाणामए केइपुरिसे कंचि पुरिस उ०-विशेषदृष्ट = यथा-जिस प्रकार कोई पुरुष किसी बरयं पुरिसाणं मग पूस्वविट्ठ पञ्चभिजाणेज्जा- पूर्व दृष्ट पुरुष को अनेक पुरुषों के बीच में देखकर यह जाने की 'भयं से पुरिसे। यह यह पुरुष है। बरणं वा करिसाषणाणं माझे पुश्वविद करिसावणं पूर्व दृष्ट कृषक को अनेक कृषकों के मध्य में देखकर बह जाने पच्चभिजाणेज्जा । 'अयं से करिसावणे'। कि-'यह वह कृषक है।' सस्स समासओ तिविहं गहणं भवति, तं जहा- उसका तीन प्रकार से ग्रहण होता है । यथा१. सीतकालगहणं, २. पप्परकालगहणं, ३. अणा- (१) अतीतकाल ग्रहण, (२) वर्तमानकाल ग्रहण, गयकालगहणं। (३) अनागतकाल ग्रहण । प.-से कि तं सीसकालगण? प्र-अतीतकाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है ? उ०-तीतकालमहर्ण= उत्तिपणाणि यणाणि, मिष्फणसम्स उ०-अतीत काल ग्रहण = यथा - घास बाले वन, पके हुए मा मेरिणि, पुण्गाणि य कुण्ड-सर णवि-बीहिया-सला- धान्य वाले खेत, भरे हुए कुण्ड, सर--नदी, बापड़ी, तालाब पाईपासित्ता, तेणं साहित्य महा सुट्ठी आसि। आदि देखकर यह निर्णय करे कि यहाँ अच्छी वर्षा हुई है। से तं तीतकालगहणं । --अतीतकात ग्रहण समाप्त । प०-से कि तं पडुप्पणकासमहणं? प्र०-वर्तमानकाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है? 1०-पडप्पण्णकालगहण साहु गोपरगगयं विच्छड्डिययज- उ०-वर्तमानकाल ग्रहण=यथा --गोचरी गया हुआ साधु रमस-याचं पासित्ता । तेणं साहिग्जद जहा सुभिरखे प्रचुर भात-पानी देखकर यह जाने कि यहाँ सुभिक्ष है। बट्टा । से सं पडुपण्णकालगणं । -वर्तमानकाल ग्रह्ण समाप्त। प०-से कि तं अणाययकालगणं? प्रक-अनागतकाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है ? २०---अणायकालगहणं । ६०-अनागतकाल ग्रहण-यथा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७-२८ www संगणी ग्राहा अनस निम्म कसिणा व गिरीसविज्युयामहे । यणियं वाजन्भरमा, संज्ञा रत्ता य विद्धाय ॥ ॥ वारुणं वा माहिद वा अणपरं वा पत्थं उप्पार्थ पासिता ते णं साहिज्जर - जहा सुट्टी भविस्स से तं भणागवकालगणं । 1 । एतं जहा१. तीतकालगणं, २. पष्पन्न कालगणं, ३ अणागम १०- से कि तं तीतका लगहणं ? = ० - तीतकालग्रहणं मित्तणाई बधाई, अणिष्णसरसं च मेग मुक्कादि कुरवाई पाशात जहासी । से तंवरणं । - पसे कि तं पयणकाल महणं ? E उ०- पड़प्पण्णकाल गहणं सा गोवरगावयं अलममाणं पावसासह बहा कालहणं । बद सेतं प० - से कि तं अगागयकाल गहणं ? ० अणा राय का लगहणं अग्गेयं वा वायव्यं वा अण्णपरं या अप्पस उप्पार्थ पासिता तेणं साहित्य जहा कुपी विस विशेससितं गागं से दिसावं । सेतं अणुमा २६.० सेकितं ओबम्मे ? ज्ञानगुणं - उपमा प्रमाण । २० १. सम्म २ प०से कि तं साम्योवणीए ? उ०- साहम्मोवणीए तिविहे पण्णसं, त जहा - प० - से कि तं पश्साहम्मे ४० १. किचिसाम्मे, २. पायसाम्मे ३. सम्य साम्मे य । = सेकसम्मे? उ०- किचि साम्मे जहा नंबशे तहा सरिसको, जहा सरिसवोतहा मंदरी । जहा समुद्दो तहा गोष्वयं, जहा गोप्यं तर समुद्दो जहा चंवो तहा मुन्बो, जहा कुछ वहा से से। साम्मे जहा दो तहा गबधो, जहा गवयो लहा गो से तं पायसाहुम्मे धर्म प्रज्ञापा संग्रहणीगचा स्वच्छ आकाश, कृष्ण वर्ण के बादलों में बिजली की चनक, और सर्जनात रतन संध्या माणादिनों का योग, अन्य प्रशस्त उत्पात इनको देखकर "सुवृष्टि होगी" ऐसा अनुमान करना | - अनागत काल ग्रहण समाप्त । इनसे विपरीत तीन प्रकार का ग्रहण होता है। यथा(१) अतीतकाल ग्रहण, (२) वर्तमानकाल ग्रहण, (३) अनागतकाल ग्रहण | = प्र० - अतीवाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है ? उ०- अतीतकाल ग्रहण यथा- तृणरहित बन, धान्य रहित खेत कुण्ड, गर, नदी, इह देवकर"यहां वर्षा नहीं हुई है" ऐसा अनुमान करें। तालाब आदि 2 - अतीतकाल ग्रहण समाप्त 121 प्र० - वर्तमानकाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है ? उ०- गोचरी गया हुआ साधु मात आदि का अलाभ देखकर- "मी दुनिया जाने - वर्तमानकाल प्रहण समाप्त । प्र०—अनागतकाल ग्रहण का स्वरूप कैसा है ? उ०- अनागतकाल ग्रहण यथा -- अग्नि कोण या वायव्य कोण का वायु अन्य अप्रशस्त उत्पात देखकर "भविष्य में वर्षा नहीं होगी ऐसा सोचना । 11 -अनागतकाल ग्रहण समाप्त विशेषदृष्ट समाप्त दृष्ट साधर्म्य समाप्त अनुमान समाप्त । २८. प्र० उपमा कितने प्रकार की है ? उ०- उपमा दी प्रकार की कही गई है। यथा (१) मा ) धरा - प्र० - साधम्योपमा कितने प्रकार की है ? उ०- साधम्योपमा तीन प्रकार की कही गई हैं। यथा-(१) अल्प साधम्यं, (२) अर्ध साधन्य, (३) सर्वसाधम्यं । प्र० - अर्थ साधर्म्य का स्वरूप कैसा है ? उ०—अर्ध साधर्म्य – यथा— जैसी जैसा गवय है, वैसी गाय है । प्र० -- अल्प साधम्यं का स्वरूप कैसा है ? उ० – अन्य साधर्म्य – जैसा मन्दर पनंद वैसा सरसों है, जैसा सरसों है, वैसा मन्दर पर्वत है । जैसा समुद्र है वैसा गोपद है, जैसा गोपद है वैसा समुद्र है। जैसा चन्द्र है वैसा कुन्द है, जैसा है। -अप साधर्म्य समाप्त । गाय है वैसा गवय है, - अर्ध साधम्यं समाप्त । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] परगानुयोग ज्ञानगुण-आगम प्रमाण सूत्र २८ १०-से कि त सम्बप्ताहम्मे ?, उ.--सम्बसाहम्मे ओयम्भ पास्थि । तहा वि तस्स ओवर्म कीरइ। जहा अरिहते हि अरिहंतसरिस कर्य । एवंपक्कट्टिणा चक्कट्टिसरिसं कयं । बलदेवेण बलदेवसरिसं कयं । वासुदेवेण वासुदेवसरित कर । साढणा साहुसरिसं कयं। से तं सव्वसाहम्मे । से तं साहम्मोवणीए । प...-कहं बेहरूपागदए उ०—वेहम्मोवीए तिविहे पण्णसे, सं जहा १. किचिवेहम्मे, २. पायवेहम्मे, ३. सव्ववेहम्मे । प०-से कि त फिनिवेहम्मे ? -किंचिवहम्मे == जहा सामलेरो न तहा बाहूलेरो, जहा बाहुलेरो मतहा सामलेरो। से तं किंचिवेहम्मे । १०--से कि तं पायवेहम्मे ? उ.--पायवेहम्मे = जहा पायसो न सहा पाथसो । जहा पायसो न तहा बायसो। से तं पायवेहम्मे । १०-से कि त सध्ववेहम्मे ? उ०-सभ्योहम्मे = नयि ओषम्मे । तहावि तेणेव तस्स ओवम्म कोर। जहा-नोएण नीयसरिसं क्रयं । बासेग राससरिसं कयं । काकेण फाकसरिस कयं । साणेप साणसरिसं कयं । पाण पाणसरिस कर्य। से तं, सव्वदेहम्मे । से तं वेहम्मोवणीयं । से तं ओवम्मे। २९. ए.-से कि आगमे? स.-आगमे दुबिहे पणतं । तं जहा १. लोइए य, २. लोगुत्तरिए य । ५०-से कितं लोहए? उ.- लोए जण इम अण्णागिएहि मिच्छादिदिएहि संख्छंद बुद्धि मह विगप्पियं । तं जहाभारहं रामायण-जाद-वस्तारि य या संगोषंगा। से तं लोइए आगमे। प्र--सर्व साधर्म्य का स्वरूप कैसा है ? उ.-सर्व साधम्र्योपमा होती ही नहीं है, फिर भी उपमा की जा रही है.-- अरिहन्तों से अरिहन्तों का साधर्म, इसी प्रकारचक्रवर्ती से चक्रवर्ती का साधर्म्य. बलदेव से बलदेव का साधर्म्य, वासुदेव से वासुदेव का साधर्म्य, साधु से साधु का साधम्यं । --सर्व साघम्यं समाप्त । साधम्योपमीत समाप्त । प्र-वधम्मोगमा कितने प्रकार की है ? उ.-वैधोपमा तीन प्रकार की कही गई है। यथा(१) अल्प वैधम्यं, (२) अर्ध वैधम्य, (३) सर्व वैधम्यं । प्र०-अल्प वैधर्म्य का स्वरूप कसा है ? उ.-अल्प वैधयं = यथा-जैसी श्याम गाय है वैसी श्वत गाय नहीं है, जैसी श्वेत माय है वैसी श्याम गाय नहीं है । " अल्प वैधयं समाप्त । प्र--अर्ध वैधयं का स्वरूप कैसा है? उ.-अर्ध वैधर्म्य = पथा-सा काम (कोमा) है वैसा पायस (क्षीर) नहीं है, जैसा पायस है जैसा वायस (काक) नहीं है। -वार्ध धर्म समाप्त । प्रक- सर्व वैधम्योपमा का स्वरूप कैसा है? उ.-सर्व वैधम्योपमा = होता ही नहीं है, फिर भी उसकी उपमा की जा रही है। यथा----नीच ने नीच जमा किया, दास ने दास जैसा किया, काक ने काक जैसा किया, श्वान ने श्वान जैसा किया, प्राणी ने प्राणी जैसा किया है। -सर्व बघय समाप्त। वंध्यम्योपनीत समाप्त। उपमा समाप्त। २६. प्र.-आगम कितने प्रकार के है ? उ.-मागम दो प्रकार के कहे गये है । यथा(१) लौकिक आगम, (२) लोकोत्तर आगम । प्रा-लौकिक कितने प्रकार के हैं ? उ०-लौकिक आगम यथा-अज्ञानी मियादृष्टिमों की स्वच्छन्द बुद्धि से विरचित । भारत, रामायण यावत मांगोपांग चारों वेद । -लोकिक मागम समाप्त । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६-३१ वर्शनगुणप्रमाण धर्म प्रज्ञापना २३ प०-से कि तं लोगुतरिए ? प्रक-लोकोत्तर आगम का स्वरूप कैसा है? उ०-लोगुतरिए जं इमं अरहते ह भगवतेहि जपण्ण-पाण- उल-नोकोत्तर आगम, यथा-केवलज्ञान, केबलदर्शन से बसणधरेहिं तीय-पश्चपाण-मणाग जागएरोह अतीत-वर्तमान और भविष्य जानने वाले मज सर्वदर्शी अरहन्त तेलोक्क चहिय-महिय-पुइएहि सव्वाणहि सञ्चदरिसोहिं भगवन्तों द्वारा प्ररूपित द्वादशांग गणिपिटक । यथा-- आचारांगपणीयं बुवालसंग गणिपिडगं । तं जहा---आयारो यावत् - दृष्टिवाद । -जाव-विद्विवाओ। से तं लोयुत्तरिए आगमे । ---मोकोसर आगम समाप्त अदा -आगमे तिमिहे पण्णत्ते । तं जहा अयवा-आगम तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा१. सुसागमे य, २. अस्थागमे य, ३. शुभपागमे य। (१) सूत्रागम, (२) अर्थागम, (३) तदुभवागम । अहवा-आगमे तिषिहे पण्यत्ते, तं जहा अयवा-आगम तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा१. असागमे, २. अणंतरागमे, ३. परंपरागमे । (१) आत्मागम, (२) अनन्तरागम, (३) परमरागम । तित्यगररणं अत्यस्स अत्तागमे। तीर्थकरों का अर्थागम उनका आत्माराम है । गणहराणं सुलस्स अताममे, अस्वस्म अणेतरागमे, गणधरों का सूत्रागम उनका आनागम और अर्थागम अनन्त रागम है। गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अस्थस्स परंपरा- गणधर शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है और अर्थागम गमे। परम्पगगम है। तेणं परं सुत्तस्स वि अस्थस्स वि नो अन्तागमे इराके बाद मूत्रायम भी और अर्थागम भी न आन्मागम है, नो अणंतरागमे परंपरागमे । न अनन्तरागम है, अपितु परम्परा गम है । से तं लोगुत्तरिए । से से आममे । से तं गाणगुणप्पमाणे। . लोकोसर समाप्त । आगम समाप्त । बामगुण प्रमाण -अणु मृ० ४३६-४७० समाप्त । दसणगुणप्पमाणं दर्शनगुण प्रमाण३०.९०-ते कि त बसणगुणप्पमाणे । ३०. प्र..--दर्णनगुण प्रमाण कितने प्रकार का है ? ज० -बसणगुणप्पमाणे बउन्विहे पणते । तं जहा 30.-दर्शनगुण प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है । यथा-- १. चक्षुवंसणगुणप्पमाणे, २. अचक्षुसगगुण- (१) चक्षुदर्शनगुण प्रमाण, (२) अचक्षुदर्शनगुण प्रमाण, प्पमागे, ३. ओहिवंसगगुगष्यमाणे, ४. केवलदसण- (३) अवधिदर्शनगुण प्रमाण, (४) केवलदर्शनगुण प्रमाण । गुणप्पमाणे य। चपखुबसणं-वखुदंसणिस्स घड-पा-का-रहाविएम (१) चक्षुदर्शन–चतुदर्शनी के घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों बम्वेसु । के देखने में है। अनक्लदसण-अचक्खुसणिस्स मायमा । (२) अत्रक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शनी के अपने आपको देखने में है । ओहिदसणं-ओहिदसणिस्त सम्वविवस्वेहि न पुण (३) अवधिदर्शन-अवधिदर्शनी के सर्व रूपी द्रव्यों के देखने सवपज्जवेहिं । । में है, सर्व पर्यवों के देखने में नहीं । केवलमणं-केवालदसगिस्त मश्वरवेहि सध्यपज्जा (४) केवलदर्थन केवल दर्शनी के सर्वद्रव्य और सर्वपर्यायों बेहि य । से तं दसणगुणप्पमाणे । के देखने में है। -वर्शन गुण प्रमाण समाप्त । अणु मु. ४७१ परित्तगुणप्पमाण चारित्रगुण प्रमाण३५. ५०-से मि तं चरितगुणप्पमाणे? ३१. प्र. चारित्रगुण प्रमाण कितने प्रकार का है? उ.--परित्तगुणष्पमाणे पंचविहे पण्णते, तं जहा- ___ 30-चारित्रगुण प्रमाण पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] वरगानुयोग नय प्रमाण सूत्र ३१-३२ १. सामाइय चरित्तगुणप्पमाणे । (१) सामायिक चारित्रगुण प्रमाण, २. छेदोवट्ठावणिय चरितगुणप्पमाणे, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्रगुण प्रमाण, ३. परिहारविसुनिय चरित्तगुगप्पमाणे, (२) परिहारविशुद्धिक चारित्रगुण प्रमाण, ४. सुहमसंपराय चरित्तगुणप्पमाणे, (४) सूक्ष्मसम्पराय सरित्रगुण प्रमाण, ५. अहक्खाय चरित्तगुणप्पमाणे । (५) यथास्यात चारित्रगुण प्रमाण । सामाहय धरित्तगुणप्पमाणे वुविहे पण्णते। (१) सामायिक चारित्रगुण प्रमाण दो प्रकार का कहा गया तं जहा है । यथा--- १. इसरिए य, १. आवकहिए । (१) इत्वरिक अल्पकालीन, (२) यावत्कथिक-याव ज्जीवन । छेखोवढायगिय चरित्तगुणपमाणे दुबिहे पण्णत्ते, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्रगण प्रमाण दो प्रकार का कहा जहा गया है। यथा-- १. सातियारे य, २. निरतियारे व । (१) सातिवार; (२) लिरतिचार । परिहारविसुद्धिय चरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णते, (३) परिहारविशुद्धिक चारित्रगुण प्रमाण दो प्रकार का तं जहा कहा गया है । यथा--- १. णिविसमाणए य, २. पिब्विटकायिए य। (१) निविषमानक, (२) निविष्टकायिक । सुहमसंपराय परित्तगुणप्पमाणे विहे पण्णत्ते, (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्रगुण प्रमाण दो प्रकार का कहा तं जहा--- गया है । यथा - १. संफिलिस्समाणयं प, २. विसुज्झमाणयं य । (१) संक्लिश्यमानक, (२) विशुद्धयमानक । अहवाय धरित्तगुणप्पमाणे दुबिहे पण्णते तं जहा- (५) यथाख्यात चारिषगुण प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है। यथा.... १. पहिवाई य, २. अपडिवाई य। (१) प्रतिपातिक, (२) अप्रतिपातिक । १. छउमत्थे य, २. केवलिए य । (१) छाद्मस्थिक, (२) कवतिक । से तं चरित्तगुण पमाणे, से तं जीवगुणयमाणे, से तं ...चारित्रगुण प्रमाण समाप्त । जीवगुण प्रमाण समाप्त । गुणप्पमाणे। - अणु सु० ४७२ गुण प्रमाण समाप्त । णयप्पमाण नय प्रमाण १२ प.-से कि तं नयप्पमाणे? ३२. प्र० नय प्रमाण कितने प्रकार का है ? उ.-नयप्पमाणे तिबिहे पण्णते, तं जहा उ०—य प्रमाण तीन प्रकार का कहा गया हैं । यथा१. पस्थगदिट्टन्तेणं, २. वसहिदिद्वन्तेगं, (१) प्रस्थक दृष्टान्त से, (२) वसति दृष्टान्त से, ३. पएसविट्ठन्तेण । -अणु० सु७ ४७३ (३) प्रदेश दृष्टान्त से । पत्थगविदन्तं प्रस्थक दृष्टान्त५०–से कि तं पत्थगविटुन्तेणं? प्र-प्रस्थक (धान्य मापने का एक पात्र) दृष्टान्त क्या है ? उ० .. यस्यगदिटुन्तेणं से जहा नामए केपुरिसे परसु उ. .-प्रस्थक दृष्टान्त-जिस प्रकार कोई पुरुष कुल्हाड़ी गहाय अडविटुत्ते गच्छेज्जा। लेकर अटवी में जाए; उसे देखकर कोई कहे .. तं च केह पासित्ता वदेम्जा-कत्य भवं गच्छसि ? तुम कहाँ जा रहे हो ? (१) अविसुद्धो नेगमो भगइ-पत्थमस्स गच्छामि । उस समय अविशुद्ध नैगम नरवाला कहता है। प्रस्थक के लिए जा रहा हूँ। तंच केइ छिदमाणं पासित्ता यवेज्मा-कि भवं- उस पुरुष को काष्ठ काटते हुए देखकर कोई कहे-तुम क्या छिसि। काट रहे हो? Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थकदृष्टान्त धर्म-प्रशापना २५ A n s . - - - - - - -- - - - - - -- - - - - विसुद्धसराओ नेगमो भणइ-पत्थय छिवामि । उस समय विशुद्धतर नैगमनय बाला कहता है--एम्थक काट तं च कह सछमाणं पासिता बरेजा- किं भवं तमछसि ? विसुद्धतरागो गो - गि उस पुरुष को काष्ट छीलते हुए देखकर कोई कहे हम म्या छोल रहे हो? जा तग विशुद्धता नैगमन य वाला कहता है -भस्यक छील तंचा विकरमाणं पासिता वबेग्जा-fक भवं उस पुरुप को काष्ठ कोरते हुए देखकर कोई कहे-तुम क्या उक्किरसि? ___ कोर रहे हो? विसुद्धतराओ नेगमो भगव... पत्थयं उक्किरामि। उस समय विशुद्धतर नंगमनय बाला कहता है अस्थाकोर तंच के बिलिहमा पासित्ता बवेजा—कि व उन पुमा को काप्ट की खुदाई करते हुए देखकर कोई विलिहसि ? कहे -तुम यह खुदाई किसकी कर रहे हो? विमुखतराओ नेगमो भण–पत्ययं विलिहामि । उन समय विशुद्धतन नैगमनय बाला कहता है-प्रस्थक की खुदाई कर रहा हूँ। एवं विसुरतरागस नेगमस्स नामाद्वितओ परपओ। इस प्रकार विशुद्धतर नैगमनय वाला प्रस्थक के सम्बन्ध में कहता है। (२) एवमेव ववहारस्स बि। इसी प्रकार न्यबहारनय वाला भी कहता है। (३) संगहस्स नितो मिओ मिजसम्रूतो पत्थओ । संग्रहनय वाला धान्य का संग्रह करके प्रस्थक द्वारा मापना प्रारम्भ करते हुए को प्रस्तक कहता है । () उजुसुयस्स पत्थओ वि पत्य ओ मिज पि से पत्थओ कसुत्रनय वाला प्रस्थक ने धान्य मापते हुए को प्रस्थक वहता है। तिहं सहनयाणं पत्थगाहिगारजाणो पत्थगो । जस्स तीनों शब्द नय प्रस्थक के कार्य को जानकर प्रस्थक कहते हैं । बा बसेणं पत्थगो निष्फज्जद्द । सेतं पत्यादिनेणं। --प्रस्थक दृष्टान्त समाप्त । -मणु. सु. ४७४ बहिदिद्वन्तं वसतिदप्टान्तपर से कि तं वसहिचिट्ठन्तण ? प्र--वसति दृष्टान्त कैसा है ? उ०-वसहिविद्वन्तेणं से जहानामए केह पुरिसे फंचि उ०-वमति दृष्टान्त--जिस प्रकार कोई पुरुष किमी पुरुष पुरिसं वएज्जा–कि भयं वससि ? को कहे.-आप वहाँ रहते हैं ? तस्थ अविसुयो नेगमो भणइ–'लोये यसामि।' उस समय अविशुद्ध नैगमनय वाला कहता है—'मैं लोक में रहता हूँ।" लोगे तिविहे पण्णसे, त जहा–१. उहलोए, २. लोक तीन : कार का है- (1) अवलोक, (२) अधोलोक, अहोलोए, ३. सिरियलोए । तेसु सम्वेस मयं वससि ? (३) निलोक, क्या उन मन में आप रहते हैं ? विसुखसराओ नेगमो रण-'सिरियलोए असामि बिगृद्धतर ननसनर वाला कहता है:-"मैं तियं कालोक में रहता है। सिरियलोए जबुद्दीबावीया सयंभुरमणपज्जवसाणा तिर्यक्लोक में अम्बटोप से लेकर पियाम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंखेज्जी दीव समुद्दा पष्णत्ता। तेसु सम्बेसु भवं असंत्र्येय द्वीप-समुद्र बहे गये है। क्या उन सब में आप रहते है ? वससि? विसुखतरामओ नेगमो भणह--जंबुद्दीचे बसामि । विशुद्धतर मैगमनय वाला कहता है-"मैं जम्बूद्वीप में रहता हूँ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] चरणानुयोग वसति दृष्टान्त सूत्र ३२ जंबुद्दोवे बस देता पाणता, सं महा जम्बूद्वीप में दम क्षेत्र कहे गये हैं । यथा१. भरहे, २. एरवए, ३. हेमवए, ४. एरण्णवए, (१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हैमवत, (४) हेरण्यवत ५. हरिवरसे, ३, रम्मगवस्से, ७. देवपुरा, ८. उसर. (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष, (७) देवकुरु, () उत्तरकुरू, कुरा . पुष्वत्रिहे, ... अवरविदेहे । १९) पूर्व विदेह, (१०) अपर (पश्चिम) विदेह । तेसु सवे भवं पससि । क्या आप उन सब में रहते हैं ? विसुखतराओ नेगमो मणई - भरहे वसामि । विशुद्धतर मैगमनय वाला कहता है-"मैं भरत क्षेत्र में भरहेवाप्से दुषिहे पण, महा भरतक्षेत्र दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-- १. बहिणबदमरहे य, २. उत्तरामरहे य, (१) दक्षिणार्थ भरत, (२) उत्तरार्ध भरत । तेसु सम्वेसु भवं वससि ? | "क्या आप उन सब में रहते हैं ?" विसुखतराओ नेगमो मणइ बाहिणडमरहे वसामि विशुद्धतर नैगमनय वाला कहता है-'मैं दक्षिणाय भरत में रहता हूँ।" दाहिणजहनरहे अगेगाइं गाम-नगर खेड-कम्य-मन- दक्षिणार्ध भरत में अनेक ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, होणमुहमा समवेदई तेनु सव्येमु भबं द्रोणमुख, पट्टण, आसंवाह, संनिवेस आदि हैं.-"क्या आप उन वससि ? सब में रहते हैं ?" विसुद्धतराओ नेगमो प्रगइ-पालिपुत्ते वसामि । विशुद्धतर नैगमनय वाला कहता है-"मैं पाटलीपुत्र में रहता हूँ।" पाउलिपुत्ते मणेगाई गिहाई, सेसु सम्मेसु भवं वससि ? पाटलिपुत्र में अनेक पर है-"क्या आप उन सब में रहते हैं ?" विसुङतराओ नेयमो मणइ-देववत्तस्स घरे असामि। विशुद्धतर नैगमनय वाला कहता है- "मैं देवदत्त के घर में रहता हूँ।" देववनस्स घरे अणेया कोटुगा 1 देवदत्त के घर में अनेक कोडियाँ हैंतेसु सम्बेसु भवं वससि । "क्या आप उन सब में रहते है ?" विसुद्धतराओ नेगमो भणइ-म्मघरे यसामि । विशुद्धतर नैगमनम वाला कहता है-''मैं गर्भ (मध्य) गृह में रहता हूँ।" एवं विसुवस्स नेगमस्स बसमागो बसा। इस प्रकार विशुद्धतर नैगमनय बाला बसता है। एवमेव बबहारस्स वि । इसी प्रकार, व्यवहारनय वाला भी है। संगहस्स संघारसमारहो बसह । - मंग्रहनय वाला-अपने विस्तर पर रहता है। उज्यमुयस्स मेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ । कजुसूत्रनय वाला—जिन आकाश प्रदेशों में स्थित हैं उतने में रहता है । अर्थात् वर्तमान में वह जितनी जगह में है उतनी में रहता है। तिण्डं सहनयाणं आयभावे असइ । . तीनों शब्द नव वालों का कथन है—'आत्मभाव में रहता है।' से तं वसहिविट्ठन्ते। -अणु सु०७५ -वसति दृष्टान्त समाप्त । पएसदिट्ठन्तं प्रदेश दृष्टान्त५०-से कि तं पएसविट्ठम्रोण? प्र-प्रदेश दृष्टान्त कैसा है ? 10-पएसस्टिम्तेणं-नेगमो भगः-छह पएसो, उ.-प्रदेश दृष्टान्त-गमनय बाला कहता है-छहों के प्रदेश हैं । यथा-- Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२ प्रवेश दृष्टान्त धर्म प्रजापना [२७ १. धम्मपएसो, २. अधम्मपएसो, ३. आगासपएसो 1. जीवपएसो. ५. बंधपएसो, १. बेसपएसो। एवं वयंत नेगम संगहो मणइ, भकसि छह पएसो, तपण प्रवद। (१) धर्मास्तिकाय हे प्रदेश, (२) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, (३) आकाशास्तिकाय के प्रदेश, (४) जीवास्तिकाय के प्रदेश, (५) स्कन्ध के प्रदेश. (६) देश के प्रदेश । इस प्रकार कहते हुए नगमनय वाले को संग्रहनम वाला कहता है-"जो तुम नहीं के प्रदेश कहते हो-वह यथार्थ नही है।" . ... प्र-कैसे? -जिम द्रक्ष्य के देश के जो प्रदेश है व प्रदेश उनी द्रव्य प.-कम्हा? उ०-अम्हा जो सो देस पएसो सो तस्सेव वश्वस्त । १०-जहा को विट्ठातो? प्र. -दृष्टान्त क्या है ? उ०-वासेग मे खरो कोओ बरसो वि मे बुरो वि मे, तं उ.-मर दास ने गधा बरीदा है तो दाम भी मेरा है और मा मणाहि-छहं पएसो। गधा भी भरा है। इसलिए छहों के प्रदेश न कहो । भणाहि-पंचाहं पएसो, नं जहा पांच के प्रदेश बाहो । यथा - १. धम्मपएसो, २. अधम्मपएसो, (१) धारिखकाय के प्रदेण, (२) अधर्मास्तिकार के प्रदेश, ३. आगासपएसो, ४. जीवपएसो, (३) आकाशास्तिकाब के प्रदेश, (४) जीवान्तिकाय के प्रदेश, ५. खंधपएसो । (५) स्कन्ध के प्रदेश । एवं वयंत संगहं ववहारो भगई -जं गणसि पंचन इस प्रकार कहते हुए मरहनय वाले को व्यवहार नय बाला पएसो तं न भवइ । कहता है जो तुम पाँचों के प्रदेश कहते हो-वह यथार्थ नही है। ५०-कम्हा? प्र-कैसे? उ.-जइ जहा पंचमहं गोटियाणं फैइ दब जाए सामग्णे। उ.--जिस प्रकार पनि मित्रों के कुछ द्रय पदार्थ) साझे तं जहा-हिरपणे वा, सुबण्णे वा, धणे वा, धण्णं पा. के हैं। यथा-हिरणय, सुवर्ष, धन, धान्न । तो क्या पांचों के तो जुत्तं यत्तुंजहा पंचानं पएसो ? प्रदेश के समान ये पाँवों के द्रव्य है-इस प्रकार कहना युक्ति संगत है? तं मा मणाहि--पंचाह.पएसो । इसलिए पांचों के प्रदेश न कहें । भणाहि --पंचविहो पएसो, तं जहा पाँच प्रकार के पदेश हैं--ऐसा कहो-यथा१. धम्मपएसो, २. अधम्मपएसो, (१) धर्मास्तिकाय के प्रदेश, (३) अधम स्तिकाय के प्रदेश, ३. आगासपएसो, ४. जीवपएसो, (३) आकाशास्तित्राय के प्रदेश, (४) जीवास्निकाय के प्रदेश, ५. खंधपएसो। (५) ध के ! देश । । एवं वयंतं बवहारं ८ज्जुसुओ भगइ-जं भगति स प्रकार रहते हुए व्यवहारनय वाले को जुवनय पंचविहो पएसो, तं न भवा। वाला कहता है- तुम पाँच प्रकार के प्रदेश महने हो, वह चाय नहीं है। १०-कम्हा? १०- कैम १० ---जाते पंचविहो पएसो एवं ते एक्केवको पासो पंच- उ-यदिनम पाँव प्रकाश तहत हो तो एक-ग. विहो । एवं तं पणयोसविहीं पएसो भवद । के पांच प्रकार के प्रदेश हाँग-इस प्रकार बीस प्रकार के प्रदेण होत है। सं मा भणाहि-पंचविहो पएसो इसलिए पांच प्रकार के प्रदेश न कड़ा। भणाहि-भइयम्बो पएसो प्रदेश = विभाज्य है—ोसा कहो. . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] चरणानुयोग प्रवेश दृष्टान्त पत्र ३२ १. सिया धम्मपएसो, (१) कभी धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। २ सिया अधम्मपएसो, (२) कभी अधर्मास्तिकाय के प्रदेश है, ३.सिया आगासपएसो, (३) कभी आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं, ४, सिया जीवपएसो, (४) कभी जीवास्तिकाय के प्रदेश है. ५. सिया खंधपएसो। (५) कभी स्कन्ध के प्रदेश हैं। . एवं वयंत उज्जुसुयं संपद सहयो भगइ । इस प्रकार कहते हुए ऋजुसूत्रनय वाले को शब्द नय वाला कहता है-- जं प्रगसि भइयवो पएसो तं न भवद । जो तुम "प्रदेश विभाज्य है" ऐसा कहते हो वह यथार्थ नहीं है। प.. कहा? प्र०--कंसे? उ... .१, अइ ते महपटखो पएसो एवं ते धम्मपएसो वि उ०-(१) यदि वे प्रदेश विभाज्य हैं तो जो धर्मास्तिकाय सिया अधम्मपएसो, सिया आगासपएसो, सिया जीव- का प्रदेश है वह कभी अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी होगा, कभी पाएसो, सिया बंधपएसो। आकाशास्तिकाय का प्रदेश भी होगा, कभी जीवास्तिकाय का प्रदेश भी होगा और कभी स्कन्ध का प्रदेश भी होगा । २. अधरमपएसो वि सिया धम्मपएसो, सिया आगास- (२) जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह कभी धर्मास्तिपएसो, सिया जीवपएस, सचा बंध्यएस)। कारका प्रवेश भी होगा, कभी आकाशास्तिकाय का प्रदेश भी होगा, कभी जीवास्तिकाय का प्रदेश भी होगा, और कभी स्कन्ध का भी प्रदेश होगा। ३. आगासपएसी वि सिया धम्मपएसो, सिया अधम्म- (३) जो आकाशास्तिकाय का प्रदेश है वह कभी धर्मास्तिपएसो, सिया जीवपएसो, सिया खंघपएसो । काय का प्रदेश भी होगा, कभी अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी होगा, कभी जीवास्तिकाय का प्रदेश भी होगा और कभी स्कन्ध का भी प्रदेश होगा। ४. जीवपएसो वि सिया धम्मपएसो, सिया अधम्म- (४) जीवाम्सिकाय का प्रदेश कभी धर्मास्तिकाय का प्रदेश पएमो, सिपा आगासपएसो, सिया खंधपएसो। होगा, कभी अधर्मास्तिकाय का प्रदेश होगा, कभी आकाशास्तिकाय का प्रदेश होगा और कभी स्कन्ध का प्रदेश भी होगा। ५. खंधपएसो चि सिया धम्मपएसो, सिया अधम्म- (५) म्कन्ध का प्रदेश कभी धर्मास्तिकाय का प्रदेश होगा, पएसो, सिया आगासपएसो, सिया जीवपएको । कभी अधर्मास्तिकाय का प्रदेश होगा, कभी आकाशास्तिकाय का प्रदेश होगा और कभी जीवास्तिकाय का प्रदेश होगा। तं मा भगाहि महपरको पएसो । ममाहि-- अतः प्रदेश विभाज्य है-सा मत कहो-किन्तु ऐमा कहोधम्मे पएसे से पासे धम्मै । धर्मास्तिफाय का जो प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय है ।। अधम्मे पएसे से पएसे अधम्मे । अधर्मास्तिकार का जो प्रदेश है वह अधर्मास्तिकाय है । आगासे पएसे से पएसे भागासे । आकाशास्तिकाय का जो प्रदेश है वह आकाशास्तिकाय है। जीवे परसे से पएसे जो जीवे । जोवास्तिकाय का जो प्रदेश है वह जीवास्तिकाय नहीं है। बंधे पएसे से पएसे जो बंधे । स्कन्द्र का जो प्रदेश है वह स्कन्ध नहीं है। एवं वर्यत सणय सममिरुतो प्रगति इस प्रकार कहते हुए शब्दनय वाले को सशभिरूनय वाला कहता हैअणिस-धम्मे परेसे, से पदेसे धम्मे-जाव-खंधे जो तुम कहते हो-धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वह पसे, से पदेसे नो बंधे, धर्मास्तिकाय है,-याव-स्कन्ध का जो प्रदेश है वह स्कन्ध नहीं है। तन भव । ऐसा न कहीं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२ Fo ge ? एथ दो समासा भवति तं जहा १. सम्पुरिसे प, २. कम्मधारय । ० तं न नज्जइ कमरेगं समासेणं मणसि ? किं तप्पुरिसेगं कि कम्मधारएवं ? म तपुरिसेणं मनसि तो ना एवं मणाहिअह कम्पधारणं मणलि तो विसेसओ माहि धम्मे य से परसे से पएसे धम्मे । अधम्मे य से पसे से पएने अधम्मे । आगासे य से एसे से पएने आगासे । जीवे य से पएसे से पएसे नो जीवे - खं य से परसे से परसे नो खंधे । एवं वयंतं संपयं समभिरूडं एवंभूओ मन म एगह जैसे वि मे अवत्थू । प्रदेश दृष्टान्त कसिगं परिष्वं निरवसे पनि मे से लं पएस विट्ठते । से तं नयप्पनाणं । - अणु० सु० ४७६ धर्म-प्रज्ञापना प्र० – क्यों ? उ०- यहाँ दो समास होते हैं, यथा(१) तत्पुरुष, (२) कर्मधारय । २ प्र० - तुम किस समास से कहते हो - यह जाना नहीं जाता -तत्पुरुष समास कहते हो या कर्मधारय समास कहते हो ? यदि तत्पुरुष समास कहते हो तो इस प्रकार न कहो । कर्मधारय समास कहते हो तो विशेष रूप से कहो, अर्थात् स्पष्ट कहो। धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय ही है, अर्थात् धर्मास्तिकाय से अभिन्न है। अधर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह अभ्रमस्तिकाय ही है अर्थात अधर्मास्तिकाय से अभिन्न है। आकाशा स्विकाय का जो प्रदेश है वह आकाशास्तिकाय ही है अर्थात् आकाश है। (धर्मास्तिकाय मस्त और आकाशात गों एक-एक प्रव्यात्मक हैं. अतः इस प्रकार कहना ही उचित है) जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है अर्थात् एक जीव जीवास्तिकाय नहीं है । ( जीवास्तिकाय अनन्त जीवात्मक है अतः एक जीव जीवास्तिकाय नहीं हो सकता ) 图图 स्कन्ध का जो (एक) प्रदेश है वह स्वन्ध नहीं है । ( स्कन्ध जघन्य दो प्रदेशात्मक— यावत् अनन्त प्रदेशात्मक होते हैं, अत: एक प्रदेश स्कन्ध नही है | ) इस प्रकार कहते हुए समभिनय वाले को एवंभूतनय वाला कहता है तुम जिन-जिन द्रव्यों के सम्बन्ध में कहते हो उन सबको पूर्ण, निरवशेष एक के ग्रह से ग्रहण किये जाने वालों को द्रव्य मानता हूँ । 'मैं देश को भी अवस्तु मानता हूँ और प्रदेश को भी वस्तु मानता हूँ।' प्रदेश दृष्टान्त समाप्त Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] चरणानुयोग धर्म का स्वरूप सूत्र ३३-३७ - - - . धम्मसरूवं धर्म का स्वरूप ३३. समयाए धम्म आरिएहि पवेदए। ३३. आर्यों ने समता में धर्म कहा है। -आ. सु. १, अ० ५. उ. ३, सु० १५७ अविरोहो धम्मो-. अविरोध धर्म३४. पूएहि म विवमा , एस धम्मे सोमओ। ३४. प्राणियों के साथ बैर-विरोध न कर, यही तीर्थंकर का या बुसिमं जग परित्राय, अस्सि जीवित-भावणा सुसंयमी का धर्म है । सुसंयमी साधु (बस-स्थावर रूप) जगत् का स्वरूप सम्यकरूप से जानकर इस वीतराग प्रतिपादिर धर्म में जीवित भावना (जीव-समाधान-कारिणी पच्चीस या बारह प्रकार की भावना) करे। मावणा-ओग-सुखरपा, जले नावा व आहिया । __भावनाओं के योग (सम्यक् प्रणिधान रूप योग) से जिसका नावा व तीर-संपला. सवदुक्खा तिउट्टा ।। अन्तरात्मा शुद्ध हो गया है, उसकी स्थिति जत में नौका के समान (संसार समुद्र को पार करने में समर्थ) कही गई है। किनारे पर —सू. सु. १. अ० १५, गा० ४-५ . पहुँची हुई नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावनायोगसाधक भी संसार समुद्र के तट पर पहुँचकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। आणा धम्मो आज्ञा धर्म३५. "आगाए मामगं धम्म" एस उत्तरवावे इह पागवाणं विया- ३५. भगवान महावीर ने कहा- 'मेरा अभिमत धर्म मेरी आज्ञा हिए। -आ. सु. १,०६, उ०२, सु०१८५ पालने में है, गानवों के लिए यह मेरा सर्वोपरि कथन है।" धम्मपरिणामाई धर्म के परिणाम३६. प०-धम्मसद्धार मंते ! जोवे कि जणयह ? ३६. प्रा- हे भगवन् ! धर्म-श्रद्धा से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उम-धम्मसद्धाएणं सायासोक्सेसु रज्जमाणे विरज्जह । उ० हे गौतम ! सातावेदनीय कर्म जन्य सुख में अनुराग आगारधम्मं च गं यह । अणगारिएणं जीवे सारीर- रखता हुआ यह जीव वैराग्य प्राप्त करता है, फिर गृहस्थधर्म माणस.णं तुषखाणं यण-भेयण-संजोगाणं-वोच्छेयं को छोड़कर अनगार-धर्म को ग्रहण करता हुआ मारीरिक और करेइ, अव्वाबाहं सुहं मिस्वतंई। मानसिक दुःखों का छेदन, भेदन तथा अनिष्ट संयोगजन्य मानसिक दुःख का व्यवच्छेद कर देता है। तदनन्तर सर्व बाधा रहित सुख -उR० अ० २६. सु०५ का संपादन करता है। धम्मस्स भेयप्पभैया धर्म के भेद-प्रभेद३७. दुविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा–मुवधम्म चेव, चरित्तधम्मे ३७. धर्म दो प्रकार का कहा गया है—(१) श्रुनधर्म (द्वादशांग श्रुत का अभ्यास करना), चारित्र धर्म (सम्यक्त्व, व्रत, समिति आदि का आवरण) । सुयधम्मे दुविहे पण्णते, त जहा-सुत्तसुयधम्मे चेव, अत्य- श्रुतधर्म दो प्रकार का कहा गया है-(१) सूत्र-श्रुतधर्म सुपधम्मे वेव। (मूल सूत्रों का अध्ययन करना), (२) अर्थ-श्रुतधर्म (सूत्रों के अर्थ का अध्ययन करना)। धरित्तधम्मे दुबिहे पष्णते, तं जहा-आगारचरिसधम्मे चेव, चारित्रधर्म दो प्रकार का कहा गया हैं। (१) अगारत्तारित्र अणगारचरिसधम्म चेव । धर्म (धावकों का अणुयत आदि रूप धर्म), (२) अनगारचारित्र -ठाणं. अ०२, उ०१, सु०६१ धर्म (साधुओं का महाप्रत आदि रूप धर्म)। घेव। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३७-३ तिषिहे धम्मे पण्णत्ते तं जहा १. सुध २. परिधम्मे ३. अस्थिकायधम्मे । तिविहे भगवया धम्मे पण्णसे, तं जहा सुबहिनिए. सुझाइए सुतस्सिए । धर्म के भेव-प्रभेद जया सुअहिज्झियं भवइ, तथा सुझाइयं भवइ । जया सुझाइ भवइ, तया मुतयस्सियं भवइ । सेएाइए तवस्तिए, सुक्खाए भगवा धम्मे पण्णत्तं । - अ० अ० ३ ०४, ० २१७ ३८. सविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा गाम्मे भयो र पाम्मे कुलधन्ये, गण धम्मे संप ००१००७६० ३८. समितं यंति, मुसि विवाए, मंगचेरवासे । - मये, साधये, सच्चे संमे 1 wwwww (३) अस्तिकाय - धर्म - प्रदेश वाले द्रव्यों को अस्तिकाय कहते - ०० ३,२०३, सु० १९४ हैं और उनके स्वभाव को अस्तिकाय-धर्म कहा जाता है । भगवान ने तीन प्रकार का धर्म कहा है, यथा धर्म तीन प्रकार का कहा गया है (१) श्रुतधर्म - वीतराग भावना के साथ शास्त्रों का स्वाध्याय रखना । (२) चारित्र धर्म मुनि और श्रावक के धर्म का परिपालन करना । धर्म-ज्ञाना (१) सु-अधीत ( समीचीन रूप से अध्ययन किया गया), (२) ध्यान (समीचीन रूप से चिन्तन किया गया ). (३) पति-परित)। -- ठाणं० अ० १०, सु० ७१२ (१०) ब्रह्मचर्यवास | जय धर्म-अधीत होता है, तब यह होता है। होता है। जब वह सुध्यात होता है, तब वह सुजीत गुप्त और सुवास्थित धर्म को भगवान ने सु-आख्यात (स्वाख्यात) धर्म कहा है । [39 wwww ३८. धर्म दस प्रकार का कहा गया है। यथा-. (१) धर्म (२) नगरधर्म, (३) राष्ट्रधर्म, (४) धर्म, (५) कुलधर्म, (६) गणधर्म, (७) संघधर्म ( 5 ) श्रुतधर्म, (१) चारित्र (१०) अस्तिकाय गं । ३६. श्रमणधर्म दस प्रकार का कहा गया है। यथा (१) क्षमा, (२) अलोभ, (३) सरलता, (४) मृदुता, (५) लघुता, (६) सत्य, (७) संगम, (८) तप (६) प्यास, २ (क) चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा संति, मुक्ति, अज्जवे, मद्दवे । (स) पंच अज्जवठाणा पण्णत्ता तं जहा माहु अज्जवं माह मुद्दयं, साहू लाघवं साहु १ इन दस धर्मो में पहले चार धर्म लौकिक धर्म हैं। पांचवा छटा और मात्रा लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों धर्म हैं। आठवीं और न लोकोत्तर धर्म हैं। व्यधर्म है। संति, , -जाणं ४, ३०४, ० २७२ साहु मुनि | ठाणं अ० ५ ३० १, सु० ४०० (ग) सम० १० गु० १ (प) चाई, ज्यूस, तिल, जिनिदिए सोहिए, अधिणे, महिलेने नगमे । J ० मंगरद्दार, ५, ० ९ . (ग) धम्मदिन जे भित्र जयई निच्वं से न अच्छ मंडले । - उ० अ० ३१, गा० १० (छ) पंच ठाणा समणेयं भगवता महावीरेण समणानं णिग्गंधाणं णिच्च वण्णिताई निच्च कितिवादं णिच्च बुझ्याई पिच्चं पत्याई चित्रमभुनाता भवति तं जहा ती मुक्ती, अज्ज, महत्रे, लाघवे । पंचागा समये भगवा महावीरेण समयागं विधानं शिवं वणिपाई जब मियां २. संजये, ३. तवे, ४. चियाए, ५. बंमचेरवासे । जहा - अ० अ० ५.३० १ ० ३६६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] चरणानुयोग धर्म के भेद-प्रभेव १०-१. खन्तीए में मंते ! जीवे कि जणयह? प्र--(१) भंते ! धमा से जीब क्या प्राप्त करता है? उ०—खन्सीए णं परीसहे जिजद। ज०-क्षमा से वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है। ५०-(२) मुसीए गं भंते ! जीये किमणयह? प्र.-(२) भने ! मुक्ति (निर्लोभता) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-मुत्तोए पं अकिंचणं अपयह । अकिरणे व जीवे अस्थ- उ० मुक्ति से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन लोलाणं पुरिसागं अपत्याणिज्जो भवइ । जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय होता है--उसके पास कोई याचना नहीं करता। प०-३. अजययाए में मंते ! जीवे कि जगयह? प्र--(३) भंते ! ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है ? 3.–अज्जयपाए काजज्जुययं भावुजुययं भामुज्जुययं उ०-ऋजुता से वह काया की मरलता. मन की सरलता, अविसवायगं जग 1 अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे भाषा की सरलता और अवनक वृत्ति को प्राप्त होता है । अवंचक धम्मस्स आराहए भवा। वृत्ति से सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। ५०–४. मदृययाए णं भंते ! जीवे कि जणय? प्र.-[४) मृदुता से जीव क्या प्राप्त करता है। उ० · महवपाए पं अणुस्सियसं जणयइ । अणुस्सियत्ते गं २०-मृदृता से वह अनुद्धत मनोभाव को प्राप्त करता हैं। जोवे मिउमदवसंपन्ने अट्ठ मयढाणाई निवेद॥ अनुदत मनोभाव बाला जीव मृदु-मार्दव से सम्पन्न होकर मद के --उत्त० अ० २६, सु० ४०-५१ आठ स्थानों का विनाश कर देता है। प.-५. पहिलवपाए गंभंते ! जो कि जणयह? प्र० (५) भंते ! प्रतिरूपता (जिनकल्पिक जैसे आधार का पालन करने से) जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-पडिलवयाए णं लापवियं जणयह । लहुए पं जोवे उu प्रतिरूपता से वह हवन को प्राप्त होता है। उप अप्पमत्ते पागलिगे पसरलिगे विमुद्धसम्मत्ते सत्तसमि- करणों के अरणीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्रमत्त, प्रकालिंगइसमते सस्वपाणपजीवससु बीससणिज्जयाबे अप्प- वाला, प्रशस्त लिंग बाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और हिलेहे जिइन्दिए विउलतवसमिइसमन्नागए वावि समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्वों के लिए भवद । विश्वसनीय रूप वाला, अल्प-प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा उत्त० अ० २६. मु. ४४ विपुल तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होना है। प०-5. (क) मावस रचे गं भंते ! जो कि जणह? प्र. - (६) (क) भंते ! भाव-सत्य (अन्तर-आत्मा की सचाई) से जीव क्या प्राप्त करता है? 70-भावसच्चे गं मावविसोहि जणयह । भाचविसोहिए उ-भाव-मध्य मे वह भाव की विशुद्धि को प्राप्त होता है। वट्टमाणे जो मरहन्तपन्नस्तस धम्मम्स आराहगयाए भाव विशुद्धि में वर्तमान जीव अहंत-प्रशप्त धर्म की आराधना के अन्मुट्ठ। अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मरूस आराहणयाए लिए तैयार होता है। अहेत-प्रशप्त धर्म की आराधना में तत्पर अस्मुट्टिता "परलोगधम्मस्स आराहए"हवइ । होकर वह परलोक-धर्म का आराधक' होता है। (ल) करणसच्चे गं भंते ! जीये कि जणपद? (ख) मते ! करण-सत्य (कार्य की सचाई) स जीव क्या प्राप्त करता है? करणचवे गं करणसत्ति जणयइ । करणसच्चे वट्टमागो 30-करण सत्य से वह करण-शक्ति (अपूर्व कार्य करने की जो जहावाई तहाकारी यावि मषह । सामध्य) को प्राप्त होता है। वरण-सत्य में वर्तमान जीव जैसा कहना है वैसा करता है। (ग) जोगसच्चे गंमते ! जीवे कि जणयह ? (ग) भंते ! योग-सत्व (मन, याणी और काया की मनाई) से जीव क्या प्राप्त करता है? जोगसरचे गं जोगं विसोहेइ । उ०-योग-सत्य से वह मन, पापी और काया की प्रवृत्ति - उत्स० अ० २९, मु.५०-५२ को विशुद्ध करता है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६-४१ धर्म का माहात्म्य धर्म-प्रमाना ३३ ५०-७. संजमेणं मंते ! जीवे कि जगपद ? प्र०-(७) भते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-संजमेणं अण्णहयत्तं जगयई। उ.--संयम से जीव आश्रव का निरोध करता है ! १०-८. तवेग मंते ! जीवे कि जणय ? प्र०-(८) मंते ! तर से जीव क्या प्राप्त करता है? १०-तवेणं वोबाणं जणयइ ।' उ.-तप से वह व्यवदान--पूर्व-संचित कर्मों को क्षीण कर उत्त० अ० २६, सु० २८-२९ विशुद्धि को प्राप्त होता है । धम्ममाहप्पं -- धर्म का माहात्म्य -- ४०. एस धम्मे मुझे गितीइए सासए समेवच लोयं खेसहि पवे. ४०. यह धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। खेदज्ञ अहंन्तों ने बिते । तं जहा नीय लोगः को सत्य प्रकार से जानकर इसका प्रतिपादन उदिएसु वा, अणुट्ठिएमु वा, उठ्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएमु वा, जो धर्माचरण के लिए उठे हैं अथवा अभी नहीं उठे हैं। जो स्वरसवंडेसु वा, अणुवरतवंडेसुवा, सोधिए पा अणुवाहिए धर्मश्रवण के लिए उपस्थित हुए हैं, या नहीं हुए हैं, जो जीवों को वा, संजोगरएम वा, असंजोगरएसु वा । मानसिक, वाचिक और कायिक) दण्ड देने से उपरत है, अथवा अनुपरत हैं, जो उपाधि से युक्त हैं अथवा उपाधि से रहित है, जो संयोगों में रत हैं, अथवा संयोगों में रत नहीं है। सच्चं वेतं तहा चेतं अस्ति चेतं पच्चति । वह (अरिहन्त-प्ररूपित धर्म) तत्व-सत्व है, तथ्य है, (तथारूप ही है) यह इसमें सम्यक् रूप से प्रतिपादित है । तं बादत्त न णिहे, ण णिमिखये, नाणितु धम्म जहा-तहा। साधक उस (धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु मानी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे (आवेश में आकर) फेंके या छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, बस जानकर (आजीवन उसका आचरण करे)। विद्वे हि गिडवेयं गच्छेज्जा । (इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय-विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। जो लोगस्सेसणं चरे। वह लोकषणा में न भटके । अस्स गरिध समा जातो, अण्णा तस्स को सिया? जिस मुमुक्षु में यह (लोकषणा) बुद्धि नहीं है, उससे अन्य प्रवृत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यवरव जाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है उसमें विदेक बुद्धि कैसे होगी। विटु सुयं मया विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जति । बह जो धर्म कहा जा रहा है वह दृष्ट; ध्रुत (सुना हुआ) मत (माना हुआ) और विशेष रूप से ज्ञात (अनुभूत) है। समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाति पकप्पेति । हिंसा में रचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं। अहो य रातो य जतमाणो धीरे सया आगतपणाणे, पमते (सम्यग्दर्शन में) अहनिया यत्ल करने वाले, सतत प्रशावान्, बहिया पास, अपमत्ते सया परक्कमेन्जासि । और साधक उन्हें देख; जो प्रमत्त है. (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए -आ. सु० १,०४, उ०१, सु० १३२-६३३ तु अप्रमत्त होकर (सम्यमय में पराक्रम कर) ऐसा मैं कहता हूँ। ४. मोही उन्चुयभूयस्स, धम्मो सुस्स चिदुई। ४१. जो ऋजुभूत (सरल) होता है, उसे शुद्धि प्राप्त होती है और निस्वागं परमं माई, घय-मित्त व्य पावए । जो शुद्ध होता है उसमें धर्म ठहरता है (जिसमें धर्म स्थिर है, यह चुत से सिक्त (सींची हुई) अग्नि की तरह परम निर्वाण (विशुद्ध आत्मदीप्ति) को प्राप्त होता है। । ... -....... १ (क) ए-त्याग के लिए देखिए ज्ञानाचार । (ख) बंभरवासे के लिए देखिए ब्रह्मचर्य महाबत । न म Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] परणानुयोग धर्म का माहात्म्य मूत्र४१-४२ विगिच कम्मुणो हेउ, जसं संचिणु सरितए। कर्म के हेतु को दूर कर क्षमा से यश (संयम) का संचय कर। पाढवं सरीरं हिया, उट्ट पक्कमई विसं । ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्व दिशा (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है। विसालिसहि सोलेहि. जक्या उसर - उत्तरा। विविध प्रकार के शोलों की आराधना करके जो देव कल्पों महासुक्का व रिप्पन्ता, मनन्ता अपुष्णरुचवं ।। व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उत्तरो तर महाशुक्ल (चन्द्र सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। "स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता" ऐसा मानते हैं। अम्पिया देवकामाणे, कामड्व - विउविणो। वे देवों भोगों के लिए अपने आप अर्पित किए हुए रहते हैं । उड्ढे कप्पेसु चिट्ठन्ति, पुवा वाससश जूलू इच्छानुसार रूप करने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों तक असंख्य काल तक वहाँ रहते हैं । तस्थ ठिसचा जहाठाणं, जक्खा आजपाए चुपा । वे देव उन कम्पों में अपनी शील की आराधना के अनुरूप उम्ति माणुसं जोणि, से सगे भिजापइ ।। स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहाँ से च्युत होते हैं, फिर मनुष्य-योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ दस अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं। देसं वत्थु हिरणं, पसवो दास - पोस। क्षेष, वास्तु, स्वर्ण पशु और दास पौरुषेय --जहाँ ये चार खत्तारि काम-खन्धा णि, तत्व से उववज्जई। काम-स्कन्ध होते हैं उन कुलों में वे उत्पन्न होते हैं। मित्तवं नाय होइ, उपधागोए य वणवं। वे मित्रवान्, कातिमान्, उच्च गोत्र वाले, वर्णवान्, निरोग, अध्यायके महापन्ने, मभिजाए जसोबले ।। महाप्रज्ञ, अभिजात, यशस्वी और बलवान् होते हैं । भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्परक्ये अहाजयं । जीवन भर अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर, पूर्व-जाम में पुवं विसुद्ध- सम्मे, केवलं बोहि युग्मिया । विशुद्ध-सद्धी (निदान रहित तप करने वाले) होने के कारण वे विशुद्ध बोधि का अनुभव करते हैं। धउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजम परिवग्जिमा। वे उक्त चार अंगों को दुर्लभ मानकर संयम को स्वीकार सवसा धुप कम्मसे, सिद्धे हवा सासए॥ करते हैं। फिर तपस्या से कर्म के सब अंशों को धुनकर शाश्वत -उत्त, अ. ३, गा. १२-२० सिद्ध हो जाते हैं। धम्माराम घरे मियू, घिदम धम्म - वारही। हे ब्रह्मचर्यनिष्ठ ! दान्त धैर्यवान् धर्मरूप आराम में रत धम्मारामे रए बंते, संप्रधेर समाहिए। मिशु ! तू धर्मरूप रथ का सारथी बनकर धर्मरूप आराम में -उत्त, अ.१६, गा.१७ विचरण कर। एस धम्मे धुवे णिच्चे, सासए जिणदेसिए। यह निर्गन्धकपित धर्म ध्रव है, नित्य है, शाश्वत हैं। इससे सिद्धा सिजति चाणेण, सिमिति तहावरे ॥ अनेक आत्माएँ अतीत में सिद्ध हुई है, वर्तमान में सिद्ध हो रही है -उत्त. अ. १६, गा. १६ और भविष्य में सिद्ध होगी। धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो सकी। अहिंसा, संयम और लपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल हैं। ऐसे धर्म देवा वि तं मर्मसंति, जस्स धम्मे सपा मणो ॥ में जिसका मन रमा रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। -दस.अ. १, गा. धम्मस्स आराहणा धर्म के आराधक४२. तं माइत्तु न मिहे, न निक्विवे ४२. साधक धर्म का यथार्थं स्वरूप जानकर और स्वीकार कर न जागिसु धम्मं जहा तहा...... माया करे और न धर्म को छोड़े। --आ. सु. १, अ. ४, उ. १, सु. १३३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२ धर्म के आराधक धर्म-प्रज्ञापना ३५ अहेगे धम्ममवाय आदाणप्पमितिसुपणिहिए नरे अपलीयमाणे कुछ साधक-धर्म स्वीकार करके प्रारम्भ से ही मायाजाल में बसे सम्बंगेहि परिणाय । नहीं फंसते हुए दृढ़तापूर्वक सर्व प्रतिज्ञा का पालन करते हैं । -आ. सु. १, अ. ६, उ. २, सु. १८४ तं मेहाबी जाणेजा धम्म । मेधावी पुरुष सर्वप्रचण्त धर्म को जाने । -आ. सु. १. अ. ६, उ. ४, सु. १६१ बुबा धम्मस्स पारगा। बुद्ध पुरुष धर्म के पारंगत होते हैं। -आ. सु. १, अ. ८. उ. ८, सु. २३० से एय घरंति आहिर, नातेणं महता महेसिणा । महान् महर्षि शातपुत्र के द्वारा कहे हुए इस धर्म का जो ते उद्विप से समुट्टिया, अनोग्नं सारेति धम्मओ ।। आचरण करते हैं वे ही उत्थित हैं, वे ही समुत्थित है और वे ही -सू. सु. १, अ, २, उ. २, गा. २६ एक दूसरे को धर्म में प्रवृत्त करते हैं। णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए। संयत साधक विकथा न करे, प्रश्न-फल न कहे और ममत्व नगा धम्म पार, करविवि कालिकाप न करे किन्तु लोकोत्तर धर्म का अनुष्ठान करे। --सू. सु. १, अ. २, उ. २, गा. २८ छनच पसंसं णो करे, न य उपकोस-पगास-माहणे । माहन (अहिंसाधर्मी साधु) छन्न (माया) और पसंस (लोभ) तेसि मुधिवेगमाहिते, पणया जेहिं सुज्मोसित धुयं ॥ न करे, और न ही उक्कोस (मान) और पगास (क्रोध) करे । जिन्होंने धुत (कर्मों के नाशक संयम) का अच्छी तरह सेवन (अभ्यास) किया है, उन्हीं का विवेक (उत्कृष्ट विवेक) प्रसिद्ध हैं, वे ही अनुत्तर धर्म के प्रति प्रणत (समर्पित) हैं। अणिहे साहिए सुसंबडे, धम्मट्ठी उपहाणवीरिए। यह अनुतर-धर्म-साधक किसी भी वस्तु की स्पृहा या आसक्ति विहरेज्ज समाहितिविए, आयहिय खु बुहेण लाद॥ न करे, जान दर्शन-चरित्र की वृद्धि करने वाले हितावह कार्य -सू. सु. १, अ. २, ज, २, गा. २६-३२ करे, इन्द्रिय और मन को गुप्त सुरक्षित रखे, धर्मार्थी तपस्या में पराक्रमी बने, इन्द्रियों को समहितवशवी रखे इस प्रकार संयम में विचरण करे, क्योंकि आत्महित स्व-कल्याण दुःख से प्राप्त होता है। जेहि काले परपकतं, न पच्छा परितप्पड़ । धर्मोपार्जन काल में जिन पुरुषों ने धर्मापार्जन किया है वे ते धीरा बंधणुम्मुषका, नावखेति जोवियं ।। पश्चात्ताप नहीं करते हैं । बंधन से छूटे हुए वे धीर पुरुष असंयमी -सू. सु. १, अ. ३, उ. ४, गा. १५ जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिविमुद्धरे । मेधावी साधक अपनी आसक्ति को छोड़े और सर्व धर्मों से मारियं जबसंपज्जे, सध्यधाममकोश्यिं ॥ अदुपित आर्य धर्म को स्वीकार करे । सह संमइए पश्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा। स्व सम्मति से धर्म के स्वरूप को और धर्म के सार को सुनसमुट्ठिए अणगारे, पखाए य पावए । कर जो अनगार साधक आत्म-उत्थान के लिए तैयार होता है बह -सू. सु. १, अ. ८, गा. १३-१४ पापो का प्रत्याख्यान कर देता है। प०--जे मे भंते ! उग्गा, भोगा, राइना, खापा, नाया, -हे भगवन् ! जो उपकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, कोरच्या एएणं अस्सि धम्मे ओमाहति ? इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरव्यकुल के क्षत्रिय हैं, क्या वे सब इस धर्म में प्रवेश करते हैं ? अस्सि धम्मे ओगाह ति अस्सि अविह कम्मरयम प्रवेश करके आठ प्रकार के कर्मरूप रजमल को धोते हैं? पवाति? अविहं कम्मरयमल पवाहिता तो पच्छा सिमंति, आठ प्रकार के कर्मरज मल को धोकर पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध, बुनमंति; मुस्चंति, परिणिवायति, सम्वदुषाणमंत मुक्त एवं परिनिवृत्त होकर सब दुःखों का अन्त करते हैं ? कति? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] चरणानुयोग धर्म के अनधिकारी सूत्र ४२-४४ . उ०-हंता गोयमा ! जे हमे उम्गा, भोगा, तं चेव- अंत उ० - हे गौतम ! जो उग्रकुल आदि के क्षत्रिय है, वे-यावत् करेंति । अस्यगइया अभयरेसु देवलोएसु बेषताए उब- सब दुःषों का अन्त करते है और कुछ एक क्षत्रिय देने लोकों में वत्तारो भवंति। -वि. म. २०, ३.८, सु. १६ देवरूप में उत्पन्न होते हैं। धम्माणहिगादियो... पर्म के अनधिकारी४३. "न इत्थं तवो वा वमो णियमो वा दिस्सति" संपुण्णं बाले ४३, मोगमय जीवन का इच्छुक सर्वघा बाल एवं मूढ़ मानव इस मीबिउकामे लालप्पमाणे मूढे विपरियासमुवेति । प्रकार प्रलाप करता है कि---"इस जगत में तप, इन्द्रिय दमन -~-आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७७ तथा नियम किसी काम के नहीं हैं।" जरा-मच्यवसोवणीसे मरे सततं मूझे धम्म नामिजाणति । जरा और मृत्यु के आक्रमण से त्रस्त एवं मोह से मूढ बना -आ.सु. १, अ. ३, ३. १, सु. १०८ हुआ मानव कदापि धर्मज्ञ नहीं हो सकता है। अनुत्तरधम्मस्स आराहणा अनुत्तर धर्म की आराधना-. ४४. उसरमणुयाण माहिया, गामधम्मा इति मे अणुस्सुतं । ४४. मैंने (सुधर्मा स्वामी ने) परम्परा से यह सुना है कि ग्रामजंसी विरता समुदिता, कासक्स्स अणुधम्मवारिको॥ धर्म (पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषय अथवा मैथुन सेवन) इस लोक में मनुष्यों के लिए उत्तर (दुर्जेय) कहे गये हैं । जिनसे विरत (निवृत) तथा संयम (संयमानुष्ठान) में उस्थित (उचत) पुरुष ही काश्यपगोत्रीय भगवान ऋषभदेव जयवा भगवान महावीर स्वामी के धर्मानुयायी साधक हैं। जे एप चरंति आहिये, मातेणं महता महेसिणा । जो पुरुष महान् महर्षि ज्ञातपुत्र के द्वारा इस धर्म का आचसे उद्दित से समुद्विता, अप्रोग्मं साति धम्मो ॥ रण करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में उत्थित (उद्यत) है, और वे सम्यक् प्रकार से समुत्थित (ममुचित) हैं तथा वे ही धर्म से (विचलित या भ्रष्ट होते हुए) एक-दूसरे को संभालते है, पुनः धर्म में स्थिर या प्रवृत्त करते हैं। मा पेह पुरा पणामए, अभिकखे उहि धुपित्तए। __ पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों (प्रणामकों) का अन्तनिरीक्षण जे दूवगतेहि णो णपा, ते जाणति समाहिमालियं ।। या स्मरण मज करो। उपधि, माया या अष्टविध कर्म-परिग्रह को धुनने दूर करने की अभिकांक्षा (इच्छा) करो। जो दुर्ममस्कों (मन को दूषित करने वाले शब्दादि विषयों) में नत (समर्पित या आसक्त नहीं है, वे (साधक) अपनी आत्मा में निहित समाधि (राग-द्वेष से निवृत्ति या धर्मध्यानस्थ पित्तवृत्ति) को जानते हैं। जो काहिए होज्ज संजए, पासणिए गं य संपसारए। संयमी पुरुष विरुद्ध काथिक (कथाकार) न बने, न प्राश्निक पाचा घम्म अणुत्तरं, ककिरिए प मा यावि मामए ।। (प्रश्नफलवक्ता) बने, और न ही सम्प्रसारक (बर्षा, वित्तोपार्जन मादि के उपाय निर्देशक) बने, न ही किसी वस्तु पर ममत्ववान् हो; किन्तु अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) धर्म को जानकर संयमरूप धर्म क्रिया का अनुष्ठान करे। ण हि पूण पुरा अणुस्सुतं, अयुवा तं तह णो समुष्ट्रिय । जगत् के समस्त भावदर्शी ज्ञातपुत्र मुनि पुंगव भगवान महामुणिणा सामाइमाहितं, णाएणं जगसवसिगा। वीर ने जो सामायिक आदि का प्रतिपादन किया है, निश्चय ही जीवों ने उसे सुना ही नहीं है, (यदि सुना भी है तो) जैसा उन्होंने कहा, वैसा (यथार्थ रूप से) उसका आचरण (अनुष्ठाम) नहीं किया है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४-४५ केअधर्म की प्राप्ति एवं मता महंत धम्ममिणं सहिता बहू जगर गुणो शराणा विरता तिन महोधमाहित धम्मरस दीवोयमा४५. जहा से बीजे असं दोने एवं से धम्मे आरियपबेसिए । ते धनयमाणा अमलियामाणा दद्दता मेधावियो पंडिता' - सू. सु. १, अ. २, उ. २, गा. २५-३२ किया है, यह भगवान महावीर ने कहा है । धर्म को द्वीप की उपमा केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स अपत्तिकोणतं धम्मं पाए तं जहा-आरम्भे चैव परिय ठाणं अ. उ. १, भु. ५४ 3 सु. १, ६, ७.२, सु. १६१ स्थान) होता है। दोहि हि जाया केवल धम्मं मेरुवा तं जहा सोच्चच्चेष, अभिसमेन्च नेव । उ०- गोया ! असोचचर णं केवलिस्सा---जावतप्पसिवा अलिए धन्यं लज्जा सवर्णयाए अत्येगतिए, केवलपन्नत्तं धम्मं नो सभेज्जा सणयाए । इस प्रकार जानकर सबसे महान् (अनुत्तर) आहंदूधर्म को मात (स्वीकार करके सनादिन से धन्दानुवर्ती (आज्ञाधीन या अनुज्ञानुसार चलने वाले) एवं पाप से विरत अनेक मानवों (साधकों) ने इस विशाल प्रवाहमय संसार सागर को पार ४६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़े बिना आत्मा कंवलिप्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता । केवलिपण्णसरस धम्मस्स पति केवलिप्त धर्म की प्राप्ति ४७. दो ठाणाई परियाणता आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज ४७. आरम्भ और परिग्रह — इन दोनों स्थानों को ज्ञपरिक्षा से सवाए तं महापरि जानकर और प्रत्याख्यानपरजा से त्याग कर आत्मा केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है। १ लाख दिन परिनि २ प० -- महाउदग वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणि उ०- एगो महादीयो, वारिशे महालको प० - दीने य इह के वृत्ते ? केसी गोयममध्ववी उ०- जरामरणवेनं क्षमाणा पाणिनं 1 धर्म-ज्ञापन ક ४५. जैसे अदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप (जलपोतयात्रियों के लिए आसान स्थान होता है, मैं ही आर्य (तीर्थंकर) द्वारा पदि धर्म (संसार समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन I केवलिप्त धर्म की अप्राप्ति - ठा. अ. २, उ. १. सु. ५५ ४८. १० -- असोच्वा णं भंते । केवलिस्स या केवलिसवगस्स वा ४८. प्र० - हे भदन्त । केवली से केवली के धावक से, केवली केवलसावियाए वा केवलिउवा सगस्स या केवलिया की धाविका से केवली के उपासक से, केवली की उपासिका से सिपाए वा तपसि वा तपास वा केवली के पालक से फैली पाक्षिक घावन से केवल-वाि तपसा वा पासमा था तप्पाका से केवल पाक्षिक उपासे के पाउपालिका डिवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेन्जा सवाए ? 7 धर्म की उपादेयता गुनने और उसे जानने इन दो स्थानों (कारणों से आत्मा केवल धर्म को सुन पाता है। से बिना सुने ही कोई जीव केवली प्रज्ञप्त धर्म के श्रवण का लाभ प्राप्त कर सकता है ? उ०- मौनम केवली से पावलोपाक्षिक उपा शिका से बिना सुने कई जीव धर्मप्राप्त कर सकते हैं । कई जीब केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं कर सकते हैं । - सूय० सु० २ ० ३ ० ३ ० २३२ सरथं मई पट्ठा व धी के नन्सी मुणी ? महादवेवरस पईतल्य 1 न विज्जई ॥ केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणभब्बवी ॥ धम्मो दीपाय नई सरणमुत्तमं ॥ - उत्त० अ० २३, गा० ६५-६६ 1 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] चरणानुयोग केबलिप्राप्त धर्म की प्राप्ति सूत्र ४७-४८ पल-से केण?णं भंते एवं बुच्चद प्र. हे भदन्त ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैअसोच्छा गं फेलिस्स वा--जाव-तपक्षिय उवा- कंबली से यावत्-केबली-पाक्षिक उपासिका से बिना मुने सियाए या अस्थगतिए केवलिपन्न धम्म लज्जा कई जीव केबली प्रजप्त धर्म को श्रवण करते हैं, कई जीव केवली सवणयाए अत्येतिए केलिपमतं घम्मं नो लमज्जा प्रज्ञप्त धर्म को श्रवण नहीं करते हैं ? सपणयाए? उ-गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जाणं कम्माणं समो- ज....गौतम । जिसके जानावरणीय कमों का क्षयोपशम यसमे करे भवद, से असोपचा फेवलिस वा-जाय- हुआ है, वह केवली से-पावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से तप्पविषयउवासियाए वा केवलि-पन्नतं धम्मं बिना सुने केवली प्रजप्त धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। लभेज्जा सवणयाए। जस्स गं माणावरणिज्जाणं कम्मागं खोवसमे नोकडे जिसके ज्ञानापरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह मवइ, से गं असोच्चा केवलित वाजाव-तप- केवती से-यावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से बिना सुने क्खियउवासियाए वा केवलि पन्नतं धर्म नो सभेजा केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं करता है। सवणयाए। से तेणगुणं गोयमा एवं बुच्चइ गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैजस्स पं नाणावरणिज्जाणं कम्मागं खओवसमे कडे जिसके ज्ञातावरणीय कमों का अयोपशम हुआ है, वह केवली भवा, से गं असोन्या केवलिस वा—जाब-सप्प- से-यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से बिना सुने केवली क्खियउवासियाए या केवलि पन्नतं घम्भ लभेजा। प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। जम्स पं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खोबसमे नोकडे जिसके ज्ञानावरणीय कर्मों का भयोपशम नहीं हुआ है, वह मवइ, से पं असोपचा केलिस्स वा-जाव- तप्प- केवली से पावत् ... केवली पाक्षिक उपासिका से बिना सुने मिखयउवासियाए वा केवलि पन्नतं धम्म नो लभेज्जा। केवली प्रज्ञान धर्म का थक्षण प्राप्त नहीं कर सकता है। –वि. स. ६, उ. ३१, सु. १३ प०-सोचा गं भंसे ! फेवलिस्स वा, केवलिसाबस्स वा, प्र०-भन्ते ! केवली से, केवली के श्रावक से, कंबली की केलिसावियाए का, फेलिउवासगम्स वा, केबलिखवा- श्राविका से, केवनी के उपामक से, केवली की उपासिका से, सियाए वा, सप्पक्खियस्स वा, तपस्वियसाबगरस वा, केवली में पाक्षिक से, केवली पाक्षिक श्रावक से, केवली पाशिक तप्पविष्णयसावियाए वा, तपक्खियउवासगस्स वा, सम्प. उपासिका से सुनकर कोई जीव केवली प्रज्ञप्त धर्म के श्रवण का क्वियउवासियाए चा, केबलिपन्नतं धम्म लमज्जा लाभ प्राप्त कर सकता है? सवषयाए? उ०-गोयमा । सोच्चा पं केवलिस्स वा-जान-सम्प- उ.नौतम ! केबली से--यावत्-केवलि पाक्षिक उपा विखयउवासियाए वा अत्थेगतिए केलिपन्नतं धम्म सिका से सुनकर कई जीव केवली प्राप्त धर्म का श्रवण प्राप्त लमेज्जा सबणयाए, अस्थगतिए केलिपन्नत्तं धम्म नो कर सकते हैं कई जीव केवली प्रजप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं सभेजा सक्णयाए। कर सकते हैं। प०-सेकेणगुण भंते एवं बुच्चा -- प्र०- भन्ते ! विरा प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैसोच्चा णं केवलिस्स या-जान—तप्पक्षियउवा- केवलि से—यावत् केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर सिपाए वा अस्थगतिए केवलिपन्नत्तं धर्म लमेजा कई जीव केबली प्रजप्त धर्म को श्रवण करते हैं, और कई जीव सवणयाए अत्थेतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा केवली प्रज्ञप्त धर्म को श्रवण नहीं करते हैं ? सवणयाए? -गोयमा ! जस्स गं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ- उ०—गौतम 1 जिसके ज्ञानाबरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं बसमे नो कडे भयइ, से सोचा फेवलिस्स दा हुआ है, वह केवती से-मावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से -जाब-तप्पक्खियउदासियाए वा केवलि पन्नत्तं सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण नहीं करता है। धम्म नो लमेरजा सवणयाए । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८-४६ छन्मस्थ-यावत्-परमावधियों का क्रम से सिब होने न होने का प्ररूपण धर्म-प्रशापना ९ि जस्त गं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं सोपसमे कडे जिसवे ज्ञानावरणीय कमों का क्षयोपशम हुआ है, यह केवली भबइ, से ण सोच्चा केवलिस्स वा-जान-तप्पक्खिय- से-पावत्- केवली पाक्षिक उपा मिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त उपासियाए या केवलिपन्नतं धम्म लमज्जा सवणयाए। धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। से लेण?णं गोयमा एवं उच्च गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैबस नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खमओयसमे करे जिसके जानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम दृआ है, वह केवली भवड, सेणं सोच्दा केवलिस वा-जाव-तपक्षिय- से -यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर केवली प्रजप्त उवासियाए वा केवलिपन्नतं धम्म सभेज्जा सवणयाए। धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। जस्म नाणावरणिज्जाणं कम्मा खओवसमे नो करें जिसके ज्ञानाबरणीय कमों का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह भवइ. से णं सोच्चा फेवलिस्त वा-जाव-तपक्खिय- केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उपामिका से सुनकर केवली सवासियाए वा केलिपन्नतं घम्म नो लभेज्जा प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं करता है। सबणयाए। -वि. स. १, उ, ३१, सु. ३२ छउमस्य जाय परमाहोरिणं कमसो असिज्मणाइ-सिज्झ- छद्मस्थ-- यावत्-परमावधियों का क्रम से सिद्ध होने न णा परूवणं होने का प्ररूपण४९. १०-छउमस्थे गंभंते ! मणसे तोतमणतं मासयं समयं, ८९. प्र.-भगवन् ! क्या बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवलेग संजमेणं, केवलेग संवरेणं, केवलेणं बंभनेर. छद्मम् मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवासेणं, केवलाहि पवरणमाताहि सिन्झिसु--जान- वास से और केवल (अष्ट) प्रवचनमाता (के पालन) से मिद्ध हुआ सरुवदुक्खाणमंतकरिसु? है, बुद्ध हुआ है,-यावत् समस्त दुःखों का अन्त करने वाला हुआ है ? ०-गोयमा ! नो इण? सम? । उ० हे गौतम ! यह अर्ध समर्थ नहीं है। प. से केपट्टणं अंते ! एवं बुनर-"मणूसे तीतमतं प्र.-भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि सासतं समय-जाव- अंत फरसु?" पूर्वोक्त छद्मरथ मनुष्य-यावत्- समस्त दुःखों का अन्तकर नहीं हुआ? ज०-गोयमा ! जे केह अंतकरा वा, अंतिमसरोरिया वा उ.-गौतम ! जो भी कोई मनुष्य, कर्मों का अन्त करने वाले, सम्वदुक्खामत करेंसुवा, करेंति वा, करिस्संति वा, चरम शरीरी हुए है, अथवा समस्त दुःखों का जिन्होंने अन्त किया सम्वे ते उत्पननाण-दसणधरा अरहा जिणे केवली है, जो अन्त करते हैं या करेंगे, वे सब उत्पन्न ज्ञानदर्शनधारी भविता सप्तो पस्छा सिमंति–जाव-सब्वदुक्खाण- अहन्त, जिन और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध हुए हैं, बुद्ध हुए मंतकरेंसु वा, करेति वा, करिस्संति वा, से तेणटुपं हैं, मुक्त हुए हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, और उन्होंने समस्त गोपमा ! एवं बुबह-"मणूसे तोतमणतं सासत दुःषों का अन्त किया है, वे ही करते हैं और करेंगे, इसी कारण समय-जाव--सम्बदुक्खाणमंतं करसु।" हे गौतम ! ऐसा कहा है कि-यावत्-समस्त दुःखों का अन्त किया। पडापन्ने वि एवं चेव, नवरं "सिजाति" माणियम्वं वर्तमान काल में भी इसी प्रकार जानना । विशेष यह है कि "सिद्ध होते हैं', ऐगा कहना चाहिए । अणागते वि एवं चेष, नवर "सिजिमसति" माणि- तथा भविष्यकाल में भी इसी प्रकार जानना । विशेष यह है यहवं । कि 'सिद्ध होंगे', ऐसा कहना चाहिए। जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ चि, सहा परमाहोहिओ जैसा छद्मस्थ के विषय में बाहा है, वैसा ही आधोवधिक वि । तिग्णि तिणि झालावगा भाणियावा । और परमाधोवधिक के विषय में जानना चाहिए और उसके तीन -वि. स. १, उ.४, सु. १२-१५ तीन आलापक कहने चाहिए। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] चरगानुयोग केवली का मोक्ष और सम्पूर्ण शानिश्व सूत्र ५०-५३ केलिस्स मोक्खो संपुण्णणाणित्तं च केवली का मोक्ष और सम्पूर्ण ज्ञानित्व५०.५०केवली गं भंते ! मणूसे तोतमणतं सासयं समय-जाव- ५०.४०-भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवली सम्बनुक्खा अंत करें? मनुष्य ने-यावत् – मर्च दुःखों का अन्त किया है ? -हंता, सिजिससु-जाव-सय्यबुवखाणं अंतं करेंसु । एते उ हाँ गोतम ! बह सिद्ध हुआ,-पावत् - उसने समस्त तिणि आलावगा माणियम्वा छउमस्थस्स जधा, नवरं दुःखों का अन्त किया। यहाँ भी छमस्थ के समान ये तीन सिनिशिदि, पिविासंति। लाक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सिद्ध हुआ, सिज्ञ होता है और सिद्ध होगा, इस प्रकार तीन आलापक कहने चाहिए । प०-से नणं भंते ! तीतमणी सासयं समयं, पड़प्पन्न वा प्र०--भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में, वर्तमान सासयं समय, अणागतमर्णत वा सासर्य समधं जे केइ शाश्वत काल में और अनन्त शाश्वत भविष्य काल में जिन अन्तअंतकरा वा अंतिमसरोरिया वा सम्बदुक्खाणमंत करों ने अथवा चरमशरीरी पुरुषों ने समस्त दुःखों का अन्त करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा सन्चे ते उत्पन्नताण- किया है, करते हैं या करेंगे; क्या वे सब उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, बसणधरा बरहा जिणे केवली भवित्ता तओ पच्छा अहन्त, जिन और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध बुद्ध आदि होते सिझंति-जाव-सवदुक्खाणं अंत करेस्संति वा? हैं,--यावत्-सब दुःखों का अन्त करेंगे? 30--हंता, गोयमा ! तीतमगंत सासतं समय-जाव-सन्ध- उ-हाँ, गौतम ! बीते हुए अनन्त शाश्वतकाल में-यावतटुक्खाण अंत करेस्संति या। सब दुःस्त्रों का अन्त करेंगे। १०–से नूग भंते ! उत्पन्ननाग वंसणधरे अरहा जिणे केवली प्र-भगवन् ! वह उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी अर्हन्त, जिन "असमत्यु" ति वत्तव्य सिया और फेवली 'अलमस्तु" अर्थात् पूर्ण है, ऐमा कहा जा सकता है ? ज-हता, गोयमा ! उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे उ०-हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन केवली "अलमत्थु" ति यत्तव्यं सिया। और केवली पूर्ण (अलमस्तु) है, ऐसा कहा जा सकता है। वि. स. १, उ. ४, सु. १६-१८ बलिपण्णत्तस्स धम्मस्स सवणाणकलो वयो केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवण के अनुकूल वग -- ५१. तो क्या पण्णसा, जहा - ५१. वय (काल-कृत अवस्था - भेद) तीन कहे गये हैपतमे वए, मजिसमे बए, पच्छिमे वए। प्रथम वय, मध्यम वय, और पश्चिम क्य। तिहि वहि आया फेवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, तीनों ही बयों में आत्मा केबलि-प्रजप्त धर्म-श्रवण का लाभ त जहा--- पाता है यथा-- पढमे वमे, मजिसमे वए, पच्छिमे पए। प्रथम बय में, मध्यम वय में और पश्चिम वय में । -ठाणं, अ. ३, उ. २, सु. १६१ केवलिपणतस्स धम्मस्स सवणाणु फूलो कालो केबलिप्रज्ञप्त धर्म धवण के अनुकूल काल४२. १. तो जामा पग्णत्ता, तनहा ५२. १. तीन याम (महर) कहे गये हैंपदमे जामे, मजिसमे जामे, परिछमे जामे । प्रश्रम याम, मध्यम याम और पश्चिम याम । २. तिहि जामेहि आया केवलिपण्णत्तं धम्मं तमेज २. तीनों ही यामों में आत्मा केबलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण का सवणयाए, तं जहा लाभ पाता हैपढमे जामे, मजिममे जामे, पच्छिमे जामे । प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में । -ठाणं. म. ३. ज. २, सु. १६२ धम्माराहणाणुकूलखितं धर्म आराधना के अनुकूल क्षेत्र५३. (क) गामे अनुबा रणे, ५३. महामाहण मतिमान भगवान महावीर ने कहा हे साधक ! (a) व गामे, णेब रपणे धम्ममायाणह। तू ये जान ले कि यदि विवेक है तो गाँव में या अरण्य में ... पवेइयं माहणेण मइमया । दोनों जगह धर्म आराधना हो सकती है। यदि विवेक नहीं है तो -आ. सु. १, अ. E, उ.१, सु. २०२ न गांव में और न अरण्य में आराधना हो सकती है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४-५७ NWWWW एवं धम्मं विकम् अहम् परिव बाप असे व सोय ॥ धम्मं जहमाणस अधम्मं परिवज्जमागस्स सामडिएम- धर्म का परित्याग करने वाले की और अधर्म को स्वीकार तुलणाकरने वाले की गाड़ीवान से तुलना १४. जहा सावित्री जाणं सहिन्या महा दिसमं मागमोडी, अछे भमम्मि सोन्द्र ॥ ५४. जिस प्रकार गाड़ीवान प्रशस्त मार्ग को छोड़कर अप्रशस्त मार्ग में गाड़ी चलाता है तो वह गाड़ी की बुरी टूटने पर चिन्तित होता है। - उत्त. अ. ५, मा. १४-१५ होता है । धम्माराहगस्स जूअकारेण तुलणा५५. कुए अपराजिए महा असेहि कुरानेहि कडमेव गहाय णो कलि, नो तोयं नो देव वावरं ॥ एवं लोगंमि ताइणा, बुइएज्यं जे धम्मे अणुतरे । तंति उत्तमं साडिए । — सूप. सू. १, अ. २. उ. २, गा. २३-२४ अधम्मं कुणमाणस्स अफला राइओ५६. जा जा यच्च रमणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ ।" -उत्त. अ. १४, गा. २४ धम्मं कुणमाणस्स सफला राहओ धर्म करने वाले की सफल रात्रियाँ जा जा यश्च रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जति रद्दअरे । - उत्स. अ. १४, मा. २५ धम्म पायेण सुट्टी अपाये हों१७. महाजो महन्तं तु अपात्र पाई। गच्छन्तो से ही होई, छुहा तहाए पीडिओ ॥ एवं धम्मं बकाअगं, जो गच्छद परं भवं । गच्छन्तो सो दुही होइ, वाहीरोगेहि पोडिओ ॥ महन्तं पद छतसरे सुही हो छुहा-सहा विवज्जिओ ॥ एवं धम्मं पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं । सोहो जहा गेहे पलिसम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू । सारमण्डाणि नीड, असारं अवरज्भ धर्म-ज्ञाना www www उसी प्रकार धर्म को छोड़कर अधर्माचरण करने वाला मनुष्य मृत्यु आने पर अक्ष-मग्न गाड़ीवान के समान निन्दित - धर्म-आराधक की द्यूतकार से तुलना ५५. जिस प्रकार अपराजित चतुर जुआरी जुआ खेलते समय कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है किन्तु कलि, त्रेता एवं द्वापर स्थानों को ग्रहण नहीं करता है । [x9 इसी प्रकार पंडित (शेष स्थानों को छोड़कर स्थान को ग्रहण करने वाले द्यूतकार के समान) शेष धर्मों को छोड़कर इस लोक में जगत्राता के कहे हुए अनुत्तर धर्म को ग्रहण करे। अधर्म करने वाले की निष्फल रात्रियों ५६. जो ये दिन रात व्यतीत होते हैं उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती है. अधर्म करने के दिन-रात व्यतीत होते हैं। धर्म करने वाले को सफल रात्रियों जो ये दिन-रात व्यतीत होते हैं उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती हैं, धर्म करने वाले के ये दिन-रात सफल व्यतीत होते हैं । धर्म पाथेय से सुखी, अपायेय से दुखी - १७. जो व्यक्ति पाथेय ( पथ का संबल ) लिए बिना लम्बे मार्ग परदे है, चलते हुए भूल और प्यास से पीड़ित होता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म किए बिना परभव में जाता है. वह जाते ही व्याधि और रोगों से पीड़ित होता है और दुःखी होता है। जो व्यक्ति गाय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह बनते हुए भूख और प्यारा के दुःख से रहित सुखी होता हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म करके परभव में जाता है. वह अल्पक जाते हुए वेदना से रहित सुखी होता है । जिस प्रकार घर को आग लगने पर गृहस्वामी मूल्यवान सार वस्तुओं को निकालता है और मूल्यहीन असार वस्तुओं को छोड़ देता है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] चरणानुयोग बुलम धर्म सूत्र ५७-५६ एवं सोए पलितम्मि, जराए मरणेग य। उसी प्रकार आपकी अनुमति पाकर जरा और मरण से अप्पागं सारइस्सामि..... .. । जलते हुए इस लोक में से सारभूत अपनी आत्मा को बाहर - उत्त. अ.१६, मा.१६-२४ निकालंगा। दुल्लहो धम्मो-- दुर्लभ-धर्म५८. " इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिल नरा । ५८. इस मनुष्य लोक में या यहाँ मनुष्य भव में दूसरे मनुष्य भी धर्म की आराधना करके संसार का अन्त करते हैं। मिद्वितट्ठा 4 देवा वा उत्तरीए इमं सुतं । मैंने (मुधर्मास्वामी ने) लोकोत्तर प्रवचन (तीर्थकर भगवान सुतं च मेतमेगेसि, अमषुस्सेसु णो तहा ।। की धर्मदेशना) में यह (आगे कही जाने बाली) बात सुनी है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शनादि की आराधना से कर्मक्षय करके निष्ठितार्थ कृतकृत्य होते हैं, (मोक्ष प्राप्त करते हैं। अथवा (कर्म शेष रहने पर) सौधर्म आदि देव बनते हैं। यह (मोक्ष-प्राप्ति -कृतकृत्यता) भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही होती हैं, मनुष्य योनि या गति से भिन्न योनि या गति वाले जीवों को मनुष्यों की तरह कृतकृत्यता या सिद्धि प्राप्त नहीं होती, ऐसा मैंने तीर्थकर भगवान से साक्षात सुना है। अंत करेंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहिते । कई अन्यतीथिबों का कथन है कि देव ही समस्त दुखों का बाबायं पुण एगेमि, दुल्लमेध्यं समुस्सए । अन्त करते हैं, मनुष्य नहीं; (परन्तु ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि) -सूय. सु. १, अ, १५, गा. १५-१७ इस आईत-प्रवचन में तीर्थकर, गणधर आदि का कथन है कि यह समुचत मानव-शरीर या मानव-जन्म (समुच्छ्य) मिलना अथवा मनुष्य के बिना यह समुच्छय-धर्मश्रवणादि रूप अभ्युदय दुर्लभ हैं, फिर मोन पाना तो दूर की बात है। में धम्मं सुखममखंति, परिपुण्णमणेलिसं। जो महापुरुष प्रतिपूर्ण, अनुपम, शुद्ध धर्म की व्याख्या करते अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स धम्मकहा कुतो? हैं, दे सर्वोत्तम (अनुपम) पुरुष के (समम्न द्वन्दों मे उपरमरूप) स्थान को प्राप्त करते हैं, फिर उनके लिए जन्म लेने की बात ही कुतो कयाइ मेधावी, उपपजति सहागता। इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गये हुए (तथासहागता प अपरिग्ना सन लोगस्सऽयुत्तरा॥ . गत) मेधावी (ज्ञानी) पुरुष क्या कभी फिर उत्पन्न हो सकते हैं ? (कदापि नहीं।) अप्रतिक (निदान-रहित) तथागत-तीर्थकर, गणधर, आदि लोक (प्राणिजगत) के अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) नेत्र (पयप्रदर्शक) हैं। छटाणाई सम्पनीवाणं णो मुलभाई भवति, तं जहा - छह स्थान सर्व जीवों के लिए सुलभ नहीं हैं, जैसे--- १. माणुस्सए भवे, २. मारिए खेत्ते जम्म, ३. सुकुले पश्चा- (१) मनुष्य भव, (२) आर्य-क्षेत्र में जन्म, (३) सुकुल में .याती, ४. केवलिपण्णसस्स धम्मस्स सवणता, ५. सुतस्स वा आगमन, (४) केवलिपज्ञप्त धर्म का श्रवण, (५) सुने हुए धर्म का सदहणता'६. सहहितस्स वा पत्तित्तस्स वा रोइतस्स वा सम्मं श्रद्धान, (६) श्रदान किये, प्रतीति क्रिये और रुपि किये गये धर्म काएवं फासणता। -ठाणं अ.६, सु. ४८५ का कार्य से सम्यक् स्पर्शन (आचरण) । १६. समावन्नाण संसारे, नाणा-गोसासु जाइ । ५६. संमारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविध कम्मा नाणाविहा कट्टु, पुढो विसभिया पया ।। नाम वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक-पृषक रूप से समूचे विश्व का स्पर्म कर लेते हैं--सब जगह उत्पन्न हो जाते हैं। उत० अ० ३, गा०१ देखें Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६ निदेव प्राप्ति हेतु मनुष्यत्व दुर्लभ धर्म-प्रमापना ४३ एण्या देवलोएसु, नरएमु वि एगया। जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में, कभी एगया आमुरं कार्य, आहाकम्मेहि गच्छई। नरक में और कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है। गया खत्तिमओ होई, तो दण्डास-वोक्कसो। वही जीव कभी क्षत्रिय होता है, कभी चाण्डाल, कभी बोक्कस तो कीड-पयंगोय, तओ कुन्थु-पिबोलिया ।। (वर्णमंकर), कभी कीट, कभी पतंगा, कभी कंयु और कभी चीटी । एबमावट्ट-जोणीसु, पाणिणो कम्म-किब्धिसा । जिस प्रकार क्षत्रिय लोग समस्त अर्थो (काम-भोगों) को न मिश्विजन्ति संसारे, 'सम्वट्ठसुव" खत्तिया ।। 'भोगते हुरा भी निर्वेद को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्म किल्विप (कम से अधम बने हुए) जीव योनि-चक्र में भ्रमण करते हुए भी संमार में निर्वेद नहीं हो पाते- --उसमे मुक्त होने की इच्छा नहीं करते । कम्म-संऐहि सम्मूढा, बुखिया बहु-यणा । जो जीव कर्मों के संग मे सम्मूद, दुःखित और अत्यन्त वेदना अमाणमासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ।। वाले हैं, वे अपने कुत कर्मों के द्वारा मनुष्येतर (नरक-तिर्यंच) योनियों में ढकेले जाते हैं। कम्माणं तु पहाणाए, आणपुखी कमाइ उ। काल-क्रम के अनुमार कदाचित मनुष्य-गति को रोकने वाले जोवा सोहिमणप्पत्ता, "आयन्ति मणुस्सय" ॥ कर्मों का नाश हो जाता है। उससे शुद्धि प्राप्त होती है। उससे --उत्त. अ. ३, गा.-७ जीव मनुष्यत्व को प्राप्त होते हैं। माणुस्सं विग्गहं ला सुई धम्मस्स बुल्लहा। मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है मं सोचा पडिग्जन्ति, तवं खन्तिमहिमयं ।' जिसे सुनकर जीव तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करते हैं। -उत्त. अ. ३, गा.८ १ (क) धर्म प्रवण दुलमतातए णं केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं बयासी-एवं खलु चहि ठाणेहि चित्ता ! जीवा केवलिपमत्तं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए। तं जहा - १. आरामगयं वा उजाणगयं वा समणं वा माहणं वा जो अभिगच्छद, णो वंदइ, णो णमंसइ, गो सक्कारेइ, गो सम्मागेइ, जो कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पन्जुवासेइ, नो अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छद, एएणं ठाणेणं चित्ता! जीवा केवलिपलत्तं धम्म नो नभति सवणयाए । २. उवस्मयगयं समणं बात चेव जाव एतेण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभंति सबणयाए। ३. गोयरग्गगयं समणं वा माहर्ण वा जाब नो पज्जुवासइ. णो विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभइ, गो अछाई जाव पुच्छद, एएणं ठाणं चित्ता! केबलिपन्नतं धम्म नो लभ सवणयाए । ४. जत्थ वि य गं समण वा माहणेण वा सद्धि अभिसमागच्छइ, तत्व दि हत्थेण वा यत्षेण वा छत्तेण वा अपाणं आवरिता विठ्ठड, नो अट्ठाई जाव पुरुड, एएण वि ठाणे चित्ता ! जीवे केवलिपत्नत्तं धम्म णो लभदसवणयाए । एएहि च णं चित्ता ! चउहि ठाणेहि जीवे णो लभइ केवलिपन्नतं धर्म सवणयाए । (ख) धर्म श्रवण सुलभताचसहि ठाणेहि चित्ता ! जीवे केव लिपन्नतं धम्म लभइ सवणयाए, तं जहा - १. आरामगयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा वंदड़ नमसइ जाव (सरकारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं मंगल देवयं चेझ्यं) पज्जुवासइ अट्ठाई जाव (हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई) पुच्छ, एएणं त्रि जाव लभर सवण्याए एवं२. उषस्य मय ३. गोपरगगयं ममणं वा जाव (असण-पाण-खाइम-गाइमेणं) पडिलाभेइ, मट्ठाई जाब पुच्छइ एएण वि । ४. जत्व वि य प समणेण वा माहणेश वा अभिसमागम्छा तस्य विमणं गो हत्येण वा जाव (वस्थेग वा, छत्तेण वा अप्पाणं) आबरेत्ताण चिट्ठइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केलिपन्नतं धम्म लभइ सवणयाए। तुझं च ण चित्ता! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सब भाणियचं आइल्लाएणं गमएणं जाव अप्पाणं बावरेत्ता चिठ्ठा, तं कहं पं चित्ता! परसिम्स रनो धम्ममाइक्खिस्सामो? राय. सू. २३४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) आच्च सवयं सा परा । सच्चा नेलाजयं मागं बहने परिभस्सई ॥ चरणानुयोग सुई च स सद्धं च योरियं पुण दुल्लहं । मध्ये रोषमाणा वि, "नो एवं" पहि कालं लहे तु माणूसे भवे, चिरकालेण वि पाणिणं । दांडा विवागो, समयं गोवममा समाय ॥ कालं विकामइगलो, उनको जीवो उ सबसे । संाईयं समयं गोयम ! मामाए निप्राप्तिहेतुम --- उत्स. अ. ३, गा. ९-१० ओ महओ को जीव संाईयं समयं गोयम ! मा पमावए ॥ बाई उनकोसं जीवो उ सबसे । समर्थ गोयम | भापमायए ।। उनको जीव संगते । संखाईयं समयं गोयम | मा समाय ॥ अणसहकाय मगओ, उनकोसं जीवो ज सबसे । कालमणन्तपुर समय गोयम मा पाए । बेन्दिय कायमओ, उर्वको जीयो कालं संविज्जल प्रियं समयं गोराम ! मा सबसे । पमायए ॥ उपो भयो उ सबसे कालं संखिज्जसलियं समयं गोयम ! मा पाए । रिकामा उनको जीयो सबसे विजयिं समयं गोपथ ! या पमायए । चिक्को थीयो सतऽभवन् गहने, समयं गोयम ! मा वायए ॥ देवे मेरइए य अहगओ, उनकोसं जीयो उ सबसे । steeeeeerहणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ सूत्र ५९ कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना दुर्लभ है। बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं । श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में वीयं ( पुरुषार्थ ) होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत लोग मंयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्त्रीकार नहीं करते । सब प्राणियों को चिरकाल तक भी मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ है। कर्म के विपाक तीव्र होते हैं, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर पृथ्वीकाय में उप दुवा जीव अधिक से अधिक अपकाल तक वहाँ रह जाता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । अप्काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्यकाल तक वहाँ रह जाता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । तेजस कार्य में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । वायु-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । वनस्पति-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक दुरन्त अनन्त काल तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर वीद्रिय-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येयकाल तक नहीं रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भी प्रमाद मत कर । त्रीद्रिय-काय में उत्पन्न हुमा जीव अधिक से अधिक संख्येयकाल तक बहीं रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर चतुरिन्द्रिय-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येय-काल तक वहाँ रह जाता है। इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । पंचेन्द्रिय-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक सातआय जन्म ग्रहण तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एक-एक जन्म-ग्रहण तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६-६४ 'धर्म साधना में पांच सहायक धर्म-प्रहापना ४५ एवं भवसंसारे, संसरह सुहासुहेहि कम्महि । इस प्रकार प्रमाद-बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्मजीवो पमायतुं जो. उपयं गोपद ! माना। मानव संसार में परिभ्रमण करता है, इमलिए है गौतम [ तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। लन वि माणुसत्तणं. आरिअतं पुणरावि बुल्लहं। मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, उसके मिलने पर भी आयं देश में महवे वसुया मिलेक्युपा, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ जन्म पाना और भी दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी माद मत कर। लवण वि आपरियत्तगं, अहोगपंचिनियया दुल्लहा । ___ आर्यदेश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण विलिम्बियया हुवीसई, समय गोयम ! मा पमायए ॥ स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अहीणपंचिनियतं पि से लहे, उत्तमधम्ममुई दुल्लहा। पानों इन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ होने पर भी उसम धर्म की श्रुति कुतित्बिनिसेवए जणे, समय गोयम ! मा पमायए ॥ दुर्लभ है। बहुत मारे लोग कुतीथिकों की सेवा करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । सडूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुगरवि दुल्लहा । उत्तम धर्म की युति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक मिछत्तमिसेवए जणे, समय गोयम ! मा पमायए ॥ दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। धम्म पि हूँ सदहन्तया, कुल्लहया कारण फालया। उत्तम धर्म में थड़ा होने पर भी उसका आचरण करने बह कामगुणहि मुगिछपा, समयं गोयम ! मा पमापए ॥ चाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग काम-गुणों में -उत्त. अ.१०, गा. ४-२० मूच्छित होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। धम्मसाहलाए सहाया धर्म साधना में सहायक-- ६०. धम्म चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णता, तं महा--- ६. धर्म का आचरण करने वाले भायु के लिए पांच निधा (आलम्बन) कहे गये हैं । जैसेगणो, १. षटकाय, २. गण (श्रमणसंघ), राया, "गिहबई, ३. राजा, ४. गृहपति, सरीरं। -ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४०७ ५. शरीर। सखासरूव-परूवर्ण श्रद्धा के स्वरूप का प्ररूपण -- ६१. नस्थि धम्मे अधम्मे दा, नेव सर निवेसए । ६१ धर्म अथवा अधर्म नहीं हैं, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए। अस्थि धम्मे अधम्मे वा, एवं सन्न निसाए । धर्म अपना अधर्म हैं, ऐभी श्रद्धा रखनी चाहिए। -सुय. सु. २, अ. ५, गा. १४ करणप्पयारा करण के प्रकार६२. तिबिहे करणे पपणते, तं जहा ६२ करण तीन प्रकार का कहा है, यथाधम्मिए करगे, अधम्मिए करणे १. धामिक करण, २. अधार्मिक करण, धम्मियायम्मिये करणे। --ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. २१६ ३. धार्मिकाधार्मिक करण । उवामभया उपक्रम के भेद६३. तिविधे उरकमे पागले, तं जहा ६३. उपक्रम (उपायपूर्वक कार्य का आरम्भ) तीन प्रकार का कहा गया है-जैसे--- Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] चरणानुयोग व्यवसाय (अनुष्ठान) के प्रकार सूर ६३.६५ धम्मिए उवषकमे, (१) धार्मिक-उपक्रम-श्रुत और चारित्र रूप धर्म की प्राप्ति के लिए प्रयास करना। अम्मिए उबरकमे, (२) अधार्मिक-उपक्रम-असंयमवर्धक आरम्भ कार्य करता। धम्मियाम्मिए जवक्कमे । (३) धार्मिकाधार्मिक-उपक्रम--संयम और असंयम रूप कार्यों -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १९४ का करना । ववसायप्पगारा व्यवसाय (अनुष्ठान) के प्रकार--- ६४.तिविहे ववसाए पष्णते, तं जहा ६४. व्यबसाय (वस्तुरूप का निर्णय अथवा पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान) सीन प्रकार का कहा गया है - धम्मिए ववसाए, अधम्मिए ववसाए, धम्मियाघम्मिए (1) धार्मिक व्यवसाय, (२) अधार्मिक व्यवसाय, (३) यवसाए। धार्मिकाधार्मिक व्यवसाय । अहवा-तिविहे ववसाए पणते तं जहा भषवा व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है-- पञ्चकले, पच्चाइए, अणुमामिए । (१) प्रत्यक्ष व्यवसाय, (२) प्रात्ययिक (व्यवहार-प्रत्यक्ष) म्यवराय गौर (३. अनुताणित (अनुयानिक भावसाय) अहवा-तिविधे अवसाए पण्णते तं जहा अथवा व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया हैइहलोइए, परसोइए- इहलोइम-परलोइए। (१) ऐहलौकिक, (२) पारलौकिक, (३) ऐहलौकिक-पार लौकिक । इहलोइए बवसाए तिविहे पण्णते, तं जहा ऐहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया हैलोइए, बेहए, सामइए। (१) लौकिक, (२) वैदिक, (३) सामयिक (श्रमणों का व्यवसाय) । सोइए ववसाए तिविधे पणते, तं जहा लौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया हैअधे, धम्मे, कामे। (१) अर्थ व्यवसाय, (२) धर्मव्यवसाय, (३) काम-व्यवसाय । वेदए यवसाए तिषिधे पापसे, तं जहा वैदिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया हैरिजवंदे, जउध्वेदे, सामवेरे । (१) ऋग्वेद, (२) यजुर्वेद, (३) सामवेद व्यवसाय (अर्थात् इन वेदों के अनुसार किया जाने वाला निर्णय या अनुष्ठान) सामइए ववसाए तिविधे पण्णते, तं जहा मामयिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है-- गाणे, वसंणे, चरित। - ठाणं. अ. ३, उ. ३, मु. १९१ (१) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) चारित्र व्यवमाय । संजयाइणं धम्माइसु ठिई संयतादि की धर्मादि में स्थिति६५. प०-१. से गं भंते ! संजय-विरय-पडिहप-पच्चक्खायपाब- ६५. प्र.--(१) हे भदन्त ! संयत, प्राणितिपातादि से विरत, कम्मे धम्मे थिए? जिसने प्राणातिपातादि से पाप कर्मों का प्रतिधात और प्रत्याख्यान किये हैं ऐसा जीव धर्म में स्थित है ? २. असंजय-अविरय-अपरिहय - अपच्चक्लायवावकम्मे (२) असंयत, प्राणातिपातादि से अविरत, जिसने प्राणातिअधम्मे हिए? पातादि पांच कर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं किये हैं ऐमा जीव अधर्म में स्थित है ? ३. संजयासंजए धम्माधम्मे लिए? (३) संयत-असंयत (अंशतः असंयत, अंशतः संयत) जीव धमाधर्म में स्थित है ? उ०-१. हेता गोयमा! संजय-विरय-परिहय-परसक्लाय- 3-(१) हा गौतम ! संयत, प्राणातिपातादि से विरत, पावकम्मे धम्मे ठिए। जिसने प्राणातिपातादि पाप क्रमों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किये हैं—ऐसा जीव धर्म में स्थित है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५ संपतादि की धर्मादि में स्थिति धर्म-प्रज्ञापना ४७ २. असंजय-अविरय-अपजिलय-अपश्चक्त्राय-पावकम्मे (२) असंयत---प्राणातिपातादि से अविरत, जिमने प्राणातिअधम्मे ठिए । पातादि पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्यास्यान नहीं किये हैं ऐसा जीव अधर्म में स्थित है। ३. संजयासंजए धमाधम्मे लिए ॥१॥ (३) संयत-असंवत जीव धर्माधर्म में स्थित है। ५०–एएसि गं भते ! धम्मसि वा, अहम्मसि वा, धम्मा- प्र०-हे भदन्त ! धर्म में, अधर्म में, धर्माधर्म में कोई भी धम्मसि वा, चरिकमा केह आसत्तए पा, सइत्तए वा, जीव बैठना, सोना, खड़ा रहना, नीचे बैठना-करवट बदलना चिट्टित्तए वा, निमीदिसए बा, तुट्टित्तए वा? आदि क्रिया कर सकता है? उ.-गोयमा ! णो तिण? सम? ॥२॥ उ०—गौतम ! यह अर्थ तर्कसंगत नहीं है। ५०-से केयं खादं अटुण मंते ! एवं बुभबई प्र०-(१) हे भदन्त ! किस प्रसिद्ध प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है ? :. संजीह नाय - पावर इम्मे (१) संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने प्राणातिपातादि हिए? पापकों का प्रतिचात और प्रत्याख्यान किये हैं-ऐसा जीव अधर्म में स्थित है ? २. असंजय-अविरय-अपरिहय-अपवक्ताप - पावकम्मे (३) अर्मयत—प्राणातिपातादि मे अविरत -जिसने प्राणाअधम्मे ठिए? तिपातादि पाप कर्मों का प्रतिषास और प्रत्यार यान नहीं किये हैं -ऐसा जीव अधर्म में रिक्त है ? ३. संजपासंजए धम्माधम्मे ठिए ? (३) संथता संयत धर्माधर्म में स्थित है ? उ.---१. गोयमा ! संजय-विरय पहिय-परचक्खाय - पाव- उ०-(१) गौतम ! संयत--प्राणातिपालादि से विरत-- कम्मे धम्मे ठिए, धम्म चेव वसंपज्जिताणं जिसने प्राणातिपातादि पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान बिहरह किये है- ऐसा जीव धर्म में स्थित है क्योंकि धर्म को ग्रहण कर विहरता है (न्यवहार) करता है। २. असंजय-अविरय-अपडिहय अपचक्खाय-पानकम्मे (२) असंयत-प्राणातिपातादि से अविरत-जिसने प्राणातिअधम्मे ठिए, अधम्म चेव उवसंपज्जित्तागं विहरत, पातादि पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं किये हैं ऐसा जीव अधर्म में स्थित है, क्योंकि अधर्म को ग्रहण कर विहरता है (ब्बवहार करता है)। ३. संजयासंजए धमाधम्मे ठिए, धमाधम्म उब- (३) संवतासंयत जीव धर्म-अधर्म में स्थित है, क्योंकि धर्मसंपन्जित्ताणं विहर अधर्म ग्रहण कर व्यवहार करता है, से तेणट्ठणं गोयमा ! इस प्रयोजन से गौतम ! संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय • पावकम्मे धम्मे संयत -प्राणातिपातादि से विरत -जिसने प्राणातिपातादि ठिए । पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किये हैं-ऐसा जीव धर्म में स्थित है। असंजय-अविरय-अपव्हिय-अपच्चक्खाय-पावकम्मे असंयत-प्राणातिपातादि से अविरत-जिसने प्राणातिपातादि अधम्मे लिए। पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्यान्यान नहीं किया है-ऐसा जीव अधर्म में स्थित है। संजयासंजए धमाधम्मे थिए ।३।। संयतासंयत धर्माधर्म में स्थित है। प०-जीवा गं मते ! फि धम्मे ठिया 7 अधम्मे ठिया? प्र भदन्त ! जीव धर्मस्थित हैं? अधर्मस्थित हैं ? धम्माधम्मे ठिया? धर्माधर्मस्थित है ? 3०-गोयमा जीवा धम्मे विलिया, अधम्म विठिया, 3-गौतम ! जीव धर्मस्थित भी हैं, अधर्मस्थित भी हैं, धम्माधम्मे विठिया धर्माधर्मस्थित भी है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ चरणानुयोग संयतालि की धर्मावि में स्थिति सूत्र ६५-६६ प.-रइया गते! कि धम्मे ठिया? अधम्मै ठिया? प्र०-हे भदन्त ! नैरयिक धर्मस्थित है ? अधर्मस्थित है ? धम्माधम्मे ठिया? धर्माधर्म स्थित है? उ.-गोयमा । गैरइया नो घम्मे हिया, अधम्मे ठिया, नोउ.-.--गौतम ! नैरयिक धर्मस्थित नहीं है, अधर्मस्थित है, धम्माधम्मे ठिया ॥॥ धर्माधर्म स्थित नहीं है। १०-असुरकुमारा-जाव-पणियकुमार गंभंते ! कि धम्मे -हे भदन्त ! असुरकुमार-यात्-स्तनितकुमार ठिया ? कि अधम्मे लिया ? कि धम्माधम्मे दिया? धर्मस्थित है ? अधर्मस्थित हैं ? धर्माधम स्थित है? उ.-गोयमा! असुरकुमारा-जाव-नियकुमारा नो घरमे उ०-गौतम ! असुरकुमार-पावत्-स्तनितकुमार धर्म ठिया, अधम्मे ठिया, नो धम्माघम्मे ठिया। स्थित नहीं है, अधर्मस्थित है, धर्माधर्मस्थित नहीं है । प.-पुडबीकाइया-जाय-चरिबिया पं भंते ! कि धम्मे प्र.-हे भदन्त ! पृथ्वीकायिक-यावत्-चतुरिन्द्रिय जीव ठिया ? अधम्मे हिया धम्माधम्मे ठिया? धर्मस्थित है ? अधर्म स्थित है ? धर्माधर्मस्थित है ? उ.-गोयमा ! पुहवीकाइया-जाब-चरिबिया नो धम्मे ठिया, उ.-गौतम ! पृथ्वीकायिक-यावत--चतुरिन्द्रिय जीव अधम्मे ठिया, नो धस्माधम्मे लिया ॥६॥ धर्मस्थित नहीं है. अधर्मस्थित है. धर्माधर्मस्थित नहीं है। 4०-परिदियतिरिक्ष जोणिया मते ! कि धम्मे ठिया? प्र.-हे भदन्त ! बन्द्रिय तिर्यम् योनिक जीव धर्मस्थित अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया ? है ? अधर्म स्थित है ? धर्माधर्मस्थित है ? उ.--गोयमा ! चिनियतिरिक्ख जोणिया नो धम्मे ठिया, उ... गौनम ! पंचेन्द्रिय तियंग योनिक जीव धर्मस्थित नहीं अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे वि ठिया ।।। है, अधर्मस्थित है, धर्मानमस्थित है । १०–मणस्सा णं भंते ! कि धम्मे ठिया ? अधम्मे ठिया? प्र-. है भदन्त ! मनुष्य धर्मस्थित है ? अधर्म स्थित है? धम्माधम्मे ठिया ? धर्माधम स्थित है? उ-गोएमा ! मस्सा घम्मे वि ठिया, अधम्मे विठिया, उ०-गौतम ! मनुष्य धर्म स्थित है, अधर्म स्थित भी है, धम्माधम्मे विठिया ॥५॥ धर्माधर्म स्थित भी है। ५०-दागमंतर- जोइसिया ...वेमाणिया मते ! कि घम्मे प्र-हे भदन्त ! बाणभ्यंतर-ज्योतिषिक, वैमानिक धर्म ठिया ? अधम्मे ठिया? धम्माधम्मे ठिया? स्थित है ? अधर्मस्थित है ? धर्माधर्मस्थित है ? उ०—कीयमा ! याणमंतर-जोइसिया प्रमाणिया नोउ -गौतम ! वाणव्यंतर, ज्योतिषिक, वैमानिक धर्मस्थित धम्मे ठिया, अधम्मे डिया, नो धम्माधम्मे ठिया ॥८॥ नहीं है, अधर्मस्थित है, धर्माधम स्थित नहीं है। -वि.सं. १७, ३. २, सु. १-६ बुप्पडियारा सुप्पडियारा प्रत्युपकार दुष्कर, प्रत्युपकार सुकर६६. सिहं उपडियारं समणाउलो ! तं जहा-- ६६. हे आयुष्मन् श्रमण ! इन तीनों का प्रत्युपकार दुष्कर हैअम्मापिउणो, भट्ठिस्स, धम्मायरियस । (१) माता-पिता का, (२) भर्ता-स्वामी का, (३) धर्माचार्य १. संपातो वि य गं फेद पुरिसे, अम्मापियरं सयपाग-सहस्स- (१) कोई पुरुष प्रतिदिन प्रातःकाल में माता-पिता के शरीर पाहि तिल्लेहि अभिगेत्ता, सुरभिणा गंधट्टएणे उबट्टिता, पर शत सहम पाक तेल मलकर सुगन्धित जल से स्नान कराता तिहिं उगेहि मज्जावित्ता, सध्यालंकार-विभूसियं करता, है, सालंकार से विभूषित कर अट्ठारह प्रकार का सरस भोजन मान्न थालोपागसुद्ध अट्ठारस-वंजणातलं भोपणं भोया- कराता है और उन्हें जीवन पर्यन्त अपने कन्धे पर उठाये फिरता वेत्ता जावज्जीवं पिद्विवसियाए परिवहेज्जा, तेणावि है-इतना करने पर भी वह अपने भाता-पिता का प्रत्युपकार तस्स अम्गपिउस्स दुष्परियारं भयह । नहीं कर पाता है। अहे से तं अम्मापियरं केवलिपण्णते धामे आघबहला -यदि उन्हें केवलीप्रज्ञप्त धर्म प्रज्ञापित करता है, प्ररूपित पणवत्ता परवत्ता ठावइत्ता मवइ, तेणामेव तस्स करता है या उन्हें धर्म में स्थिर करता है, तो उनका प्रत्युपकार मम्मापिउहस सुप्पडियारं भवाह समणाउसो! करने में समर्थ होता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६-६८ धर्माणित व्यवहार धर्म-प्रशापना [४ २. के महच्चे परिई समुषकसेन्जा, तए ण से परिद समु- (२) कोई धनी पुरुष किसी दीन को व्यापार के हेतु आर्थिक क्किट्ठ समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसममा- सहयोग दे एवं कुछ समय पश्चात् वह दीन व्यक्ति धनी और अर्थ गते यावि बिहरेग्जा, तए णं से महच्चे अन्नया फयाइ महयोगी धनी पुरुष दीन हो जाता है-उस समय धनी बने हुए वरिष्दीहए समाणे तस्स दरिइस अंतिए हव्वमागच्छेगा, उस व्यक्ति में यदि वह आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करे और उसे तए णं से वरि तस्स भट्टिस्स सस्वस्समनि इलयमाणे (जो अब दीन हो गया है। सर्वस्त्र भी अर्पण कर दे, तब भी वह तेणावि तस्स बुष्ठियारं भवइ ।। उसका प्रत्युपकार नहीं कर सकता है। अहे णं से त मट्टि केलिपन्नत्ते घम्मे आघाइत्ता-जाव-- -यदि वह उसे केवलीप्रज्ञप्न धर्म कहं यावत-उसे धर्म ठावदत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुपडियार भबइ। में स्थिर करे तो वह उसका प्रत्युपकार करने में समर्थ होता है । ३. केइ सहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स या अंतिए एगमवि (३) कोई पुरुष धर्माचार्य रो एक वचन सुनकर बोधि लाभ आपरियं धम्मियं सुवरणं सोचा निसम्म कालमासे कालं करता है और यथासमय देह त्यागकर वह देवलोक में उत्पन्न होता किच्चा अन्नगरेसु देवलोएसु देवताए उपबन्ने, तएणं से है. यदि वह दिव्य शक्ति से अपने उस धर्माचार्य को दुर्भिक्षग्रस्त देवे तं धम्मायरियं बुभिक्खातो वा देसातो सुभिवं देस प्रदेश से सुभिक्ष प्रदेश में, पथ विस्मृत होने पर गहन विपिन से साहरेज्जा, ताराओ वा णिकतारं करेग्जा, घोहकालि- वसति में ले जाकर रख दे, अथवा रोग-ग्रस्त को रोग-मुक्त कर एणं वा रोगरतकेण अभिभुतं समा बिमोएज्जा, तेणावि तथापि वह धर्माचार्य का प्रत्युपकार नहीं कर सकता है। तस्स धम्मायरियस्स दुष्पडियारं भवद । अहे णं से तं धम्मारियं केवलि-पन्नताओ धम्माओ भट्ट -यदि वह कदाचित धर्म विमुख होते हुए अपने धर्माचार्य समाणं भुज्जो वि केवलिपन्नते मे आघवइत्ता - जाव-- को धर्म कहे-याव-धर्म में स्थिर कर दे तो उनका प्रत्युपकार ठावदत्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्त सुष्पडियार करने में समर्थ होता है । भयड़। -ठाणं. अ. ३, उ. १. सु. १४३ धम्मजिओ ववहारो धाजित व्यवहार--- ६७. धम्मज्जियं च ववहार, बुहायरिये सया । ६७. जो व्यबहार धर्म से अजित हुआ है, जिसका तत्वज्ञ आचार्यों तमापरन्तो मवहार, गरहं नाभिगच्छई ।। ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ - उत्त. अ. १, गा.४२ मुनि कहीं भी नहीं को प्राप्त नहीं होता। चज चाउम्विहा धम्मिया अधम्मिया परिसा चार-चार प्रकार के धार्मिक और अधार्मिक पुरुष६८. सारि पुरिसजाया पण्णता, सं जहा ६८. बार जाति के पुरुष कहे गये है। जैसे - १. रुवं नाममेगे जहइ, नो धम्म (१) कोई रूप (साधुवेष) को छोड़ देता है, पर धर्म नहीं छोड़ता है, २. धम्मं नाममेगे जहइ, नो रूवं, (२) कोई धर्म को छोड़ देता है, पर रूप को नहीं छोड़ता है, ३. एगे हवं वि जहइ, धम्म वि जहर, (३) बोई रूप भी छोड़ देता है और धर्म को भी छोड़ देता है, ४. एगे नो रूवं जहइ, नो धम्म जहद । (४) कोई न रूप को ही छोड़ता है और न धर्म को ही छोड़ता है। चसारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-- . (पुनः) चार जाति के पुरुष कहे गये हैं। जैसे - १. धम्मं नाममेगे जहइ, नो गणसंठिई, (१) कोई धर्म को छोड़ देता है, पर गण की संस्थिति (मर्यादा) नहीं छोड़ता। २. गणसठिई नागमेने जहह, नो धम्म, (३) कोई गण की मर्यादा को छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है। ३. एगे गणसंठिई वि जहइ, धम्म वि जहइ, (३) कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है, और धर्म भी छोड़ देता है। ४. एगे नो गणसंठिई जहरू, नो धम्म जहा । (४) कोई न गण की मर्यादा ही छोड़ता है और न धर्म ही छोड़ता है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० बरणानुयोग धर्मनिम्बा करण प्रायश्चित्त वत्सारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा (पुनः) चार जाति के पुरुष कहे गये है, जैसे - १. पियधम्मे नाममेगे, नो बढधम्मे, (१) कोई प्रिय वर्मा है, पर दृढ़धर्मा नहीं है। २. वधम्मे नाममेगे, नो पियधम्मे, १) कोई दृदृधमा है, पर प्रियधर्मा नहीं है। ३. एगे पियधम्मे कि, वधम्मे वि, (३) कोई प्रियधर्मा भी है और दूधमा भी है। ४. एो नो पियधम्मे, नो दधम्मे।' (४) कोई न प्रियधर्मा ही है और न दृधर्मा ही है। -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ धम्मनिंदा पायच्छित्तं धर्मनिन्दाकरण प्रायश्चित्त६६.जे भिय धम्मस्स अक्षण्यं वयह ययंत वा साइज्जद्द । त सेव- ६६. जो भिक्षु धर्म की निंदा करता है, करवाता है या करने वाले माणे आषस्जद चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं । वा अनुमोदन करता है। वह भिक्षु गुरु चातुर्मारिक परिहार -नि. उ. ११, मु.९ प्रायश्चित स्थान का पात्र होता है। अधम्मपसंसा पायच्छित्त अधर्मप्रशंसाकरण प्रायश्चितजे भिक्य अधम्मस्स वष्णं प्रपद बयंतं वा साइज्जा । तं सेव- जो भिक्षु अधर्म की प्रशंसा करता है. करवाता है या करने भाणे आवज्जा चाडम्मासियं परिहारहाणं अणु घाइयं । वाले का अनुमोदन करना है। वह भिक्षु गुरु चातुर्मासिक परिहार -नि. उ. ११, सु. १० प्रायश्चित्त स्थान का पात्र होता है। १ वव. उ०१०, सु०११-१३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७० ॥७४ आयार- पण्णत्ति आवारधम्मपणिही - ७०. आधारणिहि लहूं, जहा कायव्य भिक्खुणा मेहरिस्तामि आसुिह मे ॥ आधारप्पयारा - द. मा. १ १.पण तं जहा (१) बाणावारे (२) दंसणावारे (३) परिवारे (४) तवायारे, (५) बीरियारे । ---टाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४३३ पंचमनुतरा ७२. फेलिस णं पंच अनुसरावण्णा, तं जहा (१) अरे माने (२) अत्तरेस (२) अमरे चरिते, (४) अणुसरे तवे, (५) अणुतरे वीरिए । -ठाणं ५, उ. १, सु. ४१० बडविशेषजमणं ७३. ममगई तच्चं सुणेह जिणभासियं । जु नागवणलक्खणं ॥ माणंच बंसणं देव, चरितं च तवो तहर एस मासि पन्नत्तो, जिहि वरदसिंहिं ॥ नागं च दंसणं चैव चरितं व तो सहा एवं मम्ममनुपता जीवा गच्छन्ति सोग्गहूँ । पांच प्रकार के आधार नाग जाई भावे, रंग व सह परिनिष्हिाद बेग परि - उत्त. अ. २८ गा. १-३ उत्स. अ. २५, गा. ३५ आराहणापधारा ७४. तिविद्दा आराहणा पद्मत्ता तं जहाराणा वाराहगा चरिताराहणा गाणाराहणा तिविहा पद्मत्ता, से जहा - आचार - प्रज्ञप्ति आधार-प्रति ५१ आचार धर्म प्रविधी ७०. आचार - प्रणिधी को पाकर भिक्षु को जिस प्रकार (जो ) करना चाहिए यह मैं तुम्हें कहूँगा। अनुक्रमपूर्वक मुझसे सुनो। आचार के प्रकार- ७१. आचार गांव प्रकार का कहा गया है। जैसे - (१) जानावार (२) नाचार, (३) पारियाचा (४) तपाचार, (५) वीर्याचार | पांच उत्कृष्ट ७२. केवली के पांच स्थान अनुत्तर (सर्वोत्तम अनुपम ) कहे गये हैं, जैसे (१) अनुसर ज्ञान, (२) अनुत्तर दर्शन, (३) अनुत्तर पारिय (४) अनुसार सच, (५) अनुत्तर धीरं । चार प्रकार का मोक्ष मार्ग -- ७२. चार कारणों मे संयुक्त वन-दर्शन वाली निभाषित मोक्ष मार्ग की गति को सुनो। ज्ञान दर्शन, चार और यह मोक्षमार्ग है. ऐसा वरदर्शी (श्रेष्ठ द्रष्टा ) अहंतों ने प्ररूपित किया । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप- इस मार्ग को प्राप्त करने यामीन सुमति में जाते हैं। जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारि से विश् करता है और तप से युद्ध होता है। आराधना के प्रकार ७४. आराधना तीन प्रकार की कही गई है, यथाज्ञान आराधना, दर्शन आराधना और चारित्र आराधना । ज्ञान आराधना तीन प्रकार की कही गई है १ दुबिछे आयारे पलते तं जहा णाणायारे, चेव नोनाणायारे चैव । मोनापाया दुनिहेप तं जायायावरे नोदसणारे दुबिहे पत्तं त जड़ा-चरितायारं चैव नोरितायारे चेव 1 गो चरिताया दुविहे पत्ते तं जहा तवायारे चैव वीरियायारे चेव । -. . . . . . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] चरणामुयोग आराधना के फल की प्ररूपणा सूत्र ७४-७५ उक्कस्सा. मजिसमा जहन्ना। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । एवं बंसणाराहणा वि, दर्शन आराधना तीन प्रकार की कही गई है ... उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । चारताराहणा वि। चारित आराधना तीन प्रकार की कही गई है-- -ठाणं. अ. ३, उ. ४. मु. १६८ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । आराहणाफलपरूवणा आराधना के फल की प्ररूपणा - ७५.५०–उक्कोसियं णं भंते ! गाणाराहणं भाराहेत्ता कतिहिं ७५. प्र०-भगवन् ! ज्ञान की उत्कृष्ट आगधना करके जीव भवम्गहणेहि सिज्मति–जाव-अंतं करेति? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है,-यावत् - सभी दुःखों का अन्त करता है? उ.-गोयमा ! अत्येगइए सेणेव भवम्हणेणं सिज्मति उ०—गौतम ! कितने ही जीव उसी भय में सिद्ध हो जाते - जाव-अंत करेति । अस्पतिर दोच्चेणं मपह- हैं, यावत्-सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं; कितने ही जीव गेणं सिज्मति --जाव-अंतं करेति । दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं-यावत सभी दुःखों का अन्त करते हैं, अत्यगतिए कम्पोषएसु वा कप्पातोएसु वा उवबज्जति । कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । प.-उक्कोसियण मंते ! वसणाराहणं आराहेता कतिहि म --भगवन् ! दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करके जीव भवागहोहं सिज्मति–जाव-अंत करेति ? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत्-सभी दुःस्त्रों का अन्त करता है? उ०—एवं चेव । गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के फल के विषय में कहा है, उसी प्रकार उत्कृष्ट वर्शनाराधना के (फल के) विषय में समझना चाहिए। ५०--उक्कोसि गंभंते ! चारसाराहणं आराहेता कतिहि प्र.-भगवन् । चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करके जीव भयरगहणेहि सिजाति-जाय-अंतं करेति ? किनने भव ग्रहण कारके सिद्ध होता है, रावत् -सभी दुःखों का अन्त करता है? 30 एवं चैव । 30-गौतम ! उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के (फल के) विषय में नवर अत्यंगलिए कप्पातीएसु उववज्जति । जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार उत्कृष्ट चारित्राराधना के (फल के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि कितने ही जीव (इसके फलस्वरूप) कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। प०-मनिममियं गं मंते ! णाणाराहणं आराहेता कतिहिं प्र-भगवन् ! जान की मध्यम-आराधना करके जीव कितने भवागहगेहि सिझति--जाव–अंत करेति ? भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् - सब दुःखों का अन्त करता है ? 30-गोयमा ! अत्थेगतिए गेणं भवागहगेणं सिज्म उ०--गौतम ! कितने ही जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध –जाव–अतं फरेति, तच्चं पुण भवागणं माइश्क- होते है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं, वे तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। प०. मझिमियं णं भंते ! बंसणाराहणं आराहेता कतिहि प्रा-भगवन् । दर्जन की मध्यम आराधना करके जीय भवगणेहि सिक्सति–जावअंत करेति ? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। उ.-एवं चेन । उ०—गौतम ! जिस प्रकार ज्ञान की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहा, उसी प्रकार वर्शन की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहना चाहिए। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७५-७६ wwwwww एवं मन्झिमि परि प० अहप्रियं णं भंते नाथाराहर्थ आराहता कतिहि सिति जायत करेति ? - उ०- गोमा ! अत्थेगतिर तच्चेणं भवरगहणणं सिजनह पुण माइक्कम | एवंणारा पि एवं परिचाणं पि । तिविहा बोही७६. तिमिहाबोधी पता ह जाबोधी सणबोधी चरिबोधी'। तिविहा बुद्धा तिथिले मोहे७७. तिविहे मोहे पण्णत्ते, गाणमोहे सणमो तिविहा बुद्धा पण्णत्ता तं जहापाणबुडा, सणवारा। — -अर्थ. अ. ३, उ. २, सु. १६४ -- प्रा. अ. ३, उ. ४, गु. १६४ तं जहा परिम - वि. श. उ. १०, सु. १०-१० कहना चाहिए। -- तीन प्रकार की बोधि ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६४ तिविहा मूढा जय तिविहा मूढा पण्णता, तं जहानागमूढा दंसणमूढा, चरिता 1 १. ठाणं. व. २, उ. ४, सु. ११५ ३. ठा. अ. २, उ. ४, सु. ११५. - ठा. अ. ३, उ. २, सु. १६४ आधारसमाही ७६. चविवहा खलु आवारसमाही भव में जहा १. मोहोट्टयाए आया रमहिदुज्जा, २. नो परोया आपारमहिण्या ३. नोोगाए आपार महिमा, २. ४ इसी (पूर्वोक्त) प्रकार से चारित्र को मध्यम आराधना के (फल के विषय में कहना चाहिए। प्र० -- भगवन् ! ज्ञान की जघन्य आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है,मासदुःखों का अन्त करता है ? आचार-प्रति [2 उ०- पीतम कितने ही जीव तीसरा भव ग्रहण करके सिद्ध होते है.पात्करते हैं। परन्तु सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करते। इसी प्रकार जघन्य दर्शनाराधना के ( फल के विषय में समझना चाहिए । इसी प्रकार जघन्य चारित्राराधना के फल के विषय में भी तीन प्रकार की बोधि- ७६ तीन प्रकार की कही गई है (१) ज्ञानबोधि (२) दर्शनवोधि, (३) नारित्रबोधि । तीन प्रकार के बुद्ध- ७६. बुद्ध तीन प्रकार के कहे ये हैं (१) ज्ञानबुद्ध, (२) दर्शनबुद्ध, (३) चारित्रबुद्ध | तीन प्रकार के मोह ७७. मोह तीन प्रकार का कहा गया है-(१) शाम (२) दर्शनमोह (३) चारिनमोह तीन प्रकार के मूर्ख ७८. मूढ़ तीन प्रकार का कहा गया है(१) ज्ञानमूढ़, (२) दर्शन अ. अ. २, उ. ४, सु. ११५ ठाणं. अ. २, उ. ४, सु. ११५ । (३) चारित्रमूह | आचार समावि ७६. आवार समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे (१) दहलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना । (२) परलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना । (३) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] चरणानुयोग कल्पस्थिति (आचार-मर्यादा) सूत्र ७६.८० ४. नन्नत्य मारहतेहि हेऊहिं आयारमहिज्जा , (४) आहत-हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से घउत्थं पयं मसह। आचार का पालन नहीं करना—यह चतुर्थ पद है। भवद य इत्य सिलोगो यहाँ (आचार-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक हैजिणवयणरए अतितिणे परिपुरणाययमाययदिए । जो जिनवचन में रत होता है, जो प्रलाप नहीं करता, जो आयारसमाहिसंवुडे भवह य दंते भावसंधए ॥ सूचार्य से प्रतिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह ---दस. अ.६, उ. ४, मु. ४, गा.५ आचार-समाधि के द्वारा मवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है। कप्पट्टिई कल्पस्थिति (आचार-मर्यादा)-- ५०. छभिवहा कप्पट्टिई पणत्ता, तं जहा ८०. कल्पस्थिनि (निर्ग्रन्थों और निधियों की आचार मर्यादा) छह प्रकार की होती है । यथा१. सामाइय-संजय-कम्पट्ठिई, (१) सामायिकसंधतकल्पस्थिति-सामायिक चारित्र सम्बन्धी मर्यादा । २. छेओवट्ठावणिय-संजय कप्पढिई. (२) छदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति-यावज्जीवन की सामायिक स्वीकार करते समय अथवा व्रत भंग होने पर पुनः पान महावतों के आशेषण रूप पारित्र की मर्यादा । मिजिकमा कहिल, (३) निविश्यमान कल्पस्थिति---गरिहारविशुद्धि तप स्वीकार करने वाले की आजार मर्यादा। ४. निस्विटुकाय कप्पदिई, (४) निविष्टकायिक कल्पस्थिति–पारिहारिक तप पूरा करने वाले की आचार मर्यादा । ५. जिणकप्पट्टिई, (५) जिनकल्पस्थिति-गच्छ से बाहर होकर तपस्यापूर्वक जीवन बिताने वाली आचार मर्यादा । ६. थेरकापट्टिई। (६) स्थविरकल्पस्थिति गच्छ के आचार्य की आचार -कप्प. स. ६. सु.२० मर्यादा। CO Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८१-८४ चार प्रकार की शुत समाधि मानाचार ५५ णाणायारो ज्ञानाचार चब्धिहा सुयसमाही चार प्रकार की श्रुत समाधि-- ८१. चम्विहा पतु सुयसमाहो भवइ तं जहा ११. श्रुत-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे१. सुयं मे भविस्तइति अज्माइयथ्य भवन (१) "मुझे धुत प्राप्त होगा", इसलिए अध्ययन करना चाहिए। २. एगरगचिसो भविस्सामि ति बन्झाइयहवं भवन (२) "मैं एकाग्र-चित्त होऊँगा", इसलिए अध्ययन करना चाहिए। ३. अम्याण ठावहस्सामि सि अज्झाइयध्वं भवह (३) "मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूगा।", इसलिए अध्ययन करना चाहिए। ४. ठिओ पर ठामस्सामिति अजमाइयवं भषाद । (1) "मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थापित चउस्य पयं भवह। करूंगा", इसलिए अध्ययन करना चाहिए। मह चतुर्थ पद है भवद य इत्य सिलोगो और यहाँ (श्रुत-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है-- नाणमेगगचित्तो य, ठिओठावयाई परे। अध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है चित्त की एकाग्रता होती है, सुथाणि य अहिज्जित्ता, रओ सुयसमाहिए ॥ धर्म में स्थित होता है और दूसरों को स्थिर करता है तथा -दस. अ., उ. ४, सु. ७, ८ अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुत-समाधि में रत हो जाता है। अविहो णाणायारो आठ प्रकार के जानाचार१२. काले विगए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिम्हणे । ८२. जानाचार आठ प्रकार का है-- वंजग-अत्थ-दुभए, अविहो माणमायारो ॥ यथा-(१) कालाचार, (२) विनमाचार, (३) बहुमाना--आचारांग टीका अ. १, ३. १, गा. ७, चार, (४) उपशनाचार, (५) अनिन्हवाचार, (६) व्यंजनावार, (७) अर्थाचार, (८) तदुभयाचार । णाणुप्पण्णाणकूलो षयो-- , ज्ञान की उत्पत्ति के अनुकूल वय-- ५३. तो क्या पण्णता, तं जहा ८३. वय (काल-कृत अवस्था-भेद) तीन कहे गये हैंपडमे वए, मज्झिमे बए, पच्छिमे बए। यथा--प्रथम वय, मध्यम वय और अन्तिम बय । तिहिं वह अश्या केवलमाभिगिजोहियणाण उप्पाडेजा, तीनों ही वयों में आत्मा विशुद्ध आभिनिवोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है-जाव–तिहि वएहि आया केवलनाणं उप्पाडेजा, -यावत्-तीनों ही क्यों में आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को तं जहा-- प्राप्त करता हैपढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। यथा-प्रथम वय में, मध्यम वय में और अन्तिम वप में। पाणुप्पण्णाण फूलो कालो ज्ञान की उत्पत्ति के अनुकूल काल-- ६. तमो जामा पण्णत्ता, तं जहा ५४. तीन (वाम) प्रहर कहे गये हैंपहमे जामे, मजिसमे जामे, पच्छिमे जामे । यथा-प्रथम याम, मध्यम याम, अन्तिम याम । १. आगमों में ज्ञानाचार विषयक यत्र तत्र जितने सूत्र हैं उनका वर्गीकरण करने के लिए ज्ञानाचार के इन आठ भेदों का कथन यहां निर्देश किया है। आगे क्रमसः ज्ञानाचार के आठ भेदों का वर्णन है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] घरमामुपोग झान की उत्पत्ति और अनुत्पति भूत्र ८४-८५ तिहि जामेहि माया फेवलमार्मािणबोहिययाणं उप्पाडेजा, तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध अभिनिचोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है--जाव-तिहि जामेहि आया केवलणाणं उत्पति - पीनों कार में भारत केवलज्ञान को सं जहा प्राप्त करता हैपहमे जामे, मनिझमे जामे, पछिमे जामे । यथा-प्रथम याम में, मध्यम वाम में और अन्तिम वाम में । --ठाणं, अ. ३, 3. २, सु. १६३ जिणपवयणं सोच्चा आमिणिबोहियणाणस्स जाव केवल- जिनप्रवचन सुनकर आशिनिबोधिक ज्ञान-यावत्नाणस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्ति केवलज्ञान को उत्पत्ति और अनुत्पत्ति - ८५.५०सोच्चा गं भंते ! फेवलिस वा -जाव-तपक्खिय- ८५. प्र० भन्ते ! केवली से यावत् -- केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा केवलं आभिणियोहियनाणं-जाव -- निका रो सुनकर कोई जीप आभिनिबोधिकज्ञान-पावत् - केवलनाणं उत्पाज्जा ? केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है? उ०-गोयमा ! सोच्याण केवलिस्त वा-जाव-सप्पक्खिय- उ...गौतम ! केवली से --यावत् -केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा अरपत्तिए केवतं आभिणियोहिय- सिका से सुनकर कई जीव आभिनिवाधिकज्ञान -यावत् -केवलनाणं-जाव-केवलसाणं उप्पाडेज्जा, अस्थेत्तिए ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और कई जीव आभिनिबोधिकज्ञान केवलं आभिणिनोहियनागं-जान-केबलनाणं नो -यावत् - केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अप्पाज्जा । 4०-से केणटुंणं भंसे ! एवं बुचड़ प्र० - भन्ते ! विस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैसोच्चा णं केवलिस्त वा-जात्र-तपरिषयउवासि- केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर याए वा अत्थेगसिए केवलं आभिणियोहियनाणं कई जीव आभिनिबोधिक ज्ञान -यावत् – केवलज्ञान प्राप्त कर - जाव–फेवलनाणं उप्पाज्जा, अत्येत्तिए फेवस सवाते हैं और कई जीव आभिनिवाधिक शान -यावत् – केबलआमिणिरोहियनाणं-जाव.-केबलनाणं नो उत्पा- ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं? डेज्जा ? 30---गोयमा | जस्प्त णं आमिणियोहियनाणावरगिजाणं 3०-गौतम ! जिसके आभिनियोधिक ज्ञानावरणीय कर्मों कम्माणं-जाब--केवलनाणावरणिज्जाणं कम्मागं का -यावस्–केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है खाओवसमे को भवद से णं सोच्चा केलिस्स वा वह केवली से -पावत्-केवती पाक्षिक उपासिका से सुनकर -जाव-तपक्खियउवासियाए वा केवलं आभिणि- कई जीव आभिनिबोधिकज्ञान - यावत् केवलज्ञान प्राप्त कर बोहियनाणं-- जाब-फेचलनाचं उप्पाडेज्जा। सकते हैं। अस्स में आभिणियोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं जिसके आभिनिवोधिक ज्ञानाबरणीय कर्मों का -यावत—जावः केवलनाणावरणिज्जाणं कम्मरणं खीवसमे केवलज्ञानावरणीय कर्मो का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह केवली नो कदे भवाह से गं सोचा केवलिस्स वा-जाद-से-यावत् -केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर कई जीव तप्पक्खियउदवासियाए या केवलं आमिणियोहियनागं आभिनिबोधिकज्ञान-यावत-केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर -जाव----केवलनाणं नो उप्पारेन्जा। गकते हैं। से तेणढणं गोपमा ! एवं युच्चइ . गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैजस्स में आमिणिबोहियनाणावरगिजागं कम्माणं जिसके आभिनिबोधिक जानावरणीय कर्मों का यावत् - -जाव-केवलनाणावरणिम्जाणं कम्माणं खोयसमे केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है वह केवली से को भवन से गं सोचचा केबलिस्स चा-जाब-तप- -यावद--केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर कई जीव विसयउबासियाए वा फेवलं आमिणिबोहियनाणं आभिनिवोधिक-यावत-केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। -जाव-केवलनाणं उप्पाडेकमा । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५-६६ ज्ञान की उत्पत्ति और अनुत्त जमणं वाभिणियोहियनाणावरणाचं कामगं - जान केवल नागावर चिकना कम्मा खओवसमे नो कछे भव से णं सोचा केवलिल्स वा जाबसत्यवासिया मा केवल आभिणियोयिता -जय-चलनाणं मो उपजा । -- वि. स. ९, उ. ३१. सु. १३ जिणपषयणं असो वा आभिणियोयिणाणस्स जाय केवलनाणस्स उपसि-अनुत्पत्ति- ८६. ० - असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वर जाव तम्पविषय उपविधाए पर केवलं आभिणिवीहियनाथं जाय केवलनाव उपा? - उ०- गोयमा ! असोच्या णं केवसिस्स या जान-तप्पनिसिपाए वा अलिए वोह नागनाथं उपजा मत्येवलिएव आभिणि बोहियनागं जाव- केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा । प० ग भ एवं असोच्या केलिस या जान उपवासियाए वामिविया जान केवल नाणं उत्पादएव आभिणिदहिय ना-जान केवलनानं मी उपाक ? उ०- गीयमा ! अस्स णं आभिणिवोहिय नाणावर णिज्जाणं कम्माणं- जाव- केवलनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खम उसमे कडे भव से णं असोच्छा केवलिस वा जाव प्यासिवाए केवलं मिडिया - जाव- केवलनाणं उपज्जा | जस्त पं अभिणिबोहियनाणावरणियाणं कायार्ण - जाव के बलना । घर णिज्जाणं कम्माणं सओयसमे तो कडे मवह, से णं असोच्चा केवसिस्स वा जाव तप्प लिसिया या केवलं आणि नरोहियनाणं-वार से लेग में गीयमा ! एवं जस्स णं आभिणिबोहियनश्णावरणिजाणं कम्माणं जाय केवलनायावरणिया माणं खोकामे कडे मवई, से णं असोच्चा केवलिस वा जाव सप्पक्खियउपासियाए या केवलं आभिणिब्रोहियनागं जावकेवलनाणं उत्पाडेज्जा । असणं आभिणियोहियनागावर कम्माणं बाद केवलनाणावर निमार्ण मोगले नो www ज्ञानाचार [५७ जिसके अभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कर्मों का यावत्केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है नह केवली से- यावत् केमली पाक्षिक उपासिका से सुनकर कई जीव माभिनिवोधिज्ञान शायद केवलशान प्राप्त नहीं कर सकता हैं। जिनप्रवचन सुने बिना आभिनिवोधिक ज्ञान यावत् केवलज्ञान की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति ८६ प्र भन्ते ! केवली से याबद - केवली पाक्षिक उपासे सुने बिना कोई जीव आभिनियोधिज्ञान-माकेवलज्ञान प्राप्त कर सकता है ? उ०- गौतम ! केवली केली पाक्षिक उपा से बिना कई बीमाभिनियोधिज्ञान-पातकेवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और कई जीव आभिनिवोधिकज्ञान - यावत् केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । प्र० भन्ते । किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है केवली के यावत् केवली शक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव अभिनिवोधिकज्ञानात्केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और जीव आभिनियोजन पायकेवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं ? उ०- गौतम ! जिसके अभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कम का पावत्- केवलज्ञानावरणीय कर्मो का क्षयोपशम हुआ है वह केवली से - यावत् केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव आभिनियोधिकज्ञानवाद केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जिसके आभिनिबोधक ज्ञानावरणीय कर्मो का यावत्केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह केवली से पायत् — केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव अभिनिबोधिताना केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है। जिसके अभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय कर्मों का केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है वह केवली से - यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव आभिनिबोधिकज्ञान यावत् — केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । जिसके अभिनिबोधक ज्ञानावरणीय कर्मों का पावत्केवलज्ञानावरणीय कमों का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह केवली Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] घरणानुयोग विमंगशाम की उत्पत्ति सूत्र ८६-८ -. . . कडे भवद से असोन्चा केवलिस वा जाव-सप्पक्लि- से—धावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव पउवासियाए वा केत्रलं आमिणियोहियनाणं-जाध- आभिनित्रोधिकज्ञान-यावत् केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर केवलनाणं नो उप्पाग्जा। मकते हैं। –वि. स. ६,उ. ३१, सु. ३२ विमंगणाणोपति विभंगज्ञान की उत्पत्ति६७. तस्स णं छ'छ?णं अनिषिखतेणं तवोफम्मेणं उर्जा बाहाओ ८७. निरन्तर छर-छठ (विले-बेले) का तपःकर्म करते हुए सूर्य के पगिनिमय पगिजिमय पूराभिमुहस्स आयायणभूमीए आयावे. सम्मुख बाहें ऊँची करके आतापनाभूमि में आनागना नेते हुए माणस पप्तिमदयाए पगहउवसंतयाए पतिपयणुकोह उस (बिना धर्म श्रवण किये केबलशान तक प्राप्त करने वाले) माण-माया-लोभयाए मिउमदवसंपन्नयाए अल्लीणताए भताए जीव की प्रकृति भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक विणीतताए अण्णया कयाइ सुमेणं अमावसाणेणं, सुमेणं रूप से ही क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने परिणामेणं, लेस्साहि विसुज्ममाहिं तयावरणिज्जरणं से अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता कम्मागं खओबस मेणं ईहापोहमागणा-गवेसणं करमागस्स और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिविम्मगे नाम उमाणे समुपज्जइ, णाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) को के क्षयोपशम से ईहा, अगोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए (विभंग) नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। से णं सेणं विग्मंगनाणेणं समुप्पानेणं जन्मेणं अंगुलस्म फिर बह उस उत्पन्न हा विभंगशान नाग जघन्य अंगुल के असंखेज्जदमार्ग, उपकोसेणं असंखेग्जाई जोयणसहस्साई जाण असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यान हजार योजन तक पासइ, जानता और देखता है। से गं तेणं विस्मंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीये वि जागइ, उस उत्पन्न हुए विभंग ज्ञान से वह जीवों को भी जानता है अनौवे वि जागाइ, और अजीवों को भी जानता है। पासंस्थे सारंभे सपरिगहे संकिलिस्समाणे वि जाणद, वह पाषण्डम्य, मारम्मी (आरम्भयुक्त), पारिग्रह (परिग्रही) विसुजनमाणे वि जाणा, और संक्लेग पाते हुए जीत्रों को भी जानना है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है। से पुस्खामेव सम्मसं पडिवज्जद, सम्म पडिजिता (तत्पश्चान्) बह (विभंगज्ञानी) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरितं पडिवज्जइ, करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके थमणधर्म पर मचि करता है, चरितं परिवमित्ता लिंग परिवजह, श्रमणधर्म पर रुचि करके नारित्र अंगीकार करता है। सारित्र अंगीकार करके लिंग (साधु वेश) स्वीकार करता है। तस्स पं लेहि मिन्छत्तपज्जवेहि परिहायमाहि परिहायमाहि, तब उस (भूतपूर्व विभगज्ञानी) के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः सम्मइसणपजवेहि परिषढमाणेहि परिषड्डमाणेहि से क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ने-बढ़ते विभंगे अलाणे सम्मत्तपरिगहिए सिप्पामेव ओहो पराबत्तइ। वह "विभंग" नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र -वि. स. ६, उ. ३१, मु. १४ ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। गाणस्स पहाणत्तं-- ज्ञान की प्रधानता८८. नागेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । त्त,अ. २८, गा. ३० ८८. ज्ञान के बिना चारित्र गुण की प्राप्ति नहीं होती है । पठम नाणं तमो वया, एवं चिट्ठए सव्वसंजए। पहले ज्ञान फिर दया--इस प्रकार सव मुनि स्थित होते अनाणो कि काही, किंवा नाहिद सेय-पावगं ।' है। अज्ञानी क्या करेगा? वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप? १ अशानी को हेप, सेय, उपादेय का विवेक नहीं होता है, यह विवेक ज्ञान से ही सम्भव है अतः ज्ञानाचार को सर्वप्रथम स्थान देना संगत है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२ सोचा जागद फलाणं, सोन्ना जाणइ पावगं उभयं पि जाण सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ ज्ञान से संगम का परिज्ञान नाणेण संजन परिया ८. जो जीवे विन या गाड़, अजीवे वि न पाई । जीवाजीवे अतीक तो नाहि संज भाणेण न संसार भ्रमणं - १०० जो जीवे वि विषाणाइ, अजोवे वि विद्यापई । जीव जीवे तो नाहिद संगम ॥ स. अ. ४, गा. ३३-३४ उ०- नामसंवाद पाए पं भते जीवे कि जगवद्द ? - दस. अ. ४, गा. १२-१३ जीये सत्यमायाभिरामं जगह। नाणसंपन्ने णं जीवे नाजरन्ते संसारकन्तारे न विपस्सइ । जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्स । वहा जीससे संसारे न विणत्त ॥ ― नाविणतचरितजोगे संपाउण्ड ससमय-परसमय संधार्याणि भवद । मुप-आराहणा फलं ११. ५० – सुरस आराहणपाए थे अंते 1 जोवे किं अणय ? उ०- सुपरस आराहणयाए अश्राणं वेद न य संकिलस्सइ ॥ -- उत्त. अ. २९, सु. २६ जाणेण निव्वाणपति ६२. जया जोबे अजीवे य, दो दि एए वियाणई तया गई बहुविहं सच्वजोवाण जाई ॥ ५६ जपा गई बहुविहं, सभ्य जीवाण जागई । तया पुष्णं च पावं च, बंधं मोक्षं च लागई ॥ जया पुष्णं च पादं च बंध मोश्वं च जागई । हानिदिए भने मासे ॥ जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं । वह उनमें जो श्रेय है उसी का आवरण करे । शान से संयम का परिज्ञान ८६. जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता वह जीव और अजोव को न जानने वाला संयम को कैसे जानेगा ? ( ज्ञान सम्पन्न ) अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा स्वसमय और परसमय -- उत्त. अ. २६, सु. ६१ की व्याख्या या तुलना के लिए प्रामाणिक पुरुष माना जाता है । श्रुत-आराधना का फल जी जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है वहीं, जब और अजीव दोनों को जानने वाला ही, संयम को जान सकेगा । ज्ञान से संसार भ्रमण नहीं ६०. प्र० -- भन्ते । ज्ञानसम्पन्नता ( श्रुतज्ञानसम्पन्नता) से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ० - ज्ञान सम्पन्नता से वह सब पदार्थों को जान लेता है । ज्ञान-सम्पन्न जीव नार गतिरूप चार अन्तों वाली संसार-अटवी में दिन नहीं होता। जिस प्रकार ससूत्र ( धागे में पिरोई हुई ) सुई गिरने पर भी मुम नहीं होती, उसी प्रकार समूह (भुत सहित ) नीव संसार में रहने पर भी विनष्ट नहीं होता। ६१. प्र० भन्ते ! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०- श्रुत की आराधना से अज्ञान का क्षय करता है और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक संक्लेशों से बच जाता है । शान से निर्वाण प्राप्ति ६२. जब मनुष्य जीव जोर अजीब इन दोनों को जान लेता है उब यह सब दीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। जब मनुष्य सब जीवों को बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह पुण्य पाप बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। जब मनुष्य पुण्य पाप बन्ध और मोक्ष को जान लेता है। तब जो भी देवों और मनुष्यों के भोग हैं उनसे विरक्त हो जाता है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] चरणानुयोग नया निब्बियए भोए, जे विश्वे जे य माणुसे । तया चयह संगो समितरबाहि " संजोगं, समितरबाहि जया चयह तथा भविता पचइए अणगारियं ॥ अपगारिथं । अणुतरं ॥ अनुसर फासे । जया मुण्डे भविता पाइए तया जया संरक्nिg", धम्मं फासे संवरविरुद्ध का या पुणेड़ सम्बर, अमोहक सु शाम से निर्माण प्राप्ति जया धुणइ कम्मर, अबोहिकसं तया सवलगं नाणं, दंसणं मि ।। कर्ड | ।। जपा सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छाई । तथा लोगमलोगं च, जिणो जागव केवली ॥ जब मनुष्य दैविक औरों से विरक्त हो जाता है तब यह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है । सूत्र १२ जब मनुष्य आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है। तब वह मुंड होकर अनमार-वृत्ति को स्वीकार करता है। जब मनुष्य मुंड होकर मनवार-वृत्ति को स्वीकार करता है तब वहु उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है । जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोधि- रूप पाप द्वारा संचित कर्म रज को प्रकम्पित कर देता है। जब गन्रष्टा अवधि- रूप पाए द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है तब वह सर्वत्र गामी ज्ञान और दर्शनकेवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है । जन मनुष्य सर्वत्र यामी शान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक भलोक को जान लेता है । — १ आभ्यन्तर संयोग — क्रोध, मान, माया, लोभ आदि । बाह्य संयोग क्षेत्र, वास्तु, हिरण्यक, सुवर्ण, स्वजन, परिजन बादि २ (क) मुण्ड दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यगुण और भावमुण्ड, केश चुम्बन करना द्रव्यमुण्ड होना है। इन्द्रियों के विषयों पर विजय कोक और भावको मानसिक मुष्ट कहते हैं। प्राप्त करना भावण्ड होना है। (ख) स्था. अ. १०, सु. ७४६ में दस प्रकार के मुण्ड कहे हैं। यथा मुड दस प्रकार के कहे गये हैं। जैसे- १. श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड - श्रत्रेन्द्रिय के विषय का मुण्डन (त्याग) करने वाला २. क्षुरिन्द्रियमुण्ड क्षुरिन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाल । | ३. प्राणेन्द्रियमुण्ड: प्राणेन्द्रिय के विषम का मुण्डन करने वाला । ४. रयिण्डरसनेन्द्रिय के विवय कानुन करने वाला १. स्पनेद्रियमुदस्वर्धनेद्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला। - ६. क्रोधमुण्ड - क्रोध कषाय का मुण्डन करने वाला । ७. मानमुण्डमान कषाय का मुण्डन करने वाला । 5. मायामुण्ड - माया कपाय का मुण्डन करने वाला । ६. लोभमुण्ड – लोभ कषाय का मुण्डन करने वाला १०. रोड सिर के केशों का मुण्डन करने वाला दस मुण्डा पण्णत्ता, तं जहा सोतिदियमुण्डे ( चक्खि दियमुण्डे, घाणिदियमुण्डे, जिम्भिदियमुण्डे, फासि दियमुण्डे, कोहमुण्डे, मागमुण्डे गावडे, श्रीर ३ देशविरत का संवर देशसंबर है अत जघन्य संवर है । सर्वविरति का संवर सर्वसंबर है इसलिए उत्कृष्ट संघर है । ४ बोध रहित दशा अर्थात् अज्ञान दशा या मिथ्यात्वदशा को अवरोधि कहते हैं। जब तक व्यक्ति बोधरहित रहता है तब तक ही पापकर्म करता है । ५ आत्मा का आवरण कर्मरज है, उसके धुन देने से केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप आत्मस्वरूप प्रकट हो जाता है । ६ केवलज्ञान से लोकव्यापी समस्त पदार्थों को तथा अलोक को केवलज्ञानी जान लेता है। ७ स्थानांग सूत्र, स्था. ३, उ. ४, सूत्र २२० में तीन प्रकार के जिन भर तीन प्रकार के केवली कहे हैं, किन्तु यहाँ केवलज्ञानी केवल और केवल बिन कहे गये है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र २ नाम से निर्वाण प्राप्ति ज्ञानाचार जया खोगमलोगं च, जिणी जाणह केवलो। जब मनुष्य जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान सपा जोगे निकम्मित्ता, सेलेसि परिवज्जई। लेता है तब वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। जया जोगे निकभिता, सेलेसि पडिवज्जई। ___ जब मनुष्य योग का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त सया काम खविताणं, सिद्धि गच्छा नौरओ। होता है तब वह कर्गों का क्षय कर रज-मुक्त बन सिद्धि को प्राप्त करता है। जया कम वित्ताणं, सिद्धि गच्छा नीरओ। जब मनुष्य कर्मों का क्षय कर रजमुक्त बन सिद्धि को प्राप्त तया लोगमापयत्यो', सिखो हबह सासओ। होता है तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध -दस, अ, ४, गा.१७-४४ होता है। वहिं ठाहिं संपणे अणणारे अणावीयं अणवाग बोहम इन दो स्थानों से सम्पन्न अनगार (माधु) अनादि अनन्त चाउरतं संसारकतार बीतिवएग्जा, दीप मागं वाले एवं चतुर्गति रूप विभाग वाले संसार रूपी गहन वन को पार करता है, अर्थात् मुक्त होता है। तं जहा-बिज्जाए चेव चरण चेव । यथा-१. विद्या से (ज्ञान), और चरण (चारित्र) से। --ठाणं. अ.२, उ.१, सु.५३ *.* १ सूक्ष्मकिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान में योगों का निरोध होता है। योग निरोध का क्रम इस प्रकार है-. सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध होता है, पश्चात् पचनयोग का निरोध होता है, तत्पश्चात् काययोग का निरोध होता है। इसके लिए देखिए उसराध्ययन अ. २६, सू. ७२ २ शैल+ई =शैलेश, मेह का नाम है, मेक के समान अडोल, अकम्प, अवस्था शैलेशी अवस्था है। कम्पन योग-निमित्तक होता है, योगरहित आस्मा में कम्पन नहीं होता है, अतः योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। जहाँ तक कम्पन है वहाँ तक आत्मा मुक्त नहीं होता इसके लिए देखें भगवती. शत. १७, उद्दे. ३ ३ कर्मों का क्षय करके रजमुक्त आत्मा लोक के मस्तक पर किस प्रकार स्थित होता है ? यह रूपक है जहा मिउलेवालित, गरुयं तुम्ब अहो वयह एवं । आसवकयतुम्बगुरू, जीवा वच्चंति अहरगई ॥ तं व तस्विमुक्क, जलोवरि ठाइ जायलहुभावं । जह सह कम्मविमुक्का, लोयगपट्टिया होति ॥ -ज्ञाताधर्म कथा-श्रुत. १, अ. ६ तुम्बे का रूपक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] परणानुयोग काल प्रतिलेखना का फल सूत्र६३-६६ पढमो कालणाणायारो प्रथम काल-ज्ञानाचार कालपडिलेहणा फलं काल प्रतिलेखना का फल६३.५०—कालपरिहणपाए जं भंते ! जीवे किं नणया? १३. प्र०-भन्से ! काल-प्रतिलेखना (स्वाध्याय आदि के उपयुक्त समय का ज्ञान करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ...कालपडिलेहणयाए नाणावरणिन्ज कम्म बेट। उ०-काल-प्रतिलेखना से बह ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण -उत्त. अ. २६ सु. १७ करता है। सज्झायकालस्स पडिलेहणं-- स्वाध्याय काल-प्रतिलेखना६४. विवसस्स चउरो भागे, कुज्जा मिवयू वियकखणे । १४. विपक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे। उन चारों भागों तओ उत्तरगुणे कुज्जा, विणभागेसु उसु वि॥११॥ में उत्सर-गुणों (स्वाध्याय आदि) को माराधना करे। जं ने जया रति, नकबत्तं तंमि तह चउभागे। जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह (नक्षत्र) जव संपत्ते विरमेउजा, सम्साय पओसकालम्मि ॥१६॥ आकाश के चतुर्थ भाग में आए (प्रथम प्रहर समाप्त हो) तब प्रदोष काल (रात्रि के प्रारम्म) में प्रारब्ध स्वाध्याय से विरत हो जाए। तम्मेव य नक्षत्ते, गयण चजम्मागसायसेसंमि । वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे तथ वेरतियं पि कालं, पहिलेहिणा मुणो कुज्जा ॥२०॥ वैरानिक काल (रात का चतुर्थ प्रहर) आया हुआ जानकर फिर -उत्त अ. २६ स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाय । सज्माय-माणाइ फाल विवेगो स्वाध्याय ध्यानादि का काल विवेक६५. पढम पोरिसिं सम्माय, बीयं मागं लियायई । १५. प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे में ध्यान करे। तीसर सइयाए मिक्खारिय, पुणो चउस्यीए समायं ।। में भिक्षाचरी और चौधे में पुनः स्वाध्याय करे । -उत्त. अ. २६, गा. १२ पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पखिलहिया । चौथे प्रहर में काल की प्रतिलेखना कर असंयत व्यक्तियों ससायं तु तो कुज्जा, अबोहेन्तो असंजए॥ को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे । -उत्त, अ. २६, गा. ४४ णिगंथाणं विइगिद्रकाले सज्मायकाल निसेहो व्यतिकृष्ट काल में निर्ग्रन्थों के लिए स्वाध्याय निषेध-- १६. नो कप्पा निवागं विइगिट्ठ काले समायं उद्दिसित्तए ६६. निग्रंन्यों का व्यतिकृष्टकाल (विपरीत काल-कालिक आगम बा करेत्तए था। को स्वाध्याय काल में उत्कालिक आगम का स्वाध्याय करना -बव, उ. ७, सु. १४ तथा उत्कालिक आमम के स्वाध्यायकाल में कालिक आगम का स्वाध्याय करना) में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है। १ (क) कालप्रतिलेखना-यह काल किस क्रिया के करने का है ? यह निरीक्षण करना काल-प्रतिलेखना है। (ख) प्रमाद रहित साधक काल-प्रतिलेखना से स्वाध्याय का काल जानकर स्वाध्याय करे तो उसे जानावरणीय कर्म का क्षय होता है। (ग) आवश्यक अ. ४ में काल-प्रतिलेखना सूप में काम के अतिक्रम आदि दोषों की शुद्धि का पाठ है । २ व्यतिकृष्ट काल दो प्रकार का है—१. कालिक व्यतिकृष्ट, २. उल्कालिक व्यतिकृष्ट । कालिक यतिकृष्ट —दिवस और रात्रि के प्रथम तथा चतुर्थ प्रहर को छोड़कर वितीय और तृतीय प्रहर में कालिक आगमों का अध्ययन कराना एवं स्वाध्याय करना। उत्कालिक व्यतिकृष्ट-चार सन्ध्याओं में उत्कालिक आगमों का अध्ययन कराना तथा स्वाध्याय करना । कालिक और उत्कालिक आगमों की संख्या श्रुत शान के विभाग में देखें। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७.१०१ निप्रन्थिनी के लिए स्वाध्यापिका नवागार १६३ R निग्गंयोणं विगिट्टकाले सज्झायविहाणं-- निर्गन्थिनी के लिए स्वाध्याय विधान१७. कम्पा निग्गंधीणं विगिट्ठए कासे समायं करेतए निरगंय ६७. निर्ग्रन्थ की निश्रा में निन्थियों को व्यति कुष्टकाल में (भी) निस्साए। -बव. उ. ७ सु. १५ स्वाध्याय करना कल्पता है । निग्गंथ-निग्गंथीण सज्शाययिहाणं निन्थ निर्ग्रन्थिनी हेतु स्वाध्याय काल विधान-- १. कप्पह निागंथागं वा निगंथीर्ण मा सझाइए सज्झार्य ९८. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को स्वाध्यायकाल में (ही) करेतए। - वद. उ. ७, मु. १७ स्वाध्याय करना कल्पता है । कप्पड गिरगंथाणं पाणिग्गंधीण वा चाउदककाले समायं निग्रन्थों और निग्रंथियों को चार कालों में स्वाध्याय करना करेसए, तं जहा कल्पता है, जैसे-- पुस्खण्हे, १. पूर्वाह्न में-दिन के प्रथम प्रहर में। अवरव्हे, २. अपराह्न में-दिन के अन्तिम प्रहर में। पओसे, ३. प्रदोष में-रात के प्रथम प्रहर में। परचूसे। -टाणं, उ. सु. २८५४. प्रत्यूष में रात के अन्तिम प्रहर में। निग्गंथ-निग्गंथीणं असज्झायकाल विहाणं निम्रन्थ-निग्रन्थिनी हेतु अस्वाध्याय काल विधान-- &t. नो कप्पद निग्गंधाण वा लिगंभोण बा असज्माइए समायं ६९. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को अस्वाध्याय काल में करेत्तए । -वच. उ. ७, सु. १६ स्वाध्याय करना नहीं करूपता है। चन्यिहो असनमायकालो चार प्रकार का अस्वाध्याय-काल-. १००, णो कप्पणिग्गंधाण या णिम्गमीण वा चहि समायं १००. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार सन्ध्याओं में स्वाध्याय करेत्तए, तं जहा-. करना नहीं करूपता हैं, जैस१. पढमाए, १. प्रथम सन्ध्या-- सूर्योदय का पूर्वकाल । २. पच्छिमाए. २. पशिचम सन्ध्या-सूर्यास्त के पीछे का काल । ३. माहे २. मध्यान्ह सन्ध्या---दिन के मध्य समय का काल । ४. अरसे । , -ठाणं. ४, र. २, मु. २८५ ४. अर्धरात्र-सन्या-आधी रात का समय । चउसु महापाडियएसु सम्झायणिसेहो चार महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय निषेध..१०१ णो कप्पद णिग्गंयाण वाणिग्गयोण वा चहि महापाडिवएहि १०१, निर्ग्रन्थ और निन्थियों को चार महामतिपदाओं में समायं करेसए, तं जहा स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, जैसे-- १. आसाङपाडियए, १. आषाढ़ प्रतिपदा- आषाड़ी पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली सावन की प्रतिपदा । २. इंदमहपाहिए, २. इन्द्रमह प्रतिपदा-आसौज मास की पूर्णिमा के पश्चात् आने बाली कार्तिक को प्रतिपदा । ३. कतियपाविषहे, ३. कार्तिक-प्रतिपदा-~~-कातिक पुर्णिमा के पश्चात् आने वाली मगसिर की प्रतिपदा । V १ क्षेत्र व्यतिकृष्ट और भाव व्यतिकृष्ट ये दो प्रकार के शिष्य होते हैं. इन्हें आगमों का अध्ययन करना निषिद्ध है। २ इन चार मन्ध्याकालों में एक-एक मुहूर्त अस्वाध्याय काल रहता है, सन्ध्याकाल से पूर्व एक घड़ी और पश्चात् एक घड़ी इस प्रकार एक मुहूर्त होता है। IRAL Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] चरणानुयोग चार महा प्रसिपवाओं में स्वाध्याय निषेध सूत्र १०१ ४. सुगिम्हगपाडिवए। ४. सुपीष्म-प्रतिपदा-पंत्री पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली -अणं, ४, उ. २, सु. २८५ वैशाखी प्रतिपदा । इन चार पूपमा म और पार मतदाओं में स्वाध्याय न करने के दो कारण है१. स्वाध्याय करने वाले के साथ मिथ्यादृष्टि देव छलना न करें। २. इन दिनों विकृतिवाला आहार अधिक मिलता है, इसलिए स्वाध्याय में मन नहीं लगता है। निशीय उद्दे. १९, सूत्र १२ में चार महाप्रतिपदाओं का कथन इस प्रकार है-चैत्र कृष्णा प्रतिपदा, आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा, भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा और कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा । स्थानांग में कथित चार महाप्रतिपदाओं में-आश्विन कृष्णा प्रतिपदा के स्थान में यहाँ भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा का कथन है । यह अन्तर या तो वाचना भेद के कारण है, या स्थानांग संकलनकर्ता के देश में इन्द्र महोत्सव आश्विन महाप्रतिपदा का होता होगा और निशीथ संकलनकर्ता के देश में इन्द्र महोत्सव भाद्रपद महाप्रतिपदा को समापन्न होता होगा, अतः इन दो भित्र प्रतिपदाओं का कथन इन दो आगमों में हुआ है। निशीथ उद्दे. १६. सूत्र ११ में चार महा मह अर्थात् चार महामहोत्सव का कथन है । इन चार महोत्सव में स्वाध्याय करने का प्रायश्चित का विधान है । ये चार महा महोत्सव क्रमशः इन पूर्णिमाओं में होते हैं इन्द्र महोत्सव-आश्विन पूर्णिमा तथा आश्विन कृष्णा प्रतिपदा । राजस्थान में कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा । स्कन्द महोत्सव-कार्तिक पूर्णिमा तथा कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा । राजस्थान में- मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा । नाग महोत्सव-आषाढ पूर्णिमा तथा आषाढ कृष्णा प्रतिपदा ! राजस्थान में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा । भूत महोत्सव-चैत्र पूर्णिमा तथा चैत्र कृष्णा प्रतिपदा । राजस्थान में वैशाख कृष्णा प्रतिपदा । आश्विन पूर्णिमा के पश्चात् आश्विन कृष्णा प्रतिपदा गुजरात में प्रचलित पंचांग के अनुसार कही गई है। राजस्थान में प्रचलित पंचांग के अनुसार पूर्णिमा के पश्चात् कृष्णा प्रतिपदा भित्र मास की आती है। इसलिए ऊपर दोनों प्रतिपदाएँ लिखी हैं। इस सम्बन्ध में स्थानांग टीकाकार का लिखना इस प्रकार है आषाढस्य पौर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदासानप्रतिपदमेवमन्यत्रापि । नवरमिन्द्रमहः-अश्वयुक् पौर्णमासी, सुग्रीठम:चैत्रपौर्णमासीति । इह च यत्र विषये यतो दिवसान्महामहाः प्रवर्तन्ते यत्र तदिवसात् स्वाध्यायो न विधीयते महसमाप्तिदिन यावत् तच्च पौर्णमास्येव, प्रतिपदस्तुक्षणानुवृत्ति-सम्भवेन वय॑न्त इति । उक्तं च आषाढी इंदमहो, कत्तियं सुगिम्हाए य बौद्धन्यो । एए. महामहा खलु, सम्वेसि जाव पाडिवया । -आचारांग श्रुत. २, अ. १, उद्दे... सु. १२ में तथा भगवती शत. ६, उद्द. ३३ में इन्द्रमह आदि उन्नीस महोत्सवों के नाम हैं, साथ ही अन्य महोत्सवों के होने का भी निर्देश है । अन्य महोत्सवों को छोड़कर केवल चार महोत्सवों में हो स्वाध्याय न करने का विधान क्यों है-यह शोध का विषय है। इन्द्र महोत्सव आदि उत्सव भिन्न-भिन्न तिथियों में भी मनाये जाते हैं, जैसे पक्ष महोत्सव आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है, किन्तु लाट देश में प्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है, तो क्या लाट देश में अस्वाध्याय श्रावण पूर्णिमा के दिन रहेगा ? 'वर्तमान में इन निर्दिष्ट पूर्णिमाओं में ये उत्सव नहीं मनाए जाते हैं, इसलिए इन दिनों में अस्वाध्याय रखने का क्या हेतु है ? यह सब विचारणीय विषय हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ इस ओरालिए असम्झाए १०२. इस प्रकार के औवारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय ओलिए नए पते तं जहा १. बट्ट, २. मंसे, ३. सोणिते, ४. असुरसामंते, ५. सणसामंते, ६. चंदोवराए, ७. सुरोबराए, ानाधार [Ex दस प्रकार के औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय१०२. औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय दस प्रकार का कहा गया है। जैसे— १.२.३.४ ५. स्मशान के समीप होने पर, ६.७. सूर्यग्रहण शोणित, मांस, चर्म और अस्थि वे चार अस्वाध्याय कहे हैं । अस्वाध्याय के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव : द्रव्य - अस्थि, मांस, शोणित और चर्म ये चार अस्वाध्याय के द्रव्य हैं। क्षेत्र - अस्वाध्याय का क्षेत्र-साठ हाथ की सीमा में रहे हुए अस्थि आदि चार पदार्थ हैं। काल- अस्थि आदि जिस समय दिखाई दें, उस समय से तीन प्रहर का अस्वाध्याय काल है। भाव – कालिक, उत्कालिक आगमों का स्वाध्याय न करना । १ मनुष्य और तिर्यञ्च के औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय है । यहाँ केवल पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्यायों का उल्लेख है । टीकाकार २ (क) आगमोत्तरकालीन ग्रन्थों में यह कथन पंचेन्द्रियतियंञ्च की अस्थि आदि के सम्बन्ध में है। मनुष्य की अस्थि आदि के सम्बन्ध में द्रव्य और भाव का कथन तिर्यञ्च के समान है। क्षेत्र और काल के सम्बन्ध में कुछ विशेषताएं हैं, वे इस प्रकार हैं : क्षेत्र अस्थि आदि द्रव्य से सौ हाथ की सीमा पर्यन्त का क्षेत्र अस्वाध्याय क्षेत्र है । काल- मनुष्य की अस्थि दिखाई दे उस समय से अधि पर्यन्त का काल अस्वाध्याय काल है । (ख) स्त्री-रज का अस्वाध्याय काल-तीन दिन । यदि तीन दिन पश्चात् भी रजोदर्शन होता रहे तो अस्वाध्याय नहीं है । उपाश्रय या स्वाध्याय भूमि से दोनों पाश्र्वे भाग में या पृष्ठ भाग में सात गृह पर्यन्त बालक-बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात आठ दिन का अस्वाध्याय काल माना गया है। उपाश्रय के जिस ओर राजमार्ग हो उस ओर अस्वाध्याय नहीं माना जाता । मनुष्य की अस्थि सौ हाथ तक हो तो उसका अस्वाध्याय बारह वर्ष तक रहता है चाहे वह पृथ्वी में ही क्यों न गड़ी हो । विता में जली हुई एवं जल प्रवाह में बही हुई हड्डी स्वाध्याय में बाधक नहीं है । ३. स्वाध्याय स्थान के समीप जब तक मल-मूत्र की दुर्गन्ध आती हो या मल-मून दृष्टियोवर होते हों तब तक अस्वाध्याय नहीं है । ४ ममशान में चारों ओर सौ-सौ हाथ तक अस्वाध्याय क्षेत्र है । ५ (क) और ग्रहणको आधारिक (ख) चन्द्रग्रहण का अस्वाध्याय दो प्रकार का है— जघन्य १. यदि उदयकाल में चन्द्र ग्रसित हो गया हो तो चार अस्वाध्याय के हैं । २. यदि चन्द्रमा प्रभाव के समय ग्रहण ग्रसित अस्त हो तो चार प्रहर दिन के चार प्रहर रात के एवं चार प्रहर द्वितीय दिवस के। इस प्रकार बारह प्रहर अस्वाध्याय के हैं । लिए बिना है कि उनके विमान पृथ्वीका के बने हुए हैं। आठ प्रहर, उत्कृष्ट बारह प्रहर । प्रहर उस रात के एवं चार प्रहर आगामी दिवस के ये भाठ प्रहर (ग) सूर्यग्रहण का अस्वाध्याय दो प्रकार का है- १. जघन्य – बारह प्रहर, उत्कृष्ट सोलह प्रहर । -- १. सूर्य अस्त होते समय प्रसित हो तो चार प्रहर राव के और आठ प्रहर आगामी अहोरात्र के इस प्रकार बारह प्रहर अस्वाध्याय के हैं। २. यदि उगता हुआ सूर्य ग्रसित हो तो उन दिन-रात के आठ और आगामी दिन-रात के आठ - इस प्रकार सोलह प्रहर अस्वाध्याय के हैं। मेाच्छन्न आकाश के कारण यदि ग्रहण दिखाई न दे और सायंकाल में सूर्य ग्रसित हो, अस्त हो तो उस दिन रात और आगामी दिन-रात के सोलह अद्दर अस्वाध्याय के हैं । (ग) अन्य अन्तरिक्ष अस्वाध्याय कि है किन्तु और सूर्यग्रहण आकस्मिक नहीं है इसलिए अन्तरिक्ष अपाध्याय से भिन्न माना है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ वरणानुयोग औवारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय सूत्र १०२-१०३ ८. परगे, ६. रोयषुग्गहे" १०. उबस्सपास अंतो ओरा- ८. पतन-मरण प्रमुख व्यक्ति के मरने पर, ह. राजविप्लव होने लिए सरीरगे। पर १०, उपाश्चय के भीतर सो हाथ औदारिक कलेबर के होने -ठाणं. अ. १०, सु. ७१४ पर स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अप्पणो असज्झाए सज्झाय-निसेहो--: शारीरिक कारण होने पर स्वाध्याय का निषेध१०३.मो कापड निरगंधाण वा निग्गंधीण वा १०३. निर्ग्रन्था और निर्ग्रन्थियों को स्वशरीर सम्बन्धी अस्वाअपणो असमाइए समायं करेसए। ध्याय होने पर स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, किन्तु (वणादि कप्पा मं अन्नमनिस्स वायगं बलइसए। को विधिवत् आच्छादित कर) वाचना देना कल्पता है। -वब. उ. ७, सु.१५ १ (क) गाँव के मुखिया बड़े परिवार वाले और शव्यातर (जिसकी आज्ञा से मकान में ठहरे हो) की तथा उपाधय से सात घरों के अन्दर अन्य किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाय तो एक अहोरात्रि का अस्वाध्याय काल है । (ख) राजा की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा राज्य सिंहासन पर न बैठे तब तक स्वाध्याय करना निषिद्ध है। इसी प्रकार प्रमुख राज्याधिकारी (अमात्य, सेनाधिपति आदि) की मृत्यु होने पर जब तक नया राज्याधिकारी नियुक्त न कर दिया जाम तब तक स्वाध्याय करना निषित है। (4) जब तक अराजकता, अव्यवस्था एवं अशान्ति बनी रहे तब तक स्वाध्याय करने का निषेध है। २ (क) राजा या सेनापतियों के संग्राम, प्रसिद्ध स्त्री-पुरुषों की लड़ाई, मल्लयुद्ध या दो गांव के जन समूह का पारस्परिक युद्ध व कलह हो तो युद्ध समाप्ति के पश्चात् एक अहोरात्रि पर्यन्त अस्वाध्याय काल है। (ख) युद्ध में यदि अत्यधिक मनुष्य आदि मारे गये हों तो उस स्थान में बारह वर्ष तक स्वाध्याय करना निषेध है। ३ (क) उपाश्रय में पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य का पारीर पड़ा हो तो सो हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय क्षेत्र है। (ख) उपाश्रय के सामने से मृत शरीर ले जा रहे हो तो जब तक सौ हाथ से आगे न निकल जाय तब तक स्वाध्याय नहीं ___ करना चाहिए। (ग) छोटे गांव में मृत देह को जब तक गाँव से बाहर न ले जावें तब तक स्वाध्याय निषेध है। (घ) बड़े शहर में मोहल्ले से बाहर जब तक मृत शरीर को न ले जावे तब तव स्वाध्याय करने का निषेध है। (ङ) मृत शरीर दो प्रकार का है-१. दृष्ट---जो मृत शरीर दृष्टिगोचर हो वह, २. थुत अमुक स्थान में मृत शरीर पड़ा है-ऐसा किसी से सुना हो। दृष्ट और श्रुत मृत शरीर के सम्बन्ध में चार विकल्प १. मृत शरीर दिखाई नहीं देता है किन्तु दुर्गन्ध आती है। २. मृत शरीर दिखाई देता है किन्तु दुर्गन्ध नहीं आती है। ३. मृत शरीर दिखाई भी देता है और उसकी दुर्गन्ध भी आती है। ४. मृत शरीर दिखाई भी नहीं देता है और दुर्गन्ध भी नहीं पाती है। इनमें अन्तिम चतुर्थ भंग का अस्वाध्याय नहीं है, शेष तीनों भंगों का अस्वाध्याय है। प्रथम भंग में मृत शरीर की जहाँ तक दुर्गन्ध आती है वहां तक स्वाध्याय करने का निषेध है। द्वितीय भंग में साठ हाथ या सो हाय पर्यन्त अस्वाध्याय क्षेत्र है। पारदर्शक आवरणों से आवृत कलेवर अथवा विविध प्रकार के लेप से दुर्गन्ध रहित बनाया हुआ कलेवर द्वितीय भंग का विषय है। तृतीय भंग में जहाँ तक मृत शरीर दिखाई दे और जहां तक मृत शरीर को दुर्गन्ध आवे वहाँ तक अस्वाध्याय क्षेत्र है । चतुर्थ भंग स्वाध्याय का क्षेत्र है। ४ निर्मन्थ के आत्मसमुत्थ अस्वाध्याय एक प्रकार का है—यथा-व्रण, अर्श, भगन्दर आदि से बहने वाला रक्त, पूय आदि । निर्ग्रन्थी के आत्म-समुत्य अस्वाध्याय दो प्रकार का है—यथा-प्रथम-व्रण, अर्ण, भगन्दर आदि, द्वितीय-आर्तव, रजःलाव । ५ (क) निर्ग्रन्थ को स्वाध्याय स्थल से मौ हाय दूर जाकर व्रण आदि का प्रक्षालन कर उस पर राख के तीन आवरण बांधने के पश्चात याचना देना कल्पता है। (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४ बस प्रकार के अन्तरिक्ष अस्वाध्याय मानाचार [६७ बसविहे अन्तलिक्ख असउझाए दस प्रकार के अन्तरिक्ष अस्वाध्याय५०४. बसविधे अन्तलिमखाए असमाए पण्णत्ते, तं जहा- १०४. अन्तरिक्ष आकाश सम्बन्धी अस्वाध्यायकाल दश प्रकार का कहा गया है। जैसे१. उक्कावाते। १. उल्कापात-अस्वाध्याय--बिजली गिरने या तारा टूटने पर स्वाध्याय नहीं करना । २. दिसिका। २. दिग्दाह-दिशाओं को जलती हुई देजकर स्वाध्याय नहीं करना। ३. गम्जिते । ३. गर्जन-आकाश में मेवों की घोर गर्जना के समय स्वाध्याय नहीं करना। ४. विभुते । ४. विद्युत-तड़तड़ाती हुई बिजली के चमकने पर स्वाध्याय नहीं करना। (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) इसी प्रकार निर्घन्धी को भी सौ हाय दूर जाकर वण का विधिवत् प्रक्षालन करने और रात्र के तीन आवरण आतंक पर बांधने के पश्चात् बाचना देना या लेना कल्पना है। (ख) व्यवहारभाष्य में तथा हरिभद्रीय आवश्यक में अस्वाध्यायों का भिन्न प्रकार से वर्णन है, यथा असमाइयं च दुविह, आयसमुत्थं परसमुत्थं च । ज तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायध्वं ॥ व्यवहारभाष्य उई.७ अस्वाध्याय दो प्रकार के हैं-१. आत्मसमुत्थ और २. परसमुत्थ । आत्मसमुत्थ के भेद ऊपर कहे अनुसार हैं। परसमुत्थ के पांच भेद हैं-१. संयमघाती, २. औसातिक, ३. देवता प्रयुक्त, ४. व्युग्रहजनित, ५. शारीरिक । अस्वाध्याय के इन पाँच भेदों के प्रभेदों में सभी अस्वाध्यायों का समावेश हो जाता है । यथा-- १. संयमघाती-धूमिका, महिका, रजोघात । २. औत्पातिक-पांशु वृष्टि, मांस वृष्टि, रुधिर वृष्टि, केश बुष्टि, थिला वृष्टि आदि । ३. देवता प्रयुक्त-गंधर्व नगर, दिग्दाह, विद्युत, उल्कापात, यूपक, यक्षादीप्त, चन्द्र-ग्रहण, सूर्य-ग्रहण, निर्धात, गर्जन, अनभ्र, वचपात, चार सन्ध्या, चार महोत्सव, चार प्रतिपदा आदि। ४. व्युग्रजनित-संग्राम, महासंग्राम, इन्द्रयुद्ध, मल्लयुद्ध आदि । ५. शारीरिक अण्डज, जरायुज और पोतज का प्रसव, अथवा इनका मरण, इनके उभिन्न या अनुभिन्न कलेवर। माशिव महामारि आदि । व्रण, अशं, भगन्दर, ऋतुधर्म, गलित कुष्ठ आदि । (ग) अस्वाध्याय सम्बन्धी विशेष जानकारी के लिए प्रवचनसारोद्धार द्वार २६८ गाथा-४६४-४८५, व्यवहार उद्दे. ७ का भाष्य, हरिभद्रीय आवश्यक प्रतिक.मण अध्ययन, अस्वाध्याय नियुक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग १,२८३२ आदि देखें। तेतीस अशावनाओं में 'कालस्म आसायणाए' यह एक अशातना है-स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना और अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना यह काल की अशातना है । कुमुदिनी और सूर्यमुखी वनस्पति पर तथा चक्रवाक और उलूक पक्षी पर चन्द्र-सूर्य का साक्षात प्रभाव दिखाई देता है इसी प्रकार चन्द्र-सूर्य ग्रहण का भी अनिष्ट प्रभाव प्रत्येक पदार्थ पर अवश्यम्भावी है इसलिए ग्रहण काल में तथा निर्धारित उनरकाल में स्वाध्याय का निषेध है। । तारा टूटना या आकाश से तेजपुंज का गिरना ---उल्कापात है। इसका अस्वाध्यायकाल एक प्रहर का है। २ दिग्दाह का अस्वाध्याय काल एक प्रहर का है। 1- गजित की दो प्रहर की और विद्युत की एक प्रहर की अस्वाध्याय है । आर्द्रा नक्षत्र से चित्रा नक्षत्र तक अर्थात् वर्षाकाल में गजित और विद्युत की अस्वाध्याय नहीं है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] घरकानुयोग अन्तरिक्ष अस्वाध्याय सत्र १०४.१०५ ५. णिग्याते। ५. निर्धात—मधों के होने या न होने पर आकाश में ध्यन्तरादि कृत घोर गर्जन या बज्ञपात के होने पर स्वाध्याय नहीं करना। ६. यूपक-सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा एक साथ मिलने पर स्वाध्याय नहीं करना । ७. मक्खालिने । ७. यक्षादीप्त-यक्षादि के द्वारा किसी एक दिशा में बिजली जैसा प्रकाश दिखने पर स्वाध्याय नहीं करना । ८. धूमिपा। ८. धूमिका-कोहरा होने पर स्वाध्याय नहीं करना। १. महिया । ९. महिका-तुषार या बर्फ गिरने पर स्वाध्याय नहीं करना। १०. रयुग्धाते। १०. रज-उद्घात-तेज आंधी से धूलि उड़ने पर स्वाध्याय .--आर. स. १०. १४ नमान। अकाले सहायकरणस्स काले सजलायअफरणस्स अकाल स्वाध्याय करने और काल में स्वाध्याय नहीं पायच्छितं __करने का प्रायश्चित्त१०५. मिल चहि संशाहि सज्झायं करेह करतं वा साइज। जो भिक्षु प्रातःकाल में, सांयकाल में, मध्यान्ह में और तं जहा–१. पुरवाए संझाए, २. पच्छिमाए संशाए, 1. अव. अर्धरात्रि में इन चार मन्ध्याओं में स्वाध्याय करता है, करने के रहे, ४. अकरते। लिए कहता है, व करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खु कालियसुयस्स पर सिहं पुरुछाणं पुसछह पुच्छंतं पा जो भिक्षु कालिक श्रुत की तीन पृच्छाओं से अधिक पृच्छाएँ साइजइ । आचार्य से अकाल में पूछता है, पूछने के लिए कहता है, व पूछने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिक्स विदिवायस परं सत्तहं पुग्छाणं पुछा पुग्छतं जो भिक्षु दृष्टिवाद की सात पृच्छाओं से अधिक पृच्छाएं या साइज्मा । अकाल में आचार्य से पूछता है, पूछने के लिए कहता है, व पूछने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिक्सू चउसु महामहेसु मजसाय को करतं वा साइम्जा। जो भिक्षु इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, तं महा-१. इंदमहे, २. खरमहे, ३. जपणमहे, ४. भूतमहे। भूतमहोत्सव, इन चार महोत्सवों में स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय करने को कहता, व स्वाध्याय करने वालों का अनुमोदन करता है। १ अनभ्र वचपात तथा गजने की प्रचण्ड ध्वनि को निर्घात कहते हैं । इसका अस्वाध्याय काल एक प्रहर का है। २ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीय और तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा मिल जाती है । उस समय सन्ध्या का बीतना मालूम नहीं होता, इसलिए इन तीन दिनों में एक प्रहर का अस्वाध्याय काल है। ३ किसी एक दिशा में ठहर-ठहर कर विजली जैसा प्रकाश दिखाई देता है, उसे यक्षादिप्त कहते हैं। इसका अस्वाध्याय काल एक प्रहर का है। ४ कार्तिक मास से माघ मास पर्वन्त मेघ का गर्भकाल कहलाता है। इस काल में धूम्र वर्ण का कुहरा पड़ता है। जब तक कुहरा रहे तब तक अस्वाध्याय काल है। ४ उक्त गर्भकाल में श्वेतवर्ण का कुहरा पड़ता है, उसे मिहिका कहते हैं। जब तक श्वेतवर्ण का कुहरा रहे तब तक अस्वाध्याय काल है। . रजोषात-आकाश में रज छाई रहै तब तक अस्वाध्याय काल है। ७ अकाले को समाओ---आव. अ. ४, सु. २६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकालं स्वाध्याय करने और काल में स्वाध्याय नहीं करने का प्रायश्चित्त मानाचार ६६ जे भियन नासु महापाडियएसु ससाय करेइ करतं वा जो भिक्षु वैशाखी प्रतिपदा, आषाढ़ी प्रतिपदा, आश्विन साइज्जइ। तं जहा–१. सुगिम्ह-पाडियए, २. आसानी- प्रतिपदा और कातिक प्रतिपदा इन चार महा प्रतिपदाओं में पाशिवए, ३. आलोप-पाजियए, ४. फत्तिय-पाडिवए। स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय करने के लिए कहता है, व काय करने मौका पारे। जे भिक्ख चाउकाल-पोरिसि सम्माय म करे न करतं वा जो भिक्षु चतुष्काल पौरुपी में स्वाध्याय नहीं करता है, साइजह । स्वाध्याय नहीं करने को कहता है, व स्वाध्याय नहीं करने वाले वा अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बाउकाल-पोरिसि समार्य उबाइणावेह जवाहणा- जो भिक्षु चतुष्काल पौरुषी का स्वाध्यायकाल बीतने पर वतं वा साइज्जह। स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय करने के लिए कहता है, व स्वाध्याय करने वाले का अनुमोदन करता है। बे मिक्सू चाउरकालं समायं न करेड न करतं वा जो भिक्षु चार काल में स्वाध्याय नहीं करता है, स्वाध्याय साहज्जा। नहीं करने के लिए कहता है, व स्वाध्याय नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू चाउकासं समाय उवादमावेइ उवाहणावंत वा ___ जो भिक्षु चार काल स्याध्याय का अतिकमण करता है, साइज अतिक्रमण करने के लिए कहता है, व अतिक्रमण करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्ल असाहए समायं करेह करतं वा साइज्जद । ___जो भिक्षु अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय करने को कहता है, ब स्वाध्याय करने बाने का अनुमोदन करता है। जे भिल्लू अप्पणो असन्माइए समायं करे करतं वा जो भिक्षु अपने अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करता है, साइबई। स्वाध्याय करने को कहता है, व स्वाध्याय करने वाले का अनु मोदन करता है। सं सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारदागं वायं। उक्त आसेवना करने वाला भिक्षु उद्घातिक चातुर्मासिक -नि.उ.१६. मु.८-१८(४८) प्रायश्चित का पात्र होता है। ** १ (क) पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए-आव. अ. ४, सु. १६ (ख) काले न कमो सज्झाओ-आव. अ. ४, सु.२६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vo] चरणानुयोग www www विइओ विणय णाणायारो विषयावर पाउअरण-पणा १०६. संजोगा विक्रस अथगारस्सो विजयंपाकरिस्में, अणाणुपत्रि सुणं विषय पओगो १०७. रायगिएन विनयं पढने guitar * सययं न हायएज्जा । विनयाचार कहने की प्रतिमा ॥ -उस. अ. १. गा. १ द्वितीय विनय ज्ञानाचार दिनवाचार कहने की प्रतिज्ञा १०६. संयोग से विप्रमुक्त-रहित अणगार भिक्षु के विनय को मैं प्रगट का, हे शिष्य ! तू मुझसे अनुक्रम से मुन विनय प्रयोग- १०७. रानिकों के प्रति विनय का प्रयोग करे, वशीलता की कभी हानि न करे, १ संजो प्रकार के ई- १. संयोग, २. आभ्यंतर संयोग । ( क ) माता-पिता आदि स्वजनों का तथा पदार्थों का संयोग बाह्य संयोग है । (ग) पोध आदि कषायों का संयोग आभ्यंतर संयोग है। सूत्र १०६-१०७ अनगार और भिक्षु का प्रयोग विशेष अर्थ का चोतक है। अन्य दावा कुछ साधक अनगार होते हैं किन्तु भिक्षु नहीं होते हैं और कुछ भिक्षु होते हैं किन्तु अनगार नहीं होते हैं, अतः जो अनगार हो और भिक्षु हो उसका विनय यहाँ कहा जाएगा। यह विनय शब्द साजन-सेवित आचार अर्थात् अनुशासन, नम्रता और आचार के अर्थ में प्रयुक्त है । 7 ३ लोकोपचार विनय, अर्थनिमित्त विनय कामहेतु विनय, भय विनय, मोक्ष विनय इन पांच प्रकार के विनय में से यहाँ मोक्ष विनय का अधिकार है । ४ (क) पूर्व दीक्षित, आचार्य, उपाध्याय, सद्भाव के उपदेशक अथवा ज्ञानादि भाव रत्नों से अधिक समृद्ध हों, वे रालिक कहलाते हैं । (ग) स्थान अ. ४ २ ३२० में दुध संघ के लिए "ए" का प्रयोग हुआ है। (भ). १ . १४ . (ग) मुलाचार अधि. ५, गाथा १८७ में केवल साधुओं के लिए "रदिजिए और कणरादिणिए" का प्रयोग हुआ है । येष्ठ के लिए "रातिषिय" और वह दीव के लिए "समय" शब्द मिलता है। इस प्रकार दीक्षापयय की अपेक्षा से लोग प्रकार के होते हैं - १. रानिक पूर्व दीक्षित २ सहदीक्षित के उतरादित (ङ) मूलाधार में "रादिभिय" का संस्कृत रूप "शनि" और "उमरादिशिय" का संस्कृत रूप "नरानिक दिया है। ५. टीकाकार सीता का अर्थ अष्टादश बहल लांग किया है जे जो करंति मनसा पिविजय आहार-सत्रा सोइंदिए । पुढवीकायारंभे, खंतिजुत्ते ते मुगी बंदे ॥ यह एक गाथा है, इसी एक गाथा से १८००० गाथाएँ बनती हैं। गाथाओं का रचनाक्रम इस प्रकार है " प्रथम दस गाथाओं में दस धर्मों के नाम क्रमशः आयेंगे। पुनः "पुढवी" के साथ दस धर्मो की दस गाथाएँ होंगी इसी प्रकार "आउ, तेज, वाच, वणस्सइ, बेइंदिय, तेइंदिय, चरिदिय पंचिदिय और अजीव" इन सबके साथ दस धर्मों का कथन करने पर १० १० १०० गाथाएँ बनेगी, हम १०० गावाओं में "सोदिय" का प्रयोग हुआ, इसी प्रकार "विदिय पाणिदिय रपिदिय और फासिदिय के संयोग से १००x२= १०० साधाएं हो गई इस १०० गावाओं में "आहारसचा" का प्रयोग हुआ । इसी प्रकार "भयसना मेहुणसन्ना और परिग्गहसन्ना" के प्रयोग से ५०० x ४ = २००० गाथाएँ हुई। इन गाथाओं में "मणसा" का प्रयोग हुआ, इसी प्रकार "वयसा और कायसा" का प्रयोग करने पर २००० x ३६००० गाथाएँ हुई। इन ६००० करद" का प्रयोग करें, इसी प्रकार "कारत भर समगुजागंति" के प्रयोग से ६०००३१२००० गाथाएं बनती है। पृष्ठ पर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०७-१०८ अविनय का फल जानाचार [७१ कुम्मोग्य अल्लोणपतीगगुतो', परक्कमेज्जा तव संजमम्मि ॥ कूर्म (कछुआ) की तरह आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त हो तप और संयम में पराक्रम करे । -दस, अ. ८, गा. ४० अधिणयफलं अविनय का फल१०. थंभा व कोहा व मयप्पमाया, १०८. जो मुनि गर्ने, शोध, माया या प्रमादव गुरु के समीप गुरुस्सगासे विणयं न सिपखे। विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके सो घेव उ तस्स अभूइभावो', विनाश के लिए होती है, जैसे--कीचक (बाँस) का फल उसके कसं न कीयस्स यहाय होई॥ वध के लिए होता है। -~-दस. अ. ६, उ. १, गा. १ (शेष टिष्यण पिछले पृष्ठ का) न करति मणेण आहारमाणविप्पजदगो उ णियमेण । सोइदिय गंवुडो पुडविकायारम्भ खंतिजओ ।। इय मदवाइजोगा पुढविकाए भवति दस भया । आउक्कावादीसु वि, इय एते पिरियं तु सयं ।। सोईदिएण एवं, रोरोहि वि जे इमं तओ पंचो। आहारसण्ण जोगा, इय सेमाहि सहस्सदुर्ग ।। एयं मागेण वशमाविएर एयति छस छसहस्माई। ग करइ सेरोहिं पिय एए सम्वे वि अट्ठारा ।। अष्टादश सहस्रशीलांग रघ का प्राचीन चित्र-- Naramremeerusale सीलांम रय१ गाथा:-जे करतिमामा निजी मारी । पुदी कामसती जुमा है मुख दे। लिखा:-रखार से प्रदामना स्वर्ग नामी पुज्य जनजी काम तस्मरिष्य मुनि शीरधारी रखनी बार १९६सनिराशि पत्रानुसार काविजापार प्रामा पमा काममा आह04 मेदु परिषद प्रा. nHI Theमामगंदीरका भनी अजीय T जम्दी गई सबसे Tatejमा शप 10 १० E34.17 .... शामट hau maiशाम' काय Raa पत्र सीजी मलमडजे सावने danम या जुगा. गंगा मालागरम HTTA ArrivaLIEULTD अगर सहश्र मौलांग रथ HIND CYBE HEROIoE १ गुप्त' शब्द आलीन और प्रलीन दोनों से सम्बन्धित है, कूर्म के समान स्वशरीर में अंगोपांगों का संगोपन करके जो किसी प्रकार की कायचेष्टा नहीं करता है वह आलीनगुप्त कहलाता है। कारण उपस्थित होने पर यवनापूर्वक जो शारीरिक प्रवृत्ति करता है, वह प्रलीन गुप्त कहलाता है। धमण कम के समान अपने अंगोपांगों को गुप्त रखे और आवश्यकता होने पर विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करे। २ विनय दो प्रकार का है—(१) ग्रहण-विनय, (२) आसेवन-विनय । ज्ञानात्मक विनय को ग्रहण विनय और कियात्मक विनय को भासेवन विनय कहते हैं। -जीतकल्प चूणि ३ भूति का अर्थ है ऐश्वर्य, उसका अभाव अभूति भाव अर्थात् विनय । ४ दामु से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं । फल उगने पर यह बांस सूख जाता है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] घरगामुयोग चार प्रकार की विनय-प्रतिपसि सूत्र ११० बिणयास मूलोयमा विनय को मूल की उपमा१०६, मूलामो बंधप्पभवो मस्स, १०६. वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् खंधाओ पस्छा समुर्वेति साहा । शाखाएँ आती हैं, और शालाओं में से प्रशाखाएं निकलती है। साहप्पसाहा विहंति पत्ता, उसके पश्चात् पत्र, पुष्य, फल और रस होता है । तओ से पुष्पं फलं रसोय ॥ एवं धम्मस्स विणओ मूलं, इसी प्रकार धर्म का मूल है 'विनय' (आचार) और उसका परमो से मोक्यो । परम (अन्तिम) फल है मोक्ष । विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, जेण किमि मुर जि. लावलीय श्रुत और समस्त इष्ट तत्वों को प्राप्त होता है। निस्सेसं चाभिगच्छई ।। -दस. अ. ६, उ.२, गा.१२ आयरियल्स विणय-पडिवत्ती आचार्य की विनय-प्रतिपत्ति११०. आयरिओ अंतेवासी इमाए चउबिहाए विणण-पजिवतीए ११०. आचार्य अपने शिष्यों को यह चार प्रकार की विनयविणता भवद निरणितं गच्छा तं जहा प्रतिपत्ति सिखाकर अपने ऋण से उऋण हो जाता है । जैसे१. आयार-विणएणं, २. सुयं-विणएणं, आचार विनय, श्रुतबिनय, ३. विमलेवणा-विणएणं, ४. बोस-निग्घायणा-विणएणं । विक्षेपणाविनय और दोष-नितिनाविनय । प०-से कितं आयार-विणए? प्र.-भगवन् ! वह आचारविनय क्या है। उ.--आयार-विणए चविहे पणते । तं जहा . उ.--आचारविनय चार प्रकार का कहा गया हैं। जैसे१. संयम-सामायारी यावि भवइ, १. संयमसमाचारी-संयम के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराके आचरण कराना। २. तव-सामाधारी यावि भवइ, २. तपःगमाचारी-तप के भेद-प्रभेदों का शान कराके आचरण कराना। ३. गण-सामायारी यादि भवई, ३. गणसमाचारी-साधु-संघ की सारण-वारणादि से रक्षा करना, रोगी दुर्बल साधुओं की योचित व्यवस्था करना, अन्य गण के साथ यथायोग्य व्यवहार करना और कराना। ४. एकल्ल-विहार-सामायारी भाषि मवह । १. एकाकी विहार समाचारी-किस समय किस अवस्था में अकेने विहार करना चाहिए, इस बात का शान कराना । से तं आयार-विणए। यह आचारविनय है। प.-से कि तं मुय-विणए ? प्र-भगवन् ! श्रुतविनय क्या है ? ज०-सुप-विणए चविहे पणतं । तं जहा उ.- श्रुतविनय चार प्रकार का कहा गया है । जैसे१. सुत्तं वाएइ, १. सूत्रवाचना-मूल सूत्रों का पड़ाना । २. अस्थं वाएइ, २. अर्थवाचना-सूत्रों के अर्थ का पढ़ाना। ३. हियं वाएइ, ३. हितवाचना-शिष्य के हित का उपदेश देना । ४. निस्सेसे पाएइ, ४. निःशेषवाचना-प्रमाण नय, निक्षेप, संहिता, पदच्छेद, पदार्थ, पद-विग्रह, चालना (शंका) प्रसिद्धि (समाधान) आदि के द्वारा सूवार्च का यथाविधि समग्र अध्यापन करना-कराना । से तं सुप-विणए। यह श्रुतबिनय है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११०-१११ शिष्य को विनय-प्रतिपत्ति ज्ञानाचार ७३ १०-से कितं षिक्वेवणा-विणए ? प्र.-भगवन् । विक्षेपणाविनय क्या है? उ-विक्खेवणा-विणए चउबिहे पाण। जहा T-विक्षेपणाविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अविट्ठ-धम्म विट्ठ-पुत्वगत्ताए विणयइसा भवइ, १. अदष्टधर्मा को अर्थात् जिस शिष्य ने सम्यक्त्वरूपधर्म को नहीं जाना है, उसे उससे अवगत कराके सम्यक्त्वी बनाना । २. विपुश्वगं साहम्मियताए विणयइत्ता भइ, २. दृष्टधर्मा यिष्य को सामिकता-विनीत (विनयसंयुक्त) करना । ३. चुय-धम्माओ धम्मे ठावहत्ता भवद, ३. धर्म से पयत होने वाले शिष्य को धर्म में स्थापित करना। ४. तस्सेब धम्मस्स हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेसाए, अणु- ४. उसी शिष्य के धर्म के हित के लिए, सुख के लिए, गामियत्साए अग्मुटुता भवाइ। सामथ्र्य के लिए, मोक्ष के लिए और अनुगामिकता अर्थात् भवा स्तर में भी धर्मादि की प्राप्ति के लिए अभ्युद्यत रहना। से तं विक्खवणा-विणए । यह विक्षेपणाविमय है। ५०-से कि तं वोस-निग्धावणा-विषए? प्र०-भगवन् ! दोषनिर्घातविनय क्या है ? उ.-बोस-निग्घायणा-विणए चविहे पण्णसे । तं जहा- उ०-दोषनिर्यातनाविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे-- १. कुवस्स कोहं विगएता भवइ, १. ऋद्ध व्यक्ति के क्रोध को दूर करता। २. बुद्धस्स दोस णिगिहिता भवइ, २. दुष्ट व्यक्ति के दोष को दूर करना । ३. कंखियस्स कख छिदित्ता मवइ, ३. आकांक्षा वाले व्यक्ति की आकांक्षा का निवारण करता। ४. आय-सुपणिहिए यावि भवा, ४. आत्मा को सुप्रणिहित रखना अर्थात् शिष्यों को सुमार्ग पर लगाये रखना। से तं दोस-निग्घायणा-विणए। -दसा. द. ४, सु. १५-१६ यह बोषनितिनाविनय है। अंतेवासिस्स विणय पडिवत्ती शिष्य की विनय-प्रतिपत्ति-- १११. तस्स णं एवं गुणजाइयस्स अंतेवासिस्स इमा उम्बिहा विषय- १११. इस प्रकार के गुणवान अन्तेवासी शिष्य की यह चार पडियत्ती भवइ । तं महा प्रकार की विनय प्रतिपत्ति होती है । जैसे - १. उवगरण-उपायगया, १. उपकरणोत्पादनता-संयम के साधक वस्त्र-पात्रादि का प्राप्त करना। २. साहिलया, २. सहायता-अणक्त साधुओं की सहायता करना। ३. वरण-संजलणया, ३. वर्णसंज्वलनता-गण और गणी के गुण प्रकट करना। ४. भार पच्चोहगया। ४. मानत्यवरोहणतागण के भार का निर्वाह करना । १०-से कि तं जवगरण-उप्पायणश? प.--भगवन् ! उपकरणोत्पादनता क्या है ? १०--उबगरण-उत्पायणया चविहा पण्णता, सं जहा- 3०-उपकरणोत्पादनता चार प्रकार की कही गई है। असे१. अणुप्पण्णाणं उवगरणा उप्पाइता भवइ, १. अनुत्पन्न उपकरण उत्सादनता-नवीन उपकरणों को प्राप्त करना। २. पोराणाणं उवगरणा सारविवत्ता संगोविता भवह, २. पुरातन उपकरणों का संरक्षण और संगोपन करना। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] घरगानुयोग शिष्य की विनय-प्रतिपत्ति सूत्र १११ ३. परितं जागित्ता परचुद्धरित्ता भवह, ४. अहायिहि संविभइता भवइ । से तं उवगरण-उप्यायणया? १०-से कि तं साहिल्लया। .. उ०-साहिल्लया बस्विहा पक्ष्णता । ते जहा १. अणुलोम-बह-सहिते यावि भवइ, २. अणुलोम-काम-किरियत्ता यावि भवइ, ३. पउिहब-काय-संफासणया मावि मबह, ४. सम्वरयेसु अपडिलोमया यावि भवाइ । ३. जो उपकरण परीत (अल्प) हों उनका प्रत्युद्धार करतः अर्थात् अपने गण के या अन्य गण से आये हुए साधु के पास यदि अल्प उपकरण हों, या न हों तो उसकी पूर्ति करना । ४. शिष्यों के लिए यथायोग्य विभाग करके देना। यह उपकरणोत्पादनता है। प्रा-भगवन् ! सहायताविनय क्या है ? उ०-सहायताविनय चार प्रकार का कहा गया है । जैसे . १. अनुलोम (अनुकूल) वचन-सहित होना । अर्थात् जो गुरु कहें उसे विनयपूर्वक स्वीकार करना। २, अनुलोम काय की क्रिया वाला होना। अर्थात्-जैसा गुरु कहें वैसी काय की क्रिया करना। ३. प्रतिरूप कायसंस्पर्शनता--गुरु की यथोचित सेवासुथूया करना। ४. सर्वार्थ-अप्रतिलोमता-सर्वकार्यों में कुटिलता-रहित व्यवहार करना। यह सहायता विनय है। प्र. भगवन् ! वर्णसंज्वलनताविनय क्या है ? उ.--वर्णसंज्वलनताविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे १. यथातथ्य गुणों का वर्णवादी (प्रशंसा करने वाला) होना । २. अवर्णवादी (अयथार्थ दोषों के कहने बाले) को निरुत्तर करने वाला होना। ३. वर्णवादी के गुणों का अनुवृहण (संवर्धन) करना । ४. स्वयं वृद्धों की सेवा करना । यह वर्गसंज्वलनताविनय है। प्र.-भगवन् ! भारप्रत्यारोहणताविनय क्या है? उ.-भारप्रत्यारोहणताविनय चार प्रकार का कहा गया से तं साहिल्लया। 4०-से कितं वरण-संजलणया? ज०-वषण-संजलणया चम्यिहा पण्णसा । जहा १. अहातच्चाणं वष्ण-बाई भवइ, २. अवण्णवाहं पहिणित्ता भवइ, ३. वण्णवाई अणुकूहिसा मवड, ४. माय बुद्धसेवी यावि भवइ । से ते अण्ण-संजलणया । १०-से हित भार पच्चोहणया ? उ-मार-पच्चोहणया घडविहा पण्णता । तं जहा १. असंगहिय-परिजण-संगहिता भवइ, १. असंगृहित-परिजन-संग्रहीता होना (निराश्रित शिष्यों का संग्रह करना)। २. सेहं मायार गोयर-संगहिता भवन, २. नबीन दीक्षित शिष्यों को आचार और गोचरी की विधि सिखाना। ३. साहम्मियस्स गिलायमाणस अहायानं यावरचे ३. सार्मिक रोगी साधुओं की यथाशक्ति द्यावृत्य के लिए अबुद्धिप्ता मया __ अभ्युद्यत रहना। ४. साहम्मियाणं अहिगरफसि उप्पणसि सत्य अगिस्सितो- ४. सार्मिकों में परस्पर अधिकरण (कलह-क्लेश) उत्पन्न 'वस्सिए अपक्खागहिप-मन्नत्य-भावभूए सम्म ववहरमाणे हो जाने पर रागद्वेष का परित्याग करते हुए, किसी पक्ष-विशेष Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १११-११२ विनम्र के ग्रेव-प्रभेद शानाचार [५ तस्स अधिगरणस्स खभावणाए विउसमणत्ताए सवा समियं को ग्रहण न करके मध्यस्थ भाव रखे और सम्यक व्यवहार का अम्मुट्टिता भवइ, पालन करते हुए उस कलह के क्षमापन और अपमान सदा ही अभ्युश्चत रहे। १०-कहं ण भंते ! साहम्मिया ? प्र०-भगवन् ! ऐसा क्यों करें? उ०-अल्पसद्दा, अप्पझंज्या, अप्पकलहा, अप्पकसाया, अप- 30- क्योंकि ऐसा करने से सार्मिक अनर्गल प्रलाप नहीं सुमंतुमा, संजमबहुला, संवरबहुला, समाहिबहला, करेंगे, झंझा (झंझट) नहीं होगी, कलह, कषाय और तू-तू-मैं-मैं अपमता, संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणा-एवं नहीं होगी तथा साधर्मिक जन संयम-बहुल, संघर-बहुल, समाधिच गं विहरेज्जा। बहुल और अप्रमत्त होकर संयम से और तप से अपने आत्मा की भाधना करते हुए विचरण करेंगे । सत भार-पच्चोमहगया। यह भारप्रत्यवरोहणताविनय है। एसा वस्तु थेरेहि भगवतेहिं अट्ठविहा गणि-संपया यग्णता। यह निश्चय से स्थविर भगवन्तों ने आठ प्रकार की गणि -दसा. द. ४, सु. २०-२५ सम्पदा कही है। विण्यस्स मेयप्पमेया बिनय के भेद-प्रभेद११२.५०--से कि तं विणए । ११२. प्र--विनय क्या है ? उ.-अमुट्ठाण अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । उ---अभ्युत्थान (खड़े होना), हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरमसिभाषसुस्ससा, विणओ एस वियाहिओ गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रुषा करना विनय –उत्त. अ. ३०, गा, ३२ कहलाता है। विणए सत्तविहे पणत्ते । तं जहा . विनय सात प्रकार का बतलाया गया है१. जागविणए, २. सणविगए, ३. परित्तविणए, १. ज्ञान-विनय, २. दर्शन-विनय, ३. चारित्र-विनय, ४. मणविणए, ४. वइविणए, ६. कायविणए ४. मनोविजय, ५. ववन-विनय, ६. काय-विनय, ७. लोकोपचार७. लोगोषयारविणए। विनय । ५०–से कितं णाणविणए? प्र०-शान-विनय क्या है ? उ.-णाणविगए पंचबिहे पाणते, तं जहा 30-ज्ञान-विनय के पाँच भेद बतलाये गये हैं१. आभिणियोहियणाणविणए, २. सुयणाणविणए, १.आभिनिवोधिक ज्ञान -मतिज्ञान-विनय, २. श्रुतज्ञान३. ओहिणाणविणए, ४. मणपज्जवणागविषए विनय, ३. अवधिज्ञान-विनय, ४. मनःपवज्ञान विनय, ५. केवल५. केवलणाणविणए। ज्ञान-विनय । -इन जानों को यथार्थता स्वीकार करते हुए इनके लिए विनीतभाद से यथाशक्ति पुरुषार्थ या प्रयत्न करना । प०-से कि तं सपविणए? प्र०-दर्शन-विनय क्या है ? उ०-दसणविणए दुबिहे पण्णते । तं जहा-- उ०-दर्शन-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है१. सुस्सुसणाविणए, २. अणञ्चासायणाविणए। १. शुश्रूषा-विनय, २. अनत्याशातना-विनय । 4.-से कि तं सुस्सुसणाविणए? प्र-शुश्रूषा-विनय क्या है ? उ-मुस्तूसाषिणए अगेगविहे पण्गत्ते । तं जहा उ.-शुश्रुषा-विनय अनेक प्रकार का बतलाया गया है, जो इस प्रकार है१. भवभुटाणे हवा। १. अभ्युत्थान --गुरुजनों या गुणी जनों के आने पर उन्हें आदर देने हेतु खड़े होना । r aditionation Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७] चरणानुयोग 2. सामभिवा २. आसणप्पदाणे इ वा, ४. सक्कारे इ वा. ५. सम्माणे इ वा ६. फिर ७. अंजलि अगवा, २. ठिपक्स पज्जुवासणया, १०. गच्छस्स डिससाणया । वा ६. ७. गणस्स ८. संघस्स, इवा, सेतं सुणाविणए । प० - से कि तं अणवासायमा जिए ? २०- क्षणच्चासायाविषए पणयालीसविहे पण तं जहा १. अरहंताणं अमच्यासाथणया, २. अरहंतवण्णसहस धम्मस्स अणवासाय गया, ३. आयरियाणं अगत्रासांवणवा एवं ४. उसापा ५. बेरा ९. फिरिया, १०. संभोग विनय के दमेव ११. आभिणिबोहिणाणस्स, १२. १३. ओहिणरणस्स, १४. मगपजवणाणस्स, १५. लस्स १६-३० एसि विमा २१-४५. एएस सेसं अणयाणा विणए । २. आसनाभिग्रह — गुरुजन जहाँ बैठना चाहें वहाँ आसन रखना । ११२ ३. आसन- प्रदान — गुरुजनों को आसन देना । ४. गुरुजनों का सत्कार करना, ५. सम्मान करना, ६. यथाविधि वंदन-प्रणाम करना, ७. कोई बात स्वीकार या अस्वीकार करते समय हाथ फोडना, आते हुए गुरुजनों के सामने जाना, ६. बैठे हुए गुरुजनों के समीप बैठना, १०. उनकी सेवा करना, जाते हुए गुरुजनों को पहुँचाने जाता | यह गुषा- विनय है। प्र० - अनत्याशातना विनय क्या है ? उ०- अनत्याशातना - विनय के पैंतालीस भेद हैं। वे इस प्रकार हैं- १. तन- नाश करने वाले अवहेलनापूर्ण कार्य नहीं करना । २. अहं प्रप्त-तों द्वारा बतलाये गये धर्म की आशातना नहीं करना । ३. आचार्यो की आशातना नहीं करना । आना नहीं करना आत्मगुणों का भ्राता ४. उपाध्यायों की आशावना नहीं करना । ५. स्थविरों— ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध श्रमणों की आशातना नहीं करना । ६. कुल की आशातना नहीं करना । ७. गण की आशातना नहीं करना । ८. संघ की आशातना नहीं करना । C. क्रियावान् की आशातना नहीं करन । । १०. सांभोगिक - जिसके साथ वन्दन, नमन, भोजन आदि पारस्परिक व्यवहार हो, उस गच्छ के श्रमण या समान आचार बाले श्रमण की आशातना नहीं करना । ११. मति - ज्ञान की आशातना नहीं करना । १२. श्रुत ज्ञान की आशातना नहीं करना । १३. अवधि ज्ञान की आशातना नहीं करना । १४. मनः पर्यव - ज्ञान की आशातना नहीं करना । १५. केवल ज्ञान की आशातना नहीं करना । इन पन्द्रह की भक्ति, उपासना, बहुमान के प्रति तीव्र भावामुराद्रभेद तथा इन (ग्रह) की यशस्विता, प्रमस्ति एवं गुणकीर्तन रूप और पन्द्रह भेद-यों अनत्याशातना - विनय के पैंतालीस होते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ११२ बिनय के भेव-प्रभेद कानाचार [७७ प.-से कितं चरित्तविणए? प्र.- चारित्र-विनय क्या है? उम्-चरितविणए पंचविहे पण्णते, तं जहा उ०-चारित्र-विनय पाच प्रकार का है१. सामाइयचरित्तविणए, १. सामायिकचारित्र-विनय, २. छेदोवढाणियचरित्तविणए, २. छेदोपस्थापनीरचारित्र-विनम, ३. परिहारविसुद्धचरितविणए, ३. परिहारविशुद्धचारित्र-विनय, ४. सुहमसंपरायचरित्तविषए, ४. सूक्ष्मसंपरायचारित्र-विनय, ५. अह्मवायचरित्तविणए, ५. यथाख्यातचारित्र-विनय । से चरिसविणए। पह चारित्र-पिनय है। ५०-से कितं मणविणए? प्र.-मनोविनय क्या है ? ३०-मपविगए दुबिहे पष्णते, तं जहा-- ३०–मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है१. पसरयमणविणए, २. अपसत्यमणविणए । १. प्रशस्त मनोविनय, २. अप्रशस्त मनोविनय । १०-से कि तं अपसत्थमणविगए? प्र०-अप्रशस्त मनोविनय क्या है ? उ०-अपसरयमगविणए जे य मणे उ -जो मन १. सावज्जे, १. सावद्य-पाप या गहित कर्म युक्त, २. सकिरिए, २. सक्रिय-प्राणातिपात आदि आरम्भ क्रिया सहित, ३. सकपकसे, ३. कर्कश, ४. कदुक-अपने लिए तथा औरों के लिए अनिष्ट, ५.पिट्ठरे, ५. निष्टुर-कठोर-मृदुतारहित, ६. फरुसे, ६. परुष-स्नेहरहित-सूखा, ८. अण्हयकरे, ७. आवयकारी-अशुभ कर्मग्राही, ८. छयकरे, ८. छेदकर-किसी के हाथ, पैर आदि अंग तोड़ डालने का दुर्भाव रखने वाला, ६. भेयकरे, १. भेदकर--नासिका आदि अंग काट डालने का बुरा भाव रखने वाला, १०. परित्तावणकरे, १०. परितापनकर-प्राणियों को सन्तप्त, परितप्त करने के भाव रखने वाला, ११. उद्दवणकरे, ११. उपद्रवणकर-मारणान्तिक कष्ट देने अथवा धन सम्पत्ति हर लेने का बुरा विचार रखने वाला, १२. भूओवधाहए, तहप्पगारं मणो गो पहारेज्जा, १२. भूतोपघातिक-जीवों को घात करने का दुर्भाव रखने से तं अपसत्यमणविणए । वाला होता है, वह अप्रशस्त मन है। 46-से कि तं पसत्यमणविणए। प्र०-प्रशस्त मन किसे कहते हैं ? उ०-पसत्यमणविणए मे य मणे उ.-प्रशस्त मन विनय अर्थात् १. असावज्जे, २. अकिरिए, ३. अकक्कसे, ४. अकटए, १. असायद्य, २. निष्क्रिय, ३, अकर्कश, ४, अकटुक-इष्ट५. अगिरे, ६. अफरसे, ७. अणहयकरे, मधुर, ५. अनिष्ठुर-मधुर-कोमल, ६. अपरुष-स्निग्ध-स्नेह#. अछेयकरे, ६. अभेयकरे, १०. अपरितोषणकरे, मव, ७. अनासकारी, ८. अछेदकर, ६. अभेदकर, १०. अपरि११. अणुशवणकरे, १२. अभूओवघाइए., तापनकर, ११. अनुपद्रवणकर-दया, १२, अभूतोपघातिकतहप्पगार मणं धारेज्जा सेसं पसत्यमणोविणएपणिए। जीवों के प्रति करुणाशील-सुखकर होता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] चरगानुयोग विनय के भेद-प्रमेव सूत्र ११२ www Marwww प.-से कि तं षइ विणए ? प्र०-बचन विनय क्या है ? उ.-बइ विणए दुविहे पण्णते, तं जहा उ०---वचन विनय दो प्रकार का कहा गया है• सस्थराइगिम, रामपविण। १. प्रशस्त धचन विनय, २. अप्रशस्त बचन विनय, प०-से कि तं अपसत्य व विणए? प्र-अप्रशस्त वचन विनय गया है ? उ.-अपसत्य षद विणए जे प मणे । ३०-जो वचन १. सावज्जे, १. सावद्य-पाप या गहित कर्मयुक्त, २. सकिरिए, २. सक्रिय-प्राणातिपात आदि आरम्भ क्रिया सहित, ३. कक्फसे, ३. कर्कश, ४. कटुए, ४, कटुक-अपने लिए वघा औरों के लिए अनिष्ट, ५. पिट्ठारे, ५. निष्ठुर कठोर-मृदुता रहित, ६. फासे, ६. परुष-स्नेहरहित-शुष्क, ७. अण्हयकरे, ७. आसवकारी-अशुभ कर्मग्राही, ८. छपकरे, ८. छेदकर किसी के हाथ, पैर आदि अंग काट डालने का दुर्वचन बोलने वाला, ६. श्रेयकरे, ९. भेदकर-नासिका आदि अंग काट डालने का बुरा वचन बोलने वाला, १०. परितावगकरे, १०. परितापनकर प्राणियों को सन्ताप परिताप करने के बचन बोलने वाला, ११. उद्दवणकरे, ११. उपद्रवणकर-मारणान्तिक कष्ट देने अथवा धन सम्पत्ति हर लेने का बुरा वचन बोलने वाला, १२. भूओवधाहए, सहपगारं वई णो पहारेज्जा । १२. भूतोपघातिक-जीवों का घात करने का दुर्वचन बोलने वाला होता है। से तं अपसत्य बद विणए। यह अप्रशस्त वचनविनय है।। प०---से कि तं पसत्य बद विषए ? प्रा–प्रशस्त बचन विनय किसे कहते हैं ? उ०—पसत्य व विणए जै ये मगे। उ.-प्रशस्त वचन याने, १. असावले, २. अकिरिए, ३. अकक्कसे, ४. अकए. १. असावद्य, २. निष्क्रिय, ३. अककंश, ४. अकटुक-इष्ट५. अगिट्टरे, ६. अफरसे, ७. अणम्हयकरे, मधुर, ५. अनिष्ठुर-मधुर-कोमल, ६. अपरुष-स्निग्ध-स्नेहमय, ८, अछेयकरे, 8. अमेयकरे, १०. अपरितावणकरे, ७. अनावकारी, ६. अछेदकर, ६. अभेदकर, १०. अपरितापन११. अणुद्दयफरे, १२. अमूओवघाइए, तहप्पगारं वई कर, ११. अनुपद्रवणकर-दया, १२. अभूतोपचातिक---जीवों के धारज्जा। प्रति करुणाशील-सुखकर होता है। से तं पसत्य वा विषए। यह प्रशस्त वचन विनय है। से संवा विणए। यह वचन विनय है। ५०-से कि कायषिणए ? प्र०काय-विनय क्या है? -कायविणए दुविहे पग्मत्ते, तं जहा -- उल-काय-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है१. पसत्यकापविणए, २. अपसत्यकाविणए । १. प्रशस्त काय-विनय, २. अप्रशस्त काय-विनय । १०-से कि तं अपसत्यकायविणए ? प्र.-अप्रसस्त काय-विनय क्या है ? ३०-अपसत्यकायविणए सत्तविहे पणते, तं जना 30-अप्रशस्त काय-विनय के सात भेद है, जो इस प्रकार हैं Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२ विनय के मेव-प्रमेव शानाचार [७९ १. अमाउत्तं गमणे, २. अणाउसं ठाणे, ३. अणाउत्तं निसीयणे, ४. अणाजतं तुयट्टणे, ५. अथाउत्त उल्लंघर्ष, ६. अणाउत्तं पलंधणे, ७. अणाउत्तं सव्यिक्यिकायजोगजुंजणया, से तं अपसत्यकाविणए। प०-से कि तं पसत्थकायविणए ? उ.--पसत्यकापविणए सत्तविहे पण्णत्ते । तं महा १. भाउत्तं गमगे, २. आउत्तं ठाणे, १. अनायुक्त गमन--उपयोग-जागरूकता या सावधानी बिना चलना। २. अनायुक्त स्थान-बिना उपयोग स्थित होना-ठहरना, खड़ा होना। ३. अनायुक्त निषीदन-बिना उपयोग बैठना। ४. अनायुक्त त्वग्वर्तन -बिना उपयोग बिछोने पर करवट बदलना, सोना। ५. अनायुक्त उल्लंघन-बिना उपयोग कर्दम आदि का अतिक्रमण करना--कीचड़ आदि लांघना। ६. अनायुक्त प्रलंघन-बिना उपयोग बारबार लांघना । ७. अनायुक्त सर्वेन्द्रियकाययोग-योजनता-बिना उपयोग सभी इन्द्रियों तथा शरीर को योगयुक्त करना- विविध प्रवृत्तियों में लगाना । यह अप्रशस्त काय विनय है। प्र.-प्रशस्त काय-विनय क्या है? उ०-प्रशस्त काव-विनय के सात भेद हैं, जो इस प्रकार हैं-.. १. उपयुक्त गमन-उपयोग जागरूकता या सावधानी से चलना। २. उपयुक्त स्थान-उपयोग से स्थित होना-ठहरना, सहा होना। ३. उपयुक्त निषीदन-उपयोग से बैठना। ४. उपयुक्त स्वरवर्तन--उपयोग से बिछोने पर करवट बदलना, सोना। ___५. उपयुक्त उल्लंघन-- उपयोग से कदम आदि का अतिक्रमण करना, कीचड़ आदि लांघना । ६. उपयुक्त प्रलंघन- उपयोग से बार-बार लांघना । ७. उपयुक्त सन्द्रियकाययोग-योजनता-उपयोग से सभी इन्द्रियों तथा शरीर को योगयुक्त करना-विविध प्रवृत्तियों में लगाना । यह प्रशस्त कायविनय है। यह कायविनय है। प्र०-लोकोपचार-विनय क्या है? उ०-लोकोपचार-विनय के सात भेद बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं १. अभ्यासतिता-गुरुजनों, बड़ों, सत्पुरुषों के समीप बैठना। २. परच्छन्दानुवर्तिता--गुरुजनों, पूज्य जनों की इच्छानुरूप प्रवृत्ति करना। ३. आजतं निसीवणे, ४. आउत्तं सुयट्टणे, ५. उत्तं उसंधणे, ६. पाउस पलंघणे, ७. आजसं समितियकायजोगजुजणया, से तं पसत्यकाविणए, से तं काय विणए। १०-से कितं लोगोबयारविणए ? उ-लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णते, तं जहा १. अभासवत्तियं, २. परन्छवाणुवतियं, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०] परगानुयोग विनय प्रतिपन्न पुरुष सूत्र ११२-११३ ३.कन्जहे, ४. कयपजिकिरिया, १. अत्तयवेसणया, ६. देसकालण्णया, ७. सम्वटु सु अप्पजिलोमया। -ओव, सु. ३० से तं लोगोषयारविणए, से तं विषए । विणयपडिवण्णा पुरिसा११३. चसारि पुरिसमाया पण्णत्ता, तं जहा, १. अबभूट्ठति णाममेगे जो अम्भुट्टावेति, २. आमुहायेति गाममेगे णो अम्मुट्ठति, ३. कार्य हेतु-विद्या आदि प्राप्त करने हेतु, अथवा जिनसे विद्या प्राप्त की, उनकी सेवा-परिचर्या करना। ४. कृत-प्रतिक्रिया-अपने प्रति किये गये उपकारों के लिए कृतशता अनुभव करते हुए सेवा-परिचर्या करना। ५. आतं-गवेषणता-रुग्णता, वृद्धावस्था से पीड़ित संयत जनों, गुरुजनों, की सार-सम्हाल तथा औषधि, पथ्य आदि द्वारा सेवा-परिचर्या करना । ६. देशकालज्ञता--देश तथा समय को ध्यान में रखते हुए ऐसा आचरण करना, जिससे अपना मूल लक्ष्य न्याहत न हो। ७. सर्वार्थाप्रतिलोमता-सभी अनुष्ठ्य विषयों, कार्यों में विपरीत आचरण न करना, अनुकूल आवरण करना । यह लोकोपचार-विनय है। इस प्रकार यह विनय का विवेचन है। विनय प्रतिपन्न पुरुष११३. पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे १. कोई पुरुष (गुरुजनादि को देखकर) अभ्युत्थान करता है, किन्तु (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता नहीं । २. कोई पुरुष (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता है, किन्तु (स्वयं) अभ्युत्थान नहीं करता। ३. कोई पुरुष स्वयं भी अभ्युत्थान करता है और दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है। ४. कोई पुरुष न स्वयं अभ्युत्थान करता है और न दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे १. कोई पुरुष (गुरुजनादि की) बन्दना करता है, किन्तु (दूसरों से) वन्दना करवाता नहीं । २. कोई पुरुष (दूसरों से) वन्दना करवाता है, किन्तु स्वयं वन्दना नहीं करता। ३. कोई पुरुष स्वयं भी वन्दना करता है और दूसरों से भी वन्दना करवाता है। ४. कोई पुरुष न स्वयं वन्दना करता है और न दूसरों से वन्दना करवाता है। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे १. कोई पुरुष (गुरुजनादि का) सत्कार करता है, किन्तु (दूसरों से) सत्कार करवाता नहीं 1 ३. एगे आमुट्ठति वि अग्मुटावेति वि, '४. एगे णो अमुट्ठति णो अग्युटावेति । चत्तारि पुरिसप्ताया पण्णता, तंबहा१. वाएइ गाममेगे को बायावेह, २. वायावह गाममेगे गो वाएइ, ३. एपे वाएइ वि यायावह वि, ४. एगे णो बाएइ पो पायावेह । पत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जना१. परिच्छति गाममेगे जो परिच्छायेति, १ ठाणं. अ.७, सु. ५८५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२-११४ २. पछि सामने जो पति ३. एणे पति विपण्डित वि ४. एगे जो पण्डिति णो पाति बारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. पुच्छद्र 'णामगे णो पुच्छावेद, २. गाममे मो पुच्छ ३. एगे पुच्छ विपुछा ये वि ४. एगे णो पुच्छ णो पुच्छावेद । चारि पुरिसावा प तं १. नामगेोपवेति २. गो ए ३. एगे व पावेति वि ४. एगे की पूएइ णो पूपाचेति । विणीयस्स लखणाई १४. 1 गुरुवार । गिरने से विषए तिरपद विमीत के लक्षण मयोग area, जातियरियरस तं परिएका उ उपाए | -उत्त. अ. १, गा. ४३ काल छंदोदयारं च परिहत्ताण हे । ते तेण उवाएण, सं वं संवाए । - दस. अ. ६, उ. २, गा. २० २. कोई पुरुष दूसरों से सत्कार करवाता है, किन्तु स्वयं सत्कार नहीं करता । विनय ज्ञानाचार ३. कोई पुरुष स्वयं भी सत्कार करता है और दूसरों से भी सत्कार करवाता है । ४. कोई पुरुष स्वयं सत्कार करता है और दूसरों से सत्कार करवाता है । पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे १. कोई पुरुष (गुरुजनादि का ( दूसरों से ) सम्मान नहीं करवाता । [41 - अ. ४, उ. १, सु. २५६ करवाता है । २. कोई पुरुष दूसरों से सम्मान करवाता है, किन्तु स्वयं सम्मान नहीं करता । ३. कोई पुरुष स्वयं भी सम्मान करता है और दूसरों से भी सम्मान करवाता है । सम्मान करता है, किन्तु ४. कोई पुरुष न स्वयं सम्मान करता है और न दूसरों से सम्मान करवाता है । पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे १. कोई पुरुष (गुरुजनादि की) पूजा करता है, किन्तु ( दूसरों से ) पूजा नहीं करवाता । २. कोई पुरुष दूसरों से पूजा करवाता है, किन्तु स्वयं पूजा नहीं करता । ११४. विदेश के अनुसार कार्य करने वाला, गुरुजनों के समीप बैठने वाला, और उनके इंगित तथा बाकार के ज्ञान से - उत्त. अ. १, गा. २ जो सम्पन्न है वह विनीत कहा जाता है । ३. कोई पुरुष स्वयं भी पूजा करता है और दूसरों से भी पूजा करवाता है । विनीत के लक्षण ४. कोई पुरुष न स्वयं पूजा करता है और न दूसरों से पूजा समोहं वय कुजा, बावरिया महत्णो । बिमाए कम्मुगा उषवायए । - दस. अ. प, गा. ३३ रण करे । आचार्य के मनोगत और वाक्यगत भावों को जानकर, उनको वाणी से ग्रह करे और कार्यरूप में परिणत करे। काल, अभिप्राय और आराधना विधि को हेतुओं से जानकर, उस-उस (तदनुकूल ) उपाय के द्वारा उस-उस प्रयोजन का सम्प्रतिपादन करे-यूरा करे। मुनि महान् बात्मा आचार्य के वचन को सफल करे । ( आचार्य जो कहे) उसे वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आच Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] चरणानुयोग आठ प्रकार के शिक्षाशील सूत्र ११४-११७ आयरिय अग्गिमिवाहियागी, सुस्तसमाणो परिमागरेमा । जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक आलोहय इंगिपभेव नच्चा, जो छन्दमाराहया स पुज्जो॥ रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहता है, जो आचार्य के आलोकित और इंगित को जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता है, वह पूज्य है। आयारमट्टा विणयं पजे, सुस्ससमाणो परिगिजस वक्की जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो आचार्य जहोवट्ठ अभिकंखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुन्जो॥ को सुनने की इच्छा रखता हुआ उनके वाक्य को ग्रहण कर उपदस. अ. ६., उ. ३, मा. १-२ देश के अनुकूल आचरण करता है, जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है। अट्ठबिहा सिक्खरसोला आठ प्रकार के शिक्षाशील११५. अह अहि ठाणेहिं, सिक्खरसीले ति बुच्चई । ११५. आठ स्थानों (हतुओं) से व्यक्ति को शिक्षा-पील कहा अहस्सिरे सया बन्ते, न य मम्ममुवाहरे॥ जाता है । १. जो हास्य न करे, २. जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, ३. जो मर्म-प्रकाशन न करे, नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। ४. जो चरित्र से हीन न हो, ५. जिसका चरित्र दोषों से अकोहणे सचरए, सिक्खासीले ति बुच्चद।। बालुषित न हो, ६. जो रसों में अति लोलुप न हो. ७. जो क्रोध उत्त. अ. ११, गा. ४-५ न करे, ८. जो सत्व में रत हो-उसे शिक्षा-शील कहा जाता है। पण्णरसविहा सुविणीया पन्द्रह प्रकार के सुबिनीत११६. अह पन्नासहि ठाणेहि, सुविणोए ति बुचड़। ११६, पन्द्रह स्थानों (हेतुओं) से सुविनीत कहलाता है। १. जो नीयावती अभयले, अमाई अकुहले ॥ नम्र व्यवहार करता है, २. जो चपल नहीं होता, ३. जो मायावी नहीं होता, ४. जो कुतुहल नहीं करता, अप्पं चाहि विखपई, पबन्धं च न कुब्बई । ५. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, ६. जो कोध को मेतिन्जमाणो भयई, सुयं लद्धं न मजई ॥ टिका कर नहीं रखता, ७. जो मित्रभात रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, ८. जो धुन प्राप्त कर मद नहीं करता, नप पावपरिक्षेवी, न य मित्तेसु कुटपई। ६. जो सालना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता, अप्पियस्साधि मिसरस, रहे कस्लाण मासई ।। १०. जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, ११. जो अप्रिय मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता है, कलहडमरवजए , बुद्ध अभिजाइए। १२. जो कलह और हाथा-पाई का वर्जन करता है, १३. जो हिरिमं पडिसंलोणे, सुविषीए ति बुच्चई ॥ कुलीन होता है, १४. जो लज्जावान होता हैं, १५. जो प्रति-उत्त. अ. ११, गा. १०-१३ संलीन (इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला) होता है वह बुद्धिमान' मुनि विनीत कहलाता है। सेहस्स करणीय कज्जाणि शिष्य के करणीय कार्य११७. आलवन्ते लबन्ते बा, न निसीएज्ज कयाद वि। ११७. बुद्धिमान शिष्य गुरु के एक बार बुलाने पर या बार-बार चाइमणासगं धीरो, जो जत्तं पडिस्सुणे ॥ बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे, किन्तु वे जो आदेश दें, उसे -उत्त. अ. १, गा. २१ आमन को छोड़कर यत्न के साथ स्वीकार करे। निसन्ते सियाऽमुहरो, बुद्धाणं अन्तिए सया । (णिज्य) आचार्य के समीप सदा प्रशान्त रहे। वा वालता न अदूपत्तागि सिपखेज्जा, निरडाणी उ बज्जए ।। करे । उनके पास अर्य-युत पदों को सीखे और निरर्थक कथाओं का वर्जन करे। अणुसासिओ न कुप्पज्जा, खंति सेविज्ज पण्डिए । (शिष्य) गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, खुइहि सह संसरिंग, हास कोटं च वजए। क्षमा की आराधना करे। क्षुद्र व्यक्तियों के साथ संमगं, हास्य और क्रीड़ा न करे। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११-११६ गुरु के समीप बैठने की विधि विनय तानाचार ८३ माय चण्डालिय कासी, बयं मा य आलवे। (शिष्य) चण्डालोचित कर्म (ऋर-व्यवहार) न करे। बहुत कासे ग य अहज्जित्ता, सओ साएज्म एगगो।। न बोले । स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करे और उसके पश्चात --उत्त. अ. १, गा.-१० अकेला ध्यान करे । परिणीयं च बुवाणं, गया अनुव कम्मुणा । (शिष्य) लोगों के समक्ष या एकान्त में, वचन से या कर्म से, आबी वा जहवा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि।। कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल वर्तन न करे । -उत्त. अ.१, गा. १७ भारिएहि वाहि-तो, तुसिप्पीओ न कयाइ वि। आचार्यों के द्वारा बुलाये जाने पर किसी भी अवस्था में पसाय-पेही नियागट्टी, उचिट्ठ गुरु सया ॥ मौन न रहे, गुरु के प्रसाद को चाहने वाला, मोक्षाभिलाषी शिष्य -इत. अ. १, गा. २० सदा उनके समीप रहे । न कोवए आयरिय, अप्पाणं पि न कोवर। शिप्य आचार्य को कुपित न करे। स्वयं भी कुपित न हो। मुद्धोषधाई सिया, न सिया तोत्तगवेसए॥ आचार्य का उपघात करने वाला न हो। उनका छिद्रान्वेषी -उत्त, अ.१, गा, ४० न हो। आहज्य चण्डालिप कटु, न निहविजय कामाय नि। राम राहा अण्डालांचित कर्म कर उसे कभी भी न 'क करें' ति मासेज्जा, 'अकांनी कडे ति य॥ छिपाए । अकरणीय किया हो तो किया और नहीं किया हो तो -उत्त. अ.१, गा, ११ न किया कहे। गुरुसमीवनिसीयण विही गुरु के समीप बैठने की विधि११८. न पक्खो न पुरओ, नेव किश्माण पिट्ठओ। ११८. (शिष्य) आचार्यों के बराबर न बेटे। आगे और पीछे भी न [जे उहणा उक', सयणे नो पङिस्सुणे ॥ न बैठे। उनके उरू (जांच) से अपना उरू सटाकर न बैठे। विष्ठीने पर बैठा ही उनके आदेश को स्वीकार न करे, किन्तु उसे छोड़कर स्वीकार करे। नेव पन्हत्यियं कुज्जा, पक्वपिण्वं व संजए। __ संयमी मुनि गुरु के समीप पालयी लगाकर (घुटनों और पाए पसारिए वाषि, न निळे गुरुणन्तिए । जाँघों के चारों ओर वस्त्र बाँधकर) न बैठे। पक्ष-पिण्ड कर -उत्त. अ. १, पा.१८-१९ (दोनों हाथों से शरीर को बांधकर) या पैरों को फैलाकर न बैठे। आसणे उचिट्ठज्जा, "अणुच्चे अकुए" थिरे । जो गुरु के आसन से मीना हो, अकम्पमान हो और स्थिर अस्पृट्ठाई निरुट्ठाई, निसीएज्जयकुक्कुए ॥ हो (जिसके पाये धरती पर टिके हुए हों) वैसे आसन पर बैठे। --उत्त. अ. १. गा.१० प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे। बैठे तब स्थिर एवं शान्त होकर बैठे। हाथ-पैर आदि से चपलता न करे। पाह पुच्छा विही प्रश्न पूछने की विधि११६. हसोगवारतहियं , जेणं गच्छाइ सोगई। ११६. जिस यमणधर्म के द्वारा इहलोक और परलोक में हित बहुस्मुर्य पन्जुवासेज्जा, पुच्छेजस्थविणिच्छयं ॥ होता है, मृत्यु के पश्चात् सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति -दस. अ.८, गा. ४६ के लिए वह बहुश्रुत की पर्युपासना करे और अर्थ विनिश्चय के लिए प्रपन करे। आसण गो न पुच्छेज्जा, नेष ''सेन्जा-गो कयाइ" वि। आसन पर अथवा शय्या पर बैया-बैठा कभी भी गुरु से मागम्मु पुक्कुइमोसन्तो, पुच्छेज्जा पंजलीजडो॥ कोई बात ग पूछे, परन्तु उनके समीप आकर उकडू बैठ, हाथ --उत्त. अ. १, गा. २२ जोड़कर पूछे। 1 उस्कटासन-गोवुहासन को कहते हैं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ av] णानुयोग प्रश्न पूछने की विधि पुत्र ११६-१२३ का अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्त अंतरा । विना पूछ न बोले, बीच में न बोले, पृष्ठमांस-चुगली न पिटिमसं न खाएन्जा, मामामोसं विवज्जए । खाए और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे। -दस. अ.८, गा. ४५ नापुटो घागरे किंत्रि', पुट्ठो वा नालियं दए । बिना तो बिना पूछे कुछ भी न बोले। पूछने पर असत्य न बोले । कोहं असत्वं कुवेज्जा', धारेज्जा पियमम्पियं ॥ क्रोध न करे । आ जाए तो उसे विफल कर दे । प्रिय और अप्रिय -उत्त. अ. १, गा.१४ को धारण करे—उन पर राम और द्वेष न करे। न लवेज्ज पुढो सावजं, न निर? न मम्मयं । किसी के पूछने पर भी अपने, पराये या दोनों के प्रयोजन के अप्पणट्ठा परट्टा बा, उमयस्सन्तरेण वा। लिए अथवा अकारण ही सावध न बोले, निरयंकन बोले और -उत्त. अ. १, या, २५ मर्म-भेदी वचन न बोले । सेहकयपण्हस्स गुरु पिण्णमुत्तरं शिप्य के प्रश्न पर गुरु द्वारा उत्तर-- १२०. एवं विणयजुत्तस्त, सुतं अत्थं च भयं । १२०. इस प्रकार जो शिष्य विनय युक्त हो, उसके पूछने पर गुरु पुच्छमागस्स सोसस्स, वागरेज बहानुयं ॥ सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्र और अर्थ दोनों) जैसे सुने हों (जाने -उत्त. अ. १, गा. २३ हुए हों) वैसे बताये । गुरु पइ सेहस्स किच्चाई गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य१२१. तेसिं गुरुणं गुणसागराणं, सोमाण मेहानि मुभासियाई । १२१. जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित सुनपरे,मुणी पंचरए तिगुप्तो, घउक्कसायावगए स पुज्जो॥ कर उनका आचरण करता है, पाँच महाव्रतों में रत, मन, वाणी और शरीर से गुप्त तथा क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर करता है, वह पूज्य है। गुरुमिह सपय परियरिय मुगी, जिणवनिरणे अभिगमकुसले। इस लोक में गुरु की सतत सेवा कर, जिनमत-निपुण (आगमधणिय रयमर्स पुरेकर, भासुरमउलं गई गय॥ निपुण) ओर अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल मुनि पहले -दस. अ.६, उ. ३, गा. १४-१५ किए हुए रज और मल को कमिगत कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति को प्राप्त होता है। सेहं पह गुरुस्स किच्चाई - शिष्य के प्रति गुरु के कर्तव्य१२२. जे माणिया सययं माणपंक्ति असेण करने व निवेसयंति । १२२. अभ्न्यान आदि के द्वारा सम्मानित किये जाने पर जो . ते माणए माणरिहे तवस्सी, मिइंदिए सच्चरए स पुज्जो॥ शिष्यों को ससत सम्मानित करते हैं-श्रुत ग्रहण के लिए प्रेरित -दस. अ.६, उ. ३, गा, १३ करते हैं, पिता जैसे अपनी कन्या को बलपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्य रत आचार्य का जो सम्मान करता है वह पूज्य है। अणुसासणे सेहस्स किच्चाई अनुशासन-पालन में शिष्य के कर्तव्य१२२.जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएम फरसेण ।।। १२३. "आचार्य मुझ पर कोमल या कठोर वचनों से जो अनुमम लामो ति पेहाए, पयो तं पडिस्सुणे॥ शासन करते हैं वह मेरे लाभ के लिए है"—ऐसा सोचकर प्रयल पूर्वक उनके वचनों को स्वीकार करे। १ अपुच्छिओ शिक्कारणं न भासते। -- जीतकल्प चूणों, पृ. २५८ २ कवाषित् क्रोध आ जाय तो उपशान्त होकर दुःसंकल्प, दुर्वचन एवं दुष्कृत्य का पश्चात्ताप करे । क्रोध के असत्य करने की, अर्थात् क्रोध करने से संचित अशुभ कर्मवर्गणा के क्षय की यही विधि है। ३ लोकविरुद्ध या राज्यविरुद्ध आदि, जिसके प्रगट होने से मनुष्य को अपयश के भय से मरना पड़े वह वचन ममं वचन है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२३-१२६ चार प्रकार की विनय समाधि बिनय शानाचार [५ अणुसासणमोकायं । बुक्कडरस य चोयणं । मृद् या कठोर यचनों से किया जाने वाला अनुशासन दुष्कृत हियं तं मन्नए पग्णो, बेस होइ असाहुणो । का निवारक होता है । प्रज्ञावान् मुनि उसे हित मानता है । रही असाधु के लिए दोष का हेतु बन जाता है। हिमं विगय-भया बुद्धा, फरसं पि अणुसासणं । भय-मुक्त बुद्धिमान शिघ्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी बेस्सं तं होइ मूढाणं, खन्ति - सोहिकरं पर्य। हितकर मानते हैं। परन्तु अज्ञानियों के लिए वही-क्षमा और उत्त. अ.१, गा.२७-२६ चित्त-विशुद्धि करने वाला नुण-वृद्धि का आधारभूत-अनुशासन द्वेष का हेतु बन जाता है। गुरुकयाणुसासणस्स पभावो गुरु के अनुशासन का शिष्य पर प्रभाव१२४. रमए पण्डिए सासं, हयं भदं व बाहए। १२४. जैसे उनम घोड़े को होकते हुए उसका वाहक आनन्द बाल सम्मइ सासन्तो, गलियरस व वाहए। पाता है, वैसे ही पण्डित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन करता -उत्त. अ. १, पा. ३७ हुआ गुरु आनन्द पाता है और जैसे दुष्ट घोडे को हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है वैसे ही बाल (अविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु चिन्न होता है । कृषियगुरु पसायणटा सेहस्स किच्चाई कुपित गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य१२५. आयरियं कुषियं नाचा, पत्तिएण पसापए। १२५. आचार्य को कुपित हुए जानकर विनीत शिष्य प्रतीतिकारक विमायेज्न पनलिउडो, बएज्जन पुगो ति य ॥ (या प्रीतिकारक) वचनों से उन्हें प्रसन्न करे । हाथ जोड़कर उन्हें --उत्त. अ.१, गा, ४१ शान्त करे और यों कहे कि "मैं ऐसा पुनः नहीं करूंगा।" चम्विहा विणयसमाही चार प्रकार की विनय-समाधि--- १२६. सुयं मे आउस तेगं भगवया एवमक्खायं-इह खलु धेरैहि १२६. आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान (प्रज्ञापक आचार्य भगवंतहि चत्तारि विणयसमाहिद्वाणा पत्ता। प्रभवस्वामी) ने इस प्रकार कहा-इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में स्थविर भगवान् ने विनय समाधि के चार स्थानों का प्रज्ञापन किया है । ५०-कबरे खलुते थेरेहि भगवतेहि पत्तारि विणयसमाहि- प्र-वे विनय-समाधि के चार स्थान कौन से हैं जिनका ट्ठाणा पन्नत्ता? स्थविर भगवान् ने प्रशापन किया है। --इमे खलु ते येरेहि भगवतेहिं घसारि विणयसमाहिद्वाणा उ०. वे विनय-समाधि के चार प्रकार ये हैं, जिनका स्थविर पतत्ता, तं जहा - भगवान ने प्रशापन किया है, जैसे१. विणयसमाहो, २. सुपसमाही, (१) विनय-समाधि (२) श्रुत-समाधि, ३. सबसमाही, ४. आयारसमाही । (३) तप-समाधि, (४) आचार-समाधि । विणए सुए म तवे, य आयारे मिच्छ पंडिमा । जो जितेन्द्रिय होते हैं वे पण्डित पुरुष अपनी आत्मा को अभिरामयति अप्पाणं, जे भवंति जिईरिया ॥ सदा विनय, श्रुत, तप और आचार में लीन किये रहते हैं । पाविहा खलु विणयसमाही भवा तं नहा विनय-समाधि के चार प्रकार है, जैसे१. अपसासिज्जंसो सुस्ससह, (१) शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है। २. सम्म संपडिपज्जा (२) अनुशासन को सम्यग् रूप से स्वीकार करता है। ३. वेयमाराहा, (३) वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा (अनुशासन के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी को सफल बनाता है। ४. न य भइ अत्तसंपाहिए। (४) आहमोत्कर्ष (गर्व) नहीं करताबसस्थं पयं भषा । मायस्थ सिसोगो यह चतुर्थ पद है और यहाँ (विनय-समाधि के प्रकरण) में एक श्लोक है Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] परणामुयोग बिनय का सुपरिणाम सूत्र १२६-१२८ पेहे हियाणुसासणं, सुस्मूसह तंत्र पुणो अहिए। (१) गोक्षार्थी मुनि हितानुशासन की अभिलाषा करता हैनयमाणमएण मज्जा, विणयसमाही आयट्टिए ॥ सुनना चाहता है। -दस. अ.६, 3. ४, सु. १-४, गा. १-२ (२) शुश्रूषा करता है-अनुशासन को सम्यग् रूप से ग्रहण करता है। (३) अनुशासन के अनुकूल आचरण करता है। (४) मैं विनव-समाधि में कुशल हूँ-इस प्रकार गर्न के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। विणयस्स सुफलं विनय का सुपरिणाम१२७. तम्हा विणयमेसेज्जा, सील पडिलभेजओ। १२७. इसलिए विनय का आचरण जिससे शील की प्राप्ति हो। जुल-पुत्त नियागट्ठी, न निश्कासिज्जद कई॥ जो बुद्ध (आचार्य का प्रिय शिष्य) और मोक्ष का अभिलाषी -उत्त. अ. १, गा.७ होता है, वह गण से नहीं निकाला जाता । नच्चा नमइ मेहावी, लोए "किसी से" जायए। मधाबी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे क्रियान्वित हवई किकचाणं सरणं, भूयाग जगई जहा ।। करने में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक में कीति होती है। जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार वह धर्माचरण करने वालों के लिए बाधार होता है। पुज्जा जस पसीवन्ति, संबुद्धा पुश्वसंधुया । उरा पर तत्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं। अध्ययनपसना लाभइस्सन्ति, घिउलं अद्वियं सुयं ॥ काल से पूर्व ही वे उसके घिनव-समाचरण से परिचित होते हैं। वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के हेतुभूत विपुल श्रुत-ज्ञान का लाभ करवाते हैं। स पुज्जसत्ये सुषिणीयसंसए, बह पूज्य होता है--उसके शास्त्रीय ज्ञान का बहत सम्मान "मणोई" चिट्ठई कम्म-संपया। होता है उसके सारे संशय मिट जाते हैं। वह गुरु के मन को भाता है। वह कम-सम्पदा (दसविध समाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। तवोसमायारिसमाहिसंबुरे , वह तप-रामाचारी और समाधि से संवृत्त होता है। पांच महज्जुई पंच-बयाई पालिया ॥ महावतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। स देव-गन्धव-मणुस्सपूहए, चइत्तु वेहं मलपकपुज्ययं । देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य मल सिक वा हबा सासए, देवे वा अप्परए महिसिए॥ और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो शाश्वत सिद्ध -उत्त, अ. १, गा. ४५,४६ होता है या अल्पकर्म वाला महद्धिक देव होता है। अविणीय लक्षणाई अविनीत के लक्षण-- १२८. आणाऽनिद्देसफरे । गुरुणमणुववायकारए । १२८. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पासन नहीं करता, गुरु परिणीए मसंबुझे , “अणिवीए ति" बुझ्चई की शुश्रूषा नहीं करता, जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और -उत्त. अ. १, गा. ३ तथ्य को नहीं जानता, वह "अविनीत" कहलाता है। आपरियउवमाएहि , सुयं विणयं न गाहिए। जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया तेचे खिसई बाले, पावसमणि ति बुच्चाई ॥ उन्हीं की निन्दा करता है, वह बिवेक-विकल भिक्षु पाप-श्रमण कहलाता है। आयरियउवमायाणं, सम्म नो परितप्पद । जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से अपरिपूयए ब, पावसमणि ति वुच्चई ॥ चिन्ता नहीं करता-उनको सेवा नहीं करता, जो वड़ों का -उत्त, ब. १७, मा. ४-५ सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२६-१३१ तीन प्रकार के अविनय विनय ज्ञानाचार २७ लिविहे अविष्णए-- तीन प्रकार के अविनय१२६. अविणए तिबिहे पण्णसे, तं जहा १२६. अविनय तीन प्रकार का कहा गया हैदेसच्चाई, (१) देगत्यागी- स्वामी को गाली गादि देकर देश को छोड़ कर चले जाना। निरालंबणता, (२) निरालम्बन--पन्छ या कुटुम्ब को छोड़ देना या उससे अलग हो जाना। जाणा पेज्जदोसे। (३) नानाप्रेयोदोषी--नाना प्रकारों से लोगों के साथ राम-ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८३ वप करना । घडवसविहे अविणीए चौदह प्रकार के अविनीत१३०. अह चउपसहि ठाणेहि, वट्टमाणे उ संजए । १३०. चौदह स्थानों (हेतुओं) में वर्तन करने वाला संयमी अविणीए बुश्बई सो उ, निव्याणं च न गच्छद॥ अविनीत कहा जाता है । वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। अभिक्खणं कोही हवइ, पबन्धं च पकुवई । (१) जो बार-बार कोध करता है, (२) जो श्रोध को टिकामिसिम्जमाणो बमई, सुयं लडूण मज्जई ॥ कर रखता है, (३) जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है, (४) जो थुत प्राप्त कर मद करता है। अबि पावपरिक्वेयी, अवि मित्तेसु कुप्पई । (५) जो किसी की स्खलना होने पर उमका तिरस्कार सुप्पियस्मावि मित्तस्स, रहे भासद पावगं । करता है, (६) जो मित्रों पर कुपित होता है, (७) जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एका-त में बुराई करता है, पइग्णवाई दुहिले, धद्धे लुढे अणिग्गहे। (6) जो असंबद्ध-भाषी है, (६) जो देशद्रोही है, (१०) जी असंविभागी अचियत्ते, अषिणीए ति बुच्चई ।। अभिमानी है, (११) जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, (१२) --उत्त. अ.११, गा. ६-६ जो अजितेन्द्रिय है, (१३) जो असं विभागी है, (१४) जो अप्रीति कर है-वह अविनीत कहलाता है। अविणोय सहवं अविनीत का स्वरूप -- १३१. एवं ते सिस्ता बिया य, राओ य अणुपुरवेण वाइया तेहिं १३१. जिस प्रकार पक्षी अपने शावकों को शिक्षण देते हैं उसी महावीरेहि पण्णाणमंतेहि, , प्रकार जो ज्ञान न होने के कारण जिनोक्त धर्म की आराधना " लिए उद्यत नहीं है उन शिष्यों को दिन-रात गुरुजन अध्ययन कराते हैं। तेसितिए पन्नाणमुवलम्म हेरचा उबसमें फारसियं समादियंति। इस प्रकार महापराक्रमी प्रज्ञावान् गुरुना से पढ़ाये गये उन शिष्यों में कुछ ऐसे होते हैं जो गुरुओं से आगम-ज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर उपशमभाव छोड़कर जान-नयं से उद्यत हो जाते हैं। यसित्ता बंमधेरंसि आणं तं गो त्ति मन्त्रमाणा। कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो संयमी बनने के पश्चात् जिनाशा की अवहेलना करते हुए शरीर की शोभा बढ़ाते हैं। आघायं तु सोच्चा निसम्म "समणुना जोबिस्सामो" एगे "हम सर्वमान्य बनेंगे" ऐसा नोकर कुछ शिष्य दीक्षा लेते शिवचम्म ते असमवेता विममाणा कामेसु गिजा अज्झोव- हैं और वे मोक्षमार्ग के पथिकः बनकर काम-वासनाजन्य सुख में यमा समाहिमापायमसोसयंता सत्यारमेव कसं वयंति। आसक्त बन जिनोक्त समाधिभाव को प्राप्त नहीं होते हैं और जो उन्हें हितशिक्षा देते हैं वे उन्हें कर्कश वचन कहते हैं। सीलमता उवासंता संस्थाए रीयमाणा, "असोला" अणुवया कुछ कुशील शिष्य उपशान्त एवं विवेकी श्रमणों को "शीलमाणस जितिया मक्स्स बालया। भ्रष्ट" कहते हैं--यह उन गासत्यादिक मन्दजनों की दुगुनी मूर्खता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <<] धरणानुयोग मागे आधारनोयराति गुरु नागम् चिममाणा से मोवियं परियामेंति । पुट्ठा वेगे नियच्छति जीविपस्सेव कारणा । निवांत पितेसि मई। आहे लक्या ते मरा पुमो पुणो जात संभयंता विद्दायमाणा "अहमसीति विउक्कसे" उदासीणे फर्स ववंति । पतियं पचे अनुया अगं अनहेहितं मेहावी जाणिवा ध गुरआई परिणीया- १३२. रानिया एवं बयासी आदि के प्रत्यनीक एवं लेमि भगव जणाने जहा से दिएपोए। एवं ते मिस्सा दिया व राजीव अगाइयति देि प्र० - गुरु मं भंते! पहुन्च कति परिणीया पण्णता ? उ०- गोयमा ! ओ पडिणीया पण्णला तं जहा आयरियपडिपीए उन्मादडिपीए थेपडिणीए । प० गई णं मंते ! पहुच कति पडिणीया पण्णत्ता ? उ०- गोमा ! तभ पडिणिया पण्णत्ता, तं जहा मोगर परोपण ओलोगपडिणीए । प० समूहं णं भंते ! पच्च कति परिणीया पण्णत्ता ? जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का (पंख आने तक उसके मातापिता द्वारा) पालन किया जाता है, उसी प्रकार (भगवान महावीर आ. सु. १. अ. ६, उ. ३, सु. १५६-१९१ के ) धर्म में जो अभी तक अनुत्थित है, (जिनकी बुद्धि अभी तक धर्म में संस्कारवद नहीं हुई है) उन शिष्यों का वे (आचार्य) क्रमशः वाचना आदि के द्वारा दिन-रात पालन — संवर्द्धन करते हैं, ऐसा मैं कहता हूँ । गुरु आदि के प्रत्यनीक १३२. राजगृह नगर में गौतम स्वामी) या (भगवान् महावीर से) इस प्रकार पूछा उ०- गोयमा ! तओ पडिणोया पण्णत्ता, तं जहागणपत्रिणीए कुलपडिए संघडिणीए सूत्र १३१-११२ कुछ शिष्य स्वयं संयम का पालन नहीं करते हैं, किन्तु शुद्ध आधार-गोचर का कथन करते हैं। कुछ मिप्य ज्ञान दर्शन है किन्तु ऐसा कहते हैं कि प्यून ही शुद्ध माचार है" इसलिए ज्ञानय विनयी होते हुए भी आधार-भ्रष्ट है। कुछ अज्ञ शिष्य परीषदों से पीड़ित होने पर सुख सुविधा के लिए संयम भ्रष्ट हो जाते हैं ऐसे व्यक्तियों का महत्या भी निर क होता है। वे असंयमी जय अश जनों में भी निन्दनीय होते हैं, कुछ अल्पज्ञ शिष्य - विद्वत्ता का दिखावा करते हुए "मैं विद्वान् हूँ.' ऐसा कहकर मध्यस्व धमणों की अवहेलना करते हैं अथवा मिथ्यादोषारोपण करके अवहेलन करते हैं। अतः वे पुनः पुनः चारों गतियों में जन्म लेते हैं इसलिए मेधावी शिष्य विनयधर्म को जाने । प्र० --- भगवन् ! गुरुदेव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक (पी या विरोधी ) कहे गए हैं ? उ०- गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं वे इस प्रकार (१) मानक, (२) उपाध्याय - प्रत्यनीक, (३) अनीक । प्र० - भगवन् ! गति की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं? उ०- गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं। ये इस प्रकार(१) इहलोक त्पनीक (२) परलोक प्रत्यनीक, (३) उभयलोक - प्रत्यनीक । ५० - भगवन् ! समूह ( श्रमणसंघ ) की अपेक्षा कितने प्रत्य नीक कहे गए है ? उ०--- गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार(२) गण- प्रत्यनीक, (१) कुल प्रत्पनीक (३) संघ- प्रत्यनीक । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र १३२-१३३ अमिनीत को उपमाएँ विनय ज्ञानाचार ५०-अणुकंप परश्च कति पडिणीया पण्णता ? उ.-गोयमा ! तओ पविणोया पण्णता, सं जहा सबस्सिपरिणीए गिलाणपडिणीए, सेहपरिणाए। पा--सुर्य मंते ! पश्च कति पहिणीया पणता? प्र०-भगवन् ! अनुकम्प्य (साधुओं) की अपेक्षा से कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं? ज-गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं । वे इस प्रकार(१) तपस्वी-प्रत्यनीक, (२) ग्लान-प्रत्यनीक, (३) शैक्ष (नजदीक्षित)-प्रत्यनीक । प्रा-भगवन् ! ध्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे ज०- गोयमा ! तो परिणीया पण्णता, सं जहा-- सुत्तपडिगीए, अस्थपक्षिणीए, तदुमयपडिणीए । ५०-भावं णं मते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता? उ०-गौतम ! तीन प्रस्थनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) सूत्रप्रत्यनीक, (२) अर्थप्रत्यनीक, (३) तदुभयप्रत्यनीक । प्र०—भगवन् ! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? 1.-गोयमा ! तओ पडिगीया पण्णता, तं महा 3०-गौतम ! तीन प्रत्पनीक कहे गए है । वे इस प्रकारनाणपक्षिणीए, सणपडिणीए, (१) ज्ञान-प्रत्यनीक, (२) दर्शन-प्रत्यनीक चरितपरिणीए। -वि. स. ८, उ. ८, सु. १-७ (३) चारित्र-प्रत्यनीक । अविणीय उवमाइ अविनीत की उपमाएं१३३. जहा मुणी पूड-कण्णी, निपकसिम्मइ सम्वसो। १३३. जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से निकाली एवं दुस्सोल-पडिणीए, मुहरी निक्कासिज्जई॥ जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु गण से निकाल दिया जाता है। कण-कुण्डगं चात्ताणं, विट्ठ भुजह सूपरे । जिस प्रकार सूअर दायलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा एवं सौलं चहताणं, चुस्तीले रमई मिए। खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शीन को छोड़कर दुःशील में रमण करता है। सुणियामा साणस्स, सूपरस्स नरस्स य। __ अपनी आत्मा का हित चाहने वाला भिक्षु कुतिया और विषए टवेज्ज अपाणं, इसछन्तो हियमप्पणो॥ सूअर की तरह दृष्ट मनुष्य के अभाव (हीन भाव) को सुनकर -उत्त. अ. १, गा. ४-६ अपने आप को विनय में स्थापित करे। मा "गलिपस्से व" कसं, क्यणमिन्छे पुणो पुणो । जैसे अविनीत घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है, वैसे कसं व बठुमारणे, पावगं परिवज्जए । विनीत शिष्य गुरु के वचन को (आदेश-उपदेश) को बार-चार न -उस. अ.१, मा. १२ चाहे । जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति छोड़ दे। जे य को मिए बडे, दुग्याई नियडी सो। जो चण्ड, मृग-अज, स्तब्ध, अप्रियवादी, मायावी और शठ वृम्साह से अषिणीयच्या, कटु सोयगयं जहा ॥ है, वह अविनीतात्मा संसार-स्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काय । विगयं वि जो जवाएणं, चौडओ कुपाई नरो । विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित विश्वं सो सिरिमेजति, बजेण पडिसेहए । होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डण्डे से रोकता है। -दस, अ. ६, उ. २, सु. ३-४ १ ठाणं.अ. ३,उ.४, सु. २०८ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चरणानुयोग अविनीत की उपमाएं सलुंके जो जोएड, विहम्माणो किलिमई । असमाहिं च एक, तोत्तो मसे मज्जाई । एग उसइ पुच्छमि, एणं विन्धभिक्खणं । एगो भंजद समिलं, एगो उपहाटुओ ।। एगो पा पासेणं, निवेसह निविजई। उपकुड फिकई, सदे बालगवी वए। माई मुण पर्म, कुढे गच्छइ पडिप्पहं । मयलक्खेण चिई, वेगेण य पहावई !! जो खलुक (दुष्ट) बलों को जोतता है, वह उन्हें मारता हुआ क्लेश पाता है, असमाधि का अनुभव करता है और अन्ततः उसका चाबुक भी टूट जाता है। वह क्षुब्ध हुमा वाहक किसी को पूछ काट देता है. ती किसी को बार-बार वींधता है। और उन बैलों में से कोई एक समिला--जुए की कील को तोड़ देता है, तो दूसरा उन्मार्ग पर चल पड़ता है। कोई मार्ग के एक ओर पार्श्व (बगल) में गिर पड़ता है कोई बैठ जाता है, कोई लेट जाता है। कोई कूदता है, कोई उछलता है, तो कोई पाठ बालगनी- तरुण गाय के पीछे भाग जाता है। कोई धूतं बैल शिर को निढाल बनाकर भूमि पर गिर जाता है। कोई क्रोधित होकर प्रतिपय-उन्मार्ग में चला जाता है। कोई मृतका-सा पड़ा रहता है, तो कोई वेग से दौड़ने लगता है। कोई छिन्नाल-दुष्ट बल राम को छिन्न-भिन्न कर देता है। दुन्ति होकर जुए को तोड़ देता है। और सू-सू आवाज करके वाहन को छोड़कर भाग जाता है। अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देते हैं, वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्म-यान में जीतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं। कोई ऋद्धि-ऐश्वर्य का गौरव (अहंकार) करता है, कोई रस का गौरव करता है, कोई सात-सुख का गौरव करता है, मो कोई चिरकाल तक कोध करता है। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है, कोई अपमान से हरता है, तो कोई स्तब्ध है-धीठ है । हेतु और कारणों से गुरु कभी किसी को अनुशामित करता है। तब वह बीच में ही बोल उठता है, मन में द्वेष प्रकट करता हैतमा बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण छिन्नाले छिन्नई सिल्लि, दुइन्तो मंजए जुर्ग । से वि व सुस्सुयाइत्ता, उज्जाहिता पलायए । खलुंशा जारिमा जोज्जा, दुस्सीसा विहु तारिसा। ओइया धम्मजाणम्मि, भज्जस्ति थिइदुचला ।। इड्ढीगारखिए सायागारविए एगे, एगेऽस्य एगे, एगे रसगारवे। सुधिरकोहर्ष ।। भिवशालसिए एगे, एगे अरेमाणमोहए थर्ड। एमं च भणसासम्मी, कहि कारणेहि ५ ॥ सो वि अन्सरमा सिहलो, दोसमेव पकुवई। आपरियाणं से बयणं, परिकलेह अभिवखणं ।। न सा ममं वियागाइ, न विसा मा काहिह । (मुरु प्रयोजनवश किसी धाविका से कोई वस्तु लाने को निभाया होहि मन्ने, साहू मनो स्य बच्चउ ॥ कहे, तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूँ, वह घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों, कोई दूसरा साधु चला जाए। पेसिया पलिउचन्ति, से परियन्ति समन्तओ । किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वह कार्य किए रायबेट्टि व मनन्ता, करेन्ति भिडि मुहे ॥ बिना ही लौट जाते हैं। पूछने पर कहते हैं--उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों ओर घूमते हैं, किन्तु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार की भाँति मानते हुए मुंह पर भृकुटी तान सेते हैं - मुंह को भचोट लेते हैं। १ दुम्गओ वा पओएणं चोइओ वहई रहं । एवं दुब्युद्धि किच्चाणं वृत्तो वृत्तो पकुब्बई ॥ -दस- अ.६ उ.२, गा.१६ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३३-१३५ वाइमा संगहिया चेव, water जहा हंसा, अह सारहो विचिन्ते मिसे "मत्तपणे य" पोसिया पक्क मन्ति विसोदिसि ॥ खलुकेहि अप्पा मे हारिसा मम सोसाउ, महिला व अभिनय-विनय सहवं१३४. या मददगार अविनीत और विनीत का स्वरूप तारिसा गलिगा। परिविन्द तवं ॥ —उत्त. अ. २७, गा. ३-१६ मिसवती पुण जे गुरूणं, समागम । अवसोयई । विसुणे नरे साहस होणपेसणं । अधिमे बिगए मोविए असं विभागो न हु तस्स मोपलो तरि ते ओहमिणं गुरुत्तरं, मुरथधम्मा विषयसि कांबिया वित्त कम्मं मुसमं गय ॥ -दस. अ. ६, उ. २, गा. २२-२३ अविणीय सुविणीय लक्स थाई१३५. हे अविणीपप्पा, उवयमा या गया । श्रीसंति दुहमेहंता, अभिगमुट्ठिया ॥ सहेव सुविणोयप्पा उवषमा या गया। पोतिमेहता, पिता महायसा ॥ लहेब विशोष लोि नरनारिओ । कोहिमेत छाया से विनिदिय दसरा असम्भवहि य। युगादि बुविसाए परिगया । सहेव सुविणी, लोगंसि नरनारिओ । संसि सुहमेहता, पित्ता महापसा ॥ तब अविनीयध्या देवा जश्खा य गुजागा । कोहिमेता आणि "I समाजवा पति सुताइति महायता ॥ विनय ज्ञानादार भक्त-पान से पोषित किया, बन गए हैं, जैसे पंख आने कर जाते है-दूर उड़ जाते हैं। (आचार्य सोचते हैं) मैंने उन्हें पढ़ाया, संगृहीत ( दीक्षित ) किया किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये वैसे ही पर हम विभिन्न दिशाओं में प्रक्रमण fee कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर सारथि (आचार्य) सोचते हैंइन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या ? इनके संसगं से मेरी आत्मा अवसन्न व्याकुल होती है। जैसे गलिगर्दभ (आलसी और निकम्मे गधे होते हैं, वैसे ही ये मेरे है। ऐसा सोचकराना ने निर्द शिष्यों को छोड़कर दृढ़ तपश्चरण ( उस बाह्याभ्यन्तर तपोमार्ग ) स्वीकार किया। अविनीत और विनीत का स्वरूप- १३४. जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन है, जो साहसिक है, जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, जो अदृष्ट (अज्ञात) धर्मा है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो अभी है, उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता। और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ है, जो विनय में कोविद हैं, वे इस दुस्तर संसार-समुद्र को तैरकर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अविनीत सुविनत के लक्षण १२५. जो औपबा (सवारी के काम आने वाले) घोड़े और हावी होते हैं, वे सेवाकाल में दूध का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । जोबा घोड़े और हाथी सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यथ को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। विनीत होते हैं, लोक में जो पुरुष और स्त्री या इन्द्रिय-किस दण्ड और मात्र से जर्जर भवभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत करुण परवश भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःख का अनुभव करते हुए से जाते हैं। . लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि बोर महान गश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । जो देव यक्ष और गुहा (भवनवासी देव) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । 1 जो देव, यक्ष और गुलक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] परगानुयोग अविनीत और सुविनीत के आचरण का प्रभाव सूत्र १३६ मे आयरिपउवमायाणं, सुस्तसावपर्णकरा। जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञालेलि मिक्खा पवाति, जलसित्ता इस पापया ।। पालन करते हैं उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से -दस. अ. ६, उ.२, गा. ५-१२ सीचे हुए वृक्ष। अविणीतस्स-विणीतस्स य आयरण-पभावो अविनीत और सुविनीत के आचरण का प्रभाव१३६. मरणटर परदा बा, सिप्पा उणियाणि । १३६.जो गृही अपने या दुसरों के लिए, लौकिका उपभोग के गिहिणो उवनोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ।। निमित्त शिल्प और नैपुण्य सीखते हैंजेग बंधं वह धोरं, परियावं च दावणं । वे पुरुष ललितेन्द्रिय होते हुए भी शिक्षा-काल में (शिक्षक के सिंपखमागा नियरि, दुसा ते दिविधा । द्वा) पीर पन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। ते वि त गुरु' पूर्वति, तस्स सिप्पस्स कारणा। फिर भी वे उस शिल्प के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं समकाति नमसंति, तुट्टा निद्देसवत्तिगो।। और सन्तुष्ट होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। कि पुण जे सुयग्गाही, अणतहियकामए । जो आगम-शान को पाने में तत्पर और अनन्तहित (मोक्ष) आपरियाज बए भिव, सम्हा तं नाइवसए ।। का इच्छुक है उसका फिर वह्ना ही क्या । इसलिए आचार्य जो कहे भिक्षु उसका उल्लंघन न करे। नीयं सेवं गई ठाणं, नोयं च आसणाणि च । ___ भिक्षु (आचार्य से) नीची शैव्या करे, नीची गति करे, नीचे नीयं पाए वंदेम्जा, नीयं कुज्जा य अंजलि ॥ खमा रहे, नीचा आसन करे, और नीचा होकर अन्जलि करे हाथ जोड़े। संघट्टरता काएग, तहा उहिणामवि । अपनी काया से तथा उपकरणों से एवं किसी दूसरे प्रकार खमेह अवराह मे, बएज्जन पुणो ति य॥ से आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे--"आप -दस.अ. ६, उ. २, गा. १३-१८ मेरा अपराध क्षमा करें, मैं फिर ऐसा नहीं करूगा ।" (मालवते लवते वा, न निसजाए पहिस्सुणे । (बुद्धिमान् शिष्य गुम के एक बार बुलाने पर या बार-बार मोसूर्ग आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ॥') बुलाने पर कभी भी बैठा न रहै, किन्तु आसन को छोड़कर --दस. ब. ६, उ. २, गा. २० का टिपण शुश्रूषा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।) मिवती अविणीयस्स, संपत्ती पिणियरस य। ___ "अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पति होती है"--ये जस्सेयं बुहो नायं, सिक्खं से अभिगच्छद ॥ दोनों जिसे ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। ...दस. अ. ९, उ. २, गा. २१ अगासपा धूलवया, कुसोला, आज्ञा को न मानने वाले और अंध-अंट बोलने वाले कुशील मिचं पि चई पकरेंति सोसा। शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। पित्ताण्या लहु वस्खोषवेया, चित्त के अनुसार चलने वाले और पटुता से कार्य को सम्पन्न पसायए के दुरासयं पि॥ करने वाले शिष्य, दुराशय (शीघ्र ही कुपित होने वाले) गुरु को -उत्त. अ. १, गा. १३ भी प्रसन्न कर लेते हैं। जे विग्गहीए अनायनासो, जो साधक कलहकारी है, अन्याययुक्त (न्याय-विरुद्ध) बोलता न से समे होति अमंझपत्ते। है, वह (रामपयुक्त होने के कारण) सम-मध्यस्थ नहीं हो मोबायकारी य हिरोमणे य, सकता, वह कलहरहित भी नहीं होता। परन्तु सुसाधु उपपातएगंतविट्ठी म अमाइसवे ॥ कारी (गुरु सानिध्य में रहकर-उनके निर्देशानुसार चलने वाला) या उपायकारी (सूत्रोपदेशानुसार उपाय—प्रवृत्ति करने वाला) होता है, वह अनाचार सेवन करते गुरु आदि से लज्जित होता है, जीवादि तत्वों में उसकी (दृष्टि श्रद्धा) स्पष्ट या निश्चित होती है, तथा वह माया-रहित व्यवहार करता है। १ यह गाथा--दम. अ. ६, उ. २, गा.१६ के बाद टिप्पण में हैं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६-१४० पेसले सुहुने पुरिसजाते, जश्चणिए चैव मुउज्जुपारे । हुचि अनुसरसिले के तहुच्चा, समे हु से अविणीय सुविनयाण चितण- १२७वेश मे, अश्कोसा व पहा कल्याणमनुसासन्तो पायविट्टि ति P falta-fat का स्वगत चिन्तन होति अझपत्ते ॥ सूम. श्रु. १, अ. १३, गा. ६-७ २.पण्डए २. वाइए, ३. की तेली असावणाओ पुतो मे भाथ नाइ सि साहू कस्लाण मई। पायरिया सरसं "दासं व" मन्नई ।। १, ३०-३१ 1 -उत्सव. ग्रा. पंच असिक्खा ठाणाणि - १३८. अह पंचहि ठाणेह, जेहि सिक्खा न लभई । चम्या कोहा यमाएणं, रोगालरस एग सिवाए अणुवचला १३६. मोतिहा " मन्नई ॥ १. हे सेहत | य ॥ -- उत्त. अ. ११, ग्रा. ३ रु.उ.४, यु. १४०असायगाओ पण्णताओ । पपरा बताओ रेहतीस सायगाओ पणताओ ? उ०- माओबाओ मेरे भगवते तो आया गाओ पण्णताओ, से जहा तं पुरवो यंता, भय आसावया २. सेरापिक गंता, भवई असा पणा सेहस्स । ३. सेहे रामणिस्स आसन्नं गंता, मवई आसायणा मेस्स विनय नामाचार मूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर भी अपनी दे रहता है, वह साधक मृदुभाषी या विनयादिगुणयुक्त है। वही सूक्ष्मायंदर्शी है, वही वास्तव में संगम में पुरुषार्थी हैं, तथा वही उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में ही सहज-सरल-भाव से प्रवृत्त रहता है । वही सम है, और अरु प्राप्त है (अथवा वही मुसरक्षक जीतराम पुरुषों के समान असा प्राप्त है ) । विनीत- अविनीत का स्वगत चिन्तन [ea १३७. पाप-दृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा जिपकाने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है । गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझकर शिक्षा देते हैं ऐसा होन विनीत विष्य उनके अनुषासन को कल्याणकारी मानता है। परन्तु कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुत्य मानता है । शिक्षा प्राप्त न होने के पाँच कारण -- १३८. निम्न पान स्थानों (हेतुओं) के शिक्षा प्राप्त नहीं होती-(१) मान. (२) क्रोध, (३) प्रमाद (४) रोग, (५) आलस्य शिक्षा के अयोग्य १३९. इन तीनों को शिक्षित करना नहीं करूपता है, यथा तेवीस आज्ञावनाएं (१) पण्डका वाला, (२) वातिक- कामवासना का दमन न कर सकने वाला, (३) खली - असमर्थ ॥ १४०. इस आत प्रववन में स्थविर भगवन्तों ने तेतीरा आशात नाएं कही हैं प्र० - उन स्थविर भगवन्तों ने वे कौन सी तेतीस आशात नाएं कही हैं ? उ०- उन स्थविर भगवन्तों ने ये तेतीस भगातनाएँ कही हैं। जैसे— (१) (अप दीक्षापवाला) रानिक साधु के आगे चले तो उसे आयातना दोष लगता है । T (२) रालिक साधु के समक्ष ( समश्रेणी- बराबरी में ) चले तो उसे आशातना दोष लगता है। शतक साधु के आसन (अति) होकर (३) चले तो उसे आशातना दोष लगता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ धरणानुयोग तेतीस आशासमाएँ ४. सेहे रायणिस्स पुरओ विट्ठला, भवइ आसायणा सेहत | ५. सेहे रायणियस्स सपक चिट्टिसा, वह आसायणा सेहस्स ६. सेहे राय जियस्स आसन्नं चिट्टित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स | ७. सेहे रायणियस्स पुरओ निसीहत्ता भवइ आसायणा सेहत | ८. सेहे रायणियस्स सपक्वं निसीइत्ता, मवह आसायणा सेहरस ९. सेहे रायणियस्स आसन्नं निसीइसा, मयइ आसायणा सेहस्स १०. सेहे रायणिएणं सद्धि बहिया कारभूषि समासस्सेहे पुन्यसगं बायम पन्छा राषिए भवद आसाणा सेहस्स । ११. हे रायगिए विहारभूमि वा नि सहि बहिया विधारभूमि वा समये साथ हे पुण्य रागं आलोएड पच्छा रायजिए, भवह आसायगा सेहस्स । 3 १२. केशवपुज्य संसदिए सिया तं सेहे पुव्वतरागं आलवड, पच्छा स्थथिए, भवइ असाया सेहस्स । १३. सेहे रामणिस्स राओ वा जियाले या बाहरमाणस्स "मो ! के मुत्ता ? के जावरा ?" सेहे जागरनामे रामनिवास अजिता भव आसायना सेहस्स तत्य - १४. सेहे असणं वापरणं वा खाइमं वा साइमं वा, पहिला मेरो मच्छा रायणियम्स, भवह आसायणा सेहस्त । १५. सेहे असणं वर, पाणं वर, खाइमं वा साइमं वा पश्मिमहिसा पृथ्वमेव बेहतर गर उनसे पच्छारायणियस्स, भवइ आसायणा सेहस्य | सूत्र १४० १६. सेहे अस वा पाणं वा साइमं वा साइमं वा पहिला तं वमेव सेहरा उबभिमते पच्छा रायणिए, भव बासायणा सेहस्त । (४) शैक्ष, रानिक साधु के आगे खड़ा हो तो उसे आशातना दोष लगता है । (३) शैक्ष, शनिक साधु के समक्ष खड़ा हो तो उसे आणातना दोष लगता है । (६) शैक्ष, रानिक साधु के आसन्न खड़ा हो तो आशातना दोष लगता है । (७) शैक्ष, रानिक साधु के आगे बैठे तो उसे आशातना दोष लगता है । ( - ) शैक्ष, रानिक साधु के समक्ष बैठे तो उसे आपातना दोष लगता है । (e) शैक्ष, रानिक माधु के आसन्न घंटे तो उसे आशातना दोष लगता है । (00), रास्व पर गया हुआ हो (कारण गये हों। ऐसी दशा में दिन शुद्धि) करे तो आशातना दोष लगता है । (११) रानिक के साथ बाहर विचारभूमि या बिहारभूमि ( स्वाध्याय स्थान पर जाने को वहाँ मै रास्कि से पहले ) शैक्ष आलोचना करे तो उसे आशातना दोष लगता है । में निक को सम्बोधन करके कहे – (छे) हे वार्य | कौन-कौन शैक्ष (पूछे सो रहे है और कौन-फोन जाग रहे हैं? समय जागता हुआ उस भीक्ष यदि रानिक के वचनों को अनसुना करके उत्तर न दे तो आशातना दोष लगता है। के साथ बाहर (मनोत्सन) दोनों एक ही पात्र में जल से पहले आचमन मो (१२) कोई व्यक्ति रानिक के पास वार्तालाप के लिए आये, यदि शैक्ष उससे पहले ही बार्तालाप करने लगे तो उसे आशातना दोष लगता है । (१३) रात्रि में का विकाल को (१४) शैक्ष, यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार घर से लाकर उसकी आलोचना पहले किसी अन्य शैक्ष के पास करे और पीछे रालिक के समीप करे तो उसे अजाना दोष लगता है । (१५) शैक्ष, यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को (गृह के पर से लाकर पहने किसी अन्य को दिखाने और पीछे रानिक को दिखलावे तो उसे आशातना दोष लगता है। (१६) दिन, पान, सादिम और स्वादिन आहार को उपाय में लाकर पहले अन्य को भोगना नामंत्रित क्ष (भोजनार्थ) करे और पीछे रालिक को आमन्त्रित करे तो उसे आशातना दोष लगता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र १४० तेतीस आशातनाएँ विनय ज्ञानाधार ९५ १७. सेहे रायणिएग सरि असणं वा, पाणं वा, साइमं (१७) शैक्ष, यदि रानिक माधु के साथ अशन, पान, खादिम वा, साइमं का पडियाहिता त रायणिय अणा- और स्वादिम आहार को (उपाश्रय में) लाकर रालिक से बिना पुग्छित्सा अस्स जस्स इच्छा तस्स तस्स ख खवं पूछे जिस-जिस साधु को देना चाहता है जल्दी-जल्दी अधिकतं बलयसि, भवा आसायणा सेहस्स। अधिक मात्रा में देवे तो उसे आशातना दोष लगता है। १८. सेहे असणं या, पाणं वा, खाइमं षा, साइमं वा (१८) शैक्ष, अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को पडियाहिता रायणिएणं सडि आहारेमाणे तत्थ लाकर रालिक साधु के साथ आहार करता हुआ यदि वहां यह सेहे-बच-खळ डाग-दागं उसह-उसई रसियं- शैक्ष प्रचुर मात्रा में विविध प्रकार के शाक, श्रेष्ठ, ताजे, रसदार, रसियं मणुलं-मणुन्न मणाम-मणामं नि-निवं मनोश, मनोभिलपित (खीर, रबड़ी, हलुआ आदि) स्निग्ध और लुख-सुक्खं आहारिता, भयह आसायणा सेहस्स। रूक्ष नमकीन पापड़ आदि आहार करे तो उसे आशातना दोष लगता है। १६. सेहे रायणियस बाहरमाणस्स अपडिसुणिता, (१६) रानिक के बुलाने पर वदि शक्ष शत्निक की बात मवह आसायणा सेहस्स। को नहीं सुनता है (अनसुनी कर चुप रह जाता है) तो उसे आशातना दोष लगता है। २०. सेहे रायणियस्स शहरमाणस्स तत्थाए वेव पडि- (२०) रानिक के बुलाने पर यदि शैक्ष अपने स्थान पर सुणिता, मवई आसरयणा सेहस्त । बैठा हुआ उनकी बात को सुने और सन्मुख उपस्थित न हो तो आशातना दोप लगता है। २१. लेहे रापणियं "क" त्ति धमा, भवह आसायणा (२१) रात्निक के बुलाने पर यदि शैक्ष 'क्या कहते हो" ऐसा कहता है तो उसे आशातना दोष लगता है। २२. सेहे रायगियं "तुम" ति वत्सा, भवइ आसायणा (२२) शैक्ष, रात्निक को "तू" या "तुम" कहे तो उसे सेहस्स। आशातना दोष लगता है। २३. सेहे रायणियं खद खडं वत्ता, भषद आसायगा (२३) पीक्ष, रानिक के सम्मुम्ब अनर्गल प्रलाप करे तो उसे सेहस्स। आशातना दोष लगता है। २४. सेहे रायगियं तम्जाएग तज्जाएणं पबिहणिता, (२४) थैक्ष, रालिक को उसी के द्वारा कहे गये बचनों से भवद आसायणा सेहस्स ।। प्रनिभाषण करे तो उसे माशातना दोष लगता है। २५. सेहे रायणियस कहं कहेमाणस "इति एवं" वत्ता (२५) शक्ष, रालिक से कथा कहते समय कहे कि "यह ऐसा भवड आप्सायणा सेहस्स। कहिय" तो उसे आणातना दोष लगता है। २६. सेहे रायणियस्स पहं कहेमाणस्स "नो मुमरसो" (२६) शैक्ष, रानिक के कथा कहते हुए "आप भूलते हैं, त्ति वसा, मवइ अासायणा सेहस्स । आपको स्मरण नहीं है" कहता है तो उसे आशातना दोष लगता है। २७. रायणिमस्त कह कहेमाणस्स णो सुमणसे, (२७) शैक्ष, रानिक के कया कहते हुए यदि सु-मनस न रहे मवह पासायणा सेहस्स। (दुर्भाव प्रकट करे.) तो उसे आशातना दोष लगता है। २८. सेहे रायषियस्त कह कहेमाणम्स परिसं भेत्ता, (२८) शैक्ष, रानिक के कथा कहते हुए यदि (किसी बहाने __ भवइ आसायमा सेहस्स । से) परिषद् (सभा) को विसर्जन करने का आग्रह करे तो उसे आशासना दोष लगता है। २६. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं आमिछविता, (२६) शैक्ष, रालिक के कथा कहते हुए यदि कथा में बाधा भवह आसायणा सेहस्स। उपस्थित करे तो उसे आशातना दोष लगता है। ३०. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तीसे परिसाए, (३०) शैक्ष, रानिक के कथा कहते हुए, उस परिषद् के अजुट्टियाए अभिन्नाए अन्छिन्माए, भवनोगडाए अनुत्थित (नहीं उठने तक) अभिन्न. अच्छिन्न (छिन्न-भिन्न नहीं बोच्चपि तमचंपि तमेव कहं कहिता, भवा आमा- होने तक) और अव्याकृत (नहीं बिखरने तक) विद्यमान रहते मणा सेहस्स। हुए यदि उसी कथा को दूसरी बार और तीसरी बार भी कहता है तो उसे आयातना दोष लगता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *4] चरणानुयोग अहवा तेत्तीस आलायणाओ१४१. १. अरिहंताणं आसायचाए, १ ३१. सेहे रायसिन्जा-संचार पाएन संघट्टित्ता हत्येण अविसा छ म आसाणा सेहत | २२. हे रायणिवस्त्र सिग्जा संधारए निहिता वा निसीहता था, तुर्याट्टत्ता वा मबद्द आसावणा मेह ३३. सेहे रायणियस्स उच्चासशंसि वा समासणंसि वा चिट्ठित्ता बा, निसीहता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसायण सेहस्स । एमाओ खलु ताओ थेहि भगवंतहि तेतीसं आसा पणाओ पण्णत्ताओ ।-त्ति बेमि । --दसा.द. ३, सु. १-३ २. सिद्धरणं सायणाएं, ३. आयरियाणं आसायणाए, ४. उवज्झायाणं आसायणाए, ५. साहू गायणाए, ६. साहूणी असावणाए, ७. साथमाणं श्रसग्यणाए, ८. सावियाणं आसायणाए, सेतीस आशातना सम, सम. ३३, सु. १ । (३१) मैक्ष, यदि रानिक साधु के भैम्या - संस्तारक का (असावधानी से पैर से स्पर्श हो जाने पर हाथ जोड़कर बिना क्षमा-याचना किये चला जाये तो उसे आशातना दोष लगता है । (३२) शनिक के संय्या-संस्तारक पर खड़ा होने, बैठे मा लेटे तो उसे आज्ञातना दोष लगता है। १४०-१४१ (३३) शैक्ष, रानिक से ऊंचे या समान आसन पर खड़ा हो या बैठे या लेटे तो उसे आशातना दोष लगता है। स्थविर भगवन्तों ने निश्चय से ये पूर्वोक्त तेतीस आशातनाएँ कही है। ऐसा मैं कहता है। तेतीस आशातना (दूसरा १४१. (१) अरिहन्तों की कहाँ है नहीं है तो फिर विकल्प करना) प्रकार ) - यातना वर्तमान में यहाँ अरिहन्त जालना कैसी ? (हस प्रकार का ― (२) सिद्धों को आघातना सिद्धों के शरीर नहीं है फिर सुख का उपभोग किस प्रकार होगा ? वे निष्क्रिय हैं फिर उनका ज्ञान सचित्य कैसे ? इत्यादि विकल्प करना । (२) आवासों की आशातना यह चमुजय है, यह कुलीग नहीं है, वह स्वयं जंग्यावृत्ति करने के लिए सबको प्रेरणा देता है, इत्यादि विकल्प करना । (४) उपाध्यायों की आज्ञावना आचार्य के समान 1 (५) साधुओं की आशातनाये मलिन वस्त्र रखते हैं, ये कठोर तप करके आत्मघात करते हैं, इनके जाति कुल का कोई पता नहीं है, केशलुंचन जैसे अज्ञान कष्ट सहनकर अपना बड़प्पन बताते हैं, इत्यादि विकल्प करना । (६) साध्वियों की आशातनामे सदा अपवित्र रहती हैं, बलहीना होती है. अत्यधिक परिषह रखती है, इत्यादि विकल्प रखना । (७) श्रावकों की आशातना - ये प्रतिदिन मिथ्याभाषण करकेमा मिलेते रहते हैं ये तो गावाचारी हैं, ये जन धन में ममत्व रखकर मुक्ति की कामना करते हैं. ये सन्तान और सम्पत्ति की कामना से दान पुण्य करते हैं, इत्यादि विकल्प रखना । (c) आविकाओं की आहातनाये दाल-यवों में मोह रखती है, रात-दिन बारम्भ परिग्रह में लगी रहती है, इनमें ईपी जलन बहुत रहती है, इत्यादि बातें कहकर अपहेलना करना । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र १४१ ९. देवाणं आसायणाए. १०. देवोणं आस । यणाए, ११. सोस आमायणाए पर लोगस्स आहाय गाए १२. केवल आसायणाए १३. केवलोपन तस्स धम्मस्स आसामनाए. १४. देवासुरन लोग १५. सखपाण-भूय जीव सत्तार्ण बातायणाए १६. कालस्स आमायणाए, २७. सुवस्स आसावणाए, १०. देवाएं आसावणाए १६. बायणायरियस आसायणाए चउस पाण आसायणाओ २०. जं T २१. वस्वामेलियं, २२. हण २३. अध्वरखरं, २४. प २५. विजय होणं, २६. तेतीस आसतनाएं विनय ज्ञानाधार 29 (2) देवताओं की आशातना देवताओं की निन्दा करना या देवताओं का अस्तित्त्व ही न मानना, पुनर्जन्म न मानना । (१०) देवियों की आशातना - देवों के समान । (११) इहलोक और परलोक की माशातना दर परलोक की प्ररूपणा को असत्य मानना, पुनर्जन्म न मानना, नरक आदि चार गतियाँ न मानना । करना । (१२) केवली की आशा केवी का अनाद (निर (१३) केवली -प्रज्ञप्त धर्म की आशातना - धर्म के माहात्म्य का अपलाप करना, सर्वज्ञकथित सिद्धान्तों का उपहास करना । आता देवादि सहित लोक के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, लोक सम्बन्धी पौराणिक धारणाओं पर विश्वास करना, लोक की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं का प्रचार करना । (१४) लोक (१५) प्राण, भूत जीव और सत्रों की आशातना - आत्मा का अस्तित्व स्वीकार न करना, या क्षणिक मानना, पृथ्वी आदि को निर्जीव मानना । (१६) काल की आशातना -- "काले कालं समायरे" - के सिद्धान्त को स्वीकार न करना, या इस सिद्धान्त का उपहास करना है (१७) श्रुत की आशातना - श्रुत की प्राकृत भाषा सामान्य जतों की भाषा है, श्रुत में परस्पर विरोध है, इत्यादि विकल्प रखना । (१८) श्रुत देवता की आशातना - श्रुत की अधिष्ठात्री देवी को अकिचित्कर मानना | (१६) वाचनाचार्य की आशातना - उपाध्याय की आशा से शिष्यों को त का उद्देश आदि करने वाले को वाचनाचार्य कहते हैं। ---- उसकी अवज्ञा करना । [ चौवह शान की आशातना] (२०) व्याविद्ध - आगम पढ़ते हुए पदों को आगे-पीछे करके बोलना । (२१) माहिया के पाठों को दोहराना, अथवा अन्य सूत्र का पाठ अन्य सूत्र में मिला देना । (२२) होनाक्षर-अक्षर छोड़कर स्वाध्याय करना । (२३) अधिकाक्षर आगमपात्र में अधिक अक्षर बोलना । (२४) पवहीन आगमपाठ में से पद छोड़कर पाठ करना । (२५) विनयहीन शास्त्र पढ़ाने वाले का विनय न करना । (२६) योगहीन-मन, वचन और काययोग को चंचल रखना । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] चरणानुयोग आशातमा के फल का निरूपण सूत्र १४१-१४२ २७. धोमहोणं, (२७, घोषहीन उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का यथार्थ उच्चारण न करना। २८. सुबिन्न, (२८) मुष्ठुदत्त-शिष्य को उसकी योग्यता से अधिक पढ़ाना। २६. बुपडिच्छिएं, (२६) दुष्टप्रतिच्छित-श्रुत को दुर्भाव से ग्रहण करना। २०. भास की सजाओ, (३०) अकाल में स्वाध्याय करना—कालिक श्रुत को अकाल में पढ़ना, और उत्कालिक श्रुत को अस्वाध्यायकाल में पढ़ना । ३१. काले न ओ सजलाओ, (३१) काल में स्वाध्याय न करना-कालिक और उत्कालिक आगमों को निश्चित स्वाध्यायकाल में न पड़ना । ३६. असजमाइए सज्वाइयं, (३२) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करना-बत्तीस अस्वाध्यायों में स्वाध्याय करना। ३३. सम्माइए म सज्माइयं । (३३) स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना जिस समय -आव. अ. ४, सु. २६ बत्तीस अस्वाध्याय में से एक भी अस्वाध्याय न हो, फिर भी स्वाध्याय न करना। आसायणा-फल-निरूवणं आशातना के फल का निरूपण१४२. यादि मंदि ति गुरु वित्ता, १४२. जो मुनि गुरु को-."ये मंद (अल्पप्रज्ञ) हैं", ये "ये अल्पउहरे इमे अप्पमुए सि नचा। व्यस्क और अल्प-श्रुत हैं", ऐसा जानकर उनके उपदेश को मिथ्या हीलंति मिच्छं पडिबजमाणा, मानते हुए उनकी अवहेलना करते हैं। वे गुरु की आणातना करति आसरयण ते गुरु ।। करते है। पगईए मंदा वि भवंति ए, कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से मन्द (अल्प-प्रज) हरा वि य जे सुयबुद्धोवत्रेया। होते है और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि मे मायारमंता गुणमुट्टिअप्पा, सम्पन्न होने हैं। आचारवान् श्रीर गुणों में मुस्मिनात्मा आचार्य, जे होलिया सिहिरिव भास कुज्जा ॥ भले फिर दे मन्द हो या प्राज्ञ, अवज्ञा शप्त होने पर गुण-राशि को उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिम प्रकार अग्नि ईंधन-राशि को। जे यावि नाग रहरे ति बच्चा, जो कोई—यह सर्प छोटा है-ऐसा जानकर उसकी आणाआसायए से अहियाय होई। तना (कदधंगा) करता है, वह (सई) उसके अहित के लिए होता एयायरियं पिइ होलयातो, है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला नियच्छई जाइपहं च मंवे।। मम्द संमार में परिभ्रमण करता है। आसीविसो याषि परं सुट्टो, आशीविष सर्प अत्यन्त ऋद्ध होने पर भी "जीवन-नाश" से कि जीवनासाओ परं न कुज्जा। अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आवार्यपाद अप्रसन्न होने पर आयरियपाया पुण अपसन्ना, अबोधि के कारण बनते हैं । अतः आ णासना से मोक्ष नहीं मिलता। अयोहिआसायण नस्थि मोक्यो। जो पावर्ग जलियमवयक मेज्जा, कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष मर्प को कुपित आसीविसं वा विहु कोवएज्जा। करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है, गुरु की जो वा विसं खायइ जीवियट्टी, आशातना इनके समान है । वे जिस प्रकार हित के लिए नहीं होते, एसोवमासायणया गुरुगं ॥ उसी प्रकार गुरु की आशातना हित के लिए नहीं होती। सिया ह से पाय नो दहेज्जा, सम्भव है कदाचित् अग्नि न जलाए, सम्भव है आशीविष सर्प आसीवितो वा कुविओ न भरखे। कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि हलाहल सिया विसं हातहसं मारे, विष भी न मारे, परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष सम्भव नहीं है। बाषि मोचो गुवहीलणाए । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष १४२-१४५ आशातना के प्रायश्चित्त विनय नानाचार जो पवयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, कोई शिर से पर्वत का भेदन करने की इच्छा करता है, सोए मन मोह पीबडएला । हारो जगाता है और भाले की नोंक पर प्रहार करता है, जो वा दए सत्तिमग्गे पहार, गुरु की आशातना इनके रामान है। एसोवमामायणया गुरुपं । सिया हु सोसेण गिरि पि भिदे, सम्भव है गिर से पर्वत को भी भेद डाले, सम्भब है सिंह सिया र सीहो कुविओ न भक्खे । कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि भाले की सिया न भिवेज व सत्तिमग, नोंक भी भेदन न करे, पर गुरु को अवहेलना से मोक्ष सम्भव न यावि मोवखो गुरुहोलणाए । नहीं है। आयरियपाया पुण अप्पसला, आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर दोधि-लाभ नहीं होता। अबोहिआसापण नत्यि मोक्यो। आयातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए मोक्ष-सुख चाहने वाला अणाबाहसुहाभिकखी, मुनि गुरु-कृपा के अभिमुख रहे । गुराष्पसायाभिमुही रमेज्जा॥ दस. अ. ६, उ. १, गा. २-१० आसायणाए पायच्छित आशातना के प्रायश्चित्त१४३. जे भिक्खू आयरिय-उवमाया सेज्जा-संपारयं पाएग १४३. जो भिक्षु आचार्य उपाध्यायों की शैया स्तारक को पैर से संघट्टत्ता हत्येणं अग्णपणवेत्ता धारयमाणे गच्छद गछतं वा छूकर हाथ से विनय किये बिना जाता है, जाने के लिए कहता है, साइज्जा। जाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमागे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । वह भिक्षु लघु चातुर्माभिक परिहार प्रायश्चित्त का पात्र ___-नि. उ. १६, मु. ३६ (५१) होता है। १४४.जे भिक्खू भिक्खं अब्जयरीए अचासायणाए अच्चासाए १४४, जो भिक्षु भिक्षु को किसी एक प्रकार की आशातना करता अचासायंतं बा साहज्जइ । है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आयज्जा पाउम्मासियं परिहारद्वागं उन्धाइयं । बह भिक्षु चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान प्रायपिवस] -नि.उ. १५, सु.४ का पात्र होता है। अविणयकरणस्स पायच्छित्त अविनय करने का प्रायश्चित्त१४५. जे भिक्खू भवंतं आगावं वयह वयंतं वा साइजइ । १४५. जो भिक्ष आचार्य को अपशब्द कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्ख भवंत फरस वयह वयंतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु आचार्य को कठोर वचन कहता है. कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख भवंतं आगाई फरसं बबइ ययंत वा साइज्जइ। जो भिक्षु आचार्य को अपशब्द और कठोर वचन कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। के मिक्ल भवंतं अग्गयरीए अच्चासायणयाए अच्चासाएर जो भिक्षु आचार्य की किसी एक प्रकार की आशातना करता अश्चासायंत वा साइम्जा। है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारटाणं अणुग्धाइयं। वह भिक्षु गुरु चातुर्मासिक परिहार प्रायश्चित्त स्थान का पार - नि. उ. १०, सु. १-४(५१) होता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.1 वरणानुयोग आबायों की महिमा सूत्र १४६-१४ तइओ बहुमाण णाणायारो तृतीय बहुमान ज्ञानाचार आयरिय महिमा आचार्यों की महिमा१४६. जहा निसते तवणश्चिमालो, १४६. जैसे दिन में प्रदीप्त होता हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत (भरतपभासई केवलभारहं तु । क्षेत्र) को प्रकाशित करता है वैसे ही श्रुत. शील और बुद्धि मे एवायरिओ सुयसोलकुदिए, मम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करते हैं और जिस प्रकार विरायई मुरमरमे व इंदो॥ देवताओं के नीच इन्द्र शोभित होता है, उसी प्रकार साओं के बीच आचार्य सुशोभित होते हैं। जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, जिस प्रकार बादलों से मुक्त विमल आकाश में नक्षत्र और नक्षत्ततारागणपरिवुडप्पा तारागण से परिवृत आश्विन कार्तिक पूर्णिमा में उदित चन्द्रमा खे सोही विमले अन्भमुषके. शोभित होता है, उसी प्रकार मिक्षओं के बीच गणी (आचार्य) एवं गणी सोहइ भिक्षुमन ।। गोभित होते हैं। महागरा आयरिया महेसी, अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति की इच्छा रखने वाला सपाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए । मुनि मिरा का अहोकर समाभियोग, ध्रुतशील और बुद्धि के संपाविजकामे अणुत्तराई, महान् भाकर, मोक्ष की एषणा करने वाले आचार्य की आराधना भाराहए तोसए धम्मकामी । करे और उन्हें प्रसन्न करें। -दस. अ.६, उ. १, गा. १४-१६ आयरिय सुस्सूसा फलं आचार्य की सेवा का फल१४७. सोमचाण मेहाबी सुभासियाई, १४७, मेधावी मुनि इन सुभाषितों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ सुस्सए आयरियप्पमत्तो । आचार्य की सुश्रूषा करे । इस प्रकार यह अनेक गुणों की आराधना आराहइत्ताप गुणे अगेगे, कर अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है। से पावई सिदिमणुप्तरं ॥ -दस, अ. ६, उ. १, गा.१७ रुक्खमेयेण आयरिय भेया : वृक्ष के भेद से आचार्य के भेद१४६. (क) बत्तारि क्खा पण्णता, तं जहा-- १४८ (क) वृक्ष चार प्रकार के कहे हैं, यघा - साले णाममेगे सालपरियाए, शाल जाति का हो और शाल पर्यायी हो, साले जाममेगे एरंउपरियार, शाल जाति का हो और एरण्ड पर्यायी हो, एरण्डे णाममेगे सालपरियाए, एरण्ड जाति का हो और शाल पर्यायी हो, एरण गाममेगे एरण्डपरियाए, एरण्ड जाति का हो और एरण्ड पर्यायी हो। एषामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा - इसी प्रकार आचार्य चार प्रकार के कहे हैं यथासाले गाममेगे सालपरियाए, श्रेष्ठ जाति, कुल गमुत्पन्न हो और ज्ञान क्रिया युक्त हो, सासे गाममेगे एरण्डपरियाए, श्रेष्ठ जाति, कुल समुत्पन्न हो और ज्ञान-त्रिन्या रहित हो, एरण्ड णाममेगे सालपरियाए, धेष्ठ जाति, कुल में अनुत्पन्न हो और ज्ञान-क्रिया युक्त हो, एरहे याममेगे एरण्डपरियाए, श्रेष्ठ जाति, कुल में अनुत्पन्न हो और ज्ञान-क्रिया रहित हो । (ख) चत्तारि रुपवा पणत्ता. त जहा (ख) वृक्ष चार प्रकार के कहे हैं, यथासाले गाममेगे सालपरिवारे, शाल जाति का और माल परिवारवाला, साले पाममेगे एरणपरिवार, शाल जाति का और एरण्ड परिवारबाला, एरणाममेगे सालपरिवार, एरण्ड जाति का और साल परिवारवाला, एरण्डे णाममेगे एरण्डपरिवारे, एरण्ड जाति का और एरण्ड परिवार वाला। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 १४-१५० एवमेव बतारि आयरियाणा, तं जहा-साले गाममे सालपरिवारे, साणायमे परिवारे एरण्डे णाममेगे सालपरिवारे, एरण्डे नाममे परिवारे । सालमा जसले पाम होह दुमराया । इस सुन्दर आयरिए, सुन्दरसो से मुणेयश्वे ॥ एरण्डमारे, नह साल काम होइ दुमराया । इस सुन्दर आयरिए मंगल सोये ॥ सालदुममज्झारे, एरण्डे नाम होइ घुमराया । मंगल आरिए सुन्दरतो ॥ एरण्डमवारे, एरण्ड नाम हो बुमराया मंगुलमारिए मंगलसोसे पुणेपथ्ये ॥ ठा. अ. ४, उ. ३. सु. ३४९ इय फल भेद से आचार्य के भव फलभेयेण आयरिय भैया१४६. सरिफला पण्णत्ता, तं जहा- रे २. मुष्टियामकलसमाणे, ३. खीर मट्टरफलमाणे, ४. खंड मरफलसमा । करंडग सभाणा आयरिया - १. ३. खीर - महुरे, एकमेव तारि आयरिया पणत तं जहा--- १.मा २. मुद्दिया – मरे, ४. खंड महुरे । १५०. चारि करंडगा पण्णत्ता, तं जहा २. ३. गाहाबदरंगसमाने, ४. राजकरं समाणे । -डा. ४ . २, सु. ३१६ १. सवा २. गाहाबई - करंडए, ४. एवमेव चारि आपरिया पण्णसा, तं जहा१.सा, २. वेसिया - करंडए, करंड ---ठाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३४० बहुमान ज्ञानाचार १०१ इसी प्रकार आचार्य चार प्रकार के कहे हैं, यथा श्रेष्ठ जाति, कुल समुत्पन्न और श्रेष्ठ गुण सम्पन्न शिष्य परिवारवाला श्रेष्ठ जाति, कुल समुत्पन्न और गुण रहित शिष्य परिवार गाला जाति, कुल में अनुत्पत्र और गुण सहित शिष्य परिवार वाला । श्रेष्ठ जाति कुल में और गुण रहित शिष्य परि वारवाला | जिस प्रकार शाल वृक्षों के मध्य में रहा हुआ महान् शाल वृक्ष शोभित होता है। उसी प्रकार सुन्दर शिष्यों के मध्य में सुन्दर आचार्य शोभित होते हैं। जिस प्रकार एरण्ड वृक्षों के मध्य में महान शाल वृक्ष अशोघनीय लगता है उसी प्रकार सुन्दर आचार्य अनुन्दर शिष्यों से अशोभनीय लगते हैं । शाल वृक्षों के बीच में जैसी एरण्ड की स्थिति है वैसा ही सुन्दर शिष्यों में अमुन्दर आचार्य की स्थिति है। एरण्डों में जैसे एरण्ड रहता है, वैसे ही असुन्दर शिष्यों में अनुन्द आचार्य रहता है। फल भेद से आचार्य के भेद १४६. चार प्रकार के फल कहे हैं, यथा-(१) जैसे मधुर (३) क्षीर जैसे मधुर, इसी प्रकार आचार्य चार प्रकार के कहे हैं, यथा (१) आँवला जैसे मधुर फल के समान, (२) दाक्षा जैसे मधुर (४) ग्रांड जैसे मधुर | (२) द्राक्षा जैसे मधुर फल के समान, (३) क्षीर जैसे मधुर फल के समान, (४) खांड जैसे मधुर फल के समान । करंडिया के समान आचार्य- १५०. चार प्रकार के कर कहे हैं, यथा--- (१) करंडक, (३) गाथापति - करंडक, (२) वेश्या - करंडक, (४) राज करंडक, इसी प्रकार चार प्रकार के आचार्य कहे हैं। यथा (१) श्वान के करंडक जैसे, (२) वेश्या के परंडक (३) माथापति के रं (४) राजा के करंडक जैसे । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] चरणानुयोग आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि सूत्र १५१-१५४ आयरिय-उवज्झायाणं सिद्धि आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि१५१. ५०-मारिय-उपसाएक मते ! अवसर मयं वनमार १५३. ३-.--, भनन् । काचार्य और उपाध्याय यदि अपने संगिण्हमाणं, अगिलाए उगिहमाणे कहि भवगह- शिष्यों को बिना ग्लानि के सूत्रार्थ दे और बिना ग्लानि के रत्नहि सिजाइ-जाव-सन्यदुक्खाणमतं करेइ ? अय की माधना में सहयोग दे तो कितने भव ग्रहण करने के पश्चात् मिन्द होते हैं-याव-सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? उ०-गोयमा ! अस्येगइए तेणेव अवगहोणं । उ०-हे गौतम ! कुछ एक तो उसी भव से सिर होते हैं अत्थेगइए दोच्चैणं भवागणं सिज्म । और कुछ एक दो मव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं किन्तु तीसरे भव तच्चं पुष भवरगहणं माइक्कमद ॥ को तो कोई लापता नहीं अर्थात तीसरे भव से तो सिद्ध होते -वि. पा. ५, ज. ६,सु. ११ ही है। आयरिय-उवासणा-. आचार्य की उपासना१५२. जहाहियम्गी जलमं नमसे, १५२. जैसे आहितानि ब्राह्मण विविध आइति और मन्त्रपदों से नाणाहुईमतपयाभिसित्तं अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तएवारियं उचिट्ठएज्जा, शाम सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे । अर्थतनाणीवगओ बि संतो।। -दस. अ. ६. उ. १, मा. ११ गुरु-पूयणं गुरु-पूजा१५३. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्वे, १५३. जिसके समीप धर्मपदों की शिक्षा तेता है उसके समीप तस्सतिए वेणइयं पजे । विनय का प्रयोग करे ! फिर को झुकाकर, हाथों को जोड़कर सक्कारए सिरसा पंजलीओ, (पंचांग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार करे। कायरिंगरा मो मणसा य निन् । लज्जा दया संजम बभचेर, लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचयं कल्याणभागी साधु के कल्लापमागिस्स विसोहिठाणं । लिए विशोधिस्थल हैं। जो गुरु मुझे उनकी सतत शिक्षा देते हैं जे मे गुरु समयमणुसासयंति, उनको मैं सतत पूजा करता हूँ। ते हं गुरु सवयं पूपयामि ।। -दस. अ. ६, उ.१, मा. १२-१३ तहारूबसमण माहणाणं पज्जुवासणा फलं तथारूप श्रमणों माहणों की पर्युपासना का फल१५४.4.--१. तहारूवा गं मंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवास- १५४. प्र.--मन्ते ! तथारूप (जैसा वेश है, तदनुरूप गुणों वाले) मागस्स किं फला पन्जुवासणा? धमण' या माहन की पयुपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? उ०-गोममा ! सवणफसा। उ०-गौतम ! पर्युपासना का फल श्रवण है। १०-२. से गं मते ! सवणे कि कले? प्र०-(२) भन्ते ! उस श्रवण का क्या फल होता है ? उ.-जागफले। उ.-गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। १०-३. से णं भंते ! जाणे कि फले? -(३) भन्ते ! उस ज्ञान का क्या फल होता है? उ०—विण्णाणफले । उ-गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है। ५०-४. से णं भंते ! विष्णाणे किं फले ? प्र०-(४) भन्ते ! उस विज्ञान का क्या फल होता है ? ३०-पचवखाणफले। उ०—गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। प०-५. से पंचते ! पन्चक्खा कि फले? प्र०--(५) भन्ते ! प्रत्याख्यान का क्या फल होता है? ८०-संजमफले। उ०—गीतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र १५४-१५६ गुरु और सामिक सुभूषा का फल बहुमान ज्ञानाचार [१०३ प०-६. से गंमते ! संजमे कि फते? प्र--(६) भन्ते ! संयम का फल क्या है ? उ. -अणण्य फले। ना--गौतम ! संगम का फल अनाववत्व (संबर-नवीन कमों का निरोध) है। -७. से गंमते ! अणहये कि फले ? प्र०-(७) भन्ने ! अनाथवत्व का क्या फल होता है ? उ-गौतम ! अनावस्व का फल तप है । प०-८. से भंते तवे कि कले? प्र.-(८) भन्ते ! तप का क्या फल होता है ? उ-बोदागफले । उ०—गौतम ! तप का फल व्यवदान (कर्मनाश) है । ५०-६. से गंभो ! यौवाणं कि फले ? Ho-(8) भन्ते ! व्यवदान का क्या फल होता है ? ज०-अकिरियाफले। 3०-गौतम ! व्यवदान का फल अक्रिय है।। प-10, से गं मंते ! अकिरिया कि फला? प्र.-(१०) मन्त ! अक्रिय का क्या फल होता है ? उ०—सिद्धिपज्जवसाणकला पण्णत्ता गोयमा ! -गौतम ! अक्रिय का अन्तिम फल सिद्धि है। (अर्थात् –अक्रियता-अयोगी अवस्था प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धिमुक्ति प्राप्त होती है।) गाथासवर्ण जाणे व विणाणे, पश्चपखाणे व संजमे । (१) (पपासना का फल) श्रवण, (२) (श्रवण अणण्हये तो नेव, बौदाणे अकिरिया सिद्धि ॥ ज्ञान, (३) (ज्ञान का फल) विज्ञान, (४) (विज्ञान का फल) -वि. स. २, उ. ५, सु. २६ प्रत्याभ्यान, (५) (प्रत्याख्यान का फल) संयम, (६) (संयम का -ठाण. अ ३, उ. ३, सु. १६५ फल) अनाश्रवस्व, (७) (अनाश्रवत्त्र का फल) तप, (4) (तप का फल) व्यवदान, (९) (भ्यनदान का फल) अक्रिया और (१०) (अत्रिया का फल) सिद्धि है। गुरु साहम्मिय सुस्सुणया फलं गुरु और मार्मिक सुथूषा का फल - १५५. ५०-गुरुसाहम्मियमुस्सूसणमाए णं मंते ! जीव कि जणयह? १५५. प्र. भन्ने ! गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा (पयुपासना) में जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणयाए णं विणयपवित्ति जणयइ। उ०- गुरु और सार्मिक की शुश्रूषा से वह विनय को प्राप्त "विणयपडिवन्ने " जीवे अणच्चासारणसोले होता है । विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय नेरहयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदोग्गईओ निहम्बई। या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नरयिक, तियंगवष्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए मगुस्सदेवसोग्गईओ योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। निबन्ध सिद्धि सोग्गई च विसोहेह। पसत्याहं च पं श्लाघा, गुण-प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और विणयमूसाई सम्बकज्जाई साहेछ। अन्ने य बहवे जीवे देव-सम्बन्धी सुगति से सम्बन्ध जोड़ता है। सिद्धि और सुगति विणइसा अवह। का मार्ग प्रशस्त करता है। विनय-मूलक सब प्रशस्त कार्यों को -~-उत्त. अ. २६, सु. ६ सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर ले आता है। गुरुकुलवासस्स माहप्प गुरुकुलवास का माहात्म्य । १५६. गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, १५६. इस लोक में वाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह का त्याग करके उद्धाय सुबंभचेर बसेज्जा। प्रव्रजित होकर मोक्षमार्ग-प्रतिपादक शास्त्रों के ग्रहण, (अध्ययन), ओषायकारी विणयं सुसिक्खे, और आसेवन (आचरण) रूप में गुरु से सीखता हुआ' साधक छए विप्पमा न कुज्जा ॥ सम्यकप से ब्रह्मचर्व (नवगुप्ति सहित ब्रह्मवर्य या संयम) में स्थित रहे अवघा गुरुकुल में वास करे । आचार्य या गुरु के सान्निध्य में अथवा उनकी आज्ञा में रहता हुआ शिष्य विनय का प्रशिक्षण ले। (संयम या गुरु-आशा के पालन में) निष्णात साधक (कदापि) अमावन करे। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] चरणानुयोग गुरुकुलवास का माहात्य सूत्र १५६ जहर दियापोतमपत्तजातं, सावासमा पवित्रं मणमाणं । समचादयं तरुणमपत्तजातं, हुंकादि अश्वत्सगर्म हरेषजा ॥ जैसे कोई पक्षी का बच्चा पूरे पंख आये बिना अपने आवासस्थान (वोसले) से उड़कर अन्यत्र जाना चाहता है, वह तरुण (बाल) पक्षी उड़ने में असमर्थ होता है। थोड़ा-थोड़ा पंख फड़फड़ाते देखकर ढंक आदि मांस-लोलुप पक्षी उसका हरण कर लेते हैं और मार डालते हैं। एवं तु सेह पि अपुट्ठधाम, निस्सारियं बुसिम मण्णमाणा। दियस्स छावं व अपसजातं, हरिसु णं पावधम्मा अणेगे। इसी प्रकार जो साधक अभी श्रुत-चारित्र धर्म में पुष्टपरिपन नहीं है, ऐसे शैक्ष (नवदीक्षित शिष्य) को अपने गच्छ (संघ) से निकला या निकाला हुआ तथा वश में आने योग्य जानकर अनेक पाषण्डी परतीथिक पंख न आये हुए पक्षी के बच्चे की तरह उसका हरण कर लेते (धर्मभ्रष्ट कर देते हैं। ओसाणमिच्छे मणुए समाहि, अणोसिते गंतकरे ति गच्चा । ओभासमापो पवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे रहिया अासुपण्णे ॥ गुरुकुल में निवास नहीं किया हुआ साधकपुरुष अपने कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, यह जानकर गुरु के सान्निध्य में निवाम और समाधि की इच्छा करे । मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्यभूत-निष्कलंक चारित्रसम्पन्न) पुरुष के आचरण (वृत्त) को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे । अत: आशुत्रज्ञ साधक गच्छ से या गुरुकुलवास से वाहर न निकले। जै ठाणो या सयणासणे या, गुरुकुलवास से साधक स्थान—(कायोत्सर्ग), शयन (शय्यापरक्कमे यावि सुसाधुजुत्ते । संस्तारक, उपाश्रय गयन आदि) तथा आसन, (आसन आदि पर समितीसु गुत्तीसु य आयपणे, उपयेशन-विवेक, गमन-आगमन, तपश्चर्या आदि) एवं संयम में वियागरसे य पुरो वदेज्जा ॥ पराक्रम के (अभ्यास) द्वारा सुसाधु के समान आचरण करता है। -- सूय. सु. १, अ.१४, गा. १-५ तथा समितियों और गुप्तियों के विषय में (अभ्यस्त होने से) अत्यन्त प्रज्ञावान् (अनुभवी) हो जाता है. वह ममिति-गुप्ति आदि का यथार्थस्वरूप दूसरों को भी बताता है। सहाणि सोच्चा अदु मेरयाणि, अणासवे तेसु परिवएज्जा। निई च भिषा न पमाय कुज्जा, कहकहं पी चितिगिच्छतिपणे ॥ ईर्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर उनमें मध्यस्थ -राग-द्वेग रहित होकर संयम में प्रगति करे, तथा निद्रा-प्रमाद एवं विकथा-कष प्यादि प्रमाद न करे । (गुरुकुल निवामी अप्रमत्त) साधु को कहीं किसी किसी विषय में विचिकित्सा शंका हो जाय तो वह (गुरु से समाधान प्राप्त करके) उससे पार (निश्शंक) हो जाए । उद्वेष बुड्ढेणऽणुसासिते , रातिणिएणावि समत्वएणं । सम्म तम चिरतो गाभिगच्छे, णिग्जंतए वा वि अपाराए से ।। गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए साधु से किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाए तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित (शिक्षित या निवारित) किये जाने पर अथवा भूल सुधारने के लिए प्रेरित किये जाने पर जो साधक उसे सम्यक्तया स्थिरतापूर्वक स्वीकार नहीं करता, वह संसारसमुद्र को पार नहीं कर पाता। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र १५६ गुरुकुलवास का माहत्म बहुमान ज्ञानाचार [१०५ विहितेणं समयाणसिठे, साध्वाचार के पालन में कहीं भूल होने पर परतीर्थिक, बहरेण बुद्धक प चोइते तु । अयवा गृहस्थ द्वारा आहेत आगम विहित आचार की शिक्षा अच्चुट्टिताए घरवासिए वा, दिले गाने पर गा पदरा में छोटे या वृस के द्वारा प्रेरित किये अगारिगं वा समयाणुसिठे ।। जाने पर, यहाँ तक कि अत्यन्त तुच्छ कर्म करने वाली घटदासी (घड़ा भरकर लाने वाली नौकरानी) द्वारा अकार्य के लिए निवारित किये जाने पर अथवा किसी के द्वारा यह कहे जाने पर कि 'यह कार्य तो गृहस्थाचार के योग्य भी नहीं है, साधु की तो बात ही क्या है ? ण तेसु कुज्झे व पन्यहेज्जा, इन (पूर्वोक्त विभिन्न रूप से) शिक्षा देने वालों पर साधु _ण यावि किंचि फरसं ववैज्जा । क्रोध न करे, (परमार्थ का विचार करके) न ही उन्हें दण्ड आदि तहा करिस्सं ति पजिस्मगेज्जा, से पीड़ित करे, और न ही उन्हें पीड़ाकारी कठोर शब्द कहे। सेयं षु मेयं ण पमाष कुज्जा ॥ अपितु "मैं भविष्य में ऐसा (पूर्वऋषियों द्वारा आचरित) ही कर गा" इसप्रकार (मध्यस्थवृत्ति से) प्रतिज्ञा करे, (अथवा अपने अनुचित आचरण के लिए "मिच्छामि दुक्कडं" के उच्चारणपूर्वक आत्म-निन्दा द्वारा उससे निवृत हो) माधु यही समझे कि इसमें (प्रसन्नतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करके उससे निवृत्त होने में) मेरा ही कल्याण है। ऐसा समझकर वह पुनः प्रमाद न करे। वसि मूढस्स जहा अमूढा, जैसे यथार्थ और अयथार्थ मार्ग को भली-भांति जानने वाले मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । ध्यक्ति घोर वन में मार्ग भूले हुए दिशामूह व्यक्ति को कुमार्ग से तेणागि मञ्झ इणमेव सेपं, हटाकर जनता के लिए हितकर मार्ग बता देते (शिक्षा देते) हैं, जं मे बुहाउसम्मणुसासयति ॥ इसी तरह मेरे लिए भी यही कल्याणकारक उपदेश है, जो ये वृद्ध, बड़े या तत्वज्ञ पुरुष मुझे सम्यक् अच्छी शिक्षा देते हैं। अह तेग मूढण अमूढगस्त, उस मूठ (प्रमादवश मार्गभ्रष्ट) पुरुष को उस अमूढ़ (मार्गकायष पूया सविसेसजुत्ता। दर्शन करने या जानत करने वाले पुरुष) का उसी तरह विशेष एतोवर्म तत्य उदाहु बीरे, रूप से (उसका परम उपकार मानकर) आदर-सत्कार (पूजा) अपगम्म आथं उवणेति सम्मं ॥ करना चाहिए, जिस तरह मार्ग भ्रष्ट पुरुष सही मार्ग पर चढ़ाने और बताने वाले व्यक्ति की विशेष सेवा-पूजा आदर-सत्कार करता है । इस विषय में वीर प्रभु ने यही उपमा (तुलना) बताई है। अतः पदार्थ (परमार्य) को समझकर प्रेरक के उपकार (उपदेश) को हृदय में सम्यकप में स्थापित करे। या सहा अंधकारंसि राओ, जैसे अटवी आदि प्रदेशों से भलीभांति परिचित मार्गदर्शक मगंण जाणाइ अपस्समाणं। भी अंधेरी रात्रि में कुछ भी न देख पाने के कारण मार्ग को से सूरियस्स अभुगमेणं, भली-भांति नहीं जान पाता, परन्तु वही पुरुष सूर्य के उदय होने मे मग विजाणाति पपासियंसि ।। चारों ओर प्रकाश फैलने पर मार्ग को भलीभांति जान देता है। एवं तु सेहे वि अपृट्ठयम्मे, इसी तरह धर्म में अनिपुण अपरिपक्व शिष्य भी सूत्र और धम्मं न जाणाति अबुज्ममा । अर्थ को नहीं समझता हुआ धर्म (धमणधर्म तत्व) को नहीं जान से कोषिए जिणवयणेण पन्छा, पाता, किन्तु वही अबोध शिष्य एक दिन जिगवचनों के अध्ययनसूशेदए पास सि सक्खुणेव ॥ अनुशीलन से विद्वान् हो जाता है। फिर वह धर्म को इस प्रकार -सूय. सु. १, अ. १४, गा. ६-१३ स्पष्ट जान लेता है जिस प्रकार सूर्योदय होने पर ऑष के द्वारा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों को स्पष्ट जान लेता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] बरगानुयोग प्रम करने की विधि सूत्र १५७-१५८ पण्हकरणविही-- प्रश्न करने की विधि १५७. कालैग पुच्छे समियं पयासु, माइक्खमाणो दवियस्स वितं । तं सोयकारी य पुढो पवेसे, संखा इम फेवतियं समाहि ॥ १५७, (गुरुकुलवासी) साधु (प्रश्न करने योग्य) अक्सर देखकर सम्यग्ज्ञानसम्पन्न आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे । तथा मोक्षगमन योग्य (द्रव्य) सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के आगम (ज्ञान-धन) को बताने वाले आचार्य की पूजा भक्ति कर । आचार्य को आज्ञाकारी मिष्य उनके द्वारा उपदिष्ट केवलि-प्ररूपित सम्यकज्ञानादिरूप समाधि को भलीभांति जानकर हृदय में स्थापित करे । अस्सि मुठिम्या तिविहेण तायो, एसेतु या संति निरोहमाह। ते एवमरखंति तिलोगरंसी, ण भुजमेत ति पमायसंग ॥ इसमें (गुरुकुलवास काल में) गुरु से जो उपदेश सुना और हृदय में भलीभांति अवधारित किया, उस समाधिभूत मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थित होकर मन-वचन-नाया से कृत, कारित और अनुमोदित रूप से स्व-पर-त्राता (अपनी आस्मा का और अन्य प्राणियों का रक्षक) बना रहे। इन समिति-गुप्ति-आदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने पर सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मनिरोध बताया है। त्रिलोकदर्शी महापुरुष कहते हैं कि साधु को फिर कभी प्रमाद का संग नहीं करना चाहिए । जिसम्म से भिक्ख समोहम, गुरफूलदासी वह साधु उत्तम साधु के भाचार को सुनकर परिमाणवं होति विसारते या । अथया स्वयं अभीष्ट अर्थ---मोक्ष रूप अर्थ को जानकर गुरुकुलवास आयाणमट्टी वोवाण मोणं, से प्रतिभावान एवं सिद्धान्त विशारद (स्वसिद्धान्त का सम्यग्जाता अवेच्छ सुद्धग उवेति मोरवं ।। होने से थोताओं को यथार्थ-वस्तुतत्व के प्रतिपादन में निपूण) -सूय. सु. १, अ. १४, गा. १५-१७ हो जाता है । फिर सम्यम्ज्ञान आदि से अथवा मोक्ष से प्रयोजन रखने वाला (आदानार्थी) बह साधु तप (व्यवदान) और मौन (संयम) ग्रहण रूप एवं आसेवन रूप शिक्षा द्वारा (उपलब्ध करके शुद्ध) निरुपाधिफ उद्गमादि दोष रहित आहार से निर्वाह करता टुमा समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। उत्सरविही उत्सरविधि १५८. संखाय धम्म व बियागरेंति, बुदा हु ते अंतकरा भवति । से पारगा वोह वि मोषणाए, संसोधितं पण्हमुवाहरति ॥ १५८. (गुरुकुलवासी होने से धर्म में सुस्थित, बहुश्रुत, प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद) साधु मबुद्धि से (स्व-पर-शक्ति को, पर्षदा को या प्रतिपाद्य विषय को सम्यक्तमा जानकर) दूसरे को श्रत-चारित्र-धर्म का उपदेश देते हैं (धर्म की व्याख्या करते हैं)। ये बुद्ध-त्रिकालवेता होकर जन्म-जन्मान्तर संचित्त कर्मों का अन्त करने वाले होते हैं। वे स्वयं दूसरों को कर्मपाश से अथवा ममत्वरूपी बेड़ी से मुक्त करके संसार-पारगामी हो जाते हैं। बे सम्यक्तया सोच-विचार कर (प्रश्नकर्ता कौन है ? यह किस पदार्थ को समझ सकता है, मैं किस विषय का प्रतिपादन करने में समर्थ हूँ? इन बातों को भलीभांति परीक्षा करके) प्रश्न का संशोधित (पूर्वापर अविरुवा उत्तर देते हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर विधि बहुमान मानांचार [१.७ - - नो छापते नो बिय लसएज्जा, ___माणं प सेवेश्म पगासणं । प पावि पण्णे परिहास कुग्जा, ण या सिसाबान वियागरेज्जा । भूताभिसंकाए गुछ माणो, ण णिस्नेह मतपवेण गोतं । पकिषि मिच्छ मणुओ पयासु, असाहधम्माणि ण संबवेज्जा ॥ साधु प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के यथार्थ को न छिपाए (अथवा वह अपने गुरु या आचार्य का नाम या अपना गुणोत्कर्ष बताने के अभिप्राय से दूसरों के गुण न छिपाए), अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्रपाठ की तोड़-मरोड़ कर व्याख्या न करे, (अथवा दूसरों के गुणों को दूषित न करे), तथा वह मैं ही सर्वशास्त्रों का ज्ञाता और महान् व्याख्याता हूँ, इस प्रकार मान-गवं न करे, न ही स्वयं को बहुथुत एवं महातपस्वी रूप से प्रकाशित करे अथवा अपने तप, ज्ञान गुण आदि को प्रसिद्ध न करे । प्राश (श्रुतघर) साधक थोता (मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति) का परिहास भी न करे, और न ही (तुम पुत्रवान्, धनवान् या दीर्घायु हो इस प्रकार का) आशीर्वादसूचक वाक्य कहे। प्राणियों के विनाश की आशंका से तथा पाप से घृणा करता हुआ साधु किसी को आशीर्वाद न दे, तथा मन्त्र आदि के पदों का प्रयोग करके गोत्र (बचनगुप्ति या बाक्संयम अथवा मौन) को नि:सार न करे, (अथवा साधु राजा आदि के साथ गुप्त मन्त्रणा करके या राजादि को कोई मन्त्र देकर गोत्र---प्राणियों के जीवन का नाश न कराए) साधु पुरुष धर्मकथा या शास्त्र व्याख्यान करता हुआ जनता (प्रजा) से द्रव्य या किसी पदार्थ के साभ, सरकार या भेंट, पूजा आदि की अभिलाषा न करे, असाघुओं के धर्म (वस्तुदान, तर्पण आदि) का उपदेश न करे (अथवा असाधुओं के धर्म का उपदेश करने वाले को सम्यक् न कहे, अथवा धर्मकथा करता हुआ साधु असाधु-धर्मो-अपनी प्रचसा, कीर्ति, प्रसिद्धि आदि की इच्छा न करे)। जिससे हसी उत्पन्न हो, ऐसा कोई शब्द या मन-वचन-काया का व्यापार न करे, अथवा साधु किसी के दीयों को प्रकट करने दाली, पापबन्ध के स्वभाववाली बातें हंसी में न कहे। बीत रामता में ओतप्रोत (राम'ष रहित) माधु दूसरों के चित्त को दुखित करने वाले कठोर सत्य को भी पापकर्मबन्धकारक जानकर न कहे । साधु किसी विशिष्ट लब्धि, सिद्धि या उपलब्धि अथवा पूजाप्रतिष्ठा को पाकर मद न करे, न ही अपनी प्रशंसा करे अथवा दूसरे को भलीभांति जाने-परखे बिना उसकी अति प्रशंसा न करे । साधु व्याख्यान या धर्मकथा के अवसर पर लाभादि निरपेक्ष (निर्लोभ) एवं सदा कषायरहित होकर रहे। सूत्र और अर्थ के सम्बन्ध में शंकारहित होने पर भी, "मैं ही इसका अर्थ जानता हूँ. दूसरा नहीं।" इस प्रकार का गवं न करे, अथवा अशंकित होने पर भी शास्त्र के गूढ शब्दों को व्याख्या करते समय शंका (अन्य मर्थ की सम्भावना) के साथ कहे, अथवा स्पष्ट (शंका रहित) अर्थ को भी इस प्रकार न कहे जिससे श्रोता को शंका उत्पन्न हो तथा पदार्थों की व्याख्या विभज्यवाद से सापेक्ष दृष्टि से अनेकांत रूप से करे । हास पि णो संधये पावधम्म, भोए तहियं फरसं बियाणे । मोतुन्छए नोव विकसिरना, अणाहले या अकसाह मिक्बू । संकेज याऽसंकितमा भिषण, विभज्जवावं च वियागरेग्जा। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] धरणानुपीम समाधि का विधान सूत्र १५८-१५५ भासाहुगं धम्म समुट्टितेहि, | धर्माचरण करने में समुद्यत साधुओं के साथ विचरण करता वियागरेज्जा समया सुरणे ॥ हुआ साधु दो भाषाएँ (सत्य और असल्यामृषा) बोले । सुप्रश (स्थिरबुद्धिसम्पन्न) साधु धनिक और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे। अणुगच्छमाणे बितह ऽभिजाणे, पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर शास्त्र या धर्म की तहा तहा साहु अक्षरकसेणं । व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई व्यक्ति यथार्थ समश मकस्थती मास विहिसएजा, लेता है, और कोई मन्दमति व्यक्ति उसे अयथार्थ रूप में (विपनिगं वा वि न बोहएज्जा ॥ रीत) समक्षता है, (ऐसी स्थिति में) साधु उस विपरीत समझने वाले व्यक्ति को जैसे-जैसे समीचीन हेतु, मुक्ति, उदाहरण एवं तर्क आदि से वह समझ सके, वैसे-वैसे हेतु आदि से अकर्कश (कटुतारहित-कोमल) शब्दों में समझाने का प्रयल करे। (किन्तु जो ठीक नहीं समझता है, उसे-तू मूर्ख है, दुर्बुद्धि है, जड़मति है, इत्यादि तिरस्कारसूचक वचन कहकर उसके मन को दुःखित न करे, (तथा प्रश्नकर्ता की भाषा को असम्बद्ध बताकर उसकी विशम्बना न करे, छोटी-सी (थोड़े शब्दों में कही जा सकने वाली) बात को व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके विस्तृत न करे। समालवेज्जा पत्रिपुण्णमासी, जो बात संक्षेप में न समझाई जा सके उसे साधु विस्तृत निसामिया समिया अदुवंसी। (परिपूर्ण) शब्दों में कहकर समझाए। गुरु से सुनकर पदार्थ को आणाए सुडं वयणं भिउंजे, भलीभांति जानने वाला (अर्थदर्थी) साधु आज्ञा से शुद्ध वचनों का ऽमिसंघए पापविवेग भिक्खू ।। प्रयोग करे । साधु पाप का विवेक रखकर निदोष वचन बोले। ___ --. सु. १, अ. १४, गा. १-२४ समाहिविहाणं-- समाधि का विधान१५६. अहाबुयाई मुसिक्खएज्जा, १५६. तीर्थंकर और गणधर आदि ने जिस रूप में आगमों का जएज्ज या जातिसं बदेजा। प्रतिपादन किया है, गुरु से उनकी अच्छी तरह शिक्षा ले, से विधिमं विद्धि ण लसएक्जा, (अर्थात्-ग्रहण शिक्षा द्वारा सर्वशोक्त आगम का अच्छी तरह से जाणति भासिङ सं समाहि ॥ ग्रहण करे और आसे बना शिक्षा द्वारा उद्युक्त बिहारी होकर तदनुसार आचरण करे) (अथवा दूसरों को भी सर्वजोक्त आगम अच्छी तरह सिखाए)। वह सदैव उसी में प्रयत्न करे। मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले। सम्यकदृष्टिसम्पत्र साधक सम्यकदृष्टि को दूषित न करे (अथवा धर्मोपदेश देता हुआ साधु किसी सम्यकदृष्टि की दृष्टि को (शंका पैदा करके) बिगाड़े नहीं । बह साधक उस (तीर्थकरोक्त सभ्यग्दर्शन-शान-चारित्र तपश्चरणरूप) भाव समाधि को कहना जानता है। अलसए पो पन्छणमासी, साधु आगम के अर्थ को दुषित न करे, तथा दह सिद्धान्त गो सुत्तमस्थं च करेज ताई। को छिपा कर न बोले । स्व-पर-याता साधु सूत्र और अर्थ को सस्थारमतो अगुवीति यायं, अन्यथा न करे । साधु शिक्षा देने वाले (प्रशास्ता-गुरु) की भक्ति सुयं च सम्म जिवातएज्जा ।। का ध्यान रखता हुआ सोच-विचार कर कोई बात कहे, तथा साधु ने गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के समक्ष सिमान्त या शास्त्र वचन का प्रतिपादन करे। हा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १५६-१६१ भुतघर प्रकार महुमान लानाधार [५०६ से सुदसुत्ते उवहाण च, जिस साधु का सूत्रोच्चारण, सूत्रानुसार प्ररूपण एवं सूत्राधम्म च मे विदति तत्य तस्य । ध्ययन शुद्ध है, जो शास्त्रोक्त तप (उपधान तप) का अनुष्ठान आदेग्मवके कुसले वियमे, करता है, जो श्रुतचारित्ररूप धर्म को सम्यकरूप से जानता या से अरिहति भासिहं तं समाहि ॥ प्राप्त करता है अयवा जो उत्सर्ग के स्थान पर उत्मर्ग-मार्ग की ---सूय. सु. १, अ. १४, गा. २५-२७ और अपवाद-मार्ग के स्थान पर अपवाद की ग्ररूपणा करता है, या हेतुग्राहा अर्थ की हेतु से और आगम-ग्राह्य अर्थ की आगम से अथवा स्व-समय की स्व-समय रूप में एवं पर-समय की परसमय रूप में प्ररूपणा करता है, वही पुरुष ग्राह्य-वाक्य है। तथा वही शास्त्र का अर्थ और तदनुसार आचरण करने में कुशल होता है। वह अविचारपूर्वक कार्य नहीं करता। वही मन्थमुक्त साधक सर्वज्ञों की समाधि की व्याख्या कर सकता है। सुत्तधरस्स भेया श्रुतधर के प्रकार१६०. तो पुरिस जाया पण्णता, तं महा १६०. श्रुतधर पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैंपुतघरे, अत्यधरे, तबुभयधरे । सूत्रधर, अर्थधर और तदुभयधर (मूत्र और अर्थ दोनों के -स्थानांग अ.३,उ.३, सु. ३४४ धारक)। महुस्सुयसरूवं बहुश्रुत का स्वरूप १६१. जहा संखम्मि पर्य, "निहियं पुहओ वि" विराय । १६१. जिस प्रकार शंख में रखा हुआ दूध दोनों ओर (अपने एवं बहुस्सुए मिक्ख प्रमो किसी बहा ।' भीर पोसार के गुणों) से सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होते हैं। जहा से कम्बोयाणं, आइपणे कथए सिया। जिस प्रकार कम्बोज देश के पोड़ों में से कन्थक घोड़ा शील असे जयेण पयरे, एवं हवा बहुस्सुए॥ आदि गुणों से आकीर्ण और वेग से श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं में बहुश्रुत श्रेष्ठ होता है। जहाइम्पसमाकले , सुरे परक्कमे । जिस प्रकार आकीर्ण (जातिमान्) अश्व पर चढ़ा हुआ दूर उमओ नन्दियोसेणं, एवं . हवद बहुस्सुए॥ पराक्रम वाला योद्धा दोनों ओर बजने वाले वाथों के घोष से अजेय होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अपने आसपास होने वाले स्वाध्याय-धोष से अजेय होता है। महर करेणपरिकिण्णे, कंजरे सद्विहग्यणे। जिस प्रकार हथिनियों से परिवत साठ वर्ष का बलवान् बलवन्ते अपरिहए, एवं हवह महस्सुए॥ हाथी किसी से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार बहुश्रुत दूसरों से पराजित नहीं होता। जहा से तिसिंगे, जायखन्थे विरापाई। जिस प्रकार तीक्ष्ण सोंग और अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला वसहे हाहिवई, एवं हद बहुस्सुए॥ बैल यूय का अधिपति बन सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहु श्रुत आचार्य बनकर सुशोभित होता है। महा से तिखवावे, उदग्गे दुप्पसए। जिस प्रकार तीक्ष्ण दादों वाला पूर्ण युवा और दुष्पराजेय सीहे मियाणपवरे, एवं हवा बहुए। सिंह आरण्य-पशुओं में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अन्य तीथिकों में श्रेष्ठ होता है। महा से वासुदेव, संखचक्कगदाघरे । जिस प्रकार शंख, चक्र और गदा को धारण करने वाला अपरिहयमले जोहे, एवं हवा बहुस्सुए । वासुदेव अबाधित बल वाला योद्धा होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अबाधित बल वाला होता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] घरणानुयोग भूतधर के प्रकार सूत्र १११ अहा से चाउरन्ते, चश्कबट्टी महिडिहए। जिस प्रकार महान् ऋदिशाली, चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह चउपसरयणाहिबई , एवं हबइ बहुस्सुए ॥ रत्नों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत चतुर्दश पूर्वधर होता है। जहा से सहसवलं. माटो पुरन्दरे । जिस प्रकार सहनचक्षु, वचपाणि और पुरों का विदारण सक्के वाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ करने वाला शक देवों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत देवी (श्रुत) सम्पदा का अधिपति होता है। जहा से तिमिरविवसे, उसिटुन्ते दिवायरे । जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने वाला उगता हुआ जलम्ते इव तेएण, एवं हवइ बहुस्सुए ।। सूर्य तेज से जलता हुआ प्रतीत होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत तप के तेज से जलता हुआ प्रतीत होता है। जहा से उड़बई चन्दे, नवमतपरिवारिए । जिस प्रकार नक्षत्र-परिवार से परिवृत ग्रहपति चन्द्रमा परिपुणे पुण्णमासीए, एवं हवइ बहुस्सुए। पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण होता है, उसी प्रकार साधुओ के परिवार से परिबूत बहुथुत सकल कलामो में परिपूर्ण होता है। जहा से सामाइयाणं, कोडागारे सुरपिखए। जिस प्रकार सामाजिकों (समुदाय वृत्ति वालों) का कोष्ठानाणाधनपरिपुणे । एवं हवद बहुस्सुए। गार सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत नाना प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है। जहा सा खुमाण पथरा. जम्मू नाम मुसणा । जिस प्रकार अनाधृत देव का आश्रय सुदर्शन नाम का अगाबियस्त देवस्स, एवं हा बहुस्सुए। जम्बु वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। जहा सा नईण पबरा, सलिला सागरंगमा। जिस प्रकार नीलवान् पर्वत से निकलकर समुद्र में मिलने सोया नीलवन्तपबहा, एवं हवह पहुस्मए ।। वाली शीता नदी शेष नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत सव साधुओं में श्रेष्ठ होता है। अहा से नगाण पयरे, सुमह मन्दरे गिरी। जिस प्रकार अतिशय महान् और अनेक प्रकार की औषनागोसहिपज्जलिए , एवं हवइ बहुस्सुए ।। धियों से दीप्त मन्दर पर्वत सब पर्वतों में थेष्ठ है, उसी प्रकार नहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। जहा से सयंभूरमणे, वही अपसओदए । जिस प्रकार अक्षय जल पाला स्वयंभूरमण समुद्र अनेक नाणारयणपडिपुण्णे , एवं हवा बहुस्सुए। प्रकार के रत्नों से भरा हुआ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। समुद्दगम्भीरसमा दुरासया, समुद्र के समान गम्भीर, दुराशय (कष्टों से अबाधित), अचक्किया केणइ दुष्पहंसथा। अभय, किसी प्रतिबादी के द्वारा अपराजेय, विपुलश्चत से पूर्ण सुयस्स पुष्पा विउलस्स ताइयो, और त्राता बहुत मुनि कर्मों का क्षय करके उत्तम गति (मोक्ष) सवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया । में गये। तम्हा सुयमहिज्जा , उसमढगवेसए । इसलिए उत्तम-अर्थ (मोक्ष) की गवेषणा करने वाला मुनि जेणापाणं परं चेय, सिवि संपाउणेग्जासि ।। श्रुत का आश्रयण करे, जिससे वह अपने आपको और दूसरों को -उत्त. अ. ११, गा. १५-7 सिद्धि (मुक्ति) की प्राप्त करा सके । अबहुस्सुय सरूवं अबहुथुत का स्वरूप१६२. जे यावि होह निग्विज्जे, बसे सुसे अणिगहे। १६२. जो विद्याहीन है, विद्यावान् होते हुए भी जो अभिमानी अभिक्खणं उल्लघई, अविणीए, अबगुस्सुए ॥ है, जो सरस आहार में लुब्ध है, जो अजितेन्द्रिय है, जो बार --उत्त, अ. ११,गा. २ बार असम्बद्ध बोलता है, जो अविनीत है, वह अबहस कहलाता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबहुश्रुत का स्वरूप उपधान मानाधार [१११ ने यो मिए था, मुम्बाई नियडी सके । जो चण्ड, अज्ञ, स्तब्ध, अप्रियवादी मायावी और शठ हैं, खुजाह से विणीयप्पा, कट्ठ सोयगय जहा ॥ वह भावनीतात्मा संसार स्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता है, जैसे -दस, अ.६, उ.२, गा.३ नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काष्ठ । चउत्थो उवहाणायारो चतुर्थ उपधानाचार सिपखारिह शिक्षा के योग्य१६३. वसे पुरुकुले निश्चं, जोगवं उवहाणवं । १६३. जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता पियंकरे पियंबाई, से सिमर्ष लमरिह। है, जो उपधान (थ त-अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय -उत्त. अ. ११, गा. १४ करता है, जो श्यि बोलता है-वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। पंचमो अणिण्हवायारो पंचम अनिन्हवाचार असाहसरूवं असाधु का स्वरूप१६४. अहो य राओ य समुट्ठिएहि, सहागएहि पडिलरूम धर्मा। १६४. अहर्निश उत्तम अनुष्ठान में प्रवृत्त तीर्यकरों से धर्म को समाहि माघायमनोसयंता, सस्थारमेषं फरस वयंति ॥ पाकर भी समाधिमार्ग का सेवन न करते हुए जमा लि आदि निन्हव अपने शास्ता को कठोर वचन कहते है। १ (क) आगमों के अध्ययन-काल में आयंबिल आदि तप करना उपधानाचार है। (ख) प्रत्येक आगम के अध्ययन-काल में कितना तप करना-इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध आगमों में नहीं है, किन्तु "योगोबहन विधि" विषयक कतिपय ग्रन्थों में उपधान तप की विधि है। उपधान परिभाषा(ग) उपसमीपे धीयते क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम् । (घ) उपधीयते उवष्टम्यते श्रुतमनेनेति उपधानम् । (च) भाचारांग श्रुत. १. अ. ६ वा "उवहाणसुयं" उपधानश्रुत नाम का अध्ययन है। इस अध्ययन में भगवान् महावीर की ___ तपोमय साधना का वर्णन है। (छ) सूत्रकृतांग श्रुत. १, अ. ११, गा. ३५ में "उपधानवीर्य" श्रमण का विशेषण है। (च) स्थानांग अ. २, उद्दे. ३, मूत्र ५४ में "उपधान-प्रतिमा" का उल्लेख है। उपधान तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवरूपेति । (अ) स्थानांग अ. ४, उद्दे. १, सूत्र २५१ में भी "उपधान-प्रतिमा" का उल्लेख है। (ब) स्थानांग अ. ४, उद्दे. १, सूत्र २३५ में चार अन्तक्रियाओं में उपधानवान् अणगार का विशेषण है। (ट) सूत्रकृतांग शु. १, अ. २, उद्दे. गा. १५ में एक सुन्दर रूपक दिया है जिस प्रकार पक्षिणी पंख फड़फड़ाकर घूल भाड़ देती है, उसी प्रकार श्रमण भी उपधान तप से कमरज को झाड़ देता है। (8) उपधान-महिमा--जह खलु मइलं यत्यं, सुज्झाइ उदगाएहि दबेहि । एवं भावुवाहाणेण, सुज्मए कम्ममट्ठविहं ।। --आचारांग नियुक्ति गाभा २८३ (3) उपधान तप क सम्बन्ध में निशीथ और महानिशीथ में यत् किंचित् लिखा है किन्तु प्रतियां उपलब्ध न होने से यहां नहीं लिखा है। (ड) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में उपधान तप कराने की परिपाटी प्रचलित है । वे इस तप की आराधना में श्रावक श्राविकाओं को ही अधिक से अधिक स्थान देते है। 'सप्त उपधान विधि' नामक पुस्तक में सात प्रकार के उपधान की तप विधि है । इसके प्रस्ताविक निवेदन में संपादक मुनि ने लिखा है कि.---''पूर्वस्मिन्समये उपधानतपोवाहि नामाचारादिव्यवस्था परमोत्कृष्टविधिसम्पन्ना प्रकारान्तरेण निर्धारिता चासोत, परं देशकालादिक समालोच्य करुणावरुणालपराचार्वेः स क्रमो नितयं सुगमो भवेत्तथा पश्चात् परिवर्तितः।" (ग) उपधान तप के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थ विधिप्रपा 'आचार दिनकर' और 'समाचारीशतक' आदि में यत्र तत्र लिखा है जिज्ञासु उन-उन ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वरणानुयोग असाधु का स्वरूप भूत्र १६४-१६५ विसोहा ते अणुकाहयंते, जे आयमायण वियागरेज्जा। जो (गोष्ठामाहिल के समान') विशुद्ध मोक्ष मार्ग की परम्पअट्टाणिए होइ बहुगुणाणं, जे गाणसंकाए मुसं वएज्जा॥ रागत व्याख्या से भिन्न व्याख्या करते हैं, वे सर्बज्ञ के ज्ञान में सशंक होकर मृषा बोलते हैं, अतः उत्तम गुणों के अपाय होते हैं। जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति आयाणमटु खसु बंचयति। जो कोई (साधक साधिका) पूछने पर अपने (गुरु का नाम) असाहणो ते इह साहुमागी, मायग्णि एससि अपतघातं ॥ छिपाते हैं, वे लेने लायक मोक्ष अर्थ से अपने को वंचित करते -सूय. सु. १, अ. १३, गा.२-४ हैं। वे असाधु होते हुए अपने को साधु मानने वाले माया (कपट) से युक्त हो अनन्तकालिक घात (नरक) को प्राप्त होंगे। छठो वंजणणाणायारों' सत्तमो अट्ठणाणा- छठा व्यंजन-ज्ञानाचार, सातवां अर्थ-ज्ञानायारों' अट्ठमो तदुभयणाणायारो" चार, आठवां तदुभय-ज्ञानाचार सुप्तत्थस्स अणिण्हवणं सूत्रार्थ का न छिपाना१६५. अजूसए गो पच्छभमासो, णो सुत्तमस्य च करेज्ज ताई। १६५. सर्व प्राणियों का प्राता श्रमण आगम के अर्थ को न सत्यारभत्ती अवीव वाय, सुयं च सम्म पडियाययंसि ॥ छिपावे, न दुषित करे सूत्रार्थ का अन्यथा उच्चारण न करे तथा -सूम. सु. १, अ. १४, गा. २६, (६०५) शास्ता की भक्ति का ध्यान रखते हुए प्रत्येक बात विचार कर कहे और गुरु से सूत्रार्थ की जैसी व्याख्या सुनी है वैसी ही अन्य को कहे। ** १ भगवान् महावीर के शासनकात में सात प्रवचन निन्हव हुए हैं, उनका संक्षिप्त वर्णन स्थानांग अ. ७, सूत्र ५८७ में है। (क) जो अर्थ को व्यक्त करे वह व्यन्जन है, व्यन्जनों से मूत्र की रचना होती हैं, अतः व्यन्जन सूत्र को कहते हैं । "वजणमिति भण्णत्ते सुसं"-निशीथचूर्गी पीठिका पृष्ठ १२ गाथा १७, सूत्र के अक्षरों का शुद्ध उच्चारण करना व्यन्जनाचार है। (ख) सूत्र के अशुरचारण से अर्थ-भेद होता है, अर्थ-भेद से प्रिया भेद तथा क्रिया-भेद से निर्जरा नहीं होती है और निर्जरा न होने से मोक्ष नहीं होता है, अतः सूत्रों का शुद्ध उच्चारण करना आवश्यक है । (ग) सूत्रकृतांग श्रुत. १, अ.१४, गा. २७ में "सुद्ध सुत्ने" सूत्र का शुद्ध उच्चारण भावसमाधि का हेतु माना है। (घ) शुद्ध उच्चारण के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है तथा भाषा समिति का विवेक आवश्यक है, अतः एतद् विषयक विस्तृत विवरण भाषा समिति विभाग में देखें। ३ सूत्र का सत्य अर्थ करना अर्थाचार है। ४ सूत्र और अर्थ का शुद्ध उच्चारण करना और सम्यका अर्थ समझना तदुभयाचार है । ५ अदूसए-अपसिद्धान्तव्याख्यायन सर्वज्ञोक्तमागर्म न दूषयेत् । ६ ताई-संसारात् वायी-वाणशीलो जन्तुनाम् । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष १६६ ज्ञान और आचार भेव से पुरुषों के प्रकार भानाचार परिशिष्ट ११३ णाणायार-परिसिट्ठ ज्ञानाचार परिशिष्ट णाण-आयार-भेएण पुरिसभेया१६६. (क) चत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा सेयंसे नाममेगे सेयंसे, सेयसे नामभेये पावसे, पावसे नाममेगे सेयंसे, पावसे नाममेगे पावसे । (ख) चत्तारि पुरिसजाया पप्पत्ता,तं जहा सेयसे नाममेगे सेयंसेत्ति सालिसए, सेयंसे नाममेगे पावंसेत्ति सालिसए, पावसे नाममेगे सेयसेप्ति सालिसए, ज्ञान और आचार भेद से पुरुषों के प्रकार१६६. (क) चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा कुछ पुरुष' बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और आचरण की दृष्टि से भी श्रेष्ठ हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं किन्तु आचरण की दृष्टि से पापी हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी हैं किन्तु आचरण की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं। कुछ पुरा बोध की दृष्टि से भी पापी हैं और आचरण की दृष्टि से भी पापी हैं। (ख) चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-- कुछ पुरुष बांध की दृष्टि से श्रेष्ठ है और आचरण की दृष्टि से श्रेष्ठ सदृश हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं किन्तु आचरण की दृष्टि से पापी के सदृश हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि मे पारी हैं किन्तु आचरण की दृष्टि से बेष्ठ सदृश हैं। कुछ पुरुष' बोध की दृष्टि से पापी है और आचरण की दृष्टि से पापी सदृश हैं। (ग) चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और अपने आप को श्रेष्ठ ही मानते हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं, किन्तु अपने आप को पापी मानते हैं। कुछ पुरुप बोध की दृष्टि से पापी है विन्तु अपने आप को थेष्ठ मानते हैं। कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी हैं और अपने आप को पापी मानते हैं। (घ) चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और अपने आप को श्रेष्ठ सदृश मानते हैं। कुछ पुरुष श्रोध की दृष्टि से श्रेष्ठ है किन्तु अपने आप को पापी सदृश मानते हैं। पावसे नाममेगे पावसेत्ति सालिसए। (ग) चत्तारि पुरिसमाया पणत्ता, तं जहा सेयंसे नाममेगे सेयंसे सि मनाइ, सेयंसे नाममेगे पावंसे सि मन्त्राइ, पावसे नाममेगे सेयंसे ति मन्नइ, पावसे नाममेगे पावंसे ति मन्नइ । (घ) प्रत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा सेयंसे नाममेगे सेयंसे ति सालिसए मन्नइ. सेबसे माममेगे पाबंसे सितालिसए मन्ना, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] घरणानुयोग शामी और अज्ञानी सूत्र १६६-१७० पावसे नाममेगे सेयंसे ति सालिसए मन्ना, कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी है किन्तु अपने आप को श्रेष्ठ सदृश मानते हैं। पावसे नामोंगे पावसे ति सालिसए मन्नाह । कुछ पुरुष बोध की दृष्टि से पापी हैं और अपने आप को -ठाणं अ. ४, उ. ४, सु. ३४४ पापी सदृश मानते हैं। गाणिणो अपणाणिणो य झानी और अज्ञानी१६७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--- १६७. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथादुग्गए नाममेगे दुम्गए, एक पुरुष पहले भी ज्ञानादि गुण से हीन है और पीछे भी जानादि गुण से हीन है। दुग्गए नाममेगे मुग्गए, एक पुरुष पहले ज्ञानादि गुण से हीन है किन्तु पोछे ज्ञानादि गुण से सम्पन्न होता है। सुग्गए नाममेगे दुग्गए, एक पुरुप पहले ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है किन्तु पीहे ज्ञानादि गुण से हीन हो जाता है। सुग्गए नाममेगे सुम्गए। एक पुरुष पहले भी ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है और पीछे भी ज्ञानादि गुण से सम्पन्न है। १६८, चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, संजहा १६८, चार प्रकार के पुरुष कहे हैं. यथा - तमे नाममेगे तमे, एक पुरुष पहले अज्ञानी है और पीछे भी अज्ञानी है, जमे नाममेगे जोई, एक पुरष पहले अशानी है किन्तु पीछे ज्ञानी है, जोई नाममेगे तमे, एका पुरुष पहले ज्ञानी है किन्तु पीछ अज्ञानी है.. जोई नाममेगे जोई। -ठाणं. अ.४, उ. ३, सु. ३२७ एक पुरुष पहले भी शानी है और पीछे भी जानी है। नाणसणुप्पत्ति-अणुप्पत्ति य-- ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति और अनुत्पनि-. १६६, चत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा १६६. चार प्रकार के पुरुप कते हैं. यथाकिससरीरस्स नाममेगस्स गाण-दंसणे समुप्पज्जा, कृश शरीर वाले पुरुष को ज्ञान-दर्शन उपन होता है, किन्तु नो बढसरीरस्स, दृढ़ शरीर वाले को नहीं, वडसरीरस्स नाममेगस्स णाण-ईसणे समुप्पज्जद्द, दृढ शरीर वाले पुरुप को जान-दर्शन उत्पन्न होता है, किन्तु नो किससरोरस्स, कृश शरीर वाले को नहीं, एमस्स किससरीरस्स वि पाण-सणे समुप्पज्जा, ___ कृश और दृढ़ शरीर बाले पुरुष को भी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न बहसरीरस्स वि, होता है, एगस्स नो किससरीरस्स गाण-दसणे समुपज्जइ, ___ कृश और दृढ़ शरीर वाले पुए को ज्ञान-दर्शन उत्पन्न नहीं नो दसरीरस्स। -ठाणं. अ. ४, उ.१, मु. २८३ होता है, अतिसेस नाणदसणाणं अणुप्पत्ति कारणाई अतिशययुक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति नहीं होने के कारण१७०. चहि ठाणेहि णिगंथाण वा गिगंधोण वा अस्सि समयसि १७०, चार कारणों से निग्रन्थ और निग्रन्थियों के इस समय में अतिसेसे गाणसणे समुपज्जिउकामे वि ण समुपज्जेज्जा, अर्थात् तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी तं जहा उत्पन्न नहीं होते, जैसे१. अभिवखणं-अभिक्खणं त्थिकह भत्तकहं देसकहं रायकह (१) जो निन्य या निम्रन्थी बार-बार स्त्रीकथा, भक्तकथा, कहेता भवति । देशाकथा और राजकथा करता है। २. विवेगेण विउस्सम्गेणं गो सम्ममप्पागं भाषित्ता प्रवति । (२) जो निम्रन्थ वा निर्ग्रन्थी विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित करने वाला नहीं होता। ३. पुस्वरसाबरतकालसमयसि गो धम्मजागरियं जागरहता (३) जो निग्रंग्य य निर्ग्रन्थी पूर्व रात्रि और अपररात्रिकाल के भवसि । समय धर्म-जागरण करके जागृत नहीं रहता । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७०-१७२ अतिशय-युक्त मान-दर्शन की उत्पत्ति के कारण ज्ञानाचार परिशिष्ट ११५ ४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म- (४) जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्धी प्रासुक, एरणीय, उंछ और गसित्ता भवति । सामुदानिक भिक्षा की सम्यक प्रकार से गवेषणा नहीं करता। इच्छतेहि चहि ठाणेहि णिग्गंधाण वा णिम्पंथीण वा इन चार कारणों से निग्रंन्च और निर्ग्रन्थियों को तत्काल -जाव-(अस्सिं समयसि अतिसेसे गाणसणे समुप्पज्जिउ- अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी रुक जाते हैंकामे वि) णो समुप्पज्जेज्जा । उत्पन्न नहीं होते। -ठाणं. अ.४, उ, २, सु. २८४ अतिसेस नाणदसणुप्पत्ति कारणाई अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति के कारण१७१. चहि वाहि णिगंथाण पाणिग्गंथोग वा अस्सि समय सि १७१, चार कारणों से निग्रंन्ध और निर्गन्थियों को अभीष्ट अति अतिसेसे णाणसणे समुप्पग्जितकामे समुप्पज्जेज्जा, तं जहा – शप-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न होते हैं, जैसे -- १. इथिकहं भत्सकहं देसकह रायकहं जो कहेता भवति । (१) जो स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा नहीं कहता। २. विवेगेण विउस्सगेणं सम्ममप्पणाणं भावेत्ता भवति । (२) जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा की सम्यक प्रकार से भावना करता है। ३. पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिवं जागरइत्ता (३) जो पूर्वरात्रि और अपरराधि के समय धर्म ध्यान करता प्रवति । हुआ जागृत रहता है। ४. कासुयस्स एसणिम्जस्स उछस सामुदाणियस्स सम्म (४) जो प्रासुक, एपणीय, उछ और सामुदानिक भिक्षा की गवेसित्ता भवति । __ सम्यक् प्रकार से गवेषणा करता है। इम्तेहि पाहि काहि गिरगंथाण वा गिरगंशीण वा इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्गन्धियों के अभीष्ट, -जाव-असि समयंसि अतिसेसे णाणसणे समुप्पजिउकामे अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न होते है। समुपज्जेजा। -ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २५४ णाण-दसणाणं वुढिकरा हाणिकरा य-- ज्ञान-दर्शनादि की वद्धि करने वाले और हानि करने वाले१७२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १७२. चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथाएगेणं नाममेगे कडाइ एगेणं हायइ, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन से हीन होता है, एगेणं नाममेगे वह वोहि हायइ, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन और विनय से हीन होता है, बोहि नाममेगे बढ़ई एगेगं हायड, एक पुरुष ज्ञान और चारित्र से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन से हीन होता है, एगे बोहि नाममेगे बढन बोहि हायइ । एक पुरुष ज्ञान और चारित्र से बढ़ता है किन्तु सम्यग्दर्शन -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२७ और विनय से हीन होता है। [इस चाभंगी का एक वैकल्पिक अर्थ और भी है-- एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है और राग से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान से बढ़ता है और राग-द्वेष से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान व संयम से बढ़ता है और राग से हीन होता है, एक पुरुष ज्ञान व संवम से बढ़ता है और राग-प से होन होता है।] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] चरणानुयोग अवधिज्ञान के क्षोमक सूत्र १७३-१७५ ओहिनाणिस्स खोभगा अवधिज्ञान के क्षोभक१७३. पाहि ठाणेहि ओहिसणे समुपज्जिउकामे वि तप्पामयाए १७३. अवधिज्ञान प्रथम अवधिउपयोग की प्रवृत्ति के समय गाँव खंभाएज्जा, तं जहा कारणों से शुब्ध-चलित होता है, यथा१. अप्पभुतं वा पुढवि पासित्ता तपढमयाए खंभाएज्जा, (१) पृथ्वी को अल्प देषकर अवधिजानी प्रथम अवधि उपयोग की प्रवृत्ति के समय क्षुब्ध होता है, २. कुन्धरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पडमयाए खंभाएज्जा, (२) कुंओं की राणिमय पृथ्वी को देखकर अवधिज्ञानी प्रथम अवधिउपयोग की प्रवृत्ति के समय क्षब्ध होता है, ३. महइ महालयं या महोरगसरीरं पासिता तपहमपाए (३) महान् अजगर के शरीर देख कर अवधिज्ञानी प्रथम खंचाएर, अवधि उपयोग की प्रवृत्ति के समय क्षुब्ध होता है। ४. देवं वा महविज्ञपं-जाव-महेसमखं पासिसा तापतामयाए (४) अत्यन्त सुम्पी और महती त्राद्धि वाले देव को देखकर खंभाएज्जा, अवधिज्ञानी प्रथम अवधिउपयोग की प्रवृत्ति के समय क्षुब्ध होता है। ५. पुरेसु वा रोराणाई महइ महालयाई महानिहाणाई पहीण (५) पुर प्रामादि वे. जनपद आदि में एवं गिरिकन्दरा. सामियाई, पहीणसेउयाई, पहीणगुसागराई उछिन- मशान-शून्यगृह आदि स्थानों में स्वामी हीन उत्तराधिकारीहीन सामियाई उछिनसेउयाई उच्छिन्नगोत्तागाराई जाहं प्राचीन दबी हुई महानिधियों (भण्डारों) को देखकर अवधिजानी इमाई गामागर-णगर-खेड-कबड-मंब-बोणमुह पट्टणासम- प्रथम अवधिउपयोग की प्रवृत्ति के समय क्षुब्ध होता है। संवाह-सन्निवेसेमु सिंघारग-तिग-चसक्क-पकचर-बउम्मुहमहापहपहेसु णगरणितमणेसु सुसाग सुत्रागार-गिरिकंबरसंति-सेलोवढाषण प्रवणगिहेसु समिक्खिसाई चिट्ठन्ति ताई या पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा। इच्चेएहि पंचहि ठाणेहि ओहिदसणे समुपज्जितकामे तप्पलमयाए खंभाएज्जा। केवलणाण-दसण अक्खोभगा केवलज्ञान-दर्शन के अक्षोभक१७४. पंचहि वाहि केबलवरनाण-सणे समुपज्जिउकामे तप्प- १७४. केवलजानी और केवलदर्शनी उपयोग की प्रवृत्ति के समय मयाए नो खंभाएमा, तं महा क्षुब्ध नहीं होता, यथा-- अप्पभूतं वा पुयि पासित्ता तप्पामयाए नो खंभाएज्जा, पृथ्वी को अल्प देखकर-यावद-स्वामीहीन महानिधियों --सेसं तहेव-जाव-भवणगिहेसु समिक्खित्ताई चिट्ठन्ति को देखकर क्षुब्ध नहीं होते हैं । इन पाँच कारणों से-यावतताईवा पासित्ता तप्पढमयाए नो खंमाएज्जा। इच्चएहि क्षुब्ध नहीं होते हैं। पंचहि ठाणेहि-जाव-नी खंभाएज्जा। -ठाणं. अ.५.उ. सु. ३६४ णाणसंपन्ना किरियासंपन्ना य ज्ञान सम्पन्न और क्रिया सम्पन्न - १७५. चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा १७५. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथासुहे गाममेगे बुहे. एक पुरुष मास्त्रज्ञ है और त्रियाकुशल भी है, सुहे नाममेगे अयुहे. एक पुरुष शास्त्रज्ञ है किन्तु क्रियाकुशल नहीं है, अहे नाममेगे बुहे, एक पुरुष शास्त्र नहीं है किन्तु किया कुशल हैं, आहे नाममेगे अबुहे। एक पुरुष शास्त्रज्ञ भी नहीं है और कियाकुशल भी नहीं है। चत्तारि पुरिसझाया पणसा, तं जहा चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाबुहे नाममेमे बुहहियए, एक पुरुष विवेकी है और उसके कार्य भी विवेकपूर्ण हैं, सुहे नाममेगे अबुहहियए, एक पुरुष विवेकी है किन्तु उसके कार्य अविवेककृत हैं, अबुहे नाममेगे पुहियए, एक पुरुष अविवेकी है किन्तु उसके कार्य विवेकपूर्ण है, अचूहे नाममेगे अबुहहिपए। -ठाणं. ४, उ, ४, सु.३४२ एक पुरुष अविवेकी है और उसके कार्य भी अविवेककृत हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७६-१७७ शान-युक्त और आचार-पुक्त ज्ञानाचार परिशिष्ट ११७ णाणजुत्ता-आयारजुत्ता य ज्ञान-युक्त और आचार-युक्त १७६. (क) सारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १७६. (क) चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाजुत्ते नाममेगे जुत्ते, एक पुरुष ज्ञान से युक्त है और आचार से भी युक्त है, असे नाममेगे अनुसे, एक पुरुष ज्ञान से युक्त है किन्नु आचार से युक्त नहीं है, अजुने नाममेगे जुत्ते, एक पुरुष ज्ञान से अयुक्त है किन्तु आचार से युक्त है, अजुत्ते नाममेगे अजुत्ते । एक पुरुप जान से भी अयुक्त है और आचार से भी अयुक्त है। ----ठाण, अ.४, उ. ३, सु. ३१६ [काल की अपेक्षा से इसाचौभंगी का अर्थ इस प्रकार होगा एक पुरुष गृहस्थ पर्याय में धनादि से युक्त था और श्रमणपर्याव में भी जानादि से युक्त है, एक पुरुष गृहस्थ पर्याय में धनादि से युक्त था किन्तु श्रमणपर्याय में ज्ञानादि से युक्त नहीं है. एक पुरुष गृहस्थ पर्याय में प्रसादि से अयुक्त था किन्तु श्रमणपर्याय में ज्ञानादि से युक्त है। एक पुरुष' गृहस्थ पर्याय में धनादि से अयुक्त या और श्रमण पर्याय में भी ज्ञानादि से अयुक्त है।] चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, सं जहा नार प्रकार के पुरुष कहे हैं, मथासमे नाममेगे तमबले, एक पुरुष अज्ञानी है और दुराचारी है, तमे नाममेगे जोईबले, एक गुरुष अज्ञानी है किन्तु सदाचारी है, जोई नाममेगे तमबले, एक पुरुष ज्ञानी है किन्तु दुराचारी है, जोई नामभेगे जोई बसे । एक पुरुष ज्ञानी है किन्तु सदाचारी है। चत्तारि पुरिसजग्या पप्पत्ता, तं जहा--- (ख) चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा-- समे नाममेगे तमबलपलज्जणे, एक पुरुष अज्ञानी है और उसे दुराचार में ही आनन्द आता है, तमे नाममेगे जोईबलपलगे, एक पुरुष अज्ञानी है किन्तु उसे सदाचार में आनन्द आता है, जोई नाममेगे तमबलयलज्जणे, एक पुरुष ज्ञानी है किन्तु उसे दुराचार में ही आनन्द आता है, जोई नाममेगे जोईवलपलज्जणे । एक पुरुष शानी है किन्तु उसे सदाचार में ही आनन्द आता है। -ठाणं, अ. 6, उ. ३, सृ. ३२७ णाणजुत्ता--णाणपरिणता य . ज्ञान-युक्त और ज्ञान परिणत१७७. चत्तारि पुरिसजाया पग्णता, तं जहा १७७. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथासुते नाममेगे जुत्तपरिगए, ___एक पुरुष ज्ञानादि से युक्त है और ज्ञानादि की परिणति से भी युक्त है, जुत्ते नाममेगे अजुत्तपरिणए, एक पुरुष ज्ञानादि से युक्त है किन्तु ज्ञानादि की परिणति से युक्त नहीं है, अजुत्ते नाममेगे जुत्तपरिगए, एक पुरुष ज्ञानादि से अयुक्त है किन्तु ज्ञानादि की परिणति से युक्त है, अजुत्ते नाममेगे अकुत्तपरिणए। एक पुरुष ज्ञानादि से भी अयुक्त है और ज्ञानादि की परिणति -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ से भी अयुक्त है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] धरणानुयोग ज्ञानयुक्त और वेषयुक्त सूत्र १७८-१८२ mese णाणजुत्ता वेसज्जुत्ता य-- ज्ञान-युक्त और वेषयुक्त १७८. घसारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १७८. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाजुत्ते नाममेगे जुतमवे, एक पुरुष शानादि से युक्त है और साधुवेष से भी युक्त है, जुत्ते नाममेगे अजुत्त हवे, एक पुरुष शानादि से युक्त है किन्तु माध्रुवेष से अयुक्त है। अजुत्ते नाममेगे जुत्तरूबे, एक पुरुष जानादि से अयुक्त है किन्तु साधुवेष से युक्त है, अजुत्ते माममेगे अजुत्तरुवे । एक पुरुष ज्ञानादि से भी अयुक्त है और साधुषेष से भी -ठाण. अ. ४, र. ३, सु. ३१६ अयुक्त है। णाणजुसा सिरिजुत्ता, अजुत्ता - ज्ञानयुक्त और शोभायुक्त; अयुक्त१७६. चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं महा १७६. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथामुत्ते माममेगे जुत्तसोमे, एक पुरुष ज्ञानादि से युक्त है और उसकी उचित शोभा भी है। कुत्ते नाममे अजुत्तसोभे, ___ एक पुरुष ज्ञानादि से युक्त है किन्तु उसकी उचित शोभा नहीं है। अजुत्ते नाममेगे जुत्तसोभे, एक पुरुष ज्ञानादि से अयुक्त है किन्तु उसको उचित शोभा है। अजुत्ते माममेगे अजुत्तसोभे । एक पुरष ज्ञान से भी अयुक्त है और उसकी उचित शोभा -ठाणं. भ. ४, उ. ३, सु. ३१६ भी नहीं है। पंचविहा परिणा पाँच प्रकार की परिज्ञा-- १५०. पंचविहा परिष्णा पण्णत्ता, तं जहा १५०. परिज्ञा पाच प्रकार की कही गई है, जैसे१. उवहिपरिणा, (१) उपधि परिजा, २. उबस्सयपरिणा, (२) उपाश्रय परिक्षा, ३. कसायपरिषणा, (३) कयाय परिज्ञा, ४. जोगपरिष्णा, (४) योग परिज्ञा, ५. मत्तपाषपरिणा। -ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२० (५) भक्तपान परिशा। सरीरसंपन्ना पण्णासंपन्ना य--- शरीरसम्पन्न और प्रज्ञ सम्पन्न१८१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १८१. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाउन्नए नाममेगे उन्मए पन्ने, एक पुगर शरीर से उषत है और प्रज्ञा से भी उन्नत है, उनए नाममेगे पणए पन्ने, एक पुरुष शरीर से उन्नत है किन्तु प्रज्ञा से उन्नत नहीं है, पत्रए नाममेगे उन्नए पन्ने, एक पुरुष शरीर से उभत नहीं है किन्तु प्रशा से उन्नत है, पन्नए नाममेरे पणए पन्ने । एक पुरुष शरीर से भी उन्नत नहीं है और प्रज्ञा से भी उन्नत --ठाण. अ. ४, उ. १, सु. २३६ नहीं है । उज्जू उज्जपण्णा, जुत्ता वंका कपण्णाजुत्ता ऋजु-ऋजुप्रज्ञ और वन-वक्रप्रज्ञ१८२. अत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, सं जहा १८२. चार प्रकार के पुरुष कहे है, यथाउम्जू नाममेगे उज्जूपन्ने, एक पुरुष ऋजु है और ऋजुप्रज्ञ है, उज्जू नाममेगे वंकपन्ने, एक पुरुष ऋजु है किन्तु यऋषज्ञ है, बंक माममेगे उज्ज़पन्ने, एक पुरूष वत्र है किन्तु ऋजुप्रज्ञ है, के नाममेयेबंपन्ने ।--ठाणं. अ. ४, उ.१, सु. २३६।। एक पुरुष वक्र है और प्रश है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८३-१७ दोन-प्रज्ञावान और अदीन-प्रशावान भानाचार परिशिष्ट ११ + - - दौना वीनपण्णाजुत्ता, अवीना अदीनपण्णाजुत्ता१८३. मारि पुरिसजाया PHI, हा दोगे माममेगे दोषपम्ने, होणे नाममेगे अदोणपन्ने, अबोणे नाममेगे दोणपन्ने, अवीणे नाममेगे अाणपन्ने । -ठाणं. अ. ४. उ. २, सु. २७६ अज्जा अणज्जा, अज्जपण्णाजुत्ता अणज्ज पण्णाजुत्ता१८४. पसारि पुरिसजाया पणत्ता.तं जहा अग्ने नाममेगे अम्जपन्ने, अज्जे नाममेगे अणज्जपन्ने, अणज्जे नाममेगे अज्जपन्ने, अगर नाममेगे अणज्जपन्ने । ठाण. अ. ४, उ. २, सु.२५० सच्चा असध्धा, सच्चपष्णाजुत्ता असच्च पण्णाजुत्ता१८१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा साचे नाममेगे सच्चएम्ने, सच्चे नाममेगे असपचपन्ने, असच्चे नाममेगे सच्चपन्ने, असच्चे नाममा असच्चपन्ने । सुसोला दुस्सोला, सील पण्णाजुत्ता असीलपण्णाजुत्ता - दीन और अदीन, दीन-प्रज्ञावान और अदीन-प्रज्ञावान१८३. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा एक पुरुष दीन है और सूक्ष्म अर्थ के आलोचन में भी दीन है। एक पुरुष दीन है किन्तु सूक्ष्म अर्थ के आलोचन में अदीन है। एक पुरुष अदीन है किन्तु सूक्ष्म अर्थ के आलोचन में दीन है। एक पुरुष अदीन है और सूक्ष्म अर्थ के आलोचन में भी अदीन है। आर्य और अनार्य, आर्य प्रज्ञावान् और अनार्य प्रज्ञावान्१८४. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं. यथा एक पुरुष आर्य भी है और आर्यप्रश भी है। एक पुरुष आर्य है किन्तु आर्यन नहीं है । एक पुरुष अनार्य है किन्तु आर्यप्रज्ञ है। एक पुरुष अनार्य है और अनार्यप्रश भी है। १६६. बत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा सुइनाममेगे सुइपन्ने, सुइ नाममेगे असुइपन्ने, असुई नाममेगे सुइपन्ने, सत्यवक्ता और असत्यवक्ता सत्य प्रज्ञा और असत्य प्रज्ञा१८५, पुरुष चार प्रकार के कहे हैं, यथा एक पुरुष सत्य वक्ता है और उसकी प्रज्ञा भी मत्य है। एक पुरष सत्य बत्ता है किन्तु उसकी प्रमा असत्य है। एक पुरुष असत्य वक्ता है किन्तु उसकी प्रज्ञा सत्य है। एक पृष्प असत्य वक्ता है और उमकी प्रज्ञा भी असत्य है। शील सम्पन्न और दुशील सम्पन्न, शील प्रज्ञावान और दुश्शील प्रज्ञावान१५६. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा एक पुरुष स्वभाव से अच्छा है और उसकी प्रज्ञा भी पवित्र है, एक पुरुष स्वभाव से अच्छा है किन्तु उसकी प्रजा अपवित्र है, एक पुरुष स्वभाव से अच्छा नहीं है किन्तु उसकी प्रजा पवित्र है, एक पुरुष स्वभाव से अच्छा नहीं है और उसकी प्रज्ञा भी अपवित्र है। शुद्ध और शुद्ध प्रज्ञावान, अशुद्ध और अशुद्ध प्रज्ञावान1८७. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा एक पुरुष निर्मल ज्ञानादि गुणवाला है और उसकी प्रजा भी असुइ नाममेये अमुइपन्ने । सुद्धा सुम्स पण्णाजुत्ता, असुद्धा असुद्ध पप्णाजता - १८७ बत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा सुझे नाममेगे सुद्धपन्ने, सुखे नाममेगे असुबपन्ने, एक पुरुष निर्मल ज्ञानादि गुणवाला है किन्तु उसकी प्रजा अशुद्ध है, अमुझे नाममेरो सुदपले, एक पुरुष निर्मल ज्ञानादि गुणयाला नहीं है किन्तु उसकी प्रज्ञा शुद्ध है, असुर नाममेगे असुझपन्ने । एक पुरष निर्मल ज्ञानादि गुणवाला नहीं है और उसकी -ठाणं, अ. ४, उ. १, सु. २४१ प्रना भी शुद्ध नहीं है । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] चरणानुयोग बामणा दाता, अदाता, गहिया, अमहिया१०. चारि पुरियाणा हा १. वाद णाममेगे जो वायाबेड, २. वायवे णाममे णो गाएड. २. वि ४. एगे जो बाए णो वाघावेह | पच्छिगा अपडिन्छया१८६ बसारि पुरिमायातं जहा १. पचिच्छति णाममेगे णो पडिन्छायेति, २. परिच्छायेति णाममेगे णो परिच्छति, ३. एवि परिछावेति वि ४. एमे भी पति को परिछावेति । पह कत्ता, अकत्ता १०. बस्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा १. मो २. पुच्छा ममे णो पुछ २. एगे छि ४. ए को पुच्छर णो पृष्ठावे । बागरा, अवागरा- ११. बारि पुरिसजाया पण्णत्ता, सं जहा १. बावरेति चाममेोवागरात २. वागरात वाममेो बगरेलि ३. एगे यागरेति वि यागराधेति वि ४. एमे णो वापरेति णो वापरावेति । वाचनादाता, अदाता, पहिला, अग्रहिता सूत्र १६-१९१ वाचना बाता अदाता पहिला अग्रहिता १८८. पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे (१) कोई पुरुष दूसरों को वाचना देता है, किन्तु दूसरों से वाचना नहीं लेता | (1) कोई पुरुष दूसरों से वाचना लेता है, किन्तु दूसरों को याचना नहीं देता । (३) कोई पुरुष दूसरों को बचा देता है और दूसरों से बना लेता भी है। (४) कोई पुरुष न दूसरों को वाचना देता है और न दूसरों से वाचना लेता है। सूत्रार्थ ग्राहक अग्राहक १०६. पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे (१) कोई पुरुष प्रतीच्छा (सूत्र और अर्थ का ग्रहण) करता है, किन्तु प्रतीच्छा करवाता नहीं है । (२) कोई पुरुष प्रतीच्छा करवाता है, किन्तु प्रतीच्छा करता नहीं है । (३) कोई पुरुष प्रतीच्छा करता भी है और प्रतीच्छा कर वाता भी है। (४) कोई पुरुष प्रतीच्छा न करता है और न प्रतीच्छा करवाता है । प्रश्नकर्ता, अकर्ता - १६०. पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे— (१) कोई पुरुष प्रश्न करता है, किन्तु प्रश्न करवाता नहीं है। (२) कोई पुरुष प्रश्न करवाता है, किन्तु स्वयं प्रश्न करता नहीं है। (३) कोई पुरुष प्रश्न करता भी है और प्रश्न करवाता भी है। (४) कोई पुरुष न प्रश्न करता है, न प्रश्न करवाता है। सूत्रार्थं व्याख्याता, अव्याख्याता १६१. पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे (१) कोई पुरुषादि का व्याख्यान करता है, किन्तु अन्य से व्याख्यान करवाता नहीं है । (२) कोई पुरुष व्याख्यान करवाता है, किन्तु स्वयं व्याख्यान नहीं करता है । (३) कोई पुरुष स्वयं व्याख्यान करता है, और अन्य से व्याख्यान करवाता भी है। (४) कोई पुरुष न स्वयं व्याख्वान करता है और न अन्य से ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २५६ व्याख्यान करवाता है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूत्र १९२-१६५ श्रुस और शरीर से पूर्ण अथवा अपूर्ण शानाचार परिशिष्ट १२१ सुएण वा सरीरेण वा पुण्णा अपुण्णा श्रुत और शरीर से पूर्ण अथवा अपूर्ण१६२. चत्तार पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा १९२. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, मथापुणे नाममेगे पुणे, एक पुरुष अवयवादि से पूर्ण है और श्रुत से भी पूर्ण है, पुग्णे नाममेमे मुख्छ। एक पुरुष अवयवादि से पुर्ण है किन्तु श्रुत से अपूर्ण है, तुच्छे नाममेगे पुणे, एक पुरुष श्रुत से अपूर्ण है किन्तु अवयवादि से पूर्ण है, तुच्छे माममेगे तुच्छे। एक पुरुष श्रुत से भी अपूर्ण है और अवयवादि से भी -ठाणं.अ.४.उ. ४, सु. ३६० अपूर्ण है। सुएण पुण्णा अपुग्णा, पुण्णावभासा अपुषणावभासा-- श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण, पूर्ण सदृश या अपूर्ण सदृश :-- १६३, पत्तारि पुरिसजाया पग्णता, तं जहा--- १६३. चार प्रकार के पुरुष कहे है, यथा-- पुग्णे नाममेगे पुण्णोभासी, एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है और पूर्ण ही दिखाई देता है, पुण्णे नाममेगे सुन्छोमासी, एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है कि तु अपूर्ण दिनाई देता है। तुच्छे नाममेगे पुषणोभासी, एक पुरुष श्रुत से अपूर्ण है किन्तु पूर्ण दिखाई देता है, तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासो। एक पुरुष श्रुत से अपूर्ण है और अपूर्ण ही दिखाई देता है। ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३६० सुएण पुण्णा अपुण्णा, पुण्णवा अपुण्णरूवा-- श्रुत से पूर्ण अपूर्ण, श्रमणवेप से पूर्ण और अपूर्ण१६४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा --- १९४, चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा--- पुणे नाममेगे पुग्णलवे, एक पुरुष थुत से भी पूर्ण है और साधुवेष से भी पूर्ण है, पुण्ये नाममेगे तुच्छहले, एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है किन्तु साधुवेष से पूर्ण नहीं है, तुन्छे मामलेगे पुण्णरूवे. एक पुरुष श्रुत से अपूर्ण है किन्तु साधुवेष से पूर्ण है, तुच्छे नाममेगे तुच्छरूखे। -ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. २६० एक पुरुष थुत रो भी अपूर्ण है और माधुवेष से भी अपूर्ण है। सुएण पुण्णा अपुण्णा, उपकारकारगा, अपकारकारगा- श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण उपकारी और अपकारी१६५, अत्तारि पुरिसमाया पण्णता, तं जहा १६५. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, पथा - पुणे वि एग पियट्ठ एक पुरुष धुत से पूर्ण है और परोपकारी भी है, पुणे वि एगे अवदले, . एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है किन्तु परोपकारी नहीं है, तुच्छे वि एगे पियट्ट, एक पुरुष श्रुत रो पूर्ण नहीं है किन्तु परोपकारी हैं, तुच्छे वि एगे अवदले। एक पुरुष श्रुत से भी पूर्ण नहीं है और परोपकारी भी -- ठाणं. म. ४, उ. ४, सु. ३६० नहीं है। सुएण पुण्णा अपुष्णा, सुअस्स दाता अदाता श्रुत से पूर्ण और अपूर्ण, श्रुत के दाता और अदाता१६६. पत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १६६. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं यथा --- पुन्ने कि एगे विस्संदर एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है और अग्य' को श्रुत देता है, पुन्ने वि एगे णो विस्संवह, एक पुरुष श्रुत से पूर्ण है किन्तु अन्य को श्रुत नहीं देता है, तुच्छ वि एगे विस्संबइ, एक पुरुष श्रुत से पूर्ण नहीं है किन्तु अन्य को श्रुत देता है, तुच्छे वि एगेनो विस्संबह। एक पुरुप श्रुत से की पूर्ण नहीं है और अन्य को भी श्रत -ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३६. नहीं देना है। सएण सरीरेण य उन्नया अवनया श्रुत से और शरीर से उन्नत या अवनत१६७. बसारि पुरिसजाय पण्णता, तं जहा-- १६७. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाउनए नरममेगे उन्नए, एक पुरुष शरीर से उन्नत है और श्रुत से भी उन्नत है, उन्नए नाममेगे पगए, एक पुरुष शरीर से उन्नत है विन्तु श्रुत से उषत नहीं है, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] परणानुयोग आतिसम्पन्न, जातिहीन, अतसम्पन्न, श्रुतहीन सूत्र १६७-२०२ पणए नाममेमे उन्नए, एक पुरुष शरीर से उन्नत नहीं है किन्तु श्रुत से उन्नत है, पणए माममेगे पणए। -ठाणं. १. ४. सु. २३६ क माप शरीर से उबत नहीं है और श्रुत से भी उन्नत नहीं है । जाहसंपन्ना, जाइहीणा, सुयसंपन्ना, सुयहीणा जातिसम्पन्न, जातिहीन, श्रुतसम्पन्न, श्रुतहीन१६८, चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १६८. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाजाइसंपन्ने नाममेमे नो सुयसंपन्ने, एक पुरुष जातिसम्पन्न है किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है, सुयसंपन्ने नाममेगे नो जाइसंपन्ने, एक पुरुष श्रुतसम्पन्न है किन्तु जातिसम्पन्न नहीं है, एने जाप संपन्ने वि सुयसंपन्ने वि, एक पुरुष जातिसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है, एगे भो जाइ संपन्ने नो सुयसंपन्ने । एक पुरुष जातिसम्पन्न भी नहीं है और श्रुतसम्पन्न भी -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ नहीं है । कुलसंपण्णा, कुलहीणा, सुयसम्पम्ना, सुयहोणा कुलसम्पन्न और कुलहीन. श्रुतसम्पन्न और श्रुतहीन१६६, चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १९६. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं. यथाकुलसंपन्ने नाममेगे नो सुयसंपन्ने, एक पुरष कुलसम्पन्न है किन्तु श्रुतमम्पन्न नहीं है, मुयसंपन्ने नाममेगे नो कुलसंपन्ने, एक र श्रुतसम्पन्न है किन्तु कुलसम्पन्न नहीं है, एगे कुलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि, एक पृरुष कुलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है, एगे नो कुलसंपन्ने नो सुपसंपन्ने । एक पुरुष कुलसम्पन्न भी नहीं है और कुत सम्पन्न भी -ठाणे. अ.४, उ. ३, सु.३१६ नहीं है। सुरुवा, कुरूवा, सुयसम्पन्ना, सुयहोणा सुरूप और कुरूप, श्रुतसम्पन्न और श्रुतहीन२००. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--- २००. चार प्रकार के पुरुष कहे गये है, यथारूवसंपन्ने नाममेगे नो सुयसंपन्ने, एक पुरए कासम्पन्न है किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है, सुयसंपन्ने नाममेगे नो हरसंपन्ने, एक पृष श्रुतसम्पन्न है किन्तु रूपमम्पन्न नहीं है. एगे रूपसंपन्ने वि सुवसंपन्ने वि, एक गुम्प रूपसम्पन भी है और थलसम्म भी है. एगे नो रुवसंपन्ने नो सुपसंपन्ने । एक रूप रूपसम्पन्न भी नहीं है और श्रुत सम्पन्न भी नहीं है। -ठाणं, अ.४, 3. ३, गु. ३१६ बलसम्पण्णा, बलहीणा, सुयसम्पण्णा, सुपरहिया- बलसम्पन्न और बलहीन, धतसम्पन्न और श्रुतहीन... २०१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा २०१. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा -- बलसंपले नाममेगे नो सुयसंपन्ने, एक पुरुष बलसम्पन्न है, किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है, सुयसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने, एक पुरुप श्रुतसम्पन्न है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं है. एगे बलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि, एक पुरुष वलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है. एगे नो बससंपन्ने नो सुपसंपन्ने । एक पुरुष बलसम्पन्न भी नहीं है और श्रुतसम्पन्न भी नहीं है। --ठाण.अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ सुत्तधरा, अस्थधरा सूत्रधर, अस्थधर २०२. तओ पुरिसजाया पणत्ता, सं जहा २०२. थुतधर पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं - मुत्तधरे, अत्यधरे, तनुमयधरे। सूत्रधर, अर्थधर और तदुभयधर (सूत्र और अर्थ दोनों के ठाणं अ. ३, उ. ३, सु. १७७ धारक) चसारि परिसजाया पणत्ता, तं जहा चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा--- सुसधरे नाममेगे नो अत्यधरे, एक सूत्रधर है किन्तु अर्थधर नहीं है, अत्यघरे नाममे मो सुत्तधरे, एक अर्थधर है किन्तु सूत्रधर नहीं है, एगे मुत्तधरे वि अस्थधरे वि, एक मूत्रधार भी है, और अर्थधर भी है, एगे नो सुतधरे नो अत्यधरे। एक सूत्रधर भी नहीं है और अर्थश्रर भी नहीं है। ... ठाणं, अ. ४, उ.१, सु. २५६ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन २०३-२०० छहों दिशाओं में ज्ञान वृद्धि शामाधार परिशिष्ट १२३ छसु विसासु णाणबुड्ढी छहों दिशाओं में ज्ञान वृद्धि२०३. छहिसाभी पणत्ताओ, तं जहा—पाईणा, पड़ीणा, बाहिणा, २०३. छ: दिशाएँ कही हैं, यथा-(१) पूर्व, (२) पश्चिम, जवीणा, उढा, अधा। (३) दक्षिण, (४) उत्तर, (५) ऊन, (६) अधो। हि बिसाहि जीवाणं गती पयत्तति नाणाभिगमे, तं जहा- छ: दिशाओं में जीवों को ज्ञान की प्राप्ति होती है, यथा-- पाईगाते-जाव-अधाते। -ठाणं. अ. ६, मु. ४६६ पूर्व-यावत्-अधोदिशा में। नाणबुढिकरा दस नक्खत्ता ज्ञान वृद्धिकर दस नक्षत्र२०४. स जयखता गाणस्स किरा पणत्ता, तं जहा- २०४. ज्ञान वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र कहे हैं, यथामिगसिरममा पस्सो, तिनि य पुवाई मूलमस्सेसा। (१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३) पुष्य, (४) पूर्वाषाढा, हत्यो चिसो य तहा, दस बुटिकराई गाणस्सा ॥ (५) पूर्वाफाल्गुनी, (६) पूर्वाभाद्रपदा, (७) मूल, (६) अश्लेषा, ठाणं, अ, १०, सु. ७८१ (8) हस्त, (१०) चित्रा । तिबिहा निण्णया तीन प्रकार के निर्णय-- २०५. तिनिहे अंते पण्णते, तं जहा २०५. अन्त (रहस्य-निर्णय) तीन प्रकार का कहा गया हैलोगते, (१) लोकान्त-निर्णय-- लौकिक शास्त्रों के रहस्य का निर्णय । वेयते, (२) वेदान्त-निर्णय-वैदिक शास्त्रों के रहस्य का निर्णय । समयते। -ठाणं. ३, ज. ४, सु. २१९ (३) समयान्त-निर्णय-जैनसिद्धान्तों के रहस्य का निर्णय । सिधिहा निव्वई तीन प्रकार की निवृत्ति२०. सिविधा बावस्ती पक्ष्णता, तं जहा - २०६. व्यावृत्ति (पापरूग कार्यों से निवृत्ति) तीन प्रकार की कही जाणू, अजाणू, वितिगच्छा। गई है-ज्ञान-पूर्वक, अज्ञान-पूर्वक और विचिकित्सा (संशयादि) पूर्वक। सिविहो विसयाणरागो तीन प्रकार का विषयानुराग२०७.तिविधा अग्लोषबज्जणा पण्णत्ता, संजहा २०७. अध्युषपादन (इन्द्रिय-विषयानुसंग) तीन प्रकार का कहा ___ जागू, अजाणू, वितिगच्छा। गया है-ज्ञानपूर्वक, अज्ञान-पूर्वक और विचिकित्सा पूर्वक ! तिविह विसवाणुसेवणं तीन प्रकार का विषय सेवन२०.. तिविधा परियावजणा पण्णत्ता, तं जहा-- २०८. पर्यापादन (विषप-सेवन) तीन प्रकार का कहा गया है.-- जागू, अजाणू, वितिगछा। -ठाण. ३, उ. ४, मु. २१८ शानपूर्वक, अज्ञान-पूर्वक, और विचिकित्सा-पूर्वक । १ इन नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ योग होने पर यदि अध्ययन किया जाता है तो जान वृद्धि होती है, विघ्नरहित अध्ययन, थदण, व्याख्यान एवं धारणा होती है। ऐसे कार्यों में विशेषकाल कारण होता है, क्योंकि विशेषकाल क्षयोपशम का हेतु होता है, कहा भी है गाहा-उदयन यवओबसमा, जं च कम्मुणो भणिया। दवं, बेत्तं काल, भवं च भावं च संपप्प ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाचार तालिका ज्ञानाचार १. कालज्ञानाचार २. विनयाचार ३. बहुमानाचार ४. उपधानाचार , अनिन्हवाचार व्यंजनाचार ७.अर्थाचार -. तदुभयाचार विनयसमाधि ) १ काल-प्रतिलेखना ४ विनयप्रतिपत्ति ४ अम्बाध्याय काल ४ महाप्रतिपदा में स्वाध्याय निषेध आचार विनवप्रतिपत्ति १० औदारिक अस्वाध्याय २ श्रुत विनयप्रतिपत्ति १० अन्तरिक्ष अस्वाध्याय ३ विक्षेपना विनय प्र. ४ दोष निर्यातना दिनय प्र. आचार विनयप्रतिपत्ति (४) १ उपकरणोत्पादनता (८ भेद) १ज्ञानविनय (५ भेद) २ सहायता (४ भेद) २ दर्शनविनय (५५ भेद) ३ वर्णज्वलनता(४ भेद) ४ भाद्र प्रत्यवरोहणता (४ भेद) 3 चारित्रविनय (५ भेद) १ शुश्रूषा विनय (१०भेद). ४ मनोविनय (२४भेद) २ अनत्याशतनाविनय(४५ भेद) १ संयमसमाचारी र तपसमापारी ३ गणसमाचारी ४ एकाकोविहार ममाचारी श्रुतविनय (४) १ सूत्र वाचना २ अर्थ वाचना ३ हित वाचना ४ नि:शेष वाचना विक्षेपमाविनय (४) १प्रशस्त मनोविनय (१२ भेद) २ अप्रशस्त मनोविनय (१२ भेद) ५ बचनविनब (२४ भेद) प्रशस्त वचनविनय २ अप्रशस्त वचनविनय ६ कागविनय (१४ भेद) (१२ भेद) (१२ भेद). १ अदृष्टधर्मा २ दृष्टधर्मा ३ च्युतधर्मा को धर्मज्ञान देकर स्थापित करना ४ धर्म में उद्यत करना वोपनिर्घातनाविनय (2) १ क्रुद्ध, २ दुष्ट, ३ कांक्षा बालों के दोष निवारण करना, ४ आत्म-सुप्रणिहित रखना अविनय १ प्रशस्तकायविनय (७) २ अप्रशस्तकायविनय (७) ७ लोकोपचारविनय (७ भेद) १ अविनव २ अविनीत (१४ प्रकार) प्रत्यनीक (६+३=१०) १देशत्याग २ निरालम्बन ३ नाना प्रायोद्धषी ३ गुरुप्रत्यनीक-१ आचार्य प्रत्यनीक २. उपाध्याय प्र.३. स्थविर प. ३ गति प्रत्यनीक-१. इहलोक प्र.२. परलोक प्र. ३. उभयलोकप्र. ३ समूह प्रत्पनीक-१. कुल प्र.२. गण प्र.३.संघ प्र. ३ अनुकम्प्य प्रत्यनोक-१. तपस्वी प्र. २. ग्लान प्र. ३. शैक्षप्र. ३ श्रत प्रत्यनीक - १. सूत्र प्र.. अर्थ प्र. ३. तदुभय प्र. ३ भाव प्रश्यनीक-१. ज्ञान प्र. २. दर्शन प्र.३. चारित्र प्र. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दसणायारो ॥ Toneras Para निस्संकिय जिटिवतिभिच्छा अमूढदिठिक य । थिरीकरणे, पभावणे अव ववव खल्ल निशीषभाय्य, माग १, ० २६/३ O: चरणा नु यो ग [ वशे ना चार @ S.Bhart/-AGRA-2 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसणायारो दर्शनाचार सम्यक्दर्शन । स्वरूप एवं प्राप्ति के उपाय दसणसहवं दर्शन स्वरूप२०६.प. से पूर्ण मंते ! तमेव सच्चं पीसंकजं जिणेहि पवेवयं ? २०६. प्र.-हे भगवन् ! वही सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् ने कहा है ? स-हंता, गोयमा ! तमेव सरचं णीसंकं जंजिहि उ०—हाँ गौतम ! वही सत्य और नि:शंक है जो जिन भगपवेदयं । वान ने कहा है। प.-से गूणं भंते ! एवं मणे धारेमाणे, एवं परेमाणे प्र०-हे भगवन् ! इस प्रकार मन में धारणा करता हुआ, एवं चिट्ठमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए आचरण करता हुआ, स्थिर रहता हुआ, आत्मसंवरण करता हुआ प्राणी आजा का आराधक होता है ? उ०—हता, गोयमा 1 एवं मणं धारेमाणे-जाव-आणाए उ०—हाँ गौतम ! इस प्रकार मन में धारण करता हुआ आहए भवइ।। -वि.स.१, उ. ३, सु.६ -यावद - आज्ञा का आराधक होता है। सम्मत्तस्स वीबोवमा-- सम्यक्त्व को द्वीप की उपमा२१.. वममाणाण रामाणं, किस्ताण सफम्मुणा। २१०. (मिथ्यात्व, कषाय एवं प्रमाद आदि संसार-सागर के स्रोतों आधाति साह तं दोवं, पति? सापबुरचती ॥ के प्रवाह (तीव्रधारा) में बहाकर ले जाते हुए तथा अपने (कृत) -सूय. सु. १. अ. ११, गा. १३ कर्मो (के उदय) से दुःख पाते हुए प्राणियों के लिए तीर्थकर उसे (निर्वाणमार्य को उत्तम द्वीप परतिरत बताते हैं । (तत्वन्न पुरुष) कहते हैं कि यही मोक्ष का प्रतिष्ठान (संसार भ्रमण से विश्रान्ति रूप स्थान, या मोक्ष प्राप्ति का आधार) है। दसण लक्खणं--- दर्शन का लक्षण२११. जीवाजीबा व बंधो य, पुण्ण पावासयो तहा। २११. (१) जीव, (२) अजीन, (२) बन्ध (४) पुण्य, (५) पाप, संघरो निजरा मोषखो, संत ए तहिया नय ।। (६) आश्चव, (७) संवर, (८) निस और (६) मोक्ष ये नव पदार्थ सत्य हैं। तहियाणं तु भायाणं, सम्मावे उपएसणं । जीवादि इन सत्य पदार्थों के सद्भाव में स्वभाव से या उपभावेणं सइहं तस्स, सम्मतं तं विवाहियं ॥ देश से जो भानपूर्वक श्रद्धा है उसे सम्यक्त्व कहा गया है। -उत्त, म. २८, गा. १४-१५ इणमेव गायकवंति जे जणा धुवचारिणो। जो पुरुष ध्र वचारी-अर्थात् शाश्वत सुख केन्द्र मोक्ष की जाति - मरगं परिणाय • चरे संकमगे रखे ॥ ओर गतिशील होते हैं, ये ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते । -आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७८ वे जन्म-मरण के चक्र को जानकर दृढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर पढ़ते रहें। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] परणानुयोग सम्यक्त्य के आठ (प्रभाधना) अंग समदंसणिस्स अट्ठ पभावणा सम्यक्त्व के आठ (प्रभावना) अंग२१२. निस्सकिय नियकंखिय, निश्चितिगिच्छा अमूहविट्ठी य । २१२. (१) नि:शंका, (२) निस्काशा, (३) निविचिकित्सा, उबवूह - थिरीकरणे, वच्छल्ल • पभावणे अट्ठ ॥ (४) अमूह दुष्टि, (५) उपहण (सम्यकदर्शन की पुष्टि), ---उत्त. स. २८, गा. ३१ (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, (८) प्रभावना -- ये आय सम्यक्त्व के अंग हैं। सम्मदसणिस्स वसविहारुई -- सम्यक्त्व के दस प्रकार-(रुचि) २१३, निसगुवएसई । आगाई सुत्तबीयराइमेव । २१३. (१) निसर्ग-रुचि, (२) उपदेश रुचि, (३) आमा-कवि, अभिगमवित्थाररुई । किरियासंखेवधम्मरुई ॥' (४) सूत्र-रुचि, (५) वीज-धि, (६) अभिगम-रुधि, (७) विस्तार मचि, (८) किया-गचि, {6) संक्षेप-रुनि, (१०) धर्म-कचि । (१) भूयत्येवाहिगया , जीवाजीवा य पुष्ण-पाय च । (१) जो परोपदेश के विना केवल अपनी आत्मा से उपजे सहसम्मुइयासनसंबरो, रोएइ उ निसग्गो ॥ हुए भूतार्थ (यवार्थ-ज्ञान) से, जीव, अजीव, पुण्य, पाप तथा आश्रय को जानता है और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रूचि है। जो जिदिटु भावे, चविहे सद्दहाइ सयमेव । जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से एमेव नऽनह ति य, स निसरगरुई ति नायबो॥ विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही ---"यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं है"-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्ग-रूचि वाला जानना चाहिए। (२) एए चेव उ भावे, वहट्ट जो परेण सहहई । (२) जो दूसरों-छद्मस्थ या जिन–के द्वारा उपदेश प्राप्त छनमत्येण जिणेण च, उबएस रुई सि नायबो॥ कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेश-चि वाला जानना चाहिए। (३) रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगय होइ । (३) जो व्यक्ति, राग, द्वष, मोह और अज्ञान से दूर हो आगाए रोयंतो, सो वसु आणाई नाम ॥ जाने पर वीतराग की आज्ञा में रुचि रखता है, वह आजा-कधि है। (४) जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । (४) जो अंग-प्रविष्ट या अंग बाह्म सूत्रों को पढ़ता हुआ अंगण वाहिरेण व. सो सुताइ नायग्वी॥ सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्र-रुचि है। (५) एगेण अणेगाई, पयाई जो पसरई उ सम्मतं । (५) पानी में डाले हए तेल की बूंद की तरह सम्यक्त्व उदए स्व तेलबिवु, सो बीयरुइ ति नायध्वो।। (रुचि) एक पद (तत्व) मे अनेक पदों में फैलता है, उसे नौज कषि जानना चाहिए। (६) सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्ययो बिट्ट। (६) जिस ग्यारह अंग, प्रकीर्ण और दृष्टिबाद आदि श्रुत "एक्कारस अंगाई", पदण्यगं बिहिवाओ य॥ ज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगम-इचि है। (७) स्वाण सम्वभावा, सध्यपमाणेहि जस्स वलया। (७) जिसे द्रव्यों के सब भाव, सभी प्राणियों और सभी नय सवाहि नविहीहि, य, वित्थाररुई ति नायम्बो ।। विधियों से उपलब्ध है, वह विस्तार-धि है। (८) वसगनाणचरिसे , तक्षिणए सच्चसमिइगुसीसु। (८) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, जो किरियामाबहई, सो खलु किरियाई नाम ।। गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसको वास्तविक रुचि है, बह किया. (8) अणभिमाहिपकुट्ठी , संख्नेवई ति होइ नापज्यो । अविसारओ ५षयणे, अभिमग हिओ य सेसेसु ॥ (8) जो जिन-प्रवचन में विशारद नहीं है और अन्यान्य प्रवचनों का अभिज्ञ भी नहीं है, किन्तु जिसे कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण स्वल्प ज्ञान मात्र रो जो सत्व-श्रद्धा प्राप्त होती है, उसे संक्षेप-रुचि जानना चाहिए। १ ठा. अ.१०, सु. ७५१ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१३-२१६ तीन प्रकार के वर्शन वर्शनाचार १२७ (१०) जो अस्थिकायधम्म, सुयधम खलु चरितधम्म च। (१०) जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय धर्म, श्रुत-धर्म और सहारइ जिणामिहिर्य, सो धम्ममद ति नापश्वो ॥ चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है, उसे धर्म-पचि जानना चाहिए । -उत्त, अ.२८, गा. १६-१७ तिविहे इसणे - तीन प्रकार के दर्शन - २१४, सिविहे वंसणे पग्णते,' तं जहा २१४. तीन प्रकार के दर्शन कहे गये हैं यथा१. सम्मदसणे, १. मिचछदसणे, (१) सम्पग्दर्शन, (२) मिथ्या दर्शन, ३. सम्मामिछदंसगे। --ठाणं. अ. ३, ३, ३, मु. १६०/१ (३) सम्यमिथ्यादर्शन। सम्मसणे बिहे पण्णते, तं जहा सम्यग्दर्शन दो प्रकार के कहे गये हैं यथाजिसगसम्मदसणे, अभिगमसणे, (१) निसर्ग सम्पग्दर्शन, (२) अभिगम सम्यग्दर्शन । गिसम्गसम्मवेसणे दुबिहे पण्णते, तं जहा निसर्ग सम्यग्दर्णन दो प्रकार के कहे गये हैं यथा-- परिवाइ चेव, अपरिवाइ घेव, (१) प्रतिपाति, (२) अप्रतिपाति । अभिगमसम्मवंसणे दुषिहे पम्पसे, तं जहा अभिगम सम्यग्दर्शन दो प्रकार के कहे गये हैं यथापडिवाइ चेव, नपरिबाइ चेव, (१) प्रतिपाति, (२) अप्रतिपाति । -ठाणं. अ. २, ३.१, सु. ५६ बसणसंपण्णयाए फलं-- दर्शन का फल२१५. ५०—सणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयह? २१५.५० भन्ते ! दर्शन-सम्पन्नता (सम्यक्-दर्शन की सम्प्राप्ति) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-सणसंपनयाए णं भवमिन्छत्तछयथं करेइ, उ.- दर्शन-सम्पन्नता से वह संसार-पर्यटन के हेतु-भूत पर न विज्लायइ । मिथ्यात्व वा उच्छेद करता है-क्षायिक सम्यक्-दर्शन को प्राप्त अत्तरेण नाणदसणेणं अपार्ण संजोएमाणे होता है। उससे आगे उसकी प्रकाश-शिखा बुझती नहीं। वह सम्म भावेमाणे विहरई ।। अनुत्तर ज्ञान और दर्शन को आत्मा से संयोजित करता हुआ, -उत्त. अ, २६, पा. ६२ उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता है। परिसणावरणिज्जस्स खऐण बोहिलाभो अक्खएण-अलाभो- दर्शनावरणीय के क्षय से बोधिलाभ और क्षय न होने से अलाभ-- २१६. प०-(क) सोच्चा गं भंते ! केवलिस्स वा-जाब-तपक्खिय- २१६. प्र.-(क) भन्ते ! केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उवासियाए वा केवलं बोहि बुझज्जा? उपासिका से सुनकर कई जीव केवलबोधि को प्राप्त कर सकता है? उ.-पोयमा ! सोरचा गं केलिस्स वा-जात्र-तपक्षिय- उ.--गौतम ! केबली से—यावत-केवली पाक्षिक उपा उपासियाए वा अत्यंगलिए केवलं बोहि बुज्डोज्जा सिका से सुनकर कई जीत्र केवलबोधि को प्राप्त कर सकते हैं अत्यंगत्ति ए केवलं बोहि नो बुज्झज्जा। और कई जीव केवलबोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। (क) ठाणं. अ. २, उ.१, सु. ५६ । (ख) सत्तविहे दंसणे पणतं. सं जहा—१. सम्मदसणे, २. मिच्छदसणे, ३. राम्मामिच्छदसणे, ४. चखुदंसणे, ५. अचकनुदंसणे, ६. ओहिदसणे, ७. केवल दंगणे । -ठाणं. अ. ७, सु. ५६५ (ग) अट्ठविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा–१. सम्मदंसणे, २. मिच्छदसणे, ३. समामिछदसणे, ४. चवखुदंसणे. ५. अचखुदंसणे, ६. ओहिदसणे, ७. केबलटमणे, ८. सुविणदंसणे । - ठाणं. ८. गु. ६१९ स्थानांग को रचना के अनुसार ७ और ८ दर्शनों में प्रकार कहे गये हैं किन्तु सम्यग्दर्शनादि दर्शनत्रय से चक्षुदर्शनादि दर्शनों का विषय माम्ग नही है । बहुदर्शनादि चार दर्शन उपयोग रूप हैं और यह याग दर्शन दर्मनावरणीय कर्म के क्षयोपशम-क्षयजन्य हैं । (घ) तिविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा - -सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्मामिच्छपओगे। -ठाण, अ.३, उ, ३, सु. १६० - - Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] चरणानुयोग ५० तनावरणीय के क्षय से बोधिलाभ और क्षय न होने से अलाभ -से केण णं मंते ! एवं बुच्चइ---- लावावासियाए वा अत्येत्तिए केवलं मोहिं दुज्ज्जा अत्येतिए केवलं योहि नो बुझेज्जा ? उ०- गोयमा ! जस्स गं दरिसणावरनिज्जा कम्माणं खओवसमे कडे भव से णं सोचा केवलिस्स वा जाव विवा जस्स गं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे तो कडे भव से गं सोचा के लिएस वा जावन्तपविषय उवासियाए वा केवलं वो हि नो बुझे । से लेग गोमा एवं - जस्स णं परिसणावर विज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे अवड़ से णं सोचा केवलिसा बा-जाद-सत्यश्लिम जवासियाए या केवलं बोहि बुझेज्जा । जस्स णं हरिणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, से पं सोच्चा केवलिस या जान सम्पविखय उदासिया वा केवलं मोहिनी । - वि. श. ६, उ. ३१, सु. १३ प०- ( ख ) असोला णं भंते ! केवलिरस वा जाब-तप्पक्लिय सिया के ह उ०- गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स बा जावसप्प विषय बलिया वा अत्येलिए केवल वीहि संत्रा अत्भेतिए केवलं कोहि नो । प० ---से के गट्टणं भंते ! एवं बुच्च असोया व केवलिरस वा जान पपिवासियाए वा अत्येलिए केवल मोहिमे भगलिए ? उ०- गोयमा ! जस्स णं वरिसणावर णिज्जाणं कम्माणं समेकभव से अशोच्या केविल्स या - जाव-विवासियाए वा केवलं बोहि बुज्ना जस्त गं दरिसणाधरणिज्जाणं क्रम्माणं खओवसमे नो कडे मइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जान तथ्य क्यासियर था। से लेणं गोवमा एवं व जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं उओवसमे कडे मगर, से णं असोकचा केवलिस्स वा जावन्त लिसिया वा केहि सूत्र २१६ प्र० भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैकेवली से बावत् केवलीपाक्षिक उपासिका से सुनकर कई जीन केवलबोधि को प्राप्त कर सकते हैं, और कई जीव केवलबोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ? उ०- गौतम ! जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपश्म हुआ है वह केवली से - यावत् केवलीपाक्षिक उपासिका से सुनकर केवल बांधि को प्राप्त कर सकता है - जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपयम नहीं हुआ है. वह केवल से पायत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर केवल बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता है। गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैजिसके दर्शनावरणीय काम हुआ है यह केवल संपादकेवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर केवलवोधि को प्राप्त कर सकता है । जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है यह केवली सेवा के वलीपाक्षिक उपासिका से सुनकर केवल बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता है। - प्र० (ख) भन्दे ! केवली से पातु शिक्षिक उपासिका से सुने बिना कोई जीव केवलबोधि को प्राप्त कर सकता है ? उ०- गौतम ! केवली से-पावत् केवलीपाक्षिक उपा से सुने बिना कई जीव केलथि को प्राप्त कर सकते हैं और कई जीव केवलबोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। प्र० - भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैकेवली से पावत्— केवलोपाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव केवलमो को प्राप्त कर सकते हैं और कई जीव केवलबोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ? गौतम ! जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ है यह केवल सेवा केवलीपालिक उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है | जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह केवली से -- यावत् केवलीपाक्षिक उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता है । गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ है वह केवली में यावत् केवलीपाक्षिक उपासिका से बिना सुने केवलबोधि को प्राप्त कर सकता है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१७-२२१ दर्शनप्राप्ति के लिए अनुकूल काल वर्शनाचार [१२९ जस्स सरिसणावरगिजाणं कम्माणं खोषसमे नो जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह कर मवइ, से गं असोच्दा केलिस्स ना-जान-तप्प- केवली से - पावत्-केवलीपाक्षिक उपामिका से बिना सुने क्लियउवासिवाए वा केवलं बोहि नो बुज्झना। बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता है। –वि. श. ६, उ. ३१, सु. ३२ दसणलाभाणुकूलो कालो दर्शनप्राप्ति के लिए अनुकूल काल२१७. तओ जामा पण्णता, तं जहा २१५. तीन याम (प्रहर) कहे हैं, यथापढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे, प्रथम याम, मध्यम याम, अन्तिम याम । तिहि जामेहि आया केबलं मोहिं बुनमज्जा, तीन यामों में आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, पहमे आमे, मजिसमे जामे, पच्छिमे जामे । प्रश्रम याम, मध्यम याम, और अन्तिम याम । -ठाणं. अ. ३, उ. २, मु. १६३ दसणलाभाणुकूला धया दर्शन प्राप्ति के लिए अनुकूल वय२१८, तओ वया पणत्ता, तं जहा २१८. तीन जय बहे हैं, यथापढमे वए, मजिनमे यए, पच्छिमें वए। प्रथम वय, मध्यम वय, अन्तिम वय । तिहि वएहि आया केवलं बोहि बुझज्जा तीन वय में आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता हैपहमे पए, मजिामे वए, पस्छिमे बए । प्रथम वय, मध्यम बय और अन्तिम वय । -ठाणं, अ, ३, प. २, सु. १६३ छसु दिसास दसणालाभो दर्णन प्राप्ति के लिए अनुकुल दिशाएं११६. छहिसाओ पणताओ, तं जहा-.. २१६. छः दिशाएँ कहीं हैं. यथापाईणा, पडीणा, दाहिणा. उबीणा उनका, अहा . पूर्व पश्चिम, दक्षिण, उनर, ऊवं और अधो । छहिं दिसाहि जीवाणं दंसणाभिगमे। इन छः दिशाओं में जीवों को दर्शन (सम्यक्स्य) की प्राप्ति -ठाणं. अ. ६, मु. ४६६ होती है। पंच दुल्लहबोही जीवा . पाँच दुर्लभबोधि जीव २२०. पंचहि ठाणेहि जीवा बुल्लमबोधियत्ताए कम्म पकरेंति, २२०. पाँच कारणों से जीव दुर्लभबोधि करने वाले (जिनधर्म तं जहा - की प्राप्ति को दुर्लभ बनाने वाले) मोहनीय आदि कर्मों का उपा जन करते हैं। जैसेअरहताण अवणं बदमाणे, (१) अर्हन्तों का अवर्णवाद करता हुआ। अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवां वरमाणे, (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। आयरियउबनायाणं अवष्णं ववमाणे, (३) आचार्य उपाध्याय का अवर्णवार करता हुआ। चाउवण्णस्स संघस्स अवष्णं बदमाणे, (४) चतुर्वर्ण (चतुविध) संघ का अवर्णवाद करता हुआ। विवक्कतवयंभचेराण घेवाणं अवष्णं बदमाणे । (५) तप और ब्रह्मचर्य के परिपाक से दिव्य गति को प्राप्त - ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२६ देवों का अवर्णवाद करता हुआ । पंच सुलहबोही जीवा पांच सुलभबोधि जीव२२१. पंचहि ठाणेहि जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्म पकरेंति, २२१. पाँच कारणों से जीत्र मुलभबोधि करने वाले कर्म का तं जहा पार्जन कनता है । जैसेअरहंतागं वरुणं बदमाणे, (१) अर्हन्तों का वर्णवाद (सद्गुणोभावन) करता हुआ। अरहतपण्णतस्स धम्मस्त वणं ववमाणे, (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद करता हुआ। आरिय उबज्मायाणं वग्णं वबमाणे, (३) भावार्य-उपाध्याय का वर्णवाद करता हुआ । नाउवाणस संघस्स वष्णं व.माणे, (४) चतुर्वणं (चतुर्विध) संघ का वर्णवाद करता हुआ। विववक-तम-बमचेराणं वेवाणं वष्ण बदमाणे । (५) तप और ब्रह्मचर्य के विपाक रो दिव्यगति को प्राप्त - ठाण. अ, ५, उ. २, सु. ४२६ देवों का वर्णवाद करता हुआ। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] चरणानुयोग तोन दुर्योज्य : तीन सुबोध्य सूत्र २२२-२२४ मा। तओ दुर्बोध्या तीन दुर्बोध्य२२२. तओ दुसराणया पण्णता, तं जहा-- २२२. तीन दुःसंजाप्य (दुर्योध्य) कहे गये हैंबुट्छे, (३) दुष्ट-तत्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष रहने वाला, मूठे, (२) मूढ- गुण और दोषों से अनभिज्ञ, बुगाहिते' (३) व्युमाहित-अंधश्रद्धा वाचा दुराग्रही । तओ सुबोध्या तीन सुबोध्य२२३. तो सुसम्णप्पा पण्णता, तं जहा २२३, तीन सुमंज्ञाध्य (सुबोध्य) कहे गये हैंअवुद्ध, (१) अदुष्ट-- तत्वोपदेष्टा के प्रति द्वेष न रखने वाला, अमूढे, (२) अमूर—गुण और दोषों का ज्ञाता, अागाहिते। -ठाणे. अ, ३, उ.४, सु. २०४ (३) अच्युद्गाहित-सम्यकः श्रद्धावाला। सुल्लहबोही-दुल्लहबोही य-- सुलभ बोधि और दुर्लभ बोधि२२४. इसो विसमाणस, पुणो संबोहि दुल्समा । २२४. जो जीव इस मनुष्यभव (या शरीर) से भ्रष्ट हो जाता है, दुल्लमा उ तहल्या गं, जे धम्म? विषागरे । उसे पूनः जन्मान्तर में सम्बोधि (सम्यग्दृष्टि) का प्राप्ति होना -सुय, सु. १, अ. १५, गा.१८ अत्यन्त दुर्लभ है। जो साधक धर्मरूप पदार्थ की व्याख्या करते हैं, अथवा धन प्राप्ति के योग्य हैं, उनको तथाभूत अर्चा (सम्मादर्शनादि प्राप्ति के योग्य शुम लेश्या अन्तःकरणपरिणति, अथवा सम्यग्दर्शन-प्राप्तियोग्य तेजस्त्री मनुष्यदेह) (जिसने पूर्वजन्म में धर्म-बोध नहीं पाया है, उन्हें) प्राप्त होनी अति दुर्लभ हैं। इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहि चाहियं । जानादि सम्पन्न या म्बहिसषी मनि इस प्रकार विचार करे एवं सहिएऽहिपासए, आह जिणे इणमेव सेसगा। कि यही क्षण (बोधि प्राप्ति का) अवसर है, वोधि (मम्यग्दर्शन) --मुय. म. १, अ. २, उ. ३, गा. १९ दुर्लभ है ऐसा जिन--राग-दीप विजेता ने और शेष तीर्थकों ने कहा है। इह जीवियं अणियमेसा, पम्भट्ठा समाहिजोगेहि । जो थमण काम, भोग और रसों में मृद्ध है वे हम जीवन में ते काम-भोगरसगिडा, उपयज्जति आसुरे काये। अनियन्त्रित रहकर और समाधियोग से भ्रष्ट होकर आसुर काय में उत्पन्न होते हैं। तत्तो वि य उवट्टित्ता, संसारे बहु अणुपरियति । (बहुत कर्मों के लेप से लिप्त) वे बहाँ मे भी निकलकर बहुकम्मलेवलित्तागं , बोहि होहि सुदुल्लहा तेसि ॥ संसार में बहुत परिभ्रमण करते हैं, उन्हें बोधि की प्राप्ति महान -उस. अ. ८, गा. १४-१४ दुर्लभ हैं। मिच्छामणरता , सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। इस प्रकार जो जीव भिय्यादर्णन में अनुरक्त, निदान सहित हय जे मरति जीवा, तेसिं पुण तुरुलहा बोहो॥ (धर्म) क्रिया करने वाले और कृष्णलेश्या युक्त हो मरते हैं उन्हें पुनः बोधि प्राप्त होना महान् दुर्लभ है। सम्मईसणरत्ता , अमियाणा सुक्कलेसमोगाहा। मम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदानरहित (धर्म) क्रिया करने इय जे मरंति जीवा, तेसि मुलहा भवे शेही ।। वाले, और शुक्ललेश्या युक्त जो जीव मरते है, उन्हें बोधि प्राप्त होना सुलभ है। मिछाबसणरता , सनियाणा ए हिसगा। जो जीव (अन्तिम समय में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान इय जै मरंति जीवा, तेसि पुण दुल्लहा बोहो ॥ से युक्त और हिंसक होकर मरते हैं, उन्हें बोधि दुर्लभ होती है। -उत्त. अ. ३६, गा. २५७-२५६ १ कप्प. उ. ४, सु. १२। २ कप, उ. ४, सु. १३ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र २२५-२२६ बोलिलाम में बाधक और साधक शंनाघार १३१ बोहिलामे बाधगा साहगा य बोधिलाभ में बाधक और साधकदो ठागाई अपरियाणिता आया णो केवलि बोहिं बुजमेग्जा, दो स्थानों का (हेतुओं का) त्याग किए बिना आत्मा को शुद्ध तं जहा- • आरभे वेव, परिाहे चेन । सम्यक्त्व (बोध) प्राप्त नहीं होता है, यया-आरम्भ और परिग्रह । वो ठाबाई परिमाणित्ता आया केवलं बोहि बुनमज्जा, दी स्थानों का त्याग करने पर आत्मा शुद्ध बोध (सम्यक्त्व) सं जहा -आरंभे चेष, परिम्ह चेव । प्राप्त करता है, यथा -आरम्भ और परिग्रह । रोहि ठाणेहिं आया केवलं बोहि बुझज्जा, तं जहा दो स्थानों से आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, यथा--- सोचा चेव, अभिसोच्या वेव। सुनकर और समझकर। कोहि वाणेहि आया फेवल बोहि बुझेज्जा, तं जहा दो स्थानों से आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, यथा - एग वेव, उक्समेण चेव । -- ठाणं, अ.२, उ. १, सु. ५४ कर्मों के क्षय से अथवा उपशम से। सहालु आ, असड्ढालु आ-- धद्धालु-अश्रद्धालु२२५. १. सतिस्स समणुनस्स संपवयमाणस्स-समियं ति २२५. (१) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवमन्नमाणस्स एगया समिया होइ, पन को सम्यग् मानता है और भविष्य में भी सम्यग् मानता है। २. साहस समणुनस्स संपवयमाणस्स-समियं ति मन्त्र- (२) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन माणस्स एगया असमिया होइ, को समानता है कि रविष्य में सम्यग् नहीं मानता है। ३. सविस्स गं समगुप्तस्स संपध्वयमाणस्स- असमियं ति (३) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन मन्नमाणस्स एगया समिया होइ, को असम्यग् मानता है किन्तु भविष्य में सम्यग् मानता है। ४. सडिस गं समणुनस्स संपवयमाणस्स-असमिय ति (४) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन मनमाणस्स एगया असमिया होइ। को असम्यग् मानता है और भविष्य में भी असम्पग मानता है। ५. समियं ति मनमाणस्स समिया वा, असमिया या, समिया (५) जो जिन प्रजयन को सम्यग् मानता है उसे सम्यक् या होई जवेहाए। असम्यक पदार्थ विचारणा से राम्यक् रूप में परिणत होते हैं। ६. असमियं ति मन्नमाणस्स समिपा वा, असमिया वा, (६) जो जिन प्रवचन को असम्यक मानता है उसे सम्यक असमिया होइ, उबेहाए। या असम्यक् पदार्थ असम्यक् विचारणा से असम्यक् रूप में परि. णत होते हैं। जवेहमायो अणवेहमाणो यूया-"उबेहाहि समियाए" विचारक पुरुष अविचारक पुष से कहे कि हे पुरुष ! मम्यक विचार कर। पच्चे तस्य संघो मोसिओ भवद । इस प्रकार (सम्यग् विचार से ही) संयमी जीवन में कर्म क्षय किये जाते हैं। सविसस्स ठितस्स गति समणुपासह । इस प्रकार से व्यवहार में होने वारनी सम्यक असम्यक् की गुत्थी सुलझाई जा सकती है अर्थात् इस पद्धति से (मिथ्यास्वादि के कारण होने वाली) कर्मसन्तति रूप सन्धि तोड़ी जा सकती है। एस्य वि बालभाये अपाणं-णो उपदसेज्या। तुम अज्ञान भाव में भी अपने आपको प्रदर्शित मत करो। -आ. सु. १. अ. ५, उ. ३, सु. १६६ सम्म'सणि समणस्स परीसहविजयो सम्यग्दर्शी श्रमण का परीषह-जय२२६, तमओ डागा बयसिथस्स हिताए सुभाए खमाए गिस्साए २२६. व्यवसित (श्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान हित, शुभ, आगुगामियसाए भवंति, तं महा क्षम, निःश्रेयस और अनुगामिता के कारण होते हैं, यथा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२१ चरणानुय सम्पर्शी श्रमण का परीवह्- जय (१) पीडित होगा से अनगार धर्म में प्रति सेवा अयारामो अनारियं पि परिसकिरिन मे निति नाति, नविनत्यक अभेदसमापन्न अकनुषसमापन्न होकर निर्ययप्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है. रुचि करता है वह परीवहों से जूझजून कर उन्हें अभिभूत कर देता है। उसे पर अभिभूत नहीं कर पाते। समावणे णो कलुससमाचणे जिरगं णं पावयणं सद्दहति पत्तिपति शेएति से परिस्सहे अभिजु जिय अभिजु जिय अभिमत को परिमा भिजिय-अभिजय अभिभवति । २. सेणं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पश्वहुए समा पंहि महत्व हि निस्सं किए जात्र णो कलुससम | वण्णे पंच महम्यताई सहति जाव णो तं परिस्सहा अभिजु' जियअभिजु जिय अभिभवति । हि २. मुण्डे भक्त अगाराओ अगनारियं जीवणिकाएहि निस्संकिते- जाव णो कसुससमावणे छ जोणिकाए सद्दहति जाव णो त परिस्सहा अभिजु जिय नियमित २. से गं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पभ्वद्दए पंचाहि महत्वपूह संकिले जाब- कलुससमावण्णे पंच महत्वताई योगी से परि अभिय-अभिषु यि सहति जाव अभिभवति । -ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २२३ प्रमाए असम्म सरिस सम्मणरस परीसह पराजओ२२७. तभी ठाना अभ्यवसितास अहिताद अमुभा अणिस्साए अणानुगामियत्ताए भवति, तं जहा - १. से मुझे भविता अगाराओ अणगार पर पायवितिच्छितेसह समावणे थं पावपणं गो सद्दहति णो पत्तियति पो रोएति अभिनय अभिजय अभित तं परिस्सहा णी से परिि ३. से णं मुण्डे भत्ता अगाराओ अनगारियं पथ्यइए छह जोका संकते जाव-कलुससभावणे छ जावा जीवणिकाए मोसो से परिय-अभिजिय अभिभवति । सूत्र २२६-२२८ सम्मत रक्कमरस पण्ठुतरा२२८. सुयं मे आउ 1 सेगं भगवया एवमक्वायं इह खलु सम्मतदरक्कमे "नाम अव" सममेव महावीर का मेणं वेदसम्मं हित्ता परियाना रोमदत्ता काल - (२) जो मुण्डित हो अधार से अनवार धर्म में प्रवजित होकर पांच महाव्रतों में निःशंकित यावत् - अकलुषसमापन होकर पांच महाव्रतों में श्रद्धा करता है यावत् वह परीपों से जूझजूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीवह अभिभूत नहीं कर पाते । (३) जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रब्रजित होकर छह जीवनिकायों में निःशंकित यावत्- अकलुषसमापन होकर छह जीवनिकाय में श्रद्धा करता है। यावद वह परीषहों से जूझ जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषद्द जूझ-जूक कर अभिभूत नहीं कर पाते। असम्यग्दर्शी श्रमण का परीषह पराजय -- २२७.) के तीन स्थान अति अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के कारण होते हैं। (२) वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर पांच महाव्रतों में शंकित यावत् कलुषसमापन्न होकर पांच महावतों पर था नहीं करता यावत् उसे परीपहर अभिभूत कर देते हैं, वह परीपट्टों से जू-जू कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता । — (३) वह मुण्डित हो अगार से अनवार धर्म में प्रब्रजित होकर छह जीवनिकायों में प्रतियावत् समापन होकर छह कलुषसमापन्न जीव-निकाय पर अदा नहीं करता यावत् उसे परीषह प्राप्त होकर अभिभूत कर देते हैं. वह पहों से जूझ जूम कर उन्हें ठा. अ. ३, उ. ४, सु. २२३ अभिभूत नही कर पाता । सम्यक् पराक्रम के प्रश्नोत्तर २२८. आयुष्मन् ! मैंने सुना है भगवान् ने इस प्रकार कहा हैइस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में कश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर ने सम्यक्त्व पराक्रम नाम का अध्ययन कहा है, जिस पर भलिभांति (१) वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित प्रवचन में अंकित कांक्षित, विनिकित्सक भेदसमापन और कलुप समापन होकर निर्मन्थ- प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता उसे परोष आकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जून- जूझ कर उन्हें अभि भूत नहीं कर पाता । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२६ सम्परव-पराक्रम के प्रश्नोत्तर दर्शनाचार १३३ इत्ता पालइत्ता तोरहत्ता किट्टइता सोहइत्ता राहता श्रद्धा कर, प्रतीति कर, कचि रखकर, जिसके विषय का स्पर्श आणाए अणुपासत्ता बहवे जोवा सिनम्ति बुज्झन्ति सुरुचन्ति कर, स्मृति में रखकर, समग्र-रूप से हस्तगत कर, गुरु को पठित परिनिभ्वायन्ति सव्ववुक्खाणमन्तं करेन्ति । पाठ का निवेदन कर, गुरू के समीप उन्नारण की शुद्धि कर, तस्स म अयम? एवमाहिज्जइ तं जहा राही भर्ग काय 5-7 का और अंदी आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर बहुत जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण (शान्त) होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते। हैं । सम्यक्रव-पराक्रम का अर्थ इस प्रकार कहा गया है। जैसे१. संवेगे २. निस्वेए १. संवेग २. निवेद ३. धम्मरक्षा ४. गुरसाहम्मियसुस्सूसणया ३. धर्म-प्रदा ४. गुरु और सामिक की शुश्रूष ५. आलोयणया ६. निन्दया ५. आलोचना ६. निन्दा ७. गरहणया ८. सामाइए ७. गर्दा ८. सामायिक १. चउवासस्थए १०. वणए ६. चतुर्वि गति-स्तव १०. वन्दन ११. परिक्कमणे १२. काउस्सग्गे ११. प्रतिक्रमण १२. कायोत्सर्ग १३. पश्चाखाणे १४. थयथुष्मंगले १३. प्रत्याख्यान १४. स्तव-स्तुति-मंगल १५. कालपडिलेहणया १६. पायपिछत्तकरणे १५. काल-प्रतिलेखन १६. प्रायश्चितकरण १७. खमावणया १०. सजाए १७. क्षामणा १८, स्वाध्याय १६. वायणया २०. परिपुच्छणया १६. वाचना २०. प्रतिप्रच्छना २१. परियट्टणया २२. अणुप्पेहा २१. पराक्तंना . २२. अनुप्रेक्षा २३. धम्मकहा २४. सुपस्स आररहणया २३. धर्म-कथा २४. श्रुताराधना २५, एगग्गमणसंनिवेसणया २६. संजमे २३. एकाग्र मन की स्थापना २६. संयम २७. त २८. वोदागे २७. प २८. व्यवदान २६. सुहसाए ३०. अपडिनद्धया २९. सुख की स्पृहा का त्याग ३०. अप्रतिबद्धता ३१. विवित्तसपणासणेसेवणया ३९, विनियतणया ३१. विविक्त-शयनासन-सेवन ३२. विनिवर्तना ३३. संभोगपश्चखाणे ३४. जवहिपच्चक्खाणे २३. सम्भोग-प्रत्याख्यान ३४. उपधि-प्रत्याख्यान ३५. माहारपत्रमाणे ३६. कसायपत्रमाणे ३५. आहार-प्रत्याख्यान ३६. कषाय-प्रत्यास्यान ३७. मोगपञ्चषखाणे ३८. सरीरपाचक्खाणे ३७. योग-प्रत्याख्यान ३८. शरीर-प्रत्याख्यान २६ सहायपश्चक्लाणे ४०. भतपश्वक्खागे ३६. सहाय-प्रत्याख्यान ४०. भक्त-प्रत्याख्यान ४१. सम्भावपच्चक्खाणे ४२. पडिरूवया ४१. सद्भाव-प्रत्याख्यान ४२. प्रतिरूपता ४३. यावच्चे ४४. सध्यगुणसंपण्णया ४३. वैयावृत्य ४४. सर्वगुण-सम्पन्नता ४५. बीयरागया ४६. खन्ती ४५. वीतरागता ४६. शांति ४७. मुत्ती ४८. धज्जवे ४७. मुक्ति ४८. आर्जन ४६. मध्ये ५०. भावसाचे ४६. मार्दव ५०. भाव-सत्य ५१. करणसम्चे ५२. जोगसमये ५१. करण-सत्य ५२. योग-सत्प ५३. मणगुस्सया ५४. वयगुत्तया ५३. मनो-गुप्तता ५४. वाक्नगुप्तता ५५. कायगुत्तया ५६. मणसमाधारणया ५५. काय-गुप्तता ५६. मनःसमाधारणा ५७. वयसमाधारणया ५६. कायसमाधारणया ५७, वाक्-समाधारणा ५८. काय-समाधारणा ५६. माणसंपन्नया ६.. सणसंपण्या ५६. जान-सम्पन्नता ६०. दर्शन-सम्पन्नता ६१. परित्तसंपन्नया ६२. सोइन्वियनिसगहे ६१. चारित्र-सम्पन्नता ६२. श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह ६३. चखिन्धियनिग्गहे ६४. पाणिन्दियनिगाहे ६३, चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह ६४. नाणेन्द्रिय-निग्रह ६५. जिबिभन्द्रियनिग्गहे ६६. कासिन्धियनिग्गहे ६५. जिहन्द्रिय-निग्रह ६६. स्पर्णनेन्द्रिय-निग्रह Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] चरणानुयोग संवेग आदि का फल सूत्र २२८-२२६ ६७. कोहविजए ६८, माणविजए ६७. क्रोध-विजय ६८. मान-विजय ६६. मायाविभए ७०. लोहविजए ६६. माया-विजय ७०. लोभ-विजय ७१. पेदोसमिच्छादसणविजए ७१. प्रेयो-टेप-मिथ्या-दर्जन विजय ७२. सेलेसी ७३. अकम्मया। ७२. गनेशी ७३. अकर्मना। -जुत्न. अ.१ .१.२ संवेगाइणं फलं संवेग आदि का फल२२१. १०-संवेगेणं भंते ! जीवे कि जगयह? २२६. प्र०-भन्ते । संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.--संवेगे गं गणुतरं धम्मसद्ध जणयइ । अणुत्तराए धम्म- उ०-संवेग से बह अनुत्तर धर्म-श्रजा को प्राप्त होता है। सदाए संवेग हस्वमागच्छइ । अणन्तावन्धिकोहमाण- अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से शीन ही और अधिक संवेग को प्राप्त करता मायासोभे खवेइ । कामं न वन्धइ । तपच्छाइयं च णं है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय करता मिच्छत्तविसोहि काऊण बंसणाराहए भवइ । बसण- है। नये कर्मों का संग्रह नहीं करता। कषाय के क्षीण होने से विसरेनीए य णं विमुताए अस्थालेकोख भागहरे प्रकट होने वाली मिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक-श्रद्धा) को सिज्मद । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्वं पुणो मवग्गहणं आराधना करता है । दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक सिना । सोहीए य णं विसुद्धाए तन्चं पुणो भवागणं जोब उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कई उसके विशुद्ध होने माइक्कमद। पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते-उसमें अवश्य ही -उत्त. अ. २६, सृ. ३ सिद्ध हो जाते हैं। १०- अह भंते | संवेगे, मिश्येए, गुरु-साहम्मिय-सुस्सूसणया, प्र-आयुष्मन् श्रमण भगवन् ! संवेग, निवेद, गुरु-सार्मिक आलोयणया, निवयणया, गरहणया, खमावणया, सुह- शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, सायया, विउसमणया, भावे अपविजया, विणिपट्टणया, ब्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विभिदत्तंना, विविक्त शयनासनविवित्त-सयणासण-सेवणया, सोइंदिय-संवरे-जाव- सेबनता, थोत्रेन्द्रिय-रांवर-याक्त-स्पर्गेन्द्रिव संवर, योग-प्रत्याकासिरिय-संबरे, जोग-पश्चखाणे, सरीर-पचपखाणे, ख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, कसम्य-पस्वपसाणे, संभोग- परमाणे, उवहि-पच्च- उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भाव-सत्य, क्साणे, पत्त-पस्यखाणे, खमा, विरागया, भाव-सच्चे, योग-सत्य, करण-सत्य, मनःसमन्याहरण, वचन-समन्वाहरण, जोग-सच्चे, करण सच्चे, मण-समन्नाहरणया, बड्- काय समन्वाहरण, कांध-विवेक-थावत्-मिथ्यादर्शनशल्यसमन्नाहरणया, काय समन्नाहरणपा, कोह-विवेगे--जाव- विचेक, ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन-मम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदनामिच्छावंसग-सल्ल-विवेमें, गाण-संपन्नया, सण- अध्यासनता और मारणान्तिक-अध्यासनता इन पदों का अन्तिम संपन्नया, परित्त-संपन्नया, वेदग-अहियासप्पया, मार- फल क्या कहा गया है ? मंतिय-अहियासणया, एए पं भंते ! पया कि पज्जवसाणफला समणाउसे? १ सम्बस्व पराक्रम अध्ययन के इन सूत्रों में सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित केवल चार सूत्र हैं और शेष सूत्र अन्यान्य विषयों के हैं वे जिन-जिन अनुयोगों के हैं उन-उन अनुयोगों में यथास्थान दिये गये हैं। २ (क) उत्तराध्ययन भ. २६ में संवेग से अकम्ममा तक ७१ प्रश्नोत्तर है (मतान्तर से ७२ या ७३ प्रश्नोत्तर है) और इस उपरोक्त प्रश्नोत्तर में केवल ५४ पद हैं, जिनके फल का इसमें कथन है ? इस क्रम भेद और संख्या भेद का क्या कारण है। यह मोध का विषय है । कुछ विद्वान इसका कारण वाचना भेद बताते हैं। कुछ विद्वानों की यही मान्यता है कि--भगवती सूत्र के ये प्रश्नोत्तर उत्तराध्ययन अ. २६ का संक्षिप्त पाठ है। (ख) प्रमन के अन्त में "समकाउसो" सम्बोधन अशुद्ध प्रतीत होता है । क्योंकि हे "आयुष्मन् श्रमण" यह सम्बोधन गुरु शिष्य के लिये करता है । यहाँ इससे विपरीत है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन २२१-२३४ निववे का फल दर्शनाचार १५ उ.--गोयमा! संवेगे निव्वेए-जाव-मारणंतिय-अहियासणया- उ-हे आयुष्मन् थमण गौतम ! संवेग, निर्वेद आदि एए गं सिद्धि-पज्जवसागफला पन्नत्ता समणाजसो। -- यावत्---मारणान्तिक अध्यासनला इन सभी पदों का अन्तिम -वि, श, १७, 3.३, सु. २२ फल सिद्धि (मुक्ति) है। पिध्वेयफलं निवेद का फल२९. -निदेएम ने कामगा? २३०, प्र...भन्ते ! निवेद (भव-वैराग्य) से जीन क्या प्राप्त करता है? उ-निस्वेएणं विश्व-माणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निम्वेयं उ०—निवेद से वह देव, मनुष्य और हिर्यच सम्बन्धी काम हवमागच्छह । सत्यविसएस विरज्जह, सत्यविसएसु भोगों में ग्लानि को प्राप्त होता है। राब विषत्रों से विरक्त हो विरज्जमाणे आरम्भपरिचायं करेइ । आरम्भपरिच्चायं जाता है। सव विषयों से विरक्त होता हुआ वह आरम्भ और करमाणे संसारमग्गं वोज्छिन्दह सिद्धिमागे पडिबन्ने य परिग्रह का परित्याग करता है। आरम्भ और परिग्रह का परिभष। त्याग करता हुआ संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि -उत्त. अ. २६, सु. ४ मार्ग को प्राप्त होता है। सम्म'सणिस्स विणाणं सम्यक्त्वी का विज्ञान-- २३१. साम ति पासत, ते मोणं ति यासह । २१. जो सम्यक्त्व को समझता है, वह मुनि-जीवन को समझता जं मोणं ति पासह, तं सम्म ति पासह ॥ है। ओ मुनि-जीवन को समहाला है, वह सम्यक्त्व को समझता है । न इमं सक्कं सिद्धिलेहि आदिमाजमाणेहि गुणसाएहिं बक- इस (मम्यक्त्व या मुनि जीवन) का मम्यक् अनुष्ज्ञान शिथिल, समायरेहि पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं । स्नेही, आसक्त, कुटिल, प्रमन और गृही जनों से शक्य नहीं है। सम्मत्तदंसो मुणी सम्यक्त्वदर्शी मुनि-. २३२. मुणो मोगं समायाय धुणे कम्मसरीगं । २३२, मुनि मौन-(सम्यक्त्व या मुनि जीवन) को स्वीकार करके कर्मरूपारीर को धुने । पंतं लहं सेवंति, बोरा सम्मत्त सिषो। मम्यग्दर्शी वीर तुच्छ एवं रूक्ष आहार का संबन करते हैं। एस ओहंतरे मुगी तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए-त्ति बेमि ॥ ऐसा सम्यग्दी मुनि भवसागर तिरनेवाला है और वही —आ. थु. १, अ. ५, उ. ३, सु. १६१ तीर्ण, मुक्त, विरत कहा गया है । ऐसा मैं कहता हूँ। सम्मत्तसो न करेइ पावं सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता१३३, आईच धुचि हज्ज पासे, २३६. हे आर्य ! जन्म जरा मरण के दुःखों को देख, प्राणियों के भूहि जाणे पडिलेड सायं । सुम्य-दृग्य के साथ तू तेरे सुख-दुख की तुलना कर और इसके लिए सम्हातिविज्जे परमति णच्चा, तू मोश्च के स्वरूप को जानकर अति विद्वान बन । क्योंकि मोक्षसम्मतबंसी न करे पार्य। मार्ग जानकर जो सम्यक्त्वदर्शी हुआ है वह पाप नहीं करता है। ___ आ. ध्रु. १, अ.५, उ.२,. ११२ कुम्म विट्ठन्तं कूर्म-दृष्टान्त२३४. एवं पेगे महावीरा विष्परक्कमति । २३४, कुछ (बिरले लघुकर्मा) महान वीर पुरुष इस प्रकार के शान के आख्यान (उपदेश) को सुनकर (संयम में) पराक्रम भी करते हैं। पासह ! एगऽवसीयमाणे अणत्तपण्णे । (किन्तु) उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य है, इसलिए (संवम में) विषाद पाते हैं. (उनकी करुणदशा को इस प्रकार समझो)। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] परणानुयोग सम्यक्रषी की चार प्रकार की श्रया सूत्र २३४-२३५ से बेमि-- से जहा वि कुम्मे हरए विणिविटुचित-एक्छण्ण- मैं कहता हूँ -जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त (एक) पलासे, उम्मूगग से णो लभति । महानद (सरोवर) में लगा हुआ है। वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्तों से उका हुआ है। वह कत्रा उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है। हक्यु चिटुन्तं-भजगा इव संनियेस नो बयंति, वृक्ष दृष्टान्त-जैसे वृक्ष (विविध शीत, ताप, तूफान तथा एवं पेगे अगरवेहि कुलेहि जाता। प्रहारों को सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते. वैसे ही कुछ लोग हैं जो (अनेक सांगारिक कष्ट, यातना, दुःख आदि बार-बार पाते हुए भी) गृहवास को नहीं छोड़ते। कवेहि सत्ता मसुर्ण थणंति, इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक प्रकार (दरिद, णिदाणतो ते ण लभंति मोक्वं । मम्मत, मध्यवित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं, (धर्माचरण के -आ. शु. १,अ. ६, उ.१, .१७८ योग्य भी होते हैं) किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों से, उपद्रवों से और भयंकर रोगों से आक्रान्त होने पर) करुण विलाप करते है। (नकिन इस पर भी वे दुःखों के आवास रूप गृहवास को नहीं छोड़ते) ऐस व्यक्ति दुःस्त्रों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। सम्मद्दसणिस्स चाठियहा सद्दहणा सम्यक्त्वी की चार प्रकार की श्रद्धा२३५. परमस्थसंश्वो वा, २३५. (१) परमार्थ तत्व का बाराबार गुणगान करना, सुविठ्ठपरमत्थसेवणा वा वि, (२) जिन महापुरुषों ने परमार्थ को भलीभांति देखा है उनकी सेवा शुश्रूषा करना, बावनकुदसणवज्जवणा य, (३) जो सम्यक्त्व से सन्मार्ग से पतित हो गये हैं तथा (८) जो कुदर्शनी-असत्य दर्शन में विश्वास रखते हैं उनकी संगति न करना, एए सम्मत्तसहहणा । ___ यह सम्यक्त्व श्रद्धा है अर्थात् इन उक्त गुणों से सम्यक्त्व की --उत्त. अ. २८, गा.२८ श्रद्धा प्रकट होती है। सम्यक्त्व के सड़सठ भेदचउ' सद्दहण-तिलि गं, इस-विणय-ति-सुद्धि-पंच-गयदोस । अटु-पभावण-भूसण, लक्वण - पंचविह - संजुत ।। छब्बिह-जयणागारं, छब्भावणभावियं च छट्ठाणं । इय सत्तसट्ठि-दसण - भेज - बिसुदं तु सम्मत्तं ।। ये सड़सठ भेद क्रमशः इस प्रकार हैंसम्यक्त्व के तीन लिंग (चिन्ह) १. सुस्सूसधम्मराओ, २. गुरुदेवाणं जहा समाहिए । ३. बेयावावे नियमो, सम्मदिद्विस्स लिगाई ।। सम्यक्त्व के दस विनय १. अरिहंत, २. सिद्ध, ३. चेइए, ४. सुए. ५. अधम्मे, ६. असाहु वग्गे य । ७. आयरिय, ८. उवज्शाए. ६. पवयणे, १०. दसणे विणतो ।। सम्यक्त्ती की तीन शुद्धि १. मुत्तूण जिणं, २. मुत्तूण जिणमयं, ३. जिगमयदिए मोत्त । संसारकत्तबार, वितिज्जतं जग सेस ।। सम्यक्त्व के पनि दूषण गंका १, काख, २, विगिच्छा, ३. गसंस, ४, तह संथयो, ५, कुलिंगीमु । सम्मत्तस्सइशारा, परिहरिअन्दा पयत्रोणं ।। [शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यवाब के पांच अतिचार दर्शनाचार [१३७ "हाणज्ज सम्मत्तस्स पंचअइयारा सम्यक्त्व के पांच अतिचार२३६. सम्मतस समणोवासएणं पंच अश्यारा इमे जाणियथ्या, न २३६. सम्यक्त्व के पांच प्रधान अति चार जानने योग्य हैं, समारियच्या, तं जहा आदर के योग्य नहीं हैं, यथासंका, कंखा, यितिगिच्छा. परपास-पसंसा, पर-पास- (१) शंका, (२) काक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) पर-पाषंडसंयवे ।। -आव. अ. ६. सु. ६५ प्रशंसा, (५) पर-पापंड-संस्तव । १. सम्मट्टसणस्स पढम "संसयं" अश्यारं (१) सम्यग्दर्शन का प्रथम संश" अतिचारसंस परियाणओ संसारे परिणाए भवा जो संशय को जानता है वह संसार को भी जानता है, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिणाए भवर" जो संशय को नहीं जानता है वह संसार को भी नहीं -आ. सु. १, अ.५, उ. १, मु. १४९ जानता है२. सम्म'सणरस बिइयं "कंखा" अइयारं (२) सम्यक दर्शन का द्वितीय "कांक्षा" अतिचार--- 40--कह गंभंते ! समणा वि निगश खामोहणिज्ज प्र--भगवन ! धमणनिग्रंन्ध कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन काम वेवेति ? किस प्रकार करते हैं ? १०-गोयमा ! तेहि हि नाणतरेहि सणंतरेहि चरितंतरेहि उ०-गौतम ! उन-उन कारणों से जानान्तर, दर्शनान्तर, स्निगंतरेहि पवयणंतरेहि पाक्यणतरेहि कप्तरेहि मर्ग- चारित्रान्तर, लिंगान्तर, अन्नधनान्तर, प्रायवनिकान्तर, कस्पान्तर, तरेहि मतंतरेहि भगतरेहि नयंतरेहि नियमंतरेहि संकिया मार्गान्तर, मतान्त भंगान्तर. नयान्तर. नियमान्तर, और कखिया वितिकिच्छिता भेट्समावना, कलुससमावला, प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित. भेदसमापन्न एवं खलु समणा निग्गथा कंखामोहणिज्नं कम वेदेति । और कलुषसमापन होकर श्रमणनिग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का –वि. स.१, उ. ३, सु.५ वेदन करते हैं। (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) सम्यक्त्वी की आठ प्रभावना१. पावयणी, २. धम्मकही, ३. वाई, ४, नमित्तिओ, ५. तदस्सी य । ६. विज्जासिद्धो, ७.4 कबी, अटुंब. पभावगा भणिया ।। सम्यक्त्वी के पांच भूषण१. जिणसासणे कमलया, २. पावणा, ३. तित्यसेवणा, ४. थिरया । ५. भत्ती अ गुणा सम्मत, दीवया उत्तमा पंच ।। सम्यक्त्वी के पांच लक्षण१. उक्राम, २. संवेगो विन, ३. निवेओ तह व होइ, ४. अणुकंपा, । ५. अस्थि च अ एए, सम्मरी लक्षणा पंच ॥ सम्यक्त्वी की छ: प्रकार की यला - नो अन्नतिस्थिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवाई । यहिए कुतित्थिएहि, १. वंदामि न वा, २. नमसामि ॥ ३. नेब अणालतो आलवेमि, ४. नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न ५. असणाई, पेसेमि न गंध, ६. पुष्पाई ।। सम्यक्त्वी के छः आगार१. रायाभिओगो य, २. गणामिओगो, ३. बलाभिओगो य, ४. सुराभिओगी। ५. कतारवित्ती, ६. गुरुनिम्नहो य, छ छिडियाऊ जिणसासणम्मि ।। सम्यक्रवी की छ: भावना१. मूलं, २. दार, ३. पाहाणं, ४. आहारो, ५. भायणं, ६, निहीं । दु छक्कसा वि धम्मस्स, सम्मत्त परिकित्ति । सम्यक्त्व के छ: स्थान-- अस्थि अ णिच्चो कणई, कवं च सुएई अस्थि णिच्वाणं । अस्थि अ मुक्खो बाओ, छ सम्मत्तस्स ठाणाई ।। --प्रवचन सारोजार, द्वार १४६, मा. ६४०-१५५ 1(क) मा दर्शनातिचार:--संका, कला, वितिपिच्छा, मूढदिट्री, अणुवबहा, अथिरीकरणं, अबच्छल, अप्पभावणया । --जीतकल्पचूणी, गा. २८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] चरणानुयोग २. सम्मत्त "वा" अपारं पिता अध्या को अति समाधि सिता अनुमति असिता वेगे अणुगच्छति । अगच्छमोहि अणगमाणे कह में वि ४. परपाडसेबी ५. परपादसंभव - आयरियरिसचाई, परपासण्ड सेवाए गागंगणिए डुम्मए, प्रव्रज्या पूर्व साधक को निर्वेद-वशा - -आ. सु. १, अ. ५. सु. १६७ का अनुगमन न करने वाला उदासीन (म के प्रति खेद 1 पावसमाणे ति बुम्बई | सुहवा तस्युवसम्गा, परियुज्योज्ज ते बिब्रू ॥ (४) परपासंडसेवी जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में चला जाता है। जो छह मास की अवधि में एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता - उत्त. अ. १७, गा. १७ है, जिसका आचरण निन्दनीय है, वह पाप श्रमण कहलाता है । (२) सम्वतीय विचिकित्सा अतिचारविचिकित्साप्राप्त (शंकाशीय) आत्मा समाधि प्राप्त नहीं सूत्र २३६-२३७ कर पाता । कुछ लघुकर्मा ति ( बद्ध गृहस्थ ) आचार्य का अनुगमन करते (उनके वचन को समते है) कुछ अति अति/अनगारी (विवित्यादि रहित होकर आचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुवा (आचार्य) (तत्व नहीं समझने वाला) कैसे नहीं होगा ? तेसि च णं खेल बरथूणि परिगहियाणि भवंति तं जहाअप्पयरा वा सुज्जतरा वा तेसि व णं जण जाणवपाइं परिभाहियाई प्रति तं जहा -- अप्पयरा वा भुजयरा था। हत्यारेहकुलेहि गम्म अभिभूय एगे भिचारिए समुद्धता तो या वि एणकर व विहाय भिखारिया समुदिता, असतो वा वि ऐगे नायओ व उबकरमं च विध्यनहाय निरासा (५) परपासंस्तथ साधु सदैव अकुशीन बनकर दुराचारियों के साथ — सू. सु. १, अ. ६, गा. २८ संगति में भी सुखरूप ( अनुकूल) उपसर्ग रहते हैं, अतः विद्वान Free इस तथ्य को भलीभांति जाने तथा उनसे सावधान (प्रतिबुद्ध-जागृत) रहे | प्रव्रज्या पूर्व साधक की निर्वेद-दशा --- साहगस्स परवज्जा पुध्वं निव्वेदसा २३७. से बेमि पाईणं वा जाच उदीयं वा संगतिया मणुस्सा भवति २३७ (श्री सुश्रमस्वामी श्री स्वामी से कहते हैं ) मैं ऐसा से जहा बारिया बेगे, अनारिया वेगे, उगा है कि पूर्व आदि चारों दिशाओं में नाना प्रकार के गाता गेहरा वेगे, पन्या बेगे, मुख्या वेगे आ निवास करते हैं जैसे कि कोई आर्य होते है, कोई अनार्थ होते हैं. कोई गोत्रीय और कोई षीय होते हैं, कोई मनुष्य बेनके (और कोई टिमने कद के (स्व) होते हैं, किसी के शरीर का वर्ष सुन्दर होता है, किसी का अमुन्दर होता हैं, कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप । रहे तथा कुशीलजनों या क्योंकि उसमें (शीनों की उनके पास खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन ( परिवार, कुल आदि के लोग) तथा जनपद (देश) परिगृहीत (अपने स्वामित्व के ) होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में जन्म लेकर विषय-भोगों की आसक्ति छोड़कर भिक्षावृति धारण करने के लिए ( हेतु) उद्यत होते हैं। कई विद्यमान ज्ञाविजन (स्वजन) अजातिजन (परिजन) तथा उपकरण (विभिन्न भोगोपभोग-साधन या धनधान्यादि वैभव को छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने होने) के लिए समुद्यत होते हैं, अथवा कई अविद्यमान जातिजन, अशाविजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए सबत होते हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२७ प्रवज्या पूर्व साधक की निवेंद वर जहा सेवा असो वा गाओ जयकरणं भिखारिया समुदिता पुरुषामेव तेहि जातं जहा - इह खलु पुरिसे अष्णमण्णं समट्टाए एवं विप्पडवेवेति, तं जहा तं मे मे हिरण्यं मे, सुमेधणं मे, घणं मे, कंसं मे, दूस में, विपुल धण-कण रयण-मणि मोतिय-संख सिल पाल रत्तरयण-संतसार-सावतेयं मे सहा मे, हवा मे, गंधा मे, रसा मे, फासा मे एते खलु मे काम भोगा अहमद एलेसि O " से महावी] पुनामेव अपना एवं समाजा, तं महा मम अरे तुम रोमायके समुन्मे अकंते अपिए असुमे अमणुष्णे अमणामे तुषखे णो सुहे, से हंता भवताशे कामभोगा इमं मम अष्णतरं युक्वं रोगश्यक परिवाइयह अणि अनंत अप्पिय असुभं अथणुष्णं अमणामं तस्यामि मा सोयामि वा रानि वा तिन पावामिया परिमा मासे अभ्यरातो दुखातो सेवाका पहि अणिद्वातो अनंतातो अपियाओ असुहाओ अमन्नाओ अमणामाओ सुक्खाओ जो सुहातो । एवामेव नो सद्धपृथ्वं भवति । इह खलु कामभोगा जो ताणाए वा सरणाए वा पुरिसे वा दर्शनाचार १३६ जो विद्यमान अथवा अविद्यमान जातिजन अज्ञातिजन उपकरण का त्यान करके निजावर्या (मादीक्षा) के लिए समुत्ति होते हैं, इन दोनों प्रकार के साधकों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि इस लोक में पुरुषगण अपने से भिन्न ऋतुओं (परपदार्थों) को उद्देश्य करके झूठ ही ऐसा मानते है कि ये मेरी मेरे में सेक 1 यह खेत (वा जमीन ) मेरा है, वह मकान मेरा है, यह चाँदी मेरी है, यह सोना मेरा है, यह धन मेरा है, धान्य मेरा है, यह कांसे के बर्तन मेरे हैं, यह बहुमूल्य वस्त्र या लौह आदि धातु मेरा है, यह प्रचुर धन (गाय, भैंस आदि पशु) यह बहुत-सा कनक, ये रत्न, मणि, मोती, शंखशिला, प्रवाल (मूंगा), रक्तररन (लाल), पद्मराग आदि उत्तमोत्तम मणियों और पैतृक नकद धन, मेरे हैं, ये कर्णप्रिय शब्द करने वाले वीणा, वेणु आदि वाद्य-साधन मेरे हैं, ये सुन्दर और रूपवान पदार्थ मेरे है. इ पदार्थ मेरे हैं, ये उत्तमोत्तम स्वादिष्ट एवं सरस खाद्य पदार्थ मेरे हैलोमा आदि मेरे हैं। ये पूर्वोक्त पदार्थ समूह मेरे कामभोग के साधन हैं, मैं इनका योगकात करने और प्राप्त की रक्षा) करने वाला हूं, अथवा उपभोग करने में समर्थ हूँ । वह (जित अथवा प्रा लेने का इच्छुक की साधक स्वयं पहले से ही इनका उपभोग करने से पूर्व ही त यह जान ले कि इस संसार में जब मुझे कोई रोग या आतंक उत्पन्न होता है, जो कि मुझे इष्ट नहीं है, कान्त ( मनोहर ) नहीं है, प्रिय नहीं है, अशुभ है, अमनोज़ है, अधिक पीड़ाकारी (मनोव्यथा पैदा करने वाला) है, दुःखरूप है, सुखरूप नहीं है, (तब यदि मैं प्रार्थना करू कि हे भय का अन्त करने वाले मेरे धनधान्य आदि कामभोगों मेरे प्रिय अशुभ, रोग आतंक आदि अनोश अतीव दुःवरूप या को तुम बांट कर ले लो, क्योंकि मैं इस पीड़ा, रोग या आतंक से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, मैं चिन्ता या शोक से व्याकुल हूँ, इनके कारण मैं बहुत चिन्ताग्रस्त हूँ, मैं अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, में बहुत ही वेदना पा रहा हूँ, या अतिसंतप्त हूँ । अत: तुम सब मुझे इस अनिष्ट अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अवमान्य दुःखरूप वा असुस्वरूप मेरे किसी एक दुःख से या रोगातंक से मुक्त करा दो तो वे धान्यादि कामभोग) पदार्थ उक्त प्रार्थना सुनकर आदि से मुक्त करा दें। ऐसा भी नहीं होता । इस संसार में वास्तव में काम-भोग दुःख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते। इन काग-भोगों का उपभोक्ता किसी समय तो (दुसाध्य व्याधि, जरा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.] घरणानुयोग एकत्व-भावना से प्राप्त निर्वत सूत्र २३७०९३८ एगता पुष्यि कामभोगे विप्पाहति, कामभोगा वा एगता जीर्णता, या अन्य शासनादि का उपद्रव या मृत्युकाल आने पर) पुस्यि पुरिसं विपजहंति, अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमसि, पहले से ही स्वयं इन काम भोग पदार्थों को (वरतना छोड़ देता है, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं कामभोगेहि मुक्कामो? इति अथना किसी समय (व्यादि के अभाव में) (विषयोन्मुख) संखाए गं वयं कामभोगे विपहिसामो। पुरुष को काम-भोग (ये कामभोग्य साधन) पहले ही छोड़ (कर चल) देते हैं। इसलिए ये काम-भोग मेरे से भिन्न है, मैं इनसे भिन्न हूँ। फिर हुम क्यों अपने से भिन्न इन काम-भोगों में मूच्छित आसक्त हों, इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप निकर (अब) हम इन कामभोगों का परित्याग कर देंगे। से मेहायी जाज्जा बाहिरंगमेतं, हणमेव उवणीलतराग, (इस प्रकार वह विवेकशील) बुद्धिमान माघक (निश्चितरूप से) जान ले, ये सब काम-भोगादिपदार्थ बहिरंग-बाह्म हैं, मेरी आत्मा से भिन्न (परभाव) हैं। तं जहा--माता मे, पिता मे, माया मे, भज्जा मे, मगिणी (सांसारिक दृष्टि वाले मानते है कि इनसे तो मेरे निकटतर मे, पुत्ता मे, धृता मे, नत्ता मे, सुण्हा मे, पेसा मे, सुही में, ये ज्ञातिजन (स्वजन) हैं जैसे कि (वह कहता है-) "यह मेरी सयण-संगण-संपता में, एते खलु में णायओ, अहमत्रि एतेसि। माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, -सूर्य. सु. २, अ. १, सु. ६६७-६७१ मेरे पुत्र हैं, ये मेरा दास (नौकर-चाकर) है, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा मिर है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी है । ये मेरे शातिजन है, और मैं भी इनका आत्मीय जन हूँ।" एमत्त भाषणया णिवेयं एकत्व-भावना से प्राप्त निवेद२३८. के मेहावी पुटवामेव अप्पणा एवं समभिजागेज्जा-इह खलु २३८. (किन्तु उक्त शास्त्रज्ञ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से मम अण्णसरे दुस्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा अणि?-जाव. ही सम्यक प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे बुक्से नो सुहे. से हंसा भयंतारो गायत्रो इमं मम प्णतरं दुक्खं किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक (जो कि मेरे लिए रोगायक परिआदियध अगिढ़-जाव-नो सुहं माहं बुक्खामि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिययावत्-दुःखदायक है) पैदा होने पर वा-जाव-परितम्पामि था, हमातो में अन्नयरातो दुखातो मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करूं कि हे भय का अन्त करने रोगायंकातो पडिमोएह अणिट्टाओ-जावणी सुहातो। एवामेष वाले ज्ञातिजनो ! मेरे इग अनिष्ट, अप्रिय - यावत्--दुःखरूप णो लबपुव्वं भवति । या असुखरूप दुःख या रोगांतक को आप लोग बराबर बाँट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित-यावत्-अतिसंतप्त न होऊँ। आप सब मुझे इम अनिष्ट-यावत्-उत्पीड़क दुःख या रोगालंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःष और शेगातक को बाँट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता। सेसि वा वि भयंताराणं मम णाययाणं अश्णयरे दुक्खे रोगा- अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को तंके समुप्पज्जेज्जा अगिट्ठ-जाव-नो सुहे. से हंता अहमेसेसि ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाय, जो अनिष्ट, अप्रिय भयंताराणं णाययाणं इन अण्णतरं दुक्खं रोगातक परिपाइ- -यावत् ---असुखकर हो, तो मैं उसे भयत्राता जातिजनों के यामि अणि?-जावणी सुह, मा मे दुक्खंतु वा-जाव-रितप्पतु अनिष्ट, अप्रिय -- यावत्-- असुखरूप उस दुःल्य या रोगातक को वा, इमाओर्ग अग्णतरातो दुषखातो रोगातकरतो परिमोएमि बाँटकर ले लूं, ताकि बे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ—यायत्अणिट्ठातो-जाव-नो सुहाती । एषामेव जो लबब्वं भवति । वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन शातिजनों को उनके किसी अनिष्ट-यावत्-असुखरूप दुःख या रोगातक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३८ एफश्व-भावना से प्राप्त मिर्वेद दर्शनाचार १४१ अण्णस्स दुक्खं अग्गो नो परिवाइयति, अनेण फवं कम्मं (क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बाँट नहीं सकता । अनरेनो पतिसंवेदेति,' पत्तयं जापति, पसेयं मरह, पत्त्य दूसरे के द्वारा पूतिकर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता। चयति, पत्तेयं उबधज्जति, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सप्णा, पत्तेयं प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, (आयुष्य क्षय होने मष्णा, एवं विष्ण, वेण्णा, इति खलु गानिसंयोगा पो ताणाए पर) अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अबेला ही त्याग करता था णो सरणाए बा, है, अकेला ही प्रत्येक व्यक्ति इन वस्तुओं का उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा (कलह) आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन-चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान् होता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सुखदुःख का वेदन (अनुभव) करता है। अतः पूर्वोक्त प्रकार से अन्यकृत कर्म का फल अन्य नहीं भोगता, तथा प्रत्येक व्यक्ति को जन्म-जरा-मरणादि भिन्न-भिन्न हैं इस सिद्धान्त के अनुसार जातिजनों का संयोग दुःख से रक्षा करने या पीड़ित मनुष्य को शान्ति या शरण देने में समर्थ नहीं है। पुरिसो या एगला पुरिव णातिसंयोगे विप्पजहति, नातिसंयोगा कभी (क्रोधादिवश या मरणकाल में) मनुष्य स्वयं जातिजनों वा एगता पुखि पुरिसं विष्पजहं ति, मन्ने खलु जातिसंयोगा के संयोग को पहले ही छोड़ देता है अथवा कभी ज्ञातिसंयोग भी असो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि जातिसंयोहिं (मनुष्य के दुव्र्यवहार-दुराचरणादि देखकर) मनुष्य को पहले छोड़ मुच्छामो ? इति संखाए ण वयं णातिसंयोग विप्पजहिस्सामो। देता है। अतः (मधावी साधक यह निश्चित जान ले कि) "ज्ञाति जनसंयोग मेरे से भिन्न है, मैं भी ज्ञातिजन संयोग से भिन्न हूँ।" तब फिर हम अपने पृथक् (आत्मा से भिन्न) इस जातिजनसंयोग में क्यों आसक्त हों ? यह भलीभांति जानकर अब हम ज्ञाति-संयोग का परित्याग कर देंगे। से महावी जाणेज्जा वाहिरगमेतं. इणमेव उवणीयतराग, परन्तु मेधावी साधक को यह निश्चित रूप से जान लेना तं जहा-हत्था में, पाया मे, वाहा मे, जरू मे, सोस में, चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाद्य वस्तु (आत्मा से भिन्न-परउधर में, सोल में, आ मे, बल मे, वणो मे, तया मे, भाव) है ही, इनसे भी निकटतर सम्बन्धी ये सब (शरीर से सम्बछाया में, सीय है, चक्षु मे, घाण मे, जिवना मे, फासा मे, धित अवयवादि) हैं, जिन पर प्राणी ममत्व करता है, जैसे ममाति। कि वे मेरे हाथ हैं, ये मेरे पर हैं, ये मेरी वाहें हैं, ये मेरी जांघे हैं. यह मेरा मस्तक है, यह मेरा उदर (पेट) है, यह मेरा शील (स्वभाव या आदत) है, इसी तरह मेरी आयु, मेरा बल, मेरा वर्ण (रंग), मेरी चमढ़ी (त्वचा), मेरी छाया (अथवा कान्ति), मेरे कान, मेरे नेत्र, मेरी नासिका, मेरी जिव्हा, मेरी स्पन्द्रिय, इस प्रकार प्राणी "मेरा मेरा" करता है। मंसि वयातो परिजूरति तं जहा-आऊओ अलाओ (परन्तु याद रखो) आयु अधिक होने पर ये सब जीर्ण अम्माओ सताओ छातानो सोतामो-नाव-कासाओ, सुसंधौता शीणं हो जाते हैं। जैसे कि (वृद्ध होने के साथ-साथ मनुष्य) संधी विसंधो भवति, दलितरंगे गाते भवति, किव्हा केसा आयु से, बल से, वर्ण रो, त्वचा से, कान से, तथा स्पर्थेन्द्रिय पलिता भवंति, तं जहा-जं पि य इमं सरीरंग उरालं सभी शरीर सम्बन्धी पदार्थों से क्षीण हीन हो जाता है। उसकी सुगठित (गटी हुई) दृढ़ सन्धियाँ (जोड़) ढीली हो जाती है, उसके शरीर की चमड़ी सिकुड़कर नसों के जाल से वेष्टित 1 न तस्स दुक्खं विभवंति नाइओ, न मित्तबग्गा न सुया न बंधदा । एक्को सयं पञ्चण होइ दुक्वं, कत्तारमेवं अणुजाइ फम्म । - उत्तराध्ययन, अ. १३, गा. २३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] चरणानुयोग अनुस्रोत और प्रतिस्रोत सूत्र २३६-२४१ आहारोवधियं एतं १ य मे अणुपुत्वेणं विवजहियवं (तरंगरेखावत्) हो जाती है। उसके काले केश सफेद हो जाते हैं, भविस्सति । यह जो आहार में उपचित (वृद्धिगत) औदारिक शरीर है, वह भी क्रमशः अवधि (आयुष्य) पूर्ण होने पर छोड़ देना पड़ेगा। एवं संखाए से भिक्षू भिक्खापरियाए समुट्टिते दुहतो सोगं यह जानकर भिक्षानर्या स्वीकार करने हेतु प्रग्रज्या के लिए जाणेज्जा, तं जहा-जीवा व अजीवा चेब, तसा चेव, समुद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, जैसे कि लोक थावरा चेव। -सूय. सु. २, अ. १, मु. ६७२-६७६ जीवरूप और अजीवरूप है, तथा अरारूप है और स्थावररूप है। अणुसोओ पडिसोओ - अनुलोत और प्रतिस्त्रोत२३६. अणुसोयपट्ठिए बहुजम्मि २३६. अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे है-भोग' पडिसोयलढलक्खेणं । मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे पहिसोयमेव अप्पा । प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषय-भोगों से बायध्वो होउकामेणं ॥ विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिए-विषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। अणुसोयमुहोलोगो , जन-माधारण को स्रोत के अनुकूल चलने में सुन की अनुभूति पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । होती है, किन्तु जो सुविहित माधु हैं उसका आधव (इन्द्रियअणुसोमो संसारी , विजय) प्रतिस्रोत होता है। अनुस्रोत संसार है (जन्म मरण की पडिसोभो तस्स उत्तारो ।। परम्परा है) और प्रतिस्रोत उसका उतार है जन्म-मरण का पार पाना है। तम्हा आयारपरक्कमेण, संवरसमाहिबहलेणं ।। इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले, संवर में प्रभूत धरिया गुणा य नियमा य, होति साहूण बट्टटवा ॥ समाधि रखने वाले साबुओं को चर्या, गुणों तथा नियमों की ओर - दस. चू. २, गा. १-४ दृष्टिपात करना चाहिए । अथिरप्पाणं विविहा उवमा अस्थिरात्मा को विभिन्न उपमाएँ२४०. जई तं काहिसि भावं, जा जा विच्छसि नारिओ। २४०. यदि तू स्त्रियों को देव उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव बायाविडो व्य हो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥ पैदा करेगा तो वायु से आहत हड (वनस्पति-विशेष) की तरह अस्थितात्मा हो जायगा। गोवालो भण्डपालो या, जहा तहव्यऽणिस्सरो। जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने के स्वामी एवं अणिस्तरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥ नहीं होते, इसी प्रकार तू भो श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। -उत्त. अ.२२, गा. ४४-४५ सामण्ण होणाणं अवट्टिई-- साधता से पतित की दशा२४१. कहं नुकुज्जा सामणं, जो काने न निवारए। २४१. वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) पए पए विसीयतो, संकप्पल्स बस मओ का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग -उत्त. अ. २, गा.१ पर विषादग्रस्त होता है? धम्माउ भट्ट सिरिओववेयं, जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों उस घोर विषधर सर्प की अन्नगि विमायमिवप्पतेयं । साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्र होलंति णं दुविहियं कुसीला, रूपी थी से रहित, बुझी हुई यजाग्नि की भांति निस्तेज और बाढद्धियं घोरविसं व नाग । दुविहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं। रेवधम्मो अयसो अकित्ती, धर्म से व्युत, अधर्मसेवी और चारित्र का खण्डन करने वाला दुन्नामधेनं च पिहचम्मि । गाधु दमी मनुष्य-जीवन में अधर्म का आचरण करता है. उसका चुयल्स एम्माउ अहम्मसेषिणी, अयश और अकीर्ति होती है। साधारण लोगों में भी उसका संभिन्नविसस्स य हेटुओ गई। दुर्नाम होता है तथा उसकी अघोगति होती है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४१ साधुता से पतित को वशा दर्शनाचार [१४३ मुंजितु भोगाई पसज्य चेयसा, यह संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से भोगों को भांगतहाविहं क१ असंजमं बहु। कर और तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं . गई च गच्छे अणमिक्सियं बुह. दुःख पूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी बोही य से नो मुलभा पुणो पुणो। उसे बोधि मुलभ नहीं होती। - दस. चू. १, गा. १२-१४ जया य चयई धर्म, अणज्जो भोग कारणा। अनार्य जत्र भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग से तत्व मुच्चिए बाले, आयई नाबबुज्म में भूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता । जया ओहाधिओ होइ, वो वा पडिओ छम । जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहबास में प्रवेश करता सध्वधम्मपरिग्भट्ठो । स पच्छा परितप्पद है तब बह सकलधर्म से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र। जया य बंदिमो होइ, पच्छा होइ अबंदिमो। प्रबजित काल में साधु वन्दनीय होता है, वही जब उत्पाजित देवया य चुया ठाणा, स पच्छा परितप्पा ।। होकर अबदनीय हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे अपने स्थान मे च्युत देवता ।। जया य पूइमो होइ, पच्छा होई अपूइभो । प्रव्रजित काल में साधु पूज्य होता है, वही जब उत्प्रवजित राया व रज्जपरभट्ठो, स पच्छा परितप्पा । होकर अपूज्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा। जया व माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । प्रव्रजित काल में साबु मान्य होता है, वहीं जब उत्प्रवजित सेट्ठि न्य कम्बड़े छूढो, स पच्छा परितःपद ॥ होकर अमान्य हो जाता है तब यह वैसे ही परिताप करता है जैसे कर्बट (छोटे से गांव) में अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी। जया य थेरो होइ, समइक्कंतजोरवणो । यौवन के बीत जाने पर जब वह उत्प्रश्नजित साधु बूढ़ा होता मन्छो व गलं गिसित्ता, स पच्छा परितप्पट ।। है, तब वह वैसे ही परिलाग करता है जैसे काटे को निगलने वाला मत्स्य। जया य फुकुडंबस्स, कुततीहि विहम्मद । __ वह उत्प्रवजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत हत्यो व बंधणे बद्धो, स पन्छा परितप्पड़ ।। होता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बन्धन में बंधा हुआ हाथी। पुतवारपरिकिष्णो । मोहसंताणसंतओ । पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से परिपंकोसनो जहा नागो, स पन्छा परितप्पह ॥ व्याप्त वह वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी। अज्ज आहं गणो होतो, मात्रियप्पा बहुस्सुओ। आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होता यदि जिनो जह हं रमते परियाए, सामाणे जिणवेसिए ॥ पदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता । -दस. च.१, गा. १-६ जो पचहत्ताण महवयाई, सम्म नो पासयई पमाया। जो महाव्रतों को स्वीकार कर भलीभांति उनका पालन अनिम्गहप्पा य रसेसु गिरी, न मूलभो छिन्द बन्धणे से ॥ नहीं करतो, अपनी आत्मा का निग्रह नहीं करता, रसों में मूछित होता है वह बन्धन का मूलोच्छेद नहीं कर पाता। आउतया जस्स न अस्थि काइ, इरिपाए मासाए तहेसणाए। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप औय उच्चार-प्रस्रवण आयाणनिपखेवदुगुन्छणाए, न धीरजायं अणुजाइ मग ॥ की परिस्थरपना में जो सावधानी नहीं बर्तता, वह उस मागं का अनुगमन नहीं कर सकता जिस पर वीर-पुष इले हैं। चिरं पि से मुण्डबई भवित्ता, अथिरब्वए तयनियमेही भहूँ । जो यतों में स्थिर नहीं है, तप और नियमों से भ्रष्ट है, चिर पि अप्पाण किलेसदत्ता, न पारए होइ. संपराए । बह चिरकाल से मुण्डन में रुचि रखकर भी और चिरकाल तक आत्मा को कष्ट देकर भी संसार का पार नहीं पा सकता। - - ---- - - - - - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] चरणानुयोग "पोल्ले घ" मुट्ठी जह से असारे, जयन्तिए कूड कहावणे राहामको निय कुसीलिंग इह धारइत्ता, असं ए अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥ इसिका जोषिय बृहद्दत्ता । संवा "दिसं तु पीय" जह कालकूड, विणिघायमागच्छ से चिरंपि॥ "एसे " धम्मो विस हाइ सत्यं जह कुग्गहीयं । जेवण पजमाये हाइ वेयाल safar || निमित को संपा कुवासवदारजीबी, साधुता से पतित की दशा " वा । तमतमेणेव उसे असीले, संघाई मरण-तिरिक्नोणि उद्देसिय कोयगढं नियागं, न गच्छई सरणं तम्भिकाले ।। सया तुही विपपरियासुद्द । भोणं विराहेतु ।। अग्गीवि वा सव्वमक्खी भवित्ता, न मुंबई किचि अणेस णिज्नं । इस भोक पाये ।। पछतायेग नखरी डाकरे जं से करे अप्पणिया दुरध्वा । मापसे, निरट्रिया नगद तरस, इमे वि से नथि परे दि सोए विवरणसमे ॥ विसेति सोए । एमें वह (छन्द–कुसीलरूये, मागं विराहेतु जिणुत्समाणं । दूर दिवा भोमरसागडा, निरसोया परिवारमे ॥ सूत्र २४१ जो पोनी मुट्ठी की भाँति असार है, खोटे सिक्के की भाँति रहित है, काचमणि होते हुए भी पूर्व जैसे चम कता है, वह जानकार व्यक्तियों की दृष्टि में मूल्य-हीन हो जाता है । जो कुशील वेश और ऋषि ध्वज (रजोहरण आदि मुनिचिन्हों ) को धारण कर उनके द्वारा जीविका चलाता है, जसंयंत होते हुए भी अपने आपको संयत कहता है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है। " दिया हुआ काल-कटु विष, अवधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियन्त्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही यह विषयों से मुक्त धर्म भी विनाशकारी होता है। जो लक्षण शास्त्र, स्वप्न शास्त्र का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्र और कौतुक कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या वाश्वदीपकद्यात्मक आश्रव द्वार से जीविका चलाता है, वह कर्म का फल भुगतने के समय किसी की शरण को प्राप्त नहीं होता । वह शील रहित साधु अपने तीव्र अज्ञान से गतव दुःखी होकर विपरीत दृष्टि-वाला हो जाता है। वह असाधु प्रकृति वाला मुनि धर्म की विराधना कर नरक और तिर्यग्योनि में आता जाता रहता है । जोति विश्वाय और कुछ भी बनेगी को नहीं छोड़ता, वह अग्नि की तरह सर्वभक्षी होकर पाप कर्म का अर्जन करता है और यहाँ से मरकर दुर्गति में जाता है। स्वयं की अपनी शीतला को अनर्थ करती है, वह गला काटने वाला शत्रु भी नहीं कर पाता है। उक्त तथ्य को निर्दय संयमहीन मनुष्य मृत्यु के क्षणों में पश्चाताप करता हुआ जान पाएगा | जो उत्तमार्थ में --अन्तिम दृष्टि रखता है उसकी श्रामण्य न यह लोक है, न परलोक है। होने के कारण वह उभव भ्रष्ट जाता है । समय की साधना में विपरीत में अभिरुचि व्यर्थ है उसके लिए दोनों लोक के प्रयोजन से शून्य भिक्षु निरन्तर चिन्ता में घुलता इसी प्रकार स्वच्छन्द साधु और कुशील साधु भी जिनोतम भगवान् के मार्ग की विराधना कर वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोग-रसों में आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली (पीच) पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र २४१-२४३ संयम में रत को सुख और अरत को दुःख [दर्शनाचार [१४५ सोन्माण मेहायि सुभासियं इम, मेधावी साधक इस सुभाषित को एवं शान-गुण से युक्त अणुसासणं नाणगुणोवषेयं । अनुशासन (शिक्षा) को सुनकर कुशील व्यक्तियों के मन मागों माग कुसीसाण जहाय सध्वं, को छोड़कर, महान् निग्रन्थ के पथ पर चले। महानियष्ठाण बए पहेणं ॥ चरित्तमायारगुणन्निए तओ, चारित्राचार और ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न निग्रंथ निराअणुप्तरं य संजमालिया। सब होता है अनुतर शुद्ध संगम तन कर वह निरासव निरासये संवियाणकम्मं , (राग-द्वेषादि बन्ध-हेतुओं से मुक्त) माधक कर्मों का क्षय कर उवेह ठाणं विउसुत्तमं धुकं ॥ विपुल उत्तम एवं पाश्वत मोक्ष को प्राप्त करता है। -उत्त, अ.२०, गा. ३६-५२ संजमरयाणं सुखं अरयाणं दुक्ख -- संयम में रत को सुख अरत को दुःख२४२. देवसोगसमाणो उ, परियाओ महासण। २४२. संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के रयाणं अरयाणं तु, महानिरयसारिसो ॥ समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दुःखद होता है। अमरोवम जाणिय सोक्खमुत्सम, संगम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्तम (उत्कृष्ट) रयाण परियाए सहारपाणं । जानकार तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों की दुःख मरक निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तम, के समान उत्तम (उत्कृष्ट) जानकर पण्डित मुनि संगम में ही रमेज्ज सम्हा परियाय पंडिए । रमण करे। -दस. च. १, गा.१०-११ अथिर समस्स ठिइहेज चितण संयम में अस्थिर श्रमण की स्थिरता हेतु चिन्तन२४३. मस्त ता नेरक्यस्स जंतुणो, २४३. दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारबुहोवणीयस्स फिलेसवत्तिणो । कीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो पलिओषम पिज्जा सागरोवमं, जाती है तो फिर वह मेरा मनोदुःख कितने काल का है ? किमंग पुन मज्म इमं मणोवुहं ।। न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीयों की भोगअसासया भोगधिवास जंतुणी। पिपागा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी न ने सरीरेग इमेणबेस्सई, तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य मिट ही जायगी। अविस्मई जोवियपउजवेण मे॥ जस्सेवमप्या उ हवेज निच्छिओ, जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित होती है (दृढ़ संकल्पयुक्त चएग्ज देह न उधम्मसासगं । होती है).-"देह को त्वाय देना चाहिए पर धर्मशासन को नहीं संतारिस नो पयलेंति इंचिया, छोड़ना चाहिए"--उस दृढ़-प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार उतवाया ५ सुदसणं गिरि ॥ विचलित नहीं कर सकती जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। इच्चेब संपस्सिय बुद्धिम नरो, बुद्धिमान मनुष्व इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा आयं उवायं विविह वियाणिया। विविध प्रकार के लाभ और उनके मायनों को जानकार तीन काएक वाया अदु माणसेण, गुप्तियों (काय, वाणी और मन) से गुप्त होवार जिनवाणी का तिगुत्तिगुसो जिणधयणहिट्ठिजासि ॥ आश्रय ले । -दस.चू. १, मा. १५-१८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] चरणानुयोग संपम में अस्थिरश्रमण की स्थिरता हेतु चित्तम पूष २४३ इह खलु भो ! पब्वइएण, सप्पन्न दुक्खेणं, संजमे अरसमावन्न- मुमुक्षुओ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रवजित है किन्तु उसे चिलेणं, पोहाणप्पेहिणा अणोहाइएणं वेव, हपरस्सि-गर्यमुस- मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया, संयम में उसका चित्त अरति-युक्त पोयपढायाभूयाई इमाई अद्वारस ठाणाई सम्म संडिलेहिय- हो गया, वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता भ्वाई भवति । सं जहा है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए। अस्थितास्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुण और पोन के लिए पताका का है। अठारह स्थान इस प्रकार हैं. यथा-- १.१ भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी। (१) ओह ! इस दुष्षमा (दुःख-बहुल पाँचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई में जीविका चलाते हैं। २. लहस्समा इसरिया गिहोणं काममोगा । (२) गृहस्थों के काम-भोग स्वल्प-सारगहित (तुच्छ) और अल्पकालिक है। ३. भुज्जो प माइबहुला मणुस्सा । (३) मनुष्य प्रायः माया वहुल होते हैं। ४. इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ । (४) यह मेरा परीषह-जनिन दुर चिरकाल स्थायी नहीं होगा। ५. ओमजणपुरककारे। (५) गृहवासी को नीन जनों का पुरस्कार करना होता है सत्कार करना होता है। ६. वंतस्स य पखियाइयणं । (६) संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है दमन को नापस पीना। ७. अहमदवासोदसंपया। (७) संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है नारकीय जीवन का अंगीकार । 1. दुल्लभे खलु भो । गिहीगं धम्मे गिहिवासमन्दों (5) ओह ! गृहबाग में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का बसंताणं । स्पर्श निश्चय दुर्लभ है। ६. आयके से वहाय होइ। (8) वहाँ आतंक वध के लिए होता है। १०. संकप्पे से वहाय होई ।, (१०) वहाँ संकल्प वध के लिए होता है । ११. सोवाकेसे गिहवासे । निरुवक्केसे परिवाए। (११) गृहवास क्वेश सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित । १२. बंधे गिहवासे । मोक्खे परिपाए। (१२) गृहवास बन्धन है और मुनि पर्याय मोक्ष । १३. साबजे गिहवासे । अणवज्जे परियाए । (१३) गृहवास सावध है और मुनि पर्याय अनवद्य । १४. हुसाहारणा गिहोणं कामभोगा। (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुजन सामान्य है-सर्व सुलभ है। १५. पत्तेयं पुष्णपावं। (१५) पुण्य और पाप अपना-अपना होता है । १६. अणिकने खलु भो ! मणुयाण जीविए कुसागजलबिदुचंचले। (१६) मोह ! मनुष्यों का जीवन अनित्य है, कुश के अग. भाग पर स्थित जल-बिन्दु के समान चंचल है। १७. यह खतु पाव कम्मं पगडं ।। (१७) ओह ! इसरो पूर्व बहुत ही मैंने पाप-कर्म किये हैं। १८. पावाणं च खलु भो! कडाण कम्मागं पुब्धि बुञ्चिग्णाणं (१८) ओह ! दुश्चरित्र और दुष्ट-पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल बुप्पडिताणं वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, सबसा में अजित किये हुए पाप-कमों को भोग लेने पर अथवा तप के वा झोसहता। द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है-उनसे छुटकारा होता है । उन्हें भोगे बिना (अथवा तप के द्वारा उनका भय किए बिना) मोक्ष नहीं होता-उनसे छुटकारा नहीं होता। अट्ठारसमं पयं मदद। -दस. चू. १, सु. यह अवारहवाँ पद है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४४ मिथ्यादर्शन विजय का कलं वर्शनाचार १४७ जगया? मिच्छादसणविजओ फलं मिथ्यादर्शन विजय का फल२४४. प.---पज्ज-दोस-मिच्छाबसणविजएणं भंते ! जीवे किं २४८.प्र. -भन्ने ! प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? उ-ज्ज-दोस-मिच्छावसाधिजएणं नाण-दसण-चरितारा- उ०.-प्रेम, कैप और मिथ्या दर्शन के विजय से वह ज्ञान, हगवाए आफुह। "अविहस्स कम्मस्स कम्मगण्ठि- दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ विमोयणाए" तप्पलमपाए जहागुपुश्वि अट्ठवासइविहं कगों में जो कभप्रन्थि (चात्य-कम) है, उसे खोलने के लिए वह मोहणिज्ज कम्म उग्याएछ, पंचविहं नाणावरणिज नव- उद्यत होता है । वह जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर बसणावरणिज्ज पंचविहं अन्तरायं एए तिनि वि पाया उस अट्ठाईस प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रममाः सर्वथा कम्मसे जुगवं खवेद । क्षीण करता है, फिर वह पाँच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पाँच प्रकार वाले अन्तराय- इन तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। तओ पच्छा अणुतरं अगंतं कसिगं परिपुषण निरावरणं उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृतन, प्रतिपूर्ण, निरावितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवल-बरनाण- वरण तिमिर रहित, विशुद्ध लोक और अलोक को प्रकाशित करने दसणं समुप्पाइ। वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करता है। -जाब-सजोगी भवद, ताव य इरियावहियं कम्म बन्धा जब तक वह सयोगी होता है तब तक उसके ई-पधिक-कर्म सुहफरिसं दुसमपट्टिइयं। का बन्ध होता है । बन्ध सुख-स्पर्श (पुण्य-मय) होता है। उसकी स्थिति दो समय की होती है। तं पढमसमए मख, बिइयसमए वेदयं, तइयसमए प्रथम समय में बन्ध होता, द्वितीय समय में वेदा जाता है निग्जिण संबसं पुट्ठ उबीरियं बेहयं निजि सेयाले और तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म बद्ध होता य अफम्म चावि भवह ॥ है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है. नष्ट हो जाता है और अन्त में भकर्म भी हो जाता है। अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहत्तद्धावसेसाउए जोगमिरोहं वेवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य का निर्वाह करता करेमाणे सुहमकिरिये अपहिवाइ मुक्कज्माणं झायमाणे है। जब अन्तरमुहूतं परिमाण आयु शेष रहती है, वह योगतपढमयाए "मणजोग निहम्मद निम्मित्ता, बहमोग निरोध करने में प्रवृत्त हो जाता है । उस समय सूक्ष्म-विय अप्रनितम्भ निरुम्मित्ता, करजोगं निरुम्भ निम्भित्ता तिपाति नामक शुक्लध्यान में लीन बना हुआ वह सबसे पहले आणापाणुनिरोह" करे करिता ईसि पंचहस्सक्न- मनो-योग का निरोध करता है, फिर वचनयोग का निरोध करता, रुच्चारणबाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टि- फिर काययोग निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान (उच्छ्सुबकज्माण मियायमाणे वणिज, आउयं, नाम, वास-निपवास) का निरोध करता है, उसके पश्वात् स्वल्पकाल गोतं च एए चत्तारि वि कम्मसे अगवं खयेह । तक पाँच ह्रस्वाक्षरों (अ इ उ ऋल) का उच्चारण किया जाये उतने काल तक समुच्छिन्न-क्रियाअनिवृत्ति नागक शुक्लध्यान में नीन बना हुआ अनागार वेदनीय आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चार कमों को एक साथ क्षीण करता है। तमो ओरालियफम्माई च सवाहि विष्पजहणाहि ग़के बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के विपहिता उज्जुसे विपत्ते अफुसमाणगई उड्स एगसम- लिए सर्वथा परित्याग कर देता है। सम्पूर्णरूप से इन शरीरों से एणं अविगहेणं तत्थ गन्ता सागारोबउसे सिता बुज्झा रहित होकर वह ऋजुश्रेणी को प्राप्त होता है और एक समय में मुच्छह परिनिवाए सम्बदुक्खाणमन्तं करे । अस्पृगद्गतिरूप गति से बिना मोड़ लिए (अविग्रह रूप से) - उत्त, अ.२६, मु. ७३.७५ सीधे यहाँ लोकाय में) जाकर साकारोपयोगयुक्त (ज्ञानोपयोगी अवस्था में) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] घरगानुयोग चार अन्य साथियों को श्रद्धा का निरसन सूत्र २४५ चउण्हं अण्ण अस्थियसहहण-णिरसणं चार अन्यतीथियों की श्रद्धा का निरसन२५५. इह खलु पाईणं वा पडीण वा उनीणं था वाहिणं या संसि २४५. (श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं-) इस मनुष्य लोक में एगतिमा मणुस्सा भवंति अपुष्येण लोग तं सचवमा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कई प्रकार के मनुष्य होते हैं, त जहा आरिया वंगे, अणारिया वेगे, उच्चगोधा बेगे णीया- जैसे कि--उन मनुष्यों में कई आर्य (क्षेत्राय आदि) गोया वेगे, कायंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे तुम्बणा होते हैं, अथवा कई अनार्य (धर्म मे दुर, पापी, निर्दय, वेगे, सुहया बेगे दुरया वेगे। निरनुकम्प, क्रोधमुर्ति, असंस्कारी) होते हैं, कई उच्चगोत्रीय होते है, कई नीचगोत्रीय । उनमें से कोई भीमकाय (लम्बे और सुदृढ़ पारीर वाले) होते हैं। कई ठिगने कद के होते हैं। कोई (सोने की तरह) सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बुरे (काले कालूट) वर्ण बाले । कोई सुरूप (सुन्दर अंगोपांगों से युक्त) होते हैं तो कोई कुरूप (बेडौल, अपंग) होते हैं। तेसि च गं महं एगे राया भवति उन मनुष्यों में (विलक्षण कर्मोदय से) कोई एक राजा होता महाहिमवंतमलयमंवरमहिलसारे अन्वंतविमुदरायकुलवंसप्पमूते है । वह (राजा) महान् हिमवान्, मनवानल, मन्दराचल तथा निरंतररायलमणविरातियंगमंगे बहुजणबहुमागपूजिते सम्ब- महेन्द्र पर्वत के समान सामर्थ्यवान् अथवा वैभववान होता है। गुणसमिर खंत्ति मुखिए मुतामिसिसे, बह अत्यन्त विशुद्ध राजकुल के वंश में जन्मा हुआ होता है। उसके अंग राजलक्षणों से सुशोभित होते हैं । उसकी पूजा प्रतिष्ठा अनेक जनों द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, वह गुणों से समृद्ध होता है, वह क्षत्रिय (पीड़ित प्राणियों का पाता-रक्षक) होता है। यह सदा प्रसन्न रहता है। वह राजा राज्याभिषेक किया हुआ होता है। माउं पिड सुजाए बह अपने माता-पिता का सुपुत्र (अंगजात) होता है। बयपसे सोमंकरे सोमंघरे खेमकरे खेमंधरे उसे दया प्रिय होती है। वह सीमंकर (जनता की मुथ्यवस्था के मस्सिवे जपवपिया अणवपुरोहिते सेउकरे के करे लिए सीमा-नैतिक धार्मिक मर्यादा स्थापित करने वाला) तथा मीमंधर (प्वयं उस मर्यादा का पालन करने वाला) होता है। वह क्षेमकर (जनता का कुशल-क्षेम करने वाला) तथा क्षेमन्धर (प्राप्त योग क्षेम का वहन-रक्षण करने वाला) होता है। वह मनुष्यों में इन्द्र, जनपद (देश या प्रान्त) का पिता, और जनपद का पुरोहित (शांति रक्षक) होता है। वह अपने राज्य या राष्ट्र की सुख-शांति के लिए सेतुकर (नदी, नहर, पुल, बाँध आदि का निर्माण कराने वाला) और केतुकर (भूमि, खेत, बगीचे आदि की व्यवस्था करने वाला) होता है। गरपकरे पुरिसवरे पुरिसमीहे पुरिसातीविसे पुरिमारपी- वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों में वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, रीए पुरिसवरगंधहस्थी पुरुषों में आसीविष सर्प समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक तु न्य, अहढे दिले विस विरियाणविउलवण-मयणासण-जाण- पुरुषों में श्रेष्ठ गत्तगन्धहस्ती के समान होता है। वह अत्यन्त वाहणाहणे धनाढ्य, दीरितवान (तेजस्वी) एवं प्रसिद्ध पुरुष होता है। उसके . पास विशाल विपुल भवन, जया, आसन, यान (विविध पालकी आदि) तथा वाहन (वोड़ा-गाड़ी, रथ आदि सवारियां एवं हाथी, घोड़े आदि) की प्रचुरता रहती है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४५-२४६ बहुबहुजातरूवरमए आओ विच्छपिउरभल पाणे souकोस कोट्ठागाराउहधरे भू प्रथम सम्वत्सरीरवादी की भद्धा का निरसन वलयं दुष्यपध्वामित् मोटटट अट ओवसत्तू निह्यसत्तू उद्वियसत्तू निज्जियसत्तू पराइयसत्तू कुमारि रावण महा उपवाद-शय-परं मानिरहति। दर्शनाचार वह शक्तिशाली होता है। वह अपने शत्रुओं को दुर्बल बनाए रखा है। उसके राज्य में कंटक मोरों, व्यभिचारियों लुटेरों तथा उपद्रत्रियों एवं दृष्टो का नाश कर दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, उन्हें दिया जाता है, उनके पैर उसाड़ दिये जाते हैं, जिससे उसका राज्य निष्कण्टक (चोर आदि दुष्टों से रहित हो जाता है। उसके राज्य पर आ करने वाले शत्रुओं को नष्ट कर दिया जाता है, उन्हें दिवा जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, उन मधुको को जीत लिया जाता है, उन्हें हरा दिया जाता है। उसका राज्य दुर्भिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त हो जाता है । (यहाँ से लेकर ) "जिसमें स्वचक्र-परचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे राज्य का प्रशासन-पालन करता हुआ वह रोजा विचरण करता है," (यहाँ तक का पाठ औपपातिक सूत्र में वर्णित पाठ की तरह समझ लेना चाहिए।) सहस णं एण्णो परिसा भवति 1 उस राजा की परिषद् (सभा) होती है उसके सभासद ये जग्गर उग्गपुलर भोगा भोगपुत्ता इवखागा इक्खागपुत्ता नाया होते हैं—उग्रकुल में उत्पन्न उत्रपुत्र, भोगकुल में जन्मे भोगपुत्र, नापुता कोरण्या कोरभ्यता महा महता माहयामा लेई च्छता पसत्था पसत्यपुसा सेणावती सेण्णावती पुस । इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न तथा इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञातकुल में उत्पन्न ज्ञातपुत्र कुरुकुल में उत्पन्न कौरव तथा कौरवपुत्र सुभटकूल में उत्पन्न तथा सुभटपुत्र ब्राह्मणकुल में उत्पन्न तथा ब्राह्मणपुष मित्रतानिन्छीष, प्रशा स्तागण (मन्त्री आदि बुद्धिजीवी वर्ग ) तथा प्रशास्तापुत्र ( मन्त्री आदि के पुत्र) पति और सेनापति पुत्र निरसणं पढमं तज्जीयतच्छरीरवाइएस प्रथम तज्जीव-तत्शरीरवादी की श्रद्धा का निरसन२४६एमए सही कामं तं समभाव माणा व २४६ इनमें से कोई एक धर्म में भालू होता है। उस धर्म पहारं गमवा श्रद्धालु के पास श्रमण या ब्राह्मण (मान) श्रमं की प्राप्ति की तत्चऽनतरेण धम्मेणं पण्णत्तारो वयमेतेणं धम्मेगं पण इच्छा से जाने का निश्चय (निर्धारण) करते हैं। किसी एक धर्म इस्लामी, की शिक्षा देने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण यह निश्चय करते हैं। कि हम इस धर्मश्रद्धालु पुरुष के समक्ष अपने इस (अभीष्ट) धर्म की प्ररूपणा करेंगे। ये उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास जाकर कहते हैं- "हे संसार भीह धर्मप्रेमी ! अथवा भय से जनता के रक्षक महाराज ! मैं जो भी उत्तम धर्म की शिक्षा आपको दे रहा हूँ उसे ही आप पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) समझें।" से ए वमायाणह भयंतारो जहा मे एस धम्मे सुयषखाते पण ते भवति । - सू. सु. २, अ. १, सु. ६४६-६४७ [ १४e उसके कोप (ख) धन, सोना, चाँदी आदि से भर रहते हैं उसके माँ से बहुत से लोगों को गति मात्रा में भोजन पानी दिया जाता है। उसके यहाँ बहुत से दास-दासी, गाय, बैल आदि पशु रहते हैं। उसके धार का कोडार अप से धन के कोशाने प्रचुर से और धागार विविध शास्त्रास्त्रों से भरा रहता है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] परगानुयोग प्रथम सज्जीवतत् शरीरवादी की श्रद्धा का निरसन नत्र २४६ तं जहा-उबई पारतला महे फेसग्गमत्थया तिरियं तयपरि- वह धर्म इस प्रकार है- पादतल (पैरों के तलवे) से ऊपर यंते जीबे, और मस्तक के केशों के अग्रभाग ने नीचे तक तथा तिरच्छाएस आयपजवे कसिणे, चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है। यह शरीर ही जीब या एस जीवे जीवति, एस मए णो जोति, सरीरे चरमाणे समस्त पर्याय (अवग्या विशेष अथवा पर्यायवाची शब्द) है। परति, विणम्मि य गो परति, (क्योकि) इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, एतं तं जीवितं भवति, शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता, शरीर के स्थित (टिके) रहने तक ही यह जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह जीबन (जीव) है। आवरणाए परेहि गिज्जति, शरीर जब मर जाता है तब दूसरे लोग जलाने के लिए ले अगणिक्षामिते सरीरे कपोत-वष्णाणि अट्ठीणी भवंति, जाते हैं, आग से शरीर के जल जाने पर हड्डियां कपोत वर्ण आसंदीपंचमा पुरिसा गाम पवायच्छति । (कबूतरी रंग) की हो जाती है। इसके पश्चात् मृत व्यक्ति को एवं असतोअसंविजमाणे ।' श्मशान भूमि में पहुँचाने वाले जघन्य (कम से कम) चार पुरुष मृत शरीर को ढोने वाली मंचिका (अर्थी) को लेकर अपने गांव में लौट आते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर से भित्र कोई जीव नामक पदार्थ नहीं है, क्योंकि वह शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता। (अत; जो लोग शरीर से भिन्न जीन का अस्तित्व नहीं मानते, उनका यह पूर्वोक्त सिद्धांत ही युक्तियुक्त समझना चाहिए।) जेसि तं सुयषखाय भवति-"अनो भवति जीवो अन्नं सरीर" जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादन करते हैं कि 'जीव पृथक् तम्हा ते एवं नो विपडिवेति है और शरीर पृथक् है," वे इस प्रकार (जीव और शरीर को) पृथक्-गृथक् करके नहीं बता सकते किअपमाउसो ! आता बोहे ति वा हस्से ति वा परिमंडले ति यह आत्मा दीर्ष (लम्बा) है, यह ह्रस्व (छोटा या ठिगना) वा घट्ट सिया तसे ति वा चउरसे तिचा छलसे ति का है, यह चन्द्रमा के समान परिमण्डलाकार है, अथया गेंद की तरह अद्भुसे ति वा आयते ति वा , गोल है, यह विकोण है, या चतुष्कोण है, या यह पट्कोण या कण्हे ति या णीले ति था लोहिते ति वा हालिडे ति वा अष्टकोण है, यह आयत (चौड़ा) है, यह काला है अथवा नीला सुस्मिगंधे सि या बुब्मिगंधे ति वा तिते तिश कए तिचा है, यह लाल है या पीला है या श्वेत है, यह सुगन्धित है या कसाए ति वा अंबिले ति वा महुरे ति वा फक्खजे ति वा दुर्गन्धित, यह तिक्त (तीसा) है या कड़दा अथवा कसला, खट्टी मजए ति वा गरुए ति वा सिते ति वा उसिणे ति या णिसे या मीठा है, अथवा यह कर्कश है या कोमल है अथवा भारी ति वा सुश्खे ति वा । (गुरु) है या हलका (लघु) अथवा शीतल है या उष्ण है, स्निग्ध है अथवा रूक्ष है। एवमसतो असंविज्ञमाणे । इसलिए जो लोग जीव को मारीर से भिन्न नहीं मानते, उनका मत ही युक्ति संगत है। जेसि तं सुरक्खायं भवति "अटो जीयो अन्नं सरीरं", तम्हा जिन लोगों का यह कथन है कि जीव अन्य है, और शरीर से णो एवं उबलमंति अन्य है, वे इस प्रकार से जीप को उपलब्ध (प्राप्त) नहीं करा पाते .. १ पत्तेणं कमिणे आवा जे बाला जेय पंडिता, संति पेन्वा ण ते संति णस्थि पत्तोवपानिया 1 पत्ति पुणे व पाने वा पत्थि लोए इतो परे, सरीरस्म विणासेणं विणासो होति देहिणो॥ -सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. ११-१२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम तज्जीव-तत्शरोरवादी को श्रद्धा का निरसन रखनाचार [१३१ से महानामर फेद पुरिसे कोसीतो असि अभिनिवट्टिताणं जैसे-कि कोई व्यक्ति म्पान से तलवार को बाहर निकाल उपवसेज्जा---अयमाउसो | असो, अयं कोसीए, कर दिखलाता हुआ कहता है -"आयुष्मान् ! यह तलवार है, एवमेव णस्थि केह अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेति । अयमाउसो! और यह म्यान है।" इसी प्रकार कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो आता अयं सरीरे । शरीर से जीव को पृथक् करके दिखला सके कि "आयुष्मान ! यह तो आत्मा है और यह (उससे भिन) शरीर है।" से जहाणामए के पुरिसे मुंजाओ इसीयं अभिनिवट्टित्ताणं जैसे कि कोई पुरुष मुंज नामक धास से इषिका (कोमल उबदसेम्जा - स्पर्य शनी शलाका) को बाहर निकाल कर अलग-अलग बतला अयमाउसो ! मुंजो, अयं इसीया, देता है कि "आयुष्मन् ! यह तो मुंज है और यह इषिका है।" एवामेव नरिथ फेति जबर्दसत्तारो अयमाजसो ! आता इदं इसी प्रकार ऐसा कोई उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो यह बता सके सरीरे। कि "आयुष्मान् ! यह आत्मा है और यह (उससे पृथक) शरीर है।" से जहाणामए केति पुरिसे मंसाओ अट्ठि अभिनिटट्टिसाणं से कोई पुख्य मांन से हड्डी को अलग-अलग करके रतला उखर्वसेज्जा देता है कि 'आयुष्मान् ! यह मांस और यह हड्डी है।" इसी अयमाउसो ! मंसे, अयं अट्ठी, तरह कोई ऐसा उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को एवामेव नत्थि केति उवदसतारो-अयमाउसो ! आया, इदं अलग करके दिखला दे कि "आयुष्मान् ! यह तो आरमा हैं और सरीरं। यह शरीर है।" से जहानामए केति पुरिसे करतलाओ आमलक अभिनिग्य- जैसे कोई पुरुष हथेली से आंबले को बाहर निकालकर ट्टिताणं जबर्दसेन्जा-- दिखला देता है कि "आयुष्मान् ! यह हथेली (करतल) है, और अयमाउसो ! करतले, अयं आमलए, यह आंवला है।" इसी प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर एवामेव णस्थि केति उनसेतारो-अयमा उमो ! आया, इयं से आत्मा को पृथक करके दिखा दे कि "आयुष्मान् ! यह आत्मा सरीरं। है, और यह (उससे पृथक् ) शरीर है।" से जहाणामए केइ पुरिसे रहोओ णषणीय अभिनियट्टित्ता जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत (मकम्वन) को अलग निकाल उपसेम्जा-. कर दिखना देता है कि "आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह अयमाउसो! नवनीतं. अयं दही, दही है।" इस प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से एबामेव नस्थि केति उवतारो जाच सरोरं। आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि "आयुष्मान् ! यह तो आत्मा है और यह गरीर है।" से जहानामए केति पुरिसे तिलहितो तेल्ले अभिनिवहिताणं जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल निकालकर प्रत्यक्ष दिखला अपमाजतो! तेल्ले. अयं पिण्णाए, देता है कि 'आयुग्मन् ! यह तो तेत है और यह उन तिलों की उक्दंसेज्जा-- चली है." बसे कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर को आत्मा से एवाब-जाव-सरोरं। पृथक करके दिखा सके कि 'आयूष्मन् ! यह आम है, और यह उससे भिन्न शरीर है।" से महानामए केइ पुरिसे उक्खत्तो खोनरसं अभिनिवट्टिताणं जैसे कोई पुरुष व से उसका रस निकालकर दिखा देता है उवई उजा-अयमाउसो ! खोतरसे, अपं घोए, एवमेव कि "आपुष्मन ! यह ईत्र का रस हैं और यह उसका छिलका -जाव-सरीरं। है." इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो शरीर और आत्मा को अलग-अलग करके दिखला दे कि "आयुष्मान ! यह आत्मा है और यह शरीर है।" से जहानामए के पुरिसे अरणीतो आँग अभिनिवत्ताणं जैसे कि को: पुरुप अरणि की लकड़ी से आग निकालकर उववसेज्जा प्रत्यक्ष दिग्धता देता है कि . "आयुष्मन् ! यह अाणि है और अयमाउसो । अरणी, अयं अम्गी, यह आग है." इसी प्रकार कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो शरीर एषामेव जाव-सरीरं। और आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि "आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह उससे भिन्न शरीर है।" Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] वरणानुयोग प्रथम सज्जी-बततशरीरबादी की श्रद्धा का निरसन सूत्र २४६ एवं असतो असंविज्जमर्माण । इसलिए आत्मा शरीर सेवा उपलब्ध नहीं होती, यही असितं सुयक्खातं भवति तं जहा-"अन्नो जोशे अन्नं सरीर" बात युक्तियुक्त है। इस प्रकार (विविध युक्तियों से आत्मा का तम्हात मिछा। अभाव सिद्ध होने पर भी) जो पृथगात्मवादी (स्वदर्शनानुरागयश) -सूय. सु.२, अ. १, मु. ६४५-६५.० बार-बार प्रतिपादन करते हैं, कि आत्मा अलग है. शरीर अलग है, पूर्वोक्त कारणों से उनका कथन मिथ्या है। से हता इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को न मानने वाले तज्जीव तच्छरीरवादी लोकायतिक आदि स्वयं जीवों का नि:संकोच) हनन करते हैं, तथा (दूसरों को भी उपदेश देते हैं।हणह खणह छणाह रहह पयह अालुपह विलुपह सहसक्कारेह इन जीवों को मारो, यह पृथ्वी खोद डालो, यह वनस्पति विपरामुसह, काटो, इसे जला दो, इसे पकाओ, इन्हें लूट लो या इनका हरण कर लो । इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा वध कर डालो, इन्हें पीड़ित (हरान) करो, इत्यादि । एत्ताव साव जीये, णस्थि परलोए, इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, (परलोकगाभी कोई जीव नहीं होने से) परलोक नहीं है।" (इसलिए यथेष्ट सुख भोग करों)। है जो एवं विपरिवेति, तं जहा-किरिया वा अकिरिया वे शरीरात्मवादी आगे कहीं जाने वाली बातों को नहीं इवा, सुक्कडे ति वा दुक्कडे ति वा, कल्लाणे ति वा पाए मानले जैसे कि ----सरिक्रया या असत्किया, सुकृत या दुष्कृत, ति बा, साहू ति वा असाहू ति या, सिद्धि ति वा असिद्धि कल्याण (पुण्य) या पाप, भला या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक ति वा, निरए ति वा अनिरए ति वा। या स्वर्ग, आदि । एवं ते विरुवस्वेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूषाई काममोगाई इस प्रकार वै शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ सभारंपति भोषणाए। करके विविध प्रकार के काम-भोगों का सेवन (उपभोग) करते हैं -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६५१ अथवा विषयों का उपभोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं। एवं पेगे पागम्भिया निक्षम्म मामगं धम्म पण्णति । इस प्रकार शरीर से भिन्न आरमा न मानने की पृष्टता करने बाले कोई नास्तिक अपने मतानुसार प्रत्रज्या धारण करके "मेरा ही धर्म सत्य है" ऐसी प्ररूपणा करते हैं। त सहहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा रखते हुए, उम पर प्रतीति करते हुए. उसमें चि रखते हुए कोई राजा आदि उस शरीरात्मवादी से कहते है-- साधु सुयखाते समणे ति या माहणे ति बा, काम खतु हे घमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव-तच्छरीरबाद आउसो! तुम पृपयामो, रूप उत्तम धर्म बताकर बहुत ही अच्छा किया, हे आयुष्मन् ! सं सहा- असणेण वा पाणेग वा खाइमेण वा साइमेण वा (आपने हमारा उद्धार कर दिया) अतः हम आपकी पूजा सत्कार बत्येण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछषण था, सम्मान) करते हैं, जैसे कि हम अशन पान, खाद्य, स्वाध अथवा वस्त, पात्र, कम्बल अथवा पाद-पोंछन आदि के द्वारा आपका सत्कार-सम्मान करते हैं। तत्गे पूयणाए समादिप्सु तत्येगे पूयणाए निगामहंसु । यों कहते हुए कई राजा आदि उनकी पूजा में प्रवृत्त होते हैं, --सूव. सु. २, अ. १, सु. ६५२ अथवा वे शरीरात्मवादी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त हो जाते हैं, और उन स्वमतस्वीकृत राजा आदि को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अपने मत-सिद्धान्त में दृढ़ (पक्के या कट्टर) कर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४६-२४७ द्वितीय पंच महामूतवाषी को भक्षा का निरसन अर्शनाधार १५ पुण्यामेव सेसि जायं भवति-समणा भविस्साओ अणगारा इन शरीरात्मवादियों ने पहले तो यह प्रतिज्ञा की होती है अकिंधणा असा अपस परवत्समोइणो भिक्खणी पावं कम्मं को कि "हम अनगार (घर-बार के त्यागी), अकिंचन (द्रव्यादिकरिस्मामो समुहाए से अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइ रहित), अपुत्र (पुत्रादि के त्यागी), अपशु (पशु आदि के स्वामित्व यति अस्ने वि भावियावन्ति अन्नं पि आतियतं समजाणंति, से रहित), परदनभोजी (दुसरों के द्वारा दिये गए भिक्षाग्न पर निर्वाह करने वाले) भिक्षु एवं श्रमण (शम सम एवं श्रम-तप की साधना करने वाले), बनेगे, अब हम पाप कर्म (सावध कार्य) नहीं करेंगे," ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके (प्रवजित होकर) भी पाप कर्मों (सानच आरम्भसमारम्भादि कार्यो) से विरत (निवृत्त) नहीं होते, वे स्वयं परिग्रह को ग्रहण (स्वीकार) करते हैं, दूसरे से ग्रहण कराते हैं और परिग्रह ग्रहण करने बाले का अनुमोदन करते (अच्छा समझते) हैं। एवामेव से हत्यिकाममोगेहि मुछिया गिता गद्विता अज्मोष- इसीप्रकार के स्त्री तथा अन्य कामभोगों में आसक्त यहा सुद्धा रागयोसप्ता, ते को अप्पागं समुच्छेति, नो परं (मूच्छित), गृख, उनमें अत्यधिक इच्छा और लालसा से युक्त, समुच्छेति, नो अण्णाई राणाई भूताई जीवाइं सत्ताई लुब्ध (लोभी), राग-द्वेष के वशीभूत एवं आत्तं (चिन्तातुर) रहते समुन्छे देति. हैं। वे न तो अपनी आत्मा को संसार से या कर्म-पाश (बन्धन) से मुक्त कर पाते हैं, न वे दूसरों को मुक्त कर सकते हैं, और न अन्य प्राणियों. भूतों, जीवों और मत्वों को मुक्त कर सकते हैं। महोणा पुब्बसंजोग, आयरियं भरगं असंपत्ता, इति ते वे (उक्त शरीरात्मवादी प्रथम असफल पुरुष के समान) गोहत्वाए गो पाराए, भतरा कामभोगेतु विसग्णा। अपने स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि पूर्वसंयोग गृहावास या शाति जनवास) से प्रचण्ट (प्रहीन) हो चुके हैं, और आर्यमार्ग (सम्यग्दर्शनादियुक्त मोक्षमार्ग) को नहीं पा सके हैं। अतः वे न तो इस लोक के होते हैं, और न ही परलोक के होते हैं (किन्तु उभयनोक के सदनुष्टान से भ्रष्ट होकर (बीच में कामभोगों (के कीचड़) में आसक्त हो (फैस) जाते हैं । इति पढमे पुरिसज्जाते तम्जीव-तस्सरीरिए आहिते। इस प्रकार प्रथम पुरुष तज्जीय-तच्छरीरवादी कहा गया है । -. सु. २, अ. १, सु. ६५३ वि.यं पंचमहम्भूयवाइए सहहणणि रसणं- द्वितीय पंच महाभूतवादी की श्रद्धा का निरसन२४७. ब्रहावरे शेच्चे पुरिसम्जाते पंचमहम्भूतिए ति आहिज्जति । २४७. पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पंचमहाभूतिक कहलाता है। इह खलु पाईगं वा-जार-संगतीश मणुस्सा भवति अणु- इस मनुष्यलोक की पूर्व-यावत्-उत्तरदिशा में मनुष्य पुग्वेणं सोपं उबवण्णा, तं जहा—ारिया वैगे-जाव-दुरूवा रहते हैं। वे क्रमशः नाना रूपों में मनुष्य लोक में उत्पन्न होते हैं, बेगे । तेसि च णं महं एगे राया भवती महया एवं वेब गिरव- जैसे कि---कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य । कोई-यावर--- सेसं-आव-सेवावतिपुत्ता। कुरूप आदि होते हैं। उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है। वह राजा पूर्वसूत्रोक्त विशेषणों-महान हिमवान आदि से युक्त होता है और उसकी राजपरिषद्-यावत् -सेनापति आदि से युक्त होती है। सि च गं एगतीए सही भवति, कामं तं समणा 4 माहगा उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । वे श्रमण व महारिंसु गमगाए । तस्याण्णवरेणं धम्मेणं परतारो वर- और माहन उसके पास जाने का निश्चय करते हैं। वे किसी एक मिमेयं धम्मेणं पन्नवहस्सामो, धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीयिक श्रमण और माहन (बाह्मण) राजा आदि से कहते हैं-"हम आपको उत्तम धर्म की शिक्षा देंगे।" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] चरणानुयोग द्वितीय पंच महाभूतवादी की श्रद्धा का निरसन सूत्र २४७ से एबमायाणह मयंतारो ! जहा मे एस धम्मे सुझमखाए इसके पश्चात् वे कहते हैं- "हे भयत्राताओ ! प्रजा के भय सुपण्णत्ते भवति। का अन्त करने वालो ! मैं जो भी आपको उत्तम धर्म का उपदेश दे रहा हूँ, वही पूर्व पुरुषों द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित और मुपजप्त (सत्य) है।" इह खलु पंच महम्भूता जेहिं नो कज्जति किरिया ति का इस जगत में पंच महाभूत ही सब कुछ हैं। जिनसे हमारी अकिरिया ति वा, मुकडे ति वा दुकडे ति वाकल्लाणे ति वा क्रिया या अक्रिया, सुकृत अत्रवा दुष्कृत, कल्याण मा पाप, अच्छा पायए सि वा साहु ति वा असाहु ति वा, सिडी ति या प्रसिद्धी या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्य ति वा णिरए ति वा अपिए ति वा अवि यंतसो तणमात- गति; अधिक कहां तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी भवि। (इन्हीं पंचमहाभूतों) से होती है। तन पटेसेणं पुढोभूतसमयातं जाणेज्जा, तं जहा उस भृत-समवाय सिमट) को पृथक-पृथक नाम से जानना चाहिए । जैसे किपुढयो एगे महामते, आज बोरचे महाभूते, तेऊ तच्चे महम्मूते, पृथ्वी एक महाभूत है, जल दुसरा महाभूत है, तेज (अग्नि) बाउ चजत्थे महरूमूते, आगासे पंचमे महाभूते । तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचा महाभूत है। इच्चेते पंच महम्भूता अणिम्मिता अणिम्मेया अकडा ये पांच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित (बनाये हुए) गो कित्तिमा णो कडगा अपादिया अणिधणा अवंशा अपुरोहिता नहीं हैं, न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनवाए हुए (निर्मापित) हैं, सतंता सामता। ये किये हुए (कृत) नहीं है, न ही ये कृत्रिम (बनावटी) हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं । ये पाँचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्ध-अवश्य कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत (नित्य) हैं। आयछट्ठा पुण एगे, एवमाहु ___कोई (सांख्यवादी) पंचमहाभूत और छये आत्मा को मानते हैं । वे इस प्रकार कहते हैं विसतो गस्थि विषासो, असतो गस्थि संभयो । सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अत्यिकाए, एताय ताव होती। (चे पंचमहाभूनवादी कहते हैं- "इतना ही (यही) सक्वलोए, एतं मुहं लोगस्त कारणपाए, अवि यंतसो तणमा जीव काय है, इतना ही (पंचभूतों का अस्तित्वमात्र ही) अस्तिकाय समवि । है, इतना ही (पंचमहाभूतरूप ही) समग्र जीव लोक है। ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण (समस्त कार्यों में व्याप्त) है, यहाँ तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण होता है।" से किणं किणावेमाणे, हणं घातमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि (इस दृष्टि से आत्मा असत् या अकिंचिस्कर होने से) "स्वयं अंतसो पुरिसमवि विकिषिता घायइत्ता, एत्म वि जागाहि- खरीदता हुआ, दुसरे से खरीद कराता हुआ, एवं प्राणियों का परिय एत्थ बोसो।" स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुआ, स्वयं -सूय. सु. २, अ.१, सु. ६५४-६५७ पकाता हुआ और दूसरों से पकवाता हुआ (उपलक्षण से इन सब असद् अनुष्ठानों का अनुमोदर करता हुआ, (यहाँ तक कि किसी पुरुष को (दास आदि के रूप में) खरीदकर घात करने वाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि इन सब (सावद्य) कायों में कोई दोष नहीं है, यह समझ सो।" स्वयं १ संति पंच महम्भूया इहमेगेसिमाहिया । पुवी आऊ तेउवाउ आगास पंचमा । एते पंच महन्भूया तेब्भो एगो त्ति आहिया, अह ऐसि विणासे उविणासो होइ दोहिणी -सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. ७-८ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४७-२४८ तृतीय ईश्वरकारणिकवावी की बड़ा का निरसन से गो एवं विवेिति तं जहा- किरिया तिवा-जायअणिरए ति वा । एवामेव ते विवेहि कम्मसमारंमेहि विरूवरुवाई कामभोगाई समारंभति भोयगाए । एकमेवारिया वियसिमाना पत्तियमाथा -जाव इति ते णो हब्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगे बिसा चलिए ति हिते। - सुय. सु. २, अ. १. सु. ६५८ सहसरका रणीय बाइए सह-रिस २४८ महावत पुईिसरकारबिए ति महि पावावी व संगतिया मगुस्सा प्रति अणुपुरुवेगं लोधं उवषन्ना, सं जहा--आरिया वेगे - महंते एगे राधा भवति जायतेगावति पुत्ता . सेसिन एवीएस पवति कामं तं क्षमा माहा पहारिनु गमगाए जायजा मे एस धम्मेशा सुते भवति । - इह व धम्मा पुरिसावीया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिसपज्जोइता पुरिस अभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । दर्शनाचार १५ वे (पंचमहाभूतवादी) क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के (पूर्वोक्त) पदार्थों को नहीं मानते । इस प्रकार वे नाना प्रकार के सादद्य कार्यों के द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए सदा आरम्भ समारम्भ में प्रवृत्त रहते है अतः वे मना (धर्म से दूर) तथा विपरीत विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के धर्म (दर्शन) में श्रद्धा रखने वाले एवं इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि ( पूर्वोक्त प्रकार से इनकी पूजा-प्रशंसा तथा आदर सत्कार करते हैं, विनयभोगसामग्री इन्हें भेंट करते हैं। इस प्रकार सावद्य अनुष्ठान में भी अन मानने वाले ने महाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी काम में मूच्छित होकर) न तो इहलोक के रहते हैं और न परलोक के । भ्रष्ट होकर पूर्ववत् बीच में ही कामभोगों में फँसकर कष्टों पाते हैं । यह दूसरा पुरुष पानमहाभूतिक कहा गया है। तृतीय ईश्वरकारणिकवादी की धडा का निरसन२४. दूसरे तक पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष "ईश्वरकारभिक" कहलाता है। इस मनुष्यलोक में पूर्व यावत्-उत्तर दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जो क्रमश: इस लोक में उत्पन्न हैं। जैसे कि उनमें से कोई आगे होते हैं, कोई अनार्य भादि प्रथम जोक सब वर्णन यहाँ जान देना चाहिए उनमें कोई एक श्रेष्ठ महान् गजा होता है। वहाँ से लेकर राजा की सभा के सभासदों (सेनापतिपुत्र) तक का वर्णन भी पूर्वोक्त वर्णनवत् समझ लेना चाहिए। इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है। उस धर्मखालु के पास जाने का सवादित और ब्राह्मण (मान) निश्चय करते हैं। वे उसके पास जाकर कहते हैं- हे माता महाराज ! मैं आपको सच्चा धर्म सुनाता हूँ, जो पूर्वपुरुषों द्वारा कवित एवं सुप्रज्ञप्त है- यावत्-आप उसे ही सत्य समझें । धर्म (स्वभाव मा पदार्थ) हैं, वे सब पुरुषादिक हैं- ईश्वर या आत्मा (उनका ) आदि कारण है; वे सब पुरुषोत्तरिक हैं- ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है, अथवा ईश्वर ही उनका संहारकर्ता है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत ( रचित) हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न (जन्मे हुए) हैं, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं। इस जगत में जितने भी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] चरणानुयोग तृतीय ईश्वरकारणिकवादी को श्रद्धा का निरसन सूत्र २४० १. से जहानामए गंडे सिया सरीरे जाते सरीरे युद्ध सरीरे (१) जैसे कि किसी प्राणी के शरीर में हुआ फोड़ा (गुमड़ा) अभिसमष्णापते सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति । एयामेव धम्मा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का वि पुरिसादीपा-जाव-पुरिसमेव अभिमूय चिट्ठन्ति । ही अनुगामी बनता है और शरीर का आधार लेकर टिकता है, इसी तरह सभी धर्म (पदार्थ) ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर से ही वृद्धिंगत होते हैं, ईश्वर के ही अनुगामी होते है. ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते हैं। २. से जहाणामए अरइ सिया सरीरे जाया सरीरे अभिसंकुड्डा (२) जैसे अरति (मन का उद्घग) शरीर में ही उत्पन्न होती सरीरे अभिसमध्यागता सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति । एकामेत्र है, शरीर में ही बढ़ती है, शरीर की अनुगामिनी बनती है, और धम्मा पुरिसावीया-जाव-पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठन्ति । शरीर को ही मुख्य आधार बना करके पीड़ित करती हुई रहती है, इसी तरह समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होकर-पाव उसी से वृद्धिंगत और उसी के आश्रय से स्थित हैं। ३. से जहाणामए पम्मिए सिया पुरुषीजाते पुढवीसंवे (३) जैसे बल्मीक (कीरविशेषकृत मिट्टी का स्तूप या पुडवो अमिसमण्णागते पुषीमेव अभिभूय चिति । एवामेव दीमकों के रहने की बांबी) पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही धम्मा वि पुरिसावीया-जाव-अभिभूय चिन्ति । बढ़ता है, और पृथ्वी का ही आश्रय लेकर रहता है, वैसे ही समस्त धर्म (पदार्थ) भी ईश्वर से ही उत्पन्न होकर-याव उसी में लीन होकर रहते हैं। ४. से जहागामए रखे सिया पुढषोजाते पुढविसंवढे पुढवि- (४) जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, मिट्टी अभिसमण्णागते पुरविमेव अभिभूय चिटुति । एकामेब धम्मा से ही उसका संवर्द्धन होता है, मिट्टी का ही अनुगामी बनता वि पुरिसाइया-जाव-अभिभूय चिट्ठन्ति । है, और मिट्टी में ही ब्याप्त होकर रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संबद्धित और आनुगामिक होते हैं और अन्त में उसी में क्याप्त होकर रहते हैं। ५. से जहानामए पुक्खरणी सिया पुढविजाता-जाव-पुढवि- (५) जैसे पुष्करिणी (बावड़ी) पृथ्वी से उत्पन्न (निर्मित) मेव अभिभूय चिट्ठति । एवमेव धम्मा विपुरिसादीया-जाव- होती है, और--यावत्-अन्त में पृथ्वी में ही लीन होकर रहती पुरिसमेव अभिभूय सिट्ठन्ति । है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में ही लीन होकर रहते हैं। ६. से जहाणामए उपयोक्दले सिया उदगजाए-जाव-उदगमेव (३) जैसे कोई जल का पुष्कर (पोखर या तालाब) हो, वह ममिभूय चिटुति । एवामेव धम्मा वि-जाब पुरिसमेव अभि- जल से ही उत्पन्न (निर्मित) होता है, जल से ही बढ़ता है, जल भूय चिट्ठन्ति । का अनुगामी होकर अन्त में जल को ही व्याप्त करके रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संबद्धित एवं अनुगामी होकर उसी में विलीन होकर रहते हैं। ७. से महाणामए उदगबुम्बुए सिया उदगजाए-जाव-उदगमेव (७) जैसे कोई पानी का बृद् (दुलबुला) पानी में उत्पन्न अभिभूय चिटुति । एवामेव धम्मा वि पुरिसाईया-जाव- होता है, पानी से ही बढ़ता है। पानी का ही अनुगमन करता है पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठन्ति । और अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी -सूय. सु. २, अ. १, मु. ६५९-६६० पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त (लीन) होकर रहते हैं। जपि य इमं समणाणं गिग्गंधाणं उछि बियंजियं दुवास- यह जो श्रमणों-निग्रन्थों द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ या संग गणिपिढगं, तं जहा प्रकट किया हुआ, द्वादशांग गणिपिटक (आचार्यों का या गणधरों का ज्ञान पिटारा-शानभण्डार है), जैसे कि - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूत्र २४८-२४६ चौथा नियतिशयो की श्रद्धा का निरसन पर्शमाचार १५७ मायारो-जाव-विडिवातो, सम्वमेयं मिश्छा, शं एतं सहित आचारांग, सूचकृतांग से लेकर दृष्टिबाद तक, यह सब ण एवं आहताहितं । मिथ्या है, यह तथ्य (सत्य) नहीं है और न ही यह यथातथ्य (यथार्थ वस्तुस्वरूप का बोधक) है, (क्योंकि यह सब ईश्वरप्रणीत नहीं है। इमं सन्छ, इमं सहितं, हम आहत्तहितं, ते एवं सणं कुवति, यह जो हमारा (ईश्वरकर्तृत्ववाद या आत्माद्वैतवाद है) यह ते एवं सगं संठवेति, ते एवं सणं सोबटुयति, सत्य है, यह तथ्य है, यह ययालथ्य (यथाचं रूप से वस्तुप्रकाशक) है। इस प्रकार वे (ईश्वरकारणवादी या आत्माहतवादी) ऐसी संशा (मान्यता या विचारधारा) रखते, (या निश्चित करते हैं, वे अपने शिष्यों के समक्ष भी इसी मान्यता की स्थापना करते हैं, वे सभा में भी वे इसी मान्यता से सम्बन्धित युक्तियाँ मताग्रह पूर्वक उपस्थित (प्रस्तुत करते हैं)। तमेव ते तजातियं बुक्स जातिउदृन्ति सरणी पंजरं जहा। जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता वैसे ही वे (पूर्वोक्त वादी) अपने ईश्वर-कर्तृत्ववाद या आत्मादतवाद को अत्यन्ताग्रह के कारण नहीं छोड़ सकते, अतः इस मत के स्वीकार करने से उत्पन्न (तज्जातीय) दुःख (दुःख के कारणभूत कर्मसमूह) को नहीं तोड़ सकते। ते गो (एस) विधिवेदेति तं जहा-किरिया दवा-जाब- वे (ईश्वरकारणवादी या आत्मा तवादी स्वमताप्रहप्रस्त अणिरए ति था। होने से) इन (आगे कहे जाने वाली) बातों को नहीं मानते जैसे कि—पूर्वसूबोक्त क्रिया से लेकर अनिरय (नरक से अतिरिक्त गति) तक हैं। एषामेव ते विरूपकवेहि कम्मसमारंभेहि बिस्वरवाई काम- वे नाना प्रकार के पापकर्मयुक्त (सावध ) अनुष्ठानों के द्वारा मोगाई समारंभित्ता भोषणाए एषामेव ते अणारिया विप- कामभोगों के उपभोग के लिए अनेक प्रकार के काम-भोगों का जिवाणा, तं सदहमाणा-जाव-इति ते जो हवाए गो पाराए, आरम्भ करते हैं। ये अनार्य (आर्यधर्म से दूर) हैं, वे विपरीत अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । मार्ग को स्वीकार किये हुए है, अथवा भ्रम में पड़े हुए हैं। इस प्रकार के ईश्वरकर्तृत्ववाद में श्रद्धा-प्रतीति रखने वाले वे धर्मश्रद्धालु राजा आदिक उन मतप्ररूपक साधकों की पूजा-भक्ति करते हैं, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णन के अनुसार वे ईश्वरकारणवादी न तो इस लोक के होते हैं न परलोक के। वे उभयभ्रष्ट लोग बीच में ही कामभोगों में फंसकर दुःख पाते हैं । तच्चे पुरिसज्जाते इस्सरकारगिए' ति अाहिते। यह तीसरे ईश्वरकारणवादी का स्वरूप कहा गया है। -सूय. शु. २, अ. १, सु. ६६१-६६२ चउत्थं णियइवाइय सद्दहण-णिरसणं चौथा नियतिवादी की श्रद्धा का निरसन२४६. अहावरे चउत्ये पुरिसजाते णियतिवातिए ति आहिज्जति। २४६. तीन पुरुषों का वर्णन करने के पश्चात् अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है। बह खलु पाईणं वा तहेव-जाव-सेगायतिपुत्ता वा, तेसि चणे इस मनुष्य लोक में पूर्वादि दिशाओं के वर्णन से लेकर राजा __ और राजसभा के सभासद सेनापतिपुत्र तक का वर्णन प्रथम १ ईसरेण कडे सोए पहाणाति तहावरे । जीवाजीव समाउत्ते मुह-दुक्ख समनिए। -सूय. सु. २, अ.१, उ. ३, गा. ६(६४) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] चरणानुयोग चौपर नियतिवादी की भद्धा का निरसन एलिए सड्डी भवति कामं तं समणा य माहणा या संपहारिसुमनाए जाव जहा मे एस धम्मे सुखाते सुपण्णत्ते भवति । हरिसाल एमे रिसे किरियमाखति, गे पुरिसे जो किरियमाखति । जे व पुरिसे किरियापुरिसे जौकिरिय साहक्क, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारणमावन्ना । वाले पुण एवं विध्यश्वेिवेति कारणमावन्तं जहा जो असी क्सोमा पिडामा परियाणि वा हंस परो वा कति वा सोयइ वा जुरह का सिप्पइ वा पिड्ड वा परिसद वा परो एतमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विपश्डिवेदेति कारण मावन्ने । मेधायो पुच एवं विपवित कारणमावन्ने अधियामि वा सोयामि वा शनि या तिप्यामि या पिडामा परितयामि वा यो अमेलन कासि परो या दुखति वाया-परितप्यति या मो परी एका एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विष्पष्टियेदेति कारणले से बेमिपाई वा जाव जे ससथावरा पाणा ते संचायाति सूत्र २४६ पुरुषोक्त पाठ के समान जानना चाहिए। पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। उसे धर्मश्रद्धालु जानकर (धर्मोपदेशार्थं ) उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्वय करते हैं। उसके पास जाकर कहते है मैं आपको पूर्वपति और प्रजन्त (सत्य) धर्म का उपदेश करता हूँ ( उसे आप ध्यान से सुने इस लोक में (या दार्शनिक जगत् में) होते हैं - एक पुरुष क्रिया का कथन करता है. किया का कथन नहीं करता, (क्रिया का निषेध जो पुरुष क्रिया का कथन करता है और जो पुरुष किया का निषेध करता है। (नियतिवाद) को प्राप्त है। 1)" दो प्रकार के पुरुष ( जबकि ) दुसरा करता है ) । ये योगों ही अशानी (बान) है, अपने सुख और दुःख के काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह सम झते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा है. शोक (चिन्ता) कर रहा हूँ, दुःख से आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप ) कर रहा हूँ, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूँ, पीड़ा पा रहा हूँ, या संतप्त हो रहा हूँ, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं, तथा जो दूसरा दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, अथवा पीड़ित होता है या संत होता है, वह सब उसके द्वारा किये हुए (कर्मफल) है। इम कारण वह अशजीत्र (काल, कर्म, ईश्वर आदि को गुसदुःख का कारण मानता हुआ ) स्वनिमित्तक ( स्वकृत) तथा परनिमित्तक ( परकृत) सुख-दुःखादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कृत कर्मफल समझता है । परन्तु एकमात्र नियति को ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि "मैं जो कुछ दुःख भोगता हूँ शोकमग्न होता हूँ या संतप्त होता हूँ, मेरे किये हुए कर्म (फल) नहीं हैं, तथा जो दुःख पाता है, पोक आदि से पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, (अपितु यह सव नियति का प्रभाव है ) । दूसरा इस प्रकार वह बुद्धिमान पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुख आदि को यों मानता है कि ये सब निपतित ( नियति के कारण से हुए) हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं । अतः मैं (नियतिवादी) कहता है कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही जौदारिक आदि शरीर की रचना संघात को प्राप्त करते हैं, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र २४१-२५. लोक रचना के अनेक प्रकार गर्शमाचार [१५६ ते एवं परियायावासि, है एवं विवेगमाकजंति, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और बुद्ध है एवं विहाणमागच्छति, ते एवं संगइपति । अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक (मृत) होते हैं, वे नियति के कारण ही काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते है। उबेहाए जो एवं बिपरिवेति, सं जहा-किरिया ति वा (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते है--) इस जाव-णिरए ति वा अणिरए ति वा। प्रकार नियति को ही समस्त अच्छे बुरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना (उत्प्रेक्षा) करके (निःसंकोच एवं कर्मफल प्राप्ति से निश्चिन्त होने से) नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते-क्रिया, अश्मिा से लेकर प्रथम सुत्रोक्त नरक और नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ । एवं ते विकवस्वेहि कम्मसमारंभेहि विषयमाई काममोगाई इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र में पड़े हुए लोग नाना समारमंति भोयणाए। एवामेव हे अगारिया विपजियाणा प्रकार के सावद्यकमों का अनुष्ठान करके काम-भोगों का उपभोग तं सागहमाणा-जाब-इति ते पो हवाए णो पाराए, अंतरा करते हैं, इसी कारण (नियतिवाद में श्रद्धा रखने वाले) के कामभोगेसु विसपणा। (नियतिवादी) अनार्य हैं, वे भ्रम में पड़े हैं। वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के, अपितु काम-भोगों में फंसकर कष्ट भोगते हैं। पजत्थे पुरिसजाते णियइवाइए ति आहिए। यह चतुर्थपुरष नियतिवादी कहलाता है । इस्चेते पत्तारि पुरिसमाता गाणापन्ना पाणाछंवा जाणासीला इस प्रकार ये पूर्वोक्त चार पुरुष भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले, णाणाविट्ठी जाणारई गाणारंमा गाणशयसाणसंजुत्ता विभिन्न अभिप्राय बाले, विभिन्न शील (आचार) वाले, पृथक्पहीणपुरुषसंजोया आरियं मागं असंपत्ता, पृथक् दृष्टि (दर्शन) वाले, नाना रुवि वाले, अलग-अलग आरम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विभिन्न अध्यवसाय (पुरुषार्थ) बाले हैं। इन्होंने माता-पिता आदि गृहस्थाश्रमीय पूर्वसंयोगों को तो छोड़ दिया, किन्तु आर्यमार्ग (मोक्षपथ) को अभी तक पाया नहीं है। इति से गो हस्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसम्णा ।। इस कारण वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के -सूय. मु. २, अ. १, सु. ६६३-६६६ होते हैं, किन्तु बीच में ही (सांसारिक) काम-भोगों से ग्रस्त होकर कष्ट पाते हैं। विविहा लोगरयण-पहवणा लोक रचना के अनेक प्रकार२५०.गमन्नं तु अण्णाणं हमेगेसिमाहियं । २५०. (पूर्वोक्त अज्ञानों के अतिरिक्त) दूसरा अशान यह भी बेवजते अयं लोगे बंभ उत्ते ति आवरे ॥ है-"इस लोक (दार्शनिक जगत) में किसी ने कहा है कि यह लोक (किसी) देव के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है और दूसरे कहते हैं कि ब्रह्मा ने बनाया है।" १ आघायं पुणं एगेसि उचवन्ना पुरे जिया । वेदवंति सुहं दुक्ख अदुवा लुप्यति ठाणओ ।। न तं सयंकडं दुक्खं को अन्नकडं च णं । मुहं वा जइ वा दुई सेहिवं वा असेहियं ।। न सयं करणं अन्नेहिं वेदयन्ति पुढो जिया । संगतियं तं तहा तेसि इभेगेहिमाहियं ।। एवमेताइं जपंता बाला पंडियमाणिणो । णियया-अणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया ॥ एवमेगे उ पासत्या ते भुज्जो विपब्भिया । एवं उदिता संता गं ते दुषखविमोक्खया ।। -सूय. सु. १,अ.१, उ. २, गर.२८-३२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] घरणानुयोग अकारकबाद सूत्र २५०-२१२ ईसरेण फरे लोए पहाणाति सहावरे । जीव और अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित जीवा - जीवसमाउते सुह - नुक्खसमन्निए ॥ (सहित) यह लोक ईश्वर के द्वारा कृत-रचित है (ऐसा कई कहते है) तथा दूसरे (सांख्य) कहते है कि (यह लोक) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा कृत हैं। सपंभुणा कडे लोए इति वृत्तं महेसिणा । स्वयम्भू (विष्णु या किसी अन्य) ने इस लोक को बनाया मारेण संयुता माया तेण लोए अप्लासते ।। है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है। यमराज ने यह माया रची है, इसी कारण यह लोक अशाश्वत-अनित्य (परिवर्तनशील) है। भाहणा सभणा एगे आह अंडकडे जगे। कई माहन (ब्राह्मण) और श्रमण जगत् को अण्डे के द्वारा अप्लो ततमकासी य अयाणता मुसं वक्षे । कृत कहते हैं तथा (दे कहते हैं)--ब्रह्मा ने तत्व (पदार्थ-समूह) को बनाया है । वस्तुतत्व को न जानने वाले ये (अज्ञानी) मिध्या ही ऐसा कहते हैं। सएहि परियारहि लोयं यूया कडे ति य । (पूर्वोक्त अन्य दर्शनी) अपने-अपने अभिप्राय से इस लोक को तत्तं ते ण विजाणंतीण विणासि क्याइ वि ॥ कृत (किया हुआ) बतलाते हैं । (वास्तव में) वे (सब अन्यदर्शनी) वस्तुतत्व को नहीं जानते, क्योंकि यह लोक कभी भी विनाशी नहीं है। अमष्प्युग्णसमुप्पा दुक्खमेव विभागिया। दुःख अमनोश (अशुभ) अनुष्ठान से उत्पन्न होता है. यह समुष्पादममाता किह नाहिति संवरं ।। जान लेना चाहिए। दुःख की उत्पत्ति का कारण न जानने वाले -सूय. सु. १, अ. १, उ. ३, गा. ५-१० लोग दुःख को रोकने (संबर) का उपाय कैसे जान सकते हैं ? अकारकवाई अकारकवाद२५१. कुब्वं च कारवं चेव सवं कुरुवं ण विज्जति । २५१, जात्मा स्वयं कोई त्रिया नहीं करता, और न दूसरों से एवं अकारओ अप्पा एवं सेउ पगम्भिया ॥ कराता है, तथा आत्मा समस्त (कोई भी) क्रिया करने वाला नहीं है । इस प्रकार आत्मा अकारक है। इस प्रकार वे (अका (कवादी सांख्य आदि) (अपने मन्तव्य की) प्ररूपणा करते हैं। जे ते उ वाइगो एवं लोए तेसि कुओ सिया। जो वे (पूर्वोक्त) वादी (तज्जीय-तच्छरीरबादी) तथा अकारकतमातो ते तमं जंति मंवा आरंभनिस्सिया ॥ वादी इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, इत्यादि तथा —सूय. सु. १, अ.१, उ. १, गा. १३-१४ "आत्मा अकर्ता और निरिक्रय है" कहते हैं, उनके मत में यह लोक (चतुर्गतिक संसार या परलोक) कैसे घटित हो सकता है। (वस्तुतः) वे मूब एवं आरम्भ में आसक्त वावी एक (अज्ञान) अन्धकार से निकलकर दूसरे अन्धकार में जाते हैं। एगप्पवाई एकात्मवाद२५२ जहा य युद्धयोयूमे एगे माणा हि बीसद । २५२. जैसे एक ही पृथ्वीस्तूप (पृथ्वीपिण्ड) नानारूपों में दिखाई एवं भो ! कसिलोए, विष्णू नाणा हि बीसए। देता है, हे जीवो ! इसी तरह समस्त लोक में (व्याप्त) विश (आत्मा) नानारूपों में दिखाई देता है, अथवा (एक) आत्मरूप (यह) समस्त लोक नानारूपों में दिखाई देता है। एवमेगे ति संपति, मंदा आरम्भपिस्सिया। इस प्रकार कई मन्दमति (अज्ञानी), "आत्मा एक ही है", एवं किसचा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियछह ।। ऐसा कहते हैं, परन्तु) आरम्भ में आसक्त रहने वाला व्यक्ति -सूय. सु. १, म. १, उ. १, गा. ६-१० पापकर्म करके स्वयं अकेले ही दुःख प्राप्त करते हैं (दूसरे नहीं)। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५३-२५६ मात्मषष्ठबार दर्शनाधार [१६१ : आयछट्टबाय आत्मषष्ठवाद-- २५१. संति पंच महाभूता इहमेगेसि आहिसा । २५३. इस जगत् में पांच महाभूत हैं, और छठा आत्मा है, ऐसा आयछटा पुर्वेगाड आया लोगे य सासते ॥ कई वादियों ने प्ररूपण किया (कहा) फिर उन्होंने कहा कि "आत्मा और लोक शाश्वत -नित्य हैं।" नही ते ण विणस्संति नो य उपजए असं । __सहेतुक और अहेतुक दोनों प्रकार से भी पूर्वोक्त छहों पदार्थ सध्ने वि सम्बहा मावा नियतीभावमागता ॥ नष्ट नहीं होते, और न ही असत्-अविद्यमान पदार्थ कभी उत्पन्न -य. सू. १, अ.१,उ.१, गा.१५-१६ होता है। सभी पदार्थ सर्वथा नियतीभाव-नित्यत्व को प्राप्त होते हैं। अवतारवाद२५४. सुढे अपायए आया इहमेगेसि आहितं । २५४. इस जगत् में किन्हीं (दार्शनिकों या अवतारवादियो) का पुणो कोडा-पबोसेणं से तत्य अपरज्झति ॥ कथन (मत) है कि आत्मा शुद्धाचारी होकर (मोक्ष में) पापरहित हो जाता है । पुनः क्रीड़ा (राग) या प्रदोष (हष) के कारण वहीं (मोक्ष में ही) बन्ध युक्त हो जाता है। रह संबडे मुगी जाए पच्छा होति अपावए। ___इस मनुष्य' भव में जो जीब संवृत-संयम-नियमादि युक्त वियर्ड व जहा भुज्जो नौरथं सरयं तहा ।। मुनि बन जाता है, वह बाद में निष्णाप हो जाता है। जैसे--- --गय. मु. १, अ. १, उ. ३, गा. ११-१२ रज रहित निर्मल जल पुनः मरजस्क मलिन हो जाता है। वैसे ही यह (निमल निण्याप आत्मा भी पुनः मलिन हो जाती है।) लोगवायसमिक्खा लोकवाद-समीक्षा२१५. लोगावायं निसामेज्जा हमेगेसि आहितं । २५५. इस लोक में किन्हीं लोगों का कथन है कि लोकवाद-गौराविवरीतपण्णसंभूतं अण्णपण्णयुतितामयं ।। णिक कथा या प्राचीन लौकिक लोगों द्वारा कही हुई बातें सुनना चाहिए, (किन्तु वस्तुतः पौराणिकों का वाद) विपरीत बुद्धि की उपज है-तस्वविरुद्ध प्रज्ञा द्वारा रचित है, परस्पर एक दूसरों द्वारा कही हुई मिथ्या बातों (गणों) का ही अनुगामी यह लोक वाद है। अगते णितिए लोए सासते ण विणस्यति । यह लोक (पृथ्वी आदि लोक) अनन्त (सीमारहित) है, अंतवं मितिए लोए इति धौरोऽतिपासति ॥ नित्य है और शाश्वत है, यह कभी नष्ट नहीं होता, (यह किसी का कथन है।) तथा यह लोक अन्तबान ससीम और नित्य है। इस प्रकार व्यास आदि धीर पुरुष देखते अर्थात् कहते हैं । अपरिमाणं विजानाति हमेयेसि आहितं । इस लोक में किन्हीं का यह कथन है कि कोई पुरुष सीमासम्वत्य सपरिमाणं इति धीरो तिपासति ।। तीत पदार्थ को जानता है, किन्तु सर्व को जानने वाला नहीं । समस्त देश-काल की अपेक्षा वह धीर पुरुष सपरिमाण–परिमाण साहित-एक सीमा तक जानता है। जे केद तसा पाणा चिट्ठन्ति अबु शवरा। जो कोई वस अगवा स्थावर प्राणी इस लोक में स्थित है, परियाए अत्यि से अंजू सेण ते तस-यावरा ॥ उनका अवश्य ही पर्याय (परिवर्तन) होता है. जिससे वे इस से -सूय. सु. १, अ. १, उ. ४, गा. ५-६ यावर और स्थावर से त्रस होते हैं। पंचखंधवायं पंच स्कन्धबाद२५६. पंच बंधे वर्यतेने वाला उ गमोइणी । २५६. कई बाल (अमानी) क्षगमात्र स्थिर रहने वाले पांच स्कंध अन्नो अपनो व हु हैजयं च अहेजयं ।। बताते हैं । वे (भूतों से) भिन्न तथा अभिन्न कारण से उत्पन्न (सहेतुक) और बिना कारण उत्पन्न (अहेतुक) (आत्मा को) नहीं मानते, नहीं कहते। PART Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२४ चरणानुयोग स्व-स्व-प्रबाव-प्रशंसा एवं सिद्धि लाभ का दावा सत्र २५६-२५८ पुढधी आऊ तेऊ पहा बाउ प एकओ। दूसरे (बौद्धों) ने बताया कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये घसारि धाउणो एवं एवमाहंसु आगगा। चारों धातु के रूप है, ये (शरीर के रूप में) एकाकार हो जाते -सूय. मु. १. अ. १, उ. १, गा. १७-१५ हैं, (तब इनकी जीव-संज्ञा) होती है। पत्तेयवाय पसंसा सिद्धिलामो य स्व-स्व-प्रवाद-प्रशंसा एवं सिद्धि लाभ का दावा२५७. एयाणवीति मेधावि बंमधेरे ण ते बसे । २५७. बुद्धिमान साधक इन (पूर्वोक्त वादियों के कथन पर) पुढो पावाजया सम्बे अक्खापारी सयं मयं ॥ चिन्तन करके (मन में यह) निश्चित कर ले कि (पूर्वोक्त जगत् कर्तृत्ववादी या अवतारवादी) ब्रह्म-आत्मा की चर्या (सवा या आचरण) में स्थित नहीं है। वे सभी प्रावादुक अपने-अपने बाद की पृथक्-पृथक् वाद (भाग्यता) की बका-चढ़ाकर प्रशंसा (बखान) करने वाले हैं। सए सए उबटाणे सिदिमेव प अन्नहा । (विभिन्न मतवादियों ने) अपने-अपने (मत में प्ररूपित) अनुअहो वि होति वसयत्ती सख्वकामसमप्पिए॥ ष्ठान से ही सिद्धि (समस्त गांसारिक प्रपंच रहित सिद्धि) होली है, अन्यथा (दूसरी तरह से) नहीं, ऐसा कहा है । मोक्ष प्राप्ति से पूर्व इसी जन्म एवं लोक में ही अशवर्ती (जितेन्द्रिय अथवा हमारे तीर्थ या मत के अधीन) हो जाए तो उसकी ममस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। सिद्धा य त अरोगा य इहमेगेसि माहितं । इस संसार में कई मतवादियों का कथन है कि (हमारे मतासिद्धिमेव पराका सासए गठिया नरा॥ नुसार अनुष्ठान से) जो सिद्धि (रस-सिद्धि या अष्ट सिद्धि) प्राप्त हुए हैं, वे नीरोग (रोग मुक्त) हो जाते हैं। परन्तु इस प्रकार की डींग हांकने वाले वे लोग (स्वमतानुसार प्राप्त) तथाकथित सिसि को ही आगे रखकर अपने-अपने आशय (दर्शन या मत) में ग्रथित (आसक्त प्रस्त-बंधे हुए) हैं।। असंखुडा अणावश्यं ममिहिति पुणो पुणो। (तथाकथित लौकिक सिद्धिवादी) असं वृत-इन्द्रिय मनःसंयम कप्पकालमुवति ठाणा आसुर किस्विसिय ।। मे रहित होने से (वास्तविक सिद्धि-मुक्ति तो दूर रही) इस अनादि -मूय. सु. १, अ. १, उ. ३, गा. १३-१६ संसार में बार-बार परिभ्रमण करेंगे । वे कल्पकाल पर्यन्त-चिर काल तक असुरों-भवनपनि देवों तथा कित्विषक (निम्नकोटि के) देवों के स्थानों में उत्पन होते हैं । विविह वाय-निरसणं विविध वाद निरसन२५८. आगारमावसंता वि आरपणा या वि पश्यया। २५८. अन्यमती अपने ही मत को श्रेष्ठ मानते हुए इस प्रकार कहते इमं दरिसणमाबना सबकुक्खा विमुच्यती ।। हैं -घर में रहने वाले (गृहस्थ), तपा पन में रहने वाले तापस एवं प्रवज्या धारण किये हुए मुनि अथवा पात्रत-पर्वत की गुफाओं में रहने बाले (जो कोई) भी (मरे) इस दर्शन को प्राप्त (स्वीकार) कर लेते हैं, (वे) सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। से णावि संधि जपचर गंम से धम्मविक जणा। लेकिन वे (पूर्वोक्त मतवादी अन्यदर्शनी) न तो सन्धि को ने ते उ वाइणो एवंग ते ओहतराहिता ।। जानकर (क्रिया में प्रवृत्त होते हैं.) और न ही वे लोग धर्मवेत्ता हैं । इस प्रकार के (पूर्वोक्त अफलवाद के समर्थक) जो मतवादी (अन्यदर्शनी) हैं, उन्हें (तीबैंकर ने) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को तैरने वाले नहीं कहे। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५८-२५६ मिभ्यारा संसार की परिभ्रमण शंभाचार [१६३ से पावि संघि गच्चा गं न ते धम्मविक अणा । वे (अन्यसीर्थिक) सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त बेसेज बाइणो एवं प ते संसारपारगा ॥ होते हैं,) तथा वे धर्मज्ञ नहीं हैं। इस प्रकार के जो वादी (पूर्वोक्त सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे (अन्यतीर्थी) चातुर्गतिक संसार (समुद्र) के पारगामी नहीं हैं। ते गाविसधि णयान ते धम्मविक जणा । ___ बे (अन्य मताबलम्बी) न तो सन्धि को जानकर (किया में नेते उमाणो एवंग से गम्भस्स पारगा। प्रवृत्त होते हैं) और न ही वे धर्म के शाता हैं । इस प्रकार के जो वादी (पूर्वोक्त मिथ्या सिद्धान्तों को मानने वाले) हैं, वे गर्भ (में आगमन) को पार नहीं कर सकते । तं गावि संधि जया पं न ते धम्मविऊ जणा। वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर (क्रिया में प्रवृत्त मे ते उ वाहणो एवं गते जम्मस्स पारमा ।। होते हैं), और न ही वे धर्म के तत्वज्ञ हैं। जो मतवादी (पूर्वोक्त मिथ्यावादों के प्ररूपक है), वे जन्म (परम्परा) को पार नहीं कर सकते। ते मावि संधि गच्चा न ते धम्पविक जणा। वे (अन्य मतवादी) न तो सन्धि को जानकर ही (क्रिया में जे ते उपाइणो एवं ण ते पुरखस्स पारगा। प्रवृत्ति करते हैं), और न ही थे धर्म का रहस्य जानते हैं। इस प्रकार के जो वादी (मिथ्यामत के शिकार) हैं, वे दुःख' (-सागर) को पार नहीं कर सकते। ते गावि संधि पच्चा णं न ते घम्मषिक जणा। वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही (क्रिया में प्रवृत्त हो जे ते जवाविणो एवं न ते मारस्स पारगा। जाते हैं), वे धर्म नहीं हैं। अतः जो (पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्या प्ररूपणा करने वाले) वादी हैं, वे मृत्यु को पार नहीं कर सकते । गागायिहाई दुक्खाई अगुभवंति पुणो पुगो । वे (मिथ्यात्वग्रस्त अन्य मतवादी) मृत्यु, च्याधि और बुद्धासंसारचपकवालम्मि वाहि-मच-जराकुसे ॥ वस्था से पूर्ण (इस) संसाररूपी चक्र में बार-बार नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं-दुःख भोगते हैं। उपचावयाणि गम्छता गम्भमेस्संत गंतसो। ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने यह कहा कि वे नायपुत्ते महावीरे एषमाह जिणोत्तमे ॥ (पूर्वोक्त अफलवादी अन्यतीर्थी) उश्च-नीच गतियों में भ्रमण करते -सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. १६.२७ हुए अनन्त बार (माता के) गर्भ में आयेंगे। मिच्छासहि संसार परियणं मिथ्यादर्शनों से संसार का परिभ्रमण२५६ च्याहि विट्ठोहि सातागारव-णिस्सिता। २५६. इन (पूर्वोक्त) दृष्टियों को लेकर सुखोपभोग एवं बड़पन में सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं अगा। आसक्त अपने-अपने दर्शन को अपना शरण मानते हुए पाप का सेवन करते हैं। जहा मासाविणि णानं जातिअंधो बुलहिया । जैसे चारों ओर से जल प्रविष्ट होने वाली (छिद्रयुक्त) नौका पच्छज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति ॥ पर चढ़कर जन्मान्ध व्यक्ति पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच ही जल में डूब जाता है। एवं सु समगा एगे मिच्छट्विट्ठी अगारिया । इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि, अनार्य श्रमण संसार सागर से संसारपारकंखो से संसारं अपरियन्ति ।। पार जाना चाहते हैं, लेकिन संसार में ही बार-बार पर्यटन करते -सुप. सु. १, अ. १, उ. २, गा. ३०-३२ रहते हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] घरणानुयोग मिभ्यास्व के मेव-प्रभेव सूत्र २६०-२६१ मिथ्यात्व अज्ञान अनाचरण मिच्छादसणस्स मेयप्पभेया मिथ्यादर्शन के भेद प्रभेद२६०. मिच्छादसणे दुधिहे पन्नत्ते, तं जहा २६०. मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है, यथा--- अभिगहियमिच्छासणे व अभिग्रहिक (इस भव में ग्रहण किया गया मिथ्यात्व) और अभिगहियमिच्छावसणे चेय। अनाभिपहिक (पूर्व भवों मे आने बाला मिथ्यात्व) अभिगहियमिछासणे विहे पनि सं बहा आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है यया-- सपज्जवसित चेव अपज्जवसिते चेत्र । सपर्यवसित (सान्त) और अपर्यवसित (अनन्त) एवमणमिहितमिच्छादसणे वि। अनाभिहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया हैसपज्जवसिते, अपज्जवसिते । सगर्यवसित और अपर्यवसित । -ठाणं. अ.२, उ. १, सु. ५६ मिच्छत्तस्स भयप्पभेया मिथ्यात्व के भेद प्रभेद२६१. तिविहे मिश्छते पण्णते, तं जहा २६१. मिथ्यात्व तीन प्रकार का कहा है, यथा--- अकिरिया, अविणए, अन्लाणे । (1) अक्रिया, (२) अधिनय, (३) अज्ञान । अकिरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा.-- अक्रिया मिथ्याच तीन प्रकार का कहा है, यथापोगकिरिया, समुवारिया, अन्नाणांकरिया । (१) प्रयोगभिया, (२) समुदानक्रिया, (३) अज्ञानक्रिया। पओमकिरिया शिविहा पणता, तं महा प्रयोगक्रिमा तीन प्रकार की कही है, यथामणपयोगकिरिया, वइपओगकिरिया, (१) मनप्रयोग क्रिया, (२) वचनप्रयोगक्रिया, कायपोगकिरिया। (३) कायप्रयोगक्रिया। समुदागकिरिया सिविहा पाणता, तं जहा--- समुदान क्रिया तीन प्रकार की कही है, यथाअणंतरसमुदाणांकरिया,' परंपरसमुदाणफिरिया', (१) अनन्तर समुदानक्रिया, (२) परम्परा समुदानक्रिया, तमयसमुदाणकिरिया। (३) तदुभय समुदानक्रिया । अन्नाकिरिया तिथिहा पणत्ता, तं जहा - अज्ञान क्रिया तीन प्रकार की कही है, यथाभतिअनाकिरिया, , सुअनाणकिरिया, (१) मति-अज्ञान क्रिया, (२) श्रुत-अशान क्रिया, विभगअन्नाणकिरिया। (३) विभंग-अजान किया। अप्राणे तिविहे पणते, 'तं महा अज्ञान तीन प्रकार का कहा है, यथावेसण्णाणे, सवणाणे', भावण्णाणे । (१) देश अज्ञान, (२) सर्व अज्ञान, (३) भाव अज्ञान । ठाणं. अ३, उ.२.सु. ११३ १ प्रयोगक्रिया आत्मा को वीर्य-शक्ति के व्यापार को कहते है, मिथ्यात्वी जीव का प्रयोग असम्पक होने से अक्रिय कहा जाता है; और उससे जीव के कर्मबन्ध होता है। आत्मा की वीर्य-शक्ति का व्यापार मन, वचन और काया द्वारा व्यक्त होता है, इसलिए प्रयोगक्रिया के ये तीन भेद हैं। २ समुदानक्रिया-मन, वचन और काया के व्यापार से संचित कर्म रज का प्रकृतिबन्ध आदि रूप से अथवा देशघाति एवं सवं. घातिरूप से व्यवस्थित होना समुदान क्रिया है। ३ अनन्तर समुदान क्रिया-प्रथम समय में होने वाली क्रिया । ४ परम्परा समुदान क्रिया-द्वितीयादि ममयों में होने वाली क्रिया । ५ तदुभय समुदान क्रिया-प्रथमाप्रअम समयों में होने वानी किया । विविक्षित द्रव्य के एक देश को न जानना देश अज्ञान है । ७ विवक्षित अभ्य को सर्वथा न जानना सर्व अज्ञान है। ८ विवक्षित द्रव्य के पर्याय न जानना "भाव अज्ञान" है।-टीका Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष २६२-२६४ मोहमूढ़ को बोधवान पर्शनाधार १५ २६२. दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, नहा २६२. मिथ्यात्व दश प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अधम्मै घम्मसण्णा, (१) अधर्म को धर्म मानना, २. धम्मे अधम्मसग्णा, (२) धर्म को अधर्म मानना, ३. उम्मग्ये मागसपणा, (३) उन्मार्ग को सुमागं मानना, ४. मग्मे उमागमण्णा, (४) सुमार्ग को उन्मागं मानना, ५. अजीषेसु जीवसष्णा, (५) अजीवों को जीव मानना, ६. जीवेसु अजीवसपणा, (६) जीवों को अजीव मानना, ७. असाहुमु साहसग्गा, (७) असाधुओं को साधु मानना, ८. साइमु असाइसण्णा, (८) साधुओं को असाधु मानना, ६. अमुत्तंसु मुत्तसप्णा, (६) अमुक्तों को मुक्त मानना, १०. मुत्तेसु अमुत्तसपणा। --ठाणं. अ. १०, सु. ७३४ (१०) मुक्तों को अमुक्त मानना। मोहमूढस्स बोहप्पदाणं मोहमूढ़ को बोधदान२६३. अवक्खुव दमवाहितं, सद्दहमु अक्खुबंसगा। २६३. अदृष्टवत् (अन्धतुल्य) पुरुष ! प्रत्यक्षदर्शी (सर्वज्ञ) द्वारा हंदि हु मुनिस्वसणे, मोहणिज्जे कोण कम्मुगा। कथित दर्शन (सिद्धान्त) में श्रद्धा करो। हे असर्वशदर्शन पुरुषो! स्वयंकृत मोहनीय कर्म से जिसको दृष्टि अवरुद्ध हो गई है, वह सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त को नहीं मानता) यह समझ लो । दुक्षी मोहे पुणो पुणो, निविदेज्ज सिलोप-पूपणं । दुःखी जीव पुनः पुनः मोह --विवेक मूढ़ता को प्राप्त करता है। ९ सोहसे हि पासए, आपलं पाहिं संजते ॥ (अत.) अपनी स्तुति और पूजा से साधु को विरक्त रहना चाहिए। -सूय. सु. १.अ. २. उ. ३, मा. ११-१२ इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र-सम्पन्न संयमी साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देख्ने । मोहमूढस्स दुइसा मोहमूढ़ की दुर्दशा२६४. पासह एगेऽवसीयमाणे अगत्तपणे । २६४. उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए विषाद पाते हैं। से बमि-से जहावि कुम्मे हरए रिणिविटुषिसे मैं कहता हूँ जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त महाहृद में पच्छपणपलासे, उम्ममुग ने गो लभति । लगा हुआ है । वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्तों से उका हुआ है। वह कछुआ उन्मुक्त आकापा को देखने के लिए छिद्र को भी नहीं पा रहा है। मंजगा इव संनिवेसं नो चयति । जैसे वृक्ष (विविध शीत-तापादि सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते)। एवं पेगे अपनवेहि कुलेहि आता इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक प्रकार के कुलों में स्वेहि सत्ता कलुणं थणंति, जन्म लेते हैं, किन्तु रूपादि विषयों में आसत्ता होकर करुण विताप णिदाणतो ते ण लमंति मोक्षं ॥१७॥ करते हैं, ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। मह पास तेहि कुमेहिं आयत्ताए जाया अच्छा तू देख वे उन कुलों में आत्मत्व (अपने-अपने कृत कमों के फलों को भोगने) के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैंगंडी अदुवा कोटी रायंसी अवमारियं । (१) गण्डमाला, (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार कागि मिमियं चेव फुणितं खुज्जित तहा ॥ (मृगी या मूर्छ), (५) कागत्व, (६) जड़ता, (७) कुणिस्व, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] चरणामयोग विवार-शास्त्रार्थ के छह प्रकार सन २६४-२६५ उरि च पास, मुरं च सूणियं च गिलासिणि। (टूटापन, एक हाथ या पैर छोटा या एक बड़ा), (८) कुबड़ापन, वेवई पोढसप्पि च सिलिवयं मधुमेहाणि ।। () उदररोग, (१०) मूकरोग (गूगाएन), (११) शोथ रोगसोलस एते रोगा अबखाया अणुपुष्यसो । सूजन, (१२) भस्मकरोग, (१३) कम्पनवात, (११) पीठगीपंगुता, (१५) श्लीपदरोग (हाथीपया) और (१६) मधुमेह ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं। अह णं फुसंति आतंका कासा य असमंजसा ॥१७६। इसक अनन्तर (शूल आदि मरणान्तक) आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित (दुःखों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। मरणं तेसि समेहाए उववायं चयणं चम्चा उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर उपपात और परिपागं च सपेहाए तं मुहि जहा तहा। च्यवन को जानकर तथा कर्मों के विपाक (फल) का भलीभांति विचार करके उसके यथातथ्य को सुनो। संति पागा अंधा समंसि पियाहिता । (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताये गये हैं, जो अन्धे होते तामेव सह असई अतियच्च उच्चावचे फासे परिसंवेवेति ।। हैं, और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसी को एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द स्पशों का प्रतिसंवेदन करते हैं। युद्धेहिं एवं पवेविसं । बुद्धों (तीर्थकरी) ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। संति पाणा वासगा रसगा उदए स्वयचरा आगासगामिणो (और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं-से-वर्षज (वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढक आदि) अथवा वासक (भाषालन्धि-सम्पन्न द्वीन्द्रियादि प्राणी), रसज-रस में उत्पन्न होने वाले अथवा रसग (रसज संशी जीव), उदक ..एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव, या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, आकाशगामी-नभचरपक्षी आदि। पागा पाणे फिलेसंति । थे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं। पास लोए महाभयं । तू देख, लोक में महान् भय है। बहुमुक्खा जंतवो। मंसार में जीव बहुत ही दुःखी है। सत्ता काहि माणषा। मनुष्य काम-भोगों में आसक्त हैं। अबलेण यहं गम्छति सरीरेण पभंगुरेण । इस निबंल शरीर को सुख देने के लिए अन्य प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं। अट्ट से बहुदुक्खे इति बाले पकुवति । वेदना से पीड़ित वह मनुष्य दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञाती प्राणियों को कष्ट देता है। एते रोगे वह णचा आतुरा परिताबए । इन अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए अन्य प्राणियों को) परिताप देते हैं। णालं पास । असं सवेतेहि । तू देख ! ये (प्राणिपातक-चिकित्साविधियाँ कर्मोदय जनित रोगों का शमन करने में पयप्ति (समर्थ नहीं है अतः इनसे तुमको दूर रहना चाहिए। एतं रास मुणी ! महन्मया णातिवावेज कंचयं । मुनिवर । तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भय-आ. सु. १, अ... उ. १, सु. १५०-१५० रूप है। अत: किसी भी प्राणी का अतिपात-बध मत कर । छविहे विवादे विवाद-शास्त्रार्थ के छह प्रकार२६५. शिवहे विवाने पाणसे, तं जहा २६५. विवाद-शास्त्रार्थ छह प्रकार का कहा गया है, जैसे१. भोसकता (१) वादी के तर्क का उत्तर ध्यान में न आने पर समय बिताने के लिए प्रकृत विषय से हट जाना । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६५-२६८ ww २. उसक्कत्ता, २. सोम ४. डिम ५. मइसा, -ठाणं. अ. ६, सु. ५१२ जे मिक्स परंपरा विपरिणतं वा सा तं सेवमाने आवक चाम्मासयं परिहाराचं अनुवाद। - नि. उ. ११, सु. ७०-७१ (६४) अल्पउत्थियागं चउरो वाया२६७. सारि समोसरणाणिमाणि पावाया जाई पुढो वयंति। Parti अरियं विजयंति तयं. अण्णाणमाहं थमेव ॥ - सूय. सु. १, अ. १२. ग. १ किरियावा सडा२६८. ०-से किं तं किरिया बाई यावि भवति ? उ०- किरिया वाई, भवति । सं जहाहिं बाई, आहिय पण्णे, आहिय- बिट्ठी, विपरीत प्ररूपणा का प्रायश्चित्त ६. विवरीयपरूयणस्स पार्याच्छ- २६६. जे मिव अध्याणं विप्परिया सेइ विपरिपातं वा साइज्जइ । २६६. जो भिक्षु अपनी विपरीत धारणा बनाता है, बनवाता है, अनुमोदन करता है। जो भिक्षु दूसरे की विपरीत धारणा बनाता है, बनवाता है, दाने वाले का अनुमोदन करता है। सम्माबाई नियाई, संति पर लोगवादी, पिरलो अस्थि मापा, अरिव विश अस्थि अरिहंता, अस्थि धनकवट्टी, अस्यि बलदेवर, अस्थि वासुदेवा, अस्थि सुकष्ट-तुकडा म्याि सुधिया कम्मा सुचिमा फलामति या कम्मा चिया फला भति सफले कल्लाण-पाद, पति जीवा राजन देवा सिद्धी । दर्शनाurr १६७ (२) शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होते ही वादी को पराजित करने के लिए आगे आना । (३) विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बना सेना, अथवा प्रतिवादी के पक्ष का एक बार समर्थन कर उसे अपने अनुकूल कर लेना । (४) शास्त्रार्थ की पूर्णता तैयारी होने पर विवादाध्यक्ष तथा प्रतिपक्षी की उपेक्षा कर देना । (५) विवादाध्यक्ष की सेवा कर उसे अपने पक्ष में कर लेना । (5) निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत कर लेना । विपरीत प्ररूपणा का प्रायश्चित - वह भिक्षु गुरु चातुर्मासिक परिहार प्रायश्चित स्थान का पात्र होता है । अन्यतीथियों के चार वाद २६७. परतीर्थिक मतवादी ( प्राजादुक) जिन्हें पृथक् पृथक् बतलाते हैं में चार समवसरण -- वाद या सिद्धान्त ये हैं- क्रियावाद, अक्रियावाद, तीसरा विनयवाद, और चोया अज्ञानवाद | क्रियावादियों की घड़ा- २६८. प्र० - भगवन् ! क्रियावादी कौन है ? उ०- जो अक्रियावादी से विपरीत आचरण करता है। यथा- जो आस्तिकवादी है, आस्तिकबुद्धि है, मास्तिक दृष्टि है, सम्यवादी है, नित्य (मोक्ष) वादी है, परलोकवादी है, जो यह मानता है कि इह लोक है, पर लोक है, माता है, पिता है, अरिहंत है, चक्रवर्ती हैं, बलदेव हैं, वासुदेव हैं, मुक्त और दुष्कृत रूम का फतवृति-विशेष होता है आचरित धर्म गुनफल देते हैं और उस पर कर्म अशुभ फल देते हैं, कल्याण (पुष्म) और पाप फल-सहित हैं, अर्थात् अपना फल देते हैं, जीव परलोक में जाते भी है और आते भी है. नारकी है-या- (तिबंध है, मनुष्य है) देव हैं और सिद्धि (मुक्ति) है। इस प्रकार मानने वाला आस्तिन कियावादी कहलाता है । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] घरगानुयोग एकान्त कियावादी सूत्र २६८-२७० से एवं वादी एवं पन्ने एवं बिट्ठि-छंव-रागभिनिव? यावि इस प्रकार का आस्तिकवादी, आस्तिक प्रश, और आस्तिक भवा। दृष्टि (कदाचित् चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से) स्वच्छन्द से भवह महिन्छो जाव-उत्सरगामिणेरहए सुमकपक्खिए, रागाभिनिविष्ट महान् इच्छाओं वाला भी होता है, और वैमी आगमेस्तामं सुलमयोहिए यावि भवइ । दशा में यदि नरकाण का बन्ध कर लेता है तो वह उत्तर दिशावर्ता नरकों में उत्पन्न होता है, वह शुक्लपाक्षिक होता है और आगामीकाल में सुलभबोधि होता है,-यावत्-सुगतियों को प्राप्त करता हुआ अन्त में मोक्षगामी होता है। सेतं किरिया-धानी। --दसा. द. ६,.१५-१६ यह क्रियावादी है। एगत किरियावाई एकान्त क्रियावादी२६६. महावरं पुरषखायं किरियावारिसणं । २६६. दूसरा पूर्वोक्तः (एकान्त) क्रियावादिवों का दर्शन है। कर्म कम्मचितायणढाणं संसारपरिषड्ढणं ॥ (कर्म-बन्धन) की चिन्ता से रहित (उन एकान्त क्रियावादियों का दर्शन) (जन्म-मरण रूप) संसार की या दुःख समूह की वृद्धि करने वाला है। जाणं कारण गाउट्टी अनुहो । हिंसती । जो व्यक्ति जानता हुआ मन से हिंसा करता है, किन्तु शरीर पुट्ठो संवेदेति पर अवियत्तं खु सावजं ॥ से छेदन भेदनादि क्रिया रूप हिंसा नहीं करता एवं जो अनजान में (शरीर से) हिंसा कर देता है, वह केवल स्पर्शमात्र से उसका (कर्मबन्ध का) फल भोगता है। वस्तुत: वह सावध (पाप) कर्म अध्यक्त-अस्पष्ट-अप्रकट होता है। संतिमे तओ आरणा अहि कीरति पावगं । ये तीन (कमों के) आदान (ग्रहण--बन्ध के कारण) हैं, जिनसे अमिकम्माय पेसाय मणमा अजाणिया ॥ पाप (पापकर्मबन्ध) किया जाता है—(१) किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं अभिक्रम-आक्रमण करना. (२) प्राणि वध के लिए नौकर आदि को भेजना या प्रेरित करना, और (३) मन से अनुज्ञा-अनुमोदना देना। एए उ सो आयणा जेहि कोरति पावगं । ये ही तीन आदान-कर्म के कारण हैं, जिनसे पापकर्म एवं भावविसोहिए णिष्वाणमभिगच्छती ।। किया जाता है । वहाँ (पाप कर्म से) भावों की विशुद्धि होने से कर्मबन्ध नहीं, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुतं पि हा समारंभ माहारट्टमसंजए। (किसी दुष्काल आदि विपत्ति के समय) कोई असंयत गृहस्थ भंजमामो य मेधावी काभुगा नोवलिपति ।। पिता आहार के लिए पुत्र को भी मारकर भोजन करे तो वह कर्मबन्ध नहीं करता । तथा मेधावी साधु भी निस्पृहभाव से उस आहार मांस का सेवन करता हुआ कर्म से लिप्त नहीं होता। मणसा पउस्सति चित्तं तेलिन विग्जती। जो लोग मन से (किसी प्राणी पर) Aष करते हैं, उनका अगवाज अतह तेसि ण ते संचारिणी ।। चित्त विशुद्धियुक्त नहीं है तथा उनके (उस) कृत्य को निरबद्य -सूय. सु. १, भ. १. उ. २, मा. २४-२६ (निष्पाप) कहना अतथ्य-मिथ्या है तथा वे लोग संवर के साथ विचरण करने वाले नहीं है। एगंत किरियावायरस सम्म किरियावायस परूवगा- एकान्त क्रियावाद और सम्यक् क्रियावाद प्ररूपक२७०. ते एवमक्खंति समेच लोभ, २७०. वे श्रमण (शाक्यभिक्षु) और माहन (ब्राह्मण) अपने-अपने तहा तहा समणा माहणा य । अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर उस-उस क्रिया के अनुसयक गण्णकडं च दुक्खे, सार फल प्राप्त होना बताते हैं। आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ तथा (वे यह भी कहते हैं कि) दुःख स्वयंकृत (अपना ही किया हुआ) होता है, अन्यकृत नहीं। परन्तु तीर्थंकरों ने विद्या (ज्ञान) और चरण (चारित्र-क्रिया) से मोक्ष कहा हैं। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७० एकान्तक्रियावाद सम्यक् च्यिावाद प्ररूपक दर्शनाचार AMM' "- - IAlasan- -- - -india --- -L- codi से पण लोगसिंह पायगा दु. इस लोक में तीर्थकर आदि नेत्र के समान है, सथा दे मागाऽणुसासंति हितं पयाणे । (शासन) नायक (धर्म नेता या प्रधान) है। वे प्रजाओं के लिए तहा तहा सासयमाहू लोए, हितकर शानादि रूप मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं। सी या पाच ! सपगाया। इस चतुर्दशरज्ज्वात्मक या पंचास्तिकायरूप लोक में जो-जो वस्तु जिस-जिस प्रकार से द्रव्याथिकनय की दृष्टि से शाश्वत है उसे उसी प्रकार से उन्होंने कही है। अथवा यह जीवनिकायरूप लोक (संसार) जिन-जिन मिथ्यात्व आदि कारणों से जैसे-जैसे शाश्वत (मुदृढ़या सुदीर्घ) होता है, वैसे-वैसे उन्होंने बताया है, अथवा जैसे-जैसे राग-द्वेष आदि या कर्म की मात्रा में अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे सासाराभिवृद्धि होती है, यह उन्होंने कहा है, जिस संसार में (नारफ, तियंन्च, मनुष्य और देव के रूप में) प्राणिगण निवास करते हैं। जे रवसा वा जमलोड्या वा, ___ जो राक्षस हैं, अथवा यमलोकवासी (नारक) है तथा जो जे वा सुरा गंधल्या य काया । चारों निकाय के देव हैं, या जो देव गन्धर्व है, और पृथ्वीकाय आगासगामी व पुरोसिया य, आदि षड्जीवनिकाय के हैं तथा जो आकाशगामी हैं एवं जो पुणो पुणो विपरियासुर्वेति ॥ पृथ्वी पर रहते हैं, वे सब (अपने किये हुए कर्मों के फलस्वरूप) बार-बार विविध रूपों में (विभिन्न गतियों से) परिक्षमण करते रहते हैं। जमा ओहं सलिलं अपारगं, तीर्थंकरों गणधरों आदि ने जिस संसार सागर को स्वयम्भूजाणाहि णं भवगहणं बुमोक्छ । रमण समुद्र के जल की तरह अपार (दुस्तर) कहा है, उस गहन संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से छुटकारा पाया जा सके, ऐसा) जानो। जंसी विसमा विलयंगणाहिं, जिस संसार में विषयों और अंगनाओं में आसक्त जीव दोनों दुहतो वि लोयं अणुसंघरति ॥ ही प्रकार से (स्थावर और जंगमरूप) अथवा आकाशाधित एवं -सूय. सु. १, अ. १२, गा. ११-१४ पृथ्वी-आथित रूप से अथवा वेषमात्र से प्रवज्याधारी होने और अविरति के कारण, एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते रहते हैं। ण कम्मुणा कम्म पति वाला, ____ अज्ञानी जीव (पापयुक्त) कर्म करके अपने कर्मों का क्षय नहीं ___अकम्मुणा उ कम्म जति धीरा । कर सकते। अकर्म के द्वारा (आथयों-कर्म के आगमन को मेधाविणो लोभमरावतीता, रोक कर, अन्ततः शैलेशी अवस्था में) धीर (महासत्व) साधक संतोसियो गो पकति पाय ।। कर्म का क्षय करते हैं । मेधावी साधक लोभमय (परिग्रह) कार्यों से अतीत (दूर) होते हैं, वे सन्तोषी होकर पापकर्म नहीं करते। ते तीत - उप्पण्ण - मणागताई, वे वीतराग पुरुष प्राणिलोक (पंचास्तिकायात्मक वा प्राणिलोगस्स जाणंति तहागताई। समूह रूप लोक) के भूत, वर्तमान एवं भविष्य (के सुख-दुःखादि तारो अण्णेस अगण्णणेया. वृत्तान्तों) को यथार्थ रूप में जानते हैं। वे दूसरे जीवों के नेता बुद्धा हु ते अंतकडा भवति ।। हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं है । वे ज्ञानी पुरुष (स्वयंबुद्ध, तीर्थंकर, गणधर आदि) संसार (जन्म-मरण) का अन्त कर देते हैं। तेणेव कुरवंति ण कारति, वे (प्रत्यक्षशानी या परोक्षज्ञानी तत्वज्ञ पुरुप) प्राणियों के भूतामिसंकाए [छमाणा। घात की आशंका (डर) से पाप-कर्म से घृणा (अरुचि) करते हुए स्वयं हिंसादि पापकर्म नहीं करते, न ही दूसरे से पाप (हिंसादि) कर्म कराते हैं। A LAKmic Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] सरणानुयोग सम्यक्रियावाद के प्रतिपावक और अनुगामी सूत्र २७०-२७१ सया जता विपणमंति धीरा, बे धीर पुरुष सदैव संयत (पापकर्म से निवृत्त) रहते हुए विष्णत्तिथीरा य भवंति ऐये ॥ संयमानुष्ठान की ओर झुके रहते हैं। परन्तु कई अन्वदर्शनी ज्ञान -सूव. सु. १, अ. १२, गा. १५-१७ (विज्ञप्ति) मात्र से वीर बनते हैं, क्रिया से नहीं। सम्मकिरियावायस्स पडिवायका पालगाय सम्यक् क्रियावाद के प्रतिपादक और अनुगामी२७१. व्हरे य पाणे बुझे य पाणे, २७१. इस समस्त लोक में छोटे-छोटे (कुन्थु आदि) प्राणो भी है से आततो पासति सवलोए। और बड़े-बड़े (स्थूल शरीर वाले हाथी आदि) प्राणी भी हैं। अवहति लोगमिणं महत, सम्यवादी सुसाधु उन्हें अपनी आत्मा के समान देखता-जानता दुख ऽप्पमसेसु परिवएग्जा ।। है। "यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विशाल (महान्) प्राणिलोक कनेवश दुःख रूप है," इस प्रकार की उत्प्रेक्षा (अनुप्रेक्षा- विचारणा) करता हुआ वह तत्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त ग़ाधुओं से दीक्षा ग्रहण करे---प्रदाजित हो। जे आसतो परतो यावि पवा, जो सम्यक् क्रियावादी साधक स्वयं अथवा दूसरे (तीर्थंकर, अलमापणो होति अतं परेसि । गणधर आदि) से जीवादि पदार्थों को जानकर अन्य जिज्ञासुओं तं जोतिभूतं सताऽऽवसेज्जा, या मुमुक्षुओं को उपदेश देता है, जो अपना या दूसरों का उद्धार __ मे पाउकुज्जा अणुवीयि धम्म ॥ या रक्षण करने में समर्थ है, जो जीवों की कम परिणति को अचवा सद्धर्म (धुन-वारित्ररूप धर्म या क्षमादिदविध श्रमण धर्म एवं धायक धर्म) का विचार करके (तदनुरूप) धर्म को प्रकट करता है, उस ज्योति: स्वरूप (तेजस्वी) मुनि के सानिध्य में सदा निवास करना चाहिए । असाण जो जाति जो य लोग, ___ जो आत्मा को जानता है, जो लोक को तथा जीवों की आगई च जो जाणइ णागई च। गति और अनापति (सिजि) को जानता है, इसी तरह शाश्वत जो सासयं जाण असासयं च, (मोक्ष) और अशाश्वत (संमार) को तश्रा जन्म-मरण एवं प्राणियों जाती मरणं च जणोमवातं ।। के नाना गतियों में गमन को जानता है। नया अधोलोक (मक अहो वि सत्ताप विउदृणं च, आदि) में भी जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है, यह जो जो आसवं जाणति संवरंच। जानता है, एवं जो आश्रव (कमों के आगमन) और मंवर (कर्मों दुक्खं च जो जाणति निम्तरंच, के निरोध) को जानता है तथा जो दुःख (बन्ध) और निर्जरा को सो भासितुरिति किरियवाद ।। जानता है, वही सम्यक क्रियावादी साधक क्रियाबाद को सम्या प्रकार से बता सकता है। सद्देसु न्वेसु असम्ममाणे, सम्यग्बादी साधु मनोज शब्दों और रूपों में आसक्त न हो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । न ही अमनोज्ञ गन्ध और रस के प्रति द्वेष करे तथा वह णो जीवियं णो मारणाभिकखी, (अमयमी जीवन) जीने की आकांक्षा न करे, और न ही (परीपहों आवाणगुग्ने बसणविमुक्के । और उपसर्गों से पीड़ित होने पर) मृत्यु की इच्छा करे। किन्तु -सूय. सु. १, अ. १२, गा. १८-२२ संयम (आदान) से सुरक्षित (गुप्त) और माया से विमुक्त होकर अकिरियावाइ सरूवं-- अक्रियावादी का स्वरूप२७२. अकिरियावाइ-वग्णणं, तं जहा-अकिरिया गावि भवइ २७२. जो अक्रियावादी है, अर्थात् जीवादि पदार्थों के अस्तित्व नाहिय-वाई, नाहिय-पणे, नाहिय-विट्ठी, का अपलाप करता है, नास्तिकवादी है, नास्तिक बुद्धिवाला है। नास्तिक दृष्टि रखता है। जो सम्मवाई, जो णितिपथारी, गं संति परलोमवाई, ___ जो सम्पबादी नहीं है, नित्यवादी नहीं है और क्षणिकवादी है, जो परलोकवादी नहीं है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ हि लोए परिथ पर लोए, पत्थि माया, णत्थि पिया, मयि अरिहंता, पश्चिमकवट्टी वारिया या पत्रुति-विसेसो कम्मा सुवि गोवा सम्माि अफले फलाम पावए णो पचायति जीवा निरयन तिरिचगई मनुस्मराई, बेदराई, से एवं बारो एवं बने एवं बिट्ठी एवं छंद-रागामिनिवि यावि भवई । सेभवति महिले महारं महार अम्मिए अम्माजुए अहम्मसेवी, अहम्मिटु अहम्मलाइ अहम्मरागी अहम्पलोई, अहम्मजीवों, अहम्म-पलज्जणे, ब्रहम्म सीलसारे अहमेव विकिपेमाने विद । "हण, छिव. भिव" विकसए · पारी, सास्सिए उपगाया-निवड-कूड कला-सं P तुस्सीले कुपरिए, दुच्चरिए, सुरणणेए, दुब्बा दुप्पडिया शुभ कर्म और पापकर्म कमरहित है, जी पर सिद्धि लोक में जाकर उत्पन्न नहीं होते, नरक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार बतियाँ नहीं हैं, सिद्धि मुक्ति नहीं है। निमोनिए, निरगुणे, निम्बेरे, निपाणीमह बरसे. असाहू | दर्शनाचार [ १७१ जो कहता है कि इहलोक नहीं है परलोक नहीं है, माता नहीं है, पता नहीं है, नहीं है, नहीं है, बलदेव नहीं है, वासुदेव नहीं है, नरक नहीं है. नारकी नहीं है। सुकृत (पुष्प) और दुष्कृत (पाप) धर्मों का पति विशे नहीं है, सूची ( सम्पन् प्रकार से आचरित) कर्म सूची (शुभ) फल नहीं देते हैं, दुचीर्ण ( कुत्सित प्रकार से आचरित) कर्म, दुपचीर्ण (अशुभ) फल नहीं देते हैं, जो इस प्रकार कहने वाला है, इस प्रकार की प्रशा (बुद्धि) वाला है, इस प्रकार की दृष्टिवाला है, और जो इस प्रकार के छन्द (इच्छा को और राग (तीव्र अभिनिवेश या कदाग्रह) से अभिनिविष्ट (राय) है, वह मिध्यादृष्टि जीन है। ऐसा मिध्यादृष्टि जीव महा इच्छा माना महारम्भी, महापरिग्रही, अधार्मिक, अधर्मानुगामी, अधर्मसेवी, अर्घामिष्य, अधर्म ख्यातिवाला, अधर्मानुरागी, अधर्मदृष्टा, अधमं जोवी, अधर्म में अनुरक्त रहने वाला, अधार्मिक शील स्वभाववाला, अधार्मिक जागरण और अधर्म से ही आजीविका करता हुआ विचरता है। ( मिध्यादृष्टिनास्तिक आजीविका के लिए दूसरों से ) कहता है— जीवों को मारी उनके अंगों का छेदन करो, सिर-पेट आदि का भेदन करो, काटो, (इसका अन्त करो, यह स्वयं जीवों का अन्त करता है) उसके हाथ रक्त से रंगे रहते हैं, वह चण्ड, रौद्र और क्षुद्र होता है, असमीक्षित (बिना बिचारे) कार्य करता है, साहसिक होता है, लोगों से उस्को (रिदम) लेता है, प्रबंधन, माया, निकृति (छल) कूट, कपट और सातिसम्प्रयोग ( मामा-जाल रचने) में 'बहुत कुशल होता है यह होता है, दुष्टजनों से परिचय रखा है, पुर रित होता है, दुनेय (दाभावी होता है हिंसा प्रधान व्रतों को धारण करता है, दुष्प्रत्यानन्द (दुष्कृत्यों को करने और सुनने से मानन्दित) होता है अथवा उपकारी के साथ कृतघ्नता करके आनन्द मानता है। और - दस द. ६, सु. ३-५ होता है और करता है । शील-रहित होता है, पत रहित होता है, प्रत्यास्थान (त्याग) नहीं करता है, वर्षात् बानक पतों से रहत असाधु है, अर्थात् साधुवतों का पालन नहीं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] चरणानुयोग अकिरिवाणं समिवखा २७३...लवावसंकीय अनागतेहि, फिरियामा किरिया । सम्मिसभायं सगिरा गिहीते, से मुम्बई होति अणावाची इसमे सेवत अ ग विवाणि जयादिवत्ता बहषो मणमा भमंति पाहन्यो उदेति गत्यमेति अकिरियाता । ॥ संसारमणोवतगं ॥ गरिमा बढती हाता सलिलण संबंति ण वंति वायर, यि कवि सोए । हा सह जोतिब रुवाई गो पत्सति होणतेते । संतंपि ते एवमफिरियआता, किरियं ण पसंति निपण्णा स केई निमित्त तहिया पति संघहरं मुषिषं लक् निमित्तं देहं उप्पादयं च । अट्ठ गमेत बषे अहिंसा, नोति जाति भागलाई || सेवा महिमा सिचि सं विपडिएति गाणं । आहंसु विज्जालिमोनखमेव ॥ मध्यापारियों की समीक्षा . . . . १२.४-१० सूत्र २७३ अक्रियावादियों की समीक्षा २७३. (उत्तरार्द्ध) तथालय वानि कर्मबन्ध को शंका करने वाले अक्रियावादी भविष्य और भूतकाल के क्षनों के साथ वर्तमान काल का कोई सम्बन्ध ( संगति) न होने से क्रिया (और तज्जनित कर्मबन्ध) का निषेध करते हैं। वे (पूर्वोक्तावादी) अपनी वाणी से स्वीकार किये हुए पदार्थों का निषेध करते हुए मिश्रपक्ष को ( पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों से मिश्रित विरुद्धपक्ष को ) स्वीकार करते हैं । वे स्याद्वादियों के कथन का अनुवाद करने ( दोहराने) में श्री असगर्म होकर अति मूक हो जाते हैं। वे इस पर मत को द्विपक्ष-प्रतिपक्ष युक्त तथा स्वमत को प्रतिपक्ष रहित बताते हैं एवं स्याद्वादियों के हेतु वचनों को खण्डन करने के लिए के छलयुक्त वचन एवं कर्म (व्यवहार) का प्रयोग करते हैं। वस्तुतत्व को न समझने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन (शास्त्रवन प्रस्तुत करते हैं। जिन शास्त्रों का आश्रय लेकर बहुत से मनुष्य अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं । शुन्यतावादी (यावादी) कहते हैं कि न तो सूर्य उदम होता है, और न ही अस्त होता है तथा चन्द्रमा ( भी ) न को बढ़ता है और न घटता है, एवं नदी आदि के बस बहते नहीं और न ही हवाएं चलती हैं। यह सारा लोक अर्थशून्य (वन्ध्य या मिथ्या ) एवं नियत ( निश्चित अभाव ) रूप है । जैसे अन्य मनुष्य किसी ज्योति (दीपक आदि के प्रकाम) के साथ रहने पर भी नेत्रहीन होने से देख नहीं पाता, इसी तरह जिनकी प्रज्ञा ज्ञानावरण के कारण रुकी हुई है, वे बुद्धिहीन अभिमानादी सम्मुख विद्यमान किया को भी नहीं देखते। जयतु में बहुत से लोग ज्योतिषशास्त्र (संवत्सर), स्वतशास्त्र, लक्षणशास्त्र, निमित्तशास्त्र शरीर पर प्रादुर्भूत-तिल-भष आदि चिन्हों का फल बताने वाला शास्त्र तथा उल्कापात दिग्दाह, आदि का फल बताने वाला शास्त्र, इन अष्टांग (आठ अंगों वाले) निमित्त शास्त्रों को पढ़कर भविष्य की बातों को जान लेते हैं । कई निमित्त तो सत्य (तथ्य ) होते हैं और किन्ही- किन्हीं निमित्तवादियों का वह शान विपरीत (अर्थ) होता है। मह देखकर विद्या का अध्ययन न करते हुए अक्रियावादी विद्या से परिमुक्त होने मान देने को ही कल्याणकारक कहते हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्रियावादी का मिण्यार प्रयोग नाबार ११ अकिरिवाइस्स मिच्छावंडापओगो अक्रियावादी का मिथ्यादण्ड प्रयोग -- २४. (क) 1. सध्यानो पाणाहवायाओ अप्पडिविरए जावज्जो- २७४. (क) वह यावज्जीवन सर्व प्रकार के प्राणातिपात (जीववाए, घात) से अप्रतिविरत रहता है अर्थात् सभी प्रकार की जीव हिंसा करता है, २. सध्यायो मुसाबायाओ अप्पडिदिरए भावज्जीवाए, २. यावज्जीवन सर्वप्रकार के मृषावाद से अप्रतिदिरत रहता है, ३. सम्वामी अविनाराणाओ अप्पडिविरए जायजी- ३. यावज्जीवन सर्वप्रकार के अदत्तादान से अप्रतिविरत रहता है, ४. सम्याओ मेंडगाओ अपडिविरए जावज्जीयाए, ४. यावज्जीवन सर्वप्रकार के मयन-सेवन से अप्रतिविरत जाए, ५. सम्याओ परिगहामो अपडिविरए भावज्जीवाए, ६. सम्वाओ कोहाओ अप्पडिविरए जाकम्जीवाए, ७. सव्वाओ माणाओ अप्पडिविरए जावज्जीवाए, ८. सावाओ मायामओ अपरिविरए जावज्जीयाए, १. सम्याओ सोमाभो अप्पडिविरए जावज्जीवाए, १.. सखाओ पेक्जाओ अच्पतिविरए भावज्जीवाए, ५. यावज्जीवन सर्वप्रकार के परिग्रह से अप्रतिविरत रहता है अर्थात् त्याग नहीं करता है, ६. यावज्जीवन सर्वश्कार के कोध से अप्रतिविरत रहता है, ७. यावज्जीवन सर्वप्रकार के मान से अप्रतिविरत रहता है, ८. यावज्जीवन सर्वप्रकार के माया से अप्रतिविरत रहता है, ९. यावज्जीवन सर्वप्रकार के लोभ से अप्रतिविरत रहता है, १०. यावज्जीवन सर्वप्रकार के प्रेय (राग) से अप्रतिविरत रहता है, ११. यावज्जीवन सर्वप्रकार के देष से अप्रतिविरत रहता है, १२. यावज्जीवन सर्वप्रकार के कलह से मप्रतिविरत ११. सल्वाओ दोसाओ अप्पडिविरए भायज्जीवाए, १२. सच्चाओ कलहाओ अपरिषिरए जायज्जीवाए, १३. सम्वाओ अम्मक्खाणाओ अपडिविरए जाधज्जीयाए, १३. पावज्जीवन सर्वप्रकार के अभ्याख्यान से अप्रतिविरत रहता है, १४. सव्वानो पिसुण्गाओ अपरिधिरए जावज्जीवाए, १४. यावज्जीवन सर्वप्रकार के पंशुन्य से (चुगली करने से) अप्रतिविरत रहता है, १५. सन्चाओ परपरिवायाओ अपरिखिरए जावजीवाए, १५. यावज्जीवन सर्वप्रकार के पर-परिवाद (लोगों का पीठ पीछे अपवाद) करने से अप्रतिविरत रहता है, १६. सम्बाओ अरह रह अपरिविरए जावज्जोवाए, १६. यावज्जीवन सर्वप्रकार की रति (इष्ट पदार्थों के मिलने पर प्रसन्नता) और अरति (इष्ट पदार्थों के नहीं मिलने पर अप्रसन्नता) से अप्रतिविरत रहता है, १७. सव्वाओ मायामोसाओ अप्पडिषिरए जावज्जीवाए, १७. यावज्जीवन सर्वप्रकार की माया-मृषा (छलपूर्वक असत्य भाषण करने और वेष-भूषा बदलकर दूसरों को ठगने से) अप्रतिविरत रहता है, १८. सम्बाओ मिश्छादसणसल्लाओ अपरिषिरए जाब. १८. यावज्जीवन सर्वप्रकार के मिथ्यादर्शन शल्य से अप्रतिज्जीवाए। विरत रहता है अर्थात् जन्म भर उक्त पाप-स्थानों का सेवन -दसा.द. ६, सु. ६ करता रहता है। (a) सध्वामओ कसाय-चंतकटु-हाण-महा-विलेवण-सह- (ख) वह नास्तिक मिष्यावृष्टि सर्व प्रकार के कषाय रंग के फरिस - रस - रुव - संघमल्लालंकारामो अप्पडिगिरए वस्त्र, दन्तकाष्ठ (दातुन-दन्तधाधन) स्नान, मर्दन, विलेपन, शम्द, जामजीबाए, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला और अलंकारों (आभूषणों) से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] घरणयोग विवाद कर दिया प्रयोग सहवाओ ---लि-सोपा संदभाणिया सणास पण जाणवाहण मोयण पबित्थर विहिनो अविर जीवा • साओ आवहत्य-गो महिल-गवेल-मे बाद दासीअविर जीए साओ कम-विकासासरूपसंहाराओ अव्यतिरिए जावज्जोवाए सदवाओ हिरण्या सुयण्ण घण धनमणि- मोत्तिय संखविडिवर जावजीबाए सध्या तुकूमाणाओ अप्पतिविरए जायजोगाए आरम्भ-समारंभाओ अदिविए जावनी वाए; साओ पण पायणामी अपविविए जावोवाए राज्याकरण-करायणाओ अविर जीवा सम्मान पिट्टणाओ जताया हु परिकिसान अपडिरिए जावज्जीयाए; जे पावणे हत्यारा सावज्जा नबोहिया कम्मा पर पाण-परियावण कडा कज्जति ततो वि य अपडिविरए जावजीबाए। सूत्र २७४ वह सर्वप्रकार के शकट, रथ, यान, युग, गिल्ली, दिल्ली, शिविका, स्यन्दमानिका, शयन्दासान, यात, बाहन, भोजन और प्रविष्टर विधि (गृह-सम्बन्धी वस्त्र - पात्रादि) से यावज्जीवन प्रतिविरत रहता है। (अर्थात् सभी प्रकार के पंडियों के विषय सेवन में अति आसक्त रहता है, सभी प्रकार की सवारियों का उपभोग करता है और नाना प्रकार के गृह-सम्बन्धी वस्त्र, आभरण, भोजनादि का संग्रह करता रहता है ।) वह मिध्यादृष्टि सर्व हस्ती (गाव) ह (भैंस पाड़ा), गबेलक ( बकरा-बकरी), मेष ( भेड़- मेषा), दास, दासी और कर्मकर ( नौकर-चाकर आदि) पुरुष-समूह से यावज्जीवन रूपतिविरत रहता है। वह सर्व प्रकार के क्रय (खरीद) विक्रय (विकी) माषाभाष ( मासा, आधाणासा) संयवहार से जीवित रहता है। मह सर्व हिरण्य (चांदी) सुवर्ण, धन-धान्य, मणि-भौतिक, (ग) से विरत रहता है। मला मान हीनाधिका से बाबजीयन अतिविरत रहता है। के वह सर्व आरम्भ समारम्भ से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। यह सर्व प्रकार के पचन-पाचन से सावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। यह गई कार्यों के करने-कराने से जीवन अप्रतिविरत रहता है। यह सर्वप्रकार के कुटने-पीटने से सर्जन सान बन्ध और परिक्लेश से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है। या जितने भी उक्त प्रकार के साथ (पापयुक्त) अबोधिक ( मिथ्यात्ववर्धक ) और दूसरे जीवों के प्राणों को परितापाने वाले कर्म किये जाते है उनसे भी वह यावज्जीवन अविवरत रहता है। अर्थात् उक्त सभी प्रकार के कार्यों एवं आरम्भ समारम्भों में संलग्न रहता है । ( वह मिथ्यादृष्टि पापात्मा किस प्रकार से उक्त पाप-कार्यो के करने में लगा रहता है, इस बात को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७४ • अक्रियावादी का मिश्यादा प्रयोग बर्शनाचार १७५ - - - - ma से अहानामए के पुरिसे कलम-मतर-तिल-मूंग-मास- जैसे कोइ पुरुष कलम (धान्य), मसूर, तिल, मूंग, माष निष्फाव-कुलत्थ-आलिसवग-सेसीणा हरिमंथ जवजवा (उड़द) निष्पाव (बालोल, धान्यविशेष) कुलत्थ (कुलथी) आलिएवमाइएहि अयते करे मिरछा व पउंजद । सिंदक (चवला) सेतीणा (तुवर) हरिमन्थ (काला चना) जब जत्र (जवार) और इसी प्रकार के दूसरे धान्यों को बिना किसी यतना के (जीव-रक्षा के भाव बिना) क्रूरतापूर्वक उपमर्दन करता हुमा मिथ्यादण्ड प्रयोग करता है, अर्थात् उक्त धान्यों को जिस प्रकार खेत में लुनते, खलिहान में दलन-मलन करते, मूमल से उखली में कूटते, चक्की से दलते-पीसते और चूल्हे पर रांघते हुए निदेय व्यवहार करता है। एषामेव तहप्पगारे परिसजाए तित्तिर-वग-लायग- उसी प्रकार कोई पुरुष-विशेष तीतर, बटेर, लावा, कबूतर, कणेत-कपिजल-मिय-महिस-वाराहनगाह-गोह-कुम्मसरी- कपिजल (कुरज-एक पक्षि विशेष) मृग, भंसा, वराह (सूकर), सिचाविहि अयते करे मिच्छा दंड पउजड़। ग्राह (मगर), गोधा (गोह, गोहा), कठुआ और सर्प आदि -दसा. द. ६, सु. ७.६ निरपराध शणियों पर अयतना से करतापूर्वक मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है, अर्थात् इन जीवों के मारने में कोई पाप नहीं है, इस बुद्धि से उनका निर्दयतापूर्वक घात करता है। (ग) जावि य से बाहिरिया परिसा भवति, तं जहा- (ग) उस मिथ्यादृष्टि को जो बाहरी परिषद् होती है. जैसे दासे इ वा, पेसे दवा, भिलए दवा, भाहरूले था, दास (श्रीत किंकर) प्रेष्य (दत) भृतक (वेतन से काम करने कम्मफरे ६ वा, भोगपुरिसे इवा, वाला) भागिक (भागीदार कार्यकर्ता) कर्मकर (घरेलू काम करने तेसि पि य अण्णयरगंसि अहा-सहयंसि अबराहसि वाला) या भोग' पुस्प (जसके उपाजित धन का भोग करने सयमेव गहयं बड निवतैति । तं जहा बाला) आदि, उनके द्वारा अतिलघ गराध के हो जाने पर स्वयं ही भारी दण्ड देने की आज्ञा देता है। इम बडेह, धर्म मुव्ह, इमं तह, इमं तालेड, मं जैसे--(हे पुरुषो), इसे डण्डे आदि से पीटो, इसका शिर अंदुप-बंधर्ण करेह, इम नियम-यंधणं करेह, इमं हडि- मुंडा डालो, इसे तजित करो, इसे थप्पड़ लगाओ, इसके हायों बंधणं करेह, इमं चारग-वंधणं करेह, इमं निथल-जुपल- में हथकड़ी डालो, इसके पैरों में बेड़ी डालो, इसे खोडे में डालो, संकोडिय-मोधियं करेह, इमं हछिन्नयं करेह, इमं इसे कारागृह (जेल) में बन्द करो, इसके दोनों पैरों को सांक पाय-छिन्नयं करेह, हम कण-छिन्नयं करेह, इमं नक्क- से कसकर मोड़ दो, इसके हाथ काट दो, इसके पर काट दो, छिन्नयं करेह, इम सीसछत्रयं करेह, इमं मुख-छिन्नये इसके कान काट दो, इसकी नाक काट दो, इसके ओठ काट दो, करेह, इमं वेय छिन्नयं करेह, इमं छिन्नयं करेह, इमं इसका शिर काट दो, इसका मुख छिन्न-भिन्न कर दो, इसका हियउप्पाडियं करेह पुरुष-चिन्ह काट दो, इसका हृदय-विदारण करो। एवं नयण-बसण-बसण-वदण-जिम्म-उपाडियं करेह, हम इसी प्रकार इसके नेत्र, वृषण (अपएकोष) दशन (दति) उल्लंबियं करेह, इमं घासिय, इमं घोलियं, इमं सला. बदन (मुख) और जीभ को उखाड़ दो, इसे रस्सी से बांधकर इयं, इमं मूलाभिन्द, इम खारवत्तिय करेह, इमं दम- वृक्ष आदि पर लटका दो, इसे बांधकर भूमि पर घसीटो, इसका बत्तिय करेह, इमं सीह-पुक्छयं करेह, इस वसमपुछयं दही के समान मन्धन करो, इसे शूली पर चढ़ा दो, इसे त्रिशूल करेह, इमं दाग्गि-वयं करेह, हम काकणी मंस-खावियं से भेद दो, इसके शरीर को शस्त्रों से छिन्न-भिन्न कर उस पर करेह इमं भत्तपाण-निरमायं करेह इमें जावज्जीव- क्षार (नमक, सज्जी, मादि नारी वस्तु) भर दी, इसके घावों में बंधणं करेह, इस अनतरेणं असुभ-कुमारेषं मारेह। डाभ (तीक्ष्ण घास कास) चुभाओ, इसे सिंह की पूंछ से बांधकर छोड़ दो, इसे देषभ सांड की पूंछ से बांधकर छोड़ दो, इसे दावाग्नि में जला दो, इसके मांस के कौड़ी के समान टुकड़े बना कर काक-गिद्ध आदि को खिला दो, इसका खान-पान बन्द कर दो, इसे यावजीवन बन्धन में रखो, इसे किसी भी अन्य प्रकार .. ' . ' की कुमौत से मार डालो। - - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] घरणानुयोग अभियावाबी का मिथ्यावण्ड प्रयोग सूत्र २७४ जा वि पसा अग्मितरिया परिसा रवति, सं अहा- उस मिथ्यादुष्टि की जो आभ्यन्सर परिषद् होती है, जैसेमायावा, पिया या, भाया इवा, भगिणी इवा, माता, पिता, प्राता, भगिनी, भार्या (पली) पुत्री, स्नुषा मना इ बा, घ्या हवा, मुल्हा हवा तेसि पि य णं (पुत्रवधू) आदि. उनके द्वारा किसी छोटे से अपराध के होने पर अग्णयरंसि अहा सहयसि अवराहसि सयमेव गश्यं स्वयं ही भारी दण्ड देता है। निवसति, तं जहासीयोग-वियसि कार्य मोलिता भवा; जैसे-शीतकाल में अत्यन्त शीतल जल से भरे तालाब आदि में उसका शरीर डुबाता है । उसिणोषग-वियरेण कार्य ओसिविता पवह उष्णकाल में अत्यन्त उष्णजल उसके शरीर पर सिंचन करता है, अगणिकाएण कायं उडहिता मदद उनके शरीर को आग से जलाता है । जोशेण वा, वेतण था, नेसण था, कसेण वा, छिवासोए जोत (बैलों के गले में बाँधने के उपकरण) से, बेंत आदि से, वा, लयाए वा, पासाई उदालिसा भवइ, नेत्र (दही मथने की रस्सी) से, कशा (हण्टर चाबुक) से, छिवाड़ी (चिकनी चाबुक) से, या लता (गुर-बेल) से मार मारकर दोनों पाश्वभागों का चमड़ा उधेड़ देता है। पडेण था, अट्ठीण पा, मुट्ठीण घा, लेलुएग था, कवालेग अथवा डण्डे से, हड्डी से, मुट्ठी से, पत्थर के ढेले से और पा, कायं आउट्टिसा भवइ । कपाल (खप्पर) से उसके शरीर को कूटता-पीटता है। तहप्पगारे पुरिस-जाए संबसमाणे बुम्मणा भवति । इस प्रकार के पुरुषवर्ग के साथ रहने वाले मनुष्य दुर्मन तह पगारे पुरिस-जाए चिप्पयसमाणे सुमणा भवंति। (दुःखी) रहते हैं और इस प्रकार के पुरुषवर्ग से दूर रहने पर मनुष्य प्रसन्न रहते हैं। सहस्पगारे पुरिस-जाए, पंडमासो, बंडगुरुए, रंडपुरपणरे, इस प्रकार का पुरुषवर्ग सदा डण्डं को पार्श्वभाग में रखता है और किसी के अल्प अपराध के होने पर भी अधिक से अधिक दण्ड देने का विचार रखता है, तथा दण्ड देने को सदा उद्यत रहता है और डण्डे को ही आगे कर बात करता है। अहिए अस्स सोयसि, अहिए परति लोयंसि । - ऐसा मनुष्य इस लोक में भी अपना अहित-कारक है और परलोक में भी अपना अकल्याण करने वाला है। ते दुक्खेति, सोयंति, एवं मुरति, तिप्पंति, पिति उक्त प्रकार के मिध्यादृष्टि अक्रियावादी नास्तिक लोग परितप्पति, दुसरों को दुःखित करते हैं, शोक-संतप्त करते हैं, दुःख पहुँचाकर झुरित करते हैं, सताते हैं, पीड़ा पहुँचाते हैं, पीटते हैं और अनेक प्रकार से परिताप पहुँचाते हैं। ते दुपक्षण-सोयण-मुरण तिप्पण-पिट्टग-परितापण-वह- वह दूसरों को दुःख देने से, शोक उत्पन्न करने से, पुराने बंध-परिकिलेसाभो अप्पडिविरए। से, रुलाने से, पीटने से, परितापन से, वध से, बन्ध से माना -दस. द. ६, सु. ६-११ प्रकार के दुःख-सन्ताप पहुँवाता हुआ उनसे अप्रति विरत रहता है, अर्थात् सदा ही दूसरों को दुःख पहुँचाने में संलग्न रहता है। (घ) एषामेव से इस्पि-काम भोगेहि मुछिए, गिडे, गढिए, (घ) इसी प्रकार वह स्त्री सम्बन्धी काम-भोगों में मूच्छित, अनोवणे, गृद्ध, आसक्त और पंचेन्द्रियों के विषयों में निमग्न रहता है। -जाव-वासाइं पल-पंचमाई, छ उसमाणि वा अप्पतरो –यावत् - वह चार-पाँच वर्ष, या "ह-सात वर्ष, या आठवा मुज्जतरो वा कालं मुंजिता कामभोगाई, पसेवित्ता दस वर्ष या इससे अल्प या अधिक काल तक काम-भोगों को वेरायतणाई, संचिपिता बहुमं पाया कामाई, भोगकर वर-भाव के सभी स्थानों का सेवन कर और बहुत पाप-कर्मों का संचय कर, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७४ अत्रियावादी का मिथ्यादा प्रयोग वर्शनाचार [१७७ MORE ओसन्न संभार-कडेण कम्मुण्णा । से जहानामए- प्रायः स्वकृत कर्मों के भार से; जैसे, अयगोले दवा, सेलगोले हवा उवयंसि परिखते समागे लोहे का गोला या पत्थर का गोला जल में फेंका जाने पर उग-सलमहसिसा अहे धरणि-तले पहाणे भवा जल-तल का अतिक्रमण कर नीचे भूमि-तल में जा पैठता है, एषामेव सहप्पगारे पुरिसजाए वज्ज-बहुले, धुण्मा-बहुले, वैसे ही उक्त प्रकार का पुरुषवर्ग बनवत् पाप-बहुल, क्लेशपंक बटुले, वेर-बहुले बंभ-नियडि-साइ-बहुले, आसायणा- बहुल, पंक-बहुल, बैर-बहुल, दम्भ-निकृति-साति-बहुल, आशाबहुले, अयस-बहले, अधत्तिय बहुसे तना-बहुल, अयश-बहुल, अप्रतीति-बहुल होता हुआ, ओस्सण्णं तस पाण-घाती कालमासे झालं किन्चा घरणि- प्रायः स प्राणियों का पात करता हुओ कालमास में काल सलमयत्तित्ता अहे नरग-धरणितले पहाणे भवइ । इम भूमि-तल का अतिक्रमण कर नीचे नरक भूमि-तल में जाकर (मरण) करके प्रतिष्ठित हो जाता है। ते गंगरगा ये नरकअंतो बट्टा, बाहि चरंसा, अहे-खुरप्पसंठाग-संहिआ, भीतर से वृत्त (गोल) और बाहिर चतुरस् (चौकोण) हैं, निच्चंधकार-तमसा, नीचे झुरण (क्षुरा-उस्तरा) के आकार से संस्थित है, नित्य घोर अन्धकार से व्याप्त है, ववगय-गह-यव-सूर-णखस-जोस पहा, और चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इन ज्योतिषकों की प्रभा से रहित हैं, भेद वसा-मंस-बहिर पूय-पउल-चिक्खल - लिताणुलेवण- उन नरकों का भूमितल मेद-बसा (पी), माम, रुधिर, पुय तला, (विकृल रक्त पीत्र), पटल (समूह) सी कीचड़ से लिप्त-अति लिप्त है। असुइबिस्सा, परमवुम्मिगंधा, वे नरक मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थों से भरे हुए है, परम दुर्गन्धमय हैं, का उय-अगणि-वण्णाभा, कक्खाइ-फासा पुरहियासा। काली या कपोत वर्ण वाली अग्नि के वर्ग जैसी आभा वाले हैं, कर्कश स्पर्श वाले हैं, अतः उनका स्पर्श असह्य है, अमुमा नरगा। अभुभा नरएसु वेपणा । वे नरक अशुभ हैं अतः उन नरकों में वेदनाएँ भी अशुभ ही होती हैं। मो चेव ण णरएसु नेरइया महायति वा, पयलायति उन नरकों में नारकी न निद्रा ही ले सकते हैं और न ऊंच वा, मुईया रई वा, घिई था, मह वा उवलभति। ही सकते हैं। उन्हें स्मृति, रति, धृति और मति उपलम्ध नहीं होती है। से गं तत्थ वे नारकी उन नरकों मेंउज्जल, बिउलं पगाद, कक्कस, कडु, वंडं, दुक्खं उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, खण्ड, रौद्र दुःखकुग्ग, तिखं, निहवं पुरहियास नरएम रहया नरय- मय तीक्ष्ण, तीन दुःसह नरक-वेदनाओं का प्रतिसमय अनुभव मेयणं पच्च गुभवमाणा विहरति । करते हुए विचरते हैं। से जहानामए रुमसे सिया पठ्यया जाए, मूसमिछन्ने, जैसे पर्वत के अग्रभाग (शिखर) पर उत्पन्न वृक्ष मूल भाग अग्गे गहए, के काट दिये जाने पर उपरिम भाग के भारी होने से जओ निम्नं, जो दुग्गं, जो विसमं तो पबति । जहाँ निम्न (नीचा) स्थान है, जहाँ दुर्गम प्रवेश है और एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गम्भाओ गम्भ, जम्माओ जहाँ विषम स्थल है वहाँ गिरता है, इसी प्रकार उपयुक्त प्रकार जम्म, मारओ मार, बुक्खाओ दुषखं का मिश्वास्वी पोर पापी पुरुष वर्ग एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मरण से दूसरे मरण में, और एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़ता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७] चरणानुयोग एकान्त मानवादी सूत्र २७४-२७६ वाहिण-गामि पोरइए, काहपरिखए, आगमेस्साणं-जाब- वह दक्षिण-दिशा-स्थित घोर नरकों में जाता है, वह कृष्ण बुलाबीहिए यादि भवति । पाक्षिक नारकी आगामी काल में-यावत-दुर्लभबोधि वाला होता है। सेतं अकिरिया-वाईयावि भवा । उक्त प्रकार का जीव अत्रियावादी है। -दसा. द.६, सु. १२-१४ एगंतणाणवाई एकान्त ज्ञानवादी--- २७५. कल्लाणे पावए वा वि, २७५. यह व्यक्ति एकान्त कल्याणवान् (पुण्यवान्) है, और यह यवहारो ग विज्ञई। एकान्त पापी है, ऐसा व्यवहार नहीं होता, (तथापि) बालपण्डित बेरं तं न जाणंति. (सद-असद्-विवेक से रहित होते हुए भी स्वयं को पति मानने समणा बालपंचिया ॥ वाले) (शाक्य आदि) श्रमण (एकान्त पक्ष के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले), वर (कर्मबन्धन) नहीं जानते । असेसं अक्खयं वा वि, जगत् के अशेष (समस्त) पदार्थ अक्षय (एकान्त नित्य) है, सम्वनुक्खे ति वा पुणो। अथवा एकान्त अनित्य हैं, ऐसा कथन (प्ररूपण) नहीं करना बज्क्षा पाणा न बज्म त्ति, चाहिए, तथा सारा जगत् एकान्त रूप से दुःस्वमय है, ऐसा वचन इति वायं न नीसरे ॥ भी नहीं कहना चाहिए एवं अमुक प्राणी बध्य है, अमुक अवश्य है, ऐमा वचन भी साधु को (मुंह से) नहीं निकालना चाहिए । वीसंति समियाचारा, साधुतापूर्वक जीने वाले, (शास्त्रोक्त) सम्यम् आचार के भिक्षणो साहुजीवियो। परिपालक निर्दोष भिक्षाजीवी साधु दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए एए मिच्छोवजीवि ति, ऐसी दुष्टि नहीं रखनी चाहिए कि ये साधुगण कपट से जीविका इति बिढि न धारए ॥ (जीवननिर्वाह करते हैं। दमिखणाए पडिलंभो, ___ मेधावी (विवेकी) साधु को ऐसा (भविष्य) वन नहीं करना अस्थि नस्थिति वा पुणो। चाहिए कि दान का प्रतिलाभ अमुक से होता है, अमुक से नहीं म वियागरेम्स मेहावी, होता, अथवा तुम्हें आज मिक्षा-लाभ होगा या नहीं ? किन्तु संतिममा च व्हए। जिससे शान्ति की वृद्धि होती हो, ऐसा वचन कहना चाहिए। ...सूम. सु. २, अ. ५, गा. २६.३२ भणन्ता अकरेन्ता य, "ज्ञान से ही मोक्ष होता है"-जो ऐसा कहते हैं, पर उसके बन्धमोक्खपापिणो । लिए कोई क्रिया नहीं करते, वे केवल बन्ध और मोक्ष के सिद्धांत बायाविरिपमेण की स्थापना करने वाले है। वे केवल वाणी की वीरता से अपने समासान्ति अप्पयं ।। आपको आश्वासन देने वाले हैं। न चित्ता तायए मासा, विविध भाषाएँ प्राण नहीं होती। विद्या का अनुशासन भी कओ विजाणुसासगं । कहाँ त्राण देता है ? (जो इनको त्राण मानते हैं वे अपने आपको विसमा पावकम्मेहि पण्डित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य विविध प्रकार से पाप कर्मों वाला पंडियमाणिणो ॥ में डूबे रहते हैं। - उत्त. अ. ६, गा. ६-१० अण्णाणवायं-- अज्ञानवाद२७६. जविणो मिगा जहा संता परिताणेण वज्जिता । २७६. जैसे परित्राण-संरक्षण से रहित अत्यन्त शोन भागने वाले - असंकियाई संकति संकियाई असकियो । मृग शंका से रहित स्थानों में शंका करते हैं और शंका करने योग्य स्थानों में शंका नहीं करते। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमानवार वर्शनाचार (१४ परियाणियाणि संकता पासित्ताणि असंकिणो। अण्णाणसंविम्या संपतिती हि सहि ।। अह तं पम्वेज वा अहे यज्मस्स चा वए। मुंचेज्ज पथपासाओ तं तु मंदे ण देहती ॥ अहियप्पा हिवपणाणे विसमतेणुवापते । से बखे पयपरसेहि सत्य धायं नियच्छति ॥ एवं तु समणा एगे मिच्छट्ठिी अणारिया। असंकिताई संकति संकिताइं असंकिगो॥ धम्मपणा जा सा तं तु संर्फति मूदगा । आरंभाई न संति अवियत्ता अकोविया ॥ सवप्पगं विउक्कस्सं सम्वं पर्म बिगिया । अपत्तियं अकम्मसे एयम मिगे धुए। सुरक्षित-परिवाणित स्थानों को शंका-स्पद और पाश-बन्धनयुक्त स्थानों को शंकारहित मानते हए अज्ञान और भय से उद्विग्न वे (मृग) उन-(पाशयुक्तबन्धन वाले) स्थलों में ही जा पहुँचते हैं। यदि वह मृग उस बन्धन को लांघकर चला जाए, अथवा उसके नीचे होकर निकल जाए तो पैरों में पड़े हुए (उस) पाश बन्धन से छूट सकता है, किन्तु वह मूर्ख मृग तो उस (बन्धन) को देखता (ही) नहीं है। अहितात्मा-अपना ही अहित करने वाले अहितबुद्धि (प्रज्ञा) वाला वह मृग कूट-पाशादि (बन्धन) से युक्त विषम प्रदेश में पहुँचकर यही पद-बन्धन से बंध जाता है और (वहीं) वध को प्राप्त होता है। इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य थमण अशंकनीय-शंका के अयोग्य स्थानों में शंका करते हैं और शंकनीय-शका के योग्य स्थानों में निःशंक रहते हैं- शंका नहीं करती। वे मूह मिथ्याष्टि, अर्मप्रज्ञापना-धर्मप्ररूपणा में तो शंका करते हैं, (जबकि) आरम्भों हिंसायुक्त कार्यों में (सत्शास्त्रज्ञान से रहित है, इस कारण) पांका नहीं करते। सर्वात्मक - सबके अन्तःकरण में व्याप्त-सोभ, समस्त माया, विविध उत्कर्षरूप मान और अप्रत्ययरूप क्रोध को त्यागकर ही जीव अकर्माश (कर्म से सर्वचा) रहित होता है। किन्तु इस (सर्वज्ञ-भाषित) अर्थ (सदुपदेश' या सिद्धान्त अथवा सत्य) को मृग के समान (बेचारा) अज्ञानी जीव ठुकरा देता है। जो मिश्यादृष्टि अनायं पुरुष इस अर्थ (सिद्धान्त या सत्य) को नहीं जानते मृग की तरह पाश (वन्धन) में बद्ध वे (मिथ्यादृष्टि अज्ञानी) अनन्तवार पात–विनाश को प्राप्त करेंगेविनाश को ढूंहते हैं। कई ब्राह्मण (माहन) एवं श्रमण (मे) सभी अपना-अपना ज्ञान बघारते हैं. बतलाते हैं परन्तु समस्त लोक में जो प्राणी हैं, उन्हें भी (उनके विषय में भी) वे कुछ नहीं जानते। जैसे म्लेच्छ पुरुष अम्लेच्छ (आर्य) पुरुष के कथन (कहे हुए) का (सिर्फ) अनुवाद कर देता है। वह हेतु (उस कथन के कारण पा रहस्य) को विशेष नहीं जानता, किन्तु उसके द्वारा कहे हुए वक्तव्य के अनुसार ही (परमार्थशून्य) कह देता है। इसी तरह सम्यग्ज्ञानहीन (ब्राह्मण और श्रमण) अपना-अपना जान बघारते-कहते हुए भी (उसके) निश्चित अर्थ (परमार्थ) को नहीं जानते । वे (पूर्वोक्त) म्लेच्छों-अनार्यों की तरह सम्यक् बोधरहित हैं। जे एतं गाभिजाति मिन्धविट्ठो अणारिया। मिमा बा पाप्तबद्धा ते घायसंत गंतसो॥ मारणा समणा एगे सम्वे गाणं सयं बडे। सम्बलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किवणं । मिलन अमिलक्युस्स जहा ताणुभाप्तती। ण रे से विनागाति भासियं तऽणुभासतो ।। Ha.. .. .-- एवमण्णागिया नाणं वयंता विसयं सयं । पिछयत्वं ण जागति मिलक्ष्ण व अमोहिए। .. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] खरणानुयोग एकात भन्नामुवाब-समीक्षा सूत्र २७६-२७७ अण्णाणियाग बीमंसा अण्णाणे नो नियछती। अज्ञानियों-अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञानपक्ष में मीमांसाअपणो , पर णालं कुतो अण्णेऽसासि ?" पर्यालोचना करता युक्त (युक्तिसंगत) नहीं हो सकता। (जब) वे (अजानवादी) अपने आपको अनुशासन (स्वकीय शिक्षा) में रखने में समर्थ नहीं है, तब दूसरों को अनुशासित करने (शिक्षा देने) में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? वणे मूढे जहा जंतु मूखणेतागुगामिए। जैसे बन में दिशामूठ प्राणी दिशामूह नेता के पीछे चलता Jहओ वि अकोषिया तिवं सोपं णियग्छति ॥ है तो सन्मार्ग से अनभिज्ञ वे दोनों ही (कहीं खतरनाक स्थल में पहुँचकर) अवश्य तीव्र शोक में पड़ते हैं - असह्य दुःख पाते हैं -- वैसे ही अज्ञानवादी सम्यक् मार्ग के विषय में दिग्मूढ़ नेता के पीछे चलकर बाद में गहन शोक में पड़ जाते है। अंधो अंधं पहं पितो दूरमवाण गच्छती । ____ अन्धे मनुष्य को मार्ग पर ले जाता हुआ दूसरा अन्धा पुरुष आवजे उप्पहं जंतु अबुवा पंधाणमामिए । (जहां जाना है, वहाँ से) दूरवर्ती मार्ग पर चला जाता है, इसमें बह (अज्ञानान्ध) प्राणी या तो उत्पथ (उबड़-खाबड़ मार्ग) को पकड़ लेता है.--पहुँच जाता है, या फिर उस (नेता) के पीछे पीछे (अन्य मार्ग पर) चला जाता है। एवमेगे नियावट्ठी धम्ममाराहमा वर्य । इसी प्रकार कई नियागार्थी-मोक्षार्थों कहते है हम धर्म अदुवा अधम्ममावग्जे पते सव्वक्सुयं पए ॥ के आराधक हैं, परन्तु (धर्माराधना तो दूर रही) वे (प्रायः) अधर्म को ही (धर्म के नाम से) प्राप्त-स्वीकार कर लेते हैं। वे सर्वथा सरल-अनुकूल संयम के मार्ग को नहीं पकड़ते नहीं प्राप्त करते। एवमेगे वितमकाहि गो अणं पज्जुवासिया। कई दुर्बुद्धि जीव इस प्रकार के (पूर्वोक) वितकों (विकल्पों) अप्पणो य वितरकाहि अयमंजू हि दुम्मति ॥ के कारण (अपने अज्ञानवादी नेता को छोड़कर) दूसरे --ज्ञान बादी की पर्युपासना--सेवा नहीं करते । अपने ही वितकों से मुग्ध वे यह अज्ञानवाद की यथार्थ (सीधा) है. (यह मानते हैं ।) एवं तकाए साता धम्मा-धम्मे अकोदिया। धर्म-अधों के सम्बन्ध में अज्ञानवादी इस प्रकार के तर्को शुक्वं ते माइट्टन्ति सउणी पंजरं महा ।। से सिद्ध करते हुए दुःख को नहीं तोड़ सकते, जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता। स्वयं सवं पसंसंता गरहंसा पर वह।। अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरे के वचन धे उ तत्य विउस्सति संसार ते विउस्सिया ॥ की निन्दा करते हुए जो उस विषय में अपना पाण्डित्य प्रकट -सूय. सु. १, अ. १. उ. २, गा. ६-२३ करते हैं, के संसार में दृढ़ता से जकड़े रहते हैं। एगंत अण्णायवायरस समिक्खा एकान्त अज्ञानवाद-समीक्षा२७७. अण्णापिया ता कुसता वि संसा, २७७. वे अज्ञानवादी अपने आपको (वाद में) कुशल मानते हुए असंथुया णो बितिगिछतिण्णा । भी संशय से रहित (विचिकित्सा) को पार किये हुए (नहीं है। अकोविया आ, अकोषियाए, अतः वे असंस्तुत) असम्बद्धभाषी या मिथ्यावादी होने से अप्रशंसा अगाणुवीयोति सुसं वरंति ॥ के पात्र) हैं । वे स्वयं अकोविद (धर्मोपदेश में अनिपुण) हैं और ---सूय. सु. १, अ. १२, गा. २ अपने अकोविद (अनिपुण-अज्ञानी) शिष्यों को उपदेश देते हैं । वे (अज्ञान पक्ष का बाश्रय लेकर) वस्तुतत्व का विचार किये बिना ही मिथ्याभाषण करते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्र २७८-२७६ एगंत विणयास्त समक्खा२७. सच्छ असचं इति वितयंतर, एकान्त-विनयवादी की समीक्षा असाहू साहू ति उदाहरंता ।। जैसे जया बेगमा अ पुट्ठा वि माथं विणइंसु नाम ॥ इति ते अड्डे स पॉटरीय स्वर्ग २७. ओप्रासति अम्ह एवं सू. सु. १. अ. १२ गा. ३-४/१ वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान न होने से व्यामूढमति ऐसा कहते हैं। ये कहते हैं-"हमें अपने प्रयोजन की सिद्धि दसी प्रकार से दिखती है।" पौंडरिक रूपक एवायं २७. (श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं) हे आयुउन भगवान ने ऐसा कहा था अमित्रा इह पोंडरी गामं अभय तरस णं भयम- मन् मैंने सुना है ! खलु दाते"इस आर्हतु प्रवचन में पौण्डरीक नामक एक अध्ययन है, उसका यह वर्षाव उन्होंने बताया- कल्पना करो कि जैसे पुरुकरिणी ( कमलों वाली बावड़ी) है, जो अगाध जल से परिपूर्ण है, बहुत कीचड़ वाली है, (अथवा बहुत से अश्यन्त श्वेत पद्म होने तथा स्वच्छ होते है) पानी होने से अत्यन्त गहरी है अथवा बहुतों से युक्त है। यह - रिणी ( बाली इस नाम को सायंक करने वाली या मा नाम वाली अथवा जगत् में लब्धप्रतिष्ठ है। वह प्रचुर पुण्डरीकों कमलों से सम्पन्न है। वह पुष्किरिणी देखने मात्र से चित्त को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, प्रस्तरूपसम्पन्न, अद्वितीयरूप बाली अन्त मनोहर) है । P सेवा जहाणामए पोक्रणी सिया बहुदा सट्टा पुण्डरीगिणी पासादिया परिसणीया पत्रिका | वनाचार [ni एकान्त-विनयवादी की समीक्षा २७. जो सत्य है, उसे असत्य मानते हुए तथा जो असाधु (अच्छा नही है, उसे साधु (अच्छा बताते हुए ये जो बहुत से विनयवादी लोग हैं। वे पूछने पर भी अपने भाव के अनुसार विनम से ही स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति बताते हैं । सावति च तो पुरखरको सत्य तत्थ देते तहि लीवरी से ह उस पुष्करिणी के देश-देश ( प्रत्येक देश ) में, तथा उन-उन परिया बुझ्या अगट्टिया ऊसिया रूइला यण्णमंता गंध- प्रदेशों में यत्र-तत्र बहुत-से उत्तमोत्तम पौण्डरीक ( श्वेतकमल) मंता रसमंतर फारामंतापासावरीया हरिणीवा भागए हैं, जो उठे (उभरे हुए हैं मे पानी और परिवा कीचड़ से ऊपर उठे हुए है । अत्यन्त दीप्तिमान् है, रंग-रूप में अतीव सुन्दर हैं, सुगन्धित है, से है, कोमल स्पर्शना हैं. वित्त को प्रसन्न करने द्वितीय रूपसम्पन्न एवं सुन्दर हैं। तोसे पुरीए बहुएंगे महं परपकरिए उस पुष्करिणी के ठीक बीचोंबीच (मध्यभाग) में एक बहुत बड़ा तथा कमलों में श्रेष्ठ पौण्डरिक (श्वेत) कमल स्तिथ बताया बहुए, अणुपुट्टिए कसिले रूपले सण्णमंते रसमंते फासमंसे गया है। वह भी उत्तमोत्तम क्रम से विलक्षण रचना से युक्त है, पासादीए रिमथिए अभिये किये। तथा कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुआ है, अथवा बहुत ऊँचा है। यह अत्यन्त विकर या दतिमा है, मनोज है, उत्तम सुगन्ध से युक्त है,क्षण रसों से सम्पन है, कोमलस्पर्श युक्त है, दर्शनीय मनोहर और अतिसुन्दर है। ( निष्कर्ष यह है) उस सारी पुष्करिणी में जहाँ-तहाँ इधरउधर सभी देश-प्रदेशों में बहुत से उत्तमोत्तम पुरी (स्वेतकमल) भरे पड़े (बताए गए ) हैं । वे क्रमशः उतार-चढ़ाव से Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] परमामुयोग श्रेष्ठ परीक को पाने में असफल चार पुरुष सूत्र २७ बहवे पउमघर-पुणरीया बुध्या अणुपुरुषट्टिता-जाव-परिवा। सुन्दर रचना रो युक्त है, जल और पंक से ऊपर उठे हए, यावत्-पूर्वोक्त गुणों गे सम्पन्न अत्यन्त रूपवान् एवं अद्वितीय सुन्दर है। सवाति च पं तीसे पुबखरीए बहुमजादेसभागे एगे महं उस समग्र पुष्करिणी के ठीक बीच में एक महान् उत्तमएउमयरपोंडरीए चुइते अणुपुम्वहिते-जाव-पजिल्वे । पुण्डरीक (श्वेतकमल) बताया गया है, जो क्रमशः उभरा हुआ - सूय. गु. २, अ. १, सु. ६३८ - यात्र-(पूर्वोक्त) सभी गुणों से सुशोभित बहुत मनोरम है। पोंडरीयपग्गहणे चरो वि असफला-- श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुषअह पुरिसे पुरस्थिमाती विसातो आगम्मतं पुक्खरणों तोसे अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर पुषखरणीए तीरे ठिच्चा पासति सं महं एगं पळमबरपोंदरियं उस पुष्करिणी के तीर (किनारे) खड़ा होकर उस महान् उत्तम अणुपुष्वदितं ऊसिय-जाव-पडिहवं । एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः (उतार चढ़ाव के कारण) सुन्दर रचना से युक्त तथा जल और कीचड़ से ऊपर उठा हुआ एवं यावत्-(पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) बढ़ा ही मनोहर है। तए में से पुरिसे एवं वदासी इसके पश्चात् उस श्वेतकमन्न को देखकर उस पुरुष ने (मन "अहमसि पुरिसे सेत्तणे कुसले पहिते वियत्ते मेधावी अबाले ही मन) इस प्रकार कहा -''मैं पुरुष हूं, खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ या मगत्ये मग्यविवू मम्गस्स गति-परक्कमप्यू निपुण) हूँ, कुशल (हित में प्रवृत्ति एवं अहित से निवृत्ति करने में निपुण) हूँ, पण्डित (पाप से दूर, धर्मज्ञ या देशकालज), व्यक्त (बाल-भाव से निष्क्रान्त-वयस्क अथवा परिपक्वबुद्धि), मेघावी (बुद्धिमान्) तथा अवास (बालभाव से निवृत्त-युवक) हूँ। मैं मार्गस्थ (सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित) हूँ, मार्ग का जाता हूँ, मार्ग की गति एवं पराक्रम का (जिस मार्ग से चलकर और अपने अभीष्टदेश में पहुंचता है, उसका) विशेषज्ञ हूँ। अहमेय पउमबरवोंवरियं निखेस्मामि ति कट्ट इति मैं कमलों में थे इस पुण्डरीक कमल को (उखाड़कर) बाहर वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्तर्राण, निकाल लूंगा। इस इच्छा से यहां आया हूँ।" .. यह कहकर भाष जावं च णं अभिकम्मे ताव सावं च महते उचए, पुरष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है। नह ज्यों-ज्यों पुष्करिणी महते सेए पहणे तीरं, अस्पते पउमवरपोररीयं णो हवाए में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें अधिकाधिक गहरा पानी णो पाराए, अंतरा पोक्खरणोए सेसि विसरणं पहमे पुरि- और कीचड़ का उसे सामना करना पड़ता है। अतः वह व्यक्ति सजाए। तौर से भी हट चुका है और श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के पास भी -सूव, सु. २, अ. १, सु. ६३६ नहीं पहुंच पाया । वह न इस पार का रहा, न उस पार का । अपितु उस पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फैसकर अत्यन्त क्लेश पाता है । यह प्रथम पुरुष की कथा है । अहावरे वोच्चे पुरिसम्जाए। अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है। अह पुरिसे वक्षिणातो विसातो आगम्म तं पुनखरिणों तोसे (पहले पुरुष के कीचड़ में फंस जाने के बाद) दुसरा पुरुष पुक्खरिणीए तोरे ठिच्चा पासति दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस (पुष्करिणी) के दक्षिण किनारे पर ठहरकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, तं महं एग परमपरपोंडरीयं अणुपुष्यद्वित-जाव-परिवं, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, . यावत्-(पूर्वोक्त विशेतं च एष एमं पुरिसजातं पासति पहीणं तोर, अपतं पजम- षणों से युक्त) अत्यन्त सुन्दर है। वहाँ (खा-खड़ा) वह उस बरपोंडरीयं, जो हवाए जो पाराए, अंतरा पोषखरणोए (एक) पुरुष को देखता है. जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, सेयंसि विसरणं । और उस प्रधान श्वेतकमल तक पहुँच नहीं पाया है, जो न उधर का रहा है, न उधर का, बल्कि उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र २७६ अठठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष बर्शनाचार १८३ मए णं से परिमे तं पुरिरांग नामो- अहोई मे पुरिसे तदनन्तर दक्षिण दिशा से आये हुए इस दूसरे पुरुष ने उस असेयणे अकुसले अपंडिते अवियत्ते अमेहावो चाले जो पहले पुरुष के विषय में कहा कि--"अहो ! यह पुरुष खेदज्ञ मग्गस्थे गो मग्य बिक णो मागस्स गतिपरक्कमण्णू (मागंजनित खेद-परिश्रम को जानता) नहीं है, (अथवा इस क्षेत्र का अनुभव नहीं है,) यह अकुशल है, पण्डित नहीं है, परिपक्व बुद्धिवाला नहीं है, यह अभी बाल-शानी है। यह सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं है, न ही यह व्यक्ति मार्गबेता है । जिस मार्ग से चलकर मनुष्य अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करता है, उस मार्ग की गतिविधि तथा पराकम को पह जं गं एस पुरिसे "लेयन्ने कुसले-जाव-पउमवरपोंडरौयं नहीं जानता । जैसा कि इस व्यक्ति ने यह ममझा था कि मैं बड़ा उनिश्खेरसामि", खेदज या क्षेत्रज्ञ हूँ, कुशल हूँ, यावत्-पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त हूँ, मैं इस पुण्डरीक को उखाड़कर ले जाऊँगा, जो य वस्तु एतं पउमवरपोजरो एवं उनिक्लेयस्वं जहा मं किन्तु यह पुण्डरीक इस तरह उखाड़कर नहीं लाया जा एस पुरिसे मन्ने । सकता जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है। अहमसि पुरिसे खेयण्णे फुसले पटिए वियत्त मेहावो अबाले "मैं खेदज्ञ (या क्षेत्र) पुरुष हूँ, मैं इस कार्य में कुशल हूँ, मगत्ये मग्गविऊ मागरस गतिपरक्कमष्णु अहमेयं पजमवर. हिताहित विज्ञ हूँ, परिपक्ववुद्धिसम्पन्न प्रौढ़ हूँ, तथा मेधावी हूँ, पौडरीयं उनिक्खिस्सामि त्ति कटु इति वच्चा से पुरिसे मैं नादान बेच्चा नहीं हूँ, पूर्वज सज्जनों द्वारा आचारित मार्ग अभिकम्मे तं पुक्खणि, पर स्थित हूँ, उरा पथ का ज्ञाता हूँ, उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता हूँ। मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़कर बाहर निकाल लाऊँगा, (मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके आया हूँ) यों कहकर वह द्वितीय पुरुष उस पुष्करिणी में उतर गया । -जाव-जावं च णं अभिकम्मे ताव तावं च णं महते उदए महते ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक सेए. पहीणे तौर, अप्पत्तै एउमवरपोखरीयं, गो हस्बाए णो कीचड़ और अधिकाधिक जल मिलता गया। इस तरह वह भी पाराए, अंतरा सेयंसि विसपणे दोषचे पुरिसजाते। किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी -सूय. मु. २, अ.१. सु. ६४० प्राप्त न कर सका। यों वह न इस पार का रहा और न उस पार का रहा । वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंसकर रह गया और दुःखी हो गया। यह दुसरे पुरुष का वृत्तान्त है। अहावरे सच्चे पुरिसजाते। ___ इसके पश्चात् तीसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है। अह पुरिसे पचत्यिमाओ विसाओ आगम्म तं पुषणरणि तोसे दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुस्खरिणीए तोरे तिच्या पासति तं मह एग पउमवरपुण्डरियं पुष्करिणी के पास आकर उसके किनारे खड़ा होकर उस एक अणुपुत्रविय-जाव पहिवं, महान् श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त-यावत्-पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है। ते तत्थ बोणि पुरिसज्जाते पासति पहीणे तौर, अप्पत्ते वह वहाँ (उस पुष्करिणी में) उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, पउमवरपोखरीय, णो हत्याए पो पाराए, -जाद-सेयंसि जो तीर से भ्रष्ट हो चुके हैं और उस उत्तम श्वेतकमल को भी निसष्णे। नहीं पा सके, तथा जो न इस पार के रहे और न उस पार के रहे, अपितु पुष्करिणी के अधबीच में अगाध कीचड़ में ही फंस कर दुःखी हो गये थे। तसे गं से पुरिसे एवं वासी इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए महो गं इमे पुरिसा अखेसन्ना अफुसला अपंडिया अवियत्ता इस प्रकार कहा-"अहो ! ये दोनों व्यक्ति स्वेदज्ञ या क्षेत्रश नहीं अमेहावी बाला णो मग्गत्था है, न पण्डित हैं, न ही प्रोड-परिपक्वबुद्धिवाले हैं. न ये बुद्धिमान हैं, ये अभी नादान बालक से हैं, ये साध पुरुषों द्वारा आचा Hoday Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] धरणानुयोग श्रेष्ठ पुण्डरीक को पाने में असफल चार पुरुष सूत्र २७६ गो माविक णो मम्गस्स गतिपरक्कमपण, जंगं एते पुरिसा रित मार्ग पर स्थित मही है, तथा जिस मार्ग पर चलकर जीव एवं मण्णे "अम्हेत पउमवरपोंडरीय णिवखेस्सामो', पोय अभीषष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते। इसी कारण ये खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं चणिक्खेतवं जहा ग एए दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि "हम इस उत्तम श्वेतकमल को पुरिसा मम्णे। उखाड़कर बाहर निकाल लाएंगे,” परन्तु इस उत्तम श्वेतकमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना ये दोनों पुरुष मानते हैं।" अहमंसि पुरिसे खेतन्ने कुसले जिते वियते मेहावी अवाले "अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित. परिपत्रमरगये मग्गधिक मगगल्स गतिपरमकमाण, अहमेयं पउभवर- बुद्धिसम्पन्न, मेधाबी, युवक, मार्गधेत्ता, मार्ग को गतिविधि और पोतरीय उष्णिवखेस्सामि इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पराक्रम का ज्ञाता हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल पुक्वरणि, कर ही रहूंगा, मैं यह संकल्प करके ही यहां आया हूँ। (यों बहकर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और -जाव-जावं च में अभिकम्मे ताय तावं च णं महंते ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी उदए महते सेए साव अंतरा सेयंसि निसणं तच्चे पुरिसजाए। और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा। अत: वह -सूय. गु. २, अ.१, गु. ६४१ तीरारा व्यक्ति भी कीचड़ में वहीं फंसकर रह गया और अत्यन्त दुःखी हो गया । वह न इस पार का रहा और न उस पार का। यह तीसरे पुरुष की कया है। अहावरे चउत्थे पुरिसमाए। अब चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । अह पुरिसे उत्तरातो बिसातो आगम्मत पुक्खरणि तोसे पुक्छ- तीसरे पुरुष के पश्चात् चौधा पुरुष उत्तर दिशा से उस रणोए तीरे ठिच्चा पासति एग पउमत्ररपोटरीयं अपुरुषद्वितं पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा होकर उस एक महान् -जाद-पडिरूवं । श्वेतकमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त--यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट) मनोहर है। तथा वह वहाँ (उस ते तत्थ तिषिण पुरिसजाते पासति पहोणे तीरं अस्पत्ते-जाव- पुष्करिणी में) उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से सेयंसि निसणे। बहुत दूर हट चुके हैं और श्वेतकमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं । तते णं से पुरिसे एवं वदासो-अहो गं हमे पुरिसा अखेत्तणा तदनन्तर उन तीनों पुरुषों को (देखकर उन) के लिए चौथे -जाव-यो मगरस गतिपरक्कमष्णू, जग्णं एते पुरिसा एवं पुरुष ने इस प्रकार कहा-"अहो ! ये तीनों पुरुष खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ) माणे-अम्हेतं पउमवरपॉडरोयं उपिणक्खिस्सामो। यो खलु नहीं है, यावत् - (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) मार्ग की गतिएवं यउमवरपॉरीयं एवं उपिणषखेयन्वं जहा पं एते पुरिमा विधि एवं पराक्रम में विशेषज्ञ नहीं है। इसी कारण ये लोग सममणे । झते हैं कि "हम उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को उखाड़कर ले आएंगे, किन्तु ये उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं। अहमसि पुरिसे खेयाणे-जाव-मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं "मैं खेदश पुरुष हूँ-धावत उस मार्ग की गतिविधि पऊमवरपौधरीय उपिणक्खिस्सामि इति वचा से पुरिसे और पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ। मैं इस प्रधान श्वेतकमल को अभिक्कमे तं पुक्करणि, उखाड़कर ले आऊँगा इसी अभिप्राय से मैं होकर यहाँ आया है।" जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महते उबए यों कहकर वह चौथा पुरुष भी पुष्करिणी में उतरा और महते सेते-जाव-विसम्म ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया ! वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फंसकर दुःखी हो गया। अब न तो वह इस पार का रहा, न उस पार का। ब्रउत्थे पुरिसजाए। —सूर्य. सु. २, अ. १, सु. ६४२ इस प्रकार चौथे पुरुष का भी यही हाल हुआ। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५६ उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु वर्शनाचार [१५ पबरपोंडरीय पग्गहणे निरीहो भिक्खू सफलो- उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु अह मिक्स्यू नहे तोरडी खेयाणे कुसले पंडित वियत मेहावी इसके पश्चात् राग-द्वेषरहित (रूक्ष-अस्निग्ध घड़े के समान अवाले मग्गत्थे मग्गवि मगरस गसिपरक्कमण्णू अन्नतरीओ कर्ममल-तेपरहित), संसार-सागर के (तीर उस पार जाने का विसाओ अणुविसाओ वा आगम्म त पुक्खरणी, तीसे पुक्ख- इच्छुक) खेदज्ञ या क्षेत्रश, यावत्--(पूर्वोक्त सभी विशेषणों से रणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवर-पोंडरीयं-जाव- मुक्त) मार्ग की गति और पराकम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष परिवं, भिक्षामात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल-यावत-(पूर्वोक्त गुणों से युक्त) मनोहर है। ते व चत्तारि पुरिसमाते पासति पहीणें तीरं प्रपत जाव- और वहाँ वह भिक्षु उन शारों पुरुषों को भी देखता है, जो अंतरा पोक्खरणोए सेयंसि विसणे। किनारे से बहुत दूर हट चुके हैं, और उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके हैं। जो न तो इस पार के रहे हैं, न उस पार के, जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं। तते गं भिश्व एवं पदासी इसके पचात उस भिक्षु ने उन चारों पुरुषों के सम्बन्ध में अही गं इमे पुरिसा अखेतण्या-जावणो मग्गरस पतिपरक्क- इस प्रकार कहा .-' अहो ! ये चारों व्यक्ति खेदज्ञ नहीं है, परवत्तमण्णू जंगं एते पुरिसा एवं मन्ने "अम्हेयं परमवरपोंडरीयं (पूर्वोक्त विशेषणों से सम्पन्न) मार्ग की गति एवं पराक्रम से उनिविवखस्सामो" णो य खलु एवं पउमवरपोंडरीय एवं अनभिज्ञ हैं। इसी कारण यह लोग समझने लगे कि "हम लोग उम्रक्खेतध्वं जहा णं एते पुरिसा मम्ने, इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकाल कर ले जाएंगे, परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं।" अहमसी मिखू लूहे तोरटी खेपणे-नाव-मागस्स गति-परश्क- "मैं निर्दोष भिक्षाजीवी साधु हूं, राग-द्वेष से रहित (रूक्षमण्णू, अहमेयं पउमवर पोंडरीय समिक्खिस्सामि त्ति कटु निःस्पृह) हूं। मैं संसार सागर के पार (तौर पर) जाने का इच्छुक इति वच्चा, हूं, क्षेत्र (खेदज) हूं-यावत् - जिस मार्ग से चलकर साधक आने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ हूँ 1 मैं इस उत्तम श्वेतकमल को (पुष्करिणी से बाहर) निकालूंगा, इमी अभिप्राय से यहां आया हूं।" से मिक्खू णो अभिकम्मे तं पुस्खणि, तीसे पुक्सरपीए तीरे यों कहकर वह साबु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं ठिन्या सई कुज्जा--"उप्पताहि खलु भो उमवरपोंडरीया ! करता, वह उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा खड़ा ही आवाज उप्पताहि खलु मो पउमबरपोंडरोया।" देना है-"हे उत्तम श्वतकमल ! वहां से उठकर (मेरे पास) आ अह से उप्पतिते पउपवरपोंडरिए । जाओ, आ जाओ ! यों कहने के पश्चात् वह उत्तम पुण्डरीक उस -सूरा. मु. २, अ.१.मु.६४३ पुष्करिणी से उटकर (या बाहर निकलकर) आ जाता है। एवं से भिक्खू धम्मट्ठी घम्मवि नियागाडिवणे, इस प्रकार पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) वह भिक्षु धर्मार्थी (धर्म से ही प्रयोजन रखने वाला) धर्म का ज्ञाता और नियाग (संयम या विमोक्ष) को प्राप्त होता है। से जहेयं युतियं, अयुवा पत्ते पउभवरपोंडरोयं अबुवा अपत्ते ऐसा भिक्ष जैसा कि इस अध्ययन में पहले कहा गया था, परमवरयोंडरीयं। पूर्वोक्त पुरुषों में से पांचा पुरुष है। वह (भिक्षु) श्रेष्ठ पुण्डरीक बमल के समान निर्माण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके, (वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष है।) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] परणानुयोग दृष्टान्तों के दाष्टान्तिक को योजना सूत्र २७६-२८० एवं से भिक्खू परिण्णासकम्मे परिणामसंखे परिष्णागिहवासे इस प्रकार का भिक्षु कर्म (कर्म के स्वरूप, विपाक एवं उपाउससंते समिते सहिए सबा जते । दान) का परिजाता, संग (बाह्य-आभ्यन्तर-सम्बन्ध) का परिज्ञाता, तथा (निःसार) गृहबास का परिज्ञाता (मर्मक) हो जाता है। बह (इन्द्रिय और मन के विषयों का उपशमन करने से) उपशान्त, (पंचसमितियों से युक्त होने से) समित, (हित से-शानादि से युक्त होने से-) सहित एवं सदैव यतनाशील अथवा संयम में प्रयत्न शील होता है। सेयं वयगिज्जे तं जहा सस साधक को इस प्रकार (आगे कहे जाने वाले विशेषणों में से किसी भी एक विशेषणयुक्त शब्दों से) कहा जा सकता है, जैसे किसमने ति वा माहणे ति या खते ति वा बंते ति वा गुत्ते ति वह श्रमण है, या माहन् (प्राणियों का हनन मत करो, या भुत्ते ति वा इसी ति वा मुणीति वा कति ति वा विवू ति ऐसा उपदेश करने वाला या ब्रह्मचर्यनिष्ठ होने से प्राह्मण) है, वा भिजू ति वा सूहे ति वा तिरछी ति वा चरणकरणपारविदु अथवा सान्त (क्षमाशील) है, या दान्त (इन्द्रियमनोवशीकर्ता) है, अथवा गुप्त (तीन गुप्तियों से गुप्त) है, अथवा मुक्त (मुक्तवत्), तथा महर्षि (विशिष्ट तपश्चरणयुक्त) है, अथवा मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने वाला) है, अथवा कृती (पुष्यवान् -सुकृति या परमार्थपण्डित), तथा विद्वान् (अध्यारमविद्यावान्) है, अथवा भिक्षु (निरवद्य भिक्षाजीवी) है, या वह रूक्ष (अन्ताहारी-प्रान्ताहारी) है, अथवा तीरार्थी (मोक्षार्थी) है, अथवा चरण करण (मूल-उसर गुणों) के रहस्य का पारगामी है। सि चैमि। -सूय. सु. २, अ. १, सु, ६६२-६६३ -ऐसा मैं कहता हूँ। विट्ठन्तस्स णिगमणं दृष्टान्तों के दार्टान्तिक की योजना२८०. किट्टिते णासे समगाउसो ! अट्ट पुण से जाणितम् भवति । २८०. (श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं-)"आयुष्मान श्रमणो ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त (ज्ञात) कहा है; इसका अर्थ (भाव) तुम लोगों को जानना चाहिए।" भंते ! ति समयं भगवं महाबीरं निगंथा य निगंथीओ प "हाँ, भदन्त !" कहकर साधु और साध्वी श्रमण भगवान् वंदति नमसंति, वंचित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-किट्टिले महावीर को वन्दना और नमस्कार करते हैं। वन्दना-नमस्कार नाए समणाउसो ! अट्ठपुण से न जाणामो। करके भगवान महावीर से इस प्रकार कहते हैं- "आयुष्मन् क्षमण भगवान् ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ (रहस्प) हम नहीं जानते।" समणाउसो ! त्ति समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथा (इस पर) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उन बहुत-से य निग्गंधीओ य आमंतिता एवं बवासी-हता समगाउसो! नियों और नियन्थिनियों को सम्बोधित करके इस प्रकार कहाआइक्खामि विभावेमि किट्टमि पवेदेमि सअट्ट सहेर्ड सनि- "आयुष्मान् श्रमण-श्रमणियों ! मैं इसका अर्थ (रहस्य) बताता हूँ, मितं भुज्जो मुज्जो जवसेमि । अर्थ स्पष्ट (प्रकट) करता हूँ। पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता है, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयंगम कराता हूँ: अर्थ, हेतु और निमित्त सहित उस अर्थ को बार बार बताता हूँ।" से बेमि–सोये च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! सर (सुनो.) उस अर्थ को मैं कहता हूँ-"आयुष्मान् श्रमणो ! पुक्खरणी बुद्धता, मैंने अपनी इच्छा से मानकर (मात्र रूपक के रूप में कल्पना कर) इस लोक को पुष्करिणी कहा है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८७-२८१ एकान्त-दृष्टि निषेध दर्शनाचार [१८७ --- कम्मं च खलु मए अस्पाइटु समणाउसो ! से उदए बुइते, हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने अपनी कल्पना से विचार करके कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है। काममोगा य खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से सेए ते वुइते, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से स्थिर करके काम भोगों को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है। मणं-जाणवयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो। से बहवे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से चिन्तन करके आर्य पउमवरपुण्डरी बुइता, देशों के मनुष्यों और जनपदों (देशों) को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमल कहा है। रापाणं च खलु मए अप्पाटु समणाउसो ! से एगे महं आयुष्मान् श्रमणो। मैंने अपनी इच्छा से अपने मन में पउमवरपॉडरीए बुडते. निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान् श्रेष्ठ स्वेतकमल (पुण्डरीक) कहा है। अन्नउस्थिया यलु मए अल्पाहट्ट समणाउसो! से चत्तारि हे आयुष्मान् धमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मानकर अन्यपरिसजाता बुइता, तीथिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंसे हुए चार पुरुष बुइतं । धम्म च खलु भए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से भिवडू बुद्दले, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है। धम्मतित्थं च स्खलु मए अप्पाहट्ट समजाउसो! से तीरे युइए, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से अपने आप सोचकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है। धम्मकहं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से सद्दे सुरते, आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मक्या को उस भिक्षु का वह शब्द (आवाज) कहा है। नेवाणं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से उत्पाते आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण बुद्धते, (समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष या सिद्धशिला स्थान) को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठकर बाहर आना कहा है। एवमेयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो से एवमेयं (संक्षेप में) आयुष्मान् घमणो ! मैंने इस (पूर्वोक्त) प्रकार से अपनी आत्मा में निश्चय करके (यत्किचित् साधर्म्य के कारण) -सूव, सु. २, अ. १, सु. ६४४-६४५ इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। एमंतदिट्ठी णिसेहो एकान्त-दृष्टि निषेध२७१. अणावीयं परिणाय, २५१. "यह (चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवं धर्माधर्मादिषद्द्व्यरूप) अमवावगे ति वा पुणो । लोक अनादि (आदि-रहित) और अनन्त है," यह जानकर विवेफी जासतमसासते यावि, पुरुष यह लोक एकान्त नित्य (शाश्वत्त) है, अथवा एकान्त अनित्य इति बिढि न धारए॥ (अशाश्वत) है। इस प्रकार की दृष्टि, एकान्त (आग्रहमयी बुद्धि) न रखें। एतेहि गोहि ठाणेहि, इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य) पक्षों (स्थानों) वहारो ण विज्जती। से व्यवहार (शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार) चल नहीं सकता। एतेहि बोहि ठाहि, अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के आश्रय को अनाचार जानना अगायारं तु जागए । चाहिए। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] वरणामुपोग एकान्त-दृष्टि निषेध सूत्र २८९ समुस्छिजिहिति सत्यारो, सम्वे पाणा अलिसा । गंठीगा वा भविस्तंति, सासयं ति च णो वदे॥ एएहि वोहि डाहि, वबहारो ण बिज्जई। एएहि वोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणई ॥ जे देति खुड्गा पागा, अनुबा संति महालया। सरिसं तेहिं वेर ति, असरिसं ति य णो दे॥ एतेहिं बोहिं ठाणेहि, ववहारो विजती । एतेहि दोहि ठाणेहि, अणाणारं जागए॥ अहाकमाई मुंअंति, अण्णमण्ण सकामुणो। जवलिते ति जाजा, अणुवलिते ति वा पुणो ।। एतेहि बोहि ठाहि. वबहारो ग विज्जतो। एतेहि बोहि ठाणेह, अगाधारं तु जागए ।। प्रणास्ता (शासनप्रवतंक (तीर्थकर तथा उनके शासनानुगामी भी भव्य जीव) एक दिन) भवोच्छद (कालक्रम से मोक्षप्राप्ति कर लेंगे । अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश (एक समान नहीं) हैं, या सभी जीव कर्मप्रन्थि से बद्ध (अन्त्रिक) रहेंगे, अथवा सभी जीव शाश्वत (रादा स्थायी एकरूप) रहेंगे, अथवा तीर्थकर, सदैव शाश्वत (स्थायी) रहेंगे। इत्यादि एकान्त अधन नहीं बोलने चाहिए। स्योंकि इन दोनों (एकान्तमय) पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक) ध्यवहार नहीं होता। अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए। (इस संसार में) जो (एकेन्द्रिय आदि) क्षुद्र (छोटे) प्राणी हैं, अथवा जो महाकाय (हाथी, ऊँट, मनुष्य आदि) प्राणी है, इन दोनों प्रकार के प्राणिवों (की हिंसा से, दोनों) के साथ समान ही वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन दोनों ('समान वर होता है या समान वैर नहीं होता";) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता। अतः इन दोनों एकान्त बरनों की अनाचार जानना चाहिए। आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का जो साधु उपभोग करते हैं, बे दोनों (आधानमंदोषयुक्त आहारादिदाता तथा उपभोक्ता) परस्पर आने (पाप) कर्म से उपलिप्त होते हैं. अथवा उपलिप्त नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए। इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिए इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का आश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए। यह जो (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, और कार्मण शरीर है, तथैव वैक्रिय एवं तेजस् शरीर है, ये पांचों (राभी) शरीर एकान्ततः भिन्न नहीं हैं. एक ही है) अथवा ये पांचों सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं; ऐसे एकान्तवचन नहीं कहने चाहिए। तथा सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति (वीर्य) विद्यमान है, अथवा सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं ही है। ऐसा एकान्तकथन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों प्रकार के एकान्त विचारों से व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तमय विचारों का प्ररूपण करना अनाचार समझना चाहिए । ___लोक नहीं है या अलोक नहीं है, ऐसी संज्ञा (बुद्धि--समझ नहीं रखनी चाहिए अपितु) लोक है और अलोक (आकाशास्तिकायमात्र) है, ऐसी संज्ञा रखनी चाहिए। च तमेव च। जमिदं उरालमाहारं, कम्मगं सम्वत्य वीरियं अस्थि, परिय सदयस्थ बीरियं ॥ एतेहिं बोहि ठाहि, यवहारो ण विनती। एतेहि कोहि ठाणेहि, अणायार तु जाणए । णस्थि लोए अलोए वा, व सणं निवेसए । अस्थि लोए अलोए था, एवं सणं निश्सए । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१ एकान्सदृष्टि निषेध वर्शनाचार [१८६ जस्थि जीवा अजीया बा, णे सणं निवेसए । अस्थि जीवा अजोया बा, एवं सम्णं निवेसए । पत्धि धम्मे अधम्म वा, गंव सणं निबेसए । अस्थि धम्मे अधम्मे वा, एवं सणं निवेसए ।। गस्थि बंधे व मोगले वा, येवं सम्णं निवेसए। अस्थि बंधे व मोक्खे बा, एवं समिवेसए । यि पुष्णे व पाये वा, गेवं सष्णं निवेसए । अस्थि पुणे व पावे वा, एवं सणं निवेसए । परिय आसवे संबरे वा, वं सणं निवेसए। अस्थि आसवे संबरे वा, एवं सपणं निवेसए । त्धि वेयणा मिज्जरा वा, व सणं निवेसए । अस्थि यणा निज्जरा वा, एवं सणं निवेसए ।। मस्थि किरिया अकिरिया वा, ये सणं निवेसए। अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सणं निवेसए । नथि कोहे व माणे वा, णेवं सणं निवेसए। अस्थि कोहे व माणे वा, एवं साणं निवेसए । नथि माया व लोभे वा, व सणं निवेसए । अस्थि माया व लोमे वा, एवं सणं मिवेसए ॥ जीब और अजीव पदार्थ नहीं है, ऐसी संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, अपितु जीव और अजीव पदार्थ हैं, ऐसी संज्ञा (बुद्धि) रखनी चाहिए। धर्म-अधर्म नहीं है, ऐगी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, किन्तु धर्म भी है और अधर्म भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए । बन्ध और मोक्ष नहीं है, यह नहीं मानना चाहिए, अपितु बन्ध है और मोक्ष भी है, यही श्रद्धा रखनी चाहिए । पुण्य और पाप नहीं है, ऐसी बुद्धि रखना उचित नहीं, अपितु पुण्य भी है और पाप भी है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए । आधब और संवर नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु आथव भी है और संवर भी है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए । वेदना और निर्जरा नहीं है, ऐसी मान्यता रखना ठीक नहीं है किन्तु वेदना और निजेरा है, यह मान्यता रखनी चाहिए । क्रिया और अक्रिया नहीं है, ऐसी संजा नहीं रखनी चाहिए, अपितु क्रिया भी है और अक्रिया भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। __क्रोध और मान नहीं हैं, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, अपितु क्रोध भी है और मान भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। माया और लोभ नहीं है, इस प्रकार की मान्यता नहीं रखनी चाहिए, किन्तु माया है और लोभ भी है, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। राग और द्वेष नहीं है, ऐसी विचारणा नहीं रखनी चाहिए, किन्तु राग और द्वेष हैं, ऐसी विचारणा रखनी चाहिए। चार गति बाला संसार नहीं है, ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए, अपितु चातुर्गतिक संसार (प्रत्यक्षसिद्ध) है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। देवी और देव नहीं हैं, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, अपितु देव-देवी हैं, ऐसी मान्यता रखनी चाहिए। सिद्धि (मुक्ति) या असिद्धि (अमुक्तिरूप संसार) नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, अपितु सिद्धि भी है और असिद्धि (संसार) भी है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए। ___ सिद्धि (मुक्ति) जीव का निज स्थान (सिद्धशिला) नहीं है, ऐसी खोटी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, प्रत्युत सिद्धि जीव का निजस्थान है, ऐसा सिद्धान्त मानना चाहिए। (संसार में कोई) साधु नहीं है और असाधु नहीं है, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए, प्रत्यक्ष साधु और असाधु दोनों है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। ......AC ... ... . पश्थि पेज्जे व बोसे वा, णेब सणं निवेसए । अस्थि पेज्जे व चौसे वा, एवं सग्णं निवेसए । गस्थि चाउरते संसारे, जैव सणं निवेसए। अस्थि पाउरते संसारे, एवं सणं निवेसए । . . पत्थि वैषो व देवी वा, व सणं निवेसए । अस्थि देवो व देश बा, एवं सम्णं निवेखए ।। नस्थि सिद्धी असिद्धी वा, पेवं सणं निवेसए। अस्थि सिद्धी असिद्धी वा, एवं सणं निवेसए । नस्थि सिद्धी नियं ठाणं, पेचं सम्णं निवेसए । अस्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सगं निवेसए ।। नधि साहू असाहू वा यं सम्णं निवेसए । अस्थि साहू असाहू या, एवं सणं निवेसए॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.] चरणानुयोग पाश्वस्याविवंचन-प्रसंसन प्रायश्चित्त सूत्र २८१-२१२ मस्थि कल्लागे पावे वा, व सणं निवेसए। कोई भी कल्याणवान और पापी नहीं है ऐसा नहीं समझना अस्थि कल्लाणे पाये घा, एव सणं निवेप्सए॥ चाहिए, अपितु कल्याणवान् और पापी दोनों हैं ऐसी श्रद्धा रखनी --सूय. सु. २, अ. ५. गा. १२-२८ चाहिए। पासस्थाई वंदमाणस पसंसमाणस्स पायच्छितं- पावस्थादिवंदन-प्रशंसन प्रायश्चित्त .. २६२. जे भिक्कू पासत्थं वंदद वंत वा साइज्जद । २८२, जो भिक्षु पारात्ये को बन्दना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू पासत्यं पसंसद पसंसंतं वा साइज्जह । जो भिक्षु पासत्य की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिखू ओसणं वह वरतं का साइज्जइ । जो भिक्षु अवमन्न की वन्दना करता है, करवाता है, करने बाले का अनुमोदन करता है। मे भिषयू ओसणं पसंसह पसंमंत या साइजह । जो भिक्षु अबसन्न की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिलू कुसीसं बंदद वरतं वा साइजइ । . जो भिक्षु कुशील को वन्दना करता है, करवाता है, करने थाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्यू कुसील पसंसइ पसंतत वा साइज्जइ । जो भिक्षु कुशील की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। से भिक्खू नितियं वंदइ ववंत या साहज्जा। जो भिक्ष नित्यक की बन्दना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नितियं पसंसद यससंत या साइज्जद । जो भिक्षु नित्यक की प्रशंसा करता है, करदाता है, करने वारे का अनुमोदन करता है। मे भिखू संसतं वंदइ वदतं वा साहज्जइ । जो भिक्षु संसक्त को वन्दना करता है, करवाता है, करने नाले का अनुमोदन करता है । भिक्खू संसतं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ । ___जो भिक्षु संसक्त की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। के भिक्षू काहियं बंबइ बंदत बा साहज्जा । जो भिक्षु देश आदि की कथा करने वाले को वन्दन करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू काहियं पसंसइ पसंसतं या साइज्जइ। जो भिक्षु देश आदि की कथा करने वाले की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पासणय वह बंदतं वा साइन्मइ । जो भिक्षु नृत्यादि देखने वाले को बन्दन करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू पासणियं पसंसइ पसंसंतं वा साइजह । ____ जो भिक्षु नृत्यादि देखने वाले की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। से मिक्यू ममायं संबद संवतं वा साइजह । जो भिक्षु ये उपकरण मेरे ही हैं, ऐसा कहने वाले की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्षू ममायं पसंसह एससंत वा साइज्जा। जो भिक्षु ये उपकरण मेरे ही हैं, ऐसा कहने वाले की प्रशंमा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू संपसार बंद बरत वा साइमाइ । जो भिक्षु (असंयतों को) आरम्स के कार्यों का निर्देशन करने वाले को वन्दना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र २८२-२८३ अभ्यतीयियों की मोक्ष प्ररूपणा और उसका परिहार वर्शनाचार १६१ जे मिष संपसारयं पसंसद पसंसंतं वा साइजह । जो भिक्षु (असंयतों को) आरम्भ के कार्यों का निर्देशन करने वाले की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घायं। वह भिक्षु गुरु पातुर्मासिक परिहार प्रायश्चित्त स्थान का -नि. उ. १३, सु. ४५-६२-(७७) पात्र होता है। अण्ण उत्थियाण मोषखपरूवणा परिहारो य अभ्यतोथियों की मोक्ष प्ररूपणा और उसका परिहार२८३. इहेगे मूहा पयर्वति मोक्खें, २६३, इस जगत् में अथवा मोक्षप्राप्ति के विषय में कई मूढ़ इम आहारसंपाजणवज्मणे । प्रवाद का प्रतिपादन करते हैं कि आहार का रस-पोषक-नमक एगे य सोतोबगसेवणेणं, खाना छोड़ देने से मोक्ष प्राप्त होता है, और कई शीतल (कच्चे हुतेण एगे पवति मोक्वं ।। जल के सेवन से) तथा कई (अग्नि में घृतादि द्रव्यों का) हवन करने से मोक्ष (की प्राप्ति) बतलाते हैं। पाओसिणाणादिसु णस्थि मोक्खो, प्रातःकाल में स्नानादि से मोक्ष नहीं होता, न ही क्षार पारस्स लोगस अणासएणं । (खार) या नमक न खाने से मोक्ष होता है। वे (अभ्यतीर्थी ते मज्ज मंस लसुणं च भोम्चा, मोशवादी) मद्य मांस और लहसुन वाकर मोक्ष-अन्यत्र (संसार अन्नत्य वासं परिकप्पयंति ॥ में) अपना निवाम बना लेते हैं। उदगेग जे सिविमुवाहरंति, सायंकाल और प्रातःकाल जल का स्पर्श (स्नानादि क्रिया सायं च पातं उवर्ग फुसंता। के द्वारा) करते हुए जो जल स्नान रो सिद्धि (मोक्ष प्राप्ति) उदगस्स फाण सिय य सिद्धी, बतलाते हैं, (वे मिथ्यावादी है)। यदि जल के (बार-बार) स्पर्श सिमिम पाणा बहवे वर्गसि ॥ से मुक्ति (मिडि) मिलती नो जल में रहने वाले बहुत-से जलचर प्राणी मोक्ष प्राप्त कर लेते। मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, (यदि जलस्पर्श से मोक्ष प्राप्ति होती तो) मत्स्य, कच्छप, मग्गू य उट्टा वगरक्खसा य ! मरीसृप (जलचर सर्प), मग तथा उष्ट्र नामक जलचर और अट्ठाणमेयं कुसला वदंति जलराक्षस (मानवाकृति जलचर) आदि जलजन्तु सबसे पहले उदगेण जे सिडिमुवाहरति ।। मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु ऐसा नहीं होता। अतः जो जल स्पर्श से मोक्षप्राप्ति (सिद्धि) बताते हैं, मोशतत्त्व पारंगत (कुशल) पुरुष उनके इस कथन को अयुक्त कहते हैं। उदगं जती कम्म मलं हरेज्जा, जल यदि कर्म-मल का हरण-नाश कर लेता है, तो वह एवं सुहं इच्छामेत्तता वा । इसी तरह शुभ-पुण्य का भी हरण कर लेगा (अतः जल कर्मअंधव यारमणुरूसरिता, मल हरण कर लेता है, यह कयन) इच्छा (कल्पना) मार है। पागाणि चेवं विणिहंति मंदा।। मन्दबुद्धि लोग अज्ञानान्ध नेता का अनुसरण करके इस प्रकार (जलस्नान आदि कियाओं) से प्राणियों का घात करते हैं । पायाई कम्माई पकुम्घतो हि, यदि पापकर्म करने वाले व्यक्ति के उस पाप को शीतल सिओवगं तु जइ त हरेज्जा। (सचित्त) जल (जल स्नानादि) हरण कर ले तब तो कई जल सिमुि एगे दगसप्तपाती, जन्तुओं का घात करने वाले (मछुए आदि) भी मुक्ति प्राप्त कर मुसं वयंते जलसिद्धिमा ।। नेंगे। इसलिए जो जल (स्नान आदि) से सिद्धि (मोक्ष प्राप्ति) बतलाते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। हुण जे सिद्धिमुवाहरति, ___सायंकाल और प्रातःकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो सायं च पातं अणि फुसंता । लोग (अग्निहोत्रादि कर्मकाण्डी) अग्नि में होम करने से सिद्धि (मोक्षप्राप्ति या सुगतिगमनरूप स्वर्गप्राप्ति) बतलाते हैं, वे भी . .---. : udaul Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] वरणानुयोग अभ्यतोथियों की प्ररूपणा और परिहार सूत्र २५३-२५ namaA.www एवं सिया सिद्धि हवेज्ज सम्हा, मिथ्यावादी हैं। मदि इस प्रकार (अग्मिस्पर्श से या अग्निकार्य अगणि फुसंताग कुकम्मिणं पि ।। करने) से सिद्धि मिलती हो, तब तो अग्नि का स्पर्श करने वाले (हलवाई, रसोइया, कुम्भकार, लुहार, स्वर्णकार आदि) कुकर्मियों (आरम्भ करने वालों, आग जलाने वालों) को भी सिद्धि प्राप्त हो जानी चाहिए। अपरिपल दिgण एव सिद्धी, जलस्तान और अग्निहोत्र क्रियाओं से सिद्धि मानने वाले एहिति ते घातमबुज्यमाणा । लोगों ने परीक्षा किये बिना ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर भूतेहि जाण एडिलेह सातं, लिया है। इस प्रकार सिद्धि नहीं मिलती। वस्तुतत्व के बोध विज्ज गहाय तस-यावरहि ॥ से रहित वे लोग घात (संसार भ्रमणरूप अपना विनाश) प्राप्त करेंगे । अध्यात्मविद्याथान् (सम्यग्ज्ञानी) यथार्थ वस्तुस्वरूप का ग्रहण (स्वीकार) करके यह विचार करे कि पस' और स्थावर प्राणियों के घात से उन्हें सुख कैसे होगा? यह (भलीभांति) समझ ले। थति सुप्पति तसंति कम्मी, पापकर्म करने वाले प्राणी पृथक्-पृथक् रुदन करते हैं, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । (तलवार आदि के द्वारा) छेदन किये जाते हैं, बास पाते हैं । तम्हा विकू विरते आयगुप्त, यह जानकर विद्वान् भिक्ष पाप से विरत होकर आत्मा का रक्षक बड़े ससे य परिसाहरेग्जा ॥ (गोप्ता या मन-वचन-काय-गुप्ति से युक्त) वने। वह उस और -सूय. सु. १. अ. ७, गा. १२-२० स्थावर प्राणियों को भलीभांति जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाय। अण्णतित्थियाणं परूवणा परिहारो य अन्यतीथियों की प्ररूपणा और परिहार--- २८४ तमेव अविजाणता, | २८४. उसी (प्रतिपूर्ण अनुपम निर्वाणमार्गरूप धर्म) को नहीं अयुया बुद्धमाणिणो । जानते हुए अविवेकी (अबुद्ध) होकर भी स्वयं को पण्डित मानने सुद्धा मो ति य मण्णता, वाले अन्यतीथिक हम ही धर्म तत्व का प्रतिवोध पाए हुए है यो ___ अंतए है समाहिए ॥ मानते हुए सम्यग्दर्शनादिरूप भात्र समाधि से दूर हैं। ते य बोनोद चेष, बे (अन्यतीथिक) बीज और सचित्त जल का तथा उनके उद्देश्य तमुहिस्सा य जं कर्ड। (निमित्त) से जो आहार बना है, उसका उपभोग करके (आतं) भोच्चा माणं शियायंति, ध्यान करते हैं, क्योंकि वे अखेदज्ञ (उन प्राणियों के खेद-पीड़ा से अखेतपणा असमाहिता॥ अनभिज्ञ या धर्म ज्ञान में अनिपुण) और असमाधियुक्त हैं। जहा ढका य कंका य, फुलला मरगुका सिहो। जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गा और शिखी नामक जलचर मच्छसणं शियायंति, साणं से कसुसाधम ।। पक्षी मछली को पकड़कर निगल जाने का बुरा विचार (कुख्यान) करते हैं. उनका यह ध्यान पाररूप एवं अधम होता है। एवं तु समगा एगे, इमी प्रकार कई तथाकथित मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य श्रमण मिडी अगारिया। विषयों की प्राप्ति (अन्वेषणा) का ही ध्यान करते हैं, अत: वे विसएसणं झियाति, भी ढंक, कफ आदि प्राणियों की तरह पाप भावों से युक्त एवं कंका वा कलुसाहमा ॥ अधम हैं। -सुय. सु. १, अ. ११, गा.२५-२५ मोक्ख विसारस्स उवएसो-- मोक्ष विशारद का उपदेश - २५५. अह ते परिमासेज्जा भिक्खू मोक्खविसारए । २०५. इसके पश्चात् मोशविशारद (ज्ञान-दर्शन-मारिष रूप मोक्ष एवं सुम्मे पमासता दुपक्वं सेव सेवहा ।। की प्ररूपणा करने में निपुण) साधु उन (अन्यतीथिकों) से (इस प्रकार) कहे कि यों कहते (आक्षेप करते हुए) आप लोग दुष्पक्ष (मिथ्या पक्ष) का सेवन करते (आयय लेते हैं। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एम २५ मोक्ष विशारद का उपदेश बर्गनाधार १३ तुम्भे मुंजह पाए, गिसाणा अभिह ति य । तं च श्रीओवयं भोच्चा, तमुद्देसादि जं का।। सिता तिव्वामिताबेण, . उज्या असमाहिया। मातिकंडात सेयं, अश्यस्साबरमतों सत्तेश अणुसिट्टा, ते अपहिणेण जाणया। ण एस णियए मरगे, असमिक्खा वई किती।। आप सन्त लोग (गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के) पात्रों में भोजन करते हैं, रोगी सन्त के लिए गृहस्थों से (अपने स्थान पर) भोजन मंगवा कर लेते हैं, तथा आप बीज और सचित्त (कच्चे) जल का उपभोग करते हैं एवं जो आहार किसी सन्त के निमित्त (उद्देश्य) से बना है उस औशिक आदि दोषयुक्त आहार का सेवन करते हैं। ___ आप लोग तीव कषायों अथवा तीव्र बन्ध बाले कर्मों से लिप्त (सद्विवेक से—) रहित तथा समाधि (शुभ अध्यवसाय) से रहित हैं। (अतः हमारी राय में) घाव (व्रण) का अधिक खुजलाना अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे दोष (विकार) उत्पन्न होता है। जो प्रतिकूल जाता नहीं है अथवा जिसे मिथ्या (विपरीत) अथं बताने की प्रतिज्ञा नहीं है, तथा जो हेय-उपादेय का ज्ञाता साधु है, उसके द्वारा उन (आक्षेपकर्ता अन्य दर्शनियों) को सत्य (तत्व वास्तविक) बात की शिक्षा दी जाती है कि यह (आप लोगों द्वारा स्वीकृत) मार्ग (निन्दा का रास्ता) नियत (युक्ति संगत) नहीं है, आपने सुविहित साधुओं के लिए जो (आक्षेपास्मक) वचन कहा है, वह बिना बिचारे कहा है, तथा आप लोगों का आचार भी विवेकशून्य है। आपका यह जो कथन है कि साधु को गृहस्थ द्वारा लाये हुए आहार का उपयोग (सेजन) करना श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाये हुए का नहीं, यह बात बाँस के अग्रभाग की तरह कमजोर है, (वजनदार नहीं है।) (साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए), यह जो धर्म-प्रज्ञापना (धर्म-देशना) है, वह आरम्भ-समारम्भयुक्त गृहस्थों की विशुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, इन दृष्टियों से (सर्वज्ञों ने) पूर्वकाल में यह प्ररूपणा नहीं की थी। समय युक्तियों से अपने पक्ष की सिद्धि (स्थापना) करने में असमर्थ वे अन्यतीर्थी तब बाद को छोड़कर फिर अपने पन की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं । राग और द्वंष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, जो व्यक्ति मिथ्याव से ओत-प्रोत हैं, के अन्यतीर्थी शास्त्रार्य में हार जाने पर आक्रोश (गाली या अपशब्द आदि) का आश्रय लेते हैं। जैसे (पहाड़ पर रहने वाले) टंकणजाति के म्लेच्छ (युद्ध में हार जाने पर) पर्वत का ही आश्रय लेते हैं। जिसकी चित्तवृत्ति समाधि (प्रसन्नता या कषायोपशान्ति) से युक्त है, “वह मुनि, (अन्यतीर्थी के साथ विवाद के समय) अनेक गुण निष्पन्न हो, जिससे इस प्रकार का अनुष्ठान करे और दूसरा कोई व्यक्ति अपना विरोधी न बने।... - एरिता मा बई एसा, अग्गे घेणु स्व करिसिता । गिहिणो अमिह सेयं, मुंजितुं न तु भिक्षु णो ॥ धम्मपण्णवणा जा सा, सारंभाग विसोहिया । न तु एताहि विट्ठीहि, पुरषमासि पप्पियं ॥ सव्वाहि अशजुत्तीहिं अचयंता जवित्तए । ततो वायं गिराकिच्चा ते मुज्जो वि पगम्भिता ।। :: .... रागदोसाभिभूतप्पा । मिच्छतण अभिवुता। अक्कोसे सरगं जंति, टकणा इव पवयं ॥ अत्तसमाहिए। बहुगुणप्प गप्पा कुज्मा आणणो ण विश्ोज्जा, तेणं तं तं समायरे ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १४] चरणानुयोग इमं च धम्ममाधाय कासवेण पवेइयं । कुम्ला मिक्खू गिलाणस्स गिलाए समाहिते ।। . . निव्वाणमेव साहे २५६. वाचपरमा बुद्धा, तम्हा सथा जते दंते, ताणं व पंदिमा । . २.१.११-२० निवासंघले मुणी ॥ निर्वाण ही साध्य है मोलमध्ये अपमत्तगमणोवएसो २८७ ननिस्सिाई बहुमए दिसनदेशिए संपद नेयाजए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए । २८६. जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है, वैसे ही निर्वाण को ही प्रधान (एम) मानने वाले (परलोकार्थी) तत्वाधकों के लिए (स्वर्ग भवतित्व, धन आदि को छोड़कर) निर्वाण ही सर्वश्रेष्ठ ▸ P (परम पद) है। इसलिए मुनि सदा दान्त ( मन और इन्द्रियों का सू. सुं. १, अ. ११ गा. २२ विजेता) और पत्नशील (मानाचारी) होकर निर्वाण के साथ हो धान करे, प्रवृति करे । मोक्ष मार्ग में अप्रमत्त भाव से गमन का उपदेश - सबसोहि कष्टापहं ओहो ति यह महाल छविसोहिया, समयं गोपन ! म पमायए । पिवाणमूलं सम्म सणं२८. नरि चरितं सम्मत बिहूणं, सभ्यतमरिसाई अब ह मारवाहए, मामागे विमेाहिया । वातावर, समयं गोयम ! मा पमायए । पच्छ पहाणा मोमया २६. अन्तकालस्स शिष्णो इसि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमभगाओ । अभिराममिलए समयं गोमय मा पमायए । - उत्त. अ.१०, मा. ३१-३४ सगे उ भवं । सुगमंच सम्म ॥ नासि नानं नागवाना अनुचित गरि भोक्लो नचि मोष निवाणं ।। - उत्स. अ. २८, गा. २६-३० नगरस सरस युक्खस्स उ जो पोषणो । तं मासओ मे पडिपुण्णविता, सुमेह एकमहि हियस्वं ॥ सूत्र २०५-२०१ काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके समाधिस्त भिक्षु रुग्ण साधु की सेवा (या) रहित होकर करें। निर्वाण ही साध्य है २७. "आज जिन नहीं दी रहे हैं, जो मार्ग एकमत नहीं है" मी पीड़ियों को इस कठिनाई का अनुभव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला व्यापूर्ण) पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । कांटों से भरे मार्ग को छोड़कर तु विशाल-पथ पर चला आया है । दृढ़ निश्चय के साथ उसी मार्ग पर चल । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। वही भारवाह की तनू में मत प जाना । विषम मार्ग में जाने वाले को पछतावा होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । सूइस महान् समुद्र को और गया, अब तीर के निकट पहुँच कर क्यों खड़ा है ? उसके पार जाने के लिए जल्दी कर । हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । निर्वाण का मूल सम्यग्दर्शन २०. सम्य-विहीन चारित्र नहीं होता। दर्शन (सम्यक में चारित्र की भजना (विकल्प) है। सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् ( एक साथ) उत्पन्न होते हैं और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं होते, यहाँ पहने यस्व होता है। अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारि-गुण नहीं होते। अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती । अमुक्त का निर्वाण नहीं होता । प्रधान मोक्षमार्ग २८. अनादि कालीन सब दुःखों और उनके कारणों (कथाय आदि) के मोक्ष का जो उपाय है यह मैं कह रहा हूँ। वह एकांतहित (ध्यान के लिए हितकर) है, अत: तुम प्रतिपूर्ण चित्त होकर हित (मोक्ष) के लिए सुनो । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८१-२६१ उन्मार्ग से गमन करने बालों को नरक्ष्यति दर्शनाचार [१६५ नाणस्स सम्वस्स पगासणाए, सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश तथा अन्नाणमोहस्स विवजणाए। राग औरष का भय होने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष को रागस्स दोसस्स य संखएणं, प्राप्त होता है। एगन्तसोक्वं समुवे मोक्वं ॥ तस्सेस मागो गुरुवियसेवा, गुरु और वृद्धों (स्थविर मुनियों) की सेवा करना, अजानीविवज्जणा शालजणस्स दूरा। जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास "समायएमन्सनिसेवगा य", करना, गूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना, यह सुसत्य-संचिन्तणया धिई य॥ मोक्ष का मार्ग है। -उत्त. अ. ३२, गा.१-३ उम्मरपट्टाणं निरयगमणं उन्मार्ग से गमन करने वालों की नरकगति२६०. सुवं मागं घिराहिसा, हमेगे उ तुम्मतो। २६०. इस जगत् में कई दुर्बुद्धि व्यक्ति तो शुद्ध (निर्वाण रूप) उम्मग्गगता तुषणं, घंसमेसंति से सधा॥ भावमार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं । वे अपने लिए दुःख तथा अनेक बार घात (विनाश-मरण) चाहते हैं या डूंचते हैं। जहा मासाविणि नावं, जाति: कहिया । जैसे कोई जन्मान्ध पुरुष छिद्र याली नौका पर चढ़कर नदी पिछली पारमागंतु, अंतरा य विसीयती ॥ पार जाना चाहता है, परन्तु वह वाच(मझधार) में ही बूब जाता है। एवं तु समगा एगे, मिच्छट्ठिी अगारिया। इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण कर्मों के आश्रय सोपं कसिणमावण्णा, आगंतरो महम्मयं । रूप पूर्ण भाव स्रोत में डूबे हुए होते हैं। उन्हें अन्त में नरकादि -सूय. गु. १, अ. ११. सु. २६-२१ दुःख रूप महाभय पाना पड़ेगा। णिध्वाण साहणा निर्वाण मार्ग की साधना-- २६१. मं च धम्ममावाय, २६१. काश्यपगोपीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म कासवेण पवेवितं । को ग्रहण (स्वीकार) करके शुद्ध मार्ग साधक साधु महाघोर तरे सोयं महाघोरं, (जन्म-मरणादि दीर्घकालिक दुःखपूर्ण) संसार सागर) को पार अप्सत्ताए परिवए । करे तथा आत्मरक्षा के लिए संयम में पराक्रम करे। विरते गामधमेहि साधु माम धर्मों (शब्दादि विषयों) से निवृत्त (विरत) होकर जे के जगती जमा । जगत् में जो कोई (जीवितार्थी) प्राणी है, उन सुखप्रिय प्राणियों तेसि अत्तुवमायाए, को प्रारमवत् समझकर उन्हें दुःख न पहुँचाए, उनकी रक्षा के __ थाम कुवं परिष्वए॥ लिए पराक्रम करता हुआ संयम पालन में प्रगति करे। अतिमाणं च मायं च, परित मुनि अति-(चारित्र विषातक) मान और माया तं परिणाय पंडिते। (सथा अति लोभ और कोध) को (संसारवृद्धि का कारण) जानसम्वमेय निराकिच्चा, कर इस समस्त कषाय समूह का निवारण करके निर्वाण (मोक्ष) निस्वागं संघए मुणी ॥ के साथ आत्मा का सन्धान करे अथवा मोश अन्वेषण करे। संघते साधम च, (मोक्ष मार्ग परायण) साघु क्षमा आदि दविध श्रमण धर्म पावं पम्मं गिराकरे । अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप उत्तम धर्म के साथ मनउवधाणवीरिए भिक्बू वचन-काया को जोड़े अथवा उत्तर धर्म में वृद्धि करे। तथा जो कोहं माणं न पथए । पाप-धर्म है उसका निवारण करे। भिक्षु तपश्चरण (उपधान) में पूरी शक्ति लगाए तथा क्रोध और अभिमान को जरा भी सफल न होने दे। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] चरणानुयोग सम्मार्ग-उम्मार्ग का स्वरूप सूत्र २९१-२६३ जे य वुढा अतिकता, जो बुद्ध (केवलज्ञानी) अतीत में हो चुके हैं, और जो बुद्ध जेय बुद्धा अणागता। भविष्य में होंगे, उन सबका आधार (प्रतिष्ठान) शान्ति ही संति तेसि पतिढाणं, (कषाय-मुक्ति या मोक्ष रूप भाव मार्ग) है, जैसे कि प्राणियों का भूयाणं जगसी जहा ॥ जगती (पृथ्वी) आधार है। अहणं बतमाषण, अनगार धर्म स्वीकार करने के पश्चात् साधु नाना प्रकार फासा उच्चावया फुसे। के अनुकूल प्रतिकूल परीषह और उपसर्ग स्पर्श करे तो साधु म तेमु पिणिहणज्जा, उनसे जरा भी विचलित न हो, जैसे कि महावात से महागिरिबर वातेणेव महागिरी॥ मेह कभी विचलित नहीं होता। संडे से महापणे, ___ आश्रवद्वारों का निरोध (संबर) किया हुआ वह महाप्रज्ञ धीरे बसणं चरे। धीर साधु दूसरे (गृहस्य) के द्वारा दिया हुआ एषणीय-कल्पनीय निरे कालमाकखी, आहार ही ग्रहण (सेवन) करे। तथा शान्त (उपशान्त कषाय एवं केमिणो मयं । निवृत्त) रहकर (अगर काल का अवसर आए तो) काल (पण्डित-सूप. सु. १, अ. ११, गा. ३२-३८ मरण या समाधिमरण) की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करे, यही केवली भगवान् का मत है। सुमगा-उम्मग्य सहवं सन्मार्ग-उन्मार्ग का स्वरूप-- २६२. कुष्पहा यहयो लोए, जेहिं नासन्ति अंतवो। २६२. "गौतम ! लोक में कुमार्ग बहुत हैं, जिससे लोग भटक अज्ञागे कह वट्टम्ते, तंन नस्ससि गोयमा ! ॥ जाते हैं । मार्ग पर चलते हुए तुम क्यों नहीं भटकते हो ?" जेय भागेण गमछन्ति, वे य उम्मग्गपट्टिया । "जो सन्मार्ग से चलते हैं और जो उन्मार्ग से चलते हैं, ते सव्वे विहया माने, तो न नस्सामहं मुणी! ॥ उन सबको मैं जानता हूँ। अतः हे मुने ! मैं नहीं भटकता हूँ।" मगोयबाचे वृत्त ? केसी गोयममनवी। "मार्ग किसे कहते हैं ?" केशो ने गौतम को कहा। फेसिमेव बुवंत तु, गोयमो इणमस्यबी॥ केणी के पूछने पर गौतम ने यह कहा - कुष्पवयण - पासण्डी, सम्वे. उम्मग्गपट्टिणा। "मिथ्या प्रवचन को मानने वाले सभी पाषण्डी-ती लोग सम्मगं तु जिणक्खाय, एस मग्गे हि उत्तमे ।। उन्मार्ग पर चलते हैं। सन्मार्ग तो जिनोपदिष्ट है, और यही -उत्त. अ.२३, गा.६०-६३ उत्तम मार्ग है।" मोक्खमग्ग जिपणासा मोक्षमार्ग जिज्ञासा२९३. कयरे मरगे अक्खाते, माहणेण मतीमता। २६३. अहिंसा के परम उपदेष्टा (महामाहन) केवलज्ञानी (विशुद्ध मग उज्जु पावित्ता, मोहं तरति युत्तर ॥ मतिमान) भगवान महावीर ने कौन सा मोक्षमार्ग बताया है। जिस सरल मार्ग को पाकर दुम्तर संसार (ओघ) को मनुष्य पार करता है ? तं मग्न अत्तरं युख, सम्पदुक्ख विमोक्खणं । हे महामुने ! सब दुःखों से मुक्त करने वाले शुद्ध और अनुखाणासि णं जहा भिक्षु, संमे हि महामुणी ॥ सर (सर्वश्रेष्ठ) उस मार्ग को आप जैसे जानते हैं, (कृपया) बह हमें बताइये। माणे के पुलिछज्जा, देवा भव माणसा । यदि कोई देव अथवा मनुष्य हमसे पूछे तो हम उनको कोन तेसि तु कतरं मागं, आइक्लेम कहाहि ॥ सा मार्ग बताएँ ? (कृपया) यह हमें बताइये । गायो के पुच्छिज्जा, देवा अवुन माणसा। यदि कोई देव या मनुष्य तुमसे पूछे तो उन्हें यह (आगे सेसिमं पहिसाहेज्जा, मागसारं सुह मे ॥ कहा जाने वाला) मार्ग बतलाना चाहिए। यह साररूप मार्ग तुम मुझसे सुनो। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २६३-२९६ निर्वाण-मार्ग दर्शमाचार १६७ अणपुरणं महाघोरे, कासवेग पवेबियं । कायपगोपीय श्रमण भगवान् द्वारा प्रतिपादित उस अतिजमावाय इओ पुरावं, समुई व बबहारिणी ।। का मार्ग को है मशः बताता हूँ। मैं समुद्र मार्ग स विदेश में व्यापार करने वाले व्यापारी समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही इस मार्ग का आश्चम लेकर इससे पूर्व बहुत से जीवों ने संसार-सागर को पार किया है। अतरिसु सरतेगे, तरिस्संति अणागता। ___ वर्तमान में कई भव्य जीव पार करते हैं, एवं भविष्य में भी तं सोच्छा पडियखामि, जंतवो तं मुह मे ।। बहुत से जीव इसे पार करेंगे। उस भावमार्ग को मैंने तीर्थकर --सुय. सु. १, अ. ११, गा.१-६ महावीर से सुनकर (जैसा समझा है) उस रूप में मैं आप (जिज्ञासुओं) को कहूँगा । हे जिज्ञासुजीबों ! उस मार्ग (सम्बन्धी वर्णन को आप मुझसे सुने । निवाण-मम्ग निर्वाण-मार्ग२९४. हा अहे तिरिय छ, जे के तस-थायरा । २६४. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक में) जो कोई अस और सम्बत्व विरति कुज्जा, संति निख्वाणमाहियं । स्थावर जीव हैं, सर्वत्र उन सबकी हिमा से विरति (निवृत्ति) करना चाहिए। (इस प्रकार) जीम को शान्तिमय निर्वाण-मोक्ष (की प्राप्ति कही गई है। पन्न दोसे निराकिच्चा, ग विरुलेग्ज केणइ । ___ इन्द्रियविजेता साधक दोषों का निवारण करके किसी भी मणसा बसा चेव, कायसा चैव अंतसो ॥ प्राणी के साथ जीवनपर्यन्त मन से, वचन से या काया से वैर -सूय. सु. १, अ. ११, गा. ११-१२ विरोध न करे। अणुत्तर णाण-वंसणं अनुत्तरज्ञान दर्शन२६५. जमतोतं पड़प्पालं, आगामिस्सं च णापगो । २९५. जो पदार्थ (अतीत में) हो चुके हैं, जो पदार्थ वर्तमान में सव्वं मण्णति संताती, सणावरणतए विद्यमान हैं और जो पदार्थ भविष्य में होने वाले हैं, उन सबको दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा अन्त करने वाले जीवो के वाता रक्षक, धर्मनायक तीर्थकर जानते-देखते हैं। अंतए वितिगिहाए, से जाति अणेलिस। जिसने विचिकित्सा (संशय) का सर्वथा अन्त (नाश) कर अणेलिसस अक्खाया, ग से होति तहि तहि ॥ दिया है, वह (घातिचतुष्टय का क्षय करने के कारण) अतुल –'सूय. सु. १, अ. १५, गा. १-२ (अप्रतिम) ज्ञानवान् है। जो पुरुष सबसे बढ़कर वस्तुतस्य का प्रतिपादन करने वाला है, वह उन-उन (बौद्धादि दर्शनों) में नहीं होता। मेसि भावणा मैत्री भावना२९६. (क) हि तहि सुयक्खायं, से य सन्चे सुयाहिए । २९६. (क) (तीर्थकरदेव ने) उन-उन (आगमादि स्थानों) में जो सरा सच्चेण संपण्णे, मेति भूतेहि कल्पते ।। जीवादि पदार्थों का) अच्छी तरह से कथन किया है, वही सत्य है और वही सुभाषित (स्वाख्यात) है । अतः सदा सत्य से सम्पन्न होकर प्राणियों के साथ मैत्री भावना रखनी चाहिए। भूतेहि न विहज्जा , एस घम्मे बुसीमओ। प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करें, यही तीर्थंकरों का या खुसीम जयं परिण्णाय, अस्सि जोवितभावणा ।। सुसंयमी का धर्म है । कुसंयमी साधु जगत् का स्वरूप सम्यकरूप से जानकर इस वीतराग-प्रतिपादित धर्म में जीषित भावना करे । मावणाजोगसुखप्पा , जसे णाषा व आहिया। भावनाओं के योग से जिसका अन्तरास्मा सुब हो गया है, नावा व तीरसंपत्ता, सम्पदुक्खा तिउदृति ॥ उसकी स्थिति जल में नौका के समान कही गई है। किनारे पर -सूप. सु. १, अ. १५, गा. १-५ पहुँची हुई नौका विश्राम करती है, वैसे ही भावना योग साधक भी संसार-समुद्र के तट पर पहुँचकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [१९] मरणानुयोग (ख) जं च मे पृथ्मो का सम्मं सुण बेसा । ताई पाउकरे बुझे, तं नाणं जिणसासणे ॥ किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए । विट्ठीए विद्विसम्पन्ते धम्मं वर सुदुच्चरं ॥ एवं पुष्णपर्य सोचा, अस्य मोसोहिये। भरो व भावानं साकामा पयए ।। सगरो दि सागरन्तं भरह्वा नरः हिवो इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिबुडे || चामारा, नश्वट्टी हिडिओ म · म नाम महाजो || सकुमारी मणुस्सियो, चक्कनट्टी महिडिओ । पुतं रज्जे विसानं, सो व या तवं धरे ॥ पदता भार वास, चनकट्टी महिम सन्ती सन्तिकरे लोए, पत्तो गमनुत्तरं ॥ मखागरायवसभो , कुन्यु नाम विद्यायको धिमं पत्तो सागरन्तं जहित्ताणं, भरहं हितार्थ भरहं असे अर पत्तो पत्तो नराहियो । मरं ॥ नरवरीसरो । सरं ॥ इत्ता भारहं वासं चक्वट्टो नराहिओ । इत्ता उत्तमे मोए महापजमे तवं परे ।। एगच्छसं पसाहिता, महि माणनिसूरणरे । हरिसेणो मस्तिन्वो पत्तो मरं ॥ अनिओ र तोहि सुपरवाई जो पत्तो परे गद्दमत्तरं ॥ दसणरज्अं मुह, पत्ता मुणी परे णमो विश्वस्तोओ ।। नमी गमे अध्या, सवं सबकेण चोइजो चऊ गेहं यदेही सामणे पज्जुवडिओ ॥ करकण्डू कलिगे, पंचालेसु य बुभ्नुहो । नमो राया विदेहेसु गन्धारेसु प माई ॥ मैत्री भावना सूत्र २१६ wwwwwn (ख) 'जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे बुद्ध- सर्वेश ने प्रकट किया है। अतः वह ज्ञान विद्यमान है।" "धीर पुरुष किया में रुचि रखे और अनिया का त्याग करे । सम्यदृष्टि से दृष्टिनम्पन्न होकर तुम दुश्चर धर्मं का आचरण करो । और धर्म मे उपयोजित इस पुण्यपद (पवित्र उदेश ब) को सुनकर भरत भवतीं भारत और कामभोगादि का परित्याग कर प्रब्रजित हुए थे।" "सागर चक्रवर्ती सागर पन्त भारतवर्ष एवं पूर्व ऐश्वर्य को छोड़कर दया अर्थात् संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।" "महान् ऋद्धि-सम्पन्न महान यशस्वी मघवा नामक चकवर्षों से भारतवर्ष को छोड़कर स्वीकार की ।" "महान् द्धिसम्म मनुष्येन्द्र सनरकुमार च को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया।" महान् ऋद्धि-सम्पन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर नति प्राप्त की।" "इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर, विख्यातकीति, धृतिमान्नाथ ने अनुत्तर गति प्राप्त की।" "सागरपर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर कर्म-रज को दूर करके नरेश्वरों में श्रेष्ठ "अर" ने अनुतर गति प्राप्त की ।" "भारतवर्ष को छोड़कर, उत्तम भोगों को त्यागकर "महापद्मवर्ती ने तप का आचरण क्रिया ।" "शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एकछत्र शासन करके फिर अनुसार गति प्राप्त की ।" "हजार राजाबों के साथ श्रेष्ठ त्यागी जय चक्रवर्ती ने राज्य का परित्याग कर जिन भाषित दम (संयम) का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की ।" "साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दमा-भद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि-धर्म का आचरण किया।" "साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होने पर भी विदेह के शब्दा शनि श्रामण्य धर्म में भविथति स्थिर हुए और अपने को अति नम्र बनाया ।" "कलिंग में करकण्डु पांचाल में दिमुल, विदेह में नवि राजा और गन्धार में नग्गति Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धस्थान का स्वरूप दर्शनाचार [EE एए नरिश्ववसमा, निक्खन्ता जिणसासणे । ये राजाओं में वृषभ के समान महान् थे। इन्होंने अपनेपुते रज्जे वित्ताणं, सामणे पज्जवद्विया ॥ अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया। सोवोररायवसभो , चेच्चा रज्ज भुगो चरे। सोवीर राजाओं में वृषभ के समान महान उद्रायण राजा उद्दायको परखइमओ, पत्तो गमगत्तरं ॥ ने राज्य को छोड़कर प्रवज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। तहेव कासोराया, वि सेओ-सच्चपरक्कमे। इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने कामभोगे परिचज्ज, पहणे कम्ममहावणं । काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महाबन का नाश किया । तहेव विजओ राया, अष्टाकित्ति पवए। इसी प्रकार अमरकीति महान् यशस्वी विजय राजा ने रनं तु गुणसमिवं, पहित महाजसो॥ गुण-समृद्ध राज्य को छोड़कर प्रयज्या ली । तहेवागं तवं किमचा, अश्वविखतण वेपसा । इसी प्रकार अनाकुल दित्त से उन तपश्चर्या करके राजर्षि महायलो रायरिसी, अहाय सिरसा सिरं ।। महाबस ने शिर देकर शिर प्राप्त किया- अर्थात् अहंकार का विसर्जन कर सिद्धिरूप उच्च पद प्राप्त किया। अथवा सिद्धिरूप श्री प्राप्त की। कहं धोरो अहेमहि, उम्मत्तो व महि घरे ? इन भरत आदि शूर और दृढ़ पराक्रमी राजाओं ने जिनएए विसेसमादाय, सुरा बचपरककमा ।। शासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था। अतः अहेतुबादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ? अस्वस्तनिशाणखमा , सच्चा मे भासिया वई। __मैंने यह अत्यन्त निदानक्षम---युक्तिसंगत सत्य-वाणी कही अतरिसु तरन्तेगे, तरिस्सन्ति अगागया ॥ है। इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में संसार-समुद्र से पार हुए हैं. वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे। कह धीरे अहेकाँह, अत्ताणं परियावसे ? और साधक एकान्तवादी अहेतुवादों में अपने आप को सम्वसंगविनिम्मुक्के , सिद्धे हवइ नौरए॥ कैसे लगाएँ ? जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज अर्थात् -उत्त. अ. १८, गा, ३२-५४ कर्मरज से रहित होकर सिद्ध होता है। सिबवाण सरूवं सिद्धस्थान का स्वरूप२६७. इह आगति गति परिणाय अच्चेति जातिमरणस्स बट्टमार्ग २६७. साधक जीवों की गति-आगति (संसार परिभ्रमण) के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यात-रत मुनि जन्म-मरण के वृत्त मार्ग को पार कर जाता है। सम्वे सरा नियन्ति, (उन सिद्वात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी तरका जत्व ग विज्ञप्ति, स्वर लौट जाते हैं, वहाँ कोई तर्क नहीं है, वहाँ मति भी प्रवेश मती तत्य ण गाहिया। नहीं कर पाती। वहां (मोक्ष में) वह समस्त कर्मफल से रहित ओए अप्पतिट्राणस्त खेतणे । ओजरूप शरीररूप प्रतिष्ठान-आधार से रहित और क्षेत्रज्ञ ही है। से ण दोहे, ण हस्से, ग वर्ल्ड', ण तसे, ग घरसे, वह न दीर्घ है, न हस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न ण परिमंडले, चतुष्कोण है, न परिमण्डल है। म किण्हे, ग णीसे, लोहिले, ण हालिद्दे, प मुक्किले, ' वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पोला है और न शुक्ल है। बक्सातरले। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] चरणानुयोग सुभिगंधे, ण डुभिगंधे, ण तित्ते, ण कए, ण कसाए, ण अंबिले, न महरे, कक्खडे, ण णि ण लुक् काऊ, ण कहे णसंगे, ण इत्यो ण पुरिसे, ण रहा। मचए, ण गरुए, ग लहुए, न सोए, ण उण्हे, परिणे सणे । उधमरण विज्जति । अरूवो सत्ता । अपवस्स एवं मंत्थि । सत्यवक्ता, असत्यवक्ता अर्शनसत्या दर्शन असल्या सेण सद्दे, हवे, ण गंधे, ग रसे, ण फासे इच्वेतानंति । -आ. सु. १, अ. ५, उ. ६, सु. १७६ सच्चा असच्चा दंसणसरचा दंसणअसच्चा २१८. सारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- सामी, नाममेव असच्चे नाममेगे सच्चविट्ठी, अमेि सुसीला दुम्सीला सुवंसणा कुदंसणा२६६. चतारि पुरिसजाया पणसा, तं जहा -- सुट्टी सुई नाममेगे मुवी. असुई नायमेगे सुहविट्ठी, असुई नाममेगे असुविट्ठी 1 -अपं. अ. ४, उ. १, सु. २४१ सुद्धा असुद्धा सुद्ध दंसणा असुद्ध बंसणा३०० पारि पुरिवाया पता जहासं सुखे नामभेगे सुद्ध सुद्धे माममे असुद्ध असुद्ध नामभेगे सुद्धे, मसू नामगेगे अमुड़े । - ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २३२ न वह सुगन्ध युक्त है, न तिक्त ( तीखा है, न कडुवा है, न कसैला है, न खट्टा है, न मीठा है, न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न ठंडा है, न गर्म है, न चिकना है, न रूखा है, सूत्र २६७-३०० नावान् है न जन्मधर्मा है, संगरहित है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । है ( है ह चैतन्यमय जान है उसका दोध कराने के लिए कोई उपमा नहीं है । वह अरूपी (अमूर्त) सत्ता है । वह पदातीत अपद है। उसका बोध कराने के लिए कोई पद नहीं है । वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। बस, इतना ही है । सत्यवक्ता, असत्यवक्ता दर्शनसत्या दर्शन असत्या२६८. चार प्रकार के पुरुष हे हैं, यथा एक पुरुष सस्य बता है और उसकी दृष्टि-दर्शन भी सत्य है, एक पुरुष सत्यवक्ता है किन्तु उसकी दृष्टि-दर्शन असत्य है, एक पुरुष असत्यवक्ता है किन्तु उसकी दृष्टि-दर्शन सत्य है। एक पुरुष असत्यवक्ता है और उसकी दृष्टि-दर्शन भी असत्य है । सुशील और दुश्शील, सुदर्शन और कुदर्शन२६६. चार प्रकार के पुरुष व हे हैं, यथा एक पुरुष अच्छे स्वभाववाला है और उसकी दृष्टि-दर्शन भी अच्छा है, एक पुरुष अच्छे स्वभाववाला है किन्तु उसकी दृष्टि-दर्शन मच्छा नहीं है, - ठाणं . ४, उ. १, सु. २४१ दर्शन भी अच्छा नहीं है । एक पुरुष अच्छे स्वभाववाला नहीं है किन्तु उसकी दृष्टिदर्शन अच्छा है। एक पुरुष अच्छे स्वभाववाला नहीं है और उसकी दृष्टि शुद्ध और अशुद्ध शुद्ध दर्शनवाले और कुदर्शनवाले. ३००. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा — एक पुरुष शुद्ध हैं और उसकी दृष्टि-दर्शन भी शुद्ध है, एक पुरुष शुद्ध है किन्तु दृष्टि शुद्ध नहीं है, एक पुरुष अशुद्ध है किन्तु उसकी दृष्टि शुद्ध है, एक पुरुष अशुद्ध है और उसकी दृष्टि भी अशुद्ध है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष ३०१-३०२ मत और मवमत पर्शनी दर्शनाचार २१ उन्नया अवनया उन्नयबसणा-अवनयसणा उनत और अवनत, उन्नत दर्शनी और अवनत दर्शनी३०१. चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा ३०१. चार प्रकार के पुरुष कहे है, यथाउमए नाममेगे उभयविट्ठी, एक पुरुष उन्नत है और उन्नत दृष्टि-दर्शनवाला है, उनए नाममेगे पणएविट्ठी, एक पुरुष उन्नत है किन्तु हीन दृष्टि-दर्शनवाला है, पणए नाममेगे उन्नयबिट्ठी, एक पुरुष हीन है किन्तु उन्नत दृष्टि-दर्शनवाला है, पणए नाममेगे पणएविट्ठी। एक पुरुष हीन है और हीन वृष्टि-पर्शनवाला है। -ठाणं. ब. ४, उ. १, सु. २३६ सरला बंका उज्जुबसणा-कदसणा आह - सरल और वक्र, सरल दुष्टि और वक्रदष्टि आदि३०२. (क) बत्तारि पुरिसजाया पणता, तं अहा ३०२. चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाउज्जू नाममेंगे उम्जूविट्ठो, __एक पुरुष हृदय से सरल है और मायारहिस दृष्टि दर्शनवाला है, उग्न नाममेगे वकविट्ठी, एक पुरुष हृदय से सरल है किन्तु वह भायायुत दृष्टि दर्शनवाला है, बके नाममेगे उज्वृविट्ठी, ___ एक पुरुष हृदय से वक्र है किन्तु मायारहित दृष्टि दर्शनवाला है, बके माममेगे यकविडो। एक पुरुष हृदय से वक्र है और मायायुत दृष्टि-दर्शन-ठाणं. अ. ४, उ. 1, सु. २३६ वाला है । (ख) पत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथाअग्ने नाममेगे अन्मविट्ठी, एक पुरुष आर्य है और आर्य दृष्टि-दर्शनवाला है, भाजे नाममेगे अगजविट्ठो, एक पुरुष आर्य है किन्तु अनार्य-दृष्टि-दर्शनवाला है, अगज्जे नाममेगे अज्जविट्ठी, एक पुरुष अनार्य है किन्तु आयं दृष्टि-दर्शनवाला है, अणज्ने नाममेगे अणज्नविट्ठी। एक पुरुष अनार्य है और मनायं दृष्टि-दर्शनवाला है। -ठाणं. ब.४, उ. २.सु.२८० (ग) चत्तारि पुरिसजाया पण्णी , ब्रहा चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा-- वोगे नाममेगे दोणविट्ठी, एक पुरुष म्लान मुख दाला है और उसकी दृष्टि-दर्शन भी स्पष्ट नहीं है, होणे नाममेगे सोपविट्ठी, एक पुरुष म्सान मुख वाला है किन्तु उसकी दृष्टि-दर्शन स्पष्ट है, अदोणे नाममेगे बोगचिट्ठी, एक पुरुष म्लान मुख वाला नहीं है किन्तु उसकी दृष्टि दर्शन स्पष्ट है, अबोणे नाममेगे अदोणचिट्ठी । __ एक पुरुष म्लान मुख वाला नहीं है और उसकी दृष्टि-ठाणं. अ.४,उ. २, सु. २७१ दर्शन भी स्पष्ट है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] परमानुयोग पुण्डरीक समाधी इष्टात राष्ान्तिक को योजना दर्शनाचार : परिशिष्ट (१) पुष्परीक सम्बन्धी दृष्टान्त बान्तिक को योजना प्रस्तुत प्रकरण के दो सूत्रों (सूत्र २७७-२७८) में से प्रथम सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों की जिज्ञासा देखकर उनको दृष्टान्तों का अर्थघटन करके बताने का आश्वासन दिया है, द्वितीय सूत्र में महावीर प्रभु ने अपनी केवलज्ञानरूपी प्रज्ञा द्वारा निश्चित करके पुष्करिणी आदि दृष्टान्तों का विविध पदाधों से उपमा देकर इस प्रकार अर्थघटन किया है (१) पुष्करिणी चौदह रज्जू-परिमित विशाल लोक है। जैसे पुष्करिणी में अगणित कमल उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, वैसे ही लोक में अगणित प्रकार जीव स्त्र सक्रमानुसार उत्पा-मिनष्ट होते रहते हैं। पुष्करिणी अनेक कमलों का आधार होती है, वैसे ही मनुष्यलोक भी अनेक मानवों का आधार है । (२) पुष्करिणी का जल कर्म है। जैसे पुष्करिणी में जल के कारण कमलों को उत्पत्ति होती है, वैसे ही आठ प्रकार के स्वकृत कमाँ के कारण मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। (३) काम-भोग पुष्करिणी का कीचड़ है। जैसे—क्रीचड़ में फंसा हुआ मानव अपना उद्धार करने में असमर्थ हो जाता है, बैसे ही काम-भोगों में फंसा मानव भी अपना उद्धार नहीं कर सकता । ये दोनों ही समान रूप से बन्धन के कारण हैं। एक बाय बन्धन है, दूसरा आन्तरिक बन्धन । (४) आयंजन और जनपद बहुसंख्यक श्वेतकमल हैं। पुष्करिणी में नाना प्रकार के कमल होते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक में नाना प्रकार के मानब रहते हैं। अथवा पुष्करिणी कमलों से सुशोभित होती है, वैसे ही मनुष्यों और उनके देशों से मानव लोक सुशोभित होता है। (५) जैसे पुष्करिणी के समस्त कमलों में प्रधान एक उत्तम और हिमाल श्वेलकमल है. वैसे ही मनुष्यलोक के सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ और सब पर शासनकर्ता नरेन्द्र होता है. वह भीर्षस्य एवं स्व-पर अनुगास्ता होता है, जैसे कि पुष्करिणी में कमसों का शीर्षस्थ श्रेष्ठ पुण्डरीक है। (E) अविवेक के कारण पुष्करिणी के कीचड़ में फँस माने वाले जैसे वे चार पुरुष थे, वैसे ही संसाररूपी पुष्करिणी के कामभोगरूपी कीचड़ या मिथ्या मान्यताओं के दलदल में फंस जाने वाले चार अन्यतीर्थिक हैं, जो पुष्करिणी-पंकमाम पुरुषों की तरह न तो अपना सार कर पाते हैं, न ही प्रधान श्वेतकमलरूप शासक का उद्धार कर सकते हैं । (७) अन्यतीक्षिक गृहत्याग करके भी सत्सयम का पालन नहीं करते, अतएव वे न तो गृहस्थ ही रहते हैं, न साधुपद-मोक्षपद प्राप्त कर पाते हैं । वे बीच में फंसे पुरुषों के समान न इधर के न उधर के रहते हैं -उभयभ्रष्ट ही रह जाते हैं । (4) जैसे बुद्धिमान् पुरुष पुष्करिणी के भीतर न घुसकर उसके तट पर से ही आवाज देकर उत्तम श्वेतकमल को बाहरनिकाल लेता है, वैसे ही राग-द्वेषरहित साधु काम-भोग रूपी दलदल से युक्त संसार-पुष्करिणी में न घुसकर संसार के धर्मतीर्थरूप तट पर खंडा (तटस्थ-निलिप्त) होकर धर्मकथारूपी आवाज देकर श्वेतकमसरूपी राजा-महाराजा आदि को संसाररूपी पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं। (६) जैसे कमल जल और कीचड़ का त्याग करके बाहर (उनसे ऊपर उठ) आता है, इसी प्रकार उत्तम पुरुष अपने अष्टविध कर्मरूपी जल और काम-मोगरूपी कीचड़ का त्याग करके निर्बाणपद को प्राप्त कर लेते हैं। श्वेतकमल का ऊपर उठकर बाहर आना ही निर्वाण पाना है। (२) क्रियावार नियुक्तिकार ने कियाबाद के १८० भेद बताए हैं । वे इस प्रकार से है--सर्वप्रथम जीव, अजीक, पुण्य, पाप, आप्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों को क्रमशः स्थापित करके उसके नीचे स्वतः और परत: ये दो भेद रखने चाहिए । इसी तरह उनके नीचे "निन्य" और "अनित्य" इन दो भेदों की स्थापना करनी चाहिए । उसके नीचे क्रमशः काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और पास्मा इन ५ भेदों की स्थापना करनी चाहिए। जैसे-(१) जीव स्वत: विद्यमान है, (२) जोर परतः (दूसरे से) उत्पन्न होता है, (३) जीव नित्य है, (४) जीव अनित्य है, इन चारों भेदों को क्रमशः काल आदि पांवों के साथ सेने से बीस भेद (४४५= २०) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक सम्बन्धी दृष्टान्त गष्टास्तिक की योजना बनाधार परिशिष्ट २३ - - होते हैं। इसी प्रकार अजीवादि शेष : के प्रत्येक के बीस-बीस भेद समझने चाहिए। यों नौ ही पदार्थों के २.xe=१८० भेद क्रियावादियों के होते हैं।' (8) अफ्यिाबाव अक्रियाबाद के ८४ भेद होते हैं, वे इस प्रकार हैं-जीव आदि ७ पदार्थों को क्रमशः लिखकर उसके नीचे (१) स्वत: और (२) परतः ये दो भेद स्थापित करने चाहिए। फिर उन ७ x २= १४ ही पदों के नीचे (१) काल, (२) यदृच्छा, (३) नियति, (४) स्वभाव, (५) ईश्वर और (६) आत्मा इन ६ पादों को रखना चाहिए। जैसे - जीव स्वतः यदृच्छा से नहीं है, जीव परत: यदृच्छा से नहीं है. जीव स्वतः काल से नहीं है, जीव परत: काल से नहीं है, इसी तरह नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ भी प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं । यो जीवादि सातों पदार्थो के सात स्वतः परतः के प्रत्येक के दो और काल आदि के ६ भेद मिलाकर कुल ७४२=१४४६-८४ भेद हुए। (४) अज्ञानवाद अचानवादियों के ६७ भेद इस प्रकार हैं—जीवादि । तत्वों को क्रमशः लिखकर उनके नीचे ये ७ भंग रखने चाहिए(१) सत्, (२) असत्, (३) सदसत्, (४) अवक्तव्य, (५) सदवक्तव्य, (६) असदवक्तव्य, और (७) सद्-असद् अवक्तव्य 1 जैसे-जीव सत् है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भो क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार क्रमशः असत् आदि शेष छहों भंग समम लेने चाहिए । जीबादि । तत्वों में प्रत्येक के साथ सात भंग होने से कुल ६३ भंग हुए। फिर ४ भंग ये और मिलाने से ६३+४%3D६७ भेद द्वाए। चार भंग ये हैं (१) सत् (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है, और यह जानने से भी क्या लाभ? इसी प्रकार असत् (अविद्यमान), सदसत् (कुछ विद्यमान और कुछ अविद्यमान), और अवक्तव्यभाव के साथ भी इसी तरह का वाप जोड़ने से ४ विकल्प होते हैं । (५) विनयवाद नियूंक्तिकार ने विनयवाद के २२ भेद बताये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) देवता, (२) सजा, (३) पति, (४) जाति, (५) वृद्ध, (६) अधम, (७) माता और (6) पिता। इन याठों का मन से, वचन से, काया से और दान से विनय करना चाहिए। इस प्रकार ८४४=३२ भेद विनयवाद के हुए।' इस प्रकार अन्यतीथिक मान्य क्रियावाद के १८० भेद अक्रियावाद के ८४ भेद अज्ञानवाद के ६७ विनयवाद के ३२ भेद सर्वभेद ३६३ १ सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. ११६ । २ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०५। । सूत्रकृताग शीलांक वृत्ति पत्रांक २.८ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्शनाचार सम्यक्दर्शन तालिका २०४] -e परवानुमोप माठ धंग १. नि:शंका २. निष्कांक्षा ३. निविरिकित्सा ४. अमूढदृष्टि ५. उपबृहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य ८. प्रभावना ase १. निसर्ग सम्बपदर्शन २. अभियन सम्यग्दर्शन पांच समय: १.उपशम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अणुकंपा ५. आस्तिक्य पांच अतिचार १. शंका २. कांक्षा ३.विचिकित्सा ४. पर-पाषंड-प्रशंसा . पर-पाषंड-संस्तव. पांच भूषण १.जिनशासन कुशलता २. प्रभावना ३. तीर्थ सेवना ४. धर्म स्थिरता ५. गुण-भक्ति क्स प्रकार (हनि) १. निसर्गरुचि २. उपदेशरुचि ३. आज्ञारुचि ४. सूत्ररुचि ५. बीजरुचि ६. अभिगमरुचि ७. विस्ताररुचि ८. क्रियारुचि १. संक्षेपनि १०. धर्मरुचि भढा के चार प्रकार १. परमार्थ का संस्तव २. सुदृष्ट परमार्थ सेवना ३. सम्यक्त्व भ्रष्ट का संगत्याग ४. कुदर्शनी का संगत्याग आठ प्रभावक १.प्रावनिक २. धर्मकर्थिक ३. वादी ४. नैमित्तिक ५. तपस्वी ६. विद्यासिद्ध ७. कवि ५.प्रभावक - - - सम्बदशम मियादर्शन - - - मिथ्यादेशन २ अविनय ३ अज्ञान १ प्रयोग किया २ समुरान क्रिया ३ अमान किया ३ प्रकार वश प्रकार १. मनःप्रयोग क्रिया २. वचनप्रयोग क्रिया ३. कायप्रयोग क्रिया १. अनन्तर समुदानक्रिया २. परम्पर समुदानकिया ३. तदुमय समुदानक्रिया १. मतिबज्ञान किया २. श्रुतबज्ञान क्रिया ३. विभंगमजान किया १. देशमशान २. सर्वज्ञान ३.भावअज्ञान १. धर्म में अधर्म श्रद्धा २. अधर्म में धर्म धद्धा (आदि)। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1ि . . || चरित्तायारो पणियाण . . नोगात्तो, पंचहि समतीहि तिहि य गुत्तीहि । चरित्तायारो. अदविहो होति णायव्यों ॥.. एस: ." :"-.". .........! ....निशीषभाष्य; भाग १, गा.३५ . . सम्प च र णा नु यो ग - [चा रि वा धार] . . . . ... .... :------ Rai . .... .. . . . . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्तायारो चारित्राचार चरणविहिमहत्तं चरणबिधि का महत्व३०३. बरपविहि पवस्वामि, जीवत्स उ सुहावहं । ३०३. अब मैं जीव को सुख देने वाली उस वरण-विधि का जं चरित्ता बहू श्रीवा, तिम्णा संसारसागरं ॥ . कथन करूंगा जिसका आचरण कर बहुत से जीव संसार-सागर -उत्त. अ. ६१, गा.१ से तिरगए । गोहि बाहिं संपन्ने अगगारे अणावीयं अणषयगं बहमदं विद्या और चरण (चारित्र) इन दोनों स्थानों से सम्पन्न चातसंसारकसारं वीस्विसेज्जा, तं जहा--विजाए चेय अणगार अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग बाले एवं चतुर्गतिरूप संसार धरणेण चेव। -ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ५३ रूपी गहन वन को पार करता है, अर्थात् मुक्त होता है। गरिप आसवे संवरे वा, गेव सम्णं निवेसए । आश्रव और संवर नहीं है ऐसी श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए अस्थि आसवे संवरे वा, एवं मण्ण मिवेसए । किन्तु आथव भी है और संबर भी है ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए। -सूव. सु. २, अ. ५, गा. १७ संवरस्स उप्पत्ति अणुप्पत्ति य - संवर की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति३०४. तो आमा पण्णता, ३०४. तीन घाम (प्रहर) कहे गये हैंतं जहा-पढ़में आमे, मजिसमे मामे, परिछमे जामे । यथा-प्रथम याम, मध्यम याम और अन्तिम याम । तिहि जामेहि माया केवलेणं संवरेणं संवरेज्मा, तीनों ही यामों में आरमा विशुद्ध संवर से संवृत होता हैसं जहा-पदमे जामे, मगिरमे जामे, पच्छिमे जामे । यथा-प्रथम याम में, मध्यम पाम में और बन्तिम याम में। -ठाण. अ.२, उ. २, मु. १६३ १०-असोग्ना गं अंते । केवलिस वा-जाव-तप्पक्लिष- प्र.-मन्ते ! केवलि से-यावत्-केवलिपाक्षिक उपा उवासिपाए या केवलेणं संवरेणं संधरेग्जा? सिका से बिना सुने कोई जीव संवर आराधन कर सकता है? २०-गोयमा ! असोच्चा णं केवपिस्स या-जाब-तप्पक्षिय- ०-गौतम ! केवलि से यावत् – केवलिपाक्षिक उपा उवाप्तियाए वा अस्थेगत्तिए फेवलेण संवरेणं संबरेश्जा, सिका से सुने बिना कई जीव संवर आराधन कर सकते हैं और अल्पेगत्तिए केवलेणं सवरेणं मोसंबरेज्जा। कई जीव संवर आराधन नहीं कर सकते हैं। ५०-से केपट्टणं भंते । एवं बह प्रा-भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता हैअसोचा नं केलिस्स या-जाव-तप्पविखपउवासियाए केबलि से-पायल केवलि पाक्षिक उपासिका से सुने रिना बा अरयेगत्तिए केवलेणं संवरेण संवरेज्जा, आवेत्तिए कोई एक जीव संबर आराधन कर सकता है और कोई जीव केवले संवरेणं नो संबोजा? संवर आराधन नहीं कर सकता? रा-गोयमा ! जस्स पं अजमवसापावरणिज्जाणं कम्माणं 30-गौतम ! जिसके अध्यवसानावरणीय कमों का आयो. जोवसमे करे प्रबह से पं असोच्चा फेवलिस्स पर पशम हुआ है वह केवलि से-यावत-केवलि पाक्षिक उपासिका -जाव-तपस्वियउवासियाए वा केवलेणं संबरेणं संव- से सुने बिना संबर आराधन कर सकता है। रेक्सा । १ ठाणं, अ.२, उ०१, सु.६१ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] चरणानुयोग संबर को उत्पत्ति और अनुत्पत्ति सूत्र ३०४-३०५ जस्स गं अज्झवसाणावरणिज्जाणं करमागं खोषसमे जिम के अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है। नो करे भवइ, से णं असोच्या केलिस्स बा-जाव- बह केवलि से यावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से सुने बिना तपविखयउवासियाए वा केवलेणं संवरेण नो संवरेज्मा । संवर आराधन नहीं कर सकता है। से तेण?णं गोयमा एवं बुमचद गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता हैजस्स गं अज्ससाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे जिस के अध्यबसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है वह करे भवइ, से पं असोपना केलिस्स बा-जाम-तप्प. केवली से-जावत्-वलिपाक्षिक उपासिका से सने विना पिखयजवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संबरेज्मा। संबर आराशन कर सकता है। जस्स णं अवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे जिसके अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ भोकडे प्रवइ, सेणं असोकचा केवलिस वा-जाव-सम्प- है वह केवली से-यावल-केवलि पाक्षिक उपासिका से सने पिखपउवासियाए वा केवलेग संवरेणं नो संबरेज्जा। बिना संवर आराधन नहीं कर सकता है । --वि. स. ७.११, सु. ११ प०-सोकचा गं मंते ! केबलिस वा-जाव-तप्पक्खियउवा- प्र.- भन्ते ! केवलि से-बावत्--केवलिपाक्षिक उपासियाए वा केवलेणं संवरेण संवरेज्जा? सिका से सुनकर कोई जीव संवर आराधन कर सकता है ? 30-गोयमा ! सोना में केवलिस्स वा-जाव-तप्पक्खिय- ०-गौतम ! कवलि से यावत- केवलिपाक्षिक उपा स्वासिमाए वा अत्थेसिए केवण संवरेणं संवरेज्जा, सिका के सुनकर कोई जीव संवर आराधन कर सकता है और मस्येगसिए केवलेणं संवरेणं नो संबरेजा। कोई जीव संवर आराधन नहीं कर सकता है। ५०-से केण? भंते ! एवं बुच्चद प्र०-भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता हैसोनमा ग केयलिस वा-जान-तापक्खियउवासियाए वा केवलि से-यावद-केवलि पाक्षिक उपासिका से सुनकर अत्यत्तिए केबसेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्गत्तिए कोई जीव संवर आराधन कर सकता है और कई जीव संवर केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा ? आराधन नहीं कर सकता है? उ-गोयमा ! जस्स णं अज्ञवसाणावरणिजाणं कम्माणं उ०-गौतम ! जिराके अध्यवसानावरणीय कर्मों का आयो खोवसमे कडे भव से गं सोचा के लिस्स वा-जाव- पशम हुआ है वह केवलि से यावत् केवलि पाक्षिक उपासिका तम्पक्खिय उवासियाए वा के अनेगं संवरेगं संवरेज्जा। से गुनकर संवर भाराधन कर सकता है। जस्स अनशवसामावरणिज्जाणं कम्मागं खओवसमे जिसके मध्यवसातावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ नो कडे भवद से गं सोच्या केवलिस्स वा-गाव-तप्प- है वह केवलि से यावत्- केवलिपाक्षिक उपासिका से सुनकर विखपजवासियाए वा फेवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा । संघर आराधन नहीं कर सकता है। से तेण?णं मोयमा एवं बुच्च गौतम ! इस कारण से एसा कहा जाता हैअस्स गं अज्नवसागावरणिज्जार्ण कम्माणं खओक्समे जिसके अध्यावसानाधरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है को भवा, से सोच्चा केवलिस्स वा-जाव-तपक्षिय- वह केवलि से-यावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से सुनकर उवासियाए वा केवले संबरेणं संवरेज्जा 1 संवर आराधन कर सकता है। अस्त गं अज्ावसागावरणिज्जागं कम्माणं खोवसमे जिसके अध्यायसानाबरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ नोकरे मवइ, से णं सोचा केलिस्स बा-जाव-तप्प- है वह केवलि से-यावत केवलि पाक्षिक उपासिका से सुनकर क्खियउवासियाए वा केवलेमं संवरेणं नो संवरेजा। संवर आराधन नहीं कर सकता है। -वि. स. ६, उ. ३१, सु. ३२ आसवस्स संबरस्सय विवेयो आश्रय और संवर का विवेक३०५. अमणुण्णसमुप्पाबं दुक्खमेव विजाणिया। ३०५, दुःख की उत्पत्ति का कारण जानना चाहिए, समुप्पावमयागंता किह नाहिति संवरं ।। दुःन की उत्पत्ति को बिना जाने कैसे संवर को जान पाएंगे। -सूय. सु.१, अ.१, उ.३, गा.१० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०५ भव और संबर का विवेक चरित्राचार २०७ 4 ... . 1 1 AmAhurt . ranARTA.. अहो वि सत्ताण विट्टणं च, जो अधोलोक में प्राणियों के विवतं (जन्म-मरण) को जो आसवं जाणति संवरं ।। जानता है, जो आश्वव और संवर को जानता है, जो दुःख और तुक्खं च जो जापति निग्जरंच, निर्जरा को जानता है, वही क्रिपावाद का प्रतिपादन कर सो मासितुमरिहति किरियवाद । सकता है। -सूय. सु. १. अ. १२, गा. २१ जे आसया ते परित्सवा, जे परिस्सवा ते आसया । जो आश्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिनत्र (संबर) कर्म निर्जरा के स्थान बन जाते हैं, (इस प्रकार) जो परिव (मंवर) है, वे आस्रव हो जाते हैं। जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा से अणासवा । जो अनाम्रय, व्रत विशेष हैं, वे भी (अशुभ अध्यवसाय वाले के लिए ; अपरिस्रव-कर्म के कारण हो जाते हैं.) इसी प्रकार जो अपरिखव-पाप के कारण हैं, वे भी (कदाचित् ) अनास्रव होते हैं। एते य पए संप्रमाणे लोग घ आणाए अभिसमेच्चा पुढो इन पदों (भंगों-विकल्पों) को सम्यकप्रकार से समझने पवेदितं । बाला तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित लोक (जीव समूह) को अज्ञा (आगमवाणी) के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आनवों का सेवन न करें। चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि चिटु परिविचिति । जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ अध्यवसायवश ऋर कर्मों में प्रवृत्त अघि8 फरेहि कम्मेहि णो चिट्ठ परिविधिद्वति । होता है, वह अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में पैदा होता है। मा व्यवसायबाला होकर, कर कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, बह प्रगाढ़ वेदना याले स्थान में उत्पन्न नहीं होता है। एगे वदति अनुवा वि पाणी, गाणी वचंति अदुवा वि एगे।' यह बात चौदह पूर्वो के धारक भुतकेवली आदि कहते हैं, .... आ. सु. १, अ. ४, उ. २, सु. १३४-१५ या केवलज्ञानी भी कहते है। जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतवली भी कहते है। प०-जीवे गंमते ? या समियं एयति वेति अलति फंबद प्र०-भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में घट्ट खुम्मद वीरति तं तं भावं परिणमति ? कापता है, विविध रूप में कांपता है, चलता है (एक स्थान से दुसरे स्थान जाता है) स्पन्दन क्रिया करता है (थोड़ा या धीमा चलता है) घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता है घूमता है.) क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबलरूप से प्रेरित) होता है या करता है, और उन-उन भावों में परिणत होता है ? ३०-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे गं सया समितं एयति--जाव- उ०—हाँ मण्डितपुत्र! जीव सदा समित (परिमित) रूप तंतं भावं परिणति । से काँपता है,-यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है। ५०–जाव च गं मंसे ! से जोवे सया समित-जाव-परिण- प्र-भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमित रूप से मति सायं च तस्स जीवास मंते अतकिरिया कापता है,-याव-उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) भवति? होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम (मरण) समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है? उ०—जो इण8 सम8। ____मण्डितपुत्र ! यह अर्थ (नात) समर्थ (शक्य) नहीं है, (क्योंकि जीव जब तक क्रियायुक्त है, तब तक अन्तक्रिया क्रिया का अन्तरूप मुक्ति नहीं हो सकती।) १ (क) सु० १३४ और १३५ के बीच का सुबांश तपावार के अन्तर्गत स्वाध्याय तप के पांचवें भेद धर्मकथा में देखिए । (ख) संबर तथा सामायिक के विशेष प्रसंग हेतु भम. श. १, उ.६, सूत्र २१-२४ धर्मकथानुयोग भाग १ खंड २, पृ. ३१६-३२१ में देखें। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] वरणानुयोग आधव और संबर का विवेक सूत्र ५०-से केण? भंते ! एवं बच्चा जावं च गं से जोवे प्र--भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सया समितं एमति-जाब-अंते तागं तस्स जीवस्स जब तक जीव समितरूप से सदा कांपता है,-पावद-उन-उन अंतकिरिया न भवति? भावों में परिणत होता है, तब तक उसकी अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती है ? उ०—मंजियपुत्ता जावं पणं से जीने सया समित-जात्र- उ०-हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से परिणति तायं च णं से जीवे मारंभात सारभति कांपता है-यावद-उन-ऊर भावों में परिणत होता है, तब समारमति, तक वह (जीव) आरम्भ करता है, सरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है, आरम्मे वट्टति, सारम्भे पट्टति, समारम्मे बटुति, आरम्भ में रहता (बर्तता) है, संरम्भ में रहता (वर्तता) है, और समारम्भ में रहता (वर्तता) है । आरम्भमागे, सारम्ममाणे, समारम्भमागे आरम्भ, सारम्भ और समारम्भ करता हुआ तथा आरम्भ आरम्भे वट्टमाने, सारम्भे वट्टमाणे, समारम्भ वट्टमाणे, में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्तमान जीवबहणं पाणार्गाव-सत्ताणं दुक्खायणताए सोयावजताए बहुत-से प्राणों,-पावत-सत्वों को दुःख पहुंचाने में, शोक जुरावगताए तिप्पावणताए पिट्टायणताए परितावण- कराने में, झुराने (विलाप कराने) में, रुलाने अथवा आँसू गिरताए वट्टति, बाने में, पिटवाने में, (थकान-हैरान कराने में,) और परिताप (पीड़ा) देने (संतप्त करने) में प्रवृत्त होता है । से सेट्ठग मंख्यिपुत्ता ! एवं बुञ्चति–जावं चणं इसलिए हे मण्डितपुत्र ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है से जीवे सया समित एपति-जाव परिणति तावं च कि जब तक जीव सदा समित रूप से कम्पित होता है, यावत्णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति । उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जीव, अन्तिम समय (मरणकाल) में अन्तत्रिया नहीं कर सकता। प०-जीवे गं भते ! सया समियं नो एयति-जाव-नो तं तं प्रा-भगवन् ! जीव सदैव (शाश्वतरूप से) समितरूप से भावं परिणमति ? ही कम्पित नहीं होता,-यावत्--उन-उन भावों में परिणत नहीं होता? उ०-हंता, मंस्यिपुत्ता! जीवे गं सपा समियं-जाव-नो उ-हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा के लिए समितरूप से परिणमति। ही कम्पित नहीं होता, यावत् - उन-उन भावों में परिणत नहीं होता। (अर्थात्-जीव एक दिन क्रियारहित हो सकता है।) प०-जाव च णं मंते ! से जीवे नो एयति-जाब-नो तं तं प्रा-भगवन् ! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से भावं परिणमति तावं च गं तरस जीवस्स अंते अंत- कम्पित नहीं होता-यावस्-उन-उन भावों में परिणत नहीं किरिया भवति? होता, तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) नहीं हो जाती ? १०-हंता,-जाव-भवति । उ.-हाँ, (मण्डितपुत्र !) ऐसे-पावत्--जीव को अन्तिम समय में अन्तत्रिया (मुक्ति) हो जाती है । १०-से फेणटुं भंते !-जाब-मति ? प्र-भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव की-यावत्-अन्तत्रिया मुक्ति हो जाती है ? उ०-मंजियपुत्ता ! जावं वर्ग से जीवे सया समियं गो उ०-मण्डितपुत्र [ जब वह जीव सदा के लिए) समित एयति-जाव जो परिणमइ तावं में से ओवे नो रुप से (भी) कम्पित नहीं होता -यावत्-उन-उन भावों में आरमति, मो सारभति, नो समारभति, नो आरम्भे परिणत नहीं होता, तब वह जी व आरम्भनहीं करता, संरम्भ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुन्न ३०५ आश्रय और संवर का विवेक चारित्राचार [२०९ पट्टा, णो सारम्भे पट्टा णो समारम्भे बट्टा, अगा- नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव रम्भमाणे, असारम्ममाणे, असमारम्ममाणे, आरम्भ में, संरम्भ में एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है। आरम्भे अवट्टमागे, सारम्भ अवट्टमाणे. समारम्भे अषट्ट- आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा माणे बहूगं पाणाणं-जाव-सत्ताणं अयुक्खावणयाए जाव- आरम्भ, गरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव अपरियावणयाए बट्टइ। बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख पहुँचाने में - यावर--परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त (या निमित्त) नहीं होता। पल- तो जहानामा के रिसे सुखक सणहत्ययं जातयंसिप्र:-(भगवान्) जैसे. (कल्पना करो) कोई पुरुष सूखे शस पविखवेज्जा, से नगं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्यए के पूले (तृण के मुढे) को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! जायतेयंसि परिषत्ते समाले खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल जाता है ? उ.- हता, मसमसाविवजह । उ०–हाँ, भगवन् ! वह शीघ्र जल जाता है। १०-से अहानामए के पूरिसे तत्तंसि अयधरूलसि उपबिधु प्र.-(भगवान्) (कल्पना करो) जैसे कोई पुरुष तपे हुए पपिखवेना. से नर्ष मंडियपुत्ता 1 से उदयविद् तसंसि लोहे के कड़ाह पर पानी की बूंद डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! तपे अयकवल्संसि पवितते समाणे थुिप्पामेध विसमा- हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जल-बिन्दु अवश्य ही शीघ्र गच्छह ? नष्ट हो जाती है? जा-हंता, घिद्धसमागच्छद । उ. ... (मण्डितपुत्र -) हाँ भगवन् ! बह जलबिन्दु शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। ५०-से महानग्मए हरए सिया पुष्ण पुग्णप्पमाणे वोलट्टमाणं प्र० (भगवान्-) (मान लो) कोई एक सरोवर है, जो बोसट्टमाणे समभरघडताए चिटुति ? जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी रो 'भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानो छलक रहा हो, पानी से भरे हुए बड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त हो सकता है? उ० --हंता चिट्ठति । उ-हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो सकता है। प०- अहे गं केह पुरिसे तर्सि हरयति एवं मह नावं सतासवं प्र.- अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे छिद्रों सक्छिई ओगाहेग्जा, से नूर्ण मंडियमुत्ता! सा नावा वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को उतार तेहि आशयहारेहि आपूरेमाषो आपुरेमाणीता पुष्णा दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों (पानी आने के पुष्णप्पमाणा धोलट्टमाणा बोसट्टमाणा समभरघरताए द्वारों) द्वारा पानी से भरती-भरती जल से परिपूर्ण हो जाती है? चि ति? पूर्णमात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से बह लबालब भर जाती है.? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त होकर रहती है? १०-हंता चिटुति । -हो, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से जल से व्याप्त होकर रहती है। १०- अहे गं केइ पुरिसे सोसे नाबाए सब्बतो समता आस- प्र.-- यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों वहाराई हि पिहिता नावास्सिंचणएवं उचयं ओर से बन्द कर (क) दे, और बसा करके नौका की उलीचनी उस्सिंधिज्जा, से नणं मंजियपुत्ता ! सा नावा तसि (पानी उलीचने के उपकरण विशेष) से पानी को उलीच दे (जल जयंसि उस्सित्तसि समाणसि खिप्पामेव उई उद्दाति? को रोक दे) तो हे मण्डितपुत्र ! नौका के पानी को उलीच कर खाली करते ही क्या वह शीन ही पानी के ऊपर आ जाती है? Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० वरणानुयोग पांच संबरवारों का प्ररूपण पत्र ३.५-३०६ ज०-हंता उहाति। उ०-हाँ, भगवन् ! पानी के ऊपर आ जाती है। एवामेव मंजियपुसा | असत्तासजस अणगारक्स हे मण्डितपुष ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में दरियासमियस्स.जाव-गुत्तबंभयारिस्स, संवृत हुए, ईयर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त, आउत्तं गम्छमागस्स चिट्ठमाण समागम या मन कर बाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, माणस्स, करवट बदलने वाले तथा आउत्तं वस्य-पडिग्गह-कंबल-पारपुछणं गेण्हमाणस्त उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोन्छन, (रजोहरण) निक्खिवमाणस्स-जाव-चपलपम्हनिदायमवि माया आदि धर्मोपकरणों को सावधानी (उपयोग) के साथ उठाने और सुहमा इरियावहिया किरिया-कजई । रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेव मात्र समय में विगात्रा पूर्वक सूक्ष्म ईपिथिकी क्रिया लगती है। सा पढमसमयबद्धपुट्ठा मितियसमयवेतिता ततिपसमश- बह प्रथम समय में बध्द-स्पृष्ट द्वितीय समय में वेदित और निज्जरिया, सा बढापुटा उदोरिया वेदिया निजिष्णा तृतीय समय में निर्जीण (क्षीण) हो जाता है। वह बद्ध-स्पृष्ट सेयकाले अकम्मं घावि भवति । उदीरित-बेदित एवं निजीणं क्रिया भविष्यत्कास में अकर्मरूप भी हो जाती है। से तेगडे गं मंजियपुत्ता I एवं दम्वति-जावं च गं से इसी कारण से हे मण्डितपुत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब जीये सया समितं नो एत्ति-जाव-सायं च में तस्स यह जीव सदा समितरूप से भी कम्पित नहीं होता,-यावत - जीयस्स आहे अंसकिरिया भवति । उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब अन्तिम समय में _ वि. स. ३, उ. ३, सु. ११-१४ उसकी अन्तपिया हो जाती है। पंच संवरवार परुवर्ण पांच संवरद्वारों का प्ररूपण३.६. अं! २०६. श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! एसो म संवरबारा, पंच वोल्छामि आणयिए। अब मैं पांच संघरद्वारों को अनुक्रम से कहूँगा, जिसे भगवान् जह मणियाणि भगवया, सम्वनुक्सविमोक्खणट्टाए ॥ ने सर्वदुःखों से मुक्ति पाने के लिए कहे हैं, पहम होई अहिंसा, विड्यं सच्चवर्ण ति पणतं । (इन पाँच संवरद्वारों) में प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन बसमगुण्णाय संबरो य, बंमचेरमपरिगहतं च ॥ है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दत्त (अदत्तादानविरमण) है। चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्य है । १ (क) ५०-अस्थि णं भंते ! जीवा ए पोग्गला य अन्नमत्रबद्धा अनमन्नपुरा अन्नमनमोगाढा अनमनसिहपडिबद्धा अन्न मन्नघटत्ताए चिट्ठन्ति ? उ०.-हंता, अस्थि । ५०-से केणटुणं भंते !-जाव-चिन्ति ? उ०-गोयमा ! से जहानामए हरदे सिया पुण्णे पुष्णणमाणे वोलढमाणे बोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठति, प०-अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नाव सदासर्व साइडर्ड ओगाहेज्जा । से नूगं गोपमा ! सा णावा तेहि आसवहारहि आपूरमाणी आपुरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरपडताए चिति ? उ-हता चिट्ठति । __से तेणठेणं गोयमा अत्यि णं जीवा य पोग्गलाय-जाव-अन्नमनघडताए चिठन्ति । ...वि. स.१, उ. ६, सु. २६ (ख) सूय. सु. १, अ. १, उ. २, गा. ३१ । (ग) उत्त. अ. २३, गा. ७०-७३ । २ (क) पंच महन्यया पण्णत्ता, तं जहा-१. सब्बाओ पाणातिदायाओ वेरमणं, २. सवालो मुसावायाओ बेरमणं, ३. सन्चाओ नाविण्णादाणाओ बेरमणं, ४. सब्बाओ मेहुणाओ वेरमण, ५. सब्बाओ परिगहाओ बेरमणं ।-ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३८६ (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हामि ! महयवाई लोपहियसत्यसाई सागर सिवाई, तब संजममध्वाई सीखगुणवरम्याई राजा गर- तिरियम-देवगड-विजगाई सम्माजिसाणा, कम्मरयविकारा सगाई, माविमोयणदाई सयपयत्तणगाई, पुरिससराई सम्पुरिसणीसेवियाई विश्वासयन्यायपा -Y संगरवाराई पंच कहियाणि उ भगयया । - पण्ह. सु. २, अ. १, सु. १ एयाई क्याई पंचवि मुख्य-महत्या हेउसय विविपुरुखलाई कहियाई, अरहंतलास समासेण पंच बरा, विश्परेण उ पणवीसंति, पाँच संवरद्वारों का प्ररूपण [२११ श्री ! स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्मू स्वामी से कहाहे सुबत ! अर्थात् उत्तम व्रतों के धारक और पालक जम्बू पूर्व में नाम किया जा चुका है ऐसे महात समस्त लीक के हितकारी है या नोक का सहित करने वाले हैं। तरुणी बागर (आम) में इनका उपदेश किया गया है। महावतों में शील का और सर और आनं ये तप और संगमरूप व्रत हैं। इन उत्तम गुणों का समूह निहित है सरलता - निष्कपटता इनमें प्रधान है। (घ) उत्त. अ. २३, गा. ८७ (छ) सूय. सु. २, अ. ६, गा. ६ चारित्राचार ये महाव्रत नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बनाने वाले हैं—युक्ति प्रदाता है। समसा जिनों तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट है। कर्मरूपी रज का विचार करने वाले अर्थात् क्षय करने वाले हैं । सैकड़ों भजन्म-मरणों का अन्त करने वाले हैं। मै दुःखों से बचाने वाले हैं। सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं। ये महाव्रत कायरपुरुषों के लिए दुस्तर हैं, सत्पुरुषों द्वारा सेवित हैं, ये मोक्ष में जाने के मार्ग हैं, स्वर्ग में पहुँचाने वाले हैं। इस प्रकार के ये महाव्रत रूप पाँच संवरद्वार भगवान् महावीर ने कहे हैं। हे सुव्रत ! ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से पुष्कल विस्तृत है। अरिहंत शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में (पाँच) कहे गए हैं। विस्तार से प्रत्येक को पांच-पांच भावनाएँ होने से इनके पच्ची प्रकार होते हैं । (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का ) (ख) पंचभरात यहा १ पापाइलामात्र वेरमण, २. मुसावानाओ पेरम १. अभिदानाओ बेरम ४. मेहुणाओ वेरमण, ५. परिग्गहाओ वेरमणं । --- सम. ५, सु. १ (ग) तनहिल अम्भव - उत्स. अ. ३५, गा. ३ (च) आव. अ. ४, सु. २४ ( ३ ) (अ) दस. अ. ६. गा. ८-२१ और निर्भय की परिभाषा के (ब) स्था. अ. ५, उ. २, सु. ४१८ तथा सम. ५ में पांच संवर के नाम हैं किन्तु वे सम्यक्त्व, विरति अकषाय, अप्रमाद और अयोग हैं। पाँच निर्जरास्थान, पांच महाव्रत या पांच नंबर उक्त पांच के अन्तर्गत "विरति" में समाविष्ट हो जाते है। संवर अनुसार प्राणातिपातविश्मय आदि पांच संबर भी है और निस्थान भी है। सु. २.१.१ के भा आदि ५ संजरों के कतिपय विशेषण है। उनमें नरकादि चार गतियों का विदर्जन और निर्वाण एवं देवगति की प्राप्ति पांच संदरों की आराधना का फल कहा गया है। जहाँ देवगति विवर्जन है वहाँ अशुभ की निर्जरा होने से शुभ मनुष्य में देवगति का विवर्जन है। निर्वान गति की अपेक्षा ये पांच निवेश स्थान है यति या शुभ देवगति दाता है। सोमं च संजम परिव (ङ) - सूय. सु. १, अ. १६, सु. ६३५, (ज) दस. अ. १३, गा. ११ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] धरणानुयोग पापस्थानों से जीवों की गुरुता सूत्र ३०६-३०६ अभिय-समिय संवरे, सयाजयण-घडण-सुविमुखवंसगे एए अणु- जो साधु ईर्यासमिति आदि (पूर्वोक्त पच्चीस भावनाओं) बरियसंमते घरमसरोरघरे विस्सतीति । सहित होता है अथवा ज्ञान और दर्शन से सहित होता है तथा - पह. सु. २. अ. ५, सु. १८ कषायसंबर और इन्द्रियसंबर से संवृत्त होता है, जो प्राप्त संयम योग का यत्नपूर्वक पालन करता है और अप्राप्त संयमयोग की प्राप्ति के लिए यत्नशील रहता है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धावान होता है, वह इन संचरों की आराधना करके अशरीर (मुक्त) होगा। पाप ठाणेहि जीवाणं गरुयत्त - - पाप स्थानों से जीवों की गुरुता३०७, १०-कहष्णं मंते ! जीवा गरुयतं हवमागमछति ? ३०७.प्र.-भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ गुरुरव (भारीपन) को प्राप्त होते हैं? उ.-गोयमा ! पाणाइवाएग, मुसावाएणं, अविक्षावागणं, 3-गौतम ! प्राणातिपात से, मृषाबाद से, अदत्तावान से, मेहणेणं, परिग्रहेणं, कोह-माण-माया-सोभ-पेज्ज-बोस- मथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, मामा से, लोभ से, प्रेम कलह-अम्मक्वाण-पिसुल-रइमरइ-परपरिबाय-माया- (राग) से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, रतिमोस-मिच्छादसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा अरति से, परपरिवाद परनिन्दा) से, मायामृषा से, और मिथ्यागझ्यतं हवमागच्छति। दर्शनशल्य से, इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त –वि. स. १, उ. ६, सु. १ होते हैं । विरहाणेहि जीवाणं लहुयत्त विरति-स्थानों से जीवों की लघुता१०८.प.-कहवं मंते ! जीवा लहुपसं हवमागच्छति ? ३०. प्र०-भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ लघुत्व (लघुता हल्केपन) को प्राप्त करते हैं ? 3.-गोषमा ! पाणाइबायावेरमणणं-जाव-मिच्छासणसाल उ०-गौतम ! प्राणातिपात से विरत होने से पावत् बेरमणेणं एवं खलु गोयमा । जीवा लायसं हव. मिथ्यादर्शनशल्य से विस्त होने से जीव' शीघ्र लवृक्ष को प्राप्त मागच्छति, होते हैं। एवं संसार आउलीकरेंति, परित्ति काति इस प्रकार जीव संसार को बढ़ाते हैं और परिमित करते हैं, एवं संसार कोही करेंति, हस्सो करेंति, दीर्घकालीन करते हैं, अल्पकालीन करते हैं, बार-बार भ्रमण एवं संसारं अणुपरिपट्टन्ति, बीइवयंति करते हैं, संसार को लांघ जाते हैं। पसरपा चत्तारि, अप्पसस्था चत्तारि।' उनमें से चार (लघुत्व, परित्तीकरण, नस्वीकरण एवं व्यति- वि. स. १, उ.६, सु. २-३ ऋमण) प्रशस्त हैं और चार (गुरुत्व, वृद्धीकरण, दीर्धीकरण एवं पुनः-पुन. भवभ्रमण) अप्रशस्त हैं। क्सविहे असंवरे दस प्रकार के असंवर३०१. बसविधे असंवरे पणते, तं जहा . ३०.. दस प्रकार के असंवर कहे गये हैं, यथा१. सोतिदियअसंबरे, २. चविखवियअसंवरे, (१) योन्द्रिय असंवर, (२) चक्षुइन्द्रिय-असंबर ३. धाणिवियअसंवरे, ४. जिग्मिवियमसंवरे, (३) प्राणेन्द्रिय-असंबर (४) रसना-इन्द्रिय असंवर, ५. फासिव्यिसंवरे, ६. मणअसंबरे, (५) स्पर्शनेन्द्रिय असंवर, (६) मन-असंवर, ७. वयमसंबरे, ८. कायमसंबरे, (७) वरन-असंवर, (८) काय-अनंबर, है. उवकरगमसंबरे, १०. सूचीकृसम्पअसंबरे। (e) उपकरण-असंबर, (१०) सूचीकुशान-असंवर । -ठाणं. अ. १. सु. ७०६ १ २ वि. स. १२, उ. २, सु. १४ । आणं, अ.५,उ.२, सु. ४२७ । ३ ठाणं. अ. ६, सु. ४६७ 1 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रं ३१७-३१३ पाँच संबर द्वार भारित्राचार २१६ पंच संवर दारा पांच संवर द्वार३१०.पंच संबर बारा पन्नता, तं जहा ३१०. पाच संवर द्वार कहे गये हैं. यथा१. सम्मतं, २. विरई, (१) सम्यक्त्व, (२) विरति, ४. 3:51 (३) अप्रमत्तता, (४) अकषायता, ५. अजोगया। -सम. ५, गु.१ (५) अयोगता या योगों की प्रवृत्ति का निरोध । महाजण्णं महायज्ञ३११. सुसंधुदा पंचाह संवरेहि, ३११. जो पान संवरों से सुसंवृत होता है, वह जीवियं अगवखमाणा। जो असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करता है, वोसटुकाया सुइचत्तवेहा, जो कायर का व्युत्सर्ग करता है, जो शुचि है, महाजय जयइ जन्मसिद्ध। और जो देह का त्याग करता है, वह महाजयी -उत्त. अ. १२, गा. ४२ श्रेष्ठयज्ञ करता है। दसविहे संवरे दस प्रकार के संवर३१२. वसविध संवरे पण्णते, तनहा ३१२. संदर दस प्रकार का कहा गया है । जैसे१. सोतिबियसंवरे, २. चविखवियसंबरे, (१)ोवेन्द्रिय-संवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-संवर, २. धाणिवियसंवरे, ४. जिम्मिवियसंवरे, (३) घ्राणेन्द्रिय-संवर, (४) रसनेन्द्रिय-संवर, ५. फाति वियसवरे1 ६. मणसंबरे, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-संबर, १८) मन-संबर, ७. वयसंवरे ८. कायसंवरे, (७) वचन-संवर, (क) काय-संबर, ६. उपकरणसंबरे, १०. सूचीकुसागसंवरे। (8) उपकरण-संवर, (१०) सूचीकुशाग्र-संवर। -याणं. अ. १०, सु. ७०६ बसविहा असमाहो दस प्रकार की असमाधि३१३. दसविधा असमाधो पाणता, सं महा ३१३, असमाधि दस प्रकार की कही गई है। जैसे१. पाणातियाते. २. मुसायाए, (१) प्राणातिपात अविरमण। (२) मृषावाद-अविरमण! ३. अविण्णादाणे, ४. मेहणे, (२) अदत्तादान अविरमण। (४) मैथुन-अविरमण । ५. परिसगहे, ६. इरिया समिती (५) परिग्रह-अविरमण । (६) ईया-असमिति । ७. मासासमिती, ' ८. एसणाऽसमिती, (७) भाषा-असमिति । (८) एषणा-असमिति । १. आयाण-मंग-मस-णिक्खेवणाऽसमिती । (९) आदान-भाण्ड-मत्र (पात्र) निक्षेप को असमिति । १०. उच्चार - पासवण-खेल-सिंघापन-जल्ल-परिद्वावणिया- (१०) उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल परिष्ठापना की समिती। -ठाणं. अ.१०, सु. ७११ असमिति । बसविहा समाही दस प्रकार की समाधिबसविधा समाधी पण्णता, तं जहा समाधि दस प्रकार की कही गई है। जैसे १. पाणातिवायवेरमणे, २. मुसावायवेरमणे, (१) प्राणातिपात-विरमण। (२) मृषावाद-बिरमण । ३. अविण्याचाणवेरमणे, ४. मेणबेरमणे, (३) अदत्तादान विरमण । (४) मथुन-विरमण । ५. परिगहवेरमणे, ६. हरियासमिती, (५) परिग्रह-विरमण । (६) र्यासमिति । ७. भासासमिती, ८. एसणासमिती, (७) भाषासमिति। (८) एषणासमिति । ६. आषाण-भंड-मत्त-णियस्तेषणासमिती । (e) आदान भाण्ड मत्र (पात्र) निक्षेपण समिति । १०. उच्चार - पासवण • खेल-सिंघाणग-जल्ल-परिट्टापणिया (१०) उच्चार - प्रस्रवण - श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापना समितो। -साणं. अ. १०, सु. ७११ समिति । १ ठाणं. अ.५, उ. २, सु. ४२७ । २ ठाण. अ. ६, सु. ४०७ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] परणानुयोग असंवृत अणगार का संसार परिभ्रमण सूत्र ३१४-३१५ असंवुडअणगारस्स संसार परिभमणं असंवृत अणगार का संसार परिभ्रमण१. प. .ामने ! सारे किसिमति ? बुमति? ३१४. प्र०-भगवन् ! असंवृत अनगार श्या सिद्ध होता है, मुच्चति ? परिनिग्वाति ? सक्दुक्खाणमंतं करेति? -पावत्- समस्त दुःखों का अन्त करता है? उ–गोयमा ! नो इष्टु समढ़। 3.-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ (क्य या ठीक नहीं है । ५०-सेकेणटुणमंते ! एवं बुमचह नो सिजमा-जाव-मो प्र--भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध नहीं होता, अंत करेइ ? - यावत् - अन्त नहीं करता? उ.- गोयमा ! असंडे अणगारे आउयवम्जाओ सत्तकम्म- उ.- गौतम ! असंवृत अनगार आयुकम को छोड़कर शेष पगडीओ, सात कर्म प्रकृतियों को सिविलबंधणयवाओ धणियबंधणयबाओ पफरेति, शिथिल बन्धन से बद्ध को गाढ़ बन्धन से बद्ध करता है, हस्सकासद्वितीयायो, वोहकाल द्वितीयाओ परति, अल्पकालीन स्थिति वाली को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मंदागमागाओ, तिब्वागुभागाओ पकरेति, मन्द अनुभाग बाली को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अप्पपयेसम्गाओ बहप्पोसग्गाओ पकरेति, अल्पप्रदेश वाली को बहुत प्रदेश वाली करता है, आजगणं कम्म सिय अंधति, सिय नो बंधति, और आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है, एवं कदाचित् नहीं बांधता है, असातावेदपिग्मं च गं कम्म भुज्जो-मुज्जो उचिणाति, असाताबेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है, अणादीयं च गं अणववरगं दोहमर चाउरतं संसार- तथा अनादि बनबदन-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चतुगंति कतारं अणुपरिपट्टइ। संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन परिभ्रमण करता है, से तेणट्र गोयमा ! असंकुडे अगगारे नो सिजनति हे गौतम ! इस कारण से असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता -जाव-नो सम्वदुक्खाणमंतं करेइ। -यावत-समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता। –वि. स. १, उ. १, सु. ११ संवडअणगारस्स संसारपारगमणं संवृत अणगार का संसार पारगमन३१५.५०-सं मंते ! अगगार सिन्तति-जाव-अंत करेति ? ३१५. प्र०-- भगवन् ! क्या संवृत अनगार सिर होता है, ---यावत-अन्त करता है? उ.-हल, सिज्मति जान-अंत करेति । उ.-हाँ गौतम ! वह सिद्ध होता है,--यावत् - सब दुःखों का अन्त करता है। प.-से केणगं मंते । एवं बुच्चइ-सिजमाइ-जाव अंत -भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध होता है, कति? -पावत् सब दु.खों का अन्त करता है ? उ०-गौतम ! संवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष पगडोओ, घणिय बंधणबद्धाओ [सिढिलबंधणबताओ सोत कर्म प्रकृतियों को गाहबन्धन से बद को चिथिल बन्धनबद्ध पकरति, कर देता है, दोहकालद्वितीयाओ हस्सकालट्टितीपाओ पफरेति, दीर्घकालिक स्थिति वाली को ह्रस्व (थोड़े) काल की स्थिति दामी करता है, तिवाणुभागाओ मंशाणुमायाओ पफरेति, तीवरस (अनुभाव) वाली को मन्दरस वाली करता है, मनुपएसग्गाओ अप्पपएससग्गाओ पकरेति, बहुत प्रदेश वाली को अल्पप्रदेश वाली करता है, आउयं च कम्मं न बंधति, और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है। असायावेणिज्नं च णं कर्म नो मुज्जो मुज्जो उव- वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता विवाति, है। (अतएव वह) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम महाव्रत पारिजाचार [२१५ अगाईयं च अणवदागं वोहमा चाउरतं संसार- अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसार-अरण्य का कतारं बीतीवति। उल्लंघन करता है। से तेगट्ठग गोयमा ! एवं बुरामा-संवा अणगारे इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाला है कि संवृत सिम्मति-जाव-अंत करेति।" अनगार सिद्ध हो जाता है, पावनअन्त कर देता है। -- वि.सं. १, उ. १, सु. ११ चरित्तसंपन्नयाए फलं चारित्र सम्पन्नता का फल३१६.५०-परित्तसंपलाए णं मते ! जीवे कि जणयह? ३१६.प्र.-मन्ते ! चारित्र-सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-घरिससंपनाए सेलेसीमावं जगया। "सेलेसि पडि- उल-चारित्र सम्पन्नता से वह लेणी-भाव को प्राप्त होता वस्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्भसे खदेह। तओ है। शैलेशी-दशा को प्राप्त करने वाला अनगार चार केवलिपच्छा सिज्मइ बुज्या मुग्ध परिनिवाएइ सम्ब- सत्क (केवली के विद्यमान) वार्मों को क्षीण करता है। उसके सुक्खाणमंत करे।" पप्रचान यह सिद्ध होता है. बुद्ध होता है. मुक्त होता है, परि -उत्त. अ, २६, सु. ६३ निर्वाण होता है और सब दुःखो का अन्त करता है। एगे चरणबिण्णाणेण एव मोक्खं मणति-- कुछ लोग चारित्र के जानने से ही मोक्ष मानते हैं३१७. हहमेगे उ मनन्ति, अप्पचक्खायपावगं । ३१७. इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पापों का आयरियं विरित्तागं, सब्याक्या विमुच्चई। त्याग किये बिना ही आनार को जानने मात्र से जीव सब दुःखों --उत्त. अ, ६, गा. ८ से मुक्त हो जाता है। प्रथम महानत (१) अहिंसा महाग्रत का स्वरूप और आराधना -'. - -... सम्वेहि तित्थयरेहि सम्ब-पाण-भुय-जीव-सत्ताणं रक्खणं सभी तीर्थंकरों ने सभी प्राण-भूत-जीव-सत्वों की रक्षा कायब्वं इति परुवियं करनी चाहिए ऐसी प्ररूपणा की है३१से बेमि-जे म अतीताय पप्पण्णा जे य आगमेस्सा ३१५. मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ-भूतकाल में (ऋषभदेव अरहता भगवंता सत्वे ते एवमाइक्वंति, एवं भासति, एवं आदि) जो भी अहंन्त (तीर्थकर) हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी पण्णवेति, एवं पवेति-- (सीमन्धरस्वामी आदि) तीर्थकर है, तथा जो भी भविष्य में (पद्मनाभ आदि) होंगे, वे सभी अर्हन्त भगवान (परिषद में) ऐसा ही उपदेश देते हैं, ऐसा ही मारण करते हैं, ऐसा ही (हेतु, दृष्टान्त, युक्ति आदि द्वारा) बताते (प्रजापन करते) हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं किसाध्वे पाणा-जाव-मध्ये ससा ण हतब्वा, प अजायेयवा, ण किसी भी प्राणी, यावत-- राख की हिसा नहीं करनी परिघेतल्या, ण परिसावेयम्वा, ग उहवेयवा, चाहिए, न ही बलात् उनसे आशा पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़कर या खरीदकर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भवभीत या हैरान) करना चाहिए। - Hindustan Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] चरणानुयोग एस धम्मे धुवे गितिए सासते समे सोने पवेविते । 2 समस्त लोक को ( पीड़ा) को या यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है । केवल- ज्ञान के प्रकाश में जानकर जीवों के खेद सू. सु. २, अ. १, सु. ६०० क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है । प्रथम महावत - ( प्राणातिपात विरति ) - आराधना प्रतिशा से मिलू जे इमे तस-यावर पाणा भवति ते णो सयं समा रमति, मोह समारमादेखि अण्णे समारभते दि न समभुजाण, इतिमहता वातो उसे उसे परिविरते। -सू. सु. २, अ. १, सु. ६८४ जरा जगओ जोयं, विपरीपास पलेति य । सम् असंलक्या व तो हिसिया ॥ एतं णाणिणो सारं जं न हिसति किच मं । अहं समयं चैव एतावतं विशणिया ॥ सूय. सु. १, अ. १, उ. ४, गा. ६-१० पदम महत्यय आराहणा पणा ३१२. महम्य पाणावायाओ बे सभ्यं मंते ! पाणाइवायं परचक्खामि - से सुलभं वा वायरं वा, तसं वा. थावरं वा, से पागाइबाएं से जहा१.२.ओ, २. कालम ४. मायो। १. ओ छसु जीवनिकाए, २. खेत सबलोगे, ३. कालओ दिया वह, राम्रो वा ४. भावअरे रागेण वा वोसेण वा । नेव सर्प पाले अवाएरमा नेवलेहि पाणे महापा परणे चायते विन्नेन समाज १ आ. सु. १.४.२.१३२ जो ये बस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन परता है। सूत्र ३१८-३१६ इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान ( बन्धन ) से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संगम में उद्यत रहता है तथा पाप कर्मों से निवृत्त हो जाता है । दारावर जीव रूप जगत्का (वाल्य-पीननबुद्धत्वा संयोग अवस्थाविशेष अथवा योग मन वचन काया की प्रवृत्ति उदार स्थूल है- इन्द्रियप्रत्यक्ष है और वे (जीव) विषय तुमरे पय) को भी प्राप्त होते हैं तथा सभी प्राणी दुःख से पीड़ित है, अतः सभी प्राणी महिस्वहिंसा करने योग्य नहीं हैं । विशिष्ट विवेकी पुरुष के लिए यही सार न्यायसंगत निष्कर्ष है कि वह (स्थावर या जंगम किसी भी जीव की हिंसा न करे । अहिंसा के कारण सब जीवों पर समता रखना और (उपलक्षण मे सत्य आदि) इतना ही जानना चाहिए, वा अहिंसा का समय ( सिद्धान्त या आचार) इतना ही समझना चाहिए। प्रथम महाव्रत बाराधन प्रतिज्ञा - - ३१. भन्ते ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से त्रिरमण होता है । ते ! मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ । सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर उस प्राणातिपात के चार प्रकार कहे हैं (१) द्रव्य से, ( : ) क्षेत्र से (२) काल से, (४) भाव से । (१) इव्य से हीं जीविकाय में, (२) क्षेत्र से सर्वलोक में, (३) काल से दिन में या रात में, (४) भाव से राग या द्वेष से । जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात में स्वयं नहीं करूँगा, दूमरों से नहीं कराऊँगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, २ सूय. सु. १, अ. ११, मा. १० । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१६-३२० प्रथम महावत और उसकी पांच भावना चारित्राचार २१७ आषजीवाए तिषिहं तिषिहणं मणे वायाए कारणं न यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से -मन से, करेमि, न कारवैमि, करतं पि अन्नं न समजाणामि । वचन से, काया से–न करूया, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तरस भन्ते ! पडितकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि- भन्ते ! मैं उससे निवृत्त होता हूँ. निन्दा करता है, गर्दा रामि। करता हूँ और (कपाय) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। पढमे मन्ते! महत्वए स्वदिओमि सम्बओ पाणावायाओ भन्ते ! मैं पहले महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व देरमगं। -दस. अ. ४, सु. ११ प्राणातिपात को विरति होती है। पहम मजरा पंच सामनाओ प्रथम महाव्रत और उसकी पांच भावना३२०. पहम भंते ! महध्वयं पञ्चवखामि सम्वं पागातिशतं । ३२०. भन्ते ! मैं प्रथम महानत में सम्पूर्ण प्राणातिपात (हिंसा) का प्रत्याख्यान (श्याम) करता हूँ। से सुहम वा, बायरं था, तसं वा, थावरं वा, व सयं मैं सूक्ष्म-स्थूल (बादर) और वस-स्थावर समस्त जीवों का पाणातिवासं करेजा, नेवणं पाणातियात कारवेज्जा, अण्णं न तो स्वयं प्राणातिपात (हिंसा) करूगा, न दूसरों से कराऊंगा पि रागातिवात करत श समगुजाणज्जा । और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन समर्थन करूगा, जायज्मीवाए तिविह सिविहेण मगस।, ययसा, कायसा। इस प्रकार मैं यावज्जीबन तीन करण से एवं मन, बचन, काया से-तीन योगों से उस पाप से निवृत्त होता है। तस्स भंते ! परियकमामि, निदामि, गरहामि, अप्पागं वोसि- हे भगवन् ! मैं उस पूर्वकृत पाप (हिंसा) का पतिक्रमण रामि । करता, (पीछे हटता हूँ.) (आत्म-साक्षी से--) निन्दा करता हूँ, और (गुण साक्षी से..) गहीं करता हूँ, अपनी आत्मा से पाप का ध्युत्मर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। तस्सिमाओ पंञ्च भावणाओ भवति । उस प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएं होती हैं१. तत्यिामा पढमा भावणा--रियास मिते से मिर्गथे, णो (१) उममें पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ ईयर्यासमिति से अगरियासमिसे ति। गुक्त होता है, ईयर्यासमिति से रहित नहीं। केवली वया-"हरिपाअसमिते से णिग्नथे पाणाई भूयाई केवली भगवान् कहते हैं-ईसिमिति से रहित निग्रंन्य जीवाई सत्ताई अभिहणज्ज वा, वसेज वा, रियावेज्ज वा, प्राणी, भूत, जीव और सब का हनन करता है, धूल आदि से लेसेन्ज वा, उहवेन वाइरियास मित्ते से गिगथे, जो ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या हरियाअसमित सि पढमा भाषणा। पीड़ित करता है। इसलिए निम्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे. ईर्यासमिति से रहित होकर नहीं।" यह प्रथम भावना है। २. अहावरा दोच्चा भावणा-मण परिजाणति से गिगये, (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है-मन को जो अच्छी तरह जानकर पापों से हटाता है वह नियंन्ध है।। जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अन्हयकरे शेवकरे भेदकरे जो मन पापकर्ता सावध (पाप से युक्त) है, क्रियाओं से अधिकरणिए पारोसिए पारिताधिए पाणातियाइए भूतोषधा- युक्त है, कर्मों का आस्रवकारक है छेदन-भेदनकारी है, क्लेशलिए तह पगार मणं गो पधारेजजा । मगं परिजागति से द्वेषकारी है, परितापकारक है । प्राणियों के प्राणों का अतिपात जिागंदे, म य मगे अपायए ति बोच्या भावणा । करने वाला और जीवों का उपचातक है। इस प्रकार के मन (मानसिक विचारों) को धारण (ग्रहण) न करे । मन को को भलीभांति जानकर पापमय विचारों से दूर रखता है। जिसका मन पापों (पापमय विचारों) से रहित है, वह निर्गन्ध है। यह द्वितीय भावना है। समता सम्वभूएसु, सत्तु-मित्तंसु वा जगे । पाणाइवायविरई. जावजीवाए दुवकरे । उत्त. अ. १६, गा, २६ । २ दस, न. ६, मा.-१०। १ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] धरणानुयोग प्रथम महावत और उसको पाँच भावना सूत्र ३२० +amanartoon सले, ३. महावरा तच्चा भावणा-वर परिजागति से णिग्गये, (३) इसके अनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक वचन का स्वरूप भलीभांति जानकर सदोष वचनों का परित्याग - करता है, वह निर्गन्य है। आ य वई पाश्यिा सावजा सकिरिया-जाव-मूतोवघातिया जो वचन पापकारी सावध क्रियाओं से युक्त यावत् जीवों तहप्पगारं यई गो उच्चारेज्जा । का उपघातक है। साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न जेवई परिजात से मिगंथे जाय वह अवाचिया ति जो वाणी के दोषों को भलीभांति जानकर सदोष वाणी का ताचा मावणा। परित्याग करता है वही निर्गन्ध है । उसको बाणी पापदोष रहित हो, यह तृतीय भावना है। ४. अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा- (४) तदनन्तर चौथो भावना यह है-जो आदानभाण्डमात्र समिसे सेणिगंथे, जो अगावाणमंडमत्तणिक्लेवणाऽसमिते। निक्षेपण समिति से युक्त है, वह नियंग्य है । जो आदानभाण्डमात्र निक्षेपण समिति से रहित है वह निर्मन्य नहीं है। केवली या-"बावाणमंडनिक्खेवणाअसमिते से णिग्ग केबली भगवान् कहते है--जो निर्ग्रन्थ- आदानभाण्डमात्र पाणाई भूताई जौबाई सप्ताह अभिहणेज्ज बा-जान-उवेज निक्षोपण समिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों और था। तम्हा आयाणमंणिक्षेवणासमिते से णिग्गंथे, जो सरवों का अभिघात करता है,-यापन–पीड़ा पहुँचाता है। अणावाणमणिश्खेवणाऽसमिसे ति घनत्या भाषणा। इसलिए जो आदान-भागमानिशेषण समिति से युक्त है वही निग्रन्थ है, जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपण समिति से रहित है, वह निग्रन्थ नहीं है । यह चतुर्थ भावना है। ५. महावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाण-भोयगभोई से (५) इसके पश्चात् पांचवीं भावना यह है---जो साधक णिग्गथे जो अणासोइयवाण-पोषणभोई। आलोकित पानभोज नभोजी होता है, वह निर्ग्रन्थ होता है, अना लोकित पान भोजन-भोजी नहीं । केवली या-'अणालोइयाण - भोयणभोई से मिगधे केवली भगवान् कहते हैं -जो बिना देखे-भाले ही आहारपागाणि वा, भूताणि वा, कोबाणि या, सत्ताणि वा अमि- पानी सेवन करता है। यह निर्ग्रन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों हणेजवा-जाब-उहवेज्ज था। तम्हा आलोइयपाण-भोयण- का हनन करता है,--पावत्-उन्हें पीड़ा पहुंचाता है। अत: भोई से णिग्गथे जो अभालोहयपाग-भोयमभोई ति पंचरा जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ भावणा। है। बिना देले भाले आहार-पानी करने वाला नहीं। यह पंचम भावना है। एताद ताव महस्मय सम्म काएणं कासिते पालिते तीरिए इस प्रकार पाँच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा किट्टिते अवढिसे आणाए आराहिते यावि भवति । स्वीकृत प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महावत का सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श करने पर उसका पालन करने पर, गृहीत महाअत को भलीभांति पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर, उसमें अवस्थित रहने पर, भगवाजा के अनुरूप आराधन हो जाता है। परमे मते ! महम्वर पाणाइबातामो वेरमयं । हे भगवन् ! यह प्राणातिपातविरमणरूप प्रथम महावत है। -आ. सु. २, अ.१५, सु. ७७७-७७६ १ (क) समवायांग सूत्र में अहिंसा महायत की पांच भावनाएं हैं-१. श्यास मिति, २. मनोगुप्ति, ३. वचनगुप्ति, ४. आलोक भाजन भोजन, ५. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण समिति । --सम, सम. २५, मु. १ (ख) प्रश्नण्याकरण में अहिंसा महाबल की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं-१. ईर्यासमिति, २. अपापगमन, .. अपापवचन, ४. एषणा समिति, ५. आदान निक्षेपण समिति । --पण्ह- सु. २, अ. १, सु. ७-११ विशेष के लिए देखें इसी विभाग का परिशिष्ट । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र १२१ हिंसा के साठ नाम धारित्राचार [२१६ अहिंसाए सट्ठी नामाई३२६. सत्य पदम अहिंसा, सस-पावर-सम्पभूय खेमकरो। सीसे सभाषणायो, किचि धोर; तुगसं ॥ तस्थ परम अहिंसा। जा सा सवेव मयासुरस्स लोगस्स भवइ बोशे अहिंसा के साठ नाम--- ३२१. इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्यावर--समस्त जीवों का क्षेम-कुशल करने वाली है। मैं पाँच भावनाओं सहित अहिंसा के गुणों का कुछ कथन करूंगा। उन (पूर्वोक्त) पाँच संवरद्वारों में प्रथम संदरद्वार अहिंसा है। यह अहिंसा देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समय लोक के लिए द्वीप अथवा दीए (दीपक) के समान है। त्राण है--विविध प्रकार के जागतिक दुःखों से पीडित जनों की रक्षा करने वाली है। शरणदात्री है, उन्हें शरण देने वाली है। कल्याणकामी जनों के लिए गति-गम्य है -प्राप्त करने योग्य है तया समस्त गुणों एवं सुखों का आधार है। (अहिंसा के निम्नलिखित नाम है।) (१) निर्वाण-- मुक्ति का कारण है। (२) निति-दुर्थ्यानरहित होने से मानसिक स्वस्थता ताणं सरणं गद्द पट्ठा। १. निम्वा, २. मिल्नु ३. समाही, ४.ससी ५. कित्ती, ६. कंसी, ७. रतोय, ८. बिरती य, ६.सुसंग, (३) समाधि-समता का कारण है। (४) शक्ति-आध्यात्मिक शक्ति या शक्ति का कारण है। (कही-कहीं "सती" के स्थान पर "सन्तो" पद मिलता है, जिसका अर्थ है—शांति, अहिंसा में परद्रोह की भावना का अभाव होता है, अतएव वद् शान्ति भी कहलाती है।) (५) कीति-कीति का कारण है। (६) कान्ति-अहिंसा के आराधक में कान्ति-तेजस्विता उत्पन्न हो जाती है, अतः वह बान्ति है। (७) रति--प्राणिमात्र के प्रति प्रीति, मैत्री, अनुरतिआत्मीयता को उत्पन्न करने के कारण वह रति है। (८) बिरति-पापों रो विरक्ति । (६) श्रुतांग-समीचीन श्रुतशान इसका कारण है, अर्थात् सत् शास्त्रों के अध्ययन मनन से अहिंसा उत्पन्न होती है, इस कारण इसे श्रुताग कहा गया है। (१०) तृप्ति-मन्तोषवृत्ति भी अहिंसा का एक अंग है। (११) दया-कष्ट पाते हुए, मरते हुए या दुःखित प्राणियों की करुणारित भाव से रक्षा करना, यथाशक्ति दूसरे के दुःख का निवारण करना । (१२) विमुक्ति -बन्धनों से पूरी तरह छुड़ाने वाली। (१३) क्षान्ति-क्षमा, यह भी अहिंग का रूप है। (१४) सम्यक्त्वाराधना---सम्यक्त्व की आराधना-सेवना कारण। १०. तिती, ११. क्या, १२. विमुत्तो, १३. खंती, १४. समताराहणा, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०) परमानुयोग अहिसा के साठ नाम सूत्र ३२१ १५. महतो, १५. बुद्धी, १८.धिई, १६. समिती, २०.रिबी, २१. विशी, २२. ठित्ती, २३. पुट्ठी, २४. नंदा, २५. महा, २६. विसुद्धी, २७. लदी, २८. विसिविट्टी, (१५) महती-समस्त प्रतों में महात्-प्रधान-जिनमें समस्त व्रतों का समावेश हो जाए । (१६) बोधि-धर्म प्राप्ति का कारण । (१७) बुद्धि-बुद्धि को सार्थकता प्रदान करने वाली। (१८) धृति---चित्त की धीरता - दृढता । (१६) समृद्धि-सव प्रकार की सम्पन्नता से युक्त जीवन को आनन्दित करने वाली । (२०) ऋद्धि-लक्ष्मी प्राप्ति का कारण । (२१) वृद्धि-~-पुण्य एवं धर्म की वृद्धि का कारण । (२२) स्थिति मुक्ति में प्रतिष्ठित करने वाली। (२३) पुष्टि-पुण्यवृद्धि से जीवन को पुष्ट बनाने वाली अथवा पाप का अपचय करके पुष्प का उपचय करने वाली । (२४) नन्दा-स्व और पर को आनन्द-प्रमोद प्रदान करने थाली। (२५) भद्रा ..स्व वा और पर का भद्र-कल्याण करने वाली। (२६) विशुद्धि-आत्मा को विशिष्ट शुद्ध बनाने वाली। (२७) लब्धि-केवलज्ञान आदि लब्धियों का कारण । (२८) विशिष्ट दृष्टि - विचार और आचार में अनेकान्त प्रधान दर्शनवाली। (२६) कल्याण-कल्याण या शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का कारण । (३०) मंगल-पाप-विनाशिनी, सुख उत्पन्न करने वाली, भव-सागर से तारने वाली। (३१) प्रमोद-स्व-पर को हयं उत्पन्न करने वाली । (३२) विभूति-ऐश्वयं का कारण ! (३३) रक्षा-प्राणियों को दु:ख से बचाने की प्रकृतिरूप, आत्मा को सुरक्षित बनाने वाली । (३४) सिद्धावास-सिद्धों में निवास कराने वाली, मुक्तिधाम में पहुँचाने वाली मोक्ष हेतु। (३५) अनानव-आते हुए कर्मों का निरोध करने वाली। (३६) केवली-स्थानम्- केवलियों के लिए स्थान रूप । (३७) शिव--सुख स्यरूप, उपद्रवों का शमन करने वाली। (३८) समिति-सम्यक् प्रवृति । (18) शील-सदाचार स्वरूपा, समीचीन आचार। (४०) संयम-मन और इन्द्रियों का निरोध तथा जीन रक्षा रूप। (४१) शीलपरिग्रह-सदाचार अथवा ब्रह्मपर्व का घरचारित्र का स्थान । २६. कल्लागं, ३०. मंगलं, ३३. पमोओ, ३२. विभूती, ३३. रक्सा , ३४. सिद्धावासो, १५. अपासपी, ३६. केवलीणठाण, ३७. सिव, ३८. समिई, २६. सोलं, ४०, संजमो तिप, ४१. सोलपरिघरो, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२१-३१२ भगवती अहिंसा को अठ उपमाएँ चारित्राचार २२९ ४२. संबरोय. (४२) संवर–आस्रव का निरोध करने वाली । ४३. गुस्ती, (५६) गुप्ति-मन, बचन, काय की असत् प्रवृत्ति को रोकना। ४४, ववसाओ, () व्यवसाय-विशिष्ट-उत्कृष्ट निश्चय रूप । ४५. उस्सओ. (४५) उच्छ्य-प्रणास्त भावों की उन्नति-वृद्धि समूदाय। ४६. जन्नो, (४६) यज्ञ-भाव देवपूजा अथवा यन-जीव रक्षा में सावधानतास्वरूप। ४७. आयतणं, (४७) आयतन -समस्त गुणों का स्थान । ४८. जमणं, (४८) यतना-माद–लापरवाही आदि का त्याग । ४६. अप्पमाओ, (४६) अप्रमाद-मध, विषय, कषाय, निद्रा और विकया रन पोर माटों का त्याग । ५०. अस्साओ, (५०) आश्वासन-प्राणियों के लिए आश्वासन-तवल्ली । ५१. विसासो, (५१) विश्वास-समस्त जीवों के विश्वास का कारण । ५२. अप्रमो, (५२) अभय-प्राणियों को निर्भयता प्रदान करने वाली, स्वयं आराधक को भी निर्भय बनाने वाली। ५३. सबम बिअमाधाओ, (५३) सर्वस्व अमावात-प्राणिमात्र की हिमा का निषेध अथवा अमारी-घोषणा स्वरूप । ५४. धोक्य, (५४) चोक्ष-चोखी, शुद्ध, भली प्रतीत होने वाली। ५५. पबित्ता, (५५) पवित्रा-अत्यन्त पावन-वन सरीखे घोर आघात से भी त्राण करने वाली। ५६. भूई, (५६) शुचि-भाव की अपेक्षा शुद्ध-हिंसा आदि मलीन भावों से रहित, निस्कलंक । ५७. पूजा, (५७) पूजा-पूजा, विशुद्ध या भाव से देवपूजा रूप । ५८. विमल, (५८) विमला-स्वयं निर्मल एवं निर्मलता का कारण । ५९. पमासा या (५६) प्रभासा- आत्मा को दीप्ति प्रदान करने वाली, प्रकाशमय । ६०. निम्मलयर ति (६०) निर्मलतरा-अत्यन्त निर्मल अथवा आत्मा को अतीच निर्मल बनाने वाली। ' एमावीणि निययगुणमिम्मियाई पक्णवनामाणि होति, अहिंसा भगवती के (पूर्वोक्त तथा इसी प्रकार के अन्य) हिसाए मगवतोए। इत्यादि स्वगुण निष्पन्न (अपने गुणों से निष्पन्न हुए) पर्यायवाची --पण्ह सु०२, अ०१, सु०२ नाम हैं। अहिंसा भगवईए अट्ठोवमा भगवती अहिंसा की आठ उपमाएँ३२२. एसा सा भगवई अहिंसा, ३२२. यह अहिंसा भगवती जो है। सो... 1.47 सा भीपाण विव सरगं, (१) (संसार के समस्त) भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, २. पाखीण विव गमगं, (२) पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने (उड़ने) के समान है, ३. तिसिशर्ग दिख सलिल, (३) यह अहिंसा प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] परणानुयोग अहिंसा स्वरूप के प्रापक और पालक सूत्र ३२२-३२३ ४. खुहियागं बिव असणं, (४) भूखों के लिए भोजन के समान है, ५. समुहमग्झे व पोयवहणं, (५) समुद्र के मध्य दूबते हुए जीवों के लिए जहाज समान है, ६. उप्पयाणं व आसमपर्य, (६) चतुष्पद-पशुओं के लिए आथय (स्थान) के सभान ह. ५. बुट्टियागं व ओसहिबलं, (७) दुःखों से पीड़ित रोगी जनों के लिए औषध-बल के ममान है, ८. अस्वीमने व सत्यममणं, (८) भयानक जंगल में सार्थ - संघ के साथ गमन करने के समान है। एतो विसिद्धतरिया अहिंसा आ सा पुढवी-जल-अगणि-माश्य- (क्या भगवती अहिंसा वास्तव में जल, अन्न, औषध, यात्रा वणस्सइ-बीय-हरिय-जलयर थलयर-खहयरतस-थावर-सम्य- में सार्थ (समूह) आदि के समान ही है ? नहीं।) भगवती सूय-क्षेमंकरी। अहिंसा इनसे भी विशिष्ट है, जो पृथ्वीकायिक, जलकायिक, --पण्ह. .२, अ. १, सु. ३ अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बीज, हरितकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, त्रस और रथावर सभी जीवों का क्षेम. कुशल-मंगल करने वाली है। अहिंसा सवपस्वगा पालगाय अहिंसा स्वरूप के प्ररूपक और पालक३२३. एसा भगवई अहिंसा का सा अपरिमिय-णाणसणधरेहि ३२३. यह भगवती अहिमा वह है जो अपरिमित-अनन्त केवल सौल-गुण-विषय-तय-संयम-जायगेहि, तिस्थकरेहि सध्वजग- ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले, शीलरूप गुण, विनय, तप और जोववच्छलेहि तिलोयमहिएहि जिगवरेहि (निणंदेहि) संयम के नायक--इन्हें चरम सीमा तक पहुँचाने वाले, तीर्थ की सुविट्टा, संस्शपना करने वाले प्रवर्तक, जगत के समस्त जीवों के प्रति वात्सल्प धारण करने वाले, त्रिलोक पूजित जिनवरों (जिनेन्द्रों) द्वारा अपने केवलज्ञान-दर्शन द्वारा सम्यक् रूप में स्वरूप, कारण और कार्य के दृष्टिकोण से निश्चित की गई है। ओहिजिहि विष्णाया, विशिष्ट अवधिशानियों द्वारा विज्ञात की गई है। अनुमईहि विविट्ठा, ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानियों द्वारा देखी-परखी गई है। दिउसमाईहि विदिक्षा, विपुलमति-मनःपर्यवज्ञानियों द्वारा ज्ञात की गई है। पुग्वधहि महीया, चतुर्दश पूर्वश्रुत के धारक मुनियों ने इसका अध्ययन किया है। बेसम्मोहि पतिण्णा, वित्रिपाल धिधारकों मे इसका आजीवन पालन किया है। १. आमिनियोहियगरणीहि, २. सुषणाणोहि, (१) आभिनिबोधिक-मतिज्ञानियों ने, (२) श्रुतज्ञानियों ने, ३. ओहिनाणीहि, ४. मणपशवणाणीहि, ५. केवलणामोहित (३) अवधिज्ञानियों ने, (४) मनःपर्यवशानियों ने, (५) केवल ज्ञानियों ने, १. आमोसहिपत्तहि, २. खेलोसहिपसेहि, ३. विष्पोसहिपतेहि (१) आमाँषधिलब्धि के धारक, (२) श्लेष्मौषधिलब्धि के ४. अल्लोसहिपतहिं, ५. सम्योसहिपसेहि। धारक, (३) विप्रौषधिलब्धि धारकों, (४) जल्लोषधिलब्धि धारकों, (५) सौषधिलब्धिप्राप्त, १. बीयबुद्धीहि, २. कुमुखीहि, ३. पमाणुसारीहि, (१) बीजबुद्धि, (२) कोष्ठबृद्धि, (6) पदानुसारिद्धिसंभिग्णसोएहि. ५. सुपपरेहि । लन्धि के धारकों, (४) सम्भिन्नश्रोतस्तब्धि के धारकों, (५) श्रुतधरों ने। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ३२३ अहिंसा स्वरूप के प्ररूपक और पालक चारित्राचार २२३ १. मणबलिएहि, २. पयलिएहि, ३. कापालिएहि । १. गाणबलिदहि, २. सणबलिएहि, ३. परित्तबलिदहि, १. खीरासबेहि ३. मप्पियासदेहि २. महुशासवेहि, ४. अक्खीणमहाणसिएहि, १. चारणेहि, विज्बाहरेहि । चउत्थमत्तिएहि एवं-जाव-छम्मासमत्तिएँहि, १. उक्खित्तचरएहित २. असचररहि, ५. लहपरएहि. ७. समुपाणचरएहि. ६. संसट्टकम्पिहि. ११. उणिहिएहि १३. संखावत्तिएहि. १५. अविटुलामिएहि, १७. आयंबिलएहि। १६. एक्कासपिएहि. २१. मिणपिरवाइएहि. २३. अंताहारेहि, २१. अरसाहारेहि २७. सूहाहारहिं. २६. अन्तजीवीहिं. ३१. सहजीवीहि, ३३. उषसन्तजीवीहि, ३५. विवित्तजीवोहिं ३६. अखीरमासप्पिएहि, २. णिक्षितचरएहि, ४. पन्तवरहि, ६. अण्णइलाएहि, ८. मोणचरएहि, १०. सज्जायसंसटुकप्पिएहि. १२. सुद्धसणिएहि, १४. विट्ठलाभिएहि. १६. पुटुलामिएहि, १८. पुरिमदिवएहि २०. गिरिधारहि, २२. परिमियपिस्वाइएहिं, २४. पंक्षाहारेहि, २६. विरसाहारेहि २८. तुष्टाहारेहि ३०. पन्तमीवी हिं, ३२. तुच्छ जीवीहि, ३४. पसन्सजीले हि (१) मनोबली, (२) वचनबली और (३) कायबली मुनियों ने (१) ज्ञानबली, (२) दर्शनबली तथा (३) चारित्रबली महापुरुषों ने (३) क्षीराखवलब्धिधारी, (२) मध्वानवलब्धियारी, (३) सपिरानवलधिधारी तथा (४) अक्षीण महानसलब्धि के धारकों ने, (१) चारणों और विद्याधरों ने चतुर्थभक्तिकों-एक-एक उपवास करने वालों से लेकर -यावत्-छ: मास भक्तिक तपस्त्रियों ने इसी प्रकार (१) उत्क्षिप्तचरक, (२) निक्षिप्तचरक, (३) अन्तचरक, (४) प्रान्तचरक, (५) रूक्षचरक, (६) अन्नग्लायक, (७) समुदानचरक, (८) मोनचरक, (8) संसृष्टकल्पिक, (१०) तज्जातसंसष्टकल्पिक, (११) उपनिधिक, (१२) शुषणिक, (१३) संख्यादत्तिक, (१४) दृष्ट लाभिक, (१५) अदृष्टलाभिक, (१६) पृष्ठलाभिक, (१५) आचाम्लक, (१८) पुरिमाधिक, (१६) एकाशनिक, (२०) निर्दिकृतिक, (२१) भिन्नपिण्डपातिक, (२२) परिमितपिण्डपातिक, (२३) अन्ताहारी, (२४) प्रान्ताहारी, (२५) अरसाहारी, (२६) विरसाहारी, (२७) रूक्षाहारी, (२८) तुच्छाहारी, (२६) अन्तजीवी, (३०) प्रान्तजीवी, (३१) क्षजीवी, (१२) तुच्छजीवी, (३३) उपशान्तजीवी (३४) प्रशान्तजीवी, (३५) विविक्तजीवी तथा (३६) दूध, मधु और घृत का यावज्जीवन त्याग करने बालों ने, (३७) मद्य और मांस से रहित आहार करने वालों ने, (१) कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थिर रहने का अभिग्रह करने वालों ने, (२) प्रतिमास्थायिकों ने, (३) स्थानोत्कटिकों ने, (४) वीरासनिकों ने, (३) नंषधिकों ने, (६) दण्डायतिफों ने (७) लगण्डशायिकों ने, (८) एकपार्श्वकों ने, (९) आतापकों ने, (१०) अप्रावतों ने, (११) अनिष्ठीवकों ने, (१२) अकंड्रयकों ने, (१३) धूतकेश श्मश्रु-लोम-नस अर्थात् सिर के बाल, दाढ़ी मूंछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, (१४) सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, ३७. अमज्जमसासिएहिं । १. ठाणाइएहि, २. परिमंठाइएहि, ३. ठाणुक्कडिएहिं, ४. वीरासगिएहिं. ५. गेसग्लिएहि ६. शाइएहिं, ७. समाईएहि . एगपासमेहि. ६. आयावएहि. १०. अध्यावएहिं, ११. अणिमएहि. १२. अकंडूयएहि, १३. घुमकेसमंसुलोमनसएहि, १४. रम्बगायपडिकम्मनिष्पमुक्केहि समणुषिण्णा, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] चरणानुयोग अहिंसा का स्वरूप सूत्र ३२३.३२४ सुपहरविदयस्थकापबुद्धीहि धोरमहबुद्धिणो य । श्रुतधरों के द्वारा तस्वार्थ को अवगत करने वाली वृद्धि के धारक महापुरुषों ने (अहिंसा भगवती का) सम्यक् प्रकार से आचरण किया है। जेते आसरेविस उगतेयकापा, णिच्छयववसायपजसकपईया, (इनके अतिरिक्त) आशीविष सर्प के सामान उन तेज से मिच्नं समायज्माणअणुबद्धधम्मसाणा, पंचमहन्वयचरित- सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तुतत्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों शता, समिया समिइमु समिपपावा छरिवहजयवच्छता में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न महापुरुषों ने, निस्य णिच्चमप्पमता एएहिं अग्णेहि य ा सा अणुपालिपा स्वाध्याय और वित्तवृत्तिनिरोध रुप ध्यान करने वाले तथा भगवई। धर्म ध्यान में निरन्तर चित्त को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, --पण सु. २, न. १. सु.४ पांच महारत स्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पत्र, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है। अपसमदिट्ठी आत्मसमदृष्टि३२४. तुम सि णाम तं चेकजं हंतवं ति माणसि. ३२४. तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तुम सि पाम तं व ज अज्जाबेतव्य ति मणसि, तू वही है, जिसे तू आजा में रखने योग्य मानता है। तुमं सि गाम तं चैव अं परितावेतवर्ष ति मति , तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है। तुर्म सि णाम तं वेव जं परिघेतवं विमणसि, तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है। एवं तं व उहवेता ति मण्णसि । __ और तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। अंजू चेयं पडिमुद्धजीवी। तम्हा प हंता, ण वि धातए। ज्ञानी पुरुष ऋजु-सरल होता है, यह प्रतियोध पाकर जीने वाला होता है इसके कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है। अगसंवेयणमपाणेणं जं हतवं णाभिपरथए। कृत कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता -आ. सु. १, अ.५, उ. ५. सु. १७० है, इसलिए किसी का हनन करने की इच्छा मत करो। उपमेव णावकखंति, जे जणा धुवचारिणो। जो पुरुष मोक्ष की ओर गतिशील है वे इस (विपर्यासपूर्ण जाती-मरणं परिष्णाय, धरे संकमणे हे ॥ जीवन को जीने) की इच्छा नहीं करते (विपर्यासपूर्ण जीवन जीने बाले के) जन्म-मरण को जानकर वह मोक्ष के सेतु पर दृढ़ता. पूर्वक चले। पस्थि कासरस पागमो मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है (वह किसी भी -आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७८ क्षण आ सकती है)। पमू एजस्स दुगुन्छणाए । आतंकदंसी अहियं लि पच्चा। साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है । अतः वायुकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ होता है। से अनाथं जाणति से बहिया जागति, । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य संसार को भी जानता जे बहिया जाणति से अमापं माणति । है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। एवं तृलमपणेसि । इस तुला (स्व-पर की तुलना) का अन्वेषण कर, चिन्तन कर। " इह सतिगला दक्यिा णायकति जीवित । इस (जिनशासन में) जो शान्ति प्राप्त (कषाय जिनके -आ. सु. १, अ. १, उ. ७, मु. ५६ उपशान्त हो गये हैं) और दयाई हृदय वाले (द्रविक) मुनि है, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते। . . . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२५-३२६ भगवाम ने छह जीवनिकाय प्ररूपित किये हैं मारित्राचार २२५ षड्जीवनिकाय का स्वरूप एवं हिंसा का निषेध भगवया छ जीवनिकाया परुविया भगवान ने छह जीवनिकाय प्ररूपित किये है३२५. सुयं मे माउस ! तेणं भगवा एषमक्खायं-इह खलु छगनी. ३२५. हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार वणिया नामजायणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं कहा -निग्रंथ-प्रवचन में निश्चय ही षड्जीवनिका नामक अध्यपवेड्या सुयक्स्थामा सुपन्नता। यन काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित सु आख्यात और भुप्रजप्त है। सेयं मे बहिज्जि अजमायणं धम्मपनती। इस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है। प.कयरा बलु सा छज्जीवणिया नाममयणं समणेणं मग- प्र-वह षड्जीवनिका नामक अध्ययन कौन-सा है जो वया महावीरेप कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपनत्ता। काश्यप-गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात सेयं मे बहिज्जि अश्मयणं धम्मपन्नती। और सु-प्रशप्त है, जिस धर्म प्राप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है? उ.-इमा खलु सा छज्जीवणिया नामजमवणं समणं भग- उ०-वह षड्जीवनिका नामक अध्ययन जो काश्यप गोत्री वया महावोरेण कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपश्नत्तः। श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात और सु-प्रशप्त सेयं मे अहिग्जि अमायण धम्मपन्नत्तो तं जहा- है, जिस धर्म-प्रशप्ति अध्ययन का पटन मेरे लिए श्रेय है-यह है जैसे१. पुचिकाइया, २. आउकाड्या, ३. तेवकाइया, (१) पृथ्वीकायिक, (२) अपकायिक, (३) तेजस्कायिक, ४. वाउकाइया, ५. वणस्सइकाइया, ६. तसकाइया। (४) वायुकायिक, (५) वनसतिकायिक और (६) सकायिक । -देस. अ. १, सु. १-३ छहं जीवणिकायाणं अणारंभपइण्णा छह जीवनिकायों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३२६. हसि छाहं जीवनिकामा नेव सयं को समारंभेक्षा, ३२६. इन छह जीव-निकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ नहीं नेवन्नेहि समारंभावेजा, समारंभते वि अग्ने न करना चाहिए, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं कराना चाहिए और समगजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविरेणं मणेग यापाए दण्ड-समारम्भ करने वालों का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। कारणं न करेमि न कारवेर्मि करतं मि अन्नं न समगु- यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से--मन से, वचन सामामि। से, काया से--करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स मंते ! पहिस्कामि निवामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भन्ते ! मैं अतीत में किए दण्ड समारम्भ से निवृत्त होता -दस, अ. ४, सु. १० हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय-) आत्मा का ब्युस्सर्ग करता हूँ। उमेहे बहिया य लोक। इस (धर्म) से विमुख जो लोग हैं उनकी उपेक्षा कर ! से सम्बलोकसि जे केइ विष्णू। जो ऐसा कहता है, वह समस्त मनुष्य लोक में जो कोई विद्वान है, उनमें अग्रणी विश है। अधियि पास ! णिखितजा से कह सत्ता पक्षियं पति। तू अनुचिन्तन करके देख-जिन्होंने दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है, वे ही श्रेष्ठ विद्वान होते हैं)। गरा मुतच्चा धम्भविद् ति अंजू, जो सत्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते है अथवा शरीर के प्रति भी बनासक्त होते हैं। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] परणानुयोग छह जीवनिकायों की हिंसा नहीं करनी चाहिए सत्र ३२६-३२७ आरंभकं दुखमिति णच्या । एवमाह सम्मत्तदसिणो। इस दुःख को आरम्भ से उत्पन्न हुआ जानकर (समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिए) ऐसा (सर्वज्ञों ने) कहा है। से सम्वे पापारिया दुखस्स कुसला परिषणमुवाहरति इति ये सब प्रावादिक (सर्वज्ञ) होते हैं, वे दुःख (दुःख के कारण कम्मं परिणाय सम्बसो। कर्मों को) जानने में कुशल होते हैं। इसलिए वे कमों को सब -आ. सु. १, ब. ४, उ. ३, सु. १४० प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं । छ जीवणिकायाणं हिसानकायस्या छह जीवनिकायों की हिंसा नहीं करनी चाहिए ... ३२७. इन्वेयं छज्जोवणिय, सम्मट्ठिी सपा जए। २२७. दुर्लभ थमण-भाव को प्राप्त कर सम्यक दृष्टि और सतत दुलह नमित्त सामपं. कम्मुणा न विराहेमासि ॥ सावधान श्रमण इस षड्जीवनिकाय को कर्मणा-मन, बचन और -वस. अ. ४, गा. ५१ काया-से विराधना न करे । पुढवी-आऊ - अगणि-बाम-सण-क्या-सीयगा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरित, तृण, वृक्ष और बीज मंडया पोय - जरा - रस - संसेय - उस्मिया ॥ आदि वनस्पति एवं अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज्ज आदि त्रसकाय, ये सब षट्कायिक जीव हैं। एतेहि छहि कारहि, तं विजं परिमाणिया। विद्वान् साधक इन छह कायों से इन्हें जीव जानकर मन, मनसा कायवक्के, भारंभी ग परिगही । वचन और काया से न इनका आरम्भ करे और न इनका परिग्रह -सूय. सु. १,अ. ६. गा.-६ करे। पुडवीजीया पुढो सत्ता, आज्जीबा तहागणी । पृथ्वी जीव है, गृथ्वी के आश्रित भी पृथक् पृथक् जीव हैं, बाउजीवा पुढो सत्ता, तण बसपीयगा ॥ जल एवं अग्नि भी जीव है, वायुकाय के जीव भी पृयक्-पृथक् हैं तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज (के रूप में वनस्पतियाँ) भी जीव हैं। अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय माहिया। इनके अतिरिक्त (छटे) सकाय वाले जीव होते हैं। इस इत्ताव ताव जीवकाए, नावरे पिज्जती काए । प्रकार तीर्थंकरों ने जीप के छह निकाय (भद) बताये हैं। इतने ही (संसारी) जीव के भेद हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और कोई जीव (का मुख्य प्रकार) नहीं होना । सव्वाहि अक्षुत्तीहि, मतिम परिलहिया। धुद्धिमान पुरुष सभी अनुकूल (संगत) युक्तियों से इन जीवों सम्बे अंतबुक्खा य, अतो सम्वे न हिसया ॥ में जीवत्व सिद्ध करके भलीभांति जाने-देखे कि सभी प्राणियों को -सूय. सु. १, अ. ११, सु. ७-६ दुःख अप्रिय है (सभी सुख-लिप्सु है), अत: किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। पुडविणअगणिमा घ, तण - इक्स-सबीयगा। पृथ्वी, उदक, अग्नि, वायु सीज-पर्यन्त तृण-वृक्ष और स तसा व पाणा जीव ति, इह पतं महसिणा ॥ प्राणी-ये जीव हैं-ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। तेलि अच्छणजोएग, निच्चं हायस्बयं सिया। भिक्ष को मन, बक्न और काया से उनके प्रति सदा अहिंसक मला काय परकेण, एवं मवह संजए॥ होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक रहने वाला संयत (संयमी) -दस. अ.८, गा. २-३ होता है। एवं वि जाण जबावीयमाणा, जे भापारण रमंति, तुम यह जानो। जो आचार (अहिंसा-आत्म-स्वभाव) में रमण नहीं करते वे कर्मों से-आसक्ति की भावना से बंधे हुए हैं। आरम्भमाणा विनयं वयंति, वे आरम्भ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं । अथवा दूसरों को संयम का उपदेश करते हैं । छोपनीया अपसोपवण्णा, वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र३२७-३२८ वीकाय का आरम्म न करने की प्रतिज्ञा चारित्राचार २२७ आरम्भसता पकरेंति संग । वे (स्वच्छन्दचारी) आरम्भ में मासक्त रहते हुए पुनः पुनः कर्म का संग-बन्धन करते हैं। से यमुझ सव्व समग्णागत-पराणालेणं अफरणिज्ज पाई कम्मं वह वसुमान (ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप धन से संयुक्त) सब तं जो अण्णेसि। प्रकार के विषयों के सम्बन्ध में प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तःकरण से पाप कर्म को अकरणीय (न करने योग्य) जानें, तथा उस विषय में अन्वेषण (मन से चिन्तन) भी न करे । तं परिणाय मेहाबी व समं छज्जीव-निकाय-सस्थं समा- यह जान कर मेधादी मनुष्य स्वयं षट्-जीव-निकाय का समाभेज्जा , रम्भ न करे। गंवानेहिं छज्जीवणिकायसर्थ समारंभावेज्जा, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, वऽपणे छज्जीवगिकायसत्थं समारंभंते समजाज्जा । उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। जस्सेते छज्जीवणिकायसत्य-समारम्भा परिणाग भवंति से जिसने षड्-जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभांति समम हु मुणी परिणायकम्मे, लिया है, त्याग दिया है, वही परिजातकर्मा मुनि कहलाता है। ति अमि। .. आ. सु. १, अ. १, उ.७, सु. ६२ -ऐसा मैं कहता हूँ। उद अहे य तिरिय विसासु, साधु ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस और तसा यजेथावस जेय पाणा। स्थावर प्राणी रहते हैं, उनकी हिंसा जिस प्रकार से न हो, उस सया मते तेसु परिश्वएज्जा, प्रकार की यतना (यल) करे तथा संयम में पुरुषार्थ करे एवं उन मणप्परोस अविकंपमाणे॥ प्राणियों पर लेशमात्र भीष न करता हुआ संयम में निश्चल -सूय. सु. १, अ. १४, गा. १४ रहे। से मेधावी जे अणुग्घायणस्स खेत्तपणे से य बंधप्पमोक्या वह मेधावी है, जो अनुपात-अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता मम्सी । है, तथा जो कर्मों के बन्धन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है। कुसले पुग गो बझे जो मुक्के । कुशल पुरुष न बँधे हुए हैं और न मुक्त हैं। से आरम्भे, जंच पारंभे, अणारखंच ग आरम्मे । उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण नहीं किया है उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। छगं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्यसो। अहिंसा और हिंसा के कारणों को जानकर उनका त्याग कर -बा. सु.१, अ.२, उ. ६, सु. १०४ दे। लोक-संज्ञा (लौकिक सुख) को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। पुडविकाय अणारंपकरण पइण्णा-- पृथ्वीकाय का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३२८ पुढवी वित्तमंतमक्खाया अगजीया पुढोसत्ता अन्नत्य सस्थ ३२८. मास्त्र-परिगति से पूर्व पृथ्वी चितवती (सजीव) कही गई परिणएणं । है । वह अनेक जीवों और पृथक सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र -देस. अ. ४, मु.४ अस्तित्व) वाली है। से भिक्ट वा भिमखुगी वा संजय-विरय-पडिहय-पचपवाय- संयत विरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा भिक्षु अथवा पायकम्मे बिया वा राओ वा एगओवा परिसागओ पा सुसे भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते मा मागरमाणे या से पुदि वा पिति वा सिल वा लेखें या जागते-गृथ्वी, भित्ती (नदी पर्वत आदि की दरार), शिला, वा ससरक्खं वा कार्य ससरमख वा वत्थं हत्येण का पाएकवा देले, सचित्त-रज से संसृष्ट काप अथवा सचित्त रस से संसृष्ट कट्ठग वा किलिचेण श अंगुलियाए वा सलागाए वा सलाग- वस्त्र या हाथ, पांव, काष्ठ, खपच्चि, अंगुली, शलाका अथवा हत्येण बा, न आलिहेज्जा न विलिहेज्जा न घट्ट जना न शलाका-समूह से न आलेखन करे, न विलेखन करे, न भट्टन मिज्जा, करे और न भेदन करे। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०) परमानुयोग सचित्त पृथ्वी पर निषचा (बैठने) का निषेध पुष ३२५-३० अन्नं आलिहावेज्जा न विलिहावेजा न घडावेजा न दुसरे से न आलेखन कराए, न विलेखन कराए, न घटन भिवावेज्जा, कराए और न भेदन कराए । अग्नं आलिहत वा विलिहतं वा घट्टन्तं वा मिवंत वान समगु- आलेखन, विलेखन, चट्टन या भेदन करने वाले का अनुजाणेग्ला डावग्जीवाए तिविहं तिबिहेण मणेणं वायाए मोदन भी न करे, यावजीवन के लिए तीन करण तीन योग से कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि मान न समषु- मन से, वन से, काया से, न करूगा न कराऊँगा और न करने जाणामि ।' वाले का अनुमोदन भी करू गा। तस्स मंते | परिपकमामि निवामि गरिहामि अप्याग बोस- भंते ! मैं अतीत के पृथ्वी-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसको निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग -दस. अ. ४, सु. १८ करता हूँ। सचित्त पुढवीए णिसिज्जा निसेहो सचित्त पृथ्वी पर निषद्या (बैठने) का निषेध-- अधिस पुढवीए णिसेज्जा विहाणो अचित्त पृथ्वी पर बैठने का विधान३२९. सुधपुढवीए न निसिए, ससरमम्मि पासणे। २२६. मुनि शुद्ध पृथ्वी और सचित-रज से संसृष्ट आसन पर न पमजिस निसीएज्मा, माता जस्स प्रोग्गह।। बैठे । अचित्त पृथ्वी पर प्रमार्जन कर और वह जिसकी हो उसकी -इस. अ.८, मा.५ अनुमति लेकर बैठे। पहवीकायाणं वेयणा विणायतेसि आरम्भणिसेहो को- पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना जानकर उनके आरम्भ का निषेध किया है३३०. अट्टलोए परिषुण्णे दुरसंबोधे अधिजाणए। ३३०, जो मनुष्य आर्त, (विषय-वासना-कषाय आदि से पीड़ित) है, वह शान-दर्शन से परिजीर्ण-हीन रहता है। ऐसे व्यक्ति को समझाना कठिन होता है, क्योंकि वह अज्ञानी जो है। मस्सिं लोए पावहिए ताय तस्थ पुढो पास आतुरा परि- अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीड़ा का अनुभव करता ताति। है। काम-भोग व सुख के लिए आतुर-लालायित बने प्राणी स्थानस्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप (कष्ट) देते रहते हैं । यह तू देख ! समक्ष! संति पाणा पुढो सिता । पृथ्वीका यिक प्राणी पृथक-पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येकशरीरी होते हैं। मासमामा पुटो पास। तू देख ! आत्म-साधक, लज्जामान है-हिमा से स्वयं का संकोच करता हुआ अर्थात् हिंसा करने में लज्जा का अनुभव करता हुआ संयममय जीवन जीता है। अणारा मोति एगे पयषमाग।। जमिपं विस्वस्वेहि कुछ वेषधारी साधु 'हम गृहत्यागी है ऐसा कथन करते हुए सत्येहि प्रविफम्मसमारंमेणं पुषिसत्यं समारंभमाणो भी वे नाना प्रकार के स्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में भगवे पाणे विहिंसहि। लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं । तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। ताप खानु अगवता परिया पवेविता इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का उपदेश किया है। 1 पुदि भिति सिल लेलु नेव भिदे न संलिहे । तिबिहेण करणजोएण संभए सुसमाहिए। -दस. अ.८, गा. ४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब ३३० पृथ्वीकायिक जीवों को देखना मानकर उनके आरम्भ का निषेध किया है चारित्राचार २ इमस घेग नीषियस्स, परिवरक मामण-पुषणाए जाती- कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा-सम्मान और पूजा मरण-मोयनाए बुक्खपरिपातहे, के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुख का प्रतिकार करने के लिए। से सयमेव पुर्वावसत्यं समारंभति, अण्णेहि बा पुढविसत्यं स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं, दूसरों से हिंसा समारंभावेति, अग्ने वा पुढविसत्धं समारमंते, समाजागति, करवाते हैं, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करते हैं। त से अहिताए, तं से अबोहीए। वह (हिसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। वह उसकी अबोधि अर्थात् ज्ञान-बोधि, दर्शन-बोधि और चारित-छोधि की अनुपलब्धि के लिए कारणभूत होती है। से तं संवुममाणे आयागीयं समुहाए। वह साधक (संयमी) हिमा के उक्त दुष्परिणामों को अपछी तरह समझता हुआ, आदानीय-संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। सोचा भगवतो अणगारार्ण इहमे गेसि जातं भवति-एस कुछ मनुष्यों को भगवान के या अनगार मुनियों के समीप बतुनथे, एस खलु मोहे, एस खतु मारे, एस पपु गिरए। धर्म सुनकर यह शान होता है कि-"यह जीव-हिमा प्रन्थि है, यह मोह दे, घट मुत्य है और यही नरक है।" हसत्यं गदिए लोए, नमिणं विरूदरवेहि सत्येहि पुरवि- (फिर भी) जो मनुष्य सुख आदि के लिए जीवहिंसा में कम्मसमारंमेणं पुविसत्यं समारंममागे मागे मगर पाने आसक्त होता है, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी विहिति। हिसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वी-कायिक जीवों की हिंसा करता है, और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक जीदों की हिंसा करता है, अपितु अन्य नानाप्रकार के जीवों को भी हिंसा करता है। से बेमि मैं कहता हूँअल्पेगे अंधमग्ने, अन्येगे अंधमाल, जैसे कोई किसी जन्मान्ध इन्द्रियविकल--पंगु, गंगा, बहरा, अक्ष्यवहीन को भेदे, मुद्गर आदि से चोट पहुँचाये थेये, (तसवार मादि से घाव को काटकर अलग कर दे) मप्येने पावमाने, अप्पेगे पाबमाछे, जैसे कोई किसी के पर को भेद, छेदे, भरपेगे गुरफमम्मे, अप्पेगे गुष्फमेसछे। जैसे कोई किसी के टखने को भेदे, छेदे, अप्पेगे जंघमम्भे. अप्पेगे मधमाछे, जैसे कोई किसी की जंघा को भेदे, छेदे, अप्पेगे जाणुमाने, अप्पेगे माणमाके, जैसे कोई किसी के घुटने को भेदे, छेदे, अप्पेगे हमामे, अप्पो उलमाछ, जैसे कोई किसी के उरु को भेदे, दे, भयो करिमसे, अप्पेगे डिमाछे, जैसे कोई किसी को कटि को भेदे, छेडे, अप्पेगे मामिमन्मे, मप्पो णाभिपच्छे, जैसे कोई किसी को नाभि को भेदे, छेदे, अपंगे उपरमम्मे, अप्पगे गरमच्छ, जैसे कोई किसी के उदर को भेदे, छेदे, अप्पेगे पासमम्मे, मपणे पासपाछे, जैसे कोई किसी की पावं (पसली) को भेदे, दे, अप्पेगे पिढिमग्भे, अप्पगे पिद्विमन्छे, जैसे कोई किसी को पीठ को भेदे, छेदे, मागे उरमाभे, अम्पेगे उरमन्छे, भैसे कोई किसी की छाती को भेदे, छेके, भयेगे हिवयमसे, अप्पेगे हियपमा, जैसे कोई किसी के हृदय को भेदे, छेदे, मध्येगे धनमम्भे, अप्पेगे पगमछे, जैसे कोई किसी के स्तन को भेदे, छदे,, अपंगे बंधमम्मे, अम्पेगे बंधमच्छे, जैसे कोई किसी के कंधे को भेदे, छेदे, भयगे बाहुमने, अप्पेगे बाहुमम्छे, जैसे कोई किसी की भुजा को भेदे, वेदे, मागे हापमम्मे, भगे हत्पमच्छे, जैसे कोई किसी के हाथ को भेदे, छेदे, भयेगे अंगुलिमम्भे, मप्पेगे अंगुलिमाछे, जैसे कोई किसी की अंगुली को भेदे, छेदे, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.] धरणानुयोग अकायिक जीवों का आरम्म न करने की प्रतिज्ञा अप्परे गहमरने, अप्पेगे महमण्छे, जैसे कोई किसी के नख का भेदन करे, छेदन करे, अप्पेगे गौवमम्मे, अप्पेगे गौवम, जैसे कोई किसी की ग्रीवा (गरदन) का भेवन करे, छेदन करे, अप्पो हनुमग्भे, अप्पेगे हणुमच्छ, जैसे कोई किसी हनु (ड्डी) का भेदन करे, छेदन करे, अपंगे होटुमम्मे, अप्पेगे होगुमच्छे, जैसे कोई किसी के होंठ का भेदन करे, छेदन करे, मध्ये सरन, अन्य बैतम, जैसे कोई किसी के दांत का भेदन करे, छेदन करे, अप्पेगे जिम्ममम्भे, अप्पेगे जिम्ममध्छे, जैसे कोई किसी को जीभ का भेदन करे, छेदन करे, भप्पेगे तालुमम्मे, अप्पेये तालुमच्छ, जैसे कोई किसी के तालु का भेदन करे, छेदन करे, अपेगे गसमामे, अप्पेगे गलमन्छे, जैसे कोई किसी के गले का भेदन करे, छेदन करे, अप्पगे गंडमासे, अप्पेगे गंडमच्छ, जैसे कोई किसी के कपोल का भेदन करे, छेदन करे, अप्पंगे कण्णमग्ने, भरपेगे कायमच्छ, जैसे कोई किसी के कान का भेदन करे, छेदन करे, अपंगे णासमम्मे अप्पेगेगासमन्छे, जैसे कोई किसी नाक (नासिका) का भेदन करे, छेदन करे, अप्पो अपिछमाभे, अपेगे अच्छिमच्छ, जैसे कोई किसी की आँख का भेदन करे, छेदन करे, अयगे ममुहममें, आपेगे भमुहमच्छ, जैसे कोई किसी की भौंह का भेदन करे, छेदन करे, अप्पे गिजालमम्भे, अप्पो पिडालमाछे, जैसे कोई किसी के ललाट का भेदन करे, छेदन करे, अप्पो सीसमम्मे, अप्पंगे सोसमन्छे, जैसे कोई किसी के सिर का भेदन करे, ददन करे, मप्पगे संपमारए, अप्पेगे उपए। जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर, मूच्छित कर दे, या प्राण-वियोजन ही कर दे उसे जैसी कष्टानुभूति होती है। वैसी ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझनी चाहिए। एप सरपं। समारंप्रमाणस्स इच्छेते आरम्मा अपरिष्णाता जो यहाँ (लोक में) पृथ्वी कायिक जीवों पर शस्त्र का भवति। समारम्भ-प्रयोग करता है, वह वास्तव में इन आरम्भों (हिंसा सम्बन्धी प्रवृत्तियों के कट परिणामों व जीवों को वेदना) से अनजान है। एप सत्धं असमारंममाणस्स इम्ते आरम्भा परिणाता जो पृथ्वीकाधिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ-प्रयोग नहीं भवति । करता, वह वास्तव में इन आरम्भों-हिंसा-सम्बन्धी प्रवृत्तियों का झाला है, (वही इनसे मुक्त होता है) सं परिणाय मेहावी य स विसरण समारंभेज्जा, यह (पृथ्वीकायिक जीवों की अव्यक्त वेदना) जानकर बुद्धिभवहिं पुढविसस्य समारंभावेजा, जेवणे-पुतविसस्थ मान् मनुष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारम्भ करे, न दूसरों से समारंमते समजाज्जा । पृथ्वीकाय का समारम्भ करवाये और न उसका समारम्भ करते वाले का अनुमोदन करे। बोते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवति से हु मुणी जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारम्भ को जान लिया अर्थात् परिण्णायकम्मे । हिसा के कटु परिणाम को जान लिया वही परिक्षातकर्मा (हिंसा) का त्यागी) मुनि होता है। तिमि । -प्रा. सु. १, अ.१ उ. २, सु.१०.१८ सा मैं कहता हूँ। नियुक्तिकार ने पृथ्वीकाय के दस शस्त्र इस प्रकार गिनाये हैं :१-कुदाल आदि भूमि खोदने के उपकरण । ६-उच्चार-प्रश्रवण (मल-मूत्र)। ३-हल आदि भूमि विदारण के उपकरण । ७-स्वकाय शस्त्र; जैसे—काली मिट्टी का शस्त्र पीली मिट्टी मावि। ३-मृग श्रृंग। ८--परकाप शस्त्र; जैसे----जल आदि । ४-का-लकड़ी तृण आदि । ६-तदुभय शस्त्र; जैसे-मिट्टी मिला जल । -अग्निकाय । १०-भावशस्त्र-असंयम । -आवारांग नियुक्ति गा, ९५-९६ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३१-३३२ अप्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध पारित्राचार [२. .PRAM - .. आजकाय अणारंभ करण-पइण्णा अपकायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३५१. माविसमतमखाया अगजीवा पुटोससा अन्नत्थ सत्य- ३३१. पास्त्र-परिणति से पूर्व अप चित्तवान (सजीव) कहा गया परिणएणं। है। वह अनेक जीव और पृथक सरवों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र --दस. अ.४, सु.५ अस्तित्व) बाला है। से भिक्खू वा भिक्खणी वा संजय-विरय-पहिय-पच्चखाय. संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष अथवा पावकम्मे दिया वा राओ वा एगो वा परिसागओ वा मुत्ते भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते वा जागरमाण वा या जागतेसे उवर्ग वा ओसं था हिमं या महियं वा फरगं वा हरतगं उदक, ओस, हिम, धूंजर, बोले, भूमि को भेदकर निकले वा सुखोदगं या उदओरुलं वा कार्य उपोल्लं वा वयं ससि- हुए जल बिन्दु, शुत उदक (अन्तरिक्ष-जल), जल से भीगे णि वा कार्य ससिणि वा वत्धं, न आमुसेरजा न संपु- शरीर अधबा जल से भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध शरीर अथवा सैज्जा न मावीमेमा न पोलेज्जान अक्खोडेजाने पक्खो• जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श करे, न संस्पर्श करे, न उज्जा न आयावेज्जा न पयावेजा, आपीड़न करे, न प्रपीड़न करे, न मास्फोटन करे, न प्रस्फोटन करे, न आतापन करे, और न प्रतापन करे, अन्नं न आमुसावेम्जा न संफुसावेज्जा न आवोलावेज्जा न दूसरों से न आमर्श कराए, न संस्पर्श कराए, न आपीड़न पचीसापेक्जा न अक्खोडावेजा न पखोडावेज्जा न आया कराए, न प्रपीड़न कराए, न आस्फोटन कराए, न प्ररफोटन बेज्जा न पयावेज्जा, कराए, न आतापन कराए, न प्रतापन कराए। अानं आमुसंत वा संफुसतं वा आवोलतं मा पवीलतं वा आमर्श, संस्पर्श, आपीड़न, प्रपीड़न, आस्फोटन, प्रस्फोटन, मक्खीत या पक्खोतं वा मायावंसं या पयावतंबान आतापन या प्रतापन करने वाले का अनुमोदन न करे । समगुजाणेज्मा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से-मन से, करेमि नकारयेमिकरंतं पि अग्नं न समणुजाणामि । वचन से, काया से, न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। सस्त भंते ! पलिकमामि निवामि गरिहामि अप्पा खोसि- भन्ते ! मैं अतीत के जल-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आरमा का -दस. अ. १, सु. १६ व्युत्तर्म करता हूँ। उपउल्लं अप्पगो कार्य, नेव पुंछ न संसिह। ____ मुनि जद से भीगे अपने शरीर को न पोंछे और न मले । समुप्पेह तहाभूयं, नो णं संघट्टए मुणी ॥ शरीर को तथाभूत (भीगा हुआ) देखकर उसका स्पर्श न करे। -दस. अ. ६. सु. ७ आउकाइयाणं हिंसा निसेहो अप्रकायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३२. सम्ममाणा पुढो पास । ३३२. (हे ! आत्म साधक!) तू देख ! आत्म-साधक, लज्जामान है-(हिंसा से स्वयं संकोच करता हुया अर्थात् हिंसा करने में लज्जा का अनुभव करता हुआ संयममय जीवन जाता है।) "अणणारा मो" ति एगे पक्षमाणा, अमिण विश्वहि कुछ सानु वेषधारी "हम गृहत्यागी हैं" ऐसा कथन करते सत्येहि जायकम्मसमरिमेणं उपयसत्य समारंभमाणे बणे व हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से अप्काय सम्बन्धी हिंसागनवे पाणे विहिंसति । विया में लगकर अपकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। तया अएकायिक जीवों की हिंसा के साथ सदाश्रित अन्य प्रकार के जीवों को भी हिंसा करते हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] चरणानुयोग तस्य खलु भगवता परिष्णा पवेदिता इमस्स बेब जीवितस्स परिवण-बाणण-पूययाए । जाती भरणमोबाएलहेतु से सपमेव उदयसर समारंभति अहि या समारंभावेति भासा समारंभ समजात । तं से अहिताए, तं से से संयमाने आयनीय समुद्वा । सोच्या भगवतो अणगारावं हमे गतं भवति एम मोहे एस एस चतुमारे, एस रिए , इत्थं गढिए लोए, जमिणं विरुषरूहि सत्येहि साथकम्मसमारंभेणं उपयसस्थं समारंभमाणे अपने व जे गरुवे पाणे विहिंसति । से बेमि संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा । हं अकायिक बीवों की हिंसा का निवेश खलु भो अणगाराणं उदय - जीवा विपाहिया । सत्यं चेत्थं अभी पास ! पुढो सत्यं पवेदितं । अदुवा अहिष्णादानं । कपड़ हमें में पा अदुवा विभुसाए। कप्पड़ पुढो सह विजन्ति । www. इस विषय में भगवान् महावीर स्वामी ने परिक्षा-विवेक का उपदेश किया है। सूत्र ३३२ कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा सम्मान और पूजा लिए जन्म मरण और मुक्ति के लिए, दुख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं कायिक जीवों की हिंसा करता है. दूसरों से हिसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। (वृत्त) उसके अहित के लिए होती है वह उसकी अयोधि अर्थात् ज्ञानबोधि दर्शन-योधि और चारशे की अनुfor के लिए कारणभूत होती है । वह साधक (संयमी ) हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, आदानीय-संयम साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों को भगवान् के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि- "यह जीव-हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है है और यही नरक है।" ( फिर भी ) जो मनुष्य सुख आदि के लिए जीवहिंसा में नासक्त होता है, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी हिंसा-या में संलग्न होफर अपकारिक जीवों को हिंसा करता है और तब वह न केवल अकाधिक जीवों को हिंसा करता है, अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों को भी हिंसा करता है। मैं कहता हूँ जल के आश्रित अनेक प्रकार के जीव रहते हैं । हे मनुष्य ! इस अनवार-धर्म में, अर्थात् वहं में ज को "जी" ( सचेतन) कहा है। जलकाय के जो शस्त्र है, उन पर चिन्तन करके देखें ! भगवान् ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताये हैं । जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान चोरी भी है। "हमें कल्पता है । अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के जल से सकते हैं। हम पीने तथा नहाने (विभूषा) के लिए भी जल का प्रयोग करते हैं ।" इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नानाप्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों को हिंसा करते हैं । १ नियुक्तिकार ने जलकाय के सात शस्त्र इस प्रकार बताये हैं-(१) कुएं से जल निकालना। - (२) गालन-जल छानना । (३) धोजन-जल से उपकरण वर्तन आदि धोना । ( ६ ) तदुभय शस्त्र - जल से भीगी मिट्टी आदि । (७) भाव शस्त्र असंयम । ( 3 ) स्वकाय शस्त्र - एक स्थान का जल दूसरे स्थान के जन का शस्त्र है। (५) परकाय शस्त्र मिट्टी, तेल, क्षार, शर्करा, अग्नि आदि । - माचा. नियुक्ति गा. ११३, ११४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३२.३३३ तेजस्कायिक जीवों का आरम्मम.करने की प्रतिज्ञा परिवाधार [२३३ एत्थ वितेसि णो मिकरणाए। अपने शास्त्र का प्रमाण देकर गलकाथ की हिंसा करने वाले साधु हिसा के पाप से विरत नहीं हो सकते अर्थात् उनका हिसा न करने का काम पूर्ण नहीं हो सकता । एप सत्य समारंभमाणस्स इमचेते आरम्मा अपरिष्णाया जो यहां, अस्म-प्रयोग कर जलकाय जीवों का समारम्भ भवंति। करता है, वह इन आरम्भों (जीवों की वेदना व हिंसा के कुपरिणाम) से बच नहीं पाता। एश्य सत्यं असमारंभमानस्स इन्वेते आरम्मा परिणाया जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र-प्रयोग नहीं करता, बह भति। आरम्भों का ज्ञाता है, वह हिंसा-दोष से मुक्त होता है। अर्थात् बह ज-परिशा से हिंसा को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे स्याग देता है। तं परिष्णाय मेहारी पेय सयं उत्पसत्यं समारंभेज्जा, पे- बुद्धिमान मनुष्य यह (उक्त कथन) जानकर स्वयं जलकाय नहि उपयसत्य समारंभावेज्जा, उदयसत्वं समारंभते अण्णे का समारम्भ न करे, दूसरों से न करवाए और उसका समारम्भ ण समणुजाणेरणा । करने वालों का अनुमोदन न करे । जस्सेते उवयसत्यसमारमा परिणाया भवंति से। मुणो जिसको जल-सम्बन्धी समारम्भ का ज्ञान होता है, वही परिपरिणातकम्मे त्ति बेमि । ज्ञातकर्मा (मुनि) होता है। -आ. सु., अ.१.३.३, शु. २३-३१ तेउकाहयागं अणारंभ-करण पहण्णा तेजस्कायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३३३. सेविसमतमक्खाया अणेगमीया पुढोसत्ता असत्य सत्य- ३३३. शस्त्र-परिणति से पूर्ष तेजस् चित्तवान् (सजीव) कहा परिगएणं । गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों (प्रत्येक जीव के -दस. अ. ४, सु६ स्वतन्त्र अस्तित्व) वाला है। .. से मिक्खू वर भिक्खनी वा संजय-विरय पडिहप-परचक्खाय- संयत विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष अथवा पायकम्मे । भिक्षुणी। पिया वा राओवा एगो वा परिसामओ वा सुत्ने वा जागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते या माणे बा जागतेसे आणि वा इंगा वा मुम्मुरं वा अघि वा जालं श अग्नि, अंगारे, मुर्मर, अत्रि, ज्वाला, अलात (अघजसी अलायं वा सुवाणि वा उक्कं वा, न उमेजा न घट्ट जान लकड़ी), शुद्ध (काष्ठ रहित) अग्नि अथवा उल्का का न उत्सेचन जन्जालेज्जा न निठवावेज्जा। करे, न घट्टन करे, न उज्ज्वालन करे और न निर्वाण करे (न बुझाए); अन्न न उजावेज्जा न घट्टावेज्जा न मज्जालावेज्जा न निम्बा- न दूसरों से उत्सेचन कराए, न घट्टम कराए, न उज्ज्यालन वेजा। कराए और न निर्वाण कराए; अम्नं उज्जतं वा घट्टन्तं वा उज्जालंसं वा निस्वावंतं या न सत्सेचन, घट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले का समणुमागेज्मा आवज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेगं वायाए अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से काएगं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समग- मन से, वचन से, काया से, न करूगा, न कराउँगा और न करने जाणामि।। वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। १ इंगाल अगणि अच्चि, अलायं वा संजोइयं । न उजेजजा न घट्टे ज्जा, नो गं निश्वावए मुणी ।। - स.अ.८, गा. 5 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] वरणानुयोग तेजस्काषिक एक अमोघ शास्त्र, सूत्र ३३४-३३५ तस्स मंते ! पडिकमामि निरामि परिहामि अप्पागं वोति- भन्ते ! मैं अतीत के अग्नि-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आश्मा का -इस. अ. ४, सु. २० व्युत्सर्ग करता हूँ। तेजकाओ अमोहसत्थो तेजस्कायिक एक अमोघ शस्त्र३३४. विसप्पे सम्वोधारे, बहुपाणविकासमे ३३४. अग्नि फैलने वाली, सब ओर से धार वाली और बहुत भारिप जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न बीवए ।। जीवों का विनाश करने वाली होती है, उसके समान दूसरा कोई -उत्त, अ. ३५, गा. १२ शस्त्र नहीं होता, इसलिए भिक्षु उसे न जलाए। तेउकाइयाणं हिसा निसेहो तेजस्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३५. जे वोहलोगसत्थस्स सेयष्णे से असत्यस्स खेयने । ३३५. जो दीर्घलोक शस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। मे असत्यरस वेपणे से बीहलोगसस्थस्स यग्ने । जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक शस्त्र का स्वरूप भी जानता है। बारह एवं अभिभूप डिं संजतेहि सया जतेहि सवा अप्प- वीरों (आत्मज्ञानियों) ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को महि। विजय कर (नष्ट वार) यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है। वे चीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। जे पमते गुणद्वित्ते सेहरी परुति । जो प्रमत्त है, गुणों (अग्नि के रांधना-पकाना आदि) का अर्थी है, वह दण्ड-हिराक कहलाता है। तं परिणाय मेहावी हवागों को जमहं पुष्वमकासो पमावेगे। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे)- अब मैं वह (हिसा) नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। सजमाणा पुढो पास । तू देख ! सच्चे साधक (मग्निकाय की) हिंसा करने में लज्जा अनुभव करते हैं। अगमारा मोति एगे पमयमाणा, अमिगं विस्यवेहि सत्येहिं और उनको भी देख जो अपने आपको 'अनगार" घोषित अपणिकम्मसमरंमेणं अगणिसत्य समारंभमागे अण्णेवानेगहने करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) द्वारा अग्नि पाणे बिहिसति। सम्बन्धी आरम्भ समारम्भ करते हुए अग्निकाय के जीनों की हिंसा करते हैं, और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। सत्थ खतु भगवता परिष्का परिता इस विषय में भगवान ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। इमस्स चेव जोबियस्स परिवंक्षण मागण-पूरणाएं जाती-मरण- अपने इस जीवन से लिए, प्रशंसा, सम्मान और पुजा के मोयणाए पुरयापविधातहेतु, लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए दुखों का प्रतिकार करने के लिए (इन बाारणों से) से सयमेव अगणिसावं समारभति, सोहिंवा अगणिसत्यं कोई स्वयं अग्निकाय की हिंसा करता है, दूसरों से भी समारमावेति, अण्णे ना अगगिसत्यं समारभमाणे समनु- अग्निकाय की हिंसा करवाता है और अग्निकाय की हिंसा करने जाणति। वालों का अनुमोदन करता है। त से अहिसाए, तं से प्रबोधीए। यह हिसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है। से सं संयुज्ममाणे मायागीय समुट्ठाए। वह साधक यह समझते हुए संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३५ तेजस्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध चारित्राचार १२३५ खख निरए। सोचा भगवतो अणगाराकं वा अंतिए इह मेगेसि जातं भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को प्रवतिएस खलु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस यह परिज्ञान हो जाता है, कि यह जीव हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है और नरक है। M लोए, गमिणं विरूवड्वेहि सत्यहि अगणि. फिर भी मनुष्य इम जीवन (प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) गाणिसत्यं समारंममाणे अषणे बाणगरूर्व में कासक्त होता है। जो कि यह तरह-तरह के शस्त्रों से अग्निपाये विहिंसति । काय की हिंसा-त्रिया में संलग्न होकर अनिकायिक जीवों की हिंसा करता है । वह न केवल अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है। से बेमि–संति पागा पुढविपिस्सिता तगनिस्सिता पणि- मैं कहता हूँ-बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पात्र, काष्ठ, स्सिता कट्टणिस्सिता गोमपपिस्सिता कयवरपिस्सिसा। गोवर और कड़ा-कचर। आदि के आश्रित रहते हैं। सहि संपातिमा पाणा आहाच संपयन्ति य । कुछ सम्पातिम-उड़ने वाले प्राणी होते हैं (कीट, पतंग, पक्षी आदि) जो उड़ते-उड़से नीचे गिर जाते हैं। अगणिव खलु पुद्रा एगे संघातमावज्जति। तत्ष संघास- ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात (शरीर का संकोच) मातिते तस्य परियावज्जति । जे तस्थ परियावज्जति ते को प्राप्त होते हैं । शरीर का संघात होने पर अम्नि की उम्मा तस्य उद्दायन्ति । से मूच्छित हो जाते हैं। मूच्छित हो जाने के बाद मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं। एत्यं सत्य समारप्रमाणस इच्चेते आरम्मा अपरिण्णाता जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र-प्रयोग करता है, वह इन भर्वति । आरम्भ-समारम्भ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिशात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दुःखद परिणामों से छूट नहीं सकता है। एत्थ सत्य असमारंभमाणस्स इस्नेते आरम्भा परिणाता जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारम्भ नहीं करता है, वह भवति । वास्तव में आरम्भ का ज्ञाता अर्थात् हिंसा से मुक्त हो जाता है। तं परिणाय मेहावी नेव सयं अगणि-सस्थं समारंभेज्जा, यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं अग्नि-शास्त्र का समारम्भ न करे, मेषग्नेहि अगणिसत्यं समारंभनवेजा.. दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, अगणिसत्थं समारंभेमागे, अण्णे न समणुजाणेजा। उसका समारम्भ करने बालों का अनुमोदन न करे। अस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिमाता भवंति से हु मुणी जिसने यह अग्नि-कर्म-समारम्भ भली प्रकार समझ लिया परिणायकामे, है, वही मुनि है, वहीं परिशात-कर्मा (कर्म का शाता और त्यागी)। ति बेमि। -आ. सु. १, अ. १, छ. ४, सु. ३२-३८ -ऐसा मैं कहता हूँ। तं मिक्यु मोतफास परोवेवमाणगात उपसंकमित गाहायती शीत-स्पर्श से कांपते हुए पारीर वाले उस भिक्षु के पास स्या आकर कोई गहाति कहे अग्निकाय के शस्त्रों का उल्लेख करते हुए निर्वक्ति में इसके प्रकार बताये हैं१. मिट्टी मा धूलि (इससे वायु निरोधक वस्तु कर्दम आदि भी समझना चाहिए)। ३. आई वनस्पति, ४. उस प्राणी, ५. स्वकाय शस्त्र-एक अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है। ६. परकाय शस्त्र-बल आदि, ७. तदुभय मिश्रित--जैसे तुष मिश्रित अग्नि यूसरी अग्नि का शस्त्र है। ८. भावशस्त्र-असंयम। -आचा. नि. गा. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] वरगानुपीय पापुकामिक जीवों का ARER करने की प्रतिमा सत्र ३३५.३३६ आउसंतो समणा ! णो खसु ते गामधम्मा उठवाहति ? आउसम्तो गाहावती! णो खलु मम गामधम्मा उग्याहं ति । सीतकासं गो खतु अहं संत्राएमि अहियासेत्तए। आयुष्मान् श्रमण | क्या तुम्हें ग्रामधर्म तो पीडित नहीं कर रहा है ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण में शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्बित हो पो खलु मे कम्पति अगणिकार्य जालित्तए या पज्जालिसए (तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते ?) इस प्रकार गृहवा कार्य भाषावित्तए वा पयाचित्तए श अण्णेसि वा वय- पति द्वारा कहे जाने पर मुनि कहता है-) अग्निकाय को उज्ज्वगाओ। लित करना, प्रज्वलित करना, उससे शरीर को थोड़ा सा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित कराना अकल्पनीय है। सिया एवं ववंतस्स परो अगणिकाये उज्जालेता पज्जालेता (कदाचित वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को कार्य आपावेज्जा वा ययावेजा वा। तंत्र भिक्खू पडिले- उज्ज्वलित-प्रज्ज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या हाए भागमेसा माणवेज्जा मगरसेवणाए सि बेमि। विशेष रूप से तपाए। उस अवसर पर अग्निकाय के आरम्भ को --आ. सु. १, प. ८, उ. ४, सू. २११-२१२ भिक्षु अपनी बुद्धि से विचार कर आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर उस गृहस्य से कहे कि अग्नि का सेवन मेरे लिए असेय नीय है। जे मायरंग पियरं व हेचा, जो अपने माता और पिता को छोड़कर श्रमणवत को धारण समणश्ववे अगणि समारभेजा। करके अग्निकाय का समारम्भ करता है तथा जो अपने सुख के अहाट से लोगे कुसीलधम्मे, लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह लोक में कुभील धर्म वाला भूताई जे हिसति मातसाते ॥ है, (ऐसा सर्वज्ञ पुरुषों ने) कहा है । उग्जालओ शणऽतिवातएज्जा, आग जलाने वाला व्यक्ति प्राणियों का घात करता है और निस्वावमओ अगणि तिवातहज्जा । आग बुझाने वाला व्यक्ति भी अग्निकाय के जीवों का पात करता तम्मा उ मेहायि समिक्स धम्म, है। इसलिए मेधावी (मर्यादाशीस) पण्डित (पाप से निवृत्त ण पंडिते अगणि समारभेजा। साधक) अपने (श्रु तचारित्ररूप श्रमण) धर्म का विचार करके अग्निकाय का समारम्भ न करे। पुति दिजीवा मा वि जीवा, पृथ्वी भी जीव है, जल भी जीव है तथा सम्पातिम (उड़ने पाणा य संपातिम संपयन्ति । दाले पतंगे आदि) भी जीव है जो आग में पड़कर मर जाते है। संसेवया कटुसमसिता य, और भी पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव एवं काष्ठ (लकड़ी एते दहे अगणि समारमंते ॥ आदि ईंधनों) के आश्रित रहने वाले जीव होते हैं। जो अग्नि-~-सूय. सु. १, अ. ८, गा. ५-६ काय का समारम्भ करता है, वह इन (स्थावर-स) प्राणियों को जला देता है। बाउकाय अणारम्भ करण पद्दण्णा वायुकायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३३६. माउ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसता अन्नत्य सत्य- ३३६. शस्त्र-परिणति से पूर्व वायु चित्तवान् (सजीव) कहा गया परिणए। है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र -स. अ. ४, सु.५ अस्तित्व) वाला है। से मिक्खु वा मिक्वणी वा संजय-विश्य-पहिय-पच्चखाय- संयत-विरत - प्रतिहत - प्रत्याख्यात • पापकर्मा भिक्षु अथवा पायकम्मे, भिक्षुणी। बिया वा राओ था एगओ चा परिसागबो वा सुते वा नागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या माणे वा-- आगते Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३६-३३७ वायुकायिक जीवों को हिंसा का निषेध मरित्राचार २७ सिएम बियाणे वा तालियों का पसंण का पत्त- चामर, पंखे, बीजन, पत्र, पत्र के टुकड़े, शाखा, शाखा के मंगेण बा साहाए वा साहामगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्येष टुकड़े, मोर पंख, भोर-पिच्छी, बस्त्र, वस्त्र के पल्ले. हाथ या मा चेसेज वाचेलकण्णण या हत्येण वा मुहेण वा अप्पगो मुंह से अपने शरीर अथवा बाहरी पुद्गलों को फूंक न दे, वा कार्य बाहिरं वा वि पोग्गल, न फुसेम्जा न कोएज्जा, हवा न करे। अन्नं न फुसावेज्ना न वीयावेज्जा, दूसरों से फूक न दिलाए, हवा न कराए; अन्नं फुसतं वा बोयंत वा न समजाणेम्जा' मावीचाए फूक देने वाले या हवा करने वाले का अनुमोदन भी न करे, तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए काएगं न करेमि न कारमि यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से-मन से, वचन से, करत पि अन्न न समणुजाणामि । काया से,-न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स मंसे ! परिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पान बोसि- भन्ते ! मैं अतीत के वायु-समारम्भ से निवृत्त होता हूँ, समि। उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और (कपाय) आत्मा का - दस. अ. ४, सु. २१ व्युत्सर्ग करता हूँ। वाजकाइयाणं हिंसा निसेहो वायुकायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३७. सम्ममाणा पुढो रास । "अणगारा मो" सि एगे पदमागा, ३३७. तू देत ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा, ग्लानि-संकोच अमिण विरुवस्वेहि सत्थेहि वाउम्मसमारंभेणं बाउसत्वं का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो "हम गृहत्यागी समारम्ममाणे अण्णेवऽभेगल्वे पागे विहिसति । है" यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से वायुकाय का समारम्भ करते हैं । वायुकाय को हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणियों की भी हिंसा करते हैं। तस्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता इस विषय में भगवान ने परिजा-विवेक का प्ररूपण किया है। इमरस व जीवियस्म परिवंदण-माणण-यूयणाए, माई-मरण- कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के मोपगाए, बुक्सपरिधातहेतुं लिए, अन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतिकार करने के लिए, से सममेव वाजसा समारभति, अण्णेहिं या वाजसत्थं समा- स्वयं भी वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से रमावेति, अण्णे वा बाउसस्थ समारभते समजामति । करवाता है, तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है। से अहियाए, तं से अबोधीए। यह हिंसा उसके हित के लिए होती है। अबोधि के लिए होती है। से सं संबुज्झमागे, आयाणोयं समुहाए, ___ वह संयमी, उस हिसा को–हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक् प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जाये। सोचा भगवओ, अणगाराणषा अंतिए हमेगैसिं गातं भवति भगवान से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ -एस खसु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु मनुष्य यह जान लेते हैं कि यह हिसा प्रन्थि है, यह मोह है, यह गिरए। मृत्यु है, यह नरक है। वरथं गलिए सोए। फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त होता है। अमिण विरूवरूहि सत्येहिं बाउकम्म-समारंभेणं वाजसत्थं बह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकायिक जीवों का समासमारम्भमाणे मण्णेवागमधे पाणे विहिंसति । रम्भ करता है। वह न केवल वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिसा करता है। .-... -.-:.-- -. - - १ वालियंटेण पत्र्तण, साहावियोण वा । न बीएजज अप्पणो कार्य, बाहिरं वा वि पोग्गल । -वस.अ. ८, गा.६ -75 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८) परगानुयोग वनस्पतिकायिक जीवों का आरम्भ न करने को प्रतिज्ञा सूत्र ३३७.३३ सेमि-संति संपामा पाणा माहपच संपतति य । मैं कहता हूँ सम्मातिम-उड़ने वाले प्राणी होते हैं, वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे गिर जाते हैं। फरिस ससु पुद्धा. एगे संघायमावति । जे सत्य संघाय- वेशणी वायु का स्पर्श-आघात होने से सिकुड़ जाते हैं। मावति, से तत्व परियावज्जति, जे सस्थ परिया- जब ये वायुस्पर्श से संघातित होते हैं-मिकुड़ जाते हैं, तब वे बरजति से सस्थ उद्यायन्ति । मूच्छित हो जाते हैं। जब वे मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं। एस्थ सत्थं समारम्भमाणस्स इच्छेते आरम्मा अपरिष्णाता जो यहाँ वायुकायिक जीवों का समारम्भ करता है, वह इन अयंति। __ आरम्भों से वास्तव में अनजान है। एत्वं सरर्थ समारम्भमाणस्स इन्चेते आरम्भा परिण्णाता जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारम्भ नहीं करता, भवति । वास्तव में उसने आरम्भ को जान लिया है। तं परिणाय मेहावी व सयं बाउसस्थं समारज्जा, यह जानकर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारम्भ न करे। गेवण्मेहि बाउसत्यं समारभावेज्जा, दूसरों से वायुकाय का समारम्भ न करवाए। गवऽपणे वाढसत्थं समारभंते समजाणेज्जा। वायुकाय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे । मासे बाउसत्य समारम्भा परिण्यााता भवति, से मुणी जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारम्भ को जान लिया है, वही परिग्णायकम्मे तिबेमि। मुनि परिशात-कर्मा (हिसा का त्यागी) है। ऐसा मैं कहता हूँ। -आ. शु. १, अ. १, उ. ७. सु. ५७-६१ वणस्सहकाय अणारम्भ-करण यइपणा- . वनस्पतिकायिक जीबों का मारंभ न करने की प्रतिज्ञा१३८. धणसई चित्तमतमक्खाया अगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थसत्य- ३३८. शस्त्र परिणति से पूर्व वनस्पति चित्तवती (सजीव) कही परिणएणं, गई है। वह अनेक जीव और पृथक सत्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाली है। तं जहा–अग्गवीया मूलबीया पोरबीया खंधनीया बीयरूहा उसके प्रकार ये है-अग्र-बीज, मूल-बीज, पर्व-बीज, स्कन्धसम्मुरिछमा तणलया। बीज, बीज-रूह, सम्मूछिम, तृण और लता। अगस्तइकाइया सीमा चिप्ससमवखाया अणेगजोषा पुको शस्त्र-परिणति से पूर्व बीजपर्यन्त (मूल से लेकर बीज तक) सत्ता अस्वस्थ सत्यपरिमएणं। वनस्पतिकायिक चित्तवान् कहे गये हैं। वे अनेक जीवों और - दस. अ. ४, सु. ८ पृथक् सत्वों वाले प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं। से भिम वा भिक्षणी वा संजय विरम-पहिय-पच्चरखाय- संयत-विरत-प्रतिहत प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु अथवा पावकम्मे, दिया था रामी वा एगो वा परिसागओ वा मुत्ते भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, मोते या या जागरमाणे वा जागले । से बीएसु वा डीयपटिएसु वा रुवेसु वा सपद्विएसु वा बीजों पर, बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर, स्फुटित वीजों माएसु वा जायपाद्विएसु वा हरिएसु था हरियपद्विएसु वा पर, स्फुटित बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर, पत्ते आने की छिन्नेसु वा सिपाडिएसु वा सविससु वा सच्चित्तकोलडि- अवस्था वाली वनस्पति पर स्थित वस्तुओं पर, हरित पर, निस्सिएमु मा, म गछज्जा, न चिट्ठजा, न निसीएज्जा, हरित पर रखी हुई वस्तुओं पर, छिन्न वनस्पति के अंगों पर, न सुयडेजा, छिन्न वनस्पति के अंगों पर रखी हुई वस्तुओं पर, सचित्त वनस्पति पर, सचित्त कोल--अण्डों एवं काष्ठ-कीट-से युक्त काष्ट आदि पर न चले, न खड़ा रहे, न बैठे, न सोये, अग्नं न गमछायजाम चिट्ठावेज्जा न मिसियावेजा न दूसरों को न चलाए, न खड़ा करे, न बैठाए, न सुलाए, तुमटावेज्या, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ३८-३३६ वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का निषेध चारित्राचार [२३९ आनं गच्छत वा चिट्ठन्तं वा निसीयन्तं यश तुपट्टन्तं वा न . चलने खड़ा रहने, बैठने या सोने वाले का अनुमोदन भी समजालेमा, न करे, भावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं बायाए कारण न यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से—मन से, करेमिन कारवेमि करतं पि अम्नं समणुजाणामि । वचन से, काया से—करूगा, म कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। त भंते ! परिकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं वोसि- भन्ते ! मैं अतीत के वनस्पति-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आत्मा - दस. अ. ४, सु. २२ का व्युत्मर्ग करता हूँ। सपषखं न छिवेज्जा, फलं मूलं व कस्सई। मुनि तृण, वृक्ष तथा किसी भी (वृक्ष आदि के) फल या आमगं विविहं बोयं, मणसा वि न पत्थए । मूत का छेदन न करे और विविध प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे। महणेसु न मिया, और रिला , __ मुनि वन-निकुन्ज के बीच में बीज पर, हरित पर, अनन्तउदगम्मि तहा निच्च, उत्तिगपणगेसु था। कायिक-वनस्पति सर्पच्छर और काई पर खड़ा न रहे। - दस. अ. ८, गा. १०-११ बसविहा सणवणस्सइकाइया पलत्ता, तं जहा . तृणवनस्पतिकायिक जीव दश प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. मूसे, २. कंदे, ३. खंधे, ४. तया, ५. साते, (१) मूल, (२) कन्द, (३) स्कन्ध, (४) वक्, (५) शाखा, ६. पवाले, ७. पत्ते, ८. पुष्के, ६. फले, १०. बोये । (६) प्रवाल, (७) पत्र, (८) पुष्प, (९) फल, (१०) बीज। -ठाणं, अ.१०, सु. ७७३ वणस्सइकाइयाणं हिंसा निसेहो वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३६. लज्जमाणा पुढो पास । 'अषगारा मो' ति एगे पक्यमाणा, ३३६. तू देख, ज्ञानी हिंसा से लज्जित-विरत रहते हैं। "हम जमिणं बिरूवधेहि सस्थेहि वसतकम्मसमारम्भेग वण- गृहत्यागी हैं" यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के इसतिसत्य समारम्भमाणे अण्णे अगश्व पाने विहिंसति । शास्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारम्भ करते हैं। वन रूपतिकाव की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। तत्य खलु भगवता परिष्णा पवेदिता--इमस्स चेय जोबि- इस विषय में भगवान ने परिज्ञा-विवेक का उपदेश किया यस्स परिवंदण-माषण-पूयणाए, जाती-मरग-मोयणाए, सुक्ख- है-इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए जन्म, परिघातहेत. मरण और मुक्ति के लिए, दुख का प्रतीकार करने के लिए। से सयमेव वपस्सतिसस्थ समारंभति, अण्कोहि वा वणस्सति- वह (तथाकथित साधु) स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की सत्थं समारंमाति अपणे वा बणस्सलिसत्थं समारम्भमागे हिंसा करता है, दुसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का समणुजापति। अनुमोदन भी करता है। तं से अहियाए तं से अबोलिए। यह (हिसा करला, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है, यह उराको अवोधि के लिए होता है। से तं संबुमामागे आयाणीयं समुट्टाए। यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। सोचा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए हमेगेसि णायं भवति भगवान से या त्यागी अणगारों के समीप सुनकर उसे इस -एस तु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु बात का ज्ञान हो जाता है--(हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह पिएए। मृत्यु है, यह नरक है। १ ठाणं. अ.८, सु. ६१४ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० चरणानुयोग इत्थं गढिए सोए, जमिणं विवहिं सत्येहि वनस्पतिकम्मसारमेणं वजस्तमश्वं समारंभमा पाणे विहिंसति । फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त होता है वह नाना प्रकार के असों से वनस्पतिकाय के समारम्भ में न होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह न केवल वनस्पतिकायिक -आ. सु. १, अ. १ . ५ सु. ४२-४४ जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की श्री हिंसा करता है। एरच सत्यं समारंभमाणस्स इच्येते आरम्भा अपरिष्यतर भवंति । ree सत्यं असमारम्भमाणस्स इच्छेसे आरम्भा परिणाया भवंति । वनपति शरीर एवं मनुष्य शरीर की समानता तं परिणाम मेहावी व सर्व वस वह वगरसतिस समार गतिरात्यं सारं समजा । जस्सेले वणस्स तिसरयसमारम्भा परिणाया मसिह मुणो परिणायकमेति वेनि । - बार सु. १, अ. १, उ, ५, सु. ४६-४८ हरितानि भूतानि नियि आहारवेहा पुढो शिलाई जे छिति आतसुहं पडुच्चा, पागल पागे बहुतवासी ।। जाति च बुद्धिं च [विणासयन्ते, बीमावि अस्संजय आपदं अहातु से सोए अणजम्मे बोपानि जे हिसति आपसाते ॥ एवं प इमं वित दणस्स व मणुयजीवणरस व तुलतं-३४०. से बेमि इमं वि जातिधम्मयं एवं वि जातिम इम्पियं एवं पिचिसमंतयं इमं निमिती एवं मिलती; म १११-३४० जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ करता है, वह उन आरम्भों मारम्भजन्य कटुफलों से अनजान रहता है। (जानता हुआ भी अनजान है ।) जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरम्भ-परिज्ञान है । यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारम्भ न करे, न दूसरों से समारम्भ करवाए और न समारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे । जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारम्भ परिज्ञात होते हैं, दही परिकर्मा (हिना त्यागी) मुनि होता है। जो असंयमी (गृहस्थ या प्रव्रजित) पुरुष अपने सुख के लिए बीजादि ( विभिन्न प्रकार के बीज वाले अन एवं फलादि ) का याम करता है वह (बीज के द्वारा) जाति (अंकुर की उत्पत्ति) मौर (फल के रूप में वृद्धि का विनाश करता है। (वास्तव में) — सू. सु. १, अ. ७, गा. ५-६ वह व्यक्ति ( हिंसा के उक्त पाप द्वारा) अपनी ही बात्मा को दण्डित करता है संसार में तीर्थकरों या प्रत्यक्षदर्शियों ने उसे अनाधर्मी (अनाड़ी या अधक) कहा है। हरी दूब अंकुर आदि भी (वनस्पतिकायिक) जीव हैं, वे भी जीव आकार धारण करते हैं। वे (मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फल-फूल, आदि अवयवों के रूप में पृथक्पृथ रहते हैं जो व्यक्ति अपने सुख की अपेक्षा से तथा अपने आहार (या माघारआवास एवं शरीर-पोषण के लिए इनका छेदन-भेदन करता है, वह घृष्ट पुरुष बहुत से प्राणियों का विनाश करता है। वनस्पति शरीर एवं मनुष्य शरोर की समानता३४०. मैं कहता है-. १. यह मनुष्य भी जन्म लेता है। - यह वनस्पति भी जन्म लेती है, २. यह मनुष्य भी बढता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है, ३. यह मनुष्य भी चेतनायुक्त है, -यह वनस्पति भी चेतनायुक्त है, ४. यह मनुष्य शरीर छिन होने पर म्लान हो जाता है, - यह वनस्पति भी छिन होने पर म्लान होती है, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ३४०-३४१ असकाय का स्वरूप चारित्राचार २४१ धर्म पिसाहार, ५. यह मनुष्य भी आहार करता है, एवं वि बाहारग; -यह वनस्पति भी आहार करती है, इमं पि अणितियं, ६. यह मनुष्य-शरीर भी अनित्य है, एवं पि अणितिय -यह वनस्पति शरीर भी अनित्य है, इमं पि असासयं, ७. यह मनुष्य-शरीर भी अशाश्वत है, एवं मि असातयः यह वनस्पति शारीर भी अशाश्वत है, इमं पिचयोबचाइयं, ६. यह मामी की आहार से उपचित होता है, आहार के अभाव में अपचित-क्षीण होता है, एवं पियोबचाइय; -यह वनस्पति शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है। इस पि पिपरिणामधम्मयं, ६. यह मनुष्य-पारीर भी अनेक प्रकार की बवस्थाओं को प्राप्त होता है, एवं पि विपरिणामधम्मयं । -यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं -आ. सु. १, अ. १. उ. ५, सु. ४५ को प्राप्त होता है। तसकाय सरूवं-- असकाय का स्वरूप ३४१. से बेमि ३४१ मैं कहता हूँसंतिमे तसा पाणा, तं जहा ये सब स प्राणी हैं, जैसेअंच्या पोतया जराउया रसया संसेइमा समुच्छिमा उभिया अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्भूछिम, उद्उववातिया।। भिज्ज और औपपातिक । एस संसारे ति पश्चति । मंदस्स अवियाणओ। ___ यह (त्रस जीवों का समन्वित क्षेत्र) संसार कहा जाता है। मन्द तथा अज्ञानी जीवों को यह संसार होता है। गिमाइत्ता पबिसेहिता पत्तेयं परिणिब्याणं । मैं चिन्तन कर, सम्यक प्रकार से देखकर कहता हूँ-प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण (शान्ति और सुख) चाहता हूँ। सवेसि पाणाणं सर्वसि भूताणं सवेसि जीवाणं सध्यसि सब प्राणियों; सब भूतों, सब जीवों और सब सत्वों को सतागं' । अस्सातं अपरिणिवागं महामयं सुक्खं हि बेमि । असाता (वेदना) और अपरिनिर्वाण (अशान्ति) ये महाभयंकर और दुःखदायी है। मैं ऐसा कहता हूँ। उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से बस जीवों के आठ भेद इस प्रकार किये गये हैं.... १.अंडज---अण्डों से उत्पन्न होने वाले-कोयस, कबूतर, मयूर, हंस आदि। २. पोतज-पोत अर्थात् चर्ममय थैली । पोत से उत्पन्न होने वाले-जैसे हाथी, बल्गुली आदि । ३. जरायुज-जरायु का अर्थ है गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली जो जन्म के समय शिशु को आवृत किये रहती है। इसे "जेर" भी कहते हैं । जरायु के साथ उत्पन्न होने वाले जैसे- मनुष्य, गाय, भैस आदि । ४. रसज-छाछ, दही आदि रस विकृत होने पर इनमें जो कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं वे "रसज" कहे जाते हैं । ५. संस्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाले, जैसे-जू, लीख आदि । ६. सम्मूच्छिम-- बाह्य वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले, जैसे-भ्रमर, चींटी, मच्छर, मक्सी आदि। ७. उद्भिज्ज-भूमि को फोड़कर निकलने वाले, जैसे-टीड, पतंगे आदि। . ८. औपपातिक--"जपपात" का शाब्दिक अर्थ है सहसा घटने वाली घटना। आपम की दृष्टि से देवता गया में, नारक कुम्भी ___ में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युबा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक कहलाते हैं। २ (क) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राण, भूत, जीव और सत्व भब्द सामान्यतः जीव के ही पाचक हैं । शब्दनय (समभिरूढ नय) की अपेक्षा से आगम में इसके अलग-अलग अथों का प्रयुक्तीकरण इस प्रकार है (शेष टिप्पण' अगले पृष्ठ पर) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] घरमानुयोग सकायके भेद-प्रभेर मूत्र ३४१-३४३ तसंति पाणा पवितो विसासुप। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में सब ओर से भयभीत अस्त रहते हैं। तत्थ तस्थ पुढो पास आतुरा परिसावेति । तू देख, विषय-सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते है। संति पाणा पुढो सिया। त्रसकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों के आश्रित रहते हैं। -आ. शु.१,अ. १. उ. ६, गु, ४६ तसकायस्स भेयष्यभेया सकाय के भेद-प्रभेद३४२. से जे पुष इमे अगगे बहवे तसा पाणा संग्रहा ३४२. और ये जो अनेक अस प्राणी हैं, जैसेअंडया पोयया जराच्या सवा संसदमा सम्मुछमा उकिमया अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मुर्छनज, स्ववादया। एभिज, औपपातिक वे छ: जीव-निकाय में आते हैं। असि केसिनिपाणागं अमित पडिमकतं संकुचियं पसारियं जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित इयं मंतं तसियं पलाइयं आगइ-गद्दविनाया होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-मे क्रियाएँ हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता है ये त्रस हैं। नेय कोपयंगा, जाय कुंपियौलिया, सब्वे इंख्यिा, सम्वे जो कीट, पतंय, कुंथु, पिपीलिका सब दो इन्द्रिम वाले जीव, लेघिया, सम्वे परिबिया, सच्वे पंचिदिया, सम्वे तिरिक्व- सब तीन इन्द्रिय वाले जीव, सब चार इन्द्रिय वाले जीव, सब जोगिया, सम्ये नैराया, सम्वे मगुया, सम्वे देवा, सम्वे पाणा पनि इन्द्रिय वाले जीव सब हिर्यक-योनिक, सब नरयिक, सब परमाहम्मिया मनुष्य, सब देव और सब प्राणी सुख के इच्छुक हैं' एसो खलु भट्ठो जीवनिकाओ तसकाओ सि पश्चई। यह छट्ठा जीव-निकाय सकाय कहलाता है। -दस.अ.४, सु.६ तसकाय अणारम्भ पाण्णा त्रसकाय के अनारम्भ की प्रतिज्ञा३१. से मिळू वा भिक्खणी वा संजय-विरय-परिहय-परमपखाय- ३४३. संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु अथया • पावकम्मे, भिक्षुणीदिया वा रात्री वा एगो वा परिसागमो का तुसे वा जागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते या माणे या जागतेसे कोरबा पयंग वा कंधु वा पिवीलियं वा हत्यसि या कीट, पतंग, कुंथु या पिपीलिका को हाथ, पैर, बाहु, उरु, पापंसि वा बाहसि वा उसि वा उदरंसि वा सीसंसि या उदर, सिर, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादोकछनक, रजोहरण, गोच्छग, - (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) प्राण--दस प्रकार के प्राणयुक्त होने से। भूत-तीनों काल में रहने के कारण । जीव-आयुष्य कर्म के कारण । सत्व-विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आस्मद्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आने के कारण। (ख) शीलांकाचार्य ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है प्राण-द्वीन्द्रिय, कौन्द्विय, पतुरिन्द्रिय जीव । भूत-वनस्पतिकायिक जीव। .. जीव-पांच इन्द्रियवाले जीव, देव, मनुष्य, नारक और तियं च । ..: मध-पृथ्वी अप्, अग्नि और वायुकाय के जीव । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२-१४४ बस वा पतिमाहंसि वा कंबलंसि वा पाववु छर्णसि ना पहरणंसि पर गोवछगंति वा उडुगंसिया डांसि वा पीठया फतवा वा संभारसि वा अनवरत वा सत्यगारे उपगरणजाए तओ संजपामेव पडिले डिलेहि गमज्जय पमज्जिय एगतमवणेज्जा नी संघायमा बज्जेज्नर । - दस. अ. ४, सु. २३ सकाम की हिंसा का निषेध या हिसानिहो— २४४. जमाना पुढो पास। "अणगारा मो" त्ति एगे पवयमाणा afari faad सत्येहिं तसकायसमारंभेणं तसका सत्थं समाधाने अग्ने अगे गये पाये विहिंसति । सपान हिंसेमा दाया अब कम्युणा । उपर सय पालेज विवि (मुनि) वचन अथवा कर्म (कार्य) से साथियों को हिसा न करें। समस्त जीवों की हिंसा से उपरत (साधु-साध्वी) विविध - दस. अ. पा. १२ स्वरूप वाले जगत् (प्राणी-जगत) को (विवेकपूर्वक) देखे । जयं ॥ जसकादिकों की हिंसा का निषेध तस्थ खलु भगवता परिष्णा पवेविता-इमस चैव जीवियस्स परिवण-माण पणाए जाती मरण-मोवणाए युक्मारहि वाहे से यमेव तराकायत समारंभति अहवा तरकावसत्यं समारंभावेति, अग्ने वा तावत् समारंभ मागे समति । से हिलाए से आयामी समुहा सोच्या भगवतो अथपाराणं वा दिए इ भवति एम अ निरए। से बेमि डिएलएम विश्वहिं हिंसक समारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अपने अगस्ये पाणे विि बारबार २४३ उन्दक - ( स्थंडिल), दण्डक, पीठ पर, या फलक, या शैया संस्तारक पर तथा उसी प्रकार के किसी अन्य उपकरण पर चढ़ जाये तो सावधानीपुर्वक धीमे-धीमे नकद प्रमार्जन कर, उन्हें वहाँ से हटाकर एकान्त में रख दे किन्तु उनका संघात न करे आपस में एक दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुंचे वैसे न रखे । अति अजय बघेत असा बस अध्येय एवधेति एवं पिताए बसाए पिच्छा पुच्छाएं बलाए सिंगाए विसावाए एवढा नहाए हारूणीए अडिए, ३४४. तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित विरत रहते हैं । "हम गृह त्यागी हैं" यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से प्रकायिक जीवों का समारम्भ करते हैं। सकाम की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिसा करते हैं। इस विषय में भगवान् ने परिशा विवेक का उपदेश किया इसीलियेान के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, और कुछ का प्रतिकार करने के लिए वह ( तचाकथित साधु) स्वयंत्रकाविक जीवों की हिंसा करता हैं, दूसरों से हिंसा करवाता है करने वाले का अनुमोदन करता है। भगवान से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य एस व मोहे, एस बनु मारे, एस यह जान लेते हैं कि हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह, यह मृत्यु है, यह नरक है । यह (हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अवधि के लिए होता है। यह संयमी उस हिना को हिला के परिणामों को सम्प प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे । फिर भी मनुष्य इस दिया में वक्त होता है। महाना प्रकार के शस्त्रों से प्रकायिक जीवों के समारम्भ में संलग्न होकर कायिक जीवों की हिंसा करता है। वह न केवल नसकायिक जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है । मैं कहता हूँ कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के श्रृंगार ) के लिए जीवहिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य धर्म के लिए मौस रक्त हृदय (कलेज), पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण ( सूअर का दाँत ) दाँत, दाढ़, नख, स्वायु, अस्थि (ही) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] वरणा अद्विमिंगाए अट्ठाए अणट्ठाए अध्येगे हिसि मे सि बा अप्पेगे हिसंति था, छीना की हिसकातु है अभ्ये हिंसिस्सति वा था णे बघति । एत्थं एत्थं समारम्भमाणस्स इन्वेते आरम्भा अपरिणाया भवंति । एल्म सत्थं असमारम्भमाणस्स कवेते आरम्भर परिणाया भवंति । जीवाणं हिंसा कम्मबंधहे लि... तिकालिय अरहंताणं समा परूवणा ३४५. खलु भगवता छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहापुढवावयासकाविया । से बनाए मम अस्तायं वंडेण वा अद्वीण वा मुट्ठीग या लूण या कबाले था आउडिजमानस्स या हम्ममाणस्स वा तज्माणस्स वा ताडिज्माणस्त था परिताविज्ज माया का किलापिनास वा उ न्याय सोमुक्लगणमासमवि हिंसाकर अपसिंग सूत्र २४४-३४५ और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ किसी प्रयोजनव नियोजन व्यर्थ ही जीवों का वध करते हैं । इच्वेवं जाग सब्बे वाणा- जावसता इंडेन वा जाचकवाण या आयडिज्ममाणा वा हम्ममाणा वा तजिज्ञमाणा वा कुछ व्यक्ति इन्होंने मेरे (स्वजनादि की हिंसा की इस कारण ( प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं । तं परिणाम मेधाषी णेव सयं तसकायसत्यं समारंभेज्जा हिंसासत्यं समारंभावेच्या नेवऽपणे उसका यसत्यं समारंभ समाजा जस्सेले ततकामसत्यसमारम्भा परिण्णाया भवंति से ह मुणी परिणाम् सि बेमि । . सु. १, अ. १४.६, सु. ३००१५ यानी मुनि होता है। अन्सर सम्बनी सम्यं बिल्स पाने पियाबए न हमे पाणियो पाणे, चव-बेराओ उवरए ॥ कुछ मेरे वजनादि की हिंसा करता है, इस कारण ( प्रतीकार की भावना से हिंसा करते हैं। कुछ क्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण ( भावी आतंक / भय की भावना से) हिंसा करते हैं। जो यसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरम्भ (आरम्भजनिन कुपरिणामों से अनजान ही रहता है। जो साविक जीवों की हिंसा नहीं करता है. यह इन आरम्भों से सुपरिचित ( युक्त) रहता है। सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म (सुख) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और सब प्राणियों उत्स. भ. ६, गा. ६ को अपना जीवन प्रिय है यह देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे । यह जानकर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं उसकीय-शस्त्र का समारम्भ न करें, दूसरों से समारम्भ न करवाये, समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे जिसने सकाय सम्बन्धी समारम्भों (हिंसा के हेतुबों-उरकरणों-कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञात पापकर्मा (हिंसा छः जीवनिकायों की हिंसा कर्मबन्ध का हेतु हैकालिक अर्हन्तों ने समान प्ररूपणा की है । ३४५ सर्वश भगवान् तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों (सांसारिक प्राणियों) को कर्मबन्ध के हेतु बताये हैं। जैसे कि - पृथ्वीकाय - यावत्- त्रसकाय तक जीबनिकाय है । 7 जैसे कोई व्यक्ति मुझे डण्डे से हड्डी से मुक्के से, केले से, या पत्थर से अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखाकर धमकाता है, या डांटता है, अथवा तोड़न करता है, या सतातासंताप देता है, अथवा कोष करता है, बचवा पश्चिम करता है, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख ( असता ) होता है, पाकि मेरा एक रोम भी उड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है । - इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी - यावत्सर्व सत्व, उपडे याषत् – ठीकरे से मारे जाने या पीटे जाने, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर३४५-३४६ आर्य-अनार्य वचनों का स्वरूप चारित्राचार ४५ ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाया वा किलामिजमाणा अंगुली दिखाकर धमकाये जाने या हॉटे जाने अथवा ताड़न किये वा उद्दविज्ममाणा बा-जाव-लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकर जाने, सताये जाने, हैरान किये जाने या उद्विग्न (भयभीत) किये दुमखं भयं पहिसवेति । जाने-यावत-एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं। एवं नया सवे पाणा-जाव-सम्वे सत्ता प हंतला, ण ऐसा जानकर समस्त प्राण- यावत् -- सत्व की हिंसा नहीं अज्जायश्वर, ग परिघेतठवा, प परितावेयध्या, " उद्द- करनी चाहिए. उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना बेयस्वा । चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़कर या दास-दासी आदि के रूप में -सूय. सु.२, अ.१.मु.६७६ खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत) करना चाहिए। आयरियाणायरिश्मयणाणं सरूवं आर्य-अनार्य वचनों का स्वरूप३४६. आवती के झावंसी लोयंसी समणा य माहणा व पुढो विवावं ३४६ इन मत-मतान्तरों बाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण वदति । या ग्राहाण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद (विवाद) का प्रतिपादन करते हैं। जैसे कि कुछ मतरादी कहते है"से विच, सुयं च , मयं च णे, विष्णस्य चणे, "हमने यह देख लिया है, सुन लिया है, मनन कर लिया है उस अहं तिरिय दिसासु सम्वतो सुपडिलेहि घणे-सवे और विशेष रूप से जान भी लिया है, (इतना ही नही) ऊँची, पाणा सवे जोवा सब्वे भूता सम्वे सत्ता हतबा अज्जावेतव्वा नीची और तिरछी सभी दिशाओं में सब तरह से भली-भांति परिघेतवा, परितावेतम्घा, उद्दबेतव्या। एस्थ वि जामह इसका निरीक्षण कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी णत्यत्य दोसो।" भूत, रमी मत्न हता मरले प्रोग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुंचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है, उन्हें प्राण-हीन बनाया जा सकता है। इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि (इस प्रकार से) हिंसा में कोई दोष नहीं है।" अणारियवयगमेयं । यह अनार्य (पाप-परायण) लोगों का कथन है। तस्पते आरिया ते एवं बयासी - इस जगत् में जो भी आर्य-पाप कर्मों से दूर रहने वाले हैं, उन्होने ऐसा कहा है"से पुट्टिच मे, दुम्सुयं च मे, बुम्मयं च भे, बुग्विण्णायं "आपने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी च भे, उड अहं तिरिय विसासु सम्वतो दुप्पडिलेहित च भे, दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो बाप जं तुम्भे एवं आचक्षह, एवं भासह, एवं पग्णवेह, एवं ऐसा कहते हैं. ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रशापन करते हैं, ऐसा परूवेह-सवे पाणा सम्बे भूता सम्वे जीवा सर्व सत्ता प्ररूपण (मत-प्रस्थापन) करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और हंतम्या, मज्जावतम्या, परिसम्वा, परितावेगवा, उद्द- सत्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, येतव्या । एस्थ वि जाणह पत्त्य बोसो।" उन्हें बलात् पकड़कर दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है, इस विषय में यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है।" अपारियवयणमेयं । यह सरासर अनार्यवचन है। वयं पुग एषमाधिपखामो, एवं भासामो, एवं पण्णवेमो, एवं हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते है, ऐसा ही परूवमो-- प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा हो प्ररूपण करते हैं कि"सम्वे पागा सम्बे भूता सतर्व जीधा सध्ने सत्ता ण हसम्वा, "सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों की हिंसा नहीं करनी ग अजावेतव्वा, ण परिघेतवा, ण परियायव्या, प उहः चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, और न उन्हें बेतल्या । एत्य विभाणह गत्यस्य दोसो।" इराना-धमकाना, प्राण-रहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में यह निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोषरहित है।" Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] परणानुयाग प्राणातिपात से बाल जीवों का पुन:-पुन: जन्म-मरण सूत्र ३४६-३४७ आयरियवयणमेयं । यह आर्यवचन है। पुवं शिकाय समयं पत्तेय पुगिछस्सामो पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगेहमो पावापा ! किभे सायं दुक्खं उताह असायं? समिता "हे दार्थ निको। प्रखरवादियो। आपको दुःख प्रिय है या परिवाणे या वि एवं बूया - अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो यह उत्तर प्रत्यक्षविरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख श्यि नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किये जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, "सम्वेसि पाणाणं सध्वेसि भूताणं सम्वेसि जीवाणं सबसि "जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्रागो, भूत, सत्ताणं असायं अपरिमिग्वाणं महकमयं दुषंति," तिमि । जीद और सत्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्ति -आ. सु. १, अ. ४, ३. २, सु. १३६-१३६ जनक है और महा-भयंकर है।" ऐसा मैं कहता हूँ। पाणाइवाएण बालजीवाणं पुणो पुणो जम्म-मरणं- प्राणातिपात से बाल जीवों का पुनः पुनः जन्म-मरण३४७. पुढवी याक अगणी य बाट, ३४७ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, तृण, वृक्ष, बीज और उस तण-बब-बीया य तसा य पाया। प्राणी तथा जो अण्डज हैं, जो जरायुज प्राणी हैं. जो स्वेदज जे अंडया जेय जराज पाणा, (पसीने से पैदा होने वाले) और रसज (दूध, दही आदि रसों की संसेच्या जे रसपाभिधाणा ।। विकृति से पैदा होने वाले) प्राणी हैं। इन (पूर्वोक्त) सबको सर्वश वीतरागों ने जीवनिकाय (जीवों के काय शरीर) बताये हैं। इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकायादि प्राणियों) में सुख की इच्छा रहती है, इसे समझ लो और इस पर कुशाग्र बुद्धि से विचार करो। एताई कायार पवेवियाई, जो इन जीवनिकायों का उपमर्दन-पीड़न करके (भोशाकांक्षा एसेसु जाण पडिलेह सायं । रखते है, बे) अपनी आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं (पृश्वी. एतेहिं कायेहि य आयवंडे, कायादि जीवों) में विविध रूप में शीघ्र या बार-बार जाते एतेसु या विष्परियासुविति । (या उत्पन्न होते हैं । जातोवह अगुपरिपट्टमा, प्राणि-पीड़क वह जीव एकेन्द्रिय आदि जातियों में बार-बार लस - दायरेहि विणियायमेति । परिघ्रमण (जन्म-जरा, मरण आदि का अनुभव करता हुआ) से जाति-जाती बहुकूरकम्भे, करता हुआ अस और स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर फायदण्ड कुम्वती मिजती तेण बाले । विपाकज कर्म के कारण विघात को प्राप्त होता है। वह अति क्र.रकर्मा अज्ञानी जीव बार-बार जन्म लेकर जो कर्म करता है, उसी में मरण मारण हो जाता है। आँस प लोगे अदुवा परस्था, इस लोक में अथवा परलोक में, एक जन्म में अथवा सैकड़ों सप्तग्यसो वा तह सहा वा। जन्मों में बे कर्म कर्ता को अपना फल देते हैं । संसार में परिभ्रमण संसारमावन्न परं परं ते, करते हुए वे कुशील जीव उत्कृष्ट से उत्कृष्ट दुःख भोगते हैं और घंति वेयंति य दुग्णियाई॥ आतंध्यान करके फिर कर्म बांधते हैं, और अपने दुर्नीतियुक्त -सूय. सु.१, अ.७, गा.१-४ कर्मों का फल भोगते रहते हैं। आतीके आवती लीयसि विपरामुसति अढाए अणट्टाए वा इस लोक में जितने भी कोई मनुष्य सप्रयोजन या निष्प्रयोजन एतेसुक विपरामुसति । जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों (की योनियों में) विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। गुरु से कामा | ततो से मारस्स अंतो। चनके लिए शब्दादि काम का त्याग करना बहुत कठिन होता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३४७.३४० अपतना का निषेध चारित्राचार २४० जसो से मारस्म अंतो ततो से दूरे। इसलिए वह मृत्यु की पकड़ में रहता है और इसीलिए अमृत (परमपद-मोक्ष) से दूर रहता है। व से अंतो व से दूरे। (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा (पकड़) में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है। से पासति कुसितमिव कुसम्ये पाण्यं शिवतितं बातेरितं । वह पुरुष कुश की नोंक को छुए हुए अस्थिर और वायु के झौके से प्रेरित होकर गिरते हुए बिन्दु को सरह जीवन को (अस्थिर) जानता देखता है। एवं बालम जीवितं मंवत्स अबिजाणतो। बाल (अज्ञानी), मन्द (मन्दबुद्धि) का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (मोहवश) (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता। कराणी कम्माणि शले पकुवमाणे तेण दुक्खेण मुठं विप्प- वह अज्ञानी हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ रियासमुवेति, (दुःख को उत्पन्न करता है।) तथा उसी बुःख से मूक उद्विग्न होकर यह विपरीत दशा को प्राप्त होता है। मोहेण गन्म मरणाइ इति । उस मोह से वह बार-बार गर्भ में आता है जन्म-मरणादि पाता है। एत्य मोहे पुणो पुणो। इसमें भी उसे पुनः पुनः मोह उत्पन्न होता है । -आ. सु. १, अ. ५, उ, १, सु. १४७-१४६ अजयणा निसेहो अयतना का निषेध३४८, अमयं परमाणो उ, पाण-भूयाई हिसई । ३४८. अयतनापूर्वक चलने वाला अस और स्थावर जीवों की बंधी पायर्य कम्म, तं से होह काय फसं ॥ हिसा करता है । उससे पाप-कर्म का बन्ध होता है। यह उसके लिए कटु फल वाला होता है । अजयं चिटुमाणोच, पाण-पूयाई हिसई। अयतनापूर्वक खड़ा होने वाला रस और स्थावर जीवों की बंधई पाक्यं कम्म, तं से होइ कडयं फलं ॥ हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बन्ध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। अजयं आसमापो उ, पाण-भूयाई हिसई। अवतमापूर्वक बैटने वाला वस और स्थावर जीवों की हिंसा संधई पावयं कम्म, तं से होद कयं फलं ॥ करता है। उससे पाप-कर्म का बन्ध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। अजयं स्यमाणो उ, पाण-भूबाई हिसई। अवतनापूर्वक सोने वाला अस और स्थावर जीवों की हिंसा बंधई पाययं कम्म, तं से होइ कड़यं फलं ॥ करता है । उससे पापकर्म का बन्ध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। अजयं मुंजमाणो उ, पाण-भूपाई हिंसई । ____ अयतनापूर्वक भोजन करने वाला प्रस और स्थावर जीवों की बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडयं फलं ।। हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बन्ध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। -अयं भासमाणो स, पाण-भूगाई हिंसई । अयतनापूर्वक बोलने वाला घस और स्थावर जीयों की हिंसा बंधई पावयं कम्म, तसे होड़ करयं फस ।। करता है । उससे पाप-कर्म का बन्ध होता है। यह उसके लिए कटु फल वाला होता है। -कह चरे कह चिट्ठ, कहमासे कहं सए। प्र-कैसे चलें ? कैसे खड़े हो? कैसे बैठे? कसे सोए? कहं भुझंतो मासंतो, पावं कम्म न बंधई।.. कैसे खाए? कैसे बोले ? जिससे पाप-कर्म का जन्ध न हो। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५] परणानुयोग .: जोधनिकाय को हिंसा का परिणाम सूत्र ३४८-३५. उ.--जयं घरे जयं चिट्ठो जयमासे जयं सए। जयं मुंजतो भासंती, पावं कम्मं न अंधई। सबभूयप्पभूयस्स ।सम्म भूयाइ पासओ। पिहियासवस्म तस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ -दस. अ. ४, गा, २४-३२ छज्जीवणिकायवह-परिणाम३४६. गम्भाइ मिति खुपा मुयाणा, गरा परे पंचसिहा कुमारा। बुवाणया महिम घेरगा य, चयंति से आउखए पलोणा॥ उ.-यतनापूर्वक चलने, यतनापूर्वक खड़े होने, यतनापूर्वक बैटने, पतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक स्त्राने, और यतनापूर्वक बोलने बाला पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता है। जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक दृष्टि से देखता है, जो मानव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। छः जीवनिकाय की हिंसा का परिणाम३४६. (देवी-देवों की अर्चा या धर्म के नाम पर अथवा सुस-वृद्धि आदि किसी कारण से जीवों का छेदन-भेदन करने वाले) मनुष्य गर्भ में ही मर जाते हैं तथा कई तो स्पष्ट बोलने तक की आय में और कई अस्पष्ट बोलने तक की उम्र में ही मर जाते हैं। दूसरे पंचशिला पाले मनुष्य कुमार अवस्था में ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं, कई युवक होकर तो कई मध्यम (प्रोढ़) उम्र के होकर अथवा बढ़े होकर चल बसते हैं। इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी (इन अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में) आयुष्य क्षय होते ही शरीर छोड़ देते हैं। हे जीवो! मनुष्यत्व या मनुष्य-जन्म की दुर्लभता को समझो। (नरक एवं तिर्यंच योनि के भय को देखकर एवं विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवेक अलाभ (प्राप्ति का अलाभ) जानकर बोध प्राप्त करो। यह लोक ज्वरपीड़ित व्यक्ति की तरह एकान्त दुःस्वरूप है। अपने (हिंसादि पाप) कर्म से सुख चाहने वाला जीव सुख के विपरीत (दुःख) हो पाता है। संयुममहा अंतो माणुसतं, बटुं भयं बालिसेणं असंभो । एपंतपुरखे जरिते व लोए, सफम्मुणा विपरियासुदेसि ।। -सूय. सु. १, म. ७, गा. १०.11 षड्जीवनिकाय-हिंसाकरण-प्रायश्चित्त-३ सचित्तरक्खमूले आलोयणाई करण पायच्छित्त सुसाइं- सचित्त वृक्ष के मूल में आलोकन आदि के प्रायश्चित सूत्र--- ३५०. जे मिक्सू सचित-वक्त-मूलसि ठिच्चा आलोएज वा पलो- ३५०. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थिर होकर देखे, बारएज्ज वा आलोयतं वा पलायंस या साइजाइ । बार देखे, दिखावे, बार-बार दिखाये, देखने वाले या बार-बार देखने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू सचित-स्वख-मूल सि ठिच्छा ठाणं वा सेज्ज वा जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर कायोत्सर्ग निसी हिय वा तुपट्टन्तं वा एइ चेयस वा साहजह। करे, शय्या बनावे, बैठे पा लेटे इत्यादि कार्य करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करे। थे भिक्ख सचित्त-इक्व-मूलंसि ठिच्चा असणं था-जाब-साइमं जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर असण वा आहारे आहारतं वा साइपनह। --याव-खाद्य का आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५०-३५२ सचित्त वृक्ष पर बढ़ने का प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार [२४६ ने भिषय सचित्त-तक्य-मूलंसि ठिच्चा उच्चार या पासवगं जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर चारपा परिवेइ परिवेतं वा साहज्जद । पासवण परठता है, परठवाता है परठने वाले का अनुमोदन करता है। बेमिस्र सधिस-हक्ख-भूसंसि ठिकचा सम्झामं करे करतं जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर स्वाध्याय का साइम। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख-मूलसि ठिच्चा सन्मायं उहिसह जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर स्वाध्याय का उदिसतं वा साइम्जा। उद्देसण (गरायण) करता है, करवाता है, करने वाले का अनु मोदन करता है। ले भिक्खू सचित्त-हवख-मूलसि ठिच्चा सम्मायं समुसिइ जो भिक्षु सचिस वृक्ष के मूल पर स्थित होकर स्वाध्याय समुद्धिसंत बा साहामह। की आज्ञा देता है, दिलवाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्त-हक्ख-मूलसि हिचा सज्झायं अणुजामह जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर स्वाध्याय अजाणतं वा साइज्जइ। की अनुशा देता है, दिलवाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्ल सचित पख-मूलसि ठिचा समायं वाएइ वायंत जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर सूत्रार्थ की का साइज्जइ। वाचना देता है, दिलवाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षु सचित रुक्ख-मूलंसि ठिया सन्झाय परिषठाइ जो भिक्षु सचित्त वृक्ष के मूल पर स्थित होकर सूचार्य के परिच्छतं पा साइजह । मम्बन्ध में प्रश्न करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्त-दरख मूलसि ठिचा समायं परियड जो भिक्ष सचित्त वृक्ष के मुल पर स्थित होकर सूत्रार्थ की परियन्तं वा साइज्जइ। पुनरावृत्ति करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाण आधज्जद मासिय परिहारहाणं उन्धाय । उसे मासिक उद्घातिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. १-११ सचित्तरक्ते दुरूहणस्स पायच्छित सुतं-- सचित्त वृक्ष पर चढ़ने का प्रायश्चित सूत्र३५१. जे भिक्खू सचित्तरुपखं बुरुहार, गुरुतं वा साहज्जा। ३५१. जो भिक्षु सचित्त वृक्ष पर चढ़ता है, चढ़ने के लिए कहता है या चड़ने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे बावजा चाउम्मासिब परिहारहाणं जपाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त) -नि.स.१२. सु. आता है। तसपागाणं बंधण-मोषण करण पायच्छित्त सुस-- त्रस प्राणियों को बांधने और बन्धनमुक्त करने के प्राय श्चित्त सूत्र२५२. बे पिकवू कोसुण पडियाए अण्णर ससमागमाई १. सण- ३५२. जो भिक्षु करुणा भाव से किसी एक त्रस प्राणी को १. तृण पासएग वा, २. मुंज-पासएण वा. ३.कट्ठ-पासएण था, के पाश से २. मुंज के पाश से, ३. काष्ट के पास से, ४. धर्म के ४. चम्म-पासएण श, ५. वेत्त-पासएण वा, ६. रज्जु पासएण पाश से, ५, वे पाश से, ६. रज्जू पाश से. ७. सूत्र पाश से, वा, ७. सुस-पासएग वा, बंधड बंधत वा साहज्जा। बांधता है, बंधवाता है. बाँधने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू कोलुष-पडियाए अग्णयरि तसपाणमाई तन-वास- जो भिक्षु करुणा भाव से किसी एक त्रस प्राणी को तृण पाश एक घा-जाव-मुस-पासएण था बदल्लयं मुबह मुयंतं पा से-पालतू सुत्र पाश से बंधे हुए को मुक्त करता है, फरवाता साइन्न। है, करने वाले का अनुमोदन करता है। के सेवमाणे आवज्जद चासम्मासिय परिवारवागं उग्बाइय। उसे चातुर्मासिक उद्वातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १२, सु. १.२ आता है। । कुछ पत्तियों में चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का विधान है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५.] वरणानुयोग पृथ्वीकाय आदि के भारम्भ करने का प्रायश्चित्त सूत्र सत्र ३५१-३५५ पुटवोकाइयाणं आरंभ करण पायच्छित्त सुत्त पृथ्वीकाय आदि के आरम्भ करने का प्रायश्चित्त सूत्र३५३. जे भिक्षु पुरावीकायस्स वा-जाव-वसकायस्म का फल- ३५३. जो भिक्ष पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय का अल्प से मायमवि समारंभह समारंभतं वा साहमा । अल्प' भी आरम्भ करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेत्रमाणे आवाइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उम्धाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. १२, मु. ८ आता है। सचित्त पुढयोकाइए ठाणाइ करणपायच्छित्त सुत्ताई- सचित्त पृथ्वीकायिकादि पर कायोत्सर्ग करने के प्रायश्चित्त सूत्र३५४. जे भिक्खू अर्णतरहियाए पुढधोए १. हागं या, २. सेज्जं वा, ३५४. जो भिक्षु मदा सचित्त रहने वाली पृथ्वी पर कायोत्सर्ग ३. णिसेज्ज वा, ४. णिसीहियं या एप चेयंतं वा साइजए। करता है, सोता है, बैटता है, स्वाध्याय करता है, करवाता है करने वाले का अनुमोदन करता है जे भिक्खू ससिणिडाए पुहवीए ठाणं बा-जाद-णिसीहियं वा जो भिक्षु स्निग्ध पृथ्वी पर कायोत्सर्ग करता है- पावत्घेएर नेयंत वा साइज्जद । स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्कू ससरसाए पुदीए ठाणं वा जाव-णिसोहियं या जो भिक्षु सचित्त पानी से भीगी हुई पृथ्वी पर कायोत्सर्ग चेएइ वेपंतं वा साइज्जा । करता है यावत् - स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषल मटियाकडाए पुढवीए सणं वा-जाव-गिसीहियं वा जो भिक्षु सचित्त रज वाली पृथ्वी पर कायोत्सर्ग करता है चेएइ चेयंत या साइजड । -यावत्-स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू वित्तमंताए पुतबीए ठाणं वा-जाव-णिसीहियं वा जो भिक्षु सचित्त पृथ्वी पर कायोत्सर्ग करता है—यश्वत्चेएए चेयंत वा साइज्जा। स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू चित्तमंताए सिलाए ठाणं वा-जाव-णिसोयिं वा जो भिक्षु सचित्त बिना पर कायोत्सर्ग करता है यावत् - चैएइयंतं वा साइज्जद। स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू चित्तमंताए लेखूए ठाणं वा जाव-णिसीहिमं वा जो भिक्षु सचित्त ढेले पर कायोत्सर्ग करता है-पावत्चेए चेयंत वा साइज्जद। स्वाध्याय करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे मावज्जद चाउम्मासियं परिहारहाण उग्धाइयं । उमे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १३, सु. १७ आता है। सअंडाइए दारूए पाणाइ करण पायरिछत्त सुत्तं-- अंडों वाले काष्ट पर कायोत्सर्ग करने का प्रायश्चित्त सूत्र-- ३५५. जे मिक्खू कोलाबासंसि दारुए जोवपइदिए सडे-जाव- ३५५. जो भिक्षु कीड़े पड़े हुए काप्ट पर, सजीव काष्ट पर, संतामसि ठानं जा-जाब-णिसीहियं वा चेएइ चेयंत या अंडे प्राणी-यावतु-मकड़ी चल रही हो ऐसे काष्ट पर साइज्जह। कायोत्सर्ग करता है, यावत्-स्वाध्याय करता है या कायोत्रादि तीनों कार्य एक ही स्थान पर करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाजं जाघाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१३, सु.८ आता है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ३५६-३५७ अस्थिर थूणी आदि पर कायोत्सर्ग आदि करने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार २५१ दुबद्धपणाइसु ठाणाइ करण पायच्छित्त सुत्ताई- अस्थिर थूगी आदि पर कायोत्सर्ग आदि करने का प्राय श्चित्त सूत्र -- ३५६. मे भिक्खू १. चूगंसि वा, २. गिहेनुयंसि ना, ३. उसुकासि ३५६, जो भिक्षु अस्थिर स्तम्भ, देहली, ऊखल, स्नान करने की पा, ४. मनसि या, अण्णयरंसि था तहपगारंसि अंत. चौकी आदि अन्य उस प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर अच्छी रिक्खजापंसि दुगवे दुणिविखते अणिकपे पलाचले ठाणं वा सरह बँधा हुआ नहीं, अच्छी तरह रखा हुआ नहीं, हिलता हुआ सेग्नं या मिसीहियं वा घेएइ यंतं श साइज्जद । अस्बिर होने पर कायोत्सर्ग करता है. सोता है, स्वाध्याय करता है. परना है, करने वाले का अनुमोदन करता है। से मिक्स कुलिसिपा, २. मितिसि वा, ३. सिलसिया, जो भिक्षु अस्थिर सोपान, भीत, शिला और शिलाखण्ड ४. लसंसिबा अग्णयरंसि भातहप्पगारंसि अंतरिक्खशायसि आदि अन्य ऐसे ऊँचे स्थानों पर कायोत्सर्ग करता है-पावतहोम्मिमियत अगिरे बलाबले पाषा-जाव-णिसी- स्वाध्याय करता है। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन हिवं बा चेएर यी वा साइम्जा । करता है। भिक्खू १.बंधसि वा. २. पलिहंसि वा, इ. मंचंति वा, जो भिक्षु अस्थिर स्कन्ध पर, आगल पर, मंच पर, मण्डप ४. मंग्यसि वा, ५. मालतिवा, ६. रासायसि पा, ७. हम्म- पर, माल पर, प्रासाद पर, तलघर पर या अन्य ऐसे अधर सलसिला अण्णयरंसि वाहप्पपारंसि अंतरिक्वजाय सि स्थानों पर कायोत्सर्ग करता है-पाव-स्वाध्याय करता है, मणिक्सिसे अणिकपेचलापले ठाणं वा-जाय-णिसी- या कायोत्सर्गादि तीनों कार्य एक ही स्थान पर करता है, हियं वा एव यंतं वा साना । करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । त सेवमाने आवजह पाउम्मासिय परिहारद्वाणं उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त) __ -नि. उ. १३, सु. ६-११ आता है । पत्यारे पुढयोकाइयाइनिहरण पायच्छित्त सुत्ताई- वस्त्र से पृथ्वीकाय आदि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र२५७. जे भिक्खू बत्थानो पुढवीकार्य गीहरइ णीहरावेह णीहरियं ३५७. जो भिक्षु वस्त्र में (सचित्त) पृथ्वीकाय को निकालता है, अमहटु वेज्जमा पडिग्गाहेइ पडिग्यातं या साइज्जइ। निकलगाता है, निकाले हुए (वस्त्र) को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू बत्थाओ आवकायं गीहरइ पीहरावेइ गोहरियं जो भिक्षु वस्त्र से (सचित्त) अप्काय को निकालता है, आहट्ट रेम्जमाणं पडिागाह पडिझगाहतं वा साइज्जइ । निवलवाता है, निकाले हए (वस्त्र) को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है. लेने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू वत्याओ तेउकार्य पीहर पोहरादेइ गीहरियं जो भिक्ष वस्त्र से (सचित्त) अग्निकाय को निकालता है, आहट्ट देजमाणं पडिग्गाहेइ पहिरगाहंतं वा साइजद। निकलवाता है निकाम्ने हुए (वस्थ) को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू बस्थाओ कंदाणि बा--जाव-बीयाणि वा णीहए जो भिक्षु वस्त्र से (सचित्त) कन्दमूल -यावत्-बीज पीहरावेइ गीहरियं आहट्ट देम्जमाणं पभिगाहे पहिग्गन्हत निकालता है, निकलवाता है, निकाले हुए (वस्त्र) को लाकर दे बा साइजह। उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। से भिक्खू वस्थाओ ओसाहिबीयाई जोहरचणीहरावेद पोह- जो भिक्षु वस्त्र से औषधी (सचित्त) बीज को निकालता है, रियं बाहट्ट देजमाण पहिरगाहेइ पविगाहंतं वा साइज। निकलवाता है, निकाले हुए (वस्त्र) को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। से मिक्खू बस्याओ तस राणजाई गोहर पीहरावेद गोहरियं जो भिक्षु वस्त्र से वन प्राणियों को निकालता है, निकलमाहट देजमाणं परिगाहेर परिसमाहत वा साइज्जइ। वाता है, निकाले हुए (वस्त्र) को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चरणानुयोग सदोष चिकित्सा निषेध सूत्र ३५७.३५८ जे भिक्ख बत्थं णिकोरेप गिमकोरायेद णिवकोरिय आपट्ट देजमा पहिगाहेई पडिग्माहतं वा साइज्जह । जो भिक्षु वस्त्र को कोरता है, कोरवाता है, कोरे हुए को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। सं सेवमाणे आषज्जइ चाउम्मासियं परिहारदाण उग्धाइयं । -नि, उ, १८, सु. ६४-७० सदोष-चिकित्सा का निषेध-४ सदोस तेगिच्छा निसेहो सदोष-चिकित्सा निषेध२५८. से तं जाणह जमहं देमि ३५८. तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँसेइम पंडिए पत्रयमाणे से हंता छेत्ता मेता खंपिता विल अपने को चिकित्सा पण्डित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा पिसा उहवात्ता "अकई करिस्सामि" ति मण्णमा, जस्स में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विगं करो। विलुम्पन और प्राण-वध करता है। "जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूंगा", यह मानता हुभा (वह जीव वध करता है)। वह जिसकी चिकित्सा करता है (बह भी जीव बध में सह भागी होता है।) अलं नालास संघेणं, जे वा से करेति बाले। (इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से क्या लाभ है जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह भी बाल अज्ञानी है। ण एवं मणगारस जायति त्ति बेमि । अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता-ऐसा मैं कहता हूँ। -आ. सु.१, अ.२, उ. ५, सु.६४ से सं संबुसमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्म व वह (साधक) उस पाप-कर्म के विषय को सम्या प्रकार से कुज्या ण कारखे। जानकर संयम साधना में समुद्यत हो जाता है। इसलिए वह स्वयं पाप-कर्म न करें, दूसरों से न करवाये (अनुमोदन भी न करें।) सिपा तत्य एकयर विष्परामुसति छसु अण्णयरम्मि कम्पति । कदाचित् (वह प्रमाद या अज्ञानवश) किसी एक जीवकाय सुट्ठी लामप्यमाणे सएग दुरखेण मूर्व विपरियासमुवेति । का समारम्भ करता है, तो वह छहों जीव-कायों में से (किसी का सएण विष्पमाएण पुको वयं पकुल्वति सिमे पाणा भी या सभी का) समा (म्भ कर सकता है। वह सुख का अभिलाबी बार-बार सुख की अभिलाषा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, (व्यथित होकर) मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह (मूड) अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में प्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी अत्यन्त दु:ख भोगते हैं। पहिलेहाए जो णिकरणाए । एस परिण्णा कम्मोवसंती। यह जानकर पाप-कर्म के कारण प्राणी संसार में दु.खी -आ. सु. १, म.२, द. ६, सु. ६५-६७ होता है । उसका (पाप-कर्म का) संकल्प त्याग देवे । यही परिज्ञा विवेक कहा जाता है। इसी से (पाप त्याग से) कर्मों की शांति (क्षय) होती है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र ३५६.३६० गृहस्प से वग-परिफर्म नहीं कराना चाहिए चारित्राचार [२५३ - - - मिहत्थेण वणपरिकम्मो न कायन्यो गृहस्थ से व्रण-परिकम नहीं कराना चाहिए३५६. से से परो कार्यसि वणं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेग्ज वा, णो ३५६. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शारीर पर हुए व्रण को तं सातिए, जो तं णियमे। एक बार पोंछे या बार-बार अच्छी तरह से पोंछकर साफ करे तो साधु उरो मन से भी न चाहे और न वचन और काया से प्रेरणा करे। से से परो कार्यसि वर्ण संबाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, पोतं कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शारीर गर हुए प्रण को दबाए सातिए, यो तं णियमे । या अच्छी तरह मर्दन करे तो लाधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण या बसाए वा कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए व्रण के ऊपर मक्खेज या भिलगेग्न घा, णो त सातिए णो तं णियमे। तेल, घी या वसा चुपड़े मसले, लगाए या मर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि वणं लोण वा कक्केण वा चुग्णेण स कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर व्रण को लोध धणेण मा उल्लोलेज वा, उध्वट्ठज्ज वा, णो ते सातिए, कल्क पूर्ण या वर्ग आदि विलेपन द्रव्यों का आनंपन-विलेपन करे गोतं णियमे। तो साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं कामा से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि यण सीतोदगवियोण वा उसिणोदग- कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को विपकेप वा उच्छोलेज्म वा पधोवेज्ज वा, गो तं सातिए, प्रासुक शीतल जल या उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोये गोतं णियमे । तो साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि वर्ण अण्णतरेणं सत्यजाएणं अच्छिवेम्म वा कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के पारीर पर हुए प्रण को विच्छिदेज्ज वा, णो तं सातिए, यो त णियमे। किसी प्रकार से शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से छेदन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि वणं अग्णतरेणं सत्यजातेषं अच्छिवित्ता कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए वण को किसी पर विच्छिवित्ता वा पूर्व वा सोगियं का मोहरेग्ज वा, विसो- विणेष शस्त्र से थोड़ा-सा विशेष रूप से छेदन करके उसमें से हेज वा, गोतं सातिए, गोतं गियमे । मवाद या रक्त निकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से -आ. सु. २, अ. १३, सु. ७०५-७१३ भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। निहत्थेण गंडाईणं परिकम्मो न कायम्वो गृहस्थ से गण्डादि का परिकर्म नहीं कराना चाहिए३१०. से से परो कार्यसि गंई का अरइयं वा पुलयं वा भगवसं वा ३६०. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गण्ड', अर्श, आमज्जेज वा, पमम्जेज वा, पोतं सातिए, णो संगियमे। पुलक अथवा भगंदर को एक बार या बार-बार साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि गंडे या-जाव-भगवलं या संवाहेज वा यदि कोई गहस्थ, साधु के शरीर में हुए गण्ड-पावत्पलिमदेज्ज वा, णो तातिए. णो संणियमे । भगन्दर को दबाये या परिमर्दन करे तो साघु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे । से से परो कार्यसि गं वा-जाव-भगवतं वा हेल्लेण वा घएग यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गण्ड-चापदजाधसाए वा मपवेज वा मिलिगेज था, जो तं सातिए, जो भगन्दर पर तेल, घी, बसा चुपड़े, मले या मालिश करे तो साधु जियमे। उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४] चरणानुयोग गृहस्थ से शल्प चिकित्सा नहीं कराना चाहिए सूत्र ३६०-३६५ से से परी कायंसि गंडं वा जाब-भगवलं वा लोटेण वा यदि कोई गृहस्थ, माधु के शरीर में हुए गड-पावत्कक्फेण वा खुपणेण वा वणेण या उल्लोलेज्ज वा उग्यदृज्ज भगन्दर पर लोध कल्क चूर्ण या वर्ण का थोड़ा या अधिक विले. वा, जो तं सातिए, णो त णियमे । पन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, व वन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि गई वा-जान-भगवलं था सोसोदधियण यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गण्ड-यावत्या सिणोयमवियण बा उग्छोलेज वा पधोएज्ज वा, णो गगन्दर को प्रामुक शीतल या उष्ण जल से थोड़ा या बहुत धोये सातिए, यो त णियमे । तो साध उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा तो साधु उस में -आ. सु. २, अ.१३, सु. ७१५-०११ भी न करे । मिहत्येण सलगच्छा न कायध्या गृहस्य से शल्य चिकित्सा नहीं कराना चाहिए३६१. से से परो कार्यसि गंड वा-जाब-भगंबलं वा अग्णतरेणं सत्य. ३६१. यदि गृहस्थ मुनि के शरीर में हुए गण्ड-यावत्-भगन्दर आतेणं अपिछवेज्ज वा, विच्छिवैज्ज वा, अन्नतरेणं सत्यजातेणे को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से आमिछदिसा वा विच्छिवित्ता या पूर्व वा सोणियं का णीह छेदन करे अथवा किसी विशेष गस्त्र से थोड़ा-सा या विशेष रूप रेज वा विसोहेम वा, गो तं सातिए, णो तं णियमे से छेदन करके मवाद मा रक्त निकाले या उसे साफ करे तो -आ. सु. २, अ. १३. सु. ७२० साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। गिहत्थेप घेयावच्चं न काय गृहस्थ से बैयावृत्य नहीं कराना चाहिए३६२. से से परो सुरेणं वा यसलेगं तेइच्छं आउट्ट, से से परो ३६२. मदि कोई गृहस्थ शुद्ध बाग्बल (मन्त्रबल) से साधु की असुरंग बश्यलेणं तेइन्छ आउट्टे से से परो गिलाणस्स चिकित्सा करनी चाहे अथवा गृहस्थ अशुद्ध मन्त्रबल से साधु की सचिताई कदाणि वा मूलाणि वा तयाणि या हरियाणि वा व्याधि उपशान्त करना चाहे अथबा वह गृहस्थ किसी रोगी खगिस् वा कड्वेत्तु या कहावेत्तु वा तेइन्छ आउटेज्जा णो साधु की चिकित्सा सचित्त केन्द, मूल, छाल या हरी को खोदकर तं सातिए, जो त गियी। या वींचकर बाहर निकालकर था निकलवाकर चिकित्सा करना 'चाहे, तो साधु उसे मन से भी न नाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे। कडधेयण कषेपणा पाण-भूत-जीव-सत्ता वेदणे वेति । यदि साधु के शरीर में कठोर वेदना हो तो (यह विचार कर -आ. सु. २, अ. १३, तु. ७२८ उसे समभाव से सहन करे कि) समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्व अपने किये हुए अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक बेदना का अनुभव करते हैं। गिहस्थकय सिगिच्छाए अणुमायणा णिसेहो गृहस्थकृत चिकित्सा की अनुमोदना का निषेध३६. से से परो पावाओ पूर्व वा सोणियं वा णोरेज वा बिसो- ३६३. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में पैदा हुए रक्त और हेज्जया, पोतं सातिए को तं णियमे । मबाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो वह उसे न -आ. गु. २, अ. १३, सु. ७०० मन से भी चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे । गिहत्थाय खाणुयाइणिहरण अणुमोयणा णिसेहो- गृहस्थ द्वारा लूंठा आदि निकालने की अनुमोदना का निषेध-- ३६४. से से परो पाबाओ खागुयं वा, कंटयं वा, णोहरेज्ज वा, ३६४. यदि कोई गृहस्थ माधु के पैरों में लगे हुए काटे आदि को विसोहम वा, णो त सातिए वा, णो त णियमें। निकाले था उसे शुद्ध करे तो वह उसे मन से भी न चाहे, वचन -आ.सु. २, . १३, सु. ६६६ एवं काया से प्रेरणा भी न करे । गिहस्थकय लिक्खाइ णिहरणस्स अणुमायणा णिसेहो-- गृहस्थ द्वारा लीख आदि निकालने की अनुमोदना का निषेध३६५. से से परोसीसातो लिषय वा जूयं वा गोहरेज वा विसा- ६६५. यदि कोई गृहस्य साधु के सिर से जू या लीख निकाले, या हेज वा जो तं सातिए, गोतं णियमे । सिर साफ करे, तो वह उसे न मन से भी चाहे, वचन एवं काया -आ. मु. २, अ. १३, सु. ७२४ से प्रेरणा भी न करे। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६६-१६७ चिकित्साकरण प्रायश्चित्त - ५ (१) परस्पर चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त वण-परिकम्मावच्छित सुताई६६. जे अपणो कार्यसि कर्ण अमजेज वा पमज्जेज्ज था. आमज्जतं वा पमतं वा साइज्जइ । व्रण परिकर्म के प्रायश्चित सूत्र जे भि अपनो कार्यसि बर्ष बाबा पनि वा बाबा या साह जे मिलू अध्यको कार्य तेल्लेग वा जान-गवणीएण वा अवमंज्ज वा, मक्लेज्ज वा अगं या मतं या साइज्ज जे भिक्खू अप्पो कार्यसि वर्ण सोद्वेग वाजवणे वाउलोले नाथा उस्सोतं षा उभ्यट्टन्तं वा साइज । जे मिक्यू अपणो कार्यसि वर्ण-सीओवग-वियडेग वा, उसिणोग-विमद्वेग वा इण्डोन्सा योग्य वा छो वा पोतं या साइज । जे मिम्णू अध्यणो कार्यसि वर्ण फूलंत वा श्यंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाने आवज्जद मातियं परिहारद्वाणं उधाइ । - नि. उ. ३, सु. २८-३३ अणमण्ण-वण- सिगिकछार पायच्छितसुताई३६७. जे भिक्खू अणपण्णस्त कार्यसि वर्णआमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा, - चारित्राचार २५५ -परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ३६६. जो भिक्षु अपने शरीर के व्रण का, भार्जन करें, प्रमार्जन करे । पान करना है प्रमार्जन करवाने, मार्जन करने वाले का प्रमार्जन करने वाले का अनु. मोदन करें । जो भिक्षु अपने शरीर के का मर्दन करे, अर्दन करे मर्दन करावे, प्रमर्दन करावे, मर्दन करने वाले का प्रमदंग करने वाले का अनुमोदन करें। जो अपने शरीर के र तेल यावत्- मक्खन, मो बार-बार मले, मतवावे बार-बार मलने वाले का बार-बार मन्नने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने शरीर के व्रण पर, लोध यावत्-वर्ण का उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। - जो भिक्षु अपने शरीर के प्रण क अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, भुलाये मार-पार धुलवावे धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने शरीर के व्रण को रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे उद्घाटक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। परस्पर व्रण की चिकित्सा के प्रायश्चित सूत्र ३६७. जो भिक्षु एक-दूसरे के शरीर पर हुए व्रण का, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मान करवावे करवा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] चरणानुयोग गण्यादि परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ३६७.३९८ भामजतंबा, पमज्जत या साइज जे भिक्खू अण्णमण्यारस कार्यसि वर्णसंबाहेग्ज वा, पलिमद्देज वा, संबात वा, पलिमहेत वा साइज्जइ। जे मिक्खू अण्णमम्पस कायंसि वणं. तेल्लेण वा, जाव-णवणीएग वा, मक्खेज्ज वा, मिलिगेज्ज वा, मक्खेत वा, मिलिगत वा साइज्जइ । जे भिक्कू अण्णमण्णरस कार्यसि वर्गलोडण घा-जाव-वणेण या, उल्लोलेन्ज वा, उटवटेज वा, उल्लोलेंतं वा, उश्वदृत वा साइजह । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक-दूसरे के शरीर पर हुए बण का, मर्दन करे, प्रमर्दन करें, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वालो का अनुमोदन करें। जो भिक्षु एक-दूसरे के शरीर पर हुए व्रण पर, तेल-याबद-मक्खन मले, बार-बार मले, मलवावे, बारबार मलवादे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु एक-दूसरे के शरीर पर हुए प्रण पर, लोध-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का मोरे। जो भिक्ष एक दूसरे के शरीर पर हुए व्रण कोअचित्त शीत जल से, अचित्त उष्ण जल से, धोए, बार-बार घोए, लवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर पर हुए व्रण कोरंगे, बार-बार रंगे, रंगवाचे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जे भिषy अण्णमण्णस कार्यसि वणं-- सीओदग-बियण बा, उसिणोदग-वियडेण वा, उन्होलेग्ज वा, पधोएज्ज वा, उच्छोलत था, पधोएंत वा साइजह । जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कार्यसि वर्णफूमेज्ज वा, रएज्ज वा, फूतं बा, रएंत वा साइजह। त सेवमाणे बाबजाइ माप्तियं परिहारहाणं साधाइयं । -नि. उ. ४, सु. ६१-६४ गंडा परिकास पायच्छित्त सुत्ताई३६८, जे भिषायू अपणो कार्यसि -- गं बा, पिथ्य वा अरइयं वा, असियं वा, भवसं वा, अग्णयरेण तिकोण सत्यजाएणं. अच्छिवेज्ज वा विच्छिवेज वा, अच्छियतं वा, विच्छिदंत वा साइजह । जे भिक्षू अपणो कार्यसि-गंड वा-जाव-भगंदलं वा, अण्णयरेणं तिक्वेण सत्यजाएणं, अच्छिरित्ता वा विच्छिविता वा, पूर्य वा, सोणिय वा पोहरेज वा विसोहेज वा, जोहरत वा विसोत वा सरहज्जह । जे भिक्खू अपणो कार्यसि वा-जाव-मगंबलं वा, अण्णायरेग सिमलेणं सत्यजाएणं, गण्डादि परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र३६८. जो भिक्षु अपने शरीर के गर—यावत -भगन्दर को किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करे. बार-बार छेदन करें, छेदन करावे, बार-बार छेदन करावे, छेदन करने वाले का, बार-बार छेदन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने शरीर के गण्ड पाबद-भगन्दर को --- अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करके, बार बार छेदन करके, पीब या रक्त को, निकाले, शोधन करे, निकलवावे, शोधन करवाये, निकालने वाले का शोधन करने वाले का अनुमोदन करें । जो भिक्षु अपने शरीर के गण्ड-यावत्-भगन्दर कोअन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु ३६८ अदिता वा विच्छिविता वा पूपं वा सोणियं वा गीहरिता वा विलोहिता वा या उसिणोग-विपत्रेण वा, छोले वा पोज वर उच्छलंसं वा दद्यतं वा साइज्जइ । मी कार्यतिमंद था, अजय सिन्खेन सत्थजाएणं, छविसावा, विविता वा, पूयं मा सोणियं वा, पीहरिता था, विसोहिता वा, सोमोग-वियण बा, उसिगोत्रण-विपण वा, उच्छवा अण्णय रेणं आलेवणजाएणं, लिपेज वा विलिपेज्न बा आलिदा विलितं वा साइज । जे मिक्स अपणो कार्यसि-गंडे वा जावद बा अभ्यपणं तिथं सरबजाएवं अक्षिता वा विच्छिदिता वर पूयं वा सीणियं वा गोहरा या विसोहाबा ओदाउ या परिकर्म के प्रायश्चित सू अणयरेणं आलेवणजाएगं, बलिपत्ता या विलिपित्ता वा तेल्लेण वा जाव णवणीएण था, अभंगेज्ड वा मत्रज्ञ वा, भगतं वा मवतं वा साइज्जइ । जे मि पण कार्यसि - गंडं वा जाव भगंदलं वा, अभ्यरेषिते सत्यमाएवं अच्छा वा वा पूर्व वा सोणियं वा पोहरा वा विसावा सीओवग विडे वा उसिगोग-विद्वेण व१, उच्छलेत्ता वा पछोइसा वर, 1 छेदन कर, बार-बार छेदन कर पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, पारिवार अचित्त शीत जल से या अति उष्ण जल से, धोये बार-बार धोये , धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने शरीर के गण्ड – पावस — भगन्दर कोअन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर बार-बार छेदन कर पीप या रक्त को छेदन कर बार-बार छेदन कर पीप या रक्त को, निकालकर, शोधन कर, निकाल कर शोधन कर, अति शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, ये बार-बार धोये, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करवाने, बार-बार लेप करवावे, लेप करने वाले का, बार-बार लेप करने वाले का अनु मोदन करे । जो भिक्षु अपने शरीर के गण्ड - यावस् - भगंदर को- अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अति शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बारम्बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का लेप कर, बार-बार लेप कर, [२५७ तेल - यावत् – मक्खन, मले, बार-बार मले, मलावे, बार-बार मलावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । भगंदर को जो भिक्षु अपने शरीर के मंडपाद अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करके, बार-बार छेदन करके, पीप या रक्त को, - निकाले, शोधन करे अचित्त शीतल जल से या अचित्त उष्ण जल से धोकर, बार-बार धोकर, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] परमानुयोग एक-दूसरे के गडादि की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त पुत्र सूत्र३६८-३६६ ग्णयरेणं आलेवबजाएक, आलिपित्ता वा, विलिपित्ता वा, रोल्लेण वा-जायणवणीएग वा, अग्नंगेसा बा, मक्वेता वा अण्णयरेणं घूवगनाएणं, धूवेज वा, पधूनेज्ज वा. धूवंतं ना, पधुवंतं वा साइजह । अन्य किसी एक लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-याव-मक्खन, मलकर, बार-बार मलकर, किसी एक अन्य प्रकार के धूप से, धूप दे, बार-बार धूप दे, धूप दिलावे, बार-बार धूप दिलावे, धूप देने वाले का, बार-बार धूप देने वाले का अनुमोदन करे। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। एक दूसरे के गण्डादि की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सं सेवमाणे आवमा मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । -नि.उ. ३. सु. ३४-३६ अण्णमण्ण-गबाइ-तिगिच्छाए पायच्छित्त-सुताई ३६६. जे भिक्य अण्णमण्णस्त कार्यसि नरवा, पिसंग का, अययं ३६१. जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर पर हुए गण्ड-यावत्बा, असियं वा, भगवलं वा, भगन्दर को-- अन्नपरेग सिक्लेणं सत्यजाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अपिछज्ज वा, विग्छिवेज वा छेदन करे, बार-बार छेदन करे, छेदन करवाये, बार-बार छेदन करवाये, मरिचसं बा, बिसिछत वा साइज्जद । छेदन करने वाले का, बार-बार छेदन करने वाले का अनु मोदन करे। जे भिक्षु अण्णमण्णस्स कायंसिर वा-जाब-मगंवर वा जो भिक्षु एक दूसरे के पारीर पर हुए गण्ड -यावत-- भगन्दर कोअनयरेणं तिकोणं सस्थमाएणं, अन्य किसी प्रकार के शस्त्र से, अग्छिवित्ता वा, विच्छिदता दा, छेदन करके, बार-बार छेदन करके, पूर्व वा सोणियं वा, पीप या रक्त को, मीहरेज्म वा, विलोहेक्ज वा, निकाले, गोधन कर, निकलवावे, शोधन करवावे, नीहरतं वा, विसोत वा साइजइ। निकालने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णमणस्स कासि-गंडं या-जाव-मगंबल बा, जो भिक्षु एक दुसरे के शरीर पर हुए गाड-पावत भगन्दर कोअन्नपरेग सिखेगं सस्पजाएणं, अन्य किमी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अपिछरित्ता वा, विच्छिविता बा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पूर्व वा सोणियं वा, पीप या रक्त को, नीहरिता वा, विसोहेत्ता वा, निकालकर, शोधन कर, सीओवग-धियडेण गा, उसिगोग-विपडेग वा. अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेज मा, पधोएज्जबर, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलदरावे, उन्होलेत का, पोएत वा साइब । धोने वाले का, बार-बार घोने वाले का अनुमोदन करे । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर ३६६ एक दूसरे के गादि की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र बारित्राधार २५६ ने भिक्खू अग्गमण्णस्स कार्यसि - गंड बा-जाव-भगरलं वा, अन्नपरेणं तिक्खेणं सत्यजाएगं, अन्डिरिता वा, विच्छिविता वा, पूर्य दा, सोषियं वा, नीहरिता बा, विसोहेत्ता वा. सोओरग वियोण या, सिषोदग विपण वा, उसयोलेत्ता वा, पधोएता वा, अनपरेग आलेवणजाएणं, आलिपेज पा, विलिपेज्ज बा, जो भिक्षु एक दुसरे के शरीर पर हुए गण्ड-यावत्भगन्दर को अन्म किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करके, बार-बार छेदन करके, पीप या रक्त को, निकालकर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जन से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करवावे, बार-बार लेप करवावे, लेप करने वाले का, बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे। आलिपेतं वा, विसिपेतं वा साहज्जा । * भिक्षु अण्णमाणस कार्यसि-गर या-जाव-भगंदस मा, जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर पर हुए गण्ड--यावभगन्दर को अनमरेगं तिरखेणं सत्थजाएगं, अपिछविता वा, बिस्छिविता था, पूर्य का सोणियं वा, नोहरिता वा, विसोहेता वा, सीमोग वियहेज था, उसिणोग विपणा , उच्छोल्लेता था, पधोएता वा, अश्यरेणं आलेवणजाएग आसिपित्ता वा विलिपित्ता का, तेहलेण वा जाव-णवणीएण या, ममंगेज्ज वा, मरखेज्ज वा, अगभंगेत वा, मयत वा साइमइ। अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करके, बार-बार छेदन करके, पीप या रक्त को निकाले, शोधन करे, अचित्त शीत अल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, वार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-पावत्--मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवाथे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, या बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर पर हुए गण्ड-पावत्भगन्दर को अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक अन्य लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-थावत्-मरखन, ने मिश्लू अण्णमग्णस्त कार्यसि -- गंड वा-जाव-भगवतं या, MAN अप्रयरेणं सिक्खेणं सत्यजाएगं, अभिकविता वा, विच्छिवित्ता वा, पूर्व वा सोषियं वा, नौहरिता वा, विसोहेत्ता वा, सीओबग वियडेग वा, उसिणीबग बियरेण वा, उच्छोलिता वा, परोसा था, अापरे आलेवणजाएणं, सिपिता वा, विलिपित्तावा, स्लेच वा-जाद-प्रवणीएण वा, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वरणानुयोग कृमि निकालने का प्रायश्चित सूत्र सत्र ३६६-३७३ आमंगेत्ता, ममखेसावा, मलकर बार-बार मलकर, अन्नयरेणं घूवणजाएणं, किसी एक अन्य प्रकार के धूप से, धूवेज्ज वा, पधूवेन वा, धूप दे, बार बार धूप दे, धूप दिलवावे बार-बार धूप दिलवावे, धूवंतं वा, पधूवतं वा साइज्मइ । धूप दिलवाने वाले का, बार-बार धूप दिलवाने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवज्लाइ मातियं परिहारठाणं उग्धाइयं ।। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ४, सु. १७-७२ आता है। किमिणीहरण पायच्छित्तसुतं कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूच३७०. मे भिम अपणो पालु-हिमिपं वा, कृच्छिकिमियं या, अंगु- ३७०. जो भिक्षु अपनी गुदा के कृमियों को और कुक्षि के कृमियों सौए णिवेसिय षिवेसिय, णीहरह, पीहरतं या साइज को उंगली डाल-डालकर निकालता है, निकलवाता है, निकालने धाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवमा मासियं परिहारदाणं उन्धाइयं। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.३, सु. ४० आता है। अण्णमण किमिणीहरणस्स पायच्छित्तसुतं- एक दूसरे के कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र३७१. भिक्खू अण्णमयस्स पाखु-किमियं वा, कुच्छि-किमियं वा, ३७१. जो भिक्षु एक दूसरे के गुदा के कृमियों को, कुक्षि के अंगुली निवेसिय निरेसिय, नौहरा, नोहरेतं वा साइम्मद। कृमियों को उंगली डाल-डालकर निकालता है, निकलवाता है। निकालने वाले का अनुमोदन करता है। संसेवमाणे आवजा मासिवं परिहारहाणं उन्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. ४,सु.७३ आता है। चमणाइ-परिकम्म-पायच्छितसुत्ताई वमन आदि के परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र३७२. जे भिक्खू जपणं करेइ करत वा साइम्जा । ३७२. जो भिक्षु वमन करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू विरेयणं करो करतं या साइज। जो भिक्षु विरेचन करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू बमण-बिरेयकं करेइ करतं बा साहज्जा। जो भिक्षु वमन और विरेन करता है, करवाता है, करने बाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू अरोगे परिकम्म को करतं वा साजइ । जो भिक्षु रोग न होने पर भी औषधि लेता है ,लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमागे आवमा शाजम्मासियं परिहारट्रागं उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १३, सु. ४२-४५ आता है। गिहि तिगिच्छाकरण पायच्छित्तसुतं गहस्थ की चिकित्सा करने का प्रायश्चित्त सूत्र - ३७३. भिक्खू गिहितिगिराछ करेह करतं मा साइज। ३७३. जो भिक्षु गृहस्थ की चिकित्सा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवमा चासम्मासियं परिहारहाणं अपुग्पाह। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१२, सु. १३ आता है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! शुभ ३७४-३७६ निर्ग्रन्य द्वारा नित्य के पैरों आदि के परिकर्म कराने के सूत्र अगर वा गारस्थिए बा मज्जाबेज वा, एमज्जा वेश् वर, आमज्जायतं वा पमथावतं या साइज । (२) निग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी परस्पर चिकित्सा के प्रायश्चित्त णिग्गंथेण णिग्गंधस्सपायाह परिक्रम्म फारावण पायच्छित निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थ के पैरों आदि के परिक्रमं कराने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र - ३७४. जे ग्गिंध निरस पाए जा-भास गामाशुगामं हजमावस, अण्णउस्थिरण वा गारस्थिए वा सोमवारिय कारावेद, करावं यासा तं सेवमा आवश्य चान्यादि परिहारद्वाणं उत्पाह -- नि. उ. १७, सु. १५-६६ णिग्गंणा णिग्गंधी पायाइ परिकम्मका रावणस्स पाय सिलाई २०५ जागांची ए अण्णउत्थि एग बा, गारत्थएक बा आमज्जावेथ था, मज्जावेज वा आमज्जातं या, मज्जभ्वंतं वा साइज्जइ । जायजा निधी गिग्यंबोए मामाभुगामं दज्जमानीए अथिए वा गारत्वए चा करावे रात का सदम् । सेवमाने या परिष्द्वा" - नि.उ. १७, सु. १०० २३४ ग्गिंथीणा णिग्गंथ-क्षण' तमिच्छाकारावणस्स पायच्छित्त सुताई- २०६ जागांधी पिवत्स कासिवर्णअभ्यमिच या गारस्थिरण बा आमजावेज वा पावे घर आमज्जातं या पमज्जातं वा साइज्ज | ३७४. जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ के पैर का दीपा गृहस्थ से मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, मार्जन करवाने वाले का मोदन करे, पारिवाधार २६१ - धाक्दो नि प्रामानुराम जाते हुए निर्बन्ध के मस्तक को, -- मस्तक को, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु अन्यतीर्थिकमा गृहस्थ से, कवावे, रुवाने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक उद्घालिक परिहारस्थान (प्राय) आता है। निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थी के पैरों आदि के परिकर्म कराने के प्रायश्चित्त सूत्र ३७५. जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थों के पैर का अभ्यधिक या गृहस्य से मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाने मार्जन करवाने वाली का, प्रमाजन करवाने वाली का अनुमोदन करे यावत् जो निधी प्रामानुसार नाती हुई निधी के अम्पती या मुल्य से, ढकवाती है, ढकवाने वाली का अनुमोदन करती है । उसे पातुमासिक उद्यानिक परिहारस्थान (प्राय) आता है । निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के व्रणों को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित सूत्र ३७६. जो निर्मन्धी निर्त्रन्थ के शरीर पर हुए व्रण को - अभ्यर्थिया गुस्से, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, मार्जन करने वाली का प्रभाजन करवाने वाली का अनुमोदन करे । १ उपरोक्त दोनों सूत्रों के जाब की पूर्ति के लिए देखिए ब्रह्मचर्य महाव्रत के प्रायश्वितों में निन्यनिधी के प्रायश्चित सूत्र । ये सूत्रांक का संस्करण गुटके से उद्धृत है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] मरणानुयोग निन्थी द्वारा निग्रंथ के गुण्डादि की चिकित्सा कराने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ३७६-३७७ जा णिगंथी गिग्गयस कार्यसि वर्णअण्णउत्थिरण वा, गारथिएण दा, संबाहावेज्ज वा. पलिमहावेज वा, संबाहावेत वा, पलिमहावसं वा साइज्जद । जीन्थी निग्रन्थ के शरीर पर हुए आप कोअन्यतीथिक या गृहरय से, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करवाने वाली का प्रमर्दन करवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निर्गन्धी निर्ग्रन्थ के शरीर पर हुए व्रण पर, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, तेल-पाय-मक्खन, मलवावे, बार-शर मलवावे, मनवाने वाली का, बार-बार मलवाने बाली का अनुमोदन जा गिरगंथी जिग्गंयस कार्यसि वणं-- माउस्थिएण वा, गारस्थिएण वा, तेल्लेण वा,-जाव-गवणीएण था, मक्खावेज्ज वा, मिलिगावेज्ज वा, मक्खाबत वा, शिलिंगायत व साइज । जा गिपंथी णिगंथास कार्गसि यण जो निग्रंन्धी निर्ग्रन्थ के शरीर पर हुए वण पर, अण्णउस्थिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीचिक या गृहस्थ से, लोहेण वा, जाब-वणेण वा, सोध-यावत्-वर्ण का, उल्लोलावेज वा, उबट्टावेज वा, उबटन करवाये, बार-बार उबटन करवाये, सल्लोलायत था, उबट्टाषेत वा साइज्जइ । उबटन करवाने वाली का बार-बार उबटन करवाने वाली का अनुमोदन करे। जा जिग्गंधी णिग्गयस्त कार्यसि वणं जो निग्रंथी निमंन्थ के शरीर पर हुए व्रण को, अण्णउस्थिएण का, गारपिएणवा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, सीओरग-वियडेग वा, उसिगोवग-वियोण वा. अचित्त शीत जल से या अपित उष्ण जस से, उच्छोलावेज वा, पधोपावेज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोसावेत बा, पधोयावेत वा साइज्जइ । धुलवाने वाली का, बार-बार धुलवाने वाली का अनुमोदन करे। जा णिगंथी जिग्गंथस्स कायंलि वर्ण जो निग्रंन्धी निर्ग्रन्थ के शरीर पर हुए व्रण को, अग्णरिषएण वा, पारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, फूमावेज्ज वा, रयावेज्ज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमावत वा, रयावेतं पर साइन्जद । रंगवाने वाली का, बार-बार रंगवाने वाली का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवाजइ डम्मासियं परिहारट्ठाण उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि उ, १७, सु. २७-३२ आता है। णिग्यथिणा णिग्गंथ गंडाईगं तिगिच्छाकारायणस्स पाय- निग्रंथी द्वारा निर्ग्रन्थ के गण्डादि की चिकित्सा करवाने च्छित्तसुत्ताई के प्रायश्चित्त सूत्र३७१. जा गियो णिग्थस्स कायंसि-- ३७७. जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के शरीर पर हुए, गंवा -जाव-मर्गवलं वा, गण्ड-पावत्-भगन्दर को, अण्ण उस्पिएण या, गारस्थिएण बा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, अन्नवरेणं तिक्वेनं सत्यजाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, भन्छिदावेज घा, विच्छिदावेज्ज था, छेदन करवावे, बारस्वार छेदन करवावे, अग्छिवावेतं वा, विच्छिवावेत वा साहज्जइ। छेदन करवाने वाली का, बार-बार छेदन करवाने वाली का अनुमोदन करे। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३७७ निग्रंथी द्वारा निर्गन्य के गणादि की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चिस व चारित्राचार २६३ जा पिथी णिगंयस्त कार्यसिगंड वा-जाव-भगवसं वा अगउथिएण वा पारस्थिएण वा, अनयरेणं सिक्नेणं सत्यजाएणं, अन्छिदाविता वा, विक्टिवा वित्ता वा, पूर्व वा सोणियं वा, नौहरावेज्ज वा; विसोहावेज्ज मा, नीहररावेत श, विसोहावेतं वा साइज्जा। जा जिग्गंथी णिगंथस्स कार्यप्तिगई वा-जाव-मगंबसं वा, अम्गस्थिएग वा, गारथिएणमा, अन्नवरेण सिक्खे सस्थजाएणं, अहियावेत्ता वा. विच्छिवावेता बा, पूय वा, सोणियं वा. मोहरावेत्ता वा विसोहावेसावा, सीओदग-वियडेग वा, : सिणोदवियडेण वा, उच्छोलावेज वा धोयावेज या, उच्छोलावेत या, पधोबायत वा साइज्जद । जो निन्धी निर्ग्रन्थ के शरीर पर हुएगण्ड-यावद-भगन्दर को, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पोप या रक्त को, निकलवावे, शोधन करवावे, निकलवाने वाली का, शोधन करवाने वालो का अनुमोदन करे। जो निग्रंन्धी निग्रन्थ के शरीर पर हुए, गण्ड-यावत्-भगन्दर को, अन्यतीर्षिक या गृहस्थ से, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, उदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवा कर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण बल से, घुलवाये, बार-बार धुलवावे, धुलवाने वाली का, बार-बार धुलवाने वाली का अनुमोदन करे। जा जिग्गंधी णिग्यम्स कासि-- वाजाव-भगवसं वा, अण्णउश्चिएग वा, गारपिएक वा, अन्नवरेणं तिनेणं सत्थजाएणं, अच्छवावेत्ता वा, विग्छिवावेत्ता वा, पूयं वा, सोणियं वा, . नोहराबेला वा, विक्षोहावेसावा, सौओवग वियडेग वा, सिषीबग-विएडेप वा, उच्छोलावेत्ता वा, पधोयावेत्ता ना, अन्नयरेणं आलेवषमाएणं, आलिपावेज्ज वा विलिपावज्ज वा, आलिपावेत का, विसिपायेंतं वा साइज्जद । जो निम्रन्थी निग्रन्थ के शरीर पर हुएगई.-यावत् -भगन्दर को, अन्यतीर्थिक या गृहस्प से, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवाकर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धुलवाकर, बार-बार धूलवाकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप करवाये, बार-बार लेए करवावे, लेप करवाने वाली का, दार-गर लेप करवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निग्रंन्थी निम्रन्थ के शरीर पर हुए, गण्ड -यावत्-भगन्दर को, अन्यतीथिक या गृहस्य से, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, वेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पोप या रक्त को, निकलवाकर, गोधन करवाकर, जा गिगांथी णिगंथरस कार्य सि--- पंवा-जाव-भगंदलंबा, अग्णउस्थिएग वा, गारथिएण वा, अन्नवरेणं तिक्वेणं सस्थजाएणं, अक्सिवासा वा, विक्छियायेना चा, पूर्वगा, सोणिय वा, मोहरावेत्ता वा, विसोहावेत्ता वा, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] वरणानुयोग निन्धिी द्वारा निर्ग्रन्थ के कृमि निकलवाने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ३७७-३७६ सीओदग-वियडेग वा, उसिणोरग-वियोग वा, अभितशी पायपिस तन से, उच्छोलावेत्ता वा, पधोयावेत्ता वा, धुलवाकर, बार-बार घुलवाकर, अन्नपरेमं आलेषणजाएणं, अन्य किसी एक लेप का, आसिपाबेसा वा, विलिपावेसावा, लेप करवाकर, बार-बार लेप करवाकर, तेहलेण वा-जाव-णवणीएण वा, तेल यावत्-मक्खन, अगभगावेज्ज था, मक्खावेज वा, मलवाकर, बार-बार मलवाकर, अग्भंगावसं वा, मक्खायेंतं वा साइजइ । मलवाने वाली का, बार-बार मलवाने वाली का अनुमोदन करें। जाणिगंयो जिग्गयस्त कायंसि जो निग्रंन्थी निम्रन्थ के शरीर पर हुए, गंड वा-जाव-भगंडलं का, गर-यावत्--भमन्दर कोअण्णउस्थिएण वा, गारथिएग वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, अन्नयोग सिमखेणं सापजाएणं, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, अग्छिदावेत्ता वा, विच्छिदावेत्ता वा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पूर्व या, सोणियं वा, पीष या रक्त को, नीहरावेसा वा, विसोहावेत्ता वा, निकलवाकर, शोधन करवाकर, सीओवग-वियण वा, सिपोरग-बिपरेण वा, अचित्त शीत जल से मा अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलावेत्ता वा, पधोयावेत्ता वा, धुनवाकर बार-बार धुलवाकर, अन्न रेणं आलेवणजाएणं, अन्य किसी एक लेप का, आलिपावेता वा, विलिगवेत्ता था, नेप करवाकर, बार-बार लेप करवाकर, सेल्लेग वा, जाव-णवणीएण वा, तेल-यावत्--मक्खन, अम्भंगावेता बा, मखावेत्ता वा, मलवाकर, बार-बार मलवाकर, अन्नपरेणं घूषणाएणं था, किसी एक प्रकार के अन्य, धूप से, धूवायेज्ज वा, पधूवावेज वा. धूप दिलवावे, बार-बार धूप दिलवावे, घूवातं बा, पधूवावेत वा साइजइ । धूप दिलवाने वाली का बार-बार धूप दिलवाने वाली का अनुमोदन करें। तं सेवमाणे आवम्जइ चाउमासियं परिहारठाणं जापाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. र. १७, सु. ३५-३६ आता है। णिग्गथिणा जिग्गंयकिमिणीहरावणस्स पायच्छित्तसुर- निर्गन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के कृमि निकलवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ३७८. जा णिग्गंयो णिगंथस्स ३७८. जो निम्रन्थी निम्रन्य की, पालुकिमियं वा, कुन्छिकिमियं वा, अन्य उत्पिएण वा, गुदा के कृमियों को, कुक्षि के कृमियों को, गारथिएण या, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, अंगुलिए निवेसाविय निवेसाविय, जंगली उलवा-इलवाकर निकलवाती है या निकलवाने वाली नीहरावेह नोहरावेत दा साइज्जइ । का अनुमोदन करती है। तं सेवमाणे आवन्जइ चाउम्मासिय परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. ३६ आता है। णिगंथेण णिगंधी वण-तिगिच्छाकारावणस्स पायपिछत्त- निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के व्रणों की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र२७६. गिरगये णिग्यौए कार्यसि वर्ण--- ३७६. जो निनन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर पर हुए व्रण का, अण्णउत्पिएण या, गाररियएग वा, अन्यतीथिक या गृहस्य से, सुत्ताई Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३७६-३८० निप्रंग्य द्वारा निर्ग्रन्थी के गवादि को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सत्र चारित्राचार [२६५ आमज्जावेजम वा पमज्जावेज्ज मा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करदावे, बामजासं वा, पमज्जावेतं वा सहज्जा। मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे। जे गिरगये गिरगंधीए कार्यति वर्ग जो निन्य निर्जन्यी के शरीर पर हुए वण का, अण्णउत्यिएण या, पारस्थिएग बा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, संबाहेग्ज वा, पलिमहावेज वा, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाये, संशहावेत वा, पलिमहावसं वा साइजइ । मर्दन करवानेवाले का, प्रमर्दन करानेवाले का अनुमोदन करे। जे णिगंथे गिग्गंथीए कार्यप्ति वर्ण जो निर्गन्य निग्रंथी के शरीर पर हुए प्रण का, अम्पाउथिएण वा, गारथिएग वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, तेस्लेव वा-जाव-गवणीएचपा तेल-पावत्-मक्खन, मक्खावेज्न वा, मिलिंगावेज्ज वा, मलवावे, बार-बार मलवावे, मसावेतं का, मिलिंगाचतं वा साइन्जा। मलवानेवाले का, बार-बार मलबानेवाले का अनुमोदन करें। जिगांधे णिगंथीए कायति वर्ण जो निग्रन्थ निग्रंथी के शरीर पर हुए व्रण परअण्णउस्थिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, लोबेण वा-जाव-यग्ण वा. लोध-यावत्-वर्ण का, उल्लोलावेज्ज वा, उम्बट्टावेज वा, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उस्लोसायत वा, उज्वट्रावतं वा साहग्जद । उबटन करवाने वाले का, बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। ने णिगंथे णिगंथीए कायंसि यणं जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर पर हुए व्रण को, अण्णउस्थिरण वा, गारस्थिएण था, अन्यतीथिक या गृहस्थ द्वारा, सीओदग-वियर्डण वा, सिणोदग-वियण ना, अचित्त शीत जल से या अचित उष्ण जल से, उक्छोलाउज वा, पक्षीयावेज्ज था, घुलबावे बार-बार धुलवावे. उच्छोलात वा, पधोयावसं का साइजह । घुलवानेवाले का बार-बार खुलवानेवाले का अनुमोदन करे । मेणिगंथे णिग्गंधीए कापंसि वर्ग-- जो निग्रंथ निम्रन्थी के शरीर पर हुए श्रण को, अग्णउत्थिएम था, गायिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, फूमावेज वा, त्यावेज मा, रंगवावे बार-बार रंगबादे, फूमावेसं वा, रवावेंतं वा साइजमह । रंगवानेवाले का, बार-बार रंगवानेवाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवग्जद बातम्मासियं परिहारद्वाणं उग्वाइपं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. र. १७, सु ८०-८५ आता है। णिगंण णिम्गमी गंडाइ तिगिच्छाकारावणस्स पायपिछत्त- निग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के मण्डादि की चिकित्सा करवाने सुत्ताई के प्रायश्चित्त सूत्र -- ३५०. गिरगंये णिग्गंधीए कार्यसि - ३८०, जो निग्रंथ निग्रन्थी के शरीर के, गरवा, पिलग या, अरदयं वा, असिय ना, मगंबलं वर, गण्ड-पावत्-भगन्दर कोअग्पत्थिएण बा, गारस्थिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, अन्नयरेणं तिरसेणं सस्थताएणं. किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, किरायेज्ज वा विपिछवावेज्ज बा, छेदन करवाये, बार-दार छेदन फरवावे, अभिलवायतं वा, विच्छिवावेत वा साइम्जा । हेदन करवाने वाले का, बार-बार छेदन करवाने वाले का अनुमोदन करे. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] धरणामुयोग निग्रंथ द्वारा निर्गमी के गावि को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सत्र सूत्र ३. जे जिग्गथे णिग्गयोए कार्यसि - गई वाजाव-भगवसं वा, अग्णटत्यिएण वा, गारथिएण वा, अन्नवरेणं तिमखेगं सत्यजाएग. अच्छिवावेत्ता वा, विक्छिदाविता श्रा, पूर्व वा, सोणियं वा, नीहरावेज वा, विसोहावेज्म बा, मोहरावत या, विसोहायतं वा साइज्ज। ने णिग्गये णिग्गंधीए कायसिगांवा, जाव-भगंबलं वा, अग्णउस्थिएण वा, गारथिएण वा, अनयरेणं तिनेणं मरषजाए, अच्छिवावेत्ता बा, बिस्छिवासा वा, पूर्व वा, सोणिर्य वा, नोहरावेत्ता वा, विसोहावेत्ता वा, सोओवग-विपडेण वा, उसिणोवग-बियण वा, उपछोलावेज वा, परोयावेज्ज वा, उच्छोलावतं वा, पधोयावेत वा साइजा। मे गिग्गथे णिगंथीए कार्यसिगई वा-जाब-भगंदलं वा, अण्णरथिएण वा, गारथिएण वा, अन्नयरेण सिपखणं सस्यजाएगं, अच्छिवावेत्ता वा, विच्छिदावेत्ता बा, पूर्व बा, सोणिय वा, , नोहरावेत्ता वा, विसोहावेत्ता वा, सोओवग-विषरेण वा, उसिगोदग-बियण या, उच्छोलावेत्ता वा, पधोयावेत्ता वा, अन्नपरेणं आलेवगजाएग, आलिपराज बा, विसिपावज वा, आलियावेत या, विलियावेतं वा साइज्जद। जो निम्रन्थ निग्रंन्यी के शरीर के, गंडयावत्-भगंदर कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन कर, बार-बार छंदन कर, पीप या रक्त को, निकलवावे, शोधन करवावे, निकलवाने वाले का, शोधन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जो निम्रन्थ निग्रन्थी के शरीर के, गंड-शषत्-भगंदर को, अन्यतोथिक या गृहस्थ से, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, शर-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलाकर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण बल से, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, घुलवानेवाले का, बार-बार धुलवानेवाले का अनुमोदन करे। जो निग्रन्थ निग्रंन्थी के शरीर के, गंड-यावत्-भगंदर को, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शास्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पोप या रक्त को, निकलवाकर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धुलवाकर, बार-बार धुलवाकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप करवावे, बार-बार लेप करवावे, लेप करवाने वाले का, बार-बार लेप करवाने वाले का अनुमोदन करे। जो निग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर के, गंड---यावद-भगंदर कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवाकर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से, या अचित उप्ण जल से, घुलवाकर, बार-बार धुलवाकर, जे गिग्गरे णिगंथीए कार्यसिगंडवा-जाव-मगंदल वा, अण्णारस्थिएग या, मारत्पिएण वा, अन्नपरेग तिस्पेणं सत्यजाएन, च्छिवावेत्ता वा, विपिछवावेत्ता बा, पूर्व वा, सोणियं वा, नौहरावसा वा, विसोहावेत्ता पा, सोओषग-वियोण वा, उसिणोदविपण वा, उन्छोलावेत्ता बा, पोयावेसावा, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०-३१ निर्जन्य द्वारा निर्मन्बी के कृमि निकलवाने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार २६७ अन्नयरेगं आसवणजाएगं, अन्य किसी एक लेप का, आलियावेत्ता वा, विसिपावेत्ता पा, लेप करवाकर, बार-बार लेप करवाकर, तेलतेण वा-जाव-पवणीएण वा. नेन--कार-- 1, अम्मंगावेज वा, मायावेज वा, मलवावे, बार-बार मलवावे, असमंगायेंतं या, मक्खावेतं वा सामा। मलवानेवाले का, बार-बार मलवानेवाले का अनुमोदन करे। णि गंथे णिगंधीए कार्यसि - जो निम्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर के, गरं वा.-मान-मगंवलं वा, गण्ड-पाव-भगन्दर को, अण्णउत्पिएप वा, गारपिएण या, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, अनपरे तिवणं सत्यजाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, पिरामेसा बा, विच्छिवाषेत्ता बा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पूर्व वा, सोणियं या, पोप या रक्त को, नोहरावेत्ता वा, विसोहावेसावा, निकलवाकर, शोधन करवाकर, सीओवग-वियरेण वा, सिगोदग-वियोण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलावता दा, पधोयावेत्ता वा, धुलवाकर, बार-बार धुलवाकर, अनपरे आलेवगमाएणं, अन्य किसी एक लेप का, आलिशवत्ता वा, विलिपविता वा, लेप करवाकर, बार-बार लेप करवाकर, तेस्लेग वा-जाव-पवीएणबा, तेल-यावत्-मक्खन, अभंगावेसा वा, मक्खावेत्ता , मलवाकर, बार-बार मलबाकर, अन्नमरेगं धूवणजाएणं, किसी एक प्रकार के अन्य धूप से, धूवावेज वा, पधूमावेज्ज वा, धूप दिलवाके, बार-बार धूप दिलवावे, धूवावेतं वा, पकावेत वा साइन्जा । धूप दिलवाने वाले का, बार-बार धूप दिलवाने वाले का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. ८६.६१ आता है। णिगण णिग्गंधी-फिमीणोहरावणस्स पायपिछससत्तं- निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के कृमि निकलवाने का प्रायश्चित सूत्र३८१. जे मिरगये णिगयीए, ३८१. जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी की, पाकिमियं वा, गुदा के कृमियों कोसुच्छिकिमियं बा, और कुक्षि के कृमियों को, माउथिएग वा, गारहथिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, अंगुलिए निसाविय निधेसाविय नोहरावइ, नौहरात वा उंगली हलवा-हलवाकर निकलवाता है, निकलवाने वाले का साहज्जइ। ___ अनुमोदन करता है। संसेवमाणं आवज साउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइय। उसे चातुर्मासिफ उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १७, सु.६२ आता है। का KI Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] परवानुमोप बम को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र पूर्ण ३०१-३०३ (३) अन्यतीथिक या गृहस्थ द्वारा चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त वण तिगिमछाकाराषणस्स पायपिछत्तसुत्ताई-- व्रण की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्स सूत्र-- ३८२. जे भिक्बू अण्णस्थिएण वा, मारस्थिएण वा, अपणो कार्यसि ३८२. जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के वर्ग पण काआमज्जावेज्जा , पमरजावेज्ज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करावे, मामज्जातं वा, पमजावेतं वा सलज्जा। मार्जन करबाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे। बे मिक्यू अण्णउत्पिएप वा, गारथिएषा, अप्पणो कार्यसि जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के व्रण वणं--- कासंबाहावेज्न वा, पलिमहावेज वा, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करबाचे, संबाहात पा, पलिमहावेत वा साहजाद । मन रमवा पक, प्रधान करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्ल मजास्पिएणमा, गारस्थिएणवा, अप्पणो कार्यसि जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से मा गृहस्थ से अपने शरीर के अण वर्ण पर.. तेल्लेक वा-जाव-मवगीएणपा, सेल-यावत्-मक्खन, मसावेज्ज वा, मिलिंगावेजपा, मलवावे. बार-यार मलवावे, मक्खावतं दा, मिलिंगायतं वा साइजाइ । मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। मे भिगख अथिएगवा, गारस्थिएण वा, अप्पणी कायंसि जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के व्रण वर्ष सोडेग वा-गाव-वाणेक था, उस्लोलावेज्नवा, उम्बट्टावेज वा, उस्लोलावेतंबा, उबट्टायत, वा साइजह । मिक्बू अण्णउरिषएगवा, गारस्थिएणवा, अपणो कार्यसि बर्म--- सीमोरग-वियडेण वा, उसिगोववियोग वा, उन्छोलावेल वा, पधोयाषेज्ज वा, उच्छोलायत बा, पधोयावेत वा साइज्जा। लोध यावत्-वर्ण का उबटन करवाये, बार-बार उबटन करवाबे, उबटन करवाने वाले का, बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने शरीर से अण को अचित्त शीत जल से या अपित्त उष्ण जल से, धुलवाये, बार-बार धुलवाये, धुलवाने बाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के व्रण को में भिक्टू अण्णसथिएण पा, गारस्थिरणमा, अपणो कार्यसि रणंफूमावेल ना, त्यावेज वा, फूमावेश वा, रयात वा साइण्मद । रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। सेरमाणे भावजा नाउम्मासियं परिहारदाणं उन्धाइयं -नि. उ. १५, सु. २५-३० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३८३ गण मावि को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार २६६ गंडाइ तिगिच्छा करावणस्स पायच्छित्तसत्ताई-- गण्ड अादि की विभिनयाने के प्रायश्चित्त सत्र३८३.जे मिक्स अण्णउस्थिएग वा, गारस्थिएण श, अप्पणो ३६३. जो भिक्षु अन्यतौधिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के कार्यसि-- गंड पा-जाव-मगरलं वा, गण्ड-पावत्-भगन्दर को, अन्नयरेणं तिलंग सस्थजगएणं, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, मिटवावेज्ज वा विच्छिदावन या, छेदन करवावे, बार-बार छेदन करवावे, अपिछयायेतं वा, शिमछवावेतं वा साइज्जई। छेदन करवाने वाले का, बार-बार छेदन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिरवू अण्णउत्यिएणवा, गारस्थिएष वा, अपणो कार्यसि- जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने शरीर केगंडवा-जाव-मगंवलं वा, गण्डयावत्-भगम्बर को, भन्नयरेणं वा तिखेणं सत्यजाएग, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, आँस्छवाविता वा विच्छिवाषिता वा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पूर्य था, सोणिय वा, पीप या रक्त को, नौहरावेज वा, विसोहाविग्ज बा, निकलवावे, शोधन करवावे, मोहरायेतं वा, विसोहावेतं वा साइवाइ । निकलवाने वाले का, शोधन करवाने वाले का अनुमोदन करे । मे भिक्खू अण्णरिभएण था, गारथिएन वा, अप्पगो जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने शरीर केकार्यसि गंवा-जाव-मगंबलवा, गण्ड-यावत्-भगन्दर को, अनयरेणं तिक्षणं सस्थजाएण, अन्य किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, अन्छिवावेत्ता बा, विग्छिवावेसावा, खेदन करवाकर, बार-बार खेदन करवाकर, पूर्व भा, सोणिय वा, पीप या रक्त को, नोहरावेसा पा, विसोहावेत्ता वा, निकलवाकर, शोधन करवाकर, सीओबग वियरेग वा, उसिगोदग-वियरेख था, अचित्त शीत जल से या अपित्त उरुण जल से, उस्छोलान वा, पधोयावेज वा, धुलवाये, शर-बार धुलवाये, उन्होलावतं वा, पधोयावत वा साइज्जइ। धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने शरीर के-- में भिखू अगस्थिएण वा, गारस्थिएण वा, भप्पणो कार्यसिगडं वा-जाव-मगंवल वा, अन्नयरेणं सिखे ग सस्थजाएणं, मषिठवावेता वा, विक्टिवायेता श, पूर्व वा सोषियं या, नोहराबेसा वा, विसोहावेत्ता वा, सीओवग-वियोग वा, उसिणोदग-वियडेण वा, उन्होलावेत्ता वा, पधोयावेत्ता वा, अनपरे भालेवणजाएग, आलियन वा, विलिपावन ना, आलिपावेतं वा, विलिंपावसं वा साइजद। गह-यावत्-भगन्दर को, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवाकर, शोधन करवाकर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण अन्न से, धुलवाकर, बार-बार धुलवाकर, अन्य किसी एक प्रकार के लेप का, लेप करवावे, बार-बार लेप करवाये, लेप करवाने वाले का. बार-बार लेप करवाने वाले का अनुमोदन करे। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० घरेणानुयोग जे मिक्यू अण्णउत्थिए था, गारस्थिएन वर, अपणो कार्यसि वादलवा, अन्नप्ररेणं तिषों में सत्थजाए, छाता र विना पूर्व वा सोचियं वा मोहराता वा विसावा सोभोग-वियण वा उसिणोग-विमडेण वा, उच्छवासा वा पाया अरे वाए, वासिताबा तेल्लेण वा जाव णवणीए था, अभंगावे या मखावेज वा अभंगातं वा मवायें या साइज । जे भिक्खू अण्णउत्थिएण था, मारथिएण या अप्पणी कार्यसि गंड वा जान भर्गबलं वा, अधमरेगं तिक्लेणं स वा विवा पूयं वा, सोणियं वा, नीता या वि सीमोहन विद उच्छोलावेला वा अपयरे असेवग जाएगं, विि वा उसियोदय-विद्वेग या वातावा कृमि निकलवाने का प्रायश्चित्त शुभ तेरुलेण वा जाव णदजीएण वा, असा यामा अमरेषणमा गावेापावे वा वावा. पवावेत या साइज्जइ । तं सेवमाणे आवास परिहारार्थ उत्पाद नि. उ. १५, सु. ३१-३६ किमिणीहरावणस्स पायसिसुतं३८४. भिक्खू अण्णउरिएण वा गाररियएग बा, किमियं वा मंलिए निवेशानिय निबेसबियनोहरावेदनीरात सा तं वमाणे आवश्यक भाउम्नासियं परिहारद्वाणं धायं । नि. उ. १५, सु. ३७ जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्य से अपने शरीर के - गण्ड यावत्-- भगन्दर को. अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवाकर शोधन करवाकर अचित्त गीत जल से या अवित्त उष्ण जल से, धुलवाकर बार-बार धुलवाकर, अन्य किसी एक प्रकार का, लेप करवाकर बार-बार लेप करवाकर, तेल- यावत् मक्खन, मतवा, बार-बार मलवावे, मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन सूत्र ३८३-१८४ करे । जो भिक्षु अन्यतमे या गृहस्थ से अपने शरीर गण्ड- यावत् - भगन्दर को, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन करवाकर, बार-बार छेदन करवाकर, पीप या रक्त को, निकलवाकर, शोधन करवाकर, अति शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से. धुलवाकर बार-बार धुलवाकर, अन्य किसी एक प्रकार के लेप का, लेप करवाकर, बार-बार लेप करवाकर, तेल - पावत् --- मक्खन, मलवाकर, बार-बार मलवाकर, अन्य किसी एक प्रकार के घूप से, दिवा वार-बार धूप दिलवाने, धूप दिलवाने वाले का बार-बार धूप दिलवाने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक उद्भाविक परिहारस्थान (मानव) आता है । - कृमि निकलवाने का प्रायदिचत सूत्र२०४. जो भिक्षु अन्यत गुवा के कृमियों को और कृति के कृमियों को उँगली बलवा डलवाकर, निकलवाने, निकलवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायचित्त) आता है। 班 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२५-३५६ मम्यतीक्षिक या पहस्थ से प्रण की चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार २७१ (४) अन्यतीथिक या गृहस्थ की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स बणपरिकम्म पाच्छिस- अन्यतोथिक या गृहस्थ सेवण की चिकित्सा के प्रायश्चित्त सुत्ताई३८५. मंभिक्खू अग्ण स्थियम्स वा, गारस्थियस्स वा, कार्यसि ३८५. जो भिक्षु अन्यतीयिक या गृहस्थों के शरीर के व्रण का वणंआमज्जेज वा, पमज्जज्ज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जतं वा, पमज्जंतं वा साइजद । भाजन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्षु अपस्थियस्स पा, गारस्थियस्स वा, कार्यसि जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के शरीर के प्रण कावर्ग - संशहेज वा, पलिमज्ज वा, मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाये, संबाहेतं वा, पलिमहेंत वा साइज्जद । मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। ने भिक्खू अग्णउत्थियरस पा, गारस्थियस्त वा, कार्यसि जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के शरीर के व्रण परवर्षतहलेण दा,-जाव-णवणीएम वा, तेल-थावत्-मक्खन, मरखेज वा, मिलिगेज्ज वा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मवलतं वा, मिलिगंतं या साइमइ । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू अण्णउत्यियास था, ारत्यियस्स बा, कार्यसि जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थों के शरीर के व्रण पर पण लोशेण वा-जावन्यण्गेण बा, उल्सोलेन्स वा, उबवट्ट ज्ञवा, उकलोमेंतं बा, उम्पतं वा साहज्जा। लोध-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अन्यतीयिक या गृहस्थों के शरीर के वण को बेभिवत अण्ण स्पियरस या, गारस्थियस बा, कार्यसि वर्णसीबोग-वियरंग वा, उसिणोदग-वियरेण वा, उच्छोलेग्ज वा, पधोएन्ज वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, घुलवावे, बार-बार धुलवाये, धोने वाले का, बार-बार घोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अन्यतीयिक या गृहस्थों के शरीर के व्रण को उन्कोलंसं वा, पधोएंतं वा साइज्जा। में मिफ्लू अप्पडत्यियस्स बा, पारस्यियस्स बा, कासि बर्ग Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] वरणानुयोग अश्यतीपिक या गृहस्म की गण्डावि को चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ३५५-३८६ सुत्ताई फूमेग्ज वा, रएज्ज वा, रंगे, बार-चार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, फूमतं या, रएंतं वा साइज्जद । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्धाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११. सु. २३.२८ आता है। अण्णउस्थियस्स गारस्थियस्स गंडाइतिगिच्छाए पायच्छिस- अन्यतीर्थिक या गृहस्थ की गण्डादि की चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र - ३८६. में मिषलू अण्णउत्मियस्स वा, गारस्थियस्स वा, कार्यप्ति- ३८६. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के शरीर केगं वा-जाव-भगवलं वा, गण्ड--यावत्-भगन्दर को, अण्णयरेणं तिवंग सत्यनाए, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, अच्छिवेज्ज या, विच्छिरेग्ज या, छेदन करे, बार-बार छेदन करे, छेदन करवावे, बार-बार छेदन करवाये, अच्छिवेत या, विच्छिदेत या साइम्नह । छेदन करने वाले का, बार-बार छेदन करने वाले का अनु मोवन करे। जे भिक्ख अग्णउत्थियस्स वा, गारस्थियम्स वा, कायसि--- जो भिक्षु अन्यतीधिक या गृहस्थों के शरीर केगंड वा-जाच भगंदलं वा, गण्ड-मावत्-मगन्दर को, अण्णयरेणं सिक्वेण सत्यजाए, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, अच्छिादित्ता वा, विपिछविसा था, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पूर्व बा, सोणियं वा, पीप या रक्त को, नोहरेज वा, विसोहेज वा, निकाले, शोधन करे, निकलवावे, शोधन करवावे, नोहरतं वा, विसोहेंतं वा साइजाइ । निकालने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। मे मिमखु अण्णउत्थिपस्स था, गारस्थिपस्स या कार्यति- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थों के शरीर केगं वा-जाव-भगंदलं वा, गण्ड-यावत्-भगन्दर को, अग्णयरेणं तिक्लेवं सत्यजाएग, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छिरित्ता वा, विपिछवित्ता वा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पूर्व वा सोणियं वा, पीप या रक्त को, मोहरेता वा, विसोहेत्ता वा, निकाल कर, शोधन कर, सोमओवग-बियडेग वा. रसिणोदग-वियडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण अल से, उच्छोलेज्ज वा. पोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उपछोलेंतं या, पधोएतं वा साइरन । धोने वाले का, बार-बार धोने बोने वाले का अनुमोदन करे। जेभित्र अग्नउस्थियस वा, गाररियपस्स बा, काति- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थों के शरीर केगंवा-जाव-भगवसं वा, गण्ड-यावत्-भगन्दर को, अण्णयरेणं तिश्योगं सत्यजाएणं, अन्य किसी एक प्रकार के तीषण शस्त्र द्वारा, अच्छिवित्ता वा, विच्छिविता वा, छेदन कर, बार बार छेदन कर, पूर्व वा सोगियं वा, पीप मा रक्त को, नोहरेता पा, विसोहेत्ताबा, निकालकर, शोधन कर, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुष ३८६ अम्यतोषिक या गृहस्थ की गण्डादि की चिकित्सा के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [२७३ सोजोबग विपडेल बा, उसिणग-बियडेगा, छोलेता वर, धोएता वा, अण्णयरेणं आलेवणमाएणं, आलिज्ज बा, रिलिपेज वा, आलिपतं वा, विलिपंतं वा सावद। जे भिक्न अण्णउस्थियस्स बा, गारस्यियरस वा कार्यसिगई वा-जाव-मगंदलं वा, माणयरेन तिक्तेणं, सत्यजाएणं, आँच्छवित्ता वा, विञ्छिवित्ता वा, पूर्व था, सोगियं वा, नोहरेत्ता वा, विसोहेत्ताबा, सीओवग-वियन वा, उसिनोबग-वियोण वा, उच्छोलेसा वा, धोएसा वा, प्रणयरेणं आलेवणजाएणं, बासिपिता था, घिलिपित्ता वा, सेल्सेण वा-जाव-जवणीएण वा, अचित्त शीत जल से गा अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करवावे, बार-बार लेप करवावे, लेप करने वाले का, बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के शरीर केगण्ड-पावस--भगन्दर को, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अचिप्त शीत जल से या अपित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्---मम्खन, मले, बार-बार मले, मलदावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के शरीर केगण्ड - बावस्क-भगन्दर को, अन्य किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावद-मक्खन, मलकर, बारबार मलकर, अन्य किसी एक प्रकार के धूप से, घूप दे, बार-बार धूप दे, धूप दिलवावे, बार-बार धूप दिखबारे, धूप देने वाले का, बार-बार धूप देने वाले का अनुमोदन अभंगेज्ज वा, मक्खेत वा, अग्भगतं वा, मक्वेत या साइजह । जे मिक्खू अण्णउत्यियस्स वा, गारत्थियस्स वा, कायंसिपंवा-जाव-भगंबलं का, अम्गयरेण सिक्वेणं सत्यजाएणं, छिदित्ता वा, विच्छिरित्ता वा, पूरं बा, सोणिय वा, मोहरेता वा, विसोहेत्ता वा, सोमोबग-बियाण या, उसिणोग-वियडेण वा, उच्छोलेसा वा, पधोएता वा, अग्णयरेणं आलेवणजाएणं, आलिपित्ता पा, पिलिपित्तावा, तेल्लेण वा-जाद-णवणीएणवा, अमंगेत्ता वा, मरलेत्ताबा, • अण्णयरेणं धूबणजाएणं, धूवेज्ज वा. पधूवैज्ज वा, पूर्वत वा, पतं वा साइम्जा। करे। तं सेवमाणे मावज्जह चाउम्मातियं परिहारद्वाजं अणुराय। -नि.उ. ११, सु. २६-३४ उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] दाणानुपोग अश्यतीधिक या गृहस्थ के कृमि निकालने का प्रायश्चित पूत्र सूत्र ३८७-३६१ सूत्र अण्णउत्थियस्स गारस्थियस्स किमिणिहरणस्स पायपिछत्त- अन्यतीथिक या गृहस्थ के कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सुत्तं३७. भिक्खू अण्णउस्थियरस वा, गारस्थियास वा, ३८७. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थों के-- पासु-किमियं षा, कुच्छि-किमियं ग, गुदा के कृमियों को और कुक्षि के कृमिमों को अंगुलीए निवेसिय नियेसिय, उंगली डाल-डालकर, मोहरह, मोहरतं वा साइजह । निकालता है, निकलवाता है, या निकालने वाले का अनु मोदन करता है। त सेवमाणे आवग्न बाउमासियं परिहारदाणं अगुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ११, सु. ३५ माता है । आरम्भजन्य कार्य करने के प्रायश्चित्त-६ दगणालियाकरण पायच्छित्त सुतं-- पानी बहने की नाली निर्माण करने का प्रायश्चित्त सूत्र१८. भिक्खू बगवीणियं ३८८, जो भिक्षु पानी बहने की नाली का निर्माणसयमेव करत करत वर साइजद । स्वयं करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवाहमासिपं परिहारट्ठाणं उबाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. २, सु. ११ आता है। सिक्कग-कर-पायच्छित्त सुत्तं छों का निर्माण करण प्रायश्चित्त सूत्र३६. जे भिक्खू सिरकगं वा, सिक्कगणंतगं वा, ३८६, जो भिक्षु छींका तथा छीके की डोरियों का निर्माणसयमेव करेह करतं वा साइजइ । स्वयं करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे भावजई मासियं परिहारहाणं उम्पादयं । असे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, सु. १२ आता है। पचमगाइकरण पायपिछत्त सुत्तं पदमार्गादि निर्माण करने का प्रायश्चित्त सूत्र-- ३९०. जे भिक्खू पयममा या, संकम बा, मालंजणं वा, ३९०. जो भिक्षु पदमार्ग, संक्रमणमार्ग या पालम्बन का सयमेव करेड, करतं वा साइज्जद । स्वयं निर्माण करता है, करवाता है, करने वाले का अनु मोदन करता है। तं तेवमाणे भावग्मइ मासियं परिहारठाणं डाघाइयं। उसे लघु-मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, सु. १० आता है। पयमग्गाइ णिम्माण करण पायच्छित सुसं पदमार्गादि निर्माण सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र३६१. जे मिक्खू पदमागं वा, संकम वा, अवलंबकं या ३६१.जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ मे पगडण्डी, पुल या अबलम्बन का, अण्णबल्पिएण मा, गारस्थिएग वा कारेहकारत वा साइजह। निर्माण करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६१-३१३ बमावि परिकार सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र परित्राचार [२५५ जे निवडू वगोणियं जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से, अण्णउरियएग वा गारथिएण वा पानी निकालने की नाली का, कारेदकारतं वा साइजह । निर्माण करवाता है, करजाने वाले का अनुमोदन करता है। से भिक्खू सिक्कगणंतगं वा जो भिक्षु अन्यत्तीथिक से पा गृहस्थ से, अण्णउत्पिएण वा, गारस्थिएग या छींका, छीके को होरियों का, कारेकारतं मा साइजह । निर्माण करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू सोसिप का, रज्जयं वा, चिलिमिलि वा जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से, अण्णाजस्थिएग या, गारथिएज या सूत की रस्सी या चिलिमिली का, कारेर कारतं वा साइज्जइ। निर्माण करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्नइ मासियं परिहारद्वाणं अस्वाइयं । उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. ३. १. सु. ११-१४ आता है। बंडाइ परिकम्मस्स पायच्छित्त सुतं दण्डादि परिस्कार सम्बन्धी प्रायश्चित्त-- ३९२. मे भिक्खू वंडर्ग वा, लद्वियं बा, अवलेहणं वा, वेण सूइमं या, ३६२. जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका या बांस की सूई का सयमेव परिघट्टो वा, संठवेद वा, जमायेइ वा, स्वयं निर्माण करता है. आकार सुधारता है, विषम को सम करता है, निर्माण करवाता है, आकार सुधरवाता है, विषम को सम करवाता है, परिघटेत वा संवत चा नमात वा साइम्मइ । निर्माण करने वाले का, अाकार सुधारने वाले का, विषम को, सम करने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणे आवजह मासिवं परिहारद्वाणं उग्घायं । उसे मामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. २, सु. २६ आता है। वारूवंडकरणाईणं पायपिछस सुत्ताई दारूदण्ड करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्रभिक्खू सचित्ताई-१-बार वाणिवा, २. वेणु-मंडाणि ३६३. जो भिक्षु (१) सचित्त काष्ठ का दण्ड, (२) सचित्त बांस वा, ३. वेत्त-दंडाणि वा- . का दण्ड और (३) सचित्त बेंत का दण्ड करेइकरतं वा साइज्ज। बनाता है, बनवाता है, बनाने वाले का अनुमोदन करता है। अभिनय सचित्तार-बार-शाणि वा-जाब-वेत-पंडागि वा जो भिक्षु सचित्त काष्ठ का दण्ड-यामत-सचित्त बेंत का । धरोह, धरत पा साइजह। जेभिक्स बिताई-बाल-वंडाणि वा-जाद-वेत्त-वंशमणि था परिमुंबइ, परिमुंजतं या साइन्मा। धरा रखता है, धरा रखवाता है, धरा रखने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु सचित्त काष्ठ के वण्ड-यावद-सचित्त बेंत के दण्ड का परिभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु काष्ठ के दण्ड को---यावत्-बेंत के दण्ड को, रंगता है, रंगवाता है, रंगने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु काष्ठ के दण्ड को-यावत्ये त के दण्ड को रंग कर घरा रखता है, धरा रखबाता है, घरा रखने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिक्खू चित्ताई-बाल-वाणि वा-जाव-वेस-शणि वा कोड, फरस वा साइज ने मिस् बिसाई-बह-शागि वा-जाय-बेत्त-शागि वा परेड, परत वा साइजा । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] बरगानुयोग सूई मावि परिस्कार के प्रायश्चित्त सूत्र से भिक्खू पित्ताई-वाह-वाणि वा-जाव-वेत-शाणि या जो भिक्षु रंगे हुए काष्ठ के दशष्ट का-पावत-सचित्त बेंत के दण्ड का परिभुंबड परि जतं वा साहज्जा। परिभोग करता है, करदाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू विश्चित्ताई–चारु-दंडाणि बा-जाव-वेत्त-णि या जो भिक्षु काष्ठ के दण्ड को-यावत्-वेंत के दण्ड को करेड, करतं वा साइजा। दुरंगा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्बू विचित्ताई-वाह-वंजाणि दा-जाव-वेस-वंहाणिवा जो भिक्षु काष्ठ के दण्ड को-यावत-बत के दण्ड को धरेइ, घर वा साइन । दुरंगा करके धरा रखता है, धरा रखवाता है, घरा रखने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू विचित्ताई- वाणिवा-जाव-बेत्त-शणि या जो भिक्षु दुरंगे काष्ठ के दण्ड का ---पावत् -दुरंगे बेंत के दण्ड का परि जह, परिश्रृंजतं वा साइज्जा। परिभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आपम्जा मासिय परिहारद्वाणं उग्धाइम। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. ५, सु. २५-३३ आता है। सुईयाईणं सरकरण पायच्छित्त सत्ता सूई आदि के परिष्कार के प्रायश्चित्त सूत्र३६४.जे मिक्खू सुईए उसरकरणं ३९४. जो भिक्षु सूई का उत्तरकरण (परिष्कार) सयमेव करत करत वा साइजह । स्वयं करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू पिप्पलएस्स उत्तरकरगं जो भिक्षु कैची का उत्तरकरण सयमेव करो, करतं या साइन । स्वयं करता है, करवाता है करने वाले का अनुमोदन करता है। के भिक्खू महन्छयणगस्स उत्तरकरणं - जो भिक्षु नखछेदन का उत्तरकरण सयमेव करे, रत वा साइमना । स्वयं करता है। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिस कणसोहणगस्त उत्तरकरणं - जो भिक्षु कर्णशोधन का उत्तरकरण सपमेव करेइ, करस वा साइजर। स्वयं करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह मासिय परिहारहाणं उग्याइयं । उस भिक्षु को मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, सु. १४-१७ आता है। सूईआईणं अण्णउस्थियाइणा उत्तरकरणस्स पायच्छित अन्यतीथिकादि द्वारा सूई आदि के उत्तरकरण के प्रायसुत्ताई श्चित्त सूत्र३६. भिक्खू सुईए उत्तरकरण ३६५. जो भिक्षु सूई का उत्तरकरण (परिष्कार) भण्डस्थिएण बा, गारस्थिएण का, अन्यतीथिकों से या गृहस्थ से कारेति, कारेत या साइज्जइ । करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। हा Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३९५-३१० बिना प्रयोजन सूई आदि याचना का प्रायश्चित्त सत्र चरित्राचार [२७७ - - - - जे भिक्खू पिपलगस्त उत्तरकरणं जो भिक्षु कैची का उत्तरकरणअण्णस्थिएण वा, गारस्थिएग वा अन्यतीथिक से या गृहस्थ से कारैति, कारत वा साइज्जइ। करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू नहायणगस्स उत्सरकरण जो भिक्षु नखछेदनक का उत्तरकरणअण्णउस्थिएण वा, गारस्थिएन या अन्यतीथिक से या गृहस्थ से कारेति, कारत वा साइज्जा। करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू कग्णसोहणगस्स उत्तरकरण जो भिक्षु कर्णशोधनका का उत्तरकरणअण्गस्थिएण या, गारस्थिएण वा अन्यतीधिक से या गृहस्थ से कारेति कारतं वा साइज्जइ। करवाता है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आबज्जइ मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं । उस भिक्षु को मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्राय -नि. उ. १, सु. १५-१५ श्चित्त) आता है। सई आईणं अणद्र जायणा करणस्स पायच्छित्त सत्ताई- बिना प्रयोजन सूई आदि याचना का प्रायश्चित्त सत्र३५६. जे मिक्खू अणद्वाए सूह ३४६, जो भिनु बिना प्रोडर मई की याचना . जाएइ जायंतं वा साइज्जइ। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिमखू अगदाए पिप्पलग जो भिक्षु बिना प्रयोजन कैपी की याचनाजाएर जायंतं वा साइज्ज। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू अणद्वाए नहन्छयणग जो भिक्षु बिना प्रयोजन नखछेदनक को याचनाओएइ जायंत या साइम्जा । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू अणट्ठाए कम्गसोहणगं जो भिक्षु बिना प्रयोजन कर्णशोधनक की याचनाजाएर जयंतं का साइज्जइ। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । त सेवमाणे आवजह मासियं परिहारद्वाण अणुग्याइयं । उस भिक्षु को मासिक अनुदासिक परिहारस्थान (प्राय -नि, उ, १, सु. १६-२२ श्चित) आता है। सई आईणं अविहि जायणा करणस्स पायच्छित सत्ताई- अविधि से सूईआदि याचना के प्रायश्चित्त सूत्र३६७. ने भिक्खू अविहीए सूई-- ३६७. जो भिक्षु अविधि से सूई की याचना-- जाएइ जायंत वा साइज्मह । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। के मिक्स अविहीए पिप्पलग जो भिक्षु अविधि से कैची की याचना-- माएह जायंत वा साहजई । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू अविहीए नहच्छयणगं जो भिक्षु अविधि से नखछदनक की याचनाजाएर जायंते वा साइज्जह । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू अविहीए कण्णसोहगर्ग जो भिक्ष अविधि से कगंशोधनक की याचनाजाएइ मायसं वा साइज्जइ । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवस्जद मासियं परिहारदाणं उधाइयं । उस भिक्षु को मासिक अनुातिक परिहारस्थान (प्राय -नि. उ. १, सु. २३-२६ श्चित) आता है। सूई आईणं विपरीयपओगकरणस्स पायच्छित सुत्साई- सूई आदि के विपरीत प्रयोगों के प्रायश्चित्त सूत्र३६५.जे भिक्खू पाबिहारियं सूा जाता ३६. जो भिक्ष पाडिहारिय=प्रत्यर्पणीय सूई की याचना करकेपर सिविस्सामि त्ति पापं सिवा सिस्वंतं वा साहज्जा। "वस्त्र सीवंगा" ऐसा कहने के बाद पात्र सीता है, सीवाता है, सीने वाले का अनुमोदन करता है। ....: Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] चरणानुयोग जे मिक्यू पारिहारि पियल जाइता - वत्थं छिस्तिमिति पायं छिवइ छिनं वा सादज्जइ । के पि बाहिरियं नष्ठेय नहं द्विदिसमिति मिपारिहारि रुग्ण मोहरतं वा साइज सोहम माइ निहरिस्तामिति तथा महामोहर सूईं आदि के अयोग्य प्रदान कर प्रायश्चित सूत्र आइसाकरकरे का तं सेवमाणे आवश्जद मातियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइपं । नि. उ. १, सु. २७-३० सूई आईनं अयमरणदास पायच्छित सुताई३१८. जे मिक्सु अपनो एवहस अट्ठाए सूई माताअयमरणस्स अनुप्यवेह अणूप्पर्वतं या साइज्जइ । जे भिक्लू अत्यको एगस्स अट्ठाए विलगं आइसाणणणुपदे या साइ जे भिक्खू अपणो एगस्स बट्टाए छेपण जातामस्त अणुपदे अध्वा साइज । भिम अपणो एगल्स अडाए कम्णसोहण जाइता--- क्षणमा अणुपदे अणुष्यवंत या साज्जइ । ४००. जे भिक्खू गिहू- धूमे तं सेवमाणे आवजह मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाह - नि. उ. १, सु. ३१-३४ अष्णउत्पिण गारत्विरण गिधूम परिसाच्य पायच्छित सुतं अम्पउथिए वा गारयिण वा परिवार साहन परि तं सेवमाणे आज माहि परिहारानं अनुन्धा जो पारिहार कमी की याचना करते"वस्त्र काटूंगा" ऐसा कहने के बाद पात्र काटता है, कटवाता है, काटने वाले का अनुमोदन करता है। वो को माना करके"नख कादूंगा" ऐसा कहने के बाद कांटा निकालता है,वाता है, निकालने का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु पाडिहारिय कर्णशोधनक की याचना करके"कान का मैल निकालूंगा" ऐसा कहने के बाद दाँतों का या नखों का मैल मिलता है, निकलवाता है, निकालने वाले का अनुमोदन करता है । सूत्र ३६८-४०० उसे मासिक अनुद्घाटिक परिहारस्थान (प्रायश्चित जाता है । — सूई आदि के अन्योन्य प्रदान का प्रायश्चित सूत्र - ११. वो अपने लिए "ई" की याचना करता है (और वह याचित सूई) दूसरों दूसरों को देता है, दिल है, देने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु केवल अपने लिए "कैची" की याचनाकरता है ( और वह याचित कंची) दूसरों दूसरों को देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु केवल अपने लिए "नखवेदनक" की या वनाकरता है (और याचित नखच्छेदन) दूसरों दूसरों को देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु केवल अपने लिए "कर्मशोधनक" की वाचनाकरता है और वह याचितकर्मशोधनक) दूसरों दूसरों की देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक अनुपातिक परिहारल्यान ( प्रायश्वित) आता है । अन्यतीर्थिक और गृहस्थ से गृहधूम साफ कराने का प्रायश्वित मूत्र- ४०० मि को - नि. उ. १, सु. ५७ आता है । 樂 -- अत्यधिक से या गृहस्थ से साफ करवाता है, साफ करवाते हुए का अनुमोदन करता है। उसे माfee अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्वित) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम महावत का परिशिष्ट चारित्राचार [२७६ प्रथम महाव्रत का परिशिष्ट-१ ४०१. [पुरिम-पच्छिमगाणं तित्यगराणं पंचजामस्स पणवीस भाव- ४०१. प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों ने पांच महाव्रतों को पच्चीस गाओ पण्णत्ताओ तं जहर भावनायें कही हैं । यथापढम महव्ययस्स पंच भावणाओ प्रथम महाव्रत की पांच भावनायें [प्राणातिपात-विरमण या अहिंसा महावत की पांच भावना-] १. ईरिसमिई २. मणगुत्ती (१) ईर्या समिति (२) मनोगुप्ति ३. बरगुत्ती ४. सालोयपापमोह ३. बस (४) आलोकित-पान-भोजन ५. बादाण-भव-मसणिवखेवणासमिई। –सम, २५, सु. १ (५) आदानभांड-मात्रनिक्षेपणासमिति । तस्स इमा पंच मावणाओ पढमस्स वयस्स हाँति-पाणाह- पांच महानतों (संवरों) में से प्रथम महानत की ये-आगे वायवरमण-परिरक्षणयाए। कही जाने वाली पांच भावनाएँ प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महायत की रक्षा के लिए है। पढम्श भावणा प्रथम भावनापढम ठाण-गमण गुण जोग-गुंजणजुगतर-णिवाइयाए दिट्ठिए खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारियवं, रहिततता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग (जुने) प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से (अर्थात् लगभग चार हाथ कीड पयंग-तस-यावर-वयावरेण णित्रं पुष्फ-फल-लय-पवाल- आगे की भूमि पर दृष्टि रखकर) निरन्तर कीट, पतंग, स, कर-पूल-ग-मट्टिय-यीय-हरिय-परिवज्जिएण सम्म । स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फूल. फल, छाल, प्रवाल, -पत्ते-कोंपल, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं हरितकाय-दूब आदि को (कुचलने से) बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से-यतना के साथ चलना चाहिए। एवं खलु सम्वपाणा, होलियस्या, पगिनियल्वर, गगर- इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त अर्थात् हिमव्वा, गहिसियथ्या, पछिपियवा, णमिवियटवा, ण किसी भी प्राणी की हीलना - उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, निन्दा वहेयध्या, ण मयं दुक्खं च किधि सामा पावेज, नहीं करनी चाहिए, गहरे नहीं करनी चाहिए। उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। उनका छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन नहीं करना चाहिए, उन्हें व्यथित नहीं करना चाहिए। इन पूर्वोक्त जीवों को लेशमात्र भी भय या दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए। एवं इरियासमिइ जोगेण माविमो भवद अंतरप्पा असबल- इस प्रकार (के आचरण) से साधु ई समिति में मन, मसंकिलिट्टणि वणचरित्तभाषणाए अहिंसए संजए सुसाहू। वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है। तथा शबलत! (मलीनता) से रहित संक्लेश से रहित अक्षत (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाघु कहलाता है-मोक्ष का साधक होता है। १ यह पाठ समवायांग का है-अतः एक साथ पांच महावत की पच्चीस भावनाएं कही गई हैं। यहाँ प्रत्येक महावत की पांच-पांच भावनाएँ यथास्थान दी गई हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० वरणानुयोग प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं सूत्र ४०१ विया भावणा द्वितीय भावना--- बिइयं च मणेण पावएर्ण पावगं अहम्मियं वारुणं णिसंसं दूसरी भावना मनः समिति है। पापमय, अधार्मिक-धर्मबह-बंध-परिकिलेस महल भय-मरग-परिकिलेससंकिलिट्ट, विरोधी, दारुण- भयानक, नृशंस-निर्दयतापूर्ण, वध, बन्ध ग कणव मगेण पावएणं पावर्ग किचि विप्रायवं। और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं सेश से संक्लिष्ट-मलीन ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भयह अंतरप्पा असमलमसंकि- करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से-मन समिति की लिटुणिवणचरिसमावणाए अहिंसए संजए सुत्साहू । प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित -वामित होती है तथा निर्मल संक्लेशरहित, अखण्ड (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्त संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता हैं। तझ्या भावणा तृतीय भावना-- तवं च वईए पाबियाए पावगं ण किचि वि मासियछ। तीसरी भावना वचन समिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त-सावध यचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एवं बह-समितिजोगेण भाविओ भवा अंतरप्पा असबल- इस प्रकार की वाक् समिति (भाषा समिति) के योग से युक्त मसंकि लिट्ठ-णिस्वण-धरित्त-मावणाए अहिंसए संजए सुसाहू । अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेश रहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है-मोक्ष का साधक होता है। चजत्था भावणा चवस्थं आहारएसणाए मुरउ गथेसियवं, चतुर्थ भावना चौथी भावना निर्दोष आहार लेना है। आहार की एषणा से शुद्ध-एषणा सम्बन्धी समस्त दोषों रो रहित, गधुकरी वृत्ति से—अनेक घरों से भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए अण्णाए अहिए अपडिए अपुढे अवीणे अकलुणे अविसाई भिक्षा लेने वाला साधु अज्ञात रहे अज्ञात सम्बन्ध बाला रहे, अपरिसंतजोगी जयण-घडग-करण-धरिय-विषय-गुण-जोग- अमृद्ध गृद्धि-आसक्ति से रहित हो, अदुष्ट-द्वेष से रहित हो, संपओगजुसे मिक्खू भिसणाए जुत्ते समुदाणेउण... अर्थात् भिक्षा न देने वाले, अपर्याप्त भिक्षा देने वाले या नीरस भिक्षा देने वाले दाता पर द्वेष न करे । करुण दयनीय-दयापात्र न बने । अलाभ की स्थिति में विषाद न करे। मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में निरन्तर निरत रहे । प्राप्त संयम योगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षुक अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे । मिक्खाचरियं उछ घेतग आगओ गुरजगस्स पास गमणा- भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जानेगमगाइयारे परिकमणपशिकते मालोयणवायणं य बाउण आने में लगे हुए अतिचारों दोषों का प्रतिक्रमण करे। गृहीतगुरुजगस्स गुरुसंविटुस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्प- आहार-पानी की आलोचना करे। आहार-पानी उन्हें दिखला दे, मत्तो पुणरवि अगेसगाए पयओ पशिक्कमित्ता। फिर गुरुजन के मथवा गुरुजन द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार सब अतिचारों-दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] घरगानुयोग भारम्भ-सारम्भ-समारम्भ के सात-सात प्रकार सूत्र ४०१-४०४ संजमेणं णिचं परिहण परफोडण-पमज्नणयाए अहो ३ धारण-ग्रहण करना चाहिए। (शोभावृद्धि आदि किसी अन्य राओ य अप्पमण होइ सव्यं णिश्खियध्वं च गिम्हियवं प्रयोजन से नहीं)। साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, च मायणगोवहिउषगरणं । प्रस्फोदन- रमानि करी में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन-पात्र, भाण्ड--मिट्टी के बरतन, उपधि-बस्त्र आदि तथा अन्य उपकरणों को यतना पूर्वक रखे या उठाए। एवं आयाणभंडणिक्खेवणासमिहजोगेण भाविओ भवई अन्तः इस प्रकार आगन निक्षेपण समिति के योग से भावित रख्या असबलसकिलिटि णिय्यणचरितमाषणाए अहिंसए अन्तरात्मा-अन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा संजए सुसाहू। मन्बण्ड (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्ता अहिंसक संयम–पण्ह. सु. २, अ. १, सु. ७-११ शील सुसाधु होता है । उवसंहारो उपसंहार४०२. एषमिण संवरस्स गरं सम्म संवरिय होइ मुप्पणिहियं । ४०२. इस प्रकार मन, वचन और याय से सुरक्षित इन पांच इमेहि पंचहि नि कारणेहि मग-यण-काय परिरक्सिएहि भावना रूप उपायों से यह अहिंसा-संवरद्वार पालित-सुप्रणिहित गि आमरणतं च एस भोगी मञ्चो धिइमया मइमया होता है। अतएव धैर्यशाली और मतिमान पुरुष को सदा जीवन अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिक्सावी असंकिसिटी पुडो पर्यन्त सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए। यह अनासम्वजिणमणुग्णाओ। स्रव है, अर्थात् नवीन कर्मों के आसन को रोकने वाला है, दीनता से रहित है, कलुष-मलीनता से रहित और अच्छित-अनास्रवरूप है, अपरिखावी-कर्मरूपी जल के आगमन को अवरुद्ध करते वाला है, मानसिक संक्लेश से रहित है, गुर है और सभी तीर्थ करों द्वारा अनुज्ञात-अभिमत है। एवं पडम संबरदार कासियं पालि सोहियं तीरिय किट्टियं पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संदरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित आराहियं आगाए अणुपालियं भवइ । होता है, शोधित होता है, तीणं-पूर्ण रूप से पालित होता है, एवं णायभुगिया माझ्या पणवियं पसिद्ध सि सिसवर- कौतित, आराधित और (जिनेन्द्र भगवान की) आज्ञा के अनुसार सासणमिणं आपविय सुवेसियं पसस्य । पालित होता है। ऐसा भगवान् ज्ञात मुनि - महावीर ने प्रज्ञा-- पण्ह. सु. २, अ. १, सु. १२-१४ पित किया है एवं प्ररूपित किया है। यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है। सत्त-सत्तविहे आरम्भे, सारम्भे, समारम्मे आरम्भ-सारम्भ-समारम्भ के सात-सात प्रकार४७३, सप्तविहे भारम्भे पण्णसे, ते महा ४०३. आरम्भ सात प्रकार का कहा गया है । जैसे१. पुरवीताइय भारम्भे, २. माउकाइय आरम्भे, (१) पृथ्वीकायिक-आरम्भ, (२) अप्कायिक-आरम्भ, ३. ते उकाइय आरम्भे, ४. वारकाइय भारम्भे, (३) तेजस्कायिक-आरम्भ, (४) वायुकायिक-आरम्म, ५. वणस्सइकाइय आरम्ये, ६. सकाइय आरम्भे, (५) वनस्पतिकायिक-आरम्भ (६) वसकायिक आरम्भ, ७. अजीवकरइय आरम्भे । (७) अजीवकाम-आरम्भ । सत्तविहे सारम्मे पण्णते, ते महा-पुतविकाइयसारम्भे जाव- सारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे . अजीयकाइयसारम्भ। पृथ्वीकायिक-सारम्भ-न्याय-अजीवकाय सारम्भ । सत्तविहे समारम्झे पण्णते, तं बहा-पुतविकाायसमारम्भे समारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे जाव-अजीवकाइयसमारम्भ। -ठाणं. अ. ७, सु. ५७१ पृथ्वीकायिक-समारम्भ-यात-अजीवकाय समारम्भ । सत्स, सत्तविहे अणारंमे, असारंभे, असमारंभे ये अनारंभ असारंभ और असमारंभ के सात-सात प्रकार४०४. सत्तविहे अणारम्भे पण्णते, तनहा .. ४०१. अनारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे१. पुषिकाइयअणारंभ, २. आउकाइपअणारम्भे, (१) पृथ्वीकायिक अनारम्भ, (२) अप्कायिक अनारम्भ, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४०४-४०६ आठ सूक्ष्म जीवों की हिंसा का निषेध बारित्राचार [२८३ ३. तेउकाइयअणारम्भे, ४. माउकाइपअपारसमे, (३) तेजस्कायिक अनारम्भ, (४) वायुकायिक अनारम्भ, ५. वमस्सइकाइयअगारम्भे, ६. तसकाइयअणारम्भ, (५) वनस्पतिकायिक अनारम्भ, (६) सकायिक अनारम्भ, ७. अजीवकायमणारम्भ, (७) अजीवकाय अनारम्भ । सत्तविहे असारंभे पण्णले, तं जहा-पुढविकाक्ष्यअसारभे असारम्भ सात प्रकार का कहा गया है । जैसे पृथ्वीकायिक -जाब-अजीवकायमसार । असारम्भ-पावत-अजीवकाय असारम्भ। सत्तविहे असमारमे पण्णसे, तं जहा-पुरविकाइयभसमारंभे असमारम्भ सात प्रकार का कहा गया है। जैसे-पृथ्वी -जाय-अजीवकाइय असमारंमे। -ठाण. अ. ७, सु. ५७१ कायिक असमारम्भ-यावत् -अजीवकाय असमारम्भ । अट्ठमुहमजीवाणं हिसा णिसेहो आठ सूक्ष्म जीवों की हिंसा का निषेध४०५. अट्ट सुडमाई पेहाए, जाई जाणिसु संजए। ४०५. संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म (शरीर वाले जीवों) को क्याहिगारी भूएसु, आस चिटु सएहि वा ।। देखकर बैठे, खड़ा हो और सोए। इन सूक्ष्म-शरीर वाले जीवों को जानने पर ही कोई सब जीवों की दया का अधिकारी होता है। अट्ठ सुहमाइं आठ सूक्ष्मप०-फयराई अटु मुटुमाई, जाई पुच्छेज्ज संजए। -वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? संयमी शिष्य यह पूछे इमाई साइं मेहावी, आइक्वेज वियफ्षणो।। तब मेधावी गौर विचक्षण आचार्य कहे कि वे ये हैउ.-१ सिणे २ पुष्कसुहर्म प, ३-४ पातिगं तहेव य । उ०—(१) स्नेह, (२) पुष्प, (३) प्राण, (४) उतिग, (५) ५ पणगं ६ मीयं हरियं च, ८ अंउसुहम च अट्ठमं ।।। काई, (६) बीज, (७) हरित, (८) अण्ड-ये आठ प्रकार के सूक्ष्म हैं। एबमेगाणि जाणिता, सब्समावेण संजए। सब इन्द्रियों से समाहित साधु इस प्रकार इन सूक्ष्म जीवों अप्पमत्तो जए मिच्न सम्विवियसमाहिए । को सब प्रकार से जानकर अप्रमत्त-भाव से सदा यतना करे । -दस. अ. , गा १३-१६ पढम पाणसुहम प्रथम प्राण सूक्ष्म४०६.५०-से कि तं पाणसुहमे? ४०६. प्र०-भगवन् ! प्राणि-सूक्ष्म किसे कहते हैं ? ३०-पागहमे पंचषिहे पण्णते, ते जहा उ०-प्राणि-सूक्ष्म पाँच प्रकार के कहे गये है, यथा१. किण्हे, २. नीले, ३. लोहिए, ४. हालिद्दे, (१) कृष्ण वर्ण वाले, (२) नील वर्ण वाले, (३) लाल वर्ण ५. सुविकरले। वाले, (४) पीत वर्ण वाले, (५) शुक्ल वर्ण वाले । अरिष कंचु अणुवरी मर्म जा ठिया अवलमाणा सुक्ष्म कुंयुए (पृथ्वी पर चलने वाले द्वीन्द्रियादि सूक्ष्म प्राणी) छतमत्वाण निरागंयाग वा, निग्गंधीण वा नो चमखु. यदि स्थिर हों, चलायमान न हों, छद्मस्थ निबन्ध-निन्थियों को फासं हवमागच्छा। शीघ्र दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। जा अढिया चसमाणा छउमत्याण निग्गंयाण या सूक्ष्म कुंथुए यदि अस्थिर हों, चलायमान हों तो छदमस्थ निम्मंथीण वा चपखुफासं हवमागपछा। नियंन्य निग्रंथियों को शीघ्र दृष्टिगोचर हो जाते है। मा छउमत्येण नियंत्रण वा, निग्गंथीए वा अमिक्सगं ये प्राणी-सूक्ष्म छद्मस्थ निन्थ-निन्थियों के बार-बार अमिरवणं जाणियन्या पडिहियध्या हवा जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य हैं। से तं पाणसुहमे। -दसा. द. ८, सु. ५१ प्राणी सूक्ष्म-वर्गन समाप्त । १ (क) वासावासं पणजोस विधार्ण इह खलु निग्गंधाण वा, निग्गयीण वा इमाझं अट्ठ सुहमाई जाई छउमत्येणं निग्गंधेण या निगंथीए या अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियवाई पासियब्वाई पडिलेहिपञ्चाई भवंति, तं जहा१. पाणसुहम, २. पणगमुहुम, ३. बीसुहुमं, ४. हरियसहुम, ५. पुष्फसुहुम, ६. अंडसुहुमं, ७. लेणसुहमं, ८. सिणेहसुहुमं । -दसा. ६, ८, सु. ५० (ख) इस गाया में "उत्तिगहुम" है और ठाणं अ. सू. १६ में 'लेणसुहम" है। यह कवल शब्द भेद है। दोनों का अर्थ समान है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] चरणानुयोग बीपण ४०७ [१०] से तं? उ०- गगपंच १. किण्हे, २. नीले, ३. लोहिए ४ हालिद े, ५. सुकिल्ले । अस्थिपणगमेसा समाणवले नाम पण ते । जे छउमत्येष निरयेण या निम्गंधीए वा अभिव अभिक्खणं जाणिय पासियावे पहिले हियस्वे भवइ । पण । - दसा. द. ६ सु. ५२ तई बहु४०८० सेकितं द्वितीय सूक्ष्म ? उ०- बोअसुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा ९. किव्हे, २. नीले, ३. लोहिए. ४. हालि६) ५. सुविकरले । अस्थि यीअट्टमे कष्णिया समाणवण्णए नाम पष्णसें । देवेन वा निपीए वा अि अभिक्खणं जाणिवे पासियध्वे पहिलेहियध्वे भव सेतं भी। दसा. दम, सु. ५३ । हरिय ४०६, ५०-से कि तं हरिमुहमे ? उ०- हरिपंच महा १. किण्हे, २. नीले, ३. लोहिए, ४ हालिदे, ५. किल्ले अस्थि हरियमे पुरुषीसमाणवण्णए नाम पते निर्माण या निम्मी वा अभि अभिमाणियव्ये पासियत्वे पडिलेहियध्वे मवई सेतं । - दसा. द. ८, सु. ५.४ पंचमं पुस ४१० प० – से कि सं पुप्फसुमे ? उ० मे पंच १. किण्हे, २. नीले, ३. लोहिए, ४ हालिद, ५. अस्थि पुष्कमे समाणवणे नामं पण्णत्ते, जे मनवा निम या अभिनय अभि जाणियष्ये पासियम पडिलेहियध्वे भवइ से पुष्पा -दसा. द. सु. ५५ द्वितीय पनक सूक्ष्म ४०७, ४० भगवन् I पनक सूक्ष्म किसे कहते हैं ? पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा (१) कृष्ण वर्ण वाले, (२) नील वर्ण वाले, (३) लाल वर्ष वाले, (४) पीत वर्ण वाले, (५) शुक्ल वर्ण वाले । वर्षा होने पर भूमि, काष्ठ, वस्त्र जिस वर्ष के होते हैं उन पर उसी वर्ण वाली फूलन आती है, अतः उनमें उसी वर्ण वाले जीव उत्पन्न होते हैं । अतः ये पनक सूक्ष्म छद्मस्थ निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थियों के बार-बार जानने योग्य देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य हैं । . पनक सूक्ष्म वर्णन समाप्त । तृतीय बीज सूक्ष्म ४०० प्र० भगवन् [1] बीज-सूक्ष्म किसे कहते हैं ? सत्र ४०७-४५० - उ०- बीज सूक्ष्म पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) वर्ग वाले, (२) नीत बर्ग वाले, (0) बाल वर्ग वाले, (५) मुक्त वर्ष वा वाले, (४) पीठ व 1 वर्षा काल में शाति आदि धान्यों में समान वर्ण वाले सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं वे बीज मूल्य कहे जाते है। ये बीज-सूक्ष्म छद्मस्य नित्य-निर्ग्रन्थियों के बार-बार जानने योग्य देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य है। बीज-सूक्ष्म वर्णन समाप्त | चतुर्थ हरित सूक्ष्म ४०. प्र०भगवन् ! हरित सूक्ष्म किसे बहते हैं ? उ०- हरित सूक्ष्म पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) कृष्ण वर्ण वाले, (२) नील वर्ण वाले, (३) लाल वर्ण वाले, (४) पीत वर्ण वाले, (५) शुक्ल वर्णं वाले । ये हम हरे पत्तों पर पृथ्वी के समान वर्ग वाले होते हैं। ये हरित सूक्ष्म छद्मस्य निर्व्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के बार-बार जानने योग्य देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य है। हरित सूक्ष्म वर्णन समाप्त । पंचम पुष सूक्ष्म ४१०. प्र० - भगवन् ! पुष्प-सूक्ष्म किसे कहते हैं ? उ०- पुष्प- सूक्ष्म पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा (१) कृष्ण वर्ण वाले, (२) नील वर्ण वाले, (३) वर्ण चाले, (४) पीत वर्ण वाले, (५) शुक्ल वर्ण वाले। ये पुक्ष्म जीव फूलों में वृक्ष के समान वर्ण वाले होते हैं। ये पुष्प - सूक्ष्म जीव छद्मस्थ निर्ग्रन्थ निन्थियों के बार-बार जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य हैं। पुष्प-सूक्ष्म वर्णन समाप्त । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ सूक्ष्म चारित्राचार २५ छ8 अंडसुहम छठा अण्ड सूक्ष्म४११.५०-से कि त अबसुहमे ? ४११. प्र.-भगवन् ! अण्ड सुक्ष्म किसे कहते हैं? उ०. अंडमुहमे पंचविहे पणते, तं जहा 10 -अण्ड सूक्ष्म पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. डहसंडे, (१) उद्दणाण्ड---मधुमपी मस्कुण आदि के अण्डे । २. उक्कलियंडे, (२) उस्कलिकाण्ड--मकड़ी आदि के अण्डे । ३. पिपीलिअंडे, (३) पिपीलिकाण्ड-कीड़ी, मकोड़ी आदि के अण्डे । ४. हलिअंडे, (४) हलिकाण्ड-छिपकली आदि के अण्डे । ५. हल्लोहलिडे। (५) हलोहलिकाण्ड-शरटिका आदि के अण्डे । से छतमत्ण निर्णयेण ना, निग्गीए या अभिक्सगं ये अण्डसूक्ष्मजीव छद्मस्थ निर्धन्य-निर्गन्थियों के बार-बार अभिक्खणं जाणियग्वे पासियो पहिलहियो मथा। जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य हैं। से तं अंडसुहुमे । -दसा. द. ८, सु. ५६ अण्ण-सूक्ष्म वर्णन समाप्त । सत्तमं लयणसुहम सप्तम लयन सूक्ष्म४१२.१०-से कि तंगसुहम ? ४१२. ४०-भगवन् ! लयन-सूक्ष्म किसे कहते हैं ? 30-मेगसुहमे पंचविहे पण्णते, तं जहा--- उ.-लयन-सूक्ष्म पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. उत्तगले, (१) उत्तिर्गलयन-भूमि में गोलाकार गड्ढे बनाकर रहने वाले, सूंड वाले जीव। २. भिगुलेगे, (२) भृगुलयन-कीचड़ वाली भूमि पर जमने वाली पपड़ी के नीचे रहने वाले जीव । ३. उज्जए. (३) ऋजुक लयन-बिलों में रहने वाले जीव । ४. तालमूलए, (४) तालमूलक लयन-ताल वृक्ष के मूल के समान ऊपर सकड़े, अन्दर से चौड़े जिलों में रहने वाले जीव । ५. संबुक्कापट्टनामं पंचमे । (५) शम्बुकावर्त लयन-शंख के समान घरों में रहने वाले जीव । ने छउमत्येण निमाथेमबा, निग्गंधीए वा अभिक्सगं मे लयन-सूक्ष्म जीव छमस्थ निर्ग्रन्थ-निर्यन्थियों के बारअभिक्ख नाणियषे पासियो पडिलेहियचे पवा। बार जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेखन योभ्य हैं। से तं लेगसुहुमे। -दसा. द. ८, सु. ५७ लयन-सूक्ष्म वर्णन समाप्त। अट्टम सिह सहम-- अष्टम स्नेह सूक्ष्म४१३. प.-से कि तं सिणेह-सुहमे ? ४१३. प्र०-भगवन् ! स्नेह-सूक्ष्म किसे कहते हैं ? -सिह-सुहमे पंचबिहे पणते, जहा उ.-स्नेह-सूक्ष्म पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. उस्सा , (1) ओस-सुक्ष्म-ओस बिन्दुओं के जीव । २. हिमए (२) हिम-सूक्ष्म- बर्फ के जीव । ३. महिया, (३) महिका-सूक्ष्म-कुहरा, धुंअर आदि के जीव । ४. करए, (४) करक-सूक्ष्म-ओला आदि के जीव । ५. हरतणुए। (५) हरित-तृण-सूक्ष्म-हरे पास पर रहने वाले जीव । से उपत्येण निग्गयेण वा, निपीए वा अभिषषणं से स्नेह सूक्ष्म जीव छमस्य निग्रन्थ-निर्गन्थियों के बार-बार अभिषक्षणं जाणिपठवे पाप्तियग्वे पशिलहियध्वे भवः । जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेखन योग्य हैं। से तं सिणेह-सुहमे। -दसा. द. ८, सु. ५८ स्नेह-सूक्ष्म वर्णन समाप्त । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] चरणानुयोग १. सोतामयाओ सोपखातो ववशेयेत्ता भवति । २. सोतामणं वेगं संजोगेत्ता भवति । ३. चक्माओं सोखतो ववशेवेसा भवति । ४. एवं पदे संजोता भवति । ५. घाणमयाओ सोबखातो ववशेषेत भवति । ६. घाण जोगेा भवति ७. जिममयाओ सोखासो ववरोवेत्ता भवति । एवं श्वेणं संजोता भवति । ६. बरोब २०. फासणं संजोक्ता भवति । पंच दिपाका दसविहं असंजय कुवंति पंचेन्द्रिय के घातक दस प्रकार का असंयम करते हैं ४१४. पचिविया णं जीवा समररममाणस्स इस असंजमे कज्जति ४१४. पंचेन्द्रिय जीवों का घात करने वाले के दश प्रकार का तं जहा असंयम होता है। जैसे बसविले असजने ४१५. सविधे असंजमे पण तं जहा १. विकाय असं मे, ५.साइज, ७. अजमे ९. पंचविसंमे -- --ठाणं. अ. १०, सु. ७१५ २. आउकाइ अजमे, ४. ६. १०. ६. पाणाम ७. रिज, कामं । दस प्रकार के असंयम - ठाणं. अ. १०, सु. ७०६ चिदिम अधायका विहं संजम कुम्बंति १. सीतामयाओ सोच्खाओ अववशेषेत्ता भवति । २. सोता तेजसा भवति । अश्या भवति । २. ४. श्रममणं क्लेणं असंजोगेसा भवति । १. पाणमा सोखाओ जयवता] न अ सोरणाओं अबबरोवेत्ता भवति । (१) श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने से 1 (२) भोवेन्द्रिय सम्बन्धी का संयोग करने मे । (३) चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने से । (४) चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग करने से । (५) घ्राणेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने से । (६) प्राणेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग करने से (७) रसनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने से । (5) रसनेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग करने से । (६)द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने से। (१०) स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग करने से । दस प्रकार के असंयम ४१५. असंयम दस प्रकार का कहा गया है। जैसे(१) पृथ्वीकायिक असंयम, (३) तेजस्कायिक असंयम, (५) वनस्पतिकायिक असंयम, (७) (2) सूत्र ४१४-४१६ असंयम पंचेन्द्रिय जीवों के अघातक दस प्रकार का संगम करते हैं ४१६. पंचाणं जीवा असमारभमाणस्स इसविधे जमे कन्जति ४१६. पंचेन्द्रिय जीवों का घात नहीं करने वाले के दश प्रकार का संयम होता है। जैसे जहाँ संयम, १ चउरिदिया णं जीवा समारभमाणस्स अट्ठविहे असंजमे कज्जति तं जहा--- १खाओ बखरीता भव एवं जाव ७ फरमान सोसावा भव २ रातविमजमे पम्प से जहा पुढविकाइ , २ एणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवद्द wwww (१) ओन्द्रियसम्बन्धी मुलका वियोग नहीं करने से । (२) श्रोषेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से । (३) चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से । (४) चक्षुरिन्द्रिय- सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से । (५) प्राणेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। (६) मानेन्द्रियसम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। (७) समेन्द्रियसम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। ८ फासमएणं दुक्खणं संजोगेत्ता भवइ । मजमे जब उसका संजये, जीवकाय असं (२) अकाधिक असंयम, (४) वायुकानि यम, (५) हीन्द्रिय असंयम, (c) रिद्रिय असंयम (१०) अजीवकाय असंयम | - ठाणं, अ. ठाण. अ. ७ सु. ६१५ . ४७१ सु. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ४१६४१६ इस प्रकार के संगम चारित्राचार २८७ ८. जिम्मामएणं दुक्खेगं असंजोगेसा मवति । (८) रसनेन्द्रिय --- सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। ६. फरसमाओ सोक्लाओ अवबरोवेत्ता भवति । (8) स्पर्श नेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। १०. फासामएण चुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति । (10) स्पर्शनेन्द्रिय--सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से : डाणं. अ. १० सु. ७१५ वसविहे संजमे दस प्रकार के संयम४१७. सविघे संजमे पण्णते, तं जहा ४१७. संयम दश प्रकार का कहा गया है । जैसे१. पुरविकाइयसंजमे, २. उकाइपसंजमे, (१) पृथ्वी कामिक संयम, (२) अकायिक संयम, ३. तेउकास्यसंजमे, बाउकाइयसंजमे, (३) तेजस्कायिक संयम, (४) वायुकायिक संयम, ५. धणस्सतिकाइयजमे, ६. बेईदियजमे, (५) वनस्पतिकायिक संयम, (६) द्वीन्द्रिय-संयम, ७. ते इंपियसंजमे, ८. चरिदियसंजमे (७) श्रीन्द्रिम-संयम, (1) चतुरिन्द्रिय संयम, ६. चित्यिसंजमे, १०. अजीवकायसंजमे।' (६) पंचेन्द्रिय संयम, (१०) अजीवकाय-संयम । -ठाणं, अ.१०, सु. ७०६ पावसमण-सरूवं पाप श्रमण का स्वरूप४१८. सम्ममाणे पाणाणि, बीयाणी हरियाणि य। ४१८. दीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और हरियाली का मदन असंजए संजयमन्त्रमागे, पावसमणे सि वुच्चई ।। करने वाला, असंयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी मानने -उत्त. अ. १७) गा. ६ बाला, पाप-श्रमण कहलाता है। अन्नउस्थियाणं थेरेहि सह पुढवो हिंसा विवादो अन्यतोथिकों का स्थविरों के साथ पृथ्वी हिंसा विषयक विवाद४१६. तए से अनउस्थिया ते थेरे भगवंते एवं वासी-"तुम्मे ४१६. तत्पश्चात् उन अन्यतीयिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से गं अञ्जो ! तिविह तिबिहेणं असंजय-जाब-एर्गतबाला यावि कहा-आर्यो ! (हम' कहते हैं कि) तुम ही त्रिविध-विविध असंयत-यावत-एकान्तबाल हो। तए गं ते येरा भगवंतो से अन्नउस्थिए एवं बयासी-"कैग इस पर उन स्थविर भगवत्तों ने उन अन्यतीथिकों से (पुनः) कारणणे अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय-जाव-एगंतवाला पूछा-आर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध असंभल, पावि मव मो? । -यावत-एकान्तबाल हैं? तए ण से अन्नजरियया ते भेरे भगवंत एवं पयासी-"सुम्भे तब उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से यों कहाणं असो ! रीयं रीपमाणा पुढवि पेमचेह, अभिहणह, पत्तेहा "आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते लेह, संघट्टह, परिताबेह, किसामेह, उवहवेह । (भाक्रान्त करते) हो. हनन करते हो, पादाभिघात करते हो, सए में तुम्मे पुतषि पन्चेमाणा-जाव-उबद्दवेमागा तिविहं उन्हें भूमि के साथ पिलष्ट (संघर्षित) करते (टकराते) हो, उन्हें तिविहेणं असंजय-जाव-एगंतबाला यावि पवइ ।" एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे करते हो, जोर से स्पर्श करते हो. उन्हें परितापित करते हो, उन्हें मारणान्तिक कष्ट देते हो, और उपद्रवित करते-मारते हो। इस प्रकार पृथ्बीकायिक जीवों को दबाते हुए-यावत्--मारते हुए तुम त्रिविध-विविध असंयत, -याव-एकान्त बाल हो।' - -- १ चरिदिया गं जीवा असमारभमाणस्स अट्ठविहे संजमे कज्जति, तं जहा-चस्खुमाओ सोक्खाओ अववरोविता भवइ चकलुगएणं दुक्लेणं असंजोएता भवइ एवं जाव.--कासमाओ सोमवाओ अववरोवेता भवाइ फापामएणं दुखेणं असंजोगेत्ता भवद । -ठाणं. भ. ८, सु. ६१५ २ सत्तविहे संजमे पणते तं जहां-पुडविकाइयसंयमे जाव तसकाइपसंयमे, अजीवकायसंयमे । -ठाणे. भ. ७, सु. ६७१ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] परगानुयोग पृथ्बी हिंसा विषयक विवाद तए ण ते थेरा भगवतो ते अनउत्पिए एवं वासी-"नो तब उन स्थविरों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-आर्यो ! खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुवि पेल्धेमो-जाव- हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (कुचलते) उवहवेमो । नहीं,-यावत्-मारते नहीं। अम्हे अज्जो रोयं रीयमाणा कार्य वा, जोगं मा, रियं हे आर्यो। हम गमन करते हुए कार (अर्थात्-शरीर के वा पच्च देस दसेणं अयामो, पएसं पएसेगं क्यामी, "तेणं लधुनीति-बड़ीनीति आदि कार्य) के लिए, योग (अति-ग्लान अम्हे देस देसेणं वयमाणा, पएस पएसेणं वयमाणा नो पुर्वाष आदि की सेवा) के लिए. ऋत (अर्थात्-सत्य अकायादि-जीवपेश्वेमो-जाव-बहवेमो, संरक्षणरूप संयम) के लिए एक देश (स्थल) से दूसरे देश (स्थल) में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं। तए थे अम्हे पुढवि अपेकचेमागा-जाव-अणुबहवेमागा तिविहं इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से तिविहेगं संजय-जाव-एतपडिया याषि भवामो । दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को नहीं दबाते हुए,-यावत्-नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, लुकमे मे असो ! अपणा चेव तिथिहं तिविहेणं असंजय --यावत्-एकान्त-पण्डित है। किन्तु हे आर्यो ! तुम स्वयं -जाब-एपंतबाला यावि प्रवद । त्रिविध त्रिविध असंयत, यावत् - एकान्तबाल हो।" तए गं ते अन्नजरिवशते थेरे भगवते एवं वयासो-"केणं इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस कारणेणं अम्हे तिविहं सिविहेणं असंजय-जाव-एगंतवाला प्रकार पूछा "आयो ! हम किस कारण से विविध-त्रिविध मावि भवामो? असंयत, यावत्-एकान्तबान हैं" तए गं येरा भगवंतो ते अन्नउत्यिए एवं क्यासी-"तुम्मे पं तब स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा - अज्जो ! रीयं रोषमाणा पुरवि पेच्चेह-जाव-उबद्दवेह, "आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हो, तए णं तुम्मे पुषि पेत्रमाणा-जाव-उबवेमाणा तिविहं - पावत्-मार देते हो । इसलिए पृटजीकायिक जीवों को दबाते तिविहेणं असंजय-जाब-एएतबाला यावि भवा । हुए.- पावत्-मारते हुए तुम त्रिविध-विविध असंयत, -यावत् - एकान्तबाल हो।" तए गते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासो-"तुम्मे इस पर वे अन्यतीथिक उन स्थविर भगवन्तों से यों बोलेगं अजो ! गम्ममाणे अगते, वौतिक्कमिज्जमाणे अबीति- हे आयों! तुम्हारे मत में (जाता हुआ), बगत (नहीं गया) क्वते, रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपले ?" कहलाता है, जो लांधा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने (पहुँचने) की इच्छा वाला पुरुष असम्प्राप्त (नहीं पहुंचा हुआ) कहलाता है। तए मं से थेरा मगवतो ते अनउस्थिए एवं बयासी---"नो तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्य तीर्थकों से इस खलु अज्जो ! अम्ह गम्ममाणे अगते, वौतिक्कमिज्नमाणे प्रकार कहा--आर्यों ! हमारे मत में जाता हुआ, अगत नहीं अधीतिरकते रायगिह नगर संपाविजकामे असंपत्ते," कहलाता, उल्लंघन किया जाता हुआ, उल्लंघन नहीं किया नही कहलाता । इसी प्रकार राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असम्प्राप्त नहीं कहलाता। अहं पं अन्जो गम्ममाणे गए, वोतिक्कमिजमाणे वौतिक्कते, हमारे मत में तो, आर्यो ! आता हुआ “गत", लांघता हुना रायगिह मगर संपाविउकामे संपसे, "व्यतिक्रान्त", और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा तुम्म में अपणा वेद गम्ममा अगए, वीसिक्कमिजमाणे वाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है। हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत अबतिक्कते रायगिह नगरं संपादिकामे असंपत्ते। में जाता हुआ “अगत", लांघता हुआ “अव्यतिक्रान्त" और राज गह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला असम्प्राप्त कह लाता है। तए थेग भगवन्तो ते अनथिए एवं परिहणेति। तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्मतीथिकों को -वि. स. ८, उ.७, सु. १६-२४ प्रतिहत (निरुत्तर) किया । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०-४२१ बिय महत्व आहण पट्टण्णा ४२०. अहावरे दोभते ! महार सवं ! अंते । मुसत्या पश्चक्ामि ।। से कोहा वर, सोहर वा भया या हाता वा । से मुसाषाए बिहे पण, तं जहा २.ओ. २ का ४. भावो , २ ५. द्वितीय महावत के गायक की प्रतिज्ञा द्वितीय महाव्रत द्वितीय महाव्रत स्वरूप एवं आराधना १. ओ. २. खेलओ लोगे वा अलोगे वा ३. कालओ दिया वा राओ वा ८.सो वा भए वा हासे बा नेय सयं मुखं वज्जा, नेयन्नेहि मुलं वायरवेज, मुखं बयते विन्नेन समपुजामा जावजीबाए लिहिं तिबिग बाया कानानि करतं अभ्यं न समगुजानामि । तरसते ! ममि निदानि गरि हामि अध्या पोसि रामि । दोच्चे भंते | महत्वए जबट्ठियोभि सभ्याओ मुसावाबाओ वेरमणं । - दस. अ. ४, सु. १२ मुसावाय विरमण महत्ययस्स पंच भाषणाओ४२१. वो माथि सत्यं मुसामा दो से फोहा वर लोभा या भया वा हासा वर व सयं मुसं भासेज्जा, वर्णणं मुखं भासावेज्जर, अवि मुर्स असंतं ण समजाज्ञा जावज्जीवरए तिविहं तिविषं मणसा वयसा कायसा । , (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से (१) द्रव्य से सर्व द्रव्य के सम्बन्ध में, या हास्य से (२) क्षेत्र से लोक में या अलोक में, (३) काल से दिन में या रात में, (४) भाव से क्रोध या लोभ से भय से मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा. दूसरों से अस्प नहीं मा गा औरओं का अनुभव भी नहीं करूँगा, पियाजीवन के लिए तीन करण तीन पग से मन से धवन से, काया से न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनु मोदन भी नहीं करूँगा । - -- भन्ते ! मैं अतीत के मृषावाद से निवृत्त होता है, उसकी निन्दा करता है, यहाँ करता है और (या) आत्मा का व्र करता हूँ । चारित्राचार द्वितीय महाव्रत के आराधक की प्रतिज्ञा ४२० भन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृषावाद की विरति होती है । भन्ते ! में सर्व मुबाबाद का प्रत्याख्यान करता हूँ । वह क्रोध से हो या लोभ से, भय से हो या हास्य से । मृषावाद चार प्रकार के हैं १ सावान लोग सब्यसागरहियो अविस्वास व भूमा मन से असत्य चिन्तन न करना, ३ वचन से असत्य न बोलना, मुसावाविव भासिय हियं सभ्यं 1 २०६ भन्ते ! मैं दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्व मृषावाद की विरति होती है । नृपावाद विरमण महाव्रत की पांच भावना - 1 ४२१. इसके पश्चात् भगवन में द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं सब प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष-वचन का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। ( इस सत्य महाव्रत के पालन के लिए) साधु क्रोध से लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृश (असत्य) बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण बुलवाए और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस प्रकार यावज्जीवन तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मृषावाद का सर्वथा त्याग करे | सहामो विवन्जए । ४ काया से असत्य बाचरण न करना । ॥ दस. अ. ६, गा. १२ - उत्त अ. १६, गा. २७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० घरणानुयोग मृषावाव विरमण महारत की पांच भावना भूत्र ४२१ तस्मत ! परिकमामि-जाव वोसिरामि । इस प्रकार मृपाबाद-विरमण रूप द्वितीय महावत स्वीकार हाई अगा। पूर्वभाषित मृषावाद रूप) पाप का प्रति क्रमण करता हूँ,-यावत्-अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा म्यूत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। तस्थिमाओ पंच भरवणाओ भवति । उस द्वितीय महाव्रत की पांच भावनाएं होती हैं... १. तरिथमा पढमा भावणा अनुवीयि भासी से णिाये, जो (१) उन पांचों में से पहली भावना इस प्रकार हैअगणुवोयि भासी। वक्तव्य के अनुरूप चिन्तन करके बोलता है, वह निम्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निरन्थ नहीं है।' केवलो यथा--अपणुवोयि मासी से णिमये समावोजा केवली भगवान् ने कहा है बिना विचारे बोलने वाले मोसं वयणाए । अणुवीय भासी से निगये, णो अणवीयि निर्ग्रन्थ को मिथ्या भाषण का दोष लगता है । अतः वक्तव्य विषय भासी ति पदमा भावणा । के अनुरूप चिन्तन करके बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं। यह प्रथम भावना है। २. अहावरा दोच्या भाषणा को परिजाणति से निगये, (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का णो कोष सिया। कटुफल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए। केवली ध्या-सोधपत्ते कोही समावदेमा मोसं अयगाए। केवली भगवान् ने कहा है-क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति अणुवीवि भासो ? से निग्गंधे णो य कोहणाए सि (4) सि आवेशनश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है । अतः जो साधक बोपमा भावणा। कोव का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्गन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं, यह द्वितीय भावना है । ३. अहावरा तच्चा भावणा-खोमं परिजाणति से णिगंथे (१) तदनन्तर तृतीय भावना यह है जो साधक लाभ का जो य लोमणाए सिया। दुष्परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है, अतः साधु लोभग्रस्त न हो। केवली यूपा - लोभपस लोभी समावषेज्जा मोसं वयगाए । केवली भगवान् ने कहा है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभासोमं परिजागति से गिरगंथे जो न लोभणाए सि (य) ति वेशवश असत्य बोल देता है। अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट सरचा भावणा। स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है. वही निर्ग्रन्थ है, लोभाविष्ट नहीं । यह तीसरी भावना है। ४. अहावरा चउत्था भावणा-मयं परिजापति से निर्गधे (४) इसके बाद चौथी भाषमा यह है-जो साधक भय का यो । भयभीरूए सिया। दुष्फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए। केवली खूया-मयपसे भीरू समावदेला मोसं वयणाए। केवली भगवान् का कहना है-- भय-प्राप्त भीरु व्यक्ति भयं परिजाणति से निगये, णो य भयभीवए सिया, चउरथा भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है। अतः जो साधक भय का भावणा। यथार्थ अनिष्ट रवरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्ग्रन्ध है, न कि भयभीत । यह चौथी भावना है। ५. अहावरा पंचमा भावणा-हासं परिजाणति से निग्गथे (५) इसके अनन्तर पांचवी भावना यह है-जो साधक णो महासगाए सिया । हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अतएव निर्धन्य को हंसोड़ नहीं होना चाहिए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२१.४२३ सत्य संवर के प्रापक और आराधक चारित्राचार २९१ केवली या-हासपते हासी समाववेज्जा मोसं वयणाए। केवली भगवान् का कथन है -हास्यवश हमी करने वाला हासं परिजापति से निग्गंये पोय हासणाए सिय त्ति पंचमा व्यक्ति असत्य भी बोल देता है। इसलिए जो मुनि हास्य का भाषणा। भनिए जर उस पार देता है, वह निर्मन्थ है, न कि हंसी मजाक करने वाला । यह पाँचवी भावना है। एसाय ताव (बोच्च) महत्वयं सम्मं कारणं फासिते पालिते इस प्रकार इन पांच भावनाओं से विशिष्ट साधक द्वारा तोहित किट्टिते प्रति मागाए आराहित यावि भवति । स्वीकृत मृवावाद विरमण रूप द्वितीय सत्य महानत का काया से सम्यक्-स्पर्ग (आचरण) करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभाँति पार लगाने, उसका कीर्तन करने एवं उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवद् आज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। वोच्चे मंते। महत्वए मसावायाची वेरमर्ण । हे भगवन् ! यह मुषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत है। -- आ. सु. २,अ. १५, सु. ७००-७८२ सच्चवयणस्स परूवमा आराहगा य सत्य संवर के प्ररूपक और आराधक४२२. तं सन्दं भगवं तित्ययरसुभासियं वसविहं, ४२२. (१) वह सत्य भगवान् तीर्थंकरों द्वारा दस प्रकार का कहा गया है। चोदसपुष्योहिं पाहुबस्थविइय, महरिसीण व समयप्पडणं, (२) चतुर्दश पूर्वधरों ने प्राभुतों में प्रतिपादित सत्य के अंश को जाना है। महषियों ने सत्य का सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित किया है। देविदारिय-मासियत्वं, बेमाणियसाहियं, महत्थं, मतोसहि- देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने सत्य को पुरुषार्थ साध्य कहा है। विज्ञा-साहणत्य, पारगमग-समण-सिद्धविम्ज, मणुयगगाणं वैमानिक देवों ने सत्य का महान् प्रयोजन साध लिया है। सत्य बंदणिज्ज, अमरगणा अचणिज्ज, असुरगणाणं पूणिलं, मन्त्र, औषधी तथा विद्याओं की साधना कराने वाला है। विद्याअगंगपासंजिपरिम्गहियं जंतं लोगम्मि सारभूयं । घरों चारणों एवं श्रमणों की विद्याएँ सत्य से ही सिद्ध होती हैं । -पान, सु. २, अ. २. सु.४ सत्य मनुष्यों के लिए वन्दनीय है, देवों के लिए अर्चनीय है और असुरों के लिए पूजनीय है। अनेक पाखण्डियों ने भी सत्य को ग्रहण किया है । सत्य लोक में सारभूत है। सच्चवयणस्स महप्पं सत्य वचन की महिमा - ४२३. जंयू ! विइयं य सम्मवयणं सुखं मुश्वियं सिर सुजाय सुभा- ४२३. हे जम्बू ! द्वितीय संवरद्वार सत्य है। लिय मुस्वयं सुकहियं सुष्टुि' सुपरद्विषं मुपदवियजसं सुसंज- यह सत्य वचन शुद्ध है, पवित्र है, शिव है, सुजात है. सुभामिय-वयग-युह्यं सुरवर-गरवसभ-पवरबलवग-सुविहिय-जग- षित है, सुनत है, सुकथित है, सुदृष्ट है सुप्रतिष्टित है, सुप्रतिष्ठित बहुमयं परमसाधम्मचरणं, सब-णियम परिसगहियं सुगइपह- यशवाला है, अत्यन्त संयत वचनों द्वारा कथित है. उत्तम देवों, देसमं व लोगुत्तम क्यमिणं । उत्तम पुरुषों, बलवानों तया सुविहित जनों द्वारा सम्मत है, परम साधुजनों का धर्मानुष्ठान है, तप और नियमों द्वारा ग्रहीत है, सद्गति का पथ प्रदर्शक है और यह वत लोक में उत्तम है। १ (क) समवापांग सूत्र में द्वितीय महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं... (१) अनुबीचिभारण, (२) कोचविवेक, (३) लोभविवेक, (6) भयविक, (५) हास्यविवेक । -सम. सम. २५, सु. १ (ख) प्रश्नव्याकरण सूत्र में इस महानत की भावनाएं आचारांग सूत्र की तरह ही है। -प. सु. २, ब. २, सु. ११-१५ विस्तृत पाठ परिशिष्ट में देखें। २ ठाणं. अ.१०, सु.४१। -प.सु. २, अ. २, सु. १-३ वि Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] चरगानुयोग सत्य वचन को छह उपमाएं सूत्र ४२३-४२४ भक्तिह, विज्जाहरवागणगमग-विजाण साहकं सरगमग-सिद्धिपहदेसगं यह सत्य वचन विद्याधरों की आकापयामिनी विद्या की सिद्धियों में साधन रूप है। स्वर्गमार्ग और सिद्धिमार्ग का दर्शक है । असत्य से रहित है। तं सच उज्जु अकुडिलं भूयस्थं अत्यओ विसुखं उज्जोयकर यह सरक सरल है, अकुटिल है, वास्तविक अर्थ का प्रतिपभासगं मवद सन्यभावाणं जोवलोए, अविसंथाह । पादक है, प्रयोजन से शुद्ध है, उद्योत करने वाला है, जीव लोक में ममस्त भावों को प्रकाशित करने वाला है, अविसंवादी है, जहरथमहरं पाचवं कयिमय व जंतं अच्छरकारणं यथार्थ में मधुर है । प्रत्यक्ष देवता के समान है. आश्चर्यजनक कार्यों का साधक है। १. अवत्यंतरेसु बहुएसु मगुसाणं, सच्चेग महासमुहमजो वि (१) अनेक अवस्थाओं में मनुष्य सत्य के प्रभाव से महा. मूडागिया वि पोया । समुद्र के मध्य में रहा हुआ भी डूबता नहीं है। २. सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण बुजाण व मरति चाहं (२) सत्य के प्रभाव से समुद्र में भूले हुए जहाज और उनके से लहंति । नलाने वाले पानी के भंवरों में भी बते नहीं हैं. मरते नहीं हैं और किनारे लग जाते हैं। ३. सन्चेण य अमणिसममम्मि विन अमंति उगा (३) सत्य के प्रभाव से मनुष्य अग्नि का क्षोभ होने पर भी मणुस्सा। जलता नहीं है। ४. सण य तत्ततेल्ल-सउ-लोह-सीससगाई छिवंति पति (४) सत्य के प्रभाव से सरल मनुष्य तपे हए तेल, तांबा. पप जति मणस्सा। लोहा या सीसे को छुए या हथेली पर रखे तो भी जलता नहीं है। ५. सरचेण प मणुस्सा पश्वयकाकाहि मुरचते ण य मरति । (५) सत्य के प्रभाव से पर्वत पर से गिराये गए मनुष्य मरते नहीं है। ६. सच्चेण य परिणहिया अतिपंजरगया समराओ वि मिति (६) सत्य के प्रभाव से समर में शत्रुओं के मध्य में फगः अण्णहा व सच्चवाई। हुआ मनुष्य भी बिना घाव लगे निकल जाता है। ७. बहबंधभियोगवेर-धोरेहि पमुक्चंति य । (७) सत्यवादी पुरुष प्रबल शत्रुओं द्वारा की जाने वाली मारपीट, बन्धन और बलात्कार से भी मुक्त हो जाता है। ८, अमित्तमज्याहि णिहति अण्णहा य सच्चवाई। (6) सत्यवादी शत्रुओं के मध्य में आया हुआ भी निर्दोष निकल आता है। वाणि य देवयाओ करेंति सहाय समनवयणे रत्ताणं। () सत्यवादी को देवता भी सहायता करते हैं। महसु २, अ २, सु. १-३ सत्सवयणस्स छ उखमाओ सत्य वचन को छ उपमायें४२४. १. गंभोरयरं महासमुहाओ, ४२४. (१) सत्य महासागर से भी अधिक गम्भीर है, २. यिरयरगं मेवपश्यपाओ, (२) सत्य सुमेह से भी अधिक स्थिर है, ३. सोमयरगं चंदमंडलाओ, (३) सत्य चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है, ४. रित्तयर सूरमालाओ, (४) सत्य सूर्यमण्डल से भी अधिक दीप्तिमान है, ५. विमलपरं सरपणयलाओ, (५) सत्य शरद ऋतु के आकाश मण्डल से भी अधिक निर्मल है, ६. सुरभियर गंधमावगाओ। (६) सत्य गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सुगन्धमय है। - - - - - Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२४-४२७ जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जया व विज्जा य गाय अथाविय सहयाणि य सिक्खाओ प आगमा य सवाई पिलाई मध्ये पाई। .प. सु. २, अ. २, सु. ५-६ अवसज्यं सचं ४२५. सचं विव संजमस्त उवरोधकारगं किचि न यत्तस्वं हिमा [सावज्जसंपतं मेव विककार अत्यन्याय- कलह कार अणज्यं, अववाय विवायसंपत्तं वेलंचं ओमज्ज बहुलं गिल्बन्नं लोग हनिमुन अप्पो थवा, परेणिया ण तंसि मेहावी, णं तेसि धण्णो ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो ण तंसि वाणयई, ण सी िव तंसि सूरो, तंसि पत्रिका, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ए बहुस्सुओ, ण वि य तसि वस्ती व दावि परोस। जाइ-कुल-रूब वाहि-रोगेण वावि जं होई वज्जगिज्जं दुहओ उदारमन एवं हिंसयं विगतभ्यं । -म. सु. २, अ. २, सु. ४२६. १० - अहं फेरिलगं पुगाइ सच्वं तु मासियध्वं ? अवक्तव्य सध्य ० तं देहि पहिय गुणेहि कम्मेहिं वज्रविहि सिप्पेहि भागमेहि य गामवखाय- शिवाय - उषसभा द्विसमाससंधिय-हे---किरिया विहाण- घाउ-नर-विमतितिर विस" जह मणिय तह य कम्पुणा होइ दुबालस विहा होइ मासा," aणं वि य होइ सोलसविहं " सच्चवयण फलं— ४७. इमं एवं अहंता समिति संजएवं कालमिय तवं - प. सु. २, अ. २, सु. ६ व पाए शवयणं भगवया सुकहिये, अवि-जि-फल-कय-वण-परिरक्स १ (क) २ पण्ण. प. ११, सु. ८६६ १०, सु. ७४१ (ख) पण ११ ३ पण्ण. प. ११, सु. ६६ wwwwwwww चारित्राचार २६३ लोक में जितने भी मन्त्र योग जाप, विद्या, जृम्भक देव, अस्त्रशस्त्र, शिक्षा, कला और आगम हैं ये सब सत्य में प्रतिष्ठित हैं । वक्तव्य सत्य ४२६. प्र० -- फिर किस प्रकार का सत्य कहना चाहिए ? उ०- जो वचन द्रव्य-पर्याय-गुण कर्म नाना प्रकार के शिल्प और आगम से युक्त हों तथा नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित समास, सन्धि, पद हेतु यौनिक उपादि (प्रत्ययविशेष) क्रियासविधानमा स्वर विभक्ति वर्ण से युक्त हो अर्थात् जो वचन . अवक्तव्य सत्य सावद्य ४२५. (१) संयम का बाधक हो वैसा सत्य कदापि नहीं बोलना चाहिए। हिंसा और से युक्त, नारि का भेद करने वाला विक्रयारूप, वृथा, कलहकारी अनार्य या अन्याय युक्त, अपवाद और विवाद उत्पन्न करने वाला विडम्बनाजनक, जोश और धृष्टता से युक्त, लज्जाहीन, लोक निन्दनीय, अच्छी तरह न देखा हुआ, अच्छी तरह न सुना हुआ, अच्छी तरह न जाना हुआ, आत्म-प्रशंसा तथा परनिन्दा रूप ऐसा सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए। (२) "तुझमें वृद्धि नहीं है, घर का लेनदार नहीं है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलोम नहीं है, तू दानी नहीं है, तू पुरवीर नहीं है, तू रूपवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी नहीं है, तू परलोक की दृढ़ श्रद्धा नहीं रखता है" ऐसे वचन कदापि कहने योग्य नहीं है । " (१) जो वचन जाति कुल रूप पाधि, रोग आदि के कथन द्वारा पर को पीड़ा पहुँचाने वाले हों तथा शिष्टाचार या उपकार का उल्लघन करें वे वजंतीय हैं। ऐसा सत्य भी बोलने योग्य नहीं है। की दृष्टि से और शब्द शास्त्र की दृष्टि से युक्त हों उनका ही प्रयोग करना चाहिए। दस प्रकार के सत्य त्रैकालिक हैं। यह सत्य जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार का होता है। बारह प्रकार की भाषा और सोलह प्रकार के वचन होते हैं। इस प्रकार अर्हन्त भगवान् द्वारा अनुज्ञात एवं समीक्षित वचन यथासमय संयमी जनों को बोलने चाहिए। सत्य वचन का फल ४२७. यह प्रवचन भगवान् ने अशस्थ, पैशुन्य, कठोर, कटुक तथा विवेकहीन वचनों के निषेध के लिए सम्यक् प्रकार से कहा है । ६२ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] चरणानुयोग अल्पमृषावाव का प्रायश्विस्त सूत्र त्र४२७-४३१ अत्तहियं पेवाभावियं आगमेसिमदं मुखं णेयाउयं अकुडिल यह प्रवत्रन आत्म हितकर है, परभव में शुभ फल देने वाला अणुतरं सवतुक्त पावाण विउसमर्थ। है, भविष्य में कल्याणकारी है. शुद्ध है, न्याय युक्त है, कुटिलता -प. सु. २, अ. २. सु. १० से रहित है, सर्वोत्तम है, रामस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है। अप्पमुसावायरस पायच्छित्तसुत्तं अल्पमृषावाद का प्रायश्चित्त सूत्र--- ४२८. जे भिक्खू सहुसगं मुसं वरयंत वा माटाइ। ४२८.भो भिक्ष अल्प मृषावाद बोलता है, बुलवाता है, बोलने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आषज्जह मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं । उसे मासिक अनुदधातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. २, सु. १६ आता है । वसराइयं अवसुराइयं वयमाणस्स पायच्छित्तसुताई- वसुरानिक-अवसुरालिक कथन के प्रायश्चित्त सूत्र--- ४२६. जे भिवस्व खुसिराइयं अबुसिराइयं वपद बयंत दा साइजइ। ४२६. जो भिक्षु धनवान को निधन कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अबुसिराइयं वृसिराइयं बयइ वयंत वा साइजइ। जो भिक्षु निर्धन को धनवान कहता है, कहलवाता है. कहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमागे आयज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाण उग्नाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि उ. १६. सु. १४-१५ आता है। बिवरीय वयमाणस्स पायच्छित्त सुतं विपरीत कथन का प्रायश्चित्त सूत्र४३०, जे भिक्खू गरिय संमोगवतिया' किरित्ति वयह बयंत वा ४३०. जो भिक्षु "संभोग पत्तिया किया नहीं है" ऐसा कहता साइन्जा। है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ३, सु. ६३ आता है। विवरीय पायच्छित्तं बदमाणस्स पायच्छित्त सत्ताई - विपरीत प्रायश्चित्त कहने के प्रायश्चित सूत्र--. ४३१. जे भिक्खू उन्धाहपं अणुग्धाइयं बयह वयंस वा साइज्जद। ४३१. जो भिक्षु उद्घातिक को अनुदातिक कहता है, कहलवाता है, कहने के लिए अनुमोदन करता है। जे मिरल अणुग्धाइयं उग्याइपं वह वयंतं वा साइग्जद । जो भिक्षु अनुद्घातिक को उद्घातिक कहता है, कहलवाता है. कहने के लिए अनुमोदन करता है। जे मिक्खू उग्धाइयं अणुग्धाइयं देइ त वा साजा । जो भिक्षु उद्घातिक प्रायश्चित्त बाले को अनुद्घातिक प्राय. श्चित्त देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिवायू अणुरघाइयं उघाइयं बेइ देत वा साइज्जद । ___ जो भिक्षु अनुदघातिक प्रायश्चित्त वाले को उद्घातिक प्रायश्चित्त देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिक्खू उम्पाहम सोच्चा जच्चा संभुजा संभुजतं था जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) उद्घातिक प्रायश्चित्त साइजह।। प्राप्त हुआ है, ऐसा सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू उघाइय-हे सोच्या णना संभुजइ संमुजंतं वा जो भिक्षु (क्रिसी अन्य भिक्षु के) उद्घातिक प्रायश्चित्त का साइजह। हेतु सुनकर या जानकर (उसके साय) आहार करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सम्भोग विसम्भोग विधान के लिए देखिये इसी अनुयोग के 'संघव्यवस्था" में 'गणव्यवस्था" के "सम्भोग विधान" विषय में। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीत प्रायश्चित्त कहने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार २९५ जे भिक्खू उम्घाइय-संकाप सोचा गच्या संमुजद संभुजतं जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु का) उद्घातिक प्रायश्चित्त का बा साहस्जद। संकल्प सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है. कर वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । मे मिक्त उग्धाइयं वा उग्धाहय-हेड वा सघाइप-संकप्पं वा जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु के) उद्घातिक प्रायश्चित्त; सोमवा गच्चा संभुजा संमुजंतं वा साइज्जद। उद्घातिक प्रायश्चित्त का हेतु या उद्घातिक प्रायश्चित्त का संकल्प सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है. कर वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। ने जिप अणुरघाइयं सोच्था एच्चा संभुजई संमुजतं या जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) अनुपातिक प्रायचित्त साइज्जह। प्राप्त हुआ है, ऐगा सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, करवाता है, करने बाले का अनुमोदन करता है।' जे भिषयू अणुग्धाइय-हे सोच्चा गच्चा संमुजद संमुजंतं वा जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु के) अनुद्घातिक प्रायश्चित्त साइग्जा। का हेतु सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, कर दाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्स्यू अपुग्धाइय-संकप्पं सोरचा गच्चा संभुजह संमुजतं जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु का) अनुवातिक प्रायश्चित्त, वा साइजइ। का मंबाल्प सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू अणुग्धाइयं वा अणुयाइय-हेउं वा अणुराइय- जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु के) अनुद्घातिक प्रायश्चित्त, संकप्पं वा सोच्चा पाचा संभुजद संभुर्जतं वा साइज्जइ । अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का हेतु या अनृद्धातिक प्रायश्चित्त का संकल्प सुनकर या जानघर (उसके साय) आहार करता है, करत. वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खु उम्घाइयं वा अणुरधाइयं वा सोच्चा णचा संभुज जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) उदघातिक प्रायश्चि संभुजत वा सारज्जा। और अनुवातिक प्रायश्चित प्राप्त हुआ है, ऐसा मुनफर य जानकर (उस के साथ) आहार करता है, करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू आधाइय हे वा अगुग्याइय-हेज बा सोच्या णच्चा जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) उद्घातिक प्रायश्चित्त या संभुबइ संमुजतं वा साइजह अनुद्घातिक प्रायश्चित, प्रायश्चित्त का हेतु सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू अग्याइय-संकल्प वा अणुग्याइप-संकरप वा साँच्चा जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) उद्घातिक प्रायश्चित्त या णमा संभुजा संभुत वा साइजह । अनुद्घातिक प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त का संकल्प सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है करवाता है करने गले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उग्याइयं वा अगुग्धा इयं वा उग्घाइय-हे या जो भिक्षु (किसी अन्य भिक्षु को) उद्घातिक प्रायश्चित्त या अणुग्धाइप-हेउ या उग्घाइप-संकप्पं वा अणुग्धाइय संकापं या अनुद्घातिक प्रायश्चित्त, उद्घातिक प्रायश्चित का हेतु, अनुद्सोच्या गच्चा संभुजद संभुजंत वा साइज्जई । पातिक प्रायश्चित्त का हंतु, उद्घातिक प्रायश्चित्त का संकल्प, अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का संकल्प सुनकर या जानकर (उसके साथ) आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेहमाणे आवबह चाउम्मासि परिहारद्वागं अणुग्याइय। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) -नि. उ. १०, सु. १५-३० आता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] परमार मुकादमिरगा | महावत की पाँच भावना भूत्र ४३२ परिशिष्ट-१ बिय मुसावाय विरमण महत्वयस्स पंच भावणा--- मृषावाद-विरमण या सत्य महावत की पांच भावना-- ४३२. १. अग्रवीतिमासगया, ४३२. (१) अनुवीचिभाषण-चिन्तन करके बोलना, २. कोहविवेगे, (२) क्रोध-विवेक-कोत्र त्यागकर बोलना, ३. लोमविवेगे, (३) लोभ-विवेक-लोभ त्यागकर बोलना, ४. भय षिवेगे, (४) भय-विवेक-भय त्यागकर बोलना, ५. हासविबेमे, सम. २५, सु. १६५ (५) हास्य-विवेक हास्य त्यागकर बोलना, तस्स दमा व भावनाओ रितियस्स वयस्स अलियवयास द्वितीय अलीक वचन विरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पात्र वेरमण-परिरक्तगट्टयाए। भावनाएं कही हैंपढम-सोळण संवर? परमट्ठसुठ जाणिकणं ण वेगियं प प्रथम - सत्य वचन रूप संवर का अर्थ गुरु के समीप और सुरियं ण चवलं ग कऽयं ण फरसं ण साहसं या य परस्स उसका परमार्थ सम्यक् प्रकार से समझकर वेग, त्वरा एवं चपलता पीलाकरं सावन, पूर्वक अनिष्ट कठोर साहसिक परपीडाकारी और सावध वचन नहीं बोसने चाहिए। सच्च च हियं न मियं च गाहगं च सुई संगयमकाहलं च सत्य हितकारी परिमित ग्राहक (प्रतीतिजनक) शुद्ध समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्सग्वं । सुसंगत स्पष्ट विचार युक्त बचन संयमी जनों को यथासमय बोलने चाहिए। एवं अगुवोइसमिइजोगेण माविओ मवइ अंतरपा संजयकर. इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा अनुविचिन्त्य समिति के योग चरण-णयण वपणो सूरो सम्बवरजवसंपणो। से युक्त होता है। उसका अन्तरात्मा हाथ पैर नेष एवं मुख को संयत करने वाला शौर्य तथा सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है। वियं-कोहो ग सेवियम्बो, कुडो पंडिक्किमओ मणसो । द्वितीय --क्रोध नहीं करना चाहिए, ऋद्ध और द्र मनुष्य-- १. अलियं भणेज्ज पिमुणं भस्म, फरसं भगेज, अलिय- (१) असत्य भाषण करता है, पंशुन्च-चुगली करता है, पिसुण-फलसं मणेन । कठोर वचन बोलता है, और असत्य, पैशुन्य एवं कठोर ववनों का प्रयोग करता है। २. कलह करेजा, बेरं करेग्जा, विकह करेग्मा, कसहं-बेरं (२) कलह करता है, वैर करता है, विकया करता है और विकह करेज्मा, कलह, वैर एवं विकथा करता है । ३. सच्च हणेन, सीसं हज्ज, विणयं हणज्ज, सउचं सोनं (३) सत्य का घात करता है, शील का घात करता है, विणयं हणेज्ज । विनय का घात करता है और सत्य, शील एवं विनय का घात करता है। ४. बेसो भवेज्ज, वरधुं भवेज्म, गम्मो भवेज्ज, वेतो वरथु (४) ष का पात्र बनता है, दोष का पात्र बनता है, निन्दा गम्मो भवेज्ज । का पात्र बनता है और हूँष, दोष एवं निन्दा का पात्र बनता है। एवं अण्णं च एवमाइयं मणेज कोहग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो जो क्रोधाग्नि से प्रज्वलित है वह इस प्रकार के तथा अन्य ज सेवियम्यो। प्रकार के मृषा वचन बोलता है, इसलिए क्रोध नहीं करना चाहिए। एवं खंतोइ माविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-घरगणयाण- इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा क्षमा से भावित होता है अपमो सूरो सञ्चवजयसंपण्णो। उसके हाथ, पैर, नेत्र एवं मुख संयत हो जाते हैं तथा वह शौर्य एवं सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३२ . मृषावाव-विरमग या सस्य महावत को पांच मावना धारिघाचार ततियं-लोहो न सेवियवो .. १. सुखो लोलो भगेज्ज अलियं, खेत्तस्स व वायूस्त वकएण। तृतीय लोभ नहीं करना चाहिए. लोभी लालची मनुष्य (१) क्षेत्र और वास्तु (मकान आदि) के लिए मिथ्या भाषण करता है। (२) कीति और लोभ के लिए मिथ्या भापण करता है। २. सुखो लोलो मञ्ज . अलियं, किसीए. व. सोमरस व (३) ऋद्धि और सुख के लिए मिथ्या भाषण करता है। .. सुबो लोलो मगज अखियं, रिसीए व लोक्खस्स व करण। ४. खुद्धो सोलो भ गेज्ज अलियं, भत्तास व पागसब करण। ५. लुखो लोलो भणेन्ज अलियं, पीठस्स व फलगरस व फएण । ६. सुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, सेनाए व संथारगम्स वे कएण। ७. खंडोमणेज आंसद स्थान पर (४) भोजन और पान के लिए मिथ्या भाषण करता है। (५) पीढ़ा और फलक के लिए मिथ्या भाषण करता है। (६) शय्या और संस्तारक के लिए मिथ्या भाषण करता है। (७) वस्त्र और पात्र के लिए मिपा भाषण करता है। '८, सुयो लोलो पगेज्ज अलियं, कंबलस्स व पाय पुंछस्स (1) कम्बल और पाद पोंछन के लिए मिथ्या मारण कएण। करता है। १. सुबो लोलो भणेकज अलियं, सोसम्स व सिस्सीणीएव () गिप्य और शिल्या के लिए मिथ्या भाषण करता है। ... करण । खुदो लोलो भणेज्ज. अलियं, अग्नेस य.एवमारिसुबहसु .इत्यादि अनेक कारणों से लोभी मिथ्या भाषण करता है, कारण-सएच. तम्हा लोभो न सेवियच्यो। .. इसलिए लोभ नहीं करना चाहिए। एवं पुत्तीए माविओ भयह अन्तरपा। संजय कर-चरण- इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा मुक्ति (निर्लोभता) से भावित नयण-बघणपूरो सरववज्जवसंपनी। होता है उसके हाथ, पैर, नेत्र एवं मुख संयत हो जाते हैं, लथा शौर्य एवं सरल-सत्य से परिपूर्ण हो जाता है । चजस्थं न भाइयव्य--. चतुर्थ- भयभील नहीं होना चाहिए, १. भीतं खु भया अईति ललयं । .. (१) भयभीत को शीघ्र ही अनेक भय उपस्थित हो जाते है। २. भीतो अवित्तिजनो मणूसो। (२) भयभीत की कोई नहायता नहीं करता है, ३. मौतो भूहि धिप्पइ । (३) भयभीत को भूत-प्रेत लग जाते हैं, ४. भीतो अम्नं पिछ मेसेज्जा । (४) भयभीत मनुष्य दूसरों को भी भवमीत करता है, ५. पीसो तब-संजम पि. मुएज्जा । (५) भयभीत मनुष्य तप-संयम को भी त्याग देता है, ६. मोतो य मरं न मित्परेज्जा । (६) भयभीत मनुष्य भार वहन नहीं कर सकता, ७. सप्पुरिस-मिसेवियं च मग मीतो न समस्यो अणुचरिउ । (७) भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता है। तम्हा न भाध्य भयरस वा, वाहिस्स. श्रा, रोगरस या, अतएव भव से, व्याधि से रोग से, जरा से, मृत्यु से तथा पराए वा, मन्चस्स वा अन्नस वा एबमाइयल्स । .. अन्य किसी भय के हेतु से भयभीत नहीं होना चाहिए। एवं धेज्जेण भाषिओ भवइ अन्तरप्पा । इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा धैर्य से भावित होता है उसके संजय-कर-चरण-नयण-स्यण-मूरो समनबज्जवसंपन्नो। हाथ, पैर, नत्र एवं मुख संयत हो जाते है तथा बढ़ शोयं एवं सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६- बरगानुयोग उपसहार पूर्व ४३२-४॥४ पंचमक-हासंन सेवियज्य। पंचम-किसी की हसी नहीं करनी चाहिए, हंसी-मजाक अलियाई मसंतकाई पति हासरसा। करने वाले ही असत्य वचन और अशोभन वचन बोलते हैं। १. परपरिमवकारणं चहासं । (१) हास्य दूसरे के पराभव का कारण होता है। २. परपरिवायपियं व हास। (२) हास्य पर-निन्दा प्रधान होता है। ३. परपोलाकारगं व हास । (३) हास्य पर-पीड़ाजनक होता है। ४. मेव विमुक्तिकारगं च हास । (४) हास्य से चारित्र का भंग और विकृत मुख होता है। ५. अमोजमणि होम्स हास । (५) हास्य परस्पर (एक दूसरे के साथ) होता है। ६. अन्नोऽनगमगं च होज्न मम्मं । (६) हास्य से (एक दूसरे के) ममं प्रकट होते हैं । ७. अनोऽनगम होज्न कम्म । (७) हास्य लोकनिन्छ कर्म है। ८. कंदापाभियोगगमगं व होऊज हास । (4) हास्य से (साधु की) कान्दपिका और वाभियोगिक देवों में उत्पत्ति होती है। ६. वासुरिय किजिससणं जव पहातं । तम्हा हासन (९) हास्य से (साधु की) असुर और किल्पिषिक देवों में सेपियन् । उत्पत्ति होती है, इसलिए किसी को हँसी नहीं करनी चाहिए। एवं मोगेण माविमो मवड़ अंतरपा। इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा मौन से भावित होता है संजम-कर-चरण मयग-अयण प्ररो सम्मानवसपनो। उसके हाथ, पैर, नेत्र एवं मुख संयत हो आसे है तथा वह मौर्य -प.सु. २, अ. २, सु. ११-१५ एवं सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है। उपसंहारो उपसंहार४३३. एवमि संघरस्स बार सम्म संवरियं हो सुपणिहियं । ४३३. इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण सुरक्षित-सुसेवित इमेहि पंचहिं वि कारहिं मम-बयण-काय-परिरपिखएहि इन पांच भावनाओं से संवर का यह बार-सस्थमहावत सम्यक निच्च बामरमतं च एस जोगो गेयध्वो घितिमया मतिमया प्रकार से संवृत-आचरित और सुप्रणिहित- स्थापित हो जाता अजासवो अकसुसो अच्छिडो अपरिस्सावी असंकिसिठ्ठो सब है । अतएव धैर्यवान तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह जिगमगुण्णायो। आस्मय का निरोध करने वाले, निर्मल, निश्छिद्र -कर्म-जल के प्रवेश को रोकने वाले, फर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवन पर्यन्त आवरण में उतारे। एवं वितिय संबरवार कासिय पालियं सोहिय तीरिवं इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथाकिष्ट्रिय अनुपातिय आणाए आराहिय भवइ । समय अंगीकृत, पालित, शोधित-निरतिचार भाचरित या शोभाप्रदायक, तीरित-अन्त तक पार पहुंचाया हवा, कीर्तितदूसरों के समक्ष आदरपूर्वक कथित. अनुपालित - निरन्तर सेषित और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आधारित होता है। एवं मायमुणिमा भगवया पन्नवियं पकमियं पसिद्ध सिबर- इस प्रकार भगवान् ज्ञातमुनि -महावीर स्वामी ने इस सामणमिणं आधषियं सुदेसिय पसत्य । सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया -प. सु. २, अ. २, सु. १६-१८ है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त कल्याणकारी-मंगलमय है। छम्हं अबयणाइणं निसेहो नहीं बोलने योग्य छ: वचनों का निषेध४३४. नो कम्पह निरगंमाण का निणंयोग वा ४३४. निर्ग्रन्थों और मिग्रंस्थियों को ये छह कुबचन बोलना नहीं इमाइ अवयगा बहत्तए, तंगहा कल्पता है । यथा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व ४३४-४३१ भाषा से सम्बन्धित पाठ स्थानों का निवेध बारित्राचार २६६ १. अलिपनपत्र, २. हीलियबयर्ग, ३. सिसियवय ४. फल्सवयचे, ५. गारस्थियमय ६. विसनिय मा पुनो जीरिसए।' (1) अलीकवचन, (२) अवहेलनाजनक वचन, (३) खिसित वचन, (४) परुष रचन, (२) माहस्थ्य वचन, (6) शान्त कलह को पुनः प्रज्वलित करने वाला वचन। . अट्ठ ठाणाइ निसेहो४३५. कोहे माणे प मायाए लोने बरबस्तया । हासे पए मोहरिए विगहोसु तहेब.॥ भाषा से सम्बन्धित आठ स्थानों का निषेध४३५. (१) क्रोध, (२) मान, (२) माया, (४) लोभ, (५) हास्य, (६) भय, (७) बापालता और (4) विकथा के प्रति सावधान रहे-इनका प्रयोग न करे ।। प्रजावान् मुनि इन आठ स्थानों का वर्जन कर यथा-समय निरवा और परिमित वचन बोले। एपा भद्र झगाई परिवजितु संजए। मसाधर मियालेनासं भासेज पत्र।। -उत्त. भ. २४, गा, ६-१० EXI १ ठाणं.म.६, सु.५२७ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० दरगानुयोग तृतीय महावत स्वरूप एवं आराधना ततीय महाव्रत स्वरूप एवं आराधना .. ततियमहत्वयस्स आराहणा पइण्णा . तृतीय महाव्रत के आराधन की प्रतिज्ञा ४३६, प्रहावरे तम्चे भंते ! महावए अदिन्नादाणाओ वेरमण। ४३६. भन्ते! इसके पश्चात् तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती है। सव्वं मते ! अविनावाण पचवखामि ?1 भन्ते ! मैं सर्व अदत्तादाम का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे से मामे था, नगरे वा, रमे या, अस्पं वा, बहु या, अथा , कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में (कहीं भी) अल्प या बहुत, यूलं वा, वित्तमंतं या, अचित्तमतं वा। सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त (सजीव) हो या अचित्त (निर्जीव)। से य अविष्णादाणे घउम्विहे पण्णते, तं जहा यह अदत्तादाम' चार प्रकार का है जैसे-(१) द्रग्य से, १. दावओ, २. खेसओ, ३. कालओ, ४. भावो । (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से। . . . . १. घओ अस्पं या बहु वा अण वा धूतं वा चित्तमंत वा, (१) दन्य से--अल्प या बद्दुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्तमंतं शा अचित्त। २. खेतओ गामे वा, नयरे या, अरणे वर, (२) क्षेत्र से -गांव में, नगर में या अरण्य में, ३. कालभो बिया वा राओ वा (३) काल से दिन में वा रात्रि में, ४. भावओ अपग्ध वा महाच वा। (४) भाव से अल्प मूल्य वाली या बहुमूल्य वाली। नेव सयं अचिन्नं गेहेज्जा, नवन्नेहिं अबिन्नं गेहावेजा, किसी भी अदत-वस्तु को मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों अविम्म मेण्हते वि अन्ने न समगुजा गेउना, जावज्जीवाए से अदत वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊँगा और अदत्त-वस्तु ग्रहण सिविहं तिविहेणं मणं बायाए का न करेमि न फारमि करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, करत पि अन्न न समणुजामि । तीन करण तीन योम से--मन से, वचन से, काया सेन करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तम्स भंते ! पहिषकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं भन्ते | मैं अतीत के अदत्तादान से निवृत्त होता हूँ, उसकी वोसिरामि । निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। सच्चे भो ! महस्वए उबट्टिओमि सस्वामओ अविनादाणाओ भन्ते ! मैं तीसरे महावत में उपस्थित हुआ। इसमें सर्व वेरमणं । -दस. अ ४, सु. १३ अदत्तादान की विरति होती है। "समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुसे अपसू परवत- मुनि दीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है-"भव में भोई पावं कम्म णो करिस्सामि" ति समुट्ठाए "सभ्य भंते ! श्रमण बन जाऊँगा। अनगार, अकिंचन (अपरिग्रही) अपत्र अविण्णावाणं पसचखामि।" (पुत्रादि सम्बन्धों से मुक्त), अपशु (द्विपद-वतुष्पद आदि पशुओं के स्वामित्व से मुक्त) एवं परदनभोजी (दूसरे गृहस्थ द्वारा प्रदत्त भिक्षा में प्राप्त आहारादि का सेवन करने वाला) होकर मैं अब कोई भी हिमादि पापकर्म नहीं करूंगा।" इस प्रकार संयम पालन के लिए उस्थित-समुद्यत होकर कहता है-"भन्ते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है।" १ तरह गमाइस्स, अदत्तस्स विवजणं । अणवाजेसणिज्जस्स, गेहना अघि दुक्करं ॥ . चित्तमतमचित्तं या अप्पं वा जद वा बहुं । दंतसोहणमेतं पि ओगह सि अजाइना ।। --उत्त. अ.१६, गा, २८ -दम. अ. १, गा १३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र ४३६-४३७ . . .तृतीय महावत और उसकी पांच भावना अरित्राचार ३१ ...से अनुपविसित्ता गाम वा जाब-रायाणि .या णेश सयं . साधु. ग्राम. यावद--राजधानी में प्रविष्ट होकर स्वयं विना अविष्णं गेण्हेज्जा, कामेणं अविणं गेहावेज्जा, पंवऽष्णं दिये हुए (किसी भी) पदार्थ को.ग्रहण न करे, न. दूसरों से ग्रहण अविण गेण्हत पि समगुजाणेज्जा। गए और द: हा अनुरोदन समर्थन करे । -आ. सु. २, अ.५, उ. १, गु. ६०७ अविनादाण महषयस्स पंच भावणाओ तृतीय महायत और उसकी पांच भावना -- . ४३७. महावर तवं मते ! महस्वयं पच्यणामि सर्व अविण्णा- ४३७. "भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महावत स्वीकार . . काणं। करता है, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्या ख्यान (त्याग) करता हूँ। वह इस प्रकारसे मामे वा नगरे वा अरणे वा अल्प वा बढ़ वर अणुं वा वह (माया पदार्थ) चाहे गांव में हो, नगर में हो, अरण्य में (धूल वा बिसमत या अवित्तमंत था गेष सयं अविणगेण्हेज्जा, हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थल' (छोटा हो या बड़ा), करणं अविष्णं गेहावेजा अण्णे पि अविण गेत सचेतन हो, या अचेतन; उसे उसके स्वामी के विभा दिये न तो ण समणुजाणंजा जावज्जीवाए तिविहं तिबिहेगं मगसा स्वयं ग्रहण करूंगा, न दूसरे से (बिना दिये पदार्थ.) ग्रहण करवयसा कामता तप्त भंते ! पविकमामि-जाव-शोसिरामि। वाऊँगा, और न ही अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन-समर्थन करूंगा, मावज्जीवन तक, तीन करणों से. तथा मन-वचन-काया, इन तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूं। साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ,-यावद-अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ। तस्सिमामी पंच मावणाओ भवति ।। उस तीसरे महायत की ये पांच भावनाएँ है-- १. तस्थिमा पढमा भावणा-अणुवी मि मितोगहजाई से (१) उन पांचों में से प्रथम भावना इस प्रकार है-जो निगंथे णो अणणवीयि मितोग्गहजाई से निरपंधे । साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्धन्य है, किन्तु विना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली व्या-अणणवीयि मिलोगहजाई से णिग्गये अविणं . केबली भगवान् ने कहा है --जो बिना विचार किये मितागेण्हेक्जा। अणुषीयि मिसोग्गहजाई से निग्गंधे, मो अणणु- बग्रह की याचना करता है. वह निग्रंन्य अदत्त ग्रहण करता है। बीयि मितोम्गहजाई ति पढमा प्रावणा। अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करने बाला साधु निम्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचारे किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला। इस प्रकार यह प्रथम भावना है.।. २. अहावरा दोच्चा भावणा-अणुण्णबिय पाग मोयगं.भोई (२) इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है-गुरुजनों की से णिमाथे, जो अणणुग्णविय पाण-मायणभोई। . अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि सेवन करने वाला निम्रन्थ होता है, अनुजा लिये बिना बाहार-पानी आदि का उपभोग करने चाला नहीं। .. . . . केवसी यूना-अणगुण्णवीयि पाण-भोयणभोई से गिरगये केबली भगवान् ने कहा है जो निम्रन्थ गुरु आदि की अविष्णं मुंबेज्जा । तम्हा अशुष्णवीपि पाण-भोयण भोई से अनुज्ञा प्राप्त किये बिना पान-भोजनादि का उपभोग करता है, णिगंथे, णो अपणुमत्रिय पाग-भोयणभो ति दोच्चा वह अदसादान का सेवन करता है। इसलिए जो साधक गुरु भाषणा। आदि की अनुमा प्राप्त करके आहार-पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्गन्य' कहलाता है। अनुशा ग्रहण किये बिना आहार-पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह दूसरी भावना है। साधक गुरु न्य' कहलातार पानी Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] परचामुयोग तुतीय महामत और उसको परमावता सूत्र ४३७ ३. अहावरा तच्चा भावणा-जिग्गवे पं उगाहसि, उगाह- (३) अब तुतीय भावना का स्वरूप इस प्रकार है-निन्य यति एताब ताप उग्गहणसोमए सिवा । साधु को क्षेत्र और काल के (उतना-इतना इस प्रकार रो) प्रमाण पूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए । केवलो बुबा--निग्गंधे गं उग्गहसि जम्गहियंसि एसाव ताव केवनी भगवान् ने कहा है जो निग्रन्थ इतने क्षेत्र और मनोहणसीलो अविष्णं प्रोगिण्हेज्बा, निग्गंपे उगाहंसि इतने काल को मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुमा (याचना) ग्रहण अगहियसि एताब-ताब गहणसोलए सिम ति सच्चा नहीं करता वह अदस का ग्रहण करता है। अतः निर्गन्य साधु भावगा। क्षेत्र काल की मर्यादा खोलकर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं । यह तृतीय भावना है। ४. महादरा बस्था भाषणा-निग्गंधे ग जग्गहप्ति जग्गाह- (४) इसके अनन्तर धौमी पाबमा यह है-निम्रन्थ अवग्रह मंसि अभिका अभिक्स उगाहणसोलए सिया । को अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह अनुज्ञा प्रणशील होना चाहिए। केवली मा-निधन बगाहसि उम्गहियसि अमिक्स क्योंकि केवली भगवान् ने कहा है जो निर्घन्य अवग्रह की अभिश्वर्ण मगोरगहणसीसे अरि मिहेन्ना, मिग्णये गं अनुशा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, उगाहसि हिलि अभिस्वर्ण मणिपणे उगहमसीलए बह अदत्तादान दोष का भागी होता है। अतः निग्रंथ को एक सिम सिमस्या भाषणा। वार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः-पुन अवपाहा नुजा ग्रहणशील होना चाहिए । यह चौधी भावना है। ५. महावरा पंचमा भावणा-गुबोयि मिसोगहनाई से (५) इसके पश्चात् पापी भावना इस प्रकार है-जो निग्गधे साहम्मिएसुमो ममणुवीय मित्तोरगहजाई। साधक साधर्मिकों से भी विचार करके मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली या-मणगुणोमि मितोग्गहजाई से निग्नये साहम्मि- केवली भगवान् ने कहा है-बिना विचार किये जो साघएममविणे मोगिणेषणा से अनुबीपि मितोमाहलाई से मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे सामिकों निम्न साहम्मिएम को अगवीमि मितोग्यहमाईतिपंचमा का अदस ग्रहण करने का दोष लगता है। अत: डो साधक मारना। साथमिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है। वही निर्गन्थ कहलाता है। बिना विचारे सार्मिकों से मर्या दित अवग्रह याचक नहीं। इस प्रकार की पंचम भावना है। एताव सार (सच्चे) महम्बयं सम्मं काए फासिते पाणिते इस प्रकार पंच मावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत अदलातीरिए किहिते मट्टिते मागाए भाराहिले पापि भवति । दान विरमण तृतीय महावत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने, गृहीत महावत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। तपय मंते ! महम्बयं अविचारागाओ बेरमगं । भगवन् ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महावत है। -आ. सु. २, म. १५, सु. ७५३-७८५ १ (क) समवायांग सूत्र में तृतीय महावत की पांच भावनाएं इस प्रकार है-- १. भवग्रहानुशापना, २. अवग्रह सीमापरिज्ञान, १. स्वयं ही अवह अनमहणता, ४. साधर्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता । ५. साधारण भक्तपान अनुजाप्य परि जनता। -सम. २५, सु. ११५ (थेष टिप्पण बसले पृष्ठ पर) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रब ४१८-४२९ बत मनुमाससंबर का स्थान चारित्राचार (३०॥ बत्तमणुष्माय संवरस सरूवं दस अनुज्ञात संवर का स्वरूप-- ४३. मायागं मरय विसं मायएग्न सामगि ४३८. "परिग्रह नरक है" यह देखकर एक तिनके को भी "बोछौ अप्पगो पाए" दिन मुंज भोय।। अपना बनाकर न रखे (अथवा "अदत्त का बादान नरक है"-- -उस, ब. ६, गा.. यह देखकर बिना दिया हुआ एक तिनका भी न से) असंयम से जुगुप्सा करने वाला मुनि अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत भोजन करे। गंबू ! बत्तम पुग्णायसंबरो नाम हो तसिय सुम्पता। सुन्दर व्रत बाले हे जम्बू ! तीसरा संबरद्वार रत्तानुमात नामक है। महत्वयं गुणवयं परब-हरण-पडिविरा-बायुतं । अपरि- यह महावत है और गुणवत भी है । इस लोक और परलोक मियम मंतं-सहायगयमाहिन्छ - मन-यण-कलुस-आपाप- के सुधार का निमित्तभूत है । परब्रम्य के हरण करने में विरक्तिसुनिगहिय, सुसंजभिय-मन-हस्थ-पायनिमिय निर्ग. द्विक, युक्त, अपरिमित तया अनन्ततृष्णारूप और अनुगत (वस्तुओं को निहतं, निरास, निम्मय-विमुक्त, उत्तमनर-बसम-पवर- अपेक्षा) महेन्छा रूप को मन-वचन के द्वारा होने वाला पाप बलबम-सुविहितमपसंमतं परमसाधम्मपर। रूपी ग्रहण (आदान) के भली प्रकार निग्रह-युक्त, अच्छी तरह से - सु. २, न. ३, सु. १ संयमित मन-हाथ-पैर आदि के संवरण-युक्त, (बाह्य तया भाभ्य स्तर) अस्थि को तोड़ने वाला, निष्ठायुक्त (उत्कृष्ट), निस्क्त (तीर्थकरों द्वारा पूर्णता से कहा गया), मानव रहित, निर्भय, विमुक्त (लोभ के दोष से रहित) उत्तम, नरवृषभ द्वारा प्रधान बलवान् मनुष्यों और सुविहित (साधु) जनों से मान्य किया हमा और परम साधुओं का धर्मानुष्ठान रूप यह (तीसरा) बट है। अविनादाविरमणमहम्वयाराहगस्स अकरणिज्ज किच्चार- अदत्तादान विरमण महावत आराधक के बकरणीय कृत्य४३६. अस्प 4 गामागार-नगर-निगम खेड-का-मस-योगमुहः ४३६. गांव - आगर - निगम-खेडकरबर-मण्डप-द्रोणमुख-सम्बाह संवाह-पट्टणासपग- किचि बाब मणि-मुत्त-सिलप्पवाल- पट्टण-आश्रम आदि का कोई भी द्रव्य जैसे-मणि-मुक्ता कस-दुस-रवयवर-कणग-रयणमादि पडियं पम्हद विप्पट्टम (मोती), शिला-प्रबाल-कासी (धातु), वस्त्र-सोना-चाँदी-रत्न कति कस्सा कोडं वा, गेमिहर वा। आदि कुछ भी क्यों न पड़ा हो, या किसी का खो गया हो, और वह पड़ा पा गया हो (और उसके मालिक को मिलता न हो) फिर उस के विषय में किसी से कहना या स्वयं उठा लेना, साधु को नहीं कल्पता है। अहिरम-बमिकेग, समलेकंमणे - अपरिगहसपुरे हिरण्य-सुषणं से रहित-धन और पत्थर तथा कंचन को लोगम्मि बिरहिया समान जानने वाला (ऐसी उपेक्षावृत्ति से) केवल अपरिग्रह और संवृत (इन्द्रियों के संवरयुक्त) भाव से, साधु को लोक में धूममा चाहिये। पिप होगमाइ बजातं पलगतं खेसगतं रनमसरगत वा कुछ भी च्यादि पदार्थ खलिहान में हो या खेत में हो, किषि पुष्फ-फल-तपप्पवास-पच मूल-तम-कट्ट-सकरादि जंगल में हो, जैसे फूल-फल बालभंजरी (प्रवास) कन्द-मूल - (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) (ब) प्रश्नव्याकरण में पांच भावनाएं इस प्रकार है-- १. विविक्तवासवसति, २. अभीषण अवग्रह याचन, ३. शय्या समिति, ४, साधारण पिण्डमात्र लाभ, ५. विनय प्रयोग। -प. मु. २, म. ३, सु.10-11 पाठ देखिए-परिशिष्ट में । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] चरणांनुयोग "रत अनुशात सेवर के जातक सूत्र ४३६-४१ अपं च मह च अणुच पुलगे वा न पति उग्गहमि घास-लकड़ी-कंकर आदि वस्तुएँ मूल्यवान या विषेष मूल्य की हों, अक्षिणमि गिहिउँ। घोड़ी हो या बहुत ही,"फिर भी साधु उन वस्तुओं को उसके मालिक की आज्ञा पाये बिना न ने। जे हणि हगि उगहं. अणुनषिय गेण्हियव्यं । प्रतिदिन अवयह पाकर (मालिक की आजा लेकर) उन-उन कल्प्य वस्तुओं को ही साधु को लेना उचित है। बज्जेमकवो सस्वकाल अनियस-घरपवेसो, अचियत-भत्तपाणं, साघु.से. अनीति करने वाले के घर में प्रवेश या ऐसे किसी अचियत्त-पीट - फलग-सेवजा-संथारग-वस्थ-पत्त-कंबल-बंग- अप्रीति वाले के घर का भोजन पानादि साधु को लेना अनुचित रबहरणानसेन्ज-बोलपट्टग-मुहपोत्तियं-पायपुंछणाइ-मायण- है एवं अप्रतीतिकारी के यहाँ से पाट, पटे, शम्बा, संस्तारक, भोहिउदकरण। कपड़े, बर्तन, कम्बल डन्डा रजोहरण. तख्त. चोलपट्टक, मुख पर बांधने की मुख वस्त्रिका, पादपोंछन, भोजन, वस्त्रादि उप करण भी न लें। परपरिवाओ परस्सदोसो, परबचएसेण हइ परस्त नरे अपवाद और के दोषों को) देखकर या किसी नासेइजच मुकयं दाणस य अंतराइयं, पाणविपणासो, दूसरे के नाम से किसी प्रकार की वस्तु न लें, इस रीति के दोष पेसुन्न चच मछरितं । . . साधु के लिए त्याज्य हैं । इस भांति दूसरों के द्वारा किया गया उपकार का नाश करना. इस बंग के कार्य, दान में विघ्न पड़े करने वाले कार्य , दान का विनाश दूसरों की खोटी खरी चुगली चाड़ी तथा मात्सर्व ये सब दोष त्याग करने योग्य है। जे वियपीढ-फलंग-सेन्जा-संथारग-यस्थ-पाय-बल-मुह- जो साधु तख्त, पौकी, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, पोत्तिय-पायछणादि-मायण-मंडोपाहि-उपकरण असंविभागी, रमोहरपर छोटी चौकी, बोलबट्टक, मुंह पर बांधने की महपसी, असंगहई। पर पोंछने का कपड़ा आदि तथा माजन भन्ड इत्यादि उपकरण संविभाग न कर दे, ऐमें उपकरण दोषमुक्त-सूझते मिले तो भी उन्हें लेने की रुचि न करे। तबतेणे य, वयोणे य, स्वतेणे य, आयारे चैव भावतेणे थ। जो तप का चोर हो, बांचा का चोर हो, रूप का चौर हो, __ आचार धर्म का चोर हो, भाव का चोर हो।। सहकरे संभकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे, (रात्रि में) प्रगाढ़-ऊँचे स्वर में बोलता हो, गच्छ में फूट सया अपमाणभोई, सततं अगुबसवेरे य, निसरोसी, से डालता हो, कलह करता हो, वैर बढ़ाता हो, विकथा-बकवास तारिसए नागहए क्यमिणं । करता हो. नित्त में असमाधि उत्पन्न करता हो, सदा प्रमाण रहित ___–प. सु. २, अ. ३, सु. २-७ भोजन करता हो, निरन्तर वैर विरोध को टिकाए रखता हो, नित्य नया रोष' मा अप्रसन्नता रखता हो, ऐसी प्रकृति का साधु तीसरे.प्रत का आराधन नहीं कर सकता है। . . बत्तमणुष्णाय संवरस्स आराहगा दत्त अनुशात संवर के आराधक-- ४४०.५०-अह रिसए पुगाई धाराहए वामगं? १४०. प्र.-यदि पूर्वोक्त प्रकार के मनुष्य इस व्रत की आरा धना नहीं कर सकते) तो फिर किस प्रकार के मनुष्य इस प्रत के आराधक हो सकते हैं ? उ.-जे से उबहि-भत्त-पाण-संगहण-दाग-फुसले । उ०-इस अस्तेय व्रत का आराधक यही पुरुष हो सकता है जो-वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार-पानी आदि का संग्रहण और विभाग करने में कुशल हो। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४०-४४१ वत्त अमुमत संबर का फल चारित्राचार (३०५ अवत-बास बुभ्यस-गिलाग-युत- खबग-यत्तम-आय- जो अत्यन्त वाल, दुर्बल, रुग्ण, एट और मासक्षषक आदि रिय-बसाए, सेहे साहम्मिए, तबस्सी, कुल-गण-संघ- तपस्वी साधु की, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नवदीक्षित चेय?। साधु की तथा सार्मिक-लिंग एवं प्रबचन से समानधर्मा साधु की, तपस्वी कुल. गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो, निम्नरट्री वेयावनचं अणिस्सियं बहुविहं इसविहं जो निर्जरा का अभिलाषी हो-कर्म क्षय करने का इच्छक करे।। हो, जो अनिश्रित हो अर्थात् यशकीर्ति नादि की कामना न करते हुए दूसरे पर निर्भर न रहता हो. वही दस प्रकार का वैयावृत्य, (अन्नपान आदि अनेक प्रकार से) करता है। १. न प अचियत्तस्स गिहं पविसाइ। (१) वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता। २. न य अधियत्तस्स गेहह मत्त पाणं । (२) अप्रीतिकारक के घर का आहार-पानी ग्रहण नहीं करता है। ३. भ प अचियत्तस्स सेवह पीट फलग-सेन्जा संघारग- (३) अप्रीतिकारक ने पीठ, पलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, वस्थ-वाम कंवल-उंग-२यहरण-निसेज्ज-बोलण्टन- पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहण, आसन, चोलपट्ट, मुखबस्त्रिका महपोसिप-पायपुंछणाइ-मायण-मंडोवहि-उवगरणं एवं पादपोंछन भाजन भष्ट उपकरण आदि उपधि भी नहीं लेता है। ४. न य परिवायं परस्स जपति । (४) वह दूसरों की निन्दा (परपरिवाद) नहीं करता। ५. न यावि बोसे परस्स गेहति । (५) दुसरे के दोषों को ग्रहण नहीं करता है। ६. परववएसेपानि किचि गेहति । (E) जो दूसरों के नाम से (अपने लिए) कुछ भी ग्रहण नहीं करता। ७, न य विपरिणामेति किंचि जणं । (७) किसी को दानादि धर्म से विमुख नहीं करता। ८.न यादि पासेड दिन्न-सुकयं । (८) दूसरे के दान आदि का सुकृत अथवा धर्माचरण का अपनाप नहीं करता है। १. राऊण य न होइ पच्छाताबिए। (६) जो दानादि देकर और यावत्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है। १०. संविभागसीसे। (१०) आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला। ११. संगहोवाहकुसले से सारिसए आराहे वयमिणी (११) संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही अस्तेय -पण्ह. सु. २. अ. ३, सु. प्रत का आराधक होता है। त्तमणुष्णाय संवरस्स फलं दत्त अनुज्ञात संवर का फल४४१. इमं च रवव्वहरण-बेरमण-परिरक्षणपाए पावणं भग- ४४१. परकीय दृष्य के हरण से विरमण (निवृत्ति) रूप इस यया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविय आगमेसिमद सय अस्तेयवन की परिरक्षा के लिए भगवान् तीर्षकर देव ने यह नेपा.य अकुडिल अणुसरं सख्खनुस्खपायाग-विनोवसमणं। प्रवचन समीचीन रूप से कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए -पण्ह. सु. २, अ. ३, सु.६ हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला है और भविष्यत् में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याययुक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दु.खों और पापों को निश्शेष रूप से शान्त कर देने वाला है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६) परणानुमोग अन्य साधु के उपकरण-उपयोग हेतु अवग्रह ग्रहण करना अण्ण समणोवगरणस्स ओगह बिहि अन्य साधु के उपकरण-उपयोग हेतु अवग्रह ग्रहण विधान-- ४४२. जेहि विसद्धि संपवहए तसिऽपि याई छत्तयं वा गं वा ४४२. जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रवजित हुआ है. मतयं वा-जाद-चम्मरणम वा तेसि पुरवामेव उगह अण- या विचरण कर रहा है, या रह रहा है, उनके भी छत्र, दण्ड, गुपणषिय पडिले हिय पमजिजय तो संजयामेव ओगिण्हेज मात्रक (भाजन) : यावत् - चच्छेदनक आदि उपकरणों को वर पगिन्हेज था। पहले उनसे अवग्रह अनुहा लिए बिना तथा प्रतिलेखन प्रमार्जन -आ. सु. २, अ.७, उ १. सु. ६०७ किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे । अपितु उनसे पहले वग्रह-अनुजा (ग्रहण करने की आज्ञा) ले कर, तत्पश्चात् उराका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु को एक या अनेक बार ग्रहण करें। रज्ज परियट्टिए ओगह विहि राज्य परिवर्तन में अवग्रह अनुज्ञापन-- ४४३. से रज्जपरियट्टस संपरसु अबोगडेसु अग्लोच्छिन्नेसु अपर ४४३. राजा की मृत्यु के बाद जब तक नये राजा का अभिषेक परिगहिएसु सस्चे ओगहास पुठवाणुनवगा चिटुर अहा- हो राज्य अविभक्त एवं पातुओं द्वारा अनाक्रान्त रहे । राजवंश लंबमवि मोरगहे। अविच्छिन्न रहे और राज्य व्यवस्था पूर्ववत् रहे तब तक साधु गास्चियों के लिए पूर्वगृहीत आज्ञा ही अवस्थित रहती है।। से रज्जपरियट्टमु असंथवेसु योगडेसु बोक्छिन्नेसु परपरिम्ग- राजा की मृत्यु के बाद राज्य विभक्त हो जाम या शत्रुओं हिएसु भिम्भावस्स अट्टाए दोच्चपि ओग्गाहे अणुनवेयध्वे द्वारा आक्रान्त हो जाये। राजवंश विच्छिन्न हो जाये या राज्य सिया। व्यवस्था पूर्ववत् न रहे तो साधु-साध्वियों को भिक्षु-भाव की -बब. उ. ७. मु. २६-२७ रक्षा के लिए दूसरी बार आज्ञा लेनी चाहिए। अपदिष्णादाणस्स वायच्छित सुतं अल्प अदत्तादान का प्रायश्चित्त सूत्र४४४.जे भिक्खू लहुसगं अवत्तं आइयह आइयन्त वा साइज ४४४. जो भिक्षु अल्प अदत्तादान लेता है, लित्राता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। से सेवमाणे आवज्मह मातियं परिहारहाणं अणुम्धाइयं । उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारिक स्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.२, सु २० आता है । सेह-अबहरण-विप्परिणामण पायच्छिस सुतं शिष्य के अपहरण का या उसके भाव परिवर्तन का प्राय श्चित्त सूत्र४४५. भिक्खू सेहं अबहर अवहरतं वा साइज्जद । ४४५, जो भिक्षु शिष्य का अपहरण करता है करवाता है, - करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सेहं विपरिणामेड विपरिणामतं वा साहज्जा जो भिक्षु शिष्य के पूर्व गुरु के प्रति अश्रया उत्पन्न करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाचा उम्मासियं परिहारट्टा अम्बाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुयातिक परिहारिक स्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१०, मु.६.१० आता है। आयरियस अवहरण-विप्परिणामण-पाछित्त सुतं- आचार्य के अपहरण या परिवर्तनकरण का प्रायश्चित्त ४४६. जे मिन्यू विसं अवहरद अबहरतं वा साइजाइ। जे मिरवू विसं विप्परिणामेह विरिणामतं वा साइजई। ४६. जो भिक्षु आचार्य का अपहरण करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु आचार्य का परिवर्तन करता है, करनाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहार स्थान प्रायश्चित्त) आता है। त सेवमागे आवमा घाउम्मासियं परिहारहाणं अणुरबाइयं। --नि. र. १०, सु. ११-१२ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय महावत की पांच भावना चारित्राचार (३०७ + + + + + + + तृतीय महाव्रत परिशिष्ट अदिण्णावाण महब्वयस्स च भावणाओ तृतीय अदत्तादान महाव्रत की पांच भावना४४.१.१. जग्गह्मणुष्णवणया, ४४७. (१) अवग्रह-अनुज्ञापनता । २. उगहसीमगाणगया, (२) अवग्रहसीम-ज्ञापनता। ३. सयमेव उम्गझं अणुगिम्हणया, (३) स्वयमेव अवग्रह-अनुग्रहणवा । ४. साहम्मिय उपगहं अणुण्णविय परिमुंजणपा, (४) साधर्मिक-अवग्रह-अनुज्ञापनता । ५. साहारणभत्तपाणं अणुण्ण विय परिभुजणया । (५) साधारण-भक्तपान अनुज्ञाप्य परि जनता। -- सम. २५, मु. १ तस्स हमा पच भावणाओ होंति परवब्य-हरणबेरमणपरि- परम्पहरण-विरमण (अदत्तादान त्याग) व्रत की पूरी तरह रक्ख णट्टयाए । रक्षा करने के लिए ये पाँच भावनाएँ हैंपढम--देवकुल-समप्पा -आवसह-रुक नमूल-आराम-कंवरागर- प्रथम-देवकुल, सभा-महाजनस्थान, प्रपा, परिवाजक गिरिगुहा-कम्म-उज्जाण-जागसाता कुवियसाला-व-सुन्नघर- निवास, वृक्ष मूल, उद्यान, कन्दरा, खान, गुफा, चूना बनाने का सुसाण लेग-आवणे, अनमि य एवमावियमि वग-मट्टिप-योग- स्थान, पानशाला, गृह सामग्री भरने का स्थान, मण्डप, शून्यगृह, हरित-तस-पाण-असंसते अहाकडे फासुए विवितं पसस्थे श्मशान, लयन -शैल गह, विक्रयशाला आदि अन्य ऐसे ही स्थान अवस्सए होइ बिहरियाबं । जो सचित्त पानी, मिट्टी, बीज, हरितकाय त्रस, प्राणियों से रहित हो और गृहस्व ने अपने उपयोग के लिए बनवाया हो । प्रासुक हो तथा स्त्री-पुरुष-पण्डक से रहित ओर प्रशस्त हो एसे उपाश्रय में साधु को रहना चाहिए। आहाफम्मबहाते य जे से आसिस-समंजिओचलित-सोहिय- जो स्थान आधाकर्मबहुल हो अर्थात् जहाँ साधु के निमित छापण-दूमण-लिपण-अलिपण-अलण-भंगाचालणं, अंतो बहिं पानी का छिड़काव किया हो, माड़ से साफ किया हो, पानी से च आजमो जस्य भट्ट, संजयाण अट्टा बजेयको बस्सओ खूब सींचा हो, चन्दन माला आदि से सुशोभित किया हो, चटाई से सारिसए सुत्त पडिक? । आदि विछाई हो, कलई से श्वेत किया गया हो, गोबर आदि से लीपा हो, बार-बार लीपा हो, गरम करने के लिए या प्रकाश के लिए आग जलाई हो, बर्तन इधर-उधर किये हों इस प्रकार साधुओं के लिए जिस उपाश्रय के अन्दर या बाहर जीवों की यधिक हिंसा की गई हो ऐसा आगम निषिद्ध उपाश्रय साघु के लिए वर्जनीय है। एवं विचित्तवास-वसहि-समितिजोगेण भाविओ भवई अंतरप्पा। इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा विविक्तवाससमिति से निचं अहिकरण-करण-कारावण-पावकम्माविरओ इसमगु- भाबित होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पापकर्मों के करने प्राय-ओग्गहरुई। और करवाने के दोष से नित्य विरत होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला बनता है। बितीयं आरामुज्जाण-काणण-वण पदेसभागे जं किंचि इक द्वितीय :-आराम, उद्यान, कानन और बन प्रदेश में जो च, कठिणग च जंतुन प पर मेर-कुच्च-फुस-सम-पलाल. कोई ककड़न, कठिनग, जतुग परा, मुंज, कुश, दूब, पलाल, मूयग-वलय-पुत्फ, फस-तयप्पवास-कंद-मल-तण कट्ट-सबका मूयग, बल्बज, पुष्प, फल, छाल, अंकुर, मूल, तृण, काष्ठ कांकरी राबो गेहा, सेज्जीबहिस्स अट्ठा न कप्पए प्रोग्गहे अरिन्नमि आदि संस्तारक के लिए आवश्यक हो वे आज्ञा मांग कर लेने गिहे। कल्पते हैं, बिना आज्ञा अदत्त लेना नहीं कल्पता। जे हणि हणि जगह अणनविय गेपिहयवं । प्रतिदिन आज्ञा लेकर लेना कल्पता है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] परमानुयोग तृतीय महावत को पांच भावना सूत्र ४४७ एवं उगाहसमितिजोगेण माविओ मवह अंतरप्पा । इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा अश्वग्रह समिति से भावित निम्न अहिकरण-करण कारावण-पावकम्मविरते रसमलाया होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने और मोग्गहराई। करवाने के दोष से निस्य विस्त होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला बनता है। ततीय-१. पीट-फलग-सज्जा-संथारगट्टयाए सखा न छिदि- तृतीय-(१) पीढ़ा, फलक, शय्या या संस्तारक के लिए वृक्ष यहा । नहीं काटना चाहिए। २. रमेण मेवणेण सज्जा कारेयम्वा । (२) छेदन-भेदन क्रिया कर शय्या नहीं बनवानी चाहिए । १. जस्सेय उवस्सए वसेन्ज, सेज तत्थेव गवेसेज्जा। (३) जिसके उपाश्रय में निवास किया हो वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए। ४. य विसमं समं करेजा। (४) ऊँची-नीची जमीन को सम नहीं करना चाहिए । ५. भिवाय-पवाय उस्मुगुस । (५) हवा का अभाव हो या अधिक हवा आती हो तो कुछ भी प्रतिकार नहीं करना चाहिए । ६.२ इंस-मसगेमु खुभियध्वं । (६) संस या मच्छरों का उपद्रव हो तो भी क्षोभ नहीं होना चाहिए। ७. अग्गी धूमो य न काययो। (७) अग्नि या धुआँ नहीं करना चाहिए। एवं संगम-बहले, संघर-बहले. संसबहूसे. समाहि-बहुले, धीरे इस प्रकार जो पृथ्वीकार आदि जीवों के रक्षण में तत्पर. कारण फासयंतो सवयं अमप्पागजुसे समिए एगे चरेग्ण आश्रय रोकने में तत्पर, कषाय और इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर, चित्त-समाधि में तत्पर, धैर्यवान्, काया से सर्वदा (न केवल मनोरथ से) पारिव का पालन करता हुआ अध्यात्मध्मान से युक्त होता है, वह रागादि से रहित होकर धर्म का आचरण करता है। एवं सेज्जासमितिजोगेश भाविको भबई अंतरपा । इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा शय्यासमिति के योग से निश्चं अहिकरण-करण-कारावण-पायकम्मविरते बतमणुमाय- भादित होता है वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कमों के करने मोग्गहराई। के दोष से विरत होता हुआ दत्त अनुज्ञात अवग्रह को रुचि वाला बनता है। चउत्थं-साहारण-पिंपातलामे भोत्तम्वं संजएण समियं । चतुर्थ- समान साधमिकों को प्राप्त आहार आदि भी आज्ञा प्राप्त करके उपयोग में लेने चाहिए । म साय-पुपाहिक, मानगियं, न सुरिय, न चवलं, न साधर्मिकों के आहार में से शाक, दाल आदि अधिक नहीं साहस, न य परस्स पीलाकर सावज्ज । लेने चाहिए, भोजन का भी अधिक माग नहीं लेना चाहिए, (अन्यथा साधुओं को अप्रीति होती है) ग्रास वेग से नहीं निगलने चाहिए, ग्रास मुंह में जल्दी-जल्दी नहीं रखने चाहिए, आहार करते समय कायिक चपलता नहीं रखनी चाहिए, सहसा (हितमित-पथ्य का विवेक किये बिना) आहार नहीं करना चाहिए, "दूसरों को पीड़ा हो" इस प्रकार आहार नहीं करना चाहिए, सावद्य (सदरेष) आहार नहीं करना चाहिए। तह भोत्तम्वं जह से तत्तियवयं न सीवति । आहार इस प्रकार लेना चाहिए जिससे तृतीय नत खण्डित न हो। साहारम-पिस्पायलामे सहम अविनावाणक्य-नियम-वेरमगं। समान स्वमिकों से प्राप्त आहार आदि के (आज्ञा लेकर) लेने में निश्चित रूप से सूक्ष्म अदत्तादान विरमण व्रत का पालन होता है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र ४४७-४४८. तुतीय महावत की पांच भावना चारित्राचार ३०० एवं साहारण-पिडपायला समिति जोगेण माविमो भबह इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा आचरण विच पात्र समिति अंतरप्पा । के योग से भावित होता है। निच्च अहिकरण-करण-कारायण-पावकम्मबिरसे दत्तमणुनाय वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने व कराने के ओग्गहराई। दोष से विरत होता हुआ दत्त-अनुज्ञात अवग्रह रुचि बाला बनता है। पंचमग-१. साहम्मिरसु विणो पजियम्यो। पंचम --(१) साधर्मी के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। २. उचगरण-पारणासु विणओ पउंजियायो । (२) रोगी आदि के सेवा के लिए, पारणा तपश्चर्या की समाप्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए। ३. वायण-परियट्टमासु विणको पउंजियवो । (३) वाचना-नये ग्रन्थ के अध्ययन में तथा परिवर्तना सूत्रार्थक के दुहराने में विनय का प्रयोग करना चाहिए । ४. वाण-गहण पुख्छणासु विणओ पउँजिपथ्यो । (४) सार्मिकों को आहारादि देने में या उनसे माहारादि ग्रहण करने में अपना सूत्रार्थ की पृच्छा में विनय का प्रयोग करना चाहिए। ५. निमखमण-रवेसणासु विणओ पक्षियम्यो । (५) उपाथय से निकलते समय या उपाश्रय में प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए । ६. गुवसु साहमु तवस्सीसु य विणओ पउंजियम्को। (६) गुरुओं की, साधुओं की, तपस्वियों की बिनय करनी अग्नेसु य एवमाविसु बसु कारणसएसु विणओ पजियग्यो। चाहिए इत्पादि ऐसे अनेक प्रसंगों में विनय का प्रयोग करना चाहिए। विणोषियो, तषो विधम्मो, सम्हा विणओपजियायो। "विनय तप है. तप धर्म है. इसलिए ओं. साधाओं तपस्वियों के प्रति बिनय का प्रयोग करना चाहिए।" एवं विगएण भाविमो भवई अंतरप्पा । इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा बिनय से भावित होता है णिच्वं अहिगरकरण-कारावण-पावकम्म बिरए, बत्तमण- वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने व कराने के दोषों ज्णाय ओग्गहराई। से सदा विरत होता हुआ दत्त-अनुशात के अवग्रह की रुचि वाला --प. सु. २, अ.३, सु. १०-१५ बनता है। उपसंहारो उपसंहार-- ४४८. एवमिगं संवरइस बारं सम्म संवरियं होह सुष्पणिहियं, ४४.. इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रूप से सुरक्षित एवं पंचहि वि कारणेहि मण-वय-काप-परिरविवाहि णिचं सुसेवित इन पाँच भावनाओं से संवर का ग्रह द्वार-अस्तेय महावत आमरणतं च एस जोगो यग्यो घिदमया मइमया अणासको सम्यक् प्रकार से संवृत-आचरित और सुप्रणिहित स्थापित हो अकसुसो अण्दिो अपरिस्साबो असकिसिट्टो सुखो सम्पजिण- जाता है। अतएव धैर्यवान् तया मतिमान् साधक को चाहिये कि मणुण्णाओ। बह मानव का निरोध करने वाले, निर्मल (अकलुग) निच्छिद्रकर्म-जल के प्रवेश को रोकने वाले, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेमा का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे । एवं सइयं संवरबारं फासिय पालियं सोहियं, इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) दत्तानुज्ञात नामक तृतीय मंबरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित-निरतिचार आचरित या शोभाप्रदायक सीरिवं तीरित-अन्त तक पार पहुंचाया हुआ किट्टियं, कीर्तित-दूसरों के समक्ष आदरपूर्वक कथित Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] बरणानुयोग अन्यतोथिकों द्वारा अवसावान का आक्षेप - स्थविरों द्वारा उसका परिहार सूत्र:४८..४६ भारहियं आगाए अणुवालियं रखा। अनुपालित-निरन्तर सेवित और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आराधिन होता है। एवं गयमुणिणा भगवया पण्णवियं पहवियं पसिवं सिद्धं इस प्रकार भगनान् ज्ञातमुनि महावीर स्वामी ने इस सिद्धसिबयर सासणमिग माधविर्य सुवेसियं पसायं । वरषासन का कथन किया है. विशेष प्रकार से विवेचन किया -4. सु. २, अ, ३, सु. १६ है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिये इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त कल्याणकारी-मंगलमय है। अन्नउस्थिएहिं अदत्ताचाणाक्खेवो-थेरेहि तपरिहारो अन्यतीथिकों द्वारा अदत्तादान का आक्षेप - स्थविरों द्वारा उसका परिहार४४१ तेणं कालेणं सेणं समएणं रापगिहे नपरे । वणओ। गुण- ४४६. उस काल उस समय में राजगृह नगर था। (औषपातिक सिलए बेइए वषणओ-जाव-पुडविसिलापट्टओ वण्णओ तस्स सूत्र में वर्णित चम्पानगरवत् जानना) गुणशीलक चैत्य था, गं गुणसिलपास चेयस अदूरसामसे बहवे अन्नउस्थिषा यावत् - पृथ्वी शिलापट्टक था। (यह वर्णन औपपातिक सूत्र परिषति । के पूर्णभद्र वैत्य की भांति समझना तज्ञा शिलापट्टा तक का वर्णन जानना) उस गुणशीलक चैत्य के आस-पास (इर्द-गिर्द) बहुत से अन्यतीर्थिक रहत थे। तेणं कालेणं तेर्ग समएणं समणे भगवं महावीरे आविगरे उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्म के जाव-समोसते-जाव-परिसा परिगया। आदि संस्थापक-यावर पधारे। (यह वर्णन बोपपातिकवत् जानना)-यावत्-परिषद् धर्मोपदेश सुनकर वापिस लोट गयी। तेणे कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अनेक अंतेवासी थेरा भगवंतो आसिसम्पन्ना कुलसम्पन्ना जाव-जीवि- शिष्य जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न-यावत् ---जीवन की आशा रहित यासा-मरणमयविष्पमुकका समस्त भगवनो महावीरस्स और मरण भव से रहित स्थविर भगवन्त श्रमण भगवान महावीर अदूरसामसे उड्ट जाणू अहोसिस हाणकोट्टोवगया संजमेणं के आन-पास घुटने खड़े रखकर, सिर नीचे झुकाकर, ध्यान गोष्ट तवसा अप्पा मावेमाणा-जाव-विहरति । को प्राप्त होकर संयम-तप से आत्मा को भाविन करते हुए विचरते थे। भए पं से अपरियथा जेणेव मेरा भगवन्तो तेणेव उवा- एकदा वे अन्यतीथिक जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ आये । गच्छति, उवाछित्ता ते घेरे भगवन्ते एवं बयासी -"तुम्मे उनके पास आकर स्थविर भगवन्नो को इस प्रकार कहा .."हे अजो तिविहं तिविहेणं असंजय-अधिरय अपडिय-अपचच- आर्यो ! तुम विविध-विविध से (तीन करण तीन योग से) वखाय पावकम्मा सकिरिया असंबुडा, एगंतवजा, एगंतवाला असंयत, अविरत, अप्रतिहत पापकर्म वाले और अप्रत्याख्यान या विभवह । पाप कर्म वाले हो, क्रिया राहित हो, असंवृत्त हो, एकान्त हिंसा कारक, एकान्त अज्ञानी भी हो।" तए णं ते घेरा भगवन्तो ते अनउस्थिए एवं वयासी - ततः स्थविर भगवन्तों ने अन्यतीथिकों में इस प्रकार पूछा--- "केण कारणेगं अज्जो ! तिषिह तिविहेगं असंजय-अविरय- "हे आर्यो ! किस कारण से हम विविध-त्रिविध से असंयतअप्पडिय-अप्परचक्खाय-पावकम्मा-जाव-एगंतबाला यावि अविरत-अप्रतिहत पापकर्म और अप्रत्याख्यान पाप कर्म वाले भवामो?" ---यावत-एकान्त अज्ञानी है ?" तए णं ते अन्न उरिषया मेरे भगवन्त एवं बयासी तदनन्तर अन्य तीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा"तुम्मे ग अज्जो! अदिन्नं गेहह, अविन्न मुंजह, अविनं "हे आयं ! तुम अदत (बिना दिये) ग्रहण करते हो, अदत्त सासिग्नह । प्तए णं तुम्मे अदिन्नं गेम्हमाणा, अदिग्नं मुंज- भोजन करते हो, अदन का स्वाद लेते हो. इस प्रकार तुम मागा, अविन्न सातिजमागा निविहं तिविहेगं असं नस- अदत ब्रहग करते हुए, अदत्त भोजन करते हुए, अदत्त की Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ४४६ बायतीविन मायाले-म द्वारा उसका परिहार शारित्राचार ३११ अविरय-अप्पडिहय-अपहनक्खाय-पाबकम्मा-जाय--एगतबाला अनुमति देते हुए. विविध-त्रिविध से असंयत-अविरत-अनलिहतयावि भबह ।" पापकर्म वाले और अप्रत्याख्यान पापकर्म वाले–याव-एकान्त अज्ञानी हो। तएणते थेरा भगवन्तो ते अनस्थिए एवं बयासी तत्पश्चात् स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीषिकों से इस प्रकार पूछा-- "फेण कारण अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेहाओ, अदिन्न "हे आर्यो ! किस कारण से हम अदत्त ब्रहण करते हैं ? धुंजामो, अदिन्नं सातिजामो?" अदत्त भोजन करते हैं ? अदन का स्वाद लेते हैं ? तए णं अम्हे अविन्न गहमाणा. अविन्न भुंजमाणा. अविन्न अदत्त का ग्रहण करते हुए अदत्त का भोजन करते हुए, सातिज्जमाणा सिविहं तिविहेणे अजय-अविरप-अपरिहय- अदत्त की अनुमति देते हुए, विविध-विविध से असंयत-अविरतअपच्चवाय-बावकम्माजाव-एगतबाला याषि भवामो ? पापकर्म के अनिरोधक, पापकर्म के अप्रत्यारुपान वाले-पावत्-. एकान्त अज्ञानी भी हैं ?" तए गं ते अन्नउस्थिया ते धेरै भागवन्ते एवं बयासो बाद में अन्यतीथिकों ने स्थविर मगवन्तों से इस प्रकार कहा"तुम्हाणं अज्जो ! विज्जमाणे अबिन्ने, पडिगहेजजमाणे "हे आर्यों ! आपके मत में दिया जाता हुआ पदार्थ "नहीं अपडिमाहिए निसिरिज्जमाणे अणिसट्ट, दिया", ग्रहण किया जाता हुआ पदार्थ "नहीं ग्रहण किया', पात्र में डाला जाता हुआ पदार्थ-"नहीं डाला गया" ऐसा कधन है। तुभेण अज्जो! बिजमाणं पडिमालं असंपत्तं एत्थ हे आर्यों ! आपको दिया जाता हुआ पदार्थ, जब तक पात्र अंतरा केइ अवहरिज्जा, गाहाबइरस ण तं, मो खलु तं सुम्भ, में नहीं पड़ा तब तक बीच में से ही कोई उसका अपहरण कर तइ गं तुन्भे दिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुजह, अदिन्नं सातिजह ले तो तुम कहते हो-"वह उस गृहाति के पदार्थ का अपहरण "तए गं तुम्भे अविन्नं गेव्हमाणा, अदिन्न भुजमाया, अदिन्नं हुआ", "तुम्हारे पदार्थ का अपहरण हुआ" ऐसा तुम नहीं कहते । साति जनाणा-जात्र-एगंतवाला यावि भयह ।' इस कारण से तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, तुम अदत्त का भोजन करते हो, अदत्त की अनुमति देते हो, अतः तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए, अदत्त का भोजन करते हुये, अदत्त की अनुमति देते हुए-~~यावत्-एकान्त अज्ञानी हो ।' सए गं ते येरा भगतो ते अनस्थिए एवं वासी तदनन्तर म्यविर भगवनों ने उन अन्यतीथिको को इस प्रकार कहा"नो खतु अज्जो ! अम्हे अपिन्न गिहामो, अदिन भुजामो, हे आर्यो ! हम अदन ग्रहण नहीं करते, अदत्त भोजन नहीं अविन्न सातिजामो, अहे 4 अज्जो! दिन्नं गेल्हामो, बारते, अदन की अनुमोदना नहीं करते, हम दत (दिया हुआ) बिस्ने झुंजामो, दिन्नं सातिज्जामो।" ग्रहण करते हैं, दत का भोजन करते हैं, दत्त की अनुमोदना करते हैं। तए णं अम्हे दिन्नं गेहमागो, बिम्न भुममाणा, बिन्नं अतः हम दत को ग्रहण करते हुए, दत्त का भोजन करते सातिज्जमाणा तिविहं सिविहेणं संजप-विरय-परिय-ग्रुच- हये, दल का अनुमोदन करते हुए, त्रिविध-त्रिविध संयत-विरत, खाप-पावकम्मा, अकिरिया, संखुडा, एगंत अवंशा, एगत- पारकर्मों के निरोधक, पापकर्मों के प्रत्यास्थान किये हुए, निया पंधिया पावि मवामो। रहित-संवृत, एकान्त अहिंसक, एकान्त ज्ञानी हैं।" तए गं ते अन उत्थिया ते येरे भगवते एवं बधासी तत्पश्चात उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों इस प्रकार पूछा"केण कारणेणं अज्जो ! तुम्हे दिग्नं गेण्हह, चिन्नं मुंजह हे आर्यों | किस कारण से तुम दत्त ग्रहण करते हो, दत्त दिन्नं सातिज्जह," सए णं तुरमे दिन्नं गेण्हमाणा-जावरगत- भोजन करते हो, दत्त की अनुमोदना करते हो, दत्त ग्रहण करते पंडिया पावि मवह । हुए-यावत्-एकान्त ज्ञानी हो ? Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] चरणानुयोग अन्यतीथिकों द्वारा अपत्तादान का आक्षेप-स्पविरों द्वारा उसका परिहार हार सूत्र ४४६ सएशंते थेरा भगवन्तो ते अन्नउत्थिए एवं ययासी- तदनन्तर स्थविर भगवन्तों ने अन्यनीथिकों को इस प्रकार कहा"अम्हे णं अज्जो ! विज्जमाणे बिन्ने, पडिगहेजमाणे पति- "हमारे मत में हे आर्यों ! दिया जाता हुआ "दिया गया" गहिए निसिरिज्ममाणे निसट्ट। अम्हे गं तं णो खलु तं प्रण किया जाता हुआ "ग्रहण किया" पात्र में डाला जाता हुआ गाहावहस्स। "पात्र में डाला गया" ऐसा कथन है। अतः हमें दिया हुआ पदार्थ जब तक पात्र में नहीं पड़ा हो तब तक बीच में से कोई अपहरण करता है तो वह हमारा है, वह गृहस्थ का नहीं है। तए णं अम्हे विन्नं गेम्वामो, विन्नं भुजामो, बिन्नं सातिजामो, अत: हम दिया हुआ ग्रहण करते हैं. दिया हुआ भोजन करते तए थे अम्हे दिन्नं गेहमाणा, दिन्नं भुजमाणा, विन्नं साति- हैं, दिये हए की अनुमित देते हैं। इस प्रकार हम दत्त का प्रहण ज्जमाणा तिविह तिविहेणं संजय-विरय-परिहय पच्चयाय- करते हुए. दन का भोजन करते हुए, दत्त की अनुमति देते हुए, पावकम्मा-जाब-एगंतपंडिया यायि भवामो । विविध-त्रिविध से संयत-विरत-पापकर्म के निरोधक, पाप कर्म के प्रत्याख्यान किये हुए क्रिया रहित, संवृत्त, एकान्त अहिंसक —यायत् -एकान्त पण्डित हैं । तुम्मे " अज्जो! अप्पणा चैव तिविहं तिविहेण असंजय हे आर्यों! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध से असंयत-अविरतअतिरय-अपडिहय-अपच्चरखाय पायकम्मा-जाव-एगतबाला पापकों के अनिरोधक, पापकर्मों के प्रत्याश्यान नहीं किये हुए पावि भवह । –यावत् - एकान्त अशानी हो । तए ते पन्नउस्थिया ते धेरे भगवंसे एवं वयासी तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने स्थदिर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"केण कारणेणं अज्जो अम्हे तियिह तिविहेणं असंजय-अविरय- "किस कारण से हम त्रिविध त्रिवित्र से असंयत्त-अविरतअपडिहय-अपच्चक्खाय पावकम्मा सकिरिया-असंवृद्धा एगत- पापक्रमों के अनिरोधक पापकर्मों के प्रत्याख्यान नहीं किये हुए वंडा एगंतबाला यावि भवामो? -यावत-एकान्त अज्ञानी हैं ? तए गं ते थेरा गयंतो ते अन्नउत्यिए एवं बयासी तदनन्तर जन स्थविर भगवन्लों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा"तुम्मे पं अजो ! अदिन्नं गेहह, अदिन्नं भुजह, अदिन्नं हे आर्यों ! तुम अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते साइज्जइ, तए गं अज्ज़ो ! म अविन्नं गेण्हमाणा. अविन्नं हो, अदत्त की अनुमति देते हो। इस प्रकार हे आर्यो ! तुम अदत्त मुंजमाणा, अविन साइज्जमाणा तिबिहं तिविहेणं असंजय- ग्रहण करते हुए, अदत्त भोजन करते हुए, अदत्त की अनुमति देते अविरय अपडित्य-अपच्चखाय पायकम्मा-जाव-एम.उवाला हुए त्रिविध-त्रिविध के असंयत, अविरत. पापकों के अनिरोधक पावि भवह।" पापक्रमों के प्रत्यास्थान नहीं किये हुए यावत् -एकान्त अशानी हो। तए गं ते अन्ननस्थिया ते थेरे भगवंते एवं बयासी -- तदनन्तर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"केण कारणे अज्जो 1 अम्हे अदिन्नं गेम्हामो, अदिन्न हे आयर्यो ! किस कारण से हम अदस्त ग्रहण करते हैं, अदस्त भुजामो, अविन्न साइज्जामो, तए णं अम्हे अदिन्नं मेहमागा, भोजन करते हैं. अदस्त की अनुमति देते हैं. इस प्रकार अदल्ल अदिन्न भंजमामा, अम्नि साइज्जमाणा तिविहं तिविहेणं, ग्रहा करते हुए, अदत भोजन करते हुए, अदत्त की अनुमति असंजय-अविश्य-अपच्चक्खाय-पावकम्मा-जाब-एगंतवाला देते हुए त्रिविध-विविध असंयत-अविरत-पापकों के अनिरोधक, यावि भवामी।" पापकर्मों के प्रत्याख्यान नहीं किये हए-यावत-एकान्त अशानी होते हैं? तए गं येरा भगषन्सो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४५ अन्यतीथिकों द्वारा असावाम माक्षेप :स्थविरों द्वारा परिहार पारिवाचार [९१३ सुम्मे मं अमो रिज्नमाणे-अविन्ने, पजिगहेन्जमाणे अपडित हे आर्यों तुम देते हुए को "अदत्ता' ग्रहण करते हुए को गहिए, निसिरिज्ममाणे अनिस । "ग्रहण नहीं किया", पात्र में डाला जाता पदार्थ “नहीं जाता गया" (मानते हो)। पुरे में जो ' मा प्रतिपादन मन हे आर्य ! दिया जाता हुआ पदार्थ जब-तक पात्र में नहीं अंतरा केह अवहरिगना गाहस्वइस्स पं तं, नो खलु तं तुम्म, आया और बीच में से ही कोई उसे अपहरण करता है तो वह तए मे अदिन्नं गेहह, अरिन्नं भुजह, अदिन्नं सातिजह, गृहस्थ का है, वह तुम्हारा नहीं है, अतः तुम अदस्त ग्रहण करते हो, अदस्त भोजन करते हो, अदत्त की अनुमति देते होतए गं तुम्मे अदिन्नं गेहमागा, अदिन्नं मुंजमाणा, अविन्नं इस प्रकार तुम अदस्त का ग्रहण करते हुए अदस्त का साइजमाणा तिधिलं तिषिहेणं असंजय-अविरय-अपरिय- भोजन करते हुए, अदत्त की अनुमति देते हुए विधि-विविध से अपस्वखाप पावकम्मा-जाव एतबाला यादि पवह।" असंमत्त-अविरत-पापकों के अनिरोधक, पापकों का प्रत्यायन - वि. स. प. उ. , सु. १-१५ नहीं किये हुए-पावत्-एकान्त अशानी हो।" Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] क्षरणानुयोग ब्रह्मचर्य महाव्रत के आराधन की प्रतिज्ञा ह्मचर्य स्वरूप (9) उभचे महत्ययस्स आराण-पणा४१०. हा महाम चतुर्थ महात सम्भन्ते मे कस्यामि से विश्वं वा माणूस मा तिरिख जोगिं वा । १.सुवा, कसते वा ब [ मेपमा १२. बेल, ३. कालयो, ४. माओ । रामि । 1 २. ३. कालओ दिया वा रात्रो वा ४. भावनो रामेण वा प्रोसेन वा 1] नेव सयं मेतृर्ण सेवेज्जा, मेवम्नेहि मेहुणं सेवामेउजा, मेगं सेवनेन समगुजारला जाबजवाए तिथि तिथि हे माया कारणं न करेमि न कारवेसि करत वि अन्नं न जानामि । बा. महोलोए वा सिरियलोए बा | पविमामि निशान परिहामि अध्याग बोलि घर सम्ते ! महाए उबडिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं -- अ. ४, सु. १४ अब महत्व पचपचामि सब ने से दिव्यं था, माणसं या तिरिमखजोगियं वा न सयं मेव मे गच्छाविला, मेह गण समाजा आजीबाए तिहिं तिविजानीतिरामि । चतुर्थ हाच महाव्रत के आराधन की प्रतिज्ञा४५० भन्ते ! इसके बाद चौथे महाव्रत में मैथुन को विरति होती है। सूत्र ४५० भन्ते ! मैं सत्र प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। [देव] सम्बन्धी मनुष्य सम्बना विर्यन सम्बन्धी [ वह मैथुन भार प्रकार का है, जैसे- (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से 1 (१) द्रश्य से रूप में या रूप युक्त द्रव्य में, (२) क्षेत्र से उतोक, या लोक वा तिलक में, (३) काल से दिन में या रात्रि में, (४) भाव से राग या द्वेष से । ] मेनका मैं स्वयं सेवन नहीं दूसरों से मैथुन सेवन नहीं कराऊंगा और मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा यावजीवन के लिए तीन कर तीन योग से मन से, वचन से, काया से न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भन्ते । अतीत के मैथुन-सेवन से निवृत होता है, उसकी निन्दा करता हूँ, गहू करता हूँ और मैथुन से अविरत आत्मा की अतीत अवस्था का व्युत्सर्ग करता हूँ । भन्ते चौथे महाप्रत में उपस्थित हुआ है। इसमें स मैथुन की विरति होती है। इसके बाद भगवन्! मैं चतुर्थ महावत स्वीकार करता हूँ इसके सन्दर्भ में समस्त प्रकार के मैथुन विषय सेवन का प्रत्यास्यान करता हूँ। - देव सम्बन्धी मनुष्य सम्बन्धी और वियं योनि सम्बन्धी थुमका में स्वयं सेवन नहीं करूंगा व दूसरों से एतत् सम्बन्धी मैथुन सेवन कराऊँगा, और न ही मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन होगा। १ पिरई कामभोगमा उम्मरंभं धावदुक्करं ॥ यावज्जीवन तक तीन करण तीन योग से यह प्रतिज्ञा करता है याद अपनी आत्मा से मैथुन सेवन पाप का युव करता हूँ । -उत्त. अ. १९, गा. २६ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४५१ नविरमणवत को पांच भावमाएं चारित्राचार ३१५ मेहणविरमणवयस्स पंच भावणाओ - मैथुनविरमणबत की पाँच भावनाएं४५१. सस्सिमाओ पंच मावणाओ भवति । ४५१. उसकी पाच भावनाएँ कही गई है१. तस्थिमा पदमा भादणा (१) उन पांच भावनाओं में पहली भाषना इस प्रकार हैपो णिमये अभिमवर्ग अभिक्खणं इत्थीग कह कहइत्तए निम्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा (बातसिया। चीत) न कहे। केषसी बूया-निग्गथे गं अभिषक्षणं अभिषणं इस्थीणं कह केवली भगवान् ने कहा है--बार-बार स्त्रियों की कथा कहेमाणे संतिमेदा, संसिविमंगा, संति केलिपण्णताओ कहने वाला निर्ग्रन्थ शान्ति रूप चारित्र का और शान्तिरूप धम्माओ सेज्जा। ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। णो णिग्गथे अभिवखणं अमिक्खणं इत्योणं कह कहेहतए सिय अतः निम्रन्थ को स्त्रियों की कथा बार-बार नही कहनी त्ति पक्षमा भाषणा। चाहिए । यह प्रथम भावना है। २. महावरा बोचा भावणा (२) इसके पश्चात् वूसरी माधना यह हैगो णिगंथे हत्थोणं मगोहराई मगोरमाई इंदियाई भालो- निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इत्तए णिमाइतए सिया। इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेष रूप से न देने ।। केवसी बूया-णिगं गं हस्थीण मणोहराई मणोरमाई केवली भगवान् ने कहा है --स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम वियाई आलोएमाणे णिमाएमाणे संतिभेवा, संतिविमंगा इन्द्रियों को काम-रागपूर्वक सामान्य मा विशेष रूप से अवलोकन संति केवलिपग्णताओ धम्माओ भंसेज्जा, करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवलीनरूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गोणि इत्थीणं ममोहराई मणोरमाई बियाई आलो- अतः निर्गन्ध को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रिमों सिए गिज्माहसए सिय सिसोचा भावणा। का कामरागपूर्वक सामान्य अथवा विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए। यह दूसरी भावना है। ३, अहावरा तच्या भाषणा (३) इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार हैणो गिरगं इस्थोणं पुनरवाई पुग्यकोलियाई सुमरिसए निम्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति (पूर्वाश्रम में सिया। __ को हुई) एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे। केबली सुपा-गिपंथे गंहस्थीर्ण पुम्बरयाई पुम्बकीलिया केवली भगवान् ने कहा है स्त्रियों के साथ की हुई सरमाणे संतिभेषा सतिविमंगा संति केवलिपपलाओ पूर्वरति एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिधम्माओ मैसेज्जा । रूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने बाला होता है तथा शान्तिरूप केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गो पिग्गंधे इत्यीणं पुग्वरपाई पुश्वकीसियाई सुमरित्तए सिप अत: निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ हुई पूर्वरति एवं पूर्व तितम्या भावणा। काम-कीड़ा का स्मरण न करे । यह तीसरी भावना है। ४. अहावरा च उत्था भावणा (४) इसके बाद चौयो भावना इस प्रकार हैणातिमत्ताग-भोयणभोई से निगंधे, णो पणीयरसभोषण- निग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपयोग करे। केवली धूया -असिमसाण-भोयणमोई से भिग्न पणीय- केवली भगवान ने कहा है -जो नित्य प्रमाण से अधिक रस भीषणमोई सि संतिभेवा संसिविमंगा संति केवलि- (अतिमात्रा में) आहार-पानी का सेवन करता है, तथा स्निग्ध पण्णताओ धम्माओ मंसेउजा । सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, यह गान्तिरूप चारित्र का नाश करने वाला तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य को भंग करने वाला होता है तथा शान्तिरूप केवली-प्रजप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५] परणानुयोग गह्मचर्य महिमा सूत्र ४५१-५५२ गातिमत्तपाण-मोयणमाई से निथे, गो पणीतरसमोयणमोई इसलिए निम्रन्थ को अति मात्रा में माहार-पानी का सेवन ति चवस्था भावणा। या सरस स्निग्ध भोजन का उपभोग नहीं करना चाहिए । यह तीथी भावना है। ५. अहावरा पंचमा भावणा इसके अनन्तर पंचम भावना का स्वरूप इस प्रकार है -. गो णिगये इत्यो पसु पंडगसंसत्ताई सपणासणाई सेवितए निर्मन्य स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या (वसति) सिया। और आसन आदि का सेवन न करे। केवली यूमा-निगये गं पी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयका- केवली भगवान् कहते हैं जो नियन्य स्त्री, पशु और नपुंसणाई सेवेमागे सतिभेवा संतिविमंगा, संति केवलिपग्ण- मक से संसक्त पाया और आसन आदि का सेवन करता है, वह सामो धम्माओ मंसज्जा । शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर देता है, शान्तिरूप ब्रह्मचर्य को भंग कर देता है और शान्तिरूप केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। मो जिग्गवे इत्थी-पसु-पक्षणसंसत्ताई सपणासणाई सेवित्तए इसलिए निम्रन्थ को स्त्री-पशु-नपुंसक संसक्त शय्या और सिय ति पंचमा भावणा।' आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। यह पंचम भावना है। एताव ताव महम्बए सम्म काएम कासिते पालिते सोहिते इस प्रकार इन पांच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत सौरिए किहिते अदिको प्राणार आराहिते पावि अप्रति। मैथुनविरमण रूप चतुर्थ महावत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने पर, उसका पालन करने पर, उसका शोधन करने पर, प्रारम्भ से पालन करते हुए पूर्ण करने पर, पूर्ण नियमों का पालन करने पर, कीर्तन करने पर तथा अन्त तक उसमें अबस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्बर आराधन हो जाता है। अउत्य भंते ! महस्वयं मेहुणामी वेगमणं । भगवन् । यह मैथुन-विरमणरूप चतुर्थ महाव्रत है । -आ. सु. २, अ. १५, सु. ७८६-७५ बंभवेर महिमा ब्रह्मचर्य महिमा४५२. जंबू ! एतोय बंभवेरं उत्तम-तब-मियम-माण-बसण-चरित- ४५२. हे जम्बू ! अदनादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है। समत-विणपमूल। यह ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है। यम-नियम-गुणयहाणबुसं, यम और नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त है। हिमवंत-महंत-तैयमंत-पसत्य-गंभोर-थिमित-ममा, हिमान् पर्वत से भी महान और तेजस्वी, जिसके पालन करने से साधकों का अन्तःकरण प्रशस्त, गम्भीर और स्थिर हो जाता है। १ (क) समवायोग सूत्र में चतुर्थ महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार है-१. स्त्री-पशु और नपुंसक से संसक्त शयन, आसन का वजन, २. स्त्रीका बिरर्जनता, .. स्त्रियों की इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन, ४. पूर्वमुक्त और पूर्वक्रीड़ित का प्रस्मरण, ५. प्रणीत आहार का विघर्जन। --सम, २५, सु. १ (ख) प्रश्नव्याकरग में पांच भावनाएं इस प्रकार हैं-१. असंसक्त वासवसति, २. स्त्रीजन कथा-वर्जन, ३. स्वी के अंग प्रत्यंगों और पेष्टाओं के अवलोकन का वर्जन, ४. पूर्वभुक्त भोगों को स्मृति का वर्जन, ५. प्रणीत रस का भोजन वर्जन। विस्तृत पाठ परिशिष्ट में देखें। -प. सु. २. अ. ४, सु. ८-१२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५२-४५३ महाचर्य को संतीस उपमाएँ चारित्राचार ३१७ अजवसाहुजणारितं यह सरल साधृजनों द्वारा आचरित है। मोखमप, विमुख-सिद्धिगति-निलयं, यह मोक्षमार्ग है, विशुद्ध सिद्ध गति का स्थान है। मासपमध्वाधामपुगगमवं, पसत्य, सोम, सुभ, सिवमयलम- यह शाश्वत है, क्षुधादि पीड़ाओं से रहित है और पुनर्भब पखयकर, को रोकने वाला है, प्रधास्त है, भगलमय है, सोम्य है, शुभ अघबा सुखरूप है, शिव है, अचल है, अक्षयकारी है। जतिवर सारविक्षत, सुचरियं, सुसाहियं, इस ब्रह्मचर्य का यतिवरों ने सम्यक् प्रकार से रक्षण किया है, सम्यक् प्रकार से आचरण किया है, सभ्यक प्रकार से कहा है। नवरं-मुणिवरेहि महापुरिस-धीर-सूर-धम्मिय-धितिमंताण विशेष-उत्तम मुनियों ने, महापुरुषों ने, धीर, शूरवीरों य सया विसुद्ध, मे, धार्मिक पुरुषों ने, धैर्यवानों ने इस ब्रह्मचर्य का सदा, याव ज्जीवन पालन किया है। मव्व सम्बमबजणाधिन निस्संकियं निउभयं, नित्तुसं, यह व्रत निर्दोष है, कल्याणकारी है, भव्यजनों ने इसका निरायास, निश्वलेवं, आचरण किया है, यह शंका रहित है, भय रहित है, तुषरहितस्वच्छ-तन्दुल के समान खेद के कारणों से रहित है, पाप के लेप से रहित है। निवृतिपरं, नियम, निस्पकंपं सव-संजम-मूल-वलिप-लेम्म, निवृत्ति—गन का मुक्ति गृह है, नियमों से निश्चल है, तप संयम का मूल है। पंच महत्वय-सुरक्खि, समिति-गुत्तिगुप्त, पंच महाव्रतों से सुरक्षित है, समिति गुप्ति से युक्त है। शाणवरकवासुफ यं, अजाप्पविनफलिह, उत्तम ध्यान के लिए कपाट के पीछे मध्य भाग में दी हुई अर्गला के समान है। संनडोमछाय-दुग्गहपह, सुगहपहबेसगं च, लोगुत्तमं च। यह व्रत दुर्गति के मार्ग को अवरुद्ध करने वाला है और -प. सु. २, ३, ४, सु. १ सुगति का पथदर्थक है । यह व्रत लोक में उत्तम है। देवाणवगन्धब्बा जक्ख-रक्खस-किन्नरा । ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर घम्भयारि नमंसन्ति, बुक्करं जे करन्ति तं ॥ ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन --उत्त. म.१६, गा.१५ करता है। बंभचेरस्स सत्ततीस उवमानो ब्रह्मचर्य की सैंतीस उपमाएँ४५३. १. वयमिग एउमसर-तलाग-पालियं, ४५३. (१) यह व्रत कमलों से सुशोभित सरोवर और तालाब के समान धर्म की पाल के समान है अर्थात् धर्म की रक्षा करने वाला है। २. महासगह-अगत्यभूमं, (२) किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के समान है। ३. महाविरिम-ख-खंधभूम, (३) यह व्रत किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है, धर्म का आधार ब्रह्मचर्य है। ४. महानगर-पागार-बाज-फसिहभूयं, (४) यह व्रत महानगर के प्राकार-परकोटा के कपाट की अर्गला के समान है। ५. रज्जु-पिणिद्धो व ईककेतू विसुजणेग-गुण-संपणिवं। (५) डोरी से बंधे इन्द्रश्वज के सदृश है। उसी प्रकार अनेक गुणों से समृद्ध ब्रह्मचर्य है। ६. गहगण-मक्खत-तारगाणं जहा उड़बई । (६) जैसे ग्रहगण नक्षत्र और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11=) ww चरणानुयोग ७. मणि पुस- सिल प्पवास-रस-रमणागराणं च जहा समु ८. वेलिओ घेव जहा . E. जहा मउको छेव मूलणार्थ । १०. स्थाणं चैव जोमसुपलं । १५. मगरे । ११. अरविन् १२. पोसी बंदणार्थ । १३. हिमवन्तो बेब ओसहोणं । १४. सीतोवा घेण निवाणं । १६. गवरे चैव मंडलिक पध्वयाणं । १०.पए व जराणं । १८. सिहोय जहा मिगाणं । ११. परो सुपझगाणं २६. वेणुदेवे । २०. धरणे अहा पग-इंदराया। २१. लोए। २२. सभासु य जहा भवे सोहम्मा २३. ठितिसु लवससमध्य वरा । २४. दामागं चेव अभयवाणं । २५. किमिराओ बेव कम्यलाणं । बह्मचर्य की तीस उपमाएँ २७. संहाने चैव समचरंसे । (७) मणि मुक्का, शिला वारला (रत्न) की उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार ब्रह्मग सर्व व्रतों का श्रेष्ठ उद्भव स्थान है ( ) इसी प्रकार ब्रह्मचर्य मणियों में वैडूर्यमणि के समान उत्तम है। (१) आभूषणों में मुकुट के समान है। (१०) समस्त प्रकार के वस्त्रों में क्षोमयुगल / कपास के वस्त्रयुगल केस है। (११) पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द कमलपुष्प के समान है। (१२) चन्दनों में गोशी चन्दन के समान है। (१३) से चमत्कारिक वनस्पत्तियों का उत्पत्ति स्थान हिमवान् पर्वत है, उसी प्रकार आमशोध आदि (सब्धियो) है। की उत्पत्ति का स्थान श्रीतोदा नदी प्रधान है, वैसे ही सब (१४) जैसे नदियों में व्रतों में बढ़चर्य प्रधान है। ४५१ (१५) समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र जैसे महान है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्यं महत्वशाली है। (१६) जैसे माण्डतिक अर्थात् गोलाकार पर्वतों में रुचकवर पर्वत प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचयं प्रधान है। (१७) इन्द्र का एरावण नामक गजराज जैसे सर्व गजराजों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकारों में मुख्य है। (१०) तुओं में सिंह के (११) ब्रह्मचर्यं सुवर्णकुमार देवों में श्रेष्ठ है। प्रधान है। वेणुदेव के समान (२०) जैसे कुमार जाति के देशों में धरमेन्द्र प्रधान है, उसी प्रकार सर्व व्रतों में ब्रह्मचर्यं प्रधान है । (२१) कल्पों में कहानी कल्प के समान ब्रहावर्य उत्तम है। (२२) जैसे उत्पाद सभा आदि इन पांचों सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य है । (२१) जैसे स्थितियों में मातरनिमानवासी देवो की स्थिति प्रधान है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचयं प्रधान है। (२४) सब दानों में अभयदान के समान ब्रह्मचर्य सब व्रतों में श्रेष्ठ है। (२५) ब्रह्मचर्यं सब प्रकार के कम्बलों में कृमिरागरक्त कम्बल के समान उत्तम है । व्रतों में उत्तम है । (२६) संहननों में ऋषभनाराचसंहनन के समान ब्रह्म यं समस्त व्रतों में उत्तम है । (२७) संस्थानों में परसंस्थान के समान बढ़ाये समस्त Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र ४५३-४५५ ब्रह्मचर्य के खजित होने पर सभी महावत खण्डित हो जाते हैं पारित्राचार ३१६ २८, झाणेसु य परमसुक्कक्षाणं । (२५) ब्रह्मचर्य ध्यानों में परम शुक्लध्यान के समान सर्व प्रधान है। २६. णाणेसु य परमकेवलं सुप्रसिद्ध । (२६) समस्त ज्ञानों में जैसे केवलज्ञान प्रधान है, उसी प्रकार सर्व प्रत्तों में ब्रह्मचर्य वत प्रधान है। ३०. सेसामु य परम सुक्कलेसा । (३०) लेश्याओं में परमशुक्ललेश्या जैसे सर्वोत्तम है, वैसे ही सब व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान है। ३१. तिथंकरे जहा चेव मुणोणं । (३१) ब्रह्मनर्य प्रत सब व्रतों में इसी प्रकार उत्तम है, जैसे सब मुनियों में तीर्थकर उत्तम होते हैं। ३२. बासेमु जहा महाविवेहे। (३२) ब्रह्मचर्य सभी व्रतो में वैसा ही श्रेष्ठ है, जैसे सब क्षेत्रों में महाविदेह क्षेत्र उत्तम है। ३३. गिरिराया चेव मंदरवरे । (३३) पर्वतों में गिरिराज सुमेह की भांति ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम प्रत है। ३४. वणेसु जह मंवणवणं पवरं । (३४) जैसे समस्त वनों में नन्दनवन प्रधान है, उसी प्रकार समस्त बत्तों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। ३५. दुमेसु जहा जंबू सुवंसणा विस्सुयजसा, जीए नामेण, (३५) जैसे समस्त वृक्षों में सुदर्शन जम्बू विस्मात है. जिसके घ-अर्यवीवो। नाम से यह द्वीप विख्यात है। उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य विख्यात है। ३६. तुरगवती, गयवती, रहवती, नरवती जह विसुए घेव- (३६) जैसे अश्वाधिपति, गजाधिपति और रथाधिपति राया। राजा विख्यात होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्यताधिपति विख्यात है। ३७. रहिय चेव जहा महारगए। (३७) जैसे रथिकों में महारथी राजा श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार समस्त ब्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत सर्वश्रेष्ठ माना है। एषमणेगा गुणा महोणा भवंति एकरूमि बंपचेरे।। इस प्रकार (ब्रह्मचर्य) अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है। - प. सु. २, ३, ४, सु.२ बंभचेरभग्गे सय्ये महत्वया भग्गा-- ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर सभी महावत खण्डित हो जाते है४५४ मि य भगामि होइ सहसा सव्वं संभग्गदिव्यमस्थिय- ४५४, (यह ऐसा आधारभूत व्रत है) जिसके भग्न होने पर ब्णिय कुसस्लिप-पस्वयपडिय-खशिय-परिसघिय - विणासिय, सहसा-एकदम सब विनय, शोल, तप और गुणों का समूह विणव-सोल-तव-नियम-गुणसमूहं । फूटे घड़े की तरह समग्न हो जाता है, दही की तरह मथित हैं। -प. मु. २, अ. ४, सु. २.३ जाता है, आटे की भाँति चूर्ण-चूरा चूरा हो जाता है, काटे लगे शरीर की तरह शल्य युक्त हो जाता है। पर्वत से लुकी शिला के समान लुढ़का-गिरा हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरवस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है। मधेरै आराहिए सव्वे महत्वया आराहिया ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर सभी महावतों की आरा घना हो जाती है-- ४५.५.२ बम भगवंतं मिय भाराहियमि मिग सब्वं-- वह ब्रह्मचर्य भगवान है--अतिशय सम्पन्न है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] चरणानुयोग ब्रह्मचर्य के विवातक सूत्र ४५५-४५६ "सौसं तयो य, त्रिणओ घ, संजमो य, खेती, गुत्ती, मुत्ती, इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गण तहेब इहलोइय-पारलोइय जसे प, कित्ती म, पच्चओ य"। स्वतः अधीन-त्राप्त हो जाते हैं । ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने पर तम्मा निहुएण बमचेर चरिमन्व, सम्बओ विसुदं जायज्जी- निर्ग्रन्ध प्रवज्या सम्बधी सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो बाए जाव सेयको संजउत्ति ।। जाते हैं, यथा-शील, समाधान, तप, विनय और संयम, क्षमा, गुप्ति, मक्ति-निर्लोभता । ब्रह्मचर्य प्रत के प्रभाव से इहलोक और परलोक सम्बन्धी यथ और कीर्ति प्राप्त होती है। यह विश्वास का कारण है अर्थात् ब्रह्मचारी पर सब का विश्वास होता है। अतएव श्रेयार्थी को एकाग्रचित से (तीन करण और तीन योग से) विशुद्ध (सर्वथा निर्दोष) ब्रह्मचर्य का यावज्जीवन पालन करना चाहिए। इस प्रकार भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत का कथन किया है। एवं मगियं वयं भगवया, तं सम गताा का तह कशा म मार हैगाहाओ गाचार्यपंचमहत्वसुग्वयमूल, समगमणाइल साहसुचिन्न । यह ब्रह्मचर्य प्रत पांच महावत रूप शोभन प्रतों का वेर-विरमणं पज्जवसाणं, सध्यसमुहमहोदधितित्वं ॥ मूल है. शुद्ध प्राचार या स्वभाव वाले मुनियों द्वारा भाव पूर्वक सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह बैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। तित्थकरेहि सुवेसियमम्ग, नरय-तिरिच्छ-विवक्जियमागं । तीर्थकर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मामसम्बपविसिसुनिम्मियसार, सिद्धिविमाणभयंगुपवारं ॥ उपाय-गुस्ति आदि भलीभाँति बत नार हैं। यह नरकगति और तिर्य चगति के मार्ग को रोकने वाला है, अर्थात् ब्रह्मचर्य आराधक को नरकतिर्यचगति से बचाता है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तब मुक्ति और वैमानिक देवगत के द्वार को बोलने वाला है। वैष-नरिव-नमंसिपपूर्व, सम्यजसम-मंगलमगं । देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत है, अर्थात् देवेन्द्र दुरिसं गुणनायकमेक्क, मोक्सपहस्तसिगपूयं ।। और नरेन्द्र जिनको नमस्कार करते हैं उन महापुरुषों के लिए -- प. सु. २, अ. ४. सु ३-४ भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है। यह जगत् के सब मंगलों का मार्ग उपाय है अथवा प्रधान उपाय है । यह दुदर्ष अर्थात् कोई इसका पराभव नहीं कर सकता या दुष्कर है। यह गुणों का अद्वितीय नायक है अर्थात् ब्रह्मचर्य हो ऐसा साधन है जो अन्य सभी सद् गुणों की आराधना को प्रेरित करता है। बंमचेर विघातका ब्रह्मचर्य के विघातक४५६. जेण सुउधरिएण भबह सुबमणो सुसमणो सुसाहू सुइसी ४५६. ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से मनुष्य सुमुणी संजए एवं मियासू जो सुखं चरति मधेरं । उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमग, उत्तम साधु, श्रेष्ठ ऋषि अर्थात् पथार्य तत्वदृष्टा, उत्कृष्ट मुनि-तल का वास्तविक मनन करने वासा, वही संयत संयमवान् और वही सच्चा भिक्षु-निर्दोष भिक्षाजीवी है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम४५६-४५८ ब्रह्मचर्य के सहायक चारित्राचार ३२१ हम छ रति-राग-दोस-मोह-पयड्ढणकर, कि मज्ज-पमाय- ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन आगे कहे दोस-पसत्थ-सोलकरणं, अभंगणाणि य, तेस्ल-मजणाणि जाने वाले व्यवहारों का त्याग करना चाहिए--विषयराम, स्नेहय, अभिषणं कक्ख-सीस-कर-चरण-ववण घोषण-संबाहण- राग, द्वेष और मोह की वृद्धि करने वाला, निस्सार प्रमाददोष गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चलवास-धूवण-सरीरपरिमंडण- तथा पार्श्वरथ-शिथिलाचारी साधुओं को शील-आचार, (जैसे चाउसिक हसिप-मणिय-नट्ट-गोय-वाइय-नव-नट्टक-जल-मल्ल- निष्कारण शरमातर पिण्ड का उपभोग आदि) धुतादि की मालिश पेच्छण-बेलंचक जाणि ब सिगारागाराणि ५ । करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, पर आदि दबाना, पगचम्पी करना, परिमर्दन करना, समग्र शरीर को मलना, विलेपन करना, चूर्णवास-सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को मण्डित करना, सुशोभित बनाना, बाकुशिक कर्म करना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी ठठ्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वादित्र, नटों, नुत्यकारों और जल्लों-रस्से पर खेल दिखलाने वालों और मल्लों-कुश्तीबाजों का तमाशा देखना जो शृगार का आगार -घर है। अन्नाणि य एवमाविधायितब-संजम-यंभचेर घासावधातियाई तथा इसी प्रकार अन्य बातें जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं अणुचरमाणेगं बंभरं वज्यवाई सम्वकालं । बह्मचर्य का उपघात-आंशिव विनाश या घात–पूर्णतः विनाश -प. सु. २, अ.४, सु. ५ होता है, ये ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देना चाहिए। बंभोर सहायगा ब्रह्मचर्य के सहायक४१७. मषियको भवह य अंतरप्पा, इमे हि तव-नियम-सौल-जोगेहि ४५७. इन त्याज्य व्यवहारों के बर्जन के साथ आगे कहे जाने निकालं। वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए। प०कि? प्र-ये व्यापार कौन से है ? 3०-अण्हाणक-अवतघावग-सेय-मल-जल्लघारणं, मूणषय- उ.-(वे ये हैं। स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, केसलोए य, सम-बम-अचेलग-पिवास, लायब- स्वेद (पसीना) धारण करना, जमे हुए मा इससे भिन्न मैल को सितोसिण-कटुसेज्जा, भूमि-नि सेग्जा, परधरपयेस- धारण करता, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुच्चन करना, लुद्धायलद्ध-माणावमाण-निदण-स-मसग-कास-नियम- क्षमा, दम-इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता-वस्त्ररहित होना अथवा तय-गुण-विणयमाविरहि जहा से घिरतरक होइ अल्प वस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, लापब- उपाधि अल्प संमचेरं। -. सु. २, अ. ४, सु.६ रखना, सर्दी गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या जमीन पर बासन, परगृहप्रवेश-शय्या या भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अगाप्ति (को समभाव से सहना) मान, अपमान, निन्दा एवं दंघमशक का स्लेश राहन करना, नियम अर्थात् द्रव्यादि सम्बन्धी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय (गुरुजनों के लिए अम्मुत्थान) आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर-दृढ़ हो । बैंभर आराहणा फलं ब्रह्मचर्य की आराधना का फल४५८ मंच प्रबंभचेरविरमण-परिक्सपट्टयाए पाययण भगत्रया ४५८. अब्रह्मनिवृत्ति (ब्रह्मचर्य) व्रत की रक्षा के लिए भगवान सुकहिय, अत्तहियं पेच्ना भाविक, आगमेसि मई, पुर्व, महावीर ने यह प्रवचन कहा है। यह प्रवचन परलोक में फलनेआउयं, अकुडिलं, अणुतरं, मवानुमक-पावाण विउसवर्ग। प्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है शुद्ध है, न्याययुक्त -प. सु. २, अ.४, सु.७ है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपयान्त करने वाला है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] परगानुयोग ब्रह्मवर्ष के अनुकूल वय सूत्र ४५९.४६१ बंभचेराणुकूला वय ब्रह्मचर्य के अनुकूल वय४५६. तओ क्या पण्णता, ४५६. वम (काल-कृत अवस्था-भेद) सीन कहे गये हैंतं जहा -पढमे बए, मजिसमे बाए, पच्छिमे वए । यथा-प्रथमवय, मध्यमवप और अन्तिमवय । तिहि वएहिं आया फेवलं अंमचेरवासमावसेज्जा, तीनों ही क्यों में आत्मा विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता है, सं जहा-पढमे वए, मसिमे वए, परिछमे बए। यथा-प्रथम वय में, मध्यम वय में और अन्तिम बय में। -ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६३ वंभचेराणकूला यामा -- ब्रह्मचर्य के अनुकूल प्रहर४६०. ती जामा पण्णसा, ४६०. तीन याम (प्रहर) कहे गये हैं -- तं जहा-पतमे जामे, मजिसमे जामे, पश्चिमे आमे । यथा-प्रथम याम, मध्यम याम और अन्तिम याम । तिहि जामेहि आया केवल बमचेरवासमावसेना, तीनों ही यामों में आरमा विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता हैतं जहा~-पढमे जाम, मज्झिमे जामे, पस्छिो जामे । यथा-प्रथम याम में, मध्यम याम में और अन्तिम याम में । -आणं. . ..... संभचेरस्स उत्पत्ति अणुत्पत्ति य ब्रह्मचर्य की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति४६१. १०-असोनचा गं भते । केलिस वा-जाब-तपक्खिय. ४६१.प्र.-भन्ते ! केबली से-पावत् केवली पाक्षिक जवासियाए वा केवलं धमचेरवास आवर जसा ? उपासिका से बिना सुने कोई जीव ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है ? उ०-गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स बा-जाव-सप्पविनय- उ०-गौतम ! केवली से - यावत्-केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा अत्येत्तिए केवलं संभचेरवा माव- सिका से सुने बिना कई जीव ब्रह्मचर्य पालन कर सकते हैं और सेज्जा, अस्थगत्तिए केवल बंपचेरवासं नो आवसेज्जा। कई जीब ब्रह्मचर्य पालन नहीं कर सकते हैं। प०-से केपट्टणं भंते ! एवं बुबह प्र०-भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैअसोच्श गं भंते ! केवलिम्स वा-जाव-तप्पक्खिय- केवली से - यावत् - केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना उवासियाए का भरथेगत्तिए केवलं बंमधेरवासं मार- कई जीव ब्रह्मचर्य पालन कर सकते हैं और कई जीव ब्रह्मचर्य सेज्जा, अत्थेगसिए केवल बमचेस्वासं मो अस्वसेज्जा? पालन नहीं कर सकते हैं? -गोयमा ! जस्स गं परित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खो- उ०..- गौतम ! जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम वसमे कडे अवइ, से णं असोच्चा फेवलिस वा-जाव- हुआ है वह केदली से-यावत् - केवली पाक्षिक उपासिका से तप्पक्षियउवासियाए वा केवलं बंभरवास आवसेजा। सुने बिना ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है। मस्सगं चरितावरणिजाणं कम्मा खोवसमे नो जिसके चारितावरणीय कमों का क्षयोपशम नहीं हुआ है कडे, भवइ, से गं असोवा केवलिस्स वा जाव-तप्पा वह केवली से-पावत्--केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर क्षिपउवासियाए वा केवलं बंभचरवासं आवसेज्जा। भी ब्रह्मचर्य पालन नहीं कर सकता है। से सेपट गं गोथमा एवं स्व गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैजस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खोषसमे नो जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है, वह कडे भवइ, से णं असोच्या केबलिस वा-जाव-तप्प. केवली से-पावत्-केवलि पाक्षिक उपासिका से सुने बिना क्विपउवासियाए वा केवल बमरवास नो आवसेज्जा । ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है। -वि. स. ६,उ,३१, सु.१३ जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हना है, यह केवलि से-याव-केवलि पाक्षिक उपासिका से मुनकर भी ब्रह्मचर्य पालन नहीं कर सकता है। न तास वोपना नहीं हुआ है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ४६१-४६३ ब्रह्मचर्य की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति चारित्राचार [३२३ १०-सोच्या गं अंते ! केवलिस वा-जाव-तपकिलय- प्र... भन्ते ! केवली से - यावत्-केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा केवलं बेभरवासं आवसेज्जा ? सिका से सुनकर कोई जीब ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है? उ.-गोयमा ! सोच्चा केवलिस वा-जाव-तपक्खिय- उ.--गौतम ! केवली से - यावत् केवली पाक्षिक उपा उवासियाए या प्रत्येगसिए केवल अमचेरवासं आव- सिका से सुनकर कई जीव ब्रह्म वयं का पालन कर सकते हैं और सेछजा , अस्यगत्तिए केवल बभबेरवास नो आवसेना । कई जीव ब्रह्म वर्ष का पालन नहीं कर सकते हैं। २०-सेकेण? ते ! एवं बुच्च प्र-मन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैसोन्या गं केवलिस्स वा-जाव-तपक्खिवनवासिपाए केवली से ---यावत्-फेवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर वा बरयंगत्तिए फेवसं भवेरवासं आवसेज्जा, अरषे- कई जीव ब्रह्मचर्य पालन कर सकते हैं और कई जीव ब्रह्मचर्य गत्तिए केवल बमरवास मो आवसेग्जा? पालन नहीं कर सकते है ? उ.-गोयमा | जस्स णं चरितावरणिज्जामं कम्माणं खओ- उ०—गौतम ! जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम वसमे को मवर से गं सोचा फेवलिस्म वा-जाव- हुआ है वह केवली से-पावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से सम्पक्षियजवासियाए वा केवलं बमचेरवास आवसेज्जा। सुनकर ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है। अस्स गं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खीवसमे मो जिसके चारिवावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह कडे मवद से गं सोचा केलिस्स बा-जाव-सम्परिणय- केवसी से यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर भी उवासियाए पा केवलं बंभचेरवास मो आवसेजा। ब्रह्मचर्य पालन नहीं कर सकता है। से ते?ण गोयमा एवं बुच्चा गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैजस्सगं चरित्तावरगिजाणं कम्माणं खओवसमे करे जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ है, वह भवा से सोचा फेलिस्स वा-जाव-सप्पक्खिय- वली से-यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर ब्रह्म वासियाए वा केयलं बभरवास आवसेना। चर्य पालन कर सकता है। जस्स नंबरिसावरणिज्जाणं कम्माणं खओषसमे नो जिसके चारित्रावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हया है. को भवा, से गं सोचमा केबलिम्स वा-जाप-तपक्लिय- वह केवली से-पावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर उवासियाए वा केवल भरवास नो आवसेजा। भी ब्रह्मचर्य पालन नहीं कर सकता है। -वि.स. १, उ. ३१, सु. ३२ SEX ब्रह्मचर्य पालन के उपाय (२) धम्मरहसारही धम्मारामविहारी बंभयारी - धर्मरथ सारथी धर्मारामबिहारी ब्रह्मचारी--- ४६२. धम्माराम चरे भिक्खू, घिइमं धम्मसारही। ४६२. धैर्यवान, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म में रत, धम्मारामरए बरते, धम्मरसमाहिए । दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म -उत्त. अ. १६, गा. १७ के उद्यान में विचरण करे । बंभचेरसमाहिठाणा ब्रह्मचर्य समाधि-स्थान४६३, सुयं मे भाउस ! हेव भगवया एवमपणा ४६३. हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, भगवान् ने ऐभा कहा है..इह बलु थेरेहि मगन्तेहि बस बम्भरसमाहिताणा पन्नता, निर्ग्रन्थ प्रवचन में जो स्थविर (गणधर) भगवान् हुए हैं उन्होने ब्रह्मचर्य समाधि के दम स्थान बतलाय हैं, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] घरणानुयोग क्स बाय समाधि स्थानों के नरम मूत्र ४६३.४६५ जे भिक्खू सोचा, नच्या निसम्म, संजमबहले, संघरबहसे, जिन्हें सुनकर, जिनके अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम, समाहिबहुले, गुत्ते, गुत्तिचिए, गुत्तबम्भयारी सया अध्पमते संघर और समाधि का पुनः-पुन: अभ्यास करे। मन, वाणी और बिहरेजा। शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाए, ब्रह्मचर्य को सुरक्षाओं से सुरक्षित रख्ने और सदा अचमत्त होकर विहार करे। १०-कपरे खतु ते परेहि भगवन्तेहिं बस यामचेरसमाहि- प्र. स्थविर भगवान् ने वे कौन से ब्रह्मचर्य-समाधि के ठाणा पन्नता, जे मिश्खू सोच्चा नच्चा, निसम्म, दस स्थान बतलाये हैं, जिन्हें सुनकर, जिनके अर्थ का निश्चय संजमबहुसे, संवरबहले, समाहिबहुले, गुसे, गुत्तिचिए, कर, भिक्षु संयम, संवर और समाधि का पुन: पुन: अभ्यास करे । गुसबम्भयारी सया अप्पमते विहरेज्जा? मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बनाये, ब्रह्मचर्य को सुरक्षाओं से सुरक्षित रखें और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे ? उ.-इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहि दस बम्भचेरसमाहिठाणा उ०---स्थविर भगवान् ने ब्रह्मचर्य समाधि के दस स्थान पन्नता, जे भिषयू सोच्चा, नच्चा, निसम्म संबमबहले. बतलाये हैं, जिन्हें सुनकर अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम. संबरबहले, समाहिबहले, गुस्से, गुत्तिम्बिए, गुत्तबम्म-संबर और समात्रि का पुन:-पुनः अभ्यास करे। मन, वाणी और यारी सया अप्पमत्ते बिहरेजति । शरीर का भोपन करे। इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाये, -उत्त. ब. १६, सु. १ ब्रह्मचर्य को दस सुरक्षाओं से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे । वे इस प्रकार हैं -- बस धम्मचेरसमाहिठाणाणं णामाई दस ब्रह्मचर्य समाधि स्थानों के नाम-- ४६५.१. आलो थोजणाइण्णो, २. पीकलाम मणोरमा। ४६४. (१) स्त्रियों से आकीर्ण आलय, (२) मनोरम स्त्री-कथा, ३. संपवो चेव नारीम, ४. तासि इन्दियवरिसगं ॥ (३) स्त्रियों का परिचय, (४) उनकी इन्द्रियों को देखना, ५. कुइयं सदयं मीयं, (५) उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्य मुक्त शब्दों को सुनना, ६. भुत्तासियाणि य । (६) उनके भुक्त भोगों को याद करना, ४. पणीय असपाणं च ६. भइमायं पाण-मोयणं ।। (७) प्रणीत पान भोजन, (८) मात्रा से अधिक पान भोजन, ६. गतभूसणमिट्ठच, . (E) शरीर को सजाने की इच्छा और १०. काममोगा य सुज्ञया । रस्सत्तगवेसिस्स, विसं ताल- (१०) दुर्जय काम-भोग के दस आत्म-गवेषी मनुष्य के उ जहा। -उत्स. अ. १६, गा. १३-१५ लिए तालपुट विष के समान हैं। विवित्तसपणासणसेवणं विविक्त-शयनासन सेवन - ४६५. "विविताई सयणासणाई सेविज्जा, से निग्गये" नो इत्यी- ४६५. जो एकान्त शयन और आसन का सेवन करता है, वह पसु-पण्डगसंससाई सपणासगावं सेवित्ता हवा से निग्गंथे। निग्रन्थ है। निग्रंथ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण मायन और आसन का सेवन नहीं करता। प०-तं कमिति ? प्र.--यह क्यों ? उ.-आयरियाह-निग्गंधस्स खा इत्थी-पसु-पण्डगसंसत्ताई उ ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्री, पशु और सपणासगाई सेवमाणस्स अम्मयारिस्स बम्मचेरे संका नपुंसक से आकोणं शयन और आसन का सेवन करने वाले था, कंखा था, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य (के विषय) में अंका, कांक्षा या विवि कित्सा उत्पन्न होती है. भेयं वा लमेजा, समायं वा पाणिज्जा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अघया उन्माव पैदा होता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५-४६६ हामि वा रोग हा केवलिया धम्माओ सेज्जा । णं विवित्तमा रहि इति अम्मररस रक्खट्टा, आलयं तु विदित शयनासन सेवन का फल तहानो थी - पण्गसंसप्ताई सपणासणाई सेवित्ता वह से नि । - उत्त. अ.१६, सु. २ ण व निलेवए ॥ - उत्त. अ. १६, गा. ३ सयणाऽऽसणं । विवज्जियं ॥ - दस. अ. ८, गा. ५१ स्त्री और पशु से रहित हो । घासणावा अन पगडं लयणं, मएज्ज चारभूमिसम्पन्न इस्थी पसु विविलासमन्तिया नरागस परिसे विसं पशुओ बाहिरियो । जहा बहस से न मुसमानं वसही पसस्था एमेव इमीनियम न म्यारिस्मो निवासी ॥ -उत्त. अ. ३२, गा. १२-१३ मनोहरं चिराहर मल्ल-धूषण वासियं । सामानि पश्य ॥ 7 इन्द्रियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उवस्सए । दुक्कराई निव:रेजं कामगनिवडणे || - उत्त. अ. ३५, मा. ४-५ कामं तु देवीहि विभूसियाहि नचाइमा बोमजं तिगुता । सहा वि एतहियं ति नन्चा, विवितवासी मुविणं पसत्य ॥ मोear मिकविस वि माणवस्त संसार मोहस्स व्यिस्त धम्मे । नेयारिसंयुत्तरमत्थि लोए, जहित्थिओ बालमनोहराओ ॥ १२. १६-१७ १. विवित्तरायणासण सेवणफल४६. विविसरायचासनया में बन्ने ? उ० वितिभासवाए मं परिगृति नगरमुझे जीने विविसाहारे चरिसे एगन्तरए य णं ममापन्ने अमिनिम -- उत. अ. २६, सु. ३३ बारिषाचार अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा केवल कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए जो स्त्री, पशु और नपुंसक से आनी नमन और आसन का सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । [२२५ हाच की रक्षा के लिए मुनि से आलय में रहे जो एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित हो । मुनि दूसरों के लिए बने हुए गृह, शयन और आसन का सेवन करे वह गृह मल-मूत्रविसर्जन की भूमि से पुक्त तथा जो विविक्त शय्या और आसन से नियन्त्रित होते हैं, जो कर खाते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं, उनके चित्त को राग- शत्रु वैसे ही आक्रान्त नहीं कर सकता है जैसे औषध से पराजित रोग देह को । जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मवारी का रहना अच्छा नहीं होता । जो स्थान मनोहर चित्रों से ही नाम और धूप से आकीर्ण, सुवासित, किवाड़ सहित, श्वेत चन्दवा से युक्त हो जैसे स्थान की मन से भी प्रार्थना (अभिलाषा) न करे। काम - राग को बढ़ाने वाले उपाश्रय में इन्द्रियों का निग्रह करना ( उन पर नियन्त्रण पाना) भिक्षु के लिए दुष्कर होता है । यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को विभूषित देवियां भी विचलित नहीं कर सकतीं, फिर भी भगवान् ने एकान्त हित की दृष्टि से उनके विविक्त वास को प्रशस्त कहा है । मोल चाहने वाले संसारभर एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई वस्तु ऐसी दुस्तर नहीं है, जंसी दुस्तर मम को हरने वाली सुकुमार है। १. विविक्त शयनासन सेवन का फल -- १ चित्तमिति न निजलाए, नारि वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दद्दू, दिट्ठी परिसमाहरे ॥ ४६६० प्र०—भन्ते ! विविक्त-शयनासन के सेवन से जीव क्या फल प्राप्त करता है ? उ०- विविक्त शयनासन के सेवन से वह चारित्र की रक्षा को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव पौष्टिक आहार का वर्णन करने वाला दृढ चरित्र वाला, एकांत में रत, अन्तःकरण से मोक्ष- साधना में लगा हुआ, आठ प्रकार के कर्मों की गांठ को तोड़ देता है । - दस. अ. गा. ५४ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] चरणानुयोग www २.कहाणि ४६७ नो --- २- स्त्री कथा निषेध ४६७. जो स्त्रियों की कथा नहीं करता वह निर्ग्रन्थ है । प्र० - यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं स्त्रियों की कथा रस्सममेरेपिच्छा करने वाले ब्रह्मवारी को अव के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है । हकहित से नि पतं फहमिलि ? उ०- आयरिवाह नगंसबलु स्वीगं वह कहे माणस वा समुपज्जा, मेवा समे स्त्री-कथा निषेध जम्मा, दोहकालियं या रोगायक हवेन्जा केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तन्हा नो इत्थोणं हूं कलेज्जा, -उत्त. अ. १६, सु. ३ मणि कामरागविवण । यम्मरी मिस्तु ॥ सयं च संभवं पीहि संकहं च अभिवचणं । मिक्स परिय प० - तं कहमिति थे ? उ०- आदरिवाह नि - उत्त. अ. १६, गा. ४-५ सूत्र ४६७ ४६८ गयस्स, बिहरमागास कंडा था. वितिरिछावा मनुष्य मेवा उम्मायं वा पाउपिज्जा, हालय वा रोगाचं ना केवलिपत्ताओ या धम्माओ मंसेज्जा 1 म्हातो निचे इत्यहि सह सनिलेवानए बिरेज्जा ! -उत्त. अ. १६, सु. ४ फुटवंति संथ ताहि, पम्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तुम्हा समना ण समेति आतहिताय सब्सेिज्जाओ || --सू. सु. १, अ. ४, उ. १, गा. १६ जहा कुकुडपीयरस, निम एवं खु बंजारिस, इत्थीविभगाओ मयं ॥ - दस. अ. 5, गा. ५.३ अथवा ब्रह्मवयं विनास होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, reat दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवल कति धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए स्त्रियों की कथा न करे । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु मन को आल्हाद देने वाली तथा काम-राम बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का वर्जन करे । ३. इत्यहि सद्ध निसेआणि सेहो - ३- स्त्री के आसन पर बैठने का निषेध ४४६० स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठता ह निर्ग्रन्थ है । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के साथ परिचय और बार-बार वार्तालाप का सदा वर्जन करे । का एक आसन पर बैठने वाले ब्रह्मचारी के शंका, कांक्षा, या विचिकित्सा, उत्पन्न होती है । अथवा बहाव का विनाश होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, प्र० - यह क्यों ? उ० ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं स्त्रियों के साथ -- areer दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवल कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए। समायोगों (ध्यान) से भ्रष्ट पुरुष ही उन विषयों के साथ संसर्ग करते हैं। अतएव श्रमण आत्महित के लिए स्त्रियों के निवास स्थान पर बैठा (निपद्या) नहीं करते । जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदा भय होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६८.४६६ स्त्री को इन्मियों के अवलोकन का निषेध चारित्राचार [१२७ जतुकुम्मे जोतिमुबगळे, आमुऽभितत्ते णासमुपयाति । जैसे अग्लि को छूता हुआ लाख का घड़ा तप्त होकर नाथ एविस्थियाहिं अणगारा, संबासेण णासमुवति ॥ को प्राप्त (नष्ट) हो जाता है इसी तरह स्त्रियों के साथ संबास -सूय, सु १, अ. ४, उ. १, गा. २७ (संसर्ग) से अनगार पुरुष (भी) शीघ्र ही नष्ट (संयमभ्रष्ट) हो जाता है। हस्थपामपन्छिन, फण्णनास विगप्पियं । जिगके हाथ पर कटे हुए हों, जो कान, नाक मे विकल हो अवि वाससई नारि, बंभयारी विवज्जए ॥ वैसी सौ वर्षों की बड़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। - वस. अ.८, गा. ५५ समरेसु अगारेसु, सन्धीसु प महापहे। कामदेव के मन्दिरों में, घरों में, दो घरों के रीच की संधियों एगो एगस्थिए सद्धि, नैव चिटु न संलवे ॥ में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ न खड़ा -उत्त. अ. १. गा. २६ रहे और न संलाप करे ।। ४. इत्थी इंदियाणं आलोयणणिसेहो ४---स्त्री की इन्द्रियों के अवलोकन का निषेध४६६. नो इरथीगं इन्बियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता, ४६६. जो स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि निजमाइसा, हवइ, से निग्गये। गड़ाकर नहीं देखता, उनके विषय में चिन्तन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। प०-तं कहमिति चे? प्र०—यह क्यों ? उ.--आयरियार-निग्गयस्स खलु इत्थीणं इन्दियाई मणी- उ०—ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्रियों की मनोहर हराई, मणीरमाई मालोएमाणस्स, निजमायमाणस और मनोरम इन्द्रियों को दुष्टि गडाकर देखने वाले और उनके सम्भयारिस्त बम्मचेरे संका घा, खा या, वितिमिच्छा विषय में चिन्तन करने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) वा समुप्पज्जिम्जा, में शंका, कांक्षा या बिचिकित्सा उत्पन्न होती है । भेयं वा लभेजा, अथवा बह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, वीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, केवलिपन्नत्तानो वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, तम्हा खलु निग्गंधे नो इस्योगं इम्दियाई भगोहराई, इसलिए स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि मगोरमाई आलोएज्जा, निस्साएज्जा । गड़ाकर न देखे और उनके विषय में चिन्तन न करे । -- उत्त. अ. १६, सु. ५ अंगपतसंगसंहागं, पाहल्लवियपेहियं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के चक्षु-ग्राह्य, अम्भधेररओ थीणं, चमषुगेजसं विवज्जए।' अंग-प्रत्यंग, आकार, बोलने की मनोहर मुद्रा और चितवन को -उत्त. अ. १६, मा. ६ म देखे और न देखने का प्रयत्न करे। न लव-लावण्ण-विलास-हासं, तपस्दी थमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, न जंपियं इंदियपेहियं वा । मधुर आलाप, इंगित और चितवन को चित्त में रमा कर उन्हें इत्थोग चित्तंसि निवेसइता, देखने का संकल्प न करे । बटुं वयस्से समणे तवस्सी ॥ अवसण व अपत्थणं , जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं, उनके लिए स्त्रियों को न अचिन्तणं व अकित्तणं च । देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न वर्णन करना हितइत्योमणस्सारियझागजोग, कर है और धर्म-ध्यान के लिए उपयुक्त है। हियं सया बामवए रया ।। -उत्त. अ. ३२, गा. १४-१५ { अंग-पच्चंगसठाणं, चारुल्लविय-पेयिं । इत्थीणं तं न निम्झाए, कामरागविवड्ढणं ॥ -दस.अ.८,गा.५७ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] धरणानुयाग स्त्रियों के बासनाजन्य सम्ब-अवग का निषेध सूत्र ४७०.४७१ ५. इत्पीणं कूदयाइ सहसवणणिसेहो ५-स्त्रिगों के बासनाचा लह-श्रवण का निषेध - ४७०. नो इत्योर्ण कुजतरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, मितअन्तरंसि ४७०. जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, वा, कुहयसई वा, सइयसहया, गीएसई वा, हसियसद वा, पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, पणियसई वा, कन्वियसई बा, बिलवियसह वा, सुगंत्ता गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता, वह हबह से निगथे। निग्रन्थ है। प०-तं कहमिति धे? 1. यह क्यों? उ.-आयरियाह-निग्गयस्स खनु इत्थीगं फुड्डन्तरंसि वा, उऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं -मिट्टी की दीवार वसन्तरसि वा, भित्तिअंतरसि वा कुछयसई वा, कइय- के अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की दीवार के अन्तर से, सद्द बा, गीयसद यश, हसियसई वा, अषियसई वा, स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप कन्दियसई वा, विलवियस पश, सुणमाणस्स बम्भ- के शब्दों को सुनने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में यारिस बम्भचेरे संका बा, कंखा वा, वितिगिच्छा शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। वा. समुप्पज्जिज्जा, बम्मयारिस्स, सम्मघेरे संकावा, कसा वा, वितिगिच्छा वा, समुग्जिज्जा, मेयं वा सभेजा, अयवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, दोहकालियं या रोगायक हवेम्जा, अगवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केवलियनत्ताओ वा धम्मालो असेज्मा। अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है. तम्हा खलु निग्गचे मो हस्थोपं कुड्डन्तरंसिया, इसलिए मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, सन्तरति वा, मिसंतरंसि वा, कुहास बा, रुदय- पक्की दीवार के अन्तर से, स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, सई वा, गीयसई वा. हसियसहवा, यणियसहवा, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न सुने । कवियसद वा, विसविषमष्बा सुणेमाणे विहरेग्जा। कुइयं सइयं गीयं, हसियं अपियं कवियं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के श्रोष-ग्राह्य बम्भचेररओ योणं, सोयगिजन विधज्जए। कूजन, रोदन, मोत, हास्य, गर्जन और कन्दन को न सुने और --उत्त. अ. १६, गा.७ न सुनने का प्रयत्न करे। ६. भुत्तभोग-सुपरणणिसेहो- - ६-भुक्त भोगों के स्मरण का निषेध४७१. नो मिगंधे पुश्वरयं, पुस्तकीलियं अनुसरिता हबह से निग्गथे। ४७१. जो गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। १०-तं कहमिति चे? प्र०—यह क्यों ? ज.-आयरियाह .. निग्गंधस्स तु पुवरयं, पुश्वकीलियं उ.--ऐमा पूछने पर आचार्य कहते हैं-गृहवास में की अणुसरमाणस्स, बम्भयारिस्स बम्म चेरे संका वा, हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करने वाले ब्रह्मचारी के पंखा वा, वितिगिन्छा वा सपुत्परिखना, ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। मेयं वा लमेण्मा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। उम्मायं वा पाउपिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है। चोहकालिय वा रोगायकं हवेग्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केवलिपन्नताओ या धम्माओ मंसेज्जा। अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। तम्हा खलु नो निगांचे पुम्बरय, पुग्यकोसियं अणु- इसलिए मुहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण सरेजा। -उत्त. अ. १६, सु. न करे। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७१.४७३ विकार-वर्धक आहार करने का निषेध चारित्राचार ३२९ हासं किडं रहं बप्पं, सलमाऽवतासियाणि य। ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु पूर्व-जीवन में स्त्रियों के बम्मचररओ पीण, नाचिन्ते कयाइ वि॥ साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास -उत्त. अ. १६, गा, = का कभी भी अनुचिन्तन न करे। ७. पणीयाहारणिसेहो . (७) विकार-वर्धक आहार करने का निषेध४७२. नो पणीयं आहार आहारिता सबइ से निगये । ४७२. जो प्रणीत आहार नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। प०-- कहमिति चे? प्र-वह क्यों? उ० आयरियाह-निर्गयस्स खलु पणीयं पाणभोयण ०-ऐमा पूछने पर आचार्य कहते हैं-प्रणीत पान-भोजन माहारेमाणस्त बम्भपारिस्स भयेरे संका बा, कसा करने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या वा. वितिगिठा वा समुप्पज्जिाजा, विचिकित्सा उत्पन्न होती है। अयं श लमेज्जा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। जम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है। बीहकानिय वा रोगायक हबेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केलिपप्रताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा यह केबलि कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। तम्हा खलु नो निग्गथे पोय आहार आहारज्जा। इसलिए प्रणीत आहार न करे। -उत्त. म. १६, सु. ८ पणीयं मत्तपाणं तु खिप्पं मपदियणं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु शीघ्र ही काम-वासना बम्मचेररओ भिक्खू निचसो परिवज्जए॥ को बढ़ाने वाले प्रणीत भक्त पान का सदा वर्जन करे । उत्त, अ. १६, गा.६ रसा पगाभं न निसेवियबा, रसों का प्रकाम (अधिक मात्रा में) सेवन नहीं करना पायं रसा रितिकरा नराणं । चाहिए। वे प्राय: मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। वित्तं च शामा समभिवन्ति, जिसकी धातुएँ उद्दीप्त होती हैं उसे काम भोग सताते हैं, जैसे बुमं जहा साउफसं य पक्षी ॥ स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। जहा दवगी पडरिन्धणे वणे, जैसे पवन के झोकों के साथ प्रचुर इन्धन बाले बन में लगा समारो , नोवसमं उवेद। हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकाम-भोजी एविन्दियाली वि पगामभोइयो, (सठूस कर खाने वाले) की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शान्त न इन्भयारिस्स हियाय कस्सई॥ नहीं होती। इसलिए प्रकाम-भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए -उत्त. अ. ३२, गा.१०-११ हितकर नहीं होता। 5. अमितपाणभोयणणिसेहो ५- अधिक आहार का निषेध४७३ नो अदमायाए पायमोयण शाहारेत्ता हवइ से निगये। ४७३. जो मात्रा से अधिक नहीं खाता-पीता, यह निर्ग्रन्थ है। ५० - कहमिति चे? प्र०-यह क्यों? To-आयरियाह-निग्गयस्स खलु महमापाए पाणमायणं उ० ... ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-मात्रा से अधिक आहारेमा पस्स बम्भयारिस्स बम्भधेरे संका वा, फंसा पीने और साने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, का, विसिगिच्छा वा समुप्पनिमज्जा, कांक्षा व विचिकित्सा उत्पन्न होती है। मेयं या सभेजा अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, बीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, केलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा केबली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, तम्हा खलु नो निग्गन्धे आइमायाए पाणमोयणं इसलिए मात्रा से अधिक न पीए और न खाए । अँमिला -उत्त. अ. १६, सु.६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] वरणानुयोग विभूवा करने का निषेध सूत्र ४७३-४७५ धम्मलडं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाण । ब्रह्मचर्य-रत और स्वस्य चित्तवाला भिक्षु जीवन निर्वाह के नाइमस तु भुजेज्जा, बम्भचेररओ सया ॥ लिए उचित समय में निर्दोष, भिक्षा द्वारा प्राप्त, परिमित भोजन -उत्त. अ. १६, गा, १० कर, किन्तु अधिक मात्रा मे साये। १. विभूसाणिसेहो 8-विभूषा करने का निषेध४०४. नो विभूसानुवाई हबइ, से निमथे। ४७४. जो विभूषा नहीं करता-शरीर को नहीं सजाता, वह निम्रन्थ है। प०-त कहपिति ? प्र-यह क्यों। उ.-आयरियाह-विसावत्तिए, विमुसियसरीरे इस्थि- उ०—ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं --जिसका स्वभाव जणस्स अमिलसणिज्जे हबद। तओणं तस्स इथि- विभूषा करने का होता है, जो शरीर को विभूषित किये रहता गणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भपारिस सम्मन्नेरे संका है, उसे स्त्रियाँ चाहने लगती है । पश्चात् स्त्रियों के द्वारा नाहे वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुपस्मिना, जाने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, कक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। भेयं वा लमेमा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, जम्मायं वा पाउणिज्जा, अथवा उन्माद होता है। योहकालियं या रोगायक हषेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, सम्हा खलु नो निगगम्ये विभूसागुवाई सिया। इसलिए विभूषा न करे। -उत्त. अ, १६, सु. १० विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमगणं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्ष विभूषा का वर्जन करे बम्मररओ भिक्खू, सिगारस्थ न धारए ।। और शरीर की शोभा बढ़ाने वाले (केश, दादी आदि को) . उत्त. अ. १६, गा. ११ शृगार के लिये धारण न करे। १०. सद्दाइसु मृच्छाणिसेहो .. १०-शब्दादि विषयों में आसक्ति का निषेध४७५. नो सह-स्व-रस-गन्धफासागुवाई हवन, से मिगम्थे । ४७५. जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और म्पर्श में आसक्त नहीं होता, मह निर्ग्रन्थ है। ५०-तं कहामिति चे? प्र०—यह क्यों ? ज-शायरियाह-निग्गन्धस्स खलु सद्द - कव रस-गन्धः उ.-ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं- शब्द, रूप, रस, फासागुवाइल्स यम्मयारिस्स बम्भनेरे संका वा, कंषा गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, विषय) में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है। भेयं या सभेज्जा, अगवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है। दोहकालियं पा रोगायक हवेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतक होता है, केलिपन्नताओ वा धम्माओ मसेन्जा । अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, सम्हा खलु गो निमान्थे सब-स्व-रस-गन्ध-फरसाणु- इसलिए शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पशं में भासत न वाइ हविज्जा। बने। वसमे धम्मचेरसमाहिद्वाणे हवह । ब्रह्मचर्य की समाधि का यह दसवां स्थान है। -उत्त० अ०१६, सु. ११ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५-४०६ wwwwww सकले य गन्धे य, रसे फासे सहेव य । पंचविहे कामगुणे, निभ्यो परिवर कामाणु मिडियभवं खु तुम्ही, सरसदेवयास । काइ मानवियं किवि, तस्सऽन्त गच्छ वीयरागो || जहा य किपागफला मणोरमा, ते हुए जीविच पक्षमाणा - उत्त० अ० १६, गा, १२ रसेन चण्जेण य भुज्जमाना । नए कामभोगे संकट्ठाणाणि सभ्यागि, ब्रम्मचेररक्खणोबाया एओषमा कामगुणा वियागे ।। - उत्त० ० ३२, गा० १९-२० चिसो परिचय | बज्जा पणिहाणवं ॥ - उत्त० अ० १६, गा० १६ ब्रह्मचर्य रक्षण के उपाय विसा इल्यिससम्मी पणीयरत भोयणं । मरसलगमेसिस्स, बिसं तालउयं जहां ॥ - दस० अ० ८, गा० ५६ विविता भवेन्ना, मारीचं स महिना, कृष्णा सह संचयं ॥ - दस०अ०८ गा०५२ 1, ४७. रियायते समिए सहि साज पिडित अर्थ- किस जगी करिहसति ? एस से परमारामो जाओ लोगंसि इथियो । मुनिषा हु एवं पचेदितं । उपाधिजमाणे गामधम्मेहि, अषि जिम्मवासए । अनि कोमोरियं कु अचि ठाणं डाएग्जा अवि गामा णुगामं इजेक्जा. अभिहार पोसा, अनि ए इत्यो म चारित्राचार शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा वर्जन करें । के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख हैं, वे काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होते हैं । वीतराग उस दुःख का अन्त पा जाता है। १३१ जैसे किपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से मनोरम होते हैं और परिवाक के समय क्षुद्र-जीवन का अन्त कर देते हैं। काम-गुण भी विपाक फल में ऐसे ही होते हैं। एकाग्रता मुनि दुर्जय काम-भोगों और इन में शंका उत्पन्न करने वाले पूर्वोक्त सभी स्थानों का वर्जन करे। आत्मगवेषी पुरुष के लिए विभूषा, स्त्री का संसर्ग और पीवरस का भोजन तानपुट विष के समान है। - मुनि एकान्त स्थान में रहे, स्त्रियों की कथा न कहे । और गृहस्यों से परिचय न करे यदि परिचय करना ही चाहे तो साधुओं से ही करे। 1 ब्रह्मचर्य रक्षण के उपाय ४०६. वह प्रभूतदर्धी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त समिति से युक्त, (जानादि) सहित अदा मनाशी या इन्द्रियजयो अप्रमत मुनि के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है "यह स्वीजन मेरा क्या कर लेगा?" अर्थात् मुझे क्या सुख प्रदान कर सकेगा ? (तनिक भी नहीं) वह स्त्रियाँ परम आराम (ति को मोहित करने पाली) है। मैं तो सहग आत्मिक सुख से सुखी हूँ (ये मुझे क्या सुख देंगी ?) ग्राम (इन्द्रिय विषयवासना) से उत्पीड़ित मुनि के लिए मुनीन्द्र तीर्थंकर महावीर ने यह उपदेश दिया है कि वह निर्बल (निःसार) बाहार करे, कनोदरिका (अल्पाहार) भी करे-कम खाये, करे ऊ स्थान होकर ग्रामानुग्राम बिहार भी करे, आहार का परित्याग ( अनशन) करे, स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करे। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ वरणामुयोग वेश्याभों को गली में आवागमन निषेध सूत्र ४७६-४७६ पुरवं बंटा पच्छा फासा, पुथ्वं फासा परछा वंडा । विषय सेवन करने के पहले अनेक पाप करने पड़ते हैं, वाद में भोग भोगे जाते हैं, अथवा कभी पहले भोग भोगे जाते हैं बाद में उसका दण्ड मिलता है। इच्चेसे कसहा संगकरा भवंति परिलेहाए आगमेसा प्राणवेज्ज इस प्रकार के काम मोग कलह और आसक्ति, पैदा करने अणासेवणाए। दाले होते हैं। स्त्री-संग ,सं होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को आगम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझकर आत्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे। अर्थात् स्त्री का सेवन न करने का मुद्दा संकल्प करे। से गो काहिए, जो पासगिए, णो संपसारए, णो मामए, जो ब्रह्मचारी कामकथा न करे, (वामनापूर्ण दृष्टि से) स्त्रियों कतकिरिए, वहगुते अज्मपसंशे परिवगए सवा पावं ।। को न देने, परस्पर कामुक भावों-संकेतों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्व न हरे, शरीर की साज-सज्जा से दूर रहे, वचन गुप्ति का पालक वह मुनि वाणी से कामुक आलाप न करे, मन को भी काम-वासना की ओर जाते हुए नियन्त्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे। एतं मोणं समणुवासेज्जाप्ति । ति बेमि ।। इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक -बा. सु० १,०५, उ०४, सु. १६४.१६५ प्रकार से बसा ले-जीवन में उतार लें। ११. गणिका-आवागमणणिसेहो ११. वेश्याओं की गली में आवागमन निषेध४७७. न चरेज वेससामते बंभरवसाणुए। ४७७ ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्या बाड़े के समीप न जाये । बंभयारिस्स तस्स होज्जा तत्थ विसोतिया ॥ वहाँ दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका हो सकती है साधना का स्रोत मुड सकता है। अणायणे घरंतस्स संसरगीए अधिकच गं । अस्थान में बार-बार जाने वाले के (वेश्याओं का) संसर्ग होज्ज वयागं पीला सामग्णम्मि य संसओ। होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और श्रामण्य में सन्देह हो सकता है। सम्हा एवं बियाणित्ता वोस दुग्गइवणं । इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त वजए वेससामंतं मुणी एगंतमस्सिए ॥ (मोक्ष मार्ग) का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या-बाड़े के -दस० अ० ५, उ०१, गा०६-११ समीप न जाये । बंभचेरस्स अट्ठारस गारा ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार .. ४७८. अट्ठारसविहं बमे पण्णत्ते, तं जहा .. ४७८. ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है जैसे(१) ओरालिए कामभोगे पेव सयं मणेणं सेवइ, १. ओदारिक (शगेर वाले मनुष्यों-तियंचों के) काम भोगों को न मन से स्वयं सेवन करता है, (२) नोवि अण्णं मणेणं सेवाइ, २. न अन्य को मन से सेवन कराता है, (३) मजेणे सेवंतं पि अयं न समाजाशक, ३. सेवन करते हुए अन्य को न मन से अनुमोदना करता है। (४) ओरालिए कामभोगे व सर्थ यायाए सेवा, ४, औदारिक - कामभोधों को न वचन से स्वयं सेवन करता है, (५) नोषि अण्णं वायाए सेवायेह, ५. न अन्य को बचन से सेवन कराता है, (६)वायाए सेवेत पि अण्ण न समजाणद, ६. सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना नहीं करता है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७८.४७६ अब्राह्म-निषेध के कारण चारित्राचार ३३३ (७) ओरालिए कामभोगे व सयंकाएणं सेवइ, ७. औदारिक काम-भोगों को न स्वयं काया से सेवन करता है, (4) गोवि य अण्णं फाएणं सेवावे. ८. न अन्य को काया से सेवन कराता है, (९) काएग सेवंत पि अण्णं न समणुकाबई । ६. सेवन करते हुए अन्य की काया से अनुमोदना नहीं करता है, (१०) विष्वे करमभोगे णेब सयं मणेण सेवति, १०. दिव्य-(देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न स्वयं मन से सेवन करता है, (११) भो वि अपणं मणे सेवावेह, ११. न अन्य को मन से सेवन कराता है, (१२) मध्ये सेवंतं पि अण्णं न समजाणा, १२. सेवन करते हुए की न मन से अनुमोदना करता है, (१३) विम्वे कामभोगे व समायाए सेवावेद, १३. दिव्य-कामभोगों को न स्वयं वचन से सेवन करता है, (१४) गोवि अण्णं वायाए सेवावेइ, १४. न अन्य को वचन से सेवन कराता है, (१५) वायाए सेवंतं पि मणं म समणुजाण । १५. सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना नहीं करता है, (१६) निवे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ । १६. दिव्य-कामभोगों को न स्वयं काया से सेवन करता है, (१७) कोवि अगं काएणं सेवायेह, १७. अन्य को काया से रोवन कराता है, (१) कारणं सेवंतं पि अग्णं न समणुजाणइ ।' १८, सेवन करते हुए अन्य की काया से अनुमोदना नहीं राम.१८, सु. १ करता है। SIXE अब्रह्म निषेध के कारण-३ अधम्मस्स मूलं अधर्म का मूल है - १७९, अबभरियं घोरं, पायं तुरहिट्ठियं । ४.७६. अब्रह्मचर्य जगत में घोर-सबसे भारी प्रमाद का कारण नायरति मुणी लोए, भेयाययणज्जियो । है, दुर्बल व्यक्ति ही इसका सेवन करते हैं तथा इसका सेवन दुरधिष्ठित- धृणा एवं जुगुप्सा जनक है, चारित्र भंग के स्थान (भदावतन) से दूर रहने वाले मुनि इसका आचरण नहीं करते। मूलमेयमहम्मस महानोससमुस्स। __ वह अब्रह्मचर्य अधर्म का भूल (बीज-जड़) है और महान तनहा मेहुण संसलिंग निरगंथा बज्जयंति ॥ दोषों की राशि ढेर है। इसलिए निग्रंथ मैथुन का; संमगं काके - दसवै. ६१५-१६ वर्जन करते हैं। १ (क) तीन प्रकार के मथुन है—१. दिव्य, २. मानुष्य और ३ तैयंक्य ! इन तीनों से विरति ही ब्रह्मचर्य है। यदि प्रश्येक विरति के तीन करण तीन योग से विकल्प प्रस्तुत किये जाते तो विकल्प होते। इस प्रकार तीनों विरति २१. विकल्प होते हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य के १६ भेदों में औदारिक कामभोगों के नौ विकल्पों के अन्तर्गत मनुष्यों और तिर्यञ्चों की मथुन विरति समाविष्ट कर ली गई है। मेष नौ विकल्पों में केवल दिव्य कामभोगों की विरति ही कही गई है। (ख) उत्त. अ.३१, गा.१४ । (ग) इसी प्रकार अब्रह्म के १८ प्रकार हैं आव० श्रमण सूत्र ४ में । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] चरणानुयोग इत्वीरागणिसेहो ४८०, जे छये से सागारियं ण सेवे । कट्ट एवं अविनागतो दितिया मंग्स बालि आ. मु.१.५.१.१२ नो रम्बसी गिज्ज्जा, गंडवच्छासु उणेगचितासु । जाओ पुरिसं पोलिसा, खेलति जहा व दाह ॥ नारीसु नोपनिषना इस्यो विश्वज अणगारे ! धम्मं च पेस नन्वा, तत्य ठवेज्ज भिक्खू अध्याणं ॥ न मिति महावीरे वाऊ व जालमचेति, विद्या लोगंसि इथिओ || सेति आदिमाते से अभा बंधम्मुषका नावखंति जीवितं ॥ छोड़ दे उत्त, अ. द गा १८ १६ को स्थापित करे । सनस्कि अह सेवा घोडा पाव मस् एवं विवेगमाबाट संवासो न कापती दिए । लम्हा उ वज्जएं इत्थी, विसलित्तं व कंटगं गच्चा । जोए कुली सी आवासिय से वि स्त्री-राग निषेध जे एवं उचं अणुगिया. अण्णयरा हू ते कुसीला तस्सिए वि से भिक्खु, यो विहरे सह णमित्यी ॥1 अदिरा हाहि धातोहि अव दासोह महती वा कुमारी संघ सेवा अनगारे ॥ अणाति होलि गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणस्सोऽसि ॥ स्त्री-राग निषेध - ४०. ओ कुशल है यह मैथुन सेवन नहीं सेवन करके छिपाता है या अनजान काम) की दूसरी मूर्खता है। जिनके दक्ष में गांठें (ग्रन्थियाँ) हैं, जो अनेक चित्त (कामनाम वाली है, जो पुरुष को प्रलोभन में खरीदे हुए दास की भाँति उसे नचाती है (वासना की दृष्टि से ऐसी ) राक्षसी स्वरूप (साधना विघातक) स्त्रियों में आसक्त नहीं होना चाहिए। - सू. सु. १, अ. १५, गा. ८-९ ( असंयमी) जीवन जीने की आकांक्षा नहीं करते । सूत्र ४५० करता और जो मंथुन बनता है यह उस मूर्ख अनुसार स्त्रियों में न हो उनके को धर्म को श्रेष्ठतम जानकर उसी में अपनी आत्मा पूर्वकृत कर्म नहीं है. यह महावीर्यवान् नहीं मरा ( और नहीं जन्मता) जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है, वैसे ही वह (साधक) लोक में प्रिय होने वाली स्त्रियों को पार पा जाता है, (वह स्त्रियों के वश में नहीं होता) । जो साधक जन स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सर्वप्रथम मोक्षगामी होते हैं । समस्त (कर्म) बन्धनों से मुक्त वे साधुजन जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, वैसे ही स्त्री के वश में होने के पश्चात् बहु साधु पश्चाताप करता है । इस प्रकार अपने आचरण का विपाक जानकर रायद्वेषरहित भिक्षु को स्त्री के साथ संवास (स) करना नहीं कल्पता है । स्त्रियों को विप से लिप्त कांटे के समान समझकर साधु स्त्रीसंसर्ग से दूर रहे | स्त्री के वश में रहने वाला जो साधक गृहस्थों के घरों में अकेला जाकर अकेली स्त्री को धर्मकया करता है वह भी "निर्ग्रन्थ" नहीं है । दो इस (स्वी संवर्ग) या स्थाज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त है, वह अवश्य ही कुशीलों, (पाश्वस्थ अवसभ आदि चारित्रों में से कोई एक है। इसलिए बहु चाहे उत्तम उपस्वी भी हो तो भी स्त्रियों के साथ बिहार न करे । भिक्षु अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं, घाय-माताओं अपना दासियों या बड़ी उम्र की स्त्रियों अथवा कुंआरी कन्याओं के साथ भी वह अनगार सम्पर्क परिचय न करे । किसी समय (एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को) देखकर ( उस स्त्री के) ज्ञातियों अथवा हितैषियों को अप्रिय लगता है। गोते है यह साधु कामभोगों में है. भ भी है। ये साधु से कहते हैं (तुम इसका पोषण करो) क्योंकि इसके पुरुष हो । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८० स्त्री-राग निषेध चारित्राचार [३३५ अगुण पिकाहानी पर कविताको पति समणं पि बवासीणं, साथ दि ताव एगे कुष्पंति । अधुबा भोयहि णत्येहि, त्यो दोससंकिणो होति ॥ कुबंशि संपवं साहि, पाभट्ठा समाहिजोगेहि । तहा समगा गसमेंति, आतहिताय सण्णिसेज्जाओ ॥ मह गिहाई अवहटु, मिस्सौभायं पत्यता एगे। सुषमागमेव पति, बायावीरिवं कुसीलाणं ॥ सुख पति परिसाए, मह रहस्सम्मि दुक्कर करेलि । जाति य गं सहापेवा, माइल्ले महासवेऽयं सि ।। सपं तुक्कचन वयह, आटो हि पकत्यती बाले । बाजुबीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्यो ।। उदासीन तपस्वी साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देख कर कोई-कोई व्यक्ति ऋद्ध हो उठते हैं । अथवा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन साधु के लिए बना. कर रहते या देते देखकर वे उस स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लगते हैं। समाधि योग से भ्रष्ट पुरुष ही उन स्त्रियों के साथ संसर्ग करते हैं इसलिए श्रमण आत्महित के लिए स्त्रियों के निवास स्थान (निपद्या) पर नहीं जाने। बहुत से लोग घर से निकलकर प्रबजित होकर भी मिथभाव अर्थात् कुछ गृहस्व का और कुछ साधु का पों मिला-जुला आचार अपना लेते हैं। इसे वे मोक्ष का मार्ग ही कहते हैं। (सच है) कुशीलों के वचन में ही शक्ति होती है. (कार्य में नहीं) ___वह (कुशील) भिक्षु सभा में स्वयं को शुद्ध कहता है, परन्तु एकान्त में पास करता है । तथाविद् (उराको अंगचेष्टाओंआचार-विचारों एवं व्यवहारों को जानने वाले व्यक्ति) उसे जान लेते हैं कि यह मायावी महाधूतं है। बाल (अज) साधक स्वयं अपने दुष्कृत-पाप को नहीं कहता, तथा गुरु आदि द्वारा उसे अपने पाप को प्रकट करने का आदेश दिये जाने पर भी वह अपनी बड़ाई करने लगता है। तुम मैयुन की अभिलाषा मत करो, इस प्रकार बार-बार प्रेरित किये जाने पर बह कुशील ग्लानि को प्राप्त हो (मृ)ि जाता है (अप जाता है या नाराज हो जाता है।) कुछ पुष स्त्रियों की पोषक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रह चुके हैं, अतएव स्त्रियों के कारण होने वाले खेदों के ज्ञाता (अनुभवी) हैं एवं प्रज्ञा से सम्पन्न हैं फिर भी वे स्त्रियों के वश में हो जाते हैं। (इस लोक में परस्त्री-सेवन के दण्ड रूप में) उसके हाथपर भी छदे जा सकते हैं, अरवा उसकी चमड़ी और मांस भी उखेड़ा जा सकता है. अथवा उसे आग में डालकर जलाया जाना भी सम्भव है, और उसका अंग छीलकर उस पर नमक भी छिड़का जा सकता है। कान और नाक छेदन एवं कण्ठ का छेदन (मला काटा जाना) तो सहन कर लेते हैं, परन्तु यह नहीं कहते हैं कि 'हम अब फिर ऐसे पाप नहीं करेंगे।" राग-द्वेष से मुक्त होकर अकेला रहने वाला भिक्षु कामभोग में कभी बासक्त न बने । भोग की कामना उत्पन्न हो गई हो तो उससे फिर विरक्त हो जाये। कुछ श्रमण-भिक्षु जैसे भोग भोगते हैं, उनके भोगों को तुम सुनो। रसिया वि इत्स्यिशेसेसु, पुरिसा हस्थिवेदखतग्णा। पग्णासनिता वेगे, गारोण वसं उवकसति ।। अवि हाप-पााछेदाए, अवुवा वर्मत उक्कते। अधियताऽभितवणाह, सच्छिय खारसिक्षणाई च।। अनुसन-गासिराछेज्म, कंठच्छेदण तितिक्खंति। इति एल्प पावसंतता, न य बॅति पुणो म काहि ति ।। -सूय. सु. १, अ. ४, उ. १, मा. १०-२२ ओए सदा ण रज्जेज्जा, मोगकामी पुणो विरज्जेग्जा। भोये समणाण सुहा, जह मुंति मिलगो एगे ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] परणानुयोग स्त्री-राम निषेध सूत्र ४० अहं संतुभेदमावन्न', मुगिछतं भिक्षु काममतिवटुं। पलिमिरियाण सो पच्छा, पादु बटु भुद्धि पहणंसि ।। आइसियाए मए भिक्खू णो विहरे सह गमिचीए । कैसागि विहं लुचिस्सं, नन्नत्य भए परिज्मासि ॥ अहणं से होति उवलद्धो, तो पेसति सहाभूतेहि। साउच्छेचं पेहाहि. पागुफलाई आहराहि ति ॥ वाहणि सागपागाए, पजोओ वा भविस्सती रातो। पाताणि य मे श्यावेहि. एहि य ता मे पट्टि उम्मई ।। वत्थागि म मे पडिलेहेहि, अन्नपागं च आहराहि ति । गंधं च रओहरणं . कासवगं . समजाणाहि ॥ अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कुत्यं च मे पछाहि । लोद्धं च सोसफुसुमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च ॥ कुट्ट अगुरु' तगम च, संपिटु समं उत्तीरेण । तेल्ल मुहं मिलिजाए, वेणुफलाइं समिधाणाए।। चारित्र से भ्रष्ट मूच्छित और कामासक्त भिक्षु को वश में करने के बाद स्त्री उसके सिर पर पैर से प्रहार करती है। (भिशु को वश में करने के लिए कोई स्त्री कहती है --) मैं केश रखती हूँ। भिक्षु ! यदि तुम मेरे साथ विहार करना नहीं चाहते तो मैं केशलुंचन कर लूंगी। तुम मुझे छोड़ अन्यत्र मत जाओ। __ जब वह भिक्षु पकड़ में आ जाता है तब उससे नौकर का काम कराती है—व काटने के लिए चाकू ला । अच्छे फल ला। शाकभाजी पकाने के लिए लकड़ी ला। उससे रात को प्रकाश भी हो जायगा । मेरे पैर रचा । आ, मेरी पीठ मल दे। मरे वस्त्रों को देख (ये फट गये हैं, नये वस्त्र ला) अन्न-पान ले आ । सुगन्ध चूर्ण और कूची ल।। बाल काटने के लिए नाई को बुला। अंजनदानी, आभूषण और तंबतीणा ला । लोध, लोध के फूल बांसुरी और औषध को) गुटिका ला । कूठ, तगर, अगर, खस के साथ पीपाडा चूग, मुंह पर मलने के लिए तेल तथा वस्त्र आदि रखने के लिए बांस की पिटारी ला। (होठों को मुलायम करने के लिए) नन्दी चूर्ण, छत्ता और जूते ला। भाजी छीलने के लिए छुरी ला । वस्त्र को हल्के नीले रंग से रंगा दे। चाक पकाने के लिए तपेली, आंवले. कलश' तिलककरनी अंजनशलाका तथा गरमी के लिए पंखा ला । (नाक के केशों को उखाड़ने के लिए ) संदशक, कंधी और केश-कंकण ला । दर्पण दे और दतवन ला। सुपारी, पान, सुई, धागा, मूत्र के लिए पात्र, सूप, ओखली मूसल और सब्जी गलाने का बर्तन ला । आयुष्मान् । पूजा-पात्र और लघु पात्र ला। संडास के लिए गढा खोद दे। पुत्र के लिए धनुष्य और धामणेर (श्रमण पूष) के लिए तीन वर्ष का बैल ले आ । बच्चे के लिए घण्टा, उमरू और कपड़े की गेंद ला। हे भर्ता ! वर्षा सिर पर मंडरा रही है। इसलिए घर की ठीक व्यवस्था कर। नई सुतली की खटिया और चलने के लिए काष्ठ पादुका ला। तथा गर्भकाल में स्त्रियाँ अपने दोहद (लालसा) की पूर्ति ने लिए अपने प्रियतम पर दास की भांति शासन करती हैं। मंदीचण्णगाई पहराहि, छत्सोबाहणं च जाणाहि । सत्यं च सूबमछयाए, भाषीलं च वस्थय रथावेहि। सुणि च सागपागाए, मामलगाई बगाहरणं च। तिलगकरगिमंजणसालागं, घिसु मे विधूणयं विजाणाहि ।। संज्ञासगं च फणिहं च, सोहलिपासगं च आणाहि । आयसगं पयसाहि, बंतपक्खालणं पवेसेहि ॥ पूयफल तंबोलं च, पूईमुत्तमं च जाणाहि । कोसं च मोयमेहाए, मुस्पललयं च बारगलणं च ॥ चंदालगं च करगं च, परचघरगं च भाउसो' खणाहि। सरपादग च जाताए, गोरहगं . सामणेराए । घडिगं च डिदिमयं च, चेलगोल कुमारभूताए । वासं समभियावन्न', आवसहं च जाण मत्तं ॥ आसंबियं च मवसुतं, पाउल्लाई संकमट्टाए। भवु पुत्तबोहलढाए, आगप्पा हवंति हासा या ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८०-४१ गृहस्यकृत काय क्रिया की अनुमोबना का निषेध चारित्राचार (३३७ माते फले समुष्पग्ने, गेण्हसु वा णं अहवा बहाहि । पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर (वह कहती है) इसे (पुत्र मह पुत्तपोसिगी एगै, भारबहा हति उट्टा पा॥ को) ले अथवा छोड़ दे। (स्थी के अधीन होने वाले) कुछ पुरुष पुत्र के पोषण में लग जाते हैं और वे ऊँट की भांति भारवाही हो जाते हैं। रामो वि उडिया संता, वारगं संठवेति धाती वा। वे रात में भी उठकर (रोते हुए ) बच्चे को धाई की भांति सुहिरीमणा वि से संता, अत्यधुवा हवंति हसा ना ॥ लोरी गाकर सुला देते हैं। वे लाजयुक्त मन वाले होते हुए भी धोबी की माँति (स्त्री और बच्चे के) वस्त्रों को धोते हैं। एवं सहूहि कयपुरवं, भोगत्याए जेभियावन्ना । बहुतों ने पहले ऐसा किया है। जो काम-भोग के लिए बासे मिए ६ पेस्से का, पमुमते या से वा केई॥ भ्रष्ट हुए हैं वे दास की भांति समर्पित, मृग की भांति परमेश, प्रेष्य की भांति कार्य में व्याप्त और पशु को भांति भारवाही होते हैं । वे अपने आप में कुछ भी नहीं रहते। एवं तु तासु विष्णप्प संघवं संवासं च चएज्जा। इस प्रकार (स्त्रियों के विषय में जो कहा गया है। उन तन्जातिया इसे कामा वग्जकरा य एवमक्खाया। दोषों को जानकर- उनके साथ परिचय और संभास का परित्याग करे। ये काम-भोग सेवन करने से बढ़ते हैं। तीर्थकरों ने उन्हें कम-बन्धन कारक बतलाया है। एवं भयंग सैपाए से अपगं णिमित्ता। ये काममोग भय उत्पन्न करते हैं । ये कल्याणकारी नहीं है। जो इत्यि जो पहुं भिक्खू, गो सय वाणिणा जिलज्जेज्जा ।। यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे.-कामभोग से अपने को बचाए । वह स्त्रियों और पशुओं से बचे तथा अपने गुप्तांग को हाथ से न छुए। सुषिसुबलेसे मेहावी परकिरियं च यजए गाणी । शुद्ध अन्तःकरण वाला मंधायी ज्ञानी भिक्षु परक्रिया न मनसा वयसा फाएणं सब्यफाससहे अणगारे ।। करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए। वह अनिकेल भिक्षु मन, बनन और काया से सब स्पर्षी (कष्टों) को सहन करें। इन्वेवमाह से वीरे ध्रुयरए धूयमोहे से भिवखू । भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है --जो रग और मोह को सम्हा अग्नत्यविसुद्ध सुविमुक्के मोक्खाए परिषएग्जासि ।। ध्रुन डालता है वह भिशु होता है । इसलिए वह शुद्ध अन्त करण -सूय. सु. १, अ. ४, ज. २, गा. १-२२ भिक्षु काम-बांछा से मुक्त होकर, बन्धन-मुक्ति के लिए परिजन करे। परिकर्म निषेध-४ मिहत्थकय कार्याकरियाए अणमोयणा णिसेहो गृहस्थकृत काय क्रिया की अनुमोदना का निषेध४८१. परकिरियं अस्थिय संसेपयं णो त सातिए णोतं णियमे। ४८१. पर अर्थात गस्थ के द्वारा आध्यात्मिकी अर्थात् मुनि के -आ सु. २, अ. १३, सु. ६६२ शरीर पर की जाने वाली काय गापाररूपी क्रिया संश्लेषिणी कर्म बन्धन की जननी है. (अतः) वह उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा न करे 1 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] सरणानुयोग गृहस्यकृत शरीर के परिकौ की अनुमोदना का निषेध सूत्र ४८२.४८३ मिटायकय-कागरिकापस्म मोरणा मिलो - गृहस्थकृत शरीर के परिकर्मों की अनुमोदना का निषेध४८२. से से परो कार्य आमग्नेज्न वा पमज्जेज्ज वा, गो तं सातिए ४६२. यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को एक बार या बारजो तं णियमे। बार पोंछकर साफ करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । से से परो काय संबाधेज्ज वा पलिमज्ज वा, णो तं सातिए यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को एक बार या बार-बार गोतं णियमे। मर्दन करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परी कायं तेल्लेण वा-जाव-बसाए वा मक्खेज्ज यदि कोई गहस्थ मुनि के शरीर पर तेल -यावत्-चर्बी वा अन्भज्ज बा, जो तं सातिए णो तं गियमे । मले या बार-बार मले तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो कार्य लोदेण वा-गाव-वर्णण वा उल्लोलेन्ज वा यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर लोध, - यावत-वर्ण उस्वटेज्ज बा, जो तं सातिए पो त णियमे। का उबटन करे, बार-बार उबटन करे तं, वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । से से परो कार्य सीतोगवियर्डण वा उसिभोवगविण वा कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर को प्रामुक शीतल जल उच्छोलेग्ज वा पधोवेज्ज या, गो त सातिए णो तं णियमे । से या उष्ण जल से धोये या बार-बार धोये तो वह उसे म मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो कार्य अषणतरेण विलेवण जाएणं आलिपेज्ज वा कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर किसी एक प्रकार विलिपेन्ज वा, जो तं सातिए णो तं णियमे । के विलेपन से एक बार मा बार बार लेप करे तो वह उसे न मन से चाहे न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो कार्य अण्णतरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेन्ज यदि कोई गृहस्य मुनि के शरीर को किसी अन्य प्रकार के वा. णो तं सातिए जो तं णियमे । धूप से धूपित करे या प्रधूपित करे नो वह उसे न मन से चाहे, न बचा और काया से भी प्रेरणा करे। से रो परो कार्य कुमेज्ज या रएज्ज था, जो तं सातिए णोतं यदि कोई महन्थ मुनि के गरीर पर फूंक मारे था रंगे तो गियमे। -आ. सु. २, अ. १३, सु.७०१-७०७ वह उमे न गन से चाहे. न व वन एवं काया से भी प्रेरणा करे। गिहत्यकय-पापपरिकम्मस्स अणुमोयणा णिसेहो- गृहस्थकृत पादपरिकम की अनुमोदना का निषेध४.३. से से परो पागाई आम जेज्ज वा पमज्जेज वा, णोतं ४१. यदि कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को (वस्त्रादि से) पोंछे. सातिए णोतं णियमे। बार-बार पोछे तो वह उसे न मन से च है, वचन और काया से भी प्रेरणा न करे। से से परो पाबाई संसाधेज वा पसिमद्देज घा, पोतं सातिए यदि कोई गृहस्थ मुनि के चरणों का मर्दन करे, प्रमदन करे णोतं णियमे। वह उसे न मन से चाहे, न बरग और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो पावाई फुमेज्ज वा रएज्ज बा, णोतं सातिए णो यदि कोई गृहस्व मुनि के चरणों को फूंक मारे तका रंगे तो तं नियमे । ___ वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । से से परो पादाई तेल्लेण वा जाव-चसाए वा मक्खेज वा यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों पर तेल-यावत--चीं मिलिज्ज वा णो तं सातिए, गोतं णियो। मले या बार-बार मले तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परोपागाई लोण वा-जाव-वणेण वा उल्सोलेज्ज वा यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों पर लोध,--यावत्-वर्ण उबटुज्ज वा, जो तं सातिए णो णियमे । का उबटन करे या बार-बार उबटन करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८३-४८५ उद्यानावि में गृहस्वकृत पर आदि के परिको की अनुमोवना का निषेध चारित्राचार [३३६ से से परी पावाई सीओवगविषरेण वा उसिणोदगविमरण या यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को प्रासुक शीतल जल से उच्छोलेन्ज वा पधोएज्ज वा, णो तं सातिए जो तं या उष्ण जल से धोये या बार-बार धोये तो वह उसे न मन से णियमे। चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो पाबाई अण्णतरेण विलेवणजातेण आलिपेज वा यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों पर किसी एक प्रकार के विलियेज्ज वा, मोत सातिए गोतं गियो । द्रव्यों से एक बार या बार-बार विलेपन करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । से से परो पाबाई अवतरेण धूवणजाएगं यूवेज्ज वा पधूवेज्ज यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को किसी एक प्रकार के वा, णो तं सातिए गो त णियमे । धूप से धूपित और प्रधूपित करे तो वह उसे न मन से चाहे और -आ. सु. २, अ.१३, सु. ६६१-६६८ न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। आरामास गिहत्यकयपायाइ - परिकम्माणमोयणा उद्यानादि में गृहस्थकुत पैर आदि के परिकमों की अनणिसेहो मोदना का निषेध - ४८४. से से परो आरामसि वा उमासि या पीहरितामा विसो. ४८४. यदि कोई गृहस्थ साधु को आराम या उद्यान में ले जाकर हिता वा पायाई आमजोजवा, मम्जेम्ज वा गोतं सातिए प्रवेश कराकर उसके चरणों को पोंछे, बार-बार पोंछे तो वह गोणियमे। उसे न मन से चाहे. न पचन और काया से भी प्रेरणा करे। एवं यावा अण्णमग्णकिरिया । इसी प्रकार साधुओं की अन्योन्यपिया पारस्परिक क्रियाओं -आ. सु. २, अ. १३, सु. ७२७ के विषय में भी ये सब सूव पाठ समझ लेने चाहिए। गिहत्थकय-पाय परिफम्म णिसेहो गृहस्थकृत पादपरिकर्म निषेध४८५. से से परो अंकसि वा पलियकसि या तुयट्टावेत्ता पाबाई ४८५. यदि कोई गुहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर आमजेग्न वा पमन्वेषण था, जो तं सातिए णो त णियमे। लिटाकर अथवा करवट बदलवाकर उनके चरमों को वस्त्रादि से पोंछ, अथवा बार-बार पोंछे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो अंकसि वा पलियंकासि वा सुयट्टावेसा पाबाई यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर संबाधेजा वा पलिमहाजा वा, णोतं सातिए णो तं गियमे। लिटाकर या करवट बदलवाकर उसके चरणों को सम्मदन करे या प्रमर्दन करे तो वह उसे न मन से चाहे. न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो अंकसि वा पलियसि वा तुयावेत्ता पादाई यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर फुमेऊन या रएज्ज वा, णो तं सातिए गो त णियमे । लिटाकर या करवट बदलवाकर उसके चरणों को फंक मारे या रंगे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे। से से परो असि वा पलियकसि वा तुपट्टावेता पाबाई यदि कोई गृहस्य साधु को अपनी गोद में या पलंग पर तेस्लेण वा-जाव-बसाए वा मबखेज्ज वा भिलियेज्ज वा, गो लिटाकर या करवट बदलावाकर उनके चरणों पर तेल-यावततं सातिए गो संजियमे। चर्बी से मले तथा बार-बार मले तो वह उसे न मन से वाहे, न वचन एवं काया से भी प्रेरणा करे। से से परो अंकसि या पलियंकासि वा सुपट्टावेत्ता लोटेण वा, यदि कोई गृहरथ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर करकेण वा चुणेज वा बम्मेण वा उरुसोलेज्न वा उसज्ज लिटाकर या करवट बदलवाकर उनके चरणों पर लोध -यावत् - वा, गोतं सातिए णोतं णियमे । वर्ण का उबटन करे बार-बार उबटन करे तो वह उसे न मन से चाहे, न बनन एवं काया से भी प्रेरणा करे । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] चरणानुयोग गृहस्व द्वारा मेस निकालने की अनुमोदना का नि से से परो अंकसि या पलिसिया पावला पावाई सोभोद विडे वा उसिगोवगवियडेण षा उच्छोलेज्ज वा परेएज्ज वा णो तं सातिए को तं नियमे । से से परो अंकसि या पलियकंसि वा तुट्टाता पाठ अरणतरेण विशेषणजाएणं अलिपेज्ज या विलिपेज्ज श्रा, णो सं साइए जो तं नियमे । से से परो अंकसि वर पलियंसि या तुपट्टावेत्ता पावाई अपणतरेण धूवणजाएणं धूवेज्न वा पधूवेज्ज वा जो तं सातिए णो तं नियमे । से से परो अंकसि या पलियंसि वा तुपट्टावेसा हारं वा अवहारं वा उरत्यं वा गेवेयं वा मउ वा पालयं या सुवणसुवाका जो सातिए यो तं तं नियमे -3, से से परो अमि वा कष्णमलं वा दंतमलं वाणमलं वर पोहरेज्ज वा विसोहेन्ज वा को तं सालिए णोतंय - आ. सु. २, अ. १३, सु. ७२१-७२२ हिस्थय रोमपरिकम्मस्स अणुमोषणा णिसेहो - ४८७ से से परी दीहाई बालाई दोहाई रोमाईहाई हाई कमाई दोहाई थिरोमाई कप्पेज्ज या संवेज्ज या को साटिएको थिय सूत्र ४८५-४८ यदि कोई गृहस्य साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवाकर उनके चरणों को प्रासु शीतल जल से मा उष्ण जल से धोये अथवा बार-बार धोये तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया रो भी प्रेरणा करे । यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिखकर या करवट बदलवाकर उनके पैरों पर किसी एक प्रकार के विलेपन द्रव्यों का एक बार या बार-बार विलेपन करे तो वह न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवाकर उनके चरणों को किसी एक प्रकार के विशिष्ट धूप में धूपित और प्रधूपित करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । हित्मकय-मलणीहरणस्स अनुमोषणा जिसेहो गृहस्य द्वारा मेल निकालने की अनुमोदना का निषेध ४८६. से से परी कायालयाारे वा विसी ४०६ यदि कोई गुस्सा के शरीर से पसीने को वा मैल से हे पर णो तं सातिए यो तं नियमे । युक्त पसीने को पोंछे) या साफ करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवाकर उम्रको हार, अर्धहार, वक्षस्थल पर पहनने योग्य आभूषण, गले का आभूषण, मुकुट, लम्बी माला, सुवर्णसूत्र बांधे या पहनाये तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन एवं काया से भी प्रेरणा करे । -आ. सु. २, अ. १३, सु. ७३१ यदि कोई मुहरु साधु के बांका कान का मैल, दांत का मैल या नख का मेल निकाले या उसे माफ करे तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा करे । गृहस्थकृत रोम परिक्रमों की अनुमोदना का निषेध४. यदि कोई गृहस्थ साधु के सिर के सम्बे जों, लम्बे रोगों, केशों, भौहें एवं कांस के लम्बे रोमों, लम्बे गुह्य रोमों को काटे, अथवा सँवारे, तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन और काया से भी " - आ. सु. २, अ. १३, सु. ७२३ प्रेरणा करे । मिक्स भिक्खुणोए अष्णमणकिरिया जिसे हो भिक्षु भिक्षुणी की अयोग्य परिकर्म क्रिया की अनुमोदना का निषेध-४८. सेवा मिश्खुणी वा अम्यमन्नकिरियं अशा ४८८ साया की अन्योन्य कारस्वर पादन्यमा सात्री सहभए भोगिय नादि समस्त क्रिया, जो कि परस्पर में सम्बन्धित है, कर्मसंश्लेषजननी है, इसलिए वह इसको नमन से चाहे, और न वचन एवं काया से भी प्रेरणा करे । --आ. सु. २, अ. १२, सु. ७३० अण्णमण्ण पायाइ परिकम्म जिसे हो अयोग्य पादादि परिकर्म किया की अनुमोदना का निषेध ४८. से अण्णमण्ण पाए आमज्जेज्ज या मज्जेज वा णो तं ४८६. साधु या सत्री (बिना कारण ) परस्पर एक दूरे के सातिए जो तं जियमे । चरणों को पोंछकर एक बार या बार-बार पोंछकर साफ करें तो वह उसे न मन से चाहे, न वचन एवं काया से भी प्रेरणा करे। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूफ४६० विभूषा के संकल्प से अगों की चिकित्सा करवाने के प्रायश्चिस पत्र पारित्राचार [३४१ १-चिकित्साकरण प्रायश्चित्त (५) विभूषा के संकल्प से स्व-शरीर की चिकित्सा के प्रायश्चित्त-१ विभूसावडियाए वतिगिन्छाए पाच्छित्त सुत्ताई .. विभूषा के संकल्प से व्रणों को चिकित्सा करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र४६. मे भिवष्णू विभूतावडियाए अप्पणो कार्यसि ४९०. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए वणं आमग्मेन्ज वा, पम के जज वा, प्रण का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमस्तं वा, एमज्जतं वा साहज्जा। भाजन करने बाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू विसावडियाए अपगो कायंसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए गणं संबाहेज्ज वा, पलिमद्देन्ज था, वण का मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्वन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबात वा, पलिमद्दतं पा साइजः। मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। ने भिक्खू विनसाडियाए अप्पणी कार्यसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए वर्ष सेल्लेण वा जाव-जयणीएण वा, व्रण पर तेल से-पात्-मक्खन से, मखेम्म या, मिलिगेज्ज वा, मले, बार-बार मले, मलवाचे, बार-बार मलवाये, मक्खेतं वा, मिलिगंत या साइजा। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । मे भिक्खू विसावडियाए अपणो कार्यसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए वणं लोण वा-जाव-वणेण वा, अण पर लोध-पावत्-वर्ष का, उल्लोलेन्ज बा, उम्ब जज बा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उहलोलेंतं बा, उन्नत वा साइजा। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू विभूसावडियाए अपणो कार्यसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए वर्ण सीओरग-वियोग वा, उसिगोवग वियण बा व्रण को अचित्त शीत जल से या अचिस उष्ण जल से, उच्चछोलेज्ज बा, पधोएज्जया, धोवे, बार-बार धोके, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलेंस वा, पधोएत वा साइज्जा। धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । मे भिक्खू विभूसाडियाए अप्पणो कार्यसि - मो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर हुए वणं फूमेज वा, रएज वा, अण को रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, फूमतं वा, रयंत पा साहज्जइ । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । संसेवमाणे बावज चाउम्मासियं परिहारष्ट्रानं बाद। उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (पायश्चित्त) --नि. ज. १५, सु. ११२-११७ आता है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] घरणानुयोग विभूषा के संकल्प से गण्डादि को चिकित्सा करने के प्रायश्विस सूत्र सूत्र ४६१ विभूसावडियाए गंडाइ तिगिच्छाए पायच्छित्त सुत्ताई- विभूषा के संकल्प से गण्डादि की चिकित्सा करने के प्राय विचत्त सूत्र४६१. जे भिक्खू विभूसावरियाए अपणो कार्यसि ४६१. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर केगंडवा, जान-मगंदलं वा, गण्ड- यावत्-ममन्दर को, अनपरेणं तिपसेणं सत्यजाएणं. किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अग्छिवेज्ज बा, चिन्हिज्ज वा, छेदन करे, बार-बार छेदन करे.. छेदन करवावे, बार-बार छेदन करवावे, अन्छिदतं वा, विच्छित वा साइज्जइ । घेदन करने वाले का, बार-बार छेदन करने वाले का अनु मोदन करे। जे भिक्खू विभूसावडियाए अपणो कार्यसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर केगंड वा, जाद-मर्गवलं वा, गण्ड- यावत् -भगन्दर को, अन्नयरेणं तिक्खे सत्यनाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अपिछवित्ता वा, विच्छिवित्ता वा, देवन कर, बार बार छेदन कर, पूर्व वा सोणियं वा, पीप या रक्त को, नीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, निकाले, शोधन करे, निकलवावे, शोधन करवावे, मीहरत वा, विसोत वा साइज्जइ । निकालने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू विभूसावरियाए अप्पणो कार्यसि जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर केगरबा, जाव-प्रगल वा, मण्ड-यावत् - भगन्दर को, अन्नयरेण तिवखेणं सत्यजाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अच्छित्तिा वा, विच्छिवित्ता वा छेदन कर, बार बार छेदन कर, पूर्य वा, सोणियं वा, पीप या रक्त को, मोहरेसा वा, विश्लोहेता वर, निकाल कर, शोधन कर, सीमोग-वियरेण बा, जसिणीवमधिपण था, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेग्ज वा, पधोएज्ज था,, धोए, बार बार धोए, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, सन्छोलेतं वा, पधोएतं वा साइज्जद । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जे मिक्सू विसावडियाए अपप्पो कार्यसि - जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर केगं बा-जाव-भगइल बा, गगह-यावत् - भगन्दर को, अनयरेणं तिक्षेणं सस्थजाएणं, किसी एक प्रकार के तीषण शस्त्र से, मपिछविता वा, विपिछविता वा, छेदन कर, बार बार छेदन कर, पूर्व वा, सोणियं वा, पोप पा रक्त को, मीहरेसाबा, विसोहेसावा, निकाल कर, शोधन कर, सीओबग-वियडेण वर, रसिणोषगवियोण वा, अचित्त पीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेता था, पधोएता वा, धोकर, बार-बार धोकर, अन्नधरे आलेषणमाएणं, किसी एक लेप का, आलिज्ज वा, विसिपेज्ज वा, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करवावे, बार-बार लेप करवावे, आलिपंतं वा विलितं वा सहना। लेप करने वाले का, बारबार लेप करने वाले का अनुमोदन करे। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६१-४६२ विभूषा के संकल्प से कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र बारित्राचार [३४३ मे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि- . गंड वा-जाब-भगंदल वा, अन्नयरेणं तिक्खेगं सत्यजाएणं, अस्छिविता वा, विपिछविता वा, पूर्य वा, सोणियं या, नौहरेत्ताबा, विसोहेता वा. सीओधग-वियरंग वा, उसिणोदग-वियांग वा, उपछोलेसा वा, पधोएत्ता वा, अन्नयरेणं आलेवणजाएणं, आलिपिता वा, विलिपित्ता वा, तेस्लेण वा-जान गवणीएण बा, अम्मंगेज वा, मक्खेत वा, आमंगसंषा, भवसंत या साइज्जा। मे भिक्षु विसावड़ियाए अपणो कार्यसिगां वा-जाव-प्रगंबलं या. अन्नयरेणं तिक्खेगं सत्यजाए. अच्छिदिता वा, विन्छिवित्ता वा, पूयं वा, सोणियं वर, नौहरेसा वा, विसोहेता वा, सीओवियडेण वा, उसिणोववियरेण वा, उच्छोलेता वा, पधोएता वा, भायरेणं आलेवणजाएगं, आलिपित्ता वा, विलिपित्ता था, सेल्लेण वा-जाव-गगोएणवा, अभंगेत्ता वा, मखेसा या अन्नवरेगं घुषणाएग, धूवेज्ज बा, पधूवेज्ज वा, जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने सारीर केगण्ड--यावत्-भगन्दर को, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीए या रक्त को, निकालकर, शोधन कर, अवित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक प्रकार के लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्-मक्खन मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-चार मलने वाले का अनुमोदन करे । जो मिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर केगण्ड यावत् .. भगन्दर को, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पोप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी एक प्रकार के लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्-मक्खन, मलकर, बार-बार मलकर, किसी एक प्रकार का धूप देवे, वार-बार धूप देवे, धूप दिलवावे, बार-बार धुप दिलबावे, धूप दिलवाने वाले का, बार-बार धूप दिलवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। विभूषा के संकल्प से कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र४६२. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने-- गुदा के कृमियों को और कुक्षि के कृमियों को अंगुली सालडालकर निकालता है, निकलवाता है, निकालने वाले का अनु. मोदन करता है। धूबा , पधूवंतं वा साहग्जद। त सेवनाणे आवज्जद घाउम्मासिवं परिहारदाण उग्धाइयं । -नि. उ. १५, सु. ११-१२३ विभूसाडियाए किमिणीहरणस्स पायच्छित्तसुत्त- ४६२. बेसिक्स्थ विमूसावल्यिाए अप्पणो पासुकिमियं वा, कुञ्छिकिमियं बा, अंगुलीए निवेसिय निवे- सिय नोहरेड, नोहरतं वा साइज्जइ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ घरगानुयोग मैथुन सेवन के संकल्प से व्रण की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र पूत्र ४६३ तं सेवमाणे भावमा पाउम्मासियं परिहारट्ठाण उग्धाइयं। -नि. र. १५, सु. १२४ उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। मथुन के संकल्प से स्व-शरीर को चिकित्सा के प्रायश्चित्त-२ मेहुणवडियाए वण तिमिछाए पायच्छित्त सुताई- ४६३. जे मिक्ख माजग्गामस्स मेहुणवदियाए अपणो कार्यसि पणं मामम्जेज वा, पमनेज घा, आमज्जतं वा, पमजंतं वा साइजह । जे मिक्खू माउणामस्स अप्पणो कार्यसि वणं संबाहेज वर, पलिमज्ज वा, संबात वा पलिम वा साइज । मधुन सेवन के संकल्प से व्रण की चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र - ४६३. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैयुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए वण का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। __ जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसको (ऐसी स्त्री से) मधुन संबन का सबलप बार अपने शरीर पर हुए व्रण का मदन करे, प्रमदन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाने का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए व्रण पर तेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए व्रण पर लोध,-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करें, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबदन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिवखू माउग्गामस्स मैहणारयाए अपणो कार्यप्ति वणं तेल्लेण बा-जाव-गवणीएणं वा, मखेज्ज वा, मिलिगेज वा, मक्खेत बा, मिलिगेंतं वा साइम्जा। मे मिळू माजगामस्स मेहनखियाए अपणो कार्यसि वणं लोदेण बा-जाव-बणेश वा, उहलोस्सेज्ज वा, उबट्टज्ज वा, उहलोलंसं वा, जव्वत वा साइग्जद । १ यहाँ व्रणचिकित्सा, गण्डादिचिकित्सा और कृमिचिकित्सा के सूत्र मोघक्रम से लिए गये हैं। विभूषा की दृष्टि से कोई कहीं चिकित्सा न करता है, न करवाता है, चिकित्सा का उद्देश्य केवल स्वास्थ्य लाभ है। चिकित्सा में औषधादि के प्रयोग से कृमियों की हिंसा अनिवार्य है अतः यहाँ ये उसी हिंसा के प्रायश्चित्त सूत्र हैं। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६३-४६४ मयुन सेवन के संकल्प से गडाविक चिकित्सा करने के प्रापश्चिम सूत्र चारित्राचार ३४५ भिक्खू मातगामस्स मेहुणवडियाए अपणो कार्यसि वर्ण सीओवग-वियोण वा, उसिणोबर-वियडेण वा, उच्छोलेज्ज था, पोएज्ज वा, उन्छोलेंतं वा पधोएंत वा साइजह । जे भिमलू माउग्गामस्त मेहुणवखियाए अप्पणो कार्य सि वणं कुमेज्ज वा, रएज्ज वा, फुत वा, रएंत या साइजद । तं सेवमाणे आवस्जद धाउम्मासि परिहारहाणं अशाहयं । -नि. उ. ६. सु. ३६.४१ मेहणवधियाए गंडाइ तिगिचछाए पायसिछत्तसुत्ताई--- ४१४, जे मिस्खू माइगामस्स मेहुणवडियाए अपणो कार्यसि- गरं वा-जाब-भगवस वा, अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्यजाएगं, अच्छिवेज वा, विग्छिदेज वा, जो भिक्षु, माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए व्रण को अचित्त शीत जल से या अपित्त उष्ण जल से, धोवे, बार-बार धोवे, धुलवावे, बार-बार धुलदावे, घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । को भिक्षु, माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए प्रण को रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। मैथन सेवन के संकल्प से गण्डादिक चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र४६४, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल करके अपने शरीर पर हुए गण्ड'–यावत्-भगन्दर को किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करे, बार-बार छेदन करे, छेदन करवावे, बार-बार छेदन करवावे, छेदन करने वाले का, बार-बार छेदन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पारीर पर हुए गण्ड-पावत्---भगन्दर को किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाले, शोधन करे, निकलवावे, शोधन करवावे, निकालने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए, गण्ड–यावत्-भगन्दर को किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अच्छिदंत वा, विच्छित वा साइज्जह । जे भिक्षु माउग्गामस्स मेहुगडियाए अप्पणो कार्यसि-- गंड घा-जाव-भगडलंबा, अध्यायरंग तिक्खेणं सत्यजाएणं, अपिछवित्ता वा, विग्छिविता वा, पूर्व बा, सोणि बा, नौहरेन्ज वा, विसोहेज्ज था, नोहरेंतं वा, विसोत वा सरहम्मद। जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहमवडियाए अपणो कार्यसि गंड वा-जाव-मगंदलं घा, अग्णयरेणं तियखेण सत्यजाएग, अच्छिविता वा, छिपिसावा, पूर्व वा, सोणियं वा, नोहरिता या विसोहेला वा, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] परणानुयोग मैथुन सेवन के संकल्प से गण्डाविक चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त मूत्र सूत्र ४६४ सोओग-वियोण बा, उसिगोदग-विपग वा, जन्छोसेम्न पा, पयोएग्ज वा, उम्छोलतंबा, पधोएत वा साइजह । मे भिक्ख माजग्गामस्स मेहणषधियाए अप्पणो कार्यसि -- गंड बा-जाव-मगंधलंबा, अम्णयरेग तिक्वेणं सत्यजाएणं, अग्छिवित्ता वा विश्विविता वा, पूर्व वा, सोगियं वा, मोहरिता वा, विसोहेत्ता वा, सोभोग-विवडेण वा, उसिणोरग-वियोण वा, उच्छोलेत्ता वा, पनोएसा वा, अनयरेणं धालेवणजाएणं, आखिपेज्ज बा, बिलिपेख बा, आलित बा, विलितं वा साइजह । मे भिक माजग्गामस्स मेनुएवडिपाए अपणो काति अमित शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए गण्ड--यावत्-भगन्दर को, किसी प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से. हेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकाल कर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अनित उष्ण जल से धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक प्रकार के लेप का, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करावे, बार-बार लेप करावे, लेप करने वाले का, बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए गण्ड, यावत्-भगन्दर वो, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, निकान कर, शोधन कर, अचिन शीत जल से या अचित्त उठण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक प्रकार के देप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मलबाबे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (एसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर हुए, गण्ड- यावत्--भगन्दर को, किसी एक प्रकार के वीक्षण शस्त्र से, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पीप या रक्त को, गंडवा-जाव-भगवसं वा, भरणयरेणं तिमवेणं सत्यजाएणं, अभियवित्ता वा, विक्छिवित्ता गा; पूर्व बा, सोगियंगा, नौहरित्ताबा, विसोहेसाबा, सोपोरग-वियोण वा, उसिणोदम-विवडेण पा, उच्छोसेतामापधोएसा मा, अम्गपरेणं मासेनगजाणं, आलिपेत्ता वा, विलिपेसा वा. तेल्लेम वा-जाव-णवीएप वा, मम्मंगेज वा, मखेज्ज वा, - - - - - - . . . . - - अमंगेत वा, मक्यात वा साइमा । मे मिक्खू माजगामस्स मेहगवटियाए मापणो कार्यास-- गंवान्जाद-मपंवलवा, माममरेगं तिमोगं सस्थमाएणं, मणिविसावा, विशिपिता पर, पूर्व बा, सोषियं बा, Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६४-४६६ मैथुन सेवन के संकल्प से कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र पारिवाधार ३४७ मोहरिता वा, विसोहेत्ता वा,' सीओदग-विपडेण वा, उसिणोक्षग-वियरेण मा, उच्छोलेता था, पधोएसा वा, अग्णवरेणं बालेवणजाए आसिपेसा वा, बिलिपेसा वा, तेहलेग वा-जावणववीएण षा, अम्मंगेता था, मक्खेता था, अन्नयरेण वणजाएणं, धूवेन वा, पधूवेज वा, निकालकर, शोधन कर, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक प्रकार के लेप का, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्-मक्खन, मलकर, बार-बार मलकर, किसी एक प्रकार के धूप से, धूप दे, बार-बार धूप दे, धूप दिल नावे. बार-बार धूप दिलवावे, धूप देने वाले का, बार-बार धूप देने वाले का अनुमोदन घुवेतं षा, पर्वतं वा साइजद । तं सेवमाणे आवम्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्धाइय। -नि. 3. ६, सु. ४२-४७ मेहुणवडियाए किमि-णिहरणस्स पायच्छित्त सुसं उसे चातुर्मासिवः अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । मैथन सेवन के संकल्प से कृमि निकालने का प्रायश्चित्त ४६५. जे मिक्यू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पगो, पालुकिमियं वा, कुचिकिमियं वा, अंगुलिए निवेसिय निवे- सिय, ४६५. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रिया जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने गुदा के कृमियों को और कुक्षि के कृमियों को उँगली डाल-डालकर, निकालता है, निकलवाता है, निकालने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। मोहरा, नीहरतं वा साइजह । तं सेवमाणे आबज्जा पातम्मासिय परिहारहाणं अणुग्याइय। --नि. उ. ६, सु. ४८ मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर चिकित्सा के प्रायश्चित्त-३ मेहुणज्यिाए अण्णमण्णवणतिगिच्छाए पायच्छिस सुत्ताई- मंथन सेवन के संकल्प से परस्पर व्रण को चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र४१६. जे भिक्स माउन्गामस्स मेडणवधियाए अण्णमण्णास कार्यप्ति, ४६६. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्दिया जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए वगं आमज्जेजबापमम्जेज्ज या, अण का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवाये, प्रमार्जन करवावे, मामअंतं वा, पमज्जत वा साइरमा। मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] चरणानुयोग मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर प्रण को चिकित्सा करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ४९६-४६७ जे भिक्खू मारणामस्स मेहणवस्यिाए मण्णमणस्स कायसि, घणं संबाहेज्ज वा, पलिमज्ज था, जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रिया जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए वण का मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाके, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन संबाहेत या, पलिमतं वा हाइज्जह । करे। जे मिक्ल माजग्गामास मेहषषडियाए अण्णमण्णस कार्यसि जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए वर्ग तेल्लेण वा-जाव-गवणीएण वा, प्रण पर तेल-यावत्- मक्खन, माखेज वा, मिलिगेज वा, मले, बार-बार मले, एतनावे. गार वार गलवावे, मरखेत बा, भिलिगंतं वा साइजइ। मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। से मिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अग्यमण्णस्त कार्यसि, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (एसी स्त्री से मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए म सोरेण वा-जाव-षपणेण वा, वण पर लोध,-मावत्-वर्ण का, बल्लोलेन्ज वा, उग्वट्टज्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उस्लोलत बा, उब्वट्ठतं पा साइजः । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। बेभिक्षु माउरगामस्स मेहुणयख्यिाए अण्णमण्णस्स कायंसि, जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए वणं सीओदग-वियरेण वा, उसिपोवग-वियरेण वा, अणको अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से: उच्छोलेज्ज वा, पचोएग्जा , छोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उन्छोलेंत वा, यधोएंतं वा साइजद । घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करें। जे भिक्खू माउमामस्स मेहुणवडियाए अण्णमस्णस्स कायंसि, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए वणं फुमेन वा, रएज्य षा, खण को रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, हमेंतं वा, रएतं वा साइज्जइ । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे आबन्ना बासम्मापियं परिहारट्टागं अाशाहयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) . . . . . -नि. उ. ७, सु. २६-३१ आता है। मेहणवडियाए अण्णमण्ण गंडाइ तिपिच्छाए पायन्छित मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर गण्डादि की चिकित्सा सुत्साई-- करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- ४६७. भिक्खू माउग्गामास मेहुणजियाए अण्णमणस कार्यसि, ४६७. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर पर हुए Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ४९७ wwwwwww मेन सेवन से कोर जावद दा अण्णयरेचं तिस्ते सत्का अच्छिदेज्ज वा विच्छिवेज्ज वा अच्छिदेतं वा विछितं या साइज्जइ । जे भिक्खू भाग्यामरस मेडिया अन्य कार्यसि गंड या जान पा अष्णयरेणं तिक्लेणं सत्थजाएगं, छिरिता था, दिति वा पूर्व वा सोचियं वा नोहरेज्ज या, विसोहेज्ज वा, नोहरेत था, विसोर्हेत या साइज्जइ । क्यू माइयामरस मेडियाए अन्णमव्यस्त कार्यसि गं था- जाव-मगंबलं वा, अणय देणं विषये सरबजाए, अच्छा या विच्छिवित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नोहरिता वा विसोता था, या उसिनोद विपण वा उच्छोलेज्न वा पछोएन्ज वा उच्छो या पधोएंत वर साइन । माराम मेडियामास कासि गंड वा जाव- भगवलं था, अणयरेग तिरखेच सजाएग छत्ता वा विच्छिवित्ता वा पूवा, सोणियंत्रा श्रीहरिसा वा विसोहेत्ता वा, मोगवियत्रेण वा उगिया, उन्होने या धावा अण्णय रे आलेवण जाणं, मासिपेक्ष वा विलिपेज्ज वा, आलिपतं वा विनितं वा साइज । www. wwwww गण्ड – यश्वत् – भगन्दर को, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, छेदन करे, बार-बार छेदन करे, छेदन करवाने, बार-बार छेदन करवावे, छेदन करने वाले का बार-बार छेदन करने वाले का अनु मोदन करे | जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से ) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के, गण्ड, पावत् – भगन्दर को, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, [४ छेदन कर, बार-बार छेदन कर पीप या रक्त को, निकाले, शोधन करे, निकलवाने, शोधन करवाये निकालने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करें । छेदन कर बार-बार छेदन कर पीप या रक्त को, निकालकर शोधन कर, अचिन्त शीत जल से या अति उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, wwwwww जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसको (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके, एक दूसरे से, गण्ड - पावत् -- भगन्दर को, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, निकालकर, शोधन कर, अतिशीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, किसी एक प्रकार के लेप कर, घुलवावे, बार-बार धुलवावे, होने वाले का बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे | जो माता के समान है इन्द्रियां जिसकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के गण्ड -- यावत् - भगन्दर की, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शास्त्र से, छेदन कर वार-बार छेदन कर पीप वा रक्त को, लेप करे, बार-बार लेप करे, लेप करवावे, बार-बार लेप करवावे, लेप करने वाले का, बार-बार लेप करने वाले का सुनुमोदन करें । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५.) वरगानुयोग मधुन सेवन के संकस से परस्पर कृमि निकालने का प्रायश्चित सूत्र सूत्र ४६७-४९८ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहगवडियाए अण्णमाणस कार्यसि. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमो स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के, गंवा जाव-मगंदल या, गण्ड,-पावत् ... भगन्दर को, अण्णपरेणं तिक्खेणं सत्यमाएणं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शसा मे, अच्छिवित्ता वा, विच्छिरिता वा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पूर्व वा सोणियं वा. पीप या रक्त को नीहरिता वा, विसोरेता बा, निकालकर, शोधन कर, सीओक्ग-बियडेग वा उसिणोडग-बियडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल में, उच्छोलेता वा, पधोएता था, धोकर, बार-बार धोकर, अग्णयरेणं आलेवणजाएणं, किसी एक प्रकार के लेप का, आलिपित्ता बा, बिलिपित्ता बा, नेप कर, बार-बार लेप कर, सेल्लेग वा-जावणवणीएण वा, तेल-यावत्-मक्खन, अन्गेज्म वा, मरखेज वा, मले, बार-बार मले, मलबाबे, बार-बार मलवावे, अभिगत या, मवेत या साहज्जई । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अम्णमणस कार्यसि, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के, गंड वा-जाब-मपाल बा, गण्ड-पावत्-भगन्दर को, अण्णयरेणं तिक्खेगं सत्थजाएगं, किसी एक प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्र से, अस्छिवित्ता वा, विच्छिवित्ता वा, छेदन कर, बार-बार छेदन कर, पूर्व वा, सोणियं वा, पीप या रक्त को, नौहरिता वा, विसोहेत्ता वा, निकालकर, शोधन कर, सीओवग-विपडेण का, उसिणोरग-वियोण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उपछोलेता वा, पधोएत्ता वा, धोकर, बार-बार धोकर, अण्णयरेणं पालेवण आएणं, किसी एक प्रकार के लेप का, आलिपित्ता वा, विलिहिता वा, लेप कर, बार-बार लेप कर, तेल्लेण वा-जाव-गवगीएण वा, भाभगेत्ता वा, मस्खेत्ता वा तेल-यावत् - मक्खन, मलकर, बार-बार मलकर, भषयरेणं घूवण-जाए, . किसी एक प्रकार के धूप से, धूवेज्म बा, पवेज्म वा, घूप दे, बार-बार घूप दे, धूप दिलवावे, बार-बार धूप दिलवावे, धूयंतं था, पध्वंतं वा साइज्जह । धूप देने वाले का, बार-बार धूप देने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे भावज्जद चारम्मासिवं परिहारहाणं अगुग्याइयं । उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ७, सु. ३२-३७ आता है। हणण्याए अण्णमण्णकिमि-णीहरणस्त पायपिछत्त सुस- मैथन सेवन के संकल्प से परस्पर कृमि निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र१६८, जे मिक्लू मा डागामस्स मेहमवरियाए अण्णमण्णम पालु. ४६८. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (एसी स्त्री से मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के, किमियं या, कुन्छि-किमियं वा, गुदा के कृमियों को और कुक्षि के कृमियों को, अंगुलीए निवेसिय निसिय, उँगली डाल-डालकर, मीहरक नीहरतं पा साइन। निकालता है, निकलवाता है, निकालने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज घाउम्मासियं परिधारहाणं अणुग्याहय। उसे दातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्वित्त) -नि. उ. ७,सु. ३८ आता है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार ३५१ AAA - - - (२) परिकर्मकरण-प्रायश्चित्त स्व-शरीर परिकर्म-प्रायश्चित्त-१ कायपरिकम्मरस पायच्छित्त सुत्ताई४६६. भिम अपणो काय-- आमरजेन्ज था, पमम्जेज वा, आमज्जत वा, पमतं वा साहज्जद । ने मिक्खू अप्पणो कार्यसंबाहेज्ज था, पलिमहज्जवर, संवाहेतंबर, पलिमहतं वा साइज्जा। में भिव अप्पणो कार्यतेस्लेण वा-जाव-गवणोएग वा, अभंगेज्ज वा, मवखेज्ज था, अमंगतं वा, ममतं वा साइन्न। मे मिगलू अप्पगो कार्य-- लोग वा-जाव-वपणेग वा, सल्लोलेजन वा, सम्वट्ठ ज्ञवा, शरीर परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र४६६. जो विक्ष अपने शरीर का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने शरीर कामदन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करावे, प्रमर्दन करावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिन अपने शरीर परतेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने शरीर परलोध-पावत्-वर्ण का, उवटन करे, बार-बार उबटन करे. उबटन करावे, बार-बार उबटन करावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने शरीर कोमचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने बाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने शरीर को-- रंगे, बार-बार रंगे, रंगाचे, बार-बार रंगाचे, रंगने वाले का, बार बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। उसे उद्घातिक मासिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त) आता है। स्लोलतं वा, उन्धट्टल पर साइन । मे भिक्खू अपणो कार्यसीओग-वियोण वा, जसिगरेलग-वियोग वा, उच्छोलेज्ज दा; पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंत वर, पधोबत वा साइज्जइ । जे भिम्बू बप्पणो कार्यफूमेज वा, रएज्ज वा, फूमेंसं वा, रस वा साइज्ज। तं सेवमाणे आपज्जा मासियं परिहारहाणं म्याइयं । -नि. ड.३, सु. २२-२७ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ चरगानुयोग मैल दूर करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५००-५०१ - -- मलगोहरणस्स पायच्छित्त सुत्ताई५०..जे मिक्य अपणो कायामओ - सेयं वा, अस्लं या, पंक या, मलं का, जोहरेज्ज वा, विसोहेज्ज था, णीहरत बा, बिसोहेंतं बा साहजह। जे मिक् अप्पणोअच्छि -मलं बा, करण-मलं वा, दंत-मलं या, गह-मलंबा, जोहरेज्ज वा, विसोहेज वा, गीहरेत वा, विसोत वा साइज्मइ । तं सेवमाणे अनज मासियं निमारदार उपाय -नि. उ. ३, सु. ६७-६८ पायपरिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्ताई५.१.जे भिक्खू अपणो पाए आमज्जेज्ज वा, पमन्जेज्म बा, मल दूर करने के प्रायश्चित्त सूत्र५००, जो भिक्षु अपने शरीर से पवेद (पसीना) को, जल्ल (जमा हुआ मैल) को, पंक (लगा हुआ कोयड़) को, मल्ल (लगी हुई रज) को, दूर करे, गोधन करे, दूर करवाने, शोधन करवावे, दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने आँस्त्र के मल को, कान के मेल को, दांत के मैन को, नख के मैल को, दुर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवाये, दूर कवने बाले का, शोघन करने वाले का अनुमोदन करे। हरो मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्वित्त) आता है। पादपरिकम के प्रायश्चित्त सूत्र५०१. जो भिक्षु अपने पैरों का मार्जन कर, प्रमार्जन करे, भाजन करावे, प्रमार्जन करावे, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने पैरों कामर्दन करे, प्रमर्दन करे, मदन करवाये, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्ष अपने पैरों परतेल,-पावत्-नवनीत (मक्खन), मले, बार-बार मले, मलवाये, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने पैरों पर लोध,-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करें, उबटन करावे. बार-बार उबटन करावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने पैरों कोअचित्त शीत जल से और अविप्त उष्ण जल से, आमज्जतं वा, पमग्जंतं वा साइजह । जे भिक्खू अत्एणो पाएसंबाहेज्ज वा, पलिमहा वा संबात वा, पलिमहतं वा साइज्जद । जे मिक्खू अपणो पाएतेल्लेण वा-जाद-गवणीएण या, आमंगेज्ज वा, मक्खेज वा, अभंगतं या, मक्खंत वा साइनाइ । जे मिमखू अपणो पाएलोवेग वा-जाव-वाण या, उल्लोलेज्न बा, स्वज्ज वा, उहलोलेंतं वा, उषत वा साहज्जा। जे शिक्ल अप्पगो पाएसोओवग-वियोग वा, उसिमोरम-षियोण वा, Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५०१-५०३ नखाप पागों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र पारित्राचार ३५३ उपछोलेज्ज बा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलतं वा, पधोवतं दा साइज्जद । जे भिक्खू अपणो पाएफूभेज्ज वा, रएज्ज षा, फूमतं वा, रएंतं वा साइम्मा तं सेवमागे आवजह मासियं परिहारट्ठागं राधाइयं । -नि.उ. ३, सु. १६-२१ णहसिहापरिकम्मस्स पायचित्त सुसं५०२. जे भिक्खू अपणो दोहामो नसिहाओ कप्पेग्ज या, संठवेज्ज वा, कप्पेत वा, संठतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवजह मासिय परिहारट्रायं उधाइ । --नि. ३. ३, सु. ४१ जंघाइरोमाणं परिकम्मरस पापछित्त सुत्ताई५३. जे भिवस्त्र अप्पणो वोहाई जंघ-रोमाई कपेज्ज, संठवेज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलावे, बार-बार धुलावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने पैरो कोरंगे, बार-बार रंगे, रंगावे, बार-बार रंगावे, रंगने वाले का, वार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। नखान भागों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र५०२. जो भिक्षु अपने लम्बे नखानों को काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन कर । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जंघादिरोम परिकों के प्रायश्चित्त सूत्र५०३. जो भिक्षु अपने जाँच (पिन्डली) के लम्बे रोमों को-- काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने बगल (कांख) के लम्बे रोमों कोकाटे, सुमोमित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो मिक्ष अपने श्मथु (दाढ़ी) मूंछ के लम्बे शेमों कोकाटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करयावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने वस्ति के लम्बे रोमों कोकाटे, सुशोभित करे, कटवाने, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने चक्षु के लम्बे रोमों कोकाटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। कप्पेतं वा संठवेत वा साइज्जई। जे भिक्त अपणो दोहाई कपल-रोमाईकप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्त बा, संठवतं वा साइजई। जे मिक्स्य अपणो दीहाई मंसू-रोमाइंकप्येज वा, संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा, संबतं वा साइजद । से भिक्खू अपणो दोहाई वस्थि-रोमाईकप्पेज वा, संठवेग्ज यश, कप्तं वा, संठवेतं का साइज्नई। जे भिकल्लू अप्पमो वोहाई अक्षु रोमाईकप्पेज वा, संठवेज्ज वा कप्तं वा, संठवेत वा साहबइ। तं सेषमाणे आवजह घाउम्मासियं परिहारट्ठागं नग्धाइय। -नि. ३.३, सु. ४२-४६ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] धरणानुयोग ओष्ठ परिकम के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र५०४-५.५ ओट्टपरिकम्मस्सपायच्छित्त सुत्ताई५.४.जे भिक्खू अप्पणो उट्ठ आमजेग्ज बा, पपज्ज वा, आमज्जांबा, पमर्जत या साइग्जद । जे भिक्खू अप्पगो उ8संबाहेज्ज वा, पलिम ज्ज वा, संवाहेत बा, पलिमहत या साइजह । गन्जू प्रयागो राष्ट्र तेल्लेण वा-जाद-पवणोएण वा, अमागेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, अम्मंगत वा, मवखंत वा साइजद । जे भिगवू अपणो उ?लोण वा-जाव-बण्ण वा, जालोलेज्ज वा, उव्वदृज्ज वा, ओष्ठ परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र५०४. जो भिक्षु अपने होठों का-- मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्ष अपने होठों कामदन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु अपने होठों परतेल-यावत्--मक्खन, मले, बार-बार मले, मलचावे, बार-बार मलवाचे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु अपने होठों परलोध-यावद-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करें, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवाने, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने होठों कोअचित्त शीत जल से या चित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार शुलवावे, घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जओ भिक्षु अपने होठों कोरंगे, बार बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। उल्सोत वा, उम्वतं वा साइमा । जे भिक्खू अपणो ज?-- सीओदग-वियडेण वा, उसिणोग वियोण वा, उच्छोलेज वा, पधोएज्ज था, उच्छोलतं वा, पधोएतं या साइज । जे मिवधू अप्पणो उ8फूमेज्ज वा, रएउज था, फूमंतं वा, रयंतं वा साइज। तं सेवमाणे भावमह माप्तियं परिहारद्वान उपाहयं । –नि.उ. ३, सु. ५०.५५ उत्तरोट्टाइरोमाणं पायच्छित्त सुत्ताई५०५. जे भिक्खू अपणो वोहाई उत्सरोदु-रोमाई उत्तरोष्ठादि रोम परिकों के प्रायश्चित्त सुत्र-- १०५. जो भिक्षु अपने लम्बे उत्तरोष्ट रोम (होठ के नीचे के सम्बे रोम), काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाने, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। कप्पेवा, संवेज वा, कतंबा, संठवतं वा साइज्जह । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५०५-५०७ पन्त परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार ३५५ जै भिषल अस्पषो दोहाई णासा-रोमाईकप्पंज वा, संठवेज्ज का, जो मिल अपन ना लम्बे रोमकाटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। कप्तं या, संख्येतं वा साइजह । तं सेवाणे आवस्जद मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं । -नि.उ.३, सु. ५६ दंतपरिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्ताई१०६. मे मिक्खू अपणो देते आघंसेज्ज या, पघंसेज्ज वा, आघंसंस वा, पसंतं वा साइजद्द । जे भिक्खू अप्पणी यंतेउस्छोलेज वा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा, पधोएंत वा साइजह । जे भिक्खू अपणो वैसेफूमेन वा, रएज्ज वा, कूमत बा, रयत वा साइज्जद। तं सेवमाणे आवग्जद मासिवं परिहारट्ठागं उग्घाइयं । -ग. उ. ३, सु. ४७०४६ चक्खु परिकामस्स पायच्छित्त सुत्ताइ५०७. जे मिक्य अप्पणो अच्छीगि आमनेज्ज वा, पमजेडज बा, दन्त परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र५०६. जो भिक्षु अपने दांतों को घिसे, बार-बार घिसे, घिसवाचे, वार-बार घिसवावे, घिसने वाले का, बार-बार घिसने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपने दाँतों कोधोये, बार-बार धोये. धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अपने दांतों कोरंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। चक्षु परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र५०७. जो भिक्षु अपनी आँखों का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, माजन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपनी आँखों काभदंन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपनी आँखों परतेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार भले, मलवादे, बार-बार गलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अपनी आंखों पर -- आमजंतंबा, पमज्नंत या साइज्जद। मे भिमखू अपणो अच्छीणिसंजाहेज वा, पलिमद्दज्ज वा, संबाहेंतं वा. पलिमतं वा सम्हग्ज । जे भिक्खू अप्पणो अछोगिसेल्लेग वा-गाव-णवणीएण वा, अमरज या, मक्खेज वा, अमगेत वा, मक्खेत वा, साइम्जा। से मिक्लू अप्पको अच्छोणि--- Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ घरणानुयोग अक्षिपत्र-परिकम का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५०७-५१० लोण वा-जाव-बणेण वा, लोध्र-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उल्लोल्लेज्ज या, उध्वटज्ज वा. उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उल्सोलेंतं वा, उव्वदृतं वा माइगई। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि जो भिक्षु अपनी आँखों कोसीऔरग-वियांण बा, उसिपोरगविपडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेज वा, पधोवेज्ज था, धोवे, बार-बार धोबे, घुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलेंतं वा, पधोयतं वा साइजह । घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । मे भिक्खू अपणो अच्छीणि जो भिक्षु अपनी आँखों कोफूमेज्ज वा, रएज्ज वा, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, फूमंत बा, रएतं वा साहज्जा । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आयज्जद मासियं परिहारहाणं उाघाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (पायश्चित्त) -नि.उ. ३, सु.५८.६३ आता है। अच्छिपत्तपरिकम्म पार्याछत सत्त अक्षिपत्र-परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र५०८. जे मिक्खू अपणो दोहाई मच्छि-पत्ताई ५०८, जो भिक्ष अपने लम्बे अति पत्रों कोकप्पेज्ज बा, संठवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठवेतं वा साइजद। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवज मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ३, मु.५७ आता है। भुमगाइरोमाणं परिकम्मस्स पायच्छित्त सत्ताई भौंहादिरोम परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र५.०६.जे भिक्खू अप्पणो दीहाई मुमग-रोमाई ५०६. जो भिक्षु अपने भौह के लम्बे रोमों कोकप्पेज या, संडवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वा, संठवेतं का साइज्बई । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जे मिमल अप्पणो दीहाइ पास-रोमाई जो भिक्षु अपने पावं के लम्बे रोमों कोकप्पेज वा, संटवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठवेत वा साइजह ।। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवाज मासिवं परिहारट्ठाणं उम्पाइर्य । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्स) -नि. उ. ३, सु. ६४-६५ आता है। केस परिकम्मस्स पायच्छित्त सत्तं केशों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र५१०. मिक्खू अप्पणो दोहाई केसाई ५१०. जो भिक्ष अपने लम्बे केशों को-. फापेन वा, संठवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवाने, सुशोभित करवावे, कतं चा, संठवेतं वा साइजा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन कर । तं सेवमाणे आवजा मासिक परिहारट्टाणं ग्याइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) ---नि. उ. ३, सु. १६ बाता है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५११-५१२ मस्तक रुकने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार ३५७ सोसवारियं करणस्स पायच्छित्त सुतं मस्तक ढकने का प्रायश्चित्त सूत्र५११. जे मिक्खू गामागुगाम दूइज्जमाणे अपणो सोसवारियं ५११. जो भिक्षु प्रामानुग्राम जाता हुआ अपने मस्तक को ढकता है, करेइ, करें या साइज्जा । हकवाता है, और सकने वाले का अनुमोदन करता है । सं सेवमाणे आवज्जइ भासिय परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ, ३, सु. ६६ आता है। kx परस्पर शरीर परिफर्म प्रायश्चित्त-२ अण्णमण्णस्सकाय परिकम्मरस पायच्छित्त सत्ताई५१२. जे मिक्ल अण्णमाणस कार्य आमग्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा, पमजतं वा साइजह । जे मिक्खू अण्णमण्णस्स कम्यंसंबाहेज्ज वा, पलिमद्देन वा, संबात वा, पलिमद्दतं वा साहज्जद । जे मिक्खू अण्णमण्णास कायंतेल्लेण वा-जावणवणोएण वा; मक्खेज्ज वा, मिलिगेज्ज था, एक दूसरे के शरीर परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र - ५१२. जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर कामर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर परतेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवाये, बार-बार मलवादे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर परलोध-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर कोअचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। मक्खेतं वा, मिलिगेस वा साइज्जद। में भिक्खू अण्णमण्णास कायं-- लोग्रेम या-जाव-वष्णेण वा, उहलोलेजवा, उध्वज था, उल्लोलेतं वा, उस्वदृत वा साइम्सद । से मिक्खू अण्णमण्णास कार्यसोमोबग-वियांग था, उसिगोरग-वियत्रेण वा, उपछोलेज्ज था, पधोएर वा, उच्छोलेत वा, पोएंत वा साइज्जइ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ घरगानुयोग एकदूसरे के मल निकालने के प्रायश्चिस सूत्र सत्र ५१२-५१४ में मिक्खू अण्णमणस्स कापं जो भिक्षु एक दुसरे के शरीर कोफूमेज वा, रएज्ज था, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फत वा, रएतं वा साइजइ । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे भावग्जइ चाउम्मरसिय परिहारहाणं उन्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ४, सु. १५-६० आता है। अण्णमणस्स मलणिहरणस्स पार्यावछत्त सुसाई- एक दूसरे के मल निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र५१३. जे मिक्ख अण्ण माणस अपिछ मलं वा, काण-मलं वा, यंत- ५१३. जो भिक्षु एक दूसरे के आँखों के मेल को, कान के मैल मलं वा, मह-मलं वा, को, दाँत के मल को, नख के मल को, नोहरेज वा, विसोहेज वा, दूर करे, शोधन करे, दुर करवावे, शोधन करवावे, नोहरत बा, विसोहेंतं वा साइजइ। दूर करने वाले का, योधन करने वाले का अनुमोदन करे। मे क्लूि अण्णमण्णस्स कायाओ--सेयं वा, जहलं वा, पंक जो भिक्षु एक दूसरे के शरीर से स्वेद (पसीना) को जल्ल, वा, मल वा, (जमा हुआ मैत्र) पंक (लगा हुआ कीचड़) मल्ल (लगी हुई रज) को, नोहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवावें, नोहरत वा, विसोत वा साहज्जा । दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे आवज्जह मासिय परिहारद्वाणं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४, सु. ६६-१७० आता है। अण्णमण्णस्स पायपरिकम्मस्स पायच्छित सुसाई- एक दूसरे के पाद परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र५१४. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए ५१४. जो भिक्षु एक दूसरे के पैरों काआमअंग्ज वा, पमजेज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्मंत वा, पमजतं या साइजद । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे । में भिस्सू भज्यमण्गस्स पाए-- जो भिक्षु एक दूसरे के पंगें कासंबाहेज्ज वा, पलिमहज्ज वा, मदन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबात वा, पलिमस वा साइलाइ । मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करें। जे मिक्खू अण्णमण्णस्स पाए -- जो भिक्षु एक दूसरे के पैरों परतेलेग वा-जाव-णवणोएग वा, तेल-यावत-मक्खन, मखेजवा, मिलिगेज्न वा, मले, बार-बार मले, मलवाये, बार-बार मलबावे, मक्वंतं वा, मिलिगतं वा साइबाद । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे मिक्खू अण्णमण्णस्स पाए-- जो भिक्षु एक दूसरे के पैरों परलोवेण बा-जाव-अण्णेण वा, लोध, यावद-वर्ण का, उल्सोलेग्ज वा, उम्वट्ट जज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उल्लोलतं वा, उमदृत या साहजह। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करें। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१४- ५१६ जं भिक्खू अणमण्णस्स पाएसोओगविक्षेण वा उसिगोगवियज्ञेन चा, वादी मा होतं या पधोएं या साइज्जइ । जे मिव अमणस्स पाएमेवा, रवा, फुमेतं वा रतं वा साइ अष्णमण्णस्स ५१४. जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दोहाम्रो नह सीहाओकप्पेज्ज या, संठवेज्ज वा, कप्येक्ज एक दूसरे के नलान काटने का प्रायश्चित्त सूत्र - नि. उ. ४, सु. ४६-५४ सोहापरिकम्मस्स पायति सुतं बा, कतं वा संठवतं वा साइज्जइ । तं सेवमरणे यावज्जइ मासियं परिहारद्वाणं उभ्याइ । - नि. उ. ३, सु. ७४ अornerea जंघाइ रोमाणं परिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्ताई ५१६. जे भिक्खू अष्णमण्णस्स दीहाई बंध-रोमाई संवेज्ज श कतं या. संठतं वा साइज । जे भिक्खू अभ्णमणस्स बीहाई क्रोमाई कप्पेज वर संदवेज्ज वा, कम्पतं या संख्येत वा साइ जेमिन अणमण्णस्स बीहाई सु-रोमाई कव्येज्ज वा संठवेज्ज था, — वा वा स जेमिन्नमरणस्स बीमा कप्पे वाडवेज बा कप्पेतं वा संठतं वा साइज । चारित्राचार जो भिक्षु एक दूसरे के पैरों को -- अतिशीत जलसे यां भचित्त उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, घुलवावे, बार-बार घुलत्रावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करें। १५६ जो भिक्षु एक दूसरे के पैरों को रंगे, बार-बार-बार रंगे, रंगवावे, धारदार रंगवावे रंगने वाले का बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (आय) आता है । एक दूसरे के नखा काटने का प्रायश्चित सूत्र५१५. जो भिक्षु एक दूसरे के लम्बे नखानों को काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का करने का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है । १६. को - - एक दूसरे के जंघादि के रोमों के परिक्रमों के प्रायश्चित्त सूत्र --- भिक्षु एक दूसरे के जंघा (टी) के लम्बे रोमों काटे, सुशोभित करें, कटवाये, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें | जो भिक्षु एक दूसरे की कुक्षि (कख) के लम्बे रोमों कोकाटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । एक दूसरे के की मूंछ के सम्बे रोम काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे; पटवाने का सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु एक दूसरे के वस्ति के लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करे, कटवायें, गोभित करवायें, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] चरणानुयोग एक दूसरे के होठों के परिकों के प्रायश्चित्त इत्र सूत्र ५१६-५१७ जे मिक्खू अण्णमणस बोहाइं चावु-रोमाई जो भिक्षु एक दूसरे की चक्षु के लम्बे रोमों कोकप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कम्पलें वा, संठवतं वा साइजह । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवस्जद मासियं परिहारद्वाणं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. . ४, सु.७५-७६ आता है। अण्णमण्णरस ओट्ट परिकम्मरस पायच्छित्त सुत- एक दूसरे के होठों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र५१७. ने भिक्खू अण्णमष्णस्स उ8 ५१७. जो भिक्ष, एक दूसरे के होठों काआमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करयावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जंतं या, पमअंत या साहज्जा। मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णमण्णस्स उ8 जो भिक्ष, एक दूसरे के होठों का-- संबाहेज वा, पलिमइज्ज वा, मर्दन करे, प्रमईन करे, मदन करयावं, प्रमर्दन करवावे, संबात वा, पलिमतं वा साइप्रह। मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिवय अग्गामण्णास उट्टे, जो भिक्ष एक दूसरे के होठों परतेहलेग वा-जाय-णत्रणीएण वा, तेल-यावत्-मक्खन, मक्खेज वा, मिलिगेज्ज वा, मले, बार-बार मले, मनवावे, बार-बार गलवाये, मक्खेत था, भितिगत वा साइज्जइ । मलने वाले का, बार-बार मानने वाले का अनुमोदन करे । मे भिक्खू अण्णमयस्स उट्ठ जो भिक्ष एक दुसरे के होठों परलोण वा-जाव-वण्णा , लोध-यावद -पूर्ण का, उस्लोलेज वा, उपवट जवा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाचे, बार-बार उबटन करवावे, उल्लोलतं वा, रश्वदृत वा साइज्जइ । उबटन करने वाले का, बार-बार उबन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिखू अण्णमपणस्स उ8 जो भिक्ष एक दूसरे के होठों कोसीओबग-वियडेण वा, उसिप्पोक्गवियरेण बा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, अछोलेज वा, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार घुलवावे, उन्छोलेंसं वा, पधोएंत वा साज्जा । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिर अण्णमण्णस्स उडे जो भिन एक दूसरे के होठों को-- फुमेज्ज बा, रएज्ज चा, रंगे, बार-बार रंगे, फुमेंसं वा, रएंत वा साइन्जा। रंगवाये, बार-बार रंगवावे. रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजा मासिय परिहारद्वाणं उन्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४, मु. २३-८८ आता है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११८-५२० एक-दूसरे के उत्तरोष्ठ रोमादि परिकों के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार ३६१ अण्णमण्णस्स उत्तरोटुरोमाई परिकम्मस्स पायच्छित एक दूसरे के उत्तरोष्ठ रोमादि परिकों के प्रायश्चित्त सुत्ताई५१८. जे भिक्षू अण्णमणस वोहाई उत्तरोदरोमाई.. ५१६. जो भिक्ष, एक दुसरे के लम्बे उत्तरोष्ठ रोम (होठ के नीचे लम्बे रोम)कप्पेज्ज या, संठवेज या काटे, सुशोभित कर, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पत वा, संवैत वा साइज्जद । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। जे भिक्खू अण्णमस्णस्स दोहाई णासा-रोमाई जो भिक्ष एक दूसरे के नाक के लम्बे रोमकप्पेज वा, संठवेन्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाय, कप्यतं षा, संठत वा साज्जा । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। त सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारदाणं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४, सु. ८६ आता है। अण्णमण्णास दंतपरिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्ताई - एक दुसरे के दांतों के परिकमों के प्रायश्चित्त सत्र५१९. ने मिक्ल अषणमयस्स बते ५१६. जो भिक्ष एक दुसरे के दांतों को आघंसेज्ज वा, पघं सेज्ज वा, घिसे, बार-बार घिसे, पिसत्रावे, बार-बार घिसवावे, आघसतं वा, पघलतं वा साइजद । घिसने वाले का, बार-बार घिसने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू अण्णमण्णस्स बसे - जो भिक्ष एक दूसरे के दांतों कोउन्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, धोए, बार-बार धोए, घुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलेंसं वा, पधोएंतं वा साइजह। घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णमण्णस्य यते-- जो भिक्ष एक दूसरे के दांतों कोफुभेज्ज वा, रएज्ज वा, . रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फुमेत का, रएतं वा साइजह । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह मासिय परिहाराणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि. उ ४, सु. ८०-८२ आता है। अण्णमण्णस्स चक्खु परिकम्मस्स पायच्छित्त सत्ताई- एक दूसरे को आँखों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र - ५२०. जे भिषवू अण्णमण्णस्स अच्छीणि - ५२०. जो भिक्ष एक दुसरे की आँखों काआमनेज्ज वा, पमम्जेज्ज वा, मार्जन करे, प्रमाणन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे. आमज्जतं वा, पमअंतं वा साइट। मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू अग्णमग्णस्स अच्छोणि जो भिक्ष एक दूसरे की आँखों कासंबाहेम्ज वा, पलिमज्ज वा, मदन करे, प्रमर्दन करें, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे. संगत वा, पलिमद्दत वा साइजह । मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ चरणानुयोग एक दूसरे के अतिपत्र के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र १२०-५२२ बेमिष अण्णमण्णस्स अच्छीणि जो भिक्ष एक दूसरे को आँखों पर-- तेल्लेग पा-जाव-गरणीएम था, तेल-पावत्-मबखन, मखेज वा, मिलिगेग्न वा, मले, बार-बार मले, मलयावे, बार-बार मलवावे, मतंबा, भितिगत वा साइनाइ। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे मिक्यू अण्णमण्णस्स अच्छोणि जो भिक्ष एक दूसरे की आँखों परलोवेग वा-जाव-वणेग वा, लोध-पावत्-वर्ण का, उस्लोलेग्ज वा, उम्बट्टे ज्ज या, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाने, बार-बार उबटन करवावे, चल्लोलतंबा, जम्ब वा साइज्जह । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करें। में मिमनू अण्णमण्णस्स मच्छीणि जो भिक्ष, एक दूसरे की आँखों कोसोओरग-वियडेग वा, उसिणोदग-वियोण वा, अचित्त शीत जल से या अचित उष्ण जल से, उन्छोलेज्न था, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार घोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, सच्छोलेंतंबा, पधोएंत बा साहस्जद । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णमण्णस्स असछीगि जो भिक्ष एक दुसरे की आँखों कोफुमेज वा, एज्ज का, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवाये, वार-बार रंगवावे, फुतं पा, रएतं वा साइजा। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें । तं सेवमागे आवरजा भासिय परिहारद्वाणं जम्बाइ । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्त्रित) -नि. उ. ४, मु. ६१-६६ आता है। अण्णमण्णास अच्छीपत्तपरिकम्मस्स पाय सछत्त सुतं- एक दूसरे के अक्षिपत्र के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र - ५२१. मिक्य अण्णमण्णस्स चौहाई अग्छिपत्ताई ५२१. जो भिक्ष एक दूसरे के लम्बे अक्षि पत्रों कोकप्पेज या, संठवेज्न था, ' काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाये, कप्तं वा, संठवेतं या साइन्जइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह मासियं परिहारटुाणं उग्घायं। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ---नि. उ. ४, सु.६० आता है। अण्णमण्णस्स भमुगाइरोमाणं परिकम्मरस पायच्छित्त एक दूसरे के भौंह आदि के परिकों के प्रायश्चित्त के सुत्ताई५२२. में भिक्खू अण्णमण्णस दोहाई मग-रोमाई ५२२. जो मिक्ष एक दूसरे के भौंह के लम्बे रोमों को-. कापेज बा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पेतं वा, संठवेंस वा साइजद । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । भिषा अण्णमणस्स बीहाई पास-रोमां जो भिक्ष एक दूसरे के पार्व के लम्बे रोमों कोकप्पेज्ज वा, संठवेज्जया, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाये, सूत्र Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ ५२३-५२५ एक दूसरे के केशों के परिकर्म का प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार ३३ कप्पेतं वा, संठत वा साइल्जा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवस्जद मासियं परिहारदागं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४, शु६७-६८ आता है। अण्णमण्णरस केस-परिकम्मरस पायच्छित सत्तं एक दूसरे के केशों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र५२३. जे मिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई केसाई ५२३. जो भिक्ष एक दूसरे के सम्बे फेशों कोकप्पेज वा, संठवेज वा, फाटे, मुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वर, संठवेतं वा साइज्जा । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवजह माप्ति परिहारद्वागं उग्याइयं । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ४, सु.६८ आता है। अण्णमणस्स सीसवारियकरणस्स पायच्छित्त सुतं- एक दूसरे के मस्तक ढकने का प्रायश्चित्त सूत्र--- ५२४. जे भिक्खू गामाणुगामिय बुइग्नमाणे ५२४, जो भिक्ष. मामानुग्राम जाते हुए एक दूसरे के मस्तक कोअप्पमणस सोसवुवारियं करे, करतं वा साइजा। उकता है, ढकयाता है, ढकने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आबज्जह मासियं परिहारट्ठामं उम्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि.उ.४, सु.१०१ आता है। अन्यतीथिकादि द्वारा स्व-शरीर का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त--३ कायपरिकम्मकारावणस्स पायच्छित्त सुत्ताई शरीर का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५२५. ॐ मिमखू अण्णउत्यिएण त्रा, गारथिएण वा अप्पणो कार्य- ५२५. जो भिक्षु अन्यतौर्थिक से या गृहस्थ से अपने शरीर काआमज्जावेज वा, पमज्जावेज्ज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, अरमन्जायत बा, पमज्जायस या साइजाद । मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे। ने मिक्खू अण्ण उत्विएणवा, गारथिएण वा अपणो कार्य- जो भिक्षु अन्यतीथिंक से या गृहस्थ से अपने शरीर कासंमाहावेज वा, पलिमहाजश, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संवाहावेतं था. पलिमहावेतं वा साइज्जइ । मदन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। ने भिक्खू अण्णउस्थिएण वा, गारस्थिएण वा अप्पणो कार्य- जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने शरीर कोतेल्लेण वा-जाय-गवणीएण वा, तेल-यावत्-मक्खन से, मक्खावेज षा, मिलिगावेज वा, मलवावे, बार-बार मलवावे, मक्खायेतंबा, मिलिगायत वा सामा मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ चरणानुयो मिक्यू अन्गथिए था, वारथि वा अध्पणी कार्य : लोण वा जाव वण्णेण वा डल्लोलावे या वट्टा वेज्ज वा, बाबा साइज जे भिक्खू अण्णउल्पिएग वा गारस्थिएण वा अपणो कार्यसोओग-वियोग दा, उसिगोवग- वियद्वेण वा, उठोन् वा पोयावेव पा उच्छला था, पधोपावेंतं वा साइज्जइ । मल दूर करवाने के प्रायश्चित सूत्र भरण वा गारदिएन वा कार्य मावे या राजवा 1 माया या था साइज तं सेवमाने आवजम घाउम्मातियं परिहारद्वाणं उत्पादयं । नि. ४.१५.१२-२४ मलणीहरावणरस पायच्छित सुताई२२६.. मि वा कन्दमाता नमले वा नीवेज्ज वा विमोहविज्ज वा नीरा या विसोहावेत या साइज्जह मिथिएन वा पारस्थििण वा अप्पणी कावासेयं था, जल्लं वा, पं वा मलं वा, मोहराना, विहा मोहरा बहामास सेवमाने मासि परिहारार्थ उद - नि. उ. १५, सु. ६३-६४ उपिएम मा गारपिएम वा अध्मयो पार्क संग्राहावेन या पलिमदावेज वा सूत्र ५२५-५२७ जो अन्य से या मुहस्थ से अपने शरीर को लोध - यश्वत्-वर्ण का, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, 1 उबटन करवाने वाले का बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्य से अपने शरीर को - अति शोत जल से या अति उष्ण जल से, करे । धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन जो भिक्षु अवधि से या गृहस्थ से अपने शरीर को रंगवावे, दारदार रंगवावे, रंगवाने वाले का बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मल दूर करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र२६. जो किया गृह से अपने नख आंख के मैल को, कान के मैल को, दाँत के मैल को, के मेल को, दूर करणारे शोधन करवावे. दूर करवाने वाले का शोधन करवाने वाले का अनुमोदन करे । जो भी से या गृह से अपने शरीर से स्वेद (पसीना ) को जल्ल ( जमा हुआ मैल) को, पंक (लगा हुआ भीड़ को लगी हुई रज) की, दूर करवाये, शोधन करावे, दूर करवाने वाले का शोधन करवाने वाले का अनुमोदन करे । पाय- परिक्रम्मका रावणस्स पायच्छित सुत्ताई ५२७ थिएन था गायन या अपनो पावे १२७. जो अन्यतीर्थिक से या गृहस्य से अपने पैरों का भिक्षु - जे भिक्खू गारतियएम - मज्जा वेज्ज व पमन्जाबेज्ज था, मज्जातं वा मज्जातं वा साइज्य उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान ( प्रायश्वित्त) आता है । पैरों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र- मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, भाजन करवाने वाले का प्रमार्जन करवाने वाले का अनुमोदन करे। 1 ओ से या हस्य से अपने पैरों का मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२७.५२६ नखान परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र बारित्राचार ३६५ संवाहात वा, पलिमहावेत या साइजह । जे भिक्ख अण्णउत्थिएणवा, गारथिएण या अपणो पावेसेस्लेण वा-जाव-णवणीएण वा, मवक्षावेज्ज वा, भिलगावेज वा, मक्खात वा, भिलिंगावेतं वा साइज्जह । मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने पैरों कोतेल-पावद-मक्खन, मतवादे, बार-बार मलवावे, मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अगाउथिएण वा, गारथिएण या अपणो पावे- जो भिक्ष अन्यतीर्थिक से था गृहस्थ से अपने पैरों कोलोण वा-जान-वणेग वा, लोध-यावत्- वर्ण का, उल्लोलावेज्म या, उस्वट्टावेज वा, उबटन करवावे, बार-बार उबदन करवावं, जलसात बा, स्वायतरा साह । उबटन करवाने वाले का, बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्यू अण्णउत्थिएण बा, गारथिएण वा अप्पणो पावे- जो भिक्ष अन्यतीषिक से या गृहस्थ से अपने पैरों कोसोओषग-वियोण वा, उसिप्पोदरा-षियण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण बल से, उन्छोलावेज्ज वा, पोयावेज्ज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवाने, उच्छोलावतं वा, पधोयावेत वा साइजा। घुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णवस्थिएणया, गारत्यिएण वा अप्पणो पादे- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने पैरों कोफूभावेज्जा.बा, रयरवेज वा, . रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमावतं वा, रयावत वा साइज्जद । __ रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवामागे आवज्जा वाचम्मापिय परिहारहाणं उग्याइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि. उ. १५, सु. १३-३८ आता है। णहसीहाए परिकम्मकारायणण्स पायच्छित सुत्त- नखान परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र५२८. जे मिक्खू अण्ण उत्यिएण वा, गारथिएण वा बोहाओ नह- ५२८. जो भिक्ष अन्यतीथिक से या गृहस्थ से लंबे नखानों को सिहाओकप्पावेज वा, संठवावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवाई, कप्पार्वतं था, संठवावेत या साइज्जइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ३८ आता है। अंघाइरोमाण परिकम्मकारावणस्स पायच्छित्त सुत्साई-- जंघादि के रोमों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५२६.जे भिखू अण्णउत्यिएण वा, गारथिएण वा बीहाई जंध- ५२६. जो भिक्ष अन्यतीथिक से या गृहस्य से जंघा (पिण्डली) के रोमाई लम्बे रोमों कोकापावेज्ज बा, संठवावेज वा, .. कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पावेतं वा, संठवावेत वा साहज्जद । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करें। जे भिक्खू अण्णउत्यिएण वा, गारस्थिएष वा योहाई घरख- जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ से बगल (कांख) के लम्बे रोमाई-- . रोमों को Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] घरगानुयोग होठों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र सत्र ५२६-५३० कम्पावेज वा, संठवावेज वा, कप्पावतं वा. संठवावेतं वा साइजर मे भिक्खू अण्णथिएण वा, गारस्थिएण वा बीहाई मंसु- रोमाई---- कापावेज वा, संठवावेज्ज वा, कप्पावेतं या, संठबावतं या साइजद । कटवावे, सुशोभित करवावे, करवाने वाले का, मुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्ष अन्यतीथिक से या गृहस्थ से श्मश्रु (दाढ़ी मूंछ) के लम्बे रोमों को फटकाव, सुशोभित करवाये, कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन जे भिक्खू अस्थिरण वा, गारस्थिएण वा हाई बरिय- जो भिक्ष अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से बस्ति के लम्बे रोमों रोमाई कोकप्पावेज वा, संठवायेज्ज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पावत बा, संठवावेत वा साइज्जा । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्ख अण्णउथिएवा, गाररियएण वा दोहाई चक्षु जो भिक्ष, अन्यतीथिक से या गृहस्थ से लम्बे चक्ष रोमों रोमाई.. कप्पावेज का, संठवावेज्ज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कम्पावेतं था, संठवावेत व साइजद । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे पावसह चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उमघाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायभिचस) --नि.उ. १५, सु. ३६-४३ आता है। ओट परिकम्मकारावणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- होठों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५३०, जे मिक्खू अण्णउस्थिएण वा, गारपिएगा अपणो ज?- ५३०.जो भिक्ष अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने होठों काआमज्जावेज वा, पमज्जावेज्ज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जावेतं वा, पमज्जावेत या साइन्जद । मान करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे। जे भिक्खू अग्णउत्थिएण या, गारस्थिएण वा अपणो उ- जो भिक्षु अन्यतीधिक से श गृहस्थ से अपने होठों कासंबाहावेज वा, पलिमहावेज वा, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहात बा, पलिमहावेतं वा साइजह । ___ मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। मिक्ख अण्णस्थिएण वा, गारस्थिएग वा अप्पणो ?- जो भिक्षु अत्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने होठों कोतेल्लेण वा-जाव-गवणीएण का, सेल-यावत्-मक्खन, मक्खावेज्म वा, मिलिंगावेज वा, मलवावे, बार-बार मलवावे, मक्खावेंवा, मिलियास या साइमह । मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। मे भिक्खू अण्णउत्पिएण वा, गारत्पिएणमा अप्पगो उट्ट- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने होठों परलोरण वा-जाव-बग्गेण वा, लोप पावत्-वर्ण का, उस्लोलावेज्ज वा, उज्वट्टावेल वा, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उल्लोसावेत वा, उज्वट्टाउत वा साइजाइ । उबदन करवाने वाले का, बार-बार उबटन' करवाने वाले का अनुमोदन करे। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र५३०-५३२ उत्तरोष्ठादि रोगों के परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त प्रक बारित्राचार (३६७ ने भिक्खू अण्णउधिएण बा, गारस्थिएण वा अप्पगो उदु- मो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने होठों परसोमओयग-वियोग बा, उमिगोवग-वियोग वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलावेज्ज मा, यधोयावेज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलायत बा, पधोयावेत वा साइज्जइ । धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्यू अण्णस्थिएण वा, गारत्यिएष वा अप्पणी उ?- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने होठों कोफूमावेज्ज वा, रयावेज्ज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवाने, फूमावेतं बा, रपार्वतं वा साझज्जा । रंगवाने वाले का, बार बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवामह घाउम्मासियं परिहारहाणं उपाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. १५, सु ४७-५२ आता है। नत्तरोडाहमान परिवारमारामार छत्त ससाई- उत्तरोष्ठादि रोमों के परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५३१. जे भिक्खू अण्णउभिएण वा, गारस्थिएण वा अपणो बीहाई ५३१. जो भिक्ष अन्यतीथिक से या गृहस्य से अपने लम्बे उत्तउत्तरोद्वरोमाई रोष्ठ रोम (होठों के नीचे के लम्बे रोम) कापावेज वा, संठवावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्यावेतं बा, संठवावेंतं वा साइक्जद। __ कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्ल अण्णइरिथएणवा, गारस्थिएण वा अप्पणी पासा ओ भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने नाक के लम्बे रोमाई रोमकरावेज वा संठवावेज्ज या, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पावेतं या, संठवावेत या साम्रजाइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवजह चाउम्मासिवं परिहारहाणं उम्पादयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि. उ. १५, सु. ५३ आता है। बंतपरिकम्मकारावणस्स पायच्छित सुत्ताइ- दांतों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५.२. जे मिक्यू अग्णउथिएण वा, गारथिएण वा भरपणो रंतं - ५३२. जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने दांतों कोआघसावेज्ज वा, पघंसावेग्ज वा, घिसमावे, बार-बार घिसवावे', आघसावेतं का, पघसावेतं का साइज्जइ । पिसवाने वाले का, बार बार पिसवाने वाले का अनुमोदन करे। से निपवू अण्णउरियएण वा, गारथिएण वा अपणो वंत- जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपने दांतों कोउन्छोलानबापधोयाबज्ज वा, धुलवाये, बार-बार धुलवाये, उच्छोलावेतं वा, पधोपावेत या साइजह । धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन जे भिक्खू अण्णउस्थिएष वा, गारथिएण वा अपणो बतफूमावेज्ज वा, त्यावेज वा, फूमावेतं ना, रयातं या साइजह । जो भिक्ष अन्यतीपिक से या गृहस्य से अपने दांतों कोरंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६.] चरणानुयोग आँखों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५३३-५३४ - - - - - - --- - . . त सेवमाणे आपज्जा खाउम्मासियं परिहारदाणं उग्घाइय। उसे पातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ४४-४६ आता है। अच्छीपरिकम्मकारावणस्स पायच्छित्त सत्ताई आँखों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५३३. जे भिक्खू मण्णउस्थिएण बा, पारस्थिएण वा अप्पणो ५३३. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपनी आँखो का अच्छीणिआमजावेज्ज वा, पमज्जावेज्ज वा, माजन करवाये, प्रमार्जन करवावे, आमज्जावेत वा, पमज्जातं वा साइजह । मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे। जे भिक्य अण्णस्थिएण घा, गारथिएण वा अपणो अच्छोणि- जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपनी आँखों कासंबाहावेज्ज वा, पलिमद्दावेज्ज वा, मदन करवावे, प्रमर्दन करयावे, संबाहावेत या, पलिमहावतं वा साइजह । मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू मण्णथिएण वा, गारस्थिएण या अपणो अच्छीणि- जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपनी आँखों पर-- तेल्लेग वा-जाव-गवणीएण वा, तेल,-यावत्-मक्खन, मक्माबेज्ज वा, भिलिगावेज्ज वा, मलवाने, बार-बार मलवावे. मक्खावेत घा, मिलिगातं वा साइज्जह । मलनाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोपन करें । जे भिक्षु अण्णथिएण या, गारस्थिएणना अप्पणो अच्छीणि- जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपनी आँखों पर ... लोण पा-जाव-वणे, वा, लोध, यावत्-- वर्ण का, उल्लोलावेज वा, जन्यट्टावेज वा, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, जल्लोलायेंतं वा, उम्वट्टावत वा साइज्जई। उबटन करवाने वाले वा, वार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्ख अग्णस्थिरण दा. गास्थिएण या अप्पणो अमछोणि- जो भिक्षु अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अपनी आँखों कासीओग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उक्छोलावेज्ज वा, पोयावेज वा, धुलवावे, वार-बार ध्रुसवावे, उच्छोसावेत का, पद्योगायतं वा साइज्जद धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे । जे भिषण अण्णउस्थिएण वा, गारथिएण वा अप्पणो अच्छोणि- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपनी आँखों कोफूमावेज का, रयावेज था, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमात वा, रयायेतं वा साइजह । रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ५५-६. आता है। अच्छीपत्त-परिफम्म कारावणस्स पायच्छित्त सुत्तं - अक्षीपत्रों के परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र५३४. जे मिक्यू अण्णउथिएण वा, गारथिएण या अप्पणो दोहाई ५३४. जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से अपने लम्बे अक्षिअच्छीपत्ताई पत्रों कोकरपावेज या, संठयावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्यावेतवा, संठवायेंतं वा साइज्जइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवग्जइ उम्मासियं परिहारहाणं वग्याइयं । -नि.उ.१५, सु. ५४ उसे चातुर्मासिक पदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५३५-५३७ perior था, संवावेन्ज या, कप्पातं वा संठवावेतं वा साइज । भौहों आदि के रोगों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित सूत्र ान मुमगरोमा परिकम्भकारायणस्स पायच्छित सुत्ता भौंहों आदि के रोगों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र- ५३५. के भिक्खु अण्णउत्थिएक वा, गारस्थिएण वा अत्यणो दोहाई ५३५. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने भौंहों के लंबे मगरीगाई पीमों को - जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा, गारस्थिएण वा अप्पणो वीहाई पासरोमाई eeपवेज्ज बा, संतवावे वा कपास वा संठवावेंतं वा साइन्न । तं सेवमाने आवज चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धायं । - नि. उ. १५, सु. ६१-६२ केस - परिकम्मकारावणस्स पार्याच्छित सुतं कप्पाबेज्ज वा संठवावेज्ज पा कम्पावत वा संवायेतं वा साइज्ड । तं सेवमाणे आवज्जड वाजम्मा सियं परिहारद्वाणं जग्मायं । -- नि. उ. १५, सु. ६२ सोमवारिय कारावणस्स पायति-५३७. जे शिक्षण थिएण वा, गारस्थिएण वा गामश्णुगामं वृक्षमाणे अप्पणी सीसवारिय काराकारास यासार तं सेवमाणे वचाउम्मानयं परिहारद्वाणं उत्पाद नि. उ १५, सु. ६५ कटवावे सुशोभित करावे, कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन म.रे । रोमों को [e भिक्षु असे या मुहस्य से अपने पायं के लम्बे ― कटवावे, सुशोभित करवावे, कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उधातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । केश परिकर्म करवाने का प्रायश्चित सूत्र ५३६. जे भिक्खू अण्णउत्थिएक वा. गारत्थिएण वा अप्पणी दोहा ४३६. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से अपने लम्बे केशों को - देसाई - 珊瑚 कटवावे सुशोभित करवावे, कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मस्तक ढकवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५३७. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक से या गृहस्थ से ग्रामानुग्राम जाता हुवा अपने मस्तिष्क को वाता है, ढकने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उद्घाटिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] वरणामुयोग निग्रंथी द्वारा मिश्रन्य के शारीरिक परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र १५८ अन्यतीथिकादि द्वारा निर्ग्रन्थी-निम्रन्थ के प्रायश्चित---४ सुत्ताई णिग्गथिण, सिकाय- कामासायछिद निग्थी द्वारा निग्रंथ के शारीरिक परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र - ५३८. जाणिगयी जिग्गंथस्स कार्य ५३८. जो निन्यो निग्रन्थ के पारीर को-- अण्णास्थिएण वा, गारस्थिएण वा. अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, मामजावेज वा. पमज्जावेज्मा , माजन करवाने, प्रमाणन करवावे, आमज्जावेतं पा, पमज्जातं या साइज्जा । मार्जन करवाने वाली का, प्रमार्जन करवाने वाली का अनु मोदन करे। जाणिगंथी पिगंधस्स कार्य जो निर्गन्धी निर्ग्रन्थ के पारीर कोअण्ण उस्थिएण बा, गारस्थि एग वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, संबाहावेज वा, पलिमद्दावेज्ज या, मदन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संवाहायतं वा, पलिमहावेतं वा साहबर। मर्दन करवाने वाली का, प्रमर्दन करवाने वाली का अनु मोदन करे। जा गिग्गयो णिगंथस्स कायं-- जो निग्रंन्थी निन्य के शरीर कोअवमाउस्थिएण वा, गाररियएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्य से, तेल्लेण वा-जाव-णवणोएण वा, तेल-यावत् - मक्खन, मवावेज्ज वा, मिसिंगावेज्ज था, मलवावे, बार-बार मलयावे, मसावेत वा, मिलिंगावेतं वा साइजह । मलवाने वाली का, बार-बार मलवाने वाली का अनुमोदन करे। जा णिग्गंधी गिगंधस्स कार्य --- अण्णस्थिएण वा, गारस्थिएण था, लोणवा-जाव-वाणण वा, चल्लोलावेज्ज पा, उम्बट्टावेज वा, उहलोलात था, उध्वट्टावेतं वा साइज्जद । जा गिग्गंधी णिगंपस्स कार्यअण्णउतिथएण वा, गारस्थिएग वा, सीओवग-वियोण वा, उसिणोवग-वियोग वा, उमछोलावेज्ज वा, पक्षोयावेज्ज वा उन्छोलावेतं वा, पधोयावेस वा साइजह । जो निग्रन्थी निर्गन्ध के शरीर कोअन्यतीपिक या गृहस्थ से, लोध,-यावत्-वर्ण का, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करवाने वाली का, बार-बार उबटन करवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निग्रन्थी निग्रंन्य के शरीर कोअन्यलीथिक या गृहस्थ से, अचित्त शीत जल से या अपित्त उष्ण जल से, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धुलवाने वाली का, बार-बार धुलवाने वाली का अनुमोदन करें। जो निर्मन्थी निर्गन्ध के शरीर कोअन्यतीभिक या गृहस्थ से, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगदाने वाली का, बार-बार रंगवाने वाली का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जाणिगंधी मिथस्स कार्यअपरिषएण वा, गारस्थिएग पा, फूमावेज्ज वा, रयावेज्न वा, फूमावेत या, रमावेत या साइम्जा । सं सेवमाणे आवमा चाउम्मासियं परिहारहाणं अधाइयं। -नि. उ. १७, सु. २१-२६ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ५३९-५४० निग्रन्थी द्वारा निर्धग्य का मत निकलवाने के प्रायश्चित्त सूब चारित्राचार (३०१ णिमाथिणा णिग्गंथ अच्छी आईणं मल-णीहरावणस्स निर्गन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ का मैल निकलवाने के प्रायश्चित्त पायपिछत्त सुत्ताई५३६. जा गिरगंथी गिगंधस्स ५३६. जो निम्रन्थी निर्ग्रन्थ केअच्छिमलं वा, कण्णमल बा, तमलं या, नहमले बा, आँखों के मन को, कान के मैल को, चौत के मैल को, नख अण्ण उत्थिएष वा, गारस्थिएण वा, के मल को, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, नीहररावेज्ज था, चिसोहावेज वा, दूर करवावे, गोधन करवावे, नोहरावेतं वा, विसोहावेतं वा साइजा। दूर करवाने वाली का, शोधन करवाने वाली का अनुमोदन करे। जाणिगंथी णिगंधस्स जो निर्गन्धी निर्ग्रन्थ केका से का, सपा, पंस, भस्म का, स्वेद (पसीना) को, जल्ल (जमा हुआ मैल) को, पंक (लगा हुआ कीचड़) को, मल्ल (लगी हुई रज) को, अग्गरथएक वा, गारस्थिएण या, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, नौहरावेज वा, विसोहावेज्ज वा, दूर करावे, शोधन करावे, नौहरायतं वा, विसोहावेत वा साइज्जा । दूर करवाने वाली का, शोधन करवाने वाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे प्रापज्जा बाजम्मासियं परिहारट्ठामं घाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. १७, सु. ६५-६६ आता है। हिरगंथिणा णिग्गय पायपरिकम्मकारावणस्स पायच्छित निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के पैरों का परिकर्म करवाने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५४०. जा पिगंधी जिग्गंपस्स पाये ५४५, जो निर्ग्रन्थी निग्रंथ के पैर का:अण्णस्थिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, आमज्जावेज्ज वा, पमावेज्ज वा, भाजन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जातंभा, समजायसं वा साइबर । मार्जन करवाने वाली का, प्रमार्जन करवाने वाली का अनु मोदन करे। जा णिगंयो गिगांयस पावे जो निन्थी निर्ग्रन्थ के पैर का--- अगस्थिरण वा, गारस्यएग. या, अन्यतीधिक या गृहस्थ से, संबाहावेज्ज वा, पलिमहावेज्ज वा, मदन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहात वा, पलिमद्दावेतं वा साइजह । मदन करवाने वाली का, प्रमदंन करवाने वाली का अनुमोदन जा मिमांधी शिगंधस्स पावेअग्गरस्थिएणवा, गारस्थिएण वा, तेस्लेण वा आव-पपणीएणवा, मरवावेज वा, मिलिंगावेज वा, मरवायत बा, मिलिंगावेत या साइम्जा। जो निग्रंन्थी निर्ग्रन्थ के पर परअन्यतीथिक या गृहस्थ से, तेल-सात-मक्खन, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलवाने वाली का, बार-बार मलवाने वाली का अनुमोदन करे। जा जिगंपी विगंचस्स पादे-- मपणउलिएग वा, गारपिएममा, लोग वा-जाव-वालेण वा, उस्लोलावेज मा, उबट्टावावा, जल्लोलावेंत वा, उपहावेतं या साइज्जा । जो निर्गन्धी निर्ग्रन्थ के पैरों पर--- अन्यतीथिक या गृहस्थ से, लोध कायावत्-वर्ण का, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवाने, उबटन करवाने वासी का, बार-बार उबटन करवाने वाली का अनुमोदन करे। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] चरणानुयोग निधी द्वारा निभ्थ के नखानों का परिकर्म करवाने का प्राथस्थित सूत्र सूत्र ५४०-५४२ जा रिगंथी णिग्गंथत्स पाये - अनउत्थिन वा वारणा सोओग विपण वा उसिणोषण विद्वेण मा, उच्छोलवेज्ज वा, पघोषावेज्ज वा उच्छोलायत वा पोयावेत या साइज्जइ । जा णिम्बी णिमांस पावेएवा वारयिएम वा फूमावेवा, रावेन्ज बा, कुमाल वा रथावत वा साइ तं सेवमाने आवज्ज वाउम्मरसियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । - नि. उ. १७, सु. १५-२० णिमिणा विग्गंध महसिहा परिकम्पकारावणस्स पायच्छित मुत्तं ५४१. जागिंधी दिनाना अष्णउत्रिन पा. गारथिए वा प्यावे या संवा कपात वा संजातं वा साइज । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउमा सियं परिहारद्वरणं जग्धाइ । - नि. उ. १७, सु. ४० णिग्गंथिणा णिग्गंथ जंघाड़ रोमाणं परिकम्मकारावणस्स पायच्छित मुताई २४२.विंदा जंघई अण्णउथिएण था, गारत्थिएण वा कप्पवेज्ज वा, संठया वेज्ज या, कप्परयेतं वा, संठवावेत या साइज्जइ । जाग्दो नियम हाई अण्णउस्थिरण वा गारस्थिएण वा कल्पवेज्ज वा संठवावेज्ज या, कम्पावत था, समावेतं वा साइज । बागांची निग्धा बहाई मंसुरीमाई भण्डस्थिएन वा गारस्थिण था, होनी निर्णय के पैरों कोअन्यतीधिक या गृहस्थ से अचित शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, लाने वार-बार घुलवावे, धुलवाने वाली का, बार-बार धुलवाने वाली का अनुमोदन करे । जो निधि के पैरों को अन्यतीचिक या यूहर में, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगवाने वाली का बार-बार रंगवाने वालो का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मास उद्घाटिक परिहारस्थान (आय) आता है नियंन्धी द्वारा निर्धन्य के नखाओं का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र ५४१. जोन के लम्बे सायों को अन्मतीर्थिक या गृहस्थ से, कटवावे, सुशोभित करवाने, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्भाविक परिहारस्थान (आय) आता है । नियंन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के जंघादि के रोमों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित सूत्र- ५४२. जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के जंबा (पिण्डली) के लम्बे रोमों को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, नावे करावे, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे । जो निर्ग्रन्थ नित्य के बगल (कास) के लम्बे रोमों कोकिया गुस्से कटनाये होभित करवाने, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन फरे । जो निर्मन्थी निभ्थ के श्मश्रु (दाढ़ी मूंछ ) के लम्बे रोमों अत्यधिक या गृहस्थ से, J Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४२-५४३ निर्गन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के होठों का परिकम करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [३७३ कप्यावेज्जया, संठवावेज वा, कप्पावतं या, संठवावेंतं वा साइजह । जा जिग्गयी णिगयम्स चौहाई वस्थिरोमाईअण्ण त्पिएण वा. गारस्थिएण वा, कप्पावेज वा, संठवावेज घा, कापावेत वा, संठवावेतं वा साइजइ । कटवावे, एशोभित करवाने, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के बस्ति के लम्बे रोमों कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से, कटवावे, सुशोभित करवाने, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निग्रंथी निर्धन्य के लम्बे सक्षु रोमों कोअन्यतीयिक या गृहस्व से, कटवावे, सुशोभित करवावे, कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन जा णिग्गंधी गिरगंथस्स बीहाई चक्लुरोमाईअण्ण थिएण वा, गारथिएण बा, कप्पावेज वा, संठवावेज्जया, कपात बा, संठवावेतं वा साइजह । करे। तं सेषमाणे आवज्जा वाजम्मासिय परिहारदाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिकः परिहारस्यान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१७, सु. ४१-४५ आता है। णिग्गंपिणा मिमांथ ओट्रपरिकम्मकाराचणस्स पायच्छित्त निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के होठों का परिकर्म करवाने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५४३. जाणिग्गंथी गिगंथस्स री ५४३. जो निर्गन्धी निर्ग्रन्थ के होठों को अगस्थिएण बा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, आमज्जावेज्ज वा, पमज्जावेज या, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जावेत षा, पमम्जावेत या साज्जा। माजन करवाने वाली का, प्रमार्जन करवाने वाली का अनु मोदन करे। जा णिग्गयी णिगंयस्त उ8 जो निर्ग्रन्थी निग्रन्थ के होठों कोअण्ण इस्थिएण वा, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, संवाहावेज्ज वा, पलिमदग्वेज्ज या, मदन करवावे, प्रमर्दन करवावे, तयाहावेत या, पलिमहायत वा साइज्मा । मर्दन करवाने वाली का, प्रमर्दन करवाने वाली का अनु मोदन करे। जा णिग्यो गिगंधस्स उ8 जो निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थ के होठों कोअण्णउत्थिएण वा, गारथिएण वा, अन्यत्तीधिक या गहस्थ से, तेल्लेण वा-जाद-णवगोएण वा, तेल-यावत्-मक्खन, मबखावेज वा, मिलिंगावे ज्ज वा, मलयावे, बार-बार मलबादे, मक्खात बा, मिलिगायतं वा हाइग्जा। मलनाने वाली का, बार-बार मलवाने वाली का अनुमोदन करे। मा पिगंथी गिग्गयस उट्टे जो निग्रंन्धी नित्य के होठों कोअण्णउथिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीरिक या गृहस्थ से; लोण वा-जाव-वणेण वा, लोध-यावत्-वर्ण से, उल्लोलावेज्ज वा, उस्वट्टावेज या, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवाने, उस्लोलावेतं या, उबट्टावेतं वा साहस । उबटन करवाने वाली का, बार-बार उबटन करवाने वाली का अनुमोदन करे। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] चरणानुयोग निर्ग्रन्थो द्वारा निर्ग्रन्थ के उत्तरोष्ठ रोमों के परिकर्म करवाने के प्रायश्चित सूत्र सूत्र ५४३-५४५ जाणिगायो णिसगंथस्त उ8 जो निर्ग्रन्थी निग्रन्थ के होठों कोअण्ण उत्यिएण वा, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, सीओबग-वियडेण वा, जसिणोदग-वियडेण था, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उन्छोलावेज वा, पधोयावेज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलाबेतं वा, पधोयाबेंतं वा साइज्जइ । धुलवाने वालो का, बार-बार धुलवाने वाली का अनुमोदन करे। जा जिग्गंथी णिग्गयस्स उ? जो निन्धी निर्ग्रन्थ के होठों कोअण्णउस्थिएण बा, गारस्थिएण बा, अन्यतीथिक या गृहस्य से, फूमावेज्ज पा, स्यावेज्ज चा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमात बा, रयायत वा साइजइ। रंगवाने वाली का, बार-बार रंगवाने वाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवज्ज चाउम्भासियं परिहारहाणं उरघाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१७. सु. ४६-५४ आता है। पिथिणा णिमय उत्तरोदाइ रोमाणं परिकम्मकाराषण- निन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के उत्तरोष्ठ रोमों के परिकर्म करस्स पायच्छित्त सुत्ताई वाने के प्रायश्चित्त सूत्र५४४. जा जिग्गयो जिग्गंवत्स दीहाई उत्तरोटु रोमाई ५४४. जो निम्रन्थी नियन्य के उत्तरोष्ठ लम्बे रोमों (होठ के नीचे के सम्बे रोम) को अबउत्थिएग बा, गारस्थिएण वा, प्रतीथि गरे कप्पावेज्ज बा, संठवावेज्म वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पावतं का, संठवावेतं वा साइज्जः । कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। [मा गिरगयो णिगंधस्स चौहाई गासा रोमाई जो निग्रंन्थी निग्रंन्ध के नासिका के लम्बे रोमों कोअण्णाधिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कावेज्ज बा, संठवावेज वा, कटवाचे, सुशोभित करवावे, कापावेतं वा, संठवावेतं वा साइजह । कटवाने वाली का, मुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन तं सेवमाणे आवज्जा चाउम्भासियं परिहारद्वापं जापाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. ५५ आता है । णिग्गंथिणा णिग्गंध दंत परिकम्मकारावणस्स पायच्छित्त निग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के दांतों का परिकर्म करवाने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५४५. जा गिग्गंधी णिमांथस्स देते ५४५. जो निग्रन्थी निग्रंथ के दांतों कोअपण स्थिएण वा, गारस्थिएग वा, अन्यतीथिक या गहस्य से, आघंसावेज्ज वा, पर्घसावेज वा, घिसवावे, बार-बार घिसवावे, आघतावेत वा, पघंसावेतं वा साइरनइ। पिसवाने वाली का, बार-बार घिसवाने वाली का अनुमोदन जा गिागंयो गिग्गयस्स तेअण्णाजस्थिएण या, गारस्थिएण वा, उच्छोलावेज वा, पोयावेज्ज बा, उच्छोलावसं वा, पधोयावेत वा साइज्जइ । जो निग्रंथी निग्रंन्ध के दांतों कोअन्यतीथिक या गृहस्य से, धुलवावे, बार-बार धुनवाचे, धुलवाने वाली का, बार-बार धुलवाने वासी का अनुमोदन करे। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्थी द्वारा निर्ग्रन्य की आँखों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार (३७५ जा णिगंथी जिगंथस्स बतेअण्णउत्यिएण वा, गाररियएग वा फूमाखेज वा, रयावेज्ज वा, फूमावेत वा, रयायतं वा साइज्जन । जो निग्रन्थी निर्ग्रन्थ के दांतों कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगवाने वाली का, बार-बार रंगवाने वाली का अनुमोदन तं सेवमाणे आवज पाउम्मासि परिहारदाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -- नि. उ. १७, सु. ४६-४८ आता है। णिगंथिणा जिग्गंध अच्छो परिकम्मकारावणस्स निग्रंन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ की आँखों का परिकर्म करवाने के पायच्छित्त सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५४६. जाणिग्गंधी णिगंयस्स अच्छीणि ५४६. जो निग्रन्थी निन्थ की आँखों काअगाउथिएण वा, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गुहस्थ से. आमज्जावेज्ज वा, पमज्जावेज्म था, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमम्जावत वा, पमज्जावेत या साइजह । मार्जन करवाने वाली का, प्रमार्जन करवाने वाली का अन मोदन करे। जाणिग्गंयो गिगांधस अच्छोणि जो निर्ग्रन्थी निग्रन्थ की आँखों काअण्णस्थिएच वा, गारथिएण का, अन्यतीथिक या गुहस्य से, संबाहावेज वा, पलिमदावेज्ज वा, मदन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहावेत वा, पलिमहावेत वा साइज्जइ । मर्दन करवाने वाली का, प्रमर्दन करवाने वाली का अनुमोदन करे। जाणिग्गंधी णिय स्स अच्छोणिमाणउथिएण था, गारस्थिएण वा, तेल्लेण वा-जावणवणीएण पा, मक्खावेज्ज वा, मिलिंगावेज वा, मरखावतं या, मिलिंगावेत वा साइजह। जो निम्रन्थी नियन्य की आँखों परअन्यतीर्थिक या गृहस्य से, तेल-पावत्-मापन, मलबावे, ब.र-बार मलवावे, मलवाने वाली का, बार-बार मलवाने वाली का अनुमोदन जा णिग्गयी णिगंथस्स अच्छोणिअपरिधएगवा, गारस्थिएण वा, लोण वा-जाव-बण्णेण वा, उल्लोलावेज्ज वा, उच्वट्टावेज्ज वा, उरुलोलायत बा, उन्वट्टायेंतं वा साइज्जव । मा गिरगंथी णिग्मयस्स अच्छोणिअन्नदथिएन वा, गारस्थिएम बा, सीप्रोदग-वियोण वा, उसिणोरग-वियरंग या, उसछोलावेज्ज बा, पप्लोयावेज्ज वा, उच्छोसावेत वा, पोयावेत वा साइज्जइ । जो निग्रंथी नियन्य की आंखों परअन्यतीथिक या गृहस्थ से, लोध,-यावत-वर्ग का, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करवाने वाली का, बार-बार उबटन करवाने वाली का अनुमोदन करें। जो निग्रन्थी निग्रंथ की आँखों कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धुलवावे, बार-बार धुलवाये, धुलवाने वाली का, बार-बार शुलवाने वाली का अनुमोदन करे। जो निन्थी निर्ग्रन्थ की आँखों कोअन्यतीथिक या गृहस्थ से, जा णिगंधी गियरस अच्छोणिअगस्थिएण वा, गारथिए, बा, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६] धरणानुयोग निर्ग्रन्थी द्वारा निन्थ के अक्षोपत्रों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र फूमावेज या, रयावेज्ज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, फूमावत बा, रयातं या साइजह । रंगवाने वाली का, बार-बार रंगवाने बाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे भाषण नाउम्मासियं परिहारदाणं उग्धाइयं ! उसे चातुर्मासिक उद्घालिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --- नि. उ. १., मु. ५७-६२ नाता है। णिगंथिणा णिग्गंथ अच्छोपत्त परिकम्मकारावणस्त निन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के अक्षीपत्रों का परिकर्म करवाने पायच्छित्त सुतं का प्रायश्चित्त सूत्र५४९. मा मिमांथी णिग्गंथस्स बीहाई अच्छिपत्ताई ५४७. जो निर्ग्रन्थी निगन्य के लम्बे अक्षि पत्रों कोअग्णउरिधएग था, गारथिएण वा, अन्यतीयिक या गृहस्थ से, कापावेज वा, संठवावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवाने, कप्पावेतं वा, संठवावेत वा साइज्ज । कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह घाउम्माप्सिय परिहारट्ठाणं उघाइयं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि.उ.१७, सु.५६ आता है । णिगंथिणा णिग्गंय भुमगाइरोमाणं परिकम्मकारावणस्स निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के भौंहों आदि के परिकर्म करवाने पापच्छित्त सुसाइ के प्रायश्चित्त सूत्र-- ५४८, जा णिपंथी पिगंथस्स बोहाई मुमगरोमाई ५४८, जो निम्रन्थी निर्ग्रन्थ के भौहों के लम्बे रोमों कोअण्णउस्थिएण वा. गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्य से, कप्पावेज्ज बा, संठवावेज्ज वर, कटवावे, सुशोभित करवावे, कापावेत या संठवावेतं वा साइज्जइ । कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे । जा णिग्गयो णिपंथस्स यौहाई पासरोमाई-- जो निन्धी निग्रन्थ के पार्श्व के लम्बे रोमों कोअण्णउत्यिएण वा, गारथिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, कप्यावेज वा, संठयावेज वा, कटवाचे, सुशोभित करवावे, कप्पावेतं वा, संठवावेत या साइन्जा। कटवाने वाली का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. ३.१७, सु. ६३-६४ आता है। णिग्गंथिणा णिगंथस्स केस परिकम्मकारावणस्स पाय- निग्रंथी द्वारा निर्ग्रन्थ के केश परिकर्म करवाने का प्रायच्छित सुत्ताई श्चित्त सूत्र--- ५४६. (जा विरगंयो गिगंधस्स बीहाई केसाई ५४६. जो निन्थी निग्रन्थ के लम्बे केशों कोअग्ण उस्थिएण वा, गारस्थिएग वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कप्पावेज्ज वा. संठवावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कम्पास बा, संठवावेंतं वा साइजइ ।) कटवाने बाजी का, सुशोभित करवाने वाली का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे भावज्जइ चाजम्मासियं परिहारद्वाणं उग्याइयं । उस चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्यान (प्रायश्चित्त) -नि.न. १७, सु. ६५ आता है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५०-५५१ निन्धी हारा निर्णय का मस्तक याने का प्रायश्चिस सूत्र चारित्राचार ३७७ णिगंथिणा णिग्गन्थस्स सीसवारिय कारावणस्स पाय. निग्रंन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ का मस्तक ढकधाने का प्रायश्चित्त च्छित सत्तं५५०. जा गिग्गंधी णिग्गयस्स गामाणुगामं दूइज्जमाणे ५५०. जो निग्रन्थी ग्रामानुग्राम जाते हुए निर्ग्रन्च के मस्तक कोअण्णउस्थिएण वा, गारपिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, सीसधारियं कारावेइ, कारावेतं वा साइज्जइ । ढकवाती है, ढकवाने वाली का अनुमोदन करती है। सं सेवमाणे आवजह चासम्मासियं परिहारहाणं वाघाहर। लो चातुर्मापक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १७, सु. ६७ आता है। EX अन्यतीथिकादि द्वारा निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के प्रायश्चित्त-५ थिगण णिमान्यो कायपरिकम्मकारायणस्स पायच्छित्त निग्रन्थ द्वारा निर्गन्धो के शरीर परिकम करवाने के प्रायसुताई श्चित्त सूत्र५५१. मे मिगंथे णिगंथोए कार्य ५५१. जो निरन्थ निग्रंथी के शरीर काअग्णपिएण या, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, भामज्जावेज्ज बा, पमज्जायेज्ज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जातं वा, पमरजातं या साइजह। मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु मोदन करे । में गिगये जिग्गंधीए कार्य जो निन्ध निर्ग्रन्थी के शरीर काअण्णउस्थिएण बा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, संबाहावेज पा, पसिमदावेज वा, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संवाहावंसं वा, पलिमहावेतं वा साइजद। मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। मे विमांथे जिग्गबीए कार्यअण्णउरिपएण वा, गारस्थिएण वा तेल्लेण वा-जाव-गवणी एग वा, मायावेत वा, मिसिंगावेज्ज था, मरवावेत वा, मिलिंगावेतं वा साइज्जइ । जो निन्ध निर्ग्रन्थी के शरीर पर--- अन्यतीथिक या गृहस्थ से, तेल---यावत्-भक्खन, मलवावे, बार-बार मलवावे. मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर परअन्यतीर्थिक या गृहस्य से, लोध-यावत्-वर्ण का, उबटन करवाने, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करवाने वाले का, बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। मे गिम्गवे गिग्गंधीए कार्यअग्णउस्मिएण वा, गारस्थिएण का, लोरण वा-जाब वषेण वा, उल्लोलावेज वा, जब्बट्टावेज वर, उल्लोलावत वा, उच्चट्टावेंतं वा साइम्मइ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८] चरणानुयोग वियनारस निन्थीका बाहिर निकलवाने का प्रायश्विस सूत्रसूत्र ५५१-५५३ - - जे णिगये णिग्गंधीए कायं जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर कोअण्णउरियएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, सोनीदग-वियडेग वा, उसिणोदग-वियोग था, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोसावेज्ज घा, पधोयावेज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलावेतं वा, पधोयावेत वा साइज्जइ । धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे णिग्गंधे णिग्गंथीए कार्य जो निन्ध निमी के पारीर कोअण्णउथिएणवा, गारस्थिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, फूमावेज वा, स्यावेज्ज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमाखेत वा, रयावतं षा साइजइ । रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने बाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १७, सु. ७४-७६ आता है। णिगन्थे णिग्गन्धी मलणिहरावणस्स पायच्छिस सुत्ताई- निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी का (आँखों आदि के) मैल निकम वाने के प्रायश्चित्त सूत्र५५२.जे जिग्गंधे जिग्गंधीए ५५२. जो निम्रन्थ निम्रन्यो कीअभिछमसंबर, कागमनं वा, पंतमले वा, नहमल था, आंख के मल को, कान के मल को, दांत के मैल को मन के मैल को, अण्णउत्यिएग वा, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, मोहरावेज वा, विसोहावेज वा, दूर करवायें, गोधन करवावे, नीहरावेत या, विसोहावेतं वा साइज्मा। दूर करवाने वाले का, शोधन करवाने वाले फा अनुमोदन करे। जे णिगंथे णिगंयोए जो निर्ग्रन्थ निग्रन्थी के-- कायामओ सेयं वा, जल्तं वा, पंक वा, मलंबा, स्वेद (पसीना) को, बल्ल (जमा हुआ मैल), पंक (लगा हुधा कीचड़), मल्ल (लगी हुई रज) को, अग्णउस्थिएण या, गारथिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, नीहराविज्न वा, विसोहावेज था, दूर करवाये, शोधन करवावे, नोहरावेतं वा, विसोहावेतं वा साहस्जद । दूर करवाने वाले का, शोधन करवाने वाले का अनुमोदन करे। ते सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारटुरणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त) -नि.उ.१७, सु. ११८-११९ आता है। णिग्गन्थेण णिग्गन्थी पायपरिकम्मकारायणस्स पायच्छित निग्रन्थ द्वारा निग्रंथी के पैरों का परिकम करवाने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५५३. जे गिर्गथे णिगंभीए पावे ५५३. जो निर्गन्य निग्रन्थी के पैरों कोअण्णउथिएण या, गारथिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, भामज्जावेज्ज वा, पमज्जावेज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाये, आमज्जातं वा, पमज्जातं वा साइन। मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनु. मोदन करे। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र ५५३-५५४ निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के नखानों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्तपत्र चारित्राचार [३७६ जे णिग्गये णिग्गंथीए पावे - जो निम्रन्थ निर्ग्रन्थी के पैरों को-- अण्णउत्थिएण बा, गारथिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, संबाहावेज्ज वा. पलिमवावेज घा, मर्दन करबावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहावेत वा, पलिमहातं वा साइजा। मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे जिग्गधे णिग्गंधोए पावे जो निर्ग्रन्थ निग्रन्थी के पैरों कोअग्णरिषएण वा, पारस्थिएण था, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, तेल्लेण वा-जाव-गवणीएम या, तेल-पावत्-मक्खन, मक्खाज बा, मिलिंगावेज वा, मलबाव, बार-बार मलवावे, मरक्षावतंबा, मिलिंगायतं वा साइन। मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। मेणिगंथे णिमयीए पाये जो निर्गन्थ निम्रन्थी के पैरों कोअग्णडस्थिएण वा, गारस्थिएगवा, अन्यत्तीथिक या गृहस्थ से, सोदेण वा-जाद-वाणेग बा, सोध-यावत्-वर्ण का, उल्लोलावेज्ज वा, जव्वट्टावेज्ज वा, उबटन करवावे, बारस्वार उबटन करवावे, उल्लोलावेतं वा, जय्वट्टावेत वा साइजह । उबटन करवाने वाले का, बर-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे गिगये णिगयीए पावे जो निम्रन्थ निग्रंन्थी के पैरों कोअपणास्थिएण धा, गारस्थिएणबा, अम्पतीर्थिक या गृहस्थ से, सोशेषग-वियोग वा, उसिणोक्षग-वियडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलावेज वा, पधोयाबेग्ज वा, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उपछोलायतबा, पधोयावेतं वा साइरना। धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे। मेणिग्गा गिरगम्थीए पादे जो निग्रन्थ निन्थी के पैरों कोअण्णाउरियएणवा, गारस्थिएणवा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, फूमावेजा था, त्यावेज्ज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमायबारयावेतं वा साइजा। रंगवाने वाले का, बार-बार रंगदाने वाले का अनुमोदन करे। सेनमाने मागमा चाउम्मापियं परिहारहाणं उम्घाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. १७, सु. ६८.७३ श्राता है। मिर्गयेण णहसोहाए परिकम्मकारावणस्स पायमिछस-सुत्तं- निग्रंथ द्वारा निर्ग्रन्थी के नखानों का परिकमं करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र५५४. ने जिग्गं गिरगंधीए बीहाओ नहसिहामो ५५४. जो निम्रन्थ निग्रन्थी के लदे नखानों कोअण्णा उत्पिएण वा, गारस्पिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, कम्पावेज्जा , संठवावेज वा, कटवाने, सुशोभित करवावे, कप्पावेतं वा, संध्यातं वा सादज्जइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे बावज्जा चाउम्मासियं परिहारहाणं उम्बाहयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) नि..१७, सु. ६३ आता है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. घरणानुयोग निर्ग्रन्थ द्वारा निग्रंग्यो के बघा आदि के रोमों का परिकर्भ करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५५५-५५६ णिग्गयेण णिग्गंथी जंघाइरोमाणं परिकम्मकारायणरस निग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के जंधा आदि के रोमों का परिकर्म पायच्छित्त सुत्ताई करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५५५. जे णिये णियोए वोहाई जंधरोमाई ५५५, जो नियन्य निर्मन्थी के जंघा (पिण्डली) के लम्मे रोमों कोअण्णउत्थिएगवा, गारथिएण बा, भन्वतीथिक या गृहस्थ से, कप्पविज वा, संठवावेज्ज वा, पटवावे, सुशोभित करवाये, कप्पावेतं वा, संठवावेतं वा साइजद । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे णिग्गथे णिगयीए बीहाई कक्खरोमाई-- जो निर्ग्रन्थ निर्मन्थी के बगल (कांख) के लम्बे रोमों कोअग्ण उरियएण वा, गारपिएण वा, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, कम्पावेज वा, संठयावेज वा. करताये, मुशोभित करवाये, कप्पायत वा, संठवावेतं पा साइजद । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। ने गिमा णिग्थीए वोहाई मसुरोमाई जो निन्ध निर्ग्रन्थी के श्मनु (दाढ़ी मूंछ) के लम्बे रोमों कोमण्णस्यएगा, पारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कापावेज्ज का, संख्यावेज्ज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कम्पावेतवा, संठवायतका साइज्ज । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करें। जे णिग्गये जिग्गंधोए बीहार वत्थिरोमाई जो निन्य निन्थी के बस्ति के सम्बे रोमों कोअपरिपएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतोथिक या गृहस्थ से, कप्पावेज्ज वा, संख्यावेज था, कटवाये, सुशोभित करवावे, कप्पावत वा, संठवावेत वा साइजइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। जे णिगंथे गिगयोए दोहाई चारोमाह जो निग्रंन्य निर्गन्थी के चक्षु के लम्बे रोमों कोअग्ण स्थिएग वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कापावेज वा, संठवावेज्ज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पात वा, संठवावेत व साइज्जइ । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवमह घाउम्मासिय परिहारदाणं उग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) —नि उ. १७, सु. ६४-६५ आता है। णिगंथेण णि गंथी ओट्ट परिकम्मकारावणस्स पायच्छित निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के होठों का परिकर्म करवाने के सत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५.५६. जे णिग्गंथे णिमधीए उ? ५५६. जो निन्य निग्रन्थी के होठों कोअण्णउत्थिएण वा, गारथिएण था, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, भामज्जावेज वा, पममावेजा , मार्जन करवावे, प्रमाणन करवावे, आमजमायेंत वा, पमजावेंस या साइजह । मार्जन करवाने वाले का, प्रमार्जन करवाने वाले का अनुमोदन.करे। . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५६-५५७ निग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के उत्तरोष्ठादि रोमों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [३१ जे जिथे णिमाथीए उ१ जो निम्रन्थ निम्रन्थी के होठों को अण्णउस्थिएण खा, मारस्थिएण था, अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, संग्राहावेज वा, पलिमहावेज वा, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहावेत या, पलिमहावेतं वा साइज्जह । मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का अनुमोदन करे। मे जिग्गथे णिग्गथीए उ8 जो निग्रंथ गिन्थी के होठों कोअण्णउस्थिएण वा, गारपिएण वा, अन्यतीर्थिक वा गृहस्थ से, सेस्खेण वा-जाव-गवणीएण वा, तेल,-यावत्-मक्खन, मक्खावेज्म वा, भिलिंगावेज वा, मलवावे, बार-बार मलयावे, मक्खावतं चा, मिलिंगाल वा साइज्ज। मलवाने वाले का, बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे णिगंथे जिग्गंथीए उ8-- जो नियन्य निग्रन्थी के होठों परअण्णउथिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, लोण वा-जाब-वण्ोण वा, लोध-यावत्-वर्ण का उस्लोलावेज्ज वा, उज्वट्टावेज्ज वा, उबदन करवावे, बार-बार उबटन फरवावे, जल्लोलावेतं वा, उषट्रात या साइन। उबटन करवाने वाले का, बार-बार बटन करवाने वाले का अनुमोदन करें। जे णिगणे णिगंथीए उ१ जो निम्रन्थ निग्रंथी के होठों पर-- अपणउरियारण वा, पारस्थिएण वा, अन्यतीथिंक या गृहस्थ द्वारा, सीओरग-वियत्रेण वा, उसिणोखग-वियडेण मा, अचित्त शीत जल से या अचित उष्ण जल से, उन्छोलावेज वा, धोयावेज्ज था, घुलवावे बार-बार धुलवावे, उच्छोलास बा, पधोयावेतं वा साइजह । धुलवाने बाले का, बार-बार घुलवाने वाले का अनुमोदन करे। पिगंधे णिगंभीए उ? जो निमंन्ध निर्मन्धी के होठों कोअण्णउत्थिएण या, गारस्थिएण था, अन्यनीथिक या गृहस्थ से, फूमावेज वा, रावेजपा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमावत वा, रयायत वा साइबद। रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासिय परिहारद्वाणं जग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ, १७, सु. १०२-१०७ आता है। णिग्गंथेण णिगंथी उत्तरोट रोमाणं परिकम्मकारावणस्स निर्ग्रन्थ- निन्थी के उत्तरोष्ठादि रोमों का परिकर्म करपायच्छित्त सुत्ताई बाने का प्रायश्चित्त सूत्र५५७. में गिरगंथे णिग्गंथीए दोहाई उत्तरोद रोमाई ५५७. जो निग्रंन्य निग्रन्थी के उत्तरोष्ठ के लम्बे रोमों (होय के नीचे के लम्बे रोग) कोअष्णउथिएण वा, गारस्थिएण वा, अन्यतीधिक या गृहस्थ से, कमावेज्जया, संठवावेज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पात वा, संठवास वा साइज्मद । कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। (जे जिग्गथे णिग्गंधीए वोहाई णासा रोमाई (जो निम्रन्थ निग्नन्थी के नासिका के लम्छे रोमों कोप्रणउत्थिएण या, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ घरगानुयोग निग्य द्वारा निर्ग्रन्थी के वालों का परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त र सूत्र ५५०-५५६ कप्पेन वा, संठवेज वा, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठवेतं का साहज्जइ।) कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवस्जद बाजम्मासियं परिहारट्ठाग उपधाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. १०८ आता है। जिग्गंथेण णिगंथी देतपरिकम्मकारावणस्स पायपिछत्त निन्य द्वारा निग्रन्थी के दांतों का परिकर्म करवाने के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५५८. ने णिग्गंथे णिग्गंधीए ते ५५८. जो निग्रंथ निम्रन्थी के दांतों कोअण्णउस्थिएण वा, मारस्थिएण वा, अन्यतीथिक मा रहस्थ से, आघसावेज वा, पघंसावेज्ज वा, घिसवात्रे, बार-बार घिसवाये, माघसावेत वा, पघंसावंत या साहलाई। घिसवाने वाले का, बार-बार पिसवाने वाले का अनुमोदन करे। मे जिग्गंधे णिग्गंधीए यते-- जो विनिमन्त्री के नामों कोअण्णउरियएग बा, गारस्थिएण वा, अन्यतीथिक पा गृहस्थ से, अच्छोलावेज बा, पधोयाग्ज वा, घुलवावे, बार-बार घुलवावे, उग्छोलावेतं वा, धोयायस या साइजना। धुलवाने वाले का, बार-बार धुलवाने वाले का अनुमोदन करे। जे गिगधे णिग्गंधीए बंते जो निन्य निग्रन्थी के दांतों कोअण्णरस्थिएण वा, गारथिएग वा, भन्यतीथिक या गृहस्थ से, फूमावेज्नवा, त्यावेज वा, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमातंबा, रयासरा साइम्जा। रंगवाने वाले का, बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवज्जा वाजम्मासियं परिहारट्ठा जग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिः ) , -नि. उ. १७, सु. ६६-१-१ आता है। जिग्गथेण णिमगंथी अच्छोपरिकम्मकारावणस्स पायखिडस निर्ग्रन्थ द्वारा निग्रन्थी की आँखों के परिकर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र५५६. णिगं णिगंयोए अच्छोणि ५५६. जो निग्रंथ निग्रंथी की आँखों काअपणउस्थिएग वा, गारपिएग वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, मामजावेज वा, पमज्जावेज वा, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, भामज्जावेतवा, पमजातं वा साइजइ । मार्जन करवाने वाले का, प्रमाणन करवाने वाले का अनु मोदन करे। मेणिग्गमे णिग्गंधीए अच्छोणि जो निन्थ निन्थी की आँखों कामम्मत्पिएग था, गारस्थिएणवा, अन्यतीणिक या गृहस्थ से, संबाहावेज या, पलिमहावेजमा मर्दन फरवावे, प्रमर्दन करवावे, संवाहात वा, पलिमहावेत वा साइजा। मर्दन करवाने वाले का, प्रमर्दन करवाने वाले का मनमोदन करे। गि मिणान्मीए बछोणि जो निन्य निमन्त्री की आंखों परभग्णस्थिएष वा, गारस्थिएणवा, भन्यतीयिक या गृहस्थ से, सुत्ताई Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६-५६१ निर्णय द्वारा निर्दयी के अक्षीपत्रों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित सूत्र सेहलेच वर जाव णवणीएम वा, मखाज्न बा, मिलिया वेज्ज वा मक्ख पर मिलिगावेंतं वा साइज । जे णिग्गन्धे गिगीए अच्छीएवा गा लोण वा जाय वण्णेण वा, डल्लोलावे वर जिवा, बोलावेतमा उबट्टा था साइज ५६०. यिनी मीि अस्था, वारणा, समय-वियन वा प्रसिणोगवियण या उच्छोलावे पर पधोयावेज्ज वा, उच्छति वा, पोयावेत या साइज 2 वीए अपन अजपिए वा गारश्थिएण था, माथा रवाना. मायारावासा सं सेवमाणे अज्ज चाउम्मातियं परिहारट्ठा उध्धादयं । -- नि. उ. १७, सु. ११०-११५ गिंण णिगांथो अच्छपत्त परिक्रम्मका रावणस्स पाय सुख हा पत्ताअग्णउस्थिर वा गारस्थिएण वा. कल्पावे वा दयावेज वा कप्पावैतं वर, संडवावेत या साज्जह | येथमा आउन्यासियं परिहाराणं धायं । - नि. उ. १७, सु. १०६-११० विग्यंषेण गिग्यो भूमगाइरोमाणं परिकम्मकारावणस्स पायच्छित मुत्ताई ६१. ग्यन्वी सुभग-रोमाईअण्णउणिवा वार वा पावेज वा संठथावेज वा कृपावंत वा संख्यातं वा साइज । खेल मक्खन, भलवावे, बार-बार मलवावे, मलवाने करे । रचर (201 का बार-बार मलवाने वाले का अनुमोदन जो निर्ग्रन्थ तिन्थो की आँखों परअत्यधिक पर गृहस्थ से, सीधमात्मा, उबटन करवावे, बारम्बार उबटन करवावे, उबटन करवाने वाले का बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करे । जो अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, अचित शीत जल से या अति उष्ण जल से, करे । की आँखों को धुलवावे, बार-बार धुलवावे, धुलवाने वाले का बार-बार घुलवाने वाले का अनुमोदन जो निन्यनियो की यांचों कोअन्यतकिया गृहस्थ से, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगवाने वाले का बार-बार रंगवाने वाले का अनुमोदन करे । चातुर्मास उमाटिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के अक्षीपत्रों का परिकर्म करवाने का प्रायश्चित सूत्र २६०. जो निर्णय निर्ग्रन्थी के लम्बे अत्रिों को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, कटवावे, सुशोभित करावे, कटवाने वाले का शुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। निर्मन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के मोह आदि के रोगों का परि कर्म करवाने के प्रायश्चित्त सूत्र ५६१. जो निधन के भौहों के लम्बे रोमों को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से, कटवावे सुशोभित करवावे, कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] परणानुयोग निन्य द्वारा निर्जन्यो के केश परिकर्म करवाने का प्रायश्चित्त सत्र सूत्र ५६१-५६४ mmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmm जे जिग्गन्धे गिग्गन्योए दौहाई पास-रोमाई जो निग्रंथ निग्रन्थी के पात्र के लम्बे रोमों कोअण्णस्थिएण बा, गारथिएणवा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कम्पावेज वा, संठवावेज वा, कटबावे, सुशोभित करवावे, कापावेतं वा, संडवात वा साहज्जर। कटवाने वाले का, सुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. १७, सु. ११६-११७ आता है। णिग्गंथेण णिगंथी केसाई परिकम्मकारावणस्स पायनिछन निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के केश परिकर्म करवाने का प्रायसुत्तं श्चित्त सूत्र-- ५६२. (जेणिग्गन्ये णिग्गंधीए वोहाई केसाई ५६२. (जो निम्रन्थ निग्रन्थी के लम्बे केशों को.अण्णपिएण वा, गारस्थिरण वा, अन्यतीथिक या गृहस्थ से, कप्पावेज वा, संठवावेज वा, कटवाये, सुशोभित करवाने, कप्पात वा, संठवावेतं वा साइजह । बटवाने वाले का, मुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे आवजह घाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं ।) उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७. सु. ११७ आता है।) णिगंथेग णिगंथी सीसवारियं कारावणस्स पायच्छित्त निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी के मस्तक को ढकवाने का प्राय___ सुत्तं श्चित्त सूत्र५६३. जे णिग्गथे णिग्गन्मीए यामागुगाम बइज्जमा ५६३. जो निम्रन्थ ग्रामानुग्राम जाती हुई निन्थी के मस्तक कोमण्णस्थिएण वा, गारथिएणवा, अन्पतीथिक या गृहस्थ से, सीसवारियं कारावेद, कारावेतं वा साइजह । ढकवाता है, ढकने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे पावज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. १२. आता है। अन्यतीथिक के परिकर्म करने के प्रायश्चित्त-६ अण्णउत्थियस्स गारत्यियस्स फायरिकम्मस्स पायमिछस अभ्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर परिकर्म का प्रायश्चित्त सुत्ताई सूत्र५६४. जे मिक्खू अण्णउश्यियस्स या गारस्यियस्स या कार्य- ५६४. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर का, आमज्नेज वा, पमज्जेजबा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे. आमजंतंबा, पमतं वा साहज्जद। मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ५६४-५६५ अन्यतौर्थिक या गृहस्थ के मैस निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार ३८५ जेभिक्खू अमरस्थियास वा, गारत्थियस्स या काय जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर को, संबाहेज्ज वा, पलिमद्देन बा, मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबा: बा, पलिमहतं वा साइज । मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू अण्णउत्यियस्त वा, गारस्थियस्स वा कार्य जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर पर, तेस्रोण वा-गाव-गवगोएग बा, तेल-यावत्-मपन, मखेड पा, मिलिगेग्न बा, मले, बार-बार मले, मलयावे, बार-बार मनबाब, मवेत बा, मिलिगेंतं वा साहस मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्षु अण्ण उस्थियास वा, गारस्थियस्त वा कार्य जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर पर, लोवेण वा-जाब-वणेग वा, सोध-यावत् --नणं का, उल्लोलेग्ज वा, उस्बट्टज्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबदन करम', बार-बार उबटन करवावे, उल्लोलतं वा, सम्वदृतं वा साइज्जइ । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करें। जे भिक्लू अण्णउत्थियस्स वा, गारस्थियस्स वा कार्य जो शिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के शरीर को, सोओबग-वियोण बा, उसिणोवग-वियोण बा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोसेन्जबा, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवाने, बार-बार धुलवावे, उच्छोलेंत वा, पधोएंतं वा साइज्जइ । धोने वाले का, बार-बार धाने वाले का अनुमोदन करें। जे भिखू अग्नस्थियस्स या, गारत्वियस्स या, जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्य के शरीर कोफूमेज वा, रएकमवा, रंगे, शार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूतं बा, रएस वा माइग्जा। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें। स सेवमाणे मारना चाउम्मासियं परिहारट्ठामं अणाधाइय। उसे चातुर्गासिक अनुघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. ११, सु. १७-२२ आता है: अण्णतिस्थियस्स गारत्थियस्स मलपिहरणपायच्छित्त अन्यतीधिक या गृहस्थ के मैल निकालने के प्रायश्चित्त सुत्ताई सूत्र५६५. जे मिक्स अण्णउस्थि यस्स वा, गाररियवस्स वा ५६५. जो भिक्षु अन्यतोथिक या गृहस्थ केअग्छिमल बा, हम्णमल वा, वंतमलं वा, नमसं वा, आँख के मैल को, कान के मैल को, दात . मैल को, नत्र के मैल को--- मोहरेज वा, विसोहेनछावा, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवाये, नीहरत वा, विसौहेतं वा साइजाइ । दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू अण्णास्थियस्स बा, गारश्यियस्स था जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के - कायाओ, सेयं वा, जल्स बा, पंक वा, मलं वा, गरीर के स्वेद (पसीन.) को, जल्ल (जमा हुआ मैल) को, पंक (लगा हुआ कीचड़) को, मल्ल (लगी हुई रज) को, नोहरेज वा, विसोहेज्ज बा, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवावे, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ रणायोग सोथिक या गृहस्थ के घरों के परिकमो के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५६५-५६६ नौहरेत वा, विसोहेस वा साइजइ। दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे । तवमाणे आवाज घाजम्मासिय परिहारद्वाणं अणुधाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) नि. उ. ११, नु. ६१-६२ आता है । अण्णउत्थियस्स गारथियस्स पायपरिकम्म पायच्छित अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों के परिकों के प्रायश्चित्त सुत्ताई५६६. जे मिक्स्यू अण्णउत्थियस्स था, गारस्थियरस वा पाए- ५६६, जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों काआमज्जेग्ज वा पमज्जेज्ज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवाशे, आमज्जंत वा. पमग्नंस था साइजाई। मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन फरे। में भिक्खू अण्णरित्ययस्स बा, गारस्थिपस्स वा पाए जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों कासंबाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज था, मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संत्रात वा, पलिमह वा साइज्जद । मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्षु अण्णउत्थियस्स बा, गारस्थियम या पाए जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों परतेस्लेण वा-जावणवमोएण वा, तेल-यावत्-मक्खन, मक्झेम्ज वा, मिलिगेज्ज वा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मक्खें या, मिलिगेत वा साइजइ । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। भिखू अण्णास्थियस्स वा, गारस्यियास वा पाए जो भिक्षु अन्यतीचिक या गृहस्थ के पैरों परलोण वा-जाव-वण्णेण वा, लोध-माधव-वर्ण का, वल्लोलेज बा, उम्बज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उल्लोलतं वा, उट्वट्टतं मा साइज्ज । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। में भिक्खू अण्णस्थिवास वा, गारथि यस्स का पाए जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों कोसीमोग-वियशेण वा, सिणोक्गवियोण पा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उन्होलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उछोले वा, पधोएतं वा साइजह । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करें। बे भिक्य अण्ण उस्थियस्स बा, पारस्थियस्स वा पाए जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के पैरों कोफूमेन वा, रएज्ज वा, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, फूतं वा, राएत या साइजई। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। तं सेत्रमागे आवजा चाउमासियं परिहारदाणं अनुराधाइय। उसे चातुर्मासिक अनुघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११, सु. ११-१६ आता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६५.५६८ अभ्यतीयिक या गृहस्थ के नखानों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार 3८७ अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स णहपरिकम्म-पायच्छित अन्यतीथिक या गृहस्थ के नखानों के परिकर्म का प्रायसुत्तं - श्चित्त सूत्र५६७. जे मिब अण्णउत्यियस्स वा, पारस्थियास वा बीहाओ नह- १६७. जो भिक्षु अन्यलीथिक या गृहस्थ के लम्बे नसानों को सिंहाओकप्पण्ज वा, संठवेरावा, काटे, सुशोभित करे, कटनादे, सुशोभित करवाये, फप्तं वा, संठवतं वा साइजद । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन कर। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासि परिहारहाणं अणुग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११, सु. ३६ आता है। अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स जंघाइरोम-परिकम्म-पाय- अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के जंघादि के रोमों का परिकर्म च्छित्त सुत्ताई करने के प्रायश्चित्त सुत्र . ५६८. जे भिक्खू अण्णउस्थिपस्स बा, गारस्थियस्त वा बीहाई जंध- ५६८. जो भिक्षु अन्यतीदिक या गृहस्थ के जथा (पिण्डली) के, रोमाई लम्बे रोमों कोकम्पेज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाये, कप्तं बा, संठतं वा साइज्जइ। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णाररिपस्स वा, गारपियस्स वा चीहाई कमाण- जो भिक्षु जन्यतीथिक या गृहस्थ के बगल (कांन्च) के लम्बे रोमाई रोगों कोकप्पेज्ज का, संठवेज्ज बा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करबावे, कप्तं वा, संठवेंतं या साइजइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुगेदन करे। जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा, गारस्थियस्स वा बीहाई मंग- जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के श्मश्रु (दाढ़ी मूंछ) के रोमा लम्बे रोमों कोकज बा, संठवेज्ज वा, . काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाये, कप्तं वा, संठवेत वा साइज्जइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। मे भिक्षु अग्णउस्थियस बा, गारस्थियम वा बीहाई मस्यि जो भिक्षु अन्यतीथिका या गृहस्थ के बस्ति के लम्बे रोमों रोमाईकम्पज वा, संठवेज्ज बा. काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वा, संठवेस वा साइजह । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन कर जे मिक्खू अण्णउत्थियस वा, गारस्थियस्स या दोहाई सक्षु जो भिक्षु अन्यतोषिक या गृहस्थ के चक्षु के लम्बे रोमों कोकप्पेज्ज वा, संठवेज्ज या काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त श, संठवेंत वा साइजा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। सेषमागे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि. .११, सु. ३७-४१ आता है। को रोमाई Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ चरणानुयोग अभ्यतीथिक या गृहस्थ के होठों परिकम के प्रायश्चिस सत्र सूत्र ५६६-५७० अण्णास्थियस्स गारथिवस्स ओपरिकामस्स पायपिछत्त अन्यतोथिक या गृहस्थ के होंठों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सुत्ताई सत्र५६६. जे भिक्षु अण्णउत्थि यस बा, गारस्थि यस्स था उट्ठी- ५६६. जो भिक्षु अन्यत्रीथिक या गृहस्थ के होठों का . धामन्जेज्ज था, पमन्ज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमाणन करवावे, बामज्जवा, पमम्जत वा साइज्जह । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स बा, गारस्थि स्स वा उ8 जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के होठों कासंबाहेज्ज वा, पलिमज्ज वा, सदन करे, प्रमदंन करे, मर्दन करवावे, प्रमदन करदावे, संबात वा, पलिमद्देस या साइज्जइ। मर्दन करने वाले का, श्मर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अग्ण अस्थियस्त वा. गारस्थियस्स वा उ8 जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के होठों पर - तेल्लेण वा-जाव-यणीएण श. तेल-यावत्-- मक्खन, मस्खेज्ज वा, मिलिगेज्ज बा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मवोतं वा. मिलिगंतं वा साइजद । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जे मिक्खू अग्णस्यियस्स वा, पारस्षियरस वा उ8 जो भिक्षु अन्यतीथिक या गहस्य के होठों परलोवेज या-जाव-वण्णेण वा, लोध-न्याय-वर्ण का, उल्लोलेज्ज वा, उबट्टज्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करबाबे, बार-बार उबटन करवावे, उल्नोलत बा, उडयट्टीत वा साहरजह । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। मे मिक्ख अण्णउत्थियस्स पा. गारस्थियस्स या उ8-- जो भिक्षु अन्यनीधिक या गृहस्थ के होठों कोसीओवग-विपण वा, उसिणोदग-विनडेण वा, अचित्त शीत जल से या चित्त उष्ण जल से, छोलेजन वा, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, उच्छोलेंतं का, पधोएत वा साइज्जइ । घोने वाले का, बारबार घोने वाले का अनुमोदन करे । जे भिवडू अण्णउस्थियस्त वा, गाररिचयस्स वा उट्ठ जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के होठों कोफूमेग्ज वा, रएक्स वा, रंगे, बार बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगनावे, फूमेंत वा, रएंत या साइज्जइ। रंगने वाले का, बार-बार रगने वाले का अनुमोदन करें। सं सेवमाणे आवजह चाउमासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइय। उसे चातुर्मालिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. ११, सु. ४५-५० आता है। अण्णउत्थियस्स गारस्थियस्स उत्तरोवाइरोम-परिकम्म अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के उत्तरोष्ठ रोम आदि के परिकर्म पायच्छित्स सुत्ताई के प्रायश्चित्त सूत्र५७०, भिक्खू अण्ण अस्थियास वा, गारस्थियस्स वा वोहाई ५७०, जो भिक्ष अन्यतीथिक या गृहस्ध के उत्तरोष्ठ के लम्बे रोम उत्तरोट-रोमाई (होट के नीचे के लम्बे रोम), कप्पेन्श बा, संठवेन श्रा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कम्तं वा, संठवेंतं वा साइजन । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ५७०-५७२ अन्यतीथिक या गृहस्थ के दांतों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [३८६ (जे भिक्डू अण्णा उत्यियस्स बा, गारत्मियस्स वा दोहाई णासा रोमाईकरपेज बा, संठवेज्म वा, (जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के नासिका के लम्बे रोमों को काटे, शोभित करे, कटवावे, गुशोभित करवावे, काटयाने वाले का, मुशोभित करवाने वाले का अनुमोदन करे।) उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारमान (प्रायश्चित्त) कप्त वा, संठवतं वा साइज्जद।) तं सेबमाणे आवज शउम्मासिय परिहारहाणं अणग्याइयं । अण्ण उत्थियस्स गारस्थियस्स वंतपरिकम्म - पायच्छित तान्यतीथिक या गृहस्थ के दांतों के परिकों के प्रायश्चित्त सुसाई सूत्र५७१. जे भिक्षू अगउस्थियस वा, गारत्यियस्स वा बते- ५७१. जो भिक्षु अन्यतोथिक या गृहस्थ के दांतों कोआधंसेज या, पसेज्ज वा, घिसे, बार-बार बिसे, घिसनाव, बार-बार घिसवावे, आघसतंबा, पघंसतं वा सादज्जा । पिसवाने वाले का, बार-बार पिसवाने वाले का अनुमोदन करें। जे भिडू अण्णउत्थियस्स बा, मारस्थियस्स या ते .. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के दांतों को-- उस्छोलेज्ज बा, पोएज्ज वा, धोए, बार-बार धोए, धुलवावे, बार-कार धुलवावे, अच्छोलतं वा, पधोएंतं वा साइन्नइ। धोने वाले का, कार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू अग्णउत्थियस्स ला, गारस्थिपन्स वा रते जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के दांतों को फूमेज वा, रएज्ज बा, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमेंतं का, रएंत या साइज्जइ । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासि परिहारहाणं अगुग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११, सु. ४२.४४ आता है। अपण उत्थियस्स गारत्थियस्स चक्खु परिकम्म-पायच्छित्त अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के आँखों के परिकर्मों के प्रायश्चित्त सूत्र५७२. जे मिळू अण्णउत्थि यस्स वा, गारत्मियस्स वा अग्लोणि- ५७२. जो भिन अन्यतीधिक या गृहस्थ की आँखों काआमज्जंज्ज वर, पमज्जंकवा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, आमज्जत वा, पमज्जंतं पा साजइ । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। से मिलू अण्णउत्थियरस का, गारत्थियस्स या अच्छीणि- जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ की आँखों कासंबाहेज वा, पलिमज्ज वा, मर्दन करे, प्रमदंन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहेंतं वा, पलिमहत वा साइज्जइ। मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जे मिकल अग्णउत्यियस्स या, गारस्थियस्स वा अनछोणि- जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ की आँखों परतेल्लेण वा-जाव-णवणीएण वा, तेल-पावत्-मक्खन, मक्खेज्ज बा, मिलिगेज वा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, ममतं वा, मिलिगतं वा साहम्मद । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । सुत्ताई Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९०] चरणानुयोग अश्यतीथिक या गृहस्थ के अक्षिपत्रों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५७२ ५७४ से मिक्खू अण्णउस्मियस्स बा, गारस्थियस्स वा अपकीणि - जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ की आँखों परलोवेण वा-जाव-बण्ण बा, लोध,--यावत् - वर्ण का, उल्लोले ऊज वा, सम्यग्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, जस्लोलेत या, उध्य से वा साइलाइ । उचटन करवाने वाले का, बार-बार उबटन करवाने वाले का अनुमोदन करें। जे मिक्ख अण्णउत्थियस्स वा, गारस्थियस्स वा अच्छोणि- जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ की आंखों कोसौओवग-वियोण वा, उसिणोबग-वियडेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित उष्ण जल से, उच्छोलेज बा, पोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धुल बावे. बार-बार घुसवावे, उच्छोलेंतं वा, पधोएतं वा साइग्मइ। धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । मे मिल्लू अण्णस्थिय स्स वा. गारस्थियम्स या अचछोणि- जो भिक्षु अन्यतीथिक मा गृहस्थ की आँखों कोफूमेज्ज बा, रएज्ज या, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूत वा, रएंतं पा साइज्ज । रंगने वाले का बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवज्जद चासम्मासियं परिहारट्ठाणं अगुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुनातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ११, सु. ५३-५८ आता है। अग्णात्थियस्स गारस्थियस्स अच्छोपत्तपरिकम्म - पाय- अन्यतीथिक या गृहस्थ के अक्षीपत्रों के परिकर्म का प्रायछिछत्त सुत्तं श्चित्त सूत्र५७३. जे भिक्खू अण्णइस्थियस्स बा, गारस्थियस्स वा दोहाई ५७३. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्य के लम्बे अक्षिपत्रों को अच्छिपत्ताई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा काटे, सुशोभित कर, कटवाने, सुशोभित करवावे, कप्त बा, संठवेतं वा साइनह। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवग्जह बाउम्मासिय परिहारट्टाणं मणुग्धाइयं । उस चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - -नि, उ. ११, सु. ५२ आला है। अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स भुमगाइरोम-परिकम्म पाय- अन्यतीथिक या गृहस्थ के भौंहों आदि के परिकर्मों के रिछत्त सुत्ताई प्रायश्चित्त मूत्र-- ५७४. मे भिषलू अग्णउस्थियस वा, गारस्थियस्स वा वोहाई अमग- ५७४. जो भिल अन्वतीथिक या गृहस्थ के भौंहों के सम्बे रोमों रोमाई कोकप्पेज वा, संठवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्पेतं बा, संठवेतं ना साज्जा । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। ने भिक्खू अग्णउस्थियस्स गा, गारस्थियास वा बौहाई पास- जो भिक्षु अन्यतीथिक या गुहस्य के पापर्व के लम्बे रोमों रोमा--- कोकप्पेज्ज, संठवेज्ज वा. काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाके, कप्त वा संठवेतं वा साहज्जइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे श्रावजापाजम्मासियं परिहारद्वाणं मणग्याइये। उसे शातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११, सु. ५६-६. आता है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्यतीथिक या गृहस्थ के केश परिकर्म का प्रायश्चित्त सत्र चारित्राचार [ . अण्णउत्थियस्स गारस्थियस्स केस परिकम्म-पायच्छित अन्यतीथिक या मल्हस्थ के केश परिकर्म का प्रायश्चित्त मूत्र ५१५. (जे भिक्खू अण्णउत्थियस्त वा, गारस्थियस्स या दोहाई ५७५. (जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के लम्बे केशों को --- केसाईकप्पेज्ज बा, संठवेज्जा , काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, करतं वा. संठवतं वा साइज्जइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । त मेवमाणे आवज चाउम्मासिथं परिहारट्ठाण अणुम्याइयं ।। उौ चातुर्मासिक अनुवातिक परिहारस्तान (प्रायश्चित्त) नि. उ. ११, सु. ५३ आता है। अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स सीसवारियकरणस्स पाय- अन्यतोथिक या गृहस्थ के मस्तक ढकने का प्रायश्चित्त च्छित्त सुत्तं५७६. जे भिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अग्नउस्थियस्स षा, गार. ५७६. जो भिक्षु ग्रामानुमनाम जाता हुआ अन्यतीथिक या गृहस्थ स्यियस्त वासौस युवारियं करेड, करेंत वा साइज्म । मस्तक को टकता है, कवाता है, ढकने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठागं अग्धाइय। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि 7. ११, सु. ६? पाता है। EMPS के विभूषा के संकल्प से स्व-शरीर का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त-७ विभूसावडियाए कायपरिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्ताई ५७७. जे भिक्खू विभूसाडियाए अप्पगो कार्य आमज्जेज्ज श. पमज्जेज्ज वा, रामज्जत वा, पमज्जतं वा साइपाइ । जे भिक्खू विभूमाखियाए अप्पगो कार्यसंबाहेज वा, पलिमज्जवा, . विभूषा के संकल्प से शरीर परिकर्म करने के प्रायश्चित सूत्र५७७. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवाये, माजंन करवाचे, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन कसे वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर कामर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाये, मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर परतेल-यावत् -मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । संबाहेंसं वा, पलिमहतं वा साइज्म । जे मिक्यू विभूसावडियाए अपणो कार्यतेल्लेण मा-जावणवणीएम वा, मक्खेज वा, मिलिगेज्ज वा, मखेंतं वा, भिलिगेस वा साइज्जह । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] चरणानुयोग विया के संकल्प से गं को निकालने के प्रायश्चित सूत्र जे मिक्वाडिया कार्यलोण जाणे वा उसोन्या उल्लो या उपट्टतं वा साइन् । के मिन् विसावडियाए अप्पन कार्य-सीओोग वियद्वेण वा उसिनोवग-विय मा उच्छलेना. पोवा च्छो मा पधोएं या साइज्जइ । मि फूमैज्ज वा रज्ज बा, विसावडिया फूतं वा रतं वा साइज्जइ । मायामा परिहारा उत्पाद - नि. प. १५, सु. १०६-१११ विसावडियाए मलविहरणस्स पायच्छित गुसाई ७८. जे भिक्खू विसावडियाए अन्यणो अच्छिमलं वा, कृष्णमलं वा, दंतमलं वा नहमलं वा मोहरेग्न वा विसोबा नीरेतं वा विसोत वा सहज | जे मिलू विभूसावडियाए अप्पणी कायाओ सेयं वा जहलं वा, पंक वा, मल्लं वा, मोहरेज्ज था, विसोहेज्ज या, नोहरेतं वा, विसो वा साइज । बाम्मासयं परिहारद्वा - नि. उ १५, सु. १५०-१५१ विसावडियाए पायपरिकम्मस्स पायच्छित सुलाई १७२ वाडिया मध्यम पावे मामा आमज्जतं वा पमतं या साइज । सूत्र ५७७-५७९ जो विभूषा के संकल्प से अपने शरीर पर लोध - यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवादे, बार-बार उबटन करवाने, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर कोअतिशीत जल से या अति उष्ण जल से. धोये, बार-बार धोये, धुलवाये, बारम्बार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे : जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर कोरंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे मासिक उद्यानिक परिहारस्थान (प्रायश्वित) आता है । विभूषा के संकल्प से मेल को निकालने के प्रायश्चित सूत्र ५७८. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने आँख के मैल को, कान के मैल को दांत के मैल को नव के मैल को, दूर करें, शोधन करे, दूर करवाये, शोधन करवावे, दूर करने वाले का शोधन करने वाले का अनुमोदन करे ।' जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने शरीर से स्वेद (पसीना को जल (जमा हुआ मैल को, पंक (लगा हुआ कीचड़ ) को, महल ( लगी हुई रज) को, दूर करे, शोधन करे दूर करवावे शोधन करवावे. ― दूर करने वाले का शोधन करने वाले का अनुमोदन करे उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है । विभूषा के संकल्प से पैरों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र- २७१. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने पैरों का मार्जन करे. प्रमार्जन करे. मार्जन करवाने, प्रमार्जन करवावे, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ५७६-५८१ विभूषा के संकल्प से नखानों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार ३९३ भिक्खू विभूसावडियाए अपणो पाये - जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने पैरों कासंबाहेग्ज वा, पलिमहज्ज था, मदन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबात बा, पलिमहतं पा साइजह । मदन करने वाले का, प्रभदंन करने वाले का अनुमोदन करे। में भिक्खू विभूसावडियाए अपणो पावे जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने पैरों परतेल्लेग बा-गाव-णवणीएग वा, तेल-पावत्-मक्खन, मरटेज वा, मिलिगेज्ज था, मले, बार-बार मले, मलवाये, बार-बार मलवावे, मतं बा, भिलिगेतं वा साइना। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। मे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पावे-- जो भिक्ष विभूषा के सकल्प से अपने पैरों परलोण वा-जाव-वण्णण वा, लोध्र-पावत्-वर्ण का, उल्लोलेज्न बा, उबट्टग्ज वा. उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाचे, बार-बार उबटन करवाने, उल्लोलेंतं वा, उबट्टतं वा साइज्जद । उबदन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिषय विभूसावडियाए अपणो पावे जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने पैरों कोसीमोग-वियोण वा, उसिगोवा-बियोण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण' जल से, उनछोलेज बा, पधोएग्जा , धोबे, बार-बार धोवे, धुलबारे, बार-बार घुलवावे, उण्डोलत था, पधोएंत या साइजह । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । मे मिक्ल विभूसावडियाए अप्पगो पारे जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने पैरों कोफूमेजबा, रएज्ज बा, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमेंतं वा, रयंत वा साइबइ। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । सं शेवमाणे मावज्जद चाउम्मासिय परिहारहाणे उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १५, सु. १००-१०५ आता है। विभूसावडियाए णहसिहाएपरिकम्मस्स पायच्छित सत्तं - विभूषा के संकल्प से नखानों के परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र५८०. जे मिक्ख विमुसाजियाए अपणो दोहामो नह-सिहाओ- ५८०. जो शिशु विभूषा के संकल्प से अपने लम्बे मखानों कोकप्पेज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठवतं वा साइना । काटने वाले का, मुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाणे बावज्जा पाउम्मासियं परिहारट्टागं सग्याइन । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१५, सु. १२५ आता है। विभुसावडियाए जंघाइरोमागं परिकम्मस्स पायच्छित्त विभूषा के संकल्प से जंघादि के रोमों के परिकर्म करने सुत्ताई के प्रायश्चित्त सूत्र--- ५८१. मे भिक्खू विभूसावधियाए अप्पगोपीहा बंध-रोमाई-- ५८१. जो भिक्षु विभूषा के सकल्प से अपने अंधा (पिण्डली) के लम्बे रोमों को Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] परणानुयोग विभूषा के संकल्प से होठों का परिक्षम करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५८१-५२ कप्पेजबा, संठवेजपा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, करतं वा, संठवत वा साइन । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। मे भिषणू विभूसावडियाए अपणो वोहाई कक्ष-रोमाई- जो भिक्ष विभषा के संकल्प से अपने बगल (कांख) के लंबे रोमों कोकम्पेन्जवा, संठवेज्ज बा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं बा, संठवेतं वा साइजह । काटने बाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । के भिक्खू विमसावरियाए अप्पणो बहाई मंसु-रोमाई जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने स्मथ (दाढ़ी मूछ) के लम्बे रोमों कोकप्पेज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वा, संठवेतं या साइन्माद । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । मे मिश्य विभूसायशियाए अपणो बीहाई वरिय-रोमाई- जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने बस्ति के लम्बे रोमों कोकप्न बा, संठवेम्स वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाये, कप्तं वा, संठवेंतं वा साइना। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू विभुसावरियाए अप्पणो रोहाई अक्षुरोमाई- जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने चक्षु के लम्बे रोमों कोकप्पेज्ज बा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, करत वा, संठवेत वा साहजह । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे भावनइ चाउम्भासिय परिहारद्वाणं उाधाइयं । उसे चातुर्मासिक उदघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. १२५-१३० आता है। विभूमावडियाए ओट्रपरिकम्मस्स पायसिछत्त सुताई- विभूषा के संकल्प से होठों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र५०१, मिक्लू विमूताववियाए पप्पणो उ? ५८२. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने होठों काभामग्ण वा, पमजेज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, माणन करवावे, प्रमार्जन करवावे, भामात वा, पमजतं वा साइम्मद । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। थे भिमत विभूसावजियाए अप्पणो उटू जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने होठों कासंबाहेम्ज वा, पसिमद्देज्ज मा, मदन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, संबाहेत ना, पलिमहतं वा साइजद । मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे । जं मिव विभूसाखियाए अप्पणो ज? जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने होठों परतेस्लेण वा-जाव-णवणोएण वा, सेल-यावत्-मक्खन, मखेज वा, मिलिगेज बा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, ममतबामिसिगतं ना साइम्जा। मलने वाले का, भार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८२-५८४ विभूषा के संकल्प से उत्तरोष्ठावि रोमों के परिकर्म के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार [३६५ जे मिक्ल विसावडियाए अप्पगो उ? जो भिक्ष विभूषा के संकल्प से अपने होठों परलोण वा-जाव-बग्ण वा, मोघ का यावत्-वर्ण का, गल्लोलेम्जमा, उम्बट्टज्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाने, बार-बार उबटन करवाये, उत्तोलेंतं वा, उन्बत का साइन्जाइ। सबटन करने गले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोरन करे। मे भिम विभूसावदियाए अप्पणी उदु जो भिक्षु विभूषा के संकला से अपने होठों कोसीमोदग-वियोण वा, उसिषोबग-वियष वा, मचित्त शीत जल से या मचित्त उष्ण उस से, छोसेक्ज बा, पनोएज्जया, पोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार खुलवावे, उच्छोलतं वा, पोएतं वा साइजह । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करें। मे भिक्खू विभूसावग्यिाए अपणो न8 ओ भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने होठों कोफमेन ना, रएज्म वा, रंगे, बार-बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूमत बा, रएंत वा साइजह । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें। सं सेवमाणे आवाइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं जपाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्मित्त) -नि. उ. १५. सु. १३४-११६ आता है। विभूसावडियाए उत्तरोटाई रोमाइं परिकम्मस्स पायच्छित्त विभूषा के संकल्प से उत्तरोष्ठादि रोमों के परिकर्म के सुताई प्रायश्चित्त सूत्र५८३. जे भिक्खू विभूसावडियाए मप्पणो दोहाई उत्तरोदाई ५५३. जो भिक्ष विभूषा के संकल्प से अपने उत्तरोष्ठ रोमों के रोमा-- (होठ के नीचे के) लम्बे रोमकम्पेन वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवाने, सुशोभित करवावे, कप्तंबा, संठतं वा साइन । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। [भिन्न विभुसावरियाए अप्पगो हाहं नासा रोमाई- (जो भिक्ष विभूषा के संकल्प से अपने नासिका के लम्बे रोमों कोकम्पेक्त वा, संठवेज वा. काटे, सुशोभित करे, कटबावे, सुशोभित करवाये, कध्येतंबा, संम्वेतबा साइजद काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । त सेवमाणे भावना चाजम्माप्ति परिहारट्टाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, मु. १४० आता है। विभूसाडियाए बंत परिकम्मस्स पायच्छित सुत्ताइ- विभूषा के संकल्प से दांतों के परिकर्म के प्रायश्चित्त ५४. भिम विभूसाबखियाए अपणो रते मासेज्नबा, पयंसेक्जमा, माधंसतं षा, पर्थसतं या साइम्स। बेमिकविसावरियाए अपणो बतेसछोलेन्सबा, पीएग्ज वा, ५८४. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने दांतों को घिसे, बार-बार घिसे, पिसमावे, बार-बार पिसवावे, घिसने वाले का, बार-बार घिसने वाले का अनुमोदन करे । जो मिन विभूषा के संकल्प से अपने दांतों को-- घोए, बार-बार धोए, घुलवावे, बार-बार धुनवावे, घोने वाले फा, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। ज्योमबापोएं या माना। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६] वरणानुयोग विभूषा के संकल्प से चक्षु परिकम के प्रायश्चित्स पत्र १२५८४-५८५ जे विष विभूसावडियाए अपणो दंते जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने दांतों कोफूमेज्ज वा, रएज्जया, रंगे, वार-बार रंगे, रंगवावे. बार-बार रंगवाये, फूमेंतं वा, रएतं वा साइज्जइ । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं मेवमाणे आवज्जइ चाउम्भासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिव उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. १३१-१३३ आता है। बिमसावडियाए अच्छीपरिकम्मरस पायच्छित सुत्ताई- विभूषा के संकल्प से चक्षु परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र५५५. जे मिक्खू विसावडियाए अपणो अच्छीणि ५८५. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों काआमज्जेज्ज वा, पमजेज्ज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, मामज्जंत बा. पमजंतंबा साहज्जन । माजन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणिसंसहेज्जधा, पलिमद्दज्ज वा, सबाहेंत वा, पलिमद्देस बा साइन्जद । जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो मच्छीगितेल्लेण वा-जाव-वणीएण वा, माखेज वा, मिलिगेज बा, मक्वंतं का, मिसिगेंतं वा साइज्जह । जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अमछोणिसोखंण वा-जाव-वण्णण वा, उल्लोलेज पा, उध्वज था, जो भिक्ष विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों कामर्दन करे, प्रमर्दन करे, . मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाये, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों परतेल-यावत् - मक्खन, मले, बार-बार मले, मलका, बार-बार मलवाये, मलने वाले वा, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों पर-- लोध,-यावस्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाये, बार-बार उबटन करवाके, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों कोअचित्त शीत जल से या अचित उष्ण जल से, धोवे, बार-बार धोबे, धुलवाये, बार-बार धुलवारे, धोने वाले का, बार-बार धोने शले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपनी आँखों कोरंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवाये, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। उल्लोलेंतं वा, उबट्टत वा साइजद । जे मिक्खू विघ्नसायजियाए अपणो अच्छीणिसीओवगवियडेग वा, सिपोवगविपत्रेण वा, छोलेज बा, पधोएज्म बा, छोलेत वा, पछोएतं वा साइजा। जे मिष विभुसावडियाए अपणो अच्छोणिफूमेज वा, रएग्म वा, फूमतं वा, रयंतं वा साइज्जा । सं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारदाण उपाइयं। -नि.उ.१५, सु. १४२-१४७ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६-५६ विभूषा के संकल्प से क्षोपत्रों के परिफर्म का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [३६७ विभूसावडियाए अच्छिपत्तपरिकम्मरस पायच्छित सत्तं- विभूषा के संकल्प से अक्षीपत्रों के परिकम का प्रायश्चित्त सूत्र५८६. जे भिक्खू विमूसावडियाए अप्पणो वोहाई अच्छिपसाई- ५८६. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने अभिपत्रों को.कप्पेज वा, संवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, करवावे, मुशोभिन करवावे, कप्तं या संख्येत वा साइम्जा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन कर। त सेवमाणे आवज्जद चाम्सासिय परिहारट्ठाणं उपधाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १५, सु. १४१ आता है। विभूसावडियाए भुमगरोमाणं परिकम्मस्स पायच्छित्त विभूषा के संकल्प से भौंहो आदि के रोमों के परिकर्म के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र५८७.जे मिक्सू विभुसावडियाए अपणो दोहाई मगरोसाई- ५८७. जो मिल विभूषा के संकल्प से अपने भौहों के लम्बे रोमों कोकापेज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वा, संडवेतं वा साहबइ । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू विभूसावरियाए अपणा हाई पासराभाइ जो मि विभूषा के संकल्प से अपने पावं के लम्बे रोमों कोकप्येज्ज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाचे, कप्पेतं या, संठवत वा साइजह । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । त सेवमाणे आवस्जद घाउम्मासियं परिहारद्वरगं उम्शाइयं । उसे चातुर्मामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. १५. सु. १४-१४६ आता है। विभुसावडियाए केस-परिकम्मस्स पायच्छित्त सुत्तं- विभूषा के संकल्प से केश परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र-- ५८८. (जे भिक्षू विभूसावधियाए अप्पणो रोहाई केसाई-- ५६८. (जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से अपने लम्जे केशों कोकरपेज्म वा, संठमेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठयत वा साइजाद।। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवमा चाउमासिय परिहारहाणं उम्घाइयं ।) उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. १४१ आता है। विभूसावडियाए सोसवारियकरणस्स पापच्छित्त सुत्तं-- विभूषा के संकल्प से मस्तक ढकने का प्रायश्चित्त सूत्र५८९. जे मिक्यू विभूसावडियाए गामाणगार्म दज्जमाणे- ५८९. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से ग्रामानुग्राम जाता हुआअप्पगो सीसवारियं करे, अपने मस्तक को ढकता है, कमाता है, करेंतं वा साइजाइ। ढकने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवश्जद नाउम्मासियं परिहारदाणं उग्याइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -----नि. उ.१५, सु. १५२ आता है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१) परणामुयोग मएन सेवन के संकल्प से शरीर का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र Nava मथुन के संकल्प से स्व-शरीर परिकर्म के प्रायश्चित्त-८ मेहणडियाए कायपरिकम्मरस पायकिछत्त सुत्ताह ५६. ने निक्यू मारणामस्स मेहुणजियाए अम्मको कार्य भामजनम वा, पमज्ज्म वा, भामजतं वा, पमजंतं वा सामा। मैथुन सेवन के संकल्प से शरीर का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- ५६..जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करवावे, प्रमार्जन करवावे, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर का मर्दन करे, प्रमर्दन कर, मर्दन करनावे, प्रमर्दन करवाये, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन अभिवण माजगामस्स मेहगवधिमाए अपणो कार्य संबाहेज्ज था, पलिमद्देज्जमा, मंबात वा, पलिम तं वा साइन्माद । करे। मे मिरवू माजग्गामस्स मेहणपडियाए अप्पणो कार्य तेल्लेग पा-जाद-गवणीएम वा, मावेज्न बा, मिलिगेज्म या, माह बा. मिलिगेंतं वा साइजा। ने मिस्सू माउागामस्स मेहुणबडियाए अपणो कार्य-- मोडेगा-जाव- बण वा, उस्लोस्लेज वा, उम्वटज वा, स्तोतं ना, उम्बदृतं वा साइम्स जो मिल माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसको (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर पर तेल-पावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मलबावे, बार-बार मलबावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेबन का संकल्प करके अपने शरीर पर लोध-पावत्-वर्ण से, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवाने, उबटन करने वाले का, पार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर को अचित्त शीत जल से या चित्त उष्ण जल से, घोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार पुनवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (एसी स्वी) मैपुन सेवन का संकल्प करके अपने शरीर को मिरवू माडग्गामास मेहनमडियाए अपणो कार्य सौधोग-बियण या, उसिणोडगवियरेण बा, कोलेज वा, पधोएग्जा , छो मेंतं वा, पोएत वा साइजह । में मिक् माजगामास मेहणवधिमाए सम्पणो कार्य Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६.५६२ मैथुन सेवन के संकल्प से मल निकालने के प्रायश्चित्त सत्र चारित्राचार [३६९ फूमेऊन वा, रएज्ज वा, फूमेंतं या, रएतं वा साइज्जई । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्याइयं । --नि. उ.६, सु. ३०-३५ मेहणवडियाए मलणाहरणस्स पायच्छित्त सुत्ताई रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, वार-बार रंगवाचे, रँगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। मैथन सेबन के संकल्प से मल निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र ५६१. भिक्खू माउग्गामस्स मेहणदडियाए अप्पणो भमिछ-मलं वा, कण्ण-मसं वा, दंत-मलं वा, नह-मसं घा, नोहरेन्ज परविसोहेज्ज वा, नोहरत वा, विसोत वा साइज्मद । जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहगवडियाए अप्पगो कायाभो सेयं वा, जल्लं वा, पंकं वा, मसं वा, नीहरेज वा, विसोहेज्ज वा, नीहरेंस वा, विसोत वा साइजह । सं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अग्याश्यं । -नि. उ. ६, सु. ७४-७५ मेहणवडियाए पायपरिकम्मस्स पायच्छित सुताई- १६१. जो मित माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथन सेवन का संकल्प करके अपने अन्तिों के मल को, कान के मैल को, दांत के मैल को, नज के मल को, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवाये, दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके अपने--- स्वेद (पसीना) को, जल्ल (जमा हुआ मैल) को, पंक (लगा हुजा कीचड़) को, मल्ल (लगी हुई रज) को, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवावे, दूर करने वाले का, जोघन करने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मालिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। मथुन सेवन के संकल्प से पैरों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र५६२. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मान करवाये, प्रमार्जन करवावे, मार्जन करने वाले का, प्रमाणन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों का मदन कर, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवाये, मर्दन करने वाले का, प्रमदंन करने वाले का अनुमान करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसौ स्त्री) मंथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों पर ५६२. भिक्खू माउणामस्स मेहुणवस्याए अप्पगो पाए आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमजन्त वा, पमज्जन्तं वा साइज जे भिक्षू माउग्गामस्प्त मेहणज्यिाए भप्पगो पाए--- संबाहेजपा, पलिमद्दे ज्ज वा., संबाहेत या, पसिमतं ना माहज्यद । जे त्रिव माजग्गामस्स मेहणवरिमाए मापनो पाए Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.० घरगानुयोग मथुन संबन के संकल्प से नखों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५६२-१६४ सेल्लेग वा-जाय-णवणोएण बा, तेल-पावत्--मक्खन, मक्खेज वा, मिलिगेग्ज वा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मोतं का, मिलिगेंत या साइजा। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू माजग्गामास मेहपटियाए अप्पणो पाए जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों पर--- लोण वा-जाय दोष वा, लोध-पावत् -वर्ण का, उल्सोलेज्ज वा, उग्वट्टज्ज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन केरे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उहलोलतं वा, उव्वदृतं या साइम्बइ। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अध्मणो पाए जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों कोसोओदग-वियरेण वा, उसियोधग-वियरेण वा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उपछोलेज वा, पधोएज्ज वा, धोबे, बार-बार धोवे, धुलावे, बार-बार धुलावे, उन्छोसेंतंबा, पधोएतं वा साइबद। धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू माजगामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पैरों कोफूमेजवा, रएग्जबा, रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगबावे, फूतं वा, रएतं वा साइवह। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आधज्म चाजम्मासियं पहिारदा मणग्याइय। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -लि. . ६, सु. २४-२६ आता है। मेहुणपडियाए णहसिहापरिकम्मस्स पायच्छित्त सुतं- मैथन सेवन के संकल्प से नखों का परिकर्म करने के प्राय श्चित्त सूत्र५३. जे मिक्लू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पमो दोहाओ नह- ५६३. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री सीहाओ से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने लम्बे नखानों कोकम्पेन था, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त वा, संठवतं वा साइजद। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे भावज्जह चाउम्मासिस परिहाराणं ममुग्धाइय। उसे चातुर्मासिक अनुद्धातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ६, सु. ४६ आता है। मेहणयडियाए जंघाइ रोमाण परिकम्मस्स पायपिछत्त मैथुन सेवन के संकल्प से जांध आदि के रोमों का परिकर्म सुताई करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- ५६४, जे मिक्खू माउरगामस्स मेहणग्यिाए अप्पणो बीहाई जंघ- ५६४. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री रोमाई से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने जंघा (पिण्डली) के लये रोमों को Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६४-५६५ कल्पेन बा, संठवेज्ज था. कप्तं वा संहतं वा साइज । जे मिल माणामरम मेहजनवाए अप्पो दोहाई रोमाई कपेज वा संठवेल वा पेतं वा संठवेतं वा साइज । जे भिक्खू मागास मेहुणवडियाए अपणो दीहाई मंसुरोपाई कप्पेज्ज वा संठवे वा, कप्तं वा संठवेत या साइज्जइ । जेमिमायामरस मेनुगवडियाए अध्यणो बीहाई स्थि रोमाई कपेज वा संठवेज्ज वा, सेवन के संकल्प से होठों का परिकर्म करने के प्रति सूत्र कप्पेतं वा, संठवेतं वा साइज्जइ । जे भिक मागमस्स नेणवडियाए अध्यणो वीहाई चक् रोपाई 1 द कथा, संठतं वा साइज्जइ । तं सेवमाने उम्मतियं परिहारद्वाजं अनुयाइय -नि. उ. ६, सु. ५०-५४ मेणवडियाए ओपरिकम्मल्स पायसि मुत्ताई २२. मामस्तमेडिया अपो आमखेज वा, पमज्जे वा आमतं वा पमजतं वा साइज्जइ । बाबा पलिया जे मागाम मेदुवडा अध्यणो उ - बाबा पति वा । चारित्रासार | ४०१ काटे, सुशोभित करें, कटवावे, मोतिक काटने वाले का शोभित करने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने बगल (ख) के लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करें, कटवाये सुशोभित कर काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिनकी (ऐसी स्त्री से ) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने श्मश्रु (दाढ़ी मूंछ) के लम्बे रीमों को काटे, सुशोभित करे, कटवावे सुशोभित करावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने मस्ति के सम्बे रोगों को काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करावे, काटने वाले का मुभित करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से ) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने चक्षु के लम्बे रोमों कोकाटे, गोधित करे सुमित करावे, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक अनुद्घानिक परिहारस्थान (पति) आता है। मैथुनमेवम के संकल्प से होठों का परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र - ५१५. जो भिक्षु मरता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने होठो का मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मान करवावे, प्रमाजैन करवावे, मार्जन करने वाले का, सर्जन करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रिय बसकी (ऐसी स्त्री मे) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने होठों का - मर्दन करें, प्रमर्दन करें, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करावे, मर्दन करने वाले का, प्रमदेन करने वाले का अनुमोदन करे । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.२ wwww मरणानुयोग मैथुन सेवन के सत्य से उत्तरोष्ठ रोगों के परिकर्म करने के प्रायश्चित सूत्र माग्दास मेहणवडियाए अपणो उ सेल्लेण वा जाव णवणोएण वा. भक्वेज्ज वा मिलिगेज्ज वा मक्तं वा मिलितं वा साइज्जइ । जे मिलू माउश्यामस्त मेहणवडियाए अध्यणो उ लोनावा चल्लोल्लेज्जषा, उट्टे उजवा, खल्लीले बा उट्टे तं वा साइज । जे भिक्खू माउगाम मेटुणवडियाए अप्पणी उट्ठ - सो वा उसको विवा च्छोलेज वा पोएम वा उच्छोलतं वा पधोएंत या साइज्जइ । जे भिक्खू मागामस्थ मेहुणवडयाए अध्यणो बहु फूमेज्ज वा, रज्ज या बारा स सेवापरिहारार्थ अनुयाइय - नि. उ. ६, सु. ५०-६३ मेडिए उत्तराद्राइरोमाणं परिकग्नस्स पायच्छित सृत्तं रोमाई मध्येज्ज वा संवेज्ज या कसबा, संतं वा साइज । (जेभिस्तू माउस्यास्त्र मेडिया अयोहा रोमाई करपेल्ज वा संठवेज्ज वर. कप्पे या संत वा साहब उस ) परिहाराणं अगुवाइ -- नि. उ. ६, सु. ६४ सूत्र ५६५-५६६ जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री रो) मैथुन सेवन का सकल करके अपने होठों पर तेल - यावत् मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । पास मेडिया अपनो हाइ उत्तरो ५३९ जो जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियां जिसकी ( ऐसी स्त्री से ) मत सेवन का संकल्प करके अपने होठों पर लोध-यश्वत्-वर्ण का उबटन करे, बार-बार उबटन करे. उबटन करवावे, बार-वार उबटन करवावे. उबटन करने वाले का बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी ( ऐसी स्त्री से ) येथून सेवन का संकल्प करके अपने होठो को अचित्त शीत जन्म से या अति उष्ण जल से, धोये, बार-बार धोये, घुलावे, बार-बार धुलावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से ) नवेदन का संकल्प करके अपने होठों को " रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित ) आता है | मैथुन सेवन के सकल्प से उत्तरोष्ठ रोगों के परिकर्म करने का प्रायश्चित्त मूत्र - माता के समान है इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने उत्तरोष्ठ के लम्बे रोमों (होटों के नीचे के लम्बे रोम को काटे, सुशोभित करे, कटवावे सुशोभित करवावे, काटने वाले का मुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। (जो भिन्न माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी ( ऐसी स्त्री से ) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने नाक के लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाव, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे ।) उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६७-५१८ मंधन सेवन के संकल्प से दांतों के परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : मेहणपडियाए दंतपरिकम्मस्स पायच्छित सूत्ताई- मैथन सेबन के संकल्प से दांतों के परिकर्म करने के प्राय श्चित्त सूत्र५६७ जे मिक्खू पावणामस्स मेहगवटियाए अप्पणी दंते- ५६७. जो भिक्ष, माता के ममान हैं इन्द्रियां जिमी (रोमी स्थो में) मैथुन सेवन का संकल्प करतं अपने दांतों कोआधसज्ज वा. पघंसेग्ज बा, घिसे, बार-बार घिमे, घिमनावे, बार-बार घिसवावे, आघसतं वा, पसंत श साइजह । घिसने वाले का, बार-बार बिमने वाले का अनुमोदन करे । मे भिवडू माउग्गामस्स मेहणवडियाए अपणो बते जो भिक्ष माता के ममान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्वीसे) मैथुन सेनन का संकल्प करके अपने दौतों को-- जम्छोलेग्ज या, पधोएज्ज वा, धोये, बार-बार धोये, धृलनावे, बार-बार धलवावे, डोलतंबा, एक था जहां धोने वाले का, बार-बार धोने वाने का अनुमोदन करे। से मिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवरियाए अपणो दंते । जो भिक्ष माता के ममान हैं इन्द्रियाँ जिमकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन संवन का संकल्प करके अपने दांतों कोफूमेज या, रएज्ज वा, रंग, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, फूतं वा, रएंतं वा सादज्जड़। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे आवग्ना चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइये। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. ज. ६, सु. ५५-५७ आता है । मेहुणवडियाए चक्नुपरिकम्मस्स पायच्छित्त सुसाइ -- मैथुन सेवन के संकल्प से आँखों के परिकर्म करने के प्राय श्चित्त सूत्र - ५६८ जे भिक्खू माजग्गामस्स मेनुणवाडयाए अप्पणो अच्छीणि- ५६८. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपनी आँखों काआमग्ण या, पसज्ज वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, माजन करवावे, प्रमार्जन करत्रावे, आमजस वा, पमजतं वा साइम्मद । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। मंभिक्खू माडग्गामस्स मेडियाए अपणो अच्छीणि- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपनी आँखो कासंबाहेज्ज बा, पतिमहज्ज बा, मदन करे, प्रमदन करे, मदन करवावे, प्रमर्दन कर.बावे, संघात वा पलिमहतं वा सादरना। मर्दन करने वाले का, मदन करने वाले का अनुमोदन करें। जमिश्बू मागामस्स मेहडियाए अप्पगो अनछोणि- जो भिक्ष माता के समान है इन्द्रियाँ जिमकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपनी आँखों परतेल्लेण वा-जाव-गवणोएष वा, तेल-यावत् ---मक्खन, मलेग्ज वा, मिलिगेज वा, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मल नावे, मस्त वा, मिलिगेत वा साहजह। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। मिासू मारनामस्स मेतृणज्यिाए अपणो अछोणि जो भिक्ष माता के समान हैं इन्दिया जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपनी आंखों पर Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] परणानुयोग मथुन सेवन के संकल्प से अक्षौपत्र परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५६८-१०० लोडेण था-जाब-वणेण वा, लोध-यावत्-वर्ण का, उस्लोलेग्ज वा, उबट्टज का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवाये, बार-बार उबटन करवावे, उस्लोलत बा, उस्वदृत वा साइन्जइ । उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्त माजग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छोणि- जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री से) कुन सेवाका के 14.14 कोमोओग-वियण वा, उतिगोकग-वियरेण वा, बचित शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उसछोलेज वा, पधोएन्ज वा, धोदे, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार घुलवावे. उच्छो सेंत वा, पधोएत वा साइज्जइ । घोने बाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू माउम्पामस्स मेहुणवडियाए अपणो अच्छोणि- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपनी आँखों कोफूमेज्ज वा, रएग्ज वा, रंगे, दार-बार रंगे, रंगवावे, बार बार रंगवावे, फूमेत बा, रएंतं वा साइजद । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें । त सेवमाणे भावग्मद चाउम्मासिय परिहारद्वाणं अग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ६, सु. ६६-७१ आता है। मेहणवडियार अच्छिपत्त परिकम्परत पायच्छित्त सुत्तं- मैथुन सेवन के संकल्प से अक्षीपत्र परिकर्म का प्रायश्चित्त ५६६. जे मिक्खू माउगगामास मेहुणवडियाए अपणो वोहाई अच्छि- ५६६. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्त्री पसाई से) मैथुन सेबन का संकल्प करके अपने लम्बे अक्षिपत्रों कोकप्पेज बा, संठवेज्ज वा काटे, सुशोभित करे, कटवावे, युशोभित करवावे, कप्त या संठवतं वा साइम्जा । काटने वाले का, मुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। त सेवमाणे आवमा चाउम्मासि परिहारद्वाणं अग्धाइय। जसे चातुर्मालिक अनुघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ६. सु. ६५ आता है। मेहुणवडियाए भुभगाहरोमपरिकम्मस्स पायच्छित सुत्ताइ- मैथुन सेवन के सकल्प से भौह आदि के रोमों का परिकर्म करने के प्रायश्चित सूत्र६... जे मिक्बू माउरणामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो शेहाद मुमग- ६००. जो भिक्ष माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री रोमा मे) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपन भौह के सम्बे रोमों कोकप्पज्ज वा, संठवेन्ज वा, कार्ट, मुशोभित करे, कटवावे. मुशोभित करवावे, कप्त वा, संठवेतं वा साइजई । काटने वाले का, मुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जं भिमलू माउणामस्स मेहुणडियाए अप्पणो दोहाइ पास जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसको (ऐसी स्त्री रोमा से) मैथुन सेवन का संकल्प करके अपने पावं के लम्बे रोमों को. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६.०६.३ मैथुन सेवन के संकल से केश परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [४०५ कप्पज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, कापत पा. संठवतं या साइजद । काटने वाले का, गुगोभित करने वाले का अनुमोदन करें। त सेवमाणे आचाई वाम्मासिय परिहारद्वागं अणुग्धाइयं । उसे चातुर्मामिक अनुदद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. ६, मु. ७२-७३ आता है। मेहणडियाए केस-परिकम्मरस पायच्छित्त सत्तं - मथुन सेवन के संकल्प से केश परिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र६०१. (जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहगडियाए अप्पणो दीहाई ६०१. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसको ऐसी स्त्री केसाई से) मेथ न सेवन का मंकल्प करके अपने लम्बे केशों कोकापेज या, संठवेजिया, काटें, मुशोभित करे, पटवावे, सुशोभित करवावे, कात वा, संवतं वा साइजह । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। तं सेवमाणे आवाइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ।) उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.६, मु. ७३ आता है। मेहणवडियाए सीसवारिय करणस्स पायच्छित्त सुत्त- मैथुन सेवन के संकल्प से मस्तक दुकने का प्रायश्चित्त मूत्र३०२. अ मिक्यू माजग्गामस्स मेहगवडियाए गामाणुगामं तूइज्ज- ६०२. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (एसी स्त्री माणे--सीसवारियं ने) : रोजा काका दरले प्रामानुग्राम जाते हुए मस्लक कोकरो, करेंसं वा साइजा । ढके, ढकवावे, उकने वाले का अनुमोदन करें। तं शेषमा मात्रम्मा चाउम्मासिस परिहारहाण अणुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि. उ. ६, मु. ७६ आता है। मथुन के संकल्प से परस्पर परिकर्म के प्रायश्चित्त मेहणवडियाए अण्णमण्णकायपरिकम्मस्स पायच्छित मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर शरीर के परिकर्मों के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र६०३. जे भिमखू माजग्गामस्स मेहुणबडिपाए अण्णमणस कार्य-६०३. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिमकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दुसरे के भरीर काआमजेज्जया, पमज्जेत वा; मार्जन करे, प्रमार्जन करे, मार्जन करावे, प्रमार्जन करवाने, आमजतंबा, पमम्जसं पा साइजह । मार्जन करने वाले का, प्रमाणन करने वाले का अनुमोदन करे। जे शिमच माडम्गामस्स मेणवडियाए अण्णमण्णस कार्य- जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैयुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर का Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] चरणानुयोग मेथुन सेवन के संकल्प से परस्पर मल निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र सत्र ६०३-६०४ संबाहेज्ज वा. पलिम जवा मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करबावे, प्रमर्दन करवाये, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन संबात वा, पलिमहत वा साइज्जत । जे मिक्खू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस कार्य- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर परतेल्लेण वा-जान-गवणीएण वा, तेल. यावत्-मक्खन, माशेज या, सिलिगेज था, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मसवावे, मखेत वा, मिलिगेंतं वा साइज्ज। मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन कर । जे मिक्स्यू माउग्गामस्स मेहुगडियाए अण्णमणस्म काय- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूमरे के शरीर परलोदेण वा-जाब-वणेण वा, लोध-यावत् - वर्ण का, उस्लोसज्ज वा, उध्वट्ट ज्ज वा. उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उस्लोलतं का, उम्बट्टतं या साइजा। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहुणवशियाए अण्णमण्णस्स कार्य- ___ जो भिक्षु, माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर कोसोओग-वियोण वा, उसिप्पोदग-वियोण वा, अचित्त शीत बल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज बा, धोये, बार-बार धोये, धुलावे, बार-बार धुलावे, उनछोलेंत वा, पधोएत वा साइकमा । धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे भिखू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणमयस्स कार्य- जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिमकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के शरीर कोफूमेन पा, रएज्न वा, रंगे बार-बार रंगे, रंगवावं. बार-बार रंगवावे, फूमतं वा, रएंत वा साइज्जा । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे। सं सेवमाने भावना वाजम्माषियं परिहारद्वाण अणखाइ। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. 3. ७, सु. २०-२५ आता है। मेहुणवडियाए अग्णमण्णस्स मलणिहरण पायपिछत्त मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर मल निकालने के प्रायसुत्ताइ-- श्चित्त सूत्र६०४. जे मिक्खू माडग्गामस्स मेहणवडियाए अगमण्णस्स- ६.४, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिमकी (एसी स्त्री से) मधुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे कोअन्छि-मलं वा, कण्ण-यलं वा, वस-मलं बा, नह-मसंगा, आंख के मैल को, कान के मैल को, दांत के मैल को, नख के मैल को, नीहरेज वा, विसोहेम्ज वा, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, शोधन करवावे, नीहरते वा, विसोत वा सहमह । दूर करने वाले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०४-५.५ मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर परों के परिवर्मों के प्रायश्चित्त सत्र चारित्राचार ४०७ जे मिक्वू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए मग्णमपणस्स जो भिन माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से मैयुन सेवन मा संकल्प करके एक दुसरे केकायाओ सेयं वा, जल्लं वा, पंकं या, मर्म वा, शरीर के स्वेद (पमीना) को, जन्न (जमा हुआ मैल) को. पंक (लगा हुश्रा कीचड़) को, मल (लगी हुई रज) को, नोहरेज्ज वा, विसोहेज वा, दूर करे, शोधन करे, दूर करवावे, गोधन करवावे, जौहरतं दा, विसोत वा साइजाइ । दुर करने याले का, शोधन करने वाले का अनुमोदन करे । सेवमाणे आवाज चाउम्मासि परिहारटागं अणुग्धाइयं । उसे चातुमामिक अनुपातिक परिहारस्थान :प्रायश्चित) -नि. उ. ७, सु. ६४-६५ आता है। मेहुणवडियाए अण्णमण्ण पायपरिकम्मस्स पायच्छिस मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर पैरों के परिकर्मों के सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र६०५. जे मिक्खू माउरगामस्स मेहमवशियाए अण्णमण्णस्स पाए- ६०५. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन मेवन का संकल्प करके एक दूसरे के पैरों का - आमज्ज वा, पमम्जेज्न वा, मार्जन करे, प्रमार्जन करे, माजन करवावे, प्रमार्जन करवावे, मामजतंबा, पमजंतं वा साइजह । मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे। मे भिमखू माजग्गामस्स मेहडियाए अण्णमण्णस्स पाए-- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेबन का संकल्प करके एक दूसरे के पैरों कासंबाहेज्ज वा, पलिमईज्ज वा, मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमर्दन करवावे, सबाहेंत बा, पलिम त वा साइम्जा । मदन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करें। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहडियाए अण्णमण्णस्स पाए- जो भिक्ष माता के ममान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प कर एक दूसरे के पैरों परतेल्लेग वा-जान-णवणीएण बा, तेल, -यावत्-मक्खन, माखेज वा, मिलिगेज वा, मले, बार बार मले, मन बावे, बार-बार मलवावे, मक्खेत वा, मिलिगंतं वा साइज्जन । मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें । जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुणवरियाए अण्णमण्यास पाए- जो भिक्ष माता के समान है इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्पी से) मैयुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के पैरों परलोण वा-जाव-वण्णेण बा, लोध-यावत् -- वर्ण का, उहलोलेज बा, जम्बट्टज वा, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उस्लोसतं वा, उम्बट्टस वा साइजद । उबदन करने वाले का, बार-बार खबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू माउरणामस्स मेहुणवडियाए अण्णमग्णस्स पाए- जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐमी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के पैरों कोमोमोवग-बियडेण बा, उसिपोरग-वियोणबा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ चरणानुयोग मंथुन सेवन के संकल्प से परस्पर नमानों के परिकर्ष का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ६०५-६०७ उपछोलेज्ज था, परोपावेज वा, धोये, बार-बार धोये, धुलवावे, बार-बार धुलवावे, राछोलेंत वा, धोएंतं का साइजा। धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । ने मिक्यू मारग्गामस्स मेहुगवडियाए भण्णमण्णस्स पाए- जो भिक्ष. माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के परों कोफमेज बा, रएज्ज वा, रंगे, बार-बार रमे, रंगवाने, बार-जार रंगवावे, फूतं वा. रएत वा साइन्सार । रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाने आवज चाडम्मासियं परिहारहाणं अग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. ७, सु. १४.१६ आता है। मेहुणवबियाए अण्णमा-महातहा परिरमा पारिश मथुन सेवन के संकल्प से परस्पर नखानों के परिकर्म का सुत्त प्रायश्चित्त सूत्र६.६.जे मिक्स माउम्गामस्स मेगुणवग्यिाए अण्णमानस्स बीहाओ ६.६. जो भिक्ष माता के समान है इन्द्रिया जिसकी (ऐसी स्त्री नहसीहाबो से) मैथुन संबन का संकल्प करके एक दूसरे के नखानों कोकम्पेन वा, संठवेज्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाने, कतं मा, संठवेंतं वा साइबज । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह चाउम्भासियं परिहारहाण अणुवाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. ज. ७, सु. ३१ आता है। मेहणवडियाए अपणमाण जंघाइरोमाणं परिकम्मस्स मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर जंघादि परिकर्मों के पायच्छित्त सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र६.७ मे मिक्खू माउम्गामस्स मेटुणवरियाए अण्णमण्णस्स दोहाई ६०७. जो भिक्षु भाता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (एमी स्त्री जंघ-रोमाई से) मैथुन सवन का संकल्प करकं एक दूसरे के..- जपा (पिरली) के लम्बे रोमों को ... कप्पेबाबा, संठवेम्ज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवात्रे, सुशोभित करवावे, कप्येत वा, संठतं वा साइज्जा । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। ने मिक्ख माइग्गामस्स मेहुणवश्यिाए अन्यमनस्स दोहाई जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के जगल (कांन) के सम्बे रोमों कोकापंसदा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवावे, करतंबा. संठतं वा सापज्जा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। अभिन्यू माउम्गामस्स मेहुपडिमाए अण्णमण्यम दोहाई जो भिक्ष माता के समान हैं इन्दिया जिसकी (ऐसी स्त्री मंसु-रोमाइ--- से) मधुन सेवन का मंकाप करके एक दूसरे के प्रमथु (बाढ़ी मछ) के लम्बे रोमों कोकएपेजवा, सठवेजबा काटे, मुशोभित करे, कटवावे, सुशोभित करवाने, कप्त बा, संठत वा साइज्जद । काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र ६०७-६०८ afe मउगा मेहुणवडियाए अण्णमरणस्स दोहाई बस्थि-रोमाई पेज वा मा. कतं वा संठवतं वा साइज । मि -बाई कपेज वा संवेज्ज बा. कप्पेतं वा संठतं वा साइज्ड । तं सेवमाने भवन बाउम्मासि परिहारद्वार्ण अधाइयं - नि. उ. ७, सु. ४०-४४ मेहुणवडियाए अण्णमण्ण ओट्ट परिकम्मस्स पायति सुत्ताई ६०८. जे भिक्खू मडागामस्त मेहुणवडियाए अग्ममण्णस्स पट्ट े माम्यामरस मेहरावडियार अम्मयस्त दोहाई आमज्जेज्ज या पमन्जेज्ज वा मंयुन सेवन के संकल्प से ओष्ठ परिकर्म के प्रायश्वित्त सूत्र चारित्राबार ४०६ आमन्तं वा पमनंतं वा साइज्जइ । जेमिन माग्गामस्त मेहूणवडियाए अपनमण्णस्स उट्ट े - - बाबा परिवा संबा या पलिमद्दतं वा साइड जे मिक्सू माजग्गामस्त मेहणवडियाए अन्नमरणस्स उट्ठ हेलेन राजा-नोएन मा. भक्वेक्स मा, मिलिगेज वा. मस्तं वा मिलितं वा साइकजइ । माभ्यामास मेहुणवडियाए अन्यमन्यस्स उट्ठ े लोग वा जाव णेण वा मोलेका उम्ब www.www. जो माता के समान है इन्द्रियों की ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के वस्ति के लम्बे रोमों को www सुशोभित करे, कटवावे सुशोभित करवावे. काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के चक्षु के लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करे कटवावेोभित करवावे, काटने का सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त जाता है । मैथुन सेवन के संकल्प से बोष्ठ परिकर्म के प्रायश्वित) सूत्र ६०० ये मि माता के समान हैं इन्द्रियों कि ऐसी स्पी सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के होठों का मार्जन करे, प्रमार्जन करें, भाजन करवावे, प्रमार्जन करवाये, मार्जन करने वाले का, प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मधून सेवन का करके एक दूसरे के होठों को मर्दन करे, प्रमर्दन करें, मन करावे, प्रमदेन करवाने, मर्दन करने वाले का, प्रमदेन करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के होठों पर -- तेल- पावत् — मक्खन, मले, बार-बार मले, मलवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का बार-बार मसने वाले का अनुमोदन करे 1 जो भिक्षु बाता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी ऐसी की से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के होठों पर लोध - यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बारम्बार उबटन करवावे, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०) धरणामुयोग मयुन सेवन के संकल्प से परस्पर उतरोष्ठ परिफर्म के प्रायश्चित्त सूत्र त्र ६०८-६१० उल्लोलतं या, उभ्यत वा सारज्जा। उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू माजम्मामरस मेहपडियाए अण्णमण्णस्स उ8- जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमो स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दुसरे के होठों कोसीओचवियोण वा, सिगोवगविपक्षण षा, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, उच्छोलेन्ज बा, पधोएग्ज या, धोये, बार-बार धोये, धुलबाबे, बार-बार घुलवावे, उच्छोलत वा, पचोएत वा साइजह। घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्यू माजगामस्स मेहुणवडियाए भण्णमण्णस्स उ8- जो भिक्ष, माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (एसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के होठों कोफूमेज वा, रएज्ज वा, रंगे, बारम्बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावं, फूमतं वा, रएतं वा साइग्जद। रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । त सेवमाणे आपज्जइ चाउम्मासि परिहारट्ठाण अणुयाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ७, सु. ४८-५३ आता है। मेहकप्रसाए .अण्णमा-उसराडाइ रोम-परिकमस्स मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर उत्तरोष्ठ परिकर्म के पायच्छित्त- सुत्ताई-- प्रायश्चित्त सूत्र६०६. जे मिक्णू माउमामास मेहुणवडियारा अण्णमण्णस्स दोहाई ६.. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री उसरोटु रोमाई से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के लम्बे उत्तरोष्ठ गेमों को (होठ के नीचे के रोम) कपेज्ज वा, संठवेज वा, काटे, सुशोभित करे. कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्त बा, संठवेत वा साहजह । काटने वाले का, मुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। (जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहरियाए अण्णमण्णस्स दोहाई जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसको (एमी स्त्री णासा-रोमाह से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के नाक के सम्बे रोमों काकम्येन वा, संठवेन्ज पर, काटे, सुशोभित कर, कटवावे, सुशोभित करवावे, कप्तं वा, संठवतं वा साइज्बइ।) काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे भावनइ चाउम्मासिय परिहारट्टाग अग्पादयं । उमे चातुर्मामिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) -नि. उ. 5, सु. ५४ आता है। मेहुणवडियाए अण्णमण्ण-दंतपरिकम्मस्स पायच्छित. मथुन सेवन के संकल्ल से परस्पर दन्तपरिकर्म के प्रायसुत्ताई श्चित्त सूत्र६१०. में मिक्खू माउग्गामस्स मेहगजियाए जाणमण्णस्स हत- ६१०. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का मकल्प करके एक दूसरे के दांतों कोआघसेज्जना, पघंसेज्ज बा, घिसे, बार-बार घिसे, घिसवादे, बार-बार विसवावे, आघससं वा, पघंसतं वा साइजह । घिसने वाले का, बार-बार घिसने वाले का अनुमोदन करे। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१०-६११ भिक्खू माउणामहल मेहवडियाए अण्णमणस्स दंते छापा उच्छ था, धोएं दा साह मिव माग्गामसमेतृणवदियाए अणिमण्णस्स दंते बाबा, कूतं बार वा साइज । सेवामा मैथुन सेवन के संकल्प से अभिपरिकर्म के प्रायश्चिस सूत्र परिहाराणं - नि. उ. ७, सु. ४५-४७ मेहुण्यवडियाए समय अच्छी परिकम्मस्स पायच्छित सुताई आमज्जेज्ज या पमज्बेन वा. आमज्जत था, पमज्जेत या साइज्जद्द | - जे भिक्खू माजग्यामल्स मेहुणवडियाए बण्डमणस्स अच्छोणि संबाज मा परिमा पलिया जे भिक्खू माउत्पामस्त मेहूणडियाए अन अच्छी नागववा वावा. ६११. माउागामस्त मेहगवडपाए मण ६११. जो ममता के समान है इन्द्रियां जिसकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आँखों का मार्जन करे मन करे 1 वारिश्राचार [४११ मक्तं वा मिलितं वा साइज । ये चिक्कू माउयामरस मेहुणवडियाए अण्णमण्णस अच्छी लोण वा जाव-बण श उल्लोसेक्न वा जव ज् बा, उसोत वा बट्टा साइज जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (मी स्त्री से) मैथुन सेवन का सकल्प करके एक दूसरे के दांतों कोधोये, बारम्बार धोये, धुलवावे, बार-बार घुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के दांतों को रंगे, बारम्वार रंगे, रंगवावे, वार-बार रंगवावे, रंगने वाले का बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है । मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर अक्षिपरिकर्म के प्रायशिवसूत्र- मार्जन करवावं, प्रमार्जन करवावे. मार्जन करने वाले का प्रमार्जन करने का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आंखों कामर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवाने प्रम करवाने, मर्दन करने वाले का प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसको (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आँखों परतेल- पावत् — मक्खन, मले, बार-बार मले, मलबावे, बार-बार मलवावे. सलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आँखों पर लोध यावत् वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ चरणानुयोग ने भिक्खू माजगामस्थ मेहूणषडियाए अणमण अच्छी सरेओग वियण वा. उसिनोडग वियद्वेण था, उच्छोलेज्ञ वा पोएम्ल वर छोटा पीत वा साइ ने मिक्लू माउणामस्स मेणवडियाए अण्णमण्णम्स अच्छोणि- मेज पर एज वा मनसे केसे परस्पर अभिपत्र परिकर्म के प्रायश्चित सूत्र फूमेतं वा रतं वा साइज्य आज चाउम्मानिय परिहारार्थ अग्रवाइये। - नि, उ. ७, सु. ५६.६९ मेहुणवडियाए अण्णमण्ग अच्छिपत्तपरिकम्मस्स पाय मृत - कम्पेज् वर, संवेज्ज व1, कप्पेतं वा संठवेतं मा साइज्म । आज उम्मानिय परिहारार्थ अन्धादयं । - नि. उ. ७, सु. ५५ मेहुणवडिया अण्णमण्ण-मुमगाइ-रोमार्थ परिकम्मस्स पायच्छित सुत्ताई ६१३. जे मिक्स्यू माउग्गामस्स मनुणवडियाए अण्णमण्णस्स बीहाई मगरोमाई वाडवेज बा कप्पेतं वा संठवतं वा साइज । जे भिक्खू माउगामस मेहुणमडियाए मण्ण मरणस्स बोहाई पासरोमाई कध्येज्ज वा संवेज्ज वा, भिक्षु ६१२. मस्त मेहवडिया अभ्यास दहाई ६१२. जो माता के समान है इन्द्रियों जिसकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के लम्बे अक्षिपत्रों को जे भिक्खू अच्छपत्ताई कप्पे वा संहत वा सहन्न । तं सेवमाने आवाज चाउमालियं परिहारट्ठावं ६११-६१३ जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुनलेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आँखों को अचित्त शोत जल से या अचित्त उष्ण जल से, ये बार-बार धूलदावे, बार-बार डुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन व रे । जो मिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी ( ऐसी स्त्री से) मैदन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे की आंखों को रंगे, बार-बार रंगे, रंगवावे, बार-बार रंगवावे, रंगने वाले का, बार-बार रंगने वाले का अनुमोदन करें । से चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर अक्षिपत्रपरिकर्म के प्रायश्चित सूत्र- काटे, सुशोभित करें, कटवावे, सुशोभित करवाने, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे । उसे चातुर्मासिक अनुद्घानिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मैथुन सेवन के संकल्प से परस्पर भह आदि रोमों के परिकर्म के प्रायश्चित्त मूत्र ६१३. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुनका संकल्प करके एक दूसरे के भड़के लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करें. सुशोभित करवा काटने वाले का, सुनोभित करने वाले का अनुमोदन करे । जोमा के समान है इन्द्रियों जिसकी ऐसी स्त्री सेन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के पके लम्बे रोमों को काटे, सुशोभित करें, गत करवाने, काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करे। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्वित) - नि. उ. ७, सु. ६२-६३ आता है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ११४-६११ मैथुन के संकल्प से परस्पर केश पारकर्ष का प्रायश्चित सूत्र पारिवाचार १३ मेहणवडियाए अण्णमण्ण केसपरिकम्मस्स पायच्छित्त मंथन-सेवन के संकल्प से परस्पर केशपरिकर्म का प्रायसुत-- श्चित्त सूत्र६१४. (जे मिक्खू माजग्गामस्स मेणवडियाए अण्णमण्णरस वोहाई ६१४. (जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री केसा से) मैथुन सेवन का संकल्प करके एक दूसरे के लम्बे केशों कोकप्पेश्य वा, संठवेन वा, काटे, मुशोभित करे, कटवाने, मुशोभित करवावे, कप्पेतं वा संठतं वा साइजा। काटने वाले का, सुशोभित करने वाले का अनुमोदन करें। त सेवमागे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाण अणुग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुदानिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.७, मु. ६३ आता है।) मेहगवडियाए अण्णमण्ण-सीसवारियं करणस्त पाय- मथुन-सेवन के संकल्प से परस्पर मस्तक ढकने का च्छिस सुत्तं प्रायश्चित्त सूत्र - ६१५. बेमिमषु माजग्गामास मेहुणयडियाए अण्णमास्स गामा- ६१५. जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियो जिसको (ऐसी स्त्री गुगामं कूदनमाणे से) मैथुन सेवन बा संकल्प करके प्रामानुग्राम जाते हुए एक दूसरे के मस्तक कोसोस दुचारिय करेह, करतं वा साइजह । ढकता है, इकमाता है, ढकने वाले का अनुमोदन करता है । सं सेबमागे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठागं अशुग्धाइये। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (पायश्चित्त) -.नि. उ.७, सु. ६६ आता है। ३. मथुन के संकल्प से निषिद्ध कृत्यों के प्रायश्चित्त-(१०) मेहणसेवण संकप्पस्स पायज्छिस-सुत्ताई मैथुन सेवन संकल्प के प्रायश्चित्त मूत्र११६. निग्गयो च गं गिलायमाणि पिया बा, माया मा, पुत्तो वा, ६१६. रत्वान निर्ग्रन्थी के पिता, भ्राता या पुत्र गिरती हुई निग्रन्थी पलिस्सएज्मा को हाथ का सहारा दें, गिरी हुई को उठायें, स्वतः उठने-बैठने में असमर्थ को उठावे, बिठावें - तं मिग्गंधी साइन्जेना मेतृणपहिसेवणपत्ता, उस समय वह निम्रन्थी (पूर्वानुभूत भैथुन सेवन को स्मृति से) पुरुष स्पर्श का अनुमोदन करे तो, आप चाउम्मासिय पदिारागं अणुग्धाइयं । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। निग्गय व गं गिलायमागं माया का, भगिनी वा, घूया वा, लान निग्रन्थ की माता, बहन या बेटी गिरते हुए निग्रन्थ पलिस्सएकना को-हाथ का सहारा दें, गिरे हुए को उठावें, स्वतः उठने-बैठने में असमर्थ को उठावें, बिठावें, संच निम्न साइनेज्मा मेहमपहिसेवणपतं, उस समय वह निर्गन्ध (पूर्वानुभूत मयन सेवन की स्मृति से) स्त्री स्पर्श का अनुमोदन करे तोमामाया माम्मासियं परिहारट्टागं अपघाहयं । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -कप्प. उ. ४, सु.१४-१५ आता है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ver] चरणानुयोग विकुविययेण मेणसंपायच्छत मुसाई ६१७. देवेय इत्यवं विदितानिन् पहिल्या हिन्जा रिसाइरामेष्यवि विकुवित रूप से मैथुन-संकल्प के प्रायश्चित सूत्र भावज बाउम्बासियं परिहारद्वाणं अनुग्धाह देवे व रिस बिनिता निर्णय पहियाहिया निधी साइना मेडिगपत्ता, आमदारमाशियं परिहारहाणं अनुयाइयं । बेबी अ इत्यवं विविधता निम्मं पहियाहेन्या निगं साइज्या मेहुणपरिसेवणपत्ते, आज बारम्बासिय परिहारद्वाणं अणुग्या देवी पुरिस विनय पहिल्यातं व निधी साइजेजा मेवविशेवणसा आवक चाम्पासिवं परिहारट्ठानं अणुग्धाइयं । ---कम्प. उ. ५, सु. १४ मेडियाए तिमिच्छाकरणस्स पार्याच्छित सुत्ताई - ६१८. जे मिक्यू माडग्यामस्स मेंहणवडियाए बाबा पोतं वा मल्लायएण पाएइ, उपायंत या साइज । माम मेहुणवडियाए पितं पर, सोयंतं मा, पोतं या, सूत्र ६१७ ६१८ wwwww विदित रूप से मैथुन संकल्प के प्रायश्चित सूप ६१७. यदि कोई कुर्वा शक्ति से स्त्री का रूप बनाकर निर्दग्ध का आलिंगन करे और वह उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो - (मैथुन सेवन नहीं करने पर भी मैथुन सेवन के दोष को प्राप्त होता है । अतः वह (निर्ग्रन्थ) अनुद्धातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) का पात्र होता है। यदि कोई देव (विकुर्वणा शक्ति से) पुरुष का रूप बनाकर निधी का आलिंगन करे और वह उसके स्वयं का अनुमोदन करे तो (मैथुन सेवन नहीं करने पर भी) मैथुन सेवन के दोष को प्राप्त होती है । अतः यह (निची) अनुयातिकासिक परिहारस्वान (प्रायवित्त) का पात्र होती है। यदि कोई देवी (वा शक्ति से स्त्री का रूप बनाकर गिरथ का आलिंगन करें और वह उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो मैथुन सेवन नहीं करने पर भी मैथुन सेवन के दोष को प्राप्त होता है अतः वह निर्ग्रन्थ अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रा) का पात्र होता है। यदि कोई देवी पुरुष का रूप बनाकर निर्बन्धी का आलिंगन करे और वह उसके स्पर्श का अनुमोदन करे तो | मैथुन सेवन नहीं करने पर भी ] मैथुन सेवन के दोष को प्राप्त होती है। अतः यह [निर्ग्रन्थी] अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान [ प्रायश्चित्त ] का पात्र होती है। 11 मैथुन सेवन के संकल्प से चिकित्सा करने का सूत्र— ६१८, जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी [ ऐसी स्त्री से] मैथुन सेवन का संकल्प करके- उस स्त्री की योनि को, अपान को या अन्य छिद्र को, भिलावा आदि से उत्तेजित करता है, उत्तेजित करवाता है. अजित करते जाने का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री की योनि को, अपान को या अन्य छिद्र को, Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ६१८ मपुन सेवन के संकल्प से चिकित्सा करने का सूत्र चारित्राचार [४१५ भल्लायएण उप्पाएतासोओबग बियरेण वा, उसिणीय वियोण का, उच्छोलेष्म वा, पधोएज्न वा, उन्छोलेत या पधोबत चा साइजइ । के सिक्खू माडग्गामस्म मेहुणवडियाए पिटुन्सं वा. सोमंत या, पोसतं वा, महसायएण उत्पाएसा सोओग वियोण श, उसिणोबग वियडेण बा, उच्छोलेसा पा, पोइत्ता वा, अभयरेण श्रावणजारणं आलिपेम्ज वा, विलिपंज्न या, मालिपंत पर, विलित वा साइउजद । जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहणवाडयाए पिटुन्तं वा, सोपंत घा. पोसतं वा, मल्लायएण उम्पाएतासोलोम विपडेग वा, उपिणोदग वियोण बा, उन्होलेसा वा, पछोएता पा-- अनवरेणं आलेवयजाए आलिपित्ताबा, विलिपिसा वा, तेस्लेग वा-जाव-गवणीएण वा. अम्मंगेज बा. मक्तेज्ज वा, भिलावा आदि से उत्तेजित करके, अचित्त शीत जल से या चित्त उष्ण जल से, धोवे, बार-बार धोवे, धुलवावे, वार-बार धुलवावे, छोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु माता के ममान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके, उम स्त्री को योनि को, अपान को या अन्य छिद्र को, भिलावा आदि से उत्तेजित करके, अचित्त शीन जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी लेप का लेपन करे, बार-बार लेपन करे, लेपन करवावे, बार-बार लेपन करवावे, लेपन करने वाले का, बार-बार लेपन करवाने वाले का अनुमोदन करे। ___ जो भित माता के मा इन्दिया जिसकी (ऐसी स्वी से) मैथुन संबन का संकल्प करके उस स्त्री की योनि को, अपान को या अन्य छिद्र को, भिलावा आदि से उत्तेजित करके, अचिस शीत जल से या अचित्त उष्ण जन से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किसी लेप का, लेप करे, बार-बार लेप करें, तेन-यावत्-मकवन, मले, बार-बार मले. मलवाचे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मनने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्ष, माता के गमान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उम स्त्री की योनि को, अपान को या छिद्र को, भिलावा आदि से उनजित करके, अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल से, धोकर, बार-बार धोकर, अन्य किमी लेप का, नेए कर, बार-बार लेप कर, तेल-यावत्-मक्खन, मलकर, बार-बार मलकर, किसी एक प्रकार के घूप से, धूप दे, बार-बार धूप दे, धूप दिलवावे, बार-बार घूप दिलवावे, अरमंतं वा, मक्खेत वा साइजइ। जे भिक्खू माउन्गामस्स मेहुणवडियाए पिटुम्तं वा, सोयतं वा पोसंतं वा, चल्लायएण उपाएत्तासौओवग वियरेण वा, उसिणोरग वियरेण वा, उन्छोलेसा वा, पधोएता वा, अन्नयरेणं आलेबणजाएणं, अलिपिसा वा विसिपित्ता बा, सेस्लेग बा-जाव-णवणोएगवा, सम्भवेत्ताबा, मक्छता वा, अग्णवरेणं धूवणमाएणं धूवेन्ज बा, पधूम वा, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] चरणानुयोग धूतं वा पर्खेत वा साइ तं सेवमाणे आवज चाउम्मासि परिहारद्वाणं अणुग्धाश्य - नि. उ. ६, सु. १४-१८६ मेहूण पत्थणाव पार्याच्छित सुतं६१. जिया सज्ज | मेथुन सेवन के लिए प्रार्थना करने का प्रायश्चित सूत्र मेहणवडियाए दिव्य विष्णवेत बा तं सेवमाने आवज्जद बाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अनुग्धादयं - नि. उ. ६, सु. १ । मेणवडिवा वत्य विरहियकरणस्स पायच्छित सुतं मैथुन सेवन के लिए वस्त्र अपावृत करने का प्रायश्चित्त । तं सेवमाने आवज चाउम्मानिय परिहारट्ठा जग्याह - नि. उ. ६, सु. ११ मेहूणवडिया अंगावराण वरिसणस्स पायच्छित सुत२१. (जे भिक्खू माणमस्त मेहुणवडियाए "इच्छामि मेमो अलिया अंगावरणं यासित" जो तं एवं वय वयंतं वा साइज । ) सं सेजमाणे प्रायम्य बाउमाथि परिहारानं अप्वाइ -नि. उ. ६, सु. ११ सूत्र - ६२. मायरस मेषवडियाए सयं ६२०. जो मिश्र माता के समान है इन्द्रियों जिसको (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन के लिए उसे स्वयं न होने के लिए कहे. हवायें कहने वाले का अनुमोदन करे | करतं वा साइज्जद । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्वित) आता है । अंगादान - परिकम्मत पायति सुताई ६२२. भावा कटुन वा कमिषेण ना, अंगुलिया का समाए वा संस धूप देने वाले का बार-बार धूप देने वाले का अनुमोदन करे । । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मंथन सेवन के लिए प्रार्थना करने का प्रायश्चित सूत्र६१९. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करे करवावे, करने वाले का अनुमोदन करे । वे मिट अंगामा -- संबाहेज्ज वा पलिम का, बात या पलिम तं बासा। जे भिक्कू अंगाबा सेल्लेण वा जामगवणीए वा सूत्र ६१८-६२२ उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। मैथुन सेवन के लिए अंगदान दर्शन का प्रायश्चित सूत्र६२१.[ माता के समान है इन्द्रियों जिसकी ऐसी से) मैथुन सेवन का संकल्प करके कहे कि - "हे आयें ! मैं तुम्हारे बनावृत अंग को देखना चाहता हूँ ।" इस प्रकार जो कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है । ] उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) जाता है। अगादान परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र ६२२. जो भिक्षु जननेन्द्रियको काष्ठ से बांस की खपच्ची से, अंगुली से या शलाका से, संचालन करता है, संचालन करवाता है, संचालन करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु जननेन्द्रिय का मन करे, प्रमर्दन करें, मर्दन करवावे न करवावे, J मर्दन करने वाले का प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करें । जो भिक्षु जननेन्द्रिय परतेल- यावत् मक्खन, Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६२२-६२३ मंबुन सेवन के संकल्प से अंगणवान परिकर्म के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [४१५ मम्मंगेग्न वा, मक्खेवा , अम्मंगेतं वा, मक्खेत का, साज्जा । मे भिल अंगावागंसोडेण वा-जाव-वग्गेण वा, उध्वट्टया , परिवह वा उतं वा, परिवदृतं वा साइजह । जे मिमल अंगागणंसोओवग-वियोण वा, उसिणोबग-वियोण बा, उच्छोलेज्म वा, पधोएज्न बा, मले, वार-बार मले, मलवावे. बार-बार मलदाये. मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करें। जो भिक्षु जननेन्द्रिय परलोध,-यावत्-वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करवावे, बार-बार उबटन करवाये, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु जननेन्द्रिय कोअचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जन से, धोवे, बार-बार धोवे, धुलवावे, बार-बार धुलवावे. घोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्ष जननेन्द्रिय के अग्र भाग की त्वचा को ऊपर की ओर करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु जननेन्द्रिय कोसूंघता है, सुंचबाता है, सूंघने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु जननेन्द्रिय कोकिसी अचित्त छिद्र में प्रवेश करके वीर्य के पुद्गलों को निकालता है, निकलवाता है, निकालने वाले का अनुमोदन उच्छोलतं वा, पधोएंतं वा साइज्जद । जं मिक्ख अंगादाणं निठलेह, निश्छलत वा साइज्जद्द । जे भिक्खू अंगादाणजिग्घइ, जिग्घतं वा साइज्जइ । जे भिक्स अंगाराणं - अण्णयसि अचित्तंति सोयंसि अपवेसित्ता सुक्कपोग्गले, निग्घायद, निग्घायंत या साइज्जइ । ते सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहारदाणं अणुयाइय। उसे अनुद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) नि० उ० १, सु०२-६ आता है। मेहणवडियाए अंगादाणपरिकम्मरस पायच्छित्तसत्ताई- मैथुन सेवन के संकल्प से अंगादान परिकर्म के प्रायश्चित्त ६२३. जे भिक्खू माजगामस्स मेहुणडियाए अंगादाणं क₹ण या, फिलिचेण वा, अंगुलियाए घा, सलागाए वा, संघालेड, संचालतं वा साइज्बइ। जे मिक्ल माजग्गामस्स मेहडियाए अंगावराण ६२३. जो भिक्षु माला के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथन सेवन का संकल्प करके जननेन्दिम का काष्ट से, बांस की खपत्री से, अंगुली से या शलाका से, संचालन करता है, संचालन करवाता है, संचालन करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय का मर्दन करे, प्रमर्दन करे, मर्दन करवावे, प्रमदंन करवावे, मर्दन करने वाले का, प्रमर्दन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैयन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय पर संबाहेज था, पलिमद्दे ज्ज वा, संबाहेंतं वा, पलितं वा साइजइ । जे निमखू माउन्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१] धरणानुयोग हस्तकर्म प्रायश्चित्त सूत्र भूत्र ६२३.६२४ तेललेग जाव-णवणीएण बा, अभंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, आमंतंबा, मक्खतं का साइज्जह । जे मिक्खू माउरगामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं लोण वा जाव-वण्णण वा, उसबष्टवा, परिवोवा, उव्यदृतं वा, परिवहतं या साइज्जइ । जे भिक्कू माउरगामस्स मेतृणडियाए अंगावा सीओराषिपडेण वा, उसिणोग वियोण वा, उच्छोलेउन ना, पधोएउजवा, उम्छोलतं वा, पधोएतं वा साइजह । में भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगावाण तेल-यावत्-मक्खन, मले, बार-बार मले, मसवावे, बार-बार मलवावे, मलने वाले का, बार-बार मलने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियो मिसकी (ऐसी स्त्री से) मयुन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय पर लोध्र-पावद- वर्ण का, उबटन करे, बार-बार उबटन करे, उबटन करबावे, बार-बार उबटन करवावे, उबटन करने वाले का, बार-बार उबटन करने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय को - अचित्त शीत जल से या अवित उष्ण जल से, धोवे, बार-बार धं.ये, घुलवावे, बार-वार धुलवावे, धोने वाले का, बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल करके जननेन्द्रिय की___ त्वचा को ऊपर उठाता है. ऊपर उठवाता है, ऊपर उठाने वाले का अनुमोदन करता है । जो मिझ माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय को सूंघता है, सुंघवाता है, सूंघने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके जननेन्द्रिय को अन्य किसी अचित्त छिद्र में प्रवेश करके वीर्य के पुद्गल को, निकालता है, निकलदाता है, निकालने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। हस्तकर्म प्रायश्चित्त सूत्र -. ६२४. जो भिक्षु हस्तकर्म करता है, करवाता है, करने बाले का अनुमोदन करता है। उसे अनुद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। पिच्छल्लेइ, णिश्छलेतं वा साइजह । जे मिळू माउणामस्स मेहणवडियाए अंगादाण जिग्घइ, जिन्तं वा साइज्जद । में भिक्जू मा उग्गामस्स मेहणवडियाए अंगावाणं - अन्नपरसि अघिसंसि सोयति अणुपवेसेता सुबकपोग्गले, निम्घायह, निधायत वा साइजा। # सेवमाणे आवम्बई चाजम्मासिय परिहारहाणं अणुग्धाइयं। -नि. उ ६, सु. ३.१. हत्यकम्मपाय:च्छत्तसुतं६२४. जे भिक्खू हायकम्म करेड करेंतं वा साइजह । हं सैचमाणे भावज्जइ मासियं गरिहारहाणं अणुयाइयं। -नि.उ.१ .१ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२५-६२७ मधुन सेवन के संकल्प से हस्तकर्म करने का प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार ४१६ मेहणवडियाए हत्थकम्मकरणस्स पायरिछसत्तं- मंथन सेवन के संकल्प से हस्तकर्म करने का प्रायश्चित सूत्र६२५. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए ६२५. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मथुन सेवन का संकल्प करके - हत्थकम्मं करेड, करेंतं का साइज्जइ । हस्तकर्म करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवामाणे बाबा घाउम्मासिय परिहारदाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.६, सु.२ आता है। सुबकपोग्गल णिग्घाडण पायच्छिस सत्तं- शुक्र के पुदगल निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र-- ६२६, जस्य एए बहवे इत्थीमो पपुरिसा य पहायंति, सत्य से ६२६. जहाँ पर अनेक स्त्री-पुरुष मैथुन सेवन (प्रारम्भ) करते हैं समय निग्गये उन्हें देखकर वह (एकाकी अगीता) श्रमण-निम्रन्थअन्नमरसि मपितसि सोयसि सुरकपोगले निग्याएमाणे हस्तकर्म से किसी अचित्त स्रोत में शुक्र पुदगल निकाले तो, हरपकम्म परिवणपसे आवजा मासियं परिहारद्वाणं उसे अनुद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अगुवाइ। आता है। जत्य एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा पहाभूति, सत्य से जहाँ पर अनेक स्त्री-पुरुष मैथुन सेवन (शरम्भ) करते हैं समणिगंथे उन्हें देखकर (एकाकी अगीतार्थ) श्रमण-निग्रंन्य अन्नयरंसि प्रचितंसि सोसि सुक्कपोग्गले निग्याएमाणे मैथुन सेवन करके किसी अचित्त स्रोत में शुक्र-पुद्गल मेहण-पडिसेवणपसे निकाले तो, भावना पालम्मासिय परिहारदाणं अणुग्याइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) -बब.उ. सु.१६-१७ भाता है। छा से उपकरण धारणादि के प्रायश्चित्त-४ मेहगवडियाए बत्थधरणस्स पायचिछत्त-सुत्ताई ६२७. जे मिळू माडग्गामस्स मेहुणवडियाए कसिणाई पत्याहं धरेइ, धरत वा साइज्मा । मैथन-सेवन के संकल्प से वस्त्र धारण करने के प्रायश्चित्त सूत्र६२७. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिए अभिन्न वस्त्र घरकर रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिए अक्षत वस्त्र धरकर रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहणवडियाए अहयाई बस्थाइ धरेइ, घरत या साम्जद । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०] घेरेगानुपोग विभूषा हेतु उपकरण धारण प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ६२७-६३० जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिए - धोबरलाई मत्थाई धरेह, धरतं वा साइज्जह । धोकर रंगे हुए वस्त्र घरकर रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। ( भिववू माउग्गामस्स मेहगडियाए (जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिए - मलिणाई वत्थाई घरेइ, धरेत वा साइजइ । ] मलिन वस्त्र धरकर रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अगोदन करता है.) जे मिक्खू माजगपामस्स मेहुणवडियाए ____ जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियो जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिएचित्ताई बयाई घरेइ, धरत मा सारज्जद । किसी एक रंग के वस्त्र को घरकर रखता है, रखवाता है। रखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्कू मारग्गामस्स मेहुणडियाए जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐनी स्त्री से) भैथुन सेवन का संकल्प करके उस स्त्री के लिएविचिसाई वस्थाई घरेह, धरेंत या साहजह। दुरंगे बस्त्र को धरकर रखता है, रखवाता है. रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं । उसे पातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ६, सु. १६-१३ आता है। विभुसावडियाए वस्थाइ उयगरणधरणस्स पायच्छित्त विभूषा हेतु उपकरण धारण प्रायश्चित्त सत्र-- सुत्तं६२८. भिक्खू विभुसावडियाए वत्थं वा-जाव-पायपुंछणं वा- ६२८. जो शिक्षु विभूषा के संकल्प से वस्त्र-यावत-रजोहरण याअग्णयर वर उवगरणजायं धरेह, धरत वा साइजह । ऐसे कोई उपकरण को धारण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आबज्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. १५३ आता है। विभूसाबग्यिाए वत्थाइ उवगरण धोषणस्स पायच्छित्त विभूषा हेतु उपकरण प्रक्षालन प्रायश्चित्त सूत्र सुत्तं६२९. जे मिक्खू विभूसावजियाए वत्थं या-जावपायपुंछणं वा- ६२६. जो भिक्षु विभूषा के संकल्प से वस्त्र-पावत् -- रजोहरण याअण्णपरं वा उषगरणमायं धोवेइ, धोवंतं बा साहज्जा। अन्य ऐसे कोई उपकरण को धोता है, धुलवाता है. धोने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे मावजा पाउमासियं परिहारशरणं उरधाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. १५४ आता है। मेहुणवडियाए आभूसणं करमाणस्स पायच्छित्त-सुत्ताई- मैथुन सेवन के संकल्प से आभूषण निर्माण करने के प्राय श्चित्त सूत्र६३०. ने भिक्खू माडग्गामस भेगडियाए ६१०. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐमी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके१. हाराणि वा, २. अठहाराणिवा (२) अद्ध हार Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष ६३०-६३१ मंथन सेवन के संकल्प से माला निर्माण करने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार. (४२१ ३. एगावली वा, ६. फेउराणि वा, (३) एकावली, (6) केयूर-कंठा, ४. मुसायली वा, १.. कुण्डलाणि वा, (४) मुक्तावली. (१०) कुण्डल, ५. कणगावली वा, ११. पट्टाणिवा, (५) कनकावली, (११) पट्ट, ६. रयणावली या, १२. मउआणि वा, (६) रत्नावली, (१२) मुकुट, ७. कड़गाणि दा, १३. पलंब-मुत्ताणि वा, (७) कटि सूत्र, (१३) प्रलम्ब सूत्र, ८. तुहिशणि वा, १४. सुवण्ण-सुत्साणि वा, (6) भुजबन्ध, (१४) सुवर्ण सूत्र फरेइ. करेंतं वा साइज्जइ । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मधुन सेवन का संकल्प करकेहाराणि वा-जाव-सुवष्ण-सुत्साणि वा घरेइ, घरत या हार-यावत् - सुवर्ण सूत्र धरकर रखता है, रखवाता है, साहज्जा। रखने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिश्ख माजग्गामस्स मेहुणवडियाए .... जो भिक्ष माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करकेहाराणि वा-जाव-सुवण्ण-सुत्ताणि वा परि जड़, परिझुंजत हार-यावत्-सुवर्ण सूत्र का परिभोग करता है, करवाता वा साइपमह। है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह नाजम्मासिय परिहारट्टाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -न. १. ७, सु. ७-६ आता है। मेहणयडियाए मालाकरणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- मैथुन सेवन के संकल्प से माला निर्माण करने के प्राय श्चित्त सूत्र६३१. जे भिक्षु माउग्गामस्स मेहणज्यिाए ६३१. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके१. तण-मालियं , ८. संख-मालियं त्रा, (१) तृण की माला, (८) शंख को माला, २. मुंज-मालियं या, ६. हरा-मालियं वा, (२) मुंज की माला, (९) हड्डी की माला, ३. मिन-मालियं वा, १०. कट्ठ मालिय वा, (३) बेंत की माला, (१०) काष्ठ की माला, ४. मषण-मालियं वा, . ११. पत्त-मालियं वर, (४) मदन की माला, (११) पत्र को माला, ५. विच्छ-मालिय वा, १२. पुष्क-मालिय वा, (५) पीछ की माला, (१२) पुष्प की माला, ६. बत मालियं बा, १३. फल-मालिय बा, (६) दंत की माला, (१३) फल की माला, ७. सिंग मालियं वा, .धोज-मालियं वा, (७) सींग की माला, (१४) बीज की माला, १५. हरिय-मालियंका, (१५) हरित (वनस्पति) की माला करे, करेंत वा साइज्जद। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षू माउग्गामस्स मेहुणवरियाए-- जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करकेतणमालियं वा-जाब-हरियमालियं वा, घरे, परतं वा, तृण की माला-पावत्-हरित की माला घरकर रखता साज्जा है, रखवाता है. रखने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू माउग्गामस्त मेहण-बडियाए जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसको (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करकेसणमालिय वा जाव-हरिय-मालियं वा पिणटार पिणहत तृण की माला-मानव-हरित की माला पहनता है. पहनवा साइज्ज। वाता है, पहनने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अन्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.७, सु. १.३ आता है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२१ वरणानुयोग मथुन सेवन के संकल्प से धातु निर्माण करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ६३२-६३४ मेहुणबलियाए धाउकम्मकरणस्स पाच्छित्त-सुत्ताई- मैथुन सेवन के संकल्प से धातु निर्माण करने के प्रायश्चित्त सूत्र६३२. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुगवरियाए-- ६३२. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (एसी स्त्री से) मैथुन सेवन का सकल्प करके-- १. अय-लोहाणि बा, ४. सीसग-लोहाणि था, (१) अय-लोहा, (४) सीसक-लोहा २.तंब-सोहागि घा, ५. रूप-लोहाणि था, (२) ताम्र-लोहा, (५) रूप्य-लोहा, ३. तजय-लोहाणिवा, ६. सुवण्ण-लोहाणि या, (३) अपु-लोहा, (६) सुवर्ण लोहा, करेइ, करेंतं वा साइजाइ । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। अभिक्खू माउणामस्स मेनु णवडियाए जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन से जन का संकल करके - अय-लोहाणि वा-प्राव-सुवग्ण-लोहागि वा, अय-लोहा-यावत्-सुवर्ण-लोहा को, घरे, घरत पा साइज्जद। घरकर रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। अभिडू नामक मालिकाए-- जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करकेअयलोहाणि वा-जाव-सुवष्ण-सोहाणि बा, भम-लोहा—धावत्- सुवर्ण-लोहा का, परिमुंजइ, परिभुजतं वा साइज्ज। परिभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमागे आमज्जाइ चाउम्मासिय परिहारहाणं अमुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि.उ.७, सु. ४-६ आता है। मथुनेच्छा सम्बन्धी प्रकीणं के प्रायश्चित्त-५ मेहुणडियाए कलहकरणस्स पायच्छिस सुत्तं मथुन सेवन के लिए कलह करने का प्रायश्चित्त सूत्र--- ६३३. जे मिक्बू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए ६३३. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियों जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन के संकल्प सेकमहं कुज्जा, कलह बया, कलह करे, कलह करने का सकल्प करके बोले, या कलह कलहवडियाए हियाए, करने का संकल्प करके बाहर, गछद, गच्छत्तं वा साहज्जा। जाता है, जाने के लिए कहे, और जाने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आमज्नइ चाउम्मासियं परिहारठाम अणुरघाइये। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. ६, सु. १२ आता है। मेहुणवडियाए पत्तपदाणरस पायच्छित सुतं मैथुन सेवन के संकल्प से पत्र लिखने का प्रायश्चित्त सूत्र६३४. मिल माजग्गामस्स मेहरियार ६३४. जो भिक्षु माता के समान है इन्द्रियां जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३४-६३७ मैथुन सेवन के संकल्प से प्रणीत आहार करने का प्रायश्चिस सूत्र लेह लिहा, लेहं लिहाबइ, पत्र लिखता है, पत्र लिखवाता है, लेहग्याए बहियाए, पत्र लिखने के संकल्प से बाहर, मच्छ, गर्छतं वा साइज्जह । जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणे आमज्जा चाउम्मासियं परिहारहाण अणुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुदानिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि, उ. ६, सु. १३ आता है। मेहणवडियाए पणीय आहारं आहारमाणस्स पायच्छित मैथुन सेवन के संकल्प से प्रणीत आहार करने का प्रायसुस-- श्चित्त सूत्र६३५. जे प्रिम माउरगामस्स मेहुगवडियाए ६३५. जो भिक्षु माता के समान हैं इन्द्रियाँ जिसकी (ऐसी स्त्री से) मैथुन सेवन का संकल्प करके१. खीर बा, २. हि वा, ३. गवणीयं था, ४. सप्पिं वा, (१) दूध, (२) दही, (३) मक्खन, (४) भी, ५. गुलं बा, ६. खवा , ७. समकर वा, ८. मछउियं या, (५) गुड़, (६) खांड. (७) शक्कर, (८) मिश्री अण्णयर वा पणीय आहारं आहारोह माहारेंसंवा साइजह। और भी ऐसे पौष्टिक आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणं आवनाचा उम्मासिय परिहारदाणं अगुग्धाइयं । उमे चातुर्गाशिक अनुयातित्र परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. ६, सु. ८७ आता है। बसोकरण सुत्तकरणस्स पायच्छित सत्तं-- वशीकरण करने का प्रायश्चित्त सूत्र६३६. जे भिक्खू सण-कप्याप्सओ बा, उष्ण कप्पासो वा, पोड ६३६, जो भिन्नु सण कपास से, ऊन कपास से, पोण्ड कपास से कप्यासओ वा. अमिल-कापासओ वा, और अमील कपास सेबसीकरण मुताई करेइ, करेंस वा साइजइ। दशीकरण सूत्र करता है, करवाता है, करने वाले का अन मोदन करता है। से सेवमाणे आवजजाई मासिय परिहारद्वाणं उग्याइयं । उस मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ३, सु. ७० आता है। अकिच्चठाणसेवण विवादे विणिवणओ अकृत्य सेवन के सम्बन्ध में हर विवाद का निर्णय-- ६३७. दो साहम्मिया एगयो विहरति, ६३७. दो सामिक एक साथ विचरते होंएगे तस्य अपरं अकिस्मठाणं परिसेविता आलोएग्जा, उनमें से यदि एक सा किसी एक अकृत्य स्थान की प्रति से बना करके आलोचना करे कि'ह मसे ! अमुगेणं साहुण सवि इमम्मि कारणम्मि "हे भवन् ! मैं अमुक साधु के साथ अमुक कारण के होने मेहुणपडिसेबी।" पर मैथुन-प्रतिसेवी हूँ" (प्रतीनि कराने के लिए वह अपनी प्रतिपच्चयहेज व सयं पडिसेवियं भणति । सपना स्वीकार करता है, अतः गणावच्छेदक को) दूसरे साधु से पूछना चाहिए कि-से सत्य पुच्छियब्वे – "कि डिसेवी, अपडिसेवी ?" प्र०-क्या तुम प्रतिसवी हो, या अप्रतिसेवी ? ज०-से य वएज्जा -'पडिसेवी", परिहारपते । उ०—(क) यदि वह कहे कि-"मैं प्रतिसेबी हूँ तब तो परिहार तप का पात्र होता है।" से व बएग्जा-"नो पडिसेको" नो परिहारपत्तेज से (ख) यदि वह कहे कि -"मैं प्रतिसेवी नहीं हूँ।" तो वह पमाणं क्यद से परागी घेयवे। परिहार तप का पात्र नहीं है । क्योंकि वह प्रमाणभूत सत्य कहता है-इसलिए उसका सत्य कथन स्वीकार करना चाहिए। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४] चरणानुयोग चतुर्थ ब्रह्मचर्य महावत को पांच भावनाएं सूत्र ६३७-६३६ प.-से किमाह भते । १०-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? उ.-सच्चपाइन्ना, बवहारा । 30-तीर्थंकरों ने सत्य प्रतिज्ञा पर (सत्य कथन पर) व्यव हार को निर्भर बताया है। जे भिक्खू अ गणाओ अवकम्म ओहाणुप्पेही बम्जेज्जा, असंयम सेवन की इच्छा से यदि कोई साधु गण से निकलसे य अणोहाइए इच्छेज्जा दोच्च पितमेव गणं उव- कर जावे और बाद में असंयम का सेवन किए बिना ही आकर संपजिताण विहरितए, गुन: नसी गण में सम्मिलित होना चाहेतत्प ण धेराणं इमेयाहवे विवाए समुप्पज्जित्पा- (ऐसी स्थिति में) संघ स्थविरों में यदि विवाद उत्पन्न हो जाए कि"इमं भो ! जाणह कि पडिसेवी, अपडिसेवी ?" "भिक्षुओ ! क्या तुम यह जानते हो कि भिक्षु प्रतिसेवी है या अप्रतिसेवी ?" से य पुछियवे तब उस साधु से पूछना चाहिए कि--- प. --पकि पहिसेवी, अपडिसेवौ ?" प्र.- क्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी हो? उ०-से य बएज्जा "पडिसेवी" परिहारपत्ते । 5--(क) (यदि वह कहे कि) "मै प्रतिसेवी हूँ।" तो वह परिहारतप (प्रायश्चित्त) का पात्र होता है। से यवएज्जा-"नो पडिसेवी" नो परिहारपत्ते । (ख) (यदि यह बहे कि) ' मैं प्रतिसेयी नहीं हूँ।" तो वह जं से पमाणं वयह से पमाणओ घेयम् । परिहारतप (प्रायश्चित्त) का पात्र नहीं होता है। क्योकि वह प्रमाणभूत (सत्य) वचन कहता है अत: उसका कथन प्रमाण रूप से ग्रहण करना चाहिए। प०--से किमाह भंते! प्र-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ? १०-सपचपन्ना ववहारा। उ-तीर्थंकरों ने सत्य प्रतिज्ञा पर व्यवहार को निर्भर -वत्र. उ. २, सु. २४-२५ बताया है। ५. परिशिष्ट चउत्थस्स बंभचेरमहब्वयस्स यंघ भावणाओ-- चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ-- ६३८. १. इत्थी-पम-पंजमसंसत्तसयणासणवज्जणया, (१) स्त्री-पशु-नपुंसक सहित शवन-आसन त्याग, २. इस्थीकहवि वजणया, (२) स्त्री-कथा का त्याग, ३. इत्यीणं इंविषाणमालोयगवरजणया, (३) स्त्री की इन्द्रियों (मनोहरांग) को देखने का त्याग, ४. पुरवरय-पुत्वकोलिआणं अपणुसरणया, (४) पूर्वानुभूत रति क्रीडा के स्मरण का त्याग, ५. पणोताहार विवाजणया। (५) पौष्टिक स्निग्ध आहार करने का त्याग, तस्स मा पंच्च भाषणाओ चउत्थस्स होति अचमचेरवेरमण- चतुर्थ अब्रह्मचर्य विरमणवत की रक्षा के लिए ये पांच परिरक्षणद्वयाए। भावनाएं हैं। पढमा भावणा-विवित्त सयणासणया प्रथम भावना स्त्री युक्त स्थान का वर्जन - ६३६. पढमं १. सयगासण-घर-दुपार-अंगण-आगास-गवख-साल- ६३९. (१) शय्या, आसन, गृहद्वार (घर का दरवाजा). आँगन, अमिलोयण-पच्छवत्युकपसाहणक-पहाणिकायकामा अवकासर। आकाश्च (छत) ऊपर से खुला स्थान. झरोत्रा, सामान रखने का कमरा आदि स्थान, बैठकर देखने का ऊँचा स्थान, पिछवाड़ापीछे का घर, नहाने और शृगार करने का स्थान, इत्यादि सब स्थान, स्त्री-संसक्त-नारी के संसर्ग वास होने रो वर्जनीय हैं । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३९-६४१ द्वितीय भावना स्त्रीकपा विवर्जन . चारित्राचार [४२५ २. नेय वेसियायणे अमछति । (२) जहाँ वेश्याओं के बड़ा है। ३. भरप इरिथकाओ अभिक्षणं मोह-पोस-रति-रागवड- (३) जहा स्त्रियां बार-बार आकर बैठकर मोह ष कामपीनो कहिति य कहाको बहुविहाओ विहु वणिमाराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएँ कहती हैं-उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ४. हत्यिसंसत्त-सफिलिट्टा अग्ने यि एक्माई अवकासाते (४) स्त्रो संसर्ग के कारण संक्लेशमुक्त अन्य जो भी स्थान वि बम्मणिरहा। हो, उससे भी अलग रहना चाहिए। ५. मात्य मणोषिकममो का, मंगोवा, (मंसगोवा) अटू, ब (५) जहाँ रहने से मन में व्यग्रता उत्पन्न हो, ब्रह्मचर्य भग्न चहुज्न साणं तं तं जेज्जऽवग्मोर अगायत अंत- हो, जहाँ रहने से आतंध्यान-रौद्रध्यान होता हो, उन-उन पंतवासी। अनायतनों - अयोग्य स्थानों का पापभीरु-ब्राह्मचारी परित्याग करे। साधु विषय-विकार रहित एकान्त स्थानवासी हो । एबमसंसप्त वास-वसही समिइ-जोगेण माविमो भवद अंत- इस प्रकार स्त्रियों के संसर्ग से रहित स्थान में समिति के - रप्पा-आरतमण-विरयगामम्मे जित दिए अमरगुत्ते। योग से भावित-अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चिसवाला तया इन्द्रिय विकार से विरत रहने वाला, जिलेन्द्रिय साधु ब्रह्म चर्य से गुप्त (सुरक्षित) रहता है। बिड्या भाषणा: इस्थीकहा, विवज्जणया द्वितीय भावना : स्त्रीकथा-विवर्जन६४०. विध्यं-१.नारी जस म न कहेयम्बा कहा विचित्ता ६४. केवल स्त्रियों की सभा में वाणी विलास रूप विचित्र विग्वोप-विलास-संपत्ता हास-सिंगार लोइयकहाव मोह- प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए, जो कया स्त्रियों को कामअपणी। चेष्टाओं से और विलास-स्मित आदि के वर्णन से युक्त हो, जो हास्य और शृगार रस की प्रधानता वाली हो, जो मोह उत्पन्न करने वाली हो, २. न आवाह-विवाहवरकहाविष इस्थीर्ण या सुभग-दुमग (२) इसी प्रकार गौने या विवाह सम्बन्धी बातें भी नहीं कहा धउसहिच महिलागुणा। करनी चाहिए। स्त्रियों के सौभाग्य-दुर्भाग्य की चर्चा, वार्ता एवं महिलाओं के चौंसठ गुणों (कलाओं) सम्बन्धी कथाएँ भी नहीं कहनी चाहिए। .. वन-वेस-माति-कुल-व-नाम-नेवस्थ-परिजण-कहावि (३) स्त्रियों के रंग-रूप, देश, जाति, कुल, नाम (भेद-प्रभेद इरिषयान मादि) पोशाक तथा परिवार सम्बन्धी कथाएँ नहीं कहनी चाहिए। ४. मनावि य एवमाक्यिाओ कहाओ सिगार-कसुणरसाओ (४) तथा इसी प्रकार की जो भी अन्य कथाएँ शृगार रस तब-संजम-भरधाओवशायाऔ अणुबरमाणेणं बंमचेरं न से करुणा उत्पन्न करने वाली हों और जो तप, संयम तया ब्रह्मकोयम्बा, म सुणेयबा, न चितेवग्वा । चर्य का पात-उपधात करने वाली हों, ऐसी कथाएँ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधुजनों को नहीं कहनी चाहिए, न सुननी चाहिए और न उनका चिन्तन करना चाहिए। एवं यी कहाविस-समितिजोगेण माविओ भवा असरप्पा इसी प्रकार स्त्रीकथा-विरति-समिति के योग से भावितभारत-मग-विरमगाम मे जितिदिए संभचेरगुसे। अन्तःकरण बाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला तथा इन्द्रिय विकार से विरत रहने वाला, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त (सुरक्षित) रहता है। ततीया भावणा : इत्थीणं इंदियाणमालोयण वज्जणया- तृतीय भावना : स्त्री रूप दर्शन निषेधvt. तसीयं-नारोगं हसिप-भणियं चेदिय-वियेविलय-इ- ६४१. नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को, हाय आदि दिलास-कीलियं, की चेष्टामों को, कटाक्षयुक्त निरीक्षण को, गति-चाल को, बिलास-क्रीड़ा को, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६] परणानुयोग चतुषं मावना : पूर्वमुक्त भोगों के स्मरण का निषेध सूत्र ६४१-६४२ विम्मोतियन्नट्ट-गीत-वाइस-सरीर-संठाग-वन-कर-परम-नयण कामोत्पादक संभाषण, नाट्य, नृत्य, गीत, वीणादि वादन, लावण-स्व-मोक्षण-पयोहराधर-वस्थासकार-भूसण,णि य शरीर की आकृति. गौर श्याम आदि वर्ण, हाथों, परों एवं नेत्रों गुज्सोवकासिया। का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर-ओष्ठ, वस्त्र, अलंकार और भूषण-लक्षाट की बिन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, अन्नागि य एवमाइयाडं सव-संजम-चमचेर-घातोवघातियाई तथा अन्य इसी प्रकार की चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप, अणुचरमाणेगं यमरं न बक्खुसा, न मणसा, न बयसा, तथा संयम का घात उपघात होता है। सन्हें बाह्मचर्य का अनुपत्येयवायं पावकम्माई। पालन करने वाला मुनि न नेत्रों से देखें, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे। एवं था -fiv-समिसिओगेण भाविको भवद अंतरप्पा इसी प्रकार स्त्रीरूपविरति समिति के योग से भावित भारतमण-बिरय-गामघम्मे मिहंगिए बमवेरगुप्त। अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, इन्द्रिय विकार से दिरत, जितेन्द्रय और ब्रह्मचर्य से गुप्त-(सुरक्षित) होता है। पउत्था मावणा: पुस्वरय-पुस्वकोडा अणुस्सरणया- चतुर्थ भावना: पूर्व भुक्त भोगों के स्मरण का निषेध--- ६४२. चउत्म-पुवरय-पुश्वकीलिय-पुश्वसंग-गप-संधुया ६४२. पहले (गृहस्थावस्था में) किया गया रमण-विषयोपभोग, पूर्वकाल में की गई काम क्रीड़ाएँ, पूर्वकाल के सग्रन्थ-श्वसुरकुम (ससुराल) सम्बन्धी जन, ग्रन्थ-साले आदि से सम्बन्धित जन, तथा संस्तुत-पूर्व काल के परिचित जन, इन सबका स्मरण नहीं करना चाहिए। ते आवाह-विवाह बोलकेसु य तिथि जन्नेसू उस्सवेसु य इसके अतिरिक्त गौने या विवाह, चूडाकर्म, शिशु का मुण्डन सिंगारागार चारवेसाहि हाव-भाव-पललिय विक्ष-विलास तथा पर्वतिथियों में, यशों में, पूजाओं में, उत्सवों में, शृंगार सालिणोहि अणुकूलपैम्मिकाहि सदि अपभूया सयण-संपोगा, रस को गृहस्वरूप सुन्दर वेशभूषा शाली, हाव-मुख की चेष्टा, भाव-चित्त के अभिप्राय, लालित्य-युक्त कटाक्ष, डीली चोटी, पक. लेखा, अखिों में अंजन आदि शृंगार, हाथों, भौंहों एवं नेवों की विशेष प्रकार की चेष्टा इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेम वाली स्त्रियों के साथ बनुभव किए हुए शयन आदि के विविध प्रकार के कामशास्त्रोक्त प्रयोग, खुसुहवर-कुसुम-सुरभि बंदण-सुगंधि-वरवासधूव-सुहरिस- ऋतु के अनुकूल सुख प्रदान करने वाले उत्तम पूष्पों का वत्य-मूसण गुणोमवेया सौरम एवं चन्दन की सुगन्ध, चूर्ण किए हुए अन्य उत्तम वास द्रव्य, धूप, सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, आभूषण युक्त, रमणिज्जारज्य-गैय-पसर • नानक-जल्ल-मल्ल-मुद्विक- रमणीय वाद्यावनि, गायन, प्रवर नट नाचने वाले, रस्सी देलंयग-कहग-पग-सासग-आइक्याम-संख-सुख-तूणइल्ल-संब- पर खेल दिखलाने वाले, कुश्तीबाज, मुक्केबाज, विदूषक, कहानी मौणिय-सालापर-पकरणाणि परहणि महर-सर-गीय- सुनाने वाले, उछलने वाले, रास गाने वाले या रासलीला करने सुस्मराई वाले, शुभाशुभ बताने वाले, ऊँचे बांस पर खंस करने वाले या चित्रमय पट्ट लेकर भिक्षा मांगने वाले, तूण नामक वाद्य बजाने वाले, बीणा बजाने वाले, एक प्रकार के ताल बजाने वाले, इन सबकी क्रीड़ाएँ गायकों के नाना प्रकार के मधुर ध्वनि बाले गीत एवं मनोहर स्वर, अन्नाणिय एवमादियाणि सव-संजम-यंभचेरचासोवातियाई इस प्रकार के अन्य विषय, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का अणुचरमाणेणं बरं न ताई समग सम्मा यमको पात उपघात करने वाले है, उन्हें ब्रह्मपयंपासक श्रमण को देखना - सुभरि । नहीं चाहिए, इन से सम्बद्ध वार्तालाप नहीं करना चाहिए और पूर्व काल में जो, देखे-सुने हों उनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२-६४३ पाँचवाँ भावना विकारवाईत आहार निषेध एवं पुण्य- पुरुषको लिय- विरसि-समितिजोगेणं भाविमो मगह इस प्रकार पूर्वर-पूर्वीवितविरति समिति के योग से अंतरावर-गाममे जितिए राति अनाःकरण वाला ब्रह्मचर्य में अनुरक्त पित्त वाता जितेन्द्रिय, साधु ब्रह्मचयं से गुप्त (सुरक्षित) होता है । पौषयी भावना विकारवर्धक आहार निषेध -र-ह-सप-नवनीयम पंचमा भावणा पणीयाहार विवज्जणया ६४३. पंचमहारथी-नि-विएस साह ६४३. स्वादिष्ट, परिष्ट एवं स्निग्ध (चिकनाई वाले) भोजन का त्यांनी संयमशील-सुखा दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खाण्ड, मिसरी, मधु, मद्य, मांस, खाद्य – पकवान और विगय से रहित आहार करे । मज्ज-मंसखज्जक विगति-परिचतकयाहारे नितिनं, न सायसूपा हि न शयं । "सहा तजह से सामावा" नथ भवइ विग्भभो, न संसणा य धम्मस / एवं पीपाहार विरति समितिजोगेच भाविनंत रा आरविश्यामनिदिए भरते। २. ४६-१२ उपसंहारो एवमिगं संजरस वारं सम्यं संबधि होइ सुपणिहियं । हमे चाहि चरि विं आम मतिमया । एसो जोगो पेयभ्यो वितिमया अगासको अकलुसो अच्छिदो अपरिसावी असं किलिडो सुद्धो सदक्षिणमा । पारियाचार एवं च संरबार कासिवं पालियंसोहि तरियं किट्टिय जागाए अनुपालियं भव । [४२७ एवं नायमुनिना मगनमा पद्मवियं परुवियं सिद्धं सिद्धवर सासनमिनं आमवियं सुदेसिय पसरथं । सिमि । वह दकारक इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला आहार न करे। दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए। न दाल और व्यंजन की अधिकता वाला और न प्रचुर भोजन करे। "साधु उतना ही हित-मित आहार करे जितना उसकी संयम यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो ।" जिससे मन में विभ्रम चंचलता उत्पन्न न हो और धर्म (ब्रह्मचर्यव्रत) से व्युप्त न हो । इस प्रकार प्रणीत आहार की विरति रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त विश्वासा और मैथुन से विरत साधु नितेन्द्रिय और बहान सुरक्षित होता है । उपसंहार— इस प्रकार ब्रह्मचर्यव्रत रूप यह संवरद्वार सम्यक् प्रकार से संत और सुरक्षित होता है मन, वचन और काम न तीनों योगों से परिरक्षित इन (पूर्वोक्त) पाँच भावना रूप कारणों व आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए । से यह संवरद्वार आसव से रहित है और भावछिद्रों से रहित है। इससे कर्मों का मासव नहीं होता है। यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार विधिपूर्वक गंभीकृत पालित, अरित्याग से निर्दोष किया गया, पार किनारे तक पहुँचाया हुआ दूसरों को उपदिष्ट किया गया. आराधित और तीर्थंकर भगवान् की आशा के अनुसार अनु पानित होता है। ऐसा ज्ञात मुनि भगवान् (महावीर ) ने कहा है, युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध जगद्विश्यात है, प्रमाणों से सिद्ध है । १.सु. २. ४. १२ यह स्थित सिद्धों बानों का ज्ञान है। सुर नर आदि की परिषद में उपविष्ट किया गया है और मंगलकारी है। ऐसा मैं कहता हूँ। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ वरणानुयोग ब्रह्मवयं को नौ मस्तियां सूत्र ६४४-६४५ बंभचेरस्स णय अगुत्तिओ - ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियां५४४. गव वभोर मगुप्तीमी पण्णत्ताओं, सं जहा ६४४. ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियाँ या विराधनाएँ कही गई हैं। जैसेणो बिविलाई स्यणासगाई सेभित्ता भवति जो ब्रह्मचारी एकान्त में शयन-आसन का सेवन नहीं करता, १. इत्योसंसत्ताई पसुसंसप्लाई पंजससाई। (१) किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और नपुंसकस सक्त स्थानों का सेवन करता है। २. इत्थीण कह कहेता भवति । (२) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों की कया करता है तथा स्त्रियों में कथा करता है। ३. इस्विडाणाई सेवित्ता भवति । (8) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन करता है। ४. इत्थीणं इंबियाई मणोहराई मणोरमाई आलोसा (४) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर और मनोरम इन्द्रियों मिनमाइता भवति । को देखता है और उनका चिन्तन करता है। ५. पणीपरसभोई भवति । (५) जो ब्रह्मचारी प्रणीत रस वाला भोजन करता है। ६. पाणभायणस्स अमायमाहारए सपा भवति । (६) जो ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में बाहार-धान करता है। ७. पुम्वरय पुषकोलियं सरिता भवति । (७) जो ब्रह्मचारी पूर्वभुक्त भोगों और क्रीड़ाओं का स्मरण करता है। ८. सहानुवाई वाणुवाई सिलोगाणुवाई भवति । (0) जो ब्रह्मचारी मनोश शब्दों को सुनने का, सुन्दर स्पों को देखने का और कीति-प्रशंसा का अभिलाषी होता है। है. सायासोबरन यानि भवति ।' ६. जो ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुख में प्रतिपर ठाणं. अ., मु. ६६३ होता है। बंभचेरस्स गव गुत्तिो ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां६४५. णव अंमचेरगुतीओ पग्णताओ, तं जहा ६४५, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ (बा) कही गई हैं। जैसेविनिताई सपणासणाई सेवित्ता मति प्रह्मचारी एकान्त में शयन और आसन करता है, १.णो इरिथसंसप्ताई पो पसुसंसत्ताई णो पंरगसंसप्ताई। (१) किन्तु स्त्रीसंसक्त, पशुसंसक्त और नपुंसक के संसर्ग वाले स्थानों का सेवन नहीं करता है। २. जो इत्थी कहकहेला भवति । (२) ब्रह्मचारी स्त्रियों की कया नहीं करता है व स्त्रियों में कथा नहीं करता है। ३. णो स्थिठाणाई सेविता प्रवति । (३) ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन नहीं करता है। ४. गो इत्यामिवियाई मणोहराई मगोरमाई मालोइत्ता (४) ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को निज्मादसा भवति । नहीं देखता है और चिन्तन भी नहीं करता है। ५. गो पणोतरसभोती भवति । (५) ब्रह्मचारी प्रणीत-रस-धृत-तेलबहुल भोजन नहीं करता है। ६. को पागभोयणस्स अतिमातमाहारए सया प्रयसि । (६) ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में आहार-पानी नहीं करता है। ७. जो पुण्यरत पुग्मकीलियं सरेसा भवति । (७) ब्रह्मचारी सदा पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों और स्त्री क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करता है। ८. गो सहाणवाली गो स्वाणुवाती को सिलोगाणुवातो (क) मह्मचारी मनोश शब्दों को सुनने का, सुन्दर रूपों को मयति । देशाने का और कीर्ति-प्रशंसा का अभिलाषी नहीं होता है। ८. गो साहसीक्वंपरिबरे याधि प्रवति । (३) ब्रह्मचारी सातावेदनीय-जनित सुस में प्रतिबद्ध-आसक्त -ठाणं. अ. सु.६६३ नहीं होता है। १ समासु०१॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह महाबत आराधन को प्रतिमा चारित्राचार २६ पंचम अपरिग्रह महानत अपरिग्रह महावत की आराधना-१ अपरिग्गहमहव्यय आराहण-पहण्णा अपरिग्रह महाव्रत आराधन की प्रतिज्ञा६४६. अहावरे पंचमे भंते ! महन्वए परिहाओ रमणं । ६४६. भरते ! इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती है। सम्वं भते! परिग्गडं पच्चरक्षामि-से गामे या गगरेषा भन्ते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है। अरणे वा अपंगा बहं या अणुं वा घृतं वा वित्तमंतं वा जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में, अल्प या बहत, सूक्ष्म मचित्तमंतं वा । या स्थूल, सबिन या अचित्त । (से व परिम्गहे चबिहे पण्णत्ते) तं बहा, (परिग्रह के चार प्रकार हैं यथा१. बवमो, २. सेतो, काममओ, ४. मावओ। (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से, १. सम्बो सववव हि (१) द्रव्य से सर्व द्रव्य सम्बन्धी २.बेतमो सम्बलोएहि, (२) क्षेत्र से सर्व लोक में ३.कासओ क्यिा वा राशे वा, (३) काल से दिन में या रात्रि में ४. मावभो अप्पाघे वा महाधे वा।) (४) भाव से अल्प मूल्य वाली वस्तु हो या बटुमूल्य वाली) मेव समं परिणाहं परिगण्हेज्जा, नेवन्नहि परिसगह परिगेहा- किसी भी परिग्रह का ग्रहण में स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से बेजा, परिगहं परिगरते वि अन्ने न समणुजाणेग्जा' परिग्रह ग्रहण नहीं कराऊँगा और परिग्रह ग्रहण करने वालों का माबजावाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न अनुमोदन भी नहीं करूगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन करेमि म कारवेमि करत पि अन्नं न समजाणामि । योग से--मन से, बचन से, काया से-न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भन्ते । परिरकमामि नियमि गरिहामि अप्यागं भन्ते ! मैं अतीत के परिग्रह से निवृत्त होता है, उसकी बोसिरामि । निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा से परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ। पंचमें मात! महावर उवट्रिओमि सम्बाओ परिग्गहामो भन्ते ! मैं पांचवें महावत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्व बेरमणं । -दस. अ. ४, सु. १५ परिग्रह की पिरति होती है। अपरिग्गहमहब्वयस्स पंच भावणाओ अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ६४७, महावरं पंचमं मन्ते । महम्वयं सम्बं परिगह पश्चापखामि । ६४७. इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महावत में सब से अस्प बा, मा , अणु वा, धूलं वा, चित्तमंत वा, प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। मैं थोड़ा या बहुत सूक्ष्म अचित्तमंत वा, णेव सयं परिग्गडं गेण्हेज्जा, णेवणेणं परि- या स्थूल, सचित्त या अचित किसी भी प्रकार के परिग्रह को ग्गहं गेम्हानेमा, अजं वि परिगह गेहतं न समजाज्जा स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा और न जावज्जीवाए तिविह सिविहेण मणसा बपसा कायसा तस्स परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूंगा। इस प्रकार मैं मन्ते ! परिकमामि निवामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरानि। यावज्जीवन तीन करण तीन योग से, मन से, वचन से, काया से, परिग्रह से निवृत्त होता हूँ। हे भगवन् ! उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ, अपनी आत्मा से परिग्रह का त्याग करता हूँ। १ सूय. सु. २, अ० १, सु. ६५५ । २ घण-धन्न-पेसवग्गेसु, परिगरिबम्जणा । राब्बारंभपरिश्चाओ, निम्ममस सुदुक्करं । -उत्त० अ०१६, मा०३. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.) परगानोग. अपरिग्रह महावत की पांच भावना मंत्र ६७ तसिमामो पंच मावनाओ अति उस पंचम महावत की पांच भावनाएँ ये हैपढमा भाषणा-सोइंदियसंजमो प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय संयम१. तत्थिमा पदमा मावणा-सोततो जीवे मगुग्णामणु- उसमें प्रथम भावना श्रोत्र (कान) से यह जोर मनोश तथा ण्णा सहाई सुगंति, मणुण्णामणुहि स हि गो लग्जेम्जा, अमनोज्ञ शादों को सुनता है, परन्तु वह उसमें असक्त न हो, राग जो र उजा, यो पिज्जा , णो युजरला गो अग्लोवव- भाव न करे, गूद न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे, जोज्जा, पो बिगिषायमावज्जेज्जा। राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव को नष्ट न करे। केवली पूया-निग्गये गं मणुष्प्यामणण्यहि सहि सम्जमाणे केवली भगवान् ने कहा है -जो साधु मनोश-अमनोज शब्दों आव-विणिघायभावम्बमाणे संतिभेदा संतिषिमंगा संति- में आसक्त होता है-पावत्-राग द्वेष करता है वह शान्ति बलिपग्णतामओ धम्माओ मंसेग्मा। का चारित्र को भंग करता है, शान्ति रूप अपरिग्रह महाबत को भंग करता है, शान्ति रूप केवलीप्रशप्त धर्म से प्रष्ट हो जाता है। गाहा- सबका ण सोज, सदा सोत्तस्सियभागया। गाथार्थ-कर्ण-प्रवेश में आये हुए शब्दों का अवम न करना राग-दोसा उजेतस्थ, ते भिमलू परिवजए। शक्य नहीं है किन्तु उसके सुनने पर राम-नष की उत्पत्ति होती है, भिक्ष उसका परित्याग करे। सोततो जीको मगुणामणुण्णाईसहाई पुति पक्षमा मावणा। अतः श्रोत्र से जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनता है । यह प्रथम भावना है। नितिया भावणा-चक्युरिदियसंजमो द्वितीय भावना-परिणिय संयम२ अहावरा बोण्या मावणा-घतो मीयो मगुणामणुगाई अब दूसरी भावना पशु से जीय मनोश-अमनौर सभी प्रकार बाई पासति, मणपणामणुग्णाई कहिं णो सम्जेम्जा-जाव. के रूपों को देखता है, किन्तु साधु मनोश-अमनोश रूपों में गो विणिमासमावस्जेजना । आसक्त न हो-याषत्-राग-द्वेष करके अपने आरमभाव को नष्ट न करे। केवली ब्या-निगवे गं मणुग्णामणण्णाई सहि सज्जमाणे केवली भगवान् ने कहा है-जो निम्रन्थ मनोश-अमनोश जाव-संति केवलिपण्णत्ताओ धम्मामो भंसेज्जा। रूपों को देखकर आसक्त होता है-यावत्-शान्ति रूप-केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा- सरका रूबमबई, वस्खूषिसयमागतं । गाथार्थ-नेत्रों के विषय बने हुए रूप को न देखना तो राग-बोसा उ मे सघ, ते मिक्खू परिवग्जए॥ शक्य नहीं है, वह दिख ही जाता है किन्तु उसके देखने पर जो राग-नुष उत्पन्न होता है भिक्षु उनका परित्याग करे अर्थात् उनमें राग-देष का भाव उत्पन्न न होने दे। असतो जीमो मणुषणामपुण्याई बाई पासति सि वोपचा अतः नेत्रों से जीव मनोज्ञ अमनोज्ञ रूपों को देखता है, यह भाषणा। दूसरी भावना है। ततिया भावणापाणिदिय संजमो तीसरी भावना-प्राणिनिय संयम३. अहाबरा सच्चा मावणा अब सीसरी भावना, घाणतो जीवो मण्णुणामणुग्णाई गंधाई अग्धाति मणण्णा- नासिका से जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों को सूचता है, मणुण्यहि मधेहि जो सम्जेज्या-जाव-विपिघाय-मावग्जेमा किन्तु भिक्ष मनोज और अमनोश गन्ध पाकर सस्त न हो -यावत् राग द्वेष करके आत्मभाव का नाश न करे। केवली पा-ममुण्णाभणुहि गंधेहि सम्ममाने-जाव-संति केवली भगवान् ने कहा है जो निग्रन्थ मनोश या बमनोज चतिपण्णत्तानो धम्मामी असेक्वा । गंध पाकर आसक्त होता है-पान--वह शांतिरूम केवनि प्रकपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १४७ अपरिग्रह महावत की पांच भावना चारित्राचार - गाहा-सा गंधसघाउं. गासाविसमाग । गाथार्थ-ऐसा नहीं हो सकता कि मासिका - प्रदेश के राग-दोसा 3. सत्य, ते भिक्खु परिवज्जए॥ सानिध्य में आये हुए गन्ध के परमाणु पुद्गल सूपे न जाए, किन्तु उनको संघने पर जो उनमें राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिशु उनका परित्याग करे। चानतोनी मणणामगुणाई गंधाइ अग्यायति ति सच्चा अतः नासिका से जीब मनोज-अमनोज्ञ सभी प्रकार की गन्धों मागी। को सूंघता है, यह तीसरी भावना है । चहरयाभावणा--जिपिदिय संजमो-- चौथी भायना-जिहन्द्रिय संघम४. महापरा त्या भाषणा-जिम्मातो जीवो मणुपणाम- अब चौथी भावना जिह्वा से जीव मनोश-अमनोग रसों का गुग्गाई रसाई असारेति मगुग्णामगुग्णाई रसेहिं णो आस्वादन कराता है, किन्तु भिजु को चाहिए कि वह मनोश अमसम्बना-जाव-पो विषिपातमावमा। नोज्ञ रसों में आसक्त न हो,-यावत् --राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश न करे। बली या निगये णं मणुणामणुनहि रसेहिं सज्ज- केवली भगधान ने कहा है-जो निग्रंन्ध मनोश-अमनोज रसों माणे-जाव-संति केलिपग्माताओ धम्माओ मसेमा । को पाकर आसक्त होता है-यावत्-बह शान्तिरूप केबली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा-- सक्का रसमणासान, जोहाविसयमागतं । गायाथ-ऐसा तो हो ही नहीं सकता फि जिहाप्रदेश पर __राग-दोसा उजे तत्थ, ते भिक्षु परिवग्जए ।। रस आए और वह उसका आस्वादन न करे किन्तु उन रसों के अति जो वष उत्पन्न होता है भिक्षु उसका परित्याग करे । माहातो कीवो मगुणामणुगाई रसाई असावेति ति घजत्था अतजिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोश सभी प्रकार के रसों मावणा। का आस्वादन करता है, यह चौथी भावना है। पंचमा भावणा-फासिदिय संजमो पंचम भावना स्पर्शन्द्रिय संघमअहावर। पंचमा भावणा अब पांचवी भावना कासातो जीवो मगणामपणेहि फासेहि णो सम्जेज्ना-जाव- स्पशेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन को विणियातमावग्जेण्डा। (अनुभव) करता है किन्तु भिक्षु उन मनोजामनोश स्पर्शों में आसक्त न हो,-यावत्-राग-द्वेष करके अपने बारममाष का नाश न करे। केवली श-निग्येणं मणुगामधुणेहि फासेहि सन्जमाणे केवली भगवान ने कहा है-जो निन्थ मनोश-अमनोज जाव-संति केवलिपाणलामो धम्माओ भंसेजा। स्पशों को पाकर आसक्त होता है यावत् वह शांतिप्रिय केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। गाहा ग सफा ग संवेहेतु फासं विसयमागतं । गाथार्ष---स्पर्शेन्द्रिप के विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का राग-दोसा र थ से भिवपरिमज्जए । संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है अतः भिक्षु उन मनोज-अमनोज स्पर्थो को पाकर उनमें उसन होने वाले राग या द्वेष का परित्याग करता है। कासातो जोपो मणुज्यामणुष्णाई फामाई परिसंवेवेति ति अत. स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक प्रकार के स्पों पंचमा मावणा। का सवेदन करे, यह पाचवी भावना है। समवायांग सूत्र में पंचम महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं१.थोपेन्द्रिमरागोपरति, २. चक्षुरिन्द्रियरायोपरति, घ्राणन्द्रियरागोपरति, ४. रसनेन्द्रियरागोपरति, ५. स्पर्शन्द्रियरागोपरति । - सम. स. २५, ४.१ प्रश्नव्याकरण सूत्र में पांच भावनाएं आचारांग सूत्र की तरह ही हैं। -पण्ह सु०२. अ०५, सु. १३-१६ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] वरणानुयोग अपरिग्रह महावत को पारप को रुपमा पूष ६४८-६४६ एताव साव महावए सम्म काएग फासिते पालिसे सीरिए इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा किट्टिते मट्टिते आणाए आराहिते यावि भवति। स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक स्पर्श कर उसका पालन करे, स्वीकृत महावत को पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाजा के अनुरूप आराधक हो जाता है। पंचम भंते ! महत्वयं परिम्गहाभो मेरमणं । भगवन ! यह है-परिग्रह-विरमणरूप पंचम महाव्रत । -आ. सु. २, अ. १५, सु. ४८.७६१ अपरिगहमहब्वयस्स पारपोषमा अपरिग्रह महानत को पादप की उपमा - ६४८. जो तो वीरवर बयण-विरति-पवित्यर-विहप्पकारो सम्मत ६४८. थी वीरवर-महावीर भगवान् के वचन–प्रदेश से की विसुद्धो मूलो। गई परियह निवृत्ति के विस्तार से यह संवरबर-पादप अर्थात् अपरिग्रह नामक अन्तिम संवरद्वार बहुत प्रकार का है। सम्यग् दर्शन इसका विशुद्ध-निर्दोष मूल है। घिति कन्दो। धृति-चित्त की स्थिरता इसका कन्द है। विजय बेहो। विनय हसकी वेविका-चारों ओर का परिकर है। मिग्मत-तिलोक्क-विपुल-जस-निविट-पीण-पवर-सुजात खंधो। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन महान सुनिर्मित स्कन्ध (तना) है। पंचमहस्वय-विसाल सालो। पांच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भाषण तयंत अनित्यता, अपारणता आदि भावनाएं इस संवर वृक्ष की स्वधा है। माण-सुभोग-नाण-पल्लववरंकुरघरो। धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंदरों को यह धारण करने वाला है। बहुगुण कुमुमस सिद्धो। बहुसंख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है। सौल सुगंध यह शील के सोरम से सम्पन्न है। अणहब फलो। यह संबरवृक्ष अनामव कर्मास्रव के निरोध रूप फलों वाला है। पुगो य भोक्खबर बीजसारो। मोक्ष ही इसका बीजसार-मीजी है। भंवरगिरिसिहर-चूलिका इव मोक्खवर मुत्तिमनगरस सिहर- यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूतिका के समान मोक्ष-कर्म भूओ संबरवरपादपो। .-पह. सु०२, १०५, सु०२ क्षय के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है। इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवर रूपी जो स है, दह अन्तिम संसरदार है। अपरिगाह महस्वय-आराहगस्स अकप्पणिज्जाई दबाई-- अपरिग्रह महाव्रत आराधक के अकल्पनीय द्रव्य६४६. जस्य न कप्पा गमापर-नगर-खेड-कबड-महंब-वोणमुह- ६४६. ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मंडब, द्रोणमुख, पत्तन पणाऽऽसमगयं च । किचि अप्पं वा, बढ़ा , अणुं वा, यूलं अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो. चाहे वह अल्प बातम-थावरकायदबजायं मणसा वि परिघेत्तुं । मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो बधश बड़ा हो, वह उसकाय-शंख आदि हो या स्थावरकाय-रत्न मादि हो, उस द्रव्य समूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, अर्थात् उसे ग्रहण करने की इच्छा करना भी योग्य नहीं है । महिरण-सुवण्य-क्षेस-रघु । चाँदी, सोना, क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान दुकान आदि) भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकार-वर्धक माहार करने का निषेध चारित्राचार [४३३ न रासी-सास-मयक-पेसहय-गय-गबेलगं च । दासी, दास, भृत्य-नियत वृत्ति पाने वाला सेवक, प्रेष्यसंदेश ले जाने वाला सेवक, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। यान- रथ, गाड़ी और युग्य-डोली आदि, शयन और छत्र-छाता आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न न जाण-सुग्ग-सयगाइने छत्तक, न कुंजिया, न उवाणहा । जूता, न पेटण-वीयण-तालियंटका। न मोरपीछी, न वजनापंखा और तालवृन्त---ताड़ का पंखा ग्रहण करना कल्पता है। नयावि अय तज्य तंब-सीसफ-कंस-रयत-जातरूष-मणि-मुत्ता- लोहा, पु, तांबा, सीसा, कासा, चांदी, सोना. मणि और घार-पुरक-संख-वंत-मणि-सिंग-सेल काय-वरचेल-धम्म-पत्ताई. मोती का आधार सीपहम्पुट, शंख, उत्तम दांत, सींग, शैलमहरिहाई, परस्स अमोबवायलोम जणणाई परियोउं पाषाण, असम कांच, वस्त्र और चमड़ा और इनके बने हुए पात्र गुणवओ। भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । ये सब मूल्यवान पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा तथा लोभ उत्पन्न करते हैं, उन्हें खींचना, अपनी ओर झपटना बढ़ाना या जतन से रखना मूल-गुणादि से युक्त भिक्षु के लिए उचित नहीं है । म यावि पुष्क-फल-कंद-मूलावियाई, सण-सत्तरसाई, सध्य- इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सनादि सग्रह धन्नाई तिहि वि जोगेहि परित्तु ओसह मेसज्ज मोयणट्टयाए प्रकार के धान्य ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रहत्यागी साधु संजए। औषध, भेषज्य या भोजन के लिए त्रियोग मन, वचन, काम से मग न करे। प०--कि कारण? प्र०-नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है? उ.-अपरिमित-पाण-दसणधरेहि सीलगुण-विगय-सव- स- अपरिभित-अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील संजम-नायकेहि नित्ययरेहि समयजगज्जीव-पच्छले हि चित्त की शान्ति, गुण-अहिंसा आदि, विनय, तप और संयम तिलोयहिएहि जिणवारदेहि एस जोगी कंगमाणं के नायक, जगत् के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने बिहार बाले, त्रिलोक-पूजनीय, तीर्थकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि-उत्पत्ति स्थान है। न कप्पड खोणी-समुल्छ वो तेग बज्जति समणसीहा। योनि का अचछेद-विनाश करना योग्य नहीं है। इसी कारण भ्रमणसिंह- उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं। जंपि य ओवण-कुम्मास-गंज-तप्पण-संघ-मुग्जिय-पलल- और जो भी ओदन-कर, कुल्माष- थोडे उबाले उड़द तप सबकुलि-वेतिम-घरसरक-चुन-कोसग-पिंड-सिंह- आदि, गंज-एक प्रकार का भोज्य पदार्थ, तर्पण सत्तू, मधुरिणि-वट्ट-मोयग खीर-वहि-सप्पि-नवनीत तेल्ल-गुल- बोर आदि का चूर्ण- आटा, भूमी हुई धानी-साई, पलल तिल घर-मभडिय-मधु-मम्ज-मंस धज्जक-वाण-विधिमा- के फूलों पिष्ट सूप-दाल पष्कुली-तिलपपड़ी, देष्टिम- जलेबी, विकं पणीयं उबस्सए परघरे व राने न कप्पति, तंकि इमरती आदि. बरसरक नामक भोज्य बस्तु, चूर्णकोश-खार सन्निहि फाउं सुविहियार्थ। विशेष, गुरु आदि का पिण्ड. शिखरिणी-दही में शक्कर आदि --पहल सु० २. अ०५, मु. ३-४ मिलाकर बनाया गया भोज्य---श्रीखण्ड, बट्ट-बड़ा, मोदक लड्डू, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खांड, मिश्री. मध, मद्य, मांस और अनेक प्रकार के व्यंजन - शाक, छाछ आदि यस्तुओं का उपाश्रय में या अन्य किसी के खर में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, शोभन आचार बाले साधुओं को । संचय करना नहीं कल्पता है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] परणानुयोग अपरिग्रही पुत्र ६५०-६५३ अपरिग्रह महावत के आराधक-२ अपरिगही अपरिग्रही६५७. आवंसी के आवंती लोयंति अपरिगहायती एएसु चैव अप- १५०. इस जगत में जितने अपरिग्रही हैं वे पदाथों (वस्तुओं) में रिग्गहावंति। -आ.सु. १,अ.५, सु. १५७ (मूर्यान रखने और उनका संग्रह न करने के कारण) अपरि अपरिग्गही समणस्स पउमोषमा अपरिग्रही श्रमण को पद्म की उपमा ६५१. बोछिन्य सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं । ६५१. जिस प्रकार शरद्-ऋतु का कुमुद (रक्त कमल) जस में से सम्बसिहजिए, समय गोयम ! मा पमायए॥ लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का पिछछेदन कर निलिप्त बन । हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । सम्बे एगंतपंडिया सम्वत्थ समभावसाहमा - सभी एकान्त पण्डित सर्वत्र समभाव के साधक होते हैं६५२. जहा अंतो तहा माहि. जहा बाहिं तहा अंतो । ६५२. (यह देह) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा शहर है वसा भीतर है। अंतो अंतो पूतिबेहतराणि पासति पुढो दि सताई। इस शरीर के भीतर अशुद्धि मरी हुई है, साधक इसे देखें। पंडित पडिलेहाए। देह से करते हुए अनेक अशुचि स्रोतों को भी देखें । इस प्रकार पंडित पुरुष शरीर की अशुचिता (तथा काम-विपाक) को भली भाँति देखें। से मतिमं परिणाय मा य लाल पच्चाप्तो। मा तेसु वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्याग तिरिच्छमप्याण भावासए । कर लार को न चाटे-वमन किये हुए भोगों को पुनः सेवन न -आ. सु. १, अ.२, उ.५, सु. १२ करे । अपने को तिर्यक मार्ग में (काम-भोग के बीच में अथवा ज्ञान-धारित्र से विपरीत मार्ग में) न फंसाए । सम्वे वाला आसत्ता सध्ये पंडिया अणासत्ता सभी बाल जीव आसक्त है, सभी पण्डित अनासक्त है६५३. आलाकमेव निकाममोणे, । ६५३. जो साघु आघाकर्म आदि दोषदूषित आहार की कामना निकामसारी य विसण्णमेसी । करता है, जो निमन्त्रण पिंड आदि आहार की गवेषणा करता है, इस्मीसु ससे य पुढो यराले, वह (पावस्थ आदि कुशीलों के) मार्ग की गवेषणा करता है जो परिग्गहं व पकुल्यमाणे ।। स्त्रियों के विलास आदि अलग-अलग हास्य में आसक्त होकर परिग्रह का संचय करता है। बेशयुगिसे शिवयं करेति, (परिग्रह अर्जन के निमित्त) प्राणियों के साथ जन्म-जन्मातर इतो चुते से बुहमट्टदुग्गं । तक वैर में एक होकर वह पाप कम का संचय करता है। वह तम्हातु मेधावि समिक्ख धम्म, यहां से व्युत होकर दुःखप्रद स्थानों में जन्म लेता है। इसलिए बरे सुणी सम्बतो विष्पमुस्के॥ मेधावी मुनि धर्म की समीक्षा कर सब ओर से सर्वथा विमुक्त होकर संयम की चर्या करे। मायं न कुना र जोषितट्ठी, साधु इस लोक में चिरकाल सक जीने की इच्छा से आय असम्जमायो य परिक्वएमा। (म्योपार्जन या कर्मोपार्जन) न करे, तथा स्त्री-पुत्र आदि में जिसम्ममासी रविणीय गिविं, अनासक्त रहकर संयम में पराक्रम करे । साधु पूर्वापर विचार हिसपिणतं वा ण कह करेजा ॥ करके कोई बात कहे । शब्दादि विषयों से आसक्ति हटा ले सया -सूय. सु.., अ.10, गा.-१० हिसायुक्त कथा न कहे। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनासक्त ही मरण से मुक्त होता है पारिभाधार ४३५ अणासत्तो एव मरणा मुच्चा अनासक्त ही मरण से मुक्त होता है६५४. रामन्यु वसोवणीत गरे सततं दे धम्मं पाभिजाणति । ६५४. बुढ़ापे और मृत्यु के दश में पड़ा हुआ मनुष्य (देहादि की पातिय आतुरे पामे अप्पमसो परिवए। आसक्ति से) सतत मूह बना रहता है। वह धर्म को नहीं जान सकता । (आसक्त) मनुष्यों को शारीरिक-मानसिक दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे । मंता एवं मतिमं पास, हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन प्राणियों को देख । आरंभ क्समिणं ति णबा, यह दुःख आरम्भजण्य (पाणी) हिसाजनित है, यह जानकर तू-अप्रमत्त बन) मायी पमायो पुगरेति गम्म। मायरी और प्रमादी मनुष्य बार-चार जन्म लेता है। उवेहमाणो सह-सवेमु अंजू माराभिसकी मरणा पमुख्यति । शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है-(राय-आ. सु. १, अ. ३, उ. १, सु. १०८ ष नहीं करता है) वह ऋज़ होता है जो मृत्यु के प्रति सथा आशंकित (सतक) रहता है और मृत्यु (के भय) से मुक्त हो जाता है। अचासत्तो एव सव्वहा अहिसओ प्रवद आसक्त ही हमेशा अहिंसक होता है१५५. आसेषिता एएमळू इच्चेवेगे समुड़िता। ६५५. कई व्यक्ति असंयम का आचरण करके अंत में संयमसाधना से संलग्न हो जाते हैं अतः वे पुनः इसका सेवन नहीं करते हैं। सम्हात विदर्य मासेवते णिस्सारं पासिय गागी। हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू केवल मनुष्यों के जषवाम चयणं णया, अणण्णं पर माहले। ही जन्म-मरण नहीं) देवों के उपपात (जन्म) और व्यबन (मरण) निश्चित हैं, वह जानकर हे महान् ! तू अनन्य (संयम या मोक्ष मार्ग) का आचरण कर। से ण छगे, म छणापा, छर्गत पाणुजापति । वह (संयमी मुनि) प्र.णियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे। गिम्बिर वि अरसे पयासु । तु (कामभोपजनित आमोद-प्रमोद से विरक्त होकर) स्त्रियों में अनुरक्त मत बन । अगोमवंसी पिसरणे पावहि कम्महि । परम उच्च को देखने वाला पाप कमों में उदासीन रहता है। -आ. सु. १, अ. ३, उ. २, मु. ११३ कामभोगेसु अगिडो णियंठो कामभोगों में अनासक्त निर्ग्रन्थ६५६. मण्णातपिशेणऽधियासएग्जर, नो पूपणं तवसा आवहेज्जा। ६५६. मुनि अज्ञातपिण्ड (अपरिचित घरों से लाये हुए सदेहिबेहि असण्जमाणे, सध्वहिं कामेहि विणीय गेहि ।। भिक्षान) में अपना निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा अपनी पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा न करे, शब्दों और रूपों में अनासक्त रहता हुआ समस्त काम-भोगों से आसक्ति हटाये । सम्बाई संगाई मान्य धीरे, सम्या बुरखा तिसिमयमाणे। घीर साधक सर्वसंगों को त्याग कर, सभी दुःखों को सहन अखिले अगि मणिएपचारी, अभयंकरे भिक्षू अमाविलप्पा ॥ करता हुया वह अखिल (ज्ञान-दर्शन-मारित्र मे पूर्ण) हो, अनासूय. सु. १, ब.७, गा. २७-२८ सक्त (विषयभोगों में अनासक्त हो) अनियतचारी, अप्रतिबद्ध बिहारी (और अभयंकर) जो न स्वयं भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करे (तथा) निर्मल चित्तवाला हो । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ वरणानुयोग स्यागी श्रमणों के लिए प्रभाव का निषेध पूत्र ६५७-६६१ परिश्चाई समणाणं पमाय णिसेहो त्यागी श्रमणों के लिए प्रमाद का निषेध६५७. विच्याण धणं च भारियं, पबइओ हि सि मगगारिय। ६५७. धन और पत्नी का त्याग कर अनगार-वृत्ति के लिए मा बन्तं पुगो वि आदए, समयं मोयम | मा पमापए॥ घर से निकला है. अतः वमन किये हुए कामभोगों को फिर से स्वीकार न कर । हे गौतम | तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । अबउभिनय मित्तबन्ध, विउस चैव धोहसंचर्य। मित्र, बान्धव और विपुल धनराशि को छोड़कर फिर से मातं विदयं गवेसए, समय गोयम | मा पमापए । उनकी गवेषणा मत कर । हे गोतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत -उत्त. अ.१०, गा. २६.३० कर । सलुइरो समणो शल्य को समाप्त करने वाला ही श्रमण होता है६५८. महर पलिगोव जाणिपा, का विय वंदण-पूयणा हहं। ६५८. जो बंदना और पूजा है वह महाकीचड़ है, उसे भी इस सुहमे सल्ले बुबद्धरे, विमं ता पयहेज्न संघवं ॥ लोक मे या जिन-शासन में स्थित विद्वान् मुनि गर्वरूप सूक्ष्म एवं -सूम, सु. १, भ. २, उ २, मा.११ कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य जानकर उस संस्तव का परित्याग करे। चाईणं देवगई त्यागियों की देवगति६५६. गवासं मणिकुंडलं, पसयो वासपोवसं । ५६. गर, गो. मम गुप्ता , पण वारा भोर पुरुष-समूहसम्वमेयं चढ़तागं, कामको भविससि ॥ इन सबको छोड़ । ऐसा करने पर तू काम-क्पी (इच्छानुकूल . -उत्स. अ. ६, मा.५ रूप बनाने में समर्थ) होगा। धीराधमां जाणंति धीर पुरुष धर्म को जानते हैं - ६६.. आसं च छ व विगिव धौरे । ६६०. हे धोर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता (मनमानी) का त्याग कर दे। तुमं चैव तं सल्लमाइट। उस भोगेच्छा रूप शल्प का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जेग सिया तेण गो सिया। जिस भोग सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख भी नहीं होता है । (भोग के बाद दु.ल है।) इयमेव णावयुजति जे-जणा मोहपासका। जो मनुष्य मोह की सघनता से आवृत हैं, हके हैं, वे इस तथ्य को, उक्त आशय को-कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख -आ. सु. १, अ. २, न. ४, सु. ६३ मिलता है, कभी नहीं, वे क्षणभंगुर है, तथा वे ही शस्य (कांटा) __ रूप है; नहीं जानते हैं। घुवचारिणो कम्मरयं धुणंति ध्रुवचारी कर्मरज को धुनते हैं६६१. मायाग मो! सुस्सुस को ! धूतबा पवेदयिस्सामि। हह ६६१ हे मुने! समझो, सुनने की रुचि करो, मैं धृतवाद का बस अत्तताए तेहि है हि कुलेहि अभिसेएण अभिसंभूता अभि- निरूपण करूंगा, इस संसार में आत्मभाव से प्रेरित होकर, उन संजाता अभिणिवट्ठा अभिसंवुड्डा अभिसंबुद्धा अभिणिक्खता कुलों में शुक्रशोणित के अभिषेक-अभिसिंचन से माता के गर्भ में अपुषेणं महामुनी। कललरूप हुए, फिर प्रसव होकर संवद्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध हुए, फिर धर्म श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया। इस प्रकार क्रममाः महामुनि बनते हैं। तं परक्कमतं परिदेवमाणा 'मा णे अयाहि' इति से वति । मोक्षमार्ग संयम में पराक्रम करते हुए उम मुनि के माताछयोवणीता अजमोवषण्णा अपरकारी जणगा क्वति । पिता आदि करुण विलाप करते हुए यों कहते हैं--"तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व है।" इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए वे रुदन करते हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६१-६६३ धामण्य रहित श्रमण पारिवाचार १४३७ अतारिसे मुणी ओह तरए जणगा लेण विष्पमका । जिसने माता-पिता को छोड़ दिया है ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है न ही संसार-सागर को पार कर सकता है।" सरणं तत्थ णो समेति । किह णाम से तत्य रमति । बह मुनि (स्वजनों का विलाप-रुदन सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता। वह तत्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस राहवास) में रमण कर सकता है ? एतं गाणं सया समणुवासेज्मासि । __मुनि इस ज्ञान को सदा (अपनी आत्मा में) अच्छी तरह -आ. सु. १, अ. ६, उ. १, सु. १८१-१८२ बसा ले । सामग्णरहिया समणा श्रामण्य रहित धमण६६२. जे धम्मल विणिहाय भुजे, ६६२ जो भिक्षा से प्राप्त अन्न का संचय कर भोजन करता है, वियोण साहटु य जो सिणाति । जो शरीर को संकुचित कर निर्जीव जल से स्नान करता है, जो जो घोवति लसपती व बत्य, कपड़ों को धोता है उन्हें फाड़कर छोटे और सांध कर बड़े करता अहार से जागणियस्स रे ।। है, वह नागन्य (श्रामण्य) से दूर है, ऐसा कहा है। कम्म परिणाप इगंसि धीरे, जल के सभारंभ से कर्म-बंध होता है, ऐसा जानकर धीर बियडेण मौवेन्म व अविमोक्छ । मुनि मृत्यु पर्यन्त निर्जीव जल से जीवन बिताए । वह बीज, कंद से गोय-कवाति अमुंगमागे, आदि न खाए, स्नान आदि तथा स्त्रियों से विरत रहे। विरते सिणाणाविसु इस्थिवासु ॥ जे मायर पियरे व हेचा, जो माता, पिता, घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर शारं महा पुत पसु । स्वादु भाजपाले कुली की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर कुलाई जे धावति सादुगाई, है, ऐसा कहा है। अहाह से सामणिपस्स रे ।। कुलाई में धाति सादुगाई, जो स्वादु भोजन काले कुलों की ओर दौड़ता है, पेट आधाति धम्म उदराणु गिरे। भरने के लिए धर्य का आख्यान करता है और जो भोजन के महार से मायरियाग सतंसे, लिए अपनी प्रशंसा करवाता है, वह आयं श्रमणों की गुण-संपदा थे लावदज्जा मसगस्स हे ॥ के सौवें भाग से भी हीन होता है। निश्खाम रोणे परभोयषम्मि, जो अभिनिष्क्रमण वर गृहस्थ से भोजन पाने के लिए दीन मुहमंगलिभोरियाणुगिझे। होता है, भोजन में आसक्त होकर दाता की प्रशंसा करता है वह मौवारगिडे व महावराहे, चारे के लोभी विशालकाय सुअर की भाति शीघ्र ही नाश को बदूर एवेहति घातमेव ॥ प्राप्त होता है। अन्नस पाणस्सिहसोइयस्सं, जो इहलौकिक अन्न-पान के लिए प्रिय वचन बोलता है, अगुप्पियं मासति सेवमाणे । पावस्था और कुशीलता का सेवन करता है यह पुआल की भांति पासस्पयं चेव कुसीलयं घ, निस्सार हो जाता है। निस्सारए होति जहा पुलाए ॥ -सूय. सु. १, अ. ७, गा. २१-२६ पंच आसवदाराए पांच आस्रव द्वार६६३. पंच आसवदारा पग्णता, तं जहा ६६३. पांच आसव द्वार बताये हैं, जैसे१. मिश्छतं, २. अविरह, ३. पमाया, ४. कसाया, (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय ५. जोगा। - सम. समवाय ५, सु. १ और (५) योग । XX Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vt=] चरणानुयोग परिणाहरू ६६४. आवंती के आवंती लोगंसि परिग्गहावंसी से अप्पं या बहुं बा अणुं वा पूल बा, वित्तमंत था, अधित्तमं वा एतेसु जेब परिग्रहावंती । एतदेवेति महम्यं प्रति । लोगविसं च णं उबेहाए । एते संगे अविजाणतो परिग्गहपावस फलं दुक्खं६६५. सं परिगिनं दुपर्य उत्पयं अभिभुंजियानं ससिचियाणं तिविग जावि से तत्थ मत्ता भवति अध्या वा, रहुगा वा । - सुमिना एवं पचेवितं । परिग्रह का स्वरूप - ३ से सरथ गवते बिटुलि भोवणाए । तो परिसि संभूतं महोबकरमं भवति । संप से गाया विमति भसहारी वा सहरति बास्तिया से विवस्ततिया से परवाच वासेति । परिग्रह का स्वरूप . . . . ५. १५४ इति से परसद्वाए कुराई कमाई वाले पशुध्यमाने ते वृश्लेण मूढे विपरियास मुवेति । मगोतरा एते गो मोह तरिए ས་་་་་་་ परिग्रह का स्वरूप -- ६६४. इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रह वाले हैं, वे अन्य या बहुत सूक्ष्म या स्थूल, सचित या अत्ति वस्तु को ग्रहण करते हैं। वे इसमें होने से ही परिधान है। परिही परियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधको पहिलोगों के वित्त-धन या नृत (संज्ञाओं) को देखो। जो आतियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है। परियह पाप का फल दुःख ६६५. वह परिग्रह में आसक्त मनुष्य द्विपद (मनुष्य-कर्मचारी) चतुष्पद (पशु आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है । उनको कार्य में नियुक्त करता है। फिर धन का संग्रह-संचय करता है। अपने दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अपनी पूर्वाजित पूंजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि तीनों के सहयोग से) उनके पास अल्प या बहुत मात्रा में धन संग्रह हो जाता है । वह उस अर्थ में आसक्त हो जाता है और भोग के लिए संरक्षण करता है । पश्चात् विविध प्रकार के भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपुल अर्थ सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है । एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दामादबेटे-पोले हिस्सा बंटा लेते हैं, बोर बुरा लेते है, राजा उसे छीन लेते हैं या वह नष्ट विनष्ट हो जाती है तथा गृहदाह के साथ जल जाती है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त होकर सुख को खोज करता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है इस प्रकार वह मूह विपर्यास को प्राप्त होता है । भगवान् ने यह बताया है - ( जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ़ होता है। मूढ़ मनुष्य सुख की खोज में बार-बार दुःख प्राप्त करता है ।) ये सूअर अर्थात् संभार प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते एवं प्रया लेने में असमर्थ रहते हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष ६६५-६६ परिग्रह में आसक्ति का निवेध चारित्राचार ४३६ - - ---- - मतोरंगमा एते गोय तोरं गमित्तए। वे अतौरंगम हैं. तीर-किनारे तक पहूँचने में (मोह कर्म का क्षय करने में) समर्थ नहीं होते। अपारंगमा एते, गो य पार गमिसए। दे अपारंगम है,पार-संसार के उस पार निर्वाण तक) पहुंचने में समर्थ नहीं होते हैं। अश्याणिज्जं . आवाय सम्मि ठाणे - विति। वह (मूद) आदागीय-सत्यमार्ग (संपम पथ) को प्राप्त करके वितह पम्प खेसाणे सम्मि ठामि द्विति ॥ भो उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता । अपनी मूढ़ता के कारण -आ. सु १, अ. २, उ. ३, सु. ७६ वह असत्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। भारपवयं घेव अबुजामागे, आयु-क्षय को नहीं समझता हुआ ममत्वशाली पापकर्म करने ममाति से साहसकारि मंदे। का साहस करता रहता है। वह दिन-रात चिन्ता से संतप्त महो म रातो परितप्पमागे, रहता है। वह मूड स्वयं को अजर-अमर के समान मानता हुआ अट्ट सुपूढे अजरामरख ।। (धन आदि पदाथ) में मोहित रहता है। महाहि वितं पसयो त सम्वे, समाधि का इच्छुक व्यक्ति धन और पशु आदि सब पदाथों बांधवा जेय पिता य मित्ता। का (ममत्व) त्याग करे । जो बान्धव और प्रिय मित्र हैं, वे वस्तुतः मालम्पती सो वि य ए मोह, लोकोत्तर उपकार नहीं करते हैं तथापि मनुष्य उनके वियोग से अन्ने जपा तं सि हरति वितं ॥ शोकाकुल होकर विलाप करता है, और मोह को प्राप्त होता -सूय. सु १, अ. १०, गा. १८-१९ है। (उमके मर जाने पर) उसके द्वारा अत्यधिक कष्ट से उपा जित) धन का दूसरे लोग ही हरण कर लेते हैं। परिगहे आसत्ति णिसेहो परिहकासात निषेत्रपरिरणहामओ अप्पा अवसपणा । परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। अग्णहा गं पाप्लए परिगहेज्जा। जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं उस प्रकार न देखे, अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे। एस मग्गे आरिएहि, पवेविते, जहत्य कुसले गोलिपिज्जासि यह (अनासक्ति का) मागं आर्य-तीयंकरों ने प्रतिपादित सिरेमि। किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो । ऐसा मैं -आ. सु. १, ब. २, उ. ५, सु (ध) कहता हूँ। परिग्गहं महाभयं परिग्रह महाभय६६६. से सुपडिमुवं सुविनियंति णच्या परिसा परमबाखू । विप- ६६६. (परिग्रह महाभय का हेतु है) यह (प्रत्यक्षशानी के द्वारा) रिक्कम एतेसु व अंभोरं ति बेमि । सम्यक् प्रकार से दृष्ट और उपदेशित है। (इसलिए) परमचा-आ. सु. १, अ. ५, उ, २, सु. १५५ मान् पुरुष (परिग्रह-संयम के लिए) पराक्रम करे। परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। परिगहमृत्ति एव मुत्ति-. परिग्रह मुक्ति ही मुक्ति है६६७. [पावरं जंगम देव, धणं धणं उवाखरं । ६६७. (चल और अचल सम्पत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरणपक्षमागस्स कम्मेहि. नाल गुमबाट मोयणे । ये सभी पदार्थ कर्मों से दुख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त -उत्त. म. ६, मा. ५ करने में समर्थ नहीं होते हैं।) परिग्गहेण वुहं अपरिगहेणं सुहं- परिग्रह से दुःख–अपरिग्रह से सुख-- ६६८. धम्मात य पारए मुणी, आरम्भस्स य अंतए ठिए। ६६८, जो पुरुष धर्म का पारगामी है और आरम्भ के भन्न सोपति प प ममारणो, नो बलमंति गियं परिग्गहं॥ (अभाव) में स्थित है, (बही) मुनि है। ममत्वयुक्त पुरुष शा। करते हैं, फिर भी अपने परिग्रह को नहीं पाते। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] वरगानुयोग सुली होने के उपाय का मरूपण सूत्र ६६८-६७१ इए लोगे दुहावह विक, परलोगे य चुहं हाम्हं। परिग्रह इस लोक में दुःख देने वाला है और परलोक में भी विद्धसमधम्ममेव तं, इति विज को गारमावसे ?।। दुःख उत्पन्न करने वाला है, तथा वह विध्वंसक (विनश्वर) -सूप. सु. १, भ. २, मा.-१० स्वभाव वाला है, ऐसा जानने वाला कोन पुरुष गृह-निवास कर सकता है? सुहोवाय परवणं सुखी होने के उपाय का प्ररूपण६६६. आयावयाही चय सोगमल्ल. कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । ६६६. अपने को तपा। सुकुमारता का त्याग कर । काम-विषयछिदाही बोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ बासना का अतिक्रम कर। इससे दुःख अपने-आप अतिक्रांत हो -दस. अ. २, मा. ५ जाएगा । द्वेष भाव को छिन्न कर, राग-माद को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार (इहलोक और परलोक) में सुखी होगा। तहाए लयोवमा - तृष्णा को लता की उपमा-- ६७०. ५०- अन्तोहिपय-संमूया, लया बिटुइ गोयमा ! ६७०, प्रo- "हे गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन एक लता है। फलेह विसमक्खोणि सा उ उदरिया कहं ? ॥ उसके विष-तुल्य फल लगते हैं। उसे तुमने कैसे उखाड़ा ?" उ-त लयं सत्यसो छिता, उद्धरिता समूलिय। उ.-"उस लता को सर्वथा काटकर एवं जड़ से उखाड़कर विहरामि अहानायं मुक्को मि विसमक्खणं ॥ नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। अतः मैं विषफल खाने से मुक्त हूँ।" प०-लया य इइ का वृत्ता, केसी गोयममम्बवी । प्र-केशी ने गौतम को कहा-"बह लता कौन सी है?" केसिमेवं दुबतं तु. गोयमो इणमम्बयो । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा30-अवलम्हा लया वृत्ता, भीमा भीमफलोदया । 30.-"भवतृष्णा ही भयंकर लता है। उसके भयंकर परितमरित्त जहानायं, विरामि महामुणी ॥ पाक वाले फल लगते हैं। हे महामने ! उसे जड़ से उखाड़कर -उत्त. अ. २३, गा. ४५-४८ में नीति के अनुसार विचरण करता हूँ।" अट्टप्लोलुपा दंड समारभति अर्थलोलुप हिंसा करते हैं६७१. अहो य राओ में परितप्पमागे कालाकाससमुट्ठायो संजोगट्ठी ६७१. (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) बह रात-दिन परितप्त अट्ठालोभी वालपे महसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो रहता है । काल या अकाल में (घन आदि के लिए) सतत प्रयत्न करता रहता है। विषयों को प्राप्त करने का इच्छुक होकर वह धन का लोभी बनता है। चोर व लुटेरा बन जाता है। उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है और वह पुनः पुनः शस्त्र प्रयोग (हिंसा व संहार) करता रहता है। से आतबले, से शातबले, से मिसबले से पेच्चखले, से वेवाले, बह आत्मबल (गरीर बन), ज्ञातिबल. मित्र बल, प्रत्य बल, से रायबले, से चोरबले, से अतिथिबले, से किवगवले, से देवबल, राजबल, चोरबल अतिथिबल, कृपणबल और श्रमणसमणवले. बल का संग्रह करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों (उपक्रमों) द्वारा दण्ड (हिंसा) का प्रयोग करता है। इन्वेहि विश्वरूहि कज्जेहि समादाणं, संपेहाए भया कोई व्यक्ति किसी कामना के लिए दण्ड का प्रयोग करता है काउजति, पायमोक्खो ति मण्णमाणे अनुषा आसंसाए। (अथवा किसी अपेक्षा से) कोई भय के कारण हिंसा आदि करता है। कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से (यज्ञ-बलि आदि द्वारा) हिसा करता है। कोई किसी आशा (अप्राप्त को प्राप्त करने की लालसा) से हिंसा-प्रयोग करता है। पुणो। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७१-६७४ समारं एस मग्गे रिएहि पवेबिते जहेत्थ फुसले जोयस पेजासि तिमि । - आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ७२-७४ तं परिणाम मेहादी समारं यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए बऽणं एतेहि सज्जेहि समारंभावे व एते हि स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करनाये वा दिसा करने वाले का अनुमोदन न करें। यह मार्ग गुरु ने तीर्थकरों ने बताया है। कुशल पुरुष इन विषयों में लिप्त न हों। ऐसा मैं कहता हूँ । लोभ- निषेध - सोच-जिसेहो ६७२. कसि पि जो इमं लोपं पडिपुष्णं इलेन इक्करस । तैणावि से न संतुस्से व दुप्पूरए इमे आया ॥ — ताहिर कुटिय तह सवि उवयपत्ते । जहा लामो तहा लोभो लामा लोभी पवई । बोमासकथं हज्जे, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ - उत्त. अ. ८, गा. १६-१७ जीविनकरणे व रोगाके विसपुर ने सहार्दणं संगहजिसेहो जीवनविनानी रोग होने पर भी बोधादि के संग्रह का निषेध ६७२ मंसिम सुविहिपस्त उ रोगायके यवगारंमि ६९३. सुविहित आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले समुत्पन्ने । साधु को यदि अनेक प्रकार के रोग और आतंक (जीवन को संकट या कठिनाई में डालने वाली व्याधि) उत्पन हो जाय । बाल-पित्त या कफ का अतिशय प्रकोप हो जाय, अथवा सन्निपात (उक्त दी या तीनों दोषों का एक साथ प्रकोप ) हो जाए। इसके कारण उज्ज्वल अर्थात् सुख के लेशमात्र से रहित प्रबल, विपुल, दीर्घकाल पर्यन्त कर्कश - अनिष्ट एवं प्रगाढ़ अर्थात् अत्यन्त तीव्र दुःख उत्पन्न हो जाये । वह दु:ख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान (असुख - अनिष्ट रूप हो, परुष (कठोर हो, सलल बलविडल खडग म -- वि महम्मए जीवितकरणे -निषेध सवसरीरपरितारण करे न कपइ तारिसे वि तह अपणो परहस मा ओह-मेल त पाणं च तं पि संनिहिकयं । - पण्ड. सु. २, अ. ५, सु. ७ असणाईण संग्रह-नि सेहो ६७४ तहेब असणं पाण वा विविहं खाइन साइमं लमिता । होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावर जे भिक्खू - दस. अ. १०. गा. ८ समिनिया, सेवमायाए संजए। परखी पलं समादाय, निरवेषखो परिब्वए । सवार [४४१ ६७२ धन्य धान्य से परिपूर्ण वह समूचा लोक भी यदि कोई किसी को दे दे उससे भी वह सन्तुष्ट हीं होला - तृप्त नहीं होता इतना दुष्पूर (लोभाभिभूत) है यह आत्मा । जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे वैसे लोभ बढ़ता है। दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य करोड़ों (स्वर्ण मुद्राओं) से भी पूरा नहीं हुआ। — दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान् भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने बाला हो, रामग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए तथा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता है । अशनादि के संग्रह का निषेध ६७. पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर कल या परसों काम आयेगा इस विधि से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है-वह भिक्षु है । - मंयमीति से लगे उतना भी वहन करेग रखें। पक्षी की भाँति कल की अपेक्षा न रखता हुआ पात्र लेकर - उत्त. अ. ६, गा. १५ भिक्षा के लिए पर्यटन करे । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] परगानुयोग बालजीव र कर्म करते हैं। सूत्र ६७५ ६७६ बाला फूरकम्माई कुव्वंति बालजीव र कर्म करते हैं५७५. ततो से एगया रोगसमुपाया समुप्पज्जति । ६७५. कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में (भोग-काल में) अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। हि वा सठि संवसप्ति से वर्ष एगया णिगया पुलिंग परि- वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकदा (रोगग्रस्त बयंति, सो वा ते णियए पच्छा परिवएग्जा। होने पर) उसका तिरस्कार व निन्दा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निन्दा करने लगता है। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा। हे पुरुष ! वे स्वजनादि तुसे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम पितेसि गातं तापाए वा सरगाए वा । तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है। जाणितु दुपवं पत्तेयं सायं । दुःस्त्र और सुख प्रत्येक आत्मा का अपना अपना है, यह जानकर (इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे)।। मोगामेन अणुसोधति, कुछ मनुष्य, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, दे वार-बार भोग के विषय में ही (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह) सोचते रहते हैं। इहमेगेसि माणवाणं तिविहेप बावि से तत्प पता भवति यहाँ पर कुछ मनुष्यों को (जो विषयों की चिन्ता करते हैं ।) अप्पा वा स्नुषा वा। (तीन प्रकार से) अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ-मात्रा (धन-सम्पदा) हो जाती है। से तस्य गतिते चिट्ठति भोयनाए। बह फिर उस अर्थ-माषा में आसक्त होता है। भोग के लिए उसकी रक्षा करता है। तमो से एगया विपरिसिद्ध संभूतं महोवकरणं मति तं पि भोग के बाद बची हुई दिपुल सम्पत्ति के कारण वह महान् से एगया बायावा विभयंति, अवत्तहारो वा सेवहरंति, वैभव वाला बन जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय रायाणो वा से विलुपंति, पस्सति वा से, विसति वा से. आता है जब दामाद हिस्सा बंटाते हैं, चोर उसे चुरा लेते हैं, अगारवाहेणं वा से जाति । राजा उसे छीन लेते हैं, वह अन्य प्रकार से नष्ट-विनष्ट हो जाती है । गृह दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है । इति से परस्स अट्ठाए कूराईकम्माई बाले पकुवमाणे तेण अज्ञानी मनुष्य इस प्रकार दूसरों के लिए अनेक ऋ रकम तुम्खेण मूठे विप्परिपासमुवेति। करता हुआ (दुःख के हेतु का निर्माण करता है) फिर दुःखोदय -बा. सु. १, अ. २,उ. ४, सु. ५१.२ होने पर वह मूढ़ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है । भूवा धम्मं न जाणंति मूर्ख धर्म को नहीं जानते हैं६७६. पीमि सोए पहलहिते । ६७६, यह संसार स्त्रियों के द्वारा पराजित है (अथवा प्रव्यथित पीड़ित है) ते मो! यति एयाहं आयतणाई। है पुरुषो! वे (स्त्रियों से पराजित जन) कहते हैं --"ये स्त्रियाँ आयतन हैं।" (भोग की सामग्री है)। से गुपचाए मोहाए माराए गरगाए मरणतिरिक्खाए। (किन्तु उनका) यह कथन-धारणा दुःख के लिए एवं मोह मृत्यु, नरक तथा नरकान्तर तिर्यंचगति के लिए होता है। सततं मूवे धम्म लामिजापति। सतत मूत्र रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता। पाहगीरे-अप्पमा महामोहे, भगवान् महावीर ने कहा है---"महामोह" में अप्रमत्त रहे। अर्थात् विषयों के प्रति अनासक्त रहे। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७६-६७६ सर्वज्ञ ही सर्व अम्रवों को जानते हैं चारित्राचार [ws भलं कुसलस्स पमाणं, संतिमरणं सपेहार, मेरधम्म बुद्धिमान् पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए । शान्ति (मोक्ष) सपहाए । गालं पासं । और मरण (संसार) को देखने-समझने वाला (प्रमाद न करे) यह भारीर क्षणभंगुर धर्म (नाशमान) है, यह देखने वाला (पमाद न करे)। अलं ते एतेहिं । एतं पास मुणि! महकाय ! णातिवातेग्न ये भोग (तेरी अतृप्ति की प्यास बुझाने में) समर्थ नहीं हैं। कंस। यह देख । तुझे इन भोगों से क्या प्रयोजन है। हे मुनि ! यह -था. सु. १, म. २, ४,सु. ८४-८५ देख, ये भोग महान् भय रूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की न करे। आसक्ति-निषेध-४ सवण्णु एष सम्वास जाणइ सर्वज्ञ ही सर्व आस्रवों को जानते हैं - ६७७. सर्व सोता, अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिता । ६७७. ऊपर (आसक्ति) के स्रोत है, नीचे स्रोत हैं मध्य में स्रोत एसे सोता दिया जाता नहिं संग ति पासहा ॥ हैं । ये स्रोत कर्मों के आस्रवद्वार कहे गये हैं जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो। आवट्टमेयं तु पहाण एव विरमेज बेववी । (रागढेष-कषाय-विषयावर्त रूप) भावावर्त का निरीक्षण करके आगमविद् पुरुष उससे विरत हो जाये। विणएस सोतं निखम्म एस महं अकम्मा जाणति, पासति, विषयासक्तियों के या मानवों के स्रोत को हटाकर क्रिमण पहिलेहाए, गावखति । इह आगति गति परिणाय । करने वाला यह महान साधक अकर्म होकर लोक को प्रत्यक्ष -आ. सु. १, अ. ५, उ. ६, सु. १७४-१७६(क) जानता, देखता है । अन्तनिरीक्षण करने वाला साधक इस जोक में संसार-प्रमण और उसके कारण को परिशा करके उनको आकांक्षा नहीं करता। रह-णिसेहो रति-निषेध६७८. विसच मणुन्स, पेमं नामिनिसए । ६८. शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पुद्गलों के परिणमन अपि तेसि विनाय, परिणाम पोग्गलाण ॥ को अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोश विषयों में संग मायन करे। पोग्गलागपरिणाम, सेसि नच्चा बहा तहा। इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है विगोरतम्ही विहरे, सीईभूएन अध्यणा ॥ वैसा जानकर अपनी आत्मा को उपशान्त कर तृष्णा-रहित हो -वस. अ.८, गा. ५८-५९ विहार करे। अरब-णिसेहो अरति-निषेध६७६. विरय मिक्यु रोयंत बिररातोसियं अरती तत्य कि विधा- १७६. चिरकाल से मुनिधर्म में प्रजित विरत और संयम में गतिशील भिक्षु को क्या अरति दवा सकती है? संचैमा समुदित । (प्रतिक्षण आत्मा के साथ) संधान करने माने तथा सम्मक प्रकार से उत्थित मुनि को (बरति अभिभूत नहीं कर सकती।) रए? Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४] चरणामुयोग रति-अरति निषेध सूत्र ६७६-६८१ जहा से दीये असंवीणे एवं से धम्मे आरियायेसिए । जैसे असंदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप आश्वासनस्थान होता है. वैसे ही आयं (तीर्थकर) द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार-समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता है। ते अणवखमाणा अपतिवातेमामा बहता मेधाविणो पंडिता। मुनि आकांक्षा तथा प्राण-बध न करने के कारण लोक मेधावी और पटिरत कहे जाते हैं। एवं तेसि भगवतो अगुदाणे जहा से रियापोते । एवं ते सिस्सा जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का पालन किया जाता है उसी विषा य अणुपुग्वेण थायित । प्रकार धर्म में जो अभी तक अनुत्थित है, उन शिष्यों का वे --आ. सु. १, अ. ६, उ. ३, स. १५. (महाभाग-भार्य करा. दाणा र दिन-रात पालन (संवर्दन) करते हैं। अरति आउट्ट से मेधावी खणसि मुक्के। जो अरति (वैतसिक उद्वेग) का निवर्तन करता है, वह -आ. सु. १. अ. २, उ. २, सु. ६६ मेधावी होता है। रह-अरइ णिसेहो रति-अरति-निषेध६८०. जे ममाइपति जहाति से जहाति ममाइयं । ६८०. जो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है। से हु विटुप मुणी जस्स गस्थि ममारतं । वही दृष्ट-पथ (मोक्ष मार्य को देखने वाला) मुनि है, जिसने ममत्व का त्याग कर दिया। तं परिणाय मेहाबी विदिता सोगं, वंता लोयसम्णं से मतिमं उस को (उक्त दृष्टिबिन्दु को) जानकर मेधावी लोकस्वरूप परफमेज्जासि ति बेमि। को जाने । लोक-संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे। वास्तव में उसे ही मतिमान (बुद्धिमान) पुरुष कहा गया है ऐसा मैं कहता हूँ। गारति सहति वीरे, वीरे णो सहति रति । वीर साधक अरति (संयम के प्रति अरुचि) को सहन नहीं जम्हा अविमणे वारे तम्हा वीरे ग रस्मति। करता, और रति (विषयों की अभिरुचि) को भी सहन नहीं करता । इसलिए वीर इन दोनों में ही अविमनस्क-स्थिर-शान्त. मना रहकर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। सहे फासे अधियासमाणे णिबिन वि इह जीवियरत । मुनि शब्द (रूप, रस, गन्ध) और स्पर्श को सहन करता -आ. सु. १, अ. २, स. ६, सु. ६४-६(क) है। इस असंयमी जीवन में होने वाले आमोद-प्रमोद आदि से विस्त होता है। भिक्खुणा न रद कायस्वा, न अर कायव्या भिक्ष को न रति करनी चाहिए और न अरति करती चाहिए६८१, अरति रति च अभिभूय मिक्बू, ११. साधु संयम में अरति (अरुचि) और असंयम में रति बहूजणे वा तह एाचारी। (रुचि) को त्यागकर बहुत से साधुजनों के साथ रहता हो या एगंतमोणेण विगरेज्जा, अकेला रहता है । जो बात मौन (मुनिधर्म या संयम) से सर्वथा एगस्स मंतो गतिरागती य ।। अविरुद्ध हो, वही कहे। (यह ध्यान रखे कि) जीवं अकेला ही जाता है, और अकेला ही आता है। सघं समेचा अदुवा वि सोच्या, ___ स्वयं जिनोक्त धर्म (सिद्धान्त) को भलीमांति जानकर अथवा मासेज्ज धम्मं हितवं पपाणं। दूसरे से सुनकर प्रजाओं (जनता) के लिए हितकारक धर्म का जे गहिया सणियाणपोया, उपदेश दे। जो कार्य निन्द्य (गहित) है, अथवा जो कार्य निदान सागि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ (सांसारिक फलाकांक्षा) सहित किये जाते हैं, मुधीर वीतराग ---सूय. सु. १, अ. १३, गा.१५-१६ धर्मानुयायी साधक उनका सेवन नहीं करते। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८२-६८४ राणिगोवा रागशमन के उपाय ६८२. समाए हाए परिस्वयंतो सिया मणो निस्सरई महिद्धा । ६८२. समदृष्टिपूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन ( संयम से बाहर निकला तो यह विचार करे कि "वह मेरी नहीं है - दस अ २ गा. ४ और न में ही उसका हूं।" मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषयराग को दूर करे | सानो अहं पिएम अमित वासपरिमापासबा पाणिणो६०३. ए० दीसन्ती बहने लोए पासवा सरीरिणो । सुक्कपासो लम्भूओ कहं तं विहरसी मुणी ॥ उसे पा सभ्यतामा दुरुपासो सो बिरामी १०- पासा इइ के बुता केसी के सिमेवं बुवतं तु गोयमो ४० रागशमन के उपाय - गोयमम्वी । इणवी ॥ साओ लिया मेवासा भयंकरा विहरामि मह्नकर्म ॥ उत्त. अ. २३, गा. ४०-४३ से छिम्बितु जहानायं इति संका के गीतबादी ? के भाषावादी? मंसिया एगे गिक्से ? सम्हा पहिले पो हरिणे, गोकु तेहि जान पडिले सात समिते एयरणुपस्सी तं जहा अंध बहिर रुसं काम सम समलतं । से अबुझमाणे हतो बहते जाती- मरणं सह पमादेर्ण अगवाओ जोणीओ संघेति विरुबकने फासे परिसंवेदयति । चारित्राचार [४४५ परियमाणे । - मा. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७५-७६ आभ्यन्तर परिग्रह के पाश से बद्ध प्राणी ६८३. प्र० - इस संसार में बहुत से शरीरधारी जीव (मोह के अनेक) पाशों से बद्ध हैं। मुने! तुम बन्धन से और लघभूत (बन्ध रहित हल्के होकर कैसे विचरण करते हो ?" उ०- "मुने ! मैं उन बन्धनों को सब प्रकार से काटकर, उपायों से विनष्ट कर, बन्धन-मुक्त बोर हल्का होकर विचरण करता हूँ ।" — अमित परिहरिओडिओ आभ्यन्तर परिग्रह से विरत पण्डित ४ए अहं जीवन भी होगे, जो अति ६०४. वह पुरुष (आत्मा) अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक वार रिते । जो पोहए। नीच दोष को प्राप्त हो चुका है। इसलिए यहाँ न तो कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त विशेष उपच) है। यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे | यह (उक्त तथ्य को ) जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानभावी होगा ? और कौन किस एक क्षेत्र (स्थान) में आसक्त होगा ? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित म हो और नीच गोत्र प्राप्त होने पर कृषित (दुखी) न हो। प्रत्येक जीव को खत्रिय है यह तु देख इस पर सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर जो समित (सम्बष्टिसम्पन) है वह इस जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्मशिक) को देता है। जैसे T ग्र उदम से है। से पूछा । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा 14 कैसी ने गौतम उ०- "तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन है । उन्हें काटकर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ ।" अापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला संपड़ापन, कुबड़ापन, बोनापन, कालापन, चित्तक— बहरापन (कुष्ट आदि चर्मरोग आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (कर्म) के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों-दुःखों वेदनामों का अनुभव करता है । वह प्रमादी पुरुष कर्म सिद्धान्त को नहीं समझता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत ( पुनः पुनः पीड़ित ) होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ घरमानुयोग परिमहविरत पापकर्मविरत होता है सूत्र ६८५-६८५ परिगहविरओ पावकम्माविरओ होइ परिग्रहविरत पापकर्मविरत होता है६८५. से मिक्खू जे इमे काममोगा सवित्ता वा अचित्ता वा ते णो ६८५. जो ये मचिप्स मा अनित्त काम-भोग (के साधन) है, वह सयं परिगिहति, नेवणे परिगिहावेति, अण्णं परिमिहतं भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह पिम समभुजाणड, इति से महमा भादाणातो उपसंते उब- कराता है, और न ही परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन द्वित्त पडिविरते। करता है । इस कारण से वह मिक्ष महान् कौ के आदान (ग्रहण -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८५ या बन्ध) से मुक्त हो जाता है. शुद्ध संयम पालन में उपस्थित होता है, और पापकर्मों से विरत हो जाता है। गोला रूवर्ग गोलों का रूपक-- ६८१. अल्लो सुक्को य वो छुटा, गोलण मट्टिपामा । ६८६. "एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके वो वि आवजिया कुइरे जो उल्लो सोस्य लगई। गये। वे दोनों दीवार पर गिरे । जो गीला था, वह वहीं विपक गया।" एवं सम्पन्ति दुम्मेहा, जे मरा कामलालसा। ___ "इसी प्रकार जो मनुष्य दुबुद्धि और काम-भोगों में आसक्त विरत्ता उ म समान्स, जहा सु+को उ गोलबए ॥ है, विषयों में चिपक जाते हैं। विरत साधक सूखे गोले की -उत्त. अ. २५, गा. ४०-४१ भांति नहीं लगते हैं।" भोगनियट्टी कुज्जा - भोगों से निवृत्त हो५७. अधुवं जीवियं मचा सिबिमग वियाणिया । ६८७. मुमुक्षु जीवन को अनित्य और अपनी आयु को परिमित विणिपट्टज भोगेसु, आउँ परिमिषमप्पणी ।। जान तथा सिद्धि मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवस बने । -स. अ.८, गा. ३४ मगुण्णामणुम्णेसु काम-भोगेसुराग-दोस णिमहो कायव्वो- मनोज्ञ और अमनोज्ञ कामभोगों में राग-द्वेष का निग्रह करना चाहिए६८०, जे विष्णवणाहिज्मोसिपा, संतिपणेहि समं विवाहिया। ६८, जो साधक स्त्रियों से आसक्त नहीं हैं, वे मुक्त (संसारतम्हा उडतं ति पासहा, अवस्खू कामाई रोगवं५ सागर) सन्तीर्ण के गमान कहे गये हैं। इसलिए तुम ऊर्ध्व (मोक्ष) की ओर देखो और काम-भोगों को रोगवत् देखो।। अग्गं वगिएहि आहियं, से इस लोक में बणिकों-व्यापारियों द्वारा साये हुए उत्तमोधारती राईणिया इई। तम सामान (रल आभूषण आदि) को राजा-महाराजा आदि एवं परमा महापया, सेते हैं, या खरीदते हैं, इसी प्रकार भाषायों द्वारा प्रतिपादित मक्खाया सराइमोमणा ॥ रात्रिभोजनत्याग सहित पांच परम महाव्रतों को कामविता श्रमण प्रहण धारण करते हैं। *ह सापाणुमा गरा, इस लोक में जो मनुष्य (सुख के पीछे दौड़ते हैं) के, अत्याअग्नीववना कामैसु मुछिया । सक्त हैं और काम-भोगों में मूच्छित हैं, वे कृपण (इन्द्रियविषयों किवण समं प्रगग्निया, के लालची) के समान काम-सेवन में धृष्ट बने रहते हैं। वे न वि जाति समाहिमाहियं ।। (महाबीर द्वारा कथित) समाधि को नहीं समझते। बाहेग जहा ब.. विस्छते. __ जैसे गाड़ीवान के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ अबले होड गवं पचोदए। बैल कमजोर हो जाता है, अतः वह विषम-कठिन मार्ग में पस से येतसो अप्परामए, नहीं सकता, आखिरकार वह अल्प सामर्थ्य वाला दुल वैल) सातिमहति अवले विसीयति ॥ भार वहन नहीं कर सकता, अपितु कीचड़ आदि में फंसकर क्लेश पाता है। ६८.८ विश्वाति यसिया, संविध्यूहि नाम विरहित Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र ६८५-६९० सभी कामभोग बुःखवायी है चारित्राचार ४४ एवं कामेसनबिबू, इसी तरह काम के अन्वेषण में निपुण पुरुष आज या कल में अन्ज सुए पयहेज संयवं। कामभोगों का संसर्ग (छोड़ने का विचार किया करता है,) छोड़ कामी कामे न कामए, नहीं सकता । अतः कामी पुरुष कामभोग की कामना ही न करे, सवा वि अलब कई ॥ सिपाही सेाप्त हुए कामभोग को अप्राप्त के समान जाने (यही अभीष्ट है।) मा पच्छ असाहया भवे, मरणकाल में असाधुता (शोक या अनुताप) न हो अतः तू अच्चेही अणुसास अप्पणं । कामभोगों का त्यागकर स्वयं को अनुशासित कर (जो असाधु) अहियं च असाह सोमती, असंयमी पुरुष होता है वह अत्यधिक शोक करता है, ऋन्दन से पणती परिदेवती बहु ॥ करता है, और बहुत विलाप करता है। इह मोवियमेव पासहर, इस लोक में अपने जीवन को ही देख लो, सौ वर्ष की आयु तरुणए वाससबार तद्वती। वाले मनुष्य का जीवन तरुणावस्था (युवावस्था) में ही नष्ट हो इसरवासे सुजाहर जाता है। अतः इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान पिवनरा कामेसु भूमिछया ।। समझो (ऐसी स्थिति में) क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य ही कामभोगों ---सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. २-८ में मूच्छित होते हैं। सम्वे कामभोगा दुहाया सभी कामभोग दुःखदायी है६६. सहवं बिलवियं पौर्य, सम्वं न विम्बियं । ६८६. सब गीत (गायन) विलाप हैं, समस्त नाट्य विडम्बना से सवे आभरणा मारा, सम्ये कामा बुहावहा ।। भरे हैं, सभी आभूषण भारका है और सभी कामभोग दुःखावह (दु.बोत्पादक) हैं। बासाभिरामेसु बुहाबहेमु न सुहं कामगुणेसु राय । अज्ञानियों को रमणीय प्रतीत होने वाले, (किन्तु वस्तुतः) विरत्तकामाण तो धणाणं, जंभिक्षुणं शीलगुणे रयाणं ॥ दुःखजनक कामभोगों में यह सुख नहीं है, जो सुल शीलगुणों में -उत्त.अ. १३, मा. १६-१७ रल, पामभोगों से विरक्त तपोधन भिक्षुओं को प्राप्त होता है। कामभोगाभिकखी परितप्पड़ काम भोगाभिलाषी दुःखी होता है६६०. कामा पुरतिशम्मा । जीवियं दुपडियूहगं । ६९०, ये काम दुर्मध्य है। जीवन (आयुष्य जितना है, उसे) बढ़ाया नहीं जा सकता, (तथा आयुष्य की टूटी डोरी को पुनः सांघा नहीं जा सकता।) कामकामी खलु अयं पुरिसे से सोयति मूरति तिप्पति पिजाति पुरुष काम-भोग की कामना रखता है। (किन्तु वह परितृप्त परितपति। नहीं हो सकती, इसलिए) वह शोक करता है (काम की अप्राप्ति तवा वियोग होने पर खिन्न होता है) फिर वह पारीर से सूख जाता है, आंसू बहाता है। पीड़ा और परिताप (पचासाप) से दुःखी होता रहता है। आयतवक्खू सोगविपस्तो लोगस्स अहे मागं जाणति, उई दीर्घदर्शी पुरुष लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाय मार्ग जाति, सिरिय भार्ग जाणति । को जानता है, अठर्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है। गहिए अणुपरिपट्टमागे। (काम-भोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में (अथवा काम-भोग के पीछे) अनुपरिवर्तन-पुन: पुन: चक्कर काटता रहता है। संधि विविप्ता इह मच्चिएहि । (दीर्घदी यह भी जानता है) यहाँ (संसार में) मनुष्यों के सन्धि (मरणधर्मा शरीर) को जानकर विरक्त हो। एस वोरे पसंसिते जे बजे पडिमोयए। यह वीर प्रशंसा के योग्य है (अथवा वीर प्रभु ने उसकी *-बा. सु. १, अ. २, उ. ५, सु. १.६१ प्रशंसा की है) जो काम-भोग में बस को मुक्त करता है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] परमामुयोग काम-भोगों में आसक्ति का निषेध सूत्र ६६१-६६३ कामभोगेसु आत्ति-णिसेहो काम-भोगों में आसक्ति का निषेध६६. ल कामे ग परयेउजा, विवेगे एसमाहिए। ६६१. लब्ध कामभोगों की इच्छा न करे । इसे विवेक कहा गया आरिपाई सिक्वेज्जा, बुहाग अंतिए तया ।। है । बुद्धों के पास सदा आचार की शिक्षा प्राप्त करे । -सूय. सु. १, ब.., गा. २२ अगिडे सद्द-फासेसु, भारंभैसु अणिस्सिते । शब्द--यावत्-स्पर्श में बनासक्त तथा आरम्भ से अप्रतिबद्ध सव्वेतं समयातीतं, जमेत सविसं बहु॥ रहे । जो यह स्वरूप कहा गया है, वह सब समयातीत (वका- सूय. सु. १, अ.६, गा. ३५ लिक) है। सवारस्या पडिलेहाए आगमता आणवेज्जा मणासेवणयाए। प्राप्त कामभोगों को पर्यालोचना करके उनका सेवन न करने -आ. सु. १, अ. ५, ७. १, सु. १४६(म) को आज्ञा दे और उनके कटु परिणामों का शिष्य को ज्ञान कराये। कामगुणेसु मुसछा-णिसेहो कामगुणों में मूर्छा का निषेध६६२. गुणे से आवट्ट, जे आवट्ट से गुणे। ६६२. जो गुण (शब्दादि विषय) हैं, वह आवर्त-संसार है । जो आवर्त है यह गुण है। उह महं तिरिय पाईणं पासमाणे हवाई पासति, सुणमाणे ऊँचे, नीचे, तिरछे. सामने देखने वाला रूपों को देखता है, सहाई सुति। सुनने वाला शब्दों को सुनता है । उनलं अहं सिरियं पाईण मुच्छमागे रुबेसु मुच्छति, सहेतु ऊँचे, मीचे, तिरछे, सामने विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति यावि। करने वाला, रूपों में मूच्छित हो जाता है, शब्दों में मूच्छित हो जाता है। एस लोगे वियाहिए। यह आसक्ति ही संसार कहा जाता है। एस्थ अगुत्ते अणाणाए। जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। वह इन्द्रिय एवं मन से असंयत है और आज्ञा (धर्म शासन) के बाहर है। पुणो पुणो गुणासाए वंकसमाधारे पमते गारमावसे । जो पुनः पुनः विषयों का आस्वादन करता है। उनका भोग-आ. शु. १, अ. १, उ. ५, सु. ४१ उपभोग करता है, वह बक्र समाचार अर्थात् असंयममय जीवन वाला है। वह प्रमत्त है । तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। सहसवणासत्ति-णिसेहो शब्द-श्रवण की आसक्ति का निषेध६६३. से भिक्खू वा भिषलुगी वा मुइंगसहाणि वा नंदीसद्दागी मा ६६३. संयमचील साधु या माध्वी मृदंग शब्द, नन्दीशब्द या मल्लरोसहाणि वा अण्णतराणि वा तहापगाराइं विरूवश्वाई झलरी (मालर या छैने) के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य वितताई सदाई कण्णसोयपडियाए भो अभिसंधारेग्जा गम- वाद्यों के शब्दों को कानों से सुनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। से भिक्खू वा भिषाणो वा अहावेगतियादं सहाई सुर्णेति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, जैसे कि सं महा : वीणासहाणी वा विचिसहाणि वा बबीसगसहाणि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तुनक के वा सुणयसदाणी वा पवगसद्दाणि वा तुंबवीणियसहाणी वा शब्द, ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, कुण (वाद्य विशेष) के कुणसहाणि वा. अपतराई वा तहप्पगानई विवस्वाणि शब्द, या इसी प्रकार के विविध बीणादि के शब्दों को कानों से सहाणि तताई काणसीपडियाए णो अभिसंधारेजा गमगाए । सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में विचार न करे। से भिक्खू वा भिक्षुणी वा अहावेगतियाई सदाई सुति, साबु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे किसं जहा - तालसहाणि वा कंसतालसदाणि वा अत्तियसहाणि ताल के शब्द, कसताल के बाब्द, लत्तिका (कांसी) के शब्द, वा गोहियसदाणि वा फिरिकिरिसहाणी वा अण्णतराणि वा गोधिका (भांड लोगों द्वारा काँख और हाथ में रखकर बजाये तहगाराई विरुषरुवाई सालसाई कण्णसोयपडिगाए षो जाने वाले वाद्य) के शब्द या बांसुरी के शब्दों को कानों से सुनने अभिसंधारेजा गमणाए। के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६३ काम-मोगों में भाससि का निषेध चारित्राचार {४४९ से भिक्खू वा भिक्खुणो वा महावेगतियाई सहाई मुणेति, साधु-साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि-शंख के तं जहा-संखसहाणि वा घेणुसहाणि वा बससहाणि वा शब्द, वेणु के शब्द, यांस के शब्द, स्वरमही के शब्द, यांस आदि खरमुहिसद्दाणि था पिरिपिरियसहाणि वा अण्ण राई तहप्प- की नली के शब्द या इसी प्रकार के अन्य नाना शुषिर (छिद्रगत) गाराई विरुवरुवाई सहाई मुसिराई कण्णसोयपडियाए गो शब्दों को कानों से सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में अभिसंधारेजा प्रणाए। संकल्प न करे। से भिक्खू का भिक्षणो वा महागहयाई सहाई सुति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कितं जहा--वरपाणि वा फलिहाणी वा-जाब-सराणि पा सर- खेत की क्यारियों में तथा खाइयों में होने वाले शब्द--यावर-- पंतियाणि वा सरसरपंसियाणि वा अण्णता बा तहप्पगाराई सरोवरों में, सरोवर की पंक्तियों में तथा लालाबों की अनेक विरुवरूवाइं सहाईकण्णसोपपडियाए णो अभिसंधारेज्जा पंक्तियों में होने वाले तथा इसी प्रकार के अन्य विविध शब्दों को गमणाए। कानों से सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे । से मिक्खू वा भिक्खुणो वा अहावेगतियाई सहाई सुति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे किसं जहा-कच्छाणि वा माणि वा गहणाणि बा वणाणि वा नदी तटीय जलबहुल कच्छों) में, भूमिगृहों या प्रच्छन्न स्थानों वणदुग्गाणि वा पश्ययाणि वा पत्ययदुम्माणि बा अण्णतराइं में, वृक्षों से राघन एवं गहन प्रदेशों में, वनों में, वन के दुर्गम वा तहापगाराई विख्वरूवाई सहाई एणसोयपडियाए को प्रदेशों में, पर्वतों में या पर्वतीय दुर्गों में तथा इसी प्रकार के अन्य अभिसंधारेज्जा गमणाए । प्रदेशों में होने वाले शब्दों को कानों से सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन से संकल्प न करे। से भिक्खू पा भिक्खुणी या अहावेगतियाई सद्दाई सुति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे गांवों में, तं जहा--गामाणि वा नगराणि वा निगमाणी वा रायहा- नगरों में, निगमों में, राजधानी में, आश्रम, पतन और सनिवेशों पाणि था भासम-पट्टण-सण्णि-वेसाणि वा अण्णाराई वा में होने वाले शब्द या इसी प्रकार के अन्य नाना प्रकार के शब्दों तहप्पगारा विरूवरुवाई सद्दा णो अभिसंधारेजा गमणाए। को सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। से मिक्ल या भिक्षुणी वा अहावेगतियाई सदा सुति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कितं जहा-आरामागि वर उजाणाणि घा वाणि वा वण- आरामगारों में, उद्यानों में, वनों में, बनखण्डों में, देवकुलों में, संडाणि या देवकुसाणि वा समाणि या यवाणि वा अग्णतराई सभाओं में, घ्याउओं में होने वाले शब्द या अन्य इसी प्रकार के पर तहप्पणारा सहाई जो अभिसंधारेज्जा गमणाए। विविध पाब्दों को सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। से मिक्खू या भिक्खणी वा अहावेगतियाएं सहाई सुति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कितं जहा -अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा परियाणि या दाराणि अटारियों में, आकार से सम्बद्ध अट्टालयों में, नगर के मध्य में वा गोपुराणि या अण्णतराणि वा सहप्पपाराई सद्दाई णो स्धिा राजमार्गों में, द्वारों में, नगर-द्वारों में होने वाले शब्द तथा अमिसंधारेज्जा गमणाए। इसी प्रकार के अन्य स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे । से भिक्खू वा भिषखणी या अहावेगतियाई सहाई सुणेति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं. जैसे कि - जहा –तियाणि बा चउपकाणि वा चराणि वा चाड तिराहों में, चौकों में, चौराहों में. चतुर्मुख मागों में होने वाले मुहाणि वा अग्णत राई या तहप्पमाराइं सद्दाई णो अभिसंधा- शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में होने वाले शब्दों को रेना गमणाए। सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे । से भिक्खू या भिक्खणी वा अहावेगतिया सहाई सुणेति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं जैसे कि-. तं जहा- महिसकरणदाणाणि वा बसमकरणट्ठाणाणि घा भंसों के स्थान, वृषभशाला, घुड़गाला, हस्तिशाला-यावत्अस्सफरगट्टाणाणि वा हस्थिकरणापाणि वा-जाब कविजल- कपिजल पक्षी आदि के रहने के स्थानों में होने वाले शब्द तथा करणढाणाणि वा अण्णतराई था तहप्पयाराई विरूवड़वाई इसी प्रकार के अन्य शब्दों को सुनने के लिए कहीं भी जाने का सहाई मो अभिसंधारेज्जा गमणाए। मन में संकल्प न करे। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५०] चरणानुयोग काम-मोगों में आसक्ति का निषेध सूत्र ६६३ सुनने के लिए से मिक्सू वा भिक्खूणी या अहावेगलियाई सदार सुगेड, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कितं जहा-महिसजुवाणि वा वसभजुद्धागि या अस्स जुदाणि भैसों के युद्ध, सांडों के युद्ध, अश्द-युद्ध, हस्ति-युद्ध-पावत् - वा हस्थिजुवाणि वा-जाद-कविजलजुदाणि वा अण्ण तराई वा कपिंजल युद्ध में होने वाले शब्द तथा अन्य इसी प्रकार के पशुतहप्पगाराई विरुधरवाई सद्दाई नो अभिसंधारेज्जा गमणाए। पक्षियों के लड़ने से या लड़ने के स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प' न करे। से भिक्खू या भिक्खुणी या अहागतियाई सदाहं सुणेति, साधु या सानो कानों में कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे सं जहा--हियट्ठाणाणि वा हयमूहियट्ठाणाणि वा गयजूहिय- कि-यूबिक स्थानों में, अश्वयुथिक स्थानों में, गजयूथिक स्थानों ट्ठरणाणि वा अण्णतराई वा तहापगाराई विरूवरुवाई सद्दाई में तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में शब्दों को सुनने के लिए जो अभिसंधारेज्जा गमणाए। कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। से भिवा या पिी : निनाई गेंसि, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कितं जहा अक्खाइयडाणाणि वा माणुम्माणियद्वाणाणि वा कथा करने के स्थानों में, तोल-माप करने के स्थानों में, या महयाहतनट्ट-गीत-शाइत-संति-तलवाल-तुडिय-पड़प्प-दाउयट्ठा- घुड़दौड़ आदि के स्थानों में, जहाँ बड़े-बड़े नृत्य, नाट्य, गीत, णाणि वा अण्णत राई या तहप्पयाराई सहाई णो अभिः वाद्य, तन्त्री, तल (कांसी का वाथ), तालबुटित वादित्र, दोल संधारेज्जा गमगाए। बजाने आदि के आयोजन होते हैं ऐसे स्थानों में होने वाले शब्द तथा इसीप्रकार के अन्य मनोरंजन स्थलों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे। से भिक्न वा मिक्खुणी का अहावेगतियाई सदाणि सुर्णेति, साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि - तं जहा–फलहाणि वा स्त्रिाणि वा अमराणि पा छोरज्जाणि जहाँ कलह होते हों, शत्रु सैन्म का भय हो राष्ट्र का भीतरी या वा बेरज्जाणि वा विरुवराजाणि वा अण्णतराई या तहप्प. बाहरी विप्लय हो, दो राज्यों के परस्पर विरोधी स्थान हों, वैर गाराई सद्दाईजो अमिसंधारेज्जा गमणाए। के स्थान हों, विरोधी राजाओं के राज्य हों वहाँ के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य विरोधी वातावरण के शब्दों को सुनने के लिए गमन करने का मन में संकल्प न करे। से भिक्खू वा पिक्खुणी वा अहावेगलिया सहाई सुणेति, साधू या साध्वी कई प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, जैसे तं महा-डियं गरियं परिवुतं मंडितासंकित नियुजन- कि- बस्त्राभूषणों से मण्डित और अलंकृत तथा बहुत से लोगों मानि येहाए, एगपुरिसं या वहाए पोणिममाणं पेहए, से घिरी हुई किसी छोटी बालिका को घोड़े आदि पर बिठाकर अण्णतराइ वा तहप्पगाराई यो अभिसंधारेज्जा गमणाए। ले जाया जा रहा हो, अथवा किसी अपराधी व्यक्ति को वध के लिए वधस्थान में ले जाया जा रहा हो, अथवा अन्य किसी ऐसे व्यक्ति की शोभायात्रा निकाली जा रही हो. उस समय होने वाले (जय जयकार या धिक्कार, तथा मानापमानसूचक नारों आदि के) शब्दों को सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे। से भिक्खू वा निवखुगी वा अण्णतराई विस्वरूवाई महस्स- साधु या साध्नी अन्य नाना प्रकार के महोत्सवस्थानों को वाई एवं जागेज्जा, त जहा–बहसगडाणि या बहुरहाणि इस प्रकार जाने, जैसे कि-जहाँ बहुल से शकट, बहुत से रथ, वा बहुमिलक्खुणि वा बहुपच्चंताणि वा अण्णतराई' या बहुत से म्लेच्छ, बहुत से सीमाप्रान्तीय लोग एकत्रित हुए हों, तह पगाराई विस्वरुवाई मल्सबाई कष्णसोपडियाए णो अथवा इस प्रकार के नाना महा-उत्सवस्थान हों, वहाँ कानों से अभिसंधारेमा गमणाए । शब्द सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे। से भिक्ल या भिक्खणी वा अण्णतराई विरुवस्वा महुस्स- साघु या साध्वी किन्हीं नाना प्रकार के महोत्सवों को यों वाई एवं जाणेज्जा, तं जहा-हत्थीणि वा पुरिसाणि वा जाने कि जहां स्त्रिया पुरुष, मालक और युवक आभूषणों से घेराणि वा बहराणि वा महिमाणी या माचरणविभूसियाणि विभूषित होकर गीत गाते हों, बाजे बजाते हों. नाचते हो, हसते जा गयतापि वा वायंतागि वा पछताणि वा हसंताणिवा हों, आपस में खेलते हों, रतिक्रीड़ा करते हों तथा विपुल अशन Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६३-६६६ रूप-वर्शन आसक्ति-निषेध चारित्राचार [५१ रमंसाणि या मोहंताणि वा विपुलं असणं-जाव-साइमं परि- . यायत-स्वादिम पदार्थों का उपभोग करते हों परस्पर बाँटते मुंजतागि वा परिमार्यताणि वा बिछड्थ्यमागाणि वा हों या परोसते हों, त्याग करते हों, परस्पर तिरस्कार करते हों विग्गोषयमाणाणि वा अण्णय राई वा तहप्पगाराई विरूव- उनके शब्दों को तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से महोत्सवों में रुवाई महुस्सवाई' कष्णसोयपशिपाए गो अभिसंध रेज्जा होने वाले शब्दों को कानों से सुनने के लिए जाने का मन में गप्रणाए । संकल्प न करे। से मिक्खू वा भिक्खुणो या गो इहलोइएहि सद्देहि णो पर- साधु या साध्वी इहलौकिक एवं पारलौकिक शब्दों में श्रुत लोएहि सहि. णो सुतेहि सद्देहि, गो असुतेहि सहि, गो (सुने हुए) या अश्रुत (बिना सुने) शब्दों में, देखें हुए या बिना विटु हि सइंहि, नो अविहि सहि, गो होहिं सद्देहि, णो देखें हुए शब्दों में, इष्ट और कान्त शब्दों में न तो आसक्त हो, कंसेहि सद्देहि सज्जेज्जा, जो रज्जे उमा, णो गिग्जा , पो न रक्त (रागभाव से लिप्त) हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो और मुज्ज्मा , णो असोयवज्जेज्जा । न ही मूञ्छित या अस्मासक्त हो। --आ. सु. २, क. ११. सु. ६६६-६८७ रूवाबलोयणासत्ति णिसेहो रूप-दर्शन आसक्ति-निषेध६६४. से भिक्खू वा मिक्षणी वा अहावेगइमाई स्वाईपासति, ६६४. साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं जैसे तं जहा- गंथिमाणि वा वेतिमाणो वा पूरिमागि वा संघा- गूंथे हुए पुरुषों से निष्पन्न स्वस्तिक आदि को, वस्त्रादि से वेष्टित तिमाणि वा कटुकम्माणि वा पोस्थकम्माणि वा चित्तकम्मागि या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से बा मणिकम्माणि वा बंतकम्माणि या पत्तच्छेज्जकम्माणि वा पुस्पाकृति बन जाती हो, उन्हें अनेक वर्गों के संघात से निर्मित विविहाणि वा वेदिमाई अण्णतराईका सहप्पगाराई बिरूव- चीलादि को, काष्ठ कर्म से निर्मित रथादि पदार्थों को, पुस्तकर्म स्वाद चखुदसणवरियाए गो अभिसंधारेजा गमगाए । से निर्मित पुस्तकादि को, दीवार आदि पर चित्रकर्म सनिमित चित्रादि की, विविध मणिकम से निमित स्वस्तिकादि की, दंतकर्म से निर्मित दन्तपुत्तलिका आदि को, पत्रच्छेदन कम से निमित्त विविध पत्र आदि को, अथवा अन्य विविध प्रकार के वेष्टनो से निष्पक्ष पदार्थों को, तथा इसी प्रकार के अन्य नाना पदायों के रूपों को, बाँखों से देखने की इच्छा से साधु या साध्वी उस ओर जाने का मन में संकल्प न करे। एवं नेयवं जहा सहपडिमा सवा बाइत्तवज्जा स्वपडिमा इस प्रकार जैसे शरद सम्बन्धी प्रतिमा में ऊपर वर्णन किया -आ. सु. २, अ. १२, सु. ६८६ है, बसे ही यहाँ चतुविध बातोयवाद्यो को छोड़कर रूप प्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए। पासह एगे हवेसु गिडे परिणिज्जमाणे। एस्थ फासे पुणो देखो ! जो रूप में गृद्ध है वे नरकादि योनियो में पूनः-पूनः पुणो। -आ. सु. १, अ. ५, उ. १, सु. १४६ (घ) उत्पन्न होने वाले हैं। बालाणं दुमक्षाणुभवणहेउणो बाल जीवों के दुःखानुभव के हेतु-- ६६५. बाले पुण णिहे कामसमगुग्णे असमितवुपये दुक्खी नुक्खाण- ६९५. बाल (अज्ञानी) बार-बार विषयों में स्नेह (आसक्ति) करता मेव आवट्ठ अणुपरियति । है। काम-इच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर उसका सेवन -आ. सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १०५(ख) करता है) इसलिए यह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। यह शारीरिक एवं मानसिक युःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है। सम्वे एग। बाला ममत्तजुत्ता -- सभी एकान्त बाल जीव ममत्वयुक्त होते हैं६६६. जोवियं पुरोपियं इहमेगेसि माणवाणं खेस-वत्थु ममायमा- ६६६. जो मनुष्य, क्षेत्र (खुली भूमि) तथा वास्तु (भवन) आदि गाणं। आरतं विरतं मणिकुंबलं सह हिरणेण हस्थियाओ में ममत्व भाव रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय परिगिज्य सत्येव रत्ता । लगता है। वे रंग बिरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्य-स्वर्ण और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२] चरणानुयोग आतुर व्यक्तियों को परिग्रह असह्य होते हैं सूत्र ६९६-६६८ ण एस्थ तबो वा चमो वा णियमो वा विस्तति । परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम-इन्द्रिय-निग्रह होता है और न नियम होता है। संपुग्ण बाले जीविकामे लालप्यमाणे मूढे विपरिषासमुदेति । बह अज्ञानी, ऐपवर्ग पूर्ण जीवन जीने की कामना करता रहता - आ. सु. १. अ. २, उ, ३, ४, ७७ (क) है। बार-बार सुख की प्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है। किन्तु सुरहों की अमाप्ति ब कामना की व्यया से पीडित हुश बह मूह विपर्यास (सुख के बदले दुःख) को ही प्राप्त होता है। मातुराणा परीसहा दुरहियासा आतुर व्यक्तियों को परीषह असह्य होते हैं--- ६९७. आतुरं लोगमायाए चइता पुश्वसंजोग हेचा उवसमं वसित्ता ६६७, (काम-राग आदि से) आतुर लोक को भलीभांति समझकर बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित घाम अहा तहा अहेगे जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य तमचाइ कुसीला। में वास करके वसु (संयमी) अथवा अनुवसु (श्रावक) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते।। वत्यं परिग्यहं कंबल पायपुंछणं विउसिज्ज अणुपुत्रेण अण- वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोचियासेमाणा परीसहे दुरहियासए। तर आने वाले दुःसह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं)। कामे ममायमाणस दवाणि या मुहत्ते वा अपरिमाणाए भेदे। विविध काम-भोगों को अपनाकर (उन पर) गाढ़ ममत्व रखने पाले ज्यक्ति का तत्काल अन्तमुहर्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है। एवं से अंतराइएहि कामेहिं आकेलिएहि अवितिण्णा चेते। इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्रों या अपूर्णताओं से -आ. सु. १, अ. ६, उ. २, सु. १५३ युक्त काम-भोगों से अतृप्त ही रहते हैं। (अथवा उनका पार नहीं पा सकते, बीच में ही समाप्त हो जाते हैं।) कसायकलुसिया कसायं बढ़ति कषाय कलुषित भाव को बढ़ाते हैं१६८. कासंकसे खलु अयं पुरिसे, महमायी, कोण मूळे, ६६६. काम-भोग में आसक्त वह पुरुष सोचता है- "मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूंगा" (इस प्रकार की आकुलता के कारण) वह दूसरों को ठगता है, माया कपट रचता है, और फिर अपने रचे माया जाल में फंसकर मूढ़ बन जाता है। पुणो तं करेति लोभ, वेरं वति अपणो । वह मूढ़भाव से ग्रस्त फिर लोभ करता है (काम-भोग प्राप्त करने को ललचाता है) और (माया एवं लोभ युक्त आचरण के द्वारा) प्राणियों के साथ अपना वर बढ़ाता है । अमिणं परिकहिज्जह हमस्स चेव पडिग्रहणताए । ____ जी मैं यह कहता हूँ (कि वह कामी पुरुष माया तथा लोभ का आचरण कर अपना वर बढ़ाता है) वह इस शरीर को पुष्ट करने के लिए ही ऐसा करता है। अमराइयइ महासबढी । अमेतं तु पहाए । अपरिणाए वह काम-भोग में महान् श्रद्धा (भासक्ति) रखता हुआ अपने कवति। को अमर की भांति समझता है। तू देख, आर्त-पीडित तथा दुःखी -आ. सु. १, अ. २, उ. ५, सु. १३ है। परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला ऋन्दन करता है (रोता है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६८ सयणा न सरणदाया ६९९. माया पिया बसा भाया, भरजा पुसा य ओरसा । नातं ते मम ताणा०, सुवन्तरस सम्पुणा || सहाए एमट्ठ धियं हि सिह पागे 1 स नवय पुणे से से पुणे इति से भी महता परिता से पसे । स्वजन शरणदाता नहीं होते त्वं दिए सोए पले । यंति । - - उत्त. अ. ६, गा. ३-४ तं जहा --- माता मे पिता मे, माया मे, मगिणी मे, मज्जा मे, पुता में, घूया मे सुहा में, सहि सण-गंध-संयुता में, विविलोरण परिय-पोषणायणं मे अहो य राओ व परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्टी अट्ठालोमी बालुप सहकारे विनिविचित्ते एत्थ सत्ये पुणो पुणो । आता तंज- सोतपष्णपरिहायमाणे, पण्णानहं परिहायमाणेह, घाण पण्णा परिहायमाणेहि पाहि परिहारमाह फसवण्णा हि परिश्यमाह । वयं सहाए तभी से एमया मूढभावं जन केहि संयति सेवा पिरिति सो वा ते पिय पच्छा परिवज्जा । चारित्राचार [४५३ स्वजन शरणदाता नहीं होते ६६. जब मैं अपने द्वारा किये गये कर्मों से छेदा जाता हूँ, तब माता-पिता, पुत्रवधू भाई पत्नी और बोरस पुत्र के सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । 2 सम्यक् दर्शन वाला पुरुष अपनी बुद्धि से यह अर्थ देखें, गुढि और स्नेह का न करे, पूर्व परिचय की अभियान करे। जो गुण (इन्द्रिय-विषय) है वह (कषावरूप संसार का ) मूल स्थान है जो मूलस्थान है, वह गुण है। इस प्रकार आगे कहा जाने वाला विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से प्रगत होकर जीवन बिताता है। वह इस प्रकार मानता है मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई हैं, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है मेरी है, मेरी पुत्र है, मेरा जन-सी है मेरे विविध प्रचुर उपकरण (अश्व, रथ, आसन आदि) परिवर्तन ( लेने देने की सामग्री) भोजन तथा वस्त्र है। इस प्रकार मेरेपन ( ममत्व ) में आसक्त हुआ पुरुष; अमस होकर उनके साथ निवास करता है। वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त चिन्तित एवं तृष्णा से आकुल रहता है। काल या अकाल में प्रयत्नशील रहता है। यह संयोग का अर्थी होकर नर्म का लोभी बनकर सूट-पाट करने वाला चोराहा जाता है। महताकारी दुःसाहसी और विना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है। विविध प्रकार की आशाओं में उसका चित्त फंसा रहता है। वह बार-बार शस्त्र प्रयोग करता है। संहारक आक्रामक बन जाता है । इस संसार में कुछ एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है । जैसे- श्रोत्र प्रज्ञान के परिहीत ( सर्वथा दुर्बल) हो जाने पर, शु-ज्ञान के परिहीन होने पर अज्ञान के परिहीन होने पर रख-प्रधान के परिहीन होने पर प-ज्ञान के परिहीन होने पर ( वह अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है) । वय - अवस्था यौवन को तेजी से जाते. हुए देखकर वह चिन्ताग्रस्त हो जाता है और फिर एकदा ( बुढ़ापा आने पर ) मूढभाव को प्राप्त हो जाता है । वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ( पत्नी पुत्र आदि ) कभी उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी स्वजनों की निन्दा करने लगता है । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ धरणानुयोग पालं ते तव साणाए वा सरणाए था, तुमं पितेसि णासं सागर वा सरणाए वा से हसाए किड्डाए मरीए पि आ. सु. १, अ. २. उ. १, सु. ६३-६४ तेपुवि पोलि सोवा ते जिमच्छा पोसेज्जा । पालं ते तव तागाए था सरणाएं बा, तुमं पिसेसि पालं वाणश्ए वा सरणाए वा । उवादीत सेसेण वा संणिहिसंणिचयो कज्जति ब्रहमेस भागया नोयणाए । स्वजन शरणदाता नहीं होते सोया पायासमुति जेहि वा सद्धि संवसति ते व षं एगया गियगा पुब्वि परिहरति सोवा ते जियए पच्छा परिहरंज्जा । णालं ते तब ताए या सरणाए वा सुमपि तेसि जालं तागाए वा सरणाए वा । एते जिला भो ! म सरणं हे पुण्यसंयोग परियाय agree अपलो • वाला पंडितमानियो । सिया feeatवदेसगा ॥ विकलं तेसु ण मुन्छ । मग मु िजाए हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने मोर तुझे शरण देने में समर्थ हैं और न ही उनकी रक्षा करने व शरण देने के लिए - आ. सु. १, अ. २. उ. १. सु. ६५ (ख) ५७ समर्थ है। सराव सामा दहमेवेति महियें। अगर अभारमे चिना पर ॥ सूत्र ६६६ हे पुरुष । वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं है। तू भी उन्हें याण या शरण देने में समर्थ नहीं है। वह बुरा पुरुष, न हंसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति सेवन के और न शृंगार के योग्य रहता है । जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी (शैशव एवं रुग्ण अवस्था में उनका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन ) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं है। तुम भी उनको प्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो । (मनुष्य) सम्भोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोगभोजन के लिए उपयोग में लेता है। ( अनेक भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (कुष्ठ रोग आदि के कारण पूना करके पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन स्नेहियों को छोड़ देता है । हे शिष्यो ! ये (असंवृत्त साधु साधु (काम, क्रोध आदि से अथवा परीषह उपसर्ग रूप शत्रुओं से) पराजित हैं, (इसलिए ) ये धरण लेने योग्य नहीं है (अथवा स्वशिष्यों की शरण देने में समर्थ नहीं है। दे अज्ञानी अपने आपको पण्डित मसम्पत्ति आदि) को तथा स् मानते है योग बन्धुबान्दर, छोड़नार भी (दुसरे वारम्परिक को सावच कृत्यों का उपदेश देते हैं। विद्वान भिक्षु उन (आरम्भ-परिग्रह में आसक्त साधुओं) को भलीभांति जानकर उसमें मुच्छ ( आसक्ति ) न करे, अपितु ( वस्तु स्वभाव का मनन करने वाला) मुनि किसी प्रकार का मद न करता डुवाउन अन्तर्षिको ग्रहस्थों एवं मिथिलानारियों के साथ संसर्ग रहित होकर मध्यस्थ भाव से संयमी जीवन-यापन करें; या मध्यस्थवृत्ति से निर्वाह करे । मोक्ष के सम्बन्ध में कई (अन्यतीर्थी) मतवादियों का कथन है कि परिग्रहधारी और बारम्भ ( हिसाजनक प्रवृत्ति) से जीने - सूप. सु. १, भ. १, उ. ४, मा. १-३ वाले जीव भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु निन्य भाव भिक्षु अपरिग्रही और अनारम्भी को शरण में जाए। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूच ७००-१०२ कर्मवेदन-काल में कोई शरण नहीं होता चारित्राचार [४५५ कम्मवेयणकाले नको विसरणं कर्मवेदन-काल में कोई शरण नहीं होता७.०. जे पावकम्मेहि घणं मणुसा ७००. जो मनुष्य कुमति को स्वीकार कर पापकारी प्रवृत्तियों से समायषन्ती अपई महाप । धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देख ! वे धन को छोड़कर मौत पहाय ते "पास पट्टिए" नरे के मुंह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कम) से बन्धे हुए मरकर वेराणुबखर नरयं उदेति से नरक में जाते हैं। सेणे जहा सन्धि-मुहे गहीए जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी घोर अपने कर्म से सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इस लोक और परलोक में प्राणी एवं पया पंडन इहं च लोए अपने कुतकर्मो से ही छेदा जाता है। किये हुए कर्मों का फल "आण कम्माण न मोक्खु अस्थि" ॥ भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। संसारमावन्न परस्स अट्टा संसारी प्राणी अपने बन्धु-जनों के लिए जो साधारण कर्म साहारण जंच करे कम्म। (इसका फन मुझे भी मिले और उनको भी -ऐसा कर्म) करता कम्मरस ते तस्स उ वेय-काले है, उस कर्ग के फल-भोग के समय वे बन्धु-जन बन्धुता नहीं बन्ध, धुक्यं वन्ति ॥ दिखाते-उसका भाग नहीं बंटाते । वितण ताणं न लभे पमस्ते प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण इमंमि लोए अदुवा परत्था । नहीं पाता । अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो उसकी वीव पण8 व अणस्त-मोई भौति, अनन्त' मोह बाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को नेया उयं बढ़मदटमेव ॥ देखकर भी नहीं देखता है। -उत्त. अ. ४, गा. २-५ PETA अपरिग्रह महावत आराधना का फल-५ अपरिमाह ाराहणफलं .. अपरिग्रह आराधन का फल७०१. इमं च परिगाह-वेरमण-परिरक्षणटुयाए पावयण भगवया ७०१. परिग्रहविरमण प्रत के परिरक्षण हेतु भगवान् ने यह सुकहिय, अत्तहिय, पेन्धाभाविय, आगमेसिमद, सह, नेया- प्रवचन (उपदेश) कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी उयं, अकुटिलं, अणुत्तरं, राज्य पक्ष-पावाण-विमोसमणं। है, आगामी भवों में उत्तम पल देने वाला है और भविष्य में -पहल सु. २, अ० ५, सु० १२ कल्याण करने वाला है यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वो स्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वया शान्त करने वाला है। सुहसायाफलं-- सुख-स्पृहा-निवारण का फल - ७.२.५०--सुहसाए मंते ! जीवे कि जणय ? ७०२. प्रा--भन्ते ! मुख की स्पृहा का निवारण करने से जीव क्या प्राप्त करता है? ३०-सुहसाएर्ण अणुस्सुयतं जगया। अणुस्सुपत्ताए णं जीवे 30-सुख की स्पृहा का निवारण करने से बह विषयों के अणुकम्पए अणुग्म विगयसोगे बरित्तमोहणिज्ज कम्म प्रति अनुत्सुक-भाव को प्राप्त करता है। विषयों के प्रति अनुखवेद । त्सुक जीव अनुकम्पा करने वाला, प्रशान्त और शोकमुक्त होकर -उत्त. ब. २१, सु. ३१ चारित्र को विकृत करने वाले मोह-कर्म का क्षय करता है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ वरणानुयोग विनिवर्तना का फल प्रत्र ७०३-७०४ विणियट्टणाफलं-- विनिवर्तना का फल७०३. १०-विणियट्टणयाए गं भंते ! जीवे कि जणयह ? ७०३. प्र०-भन्ते । दिनिवतंना (इन्द्रिय और मन को विषयों से दूर रखने) से जीव क्या पाप्त करता है? उ०—विणियट्टणयाए णं पायकम्माणं अकरणयाए अन्भुट्ठी। उ०-विनिवर्तना से वह नये सिरे से पाप-कर्मों को नहीं पुश्वयद्वाण य निज्जरणयाए तं निपत्तइ तो पच्छा चाउरतं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्व-अजित पाप-कमों का संसारफतारं बीइबयह। क्षय कर देता है-इस प्रकार वह पापकर्म का विनाश कर देता -उत्त. अ. २६, सु. ३४ है। उसके पश्चात् चार-गति रूप चार अन्तों वाली संसार अरबी को पार कर जाता है। आसक्ति करने का प्रायश्चित्त-६ सहसवणासत्तिए पायच्छित्त सुत्ताई.-. शब्द धबणासक्ति के प्रायश्चित्त सूत्र७०४. जे मिक्खू १. भेरि सहागि वा, २. पडह-सहाणि वा, ३. ७०४. जो भिक्षु (१) गेरी के शब्द, (२) पटह के शब्द, (३) मुरव-सहाणि वा, ४. मुइंग-सद्दरणि था, ५. दि-सदाणि या, गुरज के नन्द, (४) मृदंग के शब्द. (२) नान्दी के शब्द, (६) ६. सल्लरी-सद्दाणि वा, ७. वल्लरि-सद्दाणि वा, ८. डमख्य- झालर के माद, (७) वल्लरी के शब्द (८) डमरू के शब्द (6) सदाणि पा. ६. मडय सदाणि वा, १०. सबढुय-सामि महार के गन्द ... सदृश के सद(११) प्रदेश के शब्द, ११. पएस-सहाणि बा, १२. गोलुकि सद्दापि वा अन्नयराणि (१२) गोजुकी के शब्द अन्य ऐसे वादों के शब्द सुनने के संकल्प पा तहप्पगाराणि बितताणि सहाणि कण्णसोय-पडियाए अभि- से जाना है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन संधारेइ अभिसंधारेत बा साइजह : करता है। जे भिक्खू १. वीणा सदापि वा, २. विपंचि-सहाणि या, ३. जो भिक्ष (१) बीणा के गब्द, (२) विपंची के शब्द, (३) सुण-सहाणि या, ४. बावीसग सहागि वा, ५. वीणाक्ष्य- तूण के शब्द, (८) बब्बीशग के शब्द, (२) वीणादिक के सन्द, सहाणि बा, ६. तुंबवीणा-सहाणि वा, ७. सोडय-सहाणि वा, (६) तुम्बवीणा के शब्द, (७) जोटक के शब्द, (4) हुंकुण के #. ढंकुण सहाणि चा. अण्णर्यराणि वा तहप्पगाराणि तताणि शब्द अन्य ऐसे वाद्यों के शब्द सुनने के संकल्प से जाता है, जाने सहागि कण्णसोय-पडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारतं वा के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। साहज्जा। ने भिक्खू १. ताल-सहाणि वा. २. कंसतास-सहाणि बा, ३. जो भिक्षु (१) ताल के गद, (२) कंसताल के शब्द, (३) लिस्तिय-सदाणि वा, ४. गोहिय-सदाणि या, ५. मकरिय- लत्तिक के शब्द, (४) गोहिक के शब्द, ५) मकर्य के शब्द, सहाणि था, ६. कच्छभि-सहागि वा, ७. महति-सहाणि वा, (६) कच्छभि के पद, (७) महती के शब्द (८) शापालिका के ८. सणालिया सहाणि या, इ. वलिया-सहाणि वा अण्णयराणि शब्द, (E) बलीका के शब्द, अन्य ऐसे शब्द सुनने के संकल्प से या तहप्पगाराणि धणाणि सहाणि कण्णसोव-पडियाए अभि- जाता है. जाने के लिए कहला है, जाने वाले का अनुमोदन संधारे अभिसंधारते वा साइज्जइ। करता है। से भिक्खू १. रुख-सहाणि था, २. बंस-सहाणि वा, ३. वेणु जो भिा (१) पल के शब्द, (२) वाम के शब्द, (३) वेणु सहाणि बा, ४. खरमुही-सहाणि वा, ५, परिलिस-सहाणि के शब्द, (४) खरमुहि के शाद, (५) परिलिस के शन्द, (६) वा, ६. वेवा-सहाणि वा अण्ण यराणि वा तहप्पाराणि अति- बेगा के शब्द अन्य ऐसे ही पान्द सुनने के संकल्प से जाता है, राणि सहागि कण्णसोय परियाए अमितधारेड अभिसंधारेंस जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। वा साइजह । तं सेवमाणे आवज चाउम्भासिपं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि.उ.१७, सु. १३५-१३८ आता है।। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७०५ वनावि (प्राकारावि) शम्म श्रवण के प्रायश्चितंत्र धारित्राचार [४५७ बप्पाइसु-सहसवणासत्तिए पायच्छित सुताई- वनादि (प्राकारादि) शब्द श्रवण के प्रायश्चित्त सूत्र७०५. जे भिक्खू, १. वत्पाणि या, २. फलिहाण या, ३. उप- ७०५. जो भिक्षु (१) प्राकार, (२) खाई, (३) उत्पल, (४) सापि वा, ४. पल्ललाणि वा, ५. उज्ज्ञराणि वा, ६. णिज्न- पल्लव, (५) धोध, (६) मरना, (७) वापी, (८) पुष्करिणी, रागि वा, ७. बाबीणि बा, ८, पोक्खरागि वा, ६.बीहि- (९) लम्बी बावड़ी, (१०) गम्भीर और टेढ़ी-मेढ़ी जल वापिकाएं यागी वा. [१०. गंजानियाणी वा.] ११. साराणि वा. [(११) सरोवर (बिना खोदे बना हुआ तालाब), (१२) सरोवर १२. सर-पतियाणि वा, १३. सर-सर-पंतियाणि वा कण्ण- की पंक्ति और (१३) सरोवरों की पंक्तियों से आने वाले शब्दों सोय-पडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं का साइज्जइ। को सुनने के संकल से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू १. कच्छाणि वा, २, गहणाणि वा, ३. गूमाणि जो भिक्षु (१) कच्छ, (२) जंगल, (३) झाड़ी, (४) गहन वा, ४. वणाणि वा, ५. वण-विदुग्गाणि वा, ६. परत्रयाणि वन, (५) बन (में) दुर्ग, (६) पर्वत, (७) पर्वत दुर्ग से आने वाले वा, ७. पन्वय बिमागि वा कपणसोय-पडियाए अभिसंधारेइ शब्दों को सुनने के संकल्प से आता है, जाने के लिए कहता है, अभिसंधारतं वा माइज्जइ। जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू १. गामाणि वा, २. गगराणि वा, ३. खेडाणि जो भिक्ष (१) ग्राम, (२) नगर, () खेड़ा, (४) कुनगर, वा, ४. करवाणि डा, ५, महंवाणि वा, ६. शेणमुहाणि (५) मडंब, (६) द्रोणमुख, (७) पट्टण, (८) आगर (सदाने). था. ७. पट्टणाणि वा, ८. आगराणि वा, ६. संवाहाणि वा, (६) डाणी. (१०) सन्निवेश से आने वाले शब्दों को सुनने के १० सणिवेसाणि वा कण्णसोय-पष्टियाए अभिसंधारेइ अभि- संकल्प से जाता है. जाने के लिए कहता है जाने वाले का अनुसंधारत वा साइज्ज । मोदन करता है। ने मिक्लू १. गाम-महाणि वा, २. णगर-महागि या, ३. खेड- जो भिक्षु (१) ग्राम उत्सन, (२) नगर उत्सव, (३) खेड़ा महागि वा ४. कन्नड-महाणि बा, ५ मांच-महाणि वा, उत्सव, (४) कुनगर उत्सव, (५) मडंव उत्सव, (६) द्रोणमुख ६. दोगमुह-महाणि वा, ७. पट्टण-महाणि था, ८. आगार- उत्सत्र. (७) पट्टण उत्सव. (0) आगर उत्सव, (९) ढाणी उत्सब महाणि वा, ६. संबाह-महाणि या, १०. सग्गिवेस महाणि (१०) सन्निवेश उत्सव से आने वाले शब्दों को सुनने के संकल्प मा कण्णसोष-पशियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारतं वा से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन साइम्जा । करता है। जे भिक्खू गाम-वहाणि वा-गाव-सण्यियेस-वहाणि वा कण्ण- जो भिक्षु ग्रामवध -यावत्स न्निवेशवध से आने वाले सोम-पडियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा साइजा। शब्दों को सुनने के संकल्प से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू गाम-वहाणि वा-जाव-सण्णिवेस-वहाणि वा कण- (जो भिक्षु ग्रामदाह-यावत–सन्निवेशदाह से आने झाले सोय-पडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जद। शब्दों को सुनने के लिए जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है।) ने मिक्खू गाम-पहाणि वा-जाव-सणिवेस-पहाणि वा कण- जो भिक्षु ग्राम पर यावत्-सनिवेश पथ से आने वाले सोय-पडियाए अभिसंवारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ। शब्दों को सुनने के संकल्प से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू १. आस-करगाणि वा, २. हस्थि-करणाणि वा, जो भिक्षु (१) घोड़ा, (२) हाथी, (३) ऊँट, (४) बेल, ३. उट्ट-करणाणि वा, ४. गोण-करणाणि था, ५. महिस- (५) भंसा, (६) शूकर के शब्दों को सुनने के संकल्प से जाता है, करणाणि वा, ६. सूकर-करणाणि वा कण्णसोप-पडियाए जाने के लिए कहता है जाने वाले का अनुमोदन करता है। मभिसंधारेर अभिसंधारतं यश साहजह। जे भिक्खू १. हय-जुहाणि वा, २. गय जुखाणि वा, ३. उट्ट- जो भिक्षु (१) पोड़ों का युद्ध, (२) हाथियों का युद्ध, जुवापि था, ४. गोग-जुखाणि वा, ५. महिस-जुताणि वा, (5) जटों का युद्ध, (4) बैलों का युद्ध, (५) भैसों का युद्ध, [मेंत-जुखागि वा. कुक्कुड-जुवाणि वा, तित्तिर-शुवाणि वा, (गौंडा युद्ध, कुनकुट युद्ध, तिसर युद्ध, बतक युद्ध, लावक (पक्षी. Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] चरणानुयोग इहलौकिक शब्दों में बालिका प्रायश्चिस सुद्धा वा वाय-युद्धाणि वा महि-मुवाणि वा विशेष) पुस ) ६. कर युद्ध के शब्दों को सुनने के ६ कराणि या बताना कापसे जाता है,जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनु सिंधारे भारत वा साइ मोदन करता है । १. उज्जूहिया-ठाणाणि या [जिम्हूहिया-ठाणाणि ब] २. पहिया ठाणाणि वा द. गमज़हिया ठाणाणि वा कण्णसोय-पडियाए अभिसंधारे अभिसंधारं या साइज्जइ । जे १. अभियानाणि वा २ अक्खाइपठाणाणि ३. माध्माणि डाणानि वा ४. मध्याय ४. म. ६. गीय, ७. वादिय, ८ तंतो, ६. तल १०. ताल ११.१२ उमाणि वासीय परियार furts afसंघातं वरसाइज्जइ । भिक्खू १. डिबाराणि वा, २. उमराराणि वर ३. खरा ४. रानिया महादान वा ६ महासंगमाथि ७. मोनिका कोन्यविया अभिसंधारे अभिसंधार वा साइज्जद्द । सूत्र ७०५-७०३ जेसिव विव- महुस्सबैसु इत्योगि वा पुरिसाणि वारा वा गाथा दहराणि वा याणि पर, मलकियाणि वा, गायंताणि वा, वायंताणि वा वाण या बाएमाणि वा मोहं वा विपुलं असणं या जाव-साइमं वा परिमाएतानि बा, परिताणिवा, कण्णसोय पडियाए अभिसंधारे अभि संघातं वा सरइज्जइ । · जो (१) टन से आने वाले नामों के हो (अटवी में जाने वाले गायों के यूथ को) (२) घोड़ों के यूथ को, (३) हाथियों के यूथ से आने वाले शब्दों को सुनने के सकल्प से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का बनुमोदन करता है । जो भिक्षु (१) अभिषेक स्थान (२) जुआ खेलने का स्थान, (३) माप-तौल के स्थान (४) महाबलशाली पुरुषों के द्वारा जहाँ पर जोर जोर से बाजे बजाये जा रहे हों ऐसे स्थान ( ५ ) नृत्य. (६) गीत (७) नाथ, (८) कभी, (२) (१०) (११) त्रुटित, (१२) घन-मृदंग आदि के स्थान से आने वाले शब्दों को सुनने के य से जाता है, जाने के लिए है, जाने वाले का अनुमोदन करता है । (१) " (१) विद्रोह करने वाले को (२) कोश करने वाले को, (४) वैर भाव रखने वाले (५) महायुद्ध को (६) महाबा को, (७) को, (५) शमी-यशोय करने वाले शब्दों को चुनने के से जाता है. जाने के लिए कहता है. जाने वाले का अनुमोदन करता है . जो भिक्षु अनेक प्रकार के उत्सकों में स्त्रियों को, पुरुषों को, स्वदिरों को, मध्यमवय वालों को मानकों को बननों को, सुअलंकृतों को गाने वाले को, बजाने वाले को नाचने वाले की, हंसने वाले की, रमण करने वाले को मुग्धों को (जहाँ विपुल अशन यावत् स्वाद्य बांटा जाता है या परिभोग किया जाता है ऐसे स्थान से जाने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाता है, जाने के लिए है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिकालिक परिहारस्थान ( आता है। सेवमाने आवास परिहारद्वा - नि. उ. १७. सु. १३९-१५० लोहास आसलिए पापछतमु इहलौकिकादि शब्दों में आसक्ति का प्रायश्चित्त सूत्र७०६. जे सिक् १. इहलोह वा समु' २. परलोह वा स. ७०६. जो भिक्षु ( १ ) इहलौकिक शब्दों में, (२) पारलौकिक सु. ४. वा स. ५. सुर वा जदों में, (३) पुष्टों में, (4) बष्टशादी में, (४) अनु वा स ७ विगाए वादों में, (५) शब्दों में, (७) शाशदों में, (८) अज्ञात ८. अण्णा वा सद्दसु सज्जइ रज्जइ. गिज्झह, अन्नो शब्दों में, आसक्त, रक्त, गृद्ध और अत्यधिक गृद्ध होता है, होने होने वाले का अनुमोदन करता है। ३. समाया या असो को ववज्जमानं वा साइज्जइ । १ भाष्य सु १५१ में यहाँ ससु के स्थान पर रुसु शब्द है परन्तु सद्देसु शब्द उपयुक्त होने से निशीथ गुटके के अनुसार यहाँ यह सूत्र इस प्रकार लिया है। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७०0-905 गायन आदि करने का प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार rk तं सेवमाणे भावजा चाउम्मासियं परिहारदामं उघायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. १५१ आता है। गायनाइ करणस्स पायच्छित सुत्तं गायन आदि करने का प्रायश्चित्त सूत्र७०७. ने पिसू १ गाएन वा २. हसेज्ज वा, ३. बाएज्न वा ७०७, जो भिक्षु (१) गाये, (२) हँसे, (३) वजाये, (४) नाचे, ४. परवेज वा. ५. अमिणएज्ज वा ६. हय-हेसियं वा, (५) अभिनय करे, {E) घोड़े की आवाज, (७) हाथी की गर्जना, ७. हत्यिगुलगुलाइयं वा, ८. उरिक सोहणायं वा करेइ और () सिंहनाद करता है, करवाता है, करने वाले का अनुकरत का साइज्जा। मोदन करता है। सं सेवमाणे आवज चाउम्मासियं परिहारहाणं उपाय। उसे चातुर्गासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१७, सु. १३४ आता है। महाइणावीणियंकरणस्स पायरिछत्त सुसाइं--- मुख आदि से बीणा जैसी आकृति करने के प्रायश्चित्त सूत्र७०८, भिक्खू बह-वाणियं करे हरे बा साहज्जा। ७०८. जो भिक्षु मुंह को वीणा (वाद्य ध्वनि) योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू संत-वीणियं करेइ, करेंतं वा साइज्जन । ___ जो भिक्षु दांतों को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उटू-वीणियं करेह, फरस वा साइजह । जो भिक्षु होठों को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । से भिक्खू नासा-बोणियं करेइ, करेंतं वा साइना । जो भिक्षु नाक को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। के शिम कपख-बोणिय करे, करेंत या साइजाद । जो भिक्षु कांख को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिमल हस्प-वीणियं करेइ. फरेंसं वा साइज्जा । ___ जो भिक्षु हाथ को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्यू ना-बोणियं करे, करेंत या साइज्जइ । ___ जो भिक्षु नखों को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिखू पत्त-योणिय करेड, करें या साइजह । जो भिक्षु पतों को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने बाले का अनुमोदन करता है। जे भिखू पुष्प-चोमियं करे, करतं मा माइज्म । ___ जो भिक्षु पुष्प को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू पल-चीगिय करे, करता साजा। जो भिक्षु फल को बीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिवू धोय-बीजियं करेग, करेंतं वा साहना । जो भिक्षु बीज को वीणा के योग्य करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिरखू हरिय-योगिय कफ, करेंतं वा साइजद। जो भिक्षु हरी वनस्पति को वीणा के योग्य करता है, कर वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। स सेवमाणे आवमा मासिकं परिहारहाणं नाबाहय । ___उरो मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. 3. ५, सु. १६४७ आता है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. चरणानुयोग मुख आवि से चौगा जसो म्यान निकालने के प्रायश्चित्त सत्र सूत्र ७०६-७१. मुहाइणाविणियं वायणस्प पायच्छित मुत्ताई मुख आदि से बीणा जैसी ध्वनि निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र७०६. भिक्खू मुह-वोणियं वाएइ, वाएंतं वा साइज्जा। ७०६. जो भिक्षु मुंह से बीणा बजाता है बजाता है. बजाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू वंत-बोणियं शएइ, बाएतं वा साइज्जा । ___ जो भिक्षु दांतों से बीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है । मे भिक्खू उटु-वीगियं वाएइ, वाएतं वा साहज्जह । जो भिक्षु होठों से दीणा बजाता है, वजवाता है, बजाने चाले का अनुमोदन करता है। से भिवषु नासा-वीणिय वाएड पाएंत या साइज्जइ । जो भिक्षु नाक से वीणा बजाता है। बजबाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिमसू कक्स-बोणियं वाएइ, वाएत वा साइज्जन । जो भिक्षु कांख से वीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू हाथ-धीगियं बाएइ, वाएतं वा साइज्जद । जो भिक्षु हाथ से वीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। मिक्खू मह-बोणियं वाएइ, वाएंतं वा साइजइ । जो भिक्षु नयों से दीणा अजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिळू पस-बीणियं वाएइ, बाएंतं वा साइजह । जो भिक्ष पत्तों से वीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पुष्फ-वीणियं बाएइ, वाएंतं पा साहज्जा। जो भिक्ष पुष्पों से वीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। - जे भिमबू फल-वीगियं बाए, बाएंत वा साइजह । जो भिक्षु फल से बीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। - जे भिवा-यीय-धीणियं वाएह, वाएंतं वा साहज्जइ । जो भिक्षु बीज से वीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। में मिक्स हरिय-वीगियं वरएइ, वाएतं का साइज्जड । जो भिक्षु हरी वनस्पति से बीणा बजाता है, बजवाता है, बजाने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणे आवज्जई मासिय परिकारद्वाणं जग्घाइयं । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ५, सु. ४५-५६ आता है। बप्पाइ अवलोयणस्स पायच्छित्तसुत्ताई वप्रादि अवलोकन के प्रायश्चित्त सूत्र७१०. से भिक्खू वम्पाणि श-जाव-सरसरपंतियाणि वा चक्षुरसण १०. जो भिक्षु प्राकार-याद-तालाबों की पंक्तियों को 'पग्यिाए अभिसंधारे अभिसंधारेत वा साइजह । देखने के संकल्प से जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कछाणि वा-जाव-पत्यय-विचुग्गाणि वा क्ल- जो भिक्षु कच्छ-थावत्-पर्वत दुर्ग को देखने के संकल्प से बसग पडियाए अभिसंधारे। अभिसंधारेत वा साइज्जद। जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू गामाणि वा-जाव-सम्णिवेताणि वा चनखुवंसण- जो भिक्षु ग्राम-यावत्-सग्निवेश को देखने के संकल्प से पडियाए अभिसंधारेच अमिसंधारतं वा साइज्जद । जाता है, जाने के लिए कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७१३-७१५ www गन्ध सूचने का प्रायश्चित भ तं सेवमाने आज मासि परिहाराणं चाइ - नि. उ. २, सु. ६ आता है। गंध-जण पायच्छित सुत्तं मन्ध सूचने का प्रायश्चित सूत्र ७१३. जे भिक्खू अनिलपट्टियं गंध जिग्बद, जिग्यं वा साइज्जइ । ७१३. जो भिक्षु अचित्त प्रतिष्ठित गन्ध सूषता है, सुवधाता है, सूने वाले का अनुमोदन करता है। अप्प विडोवगेण हत्थाइपोषण पायच्छित सुतं -- ७१४. जे भिक्खू लहुसन सो मोषविशेण वा उसिणोगवियडेग या हत्याणि या पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छिणी वा वा नहाण या मुहं वा उच्छोलेन्ज वा पच्छोलेज्ज वा उच्छतं वा पच्छोलतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं । नि. उ. २, सु. २१ को उहल्ल पडियार सच्चकरजकरणस्स पायच्छित सुताई ७१५. जे भिक्खू को जहल्ल- वडियाए अण्णयरं तपाणजाई १. तण पास था. २. मुंज-पासण वा ३ कटु-पासएण वा. ४. सम्म पासएण बा. ५. बेल- पासएन वा ६. रज्जु-पासएण खा, ७. सुप्त - पासएण वा बंद वा साइज्जइ । चारित्राचार के भिक्खू कोहस्त-महिमा समासि वावरिय मालियं वा पिवच पिनद्धं वा साइज । [४६३ चिक्को उहलवाहाणि वा २. लोहाणि वर ३ तज्यलोहाणि वा ४. सोसलोहाणि वा उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्विस) अप अत्ति जल से हाथ धोने का प्रायश्चित सूत्र७१४. जो भिक्षु अल्प अचित्त शीत जल या अल्प मचित्त उष्ण जल से हाथ, पैर, कान, आँख, दाँत, नख या मुंह (आदि) को प्रक्षालित करता है. धोता है प्रक्षालित करवाता है, धुलवाता है. या प्रक्षालन करने वाले का, धोने वाले का अनुमोदन ७१५. जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से किसी एक बस प्राणी को (१) तृण के पास से. (२) मुंज के पास से (३) काष्ट के पास से, (४) चर्म के पास से, (५) क्षेत्र के पास से, (६) रज्जु के पास से, (७) सूप के पास हे बांधता है. बंधवाता है बांधने वाले का अनुमोदन करता है । परिवार अमर सपा जे भिक्खू को पास जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से किसी एक यस प्राणी जाति वा जाव सुतपासण वा बल्ल मुड़ सुतं वा को तृण पास से पावत् सूत्र पास से बँधे हुए को मुक्त करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । साइज । जे भिक्खू को उहल्ल-पडियाए १. तणमालियं वा २. मुंजमालियं वा २. मालियं वा ४ मणमालियं वा ५. डिमालिया ६. अंतमालियं वा ७ सिगमालिय वा. ८.१० रुमाल वा, ११ मालिया, १२. पुष्कप्रालि वा १३. फलमालियं वा १४ बोयमालियं वा १५. हरियमालियं या करेद्र, करें या साइज्जह जे भिक्खू कोडहरुल-पडियाए तण-मालियं बा जाव- रिय मरलियं धरेद्र घरतं वा साइज्जह | - है. उसे मासिक उद्घानिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। कौतुहल के संकल्प से सभी कार्य करने के प्रायश्चित्त सूत्र -- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से (१) तृण की माला, (२) मूंज की माला ( ३ ) भीड की माला (2) मदन की माला, (५) पीठ की माला. (६) दंत की माला. (७) सींग की माला, ( २ ) की माता (६) की मात्रा (१०) काष्ट की माला. (११) पत्र की माला, (१२) पुष्प को माला, (१३) फल की माला, (१४) बीज की माला, (१५) हरित की माला करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से तृण की माला - यावत्हरित की माला धरता है धरवाता है. धरने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु कोतुहल के संकल्प में तृण की माला यावत्हरित की माला पहनता है, पहनावा है, कानु मोदन करता है । जो भिक्षु कौन के संकल्प से (१) अबोहर (२) तांब लोहा, (३) त्रपु लोहा, (४) सीसक लोहा, (५) रूप्य लोहा, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) भरणामुयोग ह लौकिक आदि कामों में आसक्ति रखने का प्रयास सत्र ७११-७१२ तं सेवमाने बावज्जा चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिन) --नि, उ. १२, सु. १६-२८ आता है। दहलोइयाइवेसु आसत्तिए पायच्छित्त सुत्तं - इहलौकिक आदि रूपों में आसक्ति रखने का प्रायश्चित्त सूत्र७.१. जे भिक्खू १. इहलोइएसु वा स्वेसु, २. परलोइएसु वा ७११. जो भिक्ष (१) इहलौकिक रूपों में, () पारलौकिक रूपों स्वेसु, ३. क्टुि सु वा रुवेसु, ४. अदि?'सु वा हवेसु. ५. सुएसु में, (३) दृष्ट कयों में, (४) अदृष्ट रूपों में, (५) श्रुत रूपों में, वा बेसु. ६. अमुएसु वा स्येसु, ७. विग्णाएसु वा रुवेसु, (६) अश्रुत रूपों में, (७) शात कों में, (0) अज्ञात रूपों में . अविण्णाएमु वा बेसु. सज्जइ रस्जद गिज्यइ अजमोव- आसक्त, रक्त, गुद्ध और अत्यधिक गृह होता है, होने को कहता वजह सज्जमाणं षा, रज्जमाणं वा, गिज्झमाणं वा, अशो- है, होने वाले का अनुमोदन करता है। वबज्ममाणं या साइजा। सं सेवमाणे भावग्जद बाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाहयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) नि. उ, १२, सु. २६ आता है। मत्ताइए अत्तवसणस्स पायपिछत्त सुताई पान आदि में अपना प्रतिबिम्ब देखने के प्रायश्चित्त सूत्र७१२. भिक्खू मत्तए अप्पाणं वेहद बेहतं वा साइजइ । ७१२. जो भिक्षु पाव में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिक्स् अहाए अप्पागं बेहद बेहत बा साहम्मद । ___ जो भिक्षु आरीसा में अपना प्रतिविम्ब देखता है, देखने को कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिपजू असीए अप्पाणे वेहद बेहतं वा साइज्जइ । जो भिक्षु तलवार में अपना प्रतिबिम्ब देखता है. देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू मणौए अप्पाणं बेहद देहतं वा साहज्जद । जो भिक्षु मणि में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिमधू कुहा पाणे अपागं देहइ देहतं वा साइना । जो भिक्षु कुंड के पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है । में भिक्खू तेरुले अप्पार्ण वेहह बेहतं था साइजइ । जो भिक्षु तेल में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है । मे भिनल माए अपाणं वेहद बेहतं वा साइजइ । ___ जो भिक्ष मधु में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिम सप्पिए अपाणं बेहद बेहतं वा साइण्जद। ___जो भिक्षु घी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिक्खू फाणिए अप्पाणं वेहड बेहतं वा साइजह । जो भिक्षु गुड़ में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। में मिक्खू मज्जए अप्पाणं वेहह बेहतं वा साइज्जह । जो भिक्षु मज्जा में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू वसाए अप्पा बहा देहतं वा साहज्जइ । जो भिक्षु चरबी में अपना प्रतिबिम्ब देखता है, देखने के लिए कहता है, देखने वाले का अनुमोदन करता है । सं सेवमाणे आवजा वाचम्मासि परिहारदा उघाइयं । उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त) -नि.उ. १३, सु. ३१-४१ आता है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७१३-७१५ गन्ध सूंघने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [४६३ गंध-जिषण पायच्छिस सुत्तं गन्ध सूंघने का प्रायश्चित्त सूत्र-- ७१३. मे भित्र अरिसपट्ठियं गचं जिग्घर, जिात वा साइजइ। ७१३. जो भिक्षु अचित्त प्रतिष्ठित गन्ध सूचता है, सुंघवाता है, सूंघने वाले का अनुमोदन करता है। * सेवमाणे आवमा मासियं परिहारहाणं उग्धाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि.उ.२, सु. आता है। अप्पधियडोबगेण हत्थाइपधोवण पायच्छित्त सत्तं--- अल्प अचित्त जल से हाथ धोने का प्रायश्चित्त सूत्र७१४. भिक्खू लहुसरण सी प्रोवविद्यडेग वा उसिगोदवियण ७१४. जो भिक्षु अल्प अचित्त शीत जल या अल्प अचित्त उष्ण वा हापाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छिणी या जल से हाथ, पैर, कान, अखि, दात, नख या मुंह (आदि) को ताणि वा नहागि वा मुह वा उच्छोलेज वा पन्छोलेज वा शक्षालिन करता है. धोता है प्रक्षालित करवाता है, घुलवाता उन्छोलतं वा पछोलतं वा साहज्जद्द । है, या प्रक्षालन करने वाले का, घोने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि.उ. २. सु. २१ आता है। कोउहल्ल पडियाए सम्धकज्जकरणस्स पायपिछत्त सुत्ताई - कौतुहल के संकल्प से सभी कार्य करने के प्रायश्चित्त सूत्र७१५. जे भिक्खू कोउहल्ल-वडियाए अण्णयर तसपाणजाई. १. तण- ७१५. जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से किसी एक बस प्राणी को गासरण था, २. मुंज-पासएण वा, ३. कट्ठ-पासएण वा. (१) वृण के पास से. (२) मुंज के पास से (३) काष्ठ के पास ४. धम्म-पासएग वा, ५. वेत-पासएण वा ६. रज्जु-पासएण से, (४) चर्म के पास से, (५) वेत्र के पास से, (६) रज्जु के वा, ७. सुत्त-पासरण वर बघा धंतं वा साइजह। पास से, (७) सूत्र के पास से बांधता है, बंधवाता है, बांधने बाले का अनुमोदन करता है । जे मिक्सू कोउहरूल-पडियाए अण्णयरं तसपाण जाई सण- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से किसी एक त्रस प्राणी जाति पासएक वा-जाव-सुत्त-पासएक वा बहरलयं मुयइ. मुयंत वा को तृण पास से .. यावत् - सूत्र पास से बँधे हुए को मुक्त करता साइन्मा। है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिखू कोउहाल-पडियाए १. तणमालियं वा, २. मुंज- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से (१) तृण की माला, (२) मालियं था ३. भेगमालियं सा, ४ मपणमालियं वा, मुंज की माला, (३) भीड की माला. () मदन की माला, ५. पिछमालियं वा ६. समालियं वा, ७. सिंगमालिय बा, (५) पीछ की माला, (६) दंत की माला (5) सींग को माला, ८. संखमालियं वा. ६. हाडमालियं वा, १०, कटुमालियं (८) शंख की माला, () हड्डी की माला, (१०) काष्ट की वा, ११, पत्तमालिय वा, १२. पुष्कमालियं वा, १३. फल- माला, (११) पत्र की माला, (१२) पुष्प की माला, (१३) फल मालिप बा, १४. शीयमालियं वा, १५. हरियमालियं वा की माला, (१४) बीज की माला, (१५) हरित की माला करता करेक, करेंत वा साइजः । है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिमण कोउहरूल-पहियाए तग-मालियं वा-जाव-हरिय- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से तृण की माला-यावत्-- मालियं धरे घरेतं वा साइजई। हरित की माला धरता है. धरवाता है, धरने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षु कोउहरूल-पडियाए तण मालियं वा-गाव-हरिय- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्पामे तृण की माला -यावत्मालियं या विषा विणतं वा साईकाइ । हरित की माला पहनता है, पहनाता है, पहनने वाले का अनु मोदन करता है। भिक्खू कोउहल्ल-पडियाए १. अयलोहागि वा, २. तंब- जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से (१) अथलोहा, (२) तांत्र सोहाणि वा, ३. तज्यलोहागि वा, ४, सीसलोहाणि वा, लोहा, (३) पु लोहा, (४) सीसक लोहा, (५) रूप्य लोहा, -- - -- -..- -...-..-... - .. ---.- - Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४] चरणानुयोग कौतूहल के संकल्प से सभी कार्य करने के प्रायश्चित १.पा. लोहाणि वा करे या (६) सा जे भिक्खू को उस पडियाए अय- लोहाणि वा जाव- सुवरण लोहाणि वा घरे धरतं वा साइज्जइ । मोविए अब लोहा लोहाणि वा पिषद विणत या साइज्ज वाज | जे भिक्खू कोडहल्ल-पडियाए १. हाराणिवा, २. अवहाराणि वा. ३. एगाल वा ४. मुसा वा ५. कणगाव वा ६७. माथि वा विणिवा ९. राणि वा १०. या ११. पाणि बा. १२. उाणि वा. १३. पाणिचा १४. पण सुतानि धा करे, करें या साइज । मेडियाहारादिना जाना वा घरे, घरतं वा साइब्जइ । कोपाहाराभि वाजवण या पिट, पिगतं या साइज्जह। जे भिक्खू कोजहरूल पडिपाए १. आईनाणि वा, २. आई. यावराणि वा ३. कलाणि वा ४. कंबलपावराणि वा ५. कोयराणि वा. ६. कोयरपावराणि वा ७. कालमियाणी ८.सामा १० महासामाणि वा, ११. उट्टाणि वा १२. उट्टलेस्साणि वा १३. विद्याणि १४. विद्याणि वा १५. परसंगाणि वा. १६. सहिणाणि वा, १७. सकिल्लाणि वा १८. खोमाणि वा १६. दुगू लानि वा २०. पणलाणि वा २१. बावरंताणि वा २२. श्रीषाणि वा २२. पाणि वा गाणि वा अंसुयाणि कणकंवाणि २४. कमवा. १६. लाथि मा २७ कंग विचिताणिवा, २८ आमरण विवित्तागि वा करेह करें या साइज्जइ । २४ जे विष को-पहियाए आईणाचि वर जाव-जावरग विचित्ताणि वा धरेइ धरतं वा साइड 1 जे सिम कोजहरूल पडियार आईणाणि वा जाव-नामरणविवानिया (रिणदपि वा परिन, परिभूतं वा साइज | तं सेवमाणे आवह बाजम्मा सियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं । नि. उ. १७, सु. १-१४ मूत्र ७१५ मोहा करता है, करवाता है करने वाले का अनु मोदन करता है । 1 जो मि कौतुहल के संकल्प से अपलोहा-याषत् - सुवर्ण लोहा को धरकर रखता है, रखवाता है. रखने वाले का अनुमोदन करता है । जो कि के संकल्प से बाद गुव लोहा पहनता है, पनवाता है, पहनने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से (१) हार, (२) अर्धहार, (३) एकावली, (४) मुक्तावली (५) कनकावली, (६) रत्नावली, (७) टिन (८)बन्ध (१) र (१०) कुंडल, (११) पट्ट, (१२) मुकुट, (१३) सम्म (१४) सूत्र करे, करावे. करने वाले का अनुमोदन करे । ! जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से हार — पावद - सुवर्ण सूत्र घरकर रखे रखवावे, रखने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु कौतुहल से हार यावत् सुवर्ण सूत्र पहने, पहनावे, पहनने वाले का अनुमोदन करे । जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से (१) चर्म, (२) चर्म के वस्त्र, (३) कम्बल, (४) कम्बल के वस्त्र, (५) रुई, (६) रुई के वस्त्र, (७) कृष्ण मृग नर्म, (८) नील मृग चर्म. (६) श्याम मृग वर्म (१०) सांभर मृग पर्म (११) अँटी के वस्त्र, (१२) ऊँट की ऊन के कम्बल. (१२) व्याच चर्म. (१४) श्री का चर्म, (१५) परवंग के वस्त्र (१६) सहिण वस्त्र, (१७) चिकना सुखदायी वस्त्र, (१८) सोम वस्त्र, (१६) दुकूल वस्त्र, (२०) पणाल वस्त्र, (२१) आवरत वस्त्र, (२२) चीन वस्त्र, (२३) रेशमी वस्त्र, (२४) स्वर्ण जैसी कांति वाले वस्त्र (२३) स्वर्ण सूचों से बने वरच (२६) स्वयं वर्ण वाले महम (२७) विविध वर्ण वाले स्वर्ण वस्त्र और (२८) विविध प्रकार के आभरण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु कौतूहल के सकल्प से धर्ममावत्-आभरण घर के रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु कौतूहल के संकल्प से चर्म - बावत् आमरण का परिभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) जाता है । * Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६-७१६ राजा को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र वशीकरण प्रायश्चित - ७ रायसीकरणाण पायच्छित त' ७१६. जे भिक्खु रायं अत्तोकरेह अतीक वा साइज्ज जे भिक्खू राय अच्चीकरेद्र अच्चीकरें या साइज्जइ । भिक्खु रामं अस्थीकरेइ अस्थीकरें वा साइज्जइ । तं सेवमाने आज मासि परिहारद्वारा उद - नि. उ. ४, सु. १, ७, १३ आता है। अंगरखगवसीकरणाई पायटिस सुताई७१७. जे भिक्खु राधारविवयं अतीकरे अतीकरें या साइज्जइ । भिमरायारखि अरे अनोकर साह जे भिक्खू रायारविषयं अस्वीकरेड अत्यीक रेतं वा साइज्जइ । भिक्खू नगरारथिं अच्चीकरेह अच्चीकरें] वा साइज्जइ । नगरारविवयं अश्वोकरे मश्योकरें या साइज्जद्द तं सेवमाणे आवज मासियं परिहारट्ठाणं उपधाद्दयं । - नि. उ. ४, सु. ३, ६, १५ निगम रक्ख गवसीकरणाईणं पायच्छित्त सुत्ताई७१६. भिक्खू निगम रखियं अत्तीकरे मलीकरें या साइज्जइ अंगरक्षक को बस में करने आदि के प्रायश्चित सूत्र७१७ जो भिक्षु राजा के अंगरक्षक को वश में करता है, कराता है करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु (राजा के) अंगरक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जो (राजा) अंगरक्षक से प्रार्थना करता है कर वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । सेवमाणे यावर मारियं परिहारद्वाणं उपायं - नि. उ. ४, सु. २, ८, १४ गररबलगवसीकरणाईणं पायच्छित सुत्ताइं उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । नगर-रक्षक को वक्ष में करने आदि के प्रायश्चित सूत्र- 19 १८. जे भिक्खु बगरारखियं अतीकरे अतीक रेल वा साइबइ। ७१५. जो भिक्षु नगर रक्षक को वश में करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। पारिवार राजा को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र७१६. जो भिक्षु राजा को वषा में करता है। करवाता है, करते वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु राजा के गुणों की प्रशसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु राजा से प्रार्थना करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) जे भिक्खू निगमारखियं अस्वीकरेड अफची करत या साइज्जइ । जे मिक्यू गिगमारखियं अत्योकरेक अस्योक देतं था साइज तं सेवमाणे आवज मारियं परिहारा नि. [४६५ जी भिक्षु नगर-रक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु नगर रक्षक से प्रार्थना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे मासिक उद्भाविक परिहारस्थान (प्रायश्चित आता है । निगम-रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र - । ७१६. जो भिक्षु निगम-रक्षक को वश में करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु निगम रक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, कर वाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु निगम-रक्षक से प्रार्थन्ध करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिन्छ जपातिक परिहारस्थान (प्रायश्वित) छा ४. ४, १०, १६ करता है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] वरणानुयोग सोमारक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र पूत्र ७२०-७२२ सीमारक्खगयसीकरणाईणं पायच्छित्त सुत्ताई सीमा-रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र७२०. (जे भिक्खू सीमारक्सिय असीकरइ अत्तीकरत या साइजह । ७२०. (जो भिक्षु सीमा-रक्षक को वश में करता है, कराता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सीमारविषयं मचीकरेल अच्चीकरतं का साइजह जो भिक्षु सीमा-रक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, कर वाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। में भिक्खू सीमारपिवयं अत्यीक रेइ अत्थोकरेंस वा साइना) जो भिक्षु सीमा-रक्षक से प्रार्थना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है।) सं सेवमाणे यावग्मद मासिवं परिहारद्वाणं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि.उ.४, सु. १६, १७, १८ आता है। देसरक्खगवसीकरणाईणं पायच्छित्त सुत्ताई देश-रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र-- ७२१. जे भिक्खू वेसारविषय बत्तीकरेह बत्तीकरत वा साइज्जई। ७२१, जो भिन्नु देश-रक्षक को वश में करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू देसारक्खियं अस्वीकरेइ अच्चीकरेंत वा साइजा। जो भिक्षु देश-रक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू देसारविखयं अत्यीकरेइ अत्यौकरेंत वा साइज्जए। जो भिक्षु देश-रक्षक से प्रार्थना करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे मात्र मासिमं परिहारद्वाण उपाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि०३०४, सु.५, ११, १७ आता है। सब्बरक्खगवसीकरणाईणं पायच्छित्त सुताई- सर्व-रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र-- ७२२. जे भिक्खू सम्यारक्षियं अतीकरेइ अतीकरतं वा साहज्जा। ७२२. जो भिक्षु सर्व-रक्षक को बश में करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू सवारविषयं अच्चीकरो अस्वीकरतं वा साहज्जा। जो भिक्षु सर्व-रक्षक के गुणों की प्रशंसा करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषखू सव्वारविषय अत्यौकरेह अस्यीकरत वा साइन्जा। जो भिक्षु सर्व रक्षक से प्रार्थना करता है, करवाता है, __करने वाले का अनुमोदन करता है । त सेवमाणे आवज्जद मासिय परिहारहाण सम्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ४, १.६,१२,१८ आता है। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२३ २.वर २. धादिरागोवरई, ४. रई पंचम अपरिमाह-महव्वयस्स पंचभावणाओ- ७२३. १. सोइंद्रियगोवरई, पढमं पांचवें अपरिग्रह महावत की पांच भावनाएं! पाँचवें ५. कासिदिरावरई, -सम. २५, सु. १ तरस इमा पंच भावणाओ चरिमस्त वयस्त होंनि परिवह वेरमण टुमाए । सोइदिएण सोचा सहाई मणुन्नमद्दगाई प०कि ते ? महाव्रत का परिशिष्ट-८ ३०-र-र-र-थ-बीषाविपचीसो नंब-सर-परिवादिणीस तुक-पक-संतीत ताल सुनियो दोष हाइ याई । नड-नट्रक- जल्ल-महल- मुट्ठिक- वे लंबक-कहक-पवलास-आइखग-य-मंत्र- तुणइल- तुंब-बोणिय सालार -पकरणाणि य बहूनि महर- सुर-गीत-पुसराई । बी-मेहना-य-पत्रक हेर पायालय इंडिय खिणि रयगोरुमा लय छुद्दिय-नेउर मालिप-कण निवाण सीजा-मायावीरियाई तपणी जग हसियामणिय-कल रिमित मंजुलाई, गुणवयणाणि व मधुर भाव एवमाह व सदेवु मणून मह सेतु समण न समय में जिन पाँचवें अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँद्रिय के राग से विक् २२. (१) (२) इन्द्रिय के राग से विरक्ति, (२) मन्द्रिय के राय से विरकि (४) जिह्वन्द्रिय के राग से विरक्ति, (५) स्पर्शेन्द्रिय के राग से विरक्ति, परिग्रहविरमन की रक्षा के लिए अतिम अप पाँचनाएँ हैं। को प्रथम भावना धोत्रेन्द्रिय संयम— १४६७ श्रोत्रेन्द्रिय से मनोज्ञ एवं भद्र-सुहावने प्रतीत होने वाले शब्दों को सुनकर साधुको राग नहीं करना चाहिए ।) प्र० - वे प्रशब्द कौन से हैं ? उ०- महामर्दल, मृदंग, छोटा पटहू, मेंढक और कच्छप की आकृति के बाद विशेष बीमा, दीपंची और वल्लभी (विशेष प्रकार की बचाएँ) बद्दीक वाद्य-विशेष सुषोषा नामक घण्टा, बारह प्रकार के बाजों का निघोष, सूसर परिवादिनी - एक प्रकार की वीणा, बांसुरी तुणक एवं पर्वत नामक वाद्य, तन्त्र – एक विशेष प्रकार की वीणा करताल कांसे का साल त्रुटि इन सब बाजों के बाद को (सुनकर ) तथा नट, नर्तक, जल्ल-बांस या रस्सी के ऊपर खेल दिखलाने वाले, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विदूषक, कथाकार, तैराक रास गाने वाले, शुभाशुभ फल कहने वाले, लम्बे बांस पर खेल करने नाते चित्रपट दिवाकर आजीविका करने वाले, तू बजाने बाला (तून तूही) तुम्बवीणा बजाने वाला, ताल-मंजीरे बजाने वाला इन सबकी अनेक प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सुनकर ) तथा करधनी, कंदोरा से कटि आभूषण, कलापक गले का आभूषण, प्रवरक और हेरक नामक आभूषण, झांझर, धुंधक, छोटी घण्टियों वाला आभरण, रत्नजालक रत्नों का जंघा का आभूषण, लुद्रिका नामक आभूषण, नूपुर चरणमालिका तथा सोने के संगर और जालक नामक आभूषण, इन सब की ध्वनि आवाज को सुनकर ) तथा लीलापूर्वक चलती हुई स्त्रियों की चाल से उत्पन्न (ध्वनि को ) एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर-बोलना मधुर तथा सुन्दर नावाज को स्नेहीजनों द्वारा भाषितवानों को एवं सुनकर ) और इसी प्रकार के Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.. चरणामुयोग पांच अपरिग्रह महावन की पाँच भावनाएं गिरिप्रयम्ब, न मुज्मिपत्वं न विनिम्घाय, न आव- मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सुनकर) उनमें साधु को आसक्त जियवं, न सुमिपावं, न तुसियवं, से हसियवं, न नहीं होना चाहिए, राग नहीं करना चाहिए, गृद्धि-अाप्ति की सईच, मई च सत्य कुज्जा। अवस्था में उनकी प्राप्ति की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट-प्राप्ति होने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए, हंसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। भारवि सोइविएण सोच्चा सहावं अमणुनपावगाई। इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज मन में अप्रीति जनक एवं पापक-अभद्र शब्दों को सुनकर (हष) नहीं करना चाहिए। प०-किसे? प्र.-वे शब्द कौन से हैं ? २०-अकोस-फम-खिसण-अवमाणण-तजण-निमंछण- उ.-आक्रोश वचन (क्रोध में कहे जाने वाले) कठोर वचन, वित्तवपण-तासण-उजिय-सन्न-रडिप-कविय-निग्ध- निन्दाकारी वचन, अपमान भरे शब्द, डांट-फटकार निर्भर्सना रसियाकसुण-बिलवियाई। (धिक्कारना), कोप वचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, निर्घोष रूप ध्वनि, जानवर के समान चीत्कार, करुणाजनक शब्द तथा विलाप के शब्द इन सब शब्दों काअम्नेमु य एवमाइएसु ससु अमगुण्ण-पावएसु तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज एवं पापक-अभद्र शब्दों समशेण न कसियस, न हीलियध्वं, न निरियम्ब, न का सुनकर रोष नहीं करना चाहिए, होलना नहीं करनी चाहिए. खिसियल्पं, न छिवियावं, न मिवियम्, न बहेयम्व, निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बुरा नही पछाबत्तियाए सम्भा उप्पाएछ । कहना चाहिए, अमनोज शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन-टुकड़े नहीं करने चाहिए, उसे नष्ट नहीं करना चाहिए। अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करना चाहिए। एवं सोविय-भावणा-माविमो भवद अंतरप्पा । इस प्रकार योन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तः मणप्रामणुन-मुग्मि-दुन्मि-राग-बोसप्पणिहियप्पा साहू करण बाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज शुभ-अशुभ शब्दो में रागमण-वयण-काययुसे संपुर पणिहितिाबए चरेज हुष के संवरवाला, मन वचन और काम का गापन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय इन्द्रियों गोपन-कर्ता होकर धर्म का आचरण करे। वितीयं द्वितीय भावना-चक्षुरिनिय संवरअस्विविएप पासिष रुवाई मणुभाई भगाई चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ के अनुकूल एवं भद्र-सुन्दर सचित्त सचित्ताचित मीसगाई द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिथ सचित्ताचित्त द्रव्य के रूपों को देखकर (राम नहीं करना चाहिए ।) प.-किसे? प्र-वे रूप कौन से हैं ? उ.-कट्ठ पोरणे व पित्तकम्मे मेप्पकम्मे सेले य, पंतकम्मे व -वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित यहि अण्णेहि भनेग-संठाण-संधियाई गठिम-वेदिम- हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाये गये हों, पाषाण पर अंकित पूरिम-संघातिमाणि य मरूलाई बहुबिहाणि य अहिम हों. हाथी दांत आदि पर हों, रांच वर्ण के और नाना प्रकार के नयण-मण-सुहकराई। आकार वाले हों, गूंथकर माला आदि की तरह बनाये गये हों, बेष्टन से, चमड़ी आदि भरकर अथवा संघात से-फूल मावि Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १७२३ पांचवें अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं चारित्राचार [४६६ NAAMKARAM की तरह एक दूसरे को मिलाकर बनाये गये हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप में हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए। वणसं पश्यते । यामागर-नगराणि य पुद्दियपुक्खि- इसी प्रकार बनखण्ड, पवंत, ग्राम, नगर, छोटे जलाशय, रिणि-वाधी--दोहियगुजालिय--सरसरपतिय-सागर- गोलाकार बावड़ी, दीपिका-सम्त्री बाबड़ी नहर, सरोवरों की बिलंपतिय-खाथिय-मबी-सर-सलाग-वप्पिणी-फुल्लुप्पल- पंक्ति समूह बिलपंक्ति लोहे भादि की खानों में खोदे हुए गड़कों पउम-परिमंज्यिाभिरामे, अणेग-सउण-गण-मिहुम- की पंक्ति खाई नदी बिना खोदे प्राकृतिक रूप से बने जलाशय, विचरिए। तालाब, पानी को क्यारी जो विकसित नील कमलों एवं (श्वेतादि) कमलों से सुशोभित और मनोहर हो। जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों। परमंडव-विविह मवण-तोरण-चेतिय देवकुल-समप्पया. उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवाबसह-सुकय - सयणासण-सीय-रह-सयण-जाण-जुग- लय, सभा-लोगों के बैठने के स्थान विशेष, प्याऊ, आवसथ, संवण-नर-नारिगणे य, सौम-परिव-वरिसणिज्जे- परिवाढकों के आश्रम, सुनिर्मित चयन-पलग आदि सिंहासनअसशिप-विभूलिए, पुश्वकम-तषप्पमाव-सोहम्ग-संप- आसन, थिविका-पालकी, रथ-गाड़ी यान, युग्म (टमटम) स्यन्दनउसे। धुंबल्दार स्थानिक र और नर-नारियों का समूह, ये सब वस्तुएँ यदि सौम्य हों, आकर्षक और दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों (इन्हें देखकर) नर-नट्टग - जल्ल - मस्स - मुहिम-लंबग-कहग-पग- तथा नट, नतंक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथालासग आबक्खगलंच-मख-तूणहरुल-तुम्ब-वीणिय- वाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता करने वाले, चित्रपट तालायर पकरणागि व बहणि सुकरणाणि। लेकर भिक्षा मांगने वाले, बांस पर खेल करने वाले, तुणइस्ल तुणा बजाने वाले, तुम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचारों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को देखकर तथा, अग्नेसु य एबमाइए सबेसु मगुनभहएतु तेसु समणेण इस प्रकार के अन्य मनोश तथा सुहावने रूपों में साधु को न सस्मियध्वं, न रज्जियमब-आब-न सहच, माघ आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए-पाबसत्य कुज्जा। उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। पुणावि खिचिएण पासियकवाई अमणुन- इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों पावकार को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए)। प्र-वे (अमनोज्ञ रूप) कौन से हैं। --टि-कोविक कुगि-उबरि-कनछुल्ल-पदल्ल-ज-पंगुल- २०-गंडमाला के रोगी को, कुष्ठ रोगी को, जूले या टोंटे धामण - अंधिलगा - एसक्यु-विणिय-सप्पि-सल्लग- जलोदर के रोगी को, खुजलो बाले को, हाथीरगा या श्लीपद के बाहिरोगपीलियं विययाणिय मयककलेबराणि सकिमि- रोगी को, लंगड़े को, वामन-बोने को, जन्मान्ध को, एकरा पकुहियं व बम्परासि । (काणे) को, विनिहत चक्षु को-जन्म के पश्चात् जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले को, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को (इनमें से किसी को देखकर) तथा विकृत मृतक-फलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रध्यराशि को देखकर । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७०] घरमानुयोग पांचवें अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ भूत्र ७२३ अग्नेसु य एवमाइएसु अमणुनपायएसुसेसु समणेण न अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज और रूसियम्व-जाब-न गुछा वतियाए लम्मा उत्पाते। पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना पाहिए.-याव-मन में जुगुप्सा भी नहीं उत्पन्न होने देनी चाहिए। एवं विदिषभावणभाविनो भवद अंतरप्पा-जाव- इस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय संवर रूप भावना से भावित अन्त.चरेज्जनम्मं । करण वाला मुनि-- यावत्-धर्म का आमरण करे। ततियं तृतीय भावना-घ्राणेनिय संयमधागिदिएण अग्पाइए गंधाइं भणुन महगाई घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूंघकर (रागादि नहीं करना चाहिए) प०-किते? प्र०–बे सुगन्ध क्या कैसे हैं ? उ०--जलय - थल्लय • सरस-पुप्फ-फल-पाण-भोयण-कुट्ठ-तगर- उ-जल और स्थल में उत्पश होने वाले सरस पुष्प, फल, पत्त चोय - बमणक-मल्य-एलारस-पक्कमसि-गोसीस- पन, भोजन, उत्पलकुण्ठ, तगर, तमालपत्र, पोय-सुगन्धित त्वचा सरस-चवण-कापूर-लवंग-अगर-कुकुम-कक्कोल-उसीर- दमनक-एक विशेष प्रकार का फूल मरा, एलारस-इलायची सेयचवण-सुगंध-सारंग-जुत्तिवरधुववासे, उडय-पिडिय- का रस, जटामांसी नामक सुगन्धित द्रव्य, सरस गोशोष चन्दन, निहारिम गधिएम। कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल-गोलाकार सुगन्धित फलविशेष, उशीर-बस, श्वेत चन्दन आदि द्रष्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध को सूंघकर (रागभाव नहीं धारण करना अन्नेसु य एवमाइएसु गंधेसु मन्न भएसु तेसु सम- तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित ग म सज्जियथ्य-जाव-न सइंच, मईच तस्य सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए -पाव-उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। पुणरवि धाणिविएण अपघाइयगंधाइ अमगुन- इसके अतिरिक्त प्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गन्धों पविगाई को सूंघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। ५०-किसे? प्रक-दुर्गन्ध कौन से हैं? १०--महिमा-अस्समर-स्थिमड-गोमड- विग-सुणग-सियाल- उ.-मर। हुआ सर्प, मृत घोड़ा, मृत हाथी, मृत गाय तथा मनुष-मज्जार-सीह-वीषिय-मय-कुहिय-विट्ठ-किषिण- भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृगाल, सिंह और चीता आदि बहदुरभिगन्धेसु । के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हो, दूर-दूर तक बदबू फैलने वाली गन्ध में अग्नेसु य एवमाइएसुगंधेसु अमणन्न-पावएसु तेसु सम- तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी मेण न कसियन्व-जावान बुगुकावत्तियाए सम्भा दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए-यावतुउप्पाएर । मन में जुगुण्सा-घृणा भी नहीं होने देनी पाहिए। एवं घाणिविय मावणा माविओ भबत अंतरप्पा-जाव- इस प्रकार अन्तरआत्मा घ्राणेन्द्रिय की भावना से भावित परेश धम्म । होती है यावत्-धर्म का आचरण करे । चउत्थं चतुर्थ भावना-रसनेन्द्रिय संघमजिग्मिविएणसाइय-रसाणि उ मणुन-एगाई रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं मुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए ।) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ १२३ पषिचे अपरिग्रह महानत की पांच भावनाएँ चारित्राचार [७१ १०-फिते ? प्र.-वे रस कौन से हैं? उ०-जमाहिम-विविहाण-पोषणेसु गुलकय-खंडक्य-तेल्ल- उल-तले हुए वस्तु, विविध प्रकार के पानक-भोजन, गुड़, घयकयसक्लेसु बहुविहेसु लवणरस-संजुसे वालियंग- शक्कर, तेल और घी से बने हुए भोज्य पदार्थ, अनेक प्रकार के सेहंम्म-बुद्ध-बहिबाइं अठारस पगारेसु य मणुन-वन- नमकीन आदि रसों से युक्त, खट्टी दाल, सेन्धाम्ल-रायता गंध-रस-फास बहुदल्यसंमितेसु अन्नेसु य एवमाइएसु आदि, दूध, दही आदि अठारह प्रकार के व्यंजन । मनोज वर्ण, रसेसु मगुन्न भब्बएमु तेमु समणेण न सज्जियध्व-जाव- गन्ध, रस, और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन न सइंच, मईच तस्थ कुज्जा। तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं सुहावने-लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए-यावद-उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए । पुणरवि मिलिबिएण साइपरसाई अमन पापकाई- इराके अतिरिक्त जिह्वा-इन्द्रिय से अमनोज और असुहावने रसों (का आस्वाद करके रोष आदि नहीं करना चाहिए ।) प०-कते? प्र०-वे अमनोज्ञ रस कौन से हैं? जा-अरस - विरस - सीय - लुक्याणिज्जप-पाण-भोषणाई उ. -रसहीन, बिरस-पुराना होने से विगतरस, ठण्डे, बोसीण - वाषन्न • कुहिय - पूइय-अमन-त्रिण?-पसूय- रूखे निर्वाह के अयोग्य भोजन पानी को तथा रात-बासी, रंग महबुभिगंधियाहं तित्त-कडुय-कसाय-अबिलरस-सीद- बदले हए सडे हुए दुर्गन्ध वाले अमनोज्ञ ऐसे तिक्त, कटु, कसैले भीरसाई सट्टे, शैवाल सहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में अन्नेसु य एवमाइएसु रसेसु अमणुन-पावएस न तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज तथा अशुभ रसों में साधु समण ने कॉसया-जाव- दुगु छात्तिसाए लम्मा को रोप नही करना चाहिए यावत्-मन में जुगुप्सा-घृणा भी उप्पाएउ एवं जिभिदिय भावणा भाविप्रो भवइ नहीं होने देनी चाहिए । इस प्रकार अन्तरात्मा रसनेन्द्रिय की अंतरप्पा-जाव-चरेग्ज धम्म । भावना से भाक्ति होती है-यावत्-धर्म का आचरण करना चाहिए। पंचमग पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय संयमपुण फासिविएण कासिम फासाउ मणुन-श्वदकाई- स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पों को छूकर (राम भाव नहीं करना चाहिए) १०-किसे? प्र.-वे मनोज्ञ सार्थ कौन से हैं ? उ-नगमंडव - होर-सेयचंबण-सीयसजल-विमलजस-विविह फब्बारे वाले मण्डप, हीरक, हार, श्वेत, चन्दन, कुसुम सत्थर ओसीर-मुत्तिय-मुणाल-दोसिणा-पेडण- शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, मोती, पद्मनाल, उक्खेवग-तालियंट-वीयणग-जणिय-सुहसीयले य पवणे चन्द्रमा की चान्दनी तथा मोरपिच्छी, तालवृत्त, ताड़ का पंखा, गिम्हकाले तुह-फासाणि य हणि सणापि आस- पंने से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श गागि य, पाउरणगुणे व सिसिरकाले अंगारपसावणा वाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल-शीतय। काल में आवरण गुण वाले अर्थात् ठण्ड से बचाने वाले, आयव-निश-मय-सीय-उसिण-लहषा य, जे उसुह- वस्त्रादि में अंगारों से शरीर को तपाने, धूप, स्निग्ध-तेलादि कासा अंगसुहनिवडकराते पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के - जो ऋतु के अनुकूल सुखप्रद स्पर्श वाले हों, शरीर को सुख और मन को मानन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पों में, अन्नेमु व एवमाइएसु फासेसु मन-मदएस तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पशों में समण सविजयन्व-जाव-न सईच, मई च तस्थ श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए-यावत् -उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] वरणानुयोग पांच अपरिग्रह महावत की पांच भावनाएं 'सूत्र.२३ पुणरवि फासिबिएग फासिय फासाई अमणुन्न पाव- इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोक एवं पापक-असुहावने स्पों को छूकर रुष्ट नहीं होना चाहिए । प:-किसे? प्र०-से स्पर्श कौन से हैं ? To-मणेग-वध-बंध-तालगंकणा-अतिमाशरोषणए अंग- उ०. अनेक प्रकार के वध, बन्धन, ताडन-थप्पड़ आदि का मंजण-सूती-मखएवेस-पायपच्छयण-लक्साररस-खार- प्रहार, अंकन-तपाई हुई सलाई आदि से शरीर को दागना तेल्ल - कलकलंततउस-सीसक-काल लोह-सिंचण-हडि- अधिक भार का लाया जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, बंधण - रज्जुनिगल-संकल• हत्थंडय फुमिपाक-रहण- शरीर में सुई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, सोह-युग्छन-उम्बंधग - मूलभेय • गयचलण-मलण-कर- लाख के रस, नमकीन (भार) तेल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण घरग-कन-मासोट-सीसष्ठयण-जिम्म छयण-वसण-नयण- लोहे से शरीर का सींचा जाना, काष्ठ के खोई में डाला जाना, हियम - संत-मंत्रण - बोत्त-लय-फसम्पहार पाव-परिह- रस्सी के निगड़ बन्धन' से बांधा जाना हथकड़ियाँ पहनाई जाना, माणु-पत्थर-निवाय-पोलग-कविक अगाणि विन्धुय. कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, सिंह की पूंछ से बाँध क-वायातव-समस कनिवाते खुट्टनिसज्ज-दुमिसीहिया- कर घसीटना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पर से कुचला दुम्भि-कना-या सोय-उसिण हालेर स्वदित- गाना, हाप-पैर-कान-नाक-होंठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश-नेत्र-हृदय-दांत या आत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता जाना, बैत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एडी, घुटना या पावाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, कपिकच्छू -अत्यन्त खुजली होना अथवा खुजली उत्पन्न करने वाले फल कैच का स्पर्श होता, अग्नि का स्वर्ण, बिच्छू के डंक का. वायु का, धूप का या डांसमाछरों का स्पर्श होना, दुष्ट-दोषयुक्त कष्ट जनक आसन तमा दुर्गन्धमय स्वाध्यायभूमि में, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पों में, अन्लेस व एकमाइएस फासेसु खमणुन-पाधकेसु तेसु इसी प्रकार के अन्य अमनोज स्पों में साधु को रुष्ट नहीं समभेण न कसियन-जाव-न दुगु छावत्तिय सभा होना चाहिए यावत् स्व-पर में वृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। एवं फासिवियभावणाभाविओ भवद अंतरप्पा माणुना- इस प्रकार स्पर्ण नेन्द्रिय संवर की भावना से भावित अन्त: मान-सुग्मि-दुरिम-राम-दोम-पणिहियल्पा साहू मण- करण वाला, मनोश और अमनोज. अनुकूल और प्रतिकुल स्पर्शी वयण-काय गुस्से संबडे पाहितिदिए चरेज्ज धम्म। की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और कार से गुप्त होता है। इस भौति साधु संवृते—पण्ह. सु. २. अ० ५, सु० १२-१६ न्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। उपसंहारो उपसंहारएवमिगं संबरस्सबार सम्म संवरिय होइ सुत्पणि- इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह पांचवां संवरद्वार-अपरिग्रहहिय-इहि पंचहि व कारणेहि मण-वय-कायपरि- सम्यक् प्रकार से मन, वचन और फाय से परिरक्षित पाँच रक्सयहिं निन् आमरणतं च एस जोगो नेयम्यो भावना रूप कारणों से संवृत किया जाये तो सुरक्षित होता है। घितिमया मतिमया अणातवो अकलुसो अपिछदो धैर्यवान् और विवेकवान साधु को यह योग जीवन पर्यन्त पालअपरिक्सावी असंकिलिटी सो सम्बजिणमणुष्णाओ। नीय है। यह आलब को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्याल्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिखावी, संकलशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थकरों द्वारा अनुज्ञात है। उप्पाएउ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ७२३-२२४ पाँचौं महावतों को आराधना का फल चारित्राचार [४७३ एवं पंचम संघरदारं फासियं-जाव-आणाए आराहियं भवद। इस प्रकार यह पांचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित -यावत्-तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुमार भाराधित होता है। एवं नायमणिणा भगवया पक्षविर्य परूवियं पसिद्ध सिद्ध ज्ञात मुनि भगवान् ने ऐसा प्रतिपादित किया है। युक्तिसिद्धबरसासमिण आर्यावयं सुवेसियं पसस्थं । पूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध है, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों-पहसु. २, अ. ५, सु. १७ अरिहंतों का उत्सम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उप दिष्ट है । यह प्रशस्त संवरद्वार पूर्ण हुआ। *** पांचों महायतों का परिशिष्टपंचमहध्यय आराहणाफलं-- पाँच महाव्रतों की आराधना का फल७२४. एतेषु वाले य पकुष्यमाणे, ७२४. अज्ञानी जीव इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि) प्राणियों को आवट्टतो कम्मसु पावरसु। छेदन दन-उत्पीड़न आदि के रूप में कष्ट देकर पापकर्मों के अतिवाततो कीरति पावकम्म, आवर्त में फंस जाता है। प्राणातियात स्वयं करने से प्राणी निउंजमाणे उ करेति कम्मं ।। ज्ञानावरणीय पाप कर्म करता है, तथा दूसरों को प्राणातिपात पापकर्मों में नियोजित करके भी पाप कर्म करता है। आदोणभोई वि करेति पावं, दीनबृत्ति वाला भी पार करता है। यह जानकर तीर्थकरों मंता तु एमतसमाहिमाह। गे एकान्त (भावरूप ज्ञानादि) समाधि का उपदेश दिया है। बुद्धे समाहोय रते विवेगे, इसलिए प्रबुद्ध (शानी) समाधि और विवेक में रत होकर प्राणापाणातिपाता विरते ठितप्पा ॥ तिपात से विरत हो रिचतात्या रहे। --सूय, सु.१, अ.१०. गा. ५-६ सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता, जैसे चरते हुए मृग आदि छोटें पशु सिंह (के द्वारा मारा दूरं चरति परिसंकमाणा। जाने) की गंका करते हुए दूर से हो (वनकर) रहते हैं. इसी एवं तु मेधावि समिक्स धम्म, प्रकार मेधावी साधक (समाधिरूप) धर्म को ममझकर पाप को रेण पार्य परिवज्जएज्जा ॥ दूर से ही छोड़ दे। संबुजामागे तु गरे मतीमं, समाधि को समझकर भनिमान् पूरुष दल हिया से उत्पन्न पावातो अप्पाणं निवट्टएज्जा। होगे हैं. और वैर परम्परा बांधनं वाले हैं, इसलिए ये महाभय हिंसप्पसूताई बुहाई मता. जनक है. अतः साधक हिसादि पापकर्म से स्वयं को निवृत्त करे। खेराणुबंधोपि महत्भयाणि ।। मुस न बूया मुणि असगामी, आत्मगामी मुनि अरान्य न बोले । मुनि मृषाबाद स्वयं न णिक्वाणमेयं कसिणं समाहि । करे। दूसरों के द्वारा न कराए नया करले वाले का अनुमोदन न सदं न कुज्जा न वि कारज्जा. करें । यह निर्वाण सम्पूर्ण ममाधि है। करेंतमन्नं पि प नाणुजाणे ॥ मुझे सिया जाए न दूसएज्जा, एषणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार को दूषित न करे, उसमें अमुच्छिते पं य अज्मोनवणे । मून्धित और आयत न हो. संयम में धृतिमान बाह्याभ्यन्तर धितिमं विमुक्के ग य पूयणट्ठी, परिग्रह में विमुक्त मुनि अपनी पूजा-प्रतिष्ठा एवं कीति का अभिन सिलोयकामी प परियएज्जा । लापी न होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे। निक्षम्म हाउ निराषकंत्री, घर से निकल कर (दीक्षा लेकर) अनासक्त हो, शरीर का कायं विओसज्ज नियाणछिपणे । ब्युल्सर्ग कर, कर्मबन्धन को छिन्न कर । न तो जीने की इजा नो जीवितं नो मरणाभिखी, करे और न ही मरण की। वह संसार-वलय (जन्म-मरण के चरेज्ज भिक्षु वलया विमुक्के । वरकर) से विमुक्त होकर संयम में विचरण करे । - -सूब. मु. १, अ. १०, गा. २४-२४ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ घरणानुयोग पांचों महानतों का परिशिष्ट सूच ७२५ आरम्म-परिग्महविरो कम्मतकरो भवह आरम्भ-परिग्रह विरत कों का अन्त करने वाला होता है - ७२५. १. इह खतु गारत्था सारम्भा सपरिग्गहा, संगतिया समण- ७२५. (१) इस लोक में गृहम् आरम्भ और परिग्रह से युक्त माहणा सारम्भा सपरिग्गहा, जे इमे तस-यावरा पाणा ते होते है, कई श्रमण और ब्राह्मण भी आरम्भ और परिग्रह से युक्त सयं समारम्भन्ति, अण्णेग बि समारम्भाति, अण्णं पि होते हैं। वे गृहम्य तथा श्रमण और ब्राह्मण इन अम और स्थावर समारंमंतं समणुजाणंति । प्राणियों का स्वयं आरम्भ करते है. दूसरे के द्वारा भी आरम्न कराते हैं और आरम्भ करने वाले का अनुमोदन करते हैं। २. इह खसु गारत्या सारम्मा सपरिगहा, संतेगतिया (२) इस जगत में गृहस्थ तो आरम्भ और परिग्रह रो युक्त समण-माहणा वि सारम्भा सपरिहा, जे इमे पागला हईई, कई महतकाम्भ और गरिग्रह से सचिता वा अचित्ता वा ते सयं वेब परिण्टिंति, अग्गेण युक्त होते हैं। वे गृहस्थ तथा श्रमण और ब्राह्मण सचित्त और वि परिगिण्हायति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाति । असिन दोनों प्रकार के काम-भोगों को स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरे से भी ग्रहण कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करते हैं। ३. इह खलु गारवा सारम्भा सपरिग्गहा, संगतिया (३) इस जगत में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह मे युक्त होते समणा माहणा वि सारम्भा सपरिग्गहा, अहं खलु अणार म्मे हैं. कई धमण और ब्राह्मण भी आरम्भ परिग्रह से युक्त होते हैं। अपरिग्गहे । जे खलु गारत्या सारमा सपरिग्गहा, संतेगतिया (ऐसी स्थिति में आत्मार्थी भिक्षु विचार करता है। मैं आरम्भ समण-माहणा वि सारम्भा सपरिग्गहा, एतेसि चैव निस्साए और परिग्रह से रहित हूँ। जो गृहस्व हैं, वे आरम्भ और परिग्रह बंभचेर चरिस्सामो। सहित है, कोई-कोई श्रमण तथा माहन भी आरम्भ परिग्रह में लिप्त है। अतः आरम्भ परिग्रह युक्त पूर्वोक्त गृहस्थ वर्ग एवं धमण माहनों के आश्रय से मैं ब्रह्मचर्य (मुनिधर्म) का आचरण करगा। प०-कस्स गं तं हे? प्र० आरम्भ-परिग्रह सहित गुहस्य वर्ग और कतिपय श्रमण ब्राह्मणों के निधाय में ही जब रहना है, तब फिर इनका त्याम करने का क्या कारण है ? उ०—महा पुरवं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुरुवं । अंज उ• गृहस्थ जसे पहले आरम्भ परिग्रह माहित होते हैं, वैसे चेते अणुवरया अगुवट्टिता पुणरवि तारिसगा चैव।। पीछे भी होते है. ए कोई-कोई थमण माहन पत्रज्या धारण करने स पूर्व जैसे आरम्भ-परिग्रहयुक्त होते है, इसी तरह बाद में आरम्भ परिग्रह में लिप्त रहते हैं। इगलिए ये लोग मावध आरम्भ-परिग्रह से निवृत्त नहीं हैं, अत: शुद्ध संयम का आचरण करने के लिए, भरीर टिकाने के लिए इनका आथय लेना अनुचित नहीं है। जे खलु गारस्था सारम्भा सपरिगहा, संगतिया आरम्भ-परिग्रह से युक्त रहने वाले जो गृहस्थ है, तथा जो समण-मारणा सारंमा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई इति सारम्भ मपरिग्रह श्रमण-माहन हैं. वे इन दोनों प्रकार (आरम्भ संखाए दोहिं वि अंतेहिं अविस्समागे इति भिक्खू एवं परिग्रह की क्रिवाओं से या राग और द्वेष) में पाप कर्म करते रोएज्जा । रहते हैं । ऐसा जानकर साधु दोनों के अन्त मे इनसे अदृश्यमान (रहित) हो इस प्रकार संयम में प्रवृत्ति करे। से वेमि-पाईर्ण वा-जाव-दाहिणं वा एवं से परिपणात- इसलिए मैं कहता हूँ-पूर्व आदि (नारो) दिशाओं से आया कम्मे, एवं से बिवेयकम्मे, एवं से वियंतकारए भवतीति हुगा जो (पूर्वोक्त विशेषताओं से युक) निनु आरम्भ-परिग्रह से मक्वातं। रहित है, वही कर्म के रहस्य को जानता है, इस प्रकार वह कर्म —सूय. सु. २, अ. १, मु. ६७७-६७८ बंन्धन से रहित होता है तथा वही (एक दिन) कर्मों का अन्त करने वाला होता है, यह श्री तीर्थकर देव ने कहा है। * Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२३-०२७ षष्ठ व्रत आराधन प्रतिज्ञा पारिवाचार ४७५ रात्रि भोजन-निषेध-१ छट्टवय आराहण पइण्णा--- षष्ठ व्रत आराधन प्रतिज्ञा७२६. अहावरे छ8 मंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं । ७२६. भन्ते ! इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि-भोजन की विरति होती है। सध्वं भंते ! राईभोगणं पच्चपखामि भाते ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। से असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वर, जैस-अगन, पान, खादिग, स्वादिम । (से य राइभोयणे चउबिहे पण्णते. (वह रात्रि-भोजन चार प्रकार के हैं-- तं जहा—१. दव्वओ, २. खेतओ. ३. कालओ. ४. भावओ। जैस--(१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र रो, (३) काल से, (४) भाव से। १. दश्वो असणे वा-जाव-साइमे वा। (१) द्रव्य से—अशन, पान, खादिम एनं स्वादिम । २. खेत्तओ समयखेते। (२) क्षेत्र से--समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) में अर्थात् जिस समय जहाँ रात्रि हो। ३. कालओ राई। (२) काल सेवात्रि में। ४. भाषओ सिते या, कटुए वा, कसाए वा, अंबिले या महरे (४) भाव से-तिक्त, कडवा, कसैला, खट्टा, मीठा या वा, लवणे था।) नमकोन ।) नेव सर्व राई मुंजेज्जा, नेवन्नेहि राई भुंजावेज्जा, राई झुंजते किसी भी वस्तु को रात्रि में मैं स्वयं नही खाऊँगा, दूसरों वि अन्ने न समणुजाणेज्जा, जावज्जोवाए तिविहं तिबिहेणं को नहीं खिलाऊँगा और खाने वालों का अनुमोदन भी नहीं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करेंत पि अन्नं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से—मन से, न समजाणामि । वचन से, काया से न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। सस्स भंते 1 परिपकमामि निदामि गरिहामि अपाणं बोसि- भन्ते ! मैं (अतीत के रात्रि भोजन से) निवृत्त हाता हूँ, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा का व्युत्मर्ग करता हूँ। छ भते ! बए उचट्टिनोमि सम्याओ राईभोयणाओ बेरमण भन्ते ! मैं छठे व्रत में उपस्थित हुआ हूँ, इसमें सर्व-रात्रि भोजन की विरति होती है। इच्चेयाई पंच महजयाई राइभोयणवेरमणलाई अत्तहियट- मैं इन पांच महाव्रतों और रात्रि-भोजन-विरति रूप छठे प्रत याए उवसंपग्जिसाणं विहराभि । दस. अ. ४, सु. १६-१७ को आत्महित के लिए अंगीकार कर विहार करता हूँ। राइए असणाइ गण-णिसेहो रात्रि में अशनादि ग्रहण का निषेध७२७. नो कप्पा निगं थाणं वा निम्नधोणं श, ७२७. निग्रंथों और निन्धियों को राओ वा बियाले वा रात्रि में या विकाल में असणं वा, जान-साइमं या पडिग्गाहेत्तए, अणन-यावत्- स्वादिम लेना नहीं कल्पता है। नन्नस्थ एगेणं पुटवपडिलेहिएणं सेज्जासंचारएणं । केवल एका पुर्व प्रतिलेखित शव्या संस्तारक को छोड़कर। -कण्य. ३. १, गु. ४४ १. चउविहे वि आहारे, राईभोयणवज्जणा। सन्निही संचओ चेन', वज्जेयव्यो सुधकरं ।। ----उत्त, अ. १६, गा.३१ २. रात्रि भोजन विरमण अत प्रथम अहिंगा अत में ही अन्तर्भूत है, अतः चतर्याम धर्म और पंचयाम धर्म में इस व्रत का स्वतन्त्र रूप से उल्लेख नहीं हुआ है, श्रुतरश्चविरों ने सरलता के लिए जग पा का भिम विधान पीछे से किया है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ चरणानुयोग राइभोषण हि कारणं ७२८. संतिने सुमा पाणा, तसा अबुव बावरा । जाई राओ अपासंतो, कमेसणियं चरे ? " बोस, पागा निव्यडिया महि विभा ताई विषज्जेज्जा, राओ तत्थ कहं वरे ? ॥ एवं नाग भासि सम्वाहारंग भुजेति निग्ारा रामीण साहिो-७२९. अरथंगयम्मि आइन्चे, पुरत्या य अजुग्गए । आहारमाइयं सत्यं मनसा हि न पत्थए । रात्रि-भोजन निषेध का कारण पारिवासिय आहारस्स भुजे पिसेहो ७३०. नो कप्पड़ निग्गं याण वा निग्गंधीण वा, परियासिस आहारस्य तपमाण मे मवि भूप्यमाणमेत्तमवि, नाहि रोग - इस. अ. ५, गा. २० तोर्या कुप्पमाणमेतमवि आहारमाहारेलए, ॥ जातपुत्र महावीर ने इस हिसात्मक दोष को देखकर कहा"जो नित्य होते हैं ये रात्रि भोजन नहीं करते, चारों प्रकार के - दस. अ. ६. गा. २३ ९५ आहार में से किसी भी प्रकार का आहार नहीं करते।" रात्रि भोजन का सर्वथा निषेध -- रात्रि भोजन निषेध का कारण- ७२८ ओस और स्वावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निन् एषण कैसे कर मकता है ? पारिवासिय सेवनपभोग नसे ७३१. नो कप्पड निम्गंथाण वा निमगंथीण वा, मारियासिसेवन जाए गामा आए वाता त्या रोग. ५.४ उसे और बीजयुक्त भोजन तथा जीवा मार्ग उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टालना शक्य नहीं इसलिए निर्ग्रन्थ-रात को भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ? - सूत्र ७२८-७३१ ७२६. सूर्यास्त से लेकर पुनः सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करे । रात्रि में आहारादि के उपयोग का निषेध - ७३०. निर्ग्रन्थों और निग्रन्थियों को परिवारात्रि में रखा हुआ या कलाविकान्त) आहार त्वक् प्रमाण ( तिल- तुष जितना ) भूति प्रमाण (एक चुटकी जितना) प्प. ५. सु. ४७ लेना) कल्पता है । - खाना तथा विन्दु प्रमाण जितना भी पानी पीना नहीं कल्पता है- केवल उस रोग सूर्य आतंक में (परियामिन आहार पानी रात्रि में लेप लगाने का निषेध७३१. निर्यथों और निर्म न्थियों को अपने शरीर पर सभी प्रकार के परिवासित लेपन एक बार लगाना या बार-बार लगाना नहीं कल्पता है केवल उम्र रोग एवं आतकों में लगाना कल्पता है । -- १ रात्रि भोजन करने वाले को शयल ( प्रबल) दोष लगता है— देखिए- अनाचार में शबलदोष | २ यह सूत्र स्थविरकल्पी के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का सूचक है और प्रश्नव्याकरण का निम्नांकित सुव जिनकल्पी के उत्सर्ग मार्ग का सूचक सूत्र है । इस सूत्र में अत्यन्त उग्र मरणात वेदना होने पर भी औषधि आदि के उपयोग का सर्वथा निषेध है । रिलियम्स रोगाके बहुप्पारंभ समुन्ने बाता-दि-हउदय-कम-यगाह महामहम जीतिक वणकरे न कप्पर नारिसे वि तह अप्पणो परन्स वा ओसह मज्जं भत्ता व तंपि संनिहि । परि पहू. सु. २, अ. ५, सु. ७ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३२-७३४ रात्रि में तैल आदि के मालिश का निषेध चारित्राचार [४५७ पारियासिय तेल्लाईणं अभंग णिसेहो रात्रि में तेल आदि के मालिश का निषेध७३२. नो कप्पद निर्गवाण वा निग्गंधीण वा, १७३२. निग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पारियासिएणं तेल्लेण वा, घएण वा. नरनोएण या, बसाए अगन गरीर पर परिवामित तन-पत-रवनीत और धमा वा, (/) का गाई अभंगित्तए वा, मविस्वत्तए वा, चुपड़ना या मलना नही कल्पना है। नन्नत्य गाढाऽमाहि रोगायकेहि । -कप्प. उ. ५, मु.४६ केवल उग्र रोग या आतंकों में लगाना कल्पता है। पारिवासिय कक्काईणं उबटण णिसेहो - रात्रि में कल्कादि के उबटन का निषेध७३३. नो कम्पद निग्गंधाण वा निर्गवीण बा, ३३. निग्रन्थों और निन्थियों को परिवासिएणं कक्फेणं वा, लोणं या, पधूवेणं वा, अपने शरीर पर परिवामित कन्क, लोध पर धूप आदि का अन्नयरेणं वा आलेवणजाएणं गायाई उपलेत्तए या उस्बट्ट. किमी एक प्रकार का दिनपन करना या उबटन करना नही सए वा, कल्पता है। नन्नत्य गावागाडेहि रोगाय केहि। -कप्प. उ. ५. सु. ५ केवल उग्र रोग या आतंकों में लगाना कल्पता है। X* रात्रिभोजन के प्रायश्चित्त-२ सरस्स उदयस्यमण-विइगिच्छाए पायच्छित सुत्ताणि- सूर्योदयास्त के सम्बन्ध में शंका होने पर आहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र७३४. भिक्खू य उपपयवित्तीए अणथमिय-संकप्पो सहिए' निवि- ५३४. सूर्योदय पश्चात् और गर्यारन पूर्व भिक्षाचर्या करने की गच्छा समावणे असणं वा-जाव-साइम वा पडिग्गाहेता प्रतिज्ञा वाला तथा सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में असं दिग्ध आहारं बाहरेमाणे, सशक्त एवं प्रतिपूर्ण आहार करने वाला निर्ग्रन्थ भिक्षु (आचार्य या उपाध्याय आदि) अशन, यावत् स्वादिय (चतुर्विध आहार) ग्रहण कर आहार करता हुआ, अह पन्छा जाणेज्जा-- यदि यह जाने कि "अगुग्गए सरिए, अत्यमिए वा" "मूर्योदय नहीं हुआ है अथवा सूर्यास्त हो गया है" से जंच आसयंसि, जं च पाणिसि, जंच पडिन्गहे, तो उस मगय जो आहार मुंह में है. हाथ में है, पात्र में है, तं विगिबमाणे वा, विसोहमाणे या णो अइक्कमइ । उसे परठ दे तथा मुन्व आदि की शुद्धि कर ले तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता है। तं अप्पणा मुंजमाणे, यदि उस आहार को वह स्वयं ग्वावे १. मस्तृत-शब्द का अर्थ है--सशक्त, स्वस्थ और प्रतिदिन पर्याप्तभोजी निन्थ भिक्षु । २. निर्विचिकित्स-गद का अर्थ है संशय रहित--अर्थात् - सूर्योदय हो गया है या सूर्यास्त नहीं हुआ है. इस प्रकार के निश्चय वाला निर्गन्ध । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.७८ चारित्राचार सूर्योदयास्त के सम्बन्ध में शंका होने पर आहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ७३४ अन्नेसि वा इलमाणे, या अन्य निर्गन्ध को दे तो राइभोअगरिसवषय वजह चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उस रात्रि-भोजन सेवन का दोष लगता है। अतः वह अनुदअणुग्घाइयं । - उ. ५.. ६ घातिक नानुगामिक परिहार स्थान प्रायश्चित्त का पाप होना है। भिकरजू य उपायविसीए अणत्यमियसंकप्पे गूर्योदय पश्चात् और सूर्यास्त पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला किन्तु, संपडिए विगिच्छा-समावणे" सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में संदिग्ध, सपाक्त एवं प्रतिपूर्ण आहार करने वाला नियन्य भिक्षु (आचार्य या उपाध्याय आदि) असणं वा-जाच-साइमं वा पडिग्याहिता आहार आहारेमाणे अनन,–पावत् - ग्वादिम (चतुर्विध आहार) ग्रहण कर आहार करता हुआ, अह पच्छा जाणेज्जा यदि यह जाने कि "अणुगए सूरिए, अत्यमिए वा," "सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" तो से जं च आसयंसि, जं च पाणिसी, जं च पडिग्गहे उस समय जो आहार मुंह में है. हाथ में है. पात्र में है तं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ । उसे परट दे तथा मुख आदि की शुद्धि करले तो जिन आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। तं अप्पणा मुंजमाणे, यदि उस आहार को वह स्वयं खावे अग्नेसि वा दलमार्ग या अन्य निम्रन्थ को दे राइभोयणपउिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिगं परिहारट्ठाणं तो उसे रात्रि-भोजन सेवन का दोष लगता है। अतः वह अणुरघाइयं । -कप्प, ज'. ५, सु. १ अनुपातिक चातुर्माभिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त का पार होता है। भिक्खू य उग्गवित्तीए अणत्यमियसंकप्पे सूर्योदयपश्चात् और सूर्यास्तपूर्व भिक्षाचर्या करने की সুলনা বলা কথা। असंथडिए निविगइच्छासमावण्णोणं सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में असंदिग्ध, अशक्त एवं प्रतिपूर्ण आहार न करने वाला निग्रन्थ भिक्षु (आचार्य या उपा व्याब आदि) असणं वा-जाब-साइम वा पडिग्गाहेता आहारं आहारमार्ग अशन,-यावत् स्वादिम (चविध आहार) ग्रहण कर आहार करता हुआ अह पच्छा जाणेज्जा यदि यह जाने कि 'अगुग्गए सुरिए, अत्यमिए वा", "मूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" से अंच आसयंसि, गं च पाणिसी, जं च पडिग्गहे तो उस समय जो आहार मुंह में है, हाथ में है, 'पात्र में हैतं विगिंचमाणे या, विसोहेमाणे वा नो अइपकमइ । उस पल दे मुग्व आदि की शुद्धि कर ले तो जिनाज्ञा का अति क्रमण नहीं करता है। तं अप्पणा मुंजमाणे, यदि उस आहार को वह स्वयं सावे या अन्नेसि या रलमाणे, अन्य निम्रन्थ को दे तो राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारडाणं उसे रात्रि-भोजन सेवन का दोष लगता है। अतः वह अनुदअणुग्धाइयं । -कप्प. उ. ५, सु. ८ घातिक चातुर्मामिक परिहार स्थान प्रायश्चित्त का पात्र होता है। भिक्खू व उरगयवित्तीए अणस्थमियसंकप्पे सूर्योदय पश्चात् और सूर्यास्त पूर्व भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला १. मशक्क, संदिग्ध। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३४ सूर्योदयास्त के सम्बन्ध में शंका होने पर आहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र अपाये।" असावा पटियाहत आहारं आहारमा अह पच्छा जाणेज्जा "अनुमारिए, अनि वा" सेजं मुहे हिंस माथा सोमागे वा नो अइक्कम । तं अपणा जाणे, अन्नस था बलमाणे, अनुयाइय 1 ए अणत्थमियका संग्रडिए शिवतिमिच्छाममावणेणं अप्पाणेणं असणं वा जाय- साइमं पङिग्गाता मुंज भुजंतं या साइज्जइ । या रामपामामियं परिहाराणं कप्प उ. ४. सु. — अहम एवं जाना- "अनुगयसूरिए अथलिए वा से जं च मुहे, जं च पाणिसि, जं च पडिग्गहंसि तं दिगिचेमाणे विसोहेमाणे तं परिमाणे जाइक्कमह । जो तं भुजइ भुजंत वा साइज्जद । अह पुण एवं जाणेज्जा - " अणुग्गए सूरिए, अत्थमिए वा " से जं च मुझे, जं च पाणिसि, जं च पडिव्हंसि तं विनिचे मागे विसोमा परिमा जो मुंज भुतं वा साइज्जइ । वीणामिक अडिए निब्बि वा जाव- साइमं या १ अशक्त-संदिग्ध 1 तिथिच्छा समावणेणं अप्पाणेगं असणं पहिग्गाला मुंबई भुजं वा साइज्जइ । चारित्राचार [rot किन्तु सूर्योदय या सूर्यास्त के सम्बन्ध में संदिग्ध, अशक्त एवं प्रतिपूर्ण आहार न करने वाला निग्रन्थ भिक्षु (आचार्य या उपाध्याय आदि ) अशन पर स्वादिम (चतुविध आहार) ग्रहण करता — हुआ यदि यह जाने कि "सुर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" तो उस समय जो आहार मुँह में है, हाथ में है, पात्र में है उसे रठ देता मुख आदि की शुद्धि कर ले तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । जे मिलू उपवितो जिरा भिक्षु का सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पहने आहार समात्रणेणं अप्पाणेणं असणं वा जात्र साइमं वा पडिग्गाहेता करने का संकला है स्वस्थ है, सन्देह सहित है (और) स्वयं अशन भुंज मुंज वा साइज्ज यावत् स्त्राय ग्रहण करके आहार करता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । यदि उस आहार को वह स्वयं सावे या अन्य नियन्य को दे तो उसे रात्रिभोजन सेवन का दोष लगता है अतः वह अनुद पातिक चातुर्मासिक परिहार स्थानश्वित का पात्र होता है । जिसका सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पहले आहार करने का संकल्प है स्वस्थ है, सन्देह रहित है (और) स्वयं अशन यावत् स्वाद्य ग्रहण करके उपभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। यदि यह ऐसा जाने सूर्योदय नहीं हुआ है पर सूर्यास्त हो गया है" तो जो मुंह में है, जो हाथ में है और जो पात्र में है उसे निकाल कर साफ कर परटने वाला (वीतराग की आज्ञा का ) उल्लंघन नहीं करता है । यदि वह उस आहार को करता है। करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है। यदि ऐसा जाने "सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है तो जो मुंह में है हाथ में है और जो पात्र में है उसे निकाल कर सक कर पडरने वाला की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। यदि वह उस आहार को करे करावे, करने वाले का अनुमोदन करे। जिस भिक्षुका पदय के बाद और सूर्यास्त के पहले आहार का संकल्प है, अस्वस्थ है, सन्देह रहित है (और) स्वयं अन पावत् स्वाद्य ग्रहण करके उपभोग करता है, करवाता है। करने वाले का अनुमोदन करता है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०] चरणानुयोग दिन में या रात्रि में अशमादि ग्रहण करने के तथा खाने के प्रायश्चित्त सूत्र দুস ওই ৪-৩২২ अह पुण एवं जाणेज्जा-'अणुग्गए सरिए अत्यलिए वा" से यदि वह ऐसा जाने "सूदिय हुआ नहीं है या सूर्यास्त हो जं च मुहे. जंच पडिग्गहंसि तं विगिचेमाणे विसोहेमाणे तं गया है" तो जो मुंह में है, हाथ में है, और जो पात्र में है उसे परिट्ठमाणे गाइफमइ । जो तं मुंजइ भुजतं वा साइज्जई। निकाल कर, साफ कर परठने वाला (वीतराग की आज्ञा का) उल्लंघन नहीं करता है। यदि वह ऐसा आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है।। जे भिवस्य उग्गवित्तीए अणमियसकम्ये असंघधिर विति- जिस भिक्षु या सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पहले आहार गिच्छा समावणेणं अपाणणं असणं श-जाव- साइमं वा करने का संकल्प है. अस्वस्थ है, सन्देह सहित है और स्वयं अशन पडिमाहेत्ता मुंजद मुंजतं वा साइज्जद्द । यावत् स्वाद्य ग्रहण करके उपभोग करता है, करवाता है, करने वाले वा अनुमोदन करता है। अह पुण एवं जाणेज्जा—'अणुग्गए सुरिए अत्यमिए वा" से यदि यह ऐसा जान 'सूर्योदय हुआ नहीं है या सूर्यास्त हो जंच मुहे, जं च पाणिसि, जंच पडिम्मर्हसि तं विगिमाणे गया है" तो जो मुंह में है, हाथ में है और जो पात्र में है उसे विसोहेमाणे तं परिमाणे गाइक्कमह। जो तं भुंजइ भुंजत निकाल कर साफ कर परठने वाला (वोतराम की आज्ञा का) वा साइम्जाइ। उल्लंघन नहीं करता है । यदि वह ऐसा आहार करता है, करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं। उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, मु. ३१-३४ आता है। दिवसे वा रयणीए वा असणाई गहण-भुजण पायपिछत्त दिन में या रात्रि में अशनादि ग्रहण करने के तथा खाने के सुत्ताई - प्रायश्चित्त सूत्र७३५. जे भिक्खू दिया असणं वा-जाव-साइमं वा पडिग्गाहेत्ता चिया ७३५. जो भिक्षु दिन में अशत-पावत् -स्वादिम आहार को मुंजह भुजंत वा साइज्जई।' ग्रहण करके दिन मे खाता है, खिलाता है या खाने वाले का अनु मोदन करता है। जे मिक्खू विया असणं बा-जाब-साइमं वा पडिग्गाहेता रत्ति जो भिक्षु दिन में अणन -यावत्-स्वादिम आहार को ग्रहण मुंजा मुंजत वा साइज्जई। करसे रात्रि में खाता है, खिलाता है या लाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खु रत्ति असणं या-जाब-साइमं वा परिम्गाहेता दिया जो भिक्षु रात्रि में अशन - यावत्-स्वादिम आहार को ग्रहण भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ। करके दिन में खाता है, खिलाता है या खाने वाले का अनुमोदन बरता है। जे मिक्खू रत्ति असणं वा-जान-साइमं या पष्टिग्गाहेत्ता राई जो भिक्षु रात्रि में अशन - यावत् -स्दादिम आहार को ग्रहण मुंजइ भुंजतं वा साइज्जद । करके रात्रि में खाता है, खिनाता है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आरज्जव चाउम्मासियं परिहारदाणं अणुग्याइये। उसे अनुदातिक बातुर्मामिक गरिहारस्थान प्रायश्चित्त -नि. उ. ११. सु. ७४-७७ आता है। म सूत्र में दिन में अशनादि ग्रहण करके दिन में उसका उपयोग करने पर प्रायश्चित्त विधान है। इस सम्बन्ध में चूणिकार का स्पष्टीकरण इस प्रकार है - पढम भंग संभवो इमो-दिया धेनुंगिसि संबासे तुं तं वितिपदिणे भुंजमाणस्त पढम भंगो भवति ।। प्रथम भंग की रचना इस प्रकार है - दिन में ग्रहण किए हुए अशनादि को रात में रखकर दुमरे दिन उसका उपयोग करने पर उपभोक्ता प्रायश्चित्त का पात्र होता है। -देखें गाथा ३३.६७ को चूर्णी Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३६-७३८ रात्रि में अशनादि के संग्रह करने के तथा खाने के प्रायश्चित्त सूत्र राईए असणाई संगह करण-भुजग पायच्छित सुसाई रात्रि में अनादि के संग्रह करने के तथा खाने के प्राय सदू - www जे मिलू परिवासियरस असणस्स बाजाब-साइमस्स वा तयणमाणं वा भूप्यमाणं वा विदुप्पमाणं वा आहारं आहारेद्द आहारतं वा साइज्जइ । ७३६. जे भिक्खू असणं वा जाव साइमं वा अणागाठे परिवासेइ ७३६. जो भन्नु अत्यावश्यक कारण के अतिरिक्त अमन-पावत्परिवात या साइज्जद । स्वाय रात्रि में रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाने आवश्य वाढण्यास इयं । परिहारार्थ अनुपा - नि. उ ११, सु. ७८.७६ पारिपासि १ मिलिया ३. सिंगबेरं वा ४. सिंगबेरचुष्णं वा ५. बिलं या ६ लोगं वा, ७. उग्भियं लोगं वा आहारेड आहारतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जद चाउ मासियं परिहारट्ठाणं अणुइयं । वि. उ. १२. गु. ११ दिवाभोयणस्स अवग्णं राई भोयणस्स घण्णं वदमाणस्स पायच्छित सुसाइ ७३७. जे भिक्खू दियाभोयणस्स अवण्णं वयद्द वयंत घर साइज्जइ । जे भिक्खू राइभोयणस्स वण्णं वच वयंतं वा साइज्जइ । तं सेवमा आवद्द भाम्बासिय परिहारा अणुस्वाइयं । - उ. ११. मु. ७२-७३ सेवा पीए गगोमयलेक्स पाति सुत्ता ७२. गोमयं पडिरहेका वर्ण अलिपेज वा विलिपेज्ज वा आलिपावेज वा विलिपवेज्ज या, आसितंवर विलितं वा साइज्जइ । चारित्राचार जे मिक्सू दिया गोमयं पडिग्गार्हता ति कार्यसि वर्ण आलिपेज्ज वा बिसिपेज्ज वा [vet आपिवेज्ज वा विलिपावेज वा आलितं या विलितं या साइज्ड । जो भिक्षु वासी रूखे हुए अशन यावत् स्वाद्य त्वक् प्रमाण भूतिप्रभाण चुटकी जितना तथा बिन्दु प्रमाण जितना आहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे अातिकासिक परिहारस्वान (प्रायश्वित) आता है । 1 जो भिक्षु रात बासी रखे हुए १. पीपल, २. पीपल का चूर्ण, ३. सूत्र. ४. सूंठ का चूर्ण ५ बिल्ब ६. समुद्र को लवण, ७. खनिज लवण का आहार करता है, करवाता है या करने वाने का अनुमोदन करता है । उसे अनुपानिक मार्गानिक परिहारस्थान (आय) आता है। दिवा भोजन निन्दा और रात्रि भोजन प्रशंसा के प्रायरिचत सूत्र ७३७. जोभिनु दिन में भोजन करने की निन्दा करता है। करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु रात्रि भोजन करने की प्रशंसा करता है. करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । अनुयानिक नामांगिक परिहारस्थान (प्राचित) अता है । दिन में या रात्रि में ग्रहण किए गए गोवर के जेप के प्रायश्चित्त सूत्र - ७३८. जो भिक्षु दिन में गोबर लेकर दिन में शरीर पर हुए व्रण पर लेप करता है, बार-बार लेप करता है, लेन करवाता है, बार बार लेप करवाता है, लेप करने वाले का बार बार लेप करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु दिन में गोबर लेकर रात में शरीर पर हुए व्रण पर लेप करता है. बार बार लेप करता है। लेप करवाता है, बार बार लेप करवाता है. लेप करने वाले का बार बार सेव करने वाले का अनुमोदन करता है । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] चरणानुयोग दिन में या रात्रि में गृहीत खेप प्रयोग के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ७३८-७३६ जे भिक्खू रति गोमयं पडिगाहेता विवा कार्यसि वर्ण जो भिक्षु रात में मोबर लेकर दिन में शरीर पर हुए अण आलिज्ज वा विलिपेज्ज श, पर लेप करता है, बार बार लेप करता है, आलिंपावेज्ज था विलिपावेज्ज वा, लेप करवाता है, बार बार लेप करवाता है. आलिपंतं वा विलितं वा साइजह । लेप करने वाले का, बार बार लेप करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रति गोमयं पजिग्गाहेत्ता रति कार्यसि वर्ण जो भिक्षु रात में गोबर लेकर रात में शरीर पर हुए बण आसिपेज्ज वा विक्षिपेज्ज बा, पर नप करता है, बार बार लेप करता है. आसिपावेज वा बिलिपावेज्ज वा, लेप करवाता है, बार बार लेप करवाता है. आलिपंतं वा विलितं वा साइज्जह । लेप करने वाले का, बार बार लेप करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज चाउम्मासियं परिहारहाणं अशुग्याइयं । उसे अनुयातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. 3. १२, सु. ३२-३५ आता है । दिवसे वा, रयगीए वा गहियलेवपओगस्स पायच्छित्त दिन में या रात्रि में गहीत लेप प्रयोग के प्रायश्चित्त सुत्ताई सूत्र७३६. जे भिक्खू दिवा आलेवणजाय पडिग्गाहेत्ता विवा कायसि वर्ण ५३६. जो भिक्षु दिन में पेप मात्र ग्रहण कर दिन में शरीर पर आलिपज्ज वा विलिपेज्ज वा, हुए वण पर लेप करे., बार बार लेग करे, आलिंपावेज्ज वा गिलिपावेज्ज वा, लेग करावे, बार बार लेप करावे, आलिपंत का विलिपंतं वा साइज्जड़। लेप करने वाले का, बार बार लेप करने वाले का अनुमोदन बरे। जे भिक्खू दिया आलेवणजायं पडिम्माहेत्ता रत्ति कार्यसि वणं जो भिक्षु दिन में लेप मात्र ग्रहण करके रात में शरीर पर आलिज्ज वा विसिपेज वा, हुए प्रण पर लेप करे, बार बार लेप करे, सिंपावेज वा विनिपावेज्ज वा, लेप करावे, बार बार लेप करावे. आलिपंतं वा बिलिपतं या साइज्जइ। लेप करने वाले का, वार बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू रति आलेवणजायं पटिगाहेत्ता विश कार्य सि वणं जो भिक्षु रात में लेप मात्र ग्रहण करके दिन मे शरीर पर आलिपेज वा विलिपेज्ज वा, हए व्रग पर लेप करे, बार बार लेप करे. आतिपावेज वा बिलिपावेज्ज वा, लेप करावे, बार बार लेप करावे. आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइजइ । नेप करने वाले का, बार बार लेप करने वाने का अनुमोदन करे। जे भिक्खू रति आलेवणजाय परिग्गाहेत्ता रति कार्यसि वर्ण आलिपेज वा बिलिपेज वा, आलिंपावेज्म वा विलिपावेज वा, आलिपतं वा विलिपतं वा साइम्म । जो भिक्षु रात में लेप मात्र ग्रहण करके रात में शरीर पर हुए व्रण पर लेप करे. बार बार लेप करे, लेप करावे, बार बार लेप करावे, __ लेप करने वाले का, बार बार लेप करने वाले को अनुमोदन करें। ..सं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं। -नि. उ. १२, सु. ३६-३६ उरो अनुद्घातिक वातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४० उगात गिलने का प्रायश्चित्त सत्र चरणानुयोग ४३ उग्गालगिलणस्स पायच्छित्त सुत्तं--- उद्गाल गिलने का प्रायश्चित्त सूत्र७४० जे भिक्खू राओ वा, वियाले वा संपाणं सभोयणं उग्गालं ७४०, जो भिनु रात में या विकाल (सूर्योदय से पूर्व या पश्चात् उग्गलित्ता पच्चोगिलइ पच्चोगिलत वा साइजद्द । सन्ध्या भगव) पानी या भोजन के नगाल को उगलकर निगलता है, निगल पाता है या निगलने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज चाउम्मासिय परिहारदाणं अणुग्घाइय। उसे अनुदानिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ, १०, सु. ३५ आता है। १ (क) इस सूत्र के समान एक सूत्र कप्पसुत्तं में भी है । जो यहाँ नीचे अंकित है । दोनों सूत्र समान विषय वाले हैं। दोनों सूत्रों में प्रायश्चित्त विधान भी समान है। किन्तु निशीथ का सूत्र संक्षिप्त है और कप्पसुत्त का सूत्र विस्तृत है-इससे प्रतीत होता है दोनों मूत्रों के स्रष्टा भिन्न हैं। (ख) इह खलु निगंथ स्स वा निग्गंथीए वा, राओ वा वियात बा, सपा सभोयणे उगाले आगच्छेग्जा, तं विग्चिमाणे या विसोहेमाणे वा नौ अइक्कमइ । उगालित्ता पच्चोगिलमाणे गइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ पाउम्मासियं परिहारदाणं अगुग्याइयं । -कप्प. उ. ५. सू. १० (ग) तओ अणुग्घाइया पत्ता , तं जहा -१. हत्यकम करेमाणे, २. महर्ण पडिसेवमाणे, ३. राइभोयगं भुजमाणे । - --कप्प. उ. ४, मु.१ इम सूत्र में नीनों कार्य अनुद्घातिक प्रायश्चित्त योग्य हैं किन्तु प्रथम "हस्तकम" मासिक अनुपातिक प्रायश्चित्त योग्य है शेष “मैथुन के संकल्प" और "रात्रिभोजन" ये दो चातुर्मामिक अनुदातिक प्रायश्चित्त योग्य हैं। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्राचार तालिका (१) संवर (५) (४) समाधि (१०) (५) प्राणातिपात विरमण (e) (६) संयम (१०) १ प्राणातिघात विरमण २ मृषावाद विरमण ३ बदत्तादान विरमण ४ अब्रह्मचर्य विरमण ५ परिग्रह विरमण (३) संवर (१०) १ थोटेन्द्रिय संवर २चा इन्द्रिय संवर ३ घ्राणेन्द्रिय संवर ४ रसन्त (जिह्वा) इन्द्रिय मंवर ५ स्पर्शनेन्द्रिय संवर ६ मनःसंचर ७ वचन संवर ८ काय संबर ६ उपकरण संवर १० सूची कुशाग्र संबर (ठाण १०) १ प्राणातिपात विरमण २ मृषावाद विरमण अदत्तादान विरमण ४ मैथुन विरमण ५ परिग्रह बिरमण ६इरियासमिति ७ भाषा समिति = एषणा समिति है आदान भाण्ड मात्र निक्षेपण ममिति १० उपचार प्रस्रवण श्लेष्म-सिंमाण जल्ल परिठापना समिति (ठाणं १०) १ पृथ्वीकाय हिंगा विरमण १ पृथ्वीवाय मयम २ अप्काय हिंसा विरमण २ अस्काय संयम ३ तेजस्काय हिमा बिरमण ३ तेजस्काय संयम ४ वायुकाय हिंसा विरमण वायूकाय संयम ५ वनस्पनिकाय हिंसा बिरमण ५ वनस्पतिकाय संयम ६ सकाय हिमा विरमण ६द्वान्द्रिय संयम (दज, ४) ७ त्रीन्द्रिय संयम भावना (२५) ८ चतुरिन्द्रिय संगम पंचेन्द्रिय संयम प्रत्येक महायत की ५-५ भावनाएँ १३ अडीवाय संवम (स्थानांग १०) (पण्ह. २११. मम. २५) (3) संवर (५) १सम्यक्त्व संबर विरति रांवर ३ अप्रपत्तता संयर ४ अकषावता संवर ५ अजोगता संवर (सम, ५) . ७ ब्रह्मचर्य दस समाधि स्थान (उत्त. १९/१३-१४} ब्रह्मचयं के १८ प्रकार (सम.१८) ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (ठाणं. ६) For:IENE UR Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RATORROVIDEDEVOEFORETORIETORIEFREEOHTOTUBEST * अट्ठ पवयणमायाओ * RRENERALEROPIERRORIEROERORRCE:IGERSEASORRYERSE:NBAROBAR एयाओ पंच समिइओ चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्येसु सत्वसो। एया पतयणमाया जे सम्मं आयरे मुणी। से रिवरप्पं सत्व संसारा विप्पमुच्चइ पण्डिए। TORREROIROERIERRIORROEROEROEROEROFITNERIEROERTIERY --उत्त० अ०२४/२६-२७ च र णा नु योग (अष्ट प्रवचन माता) SELEADERSEEINRNORIGEROENORRORIEROERGRIENDral Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४१-७४२ अष्टप्रवचन माता चारित्राचार [४८५ - -- -- - - - --- - - अष्टप्रवचन माता का स्वरूप अढापवयणमायाओ अष्टप्रवचन माता.. ७४१. अठ्ठ पत्यणमायाओ' पण्णत्ताओ, त जहा. ७४१. प्रथचन गाता आभकार है. जैसे१. इरियासमिई, २. भासासमिई, (१) ईयासमिति, (२) भाषासमिति, ३. एसणासमिई, ४. आयाण-भंड-गाविणासाना जाणाममिति आदान-भांड-अमत्र-निक्षेपणा समिति, ५. उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल परिवावणियासमिई १५) उच्चार-प्रसवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिस्थानिकी समिति, ६ मणगुत्ती, ७. वइगुत्ती, ८. कायगुत्ती।। (E) गनोगुप्ति, (७) वचनगुप्ति और (4) कायगुप्ति । --मभ. सम ८, सु. ६ एयाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्सगे । ये पान समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुत्ती नियत्तणे घुत्ता असुभत्येसु सवसो' । गुजियाँ राम अशुभ विषयों से निवृत्ति करने के लिए हैं। एया पत्रपणमाया जे सम्म आयरे मुणी। जो पण्डित मुनिन प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण से खिरपं सम्वसंसारा विष्पमुच्चद पण्डिए॥ करना है. वह शीघ्र ही सर्व संमार से मुक्त हो जाता है। -उत्त, . २४, गा. २६-२७ अटुसमिईओ आठ समितियां७४२. अट समितीओ पण्णताओ. तं जहा-. ७४३. समितियाँ आठ कही गई हैं, जैसे१. इरियासमिति, १. गमन में सावधानी-युग प्रमाण भूमि को शोधते हुए गमन करना। २ भासासमिति, २. बोलने में सावधानी रमना तथा हित, मित, प्रिय वचन बोलना। ३. एसणासमिति, ३. गोचरी में सावधानी रखना-निर्दोष भिक्षा लेना। ४. आयाणभंड-मत्त-गिक्षेत्रणासमिति, ४. अगत्र-निक्षेपणा समिति-भोजनादि वे भाण्ड पात्र आदि को सावधानीपूर्वजा देखकर तथा गोधन कर लेना और रखना। ५. चार-पासवण-खेल-सिंघाण जल्ल-परिट्ठावणियासमिति. ' उच्चार (मन्न) प्रस्रवण (मूत्र) फ्लेग्म (का) मिघाण (नामिका वा मैल) जल (शरीर का मैल) निर्जीन स्थान में डालना। ६. मण-समिति, ६. मन को संगम में रत रखना। ७. वासमिति, ७. विवेक पूर्वव बोलना। ८. कायसमिति, -ठाणं अ ८, सु. ६०३ ८. काया से संबर एवं कम निर्जरा करना । एयाओ अठ समिईओ समासेण विवाहिया । ये आय समितियाँ मक्षेप में वही गई हैं । सुवालसंग जिणऽक्वायं भायं जस्थ उपवयणं ॥ इनमें जिन-भाषित द्वादशांग-रूप प्रवचन ममाया हुआ है। –उत्त. अ.२४, या.३ - १ (क) आगमों में अष्ट प्रवचन माता की दो प्रकार की विवक्षाए हैं, यथा—पाँच समिति और तीन गुप्ति इनमें द्वादशांग समाविष्ट है। इन अष्टप्रवचन माताओं से ही वादशांग प्रवचन का प्रमव हुआ है। (ख) अट्ट पवयणमा याओ समिई नुत्ती तहेब य । पंचेव य समिईओ तो गुत्तीओ आहिया ।। इरिया भासेमणादाणे उच्चार समिई इया । मणगुन्ति वयगुत्ती कायगुती य अट्ठमा ॥ --उत्त. अ. २४, गा. १-२ २ (क) आव. अ. ४. सु. २४, () ठाणं. अ. ५. सु. ४५७, (ग) गम, स. ५. सु. १।। ३ एगओ विरई कुज्जा, एगो य पवत्तणं । असंजमे निर्यात न, संजमे य पयत्तणं ।। . - उत्त. अ. ३१, गा.२ ४ ईर्यादि पांच की समिति और मनोगुप्ति आदि तीन की गुप्ति मंशा सर्वत्र प्रसिद्ध है पर हम गाथा में नया ठाणं. अ. ८,६०३ में आठों की समिति संज्ञा का ही उल्लेख है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६] चरणानुयोग ईर्या समिति के भेद-प्रभेद ईर्यासमिति विधिकल्प-१ इरियासमिहए भेयप्पभेया ईसिमिति के भेद-प्रभेद७४३. आलंबणेण कालेणं, मग्गेण जयणाई य। ७.४३. संयमी मुनि आलम्बन, काल, मार्ग और बनना -इन चार घउकारणपरिसुद्ध, संजए इरियं रिए। कारणों से पारे शुद्ध ईर्या (गति) से चले । तत्य आलंचणं नाणं, दसणं चरण तहा। उनमें ईयाँ का आलम्बन, ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। काले य दिबसे बुत्ते, मग्गे उप्पहज्जिए ।। उराका साल बिनम है और उत्पम का वर्जन करना उसका मार्ग है। दखओ खेतो चेव, कालओ शवओ तहा। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में यतना चार प्रकार की कही जयणा चउम्विहा चुत्ता तं मे कित्तयो सुण ॥ गई है । वह मैं कह रहा हूँ. सुनो। बवओ चक्खुसा पेहे. द्रव्य मे-आपों से देखे । सुगर' में खेसो क्षेष रो-युग मात्र (गाड़ी के जुए जितनी) भूमि को देखे । कालमो जायरीएज्जा, काल से-जब तक ले तब तक देखे । उबउत्ते य भाषओ ॥ भाव से-उपयुक्त (गमन में दत्तचिन) रहे। इंवियत्थे विज्जित्ता, सज्झायं चैव पंचहा । इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय का वजन सम्मुत्ती तापुर क्कारे, उवउत्ते रियं रिए॥ कर, ईर्या में तन्मय हो, उसे प्रमुख बनाकर उपयोगपूर्वक चले । .-उत्त. अ.२४, गा.४-८ एवं कुससस्स बसणं । (ईया-विवेक) यह वीतराग परमात्मा का कुशल दर्शन है । साहिहीए. अतः परिपक्व साधव उस (वीतराग-दर्गनरूप गुरु-मान्निध्य) में ही एक मात्र दृष्टि रखे. तम्मुत्तीए, उमी के द्वारा प्ररूपित विषय-कपाय-आमक्ति से मुक्ति में मुक्कि माने, 'उमी को आगे (दृष्टिपय भ) रम्बकर मुक्ति माने, तप्पुरषकारे, उसी को आगे दृष्टिगथ में रन्दकर विचरण करे, तस्सग्णी, उसी का संज्ञान-स्मृति सतत सब कार्यों में रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे । तग्णिवेसणे, जयं विहारी, चित्तणिवाती पंथणिस्ताई मुनि (प्रत्येक चर्या में) यतनापूर्वक बिहार करे, चित्त को पालिबाहिरे पासिय पागे गस्छज्जा। (गति में) एकान कर मार्ग का सनत अवलोकन करते हुए (दृष्टि टिकाकर) चले । जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को बचाकर गमन करे। से अभिमकमममाणे पडिक्कमममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे बह भिक्षु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, अंगो को सिकोविनियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे । इता हला, फैलाता (पसारता हुआ) इन समस्त अशुभप्रवृत्तियो से निवृत्त होकर, मभ्यक् प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएँ करे। १ टा. ७.५. उ. ३, गु. ४६५ । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४३-७४५ एतया गुणसमितरस तो कापसासमा एतिया पाणा उद्दाति इहयोग | प्रामुक विहार स्वरूप प्ररूपण णं आउट्टिकथं फम्मं तं परिणाय विवेगमेति । एवं से अध्यमावेण विवेगं किट्टति वेदवी । आ. सु. १. अ. ५, उ. ४. सु. १६२-१६३ फासूम बिहार सरूद - देव ७४४. प० - किसे ते ! फासूयविहारं ? उ०- सोचिला गं मारामेसु उपभागं वासु इवी-य-पंडा-विवक्तिमा सही फामु एस फिज्लं पीढ-फल- सेज्जा-संथागं उवसंपज्जिहानं विहरामि से सं फासूयविहार ।" वि.न. १०. गु. २१ भाविययणो अणगाररस फिरिया विहाण७४५. प. अणगारस्स णं भंते ! भावियत्यको पुरओ बुहओ जुग मायाए पहाए हाए रोयं रीयमाणस्स पायरस आहे थापाले वाला था. पर यावज्जेजना, तस्स णं भंते ! कि हरियाहिया फिरिया कज, संपराइया किरिया कज्जद ? - उ०- गोयमा ! अणगारस्स णं भाविप्पणी- जाव-हरियावहिया किरिया कज्जइ नो संपराइया किरिया कज्जइ । प० - से केमद्वेणं मंते । एवं युच्चइ अणगारस्त णं भाविपण जाव ईरियायही किरिया कज्जह जो संपरा या किरिया कज्जइ ? उ०- गोवा ! जर मति तत कोह-माय-माया-लोभावो इरियाबहियारयति १ (क) पाया मु. १, अ. ५. सु. ४६, (ग) धम्म. भा. २ ख. ४. सु. ३०३, पृ. २७७ । 1 चारित्रासार [ ४७ किसी समय प्रवृत्ति करते हुए अप्रमादी मृति के शरीर का संस्पर्श पाकर कुछ प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणि ग्लानि गाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, तो उसके इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है। आट्टि से (आगमोक्त विधिरहित अविधिपूर्वक ) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्म-बन्ध होता है, उसको परिज्ञा से जानकर क्षय करे। इस प्रकार उनका (प्रमादत्रण किए हुए साम्परायिक कर्म बन्ध का त्रिलय (क्षय) अप्रमाद से (यथोचित प्रायश्चित्त सं) होता है, ऐसा आगमता पर कहते हैं। प्रासुक विहार स्वरूप प्ररूपण -- ७४४. प्र०- हे भगवन् ! आपके प्रामुक विहार कौन सा है ? हे सोमिन आराम ( बगीचा) देवकुल राजा या (प्याऊ) आदिनों मेस्त्री, पशु पण्य (ममक) रहित बसतियों में प्रासुक एवणीय पीठ, पलक, शय्या संस्तारक आदि प्राप्त करके में विचरता है। यह मेरे प्रासुक बिहार है। भावित आत्मा अणगार की क्रिया का प्ररूपण ७८५. प्र० - हे भगवन् ! सामने दोनों ओर युगमात्र ( धूसर प्रमाण ) भूमि को देकर गमन करते हुए भावितात्मा अगार कं गांव के नीने का बच्चा बन का बना कु (बीटी जैसा सूक्ष्म जन्तु) आकर मर जाय तो हे भगवन् ! उस अणगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है या साभ्यरायिकी क्रिया लगती है ? उ०- हे गौतम! भावितात्मा अपगार को यावत् ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । प्र० - हे भगवान् ! किस कारण इस प्रकार कहा जाता है कि भावितात्मा अणगार को यावत् ऐर्यापथिकी क्रिया नती हैं. साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? (ख) धम्म. भा. १, प्र. २, सु. १८७, पृ. ८ ३० गौतम ! ( वास्तव में ) जिसके कोध, मान, माया और लोभ व्यवसि (अनुदन प्राप्त अथवा सर्वना भी हो गये है. छम (११-१२-१२ गुणस्थानवर्ती अगगार) को ही या लगती है । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८] चरणानुयोग संवृत्त अणगार की क्रिया का प्रस्पण सूत्र ७४५-७४६ जस्स णं कोह-माण-माया-लोमा अधोच्छिण्णा भवंति जिसके प्रोध, मान, माया और लोभ अव्यवच्छिन्न होते तस्स णं संपराइया किरिया कज्जह । हैं उनको साम्परायिकी क्रिया लगती हैं। अहामुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ। क्योंकि यही यथासूत्र (भागम) के अनुगार प्रवृत्ति करने उस्मुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ. पाले अषगार को ऐर्यापधिकी श्रिया लगती है और उत्सुत्र प्रवृत्ति से गं अहासुत्तमेव रोयति. करने वाले को माम्परापिकी क्रिया नगती है। से तेणठे गं गोयमा । एवं बुच्चइ अणमारस्स णं इन कारण से हे गौतम ! ऐगा कहा जाता है कि भाविभावियप्पणो-जाव-इरियावही किरिया कज्जइनो संप- तारमा अणणार को-यावत्-इरियावही क्रिया लगती है माम्मराइया किरिया कज्जइ। रायिक किया नहीं लगती है। -- वि स. १८, उ ८. सु. १ संवुड अणमारस्स किरिया विहाणं संवृत्त अणगार की क्रिया का प्ररूपण :७४६. ५०-संवउस्स गं भंते ! अणगारस्स आउस एच्छमाणस्स. ७८६ प. हे भदन्त ! उपयोगपूर्वक गमन करने वाला, आवत्तं चिट्ठमाणस्स, उपयोगपूर्वक खड़ा रहने वाला, आप निसीयमाण, उपयोगपूर्वक बैठने वाला, आउत्तं तुयट्टमाणस्स, उपयोगपूर्वक करवट बदलने वाला, आडतं वत्थ पडिगहं कंबलं पायपुंछणं गिग्रहमाण्स्स उपयोगपूर्वन बस्त्र-गाव-कम्बन-पादांछनाः ग्रहण करने वा, मिक्लिवमाणस वा. तस्स गं भंते ! कि इरिया- वाना, निक्षेप करने वाला (रमने बाला) रावृत्त अनगार ईया बहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ? पनि क्रिया करता है ? गांगयिकी किया करता है ? ..-गोयमा ! संवुद्धस्स गं अणगारस्स आउत मचा- जल गौतम ! उपयोगपूर्वक गमन करने वाभा-यावस् माणस्म-जाव-आउत्तं यत्वं पडिमगहं कंबरन पायछणं उपयोगपूर्वक वर-व-यात्र-कम्बल-पादनेछन ग्रहण करने वाला - गिण्हमाणल्स था, निक्खिचमाणस वा, तस्स र्ण इरिया- निक्षेप करने वाला संवत्त अणगार ईयपथिकी किया करता है - वहिया किरिया कज्जइ. गो संपराइया किरिया सागराविकी फिया नहीं करता है। ५०--से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चह संबुद्धस्स णं अणगारस्स प्रा. हे भदन्त ! किम प्रयोजन में ऐसा कहा जाता है .. आउत्तं गच्छमाणस-ज्ञान-णिक्षिचमाणस्स वा, इरिया- उपयोगानक गमग वरने वाला यावत् - निक्षेप करने वाला वहिया किरिया कज्जहणो संपराझ्या किरिया कज्जइ ? संवृत्त अणगार ईर्याथिकी क्रिया करता है। गांरापिकी क्रिया नहीं करता है? उ.-पोयमा ! जरूस गं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिमार गौतम ! जिमवे क्रोध-मान-माया-लाभ व्युच्छिन्न भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ. नो (नाष्ट) हो गये हैं उमको ईपिथिती क्रिया होती हैं, सांपराविकी संपराइया किरिया कज्जइ । क्रिया नहीं होती है। जस्स णं कोह-माण-माया-लोमा अबत्तिकमा भवंति, जिगक क्रोध-मान-माया-नोभ अन्यूच्छिक (नष्ट नहीं हए) तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ। हैं उसको सांपरायिकी क्रिया होती है। अहासुतं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया फज्जा यथाथत से व्यवहार करने वाले को ईपिथिकी क्रिया होती उस्मुत्तं रीयमाणस्स संपराया किरिया व.ज्जई. है । उत्सूत्र से व्यवहार करने वाले को सांपरायिकी क्रिया होती है। से णं अहासुत्तमेव रोयइ. (उपयोगपूर्वब नमनादि करने वाला संवृत्त अनगार) यथासूत्र व्यवहार करता है। से तेणठेणं गोममा ! एवं बुच्चद संयुङस्त णं अण- डम प्रयोजन मे गौतम ! ऐसा कहा जाता है। संवृत्त गारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स-जाव-णिक्खिवमाणस्स णो अपगार को उपयोगपूर्वक गमन करने वाले को-पावत् -सांपसंपराइया किरिया कज्जद। राविकी क्रिया नहीं होती है । –वि. स.७, २.७, नु.१ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिर काष्ठादि के ऊपर होकर जाने का निषेध चारित्राचार [४८६ निषेध कल्प-२ अथिर फटाह उवरिगमण णिसेहो अस्थिर काष्ठादि के ऊपर होकर जाने का निषेध७४७. होज्ज कट्ठ सिलं वा वि. इट्टाल का वि एगया । ७४७. यदि कभी काठ, शिला या ईंट के टुकड़े संक्रमण के लिए छवियं संकमछाए, तं च होज्न लाचलं ॥ रखे हुए हो और वे चलाचल हों तो सन्द्रिय समाहित भिक्षु उन न तेण भिक्खू गच्छज्जा, दिडो सत्य असंजमो । पर होकर न जाये । इसी प्रकार वह प्रवाश-रहित और पोली गंभीर मुसिर चेव, सविवदियसमाहिए॥ भूमि पर से न जाये । भगवान् ने वहाँ असंयम देखा है। -दस. अ. ५, र.१, गा.६६-६७ मणी इंगलाई न अइक्कमे - भिकायलादि का मसिनामजन परे:-- ७४८, इंगाल छारियं रासिं, तुसरासि व गोमयं । ७४८. संवमी मुनि सचित्त-रज से भरे हुए गैरों से कोयले, राख, ससरपस्ने हि पाहि, संजओ तं न अइक्कमे ॥ भूसे और गोबर के ढेर के ऊपर होकर न जाये । -दस. अ.५, उ.१, ना. ७ राईए-गमण णिसेहो रात्रिगमन निषेध७.४६ नो कप्पद निग्गंयाण वा, निग्गंथीण वा, ७४६. निर्गन्थों और निर्ग्रन्थियों कोराओ वा बियाले वा, रात्रि में या विकाल में। अडाणगमण एसए। -- कम्प. उ. १, मु. ४६ विहार (यामानुग्राम मार्ग गमन) करना नही कल्पता है । गोणाइ भएण उम्मग गमण णिसेहो सांड दि के भय से उन्मार्ग से जाने का निषेध७५०. से भिक्खू वा मिक्सपो वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा ७५.०, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी यदि मार्ग से गोणं विपाल पडिपहे पहाए-जाव-चित्तचेल्लड़यं वियाल में मदोन्मत्त सांड विर्षला सांप---यावत्-चीते आदि हिंसक परिपहे पहाए णो तेसि भीतो उम्मग्गेणं गच्छेजा, णो पशुओं को सम्मुख आते देखे तो उनसे भयभीत होकर न उन्मार्ग मगातो मग संकजा , णो गहणं वा वणं श दुग्ग वा से जावे. न एक मार्ग से दुमरे मार्ग पर मंक्रमण करे न रहन, अणुपविसेज्जा, णो सक्वंसि बुरुहेम्जा, णो महतिमहालयसि वन एवं दुर्गम रथान में प्रवेश करे, न वृक्ष पर चढ़े, न गहरे तथा उदयसि कार्य विओमेज्जा. जो बाउं वा, सरण वा, सेण वा, विस्तृत जल में प्रवेश करे और न सुरक्षा के लिए किसी दाड़ की, सत्यं वा कखेज्जा, अप्पुस्सुए-जाव-समाहीए, ततो संजयामेव शरण की, सेना की या शस्त्र की आकांक्षा करें। अपितु शरीर गामाणुगाम दूइजेज्जा। और उपकरणों के प्रति राग-द्वप रहित होकर काया का व्युत्सर्ग -आ. सु. २, भ. ३, उ. ३, सु ५५५ करें, आत्मकत्वभाव में लीन हो यावत् समाधिभाव में स्थिर रहे । उन्मत्त तिथंच आदि के चले जाने पर वह यतनापूर्वक ग्रामानुगाम विचरण करे। वस्सुगायतणमग्गेण गमण णिसेहो . दस्यु प्रदेश के मार्ग से गमन का निषेध : - ७५१. से भिखू बा भिक्षुणी वा गामाणुगाम पूज्जमाणे अंतरा०५१. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए माधु या साध्वी को मार्ग से विवस्वाणि पच्चंतिकाणि सुगायतणाणि मिलक्वणि में विभिन्न देशों की सीमा पर रहने वाले दस्युओं के, म्लेच्छों के अणारियाणि दुस्सण्णपाणि दुप्पण्णणिज्जाणि अकालपडि- या अनार्यों के स्थान मिन्ने, तथा जिन्हें बड़ी कठिनता से आर्यों बोहीणि अकालपरिमोईणि, सति लाते विहाराए संघरमाणेहि का आचार गमझाया जा सकता है, जिन्हें दुख से धर्म-बोध जणषएहि णो विहारवत्तियाए पवज्जेम्जा गमणाए । देकर अनार्य-कर्मो से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल (समय) में जागने वाले, करामय में लाने-पीने वाले मनुष्यों के स्थान मिलें तो अन्य ग्राम आदि में बिहार हो सकता हो या अन्य आर्य-जनपद विद्यमान हों तो प्राक-भोजी साधु उन म्नेच्छादि के स्थानों में विहार करने की दृष्टि रो जाने का मन में संकल्प न करे। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] वरणानुयोग, निषिद्ध क्षेत्रों में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र मूत्र ७५१-७५४ के बली यूया-आयाणमेय । केवली भगवान् कहते हैं-वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, तेणं वाला "अयं तेणे, अयं उवच्चरए, अयं ततो आगते" क्योंकि-ये म्लेच्छ, अज्ञानी लोग साधु को देखकररित कटु तं भिक्खू अक्कोसेज्ज वा, यहेज्ज वा, भेड "यह चोर है, यह हमारे शत्रु के गांव से आया है", यों कहकर वा, उद्धवेज्ज या, बत्थं वा-जाव-पारपुंछणं अपिछदेज्ज वा, वे उस भिक्षु को गाली-गलोज देंगे, कोसेंगे, रस्सों से बांधग, भिवेज्ज वा, अवहरेन्ज वा, परिवेज वा । कोठरी में बन्द कर देंगे, उपद्रव करेंगे, उमके अस्त्र - यावत् पाद-पोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे, (क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब सम्भव है)। अह निवखूणं पुथ्वोवट्ठिा पहाणा-जाव-उबएसे जंतहप्पगा- इसीलिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए राणि विस्वस्वाणि पच्चंतियाणि सुगायतणागि-गाव-णो पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा-यावत् -उपदेश है कि भिक्षु विहारवत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए । ततो संजयामेव उन सीमा प्रदेशवर्ती दस्यु स्थानों रो यावत् -विहार की दृष्टि गामाणुगामं हज्जेज्जा। से जाने का संकल्प भी न करें। अतः इन स्थानों को छोड़कर -आ. मु. २, अ. ३, उ. १, सु. ४७१ संयमी साधु यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करे। निसिद्ध खेलेसु बिहार-करणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- निषिद्ध क्षेत्रों में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र७५२. (जे भिक्खू विहं अणेगाह-गमणिज्जं सति लाडे विहाराए ७५२. जो भिक्षु आहार आदि सुविधा से प्राप्त होने वाले जनपदों संयरमाणेसु जणवएसु विहार-पडियाए अभिसंधारेइ अभि- के होते हुए भी बहुत दिन लगें ऐसे लम्बे मार्ग से जाने का संकल्प संघारत वा साइज्जइ। करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ले भिक्खू विरुवलवाई बसुयायणाई अणारियाई मिलक्खूई जो भिक्षु आहारादि सुविधा से प्राप्त होने वाले जनपदों के पतियाई सति साहे विहाराए संयरमागेच जणवएसु होते हुए भी सीमा पर रहने वाले अनेक प्रकार के दस्यु, अनार्य, विहार-पडियाए अभिसंधारे अभिसंधारतं वा साइजह। म्लेच्छ आदि (जहाँ रहते हैं। ऐसे) जनपदों की ओर बिहार करता है, करवाता है, करने बाने का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उम्घाइयं ।) उस 'भिक्षु को चातुर्मासिक उद्घातिक (परिहारस्थान) . -(नि. उ. १६, मु. २६-२७) (प्रायश्चित्त) आता है। आमोसमाणं भएण उम्मग गमण णिसेहो चोरों के भय से उन्मान गमन का निषेध७५३. से भिक्खू वा भिवानुणी वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, ७५३. ग्रामानुग्राम विहार करते साधु-साध्वी यह जाने कि मार्ग अंतरा से विहं सिया, सेज्नं पुण विहं जाणेज्जा, इमंसि खलु में अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी मार्ग है। उस अटवी विहंसि बहवे आमोसगा उवकरणपहियाए संपडिया मार्ग में अनेक चोर (लुटेरे) इकट्ठे होकर साधु के उपकरण छीनते गाछज्जा, णो तेसि भीमो उम्मग्येणं गच्छज्जा-जाव-समा- की दृष्टि से आ जाएँ तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग में हिए। ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेम्जा । न जाये-थावत समाधिभाव में स्थिर रहे। चोरों का उपसर्ग -आ. सु. २, अ. ३, ३. ३, सु. ५१६ समाप्त होने पर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । आमोसगउवसागे तुसिणीए होज्मा चोरों का उपसर्ग होने पर मौन रहे७५४. से भिक्खू वा भिक्खूणो वा गामाणुगाम दूहज्जेज्जा, ७५४. मामानुग्राम विचरण करते हुए साधु के पास यदि मार्ग में अंतरा से आमोसगा संपडिया गच्छेज्जा, ते गं आमोसगा चोर (लुटेरे) संगठित होकर आ जाएँ और वे उससे कहें कि एवं बवेजा-"आउसंतो समणा ! आहर एवं वत्थं "आयुष्मन् श्रमण ! मे वस्त्र-यावत् -पादपोंछन आदि लाओ, वा-जाव-पावपुछणं वा देहि, णिक्तिवाहि," तं जो वेज्जा, हमें दे दो, या यहाँ पर रख दो।" इस प्रकार कहने पर साधु मिक्खिवेज्जा, णो बंदिय जाएन्जा, गो अंजलि कट उन्हें वे (उपकरण) न दे, और न निकाल कर भूमि पर रखे । सहा Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७५५-७५८ चोरों द्वारा उपघि छीन लेने पर फरियाव न करे चारित्राचार [v६! जाएज्जा, णो कलुणपणियाए जाएन्जा, धम्मियाए जायणाए अगर ये बलपूर्वक लेोलमें तो उन्हें पुन: लेने के लिए उनकी जाएज्जा तुसिणीयभावेण वा उबेहेज्जा। स्तुति (प्रशंसा करके, हाथ जोड़कर या दीन-वचन कहकर याचना . आ. सु. २, अ. ३, ३. ३, गु. ५१७ न करें । यदि मांगना हो तो धर्मवचन कहकर समझाकर मांगे अथवा मौनभान धारण करके उपेक्षाभाव से रहे। आमोसगेहि जवहि अवहरिए अभिओग णिसेहो- चोरों द्वारा उपधि छोन लेने पर फरियाद न करे-- ७५५. ते ग आमोसगा सयं करणिज्जति कटु अक्कोसंति ७५५. यदि चोर अपना कर्तव्य (जो करना है) जानकर साधु को वा-जाब-उधयति वा बत्थं वा-जाव-पारपुंछण या अच्छि- कोसे -यावत् --गाली-गलौज करे -मावत् उपद्रव करे और ग्ज वा-जाव-परिवेज वा तं गो गामसंसारियं फुजा, उसके वस्त्र यावत् – पादपोंछन को फाड़ डालें, तोड़फोड़ दे जो रायसंसारिय कुज्या णो पर उवसंकमित स्या-आज- -यावत-दूर फेंक दे तो भी बह साधु ग्राम में जाकर लोगों संतो गाहावती एसे खलु आमोसगा उपकरणपजियाए सयं से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करणिति पट्ट अक्कोसति बा-जाव-परिवेंति वा। करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि "आयुष्मन् एतप्पगारं मयं वा बई वा णो पुरतों कट्ट विहरेज्जा । अपु- गृहस्थ !" इन चोरों (लुटेरों) ने हमारे उपकरण छीनने के लिए सुए-जाव-समाहिए ततो संजयामेव गामागुगाम दूइज्जेज्जा। अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें गाली-गलौज की है—पावत्-आ. सु.२, अ.३, उ.३, सु. ५१८ हमारे उपकरणादि नष्ट करके दूर फेंक दिये हैं" ऐसे विचारों को साधु मन में भी न लाये और न वचन से व्यक्त करे। अपितु रागद्वेष रहित होकर पावत्-.. समाधिभाव में स्थिर रहे। चोरों का उपद्रव समाप्त होने पर वह यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विचरण करे। अण्णण उहि वहावणस्स पायच्छिस सुतं अन्य से उपधि वहन करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र७५६. जे मिक्खू अण्णउत्पिएण वा गारस्थिएग वा उहि ७५६, जो भिक्षु अन्यतीधिक से या गृहस्थ से उपधि का वहन वहावेइ वहावेत या साइज्जह । करवाता है, वहन करवाने के लिए कहता है, वहन करवाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जह चाउम्मासिब परिहारट्टाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (शयश्चित्त) -नि. उ. १२, सु. ४० आता है। पाडिपहियाणं पुन्छिए मोणं कायव्यं पथिकों के पूछने पर मौन रहना चाहिए७५७. से भिक्खू वा मिक्मणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे, ७५७. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग अंतरा से पारिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाणिपहिया एवं में सामने से आते हुए पथिक मिलें और ने साधु से यों पूछेयवेज्जा-आउसतो समणा ! केशतिए एस गामे या-जान- "हे आयुष्मन् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? रायहाणी वा, केवतिया एत्य आसा हत्थी गामपिडोसगा -यावत्-यह राजधानी कैसी है ? वहाँ पर कितने घोड़े, हाथी मणुस्सा परियंसति ? से बहुमसे बहुउवए बहुजणे तथा भिखारी व कितने मनुष्य निवास करते हैं (क्या इस गांव बहुजवसे ? से अप्पमत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे? एत- .-यावत् – राजधानी में) प्रचुर आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य प्पगारागि पसिणाणि पुट्ठो पो आइक्वेज्जा, एयप्पगाराणि है ? अथवा अस्प आहार पानी मनुष्य एवं धान्य है ?" इस पसिगाणि जो पुच्छेज्जा। प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर साधु उसका उत्तर न दे। उन प्रति -आ. सु. २, अ. ३, ज. २, सु. ५०२ पथिकों से भी इस प्रकार के प्रश्न न पूछे। उसके द्वारा न पूछे जाने पर भी वह ऐसी बातें न करें। मग्गे गिहत्येहि सद्धि आलाव णिसेहो मार्ग में गृहस्थों से वार्तालाप का निषेध७५८. से भिक्खू वा, भिक्खुणी या गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो ७५८, साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए गृहस्थों के परेहि सद्धि परिजविय परिमविय गामाणुगाम इमेजा। साथ बहुत अधिक वार्तालाप करते न चलें, किन्तु ईर्यासमिति ततो संजयामेव यामाणुगाम बदज्जेन्जा । का यथाविधि पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करें। —आ सु. २. अ.३,उ,२,सु. ३२ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ चरणानुयोग मार्ग में वन आदि अवलोकन-निषेध सूत्र ७५९.७६० मग्गे वप्पाइ अवलोयण णिसेहो . ६ अक्लायण णिसेहो . मार्ग में वप्र आदि अवलोकन-निषेध७५६. से भिक्खू वा भिक्खु गो वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा ७५६. प्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुषी मार्ग में से यम्पाणि वा--जाव-वरोओ दा कडागाराणि वा, पासा- आने वाले उन्नत टेकरे, खाइयां-यावत्- गुफाएँ या भूगर्भ गृह वाणि बा, मगिहाणि वा, रूपनगिहाणि बा, पवितमिहाणि नथा कूटागार (गर्वन पर बने घर) प्रासाद. भूमिगृह, वृक्षों को वा, रूपख वा, चेतियकर्ड भूभं वा, चेतियकर आएसणाणि काटछांट कर बनाए हुए गृह, पर्वत पर बना हुआ घर, चैत्यवा, आयतगाणि वा, देवकुलाणिवा, सहाणि वा, पवाणि वृक्ष, चैत्य-स्तूप, लोहकार आदि की शाला, आयतन, देवालय, वा, पणियगिहाणि वा, पणियसालाओ या, जाणगिहाणि वा, सभा, प्याऊ, दुकान, गोदाम, यानगृह, यानणाला चूने का, जाणसालाओ वा, सुहाकम्मताणि वा, घरभकम्मंताणि का, दर्भ-कर्म वा, वल्वाल कर्म का, चर्म-कर्म का, वन-कर्म का कोयले बक्ककम्मंताणि वा, चम्मकम्भताणि बा, वणकम्मंताणि बनाने का, काष्ठ-कर्म का कारखाना, तथा श्मशान, पर्वत, गुफा वा, इंगालफम्मंताणि या, कट्ठकम्मंताणि वा, सुसाण- आदि में बने हुए गृह, शान्तिकर्म पृह, पाषाण मण्डप एवं कम्मंताणि वा, गिरिकम्मताणि वा, कंदर-कम्मंताणि वा, भवनगृह आदि को बांहें वार-बार ऊपर उठाकर, अंगलियों से संति कम्मंताणि वा, सेलोवाण कम्मंताणि बा, भवण- निर्देश करके, शरीर को ऊँचा-नीचा करके ताक-ताक कर न गिहाणि वा णो बाहाओ पगिनिमय पगिज्य अंगुलियाए, देखे, किन्तु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे । उदिसिय उहिसिय ओणमिय ओणमिय, उण्णमिय उणमिय णिमाएजा । ततो संजयामेव गामाणुगानं इज्जेज्जा । . . २, ३, उ. ३, मु. ५०४ मग्गे कच्छाइ अवलोयण णिसेहो मार्ग में कच्छादि अवलोकन निषेध७६०. से भिक्खू चा भिक्षुणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा ७६७. प्रामानुपाम विहार करते हुए साधु-साध्वियों के मार्ग में से कच्छागि था, रवियाणि या, पूमाणि चा, पलयाणि या, यदि कन्द्र (नदी के निकटवर्ती नीचे प्रदेश), पास के संग्रहार्थ गहणाणि वा, गहणविजुम्गाणि य, पगाणि वा, वर्णावदुग्गाणि राजकीय त्यक्त भूमि, भूमिगृह, नदी आदि से वेष्टित भूभाग, था, पक्वताणि' बा, पचतविदुग्गाणि वा, अगडाणि वा, गम्भीर निर्जन प्रदेश, पर्वत के एक प्रदेश में स्थित वृक्षवल्ली तलागाणि या, दहणि वा, पदोमओ वा, वायोओ वा, पोपत्र- समुदाय, गहन दुर्गम वन, गहन दुर्गम पर्वत, अरण्य पर्वत पर भी रणीओ बा, दीहियाओ बा, गुंजालियाओ वा, सराणि वा, दुर्गम स्थान, प. तालाब, द्रह. (झीने), नदियाँ, बावडियाँ, सरपंतियाणि वा. सरसरपंतियाणि वा णो बाहामओ पुष्करणियां, दीपिकाएं (लम्बी बावड़ियाँ), गहरे और टेढ़े-मेढ़े पगिक्षिय-जावाणिज्माएज्जा । जलाशय, बिना बोदे तालाव, सरोवर, सरोवर की पंक्तियां और बहुत से मिले तालाब हों तो उन्हें अपनी भुजाएं ऊँची उठावर, (अंगुलियों से संकेत करके तथा शरीर को ऊँचा-नीचा करके) --यावत् -- ताक-ताक कर न देखे । केवली पूधा-आयाणमेयं । केवली भगवान् कहते हैं यह कर्मबन्ध का कारण है। जे तस्य मिगा वा, पसुया था, पक्खी बा, सरोसिवा था, क्योंकि ऐसा करने से जो इन स्थानों में मृग, पशु, पक्षी, सोहावा, जलघरा बा, थलचर वा, खहवरा बा, सत्ता ते, सांप, सिंह, जलचर, स्थलचर, खेचर, जीव रहते हैं, वे साधु की उत्तसेज्ज वा, वित्तसेग्न वा, थावा, सरणं वा कखेज्जा, इन असुबममूलक चेष्टाओं को देखकर त्रास पायेंगे, वित्रस्त होंगे, धारे ति में अयं समणे । किसी बाड़ की शरण चाहेंगे तथा वहाँ रहने वाले यह विचार करेंगे कि वह साधु हमें हरा रहा है। अह भिक्खूणं पुख्बोवविट्ठा-जाव-एस उपएसे ज को बाहाओ अतः तीर्थंकरों में पहले से ऐसी प्रतिज्ञा-यावत्-उपदेश पगिज्मिय-जाव-णिमाएज्जा । ततो संजयामेव आयरिय- किया है कि साधु अपनी भुजाएँ ऊँची उठाकर पावत्-ताक ताक उवयाहि सदि गामागुगाम दाम्जेजा। कर न देखे अपितु वतनापूर्वक आचार्य और उपाध्याय के साथ - आ. सु. २, अ. ३. उ. ३, सु ५०५ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ संयम का पालन करे। १ तहेब गंतुमुज्जागं, पव्वयाणि वगाणि य । स्वखा महल पहाए. मेवं भामेज्ज पण्णवं ।। -दरा, अ.७, गा.२६ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६१-७६६ अन्यतीथिक आदि के साथ निष्क्रमण व प्रवेश निषेध चारित्राचार [४६३ अण्णउस्थिए हि सद्धि णिक्खमण-पवेस-णिसेहो अन्यतीथिक आदि के साथ निष्क्रमण व प्रवेश निषेध७६१. से मिक्स्यू या भिक्खुणी वा बहिया विधारभूमि बा, ७६१. भिक्षु या भिक्षणी बाहर विनार भूमि (शौचादि हेतु विहारभूमि वा, णिक्खममाणे था, पविसमाणे वा, गो स्थंडिल भूमि) या विहार (स्वाध्याय) भूमि से लौटते या नहाँ अण्णउथिएण बा, गारथिएण चा, परिहारिओ अपरिहा- प्रवेश करते हुए अग्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृह (याचक) रिएण वा सदि बहिया विधारभूमि वा, विहारभूमि बा के साथ तथा पारिहारिक अपारिहारिक (आचरण शिथिल) णिक्लमेज्ज बा, पविसेज्ज वा। साधु के साथ न तो विवार-भूमि या बिहार-भूमि से लौटे, न -आ. सु. २, अ.१, उ. १, सु. ३२८ प्रवेश करे । अण्णास्थियाइहि सद्धि गामाणुगामगमण णिसेहो- अन्यतीथिकादि के साथ ग्रामानुग्राम गमन का निषेध४६२. से भिक्खू वा भिक्खुणी बा गामाणुगाम दूइन्जमाणे णो ७६२. एक गांव से दूगरे गांव जाते हुए भिक्षु या भिक्षुणी अण्णउथिएण वा गारस्थिएण वा परिहारिओ अपरिहा- अन्यतीथिक या गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक अपारिहारिक रिएण वा सद्धि गामाणुगाम दुइज्जेज्जा। के साथ प्रामानुग्राम विहार न करे । -आ. सु. २, अ. १. उ. १, सु. ३२८ अण्णउत्थियाइहि सद्धि णिक्खममाणस्स पविसमाणस्स अन्यतीथिकादि के साथ प्रवेश और निष्क्रमण के पायच्छित्त सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र७६३. जे भिक्खू अण्णउथिएण वा गारथिएण का परिहारिए ७६३. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के साय तथा पारिवारिक वा अपरिहारिएण सदि गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अपारिहारिक के साथ गाथापतिकुल में आहार की प्राप्ति के निक्खमई वा अणुपविसह वा निफ्वमत वा अणुपविसंत वा लिए निष्क्रमण करता है या प्रवेश करता है, निष्कमण कराता साहज्जह। है ना प्रवेश कराता है, निरक्रमण करने वाले का या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा गारस्थिएण वा परिहारिलो जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक अपरिहारिएण सद्धि बहिया विहार-भूमि वा, वियार-भूमि या अपारिहारिक के साथ (ग्राम से) बाहर की स्वाध्याय भूमि या निक्समद वा पवितह वा निक्खमंतं वा पविसंत वा में मा स्थण्डिल भूमि में निष्क्रमण करता है या प्रवेश करता है, साहज्जा निष्क्रमण कराता है या प्रवेश कराता है तथा निष्क्रमण करने वाले का या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवण मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. २. . सु४७.४१ आता है। अण्णउत्थियाइहि सद्धि गामाणुगाम दुइज्जमाणस्स अन्यतीथिक आदि के साथ प्रामानुग्राम विहार करने का पायच्छिस सुत्तं प्रायश्चित्त सूत्रा-- ७६४. जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा पारथिएण वा परिहारियो ७६४. जो भिक्षु अन्यतीथिक एवं गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक अपरिहारिएण सडि गामाणुगाम दूइज्जइ, बृहज्जतं बा अपारिहारिक के साथ प्रामानुग्राम जाता है, जाने के लिए अन्य को साइजह । कहता है, जाने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवम्जइ मासियं परिहारट्ठाण उग्धाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि.उ २, सु. ४२ निप्तिद्धसय्या पविसण पायच्छित्तसुत्तं निषिद्ध शय्याओं में प्रवेश करने का प्रायश्चित्त सूत्र७६५. जे भिक्खू सागारियं सेज्नं अणुपविसइ अणुपविसतं वा ५६५. जो भिक्षु सागारी की शय्या में प्रवेश करता है, करवाता साइम्जा। है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सोदगं सेज्ज अगुपविसइ अगुपविसंत दा जो भि पानी वाली शय्या में प्रवेश करता है, करवाता है, साइज्जद। करने वाले का अनुमोदन करता है । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ revi चरणानुयोग सेक्स अनुपविसह मनुवा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज चाउम्मासियं परिहार द्वाणं अवाहनं । — वि. उ. १६, सु. १-३ भिक्स गणस्सविहि जिसेहो ७६६. नायणए अप्यहि अगाले। इंदियाणि जहाभागं दमद्दता मुणी चरे । ववववस्स न गच्छेज्जा' मासमाणो य गोयरे हसतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं समा ॥ fear के चलने के fafa निषेध विसमम यमस्सविहिनिहो७६०. ओवार्य विरामं लागं विज्जलं परिवन्मए । संकेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ॥ 1 पवते व से तत्य, पक्वलंते व संजए । हिंसेज पापभूयाई, तसे अजून थावरे ॥ सम्हाले नपच्छे जसुममाहिए। सह अन्नेण मग्गेण जयमेव परक्कमे ॥ -दस अ. ५, उ. १, गा. १३-१४ १ उत्स. अ. १७, रा. ८ । विधि - निषेध कल्प-३ - दस. अ. ५, उ. १, गा. ४-६ मिट्ठागमणमगारसविहि जिसेहो ७६८. सेभिक्खुणी वा हायतिकुल विश्वापडिया अणुपविट्ठे समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अम्गलागि वा अग्गलपासमाथि वा माओवादरिओ वा सति परिक्कमेसंग मेज परमेा णो गच्छे 2 केवल आपापमेयं से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पवडे ज्ज वा से तत्थ परमाणे या पवमाणे वा तत्थ से काए उच्चारेण या सूत्र ७६६-७६८ जो भिक्षु अग्नि वाली शय्या में प्रवेश करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्मास उद्यानिक परिहारस्थान ( प्रायश्वित्त) आता है। 菜 भिक्षु के चलने के विधिनिषेध ७६६. मुर्ति ऊँचा मुंह कर झुककर, हृष्ट होकर आकुल होकर (किन्तु दद्रियों को अपने अपने विषय के अनुसार) दमन कर चले । उच्च-नीच कुल में गोचरी गया हुआ मुनि दौड़ता हुआ न चले, बोलता और हंसता हुआ न चले । विषम मार्ग से जाने के विधि निषेध - ६७. दूसरे मार्ग के होते हुए गहरे को भून्या को कठे हुए पेड़ को अनाज के डंडल और पंकिल मार्ग को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ या पापाण-रचित पुल के ऊपर से न जाये । क्योंकि वहां गिरने या लड़खड़ा जाने से वह संयमी प्राणियों, भूतों, नस अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करता है। इसलिए सुसमाहित संयमी दूसरे मार्ग के होते हुए उस मार्ग सेवाये। यदि दूसरा मार्ग न हो तो ना जाये। भिक्षार्थ गमन मार्ग के विधि निषेध -- ७६ वह भिक्षु यामिनी गृहस्थ के यहां माहाराचे जाते समय रास्ते के बीच में ऊंचे टेकरे या खेत की क्यारियां हों या खाइयां हों, या कोट हो, बाहर के द्वार (बंद) हो, आगल हो, जायज हो गये हो मा हो तो दूसरा मार्ग होते हुए संयमी साधु उस मार्ग से न जाए । केवली भगवान ने कहा है- यह कर्मबन्ध का मार्ग है। उस विषम-मार्ग से जाते हुए भिक्षु फिसल जाएगा या डिग जाएगा, अथवा गिर जाएगा। फिसलने, डिगने या गिरने पर Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६८-७६९ प्रामानुग्राम गमन के विधि-निषेध चारित्राचार [४६५ पासपणेण वा, खेलेण वा, सिधाणएण था, वतेण बा, पित्तण उरा भिक्षु का शरीर, मल, मूत्र, कफ, लींद, वमन, पित्त, मबाद, वा, पूएणवा, सुक्केण वा, सोणिएण वा उवलिते सिया। शुक्र (वीर्य) और रक्त से लिपट सकता है। तहप्पगार कार्य पो अणंतरहियाए पुढबीए, जो ससणिवाए अगर कभी ऐसा हो जाए तो वह भिक्षु मूत्रादि से उलिप्त पुहषीए, णो ससरक्खाए पुढबीए, जो वित्तमंताए सिलाए, शरीर को सचित्त पृथ्वी मे, सचित्त चिकनी मिट्टी से, सचित्त रजणो चित्तमंताए ले लूए, कोलावाससि वा वामए जीव पति- वाली पृथ्वी से, मचित्त शिनाओं मे, मचित्त पत्थर या हेले से, या दिढते सरे-जात्र-संताणए णो आमज्जेज वा, णो पमज्जेज्ज धुन लगे हुए काष्ट से, जीवयुक्त काष्ठ से एवं अण्डे यावत् - वा, गो संलिहेज्ज वा, णो णिल्लिहेज वा, णो आयावेज जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को न एक बार वा, णो पयावेज वा। साफ करे, न बार बार साफ करे। न एक बार घिसे, और न बारबार घिसे । न एक बार धूप में सुखाए न वार बार धूप में सुखाए । (पैर फिसल जाने या गिर पड़ने पर भिक्षु का शरीर यदि मलमूत्र, कफादि रो खरड़ा जाए तो ) से पुष्खामेव अप्प ससरक्वं तणं वा, पत्तं वा, कळं वा, वह भिक्षु पहले सचित्त रज आदि से रहित तृण पत्र, सक्करं वा जाएज्जा, जासता से तमायाए एमंतमवरक- वाष्ट, कंकर आदि की याचना करे । याचना से प्राप्त करके मेज्जा, एतमयक्कमिसा अहे प्रामपंडिल्लसि वा, एकान्त स्थान में जाए वहाँ जाकर दग्ध (जली हुई) भूमि पर, अहिरासिसि सा, "ट्ट िनि म रिलिपी, मोग- हड्डिों के ढेर पर, लोह कीट के ढेर पर, सुष (भूसे) के ढेर पर, परासिसि वा, अण्णतरं सि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय. सूखे गोबर के ढेर पर, या उसी प्रकार की अन्य भूमि का प्रतिपढिलेयि. पमज्जिा पमज्जिअ सतो संजयामेव आमजेम्ज लेपन तथा प्रमार्जन करके यतनापूर्वक संयमी साधु स्वयमेव वा पमम्जेम्ज वा, संलिहेज्ज बा णिल्लिहेज्ज वा. आयावेज अपने सरीर को काष्ट भादि रो एक बार माफ करे या बार बार वा, पयावेज्जया। साफ करे, एक बार रगड़े या बार-बार रगड़े, एक बार धुप में -आ. सु. २, अ. १. उ.५, सु. ३५३ सुखाए या बार-बार सुखाए। से भिक्खू वा भिक्खूणी बाजाब-अणुपविट्ठे समाणे अंतरा साधु-साध्वी यावत् -भिक्षा के लिए जा रहे हो, मार्ग में से ओवाए था, खाणु वा, कंटए या, घसी वा, भिलुगा बा, बीच में यदि गडहा हो, खूटा हो या टूर पड़ा हो, कांटे हों, विसमे या विज्जले वा, परियावज्जेज सति परक्कमे संजया- उत्तराई की भूमि हो, फटी हुई काली जमीन हो, ऊँची-नीची मेव परक्कमेज्जा को उज्जुयं गच्छेज्जा। भूमि हो, या कीचड़ अथवा दलदल पड़ला हो, (ऐसी स्थिति में) -आ. सु. २, अ. १, उ. ५. सु. ३५५ दूसरा मार्ग हो तो संयमी साधु स्वयं उसो मार्ग से जाए, किन्तु जो (गड्ढे आदि वाला विषम किन्तु) सीधा मार्ग है, उससे न गामाणुगाम गमणस्सविहिणिसेहो ग्रामानुग्रामगमन के विधि निषेध७६६. से मिक्लू वा भिक्खूणी बा गामाणुगाम दूइजमाणे पुरओ ७६६. साधु या साध्वी एक ग्राम या दूसरे ग्राम विहार करते जुगमायं पैहमाणे वठूर्ण तसे पाणे उसटु पावं रीएज्मा, हुए अपने सामने की गुग मात्र (गाड़ी के जुए के बराबर चार साहट पारीएज्जा, वितिरिच्छ वा कट्ट पादं रीएज्जा, हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए चले, और मार्ग में प्रस जीवों सति परक्कमे संजयामेव परक्क मैग्जा, गो उन्जुयं गच्छेज्जा, को देखें तो पैर के अग्रभाव को उठाकर चले । यदि दोनों ओर ततो संजयामेव गामाणमाम दूइजेजा। जीव हो तो पैरों को सिकोड़ कर चले अथवा पैरों को तिरछे-आ. सु. २, अ. ३, उ. १, सु, ४६६ टेढ़े रखकर चले (यह विधि अन्य मार्ग के अभाव में बताई गई है) यदि दूसरा कोई साफ मार्ग हो, तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए किन्तु जीव जन्तुओं से युक्त सरल (सीधे) मार्ग से न जाए। उसी (जीव-जन्तु रहित) मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विनरण करना चाहिए। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] चरणानुयोग आचार्यावि के साथ गमन के विधि निषेध सूत्र ७६६-७७१ से भिषणू वा भिक्खणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे जो ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी गीली मिट्ट मट्टियागतेहि पाहि हरियाणी छिदिय छिविय विकुन्जिय एवं कीचड़ से भरे हुए अपने पैरों से हरितकाय का छेदनकर विकुज्जिय विफालिय विफालिम उम्मगोण हरियवधाए बार-बार छेदन करके तथा हरे पत्तों को बहुत मोड़-तोड़ कर या गच्छेज्जा जहेय पाएहि मट्टियं विप्पामेव हरियाणि अवहरंतु । दबाकर एवं उन्हें चीर-चीरकर मसलता हुआ मिट्टी न' उतारे माइट्ठाणं संफासे । णो एवं करेजा। से पुष्यामेव अप्प- न हरित काय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में इस अभिप्राय हरियं मग्यं पडिलेहेज्जा, पडिलेहिता ततो संजयामेव गामा- से जाए कि पैरों पर लगी हुई कीचड़ और यह गीली मिट्टी यह णुगाम पूइज्जेज्जा। हरियानी अपने आप हटा देगी। ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिये । वह पहले ही हरियाली से रहित मार्ग का प्रतिलेखन करे (देखें) और तव उसी मार्ग से यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विचरण करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा प्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में से वप्पाणि वा-जाब-दरीओ बा, सति परक्कमे संजयामेव यदि बड़े ऊँचे टेकरे या खेत को क्यारियां यावत् – गुफाएं हो परक्कमेम्जा पो उज्जु गमछेजा। तो अन्य मार्ग के होते हुए उप्त मार्ग से ही यलनापूर्वक गमन करे, किन्तु ऐसे सीधे विषम मार्ग से गमन न करे। केबलो ड्या-आयाणमेयं । केवली भगवान् ने कहा यह मार्ग (निरापद न होने से) कर्म-बन्ध का कारण है। से तत्व परक्कममाणे पयलेज्ज वा, पवडेज्ज वा, से तत्थ ऐसे विषम मार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पर आदि पपलमाणे वा, एवडमाणे या, रुक्लाणि वा गुच्छाणि वा, फिराल सकता है, वह गिर सकता है । कदाचित् उसका पैर आदि गुम्माणि बा, लयाओ वा, बल्लीओ वा, तणाणि वा, गह- फिसलने लगे या वह गिरने लगे तो वहां जो भी वृक्ष, गुच्छ, पाणि वा, हरियाणि वा अवलंबिय अवलंबिय उत्तरेज्जा, पत्तों का ममुह या फलों का गुच्छा (झाड़ियाँ, लताए, बेलें, तृण, जे तत्थ पडिपहिया उवागच्छति ते पाणी जाएज्जा, जाइता अथवा गहन झाड़ियां, वृक्षों के कोटर या वृक्ष लताओं का झंड) ततो संजयामेव अवलंजिय अवलं बिय उत्तरेला । ततो हरितकाय आदि हो तो सहारा लेकर चले या उतरे अथवा वहां संजयामेव गामाणुगाम वूइज्जेज्जा। (सामने से) जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ (हाय का -आ. सु. २, भ. ३, उ. २. सु. ४९८-४६६ सहारा) मांगे, उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़कर यतनापर्वक चले या उतरे। इस प्रकार साध या साध्वी को यतापूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। आयारियाएहि सद्धि ममणविहि णिसेहो आचार्यादि के साथ गमन के विधि निषेध ... ७७. से भिक्खू बा भिक्खूणी या आयरिय उपमाएहिं सखि ७७०. आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने गामाणुगाम दूहन्जमाणे जो आयरिय उवरमायस्स हत्येण वाले साधु या साध्वी अपने हाथ से उनके हाय, अपने पैर से हत्थं पाएण पायं, कारण कार्य आसाएज्जा से अणासावए उनके पर का तथा अपने शरीर से उनके शरीर का (अविवेक अणासायमाणे ततो संजयामेव आयरिय उबझाएहि सखि पूर्ण रीति से) स्पर्श न करे । उनकी आगातना न करता हुआ गामाणुगाम बूइज्जेज्जा। उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार करे। -आ. मु.२. अ.३, उ. ३, सु. ५०६ मागे आयरियाईणं विणो मार्ग में आचार्यादि का विनय७७१. से भिक्खू या भिक्षुणी चा आयरिय-उक्साएहिं सखि ७७१. आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने इज्नमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा ते गं पाहि- याले साधु या माध्वी को मार्ग में यदि सामने से आते हुए यात्री पहिया एवं बवेज्जा मिलें, और वे पूछे कि Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र '२७१-७७४ मार्ग में रत्नाधिक के साथ गमन के विति-निषेध चिारित्राचार ४६७ प०- माउस तो समगा ! के तुम्भे, फओ वा एह, कहि वा --"आयुष्मन् श्रमण या श्रमणी ! माप कौन हैं? कहाँ गछिहिह ? से आए हैं ? और कहाँ जाएंगे ?" उ०—जे तत्थ आयरिए या, उवमाए या, से मासेज वा, उ० इस प्रश्न पर जो आचार्य या उपाध्याय साय में हैं, वियागरेज वा, आयरिय-उवज्झायस्स भासमाणस्स वे उन्हें सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। आचार्य या वा, वियागरेमाणस्स या णो अतरा भास करेज्जा, उपाध्याय गामान्य या विशेष रूप से उनके प्रश्नों का उत्तर दे ततो संजयामेव आहारातिणियाए इज्जेज्जा। रहे हों, तब वह साधु या साध्वी बीच में न बोले । किन्तु मौन .. आ. सु. २, अ. उ. ३. स. ५०५ रहकर यथारत्नाधिक क्रम से उनके साथ ग्रामानुग्राम विचरण करे । मरगे रयणाहिये हि सद्धि गमणस्स विहि-णिसेहो- मार्ग में रत्नाधिक के साथ गमन के विधि-निषेध७७२. से भिक्खू वा भिक्खूणी चा आहारातिणियं गामाणुगाम ७७२. रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े) साधु या साध्वी दूइज्जमाणे णो राइणि यस्स हत्येण हत्थं, पादेण पाई, कारण के साथ प्रामानुग्राम विहार करता हुआ मुनि अपने हाथ से कार्य आसादेज्जा । से अणासादए अणासायमाणे ततो संजया- रत्नाधिक साधु के हाथ का, अपने पर रो उनके पैर का तथा मेष आहाराइणि गामाणगाम दूइज्जेज्जा । अपने शरीर से उनके शरीर का (अविधिपूर्वक) स्पर्श न करे । -आ. सु. २. अ.३, उ. ३, सु. ५०८ उनकी आशातना न करता हुआ साधु यारत्नाधिक क्रम से उनके साथ ग्रागानुग्राम विहार करे । मम्मो रयणाहियाण विणी मार्ग में रत्नाधिक का विनय७७३. से भिक्खू वा मिक्खूणो वा आहाराऽणि गामाणुगाम दूइज्ज- ७७३. रत्नाधिक गाधुओं के साथ प्राभानुग्राम निहार करने वाले माणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते गं पाडिपहिया साधु या साध्वी को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ प्रतिएवं वदेज्जा -- पथिक (यात्री) मिलें वे यों पूछे कि प०-आउसंतो समणा ! के तुम्मे को वा एह, कहि वाप.-."आयुष्मन श्रमण ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए गमिछहिह ? है? और कहां जाएंगे ?" उ०—जे तत्व सम्वरातिणिए से भासेज्ज वा वियागरेज्ज उ.- (ऐमा पूछने पर) जो उन साधुओं में सबमे रत्नाधिक वा, रातिणियस्स भासमाणस्स वा, वियागरेमाणस्स हैं, वे उनको सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। जब या गो अंतरा भास भासेज्जा। सत्तो संजयामेव रताधिक सामान्य या विशेष रूप से उन्हें उत्तर दे रहे हों तब गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। वह साधु बीच में न बोले । किन्तु मौन रहकर उनके साथ --आ. सु. २, अ. ३, इ. ३. मु. ५०६ ग्रामानुग्राम विहार पारे । येराणं येयावडियाए परिहारकप्पष्ट्रियस्स गमावसया स्थविरों की सेवा के लिए परिहार कलस्थित भिक्ष के विहि-णि सेहो पायच्छित्त च गमन सम्बन्धी विधि-निषेध और प्रायश्चित्त-- ७१४, परिहार-पप्पट्टिए भिक्खू बहिया घराणं व्यावडियाए ७३४. परिहार कल्प में रियन भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) गच्छज्जा, थेरा य से सरेज्जा । अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर की वैयावृत्त्य (सेवा) के लिए जावे, उस समय स्थविर उसे स्मरण दिलाएं किफप्पड़ से एगराइयाए पडिमाए । जंज जे प विस अन्ने "हे भिक्षु ! तुम परिहार तप रूप प्रायशि दत्त कर रहे हो साहम्मिया विहरति तं गं तं गं दिसं उलित्तए। नो से अन: "बिधाम के लिए जहां मुझे ठहरना पड़ेगा वहां में एक कप्पइ तत्थ विहारबत्तियं वत्थाए । रात से अधिक नहीं ठहरूँगा" ऐसी प्रतिज्ञा करो और जिस दिशा में कम्ण भिक्षु है उस दिशा में जाओ । मार्ग में विश्राम के निए तुम्हें एक रात्रि ठहरना ही कल्पता है किन्तु एक रात में अधिक ठहरना नहीं कल्पता है।" Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yes] परणानुयोग स्थविरों की सेवा के लिए विधि-निषेध और प्रायश्चित कtus से तत्व कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि मिट्टियंसि परो एक्यासह भो! एमरावं वा अज्जो दुरायं वा" एवं से कम्पइ एगरायं वा दुरायं वा । नो से कप्पड़ पर एगरायाओ वा दुरायाओ वर वत्थए । P जेणं तस्थ एमरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसह से संतरा एवा परिहारे का। परिहार-कापट्टिए भिक्यू बहिया देणं यावडियाए गच्छेज्जा, पेरा य से तो सरेज्जा कम्पट्ट से निव्विसमाणस्स एगराइए पडिमा विहरति तं णं तं गं बिसि उबलिए । नो से कम्प सत्य विहारवतियं बत्थए । कम्पs से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च गं कारणंसि निट्ठियंसि परोवएज्जा-बसाहि अज्जी I एगरायं वा दुरायं वा । " एवं से कप्पइ एगरामं वा दुरायं वा वत्थए । नो से कप्पड़ पर एगरायाओ वा दुरायाओ वा बस्थए । जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा बसद से संतरा छए वा परिहारे वा । परिहार- कम्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा येरा य से सरेजा था, तो सरेज्ना वा । sors से निविसमाणस एगराइए पडिमाए जं मं मं णं दि अपने सामिया विहरति लिए । तं संजय नो से कप तर विहारवत्ति बथए । दिति भन्ने सहर किसी कारणवश उसे कप्प से तस्य कारण वत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा - "वसाहि मज्जो 1 एगरायं वा दुरायं वा ।" एवं से कप्पड़ एगरावं या बुरा वा वत्थए। नो से कप्पद पर एमरायाओ वा राया था थए । जै तत्य परं एगरायाओ वा बुरायाओ वा वस छए या परिहारे वा । व० उ० १ · से संतरा ० २०-२२ रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कल्पता है । कारण के समाप्त होने पर भी यदि कोई भि कहे हे आये ! भिक्षु कि - तुम यहाँ एक-दो रात और बसों" तो, एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु बाद में उसे वहाँ एक दो रात और रहना नहीं कल्पता है । सूत्र ७७४ यदि वाद में भी वह वहाँ रहे तो "जितने दिन-रात वह वहां रहे आनार्यादि उसे उतने ही दिन की दीक्षा का छेद या परिहार तप का प्रगति दें।" परिहार स्थित भिक्षु (स्वविर को किसी रुग्ण भिक्षु की वैयावृत्य के लिए जावे भाजावे अन्य उस समय यदि तो भी बह हरता पड़ेगा यहाँ भिक्षु विधान के लिए यहाँ मुझे मैं एक रात से अधिक नहीं ठहरूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा करके जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जाने। मार्ग में विश्राम के लिए उसे एक रात रहना कल्पता है। किन्तु एक रात से अधिक रहना नहीं करूपता है । रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कन्पता है। कारण के समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई भिक्षु कहे आर्य ! तुम यहाँ एक-दो और रहो" कि तो उसे वहाँ एक-दो रात और रहगा कल्पता है । किन्तु बाद में उसे वहां एक-दो राव और रहना नहीं करता है। यदि बाद में भी वह वहां रहे तो जितने दिन-रात वह वहाँ रहे आनार्यादि उसे उतने ही दिन दीक्षा काया परिहार तप का प्रायश्चित्त दें" । परिहार-स्थित (स्वविर की आशा से अन्य किसी रुरण स्थविर की वैयावृत्य के लिए जावे उस समय स्थविर उसे (किसी कारणवश) स्मरण दिलावे यान दिलाने को भी वह भिक्षु "मार्ग में विश्राम के लिए जहाँ मुझे ठहरना पड़ेगा वहां मैं एक रात से अधिक नहीं " ऐसी करके जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जावे । मार्ग में विश्राम के लिए उसे एक रात रहना कल्पता है किन्तु एक रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है । रोगादि के कारण अनेक रात रहना भी कल्पता है । कारण के समाप्त होने पर भी यदि कोई भिक्षु कहे कि - "हे आर्य ! तुम यहाँ एक-दो रात और रहो" तो उसे यहाँ एक-दो रात रहना और कल्पता है किन्तु बाद में उसे एक-दो रात और रहना नहीं कल्पता है। यदि बाद में भी यह वहां रहे तो "जिसने दिन-रात वहाँ रहे आचार्यादि उसे उतने ही दिन दीक्षा छेद या परिहारतप का प्रायश्चित्त दें।" Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७५-७७७ अटवी में जाने के विधि-निषेध चारित्राचार [४६९ अडखोए गमणस्सविहि-णिसेहो अरबी में जाने के विधि-निषेध७७५. से भिक्खू वा भिक्खूणी या गामाणुगाम दूरज्जेज्जा, ७७५. ग्रामानुग्राम में बिहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने अंतरा से विहं सिथा, सेज्ज पुण विहं जाणेज्जा- एगाहेण कि आगे लम्बा अटवी-मार्ग है। यदि उस अटवी मार्ग के विषय वर, दुयाहेण वा, तियाहेण वा, चउयाहेण त्रा, पंचाहेण बा, में वह यह जाने कि यह एक दिन में दो दिनों में, तीन दिनों में, पाउणेग्जा वा, णो वा पाउणेग्जा। चार दिनों में या पांच दिनों में पार किया जा सकता है, अथवा पार नहीं किया जा शंकता है, तहप्पगारं विहं वर्षगाहममणिज्ज सति लादे-जाव-विहाराए तो बिहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते हुए-यावत्संयरमाणेहिं जगवएहि णो विहारवत्तियाए पवज्जेज्जा (उम अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर) अटवी गमगाए। मार्ग से विहार करके जाने का विचार न करें। केवली पूया-आयाणमेयं । केदली भगवान कहते हैं ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, अतरा से वासे सिया पाणेसु वा, पणएसुवा, बीएमु वा, क्योंकि मार्ग में वर्ण हो जाने से द्वीन्द्रिव आदि जीवों की हरिरसुवा, कमलशासविनार गावित्थर उत्पत्ति हो जाने पर गार्ग में काई, (लीलन, फूलन) बीज, हरियाली, सचित्त, पानी और अविष्वस्त मिट्टी आदि के होने से संयम की विराधना होगी सम्भव है। अह मिक्खूण पुरुखोवदिडा-जाव-एस उपएसे जं तहप्पगारं अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकरादि ने पहले ही यह प्रतिज्ञा विह अणेगाहगमणिज्ज सति लाडे णो विहार पत्तियाए पवे. -यावत्-उपदेश दिया है कि वह साधु या साध्वी अन्य साफ और अज्जा गमणाए । ततो संजयमेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। एकाध दिन में ही पार किया जा सके ऐसे मार्ग के होते हुए अन्य -आ० सु. २, अ०३, . १, सु० ४७३ मार्ग से विहार करके जाने का संकल्प न करे। अतः साधु को परिचित और साफ गार्ग से ही यतना-पूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। विरुद्धरज्जाइसु गमणरुस विहि-णिसेहो बिरुद्ध राज्यादि में जाने के विधि-निषेध७७६. से भिक्यू वा, भिक्षूणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा ७७६, साधु या साध्वी प्रामानुग्राम विहार करते हुए यह अरापाणि वा, जुवरायाणि बा, दोरन्जाणि वा, वेरज्जाणि जाने कि ये अराजक (राजा से रहित) प्रदेश हैं, या यहाँ केवल वा, विरजाणि वा, सति लादे विहाराए संभरमार्गेहि युवराज का शासन है, (जो कि अभी राजा नहीं बना है) अथवा जणवएहि णो विहारबसिवाए पवजेज्जा गमणाए। दो राजाओं का सामन है, या परस्पर दो शत्रु-राजाओं का राज्य है, या धर्म-विरोधी राजा का शामन है ऐसी स्थिति में बिहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते हुए, इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में विहार करने की दृष्टि से गमन करने का विचार न करें। केवली व्या-आयाणमेयं । केवली भगवान ने कहा है ऐसे अराजक आदि प्रदेशों में जाना कर्मबन्ध का कारण हैते गं बाला "अयं तेणे-जाय-तह पगाराणि विरुवरुवाणि क्योंकि वे अज्ञानीजन साधु के प्रति शंका कर सकते हैं "यह पच्चंतियाणि-जाव-अकाल परिभोईणि-सति लाहे विहाराए चोर है यावत्-तथारूप अनेक म्लेच्छ --यावस्-अकालसंयरमाणेहिं जगवएहि गो विहारयत्तियाए पवज्जेज्जा गम- भोजी प्रदेशों में अन्य आर्य जनपदों के होते हुए विहार की दृष्टि णाए । ततो संजयामेव गामाणुगाम दूहज्जेज्जा। से जाने का संकल्प न करें । अतः साधु इन अराजक आदि प्रदेशों ----आ० सु० २, अ० ३, उ०१, सु. ४७२ को छोड़कर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। वेरज्जे विरुद्धरज्जे गमणाममणस्स पायच्छित्त सुत्त- अराज्य और विरुद्ध राज्य में गमनागमन का प्रायश्चित ७७७. जे भिक्खू वेरज्जे-विरुद्धरजसि सज्ज गमण, सज्ज आग मणं, सज्ज गमणागमणं करेड करेत वा साइज्जद । ७७७, जो भिक्षु अराजकता वाले राज्य में या विरुद्ध राज्य में जल्दी-जान्दो बाता है, जल्दी-जल्दी आता है, जल्दी-जल्दी जाने-आन के लिए प्रेरणा देता है जल्दी-जल्दी जाने-आने वाले का अनुमोदन करता है। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] चरणानुयोग अभिषेक राजधानियों में बार-बार जाने-आने के प्रायश्वित सूत्र चामाथि परिहारट्ठाणं तं सेवमाणे आवजह यथुवाइय - नि० उ० ११, ० ७१ अभिसेय - रायहाणीस पुणो पुणो णिश्लमण-बेसणरस प ७८. मिक्रो बत्तिया मुद्दयाणं मुद्धाभितिताणं महा माक्समद या पविसद या विधा पवितं वा सरइज्जइ । जे मिक्सू रण्णो खत्तियाणं मुद्रियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दस अमियाओ राहाणीओ उठाओ गणियाओ बजियाओ तातो वा तिक्युतो हा क्सिम वा यदि सद्या मिं वा पवितं वा साइज्जइ । तं जहा - १. चंपा २. महूरा, ३. वाराणसी ४. सावस्थी, ५. सायं. ६. कंपिल्ल, ७. कोसंबी ८. महिला ६. हल्पि णापुरं १०. रायगिनुं । तं सेवमाने व पायास परिहाराणं अगुग्णा इयं - नि० उ० है सु० १५-१६ अभियााण मागेण गमण विहि-जिसेहो ७७६. से मित्र व भक्खुणी या गामाशुगामं बृहज्जमाणे अंतरा से जयमाथि या सगाणि वा रहाणि वा सचस्वाणि वा परचरकाणि वा, सेणं वा विरूवरूवं संणिक्ट्ठि पेहाए सति परक्कमे संजयामेव परककमेज्जा णो उज्जुयं गच्छेज्जा । से गं से परो सेमात्र देशा "आतो एस समणे मेणाए अभिप्राश्यि करे से बाहाए हाए आगसह् ।" से णं परो बाहाहिं गहाय आगसेज्जा, सं णो सुमने सिया णो युम्मणे सिया, जो उन्चावयं या गोलि बाला पाताए बहाए समु मणं Ww सूत्र ७७७-७७ उसको नानुमासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । अभिषेक राजधानियों में बार-बार जाने जाने के प्रायश्चित्त सूत्र - ७७ जो भिक्षु राजा का क्षत्रियों का शुद्ध जातियों का सूर्याभों का जहाँ पर महाअभिषेक हो रहा हो वहाँ वह जाता जाता है. जाने-आने के लिए प्रेरणा करता है या जाने आने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु राजा की क्षत्रियों को, शुद्ध जातियों की मूर्धाभि षिक्तों की ये अभिषेक राजनियाँ कही गई हैं, गिनाई गई है, प्रसिद्ध है उनमें एक मास में दो बार या तीन बार जाता आता है। जाने-आने के लिए प्रेरणा देता है। जाने-आने वाले का अनुमोदन करता है। यथा - १. चंपा, २. मथुरा, ३. वाराणसी ५. साकेत ६. कांपिल्य नगर 19. कोसंबी, ६. हस्तिनापुर, १०. राजगृह । ४. श्रावस्ती, ८. मिथिला. उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। सेना के पड़ाव वाले मार्ग से गमन के विधि-निषेध - ७३६. माधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों. मार्ग में यदि आदि ग्रन्थों के हों, गाड़ियों हॉ. एच पड़े हो, स्वदेश शासक या परदेशा की सेना के नाना प्रकार के गाय (छावनी के रूप में पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दुसरा (शिव) मार्ग हो तो उसी मार्ग से नाक गए किन्तु उस मां (दोषयुक्त) मार्ग से न जाए । १ नो कप्पर निग्गंथाण या निरगंथीण वा रण्ज-विरुद्धरतिम सजायम सजे पानमणं करिनाए । है) (যदি माधु सेना के पड़ाव वाले मार्ग से जाएगा, तो सम्भव उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से "आयुष्मान् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है। अतः इसकी चाहें पकड़कर खींचो। जयत्रा उसे घसीटो।" इस पर वह सैनिक साधु की बाहें पकड़कर खींचने या घसीटने लगे, उस समय साधु अपने मन में न हर्षित हो न रुष्ट हो और वह मन में किसी प्रकार ऊँचा-नीचा संकल्प विकल्प न करे और न उन अज्ञानी जनों को मारने-पीटने के लिए उद्यत हो । वह उनसे जो खलु निग्गंयो वा निग्गंधी वा वेरज्ज - विरुद्ध रज्जसि – मज्जं गमणं सज्जे आगमणं सज्जं गमभागमणं परेद्र करेतं वा साज से अक्कममाणे, - अवस्न पाउमावि परिहार अ प्प. १. १. सु. ३६ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 040-७८२ सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में रात रहने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्रामार [५०१ अपुरसुनाव समाप : संजय गामाणुगाम किमी प्रकार का प्रतिशोध लेने का विचार न करे ।-यावत्-.हज्जेज्जा। समाधिभाव में स्थिर होकर, वतनापूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम -आ० सु. २, अ० ३. उ०२, मु. ५००-५०१ विवरण करे । सेण्ण सपिणविद खेसे रयणीवस माणस्स पायच्छित्त सत्तं- सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में रात रहने का प्रायश्चित्त सूत्र८८०. से गामस्स वा-जाब-रायहाणीए या बहिया सेण्णं सन्निविध ८, ग्रान-यावत्-- राजधानी के बाहर शत्रु सेना का पेहाए कप्पा निग्गंयाण वा णिगंधीण वा सदिक्स भिक्खा- स्कन्धावार देवकर निग्रन्थों और निग्रंन्थियों को भिक्षाचर्या से परिवाए गंतूण पहिनियत्तए । नो से कपडतं रणि तत्थेव उसी दिन लौटकर आना कल्पता है। उन्हें बाहर रात रहना नहीं उवाइणावेत्तए। बाल्पता है। जो खन निग्गयो वा निग्गयो वा तं रयणि तत्येव उवाइया- जो नियन्ध या नियन्थी (ग्राम-यावत-राजधानी के वेइ, उवारणतं वा साइजई । बाहर) रात रहते हैं या रात रहने वाले का अनुमोदन करते हैं से दृष्टओ वि अवस्कममाणे आवजह चाउम्माशिवं परि- तो वे जिनाज्ञा और राजाज्ञा का अतिक्रमण करते हुए चातु हारट्ठाणं अणुग्धाइय। कप्प० उ० ३, सु० ३३ मासिक अनुशातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) को प्राप्त होते है। पाणाइ आइण्णेण मग्गेण गमणविहिणिसेहो प्राणी आदि युक्त मार्ग से जाने के विधि-निषेध-. ७८१. से भिक्स्यू वा भिक्षुणी वा मामाणुगाम दूइज्जमाणे, अंतरा ७८१. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यह जानें से पाणाणि वा, बीयाणि वा, हरिपाणि वा, उदए वा, मट्टिया कि मार्ग में बहुत से इस प्राणी हैं, बीज बिखरे हैं, हरियाली है, वा अविद्वत्था सति परक्कमे संजयामेव परक्फमेज्जा णो मचित्त पानी हे या सचिन मिट्टी है, जिसकी योनि विश्वस्त नहीं उज्जुये गएछेज्जा ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्गेज्जा । हुई है, ऐसी स्थिति में दूमरा निर्दोष मार्ग हो तो साधु-साध्वी -आ० सु० २, भ० ३, उ० १. सु. ४०० उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाएँ किन्तु उस (जीव-जन्तु आदि से युक्त) सरल (सीधे) मार्ग से न जाए। जीव-जन्तु, रहित मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। महाणई पारगमणविहि-णिसेहो अक्वाये पंचठाणाई- महानदी पार गमन विधि-निषेध के पाँच कारण७८२, णो कप्पद निग्गंथाण वा निगशेण वा इमाओ उद्दिट्ठाओ ७८२ निम्रन्थ और निस्थियों को, इन उद्दिष्ट-आगे बताई गणियाओ विजियाओ पंच पहावाओ महाण दीओ अतो- जाने वाली) गिनती की गई, अति प्रसिद्ध तथा बहुत जन वाली मासस्स बुक्खत्तो वा तिक्ख सो वा उत्तरित्तए वा संतरिसए पाँच महानदियाँ एक माम के भीतर दो बार या तीन बार से वा, तं जहा १. गंगा, २. जउणा, ३. सरऊ, ४. एरावती, अधिक उतरना या नौका से पार करना नही कल्पता है । जैसे५. मही। १. गंगा, २. यमुना, ३ सरयू. ४. ऐरावती, ५. मही । पंचहि ठाणेहि कम्पति. किन्तु पाँच कारणों से इन महानदियों को तेर कर पार करना या नौका से पार करना कल्पता है। तं जहा–१. मयंसि वा, जैसे--१. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर। २. बुरिभक्खंसिया, २. दुर्भिक्ष होगे पर। ३. पतबहेज्ज वा णं कोई ३. किसी के द्वारा व्यषित किये जाने पर । ४. वओगं सि वा एज्जमाणंसि महता चा, ४. बड़े वेग रो जलप्रवाह अर्थात् बाढ़ आ जाने पर । ५. अणारिए। -आण अ० ५. उ० २, सू० ४१२ ५. जगायं पुरुषों द्वारा उपद्रव किये जाने पर। १ काप. उ. ४, भु.३८ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] चरणानुयोग अपुग एवं जागेला एराबई कुणालाए जत्थ चक्किया एवं पार्थ जले किन्या एवं पायं यले किच्चा एवं गं कप्पड़ अंतोमासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरिए बा. संतरा जन्म एवं नो चक्किया एवं नो कप्पइ अंतोमासस्स डुबतो या तो वा उत्तरितए वा संतरित श पाँच महानदी पार करने का प्रायश्चित पंच महाणई उत्तरण पायच्छित सुत्तं०१. भाओ महणवाओं महान ईओ रहिहाओ उद्दिट्ठाओगणियाओ जियाओ अंतोमामरस दत्तो वा नि या उत्तरद वा संतर वा उत्तरंत या संतरंतं वा साइज्जइ । आवज्जह यदि उक्त प्रकार से पार न की जा सके तो उस नदी को एक मास में दो या तीन बार उतरना या नाव से पार करना -- कृष्ण० उ० ४. सु० ३५ नहीं करूपता है । पाँच महानदी पार करने का प्रायश्चित सूत्र ७८३ भिक्षु इन बारह मान बहने वाली इन पांचों महा जो नदियों को जो कही गई हैं, गिनाई गई हैं, प्रसिद्ध हैं उन्हें एक मास में दो बार या तीन बार उतरकर या तैरकर पार करता है, करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है । यथा - १ गंगा, २. यमुना, ३. सरयु ४. एरावती और ५. मही । पातिक पार्मासिक परिहारस्थान (शाश्वत) - तं महा-- १. गं. २ जणं, ३. सउणं ४. एरावई, ५. महि । तं सेवमाणे नाम्यायं परिहार ठा - नि० उ० १२, सु० ४२ उग्घाइयं । नावाविहारस्स विहि- णिसेहो ७९४ से भिक्वा भिक्खुणी दा गामाणुवाय अंतरा से जावा संतारिमेजवए सिया सेज्जं पुण णावं जाणेज्जा संजते भिक्पडियाए किणेज्ज वर पामिन्छेज्ज वा जावाए या गावपरिणामं कट्टु मलातो वा पावं जलंसि ओगाहेज्जा, जातो वा णावं यसि उक्कसेज्जा पुष्पं या गावं उस्सि वेज्जर, सण्णं वा णावं उप्पीला वेज्जा, तहप्पगार यावं उड्डगार्मिणि वा अगामिनि वा तिरियगामिण वा परं जोयण मेरा जोवन मेरा का अपना मुकारे का जो ए सूत्र ७८१-७६४ यदि यह ज्ञात हो जाए कि कुणाला नगरी के समीप एनती नदी एक पैर जल में और एक पैर बल में रखते हुए पार को जा सकती है तो एक मास में दो या तीन बार उतरना या नाव से पार करना करुपता है । आता है । नौका विहार के विधिनिषेध- - ७८४. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि मार्ग में नौका द्वारा पार कर सकने योग्य जल ( जल मार्ग ) है, तो वह नौका द्वारा उस जल मार्ग को पार कर सकता है | ) परन्तु यदि वह यह जाने कि अरांयतः गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देकर (किराये से) नौका खरीद रहा है, या उधार ले रहा है या अपनी नौका की अन्य की नौका से अदला-बदली कर रहा है. या नाविक नौका को स्थल से जल में लाता है अथवा जल से स्थान में सीन कर गानों से भरी हुई नौका से पानी उनी खाली करता है अथवा कीचड़ में फँसी हुई को बाहर निकालकर साधु के लिए तैयार करके साधु को उम पर चढ़ने की प्रार्थना करता है, तो इस प्रकार की नौका चाहे वह ऊध्र्वगामिनी हो, अधोयामिनी हो या तिर्यग्गामिनी, जो उत्कृष्ट एक योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है या अर्द्ध योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, एक बार या बहुत बार गमन करने के लिए उस नौका पर साधु सवार न हो तो ऐसी नौका में बैठकर साधु जल मार्ग पार न करें। १ यहाँ उत्तरित" के बाद में "संतरितए" पाठ अनावश्यक है। क्योंकि उत्तरितए का अर्थ जंघा या बाहू द्वारा तिरकर पार करना है । अथवा एक पैर जल में और एक पर स्थल में अर्थात् एक पैर जल से ऊपर उठाकर उसे अधर आकाश में कुछ देर रखे पैर का पानी नितारे बाद में नितरा हुआ पैर पानी में रखे इस क्रम से एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखता हुआ ! नदी का पानी पार करे | एक पैर जन में और एक पर स्थल में रखते हुए नदी पारकर इस वीर के आम से सामने की तीर के ग्राम में कारणवश भ्रमण गया हो पीछे लौटते समय नदी में अधिक पानी आ जाय तो उसे नाव द्वारा पार करके गुनः जिस ग्राम से गया उसी में आ जावे । "संतरितए" का अर्थ है नाव से पार करना । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I सूत्र ७८४ नौका विहार के विधिनिषेध सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा पुष्वामेव तिरिच्छसंपातिमं णावं जानेज्जा, जागिता से समायाए एवं तमवक्क मेज्जा, एगतम पहिले पहिला एमानो करेजा करिता मसीसोरिवं कार्य पाए पमा ज्जिता सागार, भत्तं पञ्चनखाएजा पच्चक्वाइता एवं पायं जले किया एवं पायें थले किच्चा ततो संजयामेव णावं । ( कारणवश नौका में बैठना पड़े तो) साधु या साध्वी सवंप्रथम तिर्यगामिनी नौका को जाने देख ले। यह जानकर व गृहकी आमा कर एकान्त में जाकर लेप्रोमकरण का प्रतिलेखन करे सभी उपकरणों को इकट्ठे करके बाँध ले फिर सिर से लेकर पैर तक शरीर का प्रमार्जन करे । तदनन्तर आगार सहित आहार का प्रत्याख्यान ( त्यास ) करे यह सब करके एक र जल में और एक स्थल में रखकर यतनापूर्वक उस नौका पर चढ़े । से मिक्लू वा भिक्खुणी वा णावं तुम्हमाणे जो जावातो पुरतो दुरुहेज्जा, णो ण:बामो मग्यतो दुल्हेन्जा, जो पाव तो मज्झतो कहेज्जा.' णो बाहाओ परिक्षिय परिपि लिए उद्दि सिम उद्दितिय मोणमय कोशनिय उभ्यमिय उन मिय पिम्स एज्जा । से णं परो णःबागतो णावागयं वदेज्जा- "बाउसंतो समया । एते तातुमा उकसावा. वोक्साहि वा लिव हि वां रज्जूए वा गहाय आकसाहि " णो से तं परिपरि दुमिओ उग्या से णं परो ण.व.गतो ण.व.गतं बवेज्जा "भाउसंतो समणा ! णो संचाएसि तुमं गावं उपसिलए वा बोक्फ सिलए वा विवित्स ना पहाय आकसिलए" आहर एवं मावाए रज्जुयं सयं चेयं गं वयं गावं उक्कसिस्सामी वा जाय-रज्जुए वा महत्व असिरसा भी जो से परम्परा, सिमी उज्जा । enferment [५०१ से गं परो णावागतो णावागयं वदेज्जा- "आउसंतो समणा । एतं ता तुमं णावं अलित्तेण वा पिट्टण वा वंसेणं वा. वसएण वा अबल्लएण वा वाहेहि।" णो से सं परिणं उ साधु या साची नौका पर चढ़ते हुए न नौका के अगले भाग में बैठे न पिछले भाग में बैठे और न मध्य भाग में तथा नौका के बाजुओं को पकड़-पकड़ कर वा अंगुली से बता-बताकर (संकेत करने या उसे भी मामी करके एक जल की न देखे । यदि नौका में हुए "आयुष् से श्रमण ! तुम इस नौका को ऊपर की ओर खींचो अथवा नौका को नीचे की ओर खींनो या रस्सी को पकड़ कर नौका को अच्छी तरह से बाँध दो, अपवा रख्खी से इसे जोर से कस दो ।" नाविक के इस प्रकार के ( Free प्रवृस्थापक) वचनों को स्त्रीकार नहरे, किन्तु मौन धारण कर बैठा रहे । दिसाको आष्यन् श्रमण ! यदि तुम नौका को ऊपर या नीचे की ओर खींच नहीं सकते या की पकड़ कर नौका को भली-भाँति पाँच नहीं सकते या जोर से कस नहीं सकते तो नाव पर रखी हुई रस्सी को लाकर दो हम स्वयं नौका को कार की ओर खींच लेंगे, - यावत्- रस्सी से इसे जोर से कस देंगे ।" इस पर भी साधु नाविक के इस वचन को स्वीकार न करे, चुपचाप उपेक्षा भाव हे रहे। यदि नौका में बैठे हुए साधु से नाविक कहे कि – “आयुष्मन् श्रमण ! जरा इस नौका को तुम डांड ( चप्पू) से, पीठ से, बड़े बाँस से, बल्ली से या अवल्लक से (बाँस विशेष) तो चलाओ।" इस पर भी साधु नाविक के इस प्रकार के वचन को स्वीकार न करे, बल्कि उदासीन भाव से मौन होकर बैठा खे से गं परो णायागतो णावामयं ववेज्जा- "आउसंतो नौका में बैठे हुए साबु से अगर नाविक यह कहे कि - समणा ! एवं ता तु पाधाए उवयं हत्थेण वा पाएण वा "आयुष्मन् श्रमण ! इस नौका में भरे हुए पानी को लुम हाथ से, मतेण वर पावा गावाचिगएण वार से भाजन से या पाप से नोकर से कर पानी को १ इस सूत्र में नाव के अग्रभाग, मध्यभाग और अन्तिम भाग पर बैठने का निषेध किया है किन्तु कहीं बैठना ? यह नहीं कहा है। चूकार ने इस निर्बंध के कारण और कहाँ बैठने का समाधान इस प्रकार किया है नाव का अग्रभाग देवता का स्थान है। मध्यभान की संज्ञा कूपक है वह बैठने वालों के आने-जाने का स्थान है, अन्तिम भाग नौका के नियामक का स्थान है अतः मध्यभाग और अन्तिम भाग के मध्य में अथवा मध्यभाग और अग्रिम भाग के मध्य में बैठे Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.०४] वरणानुयोग नौका विहार के विधि-निषेध - - - - - - - - - -- - - - --- - - - - - । अस्सिचाहि।" णो से तं परिणं परिजाणेज्जा । तुसिणीओ बाहर निकाल दो" परन्तु साधु नाविक के इस वन को उबेहेज्जा ।-आ० सु०२, अ० ३, उ० १. सु. ४९४-४८० स्वीकार न करे, वह मौन होकर बैठा रहे। से गं परी गावागतो गावागयं बएज्जा-आजसंतो यदि नाविक नौकारूड़ श्रमण से ग्रह कहे कि-आयुष्मन् समगा ! एतं ता तुम णायाए उसिंग हत्येण वा, पाएष वा, श्रमण ! नाव मे हुए इस दि को तुम अपने हाथ से. पर से, बाहुणा वा, उरुणाव वा, जवरेण वा, सीसेग वा, कारण वा, भुजा से, जंघा से. पेट से, सिर से, या शरीर से अथवा नौका णावास्सिचणएण वा, चेलेण वा, मट्टियाए वा कुसपत्तएण के जल निकालने वाले उपकरणों से, बम्ब से, मिट्टी से, कुशपत्र वा, कृषिवेण वा पिहहि ।" णो से तं परिणं परिजाणेज्जा। से, कुरुविन्द नामक तृण विशेष से बन्द कर दो, रोक दी।" तुसिणीयो उबेहज्जा। साधनानिक के इस कथन को स्वीकार न करके मौन धारण करके बैठा रहे। से भिक्खू वा भिक्खूणी बाणाबाए उत्तिगण उदय आसव- यह साधु या साध्वी नौका में छिद्र से पानी आता हुआ देखमागं पेह ए. उबरूवरि णावं कज्जलाबेभाणं हाए, गो पर कर नौका को उत्तरोत्तर जल से परिपूर्ण हाती देखकर, नाबिक उपसंकमित्त एवं बूया-"आउसंतो गाहावति ! एतं ते के पास जाकर योग कहे कि "आयुष्मन् गृहपते ! तुम्हारी इस मावाए उवयं उत्तिपेणं आसवप्ति, उचार वा गाधा नौका में छिद्र के द्वारा पानी आ रहा है. उत्तरोत्तर नौका जल से कम्जलावेति । एतप्पगार मणं वा वायं वा णो पुरतो फट्ट परिपूर्ण हो रही हैं। इस प्रकार से मन एवं वचन को आगे विहरेज्जा।" पीछे न करके साधु-विचरण को । अप्पुम्सुए-जाव-समाधीए। ___ यह शरीर और उपकरणादि पर मू न करके -यावत् समाधि में स्थित रहे। ततो संजयामेव णाबासंतारिमे उदए आहारियं गएज्जा । इस प्रकार नौका के द्वारा पार करने योग्य जल को पार करने के बाद जिम : कार तीर्षकरों ने विधि बताई है उस प्रकार • -आसु. २, अ० ३. उ०२, सु० (८१.४.२ उसका पालन करता हुआ विनरण करे। से णं परो णावागतो गावागयं बवेजा-'आउसंतो नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि यदि नौकारून मुनि रो यह समणा ! एतं ता सुमं छत्सगं बा-जाव-चम्मछेदणगं वा कहे कि "आयुष्मन् श्रमण ! तुम जरा हमारे ब-यावत्--.. गेल्हाहि, एताणि ता तुर्म विरूवरूवाणि सत्यजायाणि घारेहि, नर्म-छेदक को पकड़े रखो, इन विविध शस्त्रों को तो धारण एयंता तुम दारगं वा वारिग वा पन्जेहि", णो से तं परो, अथवा इस यालक या बालिका को पानी पिला दो", तो परिणं परिजाणेज्जा, तुसिणाओं उबेहेज्जा। बह साधु उसयैः उक्त वचन को मुनकर स्वीकार न करे किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। से ण परो गावागते णावागतं ववेज्जा-आउसंतो! एस यदि कोई नौकारूढ़ व्यक्ति नौका पर बैठे हुए किमी अय नं समणे णावाए मंडभारिए भवति, से णं बाहाए पहाय गृहस्थ से इस प्रकार कहे-"आयष्मन् गृहल्थ ! यह श्रमण जड गायाओ उपसि पविखवेज्जा।" एतप्पगार निग्घोस सोच्चा वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत है, अतः इसकी बाहें निसम्मा से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उब्वे- पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दो।" इस प्रकार की बात बेग्ज वा, णिव्वेटेज्ज वा उप्केसं वा करेज्जा । सुनकर और हृदय में धारण करके यदि वह मुनि वस्त्रधारी है तो वस्त्रों को अलग कर दे वा शरीर पर लपेट ले तथा शिर पर लपेट लें। अह पुणे जावेज्मा अभिकंतकरकम्मा सन्तु बाला बाहाहि यदि वह गाधु यह जाने कि ये अत्यन्त क्रूर कर्मा अज्ञानीजन गहाय णाबाओ उदगंसि पविखवेम्जा । से कुच्यामेव अवश्य ही मुझे बाहें पकड़कर नार से बाहर पानी में फेंकेंगे। यदेज्जा आउसंतो गाहावती ! मा मेत्तो बाहाए गहाय तब यह फ के जाने से पूर्व ही उन गृहस्यों को सम्बोधित करके गावातो उदगंसि पक्खियेह, सधं च अहं णावातो कहे--"आयुष्मन् गृहस्थो ! आप लोग मुझे बाँहें पकड़कर नौका उदर्गसि ओगाहिस्सामि।" से बाहर जल में मत फेंको, मैं स्वयं ही इस नौका से बाहर होकर जल में प्रवेश कर जाऊँगा।" Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८४-७८५ जंघा प्रमाण-जल-पारकरग विधि चारित्राचार [५०५ से णे अवंतं परो सहसा बलसा बाहाहिं गहाय गावाती साधु के द्वारा यों कहते-कहते कोई अज्ञानी नाविक महसा उवगंसि पक्षिवेज्जा, तं णो सुमणे सिया-जाव-समाहीए। बलपूर्वक साधु को बाँह पकड़कर नौका से बाहर जल में फेंक दे ततो संजयामेव उवर्गसि पवज्जेज्जा । नो (जल में गिरा हुआ) साध मन में न हर्ष से युक्त हो-यावत् --आत्म-समाधि में स्थिर हो जाए । फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए। से भिक्खू वा भिक्खूणी या उदगंसि पवमाणे णो हत्येण हत्थं जल में डूबते सगय माधु या साध्वी (अकाय के जीवों की पादेण पादं कारण काय आसावजा । से अणासाबए रक्षा की दृष्टि से) अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पर से अणासायमाणे ततो संजयामेव उदगंसि पवज्जेज्जा । दूसरे पैर का तथा शरीर के अन्य अंगोपांग का परस्पर स्पर्श । करे । वह (जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की दृष्टि से) परस्पर पर न करता हुआ इसी तरह बननापूर्वक जल में बहता हुआ चना जाए। से मिक्स्य वा भिक्खूगी वा उदगंसि पवमाणे णो उम्मुग्ग- साधु या माध्वी जल में बहते समय उन्मजन-निमज्जन णिमुग्गियं करेज्जा, मा मेयं उवर्य करणेसु वा, अच्छीसु वा. (डुबकी लगाना और बाहर निकलना) भी न करें, और न इस भक्कासि धा, मुहंसि वा परियायजेज्जा. ततो संजयामेव बात का विचार करें कि यह पानी मेरे कानों में, आँखों में, नाक उवयंसि पवेम्जा। में या मुंह में न प्रवेश कर जाए । बल्कि वह यतनापूर्वक जान में (समभाव के साथ) बहता जाए। से भिक्खू वा भिक्खूणी या उदगंसि पत्रमाणे दोलियं यदि साधु या माध्वी जल में बहते हुए दुर्वलता का अनुभव पाउणेज्जा, खिप्पामेव उवधि विगिवेग्ण पा, विसोहेज्ज वा, करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि (उपकरण) का त्याग जो चैव पं सातिज्जेज्जा। कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे। अह पुणे जाणेज्जा पारए सिया उबगाओ तोरं पाउ- साधु या साध्वी जल में बहते हुए यदि यह जाने कि मैं णितए । ततो संजयामेष उदउल्लेण वा, ससणिण वा उपधि महित ही इस जल से पार होकर किनारे पर पहुंच जाऊँगा, कारण बगतीरए चिठेजा। तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे। से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा, उदउल्लं वा, ससगिद्ध वा, साधु या माध्वी टपकते हुए या जल से भीगे हुए आरीर को कायं णो आमज्जेज्ज बा, पमज्जेज्ज वा, संलिहेज वा, एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे न उसे एक या मिल्लिहेज वा. उच्वलेज्ज वा, उम्बट्ट ज्ज वा. आतावेज अधिक वार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस वा, पयावेज वा। पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मेल उतारे । वह भीग हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे। अह पुणेवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए छिण्णसिगेहे। जब वह यह जान से कि अब मेरा शरीर पूरी तरह मुख तहप्पणारं कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा-जाव-आया- गया है, उस पर बल को बूंद या जल का लेप भी नहीं रहा है, वेज वा पयावेग्ज वा । ततो संजयामेव गामाणुगामं तभी अपने हाथ से उस मूखे हुए गरीर का वर्ग करे, उसे इज्जेम्जा ।-आ० सु०२, अ०३, उ० २, मु० ४८३-४६१ सहलाए --यावत् -धूप में खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक भी तपावे । तदनन्तर संयमी साधु यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विचरण करे। जंघासंतरिम उदगपार-गमणविहि जंघाप्रमाण-जल-पारकरण विधि---- ७८५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गामागामं तूइज्जैज्जा, अंतरा ७८५. प्रामानुग्राम विहार करते हुए माबु या साध्वी को मार्ग में Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ चरणानुयोग नौका विहार के प्रायश्चित सूत्र से जंघासंतारिने उगे सिया से पुम्वामेव ससीसोवरियं काय पाए य मज्जेजा से पुरुषामेव एवं पादं जले किच्चा एवं पायें ले लिया ततो संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे बहारि एक्जा से भिक्खू या भिक्खूपी या जंघासंतारिमे उनमे महारथं रोयमाणे को हाथेण त्वं वा जावयासायमा रातो संजयामेव धातारमे उपने अहारिया सेवा मी या संपासंधारिने उच्ए अहारिय माणे जो सायपडियाए णो परिवाहपडियाए महतिमहा लयंति उदगंसि कार्य विओसेज्जा । ततो संजयामेव जंघा - संतारिमेव उदए अहारियं रीएज्जा । अह पुणेवं जाणेज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउजित्तए । ततो संजयामेव उवउल्लेग वा ससणिवा काम बनतीरए चिया । सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा कार्य ससद्धि वा कार्य णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज या जान आयावेज्न वा एयवेज्ज वा । अह पुणेवं जाणेज्जा - विगतोदए मे काए छिष्णसिहे । तहप्पयारं कार्य आमज्जेज्न वा पमञ्जजेज्ज वा जाव - आयाdra ar यावेज वा । ततो संजयामेव गामाशुगामं ने साधु या साध्वी यह जाने कि मैं उपधि सहित ही जल से पार हो सकता है तो वह उपकरण सहित पार हो जाए। परन्तु किनारे पर आने के बाद जब तक उसके शरीर से पानी की बूंद टपकती हो, जब तक उसका शरीर जरा सा भी भीगा रहे, तब तक वह जल (नदी) के किनारे ही खड़ा रहे । साधु या साध्वी जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार वा बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक बार या अधिक बार घिसे - पावत्-भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक न जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंदे या जल का लेप भी नही रहा है. तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे - यावत् - धूप में बड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक तपावे। बाद में वह संयमी आ० ० २ ० ३ ० २ ० ४९३ ४९७ साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । नावाविहार-विसयाणोपायच्छित सुताणनौका विहार के प्रायश्चित्त सूत्र- ७६. जे भिक्खू अट्ठाए णावं दुरुह दुरुह वा साइज्जइ । जे गाने को हर वेज्जमा दुरूह्ह दुरूह वा साइज्जइ । सूत्र ७८५७८६ मिक्लू गावं पामिन् पामिय्यावेड मामिवं महद्दु देज्ज माणं दुरूह दुख् ता साइज्जइ । जंचा प्रमाण (जंघा में पार करने योग्य) जल (जलाशय या नदी) पड़ता हो तो जो पार करने के लिए पहले सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक प्रमार्जन करके वह एक पैर को जल में और एक पैर को स्थल में रखकर यतापूर्वक जंघा से तरणीय जल को भगवान के द्वारा कथित विधि के अनुसार पार करे । साधु या तरणीय को शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पार करते हुए हाथ से हाथ का पावत् (निशा) की) अशातना न करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित विधि के अनुसार बनापूर्वक उस जंघादरणीय जल को पार करे। साधु या साध्वी जंबा प्रमाण जल में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार चलते हुए शारीरिक सुख-शान्ति की अपेक्षा से दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश न करे और जब उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपरूयादि सहित जल से पार नहीं हो सकता, तो वह उनका त्याग कर दे। उसके पश्चात् वह कानपूर्वक शास्त्रोक्त विधि से उस धान्यमाण जल को पार करे । ७६. जो भिक्षु बिना प्रयोजन नाव पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है, बैठने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु नाम खरीदता है, खरीदता है या खरीदी हुई नाव दे तो उस पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु नाव उधार लेता है उधार लिवाता है या उधार ली हुई नाव दे तो उस पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८६ नौका विहार के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार [५०७ जे भिक्खू णावं परियट्ट परियट्टावेद परियट्ट आटु जो भिक्षु नाव को अदल-बदल करता है, करजाता है और देज्जमाणं तुम्हा दुल्हत वा साइज्जा । अदल-बदल की हुई नाव दे तो उस पर बैठता है. बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खूणावं अच्छज्जं अणिसिदै अभिहर आहट्ट जो भिक्षु छीनकर ली हुई, थोड़े समय के लिए लाकर दी हेज्जमाणं दुरूहा दुल्हतं वा साइजइ । हुई नाव पर बैटता है, बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू थलाओ णा जले उकसावेद उक्कसावेतं या जो भिक्षु स्थल मे नाव को जल में उतरवाता है या उतरसाइज्जा । वाने बाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू जलाओ गावं थले उपकसावेद उपकसावेतं जो भिक्षु जल से नाव को स्थल पर रबबाला है वा रग्ववाने साइल्जाइ। वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पुण्णं णावं उस्मिन्च जस्सिच्चेतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु पानी से पूर्ण भरी नाव को खाली करवाता है. खाली करवाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सणं णावं उप्पिलाचे उप्पिलावत वा साइज्जइ। जो भिक्षु कीचड़ में फंसी नाय को निकलवाता है, निकलवाने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू उबढ़ियं णा उत्तिर्ग वा उवगं वा आसिचमाणि जो भिक्षु बंधी हुई नाब में छिद्र से पानी आता हुआ देखकर वा उवरुवार या कलावैमाणि पेहाए हत्येण वा पाएण अथवा शनैः शनैः डुबती हुई देखकर (छिद्र को) हाथ से, पैर से, वा असिपसमा वा कुसपत्तण बा मट्टियाए वा चलेण वा असोपत्र से, कुसपत्र से, मिट्टी से या वस्त्र से बन्द करवाता है, पतिपिहेद पडिपिहेंतं पा साइल्जाइ । वन्द करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू परिणावियं कटु णावाए दुलहा दुल्हतं वा जो भिक्षु नाविक बदल करके नाब पर बैठता है, बैठने वाले साहजह। का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उगार्मािण वा नावं अहोगामिणि वा नावं जो भिक्षु उध्वनामिनी नाव पर या अधोगामिनी नाव पर दुरूहह दुरूहेंत वा साइज्जइ । बैठता है या बैठने का अनुमोदन करता है। जे मिक्ल जोयणवेलागामिणि या अवजोयणवेलागामिणि वा जो भिक्षु एक योजन तक प्रवाह के सन्मुख जाने वाली नावं बुरुहह दुरूहंत वा साइजह । अथवा अर्धयोजन तक प्रवाह में नीचे की ओर जाने वाली नाव पर बैठता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नावं आफ सेइ आकसावेइ. आकसावेत या जो भिक्षु नाव' को खींचता है. खिचदाता है और खीचने वाले साइज्जइ। का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नावं खेवेह सेवावेद खेवावेत या साइज्जह । जो भिक्षु नाव को खेता है. खिवाता है और खेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू गाव रन्जुणा वा कढेण वा कड्ढाइ कड्तत वा जो भिक्षु नाब को रज्जु से या काष्ट मे निकालता है. साइज्जह । निकलवाता है या निकालने वाले का अनुमादन करता है । जे भिक्खू गावं झलितएण वा पफिडएण वा बसेण वा जो भिक्षु (नार को) नौका दंड में नौका बनाने के उपकरण पलेण वा चाहेइ बाहेत वा साइज्जन । से. पाय से या बलने से चलाता है, नलाने को कहता है. चलाने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्ख नावाओ उदगं भायण वा पडिग्गहणेण वा मत्तेण जो भिक्ष नाब में ने भाजन द्वारा, पात्र द्वारा या बतन द्वारा वा माया उस्सित्रणेण वा उस्सिचद उस्सितं साइज्जए। पानी निकालता है, निकलवाता है या निकालने वाले का अनु मोदन करता है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] चरणानुयोग नौका विहार के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ७८६ मे भिक्खू नावं उत्तिगेण उदगं अासबमाणं उवार कज्जल- जो भिक्ष नाव के छिद्र में से पानी आने पर नाव को दूबती मार्ण पसोय हत्येण या पाएण वा आसत्थपत्तेण या कुसपत्तण हुई देखकर हाथ से, पैर से, असीपत्र के पत्ते से, कुम के पत्ते से, वा मट्टियाए बा घेलकपणेण वा पडिपेहेइ पडिपेहेंत वा मिट्टी से और वस्त्र खण्ड से (छेद को) बन्द करता है. करवाता साइज्जद। है, करवाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू णावागमो गावागयस्स असणं बा-जाव-साइमं वा जो भिक्षु नाव में बैठा है और नाव में ही बैठने वाले से पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा साइजह । अशम-यावत् - स्वाञ्च लेता है. लिवाता है, लेने वाले का अनु. मोदन करता है। से मिल जाता नामान भरा बाजार-रामा वा जो भिक्षु नाव में बैठा है और जल में खड़े रहने वाले से पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं धा साइज्जइ । अशन - यावत् स्वाद्य लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु गोदन करता है। जे भिक्खू णावागओ पंकगयस्स असणं वा-जाव-साइम वा जो भिक्षु भाव में बैठा है और कीचड़ में खड़े रहने वाले से पजिग्गाहैइ, पशिगाहेंतं वा साइज्जइ । अशन-यावत्-स्त्राद्य लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू गावागओ अलगयस्स असणं वा-जाव-साइमं वा जो भिक्षु नाब में बैठा है और जमीन पर खड़े रहने वाले परिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइजद । से अशन-यावत्-.-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। [जे भिक्खू जलगओ गावागयस्स असणं वा-जाव-साइमं वा (जो भिक्षु जल में खड़ा है और नाव में ही बैठने वाले से पहिगाहेति, पडिगाहेंतं वा ताइज्जद । अान-यावत्-स्वाच लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे मिक्खू जलगओ अलगयरस असणं वा-जाव-साइमं वा जो भिक्षु जल में खड़ा है और जल में खड़े रहने वाले से पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइजह । अशन-यावत-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू जलगओ पंकगयरस असणं वा-जाव-साइमं वा जो भिक्षु जल में खड़ा है और कीचड़ में खड़े रहने वाले से पबिग्गाहेह. पडिग्गाहेंतं वासाहज्जा। अजन यावत्-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू जलगओ थलगयरस असणं या-जाव-साइम वा जो भिक्षु जल में खड़ा है और जमीन पर खड़े रहने वाले से पडिरगाहेइ, पडिग्गाहेंत वा साइजह । अगन-यावत्-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है ।) [जे भिक्खु पंकगओ णायागयस्स असगं वा-गाव-साइमं वा (जो भिक्षु कीचड़ में खड़ा है और नाव में ही बैठने वाले से पश्चिमाहेइ, पजिग्गाहेंत या साइजह । अशन यावत्---स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू पंकगो जलगपस्स असणं वा-जाब-साहम वा जो भि कीचड़ में खड़ा है और जल में खड़े रहने वाले से पडिग्गाहेह, पडिग्गाहेंतं वा साइन्जइ । अशन-यावत् - स्वाद्य लेता है, लिवाता है. लेने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्यू पंकगओ, पंकगपस्स असणं या-जाव-साइम वा जो भिक्षु कीचड़ में खड़ा है और कीचड़ में खड़े रहने वाले पजिग्गाहेर, पडिग्गाहेत वा साइजद । से अशन-यावत्-स्वाद्य लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८६ नौका विहार के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार [५०० जे भिक्खू पंकगओ थलगयस्स असणं वा-जाव-साइमं वा जो भिक्षु कीचड़ में खड़ा है और जमीन पर खड़े रहने वाले पडिग्गाहेह. पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।] में अशन-यावत्-स्वाद्य लेता है. लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है।) [जे भिक्खू थलगओ गावागयत्स असणं वा-जात्र-साइम वा (जो भिक्षु स्थल पर पड़ा है और नाव में बैठने वाले से पडिग्गाहेर, पडिग्गाहेंत वा साहज्जइ । अगन—यावत्-म्वाद्य लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्ख यलगओ जलगयस्स असणं या-जाव-साइमं वा जो भिक्षु स्थल पर खड़ा है और जल में खड़े रहने वाले से पडिगाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साहज्जह । अशन-यावत्-स्वाध लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू यसगओ पंकगयस्स असणं वा-जाव-साहनं वा जो भिक्ष स्थल पर खड़ा है और कीचड़ में खड़े रहने वाले पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइजइ । से अशन--.-यावत्-स्वाद्य लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बलगओ अलगयस्स असणं बा-जाब-साइमं वा जो भिक्षु स्थल पर खड़ा है और स्थल पर खड़े रहने वाले पडिमाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जद । से अशन-यावत् स्वाद्य लेता है, लेने के लिए कहता है लेने वाले का अनुमोदन करता है ।) तं सेवमाणे आबज्जइ चाजम्मासियं परिहाराणं उग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि: उ०१८, सु० १-२३ आता है। - ॥ईर्यासमिति प्रकरण समाप्त ॥ - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१.] घरणानुयोग तीथंकरों ने चार प्रकार की भाषा प्रस्पो है सूत्र ७८७-६८८ भाषासमिति विधिकल्प-1 तिकालिय तित्थयरेहि चत्तारि भासा परूविया कालिक तीर्थकरों ने चार प्रकार की भाषा प्ररूपी है७८७. अह भिक्खू जाणेज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तं जहा- ७६७. साधु को भाषा के चार प्रकार जान लेने चाहिए। वे इस सच्चमेयं पहम . मोय हो, तर या सोरा, प्रकार है--१. मत्या. २. मृषा, ३. सत्यामृषा और जो न मत्या जं व सच्चं व मोसं, व सच्चामोस, असच्चामोस है. न अमत्या है और न ही सत्यामृषा है वह, ४. असल्यामुषा णाम तं चउत्थं भासमास । (व्यवहार भाषा) नाम का चौथा भाषाजात है। से बेमि–जे य अतीता, जे य पडुप्पणा, जे य अणागया जो मैं यह कहता हूँ उसे भूतकाल में जितने भी तीर्थकर अरहता भगवतो सम्वे ते एताणि चेव च सारि भासज्जासाई भगवान् हो चुके हैं, वर्तमान में भी नीर्थकर भगवान हैं और मासिसु वा, भासिति बा, भासिरसंति वा, पाणवेति बा, भविष्य में जो भी तीर्थंकर भगवान् होंगे, उन सबने इन्हीं चार पण्णविस्संति वा । प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया है, प्रतिपादन करते हैं और प्रतिपादन करेंगे अथवा उन्होंने प्ररूपण किया है, प्ररूपण करते हैं और प्ररूपण करेंगे। सम्बाई च गं एयाणि अचित्ताणि अण्णमंताणि, गंधमंताणि, तथा यह भी उन्होंने प्रतिपादन किया है कि ये सब भाषा रसमंताणि, फासमंताणि अयोवचदयाई विप्परिणामधम्माई द्रव्य (भाषा के पुद्गल) अचित्त हैं. वर्मा, गन्ध, रस और स्पर्श भवंति ति अक्खाताई। ___ वाले हैं तथा चय-उपचय (वृद्धि हास अथवा मिलने-बिछुड़ने) -आ० सु० २, अ० ४, उ० १, सु० ५२२ वाले एवं विविध प्रकार के परिणमन धर्म वाले हैं। विवेगेण भासमाणो आराहगो, अविवेगेण भासमाणो विवेक पूर्वक बोलने वाला आराधक, अविवेक से बोलने विराहगो बाला विराधक७८८. स वक्यसुदि समुपेहिया मुणी. ७८८. वह मुनि वाक्य-शुद्धि को भली-भांति समझ कर दोषयुक्त गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया। वाणी का प्रयोग न करे । सोच विचार कर मित और दोषरहित मियं अट्ट अणुवीई भासए, बाणी बोलने वाला साधु मत्पुरुषों में प्रयंसा को प्राप्त होता है। सयाणमजमे लहई पसंसणं ॥ भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, भाषा के दोषों और गुणों को जानकर दोषपूर्ण भाषा को तोसे य दुटुं परिवजिए सया। सदा वर्जने वाला, छह जीवनिकाय के प्रति संयत, श्रामण्य में सदा छसु संजए सामणिए सया जए, सावधान रहने वाला प्रबुद्ध भिक्षु हित और मौलिक बचन बोले । वएज्ज बुडे हियमाणुलोपियं ॥ परिक्षभासी सुसमाहिई दिए, गुण-दोष को परग्य बर बोलने वाला. सुसमाहित-इन्द्रिय चउक्कसायावगए अणिस्सिए । बाला. चार नपायों से रहित, अनिथित्त (नट) भिशू पूर्वकृत स निक्षुषे पुनमल पुरेकर्ड. पाप-सल को नष्ट कर वर्तमान तथा भावी लोक की आराधना आराहए लोगमिण तहा परं॥ करता है। --दला. अ. ७ गा. ५५-५७ १ (क) नत्तारि भागाजाना पनत्ता. जहा-- सच्चमेगं भासज्जातं वितियं गोरा ननियं सच्चमोसं. चउन्य अमञ्चमोमं । - ठाणं, अ. ४. उ. १. सु. २३७ () पण्ण, प.११. सु. ७० । (ग) पग. प.११. मु. ८१८ । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र७%8346 भाषा के भेव-प्रभेद चारित्राचार [५११ worrimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ५०--इच्चयाई भंते! चत्तारि भासाज्जायाई भासमाणे किना -भगवन् ! इन चारों भाषा-प्रकारों को वोलता हुआ आराहए विराहए? (जीव) आराधत होता है अथवा विराधक ? -गोयमा ! इस्याई चत्तारि भासम्मायाई आउत्तं . उ०-गौतम ! इन चारों प्रकार की भाषाओं को उपयोगभासमाणे भाराहए, जो विराहए। पूर्वक बोलने वाला आराधक होता है, विराधक नहीं। तेणं परं अस्संजयाविरयापजिहयापच्चक्खाय पाव- उमसे पर (अर्थात् बिना उपयोग के बोलने वाला) जो कम्मे सच्चं वा भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोसं असंयत, अनिरत. पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान न करने वा असच्चामोसंग भासं भासमाणे पो आराहए, बाला गत्यभाषा, मृषाभाषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा विराहए। .-पण्ण. प. ११, मु. ८६६ बोलता हुआ (ब्यक्ति) आराधक नहीं है, विराधक है । भासाए भेयप्पभेया भाषा के भेद-प्रभेद -- ७८६. प०--कतिविहा पं भंते ! भासा पपणता? ७८१. प्र.-भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? जा---पोयमा ! दुविहा भासा पण्णता । उ०—गौतम ! भाषा दो प्रकार की कही गई है । वह इस तं जहा-पज्जत्तिया य, अपज्जत्तिया य । प्रकार है- पर्याप्तिका और अपर्याप्तिका। प.- पज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पण्णता? प्र.-भगवन् ! पारितका भाषा कितने प्रकार की कही उ.-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । 30-गौतम ! पर्याप्तिका भाषा दो प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार हैतं जहा- सच्चा प, मोसा य । सत्या और मृषा। 40-सच्चा गं मंते ! भासा पज्जतिया कतिविहा पण्णता? प्र०-भगवन् ! सत्या-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है? उ.-गोयमा ! वसविहा पण्णता । तं जहा - 3०-गौतम ! वह दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है१. जगवयसरचा, २. सम्मत्तसन्धा, ३. ठवणासच्या, १. जनपदसत्या, २. सम्मतमत्या, ३. स्थापनामत्या, ४. णामसच्चा, ५. बसच्चा, ६ पडलचसच्चा, ४. नाममत्या. ५. रूपसत्या ६. प्रतीत्यसत्या, ७, व्यवहारसत्या, ७. ववहारसच्चा, ८. भावसस्था, . जोगसच्चा,.. भावसत्या, ह. योगसत्या और १०. औषम्यसत्वा । १० ओवम्मसच्चा। प०–मोसा णं भंते ! भासा पज्जतिया कतिविहा पणता? भ०- भगवन् ! भूषा-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार को कही गई है? उ०—गोयमा । दसबिहा पणता। तं जहा 30.- गौतम ! (वह) दम प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है१. कोहणिस्सिया, २. माणणिस्सिया, ३. माया- १. क्रोधनिःसृता, २. माननिःसृता, ३. मायानिःमृता, पिस्सिया, ४. लोमणिस्सिया, ५. पेज्जपिस्सिया, ४, लोभनि:सृता, ५. प्रेयनिःगृता (रागनिःसृता), ६. द्वेष ६. बोसपिस्सिया, ७. हासपिस्सिया, ८. भयाणस्सिया निःसृता, ७. हास्य निःमृता, ८. भय नि.गृता. ६. आख्यायिका ६. अक्साइवाणिस्सिया, १०, उवधायणिस्सिया। निःनृता और १०. उपघात निःसृता। पल-अपज्जत्तिया गं भंते भासा कतिविहा पण्णता? म.--भगवन् ! अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही १ ठाणं अ. १०, सु. ७४१ । २ ठाणं अ, १०, गु. ७४१ । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] चरणानुयोग एकवचन विवक्षा सूत्र 37-380 उ-गोयमा ! विहा पण्णता । तं जहा-- उल-गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार हैसच्चामोसा य. असच्चामोसा य । सत्यामृषा और असत्यामृषा ।। पत- सध्यामोसा पं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा प्र०-भगवन् ! सत्यामुषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार पण्णता? की कही गई है? उ०-गोयमा । वसविहा पण्णता । तं महा-- उ०—गौतम ! बह दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - १. उप्पण्णमिस्सिया, २. विगरमिस्सिया, ३. उप्पण्ण- १. उत्पन्न मिश्रिता, २, विगतमिश्रिता, ३. उत्पन्न-विगतविगयमिस्सिया. ४. जीवमिस्सिया. ५. अजीवमिस्सिया मिश्रिता, ४. जीवमिश्रिता, ५. अजीवमिश्रिता, ६. जीवाजीव६. जीवाजीवमिस्सिया, ७. अणतमिस्सिया. ८. परित्त- मिश्रिता, ७. अनन्तमिश्रिता, ८. परित्त (प्रत्येक) मिश्रिता, मिस्सिया, ६. अशामिस्सिया, १०. अबद्धामिस्सिया।' ६. अद्धा मिश्रिता और १०. अद्धद्धामिश्रिता । पर--असच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जतिया कतिबिहा प्र०. भगवन् ! असल्यामुषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है? उ०—गोयमा ! बुवालसविहा पण्णसा, तं जहा-. उ.--गौतम ! (वह) बारह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है१.आमंसणि, २. याऽऽणमणि, ३. जायण, ४. तह १. आमंत्रणी भाषा, २. आज्ञापनी भाषा, ३. याचनी भाषा, पुच्छणि, ५. य पण्णवणी। ६. पच्चक्लाणो भासा, ४. गृच्छनी भाषा, ५. प्रज्ञापनी भाषा, ६. प्रत्याख्यानी भाषा, ७. भासा इच्छागुलोमा य, ८. अभिगहिया भासा, ७. इच्छानुलोमा भाषा, ८. अनभिगृहीता भाषा, ६. अभिगृहीता ६. भासा य अभिम्गहम्मि बोवा। १०. संसप- भाषा, १०. संशयकरणी भाषा, ११ व्याकृता भाषा और करणी भासर, ११. धीयता, १२. अस्वोयडा चेव ॥ १२. अव्याकृता भाषा । --पण्ण. प. ११. सु. ८६०.६६६ पष्णता ? विधिकल्प-२ एगवयणविवक्खा एकवचन विवक्षा-- ४६.प.-अह भंते ! मणुस्से, महिसे. आसे. हत्थो, सोहे, वग्घे, ७६०. ०-भगवन् ! मनुष्य, महिष (भैसा). अग्न. हाथी. बगे. वोविए. अच्छे. तरच्छे, परस्सरे, रासभे, सियाले, सिंह, ध्यान, क (डिया). दीपिक (दीपड़ा), ऋक्ष (रोछ= विराले, सुणए. कोलसुणए, कोक्कतिए. ससए.चित्तए, भान), तरक्ष, पाराशर (गैडा). रामभ (गधा). सियार, विडाल चिल्ललए. जे याबण्णे तहप्पाशारा सम्वा सा एगमयू ? (बिलाव), शुनक (कुत्ता त्रान), कोलशुनक (शिकारी कुत्ता) कोकन्तिक (लोमडी), शशक (खरगोश), चीता और चिल्ललक (वन्य हित पशु) मे और इसी प्रकार के जो (जितने) भी अन्य जीव हैं. क्या वे सब एकवचन हैं? उ. --हंता गोयमा ! मणुस्से-जाव-चिल्ललगा जे याकऽण्णे 10- हाँ. गोतम ! मनुष्य यावत्-चिल्ललक तथा ये तहप्पगारा सम्वा सा एपवयू । और अन्य जितने भी इमी प्रकार के प्राणी हैं, वे सब - पण. प.११. सू. ५४६ एकवचन हैं। १ ठाणं अ.१० मु. ५४१ । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६१-७६५ बहुवचन विवक्षा चारित्राचार [१३ बहवयणविवक्खा-- बहुवचन विवक्षा७६१. प०-अह भंते ! मणस्सा-जाव-चिल्तलगा जे यावण्णे ७६१. भगवन् ! मनुष्यों (बहुत से मनुष्य) से (लेकर)-यावत-- तहप्पगारा सवा सा बहुवयू ! बहुत चिल्ललक तथा ये और इसी प्रकार के जो अन्य प्राणी हैं वे सब क्या बहुवचन हैं ? उ०—हंता गोयमा ! मणुस्सा-जाब-चिल्ललगा सदा सा उ०-हाँ गौतम ! मनुष्यों (बहुत से मनुष्य) से लेकर बहुवयू। -पण. प. ११, सु. ८५० -- यावत् - बहुत चिल्ललक तक तथा अन्य इसी प्रकार के प्रागी ये सब बहुवचन हैं। इथिलिंगसदा स्त्रीलिंग शब्द७६२. द. अह भते ! मणुस्सी, महिसी, बलबा, हत्पिणिया, ७६२. प्र०-भगवन् ! मानुषी (स्त्री), महिषी (भैंस), बड़वा सोही, पापी, वी, वीषिया, अच्छो, तरच्छी, (घोड़ी), हस्तिनी (हथिनी), सिंही (सिंहनी), व्याघ्री, वृकी परस्सरी, रासभो. सियाली, विराली, सुणिया, कोल- (भेड़िनी), दीपिनी, रीछनी, तरक्षी, पराशरा (गैंडी), रासभी सुणिया, कोवतिया, ससिवा, चित्तिया, चिल्लि- (गधी), शृगाली (सियारनी), बिल्ली, कुती, शिकारी कुत्ती, लिया, जो पावण्णा तहप्पगारा सस्वा सा इस्थिवयू? कोकन्तिका (लोमड़ी), शशकी (बरगोशनी), चित्रकी (चित्ती), चिल्ललिका ये और अन्य इसी प्रकार के (स्त्रीजाति विशिष्ट) जो भी (जीव) हैं, क्वा वै सव स्त्रीवचन है ? स०–हता गोयमा ! मणुस्सी-जाव-चिल्ललिया जा उ.-हां, गौतम ! मानुषी से (लेकर) यावत् --चिल्लयावाण्णा तमगारा सम्वा सा इत्थिचयू । लिका तक तथा ये और अन्य इसी प्रकार के जो भी (जीव) हैं, ----अण्ण. ए. ११. सु. ८५१ बेसन स्त्रीवचन हैं । पुल्लिगमदा - पुल्लिग शब्द--- ७६३. ५०-अह भंते ! मणुस्से-जाव-चिल्ललए जे यावऽन्ने तहप्प- ७६३. प्र०--भगवन् ! मनुष्य से लेकर पावत्-चिल्ललक तक गारा सव्वा सा पुमवमू? नथा जो अन्य भी इसी प्रकार के प्राणी नर जीव हैं. क्या वे सब पुरुषवचन (पुल्लिग) है? -हता गोयमा ! मणुस्से-जान-चिल्सलए जे यावऽग्गे उ.- हाँ गौतम I मनुष्य से लेकर -यावत्-चिल्ललक तहप्पगारा सम्बा सा पुमययू । तक तथा जो अन्य भी इसी प्रकार के प्राणी नर-जीव हैं, वे सत्र ---पण्ण. प. ११. सु. ८५२ पुरुषवचन (पुल्लिग) हैं। पुसलिंगसहा नपुसकलिंग शब्द७६४. प०-अह भंते ! कंसं कसोयं परिमंडल सेलं भूमं जालं ७६४ प्र. भगवन् ! कास्य (कांमा), कंसोल (कमोल), परि थालं तारं रूवं अच्छि पच्वं कुई पउमं बुद्ध दहियं मण्डल, शैल, म्तूप, जाल, स्थाल, तार, रूप, नेत्र, पर्व (पोर), गवणीयं आसणं सयणं भवणं विमाण छत्तं चामरं कुण्ड, पद्म, दूध, दही, गबरतन, आसन, अयन, भवन, विमान, भिगारं अंगणं निरंगणं आभरणं रयणं जे यावऽपणे छत्र, चामर, मृगार, आंगन, निरंगन (निरंजन), आभूषण और तहप्पगारा स तं गपुसगवयू ? रत्न ये और इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं, वे सब क्या (प्राकृत भाषानुसार) नपुंसक वचन (नपुसक लिंग) हैं ? ज०-हंता गोयमा ! कंस-जाव-रमणं जे यावणे तहप्प- ज०-हाँ, गौतम ! कांस्य यावत् –रत्न तथा इसी प्रकार गारा सम्बं तं गपुसंगवयू । __ के अन्य जितने भी शब्द है, वे सब नपुंसक वचन है। ---पण्ण० प० ११. सु० ८५३ आगहणी भाषा आराधनी भाषा७६५. ५०-अह भते ! पुढबीति हत्थीबयू आउ ति पुमवयू धणे ७६५.५०-भगवन् ! पृथ्वी यह शब्द स्त्रीवचन हैं, पानी यह आशी Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४] धरणामुयोग अवधारिगो भाषा सत्र ७६५-७६६ आणममी, आउ ति उ. पुमआणमणी त्ति गपुसगषयू, पाणवणी गं एसा भासा? ण एसा मान्द पुरुष वचन है और धान्य, यह शब्द नपुसक वचन है, क्या मासा मोसा? यह भाषा प्रज्ञाएनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? उ.-हता गोयमा । पुधि ति हस्थिवयू. आउ ति पुमवयू, उ.- हाँ. गौतम ! पृथ्वी, यह शब्द स्त्रीवचन है. पानी, यह घणे ति ण सगवयू, पण्णवणी पं एसा भासा, (पाकृत में) पुरुषवचन है और धान्य. यह शब्द नपुंसकवचन ण एसा भासा मोसा। है। या भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषः मृषा नहीं है। प०-अह भंते ! पुढधीति इत्थिाणमणी, आउ ति पुम- प्र.- भगवन् ! पृथ्वी, यह भाषा स्त्री-आशानी है, अप, आणमणी, धणे ति नपुसगआगमणी पण्णवणी पं यह भाषा पुरुष-आज्ञापनी है और धान्य, यह भाषा नपृराकएसा मासा? ण एसा भासा मोसा ? आशापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है? उ०—हंता गोयमा ! पुतवी त्ति इत्यिमाणममी, आउ ति उ.-हाँ, गौतम ! पृथ्वी. यह स्त्री-आज्ञापनी भाषा है, पुमाणमणी, धणे ति णःसगआणमणी, पण्णषणी अप, यह पुरुष-आज्ञापनी भाषा है और धान्य, यह नपुसकणं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । आजापनी भाषा है, यह भाषा प्रज्ञापनी है. यह भाषा मृषा नहीं है। ५०-अह मंते ! पुरवीति इस्थिपण्णवणी, आउत्ति पुमपगण- प्र...-भगवन् ! पृथ्वी, यह स्त्री-प्रज्ञापनी भाषा है, अग्, वणी, धणे ति णपुंसगपण्णव आराहणो गं एसा यह पुरष-प्रज्ञापनी भाषा है और धान्य, यह गपु मक-प्रज्ञापनी भासा प एसा भासा मोसा ? भाषा है, क्या यह भाषा आराधनी है? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? उ-हता गोयमा ! पुढवीति इत्थिपण्णवणी, आउ सि पुम- उ.--हाँ, गौतम ! पृथ्वी, यह स्त्री-प्रज्ञापनी (भाषा) है, पण्णयणी, धणे सि ण सगपण्णवणी आराहणी गं अप, यह पुरुष-प्रज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह नगुसकएसा भासा, ण एसा भासा मोसा । प्रज्ञापनो भाषा है, यह भाषा आराधनी है। यह भाषा मृषा नहीं है। प०-इघेवं मंते ! इरियषयणं वा पुमवयणं वा. गपुसग- प्र.- भगवन् ! इसी प्रकार स्त्रीचन या पुरुषवनन अथवा षयण वा क्यमाणे पग्णयणी ग एसा भासा ? ण नपुसकवचन बोलते हुए व्यक्ति की) या यह भापा प्रज्ञापनी एसा मासा मोसा? है? क्या यह भाषा मृषा नहीं है? उ6--हंता गोयमा ! इत्मिवयणं वा, पुमवयणं वा, गपुसग- उ... हाँ, गौतम ! स्त्रीवचन, पुरुषवचन अथवा नमुसक वयणं वा वयमाणे पग्णवणी णं एसा भासा. ण एसा वचन बोलते हुए (व्यक्ति की) यह भाया प्रजापनी है, यह भाषा भासा मोसा। --पण्ण प० ११, सु० ८५४.८५७ मृषा नहीं है। ओहारिणी भासा अवधारिणी भाषा७६६. ५०-से गूणं भंते ! मण्णामोति ओहारिणी मासा ? ७९६.प्र.-.-भगवन् ! क्या मैं ऐसा मानूं कि भाषण अवधारिणी (पदार्थ का अवधारण-अवबोध कराने वाली है ? चितमीति ओहारिणी भासा? क्या मैं (युक्ति मे)ोगा चिन्तन करूं कि भाया अवधारिणी अह मण्णामीति ओहारिणी मासा? अह चितमीति ओहारिणी भासा? तह मण्णामीति ओहारिणी भासा? (भगवन्) क्या मैं ऐसा मान कि भाषा अवधारिणी है ? क्या मैं (युक्ति द्वारा ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है? (भगवन् पहले मैं जिग पकार मानता था) उसी प्रकार (अन भी) ऐसा मानूं कि भाषा अवधारिणी है ? तथा उसी प्रकार मैं (युक्ति से) ऐसा निश्चय करू' कि भाषा अवधारिणी है? तह नितेमीति ओहारिणी भासा ? Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६६-७१७ प्रजापनी भाषा चारित्राचार [५१५ उल-हता गोयमा ! मण्णामोति ओहारिणी भासा, उ.- हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मनन-चिन्तन सत्य है।) तुम मानते हो कि भाषा अवधारिगी है। चितेसीति ओहारिणी भासा, तुम (युक्ति से) चिन्तन करते (सोचते) हो कि भाषा अब धारिणी है। का प्रामोनियोहारिमी घासा, इसके पश्चात् भी तुम मानो कि भाषा अवधारिणी है, अह चिलेमोति ओहारिणी भासा, अब तुम (निःसन्देह होकर) चिन्तन करो कि भाषा अब धारिणी है, तह मण्णामीति ओहारिणी भासा, तुम्हारा जानना और सोचना यथार्थ और निर्दोष है। तह चितमीति ओहारिणी माना। (अतएव) तुम उसी प्रकार (पूर्वमनवत्) मानो कि भाषा अवधारिणी है तथा उसी प्रकार (पूर्वचिन्तनवत्) सोचो कि भाषा अवधारिणी है। पः-ओहारिणी णं भंते ! भासा कि सरचा, मोसा, प्र०-भगवन् ! अवधारिणी भाषा क्या सत्य है, मृषा सच्चामोसा, असच्चामोसा ? (असत्य) है, सत्यामृषा (मिथ) है, अथवा असत्यामृषा (न सत्य, न असत्य) है? उ.--गोयमा ! सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, उ०---गौतम ! वह (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य सिय असच्चामोसा। होती है, कदाचित् मृषा होती है, कदाचित् सत्यामृषा होती है और कयाचित् असत्यामृषा (भी) होती है। प०--से कणटुण भंते ! एवं युवति-"ओहारिणी प्र०-भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि अवधारिणी मासा सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, भाषा कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्याभूषा और सिय असच्चामोसा?" कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है ? उ.--गोयमा । (१) आराहणी सच्चा, (२) विराहणी उ.--गौतम ! जो १. आराधनी भाषा है, वह सत्य है, जो मोसा, (३) आराहणविराहणी सच्चामोसा, (४) मा २. विराधनी भाषा है, वह मृषा है, जो ३, आराधनी-विराधनी णेष आराहणी गेव विराहणी व आराहणविराहणी (उभयारूप भाषा है. वह) सत्यामृषा है और जो ४. न तो असञ्चचामोसा णाम सा चउत्पी भासा । आराधनी भाषा है, न विराधनी है और न ही आराधनी विराधनी है, वह चौथी असरयामृषा नाम की भाषा है। से तेण<गोयमा ! एवं बुच्चइ---''ओहारिणी गं हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि अबधारिणी भासा सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सम्बामोसा, भाषा कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और सिय असचामोसा।" कदाचित् असत्यामृषा होती है। --पान प० ११, सु. ३०-६३१ पाणवणी भासा प्रज्ञापनी भाषा७६७.५०-अह मंते । गाओ मिया पसू पपत्री पण्णवणी णं ५६७.प्र.---भगवन् ! अब यह बताइए कि गायें मृग पशु और एसा मासा ? ण एसा भासा भोसा ? पक्षी क्या यह भाषा प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है। 30-हता गोषमा ! गामो मिया पस पक्खी पण्णवणी गं ज -हाँ, गौतम ! गायें मृग' पशु और पक्षी यह इस एसा भासा प एसा भासा मोसा। प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी है। यह भाषा मृषा नहीं है। प०--अह भंते ! जा य इरिथवयू, जा व पुभवन, जाय ३०-भगवन् ! इसके पश्चात् यह प्रश्न है कि यह जो पसगवयू पाणवणी गं एसा भासा? " एसा भासा स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है अथवा जो नपुसकवचन है, मोसा? क्या यह प्रजापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६] वरणानुयोग प्रज्ञापनी माषा सूत्र ७६७ उ०--हंता गोयमा ! जाय इस्थिवधू, जाय पुमवयू, जाय उ०—हां, गोतम ! यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन गपुसगवयू पग्णवणी गं एसा भासा, ण एसा भासा है अथवा जो नपुसकवचन है, यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह मोसा। भाषा मृषा नहीं है। 40-अह भंते ! जा य इत्थिाणभणी, जा य पुमाणमणी Fo.--भगवन् ! यह जो स्त्री-आज्ञापनी है और जो पुरुष जायणपुसगाणमणी पपणवणो णं एसा भासा? आशापनी है अथवा जो नपुसक-आज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी म एसा भासा मोसा ? ___ भाषा है। यह भाषा मृषा नहीं है ? उ.-हंता गौयमा ! जा य इथिआगमणी, जाय पुम- उ०—हा, गौतम ! यह जो स्त्री-आज्ञापनी है और जो आणमणी, जायणपुसगाणमणी. मी कसा पुरुष-आशापती हे अथवा जो नपुंसक-आशापनी है, यह भाषा भासा, ण एसा भासा मोसो । प्रज्ञापनी है। यह भाषा मृषा नहीं है। प७ - अहे ते | जा य इत्थीपग्णवणी, जा य पुमपण्णवणी, म.-भगवन् ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनी है और जो पुरुष जा य पुसगपण्णवणो, पण्णवणी गं एसा भासा? प्रज्ञापनी है अथवा जो नपुंसक-प्रज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी ण एसर भासा मोसा? भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? हंता गोयमा ! जा य इस्थीपष्णवणी, जा य पुमपण्ण- उ० - हाँ, गौतम ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनो है और जो पुरुपवणी, जा य पण्णवणो णपुसगपण्णवणी, गं एसा प्रज्ञापनी है अथवा जो नपुंसक-प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा मासा, ण एसा भासा मोसा। है और यह भाषा मृषा नहीं है। प०-अह भंते ! जा जातीति इस्पिषन जाईति पुमवयू प्र. -भगवन् ! जो जाति में स्त्रीवचन है, जाति में मातीति गपु'सगलयू पण्णवणी गं एसा भासा ? ण पुरषवन है और जाति में नपुंसकवचन है क्या यह प्रजापनी एसा भासा मोसा? भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है? १०-हंता गोयमा ! जातीति इस्थिवयू, जातीति पुमवयू, -हो, गौतम ! जो जाति में स्त्रीवचन', जाति में पुरुष जातोति णपुंसगवयू. पण्णवणी णं एसा मासा, ण वचन है अपवा जाति में नपुसकवचन है, यह प्रज्ञापनी भाषा है एसा भासा मोसा। और यह भाषा मृषा नहीं है। प०–अह मंते ! जाईति इस्थिआणमणी. जाईति पुमाण- प्र० - भगवन् ! अव प्रश्न यह है कि जाति में जो स्त्री मणी, जाईति णसगाआणमणो, पण्णवणो णं एसा आज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है अथवा जाति में भासा? ण एसा भासा मोसा ? नपुसक-आज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है। उ.--हंता गोयमा ! जातीति इत्योआणमणी, जातीति उ.-हाँ गौतम ! जाति में जो स्त्री-आज्ञापनी है, जाति में पुमाणमणी, माप्तीति गपु सगाणमणी, पण्णवणी गं जो पुरुष-आज्ञापनी है या जाति में जो नपुसक-आज्ञापनी है, यह एसर भासा, ण एसा भासा मोसा । प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है। प-अह मते 1 जातीति इत्थिपण्णवणी, जातीति पुमपण्ण- प्र- भगवन् ! इसके अनन्तर प्रश्न है- जो जाति में स्त्री वणी, जातीति गपु सगपण्णवणी, पण्णवणो णं एसा प्रज्ञापनी है, जाति में गुरुष : ज्ञापनी है अथवा जाति में नपुसकभासा? ग एसा भासा मोसा ? प्रज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रजागनी है ? यह भाषा मृषा तो उ०—हंता गोपमा ! जातीति इत्यिपण्णवणी, जातीति पुम- उ०—हाँ गौतम ! जो जाति में स्त्रो-प्रज्ञापनी है, जाति में पण्णवणी, जातीति णमुसगपण्णवणी, पपणवणी में पुरुष-प्रज्ञापनी है अपवा जाति में नमक-प्रज्ञापनी है, यह एसा मासा, ण एसा भासा मोसा । प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है। –पण प० ११, सु. ८३२ से १३८ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९६८ मन्दकुमारादि की माषा आदि का बोध चारित्राचार ५१७ मंदकुमाराईणं भासाबोहो मन्दकुमारादि की भाषा आदि का बोध--- ७६८. ५०-- अह भंते ! मंदकुमारए वा महफुमामिला जाण भ. प्र.५ २.६ क्या गादकुमार (अबोध , बुषमाणे--''अहमेसे बुयामि, अहमेसे बुयामोति?" शिशु) अथवा भन्दकुमारिका (अबोध बालिका) बोलती हुई ऐसा जाती है कि मैं बोल रही हूँ? ३०-गोयसा ! पो इ8 सम? णण्णत्थ सणिणो।। उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय रांजी (अब विज्ञानी, जातिस्मरण बाले) के । प०-अह मंते ! मंदकुमारए बा मंदकुमारिया वा जाति प्र. भगवन् ! क्या मन्दकुमार अथवा मन्दकुमारिका आहारमाहारेमाणे-"अहमेसे आहारमाहारेमि, अह- आहार करती हुई जानती है कि मैं इस आहार को करती हूँ? मेसे आहारमाहारेमि ति?" 30-गोयमा ! गो इण? समढ, णण्णत्व सणिणो। उ०—गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय संजी के । प० अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा प्र-भगवन् ! क्या मन्दकुमार अथवा मन्दकुमारिका यह जाति--.'अयं में अम्मापियरो अयं मे अम्मा- जानती है कि ये मेरे माता-पिता हैं ? पिथरो ?" उ.-गोयमा ! णो इ8 सम?', णण्णत्थ सणिणो। उ० गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय संजो के। प.-अह मते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा प्र.-भगवन् ! मन्दकुमार अथवा मन्दकुमारिवा क्या यह जाति-"अयं मे अतिराउले अयं मे अतिराउले जानती है कि यह मेरे स्वामी (अधिराज) का घर (कुल) है? ति" उ०—पोयमा ! जो इण समढ, णण्णत्व समिणो। उ०—गीतम ! यह अयं समर्थ (शक्य) नहीं है, सिवाय संजी के। प०-अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति- प्र-भगवन् ! क्या मन्दकुमार या मन्दकुमारिका यह "अयं मे मट्टिदारए अयं मे भट्टिवारए ति?" जानती है कि यह मेरे भर्ता का पुत्र है? उ.-गोयमा 1 णो इणठे समठे, णऽण्णस्य सणिणो । उ०—गौतम ! यह अयं समर्थ नहीं है, संज्ञी को छोड़कर । प०-अह भंते ! उट्ट, गोणे, खरे, घोडए, अए, एलए प्र.-भगवन् ! इसके पश्वात् प्रश्न है कि ऊंट, बैल, गधा, जाणति बुयमाणे-"अहमेसे बुयामि अहमेसे बुयामि घोड़ा, बकरा और एलक (भेढ़) (इनमें से प्रत्येक) क्या बोलता हुआ यह जानता है कि मैं यह बोल रहा हूं? 30-गोयमा ! णो इणठे समठे, गऽण्णत्व सणिणो। उ०—गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय सजी के। १०-अहमते ! उ-जाव-एलए जाणति आहारेमाणे- प्र. -भगवन् ! ऊँट -थावत्-भेड़ तक (इनमें से प्रत्येक) "अहमेसे आहारेमि अहमेसे आहारेमि ति?" आहार करता हुआ यह जानता है कि मैं यह आहार कर ति?" हुजा ज-पोयमा ! णो इणठे समठे, गण्णत्व सणिणो। 30---गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, सिवाय संज्ञी के। प.-अह मते 1 उट्ट-जाव-एलए जाणति "अयं मे अम्मा- प्र.--भगवन् ! ऊँट-- यावत्-भेड़ क्या वह जानता हैं पियरो अयं मे अम्मापियरों" ति? कि ये मेरे माता-पिता हैं ? उ.- गोयमा ! णो इण? समठे, णऽण्णस्य सणिणो। ० --गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । सिवाय संज्ञी के। प०-अह अंते ! उ-जाव-एलए जाति 'अयं मे अतिप्र -भगवन् ! ऊँट-यावस्-भेड़ क्या यह जानता हैं राउले अयं मे अतिराउले ति?" कि यह मेरे स्वामी का घर है? ज-यमा ! णो दणढे समझें, णण्णत्व सणिणो । उ.-गौतम ! संझी को छोड़कर, यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] चरणानुयोग सोलह प्रकार के वचनों का विवेक सूत्र ७६८-८०० प०-अह भंते ! उद्दे-जाव-एलए जाणति "अयं मे भट्टि म ०- भगवन् ! ऊँट- यावत्-भेड़ क्या यह जानता है कि दारए अयं मे मट्टिवारए" ति? __यह मेरे स्वामी का पुष है ? उ०-- गोयमा ! पो इगठे समठे, गऽणत्य सणिणो। उ- गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ नहीं है, सिवाय -पन्न १० ११. सु. ५३६ से ८४८ संजी के । सोडस वयण विवेगो सोलह प्रकार के वचनों का विवेक७६६. अणूशीयि पिट्ठाभासी समिताए संजते भासं भासेज्जा, ७६६. संयमी साधु या साध्वी भाषा समिति से युक्त होकर तं जहा विचारपूर्वक एवं एकाग्रतापूर्वक भाषा का प्रयोग करे। जैसे कि (ये १६ प्रकार के वचन है)(१) एमवयणं, (२) दुवयण, (३) बहुवयणं, (४) इत्यो- (१) एकवचन, (२) द्विवचन, (३) बहुवचन, (४) स्त्रीलिंग ५५, (२ बम, (६) पु समयण, (७) अजमस्थ- कथन, (५) पुल्लिग-कथन. (१) नपुंसकलिंग-कथन, (७) अध्यात्मवयणं, (८) उबणीयवयणं. (0) अवणीयघयणं, (१०) उव- कयन, (5) उपनीत-प्रशंसात्मक-कथन, () अपनीत-निन्दात्मकणीलवणोतवयणं, (११) अवणीतउवणीतवयणं, (१२) कथन, (१०) उपनीत-अपनीत-कथन, (११) अपनीतोपनीत-कथन, तीयवयणं, (१३) पडुप्पणवयणं, (१४) अणागयवयणं, (१२) अतीत-वचन, (१३) दर्तमान-वचन, (१४) अनागत (१५) पच्चपखवयणं, (१६) परोषखवयणं ।' (भविष्यत्) बचन, (१५) प्रत्यक्षवचन और (१६) परोक्ष वचन । से एमवयर्ष वनिस्सामिति एपवयणं वरेजा-जाव-परोक्ख- यदि उसे "एकवचन" बोलना हो तो वह एकवचन ही बयणं वदिस्सा मिति परोक्सवयणं ववेज्जा । इत्थी बेस, पुमं बोले-यावत्-परोक्षवचन पर्यन्त जिस किसी वचन को बोलना बेस, अप्सर्ग वेस एवं वा चेयं, अण्णं वा चेयं अणुवीयि हो, तो उसी वचन का प्रयोग करे। जैसे—यह स्त्री है, यह णिट्ठाभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा। पुरुष है, यह नपुंसक है, यह बही है या यह कोई अन्य है, इस -आ० सु० २, अ० ४, उ० १, सु० ५२१ प्रकार जब निश्चय हो जाए. तभी भाषा-समिति से युक्त होकर विचारपूर्वक एवं एकाग्रतापूर्वक संयत भाषा में बोले । असावज्जा असच्चामोसा भासा भासियब्या असावध असत्यामृषा भाषा बोलना चाहिए८००. से भिक्खू बा भिमखूणी वा जा य भासा सच्चा सुहमा, जा ८००. जो भाषा सूक्ष्म गत्य सिद्ध हो, तथा जो असत्याभूषा य भासा असच्चामोसा तहप्पगार भासं असावज्ज अफिरियं भाषा है साथ ही ऐसी दोनों भाषाएँ असावध अक्रिय, अकर्कश अकस्कस अकऽयं अनिठुरं अफरुसं-अणण्यकरि अछेयकरि (मधुर), अकटुक (प्रिय), अनिष्ठुर, अफरस (मृदु), संबरकारिणी, अमेयणरि अपरितावणकरि अणुद्दवणकार अभूतोबधातिय प्रीतिकारिणी, अभेदकारिणी, अपरितापकारिणी, अनुपद्रवकारिणी, अभिकख मासेज्जा। प्राणियों का घात नहीं करने वानी हो तो साधु साध्वी पहले -आ. मु.२, अ. ४, उ. २, सु.५५१ मन से पयलिोचन करके उक्त दोनों भाषाओं का प्रयोग करें। (मालय १ प०—कतिविहे ग भते ! वमणे पण्णते? उ०—गोयमा ! सोलहविहे वयणे पणते । तं जहा–१. एगवयणे, २. दुयवयण, ३. बहुवयणे, ४. इत्थिवयणे, ५. पुरवयणे, ६ ण सगवयणे, ७. अज्झत्यवयणे, ६. उवगीयवयणे, ६. अवणीयवयणे, १०. उवणीयावणीवश्यणे, ११. अवणीवउवणीय वयणे, १२. तीतवयणे, १३. पप्पत्रवयणे, १४. अणायवयणे, १५. पच्चक्सबयणे, १६. परोक्खवयणे। प०-इच्चेयं भंते ! एगवणं वा-जाद- परोक्खवयणं वा वयमाणे पग्णवणी गं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? उ.-हंता गोयमा ! इच्चेयं एगववर्ष वा-जाव-परोक्सवयणं वा ववमाणे पाणवी गं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । -qषण प०११, ८६६-६६७ २ पंचिदियाणि पाणाणं एस इत्थी अब पुर्म । जाब णं न बिजाणेज्जा ताव जाइ ति आलवे ॥ -दस० अ०७, गा० २१ ३ (क) असञ्चमोस सच्चं च, अगवज्जमकवकसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिर भासेज्ज पन्नवं ॥ - दम० अ०७, गा०३ (ख) अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । सवसो त न भासेज्जा, भासं अहियगामिणी । दिट्ट मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं वियं जियं । अयंपिरमणन्विर्ग, भासं निसिर अत्तवं ॥ -दस० ८, गा० ४७.४८ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ! सूत्र ८०१-८०४ कसायं परिवज्ज भासिय ०१. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा वंता कोहं स माणं च मायं च लोभ च. अण्वीय पिट्ठमासी निसम्मभासी अतुरियमासी विवेगभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा । कषाय का परित्याग कर बोलना चाहिए कथा का परित्याग कर बोलना चाहिए ८०१. साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन (परित्याग) करके निष्ठाभाषी विचारपूर्वक बोलने वाला हो, सुनकर ममसकर बोलने वाला हो, जल्दी-जल्दी बोलने वाला न - आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५५१ हो एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो और भाषा समिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे । आमन्त्रण के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०२. संयमशील साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हों और आमंत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस सम्बोधित करे अमुक भाई हे आयुष्मान् ! जो श्रावक जी ! हे उपासक हे धार्मिक मंत्र इस प्रकार की निरवद्य–जावत् जीवपातरहित भाषा विचार पूर्वक बोले । - आ. सु. २. अ. ४, उ. १. सु. ५२७ भाभी या इस्थी आमलेगा आमंति अपडणेमाणी एवं बवेज्जा- "आउसो ति वा भगिणी ति वा. भगवतीति वा साविति वा सितारे धम्मिए ति या धम्मप्पिए ति वा । एतप्पारं पातं असा धार्मिके ! धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निश्वय - पावत् — जीवोअति अभिमाना पातरहिन भाषा विचार क साधु या सानी किसी बहुत बुलाने पर भी वह ग आयुष्मती पहन ! ! महिला को आमंत्रित कर रहे हों तो सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित भगवती भनि उपातिक ! ! ! आमंत असावन मासा विही८०२. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिले अपडसुणेमाणे एवं बवेज्जा - "अनुगे ति था आउसो ति वा सातवा उदाति या धमिति वा तिया एसा भास असा जावोवपातयं अभिकख भासेज्जा । - आ. सु. २. अ. ४, उ. १, सु. ५२६ अंतरिक्ष विसए मासा विहो - अन्तरिक्ष के विषय में भाषा विधि- ८०३. से मिक्यू वा भिक्खूनी वा अंतलिवले ति वा गुग्ाणुचरिते ८०३ साधु या साध्वी को प्राकृतिक दृश्यों के सम्बन्ध में कहने तिवासावा मालि प्रसंग उपस्थित हो तो आकार को वृानुचरित -अन्तरि (आ) कहे या देवों के मनागमन करने का मार्ग कहे। वह -आ. सु. २, अ. ४, उ. १, सु. ५३१ पयोधर (मेघ) जल देने वाला है, सम्मूच्छिम जल बरसता है, या यह मेघ बरसता है, या बादल वरस चुका है, इस प्रकार की भाषा बोले । ख्वाइसु असावज्ज भासाविही ०४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई रुवाई पासेज्जा तहा वि ताई एवं वदेज्जा, तं जहा- ओसी-ओयंसी ति वा तेयंसी- सेयंसीति वा बच्वंसी-बच्वंसी ति था, जसं सी-असंसी ति वा अभिरुवं अभिरूये ति वा पडिरूवं पडियेति वा पासादिलादिए ति वा दरिपरिवगीए ति या ? दस० अ० ७. गा० ५५ । वान बुदा पुरियोले या नामदेव पंजा का ४ तनिटि में था, "गुशावरिय" विय चारित्राचार [ute रूपों को देखने पर असावध भाषा विधि "1 ८०४ साधु वा साध्वी यद्यपि कितने ही रूपों को देखते हैं तथापि में उनके विषय में (संयमी भाषा में) इस प्रकार कहेंजैसे कि ओजस्वी को "ओजस्वी तेजस्वी को "तेजस्वी" वचंस्वी (दीप्तिमान, उपादेयवचनी या लब्धियुक्त) को "बर्चस्वी" यमस्थी को "स्त्री" (कोपा हो उसे) "अभिरूप" प्रतिरूप को (जो समान रूप वाला हो उसे ) "प्रतिरूप" प्रासाद गुण (सात हो उसे "प्रासादीय" जो देखने योग्य हो उसे "दर्शनीय" कहकर सम्बोधित करे। जहारमा आज था। हर आवेश सज्ज था। - दम० अ० ७, गा० २० - दम० अ० ७. ग्रा० १७ इस० अ० ७, गा० ५३ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० वरणानुयोग दर्शनीय प्राकार आदि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि सूत्र 30४-८०७ जे यावणे तहप्पगारा एमपगाराहि भासाहि या वइया अन्य जितने भी ऐसे व्यक्ति हों, वे इस प्रकार की भाषाओं णो कुष्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एतप्पगाराहि से राम्बोधित करने पर कुपित नहीं होते अनः ऐसी असावध भासाहि असावज-जाव-अमूतोवघातियं अभिकंस्य भासेज्जा। यावत् जीवोपघात रहित भाषा विचारपूर्वक बोलें । -आ. सु. २, अ. ४, उ.२, सु. ५३४ दरिसणिज्जे बप्पाइए असावज्ज मासाबिही- दर्शनीय प्राकार आदि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा वेगतियाई रुवाई पासेज्जा तं ८०५, साधु या गावी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, यथा-- जहा-वप्पाणि था-जाव-गिहाणि या तहा वि ताई एवं प्राकार-पावत्-भवनगृह को (कहने का प्रयोजन हो तो) उनके ववेज्जा, तं जहा-आरंमकडे ति बा, सावज्जकडे ति वा, सम्बन्ध में इस प्रकार कहे - यह प्राकार आरम्भ से बना है. पयत्तकर , सत्रद्यकृत है. या यह प्रयत्न-साध्य है। पासादियं पासादिए ति वा, दरिसणीयं दरिसणीए ति वा, इसी प्रकार जो प्रासादगुण युक्त हो उसे प्रासादीय, जो अभिरूवं अभिरूवे ति घा, पडिहवं पडिहवे ति बा। एतप्प- देखने योग्य हो उसे दर्शनीय, जो रूपवान् हो उस अभिरूप, जो मार भासं असावज्ज-जाव-अभूतोषगतियं अभिफंख समान रूप हो उसे प्रतिरूप कहे । इस कार विचारपूर्वक भासेज्जा। - आ. सु. २, अ. ४. उ. २. सु. ५३६ असावद्य-यावत्-जीतोपघात से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। उवक्खडिए असणाइए असावज्ज भासाविही- उपस्थत अशनादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि ८०६. से मिक्लू वा भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं था उक्स- ८०६. साधु या साध्वी अशन-यावत् र शादिम (असालों आदि जिपं पेहाए एवं वदेज्जा, तं जहा-आरंभकडे ति वा, से तैयार किये हुए) सुसंस्कृत आहार देखार इस प्रकार वह सावन्नको ति या, पयत्तकडे ति वा. भयं-भदए ति था, सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि गदार्ष आरम्भ से बना है. ऊरा-ऊसडे ति ता, रसियं-रसिए ति वा, माण्ण-मणुण्णे सावधवृत्त है, प्रवनसाध्य है या भद्र कल्याणकर आहार है उसे ति वा एतप्पगारं भासं असावज-जाव-अभूतोवधातियं कल्याणकर आहार कहे । उत्कृष्ट आहार है उसे उत्कृष्ट आहार अभिकख मासेज्जा। कहे । गररा आहार है उसे ग़रस आहार बेटे । मनोज्ञ आहार है -आ. सु. २. अ. ४. उ. २. मु. ५३८ उसे मनोज्ञ आहार कहे। इस प्रकार की असायद्य-यावत् जीवोपघान से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। पयत्तपक्के ति व पक्कमालने, (प्रयोजनबद्ध कहना हो तो) सुपक्य का प्रयत्न-पवन कहा पयतछिन ति व छिनमालवे। जा सकता है। सुच्छिन्न को प्रयत्नच्छिन्न कहा जा मकता है, कर्म पयत्तलठे त्ति व कम्महेउयं, हेतुक (शिक्षापूर्वक किए हुए) को प्रयललब्ध कहा जा सकता पहारगाह सि व गाढमालवे॥ है । गाढ़ (गहरे घाव वाले) को गाढ़ प्रहार कहा जा सकता है। -दस.अ.७, गा. ४२ परिवुड्ढकाए माणुस्साइए अखावज्ज भासाविही . पुष्ट शरीर वाले मनुष्यादि के सम्बन्ध में असावध भापा विधि-- २०७. से मिकावू वा भिक्खूणी या माणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं ८०७. संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी वा, मिगं बा. पसु वा. पक्विं दा. सरीसिवं वा, जलयरं था, मनुष्य, बैल, भैमा, मृग, पशु, पक्षी, सरिनृप, जनचर आदि सत्तं परिषद्धकार्य पेहाए एवं वदेज्जा - परिपड्काए ति किसी भी विशालकाय प्राणी को देखबार से कह सकता है कि वा, उचितकाए ति वा, विरसंघयणे ति वा, चितमंस- यह पुष्ट शरीर वाला है. उचितकार है. इड़ संहनन घाला है, सोणिते ति वा, बहुपडिपुण्ण इंबिए ति वा । एतप्पगारं भासं या इसके शरीर में रक-मांग संचित हो गया है, इसकी सभी असावज-जाद-अभूतोवघातियं अभिकंच मासेज्जा । इन्द्रियों परिपूर्ण हैं । इस प्रकार की असावद्य-यावत्-जीवोपघात -आ. म. २, अ. ४, उ. २, मु. ५३६ रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। १ परिवुढे ति णं बूया, बूया उबचिए त्ति य । संजाए पीणिए या वि, महाकाए त्ति आलबे ॥ -दस. अ. ७, गा. २३ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८०८-८११ गो आदि के सम्बन्ध में असावच भाषा विधि चारित्राचार [५२१ विधि निषेध कल्प-२ गो आइसु असावज्ज भासा विही गो आदि के सम्बन्ध में असायद्य भाषा विधि८०८, से भिक्खू वा भिक्खूणी वा विस्वरुवाओ गाओ पेहाए एवं ८०८, साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गो जाति के ववेमा तं जहा जुबंगवे ति वा, घेणु ति वा, रसवती ति वा, पशुओं को देखकर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि- यह हस्से इवा, महल्ल इवा महत्वए ति वा, संबहणे ति या'। गाय युवा है, प्रौढ़ है. या दुधार है. यह बल छोटा है या बड़ा एतापगारं भासं असावज–जाव - अभूतोवघातियं अभिकंख है, बहुमूल्य है या भारवहन करने में समर्थ है इस प्रकार की णों मासेज्जा। -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४२ असावद्य-यावत्-जीवोपत्रात से रहित भाषा का प्रयोग करे । उज्जाणाइसु असावज्ज भासा विही उद्यानादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०६. से भिक्खू बा भिक्खूणी वा तहेब गंतुमुज्जाणाई पम्यताणि ८०६. साधु या साध्वी किसी प्रयोजनवा उद्यानों. पर्वतों या यणाणि य हक्खा महरूल पेहाए एवं वदेज्जा-तं जहा--- वनों में जाए, वहाँ विशाल वृक्षों को देखकर इस प्रकार कहे कि जातिमता ति वा, दोहखट्टा ति वा, महालया ति या, ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, दीर्घ (लम्बे) है. वृत्त (गोल) हैं, पयातसाला ति वा, विडिमसाला ति वा, पासादिया ति महालय हैं, इनकी शाखाएँ, 'फट गई हैं, इनकी प्रशाखाएँ दूर तक या, दरिसणीया ति या अभिरुवा ति था, पडिरूया तिवा। फैली हुई हैं, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले हैं. दर्शनीय है, एतप्पणारं भासं असावज---जाब -अभवोनमातिए अभि- अभिरूप है, प्रनिरूा हैं। इस प्रकार की असावा-यावत पंख भासेज्जा। -आ. सु. २. अ. ४, उ. ५. सु. ५४४ जीयोपघात-रहित भाषा वा विचारपूर्वक प्रयोग करें। वणफलेस असावज्ज भासा बिही वन फलों के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि८१०. से मिक्खू वा भिषखूणी वा बहुसंभूया वणफला पेहाए एवं ८१०. साधु या साध्वी अतिमात्रा में लगे हुए वन फलों को देख ववेज्जा तं जहा- असंबडा ति वा बहुणिकट्टिमफला ति वा, कर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि ये फल वाले वृक्ष-असंतृतबहुसंभूया ति वा, भूतरुवा ति वा । एतप्पगारं भासं फलों के भार से नम्र या धारण करने में असमर्थ है इनके फल असावजं-जाव-अभूतोवघातिय अभिकख भासेज्जा। प्रायः निष्पन्न हो चुके हैं. ये वृक्ष एक साथ बहुत-सी फलोत्पत्ति -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४६ काले हैं, या वे भूतरूम-कोमल फल हैं। इस प्रकार की असावध -यावत-जोवीपघात रहित भावा का विचारपूर्वक प्रयोग करे । ओसहिसु असावज्ज भासा विहो औषधियों के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि - ८११. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा बहुसंभूताओ ओसहीओ पहाए ५११. साधु या साची बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों को तहा वि एवं वदेज्जा, तं जहा-रुता ति वा, बहुसंभूया ति देख कर (प्रयोजनवश) इस प्रकार कह सकता है जैसे कि इनमें या, थिरा ति वा ऊसटा ति था, गमिया ति वा, पसूया ति बीज अंकुरित हो गये है, ये अब जम गई हैं, सुविकसित या वा, ससारा ति वा । एतप्पगारं मासं असावज-जाव-- निष्पन्नप्रायः हो गई हैं या अब ये स्थिर (उपघातादि से मुक्त) अभूतोवघातियं अभिकख भासेज्जा। हो गई है, ये ऊपर उठ गई हैं. ये भुट्टों, सिरों या वालियों से -आ. मु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४८ रहित हैं. अब ये भुट्टों आदि से युक्त है, या धान्यकण युक्त हैं। इस प्रकार की निरवद्य-यावत्-जीवोपघात से रहित भाषा विचारपूर्वक बोले । -- - - १ जुत्रं गवे ति गं बूया, धेणं रसदय ति य । रहस्से महल्लए वा बि, बए संबणे ति य || ---दस. अ. ७ गा.२५ २ तहेव गंतुमुज्जाणं पम्पयाणि वाणि य । रुक्खा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पण्ण ॥ जाइमता इमे रुपया दोहबट्टा महालया। पयायसाला विधिमा वए दरिमणि त्ति य ।। -दग. अ. ७, गा. ३०-३१ ३ असंथडा इमे अंजा बहुनिवदिमाफला । वएज्ज बहुसंभूया भूयस्व त्ति वा पुणो ।। -स. १.७, गा. ३३ ४ विरूढा बहुसंभूया थिय ऊसड़ा विय । गभियाओ पसूयाओ रासाराजो त्ति आलवे ।। --दस. ब. ७. गा. ३३ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२] चरणानुयोग राब, रूप, गंध, रस और स्पर्शादि के सम्बन्ध में असावध भाषा विधि सूत्र ८१२-१३ सह-रूव-गंध-रस-फासेसु असावज्ज भासा विही- शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शादि के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८१२. से भिक्खू वा भिक्खूगी या जहा बेगतिगाई सहाई सुणेज्जा ८१२. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, तथापि तहा वि ताई एवं बवेजा-तं जहा उनके सम्बन्ध में कभी बोलना हो तो इस प्रकार कह सकता है जैसे कि (राग द्वेष से रहित होकर) सुसद सुसद्देति वा, दुसई एसई ति वा । एतष्पगारं मासं सुशब्द को "यह सुशब्द है" और दुःशब्द को "यह दुःशब्द असावाज--जाव-अभूतोवधातिय अभिकख मासेम्जा। है" इस प्रकार की निरवद्य--- पावत् -जीवोपघात रहित भाषा विचारपूर्वक बोले । इस प्रकार स्पों के विषय में--- स्वाई-१. किण्हे तिवा, २. गीले ति वा, ३. लोहिए ति (१) काले को काला कहे, (२) नीले को नीला, (३) लाल वा, ४. हलिहे ति था, ५. सुश्किले ति वा को लाल, (४) पीले को पीला, (५) श्वेत को ग्वेत कहे। गन्धों के विषय में (कहने का प्रसंग आगे तो) गंधाई-१. मुस्मिगंधे ति बा, २. बुरिमगंधे ति वा (१) सुगन्ध को सुगन्ध और (२) दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे, रसों के विषय में कहना हो तोरसाई--१. तिताणि वा, २. कजुभाणि वा, ३. कसायाणि (१) तिक्त को तिक्त, (२) कडुए को कड़वा, (३) कसले को वा, ४. बंभिलाणी वा, ५. मनुराणि वा कसला, (४) खट्टे को खट्टा और (५) मधुर को मधुर कहे। इसी प्रकार स्पों के विषय में कहना हो तोफासाई-१. कसराणि वा, २. मडपाणि वा, ३. गरुयागि (१) कर्कश को कर्कश, (२) मृदु (कोमल) को मृदु, (३) वा, ४. सहयाणि वा, ५. सोयाणि वा, ६. उहाणि चा, गुरु (भारी) को गुरु, (४) लघु (हल्का) को लघु, (५) ठण्ड को ७. णिशाणि या, ८. लुक्खाणि वा। ठण्डा, (६) गर्म को गर्म, ७) चिकने को चिकना और () रूखे -आ. सु. २, अ.४,उ. २, सु. ५५० को रुखा कहे। एगंत ओहारिणी भासा णिसेहो एकान्त निश्चयात्मक भाषा का निषेध२१३. से भिकाजू वा भिक्खूणी वा इमाई वइ-आयाराइंन्सोन्या ८१३. साधु या साध्वी इन वचन (भाषा) के आचारों को सुनणिसम्मा इमाई अणायाराई अणापरियपुज्वाई जाणेज्जा- कर, हृदयंगम करके, पूर्व-मुनियों द्वारा अनानरित भाषा सम्बन्धो अनाचारों को जाने। जे कोहावा यायं विजंति, यथा- जो क्रोध से वाणी का प्रयोग करते हैं। जे माणा वा वायं विदंति, जो अभिमानपूर्वक वाणी का प्रयोग करते हैं। जे मामाए वा वायं विजंति, जो छल कपट सहित बोलते हैं, जेलोमा वा बाय विउंअंति, जो लोभ से प्रेरित हो बोलते हैं, जाणतो या फरसं वयंति, जो जानबूझ कर कठोर वचन बोलते हैं, अजाणतो वा फरस वर्षति । सम्बं चेयं सावसं वजेज्जा या अनजाने में कठोर वचन बोलते हैं, ये सब भाषाएं सावद्य विवेगमायाए-युवं चेयं जाणेज्जा, अधुयं यं जाणेज्जा (स-पाप) हैं, साधु के जिाए वर्जनीय है। विवेक अपनाकर साधु इस प्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे। वह साधु या माध्वी घब (भविष्यत्कालीन वृष्टि आदि के विषय में निश्चयात्मक) भाषा को जानकर उसका त्याग करे । अधम (अनिश्चयात्मकः) भाषा को भी जानकर उसका त्याग कर। असगं वा-जाव-साइम वा लभिय, गो समिय, मुंजिय, बह अशन-यावत्-स्वादिम आहार लेकर ही आएगा, या णो भुंजिय। आहार लिए बिना ही आएगा। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ८१३ एकान्त निश्चयात्मक भाषा का निषेध चारित्राचार [५२३ अवुवा आगतो, अदुवा णो आगतो, वह आहार करके ही आएगा, या आहार कि बिना ही आ जाएगा। अनुवा एति, अदुवा णो एति, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, अनुवा एहिति. अदुवा णो एहिति, अथवा वह आता है या नहीं आता है, एत्य वि आगते, एत्व विणो आगते, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा, एत्य वि एति, एस्थ वि गो एति, वह वहाँ आया था, वह यहाँ नहीं आया था, एस्य वि एहति, एस्थ पिणो एहति । बह यहाँ आता है, वह यहां नहीं आता है, --आ. सु. २, अ. ४, उ. १. सु. ५२० वह यहाँ आएगा, वह यहां नहीं आयेगा (इस प्रकार की एकान्त निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग साधु-साध्वी न करे)। तम्हा गच्छामो रक्खामो, अमुग श णे भविस्सई । इसलिए-इम जाएंगे, कहेंगे, हमारा अमुक कार्य हो जाएगा, अहं वा गं करिस्सामि, एसो वा गं करिस्सई ।। मैं यह करूंगा अथवा यह (व्यक्ति) यह (कार्य) अवध्य करेगा-- एवमाई उ जा भासा, एसकालम्मि संकिया। यह और इस प्रकार की दूसरी भाषा को भविष्य सम्बन्धी होने संपयाईयम? वा, तं पि धीरो विवज्जए ।। के कारण (सफलता की दृष्टि से) मांकित हो अथवा वर्तमान और अतीत काल-सम्बन्धी अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीर पुरुष न बोले। अईम्मि य कालम्मी, पन्जुप्पश्चमणागए। ___ अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जिस अर्थ को जमहूँ तु न जाणेज्जा, एवमेयं ति नो वए । न जाने, उसे यह "इस प्रकार ही है" ऐसा न कहे । अईयम्मि य कालम्मी, पञ्चप्पलमगागए। अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस अर्थ में जत्व संका भवे तं तु. एवमेयं ति नो वए॥ शंका हो, उसे "यह इस प्रकार ही है"-ऐसा न कहे। अईयम्मि य कालम्मी, पच्चुप्पन्नमणागए। ___अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जो अर्थ निस्संकियं भवे जं तु, एवमेयं ति निदिसे ॥ निःशंकित हो (उसके बारे में) “यह इस प्रकार ही है" ऐसा - दस. अ. ७, गा. ६-१० कहे। तहेव साबण्जणुमोयणी गिरा, इसी प्रकार मुनि सावध का अनुमोदन करने वाली अवओहारिणी जा य परोषघाइणी। धारिणी (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध) और पर उपधातसे कोह लोह भयसा व माणवो कारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न बोले । न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ।। -दस. अ. ७, गा. ५४ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा णो एवं वदेम्जा---'नमयेवे ति साधु या सानी इस प्रकार न कहे कि "नभोदेव (आकाश वा, गरजदेवे ति वा, विज्जुदेवे सिवा, पवुटवेवे ति वा, देव) ६, गर्ज (मेघ) देव है, विद्यु लदेव है, प्रवष्ट (बरसता रहने मिवुद्ववेवे ति वा, पातु वा वासं, मा वा पद्ध, पिप्पाजतु वाला) देव है, या निवृष्ट (निरन्तर बरसने वाला) देव है, वर्षा वा सासं, मा वा णिप्पज्जतु, विभातु वा रयणी, मा वा बरसे तो अच्छा या न बरसे तो अच्छा, धान्य उत्पन्न हो या न विधातु उवेट वा सरिए, मा वा उदेउ, सो वा राया अयतु हो, रात्रि सुशोभित हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, वह मा वा जयतु ।" णो एपप्पगारं भासं भासेज्जा पण्ण राजा जीते या न जीते।': प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार की भाषा -आ. सु. २, अ. ४, उ. १, सु. ५३० नबोले । १ (क) बाओ वुटुं व सीउण्हं, खेमं धाये सियं ति वा । कयाणु होज्जा एयाणि ? मा वा होउ सि नो वए ।। (ख) तहेव मेहं व नहं वा माणवं न देवदेव ति चिरं वएज्जा । समुच्छिए उनए वा पोए वएपज वा 'बुदळे' बलाहए ति॥ --दस.अ.७, गा. ५१-५२ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४] चरणानुयोग छ: निषित बचन सूत्र ८१४-८१८ देवाणं मणआणं च तिरिजाणं च बुग्गहे । देवता, मनुष्यों और पशुओं के परस्पर युद्ध होने पर 'अमुक अमुगाणं जओ होउ मा वा होउत्ति नो वए । की जीत हो और अमुक की हार हो' ऐसा साधु को अपने मुंह से -दस. अ. ७, गा, ५२ नहीं कहना चाहिए। छ णिसिद्धययणाई छः निषिद्ध वचन८१४, नो कप्पइ निरगंधाण वा निग्गंथोण वा १४. निर्ग्रन्थों और निग्रेग्थियों को ये छह कुवचन बोलना नहीं इमाई छः अवयणाई वइत्तए, तं जहा -- वाल्पता है। १. अलियवयणे २. होलियवयणे यथा-(१) अलीक वचन, (२) हीलित वचन, ३. खिसियवयणे ४. फरसबयणे (३) खिसित वचन, (४) परुष बनन, ५. गारत्वियवपणे ६. विओसवियं वा पुणो उदीरितए । (५) गार्हस्थ्य वचन, (६) व्युपत्रमित वचन पुनः कहना। -कप्प. उ. ६. सु. १ अदणिसिद्धठाणाई - आठ निषिद्ध स्थान१५. कोहे मोजागार गोरे सवउत्तया । ८१५. (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ, हासे भए मोहरिए विगहामु तहेव च ।। (५) हास्य, (६) भय, (७) वाचालता और (6) विकथा के प्रति सावधान रहे -इनका प्रयोग न करे । एयाई अगुठाणाई परिबज्जित्तु संजए। प्रज्ञावान मुनि इन आठ स्थानों का वर्जन फर फ्थाममय असावज मियं काले भासं भासेम्ज पन्नवंस निरक्द्य और परिमित वचन बोले। --उत्स. अ. २४, मा. ६-१० चउरिवह सावज्जभासा णिसेहो--- चार प्रकार की सावध भाषाओं का निषेध८१६. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जा य १. भासा सच्चा, २. जा ८१६. जो (१) भाषा सत्या है जो (२) भाषा' मृषा है, जो य मासा मोसा, ३. जाय भासा सच्चामोसा, ४, जा य (३) भाषा मत्यामृपा है. अथवा (४) जो भाषा असत्यामृषा है, भासा असच्चामोसा तहप्पगार भासं सावज्जं सकिरियं उसमें भी यदि सत्य भाषा सावध (पाप सहित) अनर्थदण्डक्रिया कपकसं कडयं निठुरं फरूसं अण्यकरि छयणकरि भैयण- युक्त, कर्कश, कटुकः, निष्ठुर (निर्दय), कठोर (स्नेह रहित) को करि परितावणकरि उद्दवणकरि भूतोवघातिय अभिकख की आथवकारिणी तथा छेदनकारी (प्रीतिछेद करने वाली) को भासेज्जा। भेदनकारी (फूट डालने वाली, परितापकारिणी, उपद्रवकारिणी) - औ. शु. २, म. ४, उ. १, सु. ५२४ एवं प्राणियों का विघात करने वाली हो तो साधु या साध्वी ऐसी सत्यभाषा का भी प्रयोग न करे। मुसाई भासाणं णिसेहो-~ मृषा आदि भाषाओं का निषेध८१७. मुस परिहरे भिक्खू न य जोहारिणि वए। ८१७. भिक्षु मृषामाषा का परिहार करे, अवधारिणी (निश्चयभासावोस परिहरे मायं च बजए सवा ॥ कारिणी) भाषा न बोने, भाषा के दोष का परिहार करे और सदा माया का त्याग करे । न लवेज्ज पुट्ठो साषज्ज न निर?' म मम्मयं । पूछने पर भी भिक्षु अपने लिए, पर के लिए या उभय के अप्पणट्ठा परट्टा वा उन्नयस्संतरेण वा ॥ लिए सावध भाषा, निरयंक और मर्म प्रगट करने वाली भाषा -उत्त. अ. १, गा. २४-२५ न बोले । सच्चामोसा भासा णिसेहो सत्यामृषा (मिश्र) भाषा आदि भाषाओं का निषेध८१५. भासमाणो न भासेज्जा, णेय केज्ज मम्मयं । १८. साधु धर्म सम्बन्धी भाषण करता हुआ भी भाषण न करने मातिट्टाणं विवरजेजमा, अणुबीवि वियागरे । वाले (मौनी) के समान है। वह मर्मस्पशी भाषा न बोले व मातृ स्थान--माया (कपट) प्रधान वचन का त्याग करे । जो कुछ भी बोले, पहले उस सम्बन्ध में सोच विशर कर बोले । १ तहेद फरसा भासा गुरुभूधोवत्राइणी ! सच्चा वि सा न वत्तब्वा, जो पावस्स आगमो ॥ -दस. अ. ७, गा.११ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८१६-२२ अवर्णवाद आदि का निषेध चरणानुयोग ५२५ तस्थिमा ततिया भासा, जं वदित्ताऽण तप्पती। नरकमा : य भाषा (सत्या-मृषा) जं छन्नं तं न बसवं, एसा आणा नियंठिया ।। है, उसे साधु न बोले क्योंकि ऐसी भाषा बोलने के बाद पश्चा-सूप. सु १, अ. ६, गा. २५-२६ तार करना पड़ता है जिस बात को सब लोग छिपाते (गुप्त रखते) हैं अथवा जो छन्न (हिंसा) प्रधान भाषा है ऐसी भाषा भी न बोले । यह निबन्ध (भगवान) की आज्ञा है। एवं च अदुमन्न वा, जंतु नामेह सासर्य। विचारशील माधु, सावध और कर्कश भाषाओं का तथा इसी सभासं सच्चमोसं च, तंपि धीरो थिवजए । प्रकार की अन्य भाषाओं का भी' 'जो वोली हुई पुरुषार्थ मोक्ष की विघातक होती हैं चाहे फिर वे मित्रभाषा हों या केवल सत्य भाषा हो, विशेष रूप से परित्याग करे। वितहं पि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो। जो मनुष्य सत्य पदार्थ की आकृति के समान आकृति वाले तम्हा सो पुट्ठो 'पावणं, कि पुण जो मुसं वए। असत्य पदार्थ को भी सत्य पदार्थ कहता है, वह भी जब पाप कर्म --दस.अ.७, गा. ४-५ का बंध करता है, तो फिर जो केवल असत्य ही बोलते हैं, उनके विषय में कहना ही क्या है ? अवण्णयायाइयस्स णिसेहो अवर्णवाद आदि का निषेध१. अखणवायं च परम्महस्स पस्वपखओ परिणीयं च मासं। १६. जो पीछे से अपर्णवाद (गिन्दा वचन बोलता ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और भासं न भासेज्ज सया स पुन्जो ॥ अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता वह पूज्य है। -दस.भ.उ.३,गा." सावज्ज बयण णिसेहो सावध वचन का निषेध५२०. तेहेव सावज जोगं परस्सट्टाए निट्टियं । ८२०. दूसरे के लिए किए गए या किए जा रहे सावध व्यापार कोरमागं ति वा नच्चा सावज नाऽलवे मुणो॥ को जानकर मुनि सावध वचन न बोले । - दस. अ. ७, गा, ४० गिहत्थस्स सक्कारा णिसेहो गृहस्थ के सत्कारादि का निषेध५२१. तहेवाऽसंजय धोरो, आस एहि करेहि वा । ८२१ इसी प्रकार धीर और प्रशावान मुनि असंयति (गृहस्थ) सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासेज्ज पन्नयं ।। को बंठ, इधर आ, अमुक कार्य कर, सो, ठहर या खड़ा हो जा, -दस. अ.७, मा. ४७ चला जा। इस प्रकार न कहे।। पारिपहियाण सावज्ज पण्हाणमुत्तरदाण णिसेहो- पथिकों के सावध प्रश्नों के उत्तर देने का निलेश ८२२.से भिव वा भिक्षुणी चा गामाणुयाम दूइज्जमाणे अंतरा २२. ग्रामानुग्राम रिहार करते हुए साध या साध्वी के मा में से पारिपहिया आगच्छेग्जा, ते गं पाडिपहिया एवं चंदेज्जा- कुछ पथिक सामने आ जाएँ और वे यो पुछे कि"आउसंतो समणा! अवियाई एसो पडिपहे पासह मणुस्सं आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में किसी माय को वा. गोणं वा, महिसं वा, पसं या, पक्विं बा, सरीसवं वा, मृग की, भसे को, पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जलचरं वा, जन्तु को जाते हुए देखा है ? से तं मे आइक्खह, वंसह ।" यदि देखा हो तो हमें बताओ कि वे किस ओर गए हैं, हमें दिखाओ। तंगो आइखेज्जा, णो सेउजा, गो तस्स तं परिणाणेज्मा, ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें बताए न मार्ग-दर्शन करे, मुसिणीए उबेहेज्जा, जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा । ततो न उनकी बात को स्वीकार करे, बल्कि कोई उत्तर न देकर मौन संजयामेव गामाणणाम जेज्जा । रहे। अथवा जानता हुआ भी (उपेक्षा भाव से) ' मैं नहीं जानता" ऐसा कहे । फिर यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करे। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६] चरणानुयोग आमन्त्रण में सावध भाषा का निषेध सूत्र ८२२-८२३ से भिक्खू वर भिकरणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में से पाउिपहिया आगच्छेम्जा ते ण पारिपहिया एवं बवेज्जा- सामने से कुछ पथिक निकट आ जाएँ और वे साधु से यो पर्छ"आउसंतो समणा । अबियाई एत्तो पजिपहे पासह उदग- "आयुध्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जल में पैदा पसूतागि कंबाणि वा, मूलाणि बा. तथाणि वा, पत्ताणि या, होने वाले कन्द या मूल, अथवा छाल, पत्ते, फूल, फल, नीज पुष्पाणि वा, फलाणि वा, बीयाणि वा, हरिताणि वा, उदयं रहित अचवा मंग्रह किया हुआ पेयजल या निकटवर्ती जल का वा, संणिहियं अगणिं पा संणिबिखतं, से तं मे आइवसह स्थान, अथवा एक जगह रखी हुई अग्नि देखी है? अगर देखी रंसेङ ।" होतो हमें बताओ?" तंणो आइक्लेग्जा-जाव-गामाणुगाम दूइज्जेमा । इस पर साधु उन्हें कुछ न बतावे-यावत्-प्रामानुग्राम विहार करे। से मिक् वा भिक्खूणी वा गामाणुगार्म दूइज्जेज्जा, अंतरा ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में से पारिपहिया आगच्छेज्जा ते पाडिपहिया एवं ववेज्जा- कुछ पथिक निकट आकर पूछे कि"आउसंतो समणा ! अवियाई एत्तो परिपहे पासह जवसाणि "आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जो (आदि वा, सहाणि वा, रहाणि या, सखफाणि वा, परचक्काणि धाग्यों का ढेर) बैलगाड़ियाँ, रथ, या स्वचक्र या परचक्र के बा, सेणं बा, विस्वरुवं संणिविट्ट से मे आइपसह शासक के (सैन्य के) या नाना प्रकार के पड़ाव देखे हैं? यदि दंसह ?" देखे हो तो हमें बताओ।" तं जो आरक्खेज्जा-जाव-गामाणुगाम दूइज्जेज्जा । ऐसा सुनकर साधु उन्हें कुछ न बताये.-यावत्-ग्रामानु ग्राम विहार करे। से लिप चा, भिक्खु णी वा गामाणगाम दूइज्जमाणे अंतर ग्रामानृग्राम विहार करते हुए साघु या साध्वी को मार्ग में से पाडिपहिया आगच्छज्जा ते णं पाडिपहिया एवं वदेग्जा- कुछ पथिक निकट आवार पूछे कि"आउसंतो समणा! केवतिए एत्तो गामे वा-जाव-रायहाणी "आयुष्मन् श्रमण ! यह गांव कैसा है, या कितना बड़ा है? या, से तं मे आइक्खह देसेह ?" —पावत्-राजधानी कैसी है या कितनी बड़ी है? यदि देखी हो तो हमें बताओ?" संगो आइक्योज्जा-जाव-गामाणुगाम इज्जेज्जा । ऐसा सुनकर साधु उन्हें कुछ न बताए -यावत् प्रामानु ग्राम विहार करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जेम्जा, अंतरा सामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में से पारिपहिया आगच्छेम्जा ते गं पाडिपहिया एवं बवेजा- कुछ पथिक निकट आकर पूछे कि"माउसंतो समणा ! केवइए एत्तो गामस्स बा-जात्र- 'आयुष्मन् श्रमण ! यहाँ से ग्राम-यावत् --राजधानी रायहाणीए वा मगो ? से तं मे आइक्सह बसेह ?" कितनी दूर है? या यहाँ से बाम–चात् राजधानी का मार्ग अब कितना शेष रहा है ? जानते हो तो हमें बताओ।" तं जो आइक्वेज्जा-जाव-गामाणुगाम दूइज्जेम्मा। ऐसा सुनकर साधु उन्हें कुछ भी न कहे-यावत्-यतना -आ. सु. २, अ. ३, उ. ३, सु. ५१०-५१४ पूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे । आमंतणे सावज्ज भासा णिसेहो आमन्त्रण में सावध भाषा का निषेध८२३. से भिक्खू दा भिवस्तुगी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिते बा ८२३, साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमन्त्रित (सम्बोधित) अपरिसुणेमाणे णो एवं ववेज्जा कर रहे हों, और भामन्त्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार न कहेहोले ति वा, गोले तिवा, वसूले ति वा, कुपक्से ति बा, अरे होले (मूर्ख) रे गोले ! (या हे गोले ! या हे गोला !) घरवासे तिवा, साणे ति बा, तेणे ति वा नारिए ति वा, अय बृषल (शूद्र) हे कुपक्ष (दास या निन्धकुलीन) अरे घटदास १ होलावायं, सहीवायं, गोतावायं च नो बदे । तुम तुम ति अमणुण्णं, सब्बसो त ण बत्तए ।। -सूव. सु. १, अ. ६, गा. २५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८२३-८२४ रोग आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध चारित्राचार [५२७ मायो ति या, मुसाबादी ति वा इतियाई तुमं, इतियाई ते (दासीपुय) या ओ कुत्ते ! ओ चोर ! अरे गुप्तचर ! अरे झुठे ! जणगा था।" एतप्पगारं भासं सावगं सकिरिपंजाब- ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही तुम हो, ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही मूतोपघातियं अभिकख णो भासेज्जा। तुम्हारे माता-पिता हैं।" विचारशील साधु इस प्रकार की सावध -आ. सु. २, अ. ४, उ.१, सु. ५२६ -यावत् ---जीबोपधातिनी भाषा विचारकर न बोले । अम्जए पज्जए वा वि बप्पो खुल्लपिउ ति य । हे जावंक ! (हे दादा, हे नाना !) हे प्रार्यक ! (हे परदादा ! माउला भाइणेज ति पुत्ते नतुणिय ति य॥ हे परनाना !) हे पिता ! (हे वाचा !) हे मामा ! (हे भानजा !, हे पुत्र, ! हे पोते !। -दस. अ.७, गा. १८ इस प्रकार पुरुष को आमन्त्रित न करें। से भिक्खू या भिक्खूणी वा इत्थी आमसेमाणे आमंतिते य साधु या साध्वी किमी महिला को बुला रहे हों, बहुत अपडिसनमाणी णो एवं बवेज्जा--"होली ति या, गोली ति आवाज देने पर भी वह न सुने तो उसे ऐसे नोच सम्बोधनों से वा, वसुले ति वा, कुपरखे ति वा, पडदासी ति वा, साणे सम्बोधित न करेतिघा, सेणे ति वा, चारिए ति वा, माईति बा, मुसाबाई "जरी होली! (अरी गोली) अरी वृषली (क्षुद्र)! हे तिवा, पञ्चेयाई तुमं एसाइं ते जणगां वा एतप्पगारं मासं कुपक्षे! अरी घटदासी! ए कुत्ती ! अरी चौरटी! हे गुप्तचरी! सावज-जावणो मासेजा। अरी मायाविनी ! अरी झूठी! ऐसी ही तू है और ऐसे ही तेरे -आ. सु. २, अ. ४, उ, १, सु. ५२८ माता-पिता हैं।" विचारशील साधु-साध्वी इस प्रकार की सावध - यावत् जीवोपानिनी भाषा बिचारकर न बोलें। अज्जिए पज्जिए वा वि अम्मो माउस्सिय तिया। हे आयिय ! (हे दादी!, हे नानी!) हे प्राधिके ! (हे पिउस्सिए भाणेज ति, धुए नत्तुणिए लिय॥ परदादी! हे परजानी ! है अम्ब !, हे माँ !), है मौसी! हे बुआ !, हे भागजी 1, हे पुत्री !. हे पोती !, -दरा, अ ७, गा. १५ इस प्रकार स्त्रियों को आमन्त्रित न करें। रूजाइसु सावज भासा णिसेहो रोग आदि के सम्बन्ध में सावद्य भाषा का निषेधः८२४. से भिषण वा मिक्खूणी या जहा देगसियाई स्वाई-पासेज्जा E२४. साधु या साध्त्री यद्यपि अनेक रूपों को देखते हैं उन्हें देखतहा वि ताई पो एवं बवेजा, कर इस प्रकार (ज्यों के त्यों) न कहें । तं जहा-"१. गंडी गंडो तिवा, जैसे कि-(१) गण्डी (गाड-कण्ठमाला रोग से ग्रस्त या जिमका पैर सूज गया हो, को गण्डी) २. कुट्टी कुट्ठी ति वा, (२) कुष्ठ-रोग से पीड़ित को कोढियां, ३. रायसि रायसो ति वा, (३) राजयक्ष्मा वाले को राजयक्ष्मावाला, ४. अवमारियं, अवमारिए ति वा, (४) मृगी रोग वाले को मृगी, ५. काणियं काणिए ति वा, (५) एकाक्षी को काना, ६. निभियं सिमिए ति वा, (६) जड़ता वाले को जड़ता वाला, ७. कुणियं कुणिए ति वा, (७) टूटे हुए हाथ वाले को ढूंटा, ८. खुग्निपं खुज्जिए ति था, (5) कुबड़े को कुबड़ा, ९. उदरीं उबरीए ति वा, (e) उदर रोग वाल को, उदर रोगी, १०, मुई मुए ति वा, (१०) मूक रोग वाले को मुका, ११. सुणियं सुणिए ति वा, (११) शोथ रोग वाले को गोथ रोगी, १ (क) तहेव होले गोले ति साणे वा नमुले ति य । दमए दुहए वा बिन तं भासेज्ज पण ।। (ख) हे हो हते ति अन्ने ति भट्टा सामिए गोभिए । होल गोल मुले ति पुरिस नेवमालवे ।। २ हले हल त्ति अन्ने ति भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले बसले ति इस्थिय नेवमालवे ।। नि भय साभिए मानिए दोन गाव मात्र लि पुरस नमालय ॥ .दस. अ. ७, गा. १४ -स. अ. ७, गा.१६ ---दस. अ. ७, गा.१६ स जगा.. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] चरणानुयोग प्राकार आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध सूत्र ५२४-८२७ १२. "गिलासिणी गिलासिपी" ति वा, (१२) भस्मकरोग वालों को भरमक रोगी, १३. वेवई वेवई ति बा, (१३) कम्पनवात वाले को वाती, १४. पौह सप्पो पीट सप्पी ति वा, (१४) पीठसी-पंगु को पीठसपों १५. सिलिवयं सिलिवए ति वा, (१५) श्लीपदरोग वाले को हाथीपगा, १६. महुमेहणी महुमेहणी ति वा, हत्यच्छिपणं हत्थच्छिणे (१६ मधुमेह काले को मधुमेही, कहकर पुकारना, अथवा तिवा, एवं पावच्छिण्ण तिवा, कण्णच्छिणे ति वा, नक्क- जिमका हाच कटा है उसको हाथ कटा, पैर कटे को पैरकटा, च्छिण्णे ति वा, उच्छिपणे तिवा।" नाक कटा हुआ हो तो नकटा, कान कट गया हो उसे कनकटा और ओठ कटा हुआ हो उसे भोउकटा कहना ।। जे यावणे तहप्पगाराहि भासाहि तुझ्या बुहया कुष्पति ये और अन्य जितने भी प्रकार के हों, उन्हें इस प्रकार की भाणवा ते यावि तहप्पगारा तह पगाराहि मासाहि अभिकख (आघातजनक) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे व्यक्ति दुःखी णो भासेज्जा। या कुपित हो जाते हैं। अत: ऐसा विचार करके उन लोगों को -आ. सु. २. अ ४, उ. २, सु. ५३३ (जसे वे हों उन्हें वैसी) भाषा से सम्बोधित न करे । तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति वो। इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को वाहियं वा वि "रोगि" ति, तेणं 'चोरे" ति नो वए॥ रोगी और चोर को चोर न कहे। एएणऽन्येण मटुंण, परो जेगुबहम्मई । आचार (वचन-नियमन) सम्बन्धी भाव-दोष (चित्त के प्रदेश आयारभावादोसन्नु, न त भासेज पनवं ।। या प्रमाद) को जानने वाला प्रज्ञावान् पुरुष पूर्व एलोकोक्त अथवा - दस. अ. ७, गा. १२-१३ इसी कोटि की दूसरी भाषा, जो दूसरे को अधिय लगे, न बोले। बप्पाइस सावज्ज भासा णिसेहो प्राकार आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध८२५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई रुवाई ८२५. साधु या खात्री यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि पासेज्जा, तं जहा-पप्पाणि वा-जाव-गिहाणि वा तहा वि प्राकार-यावत्-भवन आदि, इनके विषय में ऐसा न कहें, ताई णो एवं वदेज्जा. तं जहा–सुको तिया, सुठुकरें जैसे कि-.-''यह अच्छा बना है. भली भांति तैयार किया गया है, तिवा, साहुकडे ति बा, कल्लागं तिवा, करणिज्जे ति सुन्दर बना है. यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है" इस था।" एयप्पगारं भासं सावज्ज-जाव-भूतोवघातिय अभिकस प्रकार की सावध-यावत्-जीवोपधातक भाषा न बोलें। - पो भाग्मा । -आ. सु. २, अ. ४, उ. २. सु. ५३५ उपक्खडे असणाइए सावज्ज भासा णिसेहो- उपस्कृत अशनादि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध२६. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं वा ८२६. साधु या साध्वी अशन–यावत् स्वादिम आहार को उबक्सडियं पेहाए तहा वि तं णो एवं वदेज्जा, ते जहा- देखकर इस प्रकार न कहे, जैसे कि-"यह आहारादि पदार्थ "सुकडे ति वा, सुठुकडे ति बा, साहकडे ति वा, कल्लाणे अच्छा बना है, या सुन्दर बना है. अच्छी तरह तैयार किया गया तिवा, करणिज्जे ति था।" एतप्पगारं भासं सावज्जं है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने (खाने) योग्य है।" -जाव-भूतोवघातियं अभिकख णो भासेम्जा। इस प्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावन-यावत--जीवोप--अ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५३७ घातक भाषा जानकर न बोले। परिवड्ढकाइए माणुस्साइए सावज्ज भासा णिसेहो- पुष्ट शरीर वाले मनुष्य आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध८२७. से भिक्ख वा भिक्खूणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा ८२७. साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, सांड, मिगं था पसु वा पक्खि वा सरीसि वा जलयरं वा सत्तं भैसे, मृग था पशु, पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को १ सुकडे त्ति सुपक्के ति, मुछिन्ने सुहढे मडे । सुनिट्ठिार सुलट्टे ति, सांवजं वज्जए मुणी ।। -दस. अ. ७, गा. ४१ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८२७-८२० गाय आदि के सम्बन्ध में सावध भाया का निषेध परिवृढकार्यं मेहाए णो एवं बवेज्जा "स्ले ति वा, पमेतिले ति वा बट्ट ति वा बज्मे ति वा पादिमे ति या" एतप्पारं भागं सामंतोप्रातियं अभिकं प्यो भासेज्जा | - आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५३९ गो आइसु सावज्ज भासा णिसेहो८२८. से भिक्लू वा भिक्खुणी या विश्वरुवाओ गाओ पहाए को एवं बवेज्जा तं जहा 'गाओ दोसा ति वा दम्मा ति वा. गोरगा ति वा वाहिमा ति या रहजोग्गा तिवा एतत्यारा सा जानवघातियं अभिनं णो भासेजमा । 1 -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४१ उज्जाणाइ सावज मासा पिसेहो२९. सेवा क्लूमी या सहेब पुराना पचपाई वनाणि वा रूला महल्ला पेहाए णो एवं बवेज्जा तं जहा "बासायजोन्गा तिवा तोरणजग्गा लिया. हि जोतिबा जिग्यता जोगति वा, गावाजगाति बा उदगदोषिलोग्गर ति था, पीठ- चंगेवरजंगल- कुलिय-जंतलट्ठी-गाभि-गंडी आसणजोग्या तिचा, सयण जाण उवस्यजग्गा तिवा " एसम्पगार मासं सावज्जं जाबभूतोधातियं अभियोज - आ. सु. २, भ. ४ . २. सु. ५४३ बनफले सावज्ज भासा जिसेहो १३४ ८३०. से भिक्खु वा भिक्खुणी वा बहुसंभूता वणफला पेहाए तहा वि ते णो एवं वेज्जा, तं जहा- 'पक्काई या पायखज्जाई वा. बेलोलियाई वा टालाई वा बेहियाई था ।' 'एतप्पगार मासावर जाव-भूतधातिय अभि को मारा। -आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५४५ चारित्राचार देखकर ऐसा न कहें कि यह स्थूल (मोटा) है. इसके शरीर में बहुत चर्बी मेद है, यह गोलमटोल है. यह व या वहन करने योनोने योग्य है. यह दाने योगा है। इस प्रकार की ) साद्य यावत् — जीवोपघातक भाषा जानकर प्रयोग न करे गाय आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध - ८२८ साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गौजाति के पशुओं को देखकर ऐसा न कहे कि ये गायें दुहने योग्य हैं. अथवा इनको दुहने का समय हो रहा है, तथा यह बैल दमन करने योग्य है, यह बुम छोटा है, या यह बहुत करने योग्य है. वृषभ वह रथ में जोतने योग्य है, इस प्रकार की सावध यावत्-जीवोपघातक भाषा जानकर प्रयोग न करे । [२२६ उद्यान आदि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध - ८२६. साधु या साध्वी feet प्रयोजनवन किन्हीं में किसी बगीचों पर्वतों पर या वनों में जाकर वहाँ बड़े-बड़े वृक्षों को देखकर ऐसे कहे कि वह वृक्ष (काटकर) कान आदि में लगाने " योग्य है, यह तोरण-नगर का मुख्य द्वार बनाने योग्य है. यह घर बनाने योग्य है यह फलका (तख्त) बनाने योग्य है, इसकी अर्गला बन सकती है, या नाव बन सकती है, पानी की बड़ी कुंडी अथवा छोटी नौका वन सकती है, अथवा यह वृक्ष-नौकी (पीठ) काप्ट मयी पात्री, हल, कुलिक, यंत्रयष्टी (कोल्हू ) नाभि कोष्ठमव अहन. काष्ठ का आसन बनाने के योग्य है अथवा काष्ठमय्या ( पलंग ) रथ आदि मान उपाश्रय आदि के निर्माण के योग्य है । इस प्रकार की सावद्य - यावत् - जीवोपवातिनी भाषा जानकर साधु न बोलें। वन- फलों के सम्बन्ध में सावद्य भाषा का निषेध १ तब मग पक्वानि. सरी िभूले बने पाइयेति म तो बए । २ तब गाओ दुज्झाओ दम्मा गोरहग लिय । वाहिमा रहजोग ति नैवं भासेज्ज पष्णवं ।। माधुया साली प्रचुर मात्रा में लगे हुए बन फलों को देखकर इस प्रकार न कहे जैसे कि - "ये फल पक गये हैं, या पराल आदि में पकाकर खाने योग्य हैं. ये पक जाने से ग्रह कालोचित फल हैं, अभी ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है. ये फल तोड़ने योग्य है या दो टुकड़े करने योग्य है ।" इस प्रकार की सावध यावत् - जीवोपघातिनी भाषा जानकर न बोले । ३ तहेव गंतुमुज्जाणं पव्क्याणि वर्णााणि य रूक्खा महल पेहाए. नेवं भासेज्ज पण्णवं ॥ अलं पानायसंभाणं तोरणरण मिहाण य। फलिहऽग्गल नावाणं असं उदगदोषिणं ॥ पीढए चंगबेरे नंगले मइयं सिया । जंतलट्टी व नाभी ना गंडिया व अलं सिया ॥ आसणं सयणं जाणं होज्जा वा किंचुवस्साए । भूभवघाइणि भासं मेवं भासज्ज पण्णत्रं ॥ ४ तहा फलाई पक्काई पायखज्जाई नो वए। बेलोइयाई टालाई बेहिमाई ति तो बए H - दस. अ. ७. मा. १२ - दस. अ. ३, गा. २४ - दस. अ. ७, नद. २६-२६ - इस. अ. ७. गा. ३२ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० परगानुयोग औषधियों के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध सूत्र ३१-८३४ ओसहिसु सावज भासा णिसेहो औषधियों के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध५३१. मे भिक्खू वा मिक्लूणी वा बहुसंभूताभो मोसहीए पहाए ६३१. माधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई ओषधियों (मेहे, तहा वि ताओ जो एवं बदेज्जा-तं जहा-''पत्रका ति या, बापत आदि के लहलहाते पौधों) को देखकर यों न कहे, जैसे णीतिया ति वा, छबीया ति घा, लाइमा ति वा, मज्जिमा कि-ये पक गई है, वा ये अभी कच्ची या हरी हैं, ये छवि ति वा. रहखज्जा ति वा।" एतप्पगारं भासं मावज्ज (फली) वाली है, ये अब काटने योग्य हैं, वे भूनने या सेकने -जाव-भूतोवधातिय अभिकख णो मामेरमा ।। मानज्जा योग्य है. इनमें बहुत-सी खाने योग्य हैं; आ विवड़ा बनाकर - आ. सु. २, अ. ४, उ.२. स. ५४७ पाने योग्य हैं। इस प्रकार की सावद्य यावत-जीवोपघातिनी भाषा जानकर न वोलें। सद्दाइसु सावज्ज भासा णिलेहो शब्दादि के सम्बन्ध में सावध भाषा का निषेध८३२. से भिखू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई सद्दाई सुणेज्जा ८३२. साधु या साध्वी यद्यपि कई शब्दों को सुनते हैं, तथापि तहा वि ताई णो एवं वदेजा-तं जहा—''सुसद्दे तिवा, उनके विषय में (राग-द्वेष युक्त भाव से) यों न कहे, जैसे किदुमति वा।" एतप्पगारं भासं साचज्ज-जाव भूतोबधातियं यह मांगलिक शब्द है. या यह अमांगलिक शब्द है। इस प्रकार अभिकल णो मासेम्जा । की नावद्य -यावत-जीवोपघातक भाषा जानकर न बोले । -आ. मु.२.अ.४.उ. २, स्.५४९ विधि-निषेध-कल्प-३ वत्त वा अवत्तब्धा य भासा कहने योग्य और नहीं कहने योग्य भाषा८३३. चण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं । ८३३. प्रज्ञावान साधु (या माध्वी) (मत्या आदि) चारों ही दोण्हं तु विणयं सिक्खे दोन भासेज्ज सस्वसो॥ 'भाषाओं को सभी प्रकार से जानकर (दो उनम) भाषाओं का शुद्ध प्रयोग (विनय) करना सीखे और (शेष) दो (अधम) भाषाओं को सर्वथा न बोते। जा य सच्चा अवत्तव्चा, सच्चामोसा य जा मुसा । तथा जो भाषा सत्य है, किन्तु (सावध या हिंसाजनक होने जाप बुद्धहिपाइण्णा, न त मासेज्ज पन्नयं ॥ रो) अवक्तव्य (बोलने योग्य नहीं) है, जो सत्या-मृषा (मिश्च) है, -दस. अ.७, गा. १-२ तथा मृषा है एवं जो (मावद्य) असत्यामृषा (ब्बबहार भाषा) है, (किन्तु) तीर्थंकरदेवों (बुद्धा) के द्वारा अनाचीर्ण है उसे भी प्रज्ञावान साधु न बोले । दाणविसाए भासा विवेगो दान सम्बन्धी भाषा-विवेक८२४. तहागिरं समारंभ अस्थि पुण्णं ति णो वदे । ८३४. (सचित्त अन्न या जल देने पर पुण्य होता है या नहीं) ऐसे अहवा गस्थि पुष्णं ति, एवमेयं महाभयं ॥ प्रश्न को सुनकर उत्तर देते हुए पृष्य होता ही है, ऐसा श्रमण न कहे, अथवा पुष्प होता ही नहीं है), ऐमा कहना भी श्रमण के लिए महाभवदायक है। दाणटुयाए जे पाणा, हम्मति तस-यावरा। क्योंकि सचित्त अन या जल देने में जो वस और स्थावर तेमि सारपसणट्टाए, तम्हा अस्थि त्ति को वए । प्राणी मारे जाते हैं, अतः उनकी रक्षा के लिए पूण्य होता ही है, ऐमा भी श्रमण न कहे। जेसि त उवकति, मण्ण-पाणं तहाविह। जिन प्राणियों को सचित्त अन्न-पानी दिया जा रहा है उनके तेसि सामंसराय ति, तम्हा गस्थितिणी व ॥ लाभ में अन्तराय न हो इसलिए पुण्य होता ही नहीं है, यह भी साधु न कहे। १ तहोसहीओ एक्कामओ नीलियाओ छनी इय। लाइमा भग्जिमाओ ति पिखजति नो वए ।। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८३४-८३८ अहितकारो भाषा विवेक चारित्राचार [५३१ जे य वाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जो दान (सवित्त पदार्थों के आरम्भ से जन्य वस्तुओं के जे यणं पडिसेहति, वित्तिच्छेयं करेंति ते ॥ दान) की प्रशंसा करते हैं वे प्राणिवध की इच्छा करते हैं, जो दान का निषेध करते हैं, वे अनेक जीवों को वृत्ति का छेदन (जीविका भंग) करते हैं। वजओ वि से पभासंति, अस्थि वा नत्यि वा पुणो । साधु उक्त (सचिन पदार्थों के आरम्भ में जन्य वस्तुओं के) अयं रयस्स हेचचाणं, णिवाणं पाउणति है। दान में पुष्य होता है या नहीं होता है, ये दोनों बाों नहीं कहते -सूग. सु. १. अ. ११. गा. १७-२१ हैं। इस प्रकार कर्मों के आगमन (आस्त्रव) को त्याग कर वे साधु निर्वाण-मोक्ष को प्राप्त करते हैं । अहियगारिणी भासा विवेगो अहितकारी भाषा विवेक - ५३५. अपुच्छिओ न भासेम्जा, भासमाणस्स अंतरा। ८३५. संयमी साधक बिना पूर्ण उत्तर न दे, दुनरों के बोलने के पिट्टिमंस न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए॥ बीच में बात काट कर न बोले, पीठ पीछे किसी की निन्दा न करे हा बोलने में मागामार असत्य को बिलकुल न आने दे। अप्पसियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो। जिस भाण के बोलने से दूसरे को अविश्वास पैदा हो अथवा सम्वसो तं न भासेज्जा, भास अहिणणामिणिं ।। दूसरे जन ऋद्ध हो जायें, जिससे किसी का अहित होता हो ऐसी भाषा साधु न बोले। विटु' मियं असंदिसंपरिपुण्णं वियं जियं । आत्मार्थी साधक, जिस वस्तु को जैसी देखी हो वैसी ही अयं पिरमविर्ग, मासं निसिर अत्तव्वं । परिमित, संदेहरहित, पूर्ण, स्पष्ट एवं अनुभवयुक्त वाणी में बोले । यह वाणी भी वाचालता एवं परदुःखकारी भाव से रहित होनी चाहिये । आयारपण्णत्तिधरं. दिट्टिवायमहिज्जगं । आचार प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को बइविक्खलियं गच्चा, नतं उबहसे मुणी ॥ पढ़ने वाला मुनि भी यदि प्रमादव बोलने में स्खलित हो जाए –रस. अ. ८, गा, ४६-४६ तो यह जानकर मुनि उपहास न करे। साहविसए भासायिवेगो साधु के सम्बन्ध में भाषा विवेक८३६. बर्वे इमे असाहू. लोए बुच्चंति साहुणो। ८३६. ये अनेक असाधु जन-साधारण में साधु कहलाते है । मुनि न लवे असाहू साटुंति, साहुं साहुं ति आलवे ।। असाधु को साधु न बाहे. जो साधु हो उसी को साधु कहे। नाणसणसंपन्न, संजमे य तवे रयं । ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत-इस एवं गुणसमाउत्त, संजय साहुमालवे ॥ प्रकार गुण-समायुक्त संयमी को ही साधु कहे । --दस. अ. ७, गा. ४८-४६ संखडी आइसु भासा दिवेगो संखडि आदि के सम्बन्ध में भाषा विवेक८३७. तहेव संखजि नच्चा. किच्चं कर्ज ति नो वए। ८३७. (इसी प्रकार) दयातु साधु संत्रडी (जीमनवार) और तेणगे या वि बम त्ति, सुतित्थे ति य आवगा ॥ कृत्य-मृतभोज को जानकर-ये करणीय हैं, चोर मारने योग्य है, और नदी अच्छी तरह से तरने योग्य अथवा अच्छे पाट वाली है-इस प्रकार कहे। संखडि संखडि बया, पणियटुंति तेणगं । (प्रयोजनवश कहना हो तो) संखड़ी को संखड़ी. चोर को बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं वियागरे । पणितार्थ (धन के लिए जीवन की बाजी लगाने वाला) और -दस. अ. ७, गा. ३६-३७ ।। 'नदी के घाट प्रायः सम है"-इस प्रकार कहा जा सकता है। गईस भासा विवेगो नदियों के सम्बन्ध में भाषा-विवेक५३८. तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज ति नो वए। ८३८. तथा नदिया जल से भरी हुई हैं, शरीर से तिरकर पार नावाहि तारिमाओ ति, पाणिपेजज सि नो सए। करने योग्य हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे हुए प्राणी उनका जल पी सकते है-इस प्रकार न कहे। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२] चरणानुयोग क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में भाषा-विवेक सूत्र ८२८.४१ अहवाहडा अगाहा. बहुसलिप्पिलोदया। (योजनबश कहना हो तो) (नदियाँ) जन से प्रायः भरी यहवित्योदगा पावि, एवं भासेज पनव। हुई हैं, प्रायः अगाध है, बहु-सलिला हैं. दुसरी नदियों के द्वारा -दस. १७, मा. ३०-३६ जन का वेग चढ़ रहा है। बहुत विस्तीर्ण जल वाली है-प्रशा वान भिक्षु इस प्रकार कहे। कयविक्कए भासा विवेगो क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में भाषा विवेक८३६. सध्युक्कसं परम्धं वा, अउलं नस्थि एरिसं । ३६. (क्य-विक्रय के प्रसंग में) ग्रह वस्तु गर्योत्कृष्ट है, यह अचपिकयमवत्तव्वयं, अवितं चैव नो थए । बहमूल्य है यह तुलनारहित है, इसके ममान दुसरी कोई वस्तु नहीं है. इसका मोल' करना शपय नहीं है इसकी विशेषता नहीं कही जा सकती है, वह अचिन्त्य है- इस प्रकार न कहें ।। सस्वमेयं वहस्सामि, सम्वमेयं ति नो वए। (कोई सन्देश कहलाए तब ) 'मैं यह सब कह दूंगा', (किसी अणवीइ मनं सन्चत्व, एवं भासेञ्ज पन्नवं ।। का मन्देश देता हुआ (यह पूर्ण है) अविकल या ज्यों का त्यों है), इस प्रकार न कहे। मब प्रमंगों में पूर्वोक मब बनन-विधियों का अनुचिन्तन कर प्रज्ञावान मुनि बसे बाले (जमे कर्मबन्ध सुक्कीयं वा सुविक्कीयं. अकेज्ज केज्जमेव वा । विक्रया की हुई वस्तु के बारे में (यह माल) अच्छा इम गैह इमं मुंच, पणियं नो वियागरे । खरीदा (बहुन सम्ता आया) (यह माल), अच्छा बेचा (बहुत नफा हुआ), यह बेचने योग्य नहीं है, यह बेचने योग्य है, इस माल को ले (यह मंहगा होने वाला है). इस माल को बेन डाल (यह ना होने वाला है)-इस प्रकार न कहे। अप्पर वा महग्घे वा, कए वा विश्कए विवा। अपमुल्य या बहुमूल्य माल के नेने या बेचने के प्रसंग में पणिय? समुप्पन्ने, अणवजं वियागरे । मुनि अगवद्य वचन बोले-ऋय-विक्रय से विरत मुनियों का इस --दम. अ. ७, गा, ४३-४६ विषय में कोई अधिकारी नहीं है, दम प्रकार कहें । भाषा समिति के प्रायश्चित्त-४ अप्पफरुसवयगरस पायच्छित्तसुतं८४०. जे भिक्खू लहसगं फरस बयइ, वयंत वा साइजा। तं सेवमाणे आवन्जन मासियं परिहारदाणं अणग्याइयं । -नि. ३. २, सु. १८ आगाढाइवयणस्त पायच्छित्तसुलं८४१. जे भिक्खू भिक्खू भागावं वयह बयंतं वा साइज्मइ । अल्प कठोर वचन कहने का प्रायश्चित्त सूत्र८४०. जोभिक्षु अल्प कठार वचन कहता है, कहलवाता है, या कहने वाले का अनुमोदन करता है। उसे मामिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिन) आता है। आगाहादि वचनों के प्रायश्चित्त मूत्र८४१. जो भिक्षु भिक्षु को अपशब्द कहना है, कहलवाता है. कहने के लिए अनुमोदन करता है। जो भिल भिक्षु को कठोर शब्द कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु भिक्षु को अपशब्द और कठोर शब्द कहता है, बाहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जे भिक्खू मिक्खू फरुसं वयह अयंत मा साइज्जइ । जे भिक्खू मिक्खू नागाह-फहसं वय वयंत या साइन्जद। तं सेवमाने बावजह चाउम्मासियं परिहारदाचं उग्याइय। -नि. उ, १५, सु. १-३ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४२-८४३ एषणा समिति चारित्राचार : एषणा समिति [५३३ एषणा समिति-१ एसणा समिह एषणा समिति - ८४२. पिसेरजं च वायं च, चउत्थं पायमेव य। ८४२. माधु या साध्वी अकल्पनीय पिण्ट (आहार) शय्या (वसति अम्पियं न इच्छेना, पडिम्गाहेज कम्पियं ।। उपाश्रय या धर्मस्थानक) वस्त्र (इम सीन) और चौथे पात्र को --दम. अ. ६, मा. ४७ ग्रहण करने की इच्छा न करे, ये कल्पनीय हो तो ग्रहण करे । पिडषणा-स्वरूप एवं प्रकार-२ सव्वदोसविप्पमुक्कआहारसरूवं सरोगमुक्त हार का - ८४३. ५०-अहले ! सस्थातीतस्स सस्यपरिणानितस्स एसियस ८४३. प्र. भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, वेनियस्स सामुदाजियस्स पाणमोषणस्स के अ? पण्णते ? वेपित नया मामुदानिक भिक्षारूप पान-भोजन का क्या अर्थ कहा गया है? उ.-गोयमा ! जे गं जिग्गथे वा णिगंथी वा निक्षित उ०-गौतम ! जो निग्रन्थ या निन्दी शस्त्र और मुमलादि सत्यमुसले वनगतमाला वण्णगविलेवणे घवगत-चुय-चइय- का त्याग किये हुए हैं, पुष्पमाला, वर्णक और विलेपन के त्यागी चत्तदेहं जीवविप्पजद अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूत- हैं, देय वस्तु आगंतृक जीवों से रहित है. स्वतः परतः च्यवन मकीतकारमादिटुनवकोडोपरिसुद्ध' वसवोसविप्पमुक्क उग्ग- और देह त्यागने से जीव रहित है, अर्थात् अचित्त है तथा जो मउपायणेसणासु परिमुख' बीतिगालं बोतधूमं संजोयणादोस- माधु के लिए न बनाये हुए. न बनवाये हुए, अमंकल्पित. अनिविष्पमुक्कं असुरसुरं अचवचवं अतमविलंबित अपरिसाडि मंत्रित. साध के लिए न ख़रीदे हुए, न बनाये हुए, नव कोटि अक्खोवंजण-वणाणुलेबणभूतं संयमजातामायावत्तिय संजममार- विशुद्ध, दस प्रकार के दोषों से रहित उद्गम उत्पादन एवं एपणा वहणयाए बिलमिव पन्नगभूएणं अपागंणं आहारमाहारेति। सम्बन्धी दोषों से सर्वथा रहित, अंगार, धूम, संयोजना दोष रहित, सुड-मुड़ न करते हुए, चपचप न करते हुए, न जल्दीजल्दी, न बहुत धीरे-धीर, इधर-उधर न बिखेरते हुए गाड़ी की धरी ने अंजन अथवा घाव पर लेपन करने के समान, केवल संयम यात्रा के निर्वाह के लिए मर्यादा युक्त संयम के भार को वहन करने के लिए, जैसे सांप सीधा बिन में प्रवेश करता है उमी प्रकार सीधा गले के भीवर उतारते हुए आहार करता है। एस गोयमा] सस्थातीतस्स सस्थपरिणामितस्स-जाव- मौतम ! यही शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित-यावत्-पान पाण-मोयणस्स अट्ठपण्णते। भोजन का अर्थ कहा गया है। –वि. म. ७, उ. १, मु.२० १ ठाणं अ... सु.६८१ २ १. संकिय, २. मरिचय, ३ निखित्त, ४. पिहय, ५. साहरिय, ६-७. दायगुम्मीमे, ८. अपरिणय, १. लित्त, १०.छड्डिय, एसण दोमा दस हवंति ।। -पिण्डनियुक्ति० गा० ५२० ३ तिविद्दा विसोही पण्णत्वा तं जहा–१. उगमबिसोही, २. उप्णायणविसोही, ३. एसणाविसोही।-ठाणं. अ. ३. उ. ४, सु. १६८ ४ वि. स. ७. उ. १. मु. १८ ५ (क) अकयमका रियमणा हूयमदिळं अकोयकर्ड गवहि य कोडिहिं सुपरिसुदं। दसहि य दोसेहि-विप्पमुक्क, उग्गम-उपायणेसणासुद्धं, यवगयच्यचाविश्चतदेहं च फासुर्य । -प. मु. २, अ. १, सु.५ प्र. अह केरिसयं पुणाद कप्पइ ? (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] चरणानुयोग १. तयक्वायसमाणे, २.. २. मार्ग, ४. सारक्वायसमार्ण । १. तयवसायमाणस्स में भिवखागस्स सारवला यसमागे तवे पण्णत्ते । २. सारखायमाणस्स णं भिक्खागस्स तयवसायसमाणे तवे पण ते । ३. तवे पण ते । समास णं भिक्वागस्स स्क्वासमा ४. कटुक्खायमाणस्स णं निश्वागस्व छल्लित्वायसमाणे तवे पण्णत्ते । - ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २४३ भिखावित्तिणाभिमण्डोमा ८५१. चत्तारि मच्छा पण्णत्ता, तं जहा१. अनुसोयचारी, २. पोवारी ३. अतवारी, ४. मारी। एवमेव चारि भिक्खागा पण्णत्सर, तं १. अनुसोयचारी, २. पडिसोपचारी भिक्षावृत्ति के निमित्त से भिक्षु को मस्य को उपमा २.तवारी, ४. मज्झचारी । जहा जहा - १. वित्तानामयेगे जो परिवदसा, भक्तावित्तिणाभिरसविगोषमा ८५२. सारी पक्खी पण्णत्ता, तं (१) त्वक्-खाइ - समान नीरस, रूक्ष, अन्त प्रान्त आहार भोजी साधु । (२) छल्ली - बाद- समान = अलग. आहार भांजी साधु । (२) समान दूध दही मृतादि से रोहत (विगगरहित) आहार भोजी सर सूत्र ८५०-८५१ (८) सार-खाद- समान = दूध, दही, घृतादि से परिपूर्ण आहार मोजी साधु | (१) स्व-खाद समान भिक्षुक का तप सारखादघुण के समान कहा गया है । (२) सार-स्वाद समान भिक्षुक का तप त्वक् खाद-धुण के समान कहा गया है। (३) छल्ली खाद - समान भिक्षुक का तप काष्ठ- खाद घृण के समान कहा गया है। (४) काष्ठ-वाद समान भिक्षुक का तप मल्ली-साद घुण के समान कहा गया है। 412 भिक्षावृत्ति के निमित्त से भिक्षु को मत्स्य की उपमा८५१. मत्स्य चार प्रकार के कहे गये है। जैसे(१) अनुत्रतवारी प्रवाह के अनुकूल मत्स्य (२) प्रतिवारी जलवाह के प्रति चलने वाला मत्स्व । (३) अन्तचारी जल प्रवाह के किनारे किनारे चलते वाला मत्स्य | (४) मध्यचारी - जलप्रवाह के मध्य में चलने वाला मत्स्य । ठा. अ. ४, उ. ४, सु. ३५० भिक्षा लेने वाला | इसी प्रकार भिक्षु भी चार प्रकार के कहे गये हैं जैसेअनुवोतचारी उपाश्रय से लगाकर सीधी गली में स्थित बरों से भिक्षा लेने वाला । (२) प्रतिस्रोतारी - गली के अन्त से लगाकर उपाश्रय तक स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला । (३) अन्तचारी नगर ग्रामादि के अन्त भाग में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला । (४) मध्यचारी - नगर यामादि के मध्य में स्थित घरों से भिक्षावृत्ति के निमित्त से भिक्षु को पक्षो की उपमा८५२. पक्षी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे— (१) निपतिता न परिवर्तिताको पक्षी अपने पोसने से नीचे उतर सकता है, किन्तु (बच्चा होने से ) उड़ नहीं सकता। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८५२८५४ चार प्रकार के आहार चारित्राचार : एषणा समिति ५३७ - - - - . २. परिबक्ता माममा पो गतिता, . (२) परिवजिता, न निपतिता--कोई पक्षी अपने घोंसले से उड़ सकता है, किन्तु (भीरु होने से) नीचे नहीं उतर सकता । ३. एगे णितिसा वि परिषइत्साधि, (३) निपतिता भी, परिव्रमिता भी - कोई समर्थ पक्षी अपने घोंसले से नीचे भी उड़ सकता है और ऊपर भी उड़ मकता है। ४. एगे णो णिपतित्ता गो परिवइस्ता, (४) न निपतिता, न परिवनिता- कोई पक्षी (अतीव बाल्यावस्था होने के कारण) अपने घोंसले से न नीचे उतर सकता है और न ऊपर ही उड़ सकता है। एवामेय चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा - इसी प्रकार भिक्षु भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे - १. णिवतित्ता णाममेगे णो परिवाइसा, (१) निपतिता, न परिवजिता-कोई भिक्षु भिक्षा के लिए निकलता है, किन्तु रुग्ण आदि होने के कारण अधिक धूम नहीं सकता। २. परिवइत्ता णाममेगे जो णिवतित्ता, (२) परिवजिता, न निपतिता–कोई भिक्षु भिक्षा के लिए घूम सकता है, किन्तु स्वाध्यायादि में संलग्न रहने से भिक्षा के लिए नि ल नहीं सकता। ३. एगे णिवतिता वि परिवत्ता वि, (३) निपतिता मी, परिजिता भी कोई समर्थ भिक्षक भिक्षा के लिए निकलता भी है और घूमता भी है। ४. एगे जो णिवतित्ता णो परिवइत्ता। (४) न निपतिता, न परिवजिता - कोई नवदीक्षित अल्प-ठाणं.. ४.उ. ४, सु. ३५२ वयस्क भिक्षुक न भिक्षा के लिए निकलता है और न घमता चउविहो आहारो५३. मणुस्साणं चउबिहे आहारे पलते, तं जहा१. असणे, २. पाणे, ३. खाहमे, ४. साइमे ।' चविहे आहारे पन्नते, जहा१. उबक्खरसंपन्ने, चार प्रकार के आहार-- ८५३. मनुष्यों का आहार चार प्रकार का होता है (१) अशन-अन्न आदि, (२) पान-पानी, (३) खादिम-फल, मेवा आदि, (४) स्वादिम-ताम्बूल, लवंग इलायची आदि। आहार चार प्रकार का कहा गया है, जैसे (१) उपस्कार-सम्मन्न -अधार से युक्त मसाले डालकर छोंका हुआ, (२) उपस्कृत-सम्पन्न-पकाया हुआ भात आदि, (३) स्वभाव-सम्पन्न -स्वभाव से पका हुआ फल आदि, (४) पर्युषित-सम्पन्न-रातवासी रखने से जो तैयार हो । २ उबक्खडसंपन्ने, ३. सभावसंपन्ने ४. परिजुसितसंपन्ने। -ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २९५ तिविहो आहारो८५४ तिविहे उवहजे पण्णते, तं जहा तीन प्रकार का आहार८५४. उपहृत (खाने के लिए लाया गया) आहार तीन प्रकार का माना गया है, यथा १ ठाणं. अ. ४, उ.४, सु. ३४०, Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८] परगानुयोग अवगृहीत आहार के प्रकार सूत्र ६५४-८५८ १. फलिओयहरे, (१) फलितोपहृत-अनेक प्रकार के व्यंजनों से या खाद्य पदार्थो से मिथित आहार। २. सुखोवहरे, (२) शुद्धोपहृत - व्यंजन रहित शुद्ध आहार अथवा कांजी या पानी के अल्पलेप से लिप्त आहार । ३. संसट्ठोषहां।' (३) संसृष्टोपहत-गृहस्थ में खाने की इच्छा से आहार --ठाणं. अ. ३, उ, ३. सु. १७८ हाथ में लिया है किन्तु मुंह में नहीं रखा है-ऐसा आहार । ओग्गहियआहारप्पयारा अवगृहीत आहार के प्रकार८५५. तिविहे ओग्गहिए पण्णते, तं जहा ८५५. अवगृहीत (परोसने के लिए रसोईघर या कोठार से निकाला हुआ) आहार तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१.जंच ओगिण्हा, (१) परोसने के लिए ग्रहण किया हुआ । २. नंच साहाह. (२) परोसने के लिए ले जाता हुआ। ३. जंच आससि पक्खिवइ ।' एमे एपमाहंसु । (३) वर्तन के मुख में डाला जाता हुआ। कुछ आचार्य ऐसा कहते हैं। एगे पुण एवमाहंसु । परन्तु कुछ आचार्य ऐसा भी कहते हैं - बुविहे ओग्गहिए पण्णते, तं जहा अवगृहीत आहार दो प्रकार का है, यथा१. जंच ओरिहा (१) परोसने के लिए ग्रहण किया जाता हुआ। २. जंच आसंगसि पक्खिवइ । (२) पुनः बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ । -बब, उ. ६. मु. ४६ णबविगईओ--- विगय विकृति के नौ प्रकार८५६. णव विगतीतो पन्नताओ, त जहा ८५६. नौ विकृतियाँ कही गई है.--- १. खोरं, २. दधि, ३. गवणीतं, ४, सप्पि, ५. तेल्ल, (१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत (मम्खन), (४) वी, ६. गुसो, ७. महुं, ८. मज्जं, ६. मंसं । (५) तेल, (६) गुड़, (७) मधु, (८) मध, (६) माँस । -ठाणं. अ., सु. ६७४ अपणायविगईणप्पगारा विगय के अन्य प्रकार८५७. पत्तारि गोरलविगतीओ पन्नताओ, सं जहा ८५७, गोरसमय विकृतियाँ चार हैखीर, वहि, सप्पि, गवणीतं । (१) दुध, (२) दही, (३) घेत, (४) नवनीत । चप्तारि सिविगतीओ पन्नत्ताओ,तं जहा स्नेह (चिकनाई) मय विकृतियाँ चार हैंतेल्लं, घ, वसा, णवणोतं । (१) तैल, (२) घृत (३) बसा, (४) नवनीत । चत्तारि महाविगतीओ पनत्ताओ, तं जहा--- महाबिकुतियां चार हैमई, मसं, मज, गवणीतं । (१) मधु, (२) मांस, (३) मद्य, (४) नवनीत । -ठाणं, अ., ज.१, सु. २७४ तिविहा एसणा८५८, गवेसणाए गहणे य, परिभोगेसणा व जा। आहारोहि सेज्जाए, एए तिति विसोहर ।। तीन प्रकार की एषणा८५६. आहार, उपधि और शय्या के विषय में गवेषणा, ग्रहणेषणा और परिभोगेषणा इन तीनों का विशोधन करे । १ व.उ.६, सु. ४५ २ ठाणं. अ. ३, उ.३, सु. १८८ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८-८६१ नौ प्रकार की शुबमिक्षा पारित्राचार : एषणा समिति [५३६ उम्गमुप्पयाणं पढमे, बोए सोहेम्ज एसणं । वतार शिशुपाने सनथम उनम और उत्पादन परिमार्थमि पउपक, विसोहेज जय जई॥ दोनों के १६-१६ दोषों का शोधन करे । दूसरे में एषणा के १० दोषों का शोधन करे। फिर परिभोगेषणा के दोष-चतुष्क (संयोजना, अप्रमाण, -उत्त. अ. २४, गा. ११-१२ अंगारधूम और कारण) का शोधन कर आहार करे । नवविहा सुद्धभिक्खा नौ प्रकार की शद्ध भिक्षा५६. समगेणं भगवता महावीरेणं समणरणं निरगंयाणं णवकोकि- ८५६. श्रमण भगवान महाबीर ने श्रमण निग्रन्थों के लिए नौ परिसुळे भिक्खे पण्णते, तं जहा कोटि परिशुद्ध भिक्षा का निरूपण किया है। जैसे-- १. न हद (१) हिंसा नहीं करता है, २. न हणावड, (२) हिंसा नहीं करवाता है, ३, हणतं नाणुजागह। (३) हिंसा करने वाले का अनुमोदन नहीं करता है। ४. ने पयह (४) पकाता नहीं है, ५. न पयापेइ, (५) पकवाता नहीं है। ६. पयंत नागुजाणइ। (६) पकाने वाले का अनुमोदन नहीं करता है। ७. न किगड, (७) खरीदता नहीं है, ८. न किणावेह, (८) खरीदवाता नहीं है, ६. किणतं नाणुमागइ।। (६) स्वरीदने वाले का अनुमोदन नहीं करता है। --ठाणं, अ. ६, सु.६८१ आहारपायणिसेहो माहार-पाचन का निषेध८६.. तहेव भत्त-पाणसु, पयर्ग पयावर्गसु य । ८६०. भक्त-पान के पकाने और पकवाने में हिंसा होती है, अतः पाण-भूयदयटाए, न प्ये न पयायए ॥ प्राण, भूत, जीव और सत्व की दया के लिए भिक्षु न पकाए और न पकवाए। जल-धमनिस्सया मौवा, पुढयो-कट्ठनिस्सिया। भक्त और पान के पकाने और पकवाने में जल और धान्य हम्मन्ति प्रत्तपाणेसु, तम्हा मिक्खू न पयावए । के आश्रित तथा पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का हनन -उस. अ. ३५, गा. १०-११ होता है, इसलिए भिक्षु न पकाए न पकवाए । छश्विहा गोयरिया-- छह प्रकार की गोचरी - २६१. छबिहा गोवरचरिया पग्णता, तं जहा ८६१. छह प्रकार की गोचरचर्या कही गई है, यथा१. पेडा, (१) पेटा-चोकोर पेटिका के आकार से घूमते हुए दिशाओं में भिक्षाचर्या करना। २. अबपेडा, (२) अर्धपेटा--अर्द्ध पेटिका के आकार के दो दिशाओं में भिक्षाचर्या करना। ३. गोमुत्तिया, (३) गोमूत्रिका-बैल के मुत्रोत्सर्ग के समान एक इस पंक्ति के घर में और एक सामने वाली पंक्ति के घर में इस क्रम से भिक्षाचर्या करना। ४. पतंगविहिया, (४) पतंगवीयिका-पतंगिये के फुदकने के समान बिना किसी क्रम के भिक्षापर्या करना । ५. संयुक्कसट्टा, (५) शंबुकावर्ता--- शंख के आवतों की तरह घूमते हये भिशाचर्या करना। १ आ. सु. १,अ. २,, ५, सु.८६ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४०] घरणानुयोग शुद्ध आहार को गवेषणा परिमोगेषणा सूत्र ८६१-६६२ ६. गंतुं पच्चामता। (६) गत्वाप्रत्यागता-एक गृहपंक्ति के अन्तिम घर तक -ठाणं. अ. ६, सु. ५१४ जाकर वापिस आते हुए ही भिक्षाचर्या करना । U0 गवेषणा-३ सुद्ध आहारस्स गवेसणाए-परिभोगेसणाए य उवएसो- शुद्ध आहार की गवेषणा और उपभोग का उपदेश८६२. एसणा समिओ सज्जू, मामे अणियओ परे। ८६२. एषणा समिति के उपयोग में तत्पर लज्जावान् राघु गांवों अप्पमत्तो पमहि, पिंडवायं गवेसए । आदि में नियत निवास रहित होकर विचरण करे । अप्रमादी --उत्त. भ. ६, गा. १६ रहकर वह गृहस्थों से आहार आदि को गवेषणा करे । सुसणाओ नरचागं, तत्य ठवेज्ज भिक्खू अरमागं । भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जानकर अपने आप को उनमें जापाए घासमेसेज्जा, रसगिन सिया भिक्खाए । स्थापित करे अर्थात् उनके अनुसार प्रवृत्ति करे तथा संयम यात्रा के लिए आहार की गवेषणा करे किन्तु रसों में मूच्छित न बने । पन्ताणि चेव सेरेमा, सीयपिपड पुराणकुम्मास । भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्रायः रसहीन, भीतल आहार, अनु गुपकसं पुलागं वा, जवणट्टाए निसेवए मंथू ॥ पुराने उड़द के बाकले, सारहीन, रूखा आहार और बेर का चूर्ण -उत्त. अ. ६, गा. ११-१२ आदि पदार्थों का सेवन करे।। परिवाए न चिटुंग्णा, भिक्खू यत्तेसणं चरे। भिक्षु गृहस्थ के घर (पंक्ति) में खड़ा न रहे, गृहस्थ के द्वारा पतिकोण एसित्ता, मियं कालेग भपखए । दिए हुए आहार की एषणा करे, मुनि के वेष में एषणा कर यथा उत्त, अ. १, गा. ३२ समय परिमित आहार करे। भिक्खू मुयध्या तह विदुधम्मे, मृत के समान सर्वथा उपगान्त, आत्मधर्मदर्ती भिक्षु ग्राम गाम व गरं च अणुप्पविस्स। या नगर में प्रवेश करके एषणीय-अनैषणीय को जानता हा मे एसर्ण जाणमगेसणं च, अशन पान में आसक्त न हो। अण्णस्स पाणस अणाणुगिटे ।। --सूय. सु. १, अ. १३, गा. १७ कडेसु घासमेसेक्जा, विऊ बलेसणं घरे।। विद्वान् भिक्षु गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत आहार की अगि विष्पमुक्को य, ओमाणं परिवजए। याचना करे और प्रदत्त आहार का भोजन करे। वह आहार में -सूय. सु. १, अ.१, उ. ४, गा. ४ अनासक्त और रागद्वेष रहित होकर अन्य का अवमान (तिरस्कार) करने का वर्जन करे। संबुद्ध से महापण्णे, धोरे यत्तेसणं चरे। यह साधु महान् प्राज, अत्यन्त धीर और संवृत है, जो एसगासमिए णिच्च, वज्जयते अणेसम् ॥ गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि पदार्थ ग्रहण करता —सूय. सु. १, अ.११. मा. १३ है तथा जो अनेषणीय आहारादि को वजित करता हुआ सदा एषणा समिति से युक्त रहता है। १ (क) दसा. ६.७, सु. ६१ (ख) अदुबिह गोयरगंतु-उत्त. अ.१०, गा. २५ । इस गाथा की टीका में गांचवे भेद के दो उपभेद कहे गप्रे हैं-बाह्य संबुकावर्त और आभ्यंतर शम्बुकावतं । इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं और आठवाँ ऋजुगति कहा गया है। ये आठ गोचराग के प्रकार गिनाये गये है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सध८६२-८६५ सामुदानिको भिक्षा का विधान चारित्राचार : एषणा समिति [५४१ सिक्खऊण भिरखेसणसोहि संजयाण बुद्धाणं सगासे। तीर्थकर या साधुओं से भिक्षा की एषणा शुद्धि को जानकर तस्य भिक्खू सुम्पणिहिदिए, तिव्य लज्ज गुणवं विहरेज्जासि ॥ भिक्षु सभी इन्द्रियों से उपयुक्त होकर उत्कृष्ट संयम गुणों को -दम. अ. ५, उ.२, गा, ५० धारण करके विचरे ।। लाभो ति ण मज्जेज्जा, मलामो ति ण सोएज्जा, इच्छित आहारादि प्राप्त होने पर उसका मद न करे । यदि बई पि लाग मिहे । प्रात न हो तो खेद न करे । यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो तो -आ० सु० १,०२, उ०५. सु. ५६ (क) उसका संग्रह न करे।। सामुदाणिगी भिक्खा विहाणं सामुदानिकी भिक्षा का विधान८६३. समुयाणं चरे भिक्खू, कुलं उच्चाययं सया। ५६३. भिक्षु सदा उच्च और नीच सभी कुलसमुदाय में भिक्षा नीय कुलमहम्म. ऊसकं नाभिधारए ॥ लेने जाए, नीचे कुल को छोड़कर उच्च कुल में न जाए । -दस. अ. ५, उ. २, गा. २५ अन्नायउँछ चरई विसुद्ध, जवणटुया समुयाणं च निन्न । जो जीवन-यापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक अज्ञात-कुलों अलनुयं नो परिक्षेवएज्जा ल न बिकत्थयई स पुज्जो ॥ मे भिक्षाचर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खिन्न नहीं होता - दस. अ. ६, उ. ३, गा. ४ है, मिलने पर श्लाघा नहीं करता है, वह पूज्य है। सनुयाण उछमेसिमा, जहासुसमागावय। मुनि सूत्रानुसार अनिन्दित और उछ-अज्ञात कुलसमुदाय से साभालामम्मि संतुह, पिण्डवार्य घरे मुणी ।। एषणा करे व लाभ और अलाभ' में सन्तुष्ट रहकर आहार -उत्त. अ.३५, गा, १६ आदि की गवेषणा करे । एसणा कुसलो भिक्खू एषणा कुशल भिक्षु८६४. जे संणिधाणसत्थस्स खेसणे, ८६४. जो सम्यग् संयम विधि का ज्ञाता है । वह भिक्षुसे भिक्खू कालण्णे, काल-करणीयकृत्य के काल को जानने वाला, बलराणे, बला-आत्मबल को जानने वाला, मातणे, मात्रा--ग्राह्य वस्तु की मात्रा को जानने वाला, खेयाणे, खेवज-जन्म-जरा-रोगादि से होने वाली खिग्रता को जानने वाला, खणयवणे, क्षणश-भिभाचर्या के अवसर को जानने वाला, विणयपणे, विनयज-ज्ञान-दर्शन-नारित्र के स्वरूप को जानने वाला, ससमय-परसमयपणे, स्वसमय-परसमयज्ञ---म्ब-पर सिद्धान्त को जानने वाला. भावणे, भावज्ञ-भिक्षा देने वाले के मनोभाव को जानने वाला, परिगह अममायमाणे, परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, उचित समय पर कालेष्ट्ठाई, अनुष्ठान करने वाला और अधतिज्ञ (भोजन के प्रति संकल्प अपडिपणे दुहतो छित्तो णियाति । रहित) हो—बह दोनों बन्धनों (राम और द्वेष) को छेदन -आ.सु.१, अ., उ.३, सु. २१० करके संयम जीवन से जीता है। भिक्खुस्स गवेसणाविही भिक्षु की गवेषणा विधि८६५. जमिण विरूबरूवे हि सस्थेहि लोगस्स कम्भसमारंभा कज्जति, ८६५. असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों से लोक के लिए तं जहा - (अपने एवं दूसरों के लिए) कर्म समारम्भ (पचन-पाचन आदि प्रिया) करते हैं । जैसे १ आ. सु. १, अ २, उ. ५, मु. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२] वरणानुयोग आहार-उद्गम-गवेषणा सत्र ८६५-८६८ अप्पणो से पुत्ताणं, धूयाणं. सुण्हाणं गातीणं, अपने लिए पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधू, शानिजन, छाय, राजा, थातीणं, राईण, वासाण, दासीणं, कम्मकराणं, कम्मकरीणं दारा, दासी, कर्म करने वाले एवं कर्म करने वाली के लिए आदेसाए पुढो पहेणाए सामासाए) पातरासाए संणिहि- पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं संणित्रयो कज्जति, इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। सायंकालीन एवं प्रातःकालीन भोजन के लिए इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए (दूध, दही आदि पदार्थों का संग्रह) और सन्निनय (चीनी, घृत आदि पदार्थों का गंग्रह) करते रहते हैं। समुट्टिते अणगारे आरिए आरियपणे आरियरंसी अयं संधी संयम-साधना में तत्पर आर्य, आयंप्रज्ञ और आर्यदर्शी त्ति अदक्खु। अनगार भिक्षा आदि प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। से जाइए, पाइआवए, न समणुजाणए। वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करे । सवामगंधं परिणाय णिरामगंधे परिध्वए। बह अनगार सब प्रकार के आमगर (अकल्पनीय आहार) -आ. मु. १, अ. २, उ. ५, सु. ८७-८५ का परिवर्जन करता हुआ निर्दोष आहार के लिए गमन करे। आहार उग्गम-गवेसणा--- आहार-उद्गम-गवेषणा८६६. उग्गम से य पुच्छिज्जा, कस्सट्ठा ? केण वा कडं?। ८६६. आहार किसके लिए बनाया है? किसने बनाया है? सोरुचा निस्संकियं सुद्ध, पडिगाहेज्ज संजए॥ संयत इस प्रकार आहार का उद्गम पूछे। दाता से प्रश्न का -दस. अ. ५, उ. १, गा. ७१ उत्तर सुनकर और निःशंकित होकर गुद्ध आहार ले । सयण-परिजण गिहे गमण विहि णिसेहो स्वजन-परिजन-गृह में जाने के विधि-निषेध८६७. मिक्खू य इछेज्जा नायविहिं एत्तए, ८६७. भिक्षु या भिक्षुणी यदि स्वजनों के घर जाना चाहे तोनो से कप्पड थेरे अणापुरिछत्ता नायविहि एसए। स्थविरों को पूछे बिना स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। कप्पह से मेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए। स्थविरों को पूछकर स्वजनों के घर जाना कल्पता है। घेरा य से वियरेज्जा-एवं से कप्पइ नायविहिं एतए । स्थविर यदि आज्ञा दे तो स्वजनों के घर जाना कल्पता है। थेरा य से नो वियरेजा-एवं से नो कप्पद नायचिहि एसए। स्थविर यदि आज्ञा न दें तो स्वजनों के घर पर जाना नहीं कल्पता है। जे तत्थ थेरेहि अविष्णे नायविहि एइ, से संतरा छए वा, स्थविरों की आज्ञा के बिना यदि स्वजनों के घर जायें तो वे परिहारे वा। दीक्षाच्छेद या परिहार प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। नो से कप्पह अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं अल्पश्रुत और अल्पआगमश अकेले भिक्षु और अकेली भिक्षुणी को स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। किन्तु समुकम्पन से ने तत्व बहुस्सुए बहवाममे तेण सद्धि नायविहिं दाय में जो बहुश्रुत और बहु-आगमश भिक्षु या भिक्षुणी हो उनके एसए। –वव. ज. ६, सु. १-३ साथ स्वजनों के घर जाना कल्पता है । सजण गिहे आहार गहण विहि णिसेहो स्वजन के घर से आहार ग्रहण का विधि-निषेध८६८. तत्थ से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउते ८६८. गृहस्थ के घर में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के आगमन से पूर्व भिलिंगसूखे, करपद से चाउसोवणे पलिंगाहितए, नो से चावल रंधे हुए हो और दाल पीछे से रंधे तो चांवल लेना कप्पद मिलिगमूचे पङिगाहित्तए।। कल्पता है, किन्तु दाल लेना नहीं कल्पता है। तत्य से पुवागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगसूबे, पच्छाउत्ते घाउ- आगमन से पूर्व दाल रंधी हुई हो और चावल पीछे से रं) सोदणे, कप्पा से मिसिंगसूये परिगाहितए, नो से कप्पह तो दाल लेना कल्पता है किन्तु चावल लेना नहीं करपता है। पाउलोयणे परिगाहितए। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६८-८७० NN... स्वजन के घर पर अकाल में जाने का निषेध सेो विदुरमाउलाई को पडिगाहित्तए । तर से पुयागमण दोष छाई एवं नीति योनि पडिगाहिए। जे से तत्थ पुण्यागमणेणं पुख्वाउते से कप्पड़ पविगाहित्तए । जे से तस्य पुष्वागमणेणं पच्छाउते नो से कप्पड़ पडिगा हित्तए । - वव. उ. ६, सु. ४-६ रूपकुण ८६९. से भिक्खू वा भिक्खुणी चा समाणे वा, वसमाणे था, यामामा दजमार्थ या से जागा हायवा । हमंसि खलु गामंसि वा जाव- रायहाणिसि संतेगतियस्स क्रिस रेया या पच्छाया था परिवल नहानाहातोय-कम्मकरी या पुरा पेहाए तस्स अट्टाए परो असणं वा जाव-साइमं वा उबकरेज्ज वा. उबक्लज्ज वा । अहो एस पतिया एव हेतु एस ब जं जो तहपगाराहं कुलाई पुष्णामेव मत्ताए वा पाणाए वा, जिक्स मेज्ज वा पविसेज्ज था । सेलमावाए एवंभवक्रूज एगतमपत्रवित्ता-अनावादमसलोए चिट्ठ ज्जा । से तस्थ कालेणं अणुपविसेज्जा अणुपविसिता तत्थितर तरेहिं फुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहा आहारा - आ. सु. २, अ. १, उ. ६, गु. ३९९ सजण परिजण गिहे अकाले गमरायच्छित सुतं ८७०. जे भिक्खू समाणे वा बसमाणे वा, गामाणुगानं इज्जमाणे वा. पुरे संधुइयाणि वा, पच्छा संयुइयाणि वा कुलाई पुष्षामेव भिवपरिवार अणुपविस अनुपवितं वा साइ दसाद. सु. ४१-४३ चारित्रवार एवणा समिति [५४३ हत्याराकुलाई को मुख्यामेव मत्ता वा पाणाए वा श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रवर के परों में भिक्षा से पूर्व णिक्यमेज्ज वर, पविसेज्ज या । बाहर पानी के लिए केवलो वृया - आयाणमेयं । प्रवेश न करे। केवली भगवान् ने कहा है- "यह कमों के आने का कारण है।" क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में साधु या साध्वी को आए देखकर वह उसके लिए अशन -- यादत् – स्वादिम बनाने के लिए सभी साधन जुटाएगा, अथवा आहार तैयार करेगा । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह उपदेश है कि वह इस प्रकार के घरों में आहार पानी के लिए भिक्षाकान से पूर्व निष्यण प्रवेश न करे । आगमन से पूर्व दाल और चावल दोनों रंधे हुए हो तो दोनों लेने कल्पते है । किन्तु बाद में रंधे हो तो दोनों लेने नहीं कल्पते हैं । ( तात्पर्य यह है कि ) आगमन से पूर्व जो आहार अग्नि आदि से दूर रखा हुआ हो वह लेना कल्पता है और जो आगमन के बाद में अग्नि आदि से दूर रखा गया हो वह लेना नहीं कल्पता है । स्वजन के घर पर अकाल में जाने का निषेध - ८६६. भिक्षु या भिक्षुणी स्थिरवास रहे हों, मासकल्प आदि रहे हो या धामनुधान विचरण करते हुए पहुंचे हो वे उस ग्राम - यावत् - राजधानी के सम्बन्ध में जाने कि - इस गांव में पावत् राजधानी में किसी एक भिक्षु के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि) या नात् परिचित (मासुससुर आदि ) गृहस्वामी — यावत् — नौकर-नौकरानियाँ आदि यह परिचित घरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर जहां कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त स्थल में खड़ा हो जाए ऐसे स्वजनादि के ग्राम आदि में भिक्षा के समय पर ही प्रवेश करे और अन्य अन्य घरों से सामुदानिक एषणीय तथा साधु के बंध से प्राप्त निर्दोष आहार प्राप्त करके उसका उपभोग करे । स्वजन परिजन के पर असमय में जाने का प्रायश्चित सूत्र ८७०. जो भिक्षु स्थिरवास ग्रामानुग्राम विचरण करते मसुर कुलों में भिक्षा करवाता है या प्रवेश करने रहा हो मासकल्प आदि रहा हो या हुए पहुँचा हो वहाँ मातृकुलों में या से पूर्व ही प्रवेश करता है, प्रवेश वाले का अनुमोदन करता है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४] चरणानुयोग ७१. राणाकाले गमविही- तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारद्वाणं उग्घाहयं । सम्म, अभतो अनुष्ठियो [ग] ॥ हमेण कमजोगेण, -नि. उ. २, सु. ३६ से गामे वा नगरे वा गोयरम्यगओ भुणो । चरे मोता ॥ पुरो जुगगाथाएगा यहि परे पोहरबाई वा महियं । इस. अ. ५. उ. १, गा १-३ गये सणाकाले आमरणीय- किच्चाई - ८७२. पविसित परागारं पाणट्ठा भोयणरस वा । जयं चिट्ठ मियं भासे, ण य रूवेमु मणं करे ॥ बहुं सुणे कष्णेहिं अच्छीहि पेच्छ । न यदि भिक्लू अनरिह । सुयं वा जइ वा दिट्ठ, न सवेज्जोवधाइयं । नय केइ उवाएणं, 'गिहिजोगं समायरे ॥ गवेषणाकाल में जाने की विधि - दम. अ. गा. १६-२१ पेनाभिनिवे यमक फार्स का अयाए । अतितिणे अचवले अप्पमासी वेन उपरे ते पोषं मिक्लाकाले एव गमगविहाणं८७३. कालेण निक्लमे भिक्खू कालेज य पक्किमे । अकालं च विवज्जेला, काले कालं समायरे ॥ अकाने परति भिक्खुन पह अत्याचामि सच गरिहसि ॥ सूत्र ८७०८७३ उसे मासिकात परिहारस्थान (प्राणित) आता है। गवेषणाकाल में जाने की विधि - ८७१. भिक्षा का काल प्राप्त होने पर मुनि उतावल न करते हुए. मूर्च्छा रहित होकर इस आगे कहे जाने जाने क्रम योग से भक्त पान की गवेषणा करे । गाँव या नगर में गोचरी के लिए निकला हुआ मुनि उद्योग रहित होकर एकाग्र चित्त से धीमे-धीमे चले | आगे युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ और बीज, हरियाली प्राणी, जल तथा सजीव-मिट्टी को टालता हुआ चले । गवेषणाकाल में आचरणीय कृत्य - ८७२ मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश करके आहार या पानी लेने के लिए बनापूर्वक खड़ा रहे परिचित बोले और रूप देखने का भी मन न करे । शुकानों से बहुत सुनता है. वों से बहुत देखता है, किन्तु सब देखा और गुना अन्य तिथी को कहना उचित नहीं होता है। युनी हुई ना देखी हुई घटना के बारे में आपाततरने वाले वचन न कहे और किसी भी प्रकार गृहस्थों जैसा आच रण न करे। -दस. अ. गा. २६ मियासणे । सिए । (साधु बाहार न मिलने या मोर बाहार मिलने पर गुस्से में आकर ) तनतनाहट ( प्रलाप) न करे, चपलता न करे, अल्प- दस. अ. गा. २६ भाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो 1 (आहारादि पदार्थ) मोहा पाकर (वाता की निन्दान गरे। भिक्षाकाल में ही जाने का विधान कानों के लिए सुखकर शब्दों में प्रेम स्थापन न करे, दारुण और कर्कश स्पर्श को काया से (समानपूर्वक) सहन करे । ८७३. भिक्षु भिक्षा लाने के समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर ही लौट आये। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय करने का हो, उसे उसी समय करे । भिक्षो ! तुम अकाल में जावोगे और काल की प्रतिलेखना नहीं करोगे तो तुम अपने आप को क्लान्त ( खिन्न ) करोगे और सनिवेश (ग्राम आदि) की निन्दा करोगे । १ (क) तड़वाए पोरिसिए, भत्तपाणं वेसाए - उत्स. अ. २६ गा. ३२ (ख) प्राचीन काल में भोजन का समय प्रायः अपरान्ह ही था, ऐसा कई कहते हैं किन्तु आगमों में प्रातःकाल के भोजन के उल्लेख मिलते हैं, यथा टिप्पणअपने पृष्ठ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८७४-०७५ स काले परे भिक्यू. कुल्मा पुरिसकारि अलाभो प्ति न सीएज्जा तयो ति अहियासए । गवाकाल में खड़े रहने की विधि गणका fugeाई विही८०४. असंससं पलोएज्जा, - दस. अ. ५. उ. २, गा. ४-६ महज तप ही सही" यो मानकर भूख को सहन करे । गवेषणाकाल में खड़े रहने आदि की विधि भारावसोए । उत्फुल्लं न विणिक्झाए नियट्टेज्ज अयंपिरो । गोवरग्यगओ सुणी अइभूमिं न गच्छेज्जा कुलस्स भूमि जाणित्ता सत्येन मियं भूमि पर कमे । भूमिभाव। सिणाणस्य वचस्स संलोगं परिवज्जए ॥ मयाब हरियाण परिवता सम्मिदिवसमाहिए। सत्य से चिमाणसा आहरेपण भो निष्पडित कम्पियं चारित्राचार एवमा समिति समनाई पेहाए चिट्ठण-सही भिक्षु भिक्षा लाने का समय होने पर भिक्षा के लिए जाए और पुरुषार्थ करे. भिक्षा न मिलने पर खेद न करे, "बज 1xxxx ८७४. गोचरी में प्रविष्ट मुनि अनासक्त दृष्टि से देखें । अति दूर न देखे, उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे । भिक्षा का निषेध करने पर बिना कुछ कहे वापस चला जाये । गोधरी के लिए घर में प्रविष्ट मुनि अति-भूमि में न जांब, कुल भूमि को जानकर मित-भूमि में प्रवेश करे। क्षण मुनि मित-भूमि में ही उनित भू-भाग का प्रति लेखन करे । जहाँ से स्नान और शव का धान दिखाई पड़े उस भूमि-भाग का परिवर्जन करे । - दस अ. ५, ३१, गा. २३-२७ कल्पनीय ही ग्रहण करें । सर्वेन्द्रिय समाहित मुनि उदक और मिट्टी लाने के मार्ग तथा बीज और हरियाली को बजंकर खड़ा रहे । हुए उसको देने के लिए महारानी ए तो उसमें से अकल्पनीय को ग्रहण करने की इच्छा न करे, वहाँ श्रमण आदि का देखकर खड़े रहने की और प्रवेश की विधि ८७५. से भिक्खू वा, भिक्खुणी या गाहाबद्दकुलं पिडवायपडियाए ८७५. भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अपट्टि समाणे से अं पुण जाणेज्जाकरे उस समय यदि यह जाने कि समणं या मातृणं वा गामपिटोलगं वा मतिहि या युष्वपट्टि पेहाए गोते खातिकम्म पविसेज्ज वा. ओमासेज्ज वर । से समाए एगमनकयेज्जा एगतमवक्कमित्ता वाणानामलोए चिट्ठज्जा ।" बहुत से शाक्यादि श्रमण ब्राह्मण, दरिद्र, अतिथि और याचक आदि उस गृहस्थ के यहाँ पहले से ही प्रवेश किये हुए हैंतो उन्हें लांघकर न प्रवेश करे और न आहार की याचना करे । वह उन श्रमणादि को भिक्षार्थ उपस्थित) जानकर एकान्त स्थान में चला जाये, वहाँ जाकर कोई आता-जाता न हो और देखता न हो, इस प्रकार खड़ा रहे । इसलिए प्राचीन काल में सर्वत्र सभी अपरान्होजी ही मे (ग) श्रमणों की भिक्षाचर्या का काम दिन पर यह कई विचारकों का मत है; किन्तु जैनागमों में गृहस्थों के लिए भी प्रातराशन- - प्रातः काल का भोजन तथा श्यामाशनसायंकाल का भोजन का उल्लेख मिलता है। यथा साभासाए पातरासाए आ. सु. १, अ. २. उ. ५, सु. ८७ सूम. सु. २. अ. १, सु. ६८८ (घ) एक दिन में दो बार भोजन भरत चक्रवर्ती के समय में भी किया जाता था, क्योंकि स्वयं भरत चक्रवर्ती ने दिग्विजय यात्रा में "अष्टम भक्त" किए देखिए दीप प्रप्ति वश ३ टीका एकस्मिन् दिने द्विवार भोजनोजिसन दिनत्रयस्य षणं भक्तानामुत्तर-पारण क दिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च त्यागेनाष्टमभक्तं त्याज्यम् । १ (क) समणं माणं वा, वि किविणं वा वणीमगं । उवसकमंत भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए ॥ अमिन पविसे न चिट्ठे चक्खु -गोयरे । एवंतमवकमिता, तत्थ निट्ट ज्ज संजए || वणीमगरस वा तस्स दायगरसुभयस्स वा । अप्पत्तियं सिया होज्जा, लहुत्तं पदयणस्स वा ।। (स) मरणाममा एमोभितट्टा चित्ततं वाइन - इस. अ. ५, उ. २, गा. १०-१२ -उस. अ. १, गा. ३३ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६] चरणानुयोग गृहस्थ के घर में नहीं करने के कार्य सूत्र ८७५-८७. अह पुगेवं जाणेन्जा-पडिसेहिए ३ दिन्ने वा, तओ तम्मि जब वह वह जान ले कि - गृहस्थ ने श्रमणादि को आहार णिवद्रित संजयामेव पविसैज वा, ओभासेज्जया।' देने से इन्कार कर दिया है, अथवा उन्हें दे दिया है और वे उस -आ. सु. २, अ. १, उ. ५, सु. ३५७ घर से निपटा दिये गये हैं, तब वह संयमी माधु स्वयं उस गृहस्थ के घर में प्रवेश करे. अथवा आहारादि की याचना करे । गाहावईकुले णिसिद्धकिच्चाई गृहस्थ के घर में नहीं करने के कार्य-- ८७६. से मिक्खू वा, भिक्षुणी वा गाहावहकुलं पिडवायं पडियाए ८७६. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थों के घरों में आहार के लिए अणुपवि? समाणे - प्रवेश करकेनो गाहावइकुलस्स वा दुवारसाह अबलंबिय अवलंबिय गृहस्थ के द्वार की शाखा को पकड़-पकड़कर खड़ा न रहे। चिटुम्मा । नो गाहावइकुलस्स वा दगछाउणमेत्तए चिट्ठज्जा, महस्थ के पात्र प्रक्षालित गानो टालने के स्थान पर खड़ा न रहे। मो गाहावइकुलस्स चणिउपए चिट्ठज्जा, गृहस्थ के हाथ मुंह धोने के स्थान पर खड़ा न रहे। नो गाहावहकुलस्स सिणाणस वा, वच्चस्स वा संलोए गृहस्थ के स्नानघर के या शौचालय के द्वार पर नजर सपडिदुवारे चिट्ठज्जा पड़े-ऐसे स्थान पर खड़ा न रहे। नो गाहाबकुलस्स आलोयं वा, गिलं वा, संधि वा, गृहस्थ के घर के गवाक्ष को, घर के सुधारे हुए भाग को, बगभवण वा, बाहाओ पगिज्निय पगिजिमय, अंगुलियाए वा घर के संधिस्थान को, जलगृह को हाथ लम्बा कर करके अंगुली उद्दिसिय उद्दिसिय, उणमिय उपणमिय. अवनमिय से संकेत कर कर, गरदन केंची उठा उठावर, या झुका झुकाकर अवनमिय निजमाइज्जा। न देखे, न दिखाए। गो गाहावई अंगुलियाए उद्दिसिय उदिसिय जाइज्जा, तथा गृहस्थ को अंगुली से संकेत कर बारके याचना न करे। नो गाहावई अंगुलियाए चालिय चालिय जाइज्जा, गृहस्थ को अंगुली चला चलाकर (वस्तु का निर्देश करने हुए) याचना न करे। नो गाहावह अंगुलियाए तन्जिय तज्जिय जाइमा, गृहस्थ का अंगुली से नर्जन नादन कर करकं याचना न करे। मो गाहावई अंगुलियाए उपखुलपिय उक्त्वंपिय जाइजा, गृहम्प को अंगुनी से स्पर्श (घुसड) बार करके माचना न करें। नो गाहावई अविय यंदिय जाइज्जा, गृहम्भ की वन्दन कर करके मानना न करे । नो यणं फरस बवेज्जा। (सधा न देने पर गुहा को) कसोर वमन न करे। - आ. सु. २, १.. ६. म. ३६० संकिलेसठाणणिसेहो ... संक्लेश स्थान निषेध४७. रो गिहवईण च. रहस्सा रविण्याण य । ८७७. राजा, गृहपति, अन्तःपूर और भारक्षकों के स्थानों को सकिलेसकर ठाण. दूरओ परिवज्जए॥ गुनि दुर से ही त्याग दे--क्योंकि ये स्थान क्लेशवर्धक होते हैं। -दस, अ. ५, २.१, गा.१६ भिक्खागमण काले पायपडिलेहण बिहाणं भिक्षार्थ जाने के समय पात्र प्रतिलेखन को विधि२७८. से भिक्खू वा. भिक्खूणी वा गाहावाकुल पिडवाय पडियाए ८७८. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए, पविसमाणे पुष्वामेव पेहाए पडिगह अवहट्ट पाणे, पम्जिय प्रवेश करने से पूर्व ही भिक्षा पात्र को भलीभांति देखें, उसमें कोई १ परिसंहिए व दिन्ने वा, ओ तम्मि नियत्तिए । उसकमज्ज भत्तट्ठा, पाणट्टाए व गंजए ॥ दम. अ.५. उ.२, गा. १३ २ अग्गलं फनिह दारं, कवाडं वा वि संजए। अवलंश्रिया न चिट्ठज्जा, गोयरम्गगओ मुणी ।। -दस. अ.५, उ.२. गा. ३ सिणाणस्ल व वनम्ग, लोग परिवज्जए । दम. अ. ५, उ. १. गा. २५ ४ आलोय थिग्गलं दारं मंधि दगभवणाणि य । चरंतो न विणिजाए, संकट्ठाणं विवज्जए । दस.अ.५, उ.१. गा.१५ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८७८-८-१ असमय में प्रवेश के विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५४७ रयं, ततो संजयामेव गाहावहाल पिंडवायपडियाए गिल- पाणी हो तो उन्हें निकाल कर और रज हो तो उसका प्रमार्जन मेज्य वा पक्सिज्ज वा। कर बाद में यततापूर्वक आहार-पानी लेने के लिए निकले या प्रवेश करें। केवली बूया-आयाणमेय । केघनी भगवान् कहते हैं--'ऐसा न करना कर्मबन्ध का कारण है।' अंतो पडिगहसि पाणे या, बोए बा, रए वा परिया- क्योंकि पात्र के अन्दर द्वीन्द्रिव आदि प्राणी, वीज या रज वजेज्जा. आदि रह सकते है। अह भिक्खूणं पुन्खोवविद्वा एस पइण्णा-जाब-एस उवएसे ज इसलिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने माधुओं के लिए पहले पुष्यामेव पहाए पडिग्गहं अवहट्ट पाणे बा, पमस्जिय रय- से ही इस प्रकार की प्रतिज्ञा-यावत्-उपदेश दिया है कि ततो संजयामेव गाहावतिकुल पिंजवायपवियाए णिक्यमेज्ज आहार-पानी के लिए जाने से पूर्व पार का सम्यक निरीक्षण वा, पविसेज्ज था। करके कोई प्राणी हो तो उसे निकालकर, रज हो तो उसका -आ. सु. २, अ. ६. उ. २. सु. ६०२ प्रमार्जन कर, बाद में वतनापूर्वक आहार पानी के लिए निकले या प्रवेश करे । असमये पवेसणस्स विहि-णिसेहो असमय में प्रवेश के विधि निषेध८७६. से भिक्खू का, भिक्खुगी वा गाहाबतिकुलसि पिडयायपडि- ८७६. भिक्षु या भिशुणी गुहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश याए पविसितुकामे सेज्ज पुण जाणेज्जा, करना चाहे, उस समय यदि यह जाने कि, खीरिणीओ गायोमो जीरिज्ममाणीओ पहाए, __ अभी दुधारु गायों को दुहा जा रहा है, असणं या-जाव-साइमं वा उपपडिज्जमाणं पेहाए पुरा मशन यावत् स्वादिम आहार अभी तैयार किया जा अप्पजूहिए। रहा है या हो रहा है, सेवं गत्वा णो गाहावतिकुल पिडवायपडियाए णिक्लमेज अभी तक उसमें से किसी दूसरे को जितना देय है उतना वा, पविसेज्ज बा। दिया नहीं गया है, ऐसा जानकर बह आहार प्राप्ति की दृष्टि से निष्करण प्रवेश न करे। से समायाए एतमबक्कमेवजा, एगतमयपकमित्ता अणावा- किन्तु ऐसा जानकर वह भिक्षु एवान्त में चला जाये और यमसंलोए चिट्ठज्जा जहाँ कोई आता जाता न हो और देवता न हो वहाँ ठहर जाए । अह पुण एवं जाणेज्जा जब वह यह जान ले किबीरिणीमो गाधीओ खोरियाओ पेहाए, दुधारु गायें दुही जा चुकी हैं, असणं वा-जाव-साइम वा उववरित पहाए पुरा पजूहिते । अशन -यावत् -स्वादिम आहार भी अब तैयार हो गया सेवं णच्चा ततो संजयामेव गाहावतिफुलं पिडबायपडियाए है, उसमें से दूसरों को जितना देव है उतना दे दिया गया है, मिक्लमेन्ज बा, पविसेज वा । तत्र वह संयमी साधु आहार प्राप्ति के लिए निष्क्रमण प्रवेश करे। -आ. सु. २, अ. १, उ. ४. सु. ३४६ एसणाखेत्तपमाणं एषणा क्षेत्र का प्रमाण८८०. अवसेस भण्डग गिझा, चवलसा पडिलेहए। ८५०. भिक्षु सब भण्डोपकरणों को ग्रहण कर चक्षु से उनकी परमजोयणाओ विहार विहरए मुणी ।। प्रतिलेखना करे और उत्कृष्ट अर्ध-योजन तक भिक्षा के लिये -उत्त. अ. २६, गा. ३५ जाए। भुजमाणाणं पाणाणं मम्मे आवागमण णिसेहो बाहार करते हए प्राणियों के मार्ग में आने जाने का निषेध५८१. से मिक्सू वा, मिक्खूणी वा गाहावइकुल पिटवायपरियाए ८८१. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८] चरणानुयोग भिक्षा के समय उन्मत्त साण्ड आदि को देखकर गमन का विधि निषेध पविसित्तकामे अंतरा से रसेसिषो बहवे पाणा घासेसगाए करना चाहे, उस समय भार्ग के वीच में यदि आहार के इच्छक संथडे संनिवाइए पेहाए: अनेक पशु-पक्षी आहार के लिए एकत्रित होकर आये हुए दिखाई दें. त जहा-कुक्कुडजाइयं बा, सूपरजाइयं था, अग्नपिसि वा यथा कुक्कुट, सूकर आदि अनेक प्राणी या अग्रपिण्ड पाने वायसा संबडा सनिवाइया पेहाए. के लिए कौवों आदि को एकत्रित होकर आता हुआ देख कर, सद परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा नो उज्जु गच्छिज्जा यदि अन्य मार्ग हो तो संगत यतनापूर्वक उसी मार्ग से जावे, -आ. गु. २, अ. स. ६. सु. ३५६ किन्तु उम (पशु-पक्षी वाले) मीधे मार्ग से न जावे । भिक्खाकाले उम्मत्तगोणाई पेहाए गमविहि णिसेहो- भिक्षा के समय उन्मत्त साण्ड आदि को देखकर गमन का विधि निषेध८८२. से मिक्खू वा भिक्खूणो गाहावाकुल पिंडवायपरियार ८८२. भिक्षु मा भिक्षुणी भिक्षा के लिए गहरूबों के घरों में प्रवेश पविसिसुकामे गोणं वियावं पशिपहे येहाए, महिस वियान करना चाहे. उस समय मार्ग में मदोन्मत्त गार या मतवाला पहिपहे पेहाए, भैसे को देखकर एवं मणुस्सं, आस. हत्यि, सीह, बग्घ, विग. दीविय, अच्छ, तथा दुष्ट मनुष्य, घोड़ा. हाथी. सिंह, बाघ, भेडिया, चित्ता, तरच्छं, परिसर, सिंथाल, बिराल, सुणयं, कोलसुणयं, रीछ, व्याघ्र विशेष अष्टापद, शियाल, वन विलाव, कुत्ता, कोकतिय, चित्ताचल्लाय वियाल पति पहे पेहाए, महाशूकर, लोमड़ी, चिल्लक आदि विकराल प्राणया सति परिक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उम्जुयं में देखकर यदि दुसरा मागं हो तो उसी मार्ग से जाए, किन्तु गच्छम्मा। - -आ. सु. २, म.१, उ. ५. सु ३५४ उस सीधे मार्ग से न जाए। साण सुइय गावि, वित्तं गोणं हयं गयं । (गोचरी में प्रविष्ट भिक्षु) कुत्ता व नव प्रसूता माय तथा संडिन्म कलह जुद्ध दूरओ परिवज्जए । मदोन्मत बैल, घोड़ा व हाथी और बच्चों का क्रीडा स्थल, क्लेश · · दस. अ. ५. उ. १, गा. १२ व युद्ध के स्थानों को दूर से ही वर्जन करे । खड्डाइजुत्तपहे गमण णिसेहो खड्डा आदि से युक्त मार्ग में जाने का निषेध८८३. से भिक्खू या, भिक्षुणी वा याहाषइकुल पिंडवायपडियाए ८८३. भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरो में प्रवेश पविसित्तुकामे अतरा से ओवाए खाणु वा, कंटए वा. घसी करना चाहें उन ममय मार्ग के बीच में यदि गड्ढा हो. बंटा हो वा, भिलुगा था, विसमे वा, विज्जले वा परियावज्जेज्जा। या टूट पड़ा हो. कांदे बिम्बरे हों. अन्दर धसी हुई भूमि हो. सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा को उज्जयं फटी हुई काली भूमि हो, ऊंची-नीची भूमि हो या कीचड़ हो ऐसी गच्छेज्जा।' -आ. सु. २, अ. १, उ. ५, सु. ३५५ स्थिति में दुसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से जावे, किन्तु सीधे मार्ग से न जावे। अदुगुंछियकुलेसु भिक्खागमणविहाणं अघृणित कूलों में गोचरी जाने का विधान४. से मिक्खु या, भिक्खुगी वा गाहावाकुसं पिड वायरियाए ८५४. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए अणुपवि? समाणे सेज्जाई पुण फुलाई जाज्जा , तं जहा- प्रविष्ट होने पर (आहार ग्रहण योग्य) जिन कुलों को जाने, के इस प्रकार हैं१. उपगकुलाणि वा. , भोगकुलाणि वा, (१) उपकुल, (२) भोगकुल, १ (क) तहेबुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए सभागया । तं उज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ।। -दस. अ. ५, उ. २. गा.. (ख) दशवकालिक अ. ५, उ, १, गाथा ६-११ में वेश्याओं के आवासों की ओर जाने वाले मार्ग मे भिक्षा के लिए जाने का __ निषेध है अतः ये गाथायें ब्रह्मचर्य महाव्रत को विभाग में दी गई हैं। २ ओवायं विमम खाणं, विज्जलं परिवज्जिए। संक्रमेण न गच्छेज्जा. विज्जमाणे परक्कमे । नम्हा तेण न गच्छेज्जा, मंजए सुसमाहिए। मुड अन्नेण मग्गेण जयमेव परक्कमे ॥ -दम. अ. ५. इ. १, गा. ४-६ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८८- घृणित कुलों में भिक्षा गमन का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्रामा : एषणा समिति ,५४६ ३. राहण्णफुलाणि वा. ४. खत्तियकुलाणि वा. (३) राजन्यकुन. (४) पियकुल, ५. इक्वागफुलाणि वा, ६. हरिवंसकुलाणि बा, (५) इक्ष्वाकुकुल, (६) हरिवंगल. ७. एसियकुलाणि वा, वेसियकुलाणि वा, (७) गोपालकुल (c) चम्यनुल. ६. गागकुलाणि वा, . कोट्टागकुस्लाणि वा, (E) नापितकुल, (१०) वकिल. ११. गामरस्खकुलाणि वा, १२. बोक्सालियकुलाणि वा, (११) ग्रामरक्षककुल, (१२) तन्तुबायकुन अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु अदुएंछिएसु अगरहियेसु असण ये और उसी प्रकार के और भी कृल, हो अनिन्दिन और बा-जाव-साइभ वा फासुयं एसणिज ति मण्णमाणे लामे अगहित हों, टन कुनों घरों) में अगर --यावत् ग्वादिम संते पदिगाहेज्जा । ... . गु. २, अ. १, उ.२, मु. ३३६ प्रागुव और एषगीय मानकर मिलने पर ग्रहण करें। दुगुंछियकुलेसु भिक्खागमण पायचिछत्त सुरतं - घृणित कुलों में भिक्षा गमन का प्रायश्चित्त मूत्र८५५. जे भिक्खू बुगंछियफुलेसु असणं वा-जाब-साइमं वा पडिग्गा- ८८५. जो भिक्षु वृणित कुलों में जाकर अशन यावत वाद्य हेइ, पडिरगात या साइम्जइ।। जना है. लिदाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्धाइय। उसे उपातिक पातुर्मामिक गरिहारग्थान (प्रायश्चिन) -नि.उ. १६. मु.२७ आता है। अगवेसणीयकुलाई अगवेषणीयकुल८८६. से भिक्खू वा, भिक्षी वा से जाई पुण कुलाई जाणेजा, ८८६. भिक्ष एवं भिक्षणी इन कुलों की जाने । तं जहा–खत्तियाण वा, राईण या, कुराईण वा, रायपे- यथा--शत्रियों के कुल, राजाओं के कुल, कुत्सित राजाओं सियाण वा, रायसद्धियाण या, अंतो वा, बाहिं बा, गच्छ- के कुल, राज भुत्य. राजा के सम्बन्धियों के कुल. इन कुलों के ताण वा, संणिविट्ठाण वा, णिमंतेमाणाण बा, अणिमंतेमा- घरों में या घरों से बाहर जाते हुए, खड़े हुए वा बैठे हुए, गाण वा, असणं पा-जाव-साइम वा अफासुय-जावणो निमन्त्रण किये जाने पर या न किए जाने पर अशन यावत् पडिग्गाहेज्जा। -आ. सु० २, अ० १. उ०३, मु० ३४६ स्वाविम अप्रामुक जानकर-पावत्-ग्रहण न करें। णिसिद्ध कुलेसु गवेसणा णिसेहो निषिद्ध कुलों में गवेषणा-निषेध८८७. परिकुटफुलं भ पविसे, मामगं परिदज्जए।' ८८७. मुनि निदित कुल में प्रवन न करे। गृह-म्वामी द्वारा अचिपसकुलं न पविसे. नियतं पविसे कुलं ॥ निषिद्ध कुल में प्रवेण म करे जहाँ प्रवेश करने पर नाधु के प्रति ___ दग. अ. ५, 3.. गा.१७ टेष भाव प्रगट करें नहाँ न जाने । किन्तु प्रीतिकर कुल में ही प्रवेग करे। णिसिद्धगिहेभिवखागमणपायच्छित सुल्तं निषिद्ध घर में भिक्षा लेने जाने का प्रायश्चित्त सूत्र-- ८६८ भिक्खू गाहारइ कुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुपविट्ठ ८८८. जो भिक्षु गायापति कुन में आहार के लिए प्रवेश करने पंरियाइक्विते समाणे रोच्चपितमेष कुलं अणुप्पविसह, पर गृहस्थ में मना करने के बाद भी दुसरी बार उसी कुल में अणुप्पविसंत या साइज्जइ। प्रवेश करता है. करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आयक्जद मासियं परिहारट्ठागं उघाइयं । उसे उद्घातिक मामिक गरिहारस्थान (प्रायश्निन) आना है। -नि.उ. ३, मु. १३ भिक्खायरियाए उच्चार पासवग परिद्रावण विही- भिक्षाचर्या में मल-मूत्रादि परठने को विधि-- ८६. गोयरग्गविवो उ, वाचमुतं न धारए। ८६. गोचरी के लिए गया हुआ मुनि मल-मूत्र की वाधा को न ओगासं फासुमं नच्चा, अणुनविय बोसिरे ॥ रोके और प्रासुफ-स्थान देख, उमके स्वामी की अनुमति लेकर -दस. अ. ५. १,गा.१६ वहाँ मल-मूत्र का उत्सर्ग करे। १ (क) निषिद्ध कुलों में नित्यादि पिंड देने वाले कुलों का भी निषेध है- देखिये नियपिट दोष । (क) अनीतिकर कुल से भक्त-पान आदि के ग्रहण का निषेध-देखिए प्रश्नव्याकरण---तृतीय संवरद्वार सूत्र-५ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५०] चारित्राचार भिक्षाचरी में गया करने का निषेध सूत्र ८६०-८६२ पिहियदुवार उन्धाऽविहिणिरोहो ढके हुए द्वार को खोलने का विधि निषेध - १०. से भिक्खू वा, भिक्खूणो था गाहावतिकुलस्स दुवारवाहं ०. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के गृहद्वार को कांटों की टाटी कंटगोंदियाए पडिपिहितं पहाए तेसि पुख्वामेत्र जगह में ढका हुआ देखे तो पहले गृहल्वामी की आज्ञा लिए बिना. अण्ण्ण क्यि. अपडिलेहिय, अप्पमज्जिय णो अवंगुणेज वा, प्रति न किए बिना. और प्रमार्जन किये बिना ग्रहदार न खोल पविसेज्ज था। र कार । तेसि पुवामेव उमाहं अपुण्णषिय पडिलेहिय पमज्जिय ततो पहले ही गृहस्वामी की आज्ञा लेकर प्रतिनबन कर और संजयामेव अजंगृणेज या, पसिसेज्ज वा । प्रमार्जन कर यतनापूर्वक गृहद्वार बोले और प्रवेश करे । - आ० पु. १.३०५. मु. ३५६ साणीपावारपिदिय अपमानावपंगुरे। मुगि गृहपति की आज्ञा लिए, बिना सग या बस्त्र के पर्दे ग कवा नो पणोलेज्या. ओमहं से अजाहा ॥ उका द्वार स्वयं न बोले और किवाड़ भी, वोले । --दा. २.२. उ.?, गा. १८ भियसायरियाए मायाकरणिसेहो . भिक्षाचरी में माया करने का निषेध६१. भिदखागा पामेगे एवरायु-समाणा या, असमाणा बा. ८६१. स्थिरवास रहने वाला अथवा मासबला आदि रहने वाला गामाणुगा इज्जमाणे स्बुडाए खलु अयं गामे, संणिरुवाए. या घामानुग्राम विहार वारफे कही पहुँचने वाला कोई भिक्षु अन्य णो मनपराए से इंशा भांतारोवाहिरपाणि गामाणि भिक्खा- साधुओं से कहे "पूज्यवरो! यह गांव बहुत छोटा है, बहुत बड़ा यरियाए यवह। नहीं है, उसमें भी कुछ पर सूतक आदि के कारण रुके हुए हैं। इसलिए आप भिक्षावरी के लिए बाहर (दूपरे) गांवों में पधारें ।" संति तत्थेत्तियस्स ,भिरल्युग पुरेराथुया वा, पच्छासंथुया उम गांव में उस भेजने वाले मुनि के दुर्व-परिचित अथवा वा परिवसति, तं जहा-गाहावती वा-जाब-कम्भकरोओ वा, पश्चात् परिचित गृहपात –धावा -नौकरानियां रहते हैं। तहप्पगाराइ कुलाई पुरेसंधुयाणि वा, पच्छासंथुयाणि वा वह गाधु यह शोचे कि इन पूर्वपरिचित और पश्चात्पुब्बामेय भिक डायरियार अणुपविसिस्ताभि. अविय इत्थ परिचिन घरों में पहले ही भिक्षायं प्रवेश करके और अभीष्ट लभिस्सामि सालि था ओयणं वा, खीरं या, पहिं वा. रस्तु प्राप्त कर लूंगा जैसे कि-शाली. औदा आदि स्वादिष्ट गवणीत था, घयं वा. गुलं वा. तेल्वं वा, संकुलि बा. आहार. दूध, दही. नवनीत, वृत, गुड़, तेल, पुडी, मालपुए. फाणित दा. पूर्व वा, सिहरिणि वा तं पुण्यामेव भोल्या जिपरिणी आदि और उम आहार को मैं पहले ही खा पीकर पिच्चा पदिगई संलिहियं संभज्जिय ततो पच्छा भिक्खूहि पात्रों को धो-पाटकर माफ कर लूंगा। इसके बाद आगन्तुक सरि गाहावति कुन्वं पिंडवातपटियाए पविस्सामि । भिक्षुओं के साल आहार-प्राप्ति के लिए गृहस्थ के घर में प्रदेश करूंगा। माइट्टाणं संफासे. पी एवं फरेज्जा । टस : कार का व्यवहार करने वाला भिक्षु कपट का सेवन करता है । अतः भिक्षु ऐसा नहीं करे । से तत्व भिक्खूहिं सदि कालेण अणुपविसित्ता तत्थितरातिय साधु को वहां पर भिक्षुओं के माथ भिक्षा के समय में ही रेहि फुलेहि सामुदाणियं एसित्तं देखि पिंडवात पडिगाहेता भिक्षा के लिये प्रवेश कर विभिन्न कुलों से सामुदानिक, एषणीय आहारं आहारेजा। क साधु के वेय से प्राप्त निर्दोष भिक्षा ग्रहण करके आहार --आ. सु. २, अ. १. उ. ४. सु. ३५० करना नाहिये। अभिनिचारिका गमाधिष्क्षि गिसेहो - अभिनिरिका में जाने के विधि-निषेध-. ८६२. बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचारिय चारए, १२. अनेक सार्मिक साधु एक साथ "अभिनिचरिका" करना नो णं कापड थेरे अणापुसिछता एगयो अभिनिधारियं चाहें तो -स्थविर साधुओं को पूछे बिना उन्हें एक साथ "बभिचारए। नियरिका" करना नही कल्पता है। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६२८६४ www चर्या प्रविष्ट भिक्षु के कर्तव्य कप मेरे आता एप अभिनिवार चारए । बेराय से विपज्जा एवं पं रुपए अभिनिवारिय चारए । येरा य से तो विमरेज्जा एवं गं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चा जे तत्थ थेरेहि अविद्दण्णे एगयओ अभिनिचारियं चरंति से सन्तरा छ वा परिहारे वा । ब. उ. ४. सु. १६ चारिया पट्टि भिक्युस्त किसचाई१३. चरियाट्टि मिक्सु जाव-घउराय पंचराधाओ मेरे पासेज्जा, सच्चैव आलोयणा, सच्चैव परिक्रमणा। सच्चेव भग्गहस्स पुष्यानुभवमा बिरुद्द दवि। चरियापट्टि भिक्खू परं चउराय-पंचरावाओ मेरे पासेज्जा. पुचो आलोएम्ना. पुणो पदमा पुणो परिहार उवएज्जा । मावस अाए दोषिया । कप से एवं ए ''अणुजाणह भंते ! मिभोग्यहं अहालयं ध्रुवं नितियं निच्छ उट्टियं ।" - वब. उ. ४, सु. २०-२१ नियम परे पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिवकमेज्जा पुणो छेपपरिहारस्स उबट्टाएज्जा । भाव अाए लिया। चारित्राचा एषणा समिति करप से एवं वइसए— "अगुजाण मंते 1 मिलोम्यहं अहालंदं ध्रुवं नितियं निच्छ बेट्टिय" तओ पच्छा काय संफास | WINNwww wor ***** [५५१ wwwwwNIN किन्तु रथविर माधुओं को पूछ लेने पर उन्हें एक साथ "अभिनितरिका" करना कल्पता है । यदि स्थविर साधु आज्ञा दें तो उन्हें "अभिनितरिका" करना कल्पता है । यदि स्थविर साधु आज्ञा न देतो उन्हें "अभिनिरिका" है । यदि वे स्थविरों से आज्ञा प्राप्त किये बिना "अभिनिचरिका" बरें तो वे दीक्षा छेद या परिहार प्रायश्वित के पात्र होते हैं। चर्या प्रविष्ट भिक्षु के कर्तव्य ८६३ चर्या में प्रविष्ट भिक्षु यदि चार पांच रात की अवधि में स्थविरों को देखे ( मिले) तो उन भिक्षुओं को वहीं आलोचना. नहीं प्रतिक्रमण और पर्वत रहने के लिए यहीं अवग्रह की वह इस प्रकार प्रार्थना करें कि. ! पुनः "हे भदन्त । मित- अवग्रह में विचरने के लिए करूप अनुसार रहने के लिए नियमों के लिए दैनिक शिवकरने के लिए निराशा आने की या दोषों से निवृत्त होने की अनुज्ञा दीजिए 1 इस प्रकार कहकर वह उनके चरण का स्पर्श करें। चर्या निवृत्त भिक्षु के कर्त्तव्य तओ का काय-संफासं । परियनियस पिचाई ४. परिणानि भिक्यू-न-उराय-पंधरावाओ मेरे ०२४. कोई शिशु पर्या से निवृत होने पर चार पांच रात की अवध में म्यधिरों को देखे (मि) तो उसे ही आपोचता यही प्रतिक्रमण और कल्प पर्यन्त रहने के लिए वहीं अवग्रह की पूर्वाखाना है. सच्चेव आलोयणा, समय पहिया पुणप्रवणा चिgs महानंदमवि ओमहे । पूर्वानुज्ञा है में प्रविष्ट भिक्षु यदि चारपाँच रात के बाद पत्रि को देखे ( मिले तो वह पुनः प्रतिक और च्छेद या परिहार प्रायश्वित्त में उपस्थित होवे । भभाव (संयम की गुरआ) के लिए उसे दूसरी बार अव ग्रह की अनुमति लेनी चाहिए। यदि कोई भिक्षु affनगरिका से निवृत्त होने पर नार पाँच रात के बाद स्थविरों से मिले तो वह पुन. आलोचना, प्रतिक्रमण और दीक्षाच्छेद या परिहार प्रायश्चित्त में उपस्थित होये । fregara ( संयम ) की सुरक्षा के लिए उने दूसरी बार ग्रह की अनुमति लेनी चाहिए । -बब. उ. ४, सु. २२-२३ कहकर वह उनके चरणों का स्पर्श करे । वह इस प्रकार से प्रार्थना करे कि "हे नदन्स ! मुझे मितावग्रह यथालन्द ध्रुव नित्य. औरत होने की अनुमति दीजिए।" इस प्रकार Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२] चरणानुयोग नवनिर्मितशमादि में आहार ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ८६५-८६६ नवणिम्मिय गामाइसु आहार महास्स पायच्छित्त सुरतं-- नवनिमितमामादि में आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र८६५. जे भिक्खू गवग-णिवेससि गामंसि दा-जान-सज्जियसंसि वा ८६५. जो भिक्षु नये निवास किये हुए गाँव में -यावत्-समि अणुप्पविसिसा असगं वा-जाव-साइमं वा पजिग्गाहेइ पडि- वेश में प्रवेश करके अशन-यावत- म्वाध ग्रहण करता है, बाहेंतं वा साइज्जइ। लाता है या कराने अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज मासिवं परिहारद्राणं उम्धाइये। उस उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। --नि. उ. १,गु. ३४ णव अयागराइसु आहार गहणस्स पायच्छित सुतं- नई लोहे आदि की खानों में आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र८६६ जे भिक्खू णवग-णिवेससि ८६६, जो भिक्षु नयी निवास की हुई . १. अयागरं सि गा. २. तंबागरंसि वा, (१) लोहे की. (२) ताबे की, ३. तउजागरंसि या ४. सोसागरंसि वा. (३) त्रपु को. (४) शीशे की, ५. हिरण्णागरसि था, ६. सुवष्णागरसि वा, (५) हिरण्य की (६) सोने की, ३. रयणागरंसि वा, ८. बहरागरंसि वा. (७) रत्नों की, (८) हीरों की खदानों में, अगुप्पविसित्ता असणं पा-जा-साइमं वा पडिग्याहेड पडि- प्रवेश करके अशन-यावत् - स्वाय लता है, लिवाता है. ग्गाहेतं वा साइज्जइ। देने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह मासियं परिहारट्टाणं उग्याइयं । उसे उद्घातिवः मानिया परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । -नि. इ. ५,सु. ३५ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्गम-दोष प्राक्कथन आहार दोष आहार शुद्धि से भाव शुद्धि और उससे संयम-साधना का निविघ्न सम्पन्न होना-पह एक सिद्धान्त-सम्मत तथ्य है। अतः उद्यम, उत्पादनादि दोषों से रहित आहार ही प्रासुक, एषणीय तथा उपभोग योग्य माना गया है। आहार के दोषों का यह संकलन दो भागों में विभक्त है। (१) एक सूत्र में एक दोष का प्ररूपण । (२) एक सूत्र में अनेक दोषों का प्ररूपण । इस संकलन में कुछ सूत्र विधि-निषेध के प्ररूपक हैं और कुछ मूत्र केवल निषेध के प्रकाक हैं। जिन सूत्रों में एक साथ अनेक दोषों का प्ररूपण है उनमें से कुछ दोष उदगम के हैं, कुछ दोष उत्पादन के हैं और कुछ दोष एषणा के हैं। इन सूत्रों में कुछ दोष ऐसे भी प्ररूपित है जिनके नाम भिन्न हैं किन्तु भाव भिन्न नहीं हैं। किन्तु ऐसे भी दोष हैं जिनका नामकरण कहीं नहीं मिलता फिर भी वे दोष ही हैं, क्योंकि कुछ सूत्रों में अग्राह्य पदार्थों के निषेध है अतः वे दोष ही हैं, कुछ दोषों के केवल प्रायश्चित्त सूत्र मिलते हैं किन्तु दोषों के सूत्र नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार कुछ दोषों के सूत्र मिलते है किन्तु उनके प्रायश्चित्त सूत्र नहीं मिलते हैं। ___ आगमों में "जग्गमउप्पायणेसणासुद्ध" आहार-शुद्धि का सूचक वह वाक्य अनेक स्थलों में उपलब्ध है किन्तु उद्गम और उत्पादन के दोषों की निश्चित संख्या काही उपलब्ध नहीं है। सभी उद्गम दोषों में प्रमुख दोष एक औदेशिक है, अन्य सभी उसके अवान्तर भेद हैं। प्रश्नव्याकरण सेंबर द्वार ५ सूत्र ६ में "एक्कारसपिंडदायसुख" यह चाक्य है-इसका तात्पर्य है-आचारांग द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम पिण्डेषणा अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में जितने दोष हैं उन सबसे रहित आहार शुद्ध माना गया है। उद्गम-उत्पादन के दोषों की संख्या यदि निश्चित होती तो इस मागम में संस्था का उल्लेख अवश्य होता । एषणा के दस दोषों की संख्या निश्चित हो गई थी अतः "दसहि में दोसेहि विष्पमुक्कं" इस धाक्य में संख्या का उल्लेख है किन्तु आगमों में इन दम दोषों के अतिरिक्त अन्य अनेक एषणा दोष उपलब्ध है। पिण्डनियुक्ति आदि में उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों की संख्या निश्चित है। संभव है नवदीक्षितों को कण्ठस्थ कराने के लिए किसी स्थविर ने प्रमुख दोषों की संख्या निश्चित करके गाथाबद्ध किये होंगे। आगमों में कुछ ऐसे दोष भी प्ररूपित हैं जो बयालीस दोषों से सर्वथा भिन्न है । परिभोगपणा के दोषों का प्ररूपण भगवती सूत्र में प्रतिपादित है । प्रस्तुत संकलन में दोषों का क्रम इस प्रकार संकलित किया गया है(१) एक सूत्र में अनेक दोषों का कथन है उसे प्रकीर्णक दोष से सूचित किया गया है। (२) एक सूत्र में एक दोष का कथन है उसे उदगम, उत्पादन और एषणा दोष के क्रम से रखा है। (३) ४२ दोष के सिवाय दोषों को–संखडी प्रकरण, शय्यातर पिंड व एषणा विवेक शीर्षक से संकलित किया गया है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४] चरणानुयोग M सोलह उम दोष (५) स्थापना - साधु-साध्वियों को देने के लिए (६) प्राभूतिका-समीप के गाँव सेवा या समय परिवर्तन करना । सोलह उद्गम दोष आहाकम्मुद्दे सियं पूइकम्मे ग मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए पाओयर कोय पामि ॥ पट्टिए उम्म मासो असि अोवर व सोसण्ड० नि००२-४ (१) आधाकर्म किसी एक विशेष साधु साध्वी के उद्देश्य से आहारादि का निष्पन्न करना | (२) औद्दे शिक - एक या अनेक श्रमण ब्राह्मणादि के उद्देश्य से आहारादि का निष्पन्न करना । (३) पूतिकर्म प्रासुक एवं एषणीय आहार में आधाकर्म आहार का अत्यल्प या अधिक मिश्रण करना । जात अपने लिए और के लिए एक साथ माहारादि बनाना। आहारादि अलग स्थापित कर रखना । (४) आजही अभी पधारने वाले है यह जानकर पाहों के जी (७) प्रातुकरण - अन्धकार युक्त स्थानों में दीपक आदि से प्रकाश करके आहारादि देना । (८) फीत साधुसी के लिए आहारादि खरीद कर देना। (६) प्रामित्य - साधु साध्वी के लिए आहारादि उधार लाकर देना । (१०) परिवर्तित -- अपने घर में बना हुआ आहार किसी अन्य को देकर साधु-साध्वियों को उनका अभिलषित आहार लाकर देना । (११) अमित - साधु साध्वी को उनके स्थान पर आहारादि लाकर देना | (१२) उद्भिन्न- किसी विशेष लेप से बन्द किए हुए पात्र के मुंह को खोलकर साधु साध्वी को लिए खाद्यादि पदार्थ देना । (१३) माला पहृत — मंच या टांड आदि ऊँची जगह पर रखे हुए खाद्य पदार्थों को निमरणी आदि से उतारकर देना । (१४) आछे किसी तर आहारादि देना। (१२) अभि भागीदार के पदार्थ उसकी आज्ञा लिए बिना देना। wwww (१६) अध्यवपूरक - साधु या साध्वियों गाँव में आये हैं ऐसा सुनकर अपने लिए बन रहे भोजन में कुछ अधिक बढ़ाकर भोजन बनाना । wwwwww ये सभी दोष गृहस्थ अपने अविवेक से लगाता है। अतः साधु गृहस्थ से विवेकपूर्वक प्रश्न करके आहारादि के उद्गम दोष जानकर शुद्ध आहारादि ले । १ जना नवले इनमें से कुछ दोष भोजन बनाने से पूर्व कुछ भोजन बनाते समय, कुछ भोजन बनाने को बाद और कुछ साधु-साध्वी को आहार देते समय लगाये जाते हैं । उद्गम दोष --४ (१) आहाफम्म दो... आहाकम्मिय आहार गहण जिसेहो ८६७. अहा वाण णिकामएज्जा, निकामयते ण य संयवेश्या । बेच्या सोयं भगवा ॥ सू. सु. १. अ. १०. पा. ११ अणुमा - दसा. द. २, सु. २ (१) आधाकर्मदोष आधाकर्मी आहार ग्रहण का निषेध- ८७. साधु आधाकमीं आहार की कामना न करे और कामना करने वाले की प्रशंसा व समर्थन न करे। स्थूल शरीर की अपेक्षा न रखता इमा, अनुजापूर्वक अनमाधि को छोड़कर स् शरीर को कृष्ण करे । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६0-585 आधाकौं आहार करने से कर्मबन्ध का एकांत कधन निषेध चरणानुपोग J५५५ इह खलु पाईणं या-जाव-उसीणं वा संगतिया नढा भवंति यहाँ (जगत् में) पूर्व-यावत्-उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु गाहावतो वा-जात्र-कम्मकरी वा। तेति च णं एवं धुतपुरुषं गाथापति -यावत् -नौकरानियाँ होते है, ये पहले से ही श्रमण भवति की आचार, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं। "जे इमे भक्ति सभणा भगवंतो सीलमंता, वयमंता, गुण- "श्रमण भगवन्त शीलवान् , व्रतनिष्ठ, गुणवान्, संपत, मंता, संजता, संवुडा, बंभचारी, उवरण मेहुणासो कम्मासो संवृत (आन्त्रवों के निरोधक ब्रह्मचारी एवं मैथुन कर्म से निवृत्त णो खलु एतेसि कप्पति आधाम्मिए असणं वा-जाय- साइमं होते हैं। इन्हें आधार्मिक अशन---यावत्-स्वादिम आहार वा भोत्तए वा, पायए वा । स्राना या पौना कल्पनीय नहीं है । से उजं पुण इमं अम्हं अप्पणी अट्ठाए णिति, अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, तं जहा-असणं वा-जाब-साइमं वा. सध्यमेयं समणाणं वह सब अशन-पावत - स्वादिम आहार हम इन श्रमणों जिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा वि अपणो अयट्ठाए असर्ण को दे देंगे और हम अथने लिए बाद में नया अशन' -पावत्या-जाब-साइम वा तिस्सामो।" स्वादिम आहार बना लेंगे। एयप्पणारं मिग्घोस सोचा णिसम्म तहप्पगार असणं वा उनके इस प्रकार यो वचन सुनकर, समझकर (साधु या -जाव-साइमं या अफासुयं अणेसणिज्ज ति मण्णमाणे सामे साध्वी) इस प्रकार के (दोषयुक्त) अशन-यावत्-स्वादिम विसंते णो पडियाहेमा । अहार को अनासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी __ -आ. सु. २, अ १, उ. ६, ६.३६० ग्रहण न करे । सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आधाम्मियं असणं वा कदाचित भिक्षा के समय प्रवेश करने पर भी गृहस्थ आधा जान-साइमं वा उपकरेग्ज वा उबक्सडेन्ज बा। तंग- कमिक अशन-यावत् --स्वादिम बनाने के साधन जुटाने लगे तिओ तुसिणीओ उबेहेज्जा "आहजमेमं पन्चाइक्लिस्सामि" या आहार बनाने लगे उसे देखकर साधु इस अभिप्राय से चपमातिढाणं संफासे । णो एवं करेजा। चाप देखता रहे कि "जब यह आहार लेकर आधेगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर दूंगा' यह सोचना माया स्थान का सेवन करना है। साधु ऐसा न करे। से पुवामेव आलोएग्जा वह पहले से ही उन्हें कहे"आउसो ! ति वा भइणो! ति वा जो खलु मे कप्पति “आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! आधामिक अशन-पावत्आहाकस्मियं अरुण बा-जाब-साइमं बा भोत्साए वा पायए स्वादिम खाना या पीना मुझे नहीं कल्पता है अतः मेरे लिए न वा, मा उपकरेहि मा उवास्थडेहि" तो (अशनादि बनाने के साधन एकत्रित करो और न बनाओ।" से सेव बर्यतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा-जान-साइमं या उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि बह गृहस्थ उपक्सवेत्ता आहट्ट वलएज्जा । तहप्पमारं असणं वा-जाव- आधार्मिक अशन-यावत्--स्वादिम आहार बनाकर लाए साइमं वा अफासुब-जाव-गो पडिगाहेज्जा। और साधु को देने लगे तो वह साधु उस अपन-थावत्-- -अ. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३९२ स्वादिम को अनासुक जानकर-पावत्-ग्रहण न करे। आहाकम्म आहारेण कम्मबंधरस एगंतकहण णिसेहो- आधाकर्मी आहार करने से कर्मबन्ध का एकान्त कथन निषेध५१८, आहाफम्माणि मुंजति, अण्णमण्णे, सकम्मुणा । ५६. आधाकम दोष शुक्त आहारादि का जो साधु उपभोग जयलिते ति जाणेज्जा, अणुवलिते ति वा पुणो । करते हैं, वे (आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का दाता तथा उप भोक्ता) दोनों सत्संबन्धी कर्म से उपलिप्त हुए हैं, अथवा उपलिप्त नहीं हुए हैं, हा Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६] चरणानुयोग कल्पस्थित अकल्पस्थित के निमित्त बने आहार के ग्रहण का निर्णय पत्र ६-८९९ एएहि बोहि ठाणेहि, वबहारो न विज्जती। इन दोनों प्रकार के निश्चय कथन से व्यवहार नही चलता एएहि दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ।' है, इन दोनों प्रकार के निश्चय कथन को अनानार जानना -सूय. सु. २, अ. ५, गा.-१ चाहिए । कप्पाकप्पट्रियाण णिमित्त आहारस्स गहण विणिच्छओ- कल्पस्थित अकल्पस्थित के निमित्त बने आहार के ग्रहण का निर्णय८६६. जे कजे कप्पट्टियाण, कप्पड़ मे अकप्पट्टियाण, नो में कप्पह- ८६६. जो (अशन यावत्-स्वादिम) कल्पस्थितों के लिए कप्पटियाणं। बनाया गया है व अकल्पस्थितों को कल्पता है. कल्पस्थितों को नहीं कल्पता है। से कडे अकप्पट्ठियाणं णो से कप्पह कपट्ठियाण, कप्पइ जो अकल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह कल्पस्थितो से अकप्पट्टियागं को नहीं कल्पता है (अन्य अकल्पस्थितों को कल्पता है । कप्पे ठिया कम्पटिया, जो कल्प में स्थित हैं वे कल्पस्थिर हैं। अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया। -कप्प. उ. ४, सु. १६ जो अकल्प में स्थित हैं वे अवल्पस्थित हैं। १ टीकाकार ने आधाकर्मी आहार करने से कर्मबन्ध होने के विषय में इस प्रकार से स्पष्टीकरण किया है-- साधु प्रधानकारणमाधाय-आश्विल्य कमाण्यांधार्माणि, तानं च पर भोजन-नसत्यादोन्युच्यन्ते, एतान्याधाकर्माणि ये भुजन्तेएते रूपभोगे ये कुर्वन्ति "अन्योऽन्य" परस्परं तान् स्वकीयेन कर्मणोपलिप्तवान् बजानीयादित्येवं नो वदेत्-तथाउनुपलिप्तवानपि नो वदेत् । एतदुक्तं भवति-आधाकर्मापि ध्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुजान; कर्मणा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मोपभोगनावश्यहया कमबन्धो भवतीत्येवं नो वदेत् । तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाहारगया:ऽधाकर्मभुजानस त निमित्त कर्मबन्ध सदभावात् अतोऽनुपतिप्तवानपि नो वदेत् । यथावस्थित्तमौनीन्द्रागमशन्यत्वेवं युज्यते वस्तुम् "आधाकोपभोगेन स्मात्कर्म बन्धः स्यान्नेति ।" यत उक्तम्-किचिन्दं कल्प्यमकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डःशय्या, वस्त्र, पात्र का भेषजाय वा । सथाऽन्येरप्यभिहितम्--उत्पत हि साऽवस्था, देषा कालामयान्प्रति । यस्यामकार्य कार्यस्यात्, कर्मकायं च वर्जयेत् ।। इत्यादि । किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह- "आभ्यां द्वाभ्या स्थानाभ्यामाथिज्ञाभ्यान्योया स्थानयोराधाकोपभोगेन कर्मबन्धभावाभावभूतयोन्यवहारो न विद्यते । तथाहि-यद्यवस्यमाधाकर्मोपभोगेनकान्तेन कर्मबन्योऽभ्युपगम्येत-एवं वाहाराभावेनापि क्बनित्सुतरामन दयः स्यात् । तथाहि-क्षुरप्रपीडितो म सम्यगीयपर्थ शोध्येत् । ततश्च वजन प्राप्युपमदमपि कुर्यात् । मूर्छादिसदभावतया च देहपाते सत्यवश्यंभावी प्रमादि व्याधातोऽकालमरणे चावरतिरङगीकृता भवत्यातं ध्यानापत्तो च तिर्यगतिरिति । आगमश्च-"सच्चत्य संजमं संजमाओ अप्पाणमेव कखेम्जा' इत्यादिनापि सदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति । तथाहि-आधाकर्मण्यपि निष्पद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीत: कर्मवन्ध इत्यतोनयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयो व्यवहरणं व्यवहारो युज्यते । तथाऽऽभ्यामेव स्थानामा समाथिताम्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितम् । -सूच. गु. २. अ. ५, गा. ८.६ को टीका पृ. ३७४ इस प्रकार टीकाकार ने दोनों एकान्त कथनों को अनाचार कहा है। कल्पस्थित-आचेलक्य आदि दस प्रकार के कल्पों के अनुसार आचरण करने वाला तथा पंचमहायतधारक कल्पस्थित कहा जाता है । भगवान् कृषभदेव और भगवान महावीर के अनुयायी श्रमण कल्प स्थित कहे जाते हैं । अकल्पस्थित-चार मह व्रत धारक अकल्पस्थित कहा जाता है। भगवान् अजितनाय से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यन्त के अनुयापी श्रमण अकल्पस्थित कहे जाते हैं। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०० आसक्तिपूर्वक आधाकर्म आहार करने का फल चारित्राधार [५५७ आसत्तिपुवकयं आहाकम्माहारस्स फलं- आसक्तिपूर्वक आध कर्म आहार करने का फलtre, प०--आहाकम्मं गं मंते ! भुजमाणे समणे णिग्गंधे, १. कि १००प्र०-भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उप बंधति ?, २. कि पकरेति ?, ३. कि चिणाति ?, ४. कि भोग करता हुआ श्रमण निन्थ (१) क्या बांधता है ? (२) क्या उपचिणाति? करता है ? (३) किसका चय (वृद्धि) करता है और (४) किसका उपचय करता है? उ०-गोयमा ! आहाकम्म णं मुंजमाणे आग्यवज्जाओ सत्त- उ०-गौतम ! आधाक दोपयुक्त आहारादि का उपभोग कम्मपगडीओ बंधा करता हुआ श्रमण निर्मन्य आधुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को बांधता है। आउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिप नो बंधइ । आयुकर्म कभी वांधता है, कभी नहीं बांधता है। सिदिलबंधण बक्षाओ धणियबंधणबद्धाओ परेड, शिथिल वन्धन से बंधः हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन मे बंधी हुई बना लेता है।' हस्सकालठितियाओ वोहकालठिति याओ पमरेद, अल्पकाल वाली कर्मप्रकृतियों की स्थिति की दीर्घकाल वाली स्थिति करता है। मंदाणुभावाओ तिवाणुभाषाओ परेड, नन्द रस बाली कर्मप्रकृतियों को तीच रस वाली करता है। अध्पपएसम्गाओ बहुपएसम्गाओ पकरेइ अल्पप्रदेश वाली कर्मप्रकृतियों को बहुत प्रदेषा वाली करता है। असापावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो चिगाइ, असातावेदनीय कर्म का पुनः पुनः चयन संचय) उपचयन उचिणाह, (वृद्धि) करता है । अगाइयं च णं अणक्यां दीहम पाउरंत-संसार-कतारं अनादि अनन्त दीर्घकाल पर्यन्त ऋतुगंतिमय संसार रूप अणुपरियट्टह, अटवी में परिभ्रमण करता है ! प०-से केणठेगं भंते । एवं बुम्बई प्र०.-भगवन् ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है-- आहाफम्म वणं मुंजमाणे आउयवज्जाओ सस कम्मपग- आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि क उपभोग करता हुआ डोओ बंधक, जाद-अणाइयं च पं अणवयग दोहमा चाउ- श्रमण निन्य आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को रंत संसार कंतारं अणुपरिया ? काँधता है यावत्-अनादि अनन्त दीपकान पर्यन्त चतुर्गतिमय संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करता है? उ०-गोयमा! आहाकम्म च भंजमाणे आयाए धम्म 30--गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता अइक्कम, हुआ श्रम नियन्य अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है। आयाए धम्म अतिकम्ममाणे पुढविकायं णावखति-जाव- अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हुआ (साधक) पृथ्वीतसकायं गावखति, काय के जीवों की परवाह नहीं करता है-पावत्-सकाय के जीवों की परवाह नहीं करता है। जेसि पिय मंजीवाणं सरोराई आहारमा हरेइ ते वि जीवे जिन जीवों के शरीरों का वह आहार करता है, उन जीवों गावकखति, को भी चिन्ता नहीं करता। से तेणटेणं मोयमा ! एवं वुश्चर-- हे गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है''आहाकम्मं च णं भुजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपग- "आघाकर्म दोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ डीओ संधइ-जाव-अणाइयं च णं अणबयग्गं वोहमा नाज- श्रमण निन्थ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को रंतसंसारकतारं अणुपरियष्टइ।' बांधता है यावत्-अनादि अनन्त दीर्घकात पर्यन्त चतुर्ग/तेमय --वि. स. १, उ, सु. २६ संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करता है।" १ वि. स. ७, उ.८, सु.. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८] चरणानुयोग आधाकर्म आहार पहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ९०१-६०६ राधाकर्म आहाकम्माहारगहणपायच्छित्त सुत्तं याघाकर्म आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र ... ६०१. जे भिक्खू आहाकम्म भंजइ, भुजतं वा साइज्ज । १०१. जो भिक्षु आधाकर्म आहार करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उसे चातुर्मासिक अनुवातिकः परिहारस्थान (प्रायश्चिन) अणु ग्याइयं । - नि.उ.१३. सु. ६ आता है। (२) उद्देसिय दोसं (२) ओह शिक दोषउद्देसिय आहार गह्ण णिसेहो औद्देशिक आहार ग्रहण करने का निषेध - ६०२. भूयाई च समारम्म, समुद्दिस्स यजं कर । ९०२. जो आहार-पानी प्राणियों का समारम्भ करने साधुओं को तारिस तु न गिण्हेज्जा. अग्नं पाणं सुसंजर।' देने के उद्देश्य से बनाया गया है, वैसे आहार और पानी को - नूय. सु. १, अ, ११, गा. १४ सुसंयमी साधु ग्रहण न करे। दाणठविय आहारगहण गिसेहो डानार्थ समिट अर, रामा करने का निषेध६०३. असणं वा पाणग वा वि, खाइमं साइमं तहा ।। १०३. अपन, पान, खाद्य और स्वाद्य के विषय में मुनि यह जाने ज जाणेऊन सुणेज्जा वा, राणहा पगड इम ॥ या सुने कि यह दानार्थ तैयार किया गया है। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । वह भक्त पान मंयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए पंतिय पडियाइक्खें, न मे कप्पद्द तारिस ।। मुनि देती हुई स्त्री को मना करे कि-."इस प्रकार का आहार - -दस अ५. उ. १, गा. ६२-६३ मुझे नही कल्पता है।" पुण्णटूठविय आहार गहण णिसेहो पुण्यार्थ स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध९०४. असणं पाणगं या वि, साइमं साइमं तहा। १०४. अश्शन, पान, खाद्य और स्वाद्य के विषय में मुने यह जाने अंजाणेज्म सुणेज्जा वर, पुष्णट्ठा पगडं इमं ।। या सुने कि यह पुण्यार्थ तैयार किया गया है। तं भवे भत्तपाणं तु. संजयाण अकप्पियं । बह भक्त-पान संवति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए दंतिय पडियाइक्खे, न मे कापड तारिस ॥ मुनि देती हुई स्त्री को मना करे कि 'इस प्रकार का आहार -दसअ. ५. उ.१, गा, ६४-६५ मुझे नही कल्पता है।" यणिमांगठविय आहार महण णिसेहो-.. भिखारियों के लिए स्थापित आहार-ग्रहण करने का निषेध१०५. असणं पाणयं वा वि, खाइमं साइमं तहा। २५. अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को विषय में मुनि यह जं जाणेज्ज सुणेज्जा था, वणिमछा पराई दम ।। जाने वा मुने कि वह भिखारियों के लिए तैयार किया गया है। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अम्पियं । वह भन्न-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए बेतिय पडियाइखे, न मे कप्पद तारिस ।। मुनि देती हुई सी को मना कर कि "इस प्रकार का आहार -दस. अ. ५, उ. १. ग.६६-६७ मुझे नहीं कम्पना है।" समणट्ठठविय आहार गहण णिसेहो श्रमणार्थ स्थापित आहार ग्रहण करने का निषेध१०६. असणं पाणगं बा वि, खाइमं साइमं तहा । ६.०६. अशन, पान, खाद्य और म्बाद्य के विषय में मुनि यह जाने ___ज जाणेज्ज सुज्जा वा. समणट्ठा पगा इमं ॥ या सुने कि यह धमणों के लिए तैयार किया गया है। १ (क) आ. सु. २, अ. १. उ. १, गु. ३६१ (ख) आ. सु. १, अ. ८. मु. २०४-२०५ (ग) सूय. सु. २, अ. १. सु. ६८७.६८८ (घ) आ. सु. २, अ.१, उ १०. सु. ३६७ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०६-६११ पूतिकर्म दोषयुक्त आहार का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५५६ तं भवे भत्तपाणं सु, संजयाग अम्पियं । यह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए बेतिय पडियाइफ्ले, न मे कप्पा तारिस । मुनि देती हुई स्त्री को मना करे कि "इस प्रकार मा आहार -दस. अ. ५, उ. १, गा, ६८.६६ मुझे नहीं कल्पता है।" (३) पूइकम्म योसं (३) पूतिकर्म दोषपूइकम्मदोसजुत्तआहारस्स णिसेहो पृतिकर्म दोषयुक्त आहार का निषेध१०७. पूतिकम्म णं सेवेज्जा, एस धम्मै चुसीमतो। ६.०७. पूतिकर्मयुक्त आहार का सेवन न करे यही संगमी का धर्म जं किचि अभिकखेज्जा, सय्यसो तंग कप्पते ॥ है। जो अनादि किंचित् भी शंकित हो, उसका सर्वथा उपभोग -मय. सु. १. अ. ११, गा. १५ न करे। पूइफम्मदोसजुत्तआहार गहण परिणामो पूतिकर्म दोषयुक्त आहार ग्रहण करने का परिणाम६.०८. जं किचि वि पूतिकडं सतीमागंतुमीहियं । १०८ श्रद्धालु गृहस्व द्वारा आगन्तुक भिक्षुओं के लिए बनाये सहस्संतरियं मुंजे, दुपक्वं चेव सेवती । आहार से अन्य शुद्ध आहार किचित् भी पूतिकृत (मिश्रित) हो गया, उस आहार को जो साधन हजार घर का अन्तर होने पर भी खाते हैं के साधक (गृहस्थ और साधु) दोनों पक्षों का सेवन A N - - - - - तमेव अविजाणता. बिसममि अकोविया । वे पुतिकर्म सेवन से उत्पन्न दोष को नहीं जानते तथा कर्म मच्छा वेसालिया चेय, उदास्सऽभियागमे ।। बन्ध के प्रकारों को भी नहीं जानते। वे उसी प्रकार दुःखी होते हैं, जैसे वैशालिक जाति के मत्स्य जल की बाढ़ आने पर। उदगस्सप्पभावेणं, सुक्कमि घातमिति उ । बाढ़ के जल के प्रभाव से मूखे स्थान में पहुँचे हुए वैशालिक केहि य केहि य, आमिसरहिं ते बुहो । मत्स्य जैसे मांसाथीं ढंक और कक पक्षियों द्वारा सताये जाते हैं। एवं तु समणा एगे, वट्टमाणसुहेसिगो। इसी प्रकार वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मच्छा सालिया चेन, घातमेसंगतसो । मत्स्य के समान अनन्त बार विनाश को प्राप्त करते हैं। -मूव. सु. १, अ १ . ३. गा.१-४ पूइकम्मदोस जुत्त आहारं भुजमाणस्स पायच्छित्त सुतं- पुतिकर्म दोषयुक्त आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र९०६. जे भिक्खू पूर्वकम्म भुजइ, भुजसं का साइज्जइ । E६. जो भिक्षु पूर्तिकर्म दोषयुक्त आहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह मासियं परिहारवाणं अगुग्धाइय। लसे मासिक अनुवातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १, सु. ५६ आता है। (४) ठवणा दोस (४) स्थापना दोषठवणा दोसस्स पाच्छित्त सुतं - स्थापना दोष का प्रायश्चित्त सूत्र६१०, जे भिक्खू ठवणाकुलाई अगाणिय अपुच्छिय अगसिय ६१०. जो भिक्षु स्थापित कुलों को जानने पूछने या गवेषणा पुवामेव पिडायपडियाए अशुष्प विसह, अणुप्पविसंतं वा करने के पहले ही माहार के लिए प्रवेश करता है, करवाता है, साइउजइ। या करने वाले का अनुमोदन करता है। ते सेवमाणे आवज्जा मासिय परिहारठाण उधाइयं । उसे मासिक उघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ.४.सु. २२ (५) कीय दोसं (५) जीत दोषकीय आहार गहण णिसेहो क्रीत आहार ग्रहण करने का निषेध - ९११. किर्णतो कइओ होह, विषिकर्णतो य वाणिओ। ६११. वस्तु को खरीदने वाला त्रयिक (खरीददार) होता है और कर विक्कम्भि वट्टरतो, भिक्खू न भवह तारिसो॥ बेचने वाला वणिक (विक्रेता) होता है। कय और विषय की प्रवृत्ति करने वाला उत्तम भिक्षु नहीं होता है । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६०] चरणानुयोग अभिहूत आहार ग्रहण करने का निषेध सूत्र ९११-११४ मिक्खियव्यं न केयव्य, भिक्खुणा भिक्खयन्तिणा। भिक्षा-वृत्ति बाले भिक्षु को भिक्षा ही करनी चाहिए किन्तु कय विक्को महाबोसो, भिवतावितो मुहावहा ॥ खरीदना नहीं चाहिए । क्रय विक्रय महान् दोष है। भिक्षावृत्ति -उत्त. अ. ३५, गा, १४-१५ कुछ को देने वाली है। (६) अभिहडदोस (६) अभिहड़ दोष-- अभिहड आहार गहण णिसेहो अभिहृत आहार ग्रहण करने का निषेध . ६१२. जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति- पुट्ठो अबलो अहमसि, ११२. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि 'मैं रोगग्रस्त गालमहमंसि गिहतरसंकमणं मिक्खायरियं गमणाए", होने से दुर्बल हो गया है। अतः मैं भिक्षा लाने के लिए एक घर से दूसरे पर जाने में समर्थ नहीं हूं।" से सेवं वदंतस्स परो अभिहत असणं वा-जाव-साइमं वा उसे इस प्रकार कहते हुए (सुनकर) कोई गृहस्थ अपने घर आहटुबलएग्जा, से अशन यावत् स्वादिम सामने लाकर दे तो, से पुष्वामेव आलोएज्जा- "आउसंतो गाहावती पो खलु मे वह भिक्षु उसे पहले ही कहे "आयुष्मन् गृहपति ! यह घर कप्पति अभिहरं असणं वा-जाव-साइमं या भोत्तए वा से सामने लाया हुआ अशन-यावत् स्वादिम मेरे लिए सेवनीय पात्तए वा अण्णे वा एतप्पमारे। नहीं है । इसी प्रकार सामने लाये हुए दूसरे पदार्थ भी मेरे लिए -आ० स० १, अ० ८, उ० ५, सु०२१८ ग्रहणीय नहीं है।" अभिड दोसस्स पायच्छित्त सुतं अभिड़ दोष का प्रायश्चित्त सूत्र-- ६१३. जे भिक्खू गाहावह-कुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुषविट ६१३. जो भिक्षु गाथापति के कुल में आहार के लिए प्रवेश समाणे पर ति-घरंतराओ असणं वा-जाव-साइमं वा करके तीन घर के उपरान्त से अशन -पावत् -वाद्य सामने अमिहर आहट्ट विज्जमाणं पजिग्गाहेड, पडिग्गाहेतं बा लाकर देने पर ग्रहण करता है, करवाता है या करने वाले का साइज्जह। ___ अनुमोदन करता है। तं सेषमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उन्धाइयं। उसे उदघातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त आता है। -नि. ७, ३, सु. १५ (७) उभिण्णदोस - (७) उदभिन्न दोषअभिग्ण आहार गहण णिसेहो उद्भिन्न भाहार ग्रहण करने का निषेध९१४. से भिक्खू वा मिक्खूणी षा गाहावइकुतं पिंडवायपडियाए ११४. भिक्षु या भिक्षुषी गृहस्य के घर में आहार के लिए प्रदेश अणुपविठे समाणे से जं पुण गाणेज्जा असणं वा-जाव- करने पर यह जाने कि वहाँ अशन पावत्-स्वादिम आहार साहम वा मदिओलितं। तहप्पणारं असणं या-जाब-साइमं मिट्टी के लिपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार या अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजा। का असन- पावत्-स्वादिम अप्रासुक जानकर-यावत् - ग्रहण न करे । १ दसा. द. २. सु. २ २ गच्छत्यागी श्रमण जरा से जीर्थ देहवाला होने पर या किनी महारोग से अशक्त असमर्थ होने पर अपने लिए आहारादि न ला सके तो भी वह किसी गृहस्थ द्वारा लाया हुआ आहारादि न ले। यदि वह अभिग्रहधारी हो और आचारांग सु. १, अ. ८, ३. ५. पा ७ के अनुनार उसके अभिग्रह में दूसरे श्रमण द्वारा लाया हुआ आहार लेने का आगार हो तो उस से साया हुआ आहार ले सकता है। अथवा उन्न. अ १६ में उक्त मृगचर्या में रत रहकर संथारा संलेहगा करके पण्डित मरण प्राप्त हो किन्तु अभ्याइत दोष युक्त आहार न ले। गच्छवासी अशक्त असमर्थ श्रमण की वैयावृत्य करने वाले तो अन्य श्रमण होते ही हैं अत: उसके लिए अभ्याइत दोष युक्त आहार लेने का विकल्प सम्भव नहीं है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१४-६१६ उभिन्न आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति ५६१ केवली वमा-आयाणमेयं । केवली भगवान् कहते हैं-यह कर्म आने का कारण हैअस्संजए भिक्षुपडियाए मट्टिसोलितं असणं वाजाव- क्योकि असंपत गृहस्थ साधु को अशन-यावत्-स्वादिम साइमं वा उभिवमाणे पुढवीकार्य समारंभेग्जा, तह तेज- देने के लिए मिट्टी के लिपे हुए बर्तन का मुंह उपभेदन करता बाउ-वणस्सति-तसकार्य समारंभेज्जा पुरवि ओसिपमाणे खोलता) हुआ पृथ्वी काय का समारम्भ करेगा. तथा अग्निकाय, इच्छाकम्म करेजा। यायुनाय, बनस्पतिकाय और उसकाय का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पप्रचात् कर्म करेगा। भह भिक्खूणं पुलवोवविट्ठा-जाब-एस उपएसे तहप्पगार इसीलिए तीर्थकर भगवान ने पहले से ही यह प्रतिज्ञा मट्टिओलितं असणं वा-जाव-साइमं या अफासुयं-जाब-णो - यावत्-उपदेश दिया है कि मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोलपडिगाहेम्जा । - मा. मु. २, अ. १, उ. ७, सु. ३६७ कर दिये जाने वाले अशन-पावत्-स्वादिम आहार को अप्रा सुक जानकर-धावत्-ग्रहण न करे। वगवारएण पिहिर्ष, नीसाए पौडएण था। अशनादि का पात्र जल के छोटे बड़े से, पीसने की शिला से, लोढेण या वि लेवेण, सिमेण व केणइ। पोढे से या पोसने के पत्थर (लोढी) से अथवा लाख आदि से मुंह बन्द किया हुआ हो, तं च उरिमदिया वेज्जा, समणट्टाए व वायए। उसे थमण के लिये खोलकर देवे तो नुनि देने वाली स्त्री से बेलियं पडियाइरखे, न मे कम्पह तारिस ।। कहे कि "इस प्रकार का आहार लेना मुझे नहीं करूपता है।" .दस. अ.५, उ.१ गा. ६०-६१ उभिग्णआहारगहणपायच्छित्त सुतं--- उद्भिन्न आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त नूत्र६१५. भिक्खू मट्टिओलितं असणं वा-जाव-साइम वा ६१५. जो भिक्षु मिट्टी से लिप्त अशन--यावत् स्वादिम को उम्मिविय निम्भिविय बेज्ममाणं पडिग्गाहेइ पविग्यात पा लेप तोड़कर देने पर ग्रहण करता है, प्रहण करवाता है या ग्रहण साइज्जह। करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टागं उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहास्थान (डायश्चित्त) -नि. ७.१७, सु. १२५ आता है। (5) मालोहडदोसं (८) मालोपहृत दोषमालोहड आहारगहण णिसेहो--- मालोपहृत आहार ग्रहण करने का निषेध६१६. से भिक्खू वा भिक्खूणौ वा गाहावाकुलं पिंडयायपडियाए ६१६. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अणुपवि? समाणे से जं पुण जाणेज्जा-असणं बा-जाब- करने पर यह जाने कि-अशन . यावत्-स्वाध स्तम्भ पर, मंच साइमं या खंधसि वा, मंचंसि बा. मालंसिवा, पासावसि पर, माले पर, प्रासाद पर और महल की छत पर या अन्य भी बा, हम्मियतलंसि वा, अण्णयर सि बा, तहप्पगारंसि बत- ऐसे आकाशीय स्थान पर रखा हुआ है। लिक्ख जायंसि उवणिक्खिसे सिवा । तहप्पगार मालोह असणं वा-जाव-साइमं वा अफासुर्य-जात्रा ऐसा मालोपहृत अशन-यावत्-स्वाध अनासुफ जानकर यो पङिगाहेजा। -यावत् - ग्रहण न करे। केबलो यूया-आयाणमेयं । केवली भगवान्) ने कहा है-उक्त प्रकार का आहार लेना कर्मबन्ध का कारण है। अस्संजए भिक्लपडियाए पीत वा, फलगं या. णिस्सेणि वा, भिक्ष के लिए गुहस्थ पीटा, पाटिया, निसेणी या ऊस्बल उबूहलं घा, अवहट्टु उस्सविय बुरूहेजा। लाकर व खड़ा रखकर ऊपर चढ़े । से तत्य दुहमागे पपलेज्ज वा, पवढेच वा। चढ़ते हुए उसका पैर फिसल जय या वह गिर पड़े, Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] वरणानुयोग कोठे में रखे हुए आहार को लेने का निषेध सूत्र ९१६-९१६ से तत्व पयलमाणे वा, पवडमाणे वा, हत्थं चा, पायं वा, पैर फिसलने पर या गिर पड़ने पर उसके हाथ, पैर, बाटु, माटुं या, उस बा, उदरं या, सोसं वा, अण्णतरं वा कार्यसि उरू, उदर, सिर या अन्य शरीर की इन्द्रियाँ क्षत-विक्षत हो वा इन्दियजावं लूसेन्ज वा, पाणाणि वा-जाव-सत्ताणि था अभिाणेज्ज बा, बत्तेज बा अथवा उसके गिरने पर प्राणी-यावत्-सत्वों का हनन लेसेज वा, संघसेज्ज था, संघट्ट ज वा, परियावेज वा, हो जावे, वे नीचे दब जावें, मंकुचित हो जावें, कुचल जायें, फिलामेज वा, उद्दवेन्ज वा, ठाणाओ ठाणं संकामेज वा, परस्पर टकरावें. पीडित हों, संतप्त हों, त्रस्त हों, उनका स्थाजीवियाओ ववरोवेज्ज वा, नान्तरण हो या बे मृत्यु को प्राप्त हो । अह भिक्खूणं पुष्योविट्ठा एस पद्दण्णा-जाव-उत्रएसे जंतर- अतः भिक्षु को पहले से ही यह प्रतिज्ञा-यावत्-उपदेश पगारं मालोहडं असणं वा-जाव-साइमं वा अफासुयं-जाव- दिया गया है कि इस प्रकार अगन-यावत् -स्वाद्य अप्रामुक गो पहिगाहेजा।'-आ. सु. २, अ. १, उ, ७, सु. ३६५ जानकर-यावत् - ग्रहण न करे। मालोहडआहारगणस्स पायच्छित्त सुत्तं मालोपहृत आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र६१७. जे मिक्लू मालोहडं असणं वा-जात्र-साइमं वा, ६१७. जो भिक्षु मालोगहत अगन -यावत- स्वादिम देते हुए देजमाणं पजिग्गाहेद पडिग्गाहेंत वा साइज्जा। को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहार स्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. १२३ आता है। कोट्ठाउत्त आहार गहण णिसेहो कोठे में रखे हुए आहार को लेने का निषेध६१८. से मिक्खू बा, भिक्खूणो वा गाहावइकुछ पिउवाय पडियाए ६१८. भिदा वा भिक्षुणो आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अणुपविट्ठ समाणे से उजं पुण आणेना-असणं वा-जाद- करने पर यह जाने कि गृहस्थ साधु के लिए अशन-यावत् - साइमं वा कोट्ठिगातो वा कोलेजातो वा अस्संजए भिक्खु- स्वाद आहार मिट्टी आदि को बड़ी कोठी में से या ऊपर से पडियाए उपज्जिय अवज्जिय ओहरिय आहटु बलएज्जा । संकड़ी और नीचे से चौड़ी लम्बी कोठी में से ऊँचा होकर, नीचे अककर निकालकर देना चाहता है । तहप्पणारं असणं वा-जाव-साइमं वा मालोहर ति णचा ऐसे अगन-यावत्- स्वाद्य आहार को मालोपहत (दोष लामे संते गो पहिगाहेग्जा। से युक्त) जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। -आ. सु. २, अ. १. उ. ७. सु. ३६६ नाइजचे व नीए वा, नासन्ने नाइदूराओ। नवमी मुनि गृहस्थ के लिए बना हुआ प्रासुक आहार ग्रहण फासुयं परकर पिण्य, पडिगाहेज्म संजए॥ करे, किन्तु अति केचे या अति नीचे स्थान से दिया जाता हमा -उत्त. अ. १, गा. ३४ तथा अति सर्मप या अति दूर से दिया जाता हुआ प्रासुक आहार भी न ले। कोट्ठाउत्त आहार गहणस्स पायच्छित मुत्तं कोठे में रखा हुआ आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र१६. सिमखू कोट्टियाउत्तं असणं वा-लाव-साइम र उक्कु- ११६. जो भिक्षु कोठे में रखे हुए अञ्चन –यावत् -स्वाब को ज्जिय निषकुज्जिय ओहरिय देजमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गा- ऊँना होकर, नीचे झुककर, निकालकर देते हुए को लेता है, हेत वा साइजह । लिवाता है, या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठाण उग्धाइयं । उसे चातुमामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. १०,सु. १२४ आता है। निस्सेणि फलग पीढ़, उत्सवित्ताणमारहे । मंच की च पासायं, समणट्ठाए व दाबा ॥ दुरूहमाणी पवईज्जा, हत्थं पायं व लूमर । पुढविजीत्रे विहिंसेज्जा, जे य तन्निसिया जगा ।। एयारिसे महादोसे, जाणिकग महे सिणी । तम्हा माल हट भिवलं न पहिगेण्हति संजया ।। -दल. अ.५, उ. १, मा.९५-१०० Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२० (E) अभिसि दो अणिसिद्ध आहार ग्रहण विहि जिसेहो ६२० से मि वा विणू वा माहालकुल ना पडवा अनुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा जाव साइमं वा परं समुद्दिस बहिया णी तं परेहि असम नातं अणिसिद्धं अफा सुयं जाव णो डिगाज्जा । तं परेहि पयातं सम्मानिवि कार्य-ज-परिमा हेगा। - आ. सु. २. अ. १, उ. ६, सु. १६७ (१) एव तत्व नियंत विमान से लेह ॥ -- अनिष्टाहार पहण करने का विधि निषेध 7 सोलह उत्पवन दोष दोन्हं तु मुंजमाणावं, बोवि तत्थ निमंतए । विजमाणं पडिन्छेज्जा, जं तत्येक्षणियं भये ॥" इस. अ. ५,०१, गा. ५२-५३ चारित्राचार एवा समिति [५६३ (१) अनिष्ट दोष अनिसुष्ट आहार ग्रहण करने का विधि निषेध १२०. या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में हार के लिए प्रवेश करने पर वह जाने कि—- अशन — यावत् स्वादि अन्य किसी को देने के लिए निकाला है, वह आहार उनकी आज्ञा के बिना या उनके दिये बिना अप्रासुक जानकर यावत्-ग्रहण न करे । वह आहार उनकी आज्ञा मिलने पर या उनके द्वारा दिये जाने पर प्राक जानकर - यावत्---ग्रहण करे । दो स्वामी या भोक्ता हों और उनमें से एक निमन्त्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला आहार न ले। दूसरे के अभिप्राय को देखे – उसे देना अप्रिम लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो ले ले । दो स्वानी या भोक्ता हों और दोनों ही निमन्त्रित करें तो मुनि उस दीयमान आहार को यदि वह एषणीय हो तो ले ले । उत्पादन दोष—५ [ प्राक्कथन ] श्राई दुई निमित्ते, आजीव वणीम तिमिन्द्रा य । कोहे माथे माया, लोभे य हवंति इस एए ॥। १॥ पुचि पच्छा संभव दिज्जा मंते य चुष्ण जोगे य । उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥ २ ॥ - पिण्ड नि. गा. ४०८-४०६ (१) धात्री - धाय के समान बालक बालिकाओं को खिला-पिलाकर या हंसा रमाकर आहारादि लेना । (२) सूती - द्रुती के समान इधर-उधर की बातें एक दूसरे को कहकर अथवा स्वजन सम्बन्धियों के समाचारों का आदानप्रदान करके आहारादि लेना । (३) निमित्त -- ज्योतिष आदि निमित्त शास्त्रों के अनुसार किसी का शुभाशुभ बताकर आहारादि लेना । (४) आदि की प्राप्ति के लिए दीक्षित होने से पूर्व के जाति कुन बताना दीक्षित होने के बाद क बताना तथा गृहस्थ जीवन में जिस कर्म या शिला में निपुणता प्राप्त की हो उस कर्म या शिल्प के प्रयोग किसी को आजीविका के लिए बताना । (५) वनोपकदान का महत्व बताकर वा दाता की प्रशंसा करके आहारादि लेना । (६) चिकित्सा- रोगादि निवारण के प्रयोग बताकर आहारादि लेना । (७) को कुपित होकर आहारावि सेना या लाहारादि न देने पर भाग देने का भय दिखाकर आहारदिना । (८) मान - अपने जाति कुल आदि का गौरव बताकर बाहारादि लेना । (६) माया छल का प्रयोग करके आहारादि लेना । (१०) लोभ - सरस आहार के लिए अधिक घर घूमना । १ (क) दसा. द. २. गु. २ (ख) मुनि को वस्तु के दूसरे स्वामी का अभिनाय नेत्र और मुखाकृति के चढ़ाव उतार से जानना चाहिए । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.६४ घरणानुयोग अशनादि के न मिलने पर क्रोध करने का निषेध भूत्र ६२१ (११) पूर्व-पश्चात्संस्तव - आहार ग्रहण करने के पहले या पीछे दाता की या अपनी प्रशंसा करना । (१२) दिशा-बिसी लिये पग में माहापानि लेना अथवा किसी विद्या की सिद्धि का प्रयोग बताकर आहारादि लेना। (१३) मन्त्र-किसी नन्त्र प्रयोग से आहारादि लेना अथवा किसी मन्त्र की सिद्धि की विधि बताकर आहारादि लेना। (१४) चूर्ण -वशीकरण का प्रयोग करके महारादि लेना अथवा वशीकरण का प्रयोग बताकर आहार दि लेना । (१५) योग–पोन विद्या के प्रयोग दिखाकर आहारादि लेना, अथवा योन विद्या के प्रयोग सिखाकर आहारादि लेना। (१६) भूलकर्म-गर्भपात के प्रयोग बताकर आहारादि लेना। अन्तर्धान पिक-अहाट विद्या आदि के प्रयोग से अदृष्ट रहकर आहारादि लेगा। निशीथ उद्देशक १३ में धात्री आदि उत्पादन दोषों के प्रायश्चित्तों का विधान है । पिण्डनियुक्ति में प्रतिपादित उत्पादन दोषों में तथा निशीथ प्रतिपास्ति उत्पादन दोषों में क्रम भेद, संख्या भेद और पाठ भेद है। पिण्ड नियुक्ति में १६ भेद हैं और निशीथ में १५ भेद हैं। पिण्डनियुक्ति में अन्तर्धानपिण्ड नहीं है, निशीथ में है । पिण्डनियुक्ति में मूलकर्म है, निशीष में नहीं है। पिण्डनियुक्ति में पूर्व पश्चात् संस्तव है, निशीथ में नहीं है। (१) कोपपिड बोसं (१) कोपपिड दोष-- असणाइ अलाभे कोव-णिसेहो अशनादि के न मिलने पर क्रोध करने का निषेध-- १२१. एस वीरे पसंसिते जे गणिरियन्नति आदाणाए, १२१. बहू वीर प्रशंसनीय है जो भिक्षा अप्राप्ति में उद्विग्न नहीं होता है। ण मे वैति ण कुप्पेषजा, "मह मुझे भिक्षा नहीं देता" ऐसा सोचकर कुपित नहीं होता है। थोवं लन्धुण खिसए। थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निन्दा नहीं करता है। परिसेहितो परिणमेम्जा। दाता द्वारा प्रतिषेध करने पर वापस लौट जाता है। एतं मोणं समजुवालेज्जासि । मुनि इस मौन (मुनि ध) का भली भांति पालन करे। -आ. सु. १, भ.२,उ. ४, सु, ८६ बाई परघरे अस्थि, विविहं लाइम-साइमं । गृहस्थ के घर में नाना प्रकार का प्रचुर वाद्य-स्वाद्य होता न तस्य पंडिओ कुप्पे, इच्छा रेज्ज परोन वा ॥ है, (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि कोप न करे। (यो चिन्तन करे कि) "इसकी अपनी इन्छा है. दे या न दे।" सपणासणवत्यं वा, भत्त-पाणं व संजए। संयमी भुमि सामने दीख रहे गयन, वस्त्र, भोजन या पानी अदेतस्स न कुम्पेम्जा, पध्यक्खे जिय बोसओ।' आदि न देने वाले पर भी कोप न करे। -दस . १. ५. उ. २, गा. २७-२८ लहवित्ती सुसंतुठे, अम्पिच्छे सुहरे सिया। मुनि रूक्षवृत्ति, सुसंतुष्ट, अल्प इच्छा वाला और अल्प आमुरतं न गच्छेज्जा, सोच्चा चं जिणसासणं ॥ आहार से तृप्त होने वाला हो। वह जिन शासन को मुनकर -दस. अ.८, गा. २५ समझकर (अलाभ होने पर। क्रोध न करें । तुलना के लिए देखिए१ सयणासण-पाण-भोयणं, विविहं खाइमं साइमं परेमि । अदए पडिसेहिए नियठे, जे तत्थ न पउस्सई स भिक्लू ।। - उत्त.ज.५. गा. ११ २ इन गाथाओं में आहार न मिलने पर क्रोध न करने का विधान है वास्तव में ऋपिण्ड की ब्यास्था निशीथणि और पिण्ड नियुक्ति में ही दी गई है। क्रोध-पिण्ड के प्रकार और उदाहरण आदि देखिए -गि, चुणि गा. ४४३६-४४४३ -पिण्डनियुक्ति गथा ४६१-४६४ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र२२-६२५ मानपिंड दोष चारित्राचार : एषणा समिति [५६५ (२) मानपिड दोन (२) मानपिण्ड दोष६२२. जे माहणे वत्तिय जायए वा, तहम्मपुत्ते तह लेच्छ वा । ९२२. जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उमपुत्र अथवा लिच्छवी जाति वाला जे पबहए परवत्तभोई, गोतेण जे यम्मद माणबसे॥ है, प्रजित होकर गृहस्थों से दिया हुआ आहार खाता है और -सुय. सु. १, अ. १३. गा.१० अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता है वही पुरुष सर्वज्ञ के मार्ग का अनुयायी है। णिमिकंचणे भिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होइ मिलोपगामी। जो भिक्षु अकिंचना है और रू आहार से तीवन निर्वाह आजीवमेयं तु अबुजामाणे, पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥' करता है किन्तु गर्व करता है एवं प्रशंसा चाहता है तो वह - नूय. सु. १, अ. १३. गा. १२ अज्ञानी केवल आजीविका करता हुआ पुन: भव-भ्रमण करता है। (३) लोभपिउदोस-- (३) लोभ-पिण्ड दोष६२३. सिया एगइओ ल , लोभेण विणिगृहई । ६२३. कदाचित् कोई एकः मुनि सरस आहार पाकर उसे इस मा मेयं बाइयं संतं. बठूर्ण सयमायए ।। लोभ से छिपा लेता है कि आचार्य आदि को दिखाने पर वह अत्तगुरुओ सुद्धो, पहुं पावं पफुस्बई । स्वयं ले ले वे मुझे न दें, वह अपने स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला दुत्तोसओ य से होइ, निवाणं च न गच्छई। और रस-लोलुप मुनि बहुत पाप करता है, वह जिस किसी वस्तु - 1... उ. .3:-३२ से संतुष्ट नहीं होता और (ऐसा साधु) निर्वाण को नहीं पाता। संचार सेवजासण-मत्त-पाणे अप्पिच्छया पहला वि संते। संस्तारक, माय्या, आसन, भक्त और पानी का अधिक लाभ जो एवमप्पाणऽभितोसएन्जा संनोसपाहपरए स पुज्जो ॥ होने पर भी जो अलोच्छ होता है जो इस तरह अपने आप को -दस. अ.१, उ. ३, गा.५ संतुष्ट रखता है और जो संतोषप्रधान जीवन में रत है, वह ज्य है। पुष्व-पच्छा संथव दोस (४) पूर्व-पश्चात् संस्तव दोष६२४. निक्खम्म दोणे परभोपगंमि, मुहर्मगलिओररियाणुगिखें। १२४. जो श्रमण स्वगृह त्याग कर दूसरे से भोजन पाने के लिए निवारगिद्ध व महावराहे, अदूरएवेहति घातमेव ॥ दीनता करता है तथा भोजन में असक्त होकर गृहस्व को प्रशंसा करता है, वह चावल के दानों में आसक्त महाशूकर के समान शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है। अन्नस्स पाणसिहलोइयस्स, अणुप्पिय भासइ सेवमाणे । जो इहलौकिक पदार्थ अन्न, पानी आदि के लिए त्रिय पासत्ययं चेत्र कुसीलयं च निस्सारए होह जहा पुनाए । भाषण करता है, वह पाश्वस्थ भाव तथा कुशील-भाव का सेवन -सूय. स. १, अ. ७, गा. २५-२६ करता हुमा पुआल के समान निस्सार हो जाता है । पृथ्वपच्छायवदोसस्स पायच्छित सुतं पूर्व पश्चात् संस्तव दोष का प्रायश्चित्त सूत्र६२५. जे भिक्छ पुरेसंगवं वा पच्छा संयवं वाकरेड, करेंतं वा जो भिनु (दान देने के) पहले या लेछ स्तुति करता है. साइज्जा । करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आबज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्याहय । उसे मासिक उद्घा तिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। - नि.उ.२, सु.३८ १ (क) सूत्रकृतांग सूत्र में भिक्षु के लिए मान करने का निषेध है किन्तु निशीथ चूणि और पिण्डनियुक्ति में मानपिण्ड की यथार्थ व्याख्या की गई है। (ख) मानपिण्ड दोष की उदाहरण पूर्वक व्याख्या देखिये -नि, चणि गा. ४४४४-४४५४ (१) व्याख्या इस प्रकार है ओच्छाष्टिओ परेण बा, लद्धि-पसंसाहि वासमुश्त्तो । अवमाणिो परेण य, जो एसइ माणपिण्डो सो॥ - पिण्ड गा. ४६५ २ (क) मोहरंति मौनेयंण पूर्व संस्तव-पश्चात्संस्तवादिना बहुभाषितेन यल्लभ्यते तन्मौवयंमुत्पादना दोष - -पाह, सु. २, अ. ५, सु. २० की टीका (ख) पह. सु. २, अ.५, सु. में पूर्वपश्चात्मंस्तव दोष का मौर्य नाम है। ३ मंस्तव के भेद, संस्तव के दोष आदि के लिए देखिए--- -पिण्ड नि. गा. ४८४-४६३ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६] धरणानुयोग उत्पादन दोषों का वर्जन और सुख आहार ग्रहण का उपदेश सूत्र ६२६-६२७ उप्पायणा बोस यज्जण सुद्ध आहार गहणस्स य उवएसो- उत्पादन दोषों का वर्जन और शुद्ध आहार ग्रहण का उपदेश१२६. न निसज्ज-कहा-पओयणक्या ओवणियं ति । १२६. गहस्थ के घर में बैठकर धर्मकथा निमित्त कहानियाँ कहकर भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । न तिपिच्छा-मंत-मूल - भेसज्जकज्जहेउ । चिकित्सा, मन्त्र, जड़ीबूटी, औषध निर्माण आदि के प्रयोग बताकर भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। न लक्खणप्याय सुमिण जोइस-निमित्तकह-कप्पउत्तं । शुभाशुभ लक्षण, उत्पात, भूकम्पादि, स्वप्न क्ल, ज्योतिषमुहूर्त कथन निमित्तकथन, भविष्यकथन, कौतुक-जादू के प्रयोग बताकर भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए, नवि डंभणाए. नवि रक्षणाए, नवि सासणाए। दम्भ करके, आत्मरक्षा के प्रयोग की शिक्षा देकर, अनुनवि भण-रक्खण-सासणाए मिक्खं गवेसियन्वं । शासन करने का शिक्षण देकर भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। नवि वणाए, नवि माणणाए, नदि पूपणाए। वन्दन करके, सन्मान करके, पूजा करके भिक्षा ग्रहण नहीं नवि वरण-माणण-पूयणाए भिक्ख मवेसियध्वं । करनी चाहिए। नवि होलणाए नवि निवणार नवि गरहणाए । अपमान करके, निन्दा करके, अपकीति करके भिक्षा ग्रहण नवि होलण-निदण-गरहणाए मिक्खं मवेसियब । नहीं करनी चाहिए। नवि भेसणाए नवि तज्जणाए नवि तालणाए । भय दिन्जा करके, तर्जना करके, ताडना करके भिक्षा ग्रहण नदि भेषण-तज्जण-तालगाए क्विं गवेसि यक्ष । नहीं करनी चाहिए। नवि गारवेक नवि कुहणयाए नवि बणीमयाए । गर्न करक, क्रोध करके, दीनता प्रकट करके भिक्षा ग्रहण नवि गारव कुहण-वणीच्याए भिक्ष गवेसिपव्वं । नहीं करनी चाहिए। नवि मित्तयाए नवि पत्थमाए नवि सेवणाए । मित्रता करके, प्रार्थना करके, सेवा करके भिक्षा ग्रहण नहीं नवि मित-पत्थण-सेवणाए भिक्ख गनेसियव्यं । करनी चाहिए। अन्नाए, अगदिए, अदुट्ट. अवीगे, अविमणे, अकलुणे, अवि- अज्ञात कुल से भिक्षा ग्रहण करने वाला, नरस आहार करने सातो, अपरिसंतजोगी जयण-घडण-करण-चरिय-विणयगुण- में अनासक्त, नीरस आहार दाता से अद्वेष भाव वाला. आहार जोगसंपउत्ते भिक्खू सिक्खेसणाए निरते। न मिलने पर भी अदीन, आहार नहीं मिलने पर भी अग्लान -पण्ह. सु. २, अ.१, सु.५ मन वाला, दयनीय भाव रहित, विषाद रहित, अशुभयोग गहिल प्राप्त संयम साधना मे प्रयत्नशील, सुत्रानुसार अर्थ घटाने में उपयुक्त, करण चरण एवं विनय गुणयुक्त भिक्षु भिक्षा की एपणा में तत्पर रहे। धाइ पिडाइ भुजमाणस्स पायच्छित्त सुत्ताई धातृपिंडादि दोषयुक्त आहार करने वाले के प्रायश्चित्त सूत्र-- ६२७. १. जे भिक्खू घाई-पिट भुंजइ, भुजत वा साइज्जइ । १२७. (१) जो भिक्षु धातृपिंड भोगता है, भोगवाता है. भोगने वाले का अनुमोदन करता है। २. जे भिक्खू दूई पिङ भुंजा, मुंज या साइज्जह । (२) जो भिक्षु दृतिपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। ३. जे भिक्खू णिमित्त पिडं मुंजड, मुंजत वा साइजह। (३) जो भिक्षु कालिक निमिन बहकर अहार भोयत्ता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। ४. जे भिक्खू आजीविय-पिड मुंजद, मुंजतं वा साहज्जइ। ४) जो भिक्षु आजीविक (आजीविक के प्रयोग बताकर लिया हुआ आहार) पिंड भोगता है. भोगवाता है. भोगने वाले का अनुमोदन करता है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२७ बस दोष ग्रहणवणा के चारित्रधार : एषणा समिति [५६७ ५. जे भिक्खू वणीमग-पर मुजद, मुंजत वा साहज्जइ। ६. जे मिश्णू तिपिच्छा-पिङ भुजइ, मुंजेत वा साइज्जइ । ७. जे मिक्खू कोह-पिडं झुंजद, मुंजत वा साहज्जा। ८. मे भिक्खू माण-पिड मुंजइ, भुंजतं वा साइज्जइ । १. जे भिक्खु माया-पिट भुजह, मुंजत वा साइज्जइ । १०. जे भिक्खू लोभ-पिर मुंजइ, भजत वा साइज्जह । ११. जे भिक्खू विज्जा-पिर भुजइ, मुंजत वा साइजइ । (५) जो भिक्षु भिखारी के निमित निकाला हुआ आहार भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (६) जो भिक्षु निकित्सा रिड भोगता है, भोगवाता है. भोगने वाले का सनुमोदन करता है। (७) जो भिक्षु कोपपिड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (E) जो भिक्षु मानपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने बाले का अनुमोदन करता है। (8) जो भिक्षु मायापिंड भोगता है भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। १०) जो भिक्षु लोभपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (११) जो भिक्षु विद्यापिड भोगता है, भोगनाता है, भोगने वाने का अनुमोदन करता है। (१२) जो भिक्ष मन्त्रपिंड मोगता है, भोगदाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१३) जो भिक्षु चूर्णपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१४) जो भिक्षु योगपिंड भोगता हैं, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१५) जो भिक्षु अंतर्धानपिंड (अदृष्ट रहकर ग्रहण किया हुआ आहार को) भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। उसे उद्घातिक पातुसिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। १२. जे मिक्खू मंत-पिउं भुजइ, भुजंतं वा साइजइ । १३. जे भिक्खू खुण्णय-पिडं भंजइ, भुंजतं या साइजमा । १४. जे भिक्खू जोग-पिट भुजद, भुजस वा साइज्मा १५ जे भिक्खू अंताग-पिङ भुजइ, भुजत वा साइजह। त सेवमाणे आवजह घाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्याइय। --नि. उ. १३, सु. ६४-७% एषणा दोष-६ [ प्राक्कथन ] बस दोष ग्रहणषणा केसंकियमक्खिय. णिक्वित्त, पिहिय, साहरिय दायगुम्भीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय, एषण दोसा दस हवंति ।। -~-पिण्डनियुक्ति गा. ५२० (१) शंकित - किसी एक उद्गम आदि दोष की आशंक होने पर भी आहारादि लेना, (२) प्रक्षित-किसी मचित्त पदार्थ से आहारादि का स्पर्श होते हुए भी ले लेना। (३) निक्षिप्त --किसी सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ आहारादि लेना। (४) पिहित-किसी सचित्त पदार्थ युक्त पात्र आदि से ढके हुए आहारादि लेना। (५) संहत---जिस पाव आदि में सचित्त पदार्थ रखे हुए हों उन्हें वाली करके उसी पात्र आदि से आहारादि देने पर लेना। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८] चरणानुयोग शंका के रहते हुए आहार ग्रहण करने का निषेध सूत्र ६२८-१३१ (६) बायक-अन्धे से, कम्पन वात वाले से, तुष्ठरोग वाले से, गभिणी तथा जीम विराधना करके देने वाले से आहारादि लेना। (७) उन्मिश्र- किसी भी सचित्त पदार्थ से मिश्रित आहारादि लेना । (८) अपरिणत-सर्वथा अनित्त हुए बिना अर्थात् सचित्त या मिश्र आहारादि लेना । (e) लिप्त हाथ पात्र आदि सचित्त पदार्थों से संसृष्ट (सरडे हुए) हों, उनसे भिक्षा ग्रहण करना। (१.) छदित - यदि कोई कुछ गिराते हुए आहारादि दे उससे लेना। थे दोष गृहस्य अविवेक से और साधु साध्वी आसक्ति आदि से लगाते हैं। (१) संकियदोसं (2) शंक्ति दोषसंकाए चट्टमाणस्स आहार गहण णिसेहो-- शंका के रहते हुए आहार ग्रहण करने का निषेध६२८. से भिक्खू वा. भिक्खूणी वा गहावहकुलं पिंडयाय पडियाए १२८. महन्थ के घर में भिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से प्रविष्ट अगुपविट्ठ समापे से ज्जं पुण जाणेज्जा भिक्षु या भिक्षुणी यदि वह जाने किअसणं बा-जाव-साइमं या एसणिज्जे सिया, अणेमणिज्जे 'अशन यावत्-स्वादिम एषणीय है या अनेषणीय" इस सिया वितिगिछ समावण्णे अपाणणं असमाहा लेस्साए तरह उसका चित्त आशका से युक्त हो और उसकी असमाधित अवस्था रहे। तहप्पणारं असणं वा-जाव-साइमं वा अकासुर्य-जाव-जो इस प्रकार के अप्शन - यावत्- स्वादिम को अप्रासुक जान पडिगाहेज्जा ।' -आ. सु. २, अ. १. उ. ३, सु. ३४३ कर-यावत् - ग्रहण न करे । (२) निक्खित्तदोसं (२) निक्षिप्त दोषपुढवीकायपइट्ठिय आहार गहण णिसेहो पृथ्वीकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषध६२६. से भिक्खू बा. भिक्खूणो वा गाहावइकुलं पिडवाय पडियाए ६२६. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अपविटु समाणे से ज्जं पुणं जागरजा-- यदि यह जाने किअसणं या-जाव-साइमं वा पुडविक्कावपति द्वित, __अशन--यावत्-स्त्रादिम आहार पृथ्वीकाय पर रखा हुआ है. तहप्पगारं असणं वा-जाव-साइमं या अफासुसं-जाव-गो इस प्रकार के अशन-यावत्-स्वादिम को अशासुक जानपडिगाहेजा। कर-यावत्--ग्रहण न करे —ा० सु. २. अ० १. उ०७, मु. ३६८ (क) आउकाय पइट्टिय आहार गण गिसेहो अपकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेध१३०.से मिक्खू बा, भिक्खूणी या गाहावरफुलं पिडवाय पडियाए ९३७. गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्ति के लिए प्रविष्ट भिक्ष या अणुपविट्ठ समाणे से जं पुण जाणेज्जा भिक्षुणी यदि यह जाने किअसणं वा-जान-साइमं वा आउकायपतिट्टितं. अशन --यावत् स्वादिम अपनाय पर रखा हुआ है, सहप्पगारं असणं बा-जाव-साइम वा अफासुयं-जावणो इस प्रकार के अशन--यावत् - स्वादिम माहार को अपा. पडिन्गाहेजा। मुक जानकर-यावत् -- ग्रहण न करें। -आ. सु. २, अ. १. उ. ७. सु. ३६८ (ख) तेउकाय पइट्ठिय आहार गहण णिसेहो - अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेध६३१. से भिक्स्यू या, भिक्खूणो वा गाहावडकुले पिटवाय पडियाए ६३१. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अणुपवि? समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा-- यदि यह जाने कि, १(क) जं भवे भत्तपाणं तु. कापाकापम्मि संवियं । देंतिय पडिया इक्वे, न मे कप्पर तारेसं ॥ ---दस.अ. ५, उ १, गा.५६ २ (ख) असणं पाणगं वा बि, माइमं साइमं तहा। उदगम्मि होज्ज निक्षितं, उत्तिंग-गणगेर्नु वा ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु, गंजयाणं अकप्पियं । देतियं पटियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिनं ।। -दनअ. ५, उ. १, गा. ७४-७५ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३१ अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का मिषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५६९ असणं वा-जाव-साइमं या अगणिणिक्खितं, अशन-थावत् -स्वादिन आहार अग्नि (अंगारों) पर रखा हुआ है, तहप्पगारं असणं या-जार-साइमं वा अफासुयं-जाव-णो उस अपन—पावत्-स्त्रादिम को अग्रासुक' जानकर पहिगाहेज्जा। -यावत्-ग्रहण न करे। केवलो भूया--आयाणमेयं । केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मों के उपादान का कारण है। अस्संजए भिक्खूपडियाए उस्सिंघमाणे वा, निस्सित्रमाणे वा, क्योंकि असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे आमग्जमाणे वा, पमन्जमाण वा, उत्तरमाणं था, उयत्तमार्ण हुए बर्तन में से आहार को निकालता हुआ, देने के बाद शेष वा, अगणिजीये हिसज्जा। आहार को वापिस डालता हुआ, उसे हाथ आदि से प्रमार्जन या शोधन करता हुआ, आग पर से उतारता हुआ पा अग्नि पर ही दर्तन को टेढ़ा करता हुआ अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा। अह भिक्खूणं पुटवोदिट्टा एस पडणा-जाव-एस उबएसे जं अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भग्वान् ने पहले से ही यह सहप्पगारं असणं वा-जाव-साइमं वा ठागणिणिक्खितं अफा- प्रतिज्ञा यावत् - उपदेश दिया है कि वह अग्नि अर्थात् (अंगारों) सुर्य-जाव-जो पडिग्गाहेम्जा । पर रखे हुए अशन-यावत्-स्त्रादिम को अप्रामुक जानकर -आ. सु. २. अ. १, उ. ६, गु. ३६३ -यावत्-ग्रहण न करे । से भिक्खू वा भिक्खणी वा गाहावइकुलं पिण्डवाय पडियाए गृहस्थ के घर में आहाराय प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि अणुपविठे समाणे से उजं पुण जाणेज्जा--- यह गने किअसणं वा-जाथ-साइमं वा अगणिकायपतिद्वितं, अशन-यावत्-स्वादिम अनिकाय (चूल्हे) पर रखा हुआ है। तहप्पगारं असणं था-जाव-साइम वा अफासुयं जान-णो ऐसे अशन-यावत्-स्वादिम को अप्रासुक जानकर पडिगाहेज्जा। -यावत्-प्रहण न करे। केवली ब्रूया-आयाणमेयं । कवली भगवान् कहते हैं-यह कमों के उपादान का कारण है। अस्संजए भिक्षुपडियाए अणि उस्सक्कियं, णिस्सक्कियं, क्योंकि असंयत गृहस्थ सात्र के उद्देश्य से अग्नि में ईधन ओहरियाहमु दलएग्जा। राजकर अथवा निकालकर या बर्तन को उतार कर माहार लाकर देग। जं तहप्पगार असणं वा-जाव-साम वा अगणिकाय गाड़ियं। इसलिए तीर्थकर भगवान् ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही अह भिक्खूणं पुथ्वोचदिट्ठा एस पइण्णा-जाव-एस उपएसे यह प्रतिज्ञा-यावत् --उपदेश दिया है कि यह चूल्हे पर रखे हुए अफासुयं-जावणो पडिगाहेज्जा। अशन - यावत् - स्वादिम को अत्रासुक जानकर-यावत् - ---आ. सु. २,भ.१.उ.७.सु. ३६८ (ग) ग्रहण न करे। असणं पाणगं वा वि, साइमं साइमं तहा। अणन पान खाद्य स्वाद भग्नि पर रखा हुमा हो उसे अगणिम्मि होज्न निक्षितं, तं च संघट्टिया दए ॥ देती हुई स्त्री यदि अग्नि का शं करके दे तो भिक्षु उसे कहे . तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । "ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है, अतः मुझे लेना दतियं पडियाइखे न मे पद तारिस ॥ नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । अशन पान खाय स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे अगणिम्मि होज्ज निक्खितं, तं च उस्सक्किया थए । देती हुई स्त्री यदि अग्नि में इंधन देकर दे तो भिक्षु उसे कहेतं भवे मस-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं। 'ऐसा भक्त पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है. अतः मुझे लेना रेलियं पडियाइने न मे कप्पइ तारिस ॥ नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि, खाइम साइमं तहा। अशन पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे अगणिम्मि होज निक्खितं, तंच ओसक्किया बए।" देती हुई स्त्री यदि अग्नि में से धन निकालकर दे तो भिक्षु उसे Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७०] चारित्राचार वनस्पति काय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निवेश मूत्र ६३९-१३२ तं भवे भात-पाणं तु, संजयाण अकपियं । कहे -"ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है, अत: देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पद तारिख ।। मुझे लेना नहीं कल्पता है।" असणं पापगं वा वि, बाहर्म साइमं तहा। अशन पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उन्ने देती अगणिमि होज निक्खितं, त च उपजालिया दए । हुई स्त्री यदि अग्नि जल कर के दे तो भिक्षु उसे ऐसा कहेतं प्रवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अस्पियं । "ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए ही कल्पना है, अतः मुझे लेना वैतियं पडियाइने, न मे कप्पद तारिस ॥ नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि, खाइम साइमं तहा। अशन पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे देती अगणिम्मि होज्ज निक्खितं तं च पज्जातिया दए॥ हुई स्त्री यदि अग्नि प्रज्वलित करके दे तो भिक्षु उसे माहेतं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अप्पियं । "ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पना है, अतः मुले दंतियं पडियाइफ्ले, न मे कप्पह तारिसं ॥ लेना नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि, खाइसं साइमं तहा । अशान पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे देती अगणिम्मि होज्ज निक्खितं, तेच निव्वादिपा बए ।। हुई स्त्री यदि अग्नि बुझाकर के दे तो भिक्षु उसे कहे-'ऐसा तं भवे भत्त-पाणं तु. संजयाण अफस्पियं । भक्त-पान संपतों के लिए नहीं कल्पता है, अत: मुझे लेना नहीं दंतियं पडियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि. खाइमं साइमं तहा। अशन पान खाद्य स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे देती अगणिम्मि होज्ज निविखतं,चइस्भिचिया दए । हुई स्त्री यदि अग्नि पर रखे हुए पात्र रो निकालकर दे तो भिक्षु तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । उसे कहे--"ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है, बेतिय पडियाइष, न मे पप्पा तारिस ।। अतः मुझे लेना नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं या वि, खाइम साइम तहा । ___अशन पान खाद्य स्वाथ अग्नि पर रखा हुआ हो उसे देतो अगणिम्मि होज्ज निक्खित.तं च निस्मिनिया दए । हुई स्त्री यदि अग्नि पर रन्ने पत्र में पुनः डालकर दे तो भिक्षु से भवे मत्त पाणं तु, मंजाणं अकप्पियं । उसे कहे- "ऐसा भल-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है अतः बेतिय पखियाइक्खे, न मे कप्पर तारिस । मुझे लेना नही कल्पता है।" असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। ___अचान पान खाच क्वाच अग्नि पर रखा हुवा हो उसे देती अगणिम्मि होज्ज निविखतं, संच ओवत्तिया दए। हुई स्त्री यदि अग्नि पर रखे हुए पात्र को टेढ़ा करके दे तो भिक्षु रो मवे भत्त-पाणं तु, संजयाणं अकप्पिय । उसे कहे .--"ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता है, अतः ऐतियं पडिमाइक्खे, न मे कप्पा तारिसं ॥ मुझे लेना नहीं कल्पता है।" असणं पाणगं पा वि, खाइमं साइमं तहा । अशन पान खाच स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो उसे देती अगणिम्मि होन्ज निक्खितं, तं च ओयारिया वए । हुई स्त्री यदि अग्नि पर रखे हुए पात्र को उतार करके दे तो तं भवे मत्त-पाणं तु, संजयाणं अप्पिमं । भिक्षु उसे कहे-"ऐसा भक्त-पान संयतों के लिए नहीं कल्पता उतियं परियाइपखे, न मे कप्पड़ तारिसं॥ है, अतः मुझे लेना नहीं कल्पता है।" -दस. अ.५, उ. १, गा. ७६-८५ वणस्सईकायपइट्ठियआहारगणिसेहो वनस्पतिकाय प्रतिष्ठिन आहार ग्रहण करने का निषेध - १३२. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिडवायपडियाए ६३२. गृहस्व के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अणुपषिटु समाणे से उलं पुण जाणेजा - यह जाने कि--- असणं या-जाब-साइमं वा वस्सतिकायपतिठियं । यह अगना-यावत्--स्वादिम आहार वनस्पतिकाय (हरी सजी पत्ते आदि) पर रखा हुआ है, तहप्पणारं असणं या-जा-साइमं या अफासु-जय-गो उस प्रकार के बनस्पतिकाय प्रतिष्ठित अशन-यावतपडिगाहेकजा ।-आ. सु. २, अ.१, उ. ७, सु. ३६८ (घ) स्वादिम आहार को अप्रासुक जानकर--यावत्-ग्रहण न करे। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्र ६६३-६३६ त्रसकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेत्र चारित्राचार : एषणा समिति [२७१ तसकायपट्टियाहारगहणणिसेहो श्रसकाय प्रतिष्ठित आहार ग्रहण करने का निषेध-- ९३३. से भिक्ख वा, भिक्खूणी वा गाहावइकुल पिण्यायपजियाए ६३३. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षणी अणुविठे समाये से ज्ज पुष जाणेज्जा यह जाने कि--- असणं वा-जाव-साइमं बातसकायपतिदिठरा । अशन-यावत्-स्वादिक आहार प्रसकाय पर रखा हुआ है, तहप्पगारं असणं वा-जाव-साइमं वा अफासुग-यो उस प्रसार करताय प्रतिष्ठिः सात-यावत्-स्वादिम पडिगाहेजा। - आ. सु.२, अ. १, उ. ७, सु. ३६८ (च) को अप्रासुक जानकर—यावत्-ग्रहण न करे।। णिक्खित्तदोसजुत्तआहारगहणस्स पायच्छित्त सुत्ताइं-- निक्षिप्त दोष युक्त आहार ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र९३४. जे भिक्खू असणं वा-जाव-साइमं का पुषि-पददिव्य, १३४. जो प्रिक्षु सचित्त पृथ्वी पर स्थित अशन--यात्रत्--स्वादिष पडिग्गाहेइ, पडिमाती वा साइम्जा । आहार को लेता है, लिवाला है, लेने पाने का अनुमोदन करता है। जे भिक्षु असणं या-जाब-साइम वा आउ-पहिय, जो भिक्ष सचित्त जल पर स्थित अशन -पावत्-स्वादिम पविगाहेह, पडिग्गाहेत वा सामाना। आहार को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू असणं वा-गाव-साइमं वा तेज पइद्रियं, जो भिक्षु सचित्त अग्नि पर स्थित अशन-यावत्-स्वापरिग्गाहेइ, पडिमगात या साइमन । दिम आहार को लेता है, लिवाता है. सेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू असणं वा-जाब-साइम वा पणफइ-पइव्यिं , जो भिक्षु सचित्त बनस्पति पर स्थित अशन--बावत्पडिग्गाहेइ, पहिमपात वा साइजइ । स्वादिम आहार को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जह घाउम्मासिय परिहारदाण उग्याइयं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान' (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १७, सु. १२६ १२८ आता है। (३) दायग दोसं-- (३) दायग दोष-- गुन्विणीहत्येण आहार गहण गिसेहो गर्भवती के हाथ से आहार ग्रहण का निषेध६३५. सिया य समणट्ठाए, गुठियणीकालमामिणी। २३५. प्रनव काल के महिने को प्राप्त गर्भवती म्बी खड़ी हो उद्विया वा निसीएज्जा, निसमा दा पुणहए। और श्रमण को भिक्षा देने के लिए कदात्रित बैट जाये अथवा तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । बैठी हो तो खड़ी हो जाये उनके द्वारा दिया जाने वाला भक्तदेतिय पजियाइवे, न मे कप्पद तारिस ॥ पान संयमियों के लिए अकल्प्य होता है। अतः मुनि देती हुई -दस. अ. ५. उ. १, गा. ५५-५६ स्त्री को कहे "इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता " यणपेज्जमाणिहत्येण आहारगहणणिसेहो -- स्तनपान कराती हुई स्त्री के हाथ से हार ग्रहण का निषेध६३६. यणगं पेजमाणी, बारगं वा कुमारियं । ६३६. बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री उसे तं निक्विवित्त रोयंत, आहरे पागभोयणं । रोते हुए छोड़कर भक्त-पान लाये तो वह भक्त-पान संमति के तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अप्पियं । लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को कहे बतियं पडियाहक्ने, न मे कप्पड़ तारिस ॥ "इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता।" -दस. अ. ५. उ. १, गा ५७-५६ पुरेकम्म जुत्त लोणस्स महणणिसेहो पूर्वकर्म युक्त (अचित्त) नमक के ग्रहण का निषेध६.३७. से भिक्षु वा, मिक्खूणी वा गाहावाकुलं पिंग्वाय पजियाए ६३७. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अणुपविट्ठ समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा करने पर यह जाने कि Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२] वरणानुयोग पूर्वकर्म युक्त (अचित्त) सिट्टे आदि के ग्रहण का निषेध सूत्र ६३७६३६ बिलं वा लोणं, उभियं वा लोणं अस्संजए भिक्षुपडियाए, गृहस्थ ने साधु के लिए सचित्त शिला पर, सचित्त शिला वित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलुए, कोलवाससि घा, खण्ड पर, दीमक लगे जीनयुक्त काष्ठ पर तथा अण्डे-यावतु .. वामए, जीय पट्टिए, सडे, जाव-मक्य डासंताणए, भिविसु मबाड़ी के जालों से युक्त स्थान पर विड लवण (जलाया हआ वा, मिक्ति वा, मिविस्सं ति वा, रुचिमु वा, कचिति वा, नमक) या उद्भिज लवण (अन्य प्रकार से अनित्त बना नमक) चिस्सं ति बा। का भेदन किया है (टुकड़े किये हैं) भेदन करता है, या भेदन करेगा तथा लवग को सूक्ष्म करने के लिए पीसा है, पीसता है या पीसेमा। विकंवा लोणं, उग्मियं वा लोणं अफामु यं-जाव-णो पछि- ऐसे विड व उदभिज ततष को अप्रासुक जानकर-यावत् गाहेज्जा । --आ. सु. २, म. १, उ. ६, सु. ३६२ ग्रहण न करे । पुरेकम्म जुत्त पिहुयाई गहणिसेहो पूर्वकर्म युक्त (अचित्त) सिट्टे आदि के ग्रहण का निषेध१३८, से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिंडबायपडियाए ६३८. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुती अणुपवि? समाणे से जं पुण जाणज्जा यह जाने किपिहयं बा, बहरयं वा, मुंजियं वा, मंथं वा, चाडलं वा, गेहूँ आदि के सिट्टे, जवार जौ आदि के सिद्दे- अग्नि में पाउलपलयं वा अस्संजए भिक्ल पजियाए चित्तमंताए अर्द्धपक्व या टुकड़े तथा मालवीहि आदि या उनके टुकड़े, इन्हें सिलाए, चिसमताए लेपुए, कोलवाससि वा दारुए जीय- गृहस्थ ने भिक्षु रिए सचित्त शिला पर, सचित्त शिरला खंड पर पलिट्टिते सरे-जाव-मकतासंताणए. कोट्टिए वा, कोट्टति या दीमक लगे हुए जीवाधिष्ठित काठ पर तथा अण्डे-यावतबा, कोट्टिस्सति वा, 'उस्फणिसु बा, उप्पणंति वा उप्फणि- मकड़ी के जालों से मुक्त स्थान पर उन्हें फूट चुका है, कूट रहा संति बा, है या कूटेगा या उपन चुका है, उफन रहा है या उफनेगा, तहप्पगार पिडयं बा-गाव-चाउलपल वा अफासुयं-जाब- इस प्रकार के गेहूँ आदि के सिट्टों-यावत्-शालि आदि णो पडिगाहेजा। --मा. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३६ के टुकड़ों को अप्रासुक जानकर - थावत् ग्रहण न करे । पुराकम्मकडेण हत्थाइणा आहारगहणस्स णिसेहो-- पूर्व कर्मकृत हाथ आदि से आहार ग्रहण का निषेध--- १३६ से भिक्खू घा, भिक्खूणी का गाहावह कुल पिडचायपवियाए ६३६. भिक्षु वा भिक्षुणी गाथापतियों के घरों में आहार के लिए अशुपविढे समाणे सत्य कंचि मुंजमाण पेहाए, संजहा . प्रवेश करने पर यहाँ विसी गाथापति यावत्-कौकरानी को गाहावई वा-जाव-कम्मकरी वा से पुशमेव आलोएज्जा-- भोजन करते हुए देखे तो उन्हे आहार लेने से पहले ही कहेआउसो ति वा । अगिणी ! ति आ दाहिसि मे एत्तो अण्ण- "आयुष्मान् गृहस्थ ! पा बहिन ! इनमें से किसी एक यर भोयणं जायं प्रकार का भोजन मुझे दोगे ?' से सेवं बवंतस्स परो हरथं शा, मत्तं वा वयिं या, भायणं उनके ऐसा कहने पर गृहस्थ हाथ, लघुपान, चम्मच या वा, सोतोवगवियण वा, उसिणोदवियदेण वा उच्चछोलेन्ज भोजन को अमित शीत था उष्ण जल में धोए तोवा, पोएज्ज वा, से पुष्वामेव आलोएज्जा भिक्ष उन्हें पहले ही कहे -- "आउसो । त्ति वा भगिणी ! ति वा मा एयं तुम हत्य "हे आयुष्मान् गृहल ! या बहिन! तुम हाय-यावस्वा-जाद-मायणं वा सीओदगवियरेण चा, उसिणोगवियण भाजन को अचित्त शीत गा जण जल से मत धोओ मुझे देना वा, उच्छोलेहि वा, यधोबेहि वा अभिकखसि मे बाउँ एमेव चाहते हो तो हाप आदि के छोए बिना ही दे दो।"। दलयाहि।" से सेवं ववंतस्स परो हत्थं वा-जाव-भावणं वा सोओग- ऐसा कहने पर भी गृहस्थ हाय-यावत् राजन को वियडेण वा, उसिणोदधियडेग वा उच्छोलेत्ता पा पधोएसा अचित्त शीत या उष्ण जल से धोकर दे लोया आहट्ट बलएज्जा, Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सूत्र ६३६-६४१ पूर्वकर्मकृत हाच आवि से आहार लेने का प्रायश्चित्त चारित्राचार : एषणा समिति (५७३ तहप्पगारेणं पुराकम्मकोण हत्येण वा-जाद-भायणेण वा ऐसे पूर्वकर्मकृत हाथ---यावत् भाजन से अशन-यावत्असणं या-जाव-साइमं या अफासुयं जाव-णो पङिगाहेज्जा।' स्वाद्य को मनासुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे । -आ. सु. २, म. १, उ. ६, सु. ३६० (२) पुराकम्भकरेण हत्याइणा असणाई गिण्हमाणस्स पाय- पूर्व कर्मकृत हाथ आदि से आहार लेने का प्रायश्चित्त च्छित्त सुत्तं९४०. से भिषण पुरेकम्मकडेण हत्येण वा-जाव-भायणेण वा असगं १४०. जो भिक्षु पूर्व कर्मकृत हाथ से-यावत् -भाजन से अान या-जाय-साइम वा पडिग्गाहेर, पडिग्गा या साइज्जइ। -यावत्--स्वादिम ग्रहण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। से सेवमाणे आयज्जइ चाउम्मासि परिहारटुाणं उग्धाइये। उसे चातुर्मामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. 3. १२, सु. १४ आता है। वाउफाषिराहगेण भिक्खागहणणिमेहो पायच्छित्तं च- वायुकाय के बिराधक से भिक्षा लेने का निषेध व प्रायश्चित्त१४१. से भिषखू वा, मिलगी वा गाहाबहकुलं पिउवाय पडियाए ६४१. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार के लिये अणुपचिट्ठ समाणे से उजं पुण जाणेजा-असण वा-जाव- प्रविष्ट होने पर यह जाने पि साधु को देने के लिए यह अत्यन्त साइम या जच्चासण अस्संजए भिक्खू पबियाए सर्वेण वा, उष्ण अजान - यावत्-स्वादिम अरांपत महस्थ सूप (छाजले) से, विडयणेण वा, तालियंटेण मा, भत्तेण वा, पत्नभंगेण षा, पंखे से, ताड़ पत्र से, पत्ते से, पत्र-खंड से, शाखा में, शादासाहाए वा, साहाभंगेण वा, पिटुणेण वा, पितृणहत्येण या, खंड से, मोर के पंख से, मोरपीछी से, वस्त्र से, वस्त्रसंड से, चलेग वा, चेलकण्णण वा, हत्येण पा, मुहेण या, पुम्मेज हाथ से या मुंह से, फूंक देकर या पंखे आदि से हवा करके देने या, बीएज्ज वा। वाला हो तो साधु पहले ही गृहस्थ ने कहेसे पुवामेव आलोएक्जा- "आजसो । ति या भगिणि! ति "हे आयुष्मान् गृहस्थ ! या बहिन ! तुम इस अत्यन्त गर्म या मा एतं तुम असणं वा-जाव-साइम वा अमधुसिणं वा, अमन-यावत्-स्वादिम को सूप से यावत्-पंखे आदि से सूवेण वा-जाव-वीयाहि या अभिखसि मे वा एमेध बा करके ठंडा मत थे। अगर मुझे देना चाहते हो तो ऐसे ही दलयरहि ।" दे दो।" से सेवं वदंतस्स परो सूत्रेण वा-आव-चौइत्ता वा आहट्ट साधु के ऐसा कहने पर भी गहरथ सूप से- यावत् --पंखे वलएज्जा, तहप्पमारं असणं वा-बाब साहम वा अफासुयं आदि से हवा कर के देने लगे तो उस अशन · यावत् - स्वादिम -जाव-णो पडिगाहेज्जा। को अप्रासुक जानकर · याचन्-ग्रह न करे। -आ. मु. २, अ. १,उ. ७. सु ३६८ (घ) से भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा जाव-साइम चा। जो भिक्षु अत्यन्त उष्ण-पावत् - स्याद्य पदार्थ को--- १. सुप्पेण वा, २. विठुणेण या, ३. तालियरेण वा. (१) सूप से, (२) पंखे से, (३) ताडपत्र से, ४. पसेण बा. ५. पत्तभंगेण वा, ६. साहाए वा. (४) पत्ते से, (५) पत्रखंड से, (६) शाखा से, ७. साहाभंगेण खा, ८. पिडणेण वा, १. पिहणहत्येण चा, (७) शाखाखंड से. (८) मोरपंख से, (6) मोरपीछी से, १०. लेण वा ११. चेलक पणेण वा, १२. हत्येण वा, (१०) वस्त्र से, (११) वस्त्रबंद से, (१२) हाय से, १३. मुहेण चा, फूभित्ता बीदता आहट्ट वेज्जमाणं पडिग्गा- (१३) मुंह से, फूंक देकर चा पंखे आदि से हबा करके लाकर हे वा साइम्जा। देते हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का भनुमोदन करता है। त सेत्रमाणे आवजह घाजम्मासियं परिहारदाण उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १०, सु. १३० आता है। १ पुरेकम्मेण हत्थेण, दम्चीए भायणेण वा । नैतिथं पटियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस ।। -दस.अ. ५ उ. १, गा. ३२ २ (क) दस. अ. ४, सु. २२ (ख) दस. अ.८, गा.६ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] चरणानुयोग वनस्पतिकाय के विराधक से dreader विरागेण मिला जिसे हो-४२. उप्पलं मं वा वि, कुमुयं वा मगदंतियं । अन्नं वा पुप्फ सचित्तं तं च संतुंचिया दए ॥ शं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अफप्पियं । वेंतियं पडियाहवले, न मे कप्पड़ तारिमं ॥ उप्पलं वा विगत सम्मदिया ए शंभवे मतपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । पैंतियं पडियाले न मे कप्पड़ तारिसं ॥ - दस. अ. ५ . २. गा. १४-१७ विविहकाय विरागेण आहार महणणितेही४२. मी पाचाणि नीयाणि हरियाणव अजमकर नया तरि परिवए । - of साहटट, निविवित्ताणं, सचितं घट्टिया य । तहेब समगट्ठाए, उवगं संपणोल्लिया ॥ ओगाहहता चलता, आहारे पापभोयणं । देतियं पडियाइक्ले, न मे कप्पइ तासिं ॥ दरा. अ. ५. उ. १. मा. २५-३१ (४) उम्मसदो पाणाइस आहारगहणणिसेहो महियस्थ व परि वर्णविही ९४४ से भिक्खू वा भिक्खुणी या गाहावतिकुलं पिकवावपडियाए अणुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा -- असणं या- जाव- साइमं वा पाणेहि वा पणएहि वा बीएहि वा. हरिएहि वा संसतं, जम्मिस्तं, सीओदएण वा ओसितं सावा परिघासिय तहपगारं असणं या जाव साइमं वा परहस्यंसि वा परपास वा अफासू असपिज्जं त्ति मण्णमाणे लाभे बि संते णो पत्रिगाहेज्जर ।' से यह पारसिया से समदाय ए मेजा, एवं तमक्कमित्ता आहे आरामंसि वा अहे जयरसयसि बा, अप्पंडे, अप्पपाणे, अप्पमीए अध्यहरिते, अप्पांसे अलग-पग वगमय-मक्क हातानए विगिचियविनि आहार लेने का निषेध वनस्पतिकाय के विशयक से आहार लेने का निषेध ६४२. कोई उत्पाल, पदम कुमुद्र, मालती या अन्य किसी सचित पुष्प का छंदन कर भिक्षा दे वह भक्त-पान संगति के लिए अकल्पनीय होता है देती हुई स्त्रीको प्रतिषेध करे - "इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता।" कोई उत्पलपद्म, कुमुद, मालती या अन्य किसी सचित पुष्प को कुचल कर भिक्षा दे, वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री की प्रतिषेध करे - "इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता ।" सूत्र ६४२-६४४ विविध काम विशधक से भिक्षा लेने का निषेध ६४३. प्राणी (दीन्द्रियावि) बीज और हरियाली को कुचलती हुई स्त्री को असंयमकारी जानकर मुनि उसके पास से भक्त पान न ले । एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालकर, सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित वस्तु का स्पशंकर इसी प्रकार पावस्य सवित जल को उलीच (शिश कर सचित जन में अवगाहन अर्थात् चलकर चलाकर या हिलाकर श्रमण के लिये आहार पानी लाए तो मुनि उरा देती हुई स्त्री को कहे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता ।" (४) उन्मिषदोष प्राणी आदि से युक्त आहार ग्रहण का निषेध और गृहीत आहार के परटने की विधि — ९४४. भिक्षु या भिक्षु णी आहार प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर यह जाने कि अशन यावत् – स्वाद्य रसज प्राणियों से, फफूंदी- फूलण से, गेहूँ आदि के बीजों से हरे अंकुर आदि से संसकत है, मिश्रित है, सचित्त जल से गीला है तथा सनित्त रज से युक्त है, इस प्रकार का अशन यावत्- स्वाद्य दरता के हाथ में हो, पात्र में हो तो उसे अप्रशसुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। १ असणं पाणगं वा बि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फेसु होज्ज उम्मीसं बीएसु हरिएसु वा । तं भने भत्तषाणं तु, संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्स्खे, न मे कप्पड़ तारिसं । कदाचित् दाता या ग्रहणकर्ता को भूल से जैसा संसक्त या मिश्रित आहार ग्रहण कर लिया गया हो तो उस आहार को लेकर एकान्त स्थान उद्यान या उपाश्रय में चला जाए और वहाँ जाकर जहाँ किसके अंडे जीव जन्तु बीज, हरियाली ओस के कण, सनित्त जल तथा चीटियाँ, लीलन- फूलन, गीली 3 - दस. अ. ५, उ. १, गा. ७२-७३ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९४४-६४८ अनन्तकाय संयुक्त आहार करण प्रायश्चित्त जं च णो संचाएजा भोलए बा. पात्तए वा मे समावाय एम-एभिसा आहे शाम वा अद्विसति का विरामिति था सुसानिस या गोम यरासिंसि वा अण्णयरंसि वा सहम्यगारंसि थंडिलंस पडिले हिम- पडिलेहिय, पमज्जिय-मज्जिय, ततो संजयामेव परिवेन्ना । ...२, ५.१.१.२२४ अतकाय संजुत्तआहारकरणस्स पायच्छित सुतं - ४५. जे भिक्खू अनंतकाय-संजु आहारं आहारेद आहारतं चिप, उम्रितमेव मुंजे मिट्टी, मकड़ी के जाले दिन हो, वहाँ उस संगत आहार से वा पीएन वा । उन जीवों को पृथक करके उस मिश्रित आहार को शोध-शोधरतनपूर्वक खाने या पीने या साइज । माणे आवास परिहारद्वारा नि. उ. १०. सु. ५ परितकाय संजुत्तआहारकरणस्स पायच्छित सुतं -- २४६ परिकार संजुल्ले आहारं आहा आहा WN (५) अपरिचय दोतंअसत्यपरिणयाणं सानुवाण गणजिसेहो या साइज्जइ । सेवमाणे आवज्ज चाउम्मासि गरिन -नि. उ. १२. सु. ४ आता है। चारित्राचार एषणा समिति [५७५ यदि उस आहार का गोधनकर खाना-पीना अशक्य हो तो उसे लेकर एक स्थान में चला जाये। वहाँ द (बली हुई भूमि पर हटियों के परकोट के ढेर पर तुष (भूसे) के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर था अन्य भी इसी प्रकार की स्थंडिल भूमि पर भलीभाँति प्रतिलेखन र प्रमार्जन करके पटना पर दे अनन्तकाय संयुक्त आहारकरण प्रायश्चित्त सूत्र - ९४५. जो भिक्षु अनन्तकाय युक्त ( फूलन आदि ) आहार करता है, करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है । " उसे चातुर्मासिक अनुद्घानिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है। प्रत्येककाय संयुक्त आहारकरण प्रायश्चित्त सूत्र - तं जहा - १. पिपल वा २ पिप्पलिचणं वा ३. मिरियं या ४. मिरियण्णं वा ५ सिंगबेरं वा, ६. सिंगबेरचुवणं या अण्णतरं वा तत्पगारं आमं असरथपरिणयं अफामुयं जाव णो पडिगाहेजा । " -आ. सु. २. अ. १ प. ८ सु. ३७६ ९४६ को भा प्रत्येककार नमक वीज आदि युक्त आहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । जो बाटुर्भाकतिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) (५) अपरिणत दोष अशस्त्रपरिणत कमल कंद आदि के ग्रहण करने का निषेध ४७. क्या या २४७. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए या मिश्री यदि यह जाने कि- अपट्टि समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा तं जहा - १. सायं वा २ विरालियं वा ३. सासवणालियं वा अष्णतरं वा तत्पगार आनं असत्यपरिणतं अफासूयं जाव पाहा - आ. सु. २, अ. १, उ. सु. ३७५ ग्रहण न करें । असत्यपरिणयाणं विलिमाईण गणणिसे हो४८. वाडिया समासे - (१) कमलकन्द, (२) पलाशकन्द (कन्द) तथा अन्य भी इसी प्रकार के और शस्त्र परिणत नहीं हुए हों, तो (३) सरसो की नाल कन्द जो कच्चे (सचित) अप्रासुका जानकर यावत् अशस्त्र परिचत पिवत्यादि के ग्रहण का निषेध २४८ गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट थिए या भिक्षुणी यदि यह जाने (१)(२) पल का चूर्ण (२) मिर्च, (४) मिर्च का चूर्ण (५) अदरक, (६) अदरक का चूर्ण अथवा अन्य भी इसी प्रकार के पदार्थ जो कच्चे (सवित्त) और अशस्त्र-परिगत हो, उसे अमाक जानकर यावत्-ग्रहण न करें । नियं कुयुषं उप्पननाधियं गुणाभिं ग्रामवालियं निष्टं ॥ २ कंद मूलं गलन वा आमं छिन्नं च सन्ति । तुंबागं सिगवेरं च आमगं परिवज्जए || दस. अ. ५. उ. २, मा. १८ - इस. अ. ५ उ. १, गा १०१ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] वरणानयोग असत्यपरिणयाणं पलंबा गणनसेहो १४. सेवा भी या गावपरिया भिक्खूणी अणुपविट्ठ े समाने से जणं पुण पलंबजातं जगणेज्जा - अशस्त्र - परिणत प्रलंबों के ग्रहण का निषेध १.बं वा, ३. लालपलंबं या ४ सिसिरियलं वा ५ सुरभिपलंबं था, ६. सहलइपलंबं वा अण्णसरं वा तहयमारं पलंबा जाम असत्यपरिणयं अफासुजाव गिज्जा ।" — १. बा २ ज २ दाम बिल्ससरख्यं वा ५. अणण्णतरं वा, तहत्यारं सरटुयजातं आमं असत्यपरिणयं अफासूयं जाव णो पडिगा हेना । - आ. सु. २. अ. १, उप सु. ३७६ वा आ. सु. २. अ. १. उ. सु. ३७७ असत्यपरिणयार्थ गहणजिहो ५०. से भिक्खू वा भिक्खूणो वा गाहाबदकुलं विडवायपडियाए अणुपट्टि समाने से ज्जं गुण पवालजातं जाणेज्जा-तहासावा. २. मोबा. ३. पिलखुवा का. ४. णिपूरपवालं बा ५. सहलइपवाल वा ६. अष्णतरं वा तहमगारं पवालजारां आमं असत्य परिणयं अकासु जाव णो वडिगाहेज्जा ।" "आ० सु० २ अ० १०८ सु० ३३८ कर यावत्-ग्रहण न करे । असत्यपरिणयाणं सरयाणं गहण णिसेहोअशस्त्र परिणत कोमल फलों के ग्रहण का निषेध५१. से भिक्खू वा भिक्खूनी वा गाहावलं पिढवायपडियाए ६५१. गृहग्य के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या अणुपविट्ट समाणे से बजं सरहुयजाये जाणेज्ना से जहा भिक्षुणी (जिसमें गुठली नहीं पड़ी हो ऐसे) कोमल फल के संबंध में यह जाने कि:-- असत्यपरिणयाणं उच्छु मेरगाईणं गणणिसेहो -- ६५२. से भिक्खू वा भिक्खुणी' या गाहावनकुलं पिवायपडियाए समाने से उलं पुण जाणेज्जा, जहा १. उमे... ४. कसे वा ५. सिंघा वा ६.वा. अण्णतरं वा तहगारं आमं असत्थपरिणयं अफासुर्य जाव गोपा www अगस्त्र-परिणत प्रलंबों के पण का निषेध ९४९. गृहस्थ के नहीं आहार के लिए प्रविष्ट भिए, या भी प्रलम्ब (फल) के विषय में यह जाने कि- सूत्र ६४६-६५२ (१) आत्र फल, (२) अम्बाडग फल ( ३ ) ताल फल, (४) लता फल, (५) सुरिभ फल, (६) शल्यकी फल, त्या इसी प्रकार के अन्य फल जो कच्चे (सविस) और अस्त्र परिणत हों तो अप्राक समझ कर यावत्-ग्रहण न करे । अशस्त्र परिणत प्रवालों के ग्रहण का निषेध६५०. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु, या भिक्षुणी प्रवाल ( पत्तों) के विषय में यह जाने कि- (१) पीपल वृक्ष का प्रवाल (२) बड़ वृक्ष का प्रबाल, (३) प्लक्ष वृक्ष का प्रवाल, (४) नन्दी वृक्ष का प्रभाव, ( ५ ) शल्यकी वृक्ष का प्रवाल या अन्य भी इसी प्रकार के प्रवाल जो कच्चे (चित्त) और अगस्त्र परिणत हों, तो अप्राक जान (१) आम्रवृक्ष कर कोमल फल, (२) कबीठ वृक्ष का कोमल फल, (३) अनार का कोमल फल, (४) बिल्व का कोमल फल, अनया अन्य भी इसी प्रकार का कोमल फल, जो कि कच्चा (चित्त) और अशस्त्र-परिणत है तो अनाक जानवर यावत्ग्रहण न करे। अगस्त्र-परिणत आदि के का निषेधइक्षु ग्रहण ६५२. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या भिणी यदि यह जाने कि- -आ. मु. २, अ. १, उ. सु. ३०२ - यावत् ग्रहग न करे । , (१) इखण्ड-गंडेरी, (२) अंककरेल, (२) निवारक, (४) करोरू, (५) सिवाडा एवं (६) पूर्ति आलुक नामक वनस्पति है अथवा अन्य भी इसी प्रकार की वनस्पति विशेष है, जो क कच्ची (सनित्त) तथा अवस्य परिगत हो तो अप्रामुक जानकर १ कप्प. उ. १, सु. १ २ तरुणगं वा पवालं, रुक्मस्य तणगस्स वा अन्नरस वा वि हरियम्स आमगं परिवज्जए || ३ कविदु माउलिंग च मूलगं मूलगतियं आमं असत्यपरिणयं मासानि पत्थए । - दम. अ. ५. उ. २. ग्रा. १६ - दस. अ. ५. उ. २. गा. २३ T Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५३-६५६ भशस्त्रपरिणत उत्पलादि के ग्रहण का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५७७ असत्थपरिणयाणं उप्पलाईणं गहणिसेहो अशस्त्रपरिणत उत्पलादि के ग्रहण का निषेध६५३. से भिक्खू वा, भिश्वणी वा गाहावहफुलं पिटवायपडियाए ६५३. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या भिक्षणी अणुपविढे समागे से जं पुण जाणेज्जा, सं जहा- यह जाने कि१. उप्पल वा, २. उप्पलगाल वा, ३. भिसं वा, (१) नीलकमल है, (२) कमल की नाल है. (३) पद्म ४. भिसमुणालं या, ५. पोस्खलं वा, पोक्ख लत्थिन कन्दमूल है, (४) पद्म कन्द के ऊपर की लता है, (५) पद्म था, अण्णतरं वा तहप्पगारं आम असत्यपरिमयं अफासुयं केसर है या, (६) पद्मकन्द है, तथा इसी प्रकार अन्य कन्द है जावणी पडिगाहेजना। जो कच्चा (मचित्त) है वह शस्त्रपरिणत नहीं है, तो उसे -आ. सु. २, अ. १, उ.सु.३८३ अप्रामुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे । असत्यपरिणयाणं अग्गबीयाईणं गहण णिसेहो अशस्त्रपरिणत अग्रवीजादि के ग्रहण का निषेध१५४. से मिक्खू या, भिक्षी वा गाहावइकुलं पिंजवायपपियाए ६५४, गुहस्य के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या अणुपषिदु समाणे से ज्ज पुणं जरणेज्जा-तं जहा- भिक्षणी यदि यह जाने कि-- १. अग्गीयाणि वा, २. मूलबीयाणि वा, ३. खंधबीयाणि वा. (१) अबबीज वाली, (२) मूल दौज वाली, (३) स्कन्ध ४. पोरबीयाणिवा, ५. अरगजायाणि वा, ६. मूलजापाणि बीज वाली, (४) पर्वबीज वाली वनस्पति है, (५) अनजात, पा, ७. संधजायाणि वा, ८. पोरजायाणि वा, णण्णत्य- (६) मूलजात, (७) स्कन्धजात तया (6) पर्वजात वनस्पति १. तक्कलिमत्यएग वा, २. तक्कलिसीसेग बा, ३. गालि- (१कन्दली का गूदा, (२) कन्दली का स्तबक, (२) नारिएरिमथएण वा, ४. खजूरिमथएष वा, ५. तालमत्थरण पल का गूदा, (४) खजूर का गूदा, (२) ताड का गूदा के वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आभं असत्थपरिणयं अफासुमं सिवाय अन्य इस प्रकार के फल आदि कच्चे (सचित्त) और जावणो पडिगाहेजा। अशस्त्रपरिणत है उसे अप्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहम न करे । --आसु० २, अ० १, २०८, सु. ३८४ असस्थपरिणयाणं उच्छुआईणं गहणिसेहो अशस्त्रपरिणत इक्षु आदि के ग्रहण का निषेध१५५. से मिक्लू बा, भिक्खूणी या गावहकुलं पिंडवायपजियाए १५५. गृहस्य के यहाँ आहार के लिए प्रशिष्ट भिक्ष या भिक्षणी अणुपबिटु समाणे से जं पुण जामा पदि यह जाने कि१. उच्छु वा कागं, २. अंगारियं. ३. समिस्सं (१ इक्ष काणा (छेद वाला) है, (२) विवर्ण हो गया है, ४. बिगदूमियं. ५. वेसणं चा, ६.कंवलिऊसगंवा, (३) फटी हुई छाल वाला है, (४) सियार का खाया हुआ है अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असस्थपरिणयं अफासुयं-जाव- तथा (५) बेंत का अग्रभाग या, (६) कदली का मध्य भाग है गो पडिगाहेज्जा। अथवा अन्य भी ऐसी कच्ची (सचित्त) और अगस्त्र परिणत —आ. सु. २. अ. १, उ.८, मु. ८५ दनस्पतियाँ है, तो उन्हें अप्रामुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे । असस्थपरिणयाणं लसुणाईणं गहणणिसेहो सशस्त्रपरिणत लसुण आदि के ग्रहण का निषेध - ६५६. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावरफुलं पिस्वायपडियाए १५६. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या अणुपवि? समाणे से जं पुण जाणेज्मा भिक्षणी यदि यह जाने कि१. ससूर्ण वा, २. लसुणपत्तं वा, ३. लसुगणालं वा. (१) लहसुन. (२) लहसुन का पत्ता, (३) सहसुन की नाल, ४. लसुणकचं वा, ५. लसुणदोयगं वा, अण्णतरं वा सहप्प- (४) लहसुन का कन्द, (५) लहसुन के बाहर की छाल या अन्य गार आम मसस्पपरिणयं अफासुयं-जाच-गो पहिगाहेग्ना। भी इसी प्रकार की वनस्पति जो कि कच्ची (सचित्त) और -आ. ह.२, अ. १, उ.८, सु, ३८६ अशस्त्रपरिणत है, तो उसे अप्रासुक जानकर-वागत-ग्रहण न करे। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५७८ ] चरणानुयोग अपरिणत जीवयुक्त पुराने महार के इण का निषेध असत्यपरिणय-जीव-स-पोराणस्स आहारस्स ग्रहण वशस्त्रपरित जीव युक्त पुराने आहार के प्रका जिसे हो निषेध--- ९५७. से भिक्खू वर, भिक्खुणी वा गाहाबद्दकुलं विडवायपडियाए ६५७. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश अनुप समाने से वंगनाकरने पर यह जाने कि १. आमा बा २.पा. ३. सप्पिया पुराणगं एत्थ पाणा अणुप्पसूया, एत्य पाणाजावा. एल्य पाणा संबुड्ढा, एत्थ पाणा अयुक्ता एत्य पाणा अपरिणता, एत्य पाणा अविज्ञत्वा अफासुयं जाव णो परिगहिन्या । (१) भाजी अपक्व और अर्धपत्र है, (२) खल पुराणा है था (३) घृत पुराणा है, और उनमें प्राणी पुनः पुनः उत्पन्न होने लगे हैं, उत्पन्न हो गये हैं व बढ़ गये हैं। इनमें से प्राणियों का व्युत्क्रमण (च्यवन) नहीं हुआ है, वे शस्त्र-परिणत नहीं हुए हैं और -आ. मु. २, अ. १, इ. ८. ३५१ वे पूर्ण अत्ति नहीं हुए है अतः उन्हें अत्रासुत जानकर - यावत्ग्रहण न करे। अपरिणय-मीम-वस्ताई ग्रहणणिसेहो -- अनुप २०. से क्या भिवा महावा१ि५८. समाने से वा तं जहा पुण जागे, १.जा. हवा ३. पा ४. आसोत्यमंथं वा, अष्णतरं वा तप्यगारं मंयुजातं आमयं सागुरीयं अफामुपगोडामा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुल पिढयायपडियाए अणुप समाने से पुन जाणाज्जं १. अस्थि वा २. ३. तेंदुवा, नेपा ४. कासवणालिय" वा अण्णतरं वा तहपगार आनं असत्यपरिणयं अफानुयं जाणो पडिगा हेना। - आ. सु. २, अ. १, ८ नु. ३०७ 1 (१) उदुम्बर ( गुरुलर) का चूर्ण, (२) बड के फलों का चूर्ण, (३) प्लक्ष फल का चूर्ण, (४) पीपल का चूर्ण अथवा अन्य भी इसी प्रकार का चूर्ण है जो कि अभी कच्चा (सचिन) है, थोड़ा -आ. सु. २, अ. १, उ. ८ सु. ३५० पिमा हुआ है और बीज युक्त है उसे अप्राक जानकर यावत्ग्रहण न करे । सेवा या माहाकुलं चियापडिया अब समाने से १. कर्ण वा २. बा ३. ४. वाउलं वा ५. ६. तिलं वर ४ ७. तिलपि वा ८ तिलपपडगं वा अण्णतरं वा तप्पगारवा अगत्यपराजय पि सूत्र ९५७-६५८ अपरिणत मिश्र वनस्पतियों के ग्रहण का निषेधके घर में आहार के लिए प्रष्ट भिक्षु वनस्पति के यह ने कि चूर्ण सम्बन्ध में जाने १ सन फलम २ दस. अ. ५, उ. १, गा. १०४ सहारन्तु मालिनी गृहस्य के पद में केलिए भिक्षु वाणी यदि यह जाने कि (१) अस्थिक वृक्ष के फल, (२) सिन्दुर का फन (२) ि फल, (४) श्रीपण का फल जो कि खड्डे आदि में धुएँ आदि से पकाये गये हों अथवा अन्य इसी प्रकार के फल जो कच्चे (सचित्त) और शस्त्र-परिणत नहीं हैं, ऐसे फलों को अप्रासुक जानकर यावत् -ग्रहण न करे । -- गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि (१) (२) काटा (1) (रोटी आदि), (४) कच्छे चावल, (५) चावल का कूदा, (६) कच्चे तिल, (७) तिल का कूटा, (८) तिलों की अर्द्ध पक्व पपड़ी आदि तथा अन्य भी इसी प्रकार के पदार्थ जो कि कच्चे - आा. सु. २, अ. १ उ. सु. ३८८ (सचिन) और शस्त्रपरिणत नहीं है तो बप्राक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । बीयपूणि जाणिवा विना मग परिव आम परिव ४ भट्टिचिवका समिति आम परिव तिलपपड नीम, आमगं परिवज्जए || दस. अ. ५, उ. २,२४ --इस म. ५. उ. २, गा. २१ इस. अ. ५. उ. २, मा. २२ दस अ ५, उ. २, गा. २१ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ९५६-६६१ ____ अपरिणत-परिणत धान्यों के ग्रहण का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५७६ अपरिणय-परिणय-ओसहोणं गहण-विहि-जिसेहो- अपरिणत-परिणत धान्यों के ग्रहण का विधि-निषेध१५६. से मिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावह कुल पिसवायपडियाए ६५६. भिक्षु मा भिक्षुणी मुहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट अणुपवि? समाणे से ज्जाओ पुण ओसहोओ' जागोज्जा- होकर धान्यों के विषय में यह जाने कि-ये अखण्ड हैं इनकी कसिणाओ, सासिआओ, अविदग्नकडाओ, अतिरिच्छच्छिण्णाओ, योनि नष्ट नहीं हुई है. दो टुकड़े नहीं किये गये हैं, अनेक टुकड़े अध्वोच्छिष्णाओ, तरूणिय, छिवादि, अभिवकतज्जियं नहीं किये गये हैं, अचित्त नही हुई है तथा कच्ची मूंगफलियां पेहाए. अफासुप-जाव-णो पडिगाहेजा, आदि अधूरी भुनी हुई हैं, ऐसा देखकर अप्रासुक जानकर-यावत् ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबाकुलं पिंडशयपडियाए भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट अणुपविळे समाणे से ज्जाओ पुण ओरहीओ जाणेज्जा-अक- होकर औषधियों के विषय में यह जाने क्रि—ये अखण्ड नहीं है, सिणाओ असासियाजो, विलकशाओ, तिरिच्छच्छिण्णाओ, इनकी योनि नष्ट हो चुकी है, ये द्विदल कर दी गई है, अनेक योगिठाणामओ, तरुणियं वा छियाडि. अभिवकत भज्जियं' टुकड़े कर दिये गये हैं, अचित्त हो चुकी है, तथा कच्ची मूंगपेहाए, फासुयं-जाव-पडिगाहेमा ।। फलिया आदि पूर्ण भुनी हुई हैं ऐमा देखकर उन्हें प्रासुक समझ __ -- आ. सु. २. अ. १, र. १. सु. ३२५ वर-यावत्--ग्रहण करे।। कसिण-ओसहि-भुजण-पायच्छितसुत्तं कृत्स्न धान्य भक्षण का प्रायश्चित्त सूत्र-. ६६०. जे भिमखु किसिणाओं ओसहीओ आहारेइ, आहारत वा १६०. जो भिक्षु अखण्ड सचित्त धान्यों का आहार करता है. साइज्जइ। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आषज्जद मासिय परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे नासिक उघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। --नि. उ. ४, सु. १६ भंज्जिय-पिहुयाईण-गहण-विहि-णिसेहो भुने हुए सिट्टे आदि के ग्रहण का विधि निषेध१६१. से भिक्खू वा, भिक्खूगो वा गाहाबाइकुल पिंडयायपडियाए १६१. गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त गया हुआ भिक्षु या अणपविढे समाणे से जं पुण जागेमा -- भिक्षुणी यदि यह जाने कि-. पिट्टयं या-जाव--चाउलपलंच वा सह भअियं अफासुयं हूं आदि के सिट्टे-यावत् -शानी आदि के टुकड़े एक –जाव–णो पडिगाहेम्जा। बार भने हुए है तो उन्हें अप्रामुक जानकर-थावत् -ग्रहण न करे। मे भिवणू वा भिमखूणी वा गाहावाकुलं पिंडयायपडियाए गृहस्थ के घर मे भिक्षा के निमित गया हुन भिक्षु य अगुपविढे समाणे से ज्नं पुण जाणेज्जः भिक्षणी यदि यह जने कि(क) इस मूत्र के टीकाकार "औषधी" शब्द का अर्थ "शालिबीज आदि" मूत्रित करते हैं। मथा औषधी शालिबीजादिका एवं जानीयात् । औषध्यो जातिमात्रस्युः अजातो सर्वमौषधम् । -अमरकोष काण्ड २, वर्ग ४ जातिमाविवक्षायाम् ओषधीः शब्द प्रयोगः । सर्वम् इत्यनेन घुत तैलादिकमप्यौषधशब्दवाख्यम् ।। औषधिः फसपाकान्ता एक वीहि यवादेः । -अमरकोष काण्ड २, वर्ग ४ सभी प्रकार के पके धान्यों को 'औषधी" कहा गया है। वर्तमान में औषधी शब्द केवल जड़ी बूटी आदि दवाइयों में रूड हो गया है । उसकी यहां विवक्षा नहीं है। (ख) वव. उ. ६, सु. ३३-३४ २ तरूणि वा छेदाडि, आमियं भन्जिय सई । तिष पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारितं ।। -दस. अ. ५, उ. २, गा २० कृलन नन्द का यद्यपि अखण्ड अर्थ होता है फिर भी यहाँ द्रष्यकृत्स्न न समझकर भावकृत्स्न समझना चाहिए। इसका फलितार्थ यह है कि जो अखण्ड धान्य स्त्रपरिपत न होने से सचित्त है उसके खाने का यह प्रायश्चित्त विधान है। क्यों कि अनगड शस्त्रपरिणत अवित्त धान्य के परिभोग का आचारसंग मु.२, अ. १.उ.१ में विधान है। निधीयभाष्य में मचित्त या अचित्त अखण्ड धान्य खाने से होने वाली हानियों का विस्तृत वर्णन है। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] wwwww चरणानुयोग पिहूयं वा-जाद - ताउलपलंबं या असई भज्जियं, दुक्खुतो या जयंतसुतो वा भनि कार्यान पडि - आ. सु. २, अ. १. उ. १. सु. ३२६ अपरिणय-परिणय-तालपर ग्रहण विहि-विसेो६२. नो कप निम्नथाण वा निमगंधीण वा आमे तासलंबे' भने पहिए। hous निग्ाण वा निमगंयोग वा आमे ताल-लम्बे मिले हिए। sere निधाणं पक्के ताल-लम्बे भिन्ने वा अभिन्ने वा पहिल नो कप्पड़ निग्गंथोण पक्के-ताल- पलम्बे अभिन्ने परिणा हिए। कम्पनियो के ताल-लम्बे भन्ने पडिनाहिए। मेसे अपरिणत- परिणत ताल प्रबंध के ग्रहण कर विधि निषेध अपरिणय-परिचय-अंब-स विहिते ६३. से भिक्खु वा भिक्खुणी या अभिकंसेज्जा अंबवणं उवातिसरे सहा ते ओहं अगुणवेा । "काम ! अहा जाब – माउसो—जाब - आवसंतस्स सानिया एतावता विहरिस्सामो।" प०--से कि पुण तस्थ ओग्यहंसि एवोग्यहियंसि ? .. अहापरिणाय बता ओहो — जावहंगामो तेण परं ० मह भिक्वामोए से जाणेज्जा सखंड - जाव - मक्कडासंताणगं तहष्पगारं अंयंअफासुपं जाव णो पहिगाहेज्जा । सेवाभिपोवा से अप्प जाद मक्कडासंचागगं, यो T ताल फल ग्रहण करना करुपता है । वह भी विधिपूर्वक भित्र अर्थात् अत्यन्त छोटे-छोटे स कप्प. उ. १, सु. १-५ किये हों तो ग्रहण करना कल्पता है अविधि - भिन्न ग्रहण करना नहीं कल्पता है । अपरिणत परिणत आम ग्रहण का विधि निषेध जाना-अतिरिच्छछिन्न अजाबो परिणाज्या | सूत्र ६६१-९६३ आदि आदि बनेक बार अर्थात् दो बार या तीन बार भुने हुए हैं तो उन्हें झाक जानकर यावत् ग्रहण करे । परिण परिणताल प्रबंध के ग्रहण का विधि निषेध६२. नित्य और निर्ग्रन्थियों को अभिन्न (अस्त्रपरिणत ) बच्चा ताल फल ग्रहण करना नहीं कल्पता है। और निर्वाचियों को मिश्र ( - कच्चा ताल फल ग्रहण करना कल्पता है । निर्ग्रन्थों को भिन्न ( लण्ड-खण्ड) किना हुआ या अभिन (अखण्ड) पत्र (अचिन) ताल फल ग्रहण करना कल्पता है । किन्तु निर्ग्रन्थियों को अभिन्न (अखण्ड पक्त्र (अचित्त) ताल फल ग्रहण करना नहीं कल्पता है। कोड किया हुआ ९६३. भिक्षु या भिक्षुणी (बिहार करते हुए आयें और आम्रवन के समीप यदि ठहरता चाहें तो उस स्थान के स्वामी की संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करें । "हे आयुष्मन् ! आप जितने स्थान में जितने समय तक ठहरने की आज्ञा देंगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उतने ही स्थान में इतने ही समय हम ठहरने बाद में विहार कर देंगे ।" प्र० - वे भिनु या भिक्षुणी आम खाना चाहें तो आम की एषणा) किस प्रकार करें 1 उ०- यदि वे आम खाना चाहें तो वे यह जानें कि आम, अण्डे यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तोऐसे आम को अप्रासु जानकर यावत् — प्रहण न करें। भिक्षु वा भिक्षुणी यदि यह जाने कि आम, अण्डे यावत् - मकड़ी के जालों से रहित है किन्तु तिरछा कटा हुआ नहीं है तथा जीव रहित नहीं हुआ है, अतः ऐसे आम को अाक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । १ ताल अलंब शब्द का अर्थ भाष्य में फल, मूल, कंद आदि सभी प्रकार की वनस्पतिपरक किया गया है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें बृहत्कल्पभाष्य गाथा – ८४७ से ८५७ । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९६२-६६४ सचिस अंब उपमोग के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [५८१ से मिक्लू पा, भिक्षुणी वा से ज्नं पुण अंबं भिक्ष, या भिक्षणी यदि यह जाने किजाणेज्जाअप्प-जाव---मक्कडासंताण, तिरिच्छिन्न यह आम, अण्डे-यावत्-मकडी के जाला से रहित है वोच्छिन और तिरछा कटा हुआ है एवं जीव रहित हो गया है। फासुयं--जाव-पडिपाहेमा । ऐसे आम को प्रासुक जानकर-यावत्-पहण करे । से भिक्खू वा भिक्खूणी वा अभिकखेज्मा भिध या भिक्ष गी--- १. अंबमित्तगं बा, २. अंवपेप्सियं पा, ३. अंवसोयगं (१) आम की मोटी फांके, (२) लम्बी फॉर्क, (३) आम पा, ४. अंबसासगं वा, ५. अंबडगलं व भोत्तए वा, का फंदा, (४) आम की छाल या, (५) आम के टुकड़े दा।। पायए वा। चाहें या उसका रस पीना चाहें, से उज पुनः आमा --विस स------ तोपराने कि आम की मोटी 'फा - सावत्-टुकड़े अंबरगलं वा स जाव-मक्कडा संताणगं अण्हे --यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त हैंअफासुर्घ-जाव-गो पविगाहेज्जा अतः उन्हें अप्रासुक जानकर यावत् --ग्रहण न करे ।। से भिषयू वा, भिक्खूणी वा से नं पुण जाणेज्जा--- भिक्ष या भिक्ष पी यदि यह जाने किअंजभितगं या-जाव-अंबडगलं वा अप्पंड...-जाब आम की मोटी फांके यावत्---आम के टुकड़े अण्ड --मक्कडा संतागर्ग अतिरिच्छचिठन अबोसिकन्न । -यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है किन्तु तिरछे कटे हुए नहीं हैं तथा जीव रहित हुए नहीं हैं। अफामुयं - जाथ-णो पशिगाहेज्जा भतः उन्हें अप्रासुका जानकर यावत्-ग्रहण न करें।। से भिक्णू वा, भियगी वा से नपुण जाणेज्जा- भिक्ष या भिक्षणी यदि यह जाने किअंगभित्तगंगा-जाव-अंबडगल वा अप्पं-जाव- आम की मोटी फांकें यावत्-आम के टुकड़े अण्डे मक्कडा संताणगं, तिरिच्छच्छिम वोच्छिा फासुर्य --यावर - मकड़ी के जालों से रहित हैं वे तिरछे कटे हुए है -जाव-पडिगाहेज्जा। और जीव रहित हो गये हैं तो प्रामुक जानकर-पावत्-- -आ. सु. २, अ. ७, उ. २, सु. ६२३-६२८ ग्रहण करें। सचित्तं अंबं भुजमाणस्स पायच्छित्त-सुत्ताई सचित्त अंब उपभोग के प्रायश्चित्त सूत्र१६४. मे मिक्चू सचित्तं अंबं मुंजा, भुतं वा साइज्जइ । १६४. जो भिक्षु मचित्त आम खाता है, खिलाता है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। में भिषय सचितं अंवं विडसह, विसंतं वा साइब्जद । जो भिक्ष सचित्त आम चूमता है, चूंमनाता है, चंसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिवडू सचित्त-पइदिएं अब मुजद, भजतं वा साइजह। जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित बाम को खाता है, खिलाता है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिन्यू सचित्त-पइट्टियं बवं विडसइ, विसंत वा साइ- जो भिक्ष, सचित्तप्रतिष्ठित आम को ससा है, चूंसवाता है, चूसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित, जो भिक्ष सचित१. अंवा , २, अंबं-पेसि वा, ३. अंब-भितंबा, ४.ग- (१) आम को, (२) आम की फांक को, (३) आम के अई सालगं दा, ५, अंब-गलं वा, ६. बव-चोयगं या. मुजइ, भाग को, (४) आम की छाल को, (५) आम के गोल टुकड़े को, मुंजतं वा साहज्जा। (६) आम के छोटे-छोटे टुकड़ों को स्वाता है, खिलाता है, वाने वाले का अनुमोदन करता है। * मिक्खू सचित अंगा-जाव-अंबसोयग वा विरसा जो भिक्षु सचित्त बाम मो-पावत्-आम को छोटे-छोटे विसंतं वा साजरा टुकड़ों को घूसता है, पूंनवाता है, चूंसने वाले का अनुमोदन करता है। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२] परगानुयोग अपरिणत-परिणत इस पहल का विधि-निषेत्र मे भिक्खू सचित्त-पइद्वियं अंचं वा-जाव-अंबचोयगं वा जो भिक्ष. नचित्तप्रतिष्ठित आम को-थावत् - आम के मगइ, मुंजत वा साइज्जद छोटे-छोटे टुकड़ों को याता है, खिलाता है. 'वाने वाले का अनु मोदन करता है। मे भिडू सचित्त-पइद्वियं अंबा -जाव-अंबंधोयगं वा जो मिक्ष, सचिनप्रतिष्ठित आम को-यावत्--आम के विरसड, विसंत वा साइबई। छोटे-छोटे टुकड़ों को पता है, चूंसवाता है, चूंसने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्भासिय परिहारट्टाणं उग्धाइयं। उसे चतुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. १५, सु. ५-१३ आता है। अपरिणय-परिणय-ऊच्छु'-गहणस्स विहि-णिसेहो - अपरिणत-परिणत इक्षु ग्रहण का विधि-निषेध६६५. से भिक्खू वा, भिक्खूणी या अभिकलेजा उन्हुवर्ण उवा- ६६५. भिक्ष वा भिक्षणी (बिहार करते हुए आवं और) इक्ष. गच्छिसए, में तत्य ईसरे, अ तस्य सहिडाए, ते ओग्गहं वन के समीप यदि ठहरना चाहे तो उस स्थान के स्वामी की या अगुग्णवेग्जा। संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करें। "काम खलु आउमो ! अहासंवं अहापरिण्यायं बसामो-जाब- आयुष्मन ! आप जितने स्थान में जितने समय तक ठहरने आउसो-जाव-आउसंतस्स ओग्नहो-जाव-साहम्मिया एत्ता व की आज्ञा देंगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उतने ही स्थान ताब ओगाह ओगिहिस्सामो, लेण पर विहरिस्सामी।" में उतने ही समय तक ठहरेंगे-बाद में विहार कर देंगे।" प०-से कि पुण तत्म भोग्गहसि एषोहियसि ? प्र०-वे भिक्ष या भिक्षणी (इक्ष लाना चाहे तो इक्ष को एषणा) किस प्रकार करें? 1.-अह भिन्न इचछज्जा उरछु मोत्सए या. से जं उच्छु २०-यदि वे इथ, खाना चाहें तो वे यह जानें कि जान्जा -- स-जाव-मक्का संताणम, इक्ष अण्डे - यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त है, तहपगार उच्छ अफासुयं-जाव गो पडिगाहेज्जा। ऐसे दक्ष को अप्रासुक जानकर-पावत्-ग्रहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी दा से ज्नं पुण उच्छु भिक्ष या भिक्ष णी यदि यह जाने कि-- जाणेग्जामापंछ-जाव-मक्कडा संताण, अतिरिकछिन क्ष अण्डे-यावत्- मकड़ी के जानों से रहित है किन्तु अबोन्छिन तिरछा कटा हुआ नहीं है तथा जीव रहित हुआ नहीं है. अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजा। ____ अतः ऐसे इक्ष को अत्रामुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करें। से भिनू वा भिक्खूणी बा से ज्जं पुण उच्छु भिक्ष या भिक्षणी यदि यह जान किजाणज्जाअप्पर-जात्र-मक्कहा-संताणग, तिरिवच्छिन यह पक्ष अण्डे-यावत्-मकड़ी के जाने से रहित है वोच्छिम और तिरछा कटा हुआ है एवं जीव रहित हो गया है -- फासुयं जाव-पडिगाहेज्जा । ऐसे दक्ष को प्रासुक जानकर- वावत् -ग्रहण करें। से भिमल वा, भिक्खूणी वा अभिकखेज्जा भिक्ष मा भिक्ष णी१. अंतहन्छुयं वा, २. उपगडियं वा, ३. उप- (१) पक्ष के अन्दर का भाग, (२) इक्ष की पेलिया. चोयमं वा, ४. उच्छुसायन वा, ५. उच्छुडगलं वा, (३) इक्षक की बारीक कतली, (४) इक्ष का छिलका या. मोत्तए वा, पायए था। (५) इक्ष के टुकारे लाना चाहे तथा उनका रस पीना पाहे. से जं पूण जाणेज्जा-अंतस्य वा-जाव-उपछुडालं तो यह जाने कि इस की मोटी फाके-यावत्-इन के या समई-जान-मक्कडा-संतानगं टुकडे अण्डे-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त हैअफासुय-जात-णो पडिगाहेज्जा । उन्हें अप्रामुक जानकर यावत्--ग्रहण न करें। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित लु खाने के प्रायश्चित्त मूत्र चारित्राचार : एक्णा ममिति [५८३ से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से ज्ज पुण जाणेज्जा --- मिन, या भिक्ष गी यह जाने कि:--- अंतरुच्छ्यं वा-जाव-उच्छु डगलं वा अपंड-जाव-भक्क- इक्षु की मोटी फॉक-कावत्-इक्षु के टुकड़े, अपडे-पावत् डासंताणगं, अतिरिच्छच्छिन्नं अवोच्छिन्न -मकड़ी के जालों से रहित हैं किन्तु 'तिरछे कटे हुए नहीं हैं तथा जीव रहित हुए नहीं है। अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजा। अतः उन्हें अप्रासुक जान्कर-यावत्- वहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा से उजं पुण जाणेज्जा-- भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने किअंतमनायं वा-जाव-उच्छृङगलं वा अप्पंड-जाब-मवक- इल की मोटी फाँकें - पावत्-इक्षु के टुकष्टे अरडे-यावत् डासंताणगं तिरिच्छाग्छिन वोज्छिन-फासुर्य-जाब- -माड़ी के जालों से रहित हैं, वे तिरछ कटे हुए हैं और जीव पहिगाहेज्जा। रहित हो गये है तो अप्रामुक जानकर-यावत्- ग्रहण करें । -आ. सु. २ अ. ७. उ. २, सु. ६२६-६३१ सविसं उच्छु' भुजमाणस्स पायच्छित्तसुत्ताई सचित्त इक्षु खाने के प्रायश्चित्त सूत्र.. २६६. जे मिक्खू सच्चितं उच्छु मुंजद, अजंतं वा साइजद।। ६६६. जो भिक्ष् सचित्त ईन बाता है. पिलाता है, साने राल का अनुमोदन करता है। ने भिक्व सचित्त उन्छु विडसइ, विडसतं वा साइज्जइ । जो भिक्षु मचित ईख को चूसता है, चंगवाता है बूंसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपट्टियं उच्छु' भुजइ, भुजतं या साज्जइ। जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईस का खाता है, खिलासा है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपद्वियं उप विडसइ, विउसंतं चा जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईख को चूसता है, चूंसचाता है, साइज्जइ। चूंसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्त जो भिक्षु सचित्त१. अंतरूम्छु यं का, २. उमछुखंडियं वा, (१) ईख का मध्य भाग, (२) ईरू के खण्ड, ३. उच्छ्चोयगं बा, ४. उच्छुमेरगं वा, (३) ईख के छिलके सहित टुकड़े, (४) ईख का अग्र भाग, ५. उच्छुसालगं वा, ६. उच्छुडगसं वा. (६) ईख की शाया (६) ईप के गोल टुकड़े भुजद, भुजंतं वा साइज्जइ । खाता है, खिलाता है, खाने वाले का अनुमोदन करता है। के भिक्खू सचित्त' अंतरूच्छुयं वा-जाव-उच्छउगलं वा विडसह जो भिक्षु सचित ईस का मध्य भाग-यावत-देख के गोल विसंतं वा साहज्जइ । टुकड़े मता है, चुसवाता है, चूसने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचित्तपट्टियं अंतहच्छयं बा-जाब-उच्छङगलं वा जो भिक्षु सचित्तप्रतिष्ठित ईख का मध्य भाग-यावत्मजइ, भूजंतं श साइज्जा। ईख के गोल टुकड़े खाता है, खिलाता है, खाने वाले क अनु मोदन करता है। जे मिक्बू सचित्तपट्टियं अंतरूयं वा-जाव-उच्छुडगलं वा जो भिक्षु सचिनप्रतिष्ठित ईख का मध्ये भाग–यावत्विडसइ, विडसंतं वा साहलह । ईख के गोल टुकड़े चूसता है चूंसवाता है, चूंसने वाले का अनु मोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उघाइयं। उसे चातुर्मास्कि उपातिक परिहारस्थान (नायश्चित्त) -नि. उ. १६. सु. ४-११ आता है। अपरिणय-परिणय-लहसुण-महणस्स विहि-णिसेहो- अपरिणत-परिणत ल्हसुन ग्रहण का विधि निषेध१६७. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा अभिकबेज्जा ल्हसुणवणं उबा- १७. भिक्षु या भिक्षणी (विहार करते हुए आवें और) लसुनवन गच्छित्सए, के समीप यदि ठहरना चाहे तो उस स्थान के म्बानी की या जे तत्थ ईसरे, जे तत्प सहिडाए, ते ओग्महं अण्णवेज्जा। संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करे। - - Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४] चरणानुयोग अपरिणत-परिणत हसुन ग्रहण का विधि-निषेध सूत्र ६६७ "काम खलु आजसो ! अहाल अहापरिणायं बसामो-जाव- "आयुष्मन् ! आप जितने स्थान में जितने समय तक ठहरने आउसो-जा-आउसंतस्स ओग्गहो-जाव-साहम्मिया एसा, की आज्ञा देगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उत्ने ही स्थान ताव ओग्गहं ओगिहिस्सामो, तेण परं बिहरिस्सामो।" में उतने ही समय तक ठहरेंगे बाद में बिहार कर देंगे।" प० . से कि पुण तस्थ ओग्गहंसि एबोराहिमंसि ? प्र०-वे भिक्ष या भिक्ष णी (लमुन खाना चाहें तो लसुन की माण) नियमाकरें? 3०-- अह भिक्खू इच्छेन्जा ल्हसुणं भोत्तर वा से जं पुण २०-यदि वे लमण खाना चाहें तो वे यह जानें कि ल्हसुणं जाणेज्जा, सअंड-जाव-मक्कडासंताणगं, लसुन, अण्डे-यावत् --मकड़ी के जालों से युक्त हैं, तहप्पगारं व्हमुणं अफामुयंभाव-णो पडिग्गाहेज्जा । ऐसे लसुन को अधासुफ जानकर-यावत्-ग्रहण न करे। से भिखू वा. भिषखूणी घा से उजं पुष ल्हसुगं भिक्ष या भिक्ष णी यदि यह जाने किजाणेज्जाअप्पंड-जाव-मक्कडा-संताणगं ___अतिरिच्छन्छिन लसुन, अण्डे-यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है किन्तु अवोन्छिन - तिरागा कटा हुआ नहीं है तथा जीव रहित नहीं हुआ है। अफासुयं-जावणो पडिग्गाहेज्जा । अतः ऐसे लसुन को अप्रासुक जानकर यावत् -ग्रहण न करें। से भिक्खू बा, भिक्खूगी वा सेज्ज पुष ल्हसुणं भिक्ष मा भिक्ष णी यदि यह जाने किमाणेज्जाअपंड-जाव-मक्कडा संसाणगं तिरिच्छच्छिम, यह लसुन, अण्डे-यावत् - मकड़ी के जालों से रहित है कोच्छिन्न और तिरछा कटा हुआ है एवं जीव रहित हो गया है। कासुर्य-जाव पडिगाहेज्जा। ऐसे लसुन को प्रासुक शनकर-यावत् : ग्रहण करे। से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा अभिकखेज्जा भिक्ष या भाणी१. लहसुण वा, २. लहसुण-कर वा, ३. लहसुग-चोयग, (१) लसुन, (२) लसुन का कंद, लसुन की कतली, ४. लहसुण-णालग वा भोतए। (४) लसुन की नाल लाना चाहें तो, से उजं पुण जाणेज्मा-ल्हमुणं वा-जाव-रहमुण-णालग यह जाने कि लसुन- यावत्-लसुन की नाल, अण्ड वा सअंड-जाव-मक्कडा संताण -- यावत्-मरड़ी के जालों से युक्त हैं। अफासुयं-जाय-णो पडिग्गाहेज्जा। उन्हें अप्रासुक जानकर-यावत्---ग्रहण न करें। से मिक्खू वा, भिक्खूणी वा सेज्ज पुण जागेज्जा- भिक्ष. या भिक्ष णी यह जाने कि -- ल्हसुर्ण वा-जाव-लहसुण णालय वा अप्परं जाव-मक्क- लसुन यावत्-लसुन की नाल अण्डे --यावत्-मकड़ी के डासंताणगं, अतिरिच्छच्छिन्न', अबोन्छिन । जालों से रहित है किन्तु तिरछे कटे हुए नहीं है तथा जीव रहित हुए नहीं हैं। अफासुयं-जाब-णो पडिगाहेजा। अत: उन्हें अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से प्रजं पुण नाणेज्जा- भिक्षया भिक्ष णी यह जाने किलहसुणं वा-जाव-लहसुए-णालगं वा अप्पा-चाव मक्क- लसुन--यावत-लसुन की नाल, अण्डे-यावत्-मकड़ी डासंताणनं, तिरिच्छिन्न बोच्छिन्न-फासुयं-जार- के जालों से रहित हैं, वे तिरछे कटे हुए हैं और जीव रहित हो पडिगाहेजा। गये हैं। --आ. सु. २, अ.७, उ.२, सु. ६३२ तो उन्हें प्रासुक जानकर--यावत् - महण करें। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६८ संसृष्ट हाथ आदि से आहार ग्रहण के विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५८५ लिहदोससंसट्ठ-हत्थाइणा आहार-महण-विहि-णिसेहो६६८. १. अह पुण एवं जाणेज्जा-णो पुरेकम्मकडे, उदउल्ले। तहप्पगारेण उवउल्लेण हत्येण बा-जाव-भायणेणं वा असणं बा-जाव-साइम वा अफासुयं-जाव-णो पडिगाहेजजा, २. अह पुण एवं जाणेज्जा-णो उदउल्ले, ससिणिजे । (६) लिप्तदोषसंसृष्ट हाथ आदि से आहार ग्रहण के विधि-निषेध६६८. (१) भिक्ष यादे यह जाने कि (हाथ-यावत्-भाजन) पूर्वकर्मात नहीं है किन्तु पानी से गीले हैं। ऐसे गीले हाथ यावत् भाजन से दिये जाने वाले अशन -यावत्-स्वाद्य को अप्रासुक जानकर --यावत्-ग्रहण न करे। (२) भिक्ष. यदि यह जाने कि (हाथ-यावत्-भाजन) गीले नहीं है किन्तु स्तिग्ध हैं। ऐरो स्निग्ध हाय-यावत्-भाजन से दिवे जाने वाले अशन . यावत्-स्वाञ्च को मासुक जानकर-यावत् ग्रहण न करे । इसी प्रकार (हाथ - यावत्-भाजन (३) मचित्त रज, (४) सचित्त मिट्टो, (५) सारी मिट्टी. (६) हरताल, (७) हिंगलु, (८) मेनसिल, (8) अंजन, (१) लवण, (११) गेरू, (१२) पाली मिट्टी, (१३) खड़िया (१४) फिटकरी, (१५) तन्दुल चूर्ण, (१६) चोकर या (१७) हरी वनस्पति के चूर्ण से संसृष्ट हैं। तहप्पगारेण ससिणिद्वेण हत्येण सा-जाव-मायणेण वा असणं वा-जाव-साइमं वा, अफासुयं जायणो पङिगाहेज्जा, ३. ससरक्वे, ४. मट्टिया, 2. उसे. ६. हरियाले, ७. हिंगुलुए, ८, मनोमिला ६. अंजणे, १०. लोणे, ११. गेरुए, १२. वणिय, १३. सेतिय, १४. सोरट्रिय, १५. पिट्ठ, १७. उस्कट ठे, -संसठे। तहप्पगारेण हत्थेण वा-जाव-भामण वा असणं त्रा-जाव- साइमं वा, अफासुर्य-जाब-णो पडिगाहेज्जा, ऐसे हाय-यावत्-भाजन से दिये जाने वाले अशन -यावत् स्वाद्य को अप्रासुक जानकर यावत्-ग्रहण न १८. अह पुण एवं जाणेज्जा को उपफुट्ठ संसठे, असंसठे। तहप्पगारेण हत्येण वा-जाव-भायणेग वा असणं वा-जाव- साइमं या अफासुयं-जाव-णो परिगाहेज्जा । १८. यदि यह जाने कि (हाथ-यावत्-भाजन वनस्पति चूर्ण से लिप्त नहीं है, किन्तु पूर्ण अलिप्त है। ऐसे हाय-यावत् ..भाजन से दिया जाने वाले अशन -- यावत्-स्वाध को अप्रासुक जानकर-यावत -प्रहण में करे। १३. मिक्षु यदि यह जाने कि (हाथ-यावत् -भाजन) पूर्ण अलिप्त नहीं है किन्तु (चित वस्तु से) संमृष्ट (लिप्त है। ऐसे संपृष्ट हाथ-यावत -भाजन से दिये जाने वाले अशन यावत्-स्वाद्य को प्रासुक जानकर-यावत् - ग्रहण करे । १६. अह पुण एवं जाणेज्जा-णो असंसो. संसद्धे । तहप्पगारेण संसद्रुण हत्येण वा-जाव-भायणेण वा असणं वा-जाम-साइमं वा फासुर्य-जाव-पडिताहेज्जा। -आ. सु. २, अ. १. उ. ६, मु. ३६० (३) १ उदमोल्लेण हत्थेण, दीए भोयणेण वा। बेतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पद तारिस ।। २ ससिणिद्धेण हत्थेश, दचीए भोयणेण वा । बेतियं पडियाइखे, न में कप्पइ तारिस ।। ३ ससरक्षेण हत्थेण, दब्बीए भोयणेण वा। बेतियं पडियाइक्खे. न मे कप्पइ तारिस ।। ४ मट्टियागतेण हत्थेण, दबीए भाषणेण वा। तिवं पहियाश्यले, न में कप्पह तारिस ।। ५ ऊसगतेण' हत्थेण, दबीए भायोण वा। देंनियं पडियाइक्खे, न म कणइ तारिस ।। ६ हरितालगतेण हत्थेण, दबीए भावणेण वा। देतिष पलियाइबखे, न मे कप्पइ तारिस ।। ७ हिंगुलुयगतेण हत्थेण, दबीए भायणेण वा । दतियं पडियाइक्ने, न में कप्पा तारिस ।। ८ मणोसिलागतेण हत्थेण, दवीए भायणेण बा। देलियं पडियाइवखे. न मे कया तारिसं ॥ (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ चरणानुयोग सचित्त रुप से लिप्त हस्तादि से आहार ग्रहण के प्रायश्चित सूत्र सचित्तदन्वेण संसद्वहत्याइणा आहार-गहण-पायच्छित्त सचित्त द्रव्य से लिप्त हस्तादि से आहार ग्रहण के प्रायसुत्ताई दिचत्त सूत्र६६६. से भिक्खू.... १. उबल्लेण चा, २. ससिणिण का, हत्येण ६६६. जो भिक्ष --(१) गोले या, (२) लिप्त हाथ से, पात्र से, ना, मतेण वन्नीएण वा, भापणेण बा, असगं वा-जाब-साइमं चमचे से या भाजन से अगन--यावत् -स्वाद्य ग्रहण करता है, वा पडिग्गाहेह, परिगाहेत वा साइजद । करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू-- इसी प्रकार जो भिक्ष - ३. ससरक्षेण या, ४. मट्टिया संस?ण वा. ५. असा (३) सचित्त रज, (४) सचित्त मिट्टी, (५) सचित्त ऊस, संस?ण वा, ६. लोणिय संसट्टण वा, ७. हरियास संसट्ठण (६) सचित्त नमक, (७) सनित्त हरिताल, (८) सचित्त मनशिला, वा, ८. मणोसिला संस?ण वा. ६. वणिय संनद्वेग वा, (६) सचित्त पीली मिट्टी, (१०) मचिन गेरू, (११) सचित्त १७. गेरुय संस?ण वा, ११. सेठिय संस?ण बा, १२, श्वेतिका, (१२) सचित्त फिटकरी. (१३) सचित्त हिंगलु, (१४) सोरदिय संस?ण वा. १२. हिंगुलय संस?ण वा, १४. अंजण सचित्त अंजन, (१५) सनित्त लोध, (१) सचिन तुष, (१७) संस?ण वा, १५. लोड संसट्टण बा, १६, कुक्कुससं?ण सवित्त पिष्ट, (१८) सचित्त कंतव, (१६) सचित्त कंद मूल, वा, १७. पिट्ट संस?ण का, १८. कंतब संस?ण वा, १६. (२०) सचित्त अदरक, (२१) सचित पुष्प मा (२२) सचित्त कंदमूल संस?ण वा, २३. सिंगबेर संम?ण वा, २१. पुरफय वनस्पति चूर्ण (चटनी) से संसृष्ट अथवा संस?ण वा, २२. उपकुट्ट संसट्ठीण ना असंसट्टेण वा हत्येण वा, मत्तण वन्यौए या, भायणेण वा असंसृष्ट हाथ से पात्र ने, चम्मच रो, भाजन से अशन असणं वा-जाब-साइमं बा पहिगाहेइ, पडिगाहेंत था . यावत्--स्वाद्य को ग्रहण करता है, करवाता है पा करने वाले साइज्जद। का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा मासियं परिहारदाणं उग्याइयं। उसे मासिवा उद्घतिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ४, सु. ३८-३६ जे भिक्षु अण्णउत्यियाणं वा, मिहत्थाणं वा। जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहन्थ के, सीओवग-परिभोगेण हत्येण वा, मत्तण वा, वरिखएण वा, शीतोदक से भीगे हुए हाथ में, गीले पात्र से, चमच से, भाषणेण या, असणं वा-जाव-साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिगा- भाजन से अपन-यावत् --खाद्य पदार्थ दिया हुबा लेता है, हेत वा साहज्जा । निवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज चाउम्मासिय परिहारहाणं जाघाइये। उसे चातुर्मासक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१२, शु. १५ आता है। -.- (पिछले पृष्ठ का पोष) ६ अंजयगतेण हत्थेण, दवीए भायणैण वा । देतियं परिवाइक्स, न मे कप्पा तारिमं ।। १० लोणगतेण हत्येण, देवीए भामणेण वा । देतियं पटियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिस ।। ११ गेल्यगतेण हत्येण, दन्वीए भायणेण वा । ऐतियं पटियाइखे, न मे कप्पइ तारिस । १२ बरिणयगतेण हत्थेष, दबीए भायणेण वा। लियं पडियाइक्ले, न मे कप्पा तारिस । १३ रोवियगतेण हत्थेण, दवीए भायर्णण वा। देतिय पडिजाइन, न मे कण्पद तारिस ।। १४ सोरद्वियगतेण हत्येण, दबीए भायर्णण बा । देतियं पटियाइन्वे, न मे कप्पइ तारिस ।। १५ पिट्ठगतेण हत्येण, दबीए भायण था। देंतिय पडियाइवे, न मे कप्पइ तारिस ।। १६ कुक्कुसगतेण हत्येण, दवीर भायगेण । देतियं पडियाइवखे, न मे कमइ तारिस । १७ टक्कुटुगतेण हत्येण, दबीए भाषणे ण बा। देतियं पडियाइनमे, न में कप्पट वारिमं ।। १८ असंस?ण हत्थेण, दवोए भायण वा । दिज्जमाणं न इसज्जा, पच्छाकम्म जहि भवे ।। १६ संसटूण हत्थेण, दब्बीए भायणेण वा । दिज्जमाणं पडिपहेजा, जं तत्सणियं भवे ।। -स. ५. उ., गा. ३३-११ १ इन प्रायश्चित्त सूत्रों में संसृष्ट हाथ आदि २२ प्रकार के कहे है । बस. अ. ५, अ.१गा. ३६-५० तक में तथा आ. सु.२, अ. १. उ. ६, सु.३६० में कुछ कम कहे गये हैं, साथ ही इनमें क्रमभेद भी हैं । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र.९७०-६७३ छवित दोष चारित्राचार : एषणा समिति [५८७ छड्डिय दोसं छदित दोष९७०. आहारतो सिया तत्य, परिसाडेन्ज भोयणं । १७.. भिक्षा लाती हुई स्त्री यदि मार्ग में जगह-जगह आहार बेतियं पडियाइक्खे, न मे कल्पड़ तारिसं ॥ गिराये तो भिक्ष, उस भिक्षा देने वाली को कहे-तू आहार -दस ५. अ. ६. गा. २... राते हुए ला रही है अतः) "ऐसा आहार मुझे लेना नहीं कल्पता है।" ॐ एषणा विवेक-७ १. गर्भवती निमित्त निर्मित आहार-गर्भवती की दोहद पूर्ति के लिए बना हुआ आहार । २. अरष्ट स्थान --जहाँ अंधकार हो वहां से आहार लेने का निषेध । ३. रजपुक्त आहार-विक्रय के लिए रखे हुए रजयुक्त खाद्य पदार्थ । ४. संघट्टण-पुष्पादि जहाँ विखरे हुए हों वहां से आहारादि लेना। ५. उल्लंघन मार्ग में बैठे हुए या द्वार के मध्य में बैठे हुए बालक, बछड़ा तथा श्वान आदि को लाँचकर आहारादि दिए जाने पर लेना अथवा उक्त प्राणियों को हटाकर आहारादि लेना । ६. बहुजसित धर्मिक-काँटे गुठली आदि फंकना पड़े ऐसे खाद्य पदार्थ लेना । ७. अमपिण्ड-भिक्षाचरों को देने के लिए बनाया हुआ आहार लेना । ८. नित्यपिण्ड-जिस गृहस्थ के यहाँ प्रतिदिन आहारादि का निश्चित भाग दिया जाता है उस घर से आहारादि लेना। ६. आरण्यक-अटदी पार करने वाले यात्रियों से आहारादि लेना। १०. नैवेद्य-देवताओं के अर्घ्य के लिए अपित किये हुए आहारादि में से कुछ भाग लेना । ११. अत्युषण आहार-अत्यन्त गर्म आहार ग्रहण करना दाता को नष्ट हो या पात्र फूट जाय इत्यादि कारण से अग्राह्य होता है। १२. राजपिण्ड राजा या राज परिवार या राज कर्मचारियों के निमित बने हुए आहारादि लेना । गग्विणी निमित्त-णिम्मिय-आहारस्स विहि-णिसेहो- गर्भवती निमित्त निमित आहार का विधि निषेध-- ९७१. गुन्धिणीए उवप्नत्यं, विविहं पाणभोरणं । १७१. गर्भवती के लिए बनाया हुआ विविध प्रकार का भकभुज्जमाणं विबज्जेज्जा, अत्तसेसं पडिच्छए ।' पान यह ला रही हो तो मुनि उसको ग्रहण न करे, खाने के बाद -दस. अ. ५, उ. १, गा. ५४ बचा हो वह ग्रहण कर सकता है। अदिट्ठाणे गमण-णिसेहो-- अहष्ट स्थान में जाने का निषेध९७२. नीयदुवार तमस, फोटुगं परिवज्जए। १७२. जहाँ चक्ष का विषय न होने के कारण प्राणी भलीभाति · अचक्खुविसओ जत्य, पाणा दुप्पडिलेहगा । न देखे जा सन से नीचे द्वार वाले अन्धकार युक्त स्थान में -दस अ. ५. उ. १, गा, २० आहार आदि के लिए न जावे ।। रजजुत्त-आहारस्स गहण-णिसेहो रजयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध९७३. तहेव सत्तचष्णाई, कोलुग्णाई आवणे । ६७३. सत्तू, बेर का चूर्ण, तिलपपड़ी, गीला गुड़, पूआ इस सबकुलि फालियं पूर्य, अन्न वा वि तहाविहं॥ तरह के अन्य भी खाद्य पदार्थ जो बेचने के लिए दुकान में रखे १ गभिणी से आहार लेने का निषेध और स्तनमान करती हुई स्त्री से आहार लेने का निषेध देखिए-दायक दोष में । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] चरणानुयोग farकायमाणं पसढं, रएण परिफासियं I देतियं पडिआइखे न मे कम्पs तारिसं ॥ पुस्काई विपदार्थ पवेस थिमहो ७४. या बीयाई वा कोइए। भोलि परिच ॥ २. - दस. अ. ५ उ. १, गा. १०२-१०३ दारगाई उल्लंघन गिरोहो ७५. एलगं दारगं साणं वन्धमं वावि कोट्टए । नपाए २. २. उच्छुचीयगं वा ४. वा बहुधम्मिय आहार ग्रहण- गिरोहो२०६गी वाहवा अणुविसमा से जं पुण जाणेज्जा - पुष्प आदि बिखरे हुए स्थान में प्रवेश का निषेध - दस अ. ५. उ. १, गा. २२ हत्यारं अंतरवासिलिया जाबोडियामा ।' -दन. अ. ५, उ. १. गा. २१ देखकर मुनि आहार के लिए व जाये । बच्चे आदि के उल्लंघन का निषेध - ०३. मुच्चे और को हटाकर घर आदि में (आहार के लिए) प्रवेश न करे । ५. उच्छुसाल या ६. डा. ७. सिवा ८. सिवलियालगं वा अस्ति खलु पडिया हिसार ३ महा ४. १. परिमा परमा अभ्यपिंडस गणिनेो२०७. सेवा वा अणुविसमा पपुजा१. अगडि उक्खिमाणं पेहाए. २मा हा विषयपडिए - आ. सु. २, अ १, उ. १०, मु. ४०२ कार्य हुए हों और वे रजयुक्त हों तो भुति देती हुई स्त्री को कहे कि "इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता ।” पुष्प आदि बिखरे हुए स्थान में प्रवेश का निषेध ७४. जिस घर आदि में (या द्वार पर पुष्प बीजादि बिखरे हों तथा भूमि तत्काल की बीपी और दीनी हो यहाँ उन्हें सूत्र ३७३-६७७ अधिक त्याज्य भाग वाले आहार ग्रहण का निषेध२०६ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रष्ट नि या भिक्षुणी ग्रह जाने कि- (९) (२) की दीलियां का मध्य भाग, के पार कटे हुए छोटे-छोटे खण्ड (३) इक्ष के छिलके सहित खण्ड, (४) इशु का अग्रभाग, (2) कीशालाएं. (६) इक्ष के गोल टुकड़े, (७) सेकी हुई कलियों तथा उबली हुई भगवान फलियां जिनके ग्रहण करने पर खाने लायक अल्प और फेंकने लायक अधिक प्रतीत हो- ऐसे इक्ष की दो पेलियों के मध्य भागों को यावत्उबली हुई सरगवा की फलियों को अनाक जानवर-- यावत् ग्रहण न करे । अगडि के ब्रह्म का निषेध १० प्रवेश करते हुए यह जाने कि बिहार के लिए गृहस्थ के घर में (१) अग्रपिंड निकाला जा रहा है। (२) अपि अन्य स्थान पर रखा जा रहा है । (३) अति अन्यत्र ले जाया जा रहा है। (४) अपिंड बांटा जा रहा है । (2) अग्रपिंड खाया जा रहा है। १ बहु-अट्टियम्गलं अणिम्सिं वा बहुटयं । अत्वियं तिदुयं विल्लं, उच्छुखं च सिवल ॥ अये सिवाए देतियडिया न मे - ॥ - दस. अ. ५. उ. १. गा. १०४ १०५ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७७-६७६ नित्य दान में दिये जाने वाले घरों से आहार लेने का निषेध शरित्रासार : एषणा समिति ५८६ ६. अग्गापडं परिविज्जमाणं पेहाए। (६) अग्रपिंड इधर डाला जा रहा है, या फेंका जा रहा है। पूरा असिणाइ वा, अबहराइ वा, पुरा जत्थाणे समण-जान- तथा श्रमण आदि अग्रपिंड वाकर चले गये हैं या लेकर चले वणीमगा खवं खवं उपसंकमंति-से हंता अहमबि खा खा गये हैं, अथवा जहाँ अन्य श्रमण-~-यावत् - भिक्ष वा जल्दी जल्दी उपसकमामि, माइट्ठाणं संकामे, जो एवं करेजा-- जा रहे हैं अतः मैं भी जाकें (और अपिंड प्राप्त करू) ऐना -आ. सु. २, अ.१. उ. ४, सु, ३५२ विचार करे तो वह मापा का सेवन करता है इगलिए ऐसा में बारे। णिच्चवाण-पिण्ड-गहण-णिसेहो - नित्य दान में दिये जाने वाले घरों से आहार लेने का निषेध-- ६७. से भिख्खू या भिक्खूणो वा गाहाबकुल पिंडवाप-पडियाए ९७८. भिक्ष या भिक्षणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में पविसिजकामे सेज्जाई पुण कुलाई जाणेज्जा-इमेसु खनु प्रवेश करना चाहे तो इन कुलों को जाने ... कुलेसु। १. णितिए अग्गपिडे बिज्जद।' (१) जिनमें नित्य अपिट दिया जाता है। २. णिसिए पि दिज्नह। (२) जिनमें नित्य पिंड दिया जाता है। ३. णितिए अबढ़ भागे दिग्जा। (३) जिनमें नित्य आधा भाग दिया जाता है। ४. णितिए पाए दिज्जइ । (४) जिनमें नित्य तीरारा चौथा भाग दिया जाता है। ५. णितिए उवभाए विज्जइ । (५) जिनमें नित्य छठा-आठवा भाग दिया जाता है। तहप्पगाराई कुलाई नितियाई नितिउमाणाइं नो पसाए वा, नित्य दान दिये जाने वाले और श्रमण आदि जहाँ निरन्तर पाणाए वा णिक्वमेज्ज वा, परिसिज्ज वा। प्रबेया करते रहते हैं- ऐसे कुलो में भिक्ष भात-पानी के लिए —आ. सु. २, अ० १, ३० १, सु० ३३३ निष्क्रमण प्रवेश न करे। मिच्च दाण पिडाइ भंजमाणस्स पायच्छित्तसुत्ताई- नित्यदान पिंडादि खाने के प्रायश्चित्त सूत्र१६. जे भिक्खू नितिय अग्गपिङ मुंजद भुजंतं वा साइज।। ९७६. जो भिक्ष नित्य अप्रपिंड भोगता है. भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नितियं पिर भुजह, भुजंतं वा साइज्जद । जो भिक्ष नित्य पिंट भीगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नितियं अवड्यू-भागं भुजई. भुजतं वा नाइज्जई। जो भिक्ष नित्य पिंड का आधा भाग भोगता है, भोगवाता है. भोगने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नितियं भाग भुजह, मुंजतं वा साइन्जद्द । जो भिक्ष नित्ल पिंड का टोसरा चौथा भाग भोगता है. भोगवाता है, गोगने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू नितियं उवभागं भुलइ, भुजतं वा साइज्जइ जो मिक्ष नित्य पिंड का था, आठवाँ भाग भोगता है, भोगवाता है. भोगने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह भासियं परिहारट्टा उचाइ । उसे नासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, मु. ३२-३६ आता है। -....----... -MANE- HEI. किसी एक घर से नित्य आमंत्रित भिक्षा लेना तीसरा अनाचार है। देखिए----दभ, अ. ३, गा.२ की चूर्णी व टीना तथा अ. १, गा. ४८ तथा नि. भाष्य गा. ६६६ । अनेक स्थलो के उद्धरण सहित संग्रह के लिए देखें मुनि नथमलनी संपादित दशव. अ. ३ का टिप्पण। २ पिंडो खन्नु भत्तट्ठो, अवड्ढ पिंडो उ तस्स जं अद्ध । भागो निभागमादी, लस्सद्धमुबहभागो य । -नि. भाष्य, गा.१००६ इस गाथा में ४ सूत्रों के शब्दार्च का संग्रह कम से हुआ है । तया नित्य अग्रपिंड सूत्र की व्याख्या इसके पूर्व हुई है। तदनुसार आवारांग व निशीच सूत्र के अन सूत्रों का क्रम व्यवस्थित किया गया है। HAMAN".. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६०] चरणानुयोग आरण्यकाधिकों का आहारादि ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ९८०-८४ आरणगाईणं आहारगहण-पायच्छित्त सुसाइं- आरण्यकादिकों का आहारादि ग्रहण करने के प्रायश्चित्त ६८०. जे भिक्खू आरणगाणं वणंथाणं अडविनता संपट्टियाणं १८०. जो भिजू भरण्य में जाने वालों का, वन में जाने वालों असणं वा-जान-सादम वा पडिग्गाहेइ, पउिम्गात बा का, अटवी की यात्रा में प्रस्थान यसो वाली का अनन-यावतसाइज्जड़। स्वादिम पदार्थ लेता है, लवाता है, लेने वाल का अनुमोदन करता है। जे मिश्बू आरणगाणं वगंधाणं अडविजत्तामओ पक्षिपियत्ताणं जो मिशु अरण्य से, बन से या अदबी की याश से लौटने असणं या-जाव-साइमं या पडिग्गाहेड, पडिग्गाहेतं वा वालों का अणन · यावत् - स्वादिम पदार्थ लेता है, लिवाता है, साइजइ। लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि.उ.१६, सु. १२-१३ आता है।। णिवेयणापिंड-मुंजमाणस्स पायच्छित्तसुतं.-- नैवेद्यपिंड भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र६८१. जे भिक्खू निवेयपिडं झुंजह, मुंजतं वा साइज्जइ । १८१. जो भिक्षु नैवेद्य का आहार करता है कराता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेधमाणे आवज्जइ घाउम्मासियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्माशिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइयं । -नि. उ. ११. सु. ८१ आता है। अच्चुसिणं-आहार-गहणस्स पायच्छित सुतं- अत्युष्ण आहार लेने का प्रायश्चित्त सूत्र९८९. जे भिक्खू असणं वा-जाव-साइमं वा उसिणुसणं पडिग्गा. म. जो मित् गर्मागर्म असन-पावत्- स्वाद्य पदार्थ लेता हेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे चातुमासिक उपातिक परिहारस्थान (पायश्चिन) ...नि. उ. १७. सु. १३१ आता है। रायपिंडगहणस्स भंजणस्स य पायचिठत्त सुत्ताई- राजपिण्ड ग्रहण करने और भोगने के प्रायश्चित्त सूत्र९८३. जे भिक्खू रायपिड गेण्हाइ, गेहत वा साइजह । १३. गो भिक्षु राजपिंड को ग्रहण करता है. करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षू रायपिट भुंजइ, मुंजतं वा साइजह । जो भिक्षु राजपिंट का उपभोग करता है, करवाता है, करने वाले का अनुनोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जई चाउम्मासियं परिहारहाणं उसे चातुर्मासि अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्घाइयं । -नि. उ. ६. मु. १-२ आता है। अंतेउर पवेसणस्स भिक्खागहणस्स य पायचिछत्तसुत्ताई- अन्तःपुर में प्रवेश व भिक्षा ग्रहण के प्रायश्चित्त सुत्र९८४. जे भिक्खू रायतेपुरं पविसइ, पविसंत वा साइजह । ६८४, जो भिक्षु राजा के अन्त.पुर में प्रवेश करता है, करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रायतेपुरियं वएज्जा जो भिक्षु राजा के अन्न:पुर की दासी को ऐसा कहे“आउसो रायसेपुरिए ! गो खलु अम्हं कप्पइ रायतेपुरे हे आयुष्मति ! राजान्तःपुर रक्षिके ! हम साधुओं को णिक्वमित्तए वा पविसित्तए वा। राजा के अन्तःपुर में निष्क्रमण या प्रवेश करना नहीं कल्पता है, इमण्हं तुर्म पडिग्रहं गहाय रायतेनुरालो असणं बा-जाव- तुम इस पात्र को ग्रहण कर राजा के अन्त:पुर से अपन साइमं या अभिहां आहटु वलयाहि" -पावत् – स्वाद्य लाकर मुझे दो।' मोतं एवं वयइ, वयंत वा साइजइ। जो,उससे इस प्रकार वहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ६८८-६८६ मूर्वाभिषिक्त राजा के अनेक प्रकार के बाहार ग्रहण का प्राथम्बित सूत्र चारित्राचार : एषणा समित्ति [५६१ भिषवं च गं रायतेपुरिया वएग्जा यदि भिक्ष को अन्तःपुर की दासी ऐमा कहे"आउसंतो समणा ! णो खलु तुझ कप्पद रायतेपुर णिक्ख- "हे आयुष्मन् श्रमण ! तुम्हें राजा के अन्तःपुर में निष्क्रमण मित्तए वा, पविसितए था। या प्रदेश करना नहीं कल्पता है। आहरेयं पडिग्गहगं जाए अहं रामंतेडराओ असणं वा-जाव- अत: यह पात्र मुझे दो 'जससे मैं अन्तःपुर से अशन-यावत्साइमं पर अभिहर आहट्ट दलयामि'--. वाद्य तुम्हें लाकर दूं।" जो तं एवं वयंती पडिसुणेई, पडिमुणतं वा साइजद । जो उसके इस प्रकार के कथन को स्वीकार करता है, कर बाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ चासम्मासियं परिहारटुाणं उमे गातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइयं । --- नि. उ. ६, सु. ३.५ आता है। मुद्धाभिसित्तरायाणं विविपिडाहणस्स पायच्छित- मूर्धाभिषिक्त राजा के अनेक प्रकार के आहार ग्रहण का सुत्ताई प्रायश्चित्त सूत्र१८५. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुखाभिसितागं । १८५. जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के१. दुवारियभत्तं दा, (१) द्वारपालक के निमित्त किया हुआ भोजन, २. पसु-मत्तं वा, (२) पशुओं के निमित्त किया हुआ भोजन, ३. भयग-भत्तं वा, (३) नौकरों के निमित्त किया हुआ भोजन, . ४. बल-भत्तं वा, (४) संनिकों के निमित्त किया हुआ भोजन, ५. कयग-मत्तं वा, (५) काम करने वालों के निमित्त किया हुआ भोजन, ६. हय-मत्त वा, (६) घोड़ों के निमित किया हुआ भोजन, ७. गय मस' वा, (७) हाथियों के निमित्त किया हुआ भोजन, ८. कतार मत्त वा, (८) अस्थी के यात्रियों के निमित्त किया हुआ भोजन, १. दुविभक्तमत्त वा, (६) दुर्भिक्ष में देने के लिए किया हुआ भोजन, १७. वमग-भत्तं वा, (१०) दीन जना के लिए देने योग्य भोजन, ११. गिलाण-मत्त वा, (११) रोगियों के लिए देने योग्य भोजन, १२. बद्दलिया-मत्त वा, (१२) वर्षा से पीड़ित जनों को देने योग्य भोजन, १३. पाहुण-भत्तवा, पडिग्गाहेड पडिगाहतं वा साइजह ।। (१३) मेहमानों के लिए बनाया हुआ भोजन, लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेयमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाण उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइम। -नि. उ. ६, मु.६ आता है। जे भिक्खू रपणो खत्तियाणं मुदियाणं मुसामिसित्ताणं। जो भिक्षु तुद्धवंशीय मूभिषिक्त क्षत्रिय राजा का१. उस्सट्ट-पिड वा, २. संसट-पिट वा, ३. अथाह (१) त्यक्त भोजन, (१) बचा हुआ भोजन, (३) अनायों के पिया, ४. किविण-पितवा, निमित्त निकाला हुआ भोजन, (४) गरीबों के लिए निकाला ५. वणिमग-पिडं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्मइ। हुआ भोजन, (५) भिखारियों के लिए निकला हुआ भोजन लेता है, लिवाता है, तेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे बावज्जह चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुघाइय। उसे अनुघातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) मुडाभिसित्तं रायाणंछ दोसायतणाई अजाणिय भिक्खा- मुर्दाभिषिक्त राजा के छः दोपायतन जाने बिना गोचरी गमण-पायच्छित्त सुतं जाने का प्रायश्चित्त सूत्र१८६. जे भिक्खू रपणो खत्तियाण मुहियागं मुसामिसिसाणं माई १८१. जो भिक्षु शुद्धबंशीय मूर्दाभिषिक्त राजा के प्रः दोषायतनों छदोसायणाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय परं चउराय- को जने बिन', पूछ विना, गवेषणा किये बिना चार पाँच रात Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] चरणानयोग यात्रामत राज का आहार ग्रहण करने के प्रापरिचत्त सूत्र सूत्र ६८६-६८ पंचरायाओ गाहावहकुलं पिशवाय-पडियाए 'णिक्खमइवा, के बाद भी गाथापति कुल में आहार के लिए प्रवेश करता है या पविसई वा, णिक्षमतं वा, पविसंत बा साइज्जह । तं निकलता है, प्रवेश करवाता है या निकलवाता है. प्रवेश करने जहा बाते का या निकलने वाले का अनुमोदन करता है । यथा१.कोडागार-सालाणि वा, २. भंडागार-सालापि था, (१) कोष्ठागार शारा, (२) भाण्डागारशाला, ३. पाण-सालाणि वा, ४. खीर-सालाणि वा, (३) पानशाला, ४) क्षीर शाला, ५. गंज-सामाणि बा, ६. महाणस-सालाणि बा। (५.) गजशाला, (६) महानसशाला (रसोई) तं सेवमाणे भायज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्याइयं । जसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ६, सु.७ आता है। मुद्धाभिसित्तरायाणं जतागयाण आहार-गहणस्स यात्रागत राजा का आहार ग्रहण करने के प्रायश्चित्त पायच्छित्त सुत्ताइं .. सूत्र-- ६८७. जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुखामिसिसाणं बहिया ६८७. जो भिक्षु शुदवंशीय नर्धाभिरिक्त क्षत्रिय राजा यात्रा के जत्ता - पट्टियाणं असणं वा-जाव-साइमं दा पहिगाहेह, लिए बाहर जा रहे हों उस समय उनका अशन – यावत् - पडिग्गाहेत वा साइज्जइ । स्वाथ आहार ग्रहण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रपणो खत्तियाणं मुदियाणं मुशामिसित्तागं बहिया जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा यात्रा से जत्ता-पडिमियत्ताणं असणं बा-जाव-साइमं वा पछिमाहेइ, लौट कर आ रहे हों उस समय उनका अशन-पावत्-स्वाब परिग्गाहेत बरसा इन्जा। लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुखाभिसित्ताणं णा - जो भिक्षु युद्धबंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा नदी यात्रा जत्सा-पट्टियागं असणं वा-जाम-साइमं वा पडिग्गाहेइ. पडि- के लिए जा रहे हो उस समय उनका अशन-यावत् –स्वाद्य ग्गाहेंतं वा साहज्जह । ग्रहण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। में भिक्खू रण्णो खतियाणं मुद्दियाणं मुशामिसित्ताणं ण्इ- जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय रजा नदी यात्रा जत्ता-पडिणियत्ताणं असणं वाजाव-साइन या पडिग्गाहेइ, से लौटकर आ रहे हों उस समय उनका अशन-यावत्पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई। स्वाय चहण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रण्णो खसियाणं मुहियाणं मुखाभिसित्ताणं गिरि- जो भिनु शुक्रवंशीय मुर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा पर्वत यात्रा जत्ता-पट्टियाणं असणं वा-जाव-साइम वा पडिग्गाहेइ, पडि- के लिए जा रहे हों उस समय उनका अशन-यावत् --स्वाद्य गाहेंतं वा साइजद। ग्रहण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रणो बत्तियाणं मुहियाणं मुखाभिसित्ता गिरि- जो भिक्षु मुबंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा पर्वत यात्रा जत्ता-पडिणियत्ताणं असणं चा-जाव-साइमं चा पडिग्गाहेइ, से लौटकर आ रहे हों उस समय उनका अशन--यावत्पडिग्गाहेंतं वा साइज्ज। स्वाद्य ग्रहण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। ते सेवमाणे आबज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्टाणं अणुग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुश्वात्तिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि. इ. ६, सु. १२-१७ आता है। मुद्धाभिसित्त रायाणं णीहड-आहार-हास्स पायच्छित्त. मूर्वामिषिक्त राजा के निकाले हुए आहार लेने के प्रायसुत्ताई श्चित्त सूत्र-- १८. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुशाभिसिनाणं असणं ९८. जो भिक्षु शुद्धवंगीव मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूगरों पा-जाब-साइमं वा परस्स णीहडं पडिम्याहेड, पडिग्गाहेतबा को देने के लिए बाहर निकाला हुआ अमन-यावत्-स्वाध साइम्जह । तं जहा लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। यथा१. खत्तियाण वा, २. राईण वा, ३. कुर ईण वा, १) क्षत्रियों को, (२) राजाओं को, (३) कुराजाओं को, ४. राय-वसट्टियाण वा, ५. राय-पेसियाण वा। (४) राजा के सम्बन्धियों को, (५) राजा के भुल्यों को, Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८ मूर्धाभिषिक्त राजा के निकाले हुए आहार लेने के प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [५६३ जे भिक्खू रगो खसियाणं मुद्दिमागं मुखामिसिसाणं असणं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का अशन वा-जाद-साइमं वा परस्स पोहा पडिगगाहेक, पडिग्गाहेंतं धा - यावत्- स्वाद्यं जो दूसरों को देने के लिए बाहर निकाला है साइज्जइ । तं महा उसे लेता है. लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। स्था१. गडाण बा, २. गट्टाण वा. (१) नाटक करने वालों को, () नत्य करने बालों को, ३. कच्छ्याण वा, ४. जल्लाण वा, (३) डोरी पर नृत्य करने वालों को, (४) स्तोत्र पाठकों को ५. मल्लाण वा, ६. मुट्टियाण वा, (५) मल्लों को, (६) मुष्ठिकों को, ७. वेबगाण वा, ८. कहगाण था, (७) भांड-चेष्टा करने वालों को, (८) कथा करने वातों को, ६. पवगाण या, (e) नदी जादि में तैरने बालों वो. १०. लासगाण वा. (१) जयजयकार बोलने वालों को, ११. खेलयाण वा, १२. छत्ताण याण था । (११) खेल करने वालों को और (१२) छत्र लेने वालों को। जे भिक्खू रफ्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं जो भिक्ष, शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों बा-जाव-साइमं वा परस्स पोहर पडिग्गाहेइ, पडिपात को देने के लिए बाहर निकाल हुआ अशन-पावत् --स्वाद्य वा साइज्जई । तं जहा लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है । यथा - १. आस-पोसयाण वा २. हस्थि-पोसयाण वा, (१) अश्व पोषक, (२) हस्ति पोषक, ३. महिस-पोसयाण वा, ४. वसह-पोसयाण (३) महिष पोषक, (४) ऋषभ पोषक, ५. सोह-पीसयाण या, ६.बन्ध-पोसयाग वा, (५) सिंह पोषक, (६) व्याघ्र पोषक, ७. अय-पोसवाण वर, ८, पोय-पोसवाण था, (७) अजा पोषक, (5) कपोत पोषक, ... मिग-पोसपाण वा, १०. सुणह पोसयाण वा, (६) मृग पोषक, (१०) श्वान पोषक ११. सूपर-पोसयाण था, १२. मेंट-पोसयाण था, (११) सूकर पोषक, (१२) मिठा पोषक १३. कुक्कुड-पोसयाण वा, १४. तित्तिर-पोसयाण का, (१३) कुक्कुट पोषक, (१४) तीतर पोषक १५. धट्टय-पोसयाण वा, १६. लावय-पोसवाण वा, (१५) बतक पोषक (१६) लावक पोषक १७. चीरल्ल-पोसयाण वा, १८. हंस-पोसयाग था, (१७) चील पोषक, (१८) हम पोषक, १६. मपूर-पोसयाण वा, २०. सुय-पोसयाण वा। (१६) मयूर पोषक और (२०) शुक पौरक । जे भिक्षू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुसाभिसित्ताणं असणं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों बा-जाब-साइम वा परस्स गोहर पडिागाहेइ, पडिग्गाहेंतं को देने के लिए बाहर निकाला हुआ अथन - यावत् -स्वाद्य वा साहज्जा । तं जहा लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। यथा१. आस-चमगाण वा, (१) घोड़े का दमन करने वाले को, २. हस्थि-दमगाण था। (२) हामी का दमन करने वाले को। जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुहियाण मुसाभिसित्ताणं असर्ण जो भिक्षु शुद्धबंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का जो दूसरों वा-जाद-साइमं वा परस्स गोहर पडिग्गाहेइ. पडिगाडेतमा को देने के लिए बाहर निकाला हुआ अशन - पावत्-स्वाद्य साइजह । तें जहा लेता है. लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। पया१. आसरोहाण वा, (१) घोड़े पर चढ़ने वालों को, २. हस्थि-रोहाण या। (२) हाथी पर चढ़ने वालों को, जे भिक्खू रणो खत्तियाण मुदियाणं मुशामिसित्ताण असणं जो भिक्षु शुजवशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों वा-जाव-साइम वा परस्स गोहर पडिग्गाहेह, पडिग्गाहेत को देने के लिए बाहर निकाला हुआ अशन-यावत्-स्वाध लेता या साइज्जा । तं जहा-- है, लिवाता है लेने वाले का अनुमोदन करता है यथा१. मास-मिठाण वा, २.हत्यि-मिठाण धा। (१) अश्वरक्षकों को, (२) गजरक्षकों को। जे भिषणू रपणो पत्तियाणं मुष्टियाण मसानिमित्ताण असणं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों को Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] चरणानुयोग मूर्धाभिषिक्त गजा के निकाले गए आहार लेने के प्रापश्चित भूत्र सूत्र १५८ - - - - - - - या-जाव-साइमं वा परस्स गोहर पडिग्गाहेर पडिग हेतं वा देने के लिए बाहर निकाला हुआ अगन-यावत्-स्वाध लेता है, साइजह । तं जहा लिवाता है. लेने वाले का अनुमोदन करता है । यथा१. सत्यवाहाण वा, २. संबाहावयाण वर, १. संदेशवाहक को २. मर्दन करने वालों को, २ अभंगावयाण या, ४. उज्वट्टावयाण या, ३. मालिश करने वालों को ४. उबटन करने वालों को, ५. मजावयाण वा, ६. मंगवयाग वा, ५. स्नान कराने वालों को, ६. मुकुट पहनाने वालों को, ७.छत्तग्गहाग वा, ८. चामरकाहाणं वा, ७.छत्र ग्रहण करने वातों को, ८. चामर ग्रहण करने वालों को हडप्प-नगहाण वा, ६ आभरण पहनाने वालों को, १०. परिपट्ट-गहाण वा, १०. वस्त्र पहनने वालों को, ११. दोविय-गहाणं वा, ११. दीपक ग्रह्ण करने वालों को, १२. असि-गहाण वा, १२. तलवार ग्रहण करने वालों को, १३. घणु-गहाग वा, १३. धनुष ग्रहण करने वालों को, १४. सत्ति-ग्गहाण वा, निशूर मह काले वालों को, १५. कोंत-गहाण वा। १५. भाला ग्रहण करने वालों को। जे भिन्यू रष्णो खत्तियाण मुदियाणं मुदाभिसिताग असगं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों को धा-जाव-साइम वा परस्स पीहर पडिग्गाहेद, पडिग्यात देने के लिए बाहर निकाला हुआ अगन--यावत्-स्वाध लेता है, बा साइज्जतं महा-- लिवाता है. लेने वाले का अनुमोदन करता है । यथा१. वारस-घराण या १. अंतःपुर रक्षक (कृत नपुंसक) को, २.कंचुइज्जाण वा. २. कंचुकियों (जन्म से नपुंसक को) ३. बोरियाण वर, ३. अंतःपुर के द्वारपाल को और, ४. बंडारमिखयाण था। ४. दण्डरक्षकों (अंतःपुर का प्रहरी) को । जे भिक्खू रक्को बत्तियाणं मुद्दिपाणं मुशाभिसित्ताणं असगं जो भिक्षु शुद्धवंषीय मुद्धीभिषिक्त क्षत्रिय राजा का दूसरों को वा-जाब-साइमं वा परस्स गोहां पडिगाहेइ, पडिग्गाहेंतं देने के लिए बाहर निकाला हुआ आन--पावत्-म्बाद्य लेता है, वा साइज्जइ। सं जहा-- लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है । यथा-- १. खुज्जाण वा, १. कुब्जा दासियों को, २.चिलाइयाण वा, २. किरात देशोत्पन्न दासियों को, ३. यामणीण वा, ३. वामन दासियों को, ४. पडभीण वा, ४. वक्र शरीर वाली दानियों को, ५. बम्बरीण वा, ५. बञ्चर देशोत्पन्न दासियों को, ६. बउसीण वा, ६. बकुर देगोत्पन्न दामियों को, ७. जरेणियाण वा, ७. यवन देशोत्पम दासियों को, ८. पल्हवियाण वा, ८. पल्हव देशोत्पन्न दासियों को, १. ईसणीण वा, ६. इसीनिका देशोत्पन्न दासियों को, १०. धोकगिणीण वा, १०. बोरूप देण्योत्पन्न दासियों हो, ११. लउसीण वा, ११. लकुश देशोत्पन्न दासियों को, १२, लासीण था, १२. लाट देशोत्पन्न दासयों को, १३. सिंहलोणं वा, १३. सिंहल देशोत्पन्न दासियों को, १४. बमलीण वा, १४. द्रविड़ देशोत्पन्न दासियों को, १५. आरबीण वा, १५. अरब देशोत्पन्न दासियों को १६. पुलिदीण वा, १६. पुलिन्द देशोत्पन्न दासियों को, १७. पक्कणोण वा, १७. पत्रकफ देशोत्पन्न दासियों को, १८. बहसीण वा, १८. बहल देशोत्पन्न दासियों को, Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६८९ विविध स्थानों में राजपिंड लेने के प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [५६५ ६. चैत्य, १६. मीण वा, १६. मुरुड देशोत्पल दासियों को, २०. सबरीण वा, २०. शबर देशोत्पन्न दानियों को, २१. पारसीण वा। २१. पारस देशोत्पन्न दासियों को । तं सेबमाणे आवज्जा चाउम्मासिय परिहारहाणं उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्याइयं । –नि उ. ६, सु. २०-२८ भत्ता है। विविह ठाणे रायपिउ गहणस्स पायच्छित्तसुत्ताई- विविध स्थानों में राजपिंड लेने के प्रायश्चित्त मूत्र६६६. जे भिक्खू रण्णो स्वत्तियाण-मुहियाण-मुजामिसित्ताणं समवा- ६८६. जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के मेले एसु वा पिजनियरेसु वा आदि में पितृ पिंड-निमित्तक भोजन में, यथा१. ईर-महेसु वा, २. संव-महेमु या, ३.ब्द-महेसु वा १. इन्द्र, ४. मुकुद-महेसुवा, ५. मूत-महेसु षा, ६ जक्ख-महेसु वा, ४. मुकन्द, ५. भूत, ६. यक्ष, ७. णाग-महेसु वा, ६. यूम-महेसु वा, ६. चेह-महेसु का, ७. नाग, ६. स्तूप, १०. रुक्ष-महेसु बा, ११. गिरि-महेसु वा. १२. बरि-महेसु वा १०. दृक्ष, ११. पर्वत, १२. कंदरा, १३. अगड-महेसु वा, १४. तडाग-महेसुवा, १५. दह-महेसु वा १३. कप, १४. तानाब, १६. पइ-महेसु वा, १७. सर-महेमु वा, १८, सागर-महेसु वा, १६. नदी, १७. सर, १८. सागर, १६. आगर-महेसुवा, अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विश्वक्वेसु १६. आगर, महोत्सव में तथा, अन्य भी ऐसे अनेक प्रकार के महामहेतु असणं वा-आब-साइम वा पडिग्गाहेह, पडिग्गाहेंत महोत्सवों में से अमान-पावत्-स्वाध लेता है, लिवाता है, लेने वा साइज्जद। वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुखाभिसित्ताणं उत्तर- जो भिशु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा उत्तरशाला सालसि वा, उत्तर-गिर्हसि या, रीयमाणाणं असणं वा-जाव- में या उत्तरघर में हों वहाँ बने हुए अशन-यावत् स्वाद को साइमं वा पडिग्गाहेह, पविगाहेत वा साइज्जइ । लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू रणो-खत्तिपाण-मुहियाण-मुखाभिसित्तागं जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्दाभिषिक्त क्षत्रिय राजा का १. हय-सालगयाण बा, २. गप-सासगवाण षा, १. अश्वशाला, २. गजशाला, ३. मंत-सालगयाण वा ४. गुजा-सालगयाण वा, ३. मंत्रणाशाला, ४. गुप्तशाला, ५. रहस्स-सालगयाण या, ६ मेहण-सालगयाण वा . रहस्यशाला, ६, मैथुनशाला, में गये हुए असणं या-जाव-साइमं वा पडिग्गाहे पडिग्गाहेंतं वा राजा का अशन - यावत्-स्वद्य लेता है, लिवाता है, लेने वाले साइज्जा। का अनुमोदन करता है। ने भिक्खू रणो-खलियाण-मुहियाणं-मुशाभिसित्ताणं संनिहि जो भिक्षु शुद्धवंशीय मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के संग्रह स्थान संनिचयाओ खीरं बा-जाव-मच्छरियं वा अण्णयरं वा से दूध-यावत्-मिश्री या अन्य भी ऐसे कोई खाद्य पदार्थ को मोपणजाय पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जद। लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धारयं। उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. सु.१४ से १७ आता है। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११] चरणानुयोग ओशिकाविहार पहण करने के विधिनिषेध प्रकीर्णक-दोष - उद्देशियाह आहार महणरस विहि हो६० सेभिक्खू या. भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं या जान साइमं वा अस्सिपडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई * जाब- सत्ताई समारंभ समुद्दिस्त कोत पामिच्चं अच्छेज्जं अणि अद्धिं महद्दु चेतेति । त तहय्यगारं असणं वा जग्व साइमं वा, पुरिसंतरक या अपुरियंतरकडं था. बहिया णी वा अणीहर्ड या, अयं वा वणवा. परिमुथा अपरिमुवा. आसेवित वा अणासेवित वा अाजको पडियाला * एवं बहने सामिया एवं साम्यति बहवे माि समुद्दिस्स चलारि आलावा भाणिया । आ. सु. २, अ. १, उ. १, सु. ३३१ सेलू वा भिभूमी या गहान पिडा पाए अणुपविट्ठे समापे से कर्ज पुण जाणेज्जा असणं वा जाव साइमं वा यहवे समण' माहण अतिहि किषण वणीमए पणिय पणय समुद्दिस्स पाणाई जाय सत्ताइ समारंभ-जाव सेविका अगावियं वा जावो ****** औद्देशिकादि बाहार ग्रहण करने के विधिनिषेध १६०. गृहस्य के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि अशन यावत् स्वादिम दाता ने अपने लिये नहीं बनाया किन्तु एक साधर्मिक साधु के लिए प्राणी- यावत्सत्वों का समारम्भ करके साधु के निमित्त से आहार बनाया है, मोल लिया है, उधार लिया है। किसी से जबरन छीनकर लाया गया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लाया हुआ है तथा अन्य स्थान से लाया हुआ है। इसी प्रकार का अशन -- यावत् स्वादिम, अन्य पुरुष को दिया हो, या नहीं दिया हो, बाहर निकाला हो जा न निकाला हो, स्वीकार किया हो, या न किया हो, खाया हो, या न खाया हो, आसेवन किया हो, या न किया हो, उसे मप्राक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । इसी प्रकार अनेक साधर्मिक साधु, एक साधक साव और अनेक साधर्मिक साध्वियों के लिए इस प्रकार कुल चार आलापक का कथन कर लेना चाहिये । वह यामिभुवी बृहस्य के घर में आहार के लिए प्रवेश करने पर यह जाने कि यह अशन यावत् - स्वाद्य बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रियों भिखारियों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से प्राणी- पावत् सत्वों का समारम्भ करके बनाया हुआ है यावत् वह आसेवन किया गया हो, या न किया गया हो तो उस आहार को अत्रासुक समझकर - यावत्ग्रहण न करे । व विश्वं परिजापिया। " , 1 १ (क) उई किमहं पामि (ख) से जहाणामए अज्जी ! मए समणाणं निग्गंथाणं आधाकम्मिएर वा उद्देसिएइ वा, मीसज्जाए वा अज्टशेयरइ वा पूइए. -सूथ. सु. १, अ ६ गा. १४ जे अनि अभि ना. - ठाणं. अ. सु. ६६३ (ग) तो खलु कप जाया ! नमणणणं निम्याणं आहाकम्मिए ३ वा. उद्देसिए इ वा मिस्सजाए इ वा बाकी वा पावा, अच्छे वा मा कंवारने गिलाभते इया, बलिया भत्ते इ वा पाहुणभत्ते इ वा रोज्जश्वरपिंडे" इवा, रायपडे* इवा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे इवा, फलभोयणे वा दीपम इवा, हरियभोय' वा भुतए वा पाए । (भ) उद्दे सियं कीवर्ड नियाई अभिहाणि य । (ङ) दस. अ. ५, उ. १, गा ७० अज्झीयरए इ वा, ए वा दुइ ना बि. स. ६ ३ ३३, सु. ४३ --दस. अ. ३, गा. २ 1. *********** (च) दस. अ. ६, ४८-४९ (झ) दसा. व. २, सु. २ । (ज) दस. अ. १०, मर. १६ २ उपरोक्त दर्शाये गये दोषादि आवश्यक सूत्र में भी है, जो आवश्यक में भी लिए हैं। ३ दस. अ. ५, उ. १, गा. ६५-६६ सूत्र ६६० 1. (घ) दस. अ. ८ था. २३ ४ दस. अ. ५, उ. १, गा. ६६-६७ । - आ. अ. ४. सु. १८ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६०-६९१ निमंत्रण करने पर भी बोषयुक्त आहारादि लेने का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति से भिक्खू बा, भिक्खूशी वा गाहावइकुलं पिंजवायपडियाए भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट अणुपविट्ठ समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-असणं वा-जाब- होने पर यह जाने कि—पह अशन-यावत् -स्वादिम आहार साइमं या बहवे समण माहण-अतिहि-किवण-वणीमए बहुत से श्रमणों, मानों, अतिथियों, दरित्रियों और याचकों के समुहिस्स पाणाई-जाव-सत्ताई-जाव-आह१ तेति त उद्देश्य से प्राणी-यावत्- सत्वों का समारम्भ करके-पावत्तहप्पगार असणं वा-जाव-साइमं धा अपुरिसंतरकडं, अबहिया अन्य स्थान से लाया गया है, इस प्रकार के (दोषयुक) अशनगोहर, अणत्तट्टियं, अपरिभुत्त, अणासेवितं. अफासुयं-जावणो यावत्---स्त्रादिम जो अन्य पुरुष को नहीं दिया गया है. बाहर पणिज्जा। नहीं निकाला गया है. स्वीकृत नहीं किया गया है, उपभुक्त न हो. सनासेवित हो, उसे अवासुक जानकर---यावत्-ग्रहण न करे । अह पुण एवं प्राज्जा पुरिसंतरकर, बहिया णीहर्ड यदि वह इस प्रकार जाने कि-यह आहार अन्य पुरुष को दे अत्तट्टियं, परिमुत, आसेषित, फामुयं-जाव-पांडगाहेज्जा दिया गया है, बाहर निकाला गया है, दाता द्वारा स्वीकृत हो, उग-आ० सु० २, स० १, उ०१. सु० ३३२ मुक्त हो त्या आसेवित हो तो ऐसे आहार को प्रामुक समझकर यावत्- ग्रहण कर ले। णिमंतणानंतर दोस जुत्त आहाराइ गहण गिसेहो- निमंत्रण करने पर भी दोषयुक्त आहारादि लेने का निषेध६६१. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिटुम्ज वा, णिसीएम था, ६६१. (सावध कार्यों से निवृत्त) भिक्षु श्मशान में, सूने मकान में, तुथट्टग्ज वा, सुसाणसि वा, सुग्णागारंसि वा, रुक्समूलसि वृक्ष के नीचे, पर्वत की गुफा में, कुम्भकारशाला आदि में कहीं वा, गिरिगुहसि वा, फुभारायतणनि वा, हरस्था वा, रह रहा हो, खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुया हो उस समय कोई कहिचि विहरमाणं त भिक्षु उपसंकमित्तु गाहावती बूश --- गृहपति उस भिक्षु के पास आ कर कहे"आउसंतो समणा ! अहं खतु तव अट्टाए असणं वा-जाय- "आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन यावत् -स्वार साइमं वा, वत्यं वा, पडिग्गहं त्रा, कंबल वा. पायपुंछण वा, वस्त्र, पात्र, कम्बल, या पादपोछन प्राणियों-यावत-सरवों का पाणाई-जाब-सत्ताई समारम्भ सम हिस्स, की, पामिन, समारम्भ करके बना रहा हूँ या खरीद कर, उधार लेकर, किसी अच्छेज्ज, अणिसिद्ध, अभिहा, माहट चेतेमि अवसह से छीनकर, दुसरे की वस्तु को उनकी बिना अनुमति से लाकर वर समुस्सिणामि, से भुजह, वसह माउसत्तो समणा ।" या घर से लाकर आपको देता हूँ अथवा आपके लिए उपाश्रय बनवा देता हूँ। हे आयुष्मन् घमण ! आप उस अशनादि का उपभोग करो और उपाश्रय में रहो।" भिक्खू त गाहावति समणसं सवयस पडियाइक्रये.... ___ भिक्षु उस सुमनम् (भद्र हुदय) एवं सुवयस् (भद्र बचन बाले) गृहाति को कहे"आउसतो गाहावती ! णो खलु ते वयणं आढामि, णो लु हे आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे इस वचन को बादर ते अयणं परिजाणामि, जो तुम मम अट्टाए असणं वा जाव- नहीं देता, न ही तुम्हरे वचन को स्वीकार करता हूँ। जो तुम साइमं वा, वस्पं बा-जाव-पायछणं वा पाणाई या-जाव- मेरे लिए अशन-यावत्-स्वादिम, बस्त्र यावत्-पादों छन, सत्ताई का समारंभ-जाव-अभिहर आहट्ट चेतेसि आवसह प्रागियों-यावत्-सत्वों का समारम्भ करके - यावत्-अपने वा समुस्सिणासि, से विरतो आउसो गाहावतो ! एतरस घर से यहां लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय अकरणयाए।" बनवाना चाहते हो । हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं विरत हो चुका हूँ। यह अकरणीय होने से (मैं स्वीकार नहीं कर सकता)।" से भिक्खू परबफ मेज्ज वा-जाव-तुपट्टग्ज वा, सुसाणमि वा भिक्षु कहीं रह रहा हो- यावत् - लेटा हुआ हो, श्मशान -जाव-हुरत्था या कहिधि विहरमाणं, हे भिषणं उपसंकमित्तु में-यावत् --- अन्य कहीं भी रहे हुए उस भि के पास आवर गाहावती आयगयाए पहाए असणं वा-जाब-साइमं वा, वत्थं कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रबाट किए बिना अशन या-जाव-पायपंचणं वा पाणाद वा-जान-सप्लाई वा. समारंभ -राषत्-स्वाद्य, वस्त्र - यावत् .. पादपोंछन. प्राणियों जाव-अभिहाँ आहट्ट तेति आबसह वा समुस्लिपणाति -यावत-सस्वो के समारम्भपूर्वक-यावत्-अपने घर से तं भिक्खू परिघासेतुं। लाकर देता है तथा उस भिक्षु के रहने के लिए उपाश्रय क" निर्माण या जीर्णोद्धार कराता है। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८] घरणानुयोग सावध संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध मूत्र ६६१-६६३ तं च भिक्खू जाणेज्जा सहसम्मुतियाए परवागरणणं अण्णेसि (साधु के लिए किए गप) उस आरम्भ को बह भिक्षु अपनी वा सोच्चा बयं खस्तु गाहोवती मम अटाए असगं वा-जाव- सदबुद्धि से, ज्ञानी या परिजनादि से सुनबार यह जान जाए कि यह साइमं वा, वत्यं वा-जाव-पायपुंछणं वा, पाणाई वा-जाव- गृहपति मेरे लिए अगन थावत्-स्वाद्य, वस्त्र-यावत्सत्ताईवा, समारंभ-जान-अभिहर आहट्ट तेति, आवसहं पादपोंछन, प्राणियों--यावत् - सत्यों का समारम्भ करके देता वा समुस्सिणाति । है-यावत्-सामने लाकर देता है तथा उपाश्रय बनवाता है। तं च मिगल पडिलेहाए भागमेता आगवेन्जा अणासेवगाए। भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना करके, आगम में कथित -आ. सु. १, ७, ८, उ. २, सु. २०४-२०५ आज्ञा को ध्यान में रखकर गृहस्थ से कहे कि "ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं हैं।" सावज्ज-संजुत्त-आहार-गहणस्स णिसेहो सावध संयुक्त आहार ग्रहण करने का निषेध-- ६६२. मं पि य उविद्व-ठविय-रचियाण-पज्जवजातं, पकिम्म-पाउ- ६६२. इसके अतिरिक्त जो आहार साधु के निमित्त बनाया हो, करणं पामिक्चं, मीसकलायं, कोयका- पाच, दाण?- अलग रखा हो, पुन: अग्नि से संस्कारित किया हो, खाद्य पदार्थों पुन्नट-पगडं, समण-वणिमगट्टयाए वा कयं, पन्छाकम्म', को संयुक्त किया हो, साफ किया हो, पीसना आदि किया हो, पुरेकम्म, नितिकम्म, भक्खियं, अतिरित्तं मोहर व सयागा- मार्ग में बिखेरते हुए लाया हो, दीपक जलाया हो, उधार लावा हमाहवं, मट्टिउवलितं, अच्छेनं चेत्र अणिसिटुंजं तं हो, गृहस्थ और साधु के उद्देश्य से बनाया हो, सरीदा गया हो, तिहीसु जन्नेसु उसयेसु य अंतो वा बहि वा होज्ज समणट्टयाए समय परिवर्तन कर बनाया हो, जो दान के लिए या पुण्य के ठवियं, हिंसा-सावजसंपउत्तं न कप्पति संपिय परिघेत्तुं। लिए बनाया गया हो, श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए ...ह. भु. .. यार किया' गवाहो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से दुषित हो, जो नित्यकर्म दुषित हो, (निमंत्रण पूर्बक सदा एक स्थान से लिया गया हो) जो जल से गीले हाव आदि से दिया गया हो, मर्यादा से अधिक हो, पूर्व पश्चात् संस्तव दोष युक्त हो, स्वयं (साधु को ग्रहण करना पड़ता हो, संमुख लाया गया हो, मिट्टी आदि से बन्द किये बर्तन का मुख खोलकर दिया हो, छीन कर दिया गया हो, स्वामी की आज्ञा बिना दिया हो अथवा जो आहार विशिष्ट तिथियों यज्ञों और महोत्सवों के लिए बना हो, घर के भीतर या बाहर साधुओं को देने की भावना से या इन्तजार के लिए रखा हो, जो हिंसा रूप सावध कर्म से युक्त हो, ऐसा भी बाहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। जे मियागं ममायति, कोयमुसियाहा । जो साधु-साध्वी नित्य आदरपूर्वक निमंत्रित कर दिया जाने वहं ते समणुजाणंति, हड वुत्तं महेसिणा ॥ बाला, साधु के निमित्त खरीदा हुआ, साधु के निमित्त बनाया -दस.ब. ६, गा. ४८ हुआ, निर्ग्रन्य के निमित्त दूर से मन्मुख लाया हुअ आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणियों के वध का अनुमोदन करते हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है . आहारासत्ति णिसेहो आहार की आसक्ति करने का निषेध - ९६३. न य भोपणम्मि गिटी, चरे उंछ अपंपिरो। २६३. भिक्षु भोजन में गुद्ध न होता हुआ व ज्यादा न बोलता हुआ अफासुयं न मुंशेजा, कीयमुसियाहट। अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ले तथा क्रौत, औद्द शिक और -उस. अ.८, गा. २३ अभिहृत आदि दोष युक्त अकल्पनीय आहार न खाए। **.." | दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे ॥ --स.अ. ५, उ.१.गा. ५० (ख) दसा. ६. २, सु. २। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६४-६६६ संग्रह करने का निषेध चरित्रापार : एषणा समिति [५६६ सनिस्किरण-णिसेही संग्रह करने का निषेध-. २६४. सन्निहि छ न कुवेज्जा, अणुमायं पि संजए। ६६४. संयमी अणुमात्र भी सन्निधि संग्रह न करे। वह सदैव मुधामुहाजीवी असंबडे, हवेज्ज जगनिस्सिए । जीवी = निस्पृह भाव से जीवन निर्वाह करने वाला रहे आहारादि -दरा. . ८, गा. २४ में बलिप्त रहे तथा सब जीने की रक्षा करने वाला होवे । संखडी बज्जणं आहारगहण-विहाणं संखडी निषेध और शुद्ध आहार का विधान९९५. आइण्ण ओमाण विवज्जणा य, उस्सन्नविट्ठाहड मसाणे। ६६५. "भाकीर्ण और अवमान" नामक भोज का विवर्जन और संसहकप्पेण चरेज्ज सिक्खू, तज्जायसंसह जई एज्जा। समीप के दृष्ट स्थान से लाए हुए मक्त-पान के ग्रहण का विधान -दस. पू. २, गा. ६ है । दाता जो वस्तु दे रहा है उसी से संसृष्ट हाथ और पात्र से यति भिक्षु लेने का यल करे । दोसमुक्क आहार गहण तप्परिणामं च -- दोष रहित आहार का ग्रहण और उसका परिणाम--- ६६६. से भिक्खू जं पुण जाणेज्जा-असणं वा-जान-साइमं अस्सिपनि- ६६६. यदि भिक्षु रह जाने कि अशन-यावत् - स्वादिम अमुक याए एगंसाहम्मियं समुट्ठिस्स, पाणा, भूयाई, जीवार, श्रावक ने किसी एक निष्परिणही साधर्मिक साधु लो दान देने के मत्ताई, समारंभ, समुहिस्स फोतं, पामिच्चं, अच्छे जज, अणि- उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीनों और सत्वों का आरम्भ करके सट्ट, अभिहडं आहट्ट उद्देसियचेतिय, सिया, तं णो सयं आहार बनाया है. अयमा खरीदा है, किसी से उधार लिया है, भुंजइ, गो अन्नेणं मुंजावेति, अन्न पि मुंजतं गं समजाणा, बलात् छीन कर लिया है. उसके स्वामी से पूछे बिना ही से लिया इति से महता आवाणातो उवसते उद्विते पजिविरते से। है, अथवा साधु के सम्मुरू लाया हुआ है तो ऐसा सदोष आहार - मूप. सु. २. अ. १, सु. ६८७ न स्वयं खाये कदाचित भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो दूसरे साधुओं को भी यह आहार न खिलाए और न ऐसा सदोष आहार सेवन करने वाले को अच्छा सम्झे यह महान कमों के उन्धन से दूर रहता है, वह शुद्ध संयम पालन में उद्यत और पाप कर्मों से विरत रहता है। प०- फासुएसणिज्जणे भंते ! भुंजमाणे समणे निग्गथे कि प्र०-हे भदन्त ! प्रासुक एषणीय आहार का सेवन करने बंधह ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? किं उबच्चि- बाला श्रमण निग्रन्थ क्या करता है? क्या बांधता है ? क्या चय णाति? करता है? क्या उपाय करता है? ज०-गोयमा ! फासएसणिज्ज पं भंजमाणे समणे पिग्ग उ०—गौतम ! प्रासुक एवं एषणीय आहार करने वाला आउयवज्जाओ सत्त कम्मपण्डोओ घणियबंधणबज्ञाओ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म की कृतियों सिदिलबंधणबद्धाओ परेड को हुल बंधन बाली से शिथिल बंधन वाली करता है। दोहकाल द्वितीयाओ हस्सकाल द्वितीयाओ पकरेह, दीर्घकाल स्थिति वाली से ह्रस्वकाल की स्थिति वाली करता है, तिवाणभागाओ मंदाणुभागाओ पकरेड, तीवरस वाली से मंद रस वाली करता है. बहुपएसगाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, बहुप्रदेश वाली से अल्पप्रदेश वाली करता है, आउयं च णं फम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधा, आयु कर्म को कदाचित् बांधता है. कदाचित् नहीं बांधता है, असायावेयणिज्जं च ण फम्म नो मुज्जो, मुज्जो अस तावेदनीय कर्म को बार-बार नहीं बांधता है, उपचिणाति, अणाइयं च णं अणवदग्गं दोहमद शरतं संसार- ___ अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार रूप अरष्य कतारं बौतीवयति । को पार करता है। से केणढेणं ते एवं बुच्चह-- प्र.- हे भदन्त ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैफासुएसणिज्ज ण मुंजमाणे समणे निम्ग आजय- प्रासुक-एषणीय आहार का सेवन करने वाला श्रमण निर्ग्रन्य वग्जाओ सप्तकम्म-पयडीओ घणियबंधणबद्धाओ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को दृढ़ बंधन सिढिलबंधणयखाओ पकरे-जाव-चाउरंतसंसारकतारं वाली से शिथिल बंधन वाली करता है-यावत्-संसार रूप वीतीवति? अरण्य को पार करता है। HODA Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६००] वरणानुयोग निर्दोष आहार गवेषक की और वैने वाले की सुगति ६६-१००० उ.-गोयमा | फासुएसणिज्ज मुंजमाणे समणे निम्गं ये ज० --गौतम ! प्रासुक एषणीय आहार को सेवन करने आयाए धम्म नाहकम्मति, आयाए धम्म अणति- बाला श्रमण नियन्ध आत्मधर्म का अतिकमण नहीं करता है, कम्ममाणे पुढविकायं अवकखति-जात्र-तसकार्य अव- आत्मधर्म या अतिक्रमण न करता हुआ बह श्रमण नियन्ध पुरवीकंसति, मे सि पि व जीवाणं सरौराई आधारेति वाय के जीवों की चिन्ता करता है-यावत्-त्रसकाय के जीवों की ते वि जीवे अवखति । चिन्ता करता है, जिन जीवों के शरीर का उपभोग करता है, उनका भी जीवन चाहता है। से तेणोण गोयमा ! एवं वुच्चद बन कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है"कासुएसणिज्ज गं मुंजमाणे समणे निग्गंथे आउय- "प्रामुक एवं एषणीय आहार का सेवन करने वाला श्रमण वज्जाओ सत्तकम्मपयडीओ-धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ निर्ग्रन्थ आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म की प्रकृतियों को -जाव-चाउरत संसारकतारं वीतीवयति ।" बन्धन वाली से शिथिल बन्धन वानी करता है-यावत–त्रि. सु, १, उ. ६, सु. २७ लातुर्गतिक रूप संगार अरण्य को पार करता है।" णिद्दोष आहार गवसमस्स दायगस्स य सुग्गई निर्दोष आहार गवेषक को और देने वाले की सुगति१९७, दुल्लहा उ महादाई, मुहाजीयो विवुल्लहा । ६६७. दुधादान्यो दुर्लभ है और मुधाजीबी भी दुर्लभ है। मुहादाई मुहाजीवी,' दो वि गच्छति सोग्गई ।। मुधाबायी और मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते है। -दस. अ. ५, उ.., मा. १३१ परिभोगषणा आहार करणस्स उद्देस आहार करने का उद्देश्य१९८. विविच्च कम्मुणो हेडं, कालखी परिव्यए । ६१८. कञ्बन्ध के हेतुओं को दूर करके मनयज्ञ होकर विचारे । मायं पिंडस्स पाणस्म कार्ड लडूण भक्खाए। संयमी जीवन के लिए गृहस्थ के घर में सहन निष्पन्न आहार -उत्त. अ. ६, गा, १४ पानी की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी प्राप्त करके सेवन करे। आहार परिभोगणवाए ठाण णिद्देसो आहार करने के स्थान का निर्देश EEC. अस्पपागंऽपबीयंमि, परिच्छन्न म्मि संबडे। EE.. संयमी मुनि भाणी और बीज रहित, ऊपर से ढके हुए समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसारियं ॥ और चारों तरफ भित्नि आदि से घिरे हुए स्थान में अपने सह- उत्त. अ. १, गा. ३५ धर्मी मुनियों के साथ भूमि पर न राता हुआ यतनापूर्वक आहार करे। गोयरग्ग-पविट्ठ-भिक्खुस्स-आहार करण विहि गोचरी में प्रविष्ट भिक्षु के आहार करने की विधि१०००. सिया य गोयरम्गगओ, इच्छेज्जा परिमोत्तुर्य । १०००. गोचरी के लिए गया हुआ मेधावी मुनि कदाचित आहार कोटुगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुर्य ।। करना चहे तो प्रासुक गृह या दिवाल के पास प्रतिलेखन कर अणुमवेत्तु मेहावी, परिच्छन्नम्मि संखुड़े। उसके स्वामी की अनुज्ञा लेकर, छाये हुए एब संवृत स्थान में हत्थगं संपजिसा तत्व भुजेज्ज संजए॥ बैठे और हाथ का प्रमार्जन करके उपयोग पूर्वक आहार करे। १ निस्वार्थ भाव से देने वाला मुहादाई कहा जाता है। निस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी कहा जाता है। २ "हत्यगं संपमज्जित्ता" का प्रसंगसंगत अहै -हाथ का प्रमार्जन करके आहार करे। आहार हाथ से किया जाता है इसलिए हाथ का प्रमार्जन करना उचित होने के साथ-साथ आमनसम्मत भी है । क्योंकि प्रश्नव्याकरण प्रथम संबद्धार गौथी भावना (शेष दिप्पण अगले पृष्ठ पर Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०००. ऊस में सकार भार करने की विधि पारित्राचार : एषणा समिति [६०१ तत्व से मुंजमाणस्स, अट्टियं कंटओ सिया। वहां भोजन करते हुए सुन के आहार में गुठली, कोटा, तण कटु-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥ तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी तं उपितषित्तु न निक्तिवे आसएग न जुए। वस्तु निकले तो उसे उठाकर न के, मुंह से न के, किन्तु हाथ हरण तं गहेऊण. एगंतमवक्कमे ॥ में लभर एकान्त में जाकर अचित्त भूमि को देखकर, यतनापूरक एगंतमधषकमित्ता, अचित्तं पडिले हिया । उसे रख दे और बाद में स्थान में जाकर प्रतिक्रमण करे । जयं परिवेजा, परिदृप्प पडिक्कमे ।। -देस. अ५, उ. १, गा, ११३-११७ सेज्जामागम्म आहार करणस्स विहि ... उपाश्रय में आकर आहार करने की विधि*१. सिया य भिक्खू इच्छेज्जा, सेन्जमागम्म भोत्तुयं । १. कदाचित् भिक्षु उपाधय में आकर भोजन करना चाहे तो सपिंडपायमागम्म, अयं पडिले हिया ॥ भिक्षा सहित वहाँ आकर स्थान की प्रतिलेखता करे। विणएण पबिसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । उसके पश्चात् मुनि विनयपूर्वक गुरु के समीप उपस्थित इरियाबहियमायाय, आमओ य परिषकमे ॥ होकर "ईपिथिकी सूत्र'' को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग। करे । आमोएसाण नीसेस, भयारं जहफ्कम । आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों गमणाममणे चेब, भत्त-पाणे व संजए॥ को यथाक्रम में याद करे । उज्जुप्पो अणुम्विग्गो, अम्विक्वित्तेण चेषसा । सरल, बुद्धिमान और उदे ग रहित मुनि एकाग्रचित्त से आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥ जिस प्रकार शिक्षा ग्रहण की हो वैसे ही गुरु के समीप आलोचना करे। न सम्ममालोइमं होज्जा, पुब्बि पच्छा पजं कर्ड। पूर्व कर्म, पश्चात् कर्म आदि अतिचारों की यदि सम्यक पुणो पडिक्कमे तस्स, बोसट्ठो चितए इमं ॥ प्रकार से आलोचता न हुई हो तो उसका फिर प्रतिक्रमण करे तमा मायोत्सर्ग करके यह चिन्तन करेअहो जिणेहि असावज्जा, वित्ती साहूण वेसिया । 'अहो. जिनेन्द्र भगवंतों ने मोक्ष-साधना के हेतु-भूत शरीर मोक्लसाहेजस्स, साहुरेहस्स धारणा ॥ को धारण करने के लिए माधुओं को निरवध (भिक्षा) बृत्ति का उपदेश दिया है।" नमोक्कारेण पारेत्ता, करेता जिणसंभव । (इस चिन्तनमय कायोत्मगं को) नमस्कार मन्त्र के द्वारा समायं पट्टवेत्ताणं, वीसमेज खणं मुगौ। पूर्ण कर तुविशतिस्तव (लोनस्स) का पाठ बोले, फिर स्वाध्याय करे, उसके बाद, कुछ विश्राम ले । पोसमतो इमं चिते हियभट्ठे लाभमट्टिी। विधाम करता हुआ लाभार्थी मुगि अपने हित के लिए इस "जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साह, होज्जामि तारिओ।" प्रकार चिन्तन करे कि- "यदि कोई साधु मुझ पर अनुग्रह करे तो मैं तिर जाऊँ।" साहवो तो चियत्त, निमंतेज्ज नहक्कम ।। ___वह प्रेम पूर्वक साधुओं को यथाक्रम से निमन्त्रण दे। उन जइ तत्य केह छेज्जा, तेहिं सखि तु भुंजए॥' निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ आहार करे। . - (शेष पिछले पृष्ठ का) में "संपज्जिकण ससीसं काय तहा करतल" ऐसा पार है। इसमें भी करतल का स्पष्ट कथन है । दशकालिक की अगन्त्यसिह कृत चूर्णी में भी 'ससीसोवदिवं हस्तं तं" सूचित करके प्रश्नव्याकरण के पाट का ही अनुसरण किया है। ___ अतः यहाँ "मुखवस्त्रिका से शरीर का प्रमार्जन करके बाहर करना" ऐसे अर्थ को कल्पना करना प्रश्नव्याकरण मूत्र के मूल पाठ से विपरीत है अतः उचित नहीं कहा जा सकता 1 प्रमार्जन के लिये प्रमानिका (गोच्छग) व रजोइरण ये दो उपकरण हैं। मुखबस्त्रिका नहीं है। * यहाँ से सूत्र संख्या १००१ क्रमानुसार समझें । प्रेस की सुविधा के कारण १००० सूत्र के बाद ! क्रमांक दिया है। -सम्पादक १ दस. न. १०, गा. । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२] धरणानुयोग मुनि आहार की मात्रा का ज्ञाता हो सूत्र १-२ अह कोई न इच्छेज्जा, तओ मुंज्जा एक्फओ। आलोए भायणे साहू, जयं अपरिसाडियं ।। तित्तमं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महरं लवणं वा । एय लामन्चट्ठ-पउत्त, महुघयं व मुंजेज्ज संजए॥ यदि कोई भी साधु नाथ में बैठकर आहार न करना चाहे तो अकेला ही यतनापूर्वक नौने नहीं गिराता हुआ चौड़े मूल दाले पात्र में आहार करे। गृहस्थ के लिए बना हुआ तीखा, कडुवा, कसैना, खट्टा, मीठा या बारा जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाये। मुधाजीबी मुनि मुधालब्ध अरन या विरस, व्यंजन सहित या व्यंजन रहित, आई या गुरुक, मन्यु और कुल्माष इत्यादि प्राप्त बाहार की निन्दा न करे, वह आहार अल्प हो या पूर्ण हो दोषों का वर्जन करता हुआ खावे। अरसं बिरसं वा बि, सूइयं वा असइयं । उल्लं वा जइ वा सुक्क, मन्धु कुम्मास मोयणं । उत्पण्णं नाद होलेग्जा, अप्पं या बटु फासुयं । मुहाला मुहाजीवी, भुजेम्जा दोसवज्जियं ।। मुणी मायण्णो हवेज्ज मुनि आहार की मात्रा का ज्ञाता हो२. लखे आहारे अणगारो मायं जाणेजा । से जहेयं भगवतारजाहार प्राप्त होने पर अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान पवेदितं । - आ. सु. १, अ.२, उ. ५. सु. ८६ (ख) होना चाहिए । जिसका कि भगवान् ने निर्देश किया है। सलेव असेस आहार करण निद्देसो-- लेप सहित पूर्ण आहार करने का निर्देश ३. पडिागहं संलिहिताणं, लेब-मायाए मंजए। ३. संचमी मुनि पात्र के लगे लेप मात्र को भी पोंछकर राब दुगंधं वा सुगंध वा, सवं भुजे न छहए ॥ खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह मन से प्रतिकूल हो या -दस, अ.५, उ, २, गा.१ अनुकूल । रसगिद्विणिसेहो-- रसगृद्धि का निषेध४. अलोले न रसे गिजे, जिवमादन्ते अमुछिए । ४. अलोलुप, रस में अगद्ध, जीभ का दमन करने वाला और न रसाए भंजिज्जा, जयणढाए महामुणी।। अभूच्छित महामुनि रस (स्वाद) के लिए न खाये. किन्तु जीवन -उत्त. अ. ३५, गा.१७ निर्वाह के लिए स्वाये । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा असणं वा-जाव-साइमं वा भिक्षु या भिक्षुगी अजन-यावत्- स्वाद्य क' आहार करते म्हारेमाणे-णो धामातो हण्यातो, दाहिणं हणुयं संधारेज्मा रामय स्वाद लेते हुए बाए जबड़े ने दाहिने जबड़े में न ले जाये आसाएमाणे, वाहिणातो वा हणुयातो वाहणुमं जो संचा- और स्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाये जबड़े में न ले जाये । रेज्जा आसाएमाणे। से अणासादमाणे लावियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णा- वह अगास्त्राद वृत्ति से लाघवता को प्राप्त होते हुए तप का गते भवति । सहज लाभ प्राप्त कर लेता है। जहेयं भगव्या पवेदितं तमेव अमिसमैच्चा सध्यतो सच्चयाए भगवान् ने जिम रूप में अस्वाद वृत्ति का प्रतिपादन किया सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा । है, उसे उसी रूप में जानकर सभी प्रकार से सर्वात्मना भली _ -आ. मु. १, ८, उ. ६. सु. २२३ भांति आचरण करे । आगंतुगसमण णिमंतणविही आगंतुक श्रमणों को निमन्त्रित करने की विधि५. से आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेस या अणुधीइ जाएज्जा, ५. साधु पथिकशालाओं -यावत् -परिव्राजकों के आवासों में जे तत्थ ईसरे, जे तत्य समहिवाए ते जगहं अणुण्य- उस स्थान के स्वामी की या संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करे । बेम्जा"काम खलु आउसो ! अहाल अहापरिषणायं बसामो-जाव- "हे. आयुष्मन् ! आप जितने स्थान में जितने समय तक आउसोजाब-आउसंतस्स उग्गहे-जाब-साहम्मिया एतार ताव ठहरने की काज्ञा देंगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उतने जग्गहं ओगिहिसामो, तेण परं विहरिस्सामो। ही स्थान में उतने ही समय तक ठहरेंगे बाद में विहार कर देंगे।" Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमय मोक्ता मिक्ष चारित्राचार : एषणा समिति [६०३ से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? अवग्रह से अनुजापूर्वक ग्रहण कर लेने पर फिर वह साधु क्या करे? जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उरागच्छज्जा । जे वहाँ (निवामित साधु के पास कोई सार्मिक, साम्भोगिक तेण सयमेसिए असणे वा-जाथ-साइमे वा तेण ते साम्मिया एवं समनोज्ञ साधु अतिथि के रूप में आ जाये तो वह साधु स्वयं संभोइया समणुष्णा उणिमंतेया। आने द्वारा गवेषणा करके लाये हुए अशन-यावत् -स्वाद्य आहार को उन सार्मिक साम्भोगिक एवं समनोज साधुओं को सपनिमन्त्रित करे। यो चेव गं परिपडिपाए ओमिजिमय-ओगिक्षिय उपणि- किन्तु अन्य माधु द्वारा या अन्य रुग्णादि साधु के लिए मंतेजा। -अ.सु. २, अ.७, उ. १. गु. ६०८-६०६ लाये हुए आहारादि को लेकर उन्हें निमवित न करे। विगईभोई भिक्खू विगयभोक्ता भिक्षु१. दुखदहीविगईओ, आहारेइ अमिक्खणं । ६. जो दुध, दही आदि विकृतियों (विगयों) बा बार-बार अरए य तबोकम्मे, पावसमणे ति बुच्चई ।। आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता है, वह पाप -उस. म.१७, गर.१५ श्रमण कहलाता है। आयरिय-अदत्त-विगइं-भंजमाणस्स पायच्छित सुत्तं - बाचार्य के दिये विना विकृति भक्षण का प्रायश्चित्त ७. भिक्खू आरिप-उवनसाह अविदिषणं विगई आहारेइ, ७. जो भिनु आचार्य, उपाध्याय के दिये विना विगई का आहार आहारस वा साइज्जद। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजा मासियं परिहारट्ठागं उग्धाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४. सु. २१ पाता है। पुणो भिक्खट्टा गमण विहाणो पुनः भिक्षार्थ जाने का विधानसेज्जा निसीहियाए समावन्नो य गोयरे। ८. मुनि उपाथय में या अन्य बैठने के स्थान में बैठकर गोचरी अयावया मोच्चा गं. जद तेणं न संथरे ॥ से प्राप्त आहार खाने पर भी उदरपूर्ति न होने पर अथवा अन्य सओ कारणमुप्पन्ने, भत्तपागं गयेसए । कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से या आगे कही जाने वाली विहिणा पुश्व-उत्तण, इमेणं उत्तरेण य॥ विधि से पुनः आहार पानी की गवेषणा करे । -दस. अ५. उ. २, गा. २-३ पुलागभत्ते पडिगाहिए भिक्खा-गमण विहि-णिसेहो- पुलाक भक्त ग्रहण हो जाने पर मोचरी जाने का विधि निषेध--- १. निग्गं थीए य गाहावहकुल पिणवामपडियाए अणुपविठ्ठाए . नियन्थी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और अन्नपरे पुलागभत्त' पडिग्गाडिए सिया, बहाँ यदि पुलागा भक्त (अत्यन्त मरस आहार) ग्रहण हो जाये । सा य संयरेज्जा, कप्पद मे तदिवस तेणेव भसढे पज्जो- यदि उस गृहीत आहार से निर्वाह हो जाये तो उस दिन समेत्तए, नो से कप्पा दोच्चं पि गाहावइकुलं पिण्डवाय- उसी आहार से रहे (निर्वाह करे) किन्तु दूसरी बार आहर के परियाए पविसित्ताए, लिए गृहस्थ के घर में न जावे । पुलाक भत्तं :विविहं होइ पुलागं, धणे गंधे य रसगुलाए य । .... .. .. .. ..... ... ... ... ... ... ..... || ६०४८ ॥ निष्फावाई धन्ना, गंधे माइग पलंडु लसुणाई। वीरं तु रस पुलाओ, चिचिणि दक्वारमाईया ॥ ६०४६ ।। आदि शब्दात् अपरमपि यद् भुक्त अतिसारयति तत् सर्वमपि ररा पुलाकम् । उपरोक्त सूत्र में रस पुलाक की उपेक्षा से अर्थ समझना चाहिए। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] चरणानुयोग साधारण आहार को आज्ञा लेकर बांटने की विधि से तमायाए तत्य गच्छेअजा गच्छित्ता पुरुषामेत्र एवं वरेना -- सायनो संरेज्जा एवं से कह दो पि गाहाबडकुलं पिण्डाधिपतिए कृप. उ. ५ गु. ५२ साहारण आहारस्स असृनविय परिभाषण विहि१०. से सहारण या पिडा साधारण आहार को आज्ञा लेकर वाँटने की विधि१०. कोई एक भिक्षु साधमिकाओं के लिए सम्मितिहा अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छ तस्स तस्स खयं वपाति लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछें ही जिस मातिठाणं संफासे । जो एवं करेक्शः । जिसको देना अच्छा अच्छा (अनुकूल) आहार देता है, तो वह माया स्थान का सशं करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। 1 प० "आउसंतो समणा ! संति भम पुरेसंधुया वा पच्छासंया या सं जहा आयरिए वा उगाए चा पाणी वा गरे वा णाम अधिया एरोसिस हामि ?" से वदतं परो वदेज्जा क्षा, उ०- कामं खलु आउसो ! अहापज्जत निसिराहि जावहयं जावइयं परो यज्जा तावइयं तावदयं णिमिरेज्ज्ञा । सव्वमेतं पदो वा सथ्यमेनं विसि रेज्जा । -आ. सु. २, अ. १, उ. १० सु. ३६६ समण माहणाईणं जगाए गहिय आहारस्स परिभाषण भुजण विहि I ११. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा ग्राहावइकुलं विश्ववायडियाए अपसमा से पुणे जाणेज्जा-समणं वा माहणं जा, गामपिडोलगं था, गतिहि वा पुथ्यपषिट्ठ पेहाए णो लेसि संलोए सवारे चिट्ठेज्जा । केवली वूया आयाणमेयं । पुरा हाए तथा परो असणं यासा बलज्जा । अह भिक्खूर्ण पुostafट्ठा एस पतिष्णा जाव एस उवएसे जं णो तेसि संलोए सपडदुवारे चिट्टिज्जा । से लगाए एसपा एवं तमवक्त मिला मागा चि N से बरी अणावातलो चिटुमागास असणं वावा-सा वा आहद्दु लज्जा, से सेवं बबेज्जा- सूत्र ९-११ wwwwww यदि उस गृहीत आहार से निर्वाह न हो सके तो दूसरी बार आहार के लिए जाना कल्पता है। उस साधारण आहार को लेकर स्थान पर जावे, वहाँ साधकों को पहले ही पूछे कि- प्र० आयुष्माम् श्रमणो वहाँ मेरे पूर्व परिचित (जिनसे दीक्षा अंगीकार की है) तथा पश्चात् नरिचित (जिनसे श्रुताभ्यास किया है जैसे कि उप प्रवर्तक स्थविर, गण छेद है। क्या मैं इन्हें पर्याप्त (अनु) आहार दूं ?" उसके इस प्रकार कहने पर यदि वे कहें उ०- "आयुष्मान् श्रमण ! तुम अपनी इच्छानुसार इन्हें अनुकूल आहार दे दो।" ऐसी स्थिति में जितना जितन। वे कहें, उतना उतना आहार उन्हें दे दे। यदि वे कहें कि (अमुक) सारा अनुकूल आहार दे दो तो सारा का सारा दे दे । धगण ब्राह्मण आदि के लिये गृहीत आहार के मांटने खाने की विधि १२. भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय यदि यह जाने की श्रमण ब्राह्मण, ग्राम विण्डोलक ( ग्राम्य भिक्षोपजीवी) और अनियत तिथि से भिक्षा ग्रहण करने पहले से ही प्रवेश किये हुए हैं तो उन्हें देखकर उनसे टि पथ में या उनके मार्ग में खड़ा न होते । केवली भगवान् से कहा है- यह कर्मबन्ध का कारण है। मामने खड़ा देखकर गृहस्य उस साधु के लिए अपन - यावत्-स्वाद्य वहाँ लाकर देगा | शुओं के लिए पहले से यह प्रतिय उपदेश है कि भिक्षु उनके दृष्टि पथ में या मार्ग में खड़ा न होवे । किन्तु एकान्त स्थान में चला जाये, वहां जाकर कोई आताजाला न हो और देखता न हो, इस प्रकार से खड़ा रहे । भिक्षु को अनापात और असंलोक स्थान में खड़ा देखकर गृहस्य भजन- यावत् स्वाश्च लाकर दे, साथ ही वह यों कशे Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१२ स्थविरों के लिए संयुक्त गृहीत भाहार के परिभोग और पररने की विधि चारित्राचार : एषगा ममिति [६०५ जिस तो समणा । इमे में असणं का-जाब-साइम या सम्ब- "आयुष्मान् श्रमण! यह अयन -- यावत् स्वाच आहार जणाए णिसट्टे, तं भुजह व ण, परिभाएह व नं।" मैं आप सब जगों के लिए दे रहा हूँ। आप इस प्रहार का उपभोग करें या परस्पर बांट लें।" तं गति पडिगाहेत्ता, सुसिणीओ उबेहेज्जा-सवियाई "एवं इरा पर यदि कोई साधु उस आहार को चुपचाप लेकर वह ममामेव सिया" माइट्ठाणं सफासे ३ गो एवं करेज्जा। विचार करे कि "यह आहार भुसे दिया है. इसलिए मेरा ही हैं" ऐसा सोचना मायास्थान का सेवन करना है। भिक्ष को ऐसा नहीं करना चाहिए। से तमायाए तस्थ गच्छेज्जा, गपिछत्ता से पुण्यामेव आलो- साधु उस आहार को लेकर श्रमण आदि के पास जाये और एक्जा -- __ वहाँ जाकर पहले से ही उन्हे कई 'उसंतो समणा! हमे थे असणे था-जाब-साइम वा "हे आयुष्मान् शमगो! यह आनन - याचत्... वाद्य गृहस्थ सव्वजगाए णिसङ्के, सं भुजह व णं परिभाएह वणं ।" ने हम रावके लिए दिया है, अत: इसका उपभोग करें या विभा जन कर ?" से णं मेकं वदंतं परो बडेजा- उसंतो समणा ! तुमं माधु के ऐमा कहने पर त्रे अन्य भितु उसे कहें किचैव पं परिमाएहि ।" "आयुष्मान् श्रमण ! आर ही बांट दें"। से तत्थ परिमाएमाणे णो अपणो खवं खलु डायं डायं उसढं तो उस आहार बा विभाजन करता हुआ यह माधु अपने उसलं. रसियं-रसियं. मगुण्ण-मणुष्ण, गिलं-णिवं, लुक्वं- लिए अनुकूल, अच्छा, बहुमुल्य, स्वादिष्ट. मनोज्ञ, स्निग्ध व सक्ष लुक्वं । से तत्य अमुच्छिए, अगि, अगबिए, अणजमोक्वणे आहार अलग न रखे किन्नु सम आहार में अगृच्छिन, अगढ, बलुसममेव परिमाएज्जा। निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए समान विभाग करे।। से णं परिभाएमाणं परोववेज्जा-'आउसंतो समणा [ मा यदि विभाग करते समय यमणादि कहें-“हे आयुष्मन् णं तुमं परिभाएहि सम्वे वेगतिया भोक्खामो वा पाहामो घमण ! आप विभाजन न करें। आप और हम एकत्रित होकर यह आहार खा पी लें। से तत्य मुंजमाणे णो अपणो खरं खा-जाव-अमच्छिए तब वह साधु उनके साथ आहार करता हुआ मरस-मल -जाव-अणमोक्षपणे बहुसममेव मुंजेज्ज वा पाएज्ज वा। स्वयं न खात्र -यावत् - अमूच्छित -यावत्-~-अनासक्त भाव रो -आ सु. २, अ. १, 3. ५, सु. ३५.७ (क) ममान ही खावे या पीये। थविर संजुत्त गहिय पिंड उपभोग-परिठावण विही य ... स्थविरों के लिए संयुक्त गृहीत आहार के परिभोग और परठने की विधि :१२. निगथं च गं गाहाषाकुल पिटवायपडियाए अणुपवित् १२. गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने के लिए) पसिष्ट केह वोहि पिहि उनिमंतेजा निर्ग्रन्थ को कोई दो पिण्ड (खाद्य पदार्थ) ग्रहण करने के लिए उपानिमन्त्रण करे"एगं आजसो ! अल्पणा मुंजाहि, एगं घेराणं वलयाहि से आयुष्मन श्रगण. एका पिण्ट आप स्वयं लाना और दूसरा यत पिड पडिगाहेज्जा, पेरा य से अणगवेसियनवा सिया, पिण्ड स्थविर मुनियों को देना।" गिग्रन्थ उन दोनों पिन्डों को जत्येव अणगवेसमाणे धेरे पासिज्जा तत्कष्णप्पदाय सिया ग्रहण कर ले और स्थपिरों की गवेषणा करे, गवेषणा करने पर नो चैव पं अगवेसमाणे धेरे पासिज्जा तनो अप्पणा उन स्थावर मुनियों को नहीं देने, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे। मुंजेज्जा, नो अन्न सिं दाबए, एगते अण्णाषाए अचित्त बहु. यदि गवेषणा करने पर भी स्थविर मुनि कहीं न दिखाई दे तो फामुए थंडिले पडिलेहेता, पमन्जिता परिवायचे सिया। वह पिण्ड न खाये और न ही किसी दूसरे थमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात (जहाँ आवागमन न हो) अचित्त और प्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिम्लखन एवं प्रमार्जन करके परठ दे। निग्यथं च णं गाहावइफुलं पिडवायमाजियाए अणुपविछ कह गृहस्थ के वर में आहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट तिहि पिडेहि उवनिमंतेजा निर्गन्ध को काई तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमन्त्रण करें Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६] चरणानुयोग बढ़े हुए आहार सम्बन्धी विधि सूत्र १२-१५ .var.wwwww "गाथा : मुसह, दो वेरापं वलयाहि", से "आयुप्मन् श्रमण ! एक पिण्ड अप स्वयं स्थाना और वो य से पडिग्गाहेन्जा, थेरा व से अपुगवेसेयवा सेस तं चैव पिण्ड श्रमणों को देना।" निग्रन्थ उम तीनों पिण्डों को ग्रहण -जाब-परिट्ठादेयम्बे लिया । कर ले और स्थविरों की गवेपणा करे। शेष वर्णन पूर्ववत् कड़ना चाहिए,-यावत्-परट दे । एवं-जाव-वसहि पिहि उवनिमज्जा , गं आउसो ! इसी प्रकार यावत्-दस गिग्डों को ग्रहण करने के लिए अप्पमा भुंजाहि. नव बेरागं वलयाहिं सेस त चक्र-छाब- कोई गृहस्थ उगनिमन्त्रग दे–“आयुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक परिट्ठावेयध्वे सिया। -विस., उ६, सु. ४ पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ट स्थपिरों को देना" इत्यादि शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए-यावत् -- परत दे। बहुपरियावष्ण-आहारस्स बिही बढ़े हुए आहार सम्बन्धी विधि१३. से भिक्खू था, भिक्खूणी वा बहुपरियाषणं भोयमजायं १३. भिक्षु या भिक्षुणी पाने के बाद बचे हुए अधिनः आहार को पडिगाहेत्ता साहम्मिया तस्थ वसंति संभोइया समणण्णा लेकर माधभिक, सांभोगिक, रामनोज्ञ तथा अपारिहारिक साधु अपरिहारिया अदूरगया । तेसि अणालोइया अणामतिया साध्वी जो कि निकटवर्ती रहते हों, उन्हें दिखाए बिना एवं परिवेति । माइट्ठाणं संफासे । णो एक करेज्जा । तिमन्त्रित किये बिना जो उस आहार को पर० दे, वे मायास्थान का स्पर्श करते है उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। से तमावाए तत्थ गन्छज्जा गपिछता से पुम्बामेव आलो- साधु वर्च हुए आहार को लेकर उन साधुओं के पास जाये । एज्जा वहां जाकर इस प्रकार कहे - "आउसंतो समणा । इमे मे असणे वा-जा-साहमे वा बहु- "भामुष्मन् श्रमणो | यह अशन यावत्-स्वाद्य आहार परियावणं तं मुंजह क ण, परिभाएह व गं, से नेवं बवंतं हमारे बढ़ गया है अतः इसका उपभोग करें और अन्लान्य परोववेज्जा भिक्षुओं को वितरित कर दें। इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु वों कहे कि"आउसंतो समया! आहारमेतं असणं वा-जब-साइमं वा “आयुष्मन् श्रमण ! यह अशन-यावत् । स्वाद लाओ हमें जापतियं जावतिय परिसद तावतियं तावति भोक्तामो दो इसमें से जितना खा पी सकेंगे उतना सा पी लेंगे अगर सारा वा पाहामो पा । सम्वमेयं परिसरति सम्वमेयं मोक्खामो वा का सारा उपभोग कर सकेंगे तो सारा ना पी सेंगे।" पाहामो बा। - आ. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३६६ संभोइयाण अणिमंतिय परिवंतस्स पायश्चित्त सुतं- साम्भोगिकों को निमन्त्रित किये बिना परटने का प्राय श्चित्त सूत्र१४. जे भिक्खू मणुष्णं भोयणजाय पडिग्याहिता बहुपरियावन' १४. जो भिक्षु मनोज्ञ आहार ग्रहण करके खाने के बाद बचे हुए सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया, संभोदया, समणुश्मा, अपरि- को वहाँ समीप में सामिक, सभोगिक, समनोज्ञ, अपारिहारिक हारिया संता परिवसंति ते अणापुच्छिय अनिमंतिय परिट्ठ- भिक्षुक हों, उन्हें पूछे बिना, निमन्त्रण दिये बिना परटता है, बेई, परिठ्ठवतं वा साइन्जद । परठवाता है था परने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारहाणं उग्ध इयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.२, सु. ४५ आता है। गहियाहारे मायाकरण-णिसे हो गृहीत आहार में माया करने का निषेध .. १५. से एगइओ मणुषणं भोयणजातं पडिगाहेता पंतेण मोयणेण १५. कोई एक भिक्षु मरस स्त्रादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे पलिन्छाएति 'मामेतं चाइयं संत वर्ण सयमादिए, तं नीरस तुच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, इस भावना से (जहा) आयरिए वा-राव-गणावच्छेइए वा । णो खलु मे कि "आचार्य-यावत् - गणावच्छेदक मेरे इस आहार को कस्सह किचि वि वातवं सिया।" माइहाणं संफासे । णो दिखाने पर स्वयं ही लेंगे। किन्तु मुझे इसमें से किसी को कुछ एवं करेजा। भी नहीं देना है।" ऐसा करने वाला साधु-मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I सूत्र १६-१८ से समाधाए सत्य गच्छेजा गछतामेव नए हत्येपडिमा कट्टु 'इमं खलु इमं खलु सि आलोएज्जा । मोनि .. आ. सु. २, अ. १, उ.१०, सु. ४८० आहार उभोगे मावाकरण विलेो १६. सिया एगइओ ल विधिह पाण भोयणं । भोच्या विरसमाहरे ॥ आहार का उपभोग करने में माया करने का निषेध जाणंतु ता इमे समणा, आयपट्ठी अयं सुणो । संतुट्ठो सेवई पंतं लहवितो मुतोसओ ॥ गोरस आहार-परिणयाच्छ १७. मुंज, २ भोषणा परिवाहिता परिवेश, पति या साइन् । पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहु पवई पावं, मायासत्वं च कुors ॥ - दस. अ. ५ उगा. ३३-३५ सेवा वा गावकुतं पिण्डवापडिया ए अणुविणतरं भोपाल भोच्चा, मिमि परिवेति । मातिठाणं संफासे गो एवं करेज्जा सुमि वा बुभि वा, सख्यं भुजे न छहुए आ. सु. २, ब. १, १, सु. २९४ तं सेवमाणे आवजह मालियं परिहाराणं उग्धा इयं । नि. उ. २, सु. ४४ हिय लोणस्स परिभोगण-परिवण-विही १८. से भिक्खुवा, भिक्खुणी वा गाहाबहकुल पिंडवस्यपडियाए अणुविसमा सिया से परो अनि तो पडिग बिलंवा लोणं उत्भियं वा लोणं परिभासा नीदुदु दा । तपगारं पहिं परह्त्यंसि वा परासिया जामाजा से यह पहिए लिया बनाए से तमायाय तत्य गन्छिन्जा, गच्छिता पुथ्वामेव आलोइम्जा । दस. अ. ६. गा. १७ । चारित्राचार एषणा समिति [२०७ वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य के पास जाये और वहाँ जाकर पहले से ही पात्र को करतल में लेकर " यह अमुक वस्तु है, यह अमुक वस्तु है" इस प्रकार एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे । किन्तु कोई भी पदार्थ न छिपाये । आहार का उपभोग करने में माया करने का निषेध १६. कदाचित् कोई एक मुत्ति विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ सा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है (इस विचार से कि) "पे श्रमण मुझे यों जाने कि यह मुनि बड़ा आत्मार्थी है, लाभालाभ में समभाव रखने वाला है. सारहीन आहार का सेवन करता है, रूक्ष आहार करने वाला है, और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है।" वह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान सम्मान की कामना करने वाला मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया शल्य का आचरण करता है । जो भिक्षु या भिक्षुणी भोजन को ग्रहण करके मन के अनु सेता है और मन के प्रतिकूल परठ देता है, बहू माया स्थान का स्पर्श करता है । उसे ऐसा नहीं करना चाहिये | मन के अनुकूल या प्रतिकूल जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपयोग करे, उसमें से किचित् भी नहीं पर नीरस आहार परठने का प्रायश्चित्त सूत्र१०. जी के घर से विविधा आहार मार उनमें से मन के अनुकूल आहार को खाता है और मन के प्रतिकूल आहार को पता है, परठवाता है, या परठने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्राय) आता है । गृहीत लवण के परिभोग और परिष्ठापन की विधि१०. भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करे यहाँ कदाचित गृहस्व पात्र में बनाया हुआ नमक या अन्य अचित्त नमक लाकर दे उस नमक के बर्तन की गृहस्थ के हाथ में या पात्र में देखकर आसुक जानकर - यावत् ग्रहण न करे । १ से एसइओ अण्णयर भोयणजायं पडिस्गाता भयं भयं भोच्या दिवन विरसमाहरइ, माइद्वाणं संफासे, गो एवं करिज्जा | - आ. सु. २, अ. १, उ. १०, सु. ४०१ कदाचित् उक्त प्रकार का नमक बिना जाने ले लिया हो और अधिक दूर जाने के पहले ही मालूम पड़ जाये तो स लव को लेकर गृहस्थ के वहाँ जाकर पूछे Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] चरणानुयोग प्राणियों से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की विधि आउसोत्ति वा ! भणित्ति वा । हम कि हे जाणया दिन, उया अजायणा ? " से य भणिज्जा" नो खलु मे जाणयर विश, बजायणा दिन । काम खलु आउसो ! हयाणि निसिरामि त भुंजह वा गं. परवा तं परेहि समयायं समसत जयामेवभूमिवर प जं च नो संचा एक भीत्तए वा पायए वा साहम्मिया तत्थ वसंत, संभोइया समणुष्णा, अपरिहारिया अदूरगया सि अणुःपदायश्वं सिया कीर सहेब - आ. सु. २, ब. १, उ. १०, मु. ४०५ मो जत्य साहमिया हेमपरिजा काण्वं सिवा । पाणाइ संसत आहाररस परिभोषण-परिदृवण विही १९. निम्गंथरस य गाहाबडकुलं दिडवायपडियाए अणुप्पविटुस्स अंतोडिग्स पाणाणि था, बोयाणि वा रए वा परिया जेज्जा तं च संचाए विगिचित्तए वा विसोहित्तए वर तं त्वामेव विगिलिय विसोहि त संजय वा, पोएन्ज वा । 7 नो संचाए विगवित्तए था. विसोहित या नो अपनो दुसया । काप्प उ ५ सु ११ उदगाइ- संसत्त-भोयणस्स परिभोयण-परिदूषण-विहि - सूत्र १८-२१ "हे आयुष्मन् ! या हे भगिनी ! क्या यह लवण जानते हुए दिया है या अनजाने में दिया है ?" २०. नवरा अविरत तो परिमहंस दए था. दगरए वा दगफुसिए बा. परिया उपभोगनाए परिभोदया। सजाए भोजे मो परिदावए एगते फासुए थंडिले पचिलेहिता पद्मञ्जिता, वेयवे सिया । - कम्प. उ. ५. सु. १२ अलि असज्जि आहारस्म परिक्षण बिही२१. पिडिए अरे अचित्ते असगिज्जे पाणपोषणे पडिगाहिए सियाअस्थिय इत्थ के रोहतराए अणुवट्टावियए, कप्प से तरस दार्ज या, अणुष्पदाउ वा । नरिथ य इत्य के मेहतराए अणुवट्टावियए तं नो अपना मुंजेज्जा, नो अन्नेति बावए एगन्ते बहुफासुए पएसे पडिहिता मज्जित्ता परिवेयध्वे सिया । कप्प उ. ४, सु. १८ वह गृहस्थ कहे कि "मैंने जानते हुए नहीं दिया है किन्तु अनजाने में दिया गया है।" "हे आयुष्मन् श्रमण ! अब मैं यह आपको देता हूँ आप व स्वेच्छानुसार लायें या आप में बट में" इस प्रकार गृहस्थ से आशा प्राप्त होने पर वतनापूर्वक खाए पीए । यदि वह सम्पूर्ण लवण खाया पीया न जा सके तो वहाँ समीप में ही जो साथमिक साभोगिक (सननोज) अपारिहारिक श्रमण हो तो उन्हें दे देवे । जहाँ साधर्मिक साधु रामीप न हो तो, आहार बढ़ने पर जिरा प्रकार आगम में परठने की विधि कही गई है उसी के अनुसार परठ दे । प्राणियों से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की विधि.. १६. गृहस्थ के घर में आहार के लिए अविष्ट हुए साधु के पात्र में कोई प्राणी, बीज या सचित्त रज पड़ जाय, यदि उसे पृथक किया जा सके तो और विशोधन किया जा सके तो उसे पहले ही करके विशेधन करके नापूर्वक खाने वा पोले । यदि उसे पृथक करना और आहार का विशोधन करना सम्भव न हो तो उसका न स्वयं उपभोग करे और न दूसरों को दे. किन्तु एकान्त और अत्यन्त प्रानुक स्थंडिल भूमि में प्रतिलेखन प्रभाजन करके पर दे । उदकादि से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की fafu २०. हरण के घर में आहार पानी के लिये प्रविष्ट सा के पात्र में यदि सचित्त जल, जलबिन्दु जलकण गिर पड़े और आहार उष्ण हो तो उसे खा लेना चाहिए । वह आहार यदि शीतल हो तो न खुद खान, दूसरों को दे किन्तु एकान्त और अत्यन्त प्रासूक स्थंडिल भूमि में परद देना चाहिए | अचित्त धनेषणीय आहार के परटने की विधि-२१पर के आहार के लिए प्रष्ट के द्वारा अचित्त और अनेषणीय आहार ग्रहण हो जाय तो यदि वहां जिसकी बड़ी दीक्षा नहीं हुई ऐसा नवदीक्षित साधु हो तो उसे वह बहार देना कल्पता है । यदि अनुपस्वापित शिष्य न हो तो न स्वयं खाना चाहिए और न अन्य को देना चाहिए किन्तु एकान्त और अचित्त स्थंडिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर परठ देना चाहिए। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २२-२५ बाचार्य के लिए विना आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [६०६ आयरिय अदत्त आहार परिभुजणस्स पाधाञ्छत सुतं- ॐवार के दिए बिना अाहर करने का प्रायश्चित्त सूत्र२२. जे भिक्खू आयरिएहि अदिपर्ण आहारेह, आहारतं वा २२. जो भिक्षु आचार्य के द्वारा दिये बिना आहार करता है, साइक्जा । करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारटाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त --नि. र. ४, सु. २० आता है। पत्ताणं आहार-करमाणस्स पायच्छित्त सुत्तं - पत्रों का आहार करने का प्रायश्चित्त सुत्र२३. भिषम् पिउमंद-पलासयं वा, पडोल-पलासयं बा, जिल्ल- २३. जो भिक्ष नीम्व-नत्र, पटन-पत्र, बील्व-पत्र को अचित्त शीर पलासिय बा, सीओदग-वियडेण था, उसिणोदग-चिपळेण वा जल से या अचित्त उष्ण जल से धो-धोकर आहार करता है. संफाणिय-सफाणिय आहारेड, महारत वा साइजइ। करवाता है, करने वाले का अनुगोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहारट्राणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ५, सु. १४ आता है। गिहिमत्ते भुजमाणस्म पायच्छित सुत्तं -- गृहस्थ के पात्र में आहार भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र - २४. जे भिक्षु गिहिमते भुंजाइ, मजतं वा साइजद्द । २४. जो भिजु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है, करवाता है. करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाइ चाउम्मासियं परिहारटुाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उदधातक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त -नि.उ. १२, सु. १० आता है। पुढवी आइए असणाइ गिक्खवणस्स पायच्छित सुत्ताई- पृथ्वी आदि पर अशनादि रखने के प्रायश्चित्त सूत्र . २५. जे भिक्खू असणं वा-जाव-साइम वा पुढचीए णिक्षियइ, २५. जो भिक्षु अगन--यावत्--स्त्राद्य पदार्थ भूमि पर रखता णिक्खिवंतं वा साइजह । है, 'रखवाता है, या रखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू असणं चा-जाव-साइमं वा संथारए णिक्खिबइ, जो भिक्षु अशान-यावत् - स्वाद्य पदार्थ संथारे पर रखता गिमिखवतं वा साइजइ। है, रखवाता है, सा रखने वाले का अनुमोदन करता है । जे मिक्लू असणं वा-जाव-साइमं वा हासे मिक्खिवर, जो भिक्षु अशन-यावत्-स्वाध पदार्थ छींके आदि ऊँची मिक्खिवतं वा साइज्ज। जगह पर रखता है. रखवाता है, या रखने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. १६, सु. ३४-३६ परिभोगषणा के दोष-१० पाँच दोष परिभोगैषणा के संजोयणा पमाणे इंगाले धूम कारणा पढमा नसहि बहिरंतरे वा रसहेउ दन्न संजोगा ।। पिर. नि. गा.६४ १. संयोजना-स्वाद बढ़ाने के लिए दो प्रकार के पदार्थों का संयोग मिलाना । २. अप्रमाण–प्रमाण से अधिक आहारादि लाना या खाना । ३. इंगाल-सरस आहार की सराहना करते हुए खना। ४. धूम निरस आहार की गिन्दा करते हुए जाना। ५. कारण--ठाणांम अ. ६, सु. ५०० में तथा उत्तराध्ययन अ. २६, गा. ३१-३४ में आहार करने के कारण और न करने के ६ कारण प्ररूपित हैं । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१०] घरणानुयोग इंगातादि दोष का स्वरूप सुन्न २६-२७ इंगालाइ दोसाणं सरूवं इंगालादि दोष का स्वरूप२६. ५०... अह मंते ! सइंगालस्स सधूमस्स.' संजोयणा बोसदृटुस्स* २६. प्र. । हे भगवन् ! अंगारदीप सहित, धूम दोष सहित और पाणभोयणस्त के अट्टे पणते ? रायोजना दोष से दूषित पान-मोजन का क्या अभिप्राय है? उ.-गोयमा ! जे गं निगंथे था, निगंथी वा फासुएस- 1 --हे गौतम ! निग्रंथ या निर्ग्रन्यी प्रासुवा एवं एषणीय णिज्ज असणं-जाब-साइमं पष्टिग्गाहिता मुछिए गिद्धे अशन यायः स्वादिम आहार को ग्रहण कर मूच्छित, गुद्ध, गढिय अशोषबन्ने आहार आहारेड एन गं गोपमा ! प्रश्रित एवं आसक्त होकर यदि आहार करे तो हे गौतम ! यह सइंगाले पाणभोयणे । अंगार दोष सहित पान-भोजन कहा जाता है। जे गं निग्गंथे वा, नियंश्री वा फासु-एमणिज्ज असषं निर्ग्रन्य या निर्ग्रन्थी प्रासुक एवं एषणेय अशन-पावत् -- घा-जान-साइमं वा पडिग्गाहेत्ता मयाअप्पत्तियं कोह- स्वादिम आहार को ग्रहण कर अत्यन्त सत्रीतिपूर्वक व क्रोध से किलामं करेमाणे आहार आहारेइ । एन गं गोषमा1 खिन्न होकर यदि आहार करे तो हे गौतम ! यह धूम दोष सहित सधूमे पापमोयणे। पान-मोजन कहा जाता है। जे पं निग्गं वा, निग्गंधी वा कानु-एमणिज्जं असगं लिपॅन्ध या निग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय अश्न-यावत्-जाव-साइमं पडिग्गाहेत्ता गुणप्पायणं हेउं-अन्न-दग्वेग स्वादिम आहार को ग्रहण कर स्वाद उताभ करने के लिए दूसरे सद्धि संजोएना आहार आहारेइ एस गं गोयमा ! पदार्थ के साथ संयोग करके यदि आहार करे तो हे गौतम ! यह संजोयणादोसदुठे पाण-भोयणे । योजना दोष से दूषित पान भोजन कहा जाता है। एस पं गोयमा । सइंगालस्स सधूमस्त संजोयणा हे गौतम ! इस प्रकार अंगार दोष, धूमदोष, संयोजना दोष दोसदुदुल्स पाणभोयणस्स अट्टे पम्पत्ते । से दूषित पान भोजन का यह अभिप्राय है। वि. स. ७, उ.१, शु. १७ इंगालाइ दोस रहियं आहारस्स सरूवं इंगालादि दोष रहित आहार का स्वरूप-- २७. प.-अहमंते ! वीतिगालस्स वीयधूमल्स संजोयणा-दोस- २७. १०-हे भगवन् ! अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित और विप्पमुक्कस्स पाणभोयणस्म के अट्ठे पण्णते? संयोजनादोष रहित भोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! जे गं निगंथे वा निराधी वा-जाव- उ.-हे गौतम ! निर्ग्रन्थ या निर्गन्धी यावत -आहार पहिगाहेता, अमुच्छिए-जाव-आहारोह । ग्रहप करके मूळ रहित होकर-यावत्-आहार करे तो हे एस गं गोयमा ! बीतिगाले पाण-भोयणे। गौतम ! यह अंगार दोष रहित पान-भोजन कहा जाता है। जेणं निर्गवा, निग्गी ता-जाब-पडिगाहेत्ता नो निर्ग्रन्थ या निग्रन्थीयावत् -- आहार ग्रहण करके अत्यन्त महया अप्पत्तियं-जाव-आहारेह । एस गं गोयमा! अतिपूर्वक–यावत्-आहार न करे तो हे गौतम ! वह धूमयीयधूमे पाण-भोयणे । दोष रहित पान-भोजन कहा जाता है। जेणं निरांथे या निग्गंधी वा-जाव-पडिग्गाहेसा जहा नियन्थ या निम्रन्थी---यावत्-आहार ग्रह्ण करके जैसा सझं तहा आहारं आहारे । एस पं गोयमा संजोय- आहार प्राप्त हुआ है, वैसा ही आहार करे (जिन्नु स्वाद के लिए णादोस विष्यमुपके पाण-मोयणे । अन्य पदार्थ के साथ संयोग न करे तो हे गौतम ! यह संयोजना दोष रहित पान-भोजन कहा जाता है। एस णं गोपमा ! वीतिगालस्म वीरधूमस्स संजोयणा हे गौतम ! इस प्रकार अंगारदोष रहित, धूमदोष रहित और वोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोषणस्स अट्टे पणते। संयोजना दोष रहित पान-भोजन का यह अर्थ कहा गया है। –वि. स.७. उ. १, सु.१% १ अंगार दोष और घूम दोष की व्याख्या देखिए--पिण्ड नियुक्ति गाथा ६३५-६६७ । २ संयोजना दोष का उदाहरण, व्याख्या और भेद-देखिए पिण्डनियुक्ति गाथा ६२९-६४२ । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र २८ क्षेत्रातिक्रान्त आदि दोष का स्वरूप चारित्राचार : एषणा समिति [६११ खेत्ताइक्कतादिदोसाणं सरूवं क्षेत्रातिकान्त आदि दोष का स्वरूप-... २८. प० - अह मते ! खेतातिलस्स काला तिक्तस्स, भग्गा- २८. H० - 'भगवान् ! क्षेत्रातिकान्त, कालातिक्रान्त, मार्गाति तिक्तस्स, पमाणालिक्क सस्स पाणभोयणस्स के कान्त और प्रमाणातिकान्त पान-भोजन का क्या अर्थ कहा अठे पण्णते ? गया है? उ० - गोयमा ! जे णं निग्गथे वा निगथी वा फासु एस- 3-गौतम ! जो निन्य या निर्ग्रन्थी प्रामुक और एष णिज्जं असणं-जाव-साइमं अणुगते सूरिए पडिग्गा- पीय अशन यावत्-स्वादिम को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके हिला, उम्गते सरिए आहारं आहारेति ! सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं तो हे गौतम ! यह एस गं गोयमा ! खेतातिपकते पाण-भायणं ।। क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन कहलाता है। जे गं निम्गये वा, निग्गयो श फासुएसणिज्ज असणं जो निर्गन्ध मा निर्गन्थी प्रासुक एवं एषणीय अशन-यावत्-जात-साइमं पड़माए पोरिसीए पडिगाहेत्ता, पच्छिम स्वादिम आहार को प्रथम प्रहर (परुषी) में ग्रहग करके चतुर्थ पोरिसं उवायणावेत्ता आहारं आहारेति । प्रहर तक रखकर सेवन करते हैं, तो एस गं गोयमा ! कालातिपकते पाप-भोयणे । हे गौतम ! यह कालातकान्त चान-भोजन कहलाता है। जे पं निम्नथे वा, निग्गंधी वा फासुएणिज्ज असणं जो निम्रन्थ या निग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय अशा -जाव-साइम पडिगाहिता परं अद्धजोयण मेराए वोति- स्वादिम आहार को ग्रहण करके आधे योजन-दो कोस (की मर्यादा) कमावेत्ता आहारमाहारेति । का उल्लंघन करके खाते हैं। एस पं गोयमा ! मम्मातिक्कते पाण-भोयणे । हे गौतम ! यह मागाँतिक्रान्त पान-भोजन बहलाता है । १. जे गं निग्गथे वा, निग्गथी वा फासुएसणिज्ज (१) जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय अणन असणं-आव-साहर्म पडिग्गाहेत्ता पर बत्तीसाए - यावत् - स्वादिम आहार ग्रहण करके अपने मुखप्रमाण बत्तीस कुक्कुरि अंग-प्पमाणमेत्ताणं कवला आहारं कवल से अधिक आहार करता है। आहारे।। एस णं गोयमा ! पमाणाइचकते पाण-भोयणे । है गौतम ! यह प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन कहा जाता है। २. अट्ट कुक्कुष्टि अंगप्पमाणमेले कवले आहार (२) अपने मुखप्रमाण आर कवल आहार करने से अल्पाआहारेमाणे अप्पाहारे। हार कहा जाता है। ३. बुवालस कुक्कुडि अंगप्पमाणेमेत्ते कवले आहारं (३) अपने मुखप्रमाण बारह कवल आहार बरने से कुछ आहारेमाणे अवलमोरिया । कम अधं ऊनोदरिका नाही जाती है। ४. सोलस कुक्कुडि अंडगप्पमाणमेले कवले आहार (४) अपने मुखप्रमाण सोलह कल आहार करने से द्विआहारेमाणे दुभागपत्ते अमोमोयरिया। भाग प्राप्त आहार और अद्धं कणोदरी कही जाती हैं। ५. उच्वीसं कुक्कुष्टि अंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं (५) अपने मुखमाग चौबीस कवल लाहार करने से आहारेमाणे तिभाग पत्ते, असिया ओमोपरिया । विभाग प्राप्त आहार और एक भाग ऊनोदरिका कही जाती है। क्षेत्रातिकान्त-महा दोन शब्द का अर्थ है-सूर्य का ताप क्षेत्र, उसका अतिक्रमण करना धोत्रातिकान्त है। तात्पर्य यह है कि - जहाँ साधु-साध्या रहते हैं वह सूर्णेदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद याने रात्रि में आहार करना कोत्राविकान्त दोष है। सूर्योदय बाद और मूर्यास्त पूर्व आहार करना दोवातिकान्त दोष नहीं है । २ "कुक्कुडि अंडग" शब्द की टीका में अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। यथा (I) निजकस्याहारस्य सदा यो ताप्रियतमो भागो तत् कुस्कुटी प्रमाणे । (II) कुत्सिता कुटी कुक्कुटी शरीरमित्यर्थः । तस्या. शरीर रूपायाः कुतुया अंडकमिव अंटक-मुश। (III) यावत् प्रमाणमात्रेण कवलेन मुले प्रक्षिप्वमागेन मुखं न विकृतं भवति तत्स्थल कुक्कुटअंडक प्रमाणम् । (IV) अयमन्यः विकल्पः कुनछुटचंडकोषमे कवले । (V) अपमन्योऽ:-क्युटयंडक" प्रमाण मात्र शब्दस्येत्यर्थ : - एतेन कबलगायणादिना संख्या इष्टव्याः । -अभि. रा. कोय ऊणोयरिया प. १०६२। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२] वरणानुयोग आहार लेने के कारण सूत्र २६-३१ ६. एगतीसं कुक्कुडो अंगप्पमाणमेले कवले माहारं (६) अपने मुखप्रमाण एकतीस करल आहार करने से आहारेमाणे किंणोमोयरिया । किंचित् ऊणोदगिका कही जाती है। ७. बत्तीस फुफ्फुदि अंगप्पमाणमेत कवले आहारं (७) अपने मुखप्रमाण बत्तीरा क्वल आहार करने से प्रमाण आहारेमाणे पमाणपत, प्राप्त आहार कहा जाता है। एतो एकेण वि फवलेण ऊणगं आहारं आहारेमार्ग इससे एक भी कवन कम आहार करने वाला श्रमण नम्रन्थ समणे निग्थे नो पकामनोहति वत्सध्वं स्थिा। प्रकामभोजी नहीं कहा जा सकता है । एस गं गोयमा! खेत्ताइक्कंतस्स, कारलाइपकंतस्म, हे गौतम । इस प्रकार क्षेत्रातिकान्त, कालातित्रान्स, मार्गामग्याहरकतस्स, पमाणाइक्कंसस्त पाण-भोयणस्स तिकान्त और प्रमाणातिक्रान्स पान-भोजन का यह अर्थ कहा अठे पण्णते।' –वि. स. ७, उ.१, सु. १६ गया है। आहारकरण कारणा आहार लेने के कारण२६. हि ठाणेहि समणे निगं ये आहारमाहारेमाणे णातिक्कति, २६. छह कारणों से श्रमण निर्गन्य आहार बो ग्रहा करता हुआ तं जहा भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नही वारता है । जैसेयेयण वेयावच्चे, इरिपट्टाए य संजमट्ठाए । (१) वेदना --भूख की पीड़ा दूर करने के लिए। तह पाणवत्तियाए, छठं पुण धम्मचिसाए ॥ (२) गुरुजनों की पावृत्य करने के लिए। .-ठाण. अ. ६.सु.५०० (३) ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। (४) संयम की रक्षा के लिए । (५) प्राण-धारण करने के लिए। (६) धर्म का चिन्तन करने के लिए। आहार अकरग कारणा आहार त्यागने के कारण२०. छह ठाणेहि समणे णिगंये आहारं बोचिळवमाणे पातिकक-३०. छह कारणों से घमण निग्रंथ आहार का परित्याग करता मति, तं जहा हुअा भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । जैसेआतंके उवसगे, तितिक्षणे बंमचेरगुतीए । (१) अतंक - वर आदि आकस्मिक रोग हो जाने पर । पाणिदया-तबहे, सरोरवच्छेयगट्ठाए ।' (२) उपसगं-देव, मनुष्य, तिर्यचकृत उपद्रव होने पर। -ठाणं. अ. ६, सु.५०० (३) तितिक्षा-ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए। (४) प्राणियों की दया करने के लिए। (५) तप की वृद्धि के लिए। (६) शरीर व्युत्सर्ग (संथारा) करने के लिए । कालाइक्कंत-आहार-रवखण-भुजण-णिसेहो पायच्छित्तं कालातिक्रान्त आहार रखने व खाने का निषेध व प्रायश्चित्त११. नो कप्पद निर्णयाण वा, निग्गंथीण बा असणं वा-जान- ३१. निग्रन्थों और निग्रन्थियों को प्रथम पौरषी में ग्रहण किए साइमं या, पढमाए पोरिसीए पद्धिम्गाहेता, पच्छिम् पोरिसि हुए अशन-यावत् -स्वादिभ को अन्तिम पौरुषी तक अपने पास उवाहणावेत्तए। रखमा नहीं कल्पता है। से य आहाच उचाइणावए सिया तं नो अप्पणा मुंजेज्जा, कदाचित् वह आहार रह जाय तो उसे स्वयं न खाने और नो अन्लेसि अगुपज्जा । न अन्य को दे। एमन्ते बहुफामुए चंडिले पडिलेहिता पमज्जिता परिदृपवे किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त मांडिल भूमि का प्रतिसिया। लेखन एवं प्रमार्जन कर उस जाहार को परठ देना पाहिए। १ व्यव. सूत्र ३०४ सू. १७ में अट्ट कुक्कुडी बत्तव्यं सिया तथा पाठ है। २ उत्त.. २६, गा. ३२ । २ -त्र्यव. भाष्य. गा. २६ से ३०१ की दीका उत्त. अ. २६, गा.३४ । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१-३३ मार्गतिक्रांत आहार रखने व खाने का निषेध व प्रायश्चित्त चारित्राचार एवणा समिति ******ww.www तं अपणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आज चाम्पासिये परिहारट्ठाणं उग्वाक्ष्यं ॥ C - कप्प. उ. ४ तु. १६ जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं या जाय साइमं वा पड़िगाता पछि पोरिसि उवाइणावेद वाणावतं वा ३२. नो कप निग्गंधाण वा निमयीन वा अवर्ण वा जाव साइमं वा परं अजयमेरे। जो भिक्षु प्रथम पोदिपी में अशन यावत्-स्वाद्य ग्रहण करके अन्तिम पोरिपी तक रहता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है । साइज तं सेवमाणे आवज्जह चाउम्मासियं परिहारद्वा उग्धायें । - नि.उ. १२. सु. ३० उसे चातुर्मासिक उद्घाटिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है | मग्गातिकांत आहार रक्खण भूज विहो पायच्छित मार्गातिकान्त आहार रखने व खाने का निषेध व च प्रायश्चित्त ३२. निन्यों और निर्यन्थियों को असन — यावत्-स्त्रादिम आहार अयोजन की मर्यादा से आगे अपने नाम रखना नहीं पता है । सेय आहच्च उवाणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुजेज्जा नो अन् अणुपदे । एगन्ते बहुफाए ष्टिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिवेयये सिया । तं अपणा मुंजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्वाइथं -कप्प . ४, सु १७ जे भिक्खू परं अजोयण मेराओ असणं वा जाव-साइमं वा उपा तं सेवमाणे आवज्जद्द नाउम्मासिवं परिहारट्ठाग्ायं । - नि. उ. १२. सु. ३१ आहारस्स बणं अवणं ण जिहि२३. रमन म पावति बा। पुट्ठो वा चि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निहिये ।। - दस. अ. ८ गा. २५ उस आहार को स्वयं खाये या अन्य को दे तो वह उघातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त का पात्र होता है। [cre - कदाचित् वहु आहार रह जाय तो उस आहार को स्वयं न खावे और न अन्य को दे || एक और सर्वथा अनि भूत लेखन एवं प्रमार्जन कर जब आहार को परठ देना चाहिए। यदि उस आहार को स्वयं खावे या अन्य को दे तो वह उदपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) का पात्र होता है। जो भिक्षु अर्ध योजन के उपरान्त अशन – पाथत् – स्वाद्य रखता है, रखवाता है रखने वाले का अनुमोदन करता है । चातुर्मादियासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। आहार को प्रशंसा और निन्दा का निषेध ३२. बिल्ली के पूछने पर या बिना पूछे सर्व गुण सम्पन्न आहार के लिए यह बहुत बढ़िया है और बट्टा द्वारा आदि के लिए वह खराब है ऐसा न कहे तथा इनकी प्राप्ति वाति के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहे । १ कलाविक्रान्त और मार्गातिकान्त आहार के खाने का निषेध और परठने का विधान का तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के आहारों में चौथे प्रहर के बाद तथा आधा योजन जाने के बाद संग्रह वृत्ति और जीव-संसक्तता आदि की सम्भावना रहती है । -- बृहतल्प भाष्य सू. १७ की टीका पृ. १४०० २ वर्षावास में यदि मार्ग के बीच में नदी बहती हो तो अर्ध योजना जाना भी नहीं कल्पता है। स्पष्टीकरण हेतु देखिए. वर्षावास दसा. द. सु. १०-११ समाचारी । T - Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४] चरणानुयोग आधा योजन उपरांत संखडी में जाने का निषेध सत्र ३४-३५ संखडी-गमन-.-११ परमद्धजोयण मेराए संखडोए य गमगाणिसेहो-- आधा योजन उपरान्त संखड़ी में जाने का निषेध३४. से भिषयू वा भिक्खूणी वापरं अजोयणमेराए संखडि ३४. भिक्षु या भिक्षुपी अर्द्ध योजन की सीमा से आगे संजडि संस्त्रडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। (बड़ा जीमनबार) हो यह जानकर संखडि में निष्पन्न आहार लेने के निमित्त से जाने का विचार न करे। से भिक्खु वा भिक्षुणी वा भिक्षु मा भिक्षुणी१. पाईण संखडि णकचा परीणं गच्छे अणाढायमाणे, (१) पूर्व दिशा में संम्बडि जाने तो वह उनके प्रति अनादर भाव रखते हुए पश्चिम दिशा में जाए। २. पडीसंखडि गच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, (२) पश्चिम दिशा में संखमि माने तो उसके प्रति अनादर भाव रखते हुए पूर्व दिशा में चला जाए। ३. पाहणं संखडि परचा उदीयं गच्छे अणादायमाणे, (३) दक्षिण दिशा में संखडि जाने तो उनके प्रति अनादर भाव रखकर उत्तर दिशा में चला जाए । ४. उवीण संखडि णमचा दाहिणं गच्छे अगाढायमाणे । (४) उत्तर दिशा में संखडि जाने सो उसके प्रति अनादर भात्र रखकर दक्षिण दिशा में चला जाए। जत्पेव सा संखड़ी सिया, तं जहा संबडि जहाँ भी हो, जैसे किगामंसि वा-जाव-रायहाणिसि वा संकि संसपिडियाए जो गांव में हो-यावत्-राजधानी में हो, उस संखडि में अभिसंधारेज्जा गमणाए। संखडि के निमित्त से न जाए । केवली बूया-आयाणमेयं । केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं-यह कर्मबन्धन का कारण है। -आ. सु. २, अ. १, उ, २, सु ३३८ संखडोगमणे उप्पण्णदोसाई संखडी में जाने से होने वाले दोष - ३५. संसद संखरिपजियाए अभिसंधारेमाणे आहाकम्मियं वा, ३५. संखडि में बड़िया भोजन लाने के नंकल्प से जाने वाला उद्देसियं वा मोसजाय वा, कोयगडं वा, पामिच्चं वा, भिक्षु आधार्मिक औशिक, मिन जात, फीत, प्रामित्या, बलात् अच्छेज्ज वा, अणिसिह्र वा अभिहडं वा आह१ दिज्जमाणं छीना हुआ, दुमरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति के मुंजेज्जा, बिना लिया हुआ या राम्मुख लाकर दिया हुआ आहार खायेगा। अस्संजते सिक्युपटियाए तथा कोई गृहस्थ भिक्षु के खडि में पधारने की सम्भावना १. ड्डियदुवारियाओ महिलाओ मुज्जा, (१) छोटे द्वार को बड़ा बनाएगा, २. महल्लियनुवारियाओ षडियाओ कुज्जा, (२) बड़े द्वार को छोटा बनाएगा । ३. समाओ सेम्जाओ विसमामो कुज्जा, (1) समस्थान को विषम बनाएगा, ४. विसमाओ सेज्जाओ समाओ फुज्जा, (४) विषम स्थान को सम बनाएगा । ५. पयातामो सेज्जाओ गिवायाओ कुम्जा, (५) वातयुक्त स्थान को निति बनाएगा, ६. णिवायाओ सेज्जाओ पवाताओ कुज्जा, (६) निर्वात स्याम को हवादार बनाएगा, ७. अंतो वा, वहिं था उवासयस हरियाणी हिविय छिविय (७) उपाश्रम के अन्दर और बाहर (उगी हुई) हरियाली वालिय वालिय संघारगं संथारेज्जा, एस बिलुंगयामो को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़कर वहाँ आप्तन बिछाएगा। इस सिग्माए। विचार से कि ये निग्रन्थ मकान का कोई सुधार करने वाले नहीं हैं। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५-३७ संखडी में भोजन करने से उत्पन्न दोष चारित्राचार : एषणा समिति [६१५ wom तम्हा से संजते णियंठे तहप्पगारं पुरेमखाँड बा, पच्छा संस्ड इसलिए संयभी निर्ग्रन्थ इस प्रकार की (नामकरण, विवाह वा संसटि संखपिडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्वसंखडि (पीतिभोज) पश्चात --आ. सु. २, अ. १. उ. २.३३८ (ख) संखडि मृतक भोज) में संस्खडि की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करें। संखडीभोयणे उप्पण्णदोसाइं-- संखडी में भोजन करने से उत्पन्न दोष-- ३६. से एमतिमो अषणतरं संखडि आसित्ता पिबित्ता छड्डेज्ज ३६. कोई एक भिक्षु को किसी संखड़ी में अधिक सरस आहार वा, धमेज्ज बा, भुत्ते वा से णो सम्म परिणमेज्जा, अण्णतरे खाने-पीने से दस्तें लग सकती हैं या नमन हो सकते हैं अथवा वा से दुक्खे रोगातके समुप्पा जेज्ना । खाये गये आहार का सम्यग् परिणमन नहीं होने से कोई दर्द या रोग तक पैदा हो सकता है। केवली बूया-आयाणमेपं । इसलिए केवली भनवान् ने कहा है - यह कर्मबंध का कारण है। इह खलु भिक्खू गाहावतोहि वा, गाहाबलोणी वा परिवाय- संखड़ी में भिक्षु गृहस्थ, गृहस्थ' पत्नियो, परिव्राजक, एहि वा परिवाइया काग साग सोई गाउंति परिमाणिमानव एक साथ एकत्रित होकर मद्य पीकर गवेषणा मिस्स हरस्था वा उपस्सय पडिलेहमाणे णो लभेजा तमेव करने पर भी कदाचित् अलग-अलग स्थान न मिलने पर एक ही उपस्सयं सम्मिस्सीभावमावज्जेज्जा, अण्णमणे वा से भरे स्थान में मिथित रूप से ठहरने का प्रसंग प्राप्त होगा। वहाँ ने विपरियासियभूते इस्थिविगहे वा, किलोचे घा, तं मिक्खं गृहस्थ, गृहस्थपरिनयाँ आदि नशे में मत एवं अन्यमनस्क होकर उन्नसंकमित्तु बूया अपने आप को भूल जाएंगे और स्त्रिया या नपुसक उस' भिक्षु के पास आकर कहेंगे'आउसंतो समणा ! अहे आरामसि वा, अहे उथस्ससि "आयुष्मन् श्रमण! किसी बगीचे या उपाश्रव में रात्रि में वा, रातो वा, वियाले वा मामधम्मनियंतियं कटटु रस्सिय मा बिकाल में इन्द्रिय विषयों की पूर्ति के लिए एकान्त स्थान में मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो ।' तं गइओ हम मैथुन-सेवन करेंगे।" उस प्रार्थना को कोई एक साधु स्वीकार सातिरजेजा। भी कर सकता है। अकरगिज्जत संखाए, एने आयाणा संति संचिज्जमाणा किन्तु यह साध के लिए सर्वथा अकरणीय है, यह जानकर पच्चयाया प्रति । रांखड़ी में न जाए क्योंकि संखड़ी में जाना कर्मों के पासव का बारण है । इसमें जाने से कर्मों का संचय बढ़ता है तथा पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं। सम्हा से संजए णियंठे तहत्पपार पुरेसात वा पन्छासंखाँड इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ पूर्व संवाडी या पश्चात् संखडी में वा संखडि संखडिपरियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। जाने का विचार भी न करें। -आ. सु २. अ. १, उ. ३, सु. ३४० आइण्णसंखडीए गमणणिसेहो तहोसाई च- आकीर्ण संखडी में जाने का निषेध व उसके दोष३७. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से ज्नं पुण जाणेजा गाम वा ३७, भिक्षु या भिक्षुणी गाँव--यावत्-राजधानी के विषय में -नाव-रामहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा-जाव-रायहा- जाने कि इस गाँव--यावत् -राजधानी में संखडी है तो उस णिसि वा संखजिसिया, सं पियाई गाम वा-जावदायहाणि गांव-यावत्-राजधानी में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने का या संखडि संचडिपटियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए । विचार भी न करे। केवलो चूया आयाणमेयं । केवली भगवान कहते हैं कि- यह अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण है। आइग्णोमाणं संकि अणुपविरसमाणस्स आकीर्ण और अवमान संखडी में प्रविष्ट होने से-- १. पाएग वा पाए अपकंतपुश्व भवति, (१) पैर से पैर टकरायेंगे । २. हत्येण वा हत्ये संचालियपुग्वे भवति, (२) हाथ से हाथ संचालित होंगे। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६] चरणानुयोग ३. पाए वा पाए समभवति ४. घट्ट नति ५. कारण वा काए. संखोभितपुष्ये मति ६. दंडेण वा अट्ठी वा मुट्ठीण वा लेखुणा वा क्यालेण मा अनिल भवति वा ओमिति ७.सी उसों में आहार के ग्रहण का विधि-निषेध ८. रमसा वा परिघासितपुवे भवति, ६. अस णिज्जे वा परिभुतपुव्ये भवति, १०. अण्णेस वा दिज्जमाणे पडिगाहितपुण्ये भवति । तरहा से संजते नियंडे पवार आइयो ट यो अभि -आ. सु. २, अ. १, ३.३, सु. ३४२ उसने आहारस्स ग्रहण बिही जिसेहो ३८. से भिक्खू या भिक्खुणी वा महाबडकुलं पिवायपडियाए अणुपविट् समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा जाबसावा अट्टमपहिए का अद्धमाखिए वा भासिए वा, दोमासिनु वा नासिल् वा चावभासिनु वा पंचमासिए वर, छम्मासिएन वा । उकवा, उदुगंधीसु वा उपरियट्टेस वा बहवे समणमाण अतिहि कि वणवणीमगे परिपेता दोहि उपखाहि परिसिज्माणे पेहाए. सिंह परिहा हिउाहिरिएसनमा पेहाए. मी जाति था संगि परिसिज्माणे पेहाए, हत्यारं साइमं या अपुरिसंतराव अणासेवितं अकासु जाव णो पश्चिम्पाना । 11 अपुग एवं पुरत जावयासेवितं - जाव- पडिगाहेज्जा । – आ. सु. २, अ. १, उ. १, सु. ३३५ महामहेसु आहारस्त गहण विहि जिनेहो २६. कापडिया अणुपविट्ठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा जाव साइमं या समवाय वापरे वा दवा दवा का दम था तथा wwwwwww सूत्र ३७३६ wwwwwwww.. (३) पात्र से पात्र रगड़ खाएगा । (४) सिर से सिर का स्पर्ण होकर टकराएगा । (५) शरीर से शरीर का संघर्षण होगा । (६) लेडी, मुद्री देवरा पर से एक दूसरे पर प्रहार होना भी सम्भव है । (2) इसके अतिरिक्त पानी के टेन सकते हैं। (८) रज-धूल आदि से भर सकता है। (६) अरणीक आहार का उपभोग करना पड़ सकता है। (१०) अन्य को दिया जाने वाला आहार ग्रहण किया जा सकता है । अतः दह संयमी निन्स प्रकार की जनरकीर्ण एवं अल्प आहार बाली संरडी में संखडी के संकल्प से जाने का विचार न करे । उत्सवों में आहार के ग्रहण का विधिनिषेध - ३८. भिक्षू या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन - यावत्- - स्वाद्य के विषय में वह जाने कि यह आहार आदमी पौष व्रत में नया अ मासिक (पाक्षिक), मासिक, वासिक, मासिक, चातुर्मासिक, मासिक और पाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में, तयों एवं रनों के उत्सवों के उपलक्ष्य में वहुत से श्रमण ब्राह्मण अतिथि, दरिद्री एवं भिलारियों को, एक मुख वाले वर्तनों से परोसते हुए देखकर, दो मुग वाले बर्तनों से परोसते हुए देखकर, तीन मुख वाले बर्तनों से परोसते हुए देखकर, एवं नर मुख वाले वर्तनों से परोसते हुए देखकर तथा बड़े मुंह वाली और जॉस की टोकरी एवं समिति संचय के स्थान से लेकर परोसते हुए देखकर इसी प्रकार के अशन- - पावत् स्वादिम जो कि पुरुषान्तरकृत नहीं है अनासेवित है तो उस आहार को अप्रासुत जानकर - यावत् ग्रहण न करे । यदि ऐसा जाने कि यह आहार पुरुषान्तरकृत है-पावस् असेवित है तो उस आहार को प्रमुख जानकर - यावत् ग्रहण करे | महामहोत्सवों में आहार के ग्रहण का विधिनिषेध१९. मिथु वा भिक्षुणी भिक्षा के लिए बृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते रामय अशन – पावत् – स्वाद्य के विषय में यह जाने कि मेला पितृपण्ड के निर्मित भोज तथा इन्द्र महोला, स्कन्द महल होत्यत्र मुकुन्द-महोत्सव भूत-महोत्सव यक्ष , , Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ३६-४० आकीर्ण या अनाकीर्ण संखमे में जाने का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६१७ जपलमहेसु वा, नागमहेसु वा, थूममहेसु था, चेतियमहेसु वा, महोत्मब, नाग महोत्सव, स्तूप-महोत्सव, चैत्य-महोत्सब अक्षवक्खमहेस वा, गिरिमहेस था, परिमहेस वा, अपडमहेस महोत्सव, पर्वत-महोत्सव, गुफा-महोत्सब, कूप-महोत्सव, तालाबपा, तलापमहेस वा, दहमहेस था, गदिमहेस वा, सरमहेस महोत्सव, द्रह-महोत्सव नदी-महोत्सव, मरोबर-महोत्सव, सागरवा, सागरमहसु वा, आगरमहेसु वा, अण्णतरेसु बा, तहप्प- महोत्सव या आकर-महोत्सव, एवं अन्य भी इसी प्रकार के विभिन्न गारेसु या, विस्वस्वेस बा, महामहेसु वट्टमाणे महोत्सव हो रहे हों, बहवे समण-जाव-वणीमए एग्गतो उक्खातो परिएसिग्जमाणे उसमें बहुत से श्रमग -यावत् –याचकों को एक मुख वाजे बर्तन पेहाए-जाव-संणिहिसंणिचिताओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए, से परोसते हुए देखकर-यावत्-सन्निधि संचय के स्थान से सहप्पगारं असणं बा-जाव-साइमं वा अपूरिसंतरकर-जाव- लेकर परोसते हुए देखकर इसी प्रकार के अमन-यावत--स्वाद्य अणासेवितं अफासुयं जाव-णो पडिगाहेजा । जो कि अपुरुषान्तरकृत-यावत् अनासेवित है तो उस माहार को अप्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करें। अह पुण एवं जाणेन्जा-विणं तं तेसि वायवं, अहं तत्य यदि वह यह जाने कि जिनको देना था उनको दिया जा भंजमाणे पहाए गाहावतिभारियं वा, गाहायति भििण वा, चुका है, अब वहाँ गृहस्वामी की पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्री, पश्बध गाहावतिपुत्तं वा, गाहावतिधूयं वा, सण्हं वा, धाति वा, धायमाता, दास, दासी, नौकर या नौकरानी को भोज करते बाप्त वा, दासि वा, कम्मकरं वा, कम्मकरि वा से पुजामेव हुए देखकर पूछे किआलोएज्जाप०--"आउसो 1 तिवा, मणिणि I ति बा, दाहिसि मे म -"है आयुष्मन् गृहस्थ या बहन ! क्या महस एतो अण्णवर मोजणजायं? भोजन में से कुछ दोगी?" च.-.से से तस्स परो अमणं पा-जाब-साइमं वाउ.--ऐसा कहने पर वह गृहस्थ अशन-यावत--स्वास आहद दलएक्जा, तहप्पगारं असणं या-जाय-साइमं आहार लाकर साधु को दे तो इस प्रकार के अशन-पावन वा सयं वा पं जाएज्जा, परो वा से देवजा, फास्यं स्वाद्य की स्वयं याचना करे या बह गृहस्थ स्वयं दे तो प्रामक -जाव-पडिगाहेज्जा । जानकर-यावत्-ग्रहण करे । -आ. नु. २, अ. १, 3. २. सु. ३३७ आइण्ण अणाइण्ण संखडीए गमण विहि-णिसेहो-- आकीर्ण या अनाकीर्ण संखडी में जाने का विधि निषेध४०. से भिक्षु वा मिक्वणी चा पाहाबइकुल पिण्डवायपडियाए ४०. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते समय प्रिक्ष या अगुपविट्ठे समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा-आहेणं या, पहेणं भिक्षुणी यह जाने कि-वर के घर का भोजन, वध के घर का वा, हिंगोलं वा, संमेलं या, हीरमाणं पेट्टाए। भोजन, मृत व्यक्ति की स्मृति में बनाया गया भोजन, गोठ, पुत्र उन्म आदि के लिए बनाया गया भोजन, अन्यत्र ले जाया जा रहा है तथा--- १. अंतरा से ममा बहुपाणा-जाव-भक्कडा संताणगा। (१) मार्ग में बहुत से प्राणी-यावत्-मकड़ी के जाले हैं। २. बहवे तत्व समण-जाब-वणीमगा उवागतः उवा- (२) वहाँ बहुत से थाक्या दिमण-दावत--भिखारी गमिस्संति । आदि आये हुए हैं और आयेंगे। ३. अच्चाइणा वित्ती। १३) संखडीस्थल जनता की भीड़ से अत्यन्त घिरा हुआ है। ४, जो पण्णस्स णिक्षमणपसाए। (४) वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन प्रवेश का व्यवहार उचित नहीं है। ५. गो पाणस्स वायण-पुन्छण-परिपट्टणाऽणुप्पेह-बम्माणुयोग- (५) वहाँ शश भिक्षु की वाचना, पृञ्छना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा, चिताए। और धर्मक्याप स्वाध्याय प्रवृत्ति नहीं हो सकता है । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८] घरणानुयोग संखडी में जाने के लिए मायास्थान सेधन का निषेध सूत्र ४०.४३ से एवं पश्या तहपगारं पुरेसंखडिया पच्छा संखड वा अत. यह जानकर भिक्षु इस प्रकार की पूर्व-संखडी या संखाँच संखरि पडियाएको अभिसंधारेज्जा गमणाए। पश्चात् संखही में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिंडवाय-पडियाए भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करते अणुपविढे समाणे से ज्ज पुण जामेजा—आहेणं या-जाब- समय यह जाने कि घर के घर का भोजन --यावत्-गोठ, पुत्र संमेलं वा हीरमाणं पेहाए । जन्म आदि का भोजन अन्यत्र ले जाया जा रहा है तया१. अंतरा से मग्गा अपंडा-जाव-संताणगा, (१) मार्च में बहुत से प्राणी-यावत् - मकड़ी के जाले भी नहीं हैं। २. णो जत्थ बह रुमण-जाव-वणीमगा उवागता, उयाग- (२) बहुत से श्रमण - यावत्-भिक्षार अभी नहीं आये हैं मिस्संति, और न आयेंगे। ३ अप्पाइण्णा वित्ती, (३) लोगों की भीड़ भी बहुत कम है। ४. एषणस्स णिवसमग-पवेसाए, (४) प्राज्ञ निर्गमन-प्रवेश कर सकता है। ५. पण्णस्स बायण-पुछप-परिप्रणाऽणुप्पेह धम्माणुलोग- (५) वहाँ प्राश साधु का वाचना पृच्छना आदि धर्मानुयोग चिंताए। चिन्तन हो सकता है। सेवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंस्खदि वा, पच्छासंगि वा ऐसा जान लेने पर उस प्रकार की पूर्व संखडी या पश्चात् संड संखडिपडियाए अभिसंधारेन्ज गमणाए। संखडी में संखडी की प्रतिज्ञा में जाने का विचार कर सकता है। -आ० गु० २, अ० १, उ० ४, सु. ३४८ मंखडीगमणाए माइट्ठाणसेवणणिसेहो संखडी में जाने के लिए मायास्थान सेवन का निषेध४१. से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा अण्णतरं मार सोच्चा णिसम्म ४१. भिक्षु या भिक्षुणी संखडी के विषय में सुनकर मन में विचार संपहायति उस्सुयभूतेणं अप्पागणं, घुया संखडी। णो संचा- करके उरमुक भावों से संखडी में जाने के लिए भिक्षा के असमय एति तत्व इतराइतरेहि कुलेहि सामुदापि एसिर वेसियं में जल्दी-जल्दी जाता है तो वह अन्यान्य घरों में सामुदानिक पिण्डवातं परिगाहेत्ता आहारं आहारेत्तए । माटाणं संफासे। एषणीय व साधु के वेश से प्राप्त शिक्षा ग्रहण कर आहार नहीं णो एवं करेज्जा। कर सकेगा । ऐसा करना मावास्थान का सेवन करना है, अतः साधु ऐसा न करे। से तत्म कालेण अगुपविसित्ता तस्थितराइतरेहि कुलेहि मिनु को वहां समय पर ही भिक्षा के लिए प्रवेश कर सामुदाणियं एसियं वेसियं पियातं पडिगाहेत्ता आहारं विभिन्न कुलों रो सामुदानिक एषणीव व वेष से प्राप्त निर्दोष आहारेजा। -आ. सु. २, अ. १, ३. ३, सु. ३४१ भिक्षा ग्रहण कर आहार करना चाहिए। रति संखडिपडियाए गमणगिसेहो रात्रि में संखडी के लिए जाने का निषेध४२. नो कप्पइ निग्गंधाण वा, निगधाण या, रामओ वा, बियाले ४२. निर्यन्यों और निर्यनित्रयों को संखडी में संसदी के लिए भी घा संदि वा संखम्पिणियाए एतए। रात्रि में या विकाल में जाना नहीं कल्पता है । -कप्प. उ. १, सु. ४७ संखडिपडियाए गमणस्स पात्तिसुत्ताई संखडी के लिए जाने के प्रायश्चित्त सूच४३. जे मिक्षु संखडिपलोयगाए असणं या-जाव-साइम वा ४३. जो भिक्षु संखडी में खाद्य सामग्री को देखते हुए अशन पजिग्गाहेद पजिग्गाहेत या साइज्जइ। --पावत्-स्वाच आहार को ग्रहण करता है, ग्रहण करवाता है. ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं क्षेत्रमाणे आवज्जइ मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. सु. १४ आता है। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३-४५ सागारिक के अशनादि प्रहग का निषेध चारित्राधार : एषणा समिति [६१९ जे भिक्खू आहेणं वा-जाव-संमेलं वा अन्नयरं वा तहापगारं जो भिक्षु वर के घर का भोजन - पावत्-गोठ आदि का विस्यहवं तीरमाणं पेहाए ताए आसाए, ताए पियासाए तं भोजन तथा अन्य भी ऐसे विविध प्रकार के भोजन को ले जाते रयगि अण्णत्य उवाइणावेइ. उवाइणावंतं साइज्जइ । हुए देखकर उनको आशा से, अभिलाषा से जहाँ ठहरा है वहाँ से दूसरी जगह रात्रि विश्राम करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्भासियं परिहारद्वाणं अणुग्घा- उसे चातुर्मासिक अनुमतिक परिहारस्पान (प्रायश्चित्त) इम्। -नि. उ. ११, सु. ८. आता है। ** सागारिक-१२ सागारियरस असणाइ गहणणिसेहो-- सागारिक के अशनादि ग्रहण का निषेध४४. से भिक्खू वा, भिक्खूगी या जस्सुवस्सए संबसेक्जा तस्स ४४. भिक्ष या भिक्षुणी जिसके उपाश्रय में निवास करे, उसका पुवामेव जामगोत्तं जाणेजा, तो पच्छा तस्स गिहे नाम और गोत्र पहले से जान लें। उसके पश्चात् उसके घर में णिमंतेमाणस या, अणिमतेमाणस्स या असणं वा-जाव- निमंत्रित करने या न करने पर भी अशन-थावत्-स्वाद्य साइमं वा अफासुयं-जाद-गो पङिगाहेज्जा । बाहार अप्रासुक जानकर--पावत्-ग्रहण न करें। -आ. सु. २, अ०२, उ० ३, सु०४६ पारिहारिय सागारियस्स जिओ-- परिहरणीय शय्यातर का निर्णय४५. सागारिए उवस्सयं वक्कएणं पउजेज्ना, से य वमकहयं ४५. यदि उपाश्रय किराये पर दे और किराये पर लेने वाले को वएज्जा-इमम्मि इमम्मि व ओवासे समषा निगया यह कहें कि--"इतने-इतने स्थान में श्रमण निग्रंन्य रह रहे हैंपरिवसति" से सागारिए पारिहारिए। इस प्रकार कहने वाला पहस्वामी सगारिक है, अतः उसके घर आहारादि लेना नहीं कल्पता है। से य नो यएज्जा, वक्फइए वएज्जा, से सागारिए पारिहा- यदि शय्मातर कुछ न कहे--किन्तु किराये पर लेने वाला रिए। कहे तो वह सागारिक है, अत परिहार्य है। दो वि ते वएज्जा, दो वि सागारिया पारिहारिया । यदि किराये पर देने वाला और लेने वाला दोनों कहें तो दोनों नागारिक हैं, अतः दोनों परिहार्य है। सागारिए उचस्सय विक्किणेज्जा, से य कइयं बएज्जा- सागारिक यदि उपाश्रय बेचे और खरीदने वाले को यह कहे "इमम्मि य इमम्मि य ओबासे समगा निपथा परिवसंति" कि.-"इतने-इतने स्थान में श्रमण निर्बन्ध रहते हैं।" से सागारिए पारिहारिए। तो वह सागारिक है, अतः वह परिहार्य है। से य नो वएग्जा, कइए वएज्जा, से सामारिए पारिहारिए। यदि उपाश्रय का विक्रेता कुछ न कहे किन्तु खरीदने वाला कहे तो वह सागारिक है, अतः वह परिहार्य है। वो विते वएज्जा, दो वि सागारिया पारिहारिया। यदि विक्रेता और केता दोनों कहें तो दोनों सागारिक हैं, -भव. उ. ७. सु. २२-२३ अतः दोनों परिहार्य हैं। एगे सागारिए पारिहारिए। ___ जिस उपाश्रय का एक स्वानी हो वह एक नागारिक पारि हारिक है। रो, तिणि, चत्तारि, पंच सागारिया पारिहारिया । __ जिस उपाश्रम के दो, तीन, चार या पात्र स्वामी हों, ये सब सागारिक पारिहारिक है। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०] चरणानुयोग संसृष्ट असंपृष्ट शब्यातर पिड के ग्रहण का विधि-निवेध एवं तत्य कप्पानं ठबइसा अवसेसे निविसेज्ना। वहाँ एक को कल्पाबा-सागारिक स्थापित करके उसे पारि-कप्प. उ. २, सु. १३ हारिक मानना चाहिए और शेष करों में आहारादि लेने के लिए जादे। संसद-असंसद सागारिय-पिंडगहणस्स बिहि-णिसेहो- संसृष्ट असंपृष्ट शय्यातर पिंड के ग्रहण का विधि-निषेध४६. नो कप्पइ निग्यथाण वा, निम्गयीण या, सागारियपिण्डं ४६. निग्रन्थों और निम्रग्घयों को नागारिक-पिण्ड जो बाहर बहिया अनीहवं, असंसठे वा, संस वा परिमाहितर। नहीं निकाला गया है, नाहे यह अन्य किसी ने स्वीकार किया है या नहीं किया है तो लेना नहीं कल्पता है। नो कप्पद निग्गंधाण वा, निम्गयोण वा-सागारियपिण्डं निर्गन्थो और निग्रन्थियों को सामरिक-पिण्ड जो बाहर तो बहिया नोहा असंसद्धं पजिगाहित्तए। निकाला गया है, किन्तु अन्य ने स्वीकार नहीं किया है तो लेना नहीं कल्पता है। कापड निर्णयाण वा, निग्गंधीण वा-सागारियपिई निग्रन्थों और निग्रंथियों को सामारिक पिण्ड जो घर से बहिया नीहार संसठ्ठ पडिग्गाहित्तए। बाहर भी ले जाया गया है और अन्य ने स्वीकार भी कर लिया -कप्प. द. २, सु- १४-१६ है तो ग्रहण करन कल्पता है। सागारिय असंसपिउस्स संसदकरावण णिसेहो शय्यातर के असंसृष्ट पिंड के संसृष्ट कराने का निषेध व पायच्छित्तं च प्रायश्चित्त४७. नो कम्पद निगंधाण वा, निगौण वा-सागारियपिण्ड ४७. निर्ग्रन्थों और निर्यन्थियों को घर में बाहर ले जाया गया अहिया नोहरं असंसझे संसद करित्तए । सागारिक-पिण्ड जो अन्य ने स्वीकार नहीं किया है उसे स्वीकृत कराना नहीं कलता है। जो बलु निगरायो पा, निगयो वा-सागारियपिण्ड यहिया जो निर्जन्य और निन्थी घर के बाहर ले जाये गये सागानोहरं असंसट्ठ संसर्ट करे करतं वा साइजइ। रिक-पिण्ड जो अन्य से स्वीकृत नहीं है उसे स्वीकृत करता है, कराता है या कराने वाले का अनुमोदन करता है। मे दरओ विक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाण बह लौकिक और लोकोत्तर दोनों मर्यादा का अतिक्रमण अणुग्धाइयं । -कप्प. उ. २, सु. १७-१८ करता हुआ रातुर्मासिक अनुघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) का पात्र होता है। सागारिय आहडिया गहणस्स विहि-णिसेहो--- शय्यातर के घर आये आहार के ग्रहण का विधि निषेध४८. सागारियस आया सागारिएणं पबिगहिया, तम्हा ४८. अन्य घर से आये हुए आर को सागारिक ने अपने घर वायए, नो से कप्पद पढिरगाहेत्तए । पर ग्रहण कर लिया है और वह उसमें से साधु को दे तो लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स आहडिया सागारिएणं अपडिग्गहिया, तम्हा किन्तु अन्य घर से लाये हुए आहार को सागारिक ने अपने वायए, एवं से कम्पद पनिगाहेत्तए। घर पर ग्रहण नहीं किया है। यदि आहार लाने वाला उस आहार -कप्प. उ. २. सु. १९-२० में से साधु को दे तो लेना लल्पता है। सागारिय मीडिया गहणस्स विहि-णिसेहो-- शम्यातर के अन्यत्र भेजे गये आहार को ग्रहण करने का विधि-निषेध४६. सागारियस्स नीहडिया परेण अपरिहिया, तम्हा दावए, ४६. सागारिक के घर से अन्य घर पर ले जाये गये आहार को नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। उस गृहस्वामी ने स्वीकार नहीं किया है । उस आहार में से साधु को दे तो लेना' नहीं वल्पता है । सागारिपस्स नोहडिया परेल पडिमा हिया, तम्हा दायए, एवं किन्तु सागारिक के घर से अन्य घर पर ले जाये गपे आहार से कप्पा पहिगाहेत्तए। -कप्प. उ.२, सु. २१-२२ को उन गृह-स्वामी ने स्वीकार कर लिया है। यदि बह उस आहार में से साधु को दे तो लेना कल्पता है। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शध्यातर के अंश युक्त आहार ग्रहण का विधि निषेध चारित्राचार : एषणा समिति सागारिय अंसजुत्त आहारगहणास विहि-णिसेहो- शय्यातर के अंशयुक्त आहार ग्रहण का विधि-निषेध५० सागारियस्स अंसियाओ १०. सागरिक तथा अन्य व्यक्तियों के लिए संयुक्त निष्पन्न भोजन में से) सागारिक का अंश (विभाग) यदि१. अविभत्ताओ, (१) अविभक्त-(विभाग निश्चित नहीं किया गया हो।) २. अवोच्छिन्नाओ, (२) अव्यवच्छिन्न-(विभाग न किया गया हो।) ३. अव्योगडाओ, (३) अव्याकृत-निर्धारित कर बलग न किया गया हो।) ४. अनिढाओ। (४) अनियूंढ-(विभाग बाहर निकाला गया हो) तम्हा दावए, नो से कच्पद पजिग्गाहित्तए। ऐसे आहार में से साधु को कोई दे तो लेना नहीं कल्पता है । सागारियस्स अंसियाओ विमत्ताओ, बोन्छिनाओ, योगाओ, किन्तु सागारिक के अंश युक्त महारादि का यदिनिज्जूढाओ, (१) विभाग निश्चित हो, (२) विभाग कर दिवा हो, (३) उसे अलग कर दिया हो, (४) विभाग बाहर निकाला गया हो, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिपाहेत्तए। शेष आहार में से साधु को कोई दे तो लेना कल्पता है । -प्प.व.२, सु. २३-२४ पूयाभत्तस्स गहणस्स विहि-णिसेहो पूज्य पुरुषों के आहार के ग्रहण करने के विधि-निषेध५१. सामारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए, इए, पाहुखियाए ५१. सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषो को भेंट देने के उद्देश्य से सागारियस्स उवगरणजाए निहिए, निसळे, पाडिहारिए, जो आहार अपने उपकरणों में बनाया है और उन्हें प्रातिहारिक दिया है। तं सागारिओ वेज्जा. सागारिपस्स परिजणो बेग्जा, तम्हाउस आहार में से यदि सागारिक या उसके परिजन दें तो बराबए, नो से कप्पइ पडिग्याहेत्तए। साधु को लेना नहीं कल्पता है । सागारियस्त पूयाभत्ते उद्देसिए, चेकए, पाहुजियाए, सागारि- सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को भेंट देने के उद्देश्य से यस्स सवगरणजाए मिहिए, निसट्टै पामिहारिए। जो आहार अपने उपकरणों में बनाया है और उन्हें प्रातिहारिक दिया है। तंनो सागारियो वेज्जा, नो सामारियस्स परिजणो बेज्जा, उस आहार में से न रागारिक दे और न सागारिक के परिसागारियरस पूया वेज्जा, तम्हा दायए, नो से कप्पह जन दें किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो भी साध को लेना पडिग्गाहित्तए। नहीं कल्पता है। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए, चेइए पाहुडियाए, सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को भेंट देने के उद्देश्य से सागारियस्स उवगरणजाए निदिए निसठे अपाबिहारिए। जो आहार अपने उपकरणों में बनवाया है और उन्हें अप्रातिहारिक दिया है। तं सागारिओ देश, सागारिअस परिजको वेइ । तम्हा वावए, यदि उस आहार में से सागारिक या उसके परिजन दें तो नो से कप्पा पडिग्गाहितए । साधु को लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए-चेइए पाहुडियाए, सागारिक ने अपने पूज्य पुरुषों को भेंट देने के लिए जो सागारियस्स उबगरणजाए णिदिए, निसट्टे, अपारिहारिए। आहार अपने उपकरणों में बनवाया है और उन्हें अप्रातिहारिक दिया है। तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस परिजगो वो, सागा- उस आहार में से न सागारिक दे और न सागारिक के रियरस पूया देइ, तम्हा दावए, एवं से कप्पड़ पडिगाहेस्सए। परिजन दें किन्तु सागारिक के पूज्य पुरुष दें तो लेना कल्पता है। -कृप्प, उ. २, सु. २५.२८ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२] चरणानुयोग साल्यातर के भागन्तुक निमित्तक आहार के प्रहण का विधि-निषेध सूत्र ५२-५४ सागारिय-आगंतुग-निमित्त-आहारगहणस्स विहि- शय्यातर के आगन्तुक निमित्तक आहार के ग्रहप का णिसेहो विधि-निषेध५२. सागारियस्स आएसे अन्तोषगडाए मुंजइ, निट्ठिए, निसठे, ५१. तम्यातर के यहाँ कोई आगन्तुक के लिये बर के भीतरी पाडिहारिए. तम्हा दावए, नो से कप्पद पडिगाहेत्तए। विमाग में आहार बनाया गया है उन्हें खाने के लिए प्रातिहारिक रूप से दिया गया है । उस आहार में से वे आगन्तुक दें तो साधु को लेना नहीं करूपता है। सागारियस्स आएसे बतोबगडाए भंजद, निट्ठिए निसट्टे शय्यातर के यहाँ कोई आगन्तुक के लिये घर के भीतरी अपाडिहारिए तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। विभाग में आहार बनाया गया है उन्हें खाने के लिये अप्राति हारिक रूप से दिया गया है उस आहार में से थे आगन्तुक तो साधु को लेना कल्पता है। सागारियस्स आएसे बाहिं यगडाए मुंजइ निदिए निसढे शाय्यातर के यहाँ कोई आगन्तुक के लिये घर के बाह्य भाग पाडिहारिए तम्हा दाबए, नो से कप्पइ पटिगाहेत्तए। में आहार बनाया गया है व उन्हें खाने के लिए प्रातिहारिक रूप से दिया गया है उस आहार में से वे आगन्तुक को दें तो साधु की सेना नहीं करता है। सागारियस्स आएसे बाहिं वगडाए मुंजइ निदिए निसठे शय्यातर के यहां कोई आगन्तुक के लिये घर के बाह्म भाग अपारिहारिए तम्हा दाधए, एवं से चप्पद पडिग्गाहेत्तए। में आहार बनाया गया है व उन्हें खाने के लिए अपातिहारिक ---वव. उ. ९. सु. १-४ रूप से दिया गया है, उस आहार में से वे आगन्तुक दें तो साधु को लेना कल्पता है। सागारिय-दासाह-निमित्त आहार-गहणस्त विहि- शय्यातर के दासादि निनित्तक आहार के ग्रहण का णिसेहो विधि-निषेध५३. सामारियस्स दासे वा, वेसे वा, भपए वा, भइभए वा अंतो ५३. गागारिक के दास, प्रेव्य, भूतक और मौकर के लिए आहार वगडाए मुंजइ, निट्ठिए, निसट्टे, पाहिारिए, तम्हा दावए, बना है व उसे प्रातिहारिक दिया है वह उसके घर के भीतरी नो से कप्पद पडिग्याहेत्तए। भाग में जीमत है उस आहार में से निबन्ध-नियंन्क्ष्यिों को दे लो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स दासे वा, पेसे वा, मथए वा, भलए वा अंतरे सागारिक के दास, प्रेष्य, मृतक और नौकर के लिए आहार वगडाए मुंजइ, निट्टिए, निसट्टे, अपाडिहारिए, तम्हा बना है व उसे अप्रानिहारिक दे दिया है वह घर के भीतरी दावए, एवं से कप्पद पांडग्याहेत्तए। भाग में जीमता है, उस आहार में से दे तो साधु को लेना काल्पता है। सागारियल्स दासे था, पैसे वा, भप्रए या भइमए वा बाहिं सामारिक के दास, प्रेष्य, 'भूतक और नौकर के लिए आहार हाडाए मुंजद, निटुिए, निसट्ठे, पाउिहारिए, तम्हा दाबए, बना है व उसे पातिहारिक दे दिया है। वह घर के बाय भाग नो से कम्पई पडिग्याहेसए। में जीमता है। उस आहार में मे स्थि -नियंन्धियों को दे तो उन्हें लेना नहीं कलगता है। सागारियस्स दासे बा, पेसे वा, भयए वा भवभए वा बाहिं सागरिक के दास, प्रेष्य, भूतक और नौकर के लिए वगाए भंजद, निट्टिए, निसट्टे, अपाडिहारिए, तम्हा सागारिक के घर पर बाहार बना है व उसे अप्रातिहारिक दे दिया दाबए एवं से कप्पड़ पडिग्गाहेत्तए। है। वह घर के बाह्य भाग में जीमता है। उस आहार में से दे -चव. उ. ६. सु. ५-६ तो साधु को लेना कल्पता है। सागारियोपजीवी-णायगाणं आहार गहणस्स णिसेहो- शय्यातर के उपजीवी शातिजन निमित्तक आहार के ग्रहण का निषेध५४. सागारियस नायए सिया सागारिपस्स एगवगवाए अंतो ५४. सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के घर में सागारिक एगपयाए सागारियं धोवजीवद, तम्हा दायए, नो से पद के एक ही चूल्हे पर सागारिक को ही सामग्री से आहार निष्पन्न Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४.५५ शध्यातर के सोरवालो के पदार्यों को ग्रहण करने का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६२३ पडिग्गाहेत्तए । नार जीवन निर्वाह करता है। यदि उस आहार में से निर्ग्रन्थ निग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं करपता है। सागारियस्सणायए सिया सापारियस एगवगडाए अंतो सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के घर में हो सामासागारियस अमिनिपयाए नागारियं चोयजीबइ, तम्हा रिक के चूल्हे से भिन्न" चूल्हे पर सागरिक की ही सामग्री से शवए, नो से कम्पइ पडिग्याहेत्तए। माहारादि निष्पन कर जीवन निर्वाह करता है। यदि उम आहार में से निर्गन्ध-निर्गन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्सणायए सिया सागारियस्स एगवगवाए बाहि सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के घर में बाह्य विभाग सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा वावर, में सागारिक के ही चूल्हे पर मागारिक की ही सामग्री से आहार नो से कप्पद पडिग्गाहेत्तए। निष्पन्न कर उससे जीवन निर्वाह करता है । यदि उस आहार में से निर्ग्रन्च-निर्गनियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है । सागारियस्सणायए सिया सागारियस्स एगवयाए बाहि सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के घर के बाह्य सागासागारियरस अभिनिपयाए सागारिय चोयजीवइ, तम्हा रिक के चूल्हे से भिन्न चल्हे पर सागरिक की ही सामग्री से वायए, नो से कप्पइ पडिग्गाहसए । आहार निप्पन कर जीवन निर्वाह करता है। यदि उस आहार में से निग्रंथा-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है . सागारिकस्सणायए सिया सागारियस्स अमिनिथ्वगाए एम- सागारिक का स्थगन यदि सागारिक के घर के भिन्न गह युवाराए एगमिक्खमण-पवेसाए अंतो सागारियरस एगपयाए विभाग में तथा एक लिफमण-प्रवेश द्वार वाले गृह में सागारिक सागारियं चोवजीवह, सम्हा दावए, नो से पप्पइ पहिग्गा- के ही चूल्हे पर सागारिक की ही मामग्री से. आहार निष्पन कर जीवन निर्वाह करता है । मदि उस आहार में से निर्ग्रन्थ-निग्रंथियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्सणायए सिया सागारियस्स अमिनिस्वगाए एगल सावारिक का स्वजन यदि सागारिका के घर के भिन्न गृह निक्खमण-पसाए अंतो सागारियरस अभिनिपयाए सागारियं विभाग में तथा एक निष्क्रमण-प्रवेश-द्वार वाले गुह में सागारिक चोवजीवइ, तम्हा बाबए, नो से कप्पद पडिगाहेताए । के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री में आहार निप्पन कर जीवन निर्वाह करता है। यदि उस आहार में से निर्गन्य-निग्रंथियों को दे तो उन्हें लेना नही कल्पता है। सागारियरसणायए सिया सामारियस्स अभिनिश्वगढाए एग- सांगारिक का स्वजन यदि सानारिक के गह से भिन्न ग्रह बुवाराए एगनिवखमण-पवेसाए बाहि सागारियस्स एगपयाए विभाग में तथा एक निष्क्रमण-प्रवेश-द्वार वाले गृह के बाह्म माग सागारियं चोयजीवा, तम्हा दावए, नो से कप्पड पजिग्गा- में सागारिक के चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री में आहार हेलए। निष्पन्न कर जीवन निर्वाह करता है। यदि उस आहार में से नियन्त्र-निग्रंकियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है । सागारियस्सणायए सियर सागारियस्स मभिनिव्यगाए एग- सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के गृह से भिन्न गृह दुबाराए एगनिक्खमण-पसार, बहि मागारियरस अभिनिप- विभाग में तथा एक निष्कमण-प्रवेशद्वार वाले गृह के बाह्य भाग याए सागारियं चोवजीवर, तम्हा दावए, नो से कप्पइ में सागारिक के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री पडिग्गाहे तए। -बचउ. ६, सु. E-१६ से आहार निष्पन्न कर जीवन निर्वाह करता है। यदि उस आहार में से निग्रन्थ-निधियों को देता है तो उन्हें जेमा नहीं कल्पता है। सागारिय साहारण पिंड गहणस्स विहि-णिसेहो- शय्यातर के सीरवाली के पदार्थों को ग्रहण करने का विधि-निषेध५५. सागारियस्स चक्कियासाला साहारण बक्कयपउत्ता, तम्हा ५५. सागारिक के सीरवाली चक्रिकापाला लेल की दुकान! - - Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४] चरणानुयोग शध्यातर के सीर वालो के पदार्थों को ग्रहण करने का विधि निषेध सूत्र ५५ दावए, मो से कम्पड़ पडिग्गाहेत्तए। में रो सागारिक वा साझीदार निमन्व-निन्थियों को तेल देता है तो चाहें लेना नहीं कल्पता है । सागारियल्स चक्कियासाला निस्साहारण-श्वकप-पउत्सा सागारिक के सीर बानी वक्रिकाशाला (तेल की दुकान) में तम्हा दाबए, एवं से कप्पइ पडिमगाहेत्तए। से सागारिक का माझीदार सागारिक के बिनासीर का तेल देता है तो साधु को लेना कल्पता है। सागारियस्स गोलियसासा साहारण वक्कयपउत्ता, तम्हा सागारिक की सीर वाली गुड़ की दुकान में से सागारिक का दावए, नो से कम्पह पडिग्गाहेतए। साझीदार निप्रन्थ-निर्गन्थियों को गुड़ देता है तो उन्हें लेना नहीं करूपता है। सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारण बक्कयतत्ता, तम्हा सागारिक की सौर वाली गुड़ की दुकान में से नागारिक नावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। का नाझीदार सागारिक के विना सीर का गुड़ देता है तो साधु को लेना कल्पता है। सागारियस्स बोधियसाला साहारण वाकयपउत्ता, सम्हा सगारिक की सीर बाली बोधियशाला (किराने की दुकान) दावए, नो से कप्पड़ पडिम्गाहेत्तए । में से सागारिक का साझीदार निग्रन्थ-निर्गन्धियों को किराणे की वस्तु देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स बोधियसाला निस्साहारण वक्फयपउत्ता, तम्हा सागारिक की मीर वाली योधियशाला (किराणे की दुमान) राषए, एवं से कप्पह पडिग्गाहेत्तए। में से सागारिक का साझीदार बिना मीर की फिराणे की वस्तु देता है तो उन्हें लेना कल्पता है . सागारियल्स बोसियसाला साहारण बक्कयउत्ता, तम्हा सागारिक की सीर बालो दोरियाशाला (कपड़े की दुकान) बावए, नो से कप्पइ पजिग्गाहेत्तए। में से सागारिक का साझीदार विन्य-निग्रंथियों को वस्त्र देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारण वक्फयपउत्ता, तम्हा सागारिक की सीर वाली दोसि यशाला (कपड़े की दुकान। वाए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। में से सागारिक का साझीदार सागरिक के बिना सौर का कपड़ा देता तो साधु को लेना रूल्पता है । सागारियरस सोसियसाला साहारण चक्कयपउत्ता, सम्हा सागारिक की सौर वाली सूत की दुकान में से सागारिक शवए, नो से कप्पद पनिगाहेत्तए। का साझीदार निन्ध-निग्रन्थियों को सूत देता है तो उन्हें लेना नह कल्पता है। सागारियरस सोसियसाला निस्साहारण यक्फयपउत्ता, सम्हा सागारिक की सीर बाली सूत की दुकान में से सागारिक दाबए, एवं से कप्पई पडिग्गाहेत्तए। का साक्षीदार सगारिक के बिना सीर का सूत देता है तो साध वो लेना कल्पता है। सागारियस्स बोडियसाला साहारण बक्कयपउत्ता, तम्हा रागारिक के सीर वाली बोंडियशाला (सई की दुकान) में से वायए, नो से कप्पद पडिग्गाहेतए। सागारिक का साझीदार नियन्थ-निय स्थियों को हई देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियरस बोडियसाला निस्साहारण चक्कयपत्ता, तम्हा सागारिक की गीर वाली रुई की दुकान में से सागारिक का दावए, एवं से कप्पई पाउरगाहेत्तए । साप्तीदार सागारिक के बिना सीर की गई देता है, तो लेना कल्पता है। सागारियस्स गन्धियसाला साहारण वक्कपपजता, तम्हा सागारिक के सोर वाली गन्धियशाला में से सागारिक का दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए । साझीदार निग्रन्थ-नियन्धिवों को सुगन्धित पदार्थ देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - -- सूत्र ५६-६१ शय्यातर के सीरवाली भोजन सामग्री के ग्रहण का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६२५ -- सागारियस्स गंधिषसाला निस्साहारण धक्कयपउसा, तम्हा सागारिक के सीर वाली गन्धियशाला में से मागारिक का दादए. एवं से कम्पइ पडिम्गादत्तए। सासदार सागा। रक के बिना सोर का सुगन्धित प्रदार्थ देता है, -वद. न. ६. सु. १५-३० तो साधु को लेना कल्पता है। सागारिय साहारण ओसहि गहणस्स विहि-णिसेहो- शय्यातर के सीरवाली भोजन सामग्री के ग्रहण का विधि निषेध५६. सामारियरस ओसहीओ संथडाओ, तम्हा दायए, नो से ५६. सागारिक के सीर वाली औषधियों (खाद्य सामग्नी) में से कम्प परिग्गाहेत्तए। यदि कोई निर्ग्रन्थ-निर्गस्थियों को देता है तो लेना नहीं - सागारियस्स ओसहीओ असंभडाओ, तम्गा दावए, एवं से सागारिक से बँटवार में प्राप्त खाद्य सामग्री में से कोई देता कपद पडिग्गाहेत्तए । -त्र, द. ६, सु. ३३-३४ है तो साधु को लेना कल्पता है । सागारिय साहारण अंब-फल गणस्स विहि-णिसेहो- माम्यातर के सीरबाली के आम्र फल ग्रहण करने का विधि-निषेध- . ५७. सागारियम्स अम्बफला संथडाओ, तम्हा दायर, नों से ५७. नागारिक के मीरबाले जान्न आदि फलों में से यदि कोई कम्पद पडिगाहेत्तए। निग्रन्थ-निग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। सागारियस्स अम्बफला असंयडा, तम्हा दावए, एवं से कम्पइ गागारिक से बंटवारे में प्राप्त आम्र आदि फल यदि कोई पडिगाहे लए। यव. उ. ६, गु ३५-३६ निर्गस्य-निग्नं श्रियों को देता है तो उन्हें लेना कल्पता है। सागारियपिंड मुंजमाणस्स पायच्छित्त सुतं सागारिक का आहार भोगने का प्रायश्चित्त सूत्र५८. जे भिक्खू सागारिम-पिडं भुजा, भुजंतं वा साइज्जा। ५६ जो भिक्षु सागारिक के पिष्ड को भोगता है, भोगवाता है या भोगने काने का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आबज्जई मासिय परिहारहाणं उम्घाइयं । उसे मासिक उद्घात्तिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) भाता है। -नि.उ.२, सु. ४६ सागारियपिड गिण्हमाणस्स पायपिछत्त सुतं- सागारिक का आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र५६. जे भिक्ष सागारिय-पिण्ड गिण्हड, गिण्हतं वा साइज्जइ। ५६. जो भिक्षु शय्यातर के आहार को ग्रहण करता है, करवाता . . है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह भासिय परिहारदाणं उग्धाइयं । उसे मासिका उदघातिक परिहारस्थान (पायश्चित्त) आता है। -नि. उ. २, सु.४५ सागारियकूल अजाणिय भिक्खा-गमणपायच्छित शय्यातर का घर जाने बिना भिक्षा गमन का प्रायश्चित्त' सुसं-- ६०. जे भिक्खू सागारिय-कुलं अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय, ६.. जो भिक्षु सागारिका के गृह को जाने विना, पूछे बिना और पुष्यामेव पिण्डवायपडियाए अणुपविसइ, अणुप्पविसतं या गवेषणा किये बिना आहार के लिए प्रवेश करता है, प्रवेश करसाइज्जइ। वाता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवस्जद मासिय परिहारट्टाणं उग्धाइय। उसे मासिक उघातिक परिहारस्मान (प्रायश्चित्त) आता है। ---नि. उ.२. सु. ४८ सापारियणिस्साए असणाइ जायमाणस्स पायच्छित सागारिक की निश्रा में अशनादि की याचना का प्राय श्चित्त सूत्र--- ६१. जे मिक्सू सागारिय णिस्साए अस वा पाणं वा छाइम वा ६१. जो भिक्षु सानारिक की निना में (दूसरे घर से) अशन, सुतं Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६] घरगानुयोम भोगणपाणी सूचक आगम पाठ www साइमं वा ओभासिय अोभासिय जायड, जायंतं वा पान, सादिम, स्वादिम आहार की याचना करता है, करवाता साहज्जा। है या याचना करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जा मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) बता है। -नि.उ. २, सु. ४६ पाणषणा-२ प्राक्कथन--- आगमों में अनेक प्रकार के अचित एवं एषणीय पामी लेने के विधान है। सचित्त एवं अनेषणीय पानी सेने का निषेध है। पानी दो प्रकार के होते हैं-(१) लेने योग्य पानी, (२) न लेने योग्य पानी। (१) लेने योग्य पानी के १० नाम हैं - -आ. सु. २, अ. १, उ. ७. सु. ३६६-३७० दश. भ. ५, उ. १, मा. १०६ (२) न लेने योग्य पानी के १२ नाम हैं -आ. सु. २. ब. १. उ. ८, सु. ३७३ लेने योग्य पानी के आगम पाठ में और न लेने योग्य पानी के बागम पाठ में निश्चित संख्या भूचित नहीं है। लेने योग्य पानी के आगम पाठ में अन्य भी ऐसे लेने योग्य पानी लेने का विधान है। इसी प्रकार न लेने योग्य पानी के आयम पाठ में अन्य भी ऐसे न खेने योग्य पानी लेने का निषेध है।। पानी शस्त्र परिणत होने पर भी तत्काल अचित नहीं होता है, अतः वह सेने योग्य नहीं है। वही पानी कुछ समय बाद अचित्त होने पर लेने योग्य हो जाता है। फल आदि धोये हुए अचित्त पानी में याद बीज गुठनी आदि हों तो ऐसा नान छान करके दे तो भी वह लेने योग्य नहीं है ! धोवणपाणी सूचक आगम पाठ (१) दशवकालिक अ. ५, उ. १, गा.१०६ में तीन प्रकार के प्रोवन पानी लेने योग्य कहे हैं। इनमें दो धोवन पानी आचारांग सु. २, अ. १, उ. ७. सू. ३६६ के अनुसार कहे गये हैं और एफ, "वार धोयण" अधिक है। (२) उत्तराध्ययन अ.१५, गा. १३ में तीन प्रकार के धोवन कहे गये हैं। इन तीनों का कथन आ.सु २, अ.१, उ.७ सू. ३६६-३७० में है। (३) आचारांग सु. २, अ.१, उ,, मू. ३७० में अल्पकाल का धोषन लेने का निषेध है, अधिक काल का बना हवा धोवन लेने का विधान है । तथा गृहस्य के कहने पर स्वतः लेने का विधान है। (४) आ. सु. २, अ. 1, उ.. सु. ३७३ में अनेक प्रकार के धोवन पानी का कथन है। इनमें बीप, गुठली आदि हो तो ऐसे पानी को छान करके देने पर भी लेने का निफ्ध है। (५) निशीथ उ. १७, मू. १३२ में अल्पकाल का धोवन लेने पर प्रायश्चित्त विधान है। अधिक काल का होवन मेने पर प्रायश्चित्त नहीं है । यहाँ ग्यारह बाह्य पानी के नाम है। () ठाणं. अ. ३, उ. ३, सू. १८८ में पउत्य, छ?, अट्ठम तप में ३-३ प्रकार के ग्राह्य पानी का विधान है । इन नव का कथन आ. सु. २, अ. १, उ. ७, मू. २६६-७० में है। (७) दशवकालिका अ. ८, गा. ६ में उष्णोदक ग्रहण करने का विधान है। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्रकार के प्रार पोरन पानी चारित्राचार : एवमा समिति ६२७ EPAL आचारांग व निशीथ में वर्णित “सुद्ध विय" इससे भिन्न है क्योंकि तत्काल बने शुद्ध वियह ग्रहण करने का शयश्चित्त कहा गया है अत: उसे अचित्त शीतल जल ही समझना चाहिये। आगमों में वणित माझ अग्राह्य धौवन पानी के संक्षिप्त बयं इस प्रकार हैं११ प्रकार के ग्राह्य धोवन पानी - (१) उरसेदिम आटे से लिप्ल हाथ या वर्तन का घोषण। (२) संस्थेविम उबाले हुए तिल, पत्र-शाक आदि का धोया हुआ जल । (३) तन्दुलोदक -चावलों का धोषण । (४) तिलोचक-तिलों का शोषण ! (५) सुनोदक -भूसी का घोदण । (६) जबोदक-जो का धोवन । (७) आयाम–अवश्रावण-उबाले हुए चावलों का पानी-मांड आदि । (क) सौवीर-कांजी का जल । (e) शुख विकट हड बहेडा आदि से प्रासुका बनाया जल । (१०) वारोचक-गुड़ आदि के घड़े आदि का धोया जल । (११) थाम्ल काजिक-बट्टे पदार्थों का धोवण । १२ प्रकार के अग्राह्य धोवण पानी (१) आम्रोवक-आम्र होया हुआ पानी। (२) अम्बालोदक-आम्रातक (फल वियेष) धोया हुआ पानी । (३) कपिस्थोवक-केय या कविठ का धोवन । (४) बीजपूरोदक-बिजोरे का श्रोया हुआ पाना । (५) प्रामोवक-दाख का धोवन । (६) दारिमोवक-अनार का धोया हुआ पाती। (७) खजूरोदक-खजूर का धोया हुआ पानी । (6) नालिकेरोदक-मारियल का धोया हुआ पानी । (8) करीरोयक-कर का धोया हुआ पानी। (१०) यविरोवक-वेरों का धोवन पानी। (११) आमलोवक-आंवले का धोग जल । (१२) चिंचोचक-इमली का धोया जल । इनके सिवाय गर्म जल भी ग्राह्य कहा गया है। फासुग पाणग गहणविही अचित्त जल ग्रहण विधि६२. से भिमसू वा मिक्खूगी वा गाहावइकुस पिण्डवायपटियाए ६२. गहस्य के महा गोचरी के लिए प्रविष्ट विक्ष या भिमणी अणुपविठे समाणे से उजं पुण पाणगजायं जागेमा,तं अगर इस प्रकार का पानी जाने, जैसे कि - - - Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५] वरणानुयोग लान निम्रन्थ के लिए कल्पनीय विकट दसियां सूत्र ६२-६३ १. सिलोदगं वा, २. तुसाद या, (१) तिलों क (धोया हुआ) पनी. (२) सुषोदक, (३) यबो३. जवोदगं बा, ४, आयाम वा, दक, (४) उबले हुए चावली का ओसामण (म"ड), (५) काजी ५. सोवीरं वा, ६. सुद्धबियर का का जल, (६) प्रासुक शेतल जल अथवा अन्य भी इसी प्रकार अन्णतरं वा, तपगार पाणगजायं पुत्वामेव आलोएन्जा -- का धोया हुआ पानी (धोबन) है, उस देखकर पहले ही साधु गृहस्थ मे कहे - प. -"आउसो सि वा ! ममिणि ति वा ! दाहिसि मे प्र. -"आयुष्मान् ! गृहस्थ या बहन ! क्या मुझे इन जलों एतो अण्णतरं पाणगजाय ?" (धोवन पानी) में से कोई जल दोगे?" से सेवं यदंतं परो बवेज्जा साधु के इस प्रकार कहने पर वह गृहस्प यदि कहे विउ.-"उसंतो समणा! तुम घेवेदं पाणगजायं पडिग्ग- उ०-'आयुष्मन् श्रमण ! जल पात्र में रखे हुए पानी को हेण वा, उस्सिच्चियाण ओयत्तियाणं वा मिहाहि ।" आप स्वयं अपने पाप से भरकर या जल के बर्तन को टेढ़ा कर तहप्पगार पाणगजाय सयं वा गेण्हेन्जा, ले लीजिए।" गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साध, उस पानी .. .को स्वयं ले ले। परो वा से बेज्जा, फास्य-जाव-पडिगाहेज्जा। अथवा गृहस्थ स्वयं देता हो ते उसे प्रासुफ जान कर -~आ. सु. २, अ. १, उ. ७, सु. ३७० -यावत्-ग्रहण कर ले। गिलाण णियंठस्स कप्पणिओ वियडवत्तीओ- .. ग्लान निर्घन्य के लिए कल्पनीय विकट दत्तियाँ६३. णिग्गंधस्स णं गिलायमाणस्स कप्पति तो विपडदत्तीओ ६३. लान (रुग्ण) निन्य साधु को तीन प्रकार को दत्तियां पडिमाहितए, तं जहा-- लेनी कला हैउक्कोसा, (१) उत्कृष्ट दत्ति-पर्याप्त जल ना कस्मी चावल की कांजी। मक्सिमा, (२) मध्यम दत्ति-अनेक बार किन्तु अपर्याप्त जल और साठी चावल की कांजी। जहरणा। (३) जघन्य इत्ति-एक बार पी सके उतना जरा, तृग धान्य -ठाण. अ. ३, उ. ३. सु. १८० की कांजी या उष्ण जस । १ (क) यहाँ ये तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ख) छटुभत्तितस्स गं भिक्खुस्रा कप्पति तओ पाणगाइ पलिंगाहेत्तए तं जहा-तिलोदए, तुसदए, जबोदए । -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८६ आचारांग की अपेक्षा यह विशेष सूत्र है। (ग) दासावासं पज्जोसबियस छट्टभलियस्स भिक्स्स्स कम्पति तओ पाणगाई पडिग्गा हितए तं जहा-तिलोदगं, तुसोदर्ग, जवोदर्ग। -दसा. द. ८, मु. ३२ स्थानांग की अपेक्षा यह विशेष मूत्र है। २ (क) यहाँ ये तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ख) अट्ठमभत्तियस्स गंभिक्षुस्स कृप्पंति तओ पापगाई पडिगाहेत्तए, तं जहा-आयामए, सोबोरए. सुखवियडे। -ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. १८८ आचारांग की अपेक्षा यह विशेष विधान है। (ग) वासावास पज्जोसवियस्स स्टुमभत्तियस्स भिक्खुस्स कापति तो पाणगाई पहिनाहित्तए त जहा-आयाम, सोवीर, सुखवियर्ड। -दसा. द. ८, सु. ३२ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४.६५ अप्रामुक पानी लेने का निषेध धारित्राचार : एषणा समिति [६२६ अफासुग पागंग गहण णिसेहो अप्रासुक पानी लेने का निषेध६४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबइकुलं पिंडवायडियाए ६८. गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुगी अणुपवि? समाणे से ज्ज पुण पाणगजाय जाणेरजा- यदि पानी के विषय में यह जाने कि- गृहत्य ने प्रासुक जल को अर्णत रहियाए पुरवोए-जाव-मफडा-संलाणए ओहद् सचित्त पृथ्वी के निकट - पावत् --मकड़ी के जालों से युक्त स्थान णिक्विते सिया। पर रखा है। अस्संजते भिक्षुपडियाए उदउल्लेण वा, ससणिलंग वा. अथवा अईयत गृहस्थ भिक्षु को देने के उद्देश्य से सचित्त सकमाएष वा मसेण, सीतोदएण वा संभोएत्ता, आहट्ट जल से गीला अथवा स्निग्ध या सवित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन बलएम्जा। तहप्पणारं पाणगजाचं अफामयं-जावणो पडिगा- से लाए या प्रासुफ जल के साथ सचित्त उदक मिलाकर लाकर हेज्जा आ. सु. २. अ० १. उ०७, सु० ३७१ दे तो उस प्रकार के जल को अप्रासुक रानकर-पावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावद कुलं पिण्डवायपडियाए गृहस्थ के घर में गोचरी के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अणुपविट्ठ समाणे से जं पुण पाणगजाय जाणेउजा, तं यदि इस प्रकार का पानी जाने, जैसे कि ७. अंबपाणग वा, ८. अंबाडगपाणगं वा, (७) आम्रफल का पानी, (८) अम्बाहर फल का पानी, ६. कविट्ठपाणगं वा १०. माडलिंगपाणगं वा, (६) कपित्थ फल का पानी, (१०) बिजीरे का पानी, ११. मुहियापाणगं वा, १२. वासिमपाणगं वा, (११) द्राक्ष का पानी, (१२) दाडिम का पानी, १३. खजूरपाणगं वा, १४. णालिएरयाणगंदा, (१३) खजूर का पानी, (१४) नारियल का पानी, १५. करीरपाणगं था, १६. कोलपाणगं वा, . (१५) करीर (कर) का पानी, (१६) बेर का पानी, १७. आमलगपाणगं था, १५. चिचापाण वा, (१७) आंवले के फल का पानी, (१८) इमली का पानी, अण्णतर वा तहप्पणारं पाणगजायं सदियं, सफणु, इसी प्रकार का अन्य पानी, जो कि गुठली सहित छिलके सबीयगं, अस्संजए भिक्षुपरिवाए छक्वेण वा, सेण या, आदि अवयव सहित य. बीज सहित है और गृहस्थ साधु के बालगेण था, आबोलियाण वा परिपीलियाण वा, परिस्साइ- निमित्त बाँस की छबजी से वस्त्र से छलनी से एक बार या बारयाण वा. आहट्ट बलएज्जा । तहप्पगारं पाणग्रजायं अफा- बार छानकर या नितारकर (उसमें रहे हुए बीज, गुठली आदि सुयं-जाव-गो एडिमाहेजा । अपयव को अलग करके लाकर देने लगे तो इस प्रकार के जल -आ. सु. २, अ. १, उ. ८. सु. ३७३ को अप्राक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे। सहसा दत्त सचित्तोदय परिवण विही असावधानी से दिए हुए सचित्त जल के परटने की विधि६५. से मिक्खू बा भिक्खूणी वा गाहावइकुल पिण्डवायपडियाए ६५, भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए गमे हों अणुपबिटु समाणे-सिया से परो आहटु अंतो पडिग्गहंसि और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में अन्य बर्तन से सचित्त सीमोरगं परिभाएता गोहद क्लएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं जल निकाल कर लावे और देने लगे तो साधु उस प्रकार के परहत्यसि बा, परपायत्ति वा अफासुयं-जाव-यो पडिगा- पर-हस्तगत एवं पर-पात्रगत सचित्त जल को अप्रासुक जानकर हेज्जा । -यात्रत्- ग्रहण न करे। से य आहज्च पडिमाहिए लिया, खिप्पामेव उदगंसि साह- कदाचित् असावधानी से बह जल ले लिया हो तो शीत्र रेजा, सपडिगहमायाए वा, पाणं परिटुवेज्जा ससणिवाए दाता के जन-पात्र में उडेल दे । यदि गृहस्थ उस पानी को वापस वा भूमिए णियमेग्जा। न ले तो जलयुक्त पात्र को लेकर परठ दे या किसी गीली भूमि में उस जल को विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। (उस जल के गोले गार को एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे।) Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० योग से भिक्खू या, भिक्खुणी वा जबउल्लं वा सद्धि मा पहिं णो आमनेज्ज वा जान पयावेज वा । अह पुष एवं जाणेज्जा - विगोद मे परिग्गहे छिण्ण-सिणे हे मे पाहे तपगारं पडिगहं ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव या वेज्ज वा । सरस निरस पानी में समभाव का विधान -आ. सु. २, अ. ६, उ. २, सु. ६०३, ६०४ सकता है । - जो कि वा परिवेज्जा । सरस थिरस पाणणे समभाव विहाणं ६६. वाणी या वाहाकुलं विण्डवाडिया अणुपवि समाणे --- अण्णतरं वा पाणगजायं परिग्राहसा पुष्कं पुष्कं आविद्दत्ता कसा कसायं परिहवे माइट्ठामं संफासे । गो एवं करेज्जा । एसिया सम्मे - मा. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३६५ नहीं डालना चाहिए। पागगस्स ग्रहण विहाणं जिसे च१७. सोना सिलाय हिमाणि व सिगोमं ततफासूयं पचिणाम संजए । इस 'अ' ८ गा. ६ सायं पार्थ यदुवा बारी संचालो अगाधो वियन्जए ॥ णं आणेण विराधोयं मईए दंसणेण वा । vegच्छिऊणं सोचा वा, जं व निस्संकियं भवे ॥ अजीवं परिणयं गन्धा, पहिगाहेज्ज संजए । अह संकियं मजला, आसाइलाण रोयए || योमासावणट्टाए, हत्यगम्मि बलाहि मे । मा मे अविलं पूर्व नात विलिए॥ . अनाहं विि देतियं पडियाइक्ले, न मे कप्पड तारिसं ॥ भिक्षु याभिसने आई और स्निग्ध पाप को न तो एक बार साफ करे- यावत् न ही धूप में सुखाए । किन्तु जब यह जान ले कि मेरा पात्र अब जल रहित हो गया है और स्नेह रहित हो गया है, तब उस प्रकार के पात्र को यतापूर्वक गाफ कर सकता है यावत्- धूप सुखा में - होम अकामेणं, विमणेन परिि अध्पणा न पिये, नो वि अन्नस्स बाए ॥ एनमित्ता मति विलेहिमा | जयं परिटुवेज्जा, परिप्प पक्किमे || ५, उ. १, गा. १०६-११२ -दस ६६-६७ सरस निरस पानी में समभाव का विधान ६६. गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए गये हुए भिक्षु या भि यथाप्राप्त जल लेकर मधुर पानी को पीकर और कसैला पानी को परठ दे तो वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं । ऐसा नहीं करना चाहिए । वर्ण गन्धयुक्त अच्छा या कसैला जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर पानी हम करने के विवान और निषेध ६७. संयमी शीतोदक, ओले, बरसात के जल और हिम का सेवन न करे । तप्त गर्म जल प्रासुक हो गया हो वैसा ही जल ले । इसी प्रकार श्रेष्ठ अश्रेष्ठ अचित्त जल, गुड आदि के घड़े का घोवन, आटे का धोवन, चावल का धोवन, जो तत्काल बनाया हुआ हो, उसे मुनि न ले । अपनी मति से या देखने से तथा पूछकर उसका उत्तर सुनकर जान ले कि "यह धोक्न चिरकाल का है" और शंका रहित हो गया है। भिक्षु उस जल को जीव रहित और परिणत जानकर ग्रहण करे । किन्तु उसके उपयोगी होने में सन्देह हो तो चल कर निर्णय करे । --- दाता से कहे " चखने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दे दो क्योंकि बहुत खट्टा व दुर्गन्ध युक्त जल मेरी प्यास बुझाने में भी उपयोगी न होगा।" चने पर बहुत बड़ा अनुपयोगी हो तो देती हुई प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता । और प्यास बुझाने में प्रतिषेध करे इस यदि वह पानी अनिच्छा या अनावधानी से ले लिया गया हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुकों को दे । परन्तु एकान्त में जाकर अचित्त भूमि को देखकर यतनापूर्वक उसे परदे परठने के बाद स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी ग्रहण करने के विधान और निषेध चारित्राधार : एषणा समिति [६३१ से मिक्लू बा, भिक्खूणी वा गाहावाकुलं पिटवापपरियाए गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट भनु या भिक्षुणी अणुपविट्ठ समाणे से जं पुण पागगजाय जाणेज्जा- पानी के इन प्रकारों को जाने जैसे कि१६. उस्लेहम वा', २०. संसेइम का, २१, चाउलोवगं (१६) आटे का हाथ मा बर्तन धोया हुआ पानी, (२०) वा अण्णपर या तहप्पगार पाणगणापं अगायो, अणचिल, उबले हुए तिल भाजी आदि धोया हुआ पानी, (२१) चाधल अबुक्कतं, अपरिणयं, अविववत्य, अफासुर्य-जाव-गो धोया हुआ पानी अथवा अन्य भी इसी प्रकार का पानी जो कि पडिगाहेजा। तत्काल धोया हुआ हो, जिसका स्वाद परिवर्तित न हुआ हो, जिसमें जीव अतिक्रान्त न हुए हों, जो शस्त्र न परिणत हुआ हो, और सर्वथा जीव रहित नहीं हुआ हो तो ऐसे पानी को अप्रासुक जानकर यावत्-ग्रहण न करे। मह पुष एवं जाणेमा-चिराधोयं, अंबिल, बुक्स, किन्तु मदि यह जाने कि बहुत देर का धोया हुआ धोबन है. परिणयं, विश्वस्पं, फासुयं-जाव-पडिगाहेजा। इसका स्वाद बदल गया है, जीवों का अतिक्रमण हो गया है, शस्त्र -आ. सु. २, अ.१, उ. ७, सु. ३६६ परिणत हो गया है और सर्वथा जीव रहित हो गया है तो उस जल को प्रासुक जानकर यावत् ग्रहण करे। १ उत्स्वेदिम जल के सम्बन्ध में टीकाकारों के विभिन्न मत इस प्रकार हैं (क) उत्स्वेदेन निर्वतमुत्स्वेदिमं - येन ब्रीह्यादि पिष्टं सुराधर्य उत्स्वेद्यते। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८२ की टीका (ख) उस्सेइम वे ति-पिष्टोत्स्वेदनाथं मुदकम् । -आ. सु. २, न १, स. ७, सु. ४२ की टीका पृ. २३१ (ग) उस्सेइमे ति–पिष्टभृतहस्तादिक्षालनजले । - दसा. द. ८, सु. ३०को टीका (घ) उस्सेइम पाम जहर पिट्ठपुषका यभायणं आउकायस्म भरेत्ता मीसए अवहिज्जति सुहं से पत्थे] उहाष्टिजति ताहे पिट्ठपयणयं रोट्टस्स भरेता ताहे तीसे थालीए जलभरियाए उवरि ठविज्जति ताहे आहे छिद्देणं तं पि ओसिज्जति हेट्टा हुतं या उविज्जइ, तत्थ जं जाम उस्सेतिमाम भणति । –नि. उ. १५, सु. १२, भा. गा. ४७०६ की चूणि पृ. ४८४ २ संसेइम जल के सम्बन्ध में व्याख्याकारों के मत इस प्रकार है(क) संसेकन निवृत्तमिति संसे कमम् । अरणिकादि पत्रशाकमुत्काल्य येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति । ठाणं, अ. ३, उ. ३. सु. १६२ की टीका पत्र १४७ (ख) संसहमं वे ति-तिलधावनोदकम् । यदिवा-आरणिकादि संस्विन्नधावनोदकम् । -आचा. सु. २, अ. १, उ. , मु. ४१ की टीका पृष्ठ १४७ (ग) संसेइमे-पिष्टोदके। -दस. अ. ५, उ. १, गा. १०६ की टीका (घ) उसिणं (उष्ण पदार्थ) सीतोदगे शुभति त जं पुण उसिणं चेष उरि सीतोदग चेव तं संसहमं । अह्या संसदम-तिला उण्हं पाणिएणं सिण्णा जति सीतोदरेण धोति तं संसेतिमं मण्णति । -नि. उ. १७, सु. १३२, भा. गा. ३.६६६ पृ. १६५ (छ) संसेइमे-अरणिकासंस्विन्नधावनोदके । -दसा द. ८, सु.३० ३ (क) यहाँ तीन प्रकार के पानी लेने का सामान्य विधान है। (ब) चउत्यत्तियस्त णं भिक्खुस्स कप्पति तो पाणगाई पडिगाहित्तए. तं जहा–उस्तेइन, संसेइमे, चाउलोदगे (गाउनधोबणे)। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८८ चतुर्थ भक्त करने वाले श्रमण को ये तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं, अत: यह विशेष विधान है। (ग) बासावासं पज्जोसबियस चउत्पत्तियस्स भिक्खुस्न कप्पंति तमो पाणगाई पडियाहित्तए, तं जहा–उस्सेइम, संसेइमं पाउलोदगं । - दसा. द. ८, सु. ३० वर्षावास में रहे इए श्रमण को ये तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं अत: यह भी विशेष विधान है। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- .-- . .. ६३२] चरणानुयोग अनमोश जल परिण्ठापन का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र -१ अमणुष्ण पाणग परिट्ठवण पायच्छित्त सुतं अनमोज्ञ जस परिष्ठापन का प्रायश्चित्त सूत्र६८. जे भिक्खू अग्णयरं पाणगजाय पडिग्गाहिता पुष्फर्ग-पुप्फग ६८. जो भिक्षु अनेय प्रकार के पानकों को गृहस्थ के घर से आइयद, कसायं-कसायं परिवेड़ परिवार का साइजा। तार गर्ने न ल वी परेणा है और मनमोज्ञ जल को परठता है, परठवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवम्जइ मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. २, सु. ४३ अहणाधोयं पाणगं गहणस्स पायच्छित्तसुतं-- तत्काल धोये पानी को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र६६.जे मिक्स - ६६. जो भिक्षु१. उस्सेइमं वा, २. संसहमं था, (१) उत्स्वेदिम, (२) संस्वेदिम, ३. चाउलोदगं वा, ४. वारोवगं बा, (३) चावलोदक, (४) दारोदक, ५ तिलोदगं वा. ६. तुसोवगं चा, (५) तिलोदक, (६) तुषोदक, ७. जबोवगं वा, .. आयाम बा, (७) यवोदक, (८) ओसामण, ६. सोवीरं वा, १०. अंबजियं वा, (९) कात्री, (१०) आम्लकांजिक, ११. सुद्धवियर्ड वा (११) शुद्ध प्रामुक जल को, १. अहुणाधोयं, (१) जो तत्काल का धोया हो, २. अणहिलं, (२) जिसका रस बदला ग हो. ३. अपरिणयं, (१) शस्त्रपरिणत न हो, ४. अवक्कतं, (४) जीवों का अतिश्रमण न हुआ हो या, ५. अविद्वत्थं, (५) पूर्ण रूप से अचित्त न हुआ हो, पहिगाहेइ पडिग्गाहेंत बा साइज्जइ । ऐरो जल को ग्रहग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवन्जद चाउम्मासि परिहारट्टागं साधाइयं । उसे चातुर्मासिक सद्घातिक परिहारम्यान (प्रायश्चित्त -नि. ३.१७, सु. १३२ आता है। शय्यषणा-विधि-१ समणवसइ जोग्ग ठाणाई श्रमण के ठहरने योग्य स्थान७०. मुसाणे सुनगारे वा, रुक्समूले व एक्कयो । ७०. भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के मून' में अथवा परिकके परकडे वा, वासं तत्वभिरोयए । परकृत एकान्त स्थान में रहने की इच्छा करे। फासुर्याम्म अणाबाहे, हस्थीहि अगभिवयुए। परम सयत भिक्षु प्रामुक, अनादाध और स्त्रियों के उपद्रव तस्य संकप्पए बासं, भिक्खू परमसंजए॥ से रहित स्थन में रहने का संकल्प करे। -उत्त. अ. ३५, गा. ६-७ जवसयस्स जायणा उपाश्रय की याचना७१. से आगंतारेसु का, आरामागारेसु वा, गाहायतिकुलेसु था, ७१. साधु पथिकणालाओं, आरानगहों, गृहपति के घरों, परि परियावसहेसु वा, अणवीइ उबस्सयं जाएज्जा । जे तस्थ बारकों के मठों आदि को देख-जानकर और विचार करके फिर ईसरे, जे तस्थ समहिद्वाए, ते उबस्सयं मणुष्णवेज्जा । उपाश्रय की याचना करे। उस उपाश्रय के स्वामी को या समधिष्ठाता की आज्ञा मांगे और कहे Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाश्रम में प्रवेश-निष्क्रमम की विधि चारित्राचार : एषणा समिति [६॥ "काम खल आउसो ! अहाल अहापरिष्णाय असिस्सामो "आयुष्मन् : आपकी इच्छानुसार जितने काल तक निवास -जाव-आउसंतो, जाय-आउसंतस्स उबस्सए.-जात्र-साहम्पिया, करने की तुम आज्ञा दोगे उतने समय तक हम निवास करेंगे । एत्ता आव उपस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्तामा। यहां जितने समय तक आप आयुष्मन् को अनुज्ञा है उतनी अवधि - आ..., अ. २. स. न.:४५ जितने भी सामिक साधु आयेंगे, उनके लिए भी उतने क्षेत्र-काल की अवग्रह अनुज्ञा अदा करेंगे । वे भी उतने ही समय तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। उसके पश्चात् वे और हम विहार कर देंगे। उवस्सए पवेस-णिक्खमण विही-- उपाश्रय में प्रवेश निष्क्रमण की विधि७२. से मिबखू वा, भिवगी वा से ज्ज पुण उपस्सयं जाणेजा- ७२. वह भिक्ष या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा बुखियाओ, पुनारियाओ, नीयाओ, संगिरुवाओ है या छोटे द्वारों वाला है तथा नोचा है तथा अन्य श्रमण प्राह्माण मयंति, तहप्पगारे उचस्सए रानो वा, चियाले वा, णिक्य- आदि से अवरुद्ध है । इस प्रकार के उपाश्रम में (कदाचित् किसी ममाने या, पविसमार्ग या पुरा हत्येन पच्छा पाएण ततो कारणवश साधु को ठहरना पड़े तो) वह रात्रि में या विकाल में संजयामेव गिषखमेग्ज दा, परिसेल वा। भीतर से बाहर निकलता हुआ सा बाहर से भीतर प्रवेश करता हुआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैर से यतनापूर्वक निकले या प्रवेश करे। केवली या आयाणमेयं । केबली भगवान कहते हैं- अन्यथा) यह कर्मबन्ध का कारण है। जे तस्य समणाण वा, माहणाग था, छत्तए था, मत्तए वा, क्योंकि वहाँ पर शाक्य आदि श्रमणों के मा बाह्मणों के जो बंडए वा, लट्ठिया वा, भिसिया था, णालिया बा, चेले बा, छत्र, पात्र, दण्ड, लाठी, ऋषि-आसन दृषिका) नालिका (एक चिलिमिली वा, बम्भए वा, चम्मकोसए वा, चम्मच्छेदणए प्रकार की लम्बी लाठी या घटिका) वस्त्र, चिलिमिलि (मनिका, वा दुबो दुणिक्खित्ते अणिकपे चलाचले। पर्वा या मच्छरदानी) मृगचर्म, वर्मकोय या चर्म-छेदनक हों, वे अच्छी तरह से बँधे हुए नहीं हों, अस्तव्यस्त रखे हुए हों, अस्थिर हों, चनाचल हों (उनकी हानि होने का डर है)। भिक्खू य सतो या. बियाले या, निषखममाणे वा, पविस- भिक्षु रात्रि में या विकाल में अन्दर से बाहर या बाहर से माणे वा, पयलेन्ज वा, पवडेज्ज वा । ___ अन्दर (अयतना से) निकलता-घुसता हुआ अदि फिसले या गिर पड़े तो (उनके उक्त उपकरण टूट जायेंगे) से तत्व पयलमाणे वा, परमाणे षा, हत्यं वा, पायं या, (भयवा उसके फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ, पैर, बाहूं था, ऊस वा, उदरं वा, सीसं वा, अण्णयर श कार्यति भुजा, छाती, पेट, मिर, शरीर के कोई अंग या इन्द्रियों (अंगोइंपियजातं लूसेज्ज वा, पांगों) को चोट लग सकती है या वे टूट सकते हैं। पाणागि वा-जाव-सत्ताणि या अभिहणज्ज वा-पान-अवरो- अपवा प्राणी--यावत्-सत्वों का हनन हो जाएगा-पावत्वेज्जना। वे जीवन से भी रहित हो जायेंगे। अह भिवाणू णं पुष्योवविठ्ठा-जाव-एस उबएसे में तहप्पगारे इसलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही यह प्रतिज्ञा अवस्सए पुराहरण पच्छा पावेण सतो संजया मेव णित्रमेज्ज --यावत् - उपदेश दिया है कि इस प्रकार से (संकड़े छोटे और वा, पविसेज्ज वा। अन्धकारयुक्त) उपाश्रय में (रात को या विकाल में) पहले हाथ से -- आ. सु. २, ४. २. उ. ३, सु ४४.४ टटोल कर फिर पैर रखते हुए यतनापूर्वक भीतर से बाहर, बाहर से भीतर गमनागमन करना चाहिए । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४] चरणानुयोम हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में निर्धन्यों की वसतिवास मर्यादा हेमंत गिम्हासुग्ाणं बस वासमेश ७३. से गामंसि वा जाब- रायहा णिसि या सपरिक्लेवंस अनाहि रियंस, कल्प निग्धार्ण हेमन्त - गिम्हासु एवं मासं दत्यए । सेमं हामिति वा सरिक्लेविं रिनिभा हेमन्तमिम्हा दो मासे बाए अन्तो एवं माह एवं भा अम्सो वसमतणाणं अन्तो ममायरिय कृ. उ. १, सु. ६-७ -कृष्ण, उ. १. सु. कम्पनियांचा अधारिए उपर - कृष्ण. उ. १. सु. १६ कम्पe निगांचाणं, सागारिय- निस्साए वा अनिस्साए वा बथए । कृष्ण निष्याणं, पुरिस-सामारिए उदस्सए बत्यए । - कप्प. उ. १, सु. २६ कृ.प्पड निष्याणं आहे आगमण हिंसि वा वियहिंसिया सीता सिमा बा वायए । -कप्प. उ. २, सु. १२ www हेमंत म्हासु पियोगं बसवासमेरा७५. से गामंसि वा जाय-रायहाणिसि वा सपरिवसि अहिरियंसि कप निभायीणं हेमंत गिम्हासुदरे मासे वत्थए । बहसमा हारि णिग्वार्ण कम्पनिमा उपस्या निर्मन्थों के कल्प्य उपाश्रय ७४. कप निरगंधाणं, आवगगिहंसि वा जाव अन्तरावणंसि वा ७४ निर्ग्रन्यों की आपणगृह यावत्-अन्तरापण में बसना थथए । कल्पता है । से गामंसि वा जाब- रामहाणिसि का सपरिषदेवंसि समाहिरियंसि कप्पड़ निग्गंीणं हेमन्त- गिम्हासु बारि मासे वस्पए । सूत्र ७३-७५ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में निर्ग्रन्थों की वसतिवास मर्यादा ७३. निर्ग्रन्थों को सपरिक्षेप (प्राकार या बादयुक्त) और अबाहिरिक ( आकार के बाहर की वस्तिरहित ) ग्रामथावत् राज धानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में एक मास तक बसना कल्पता है । - निर्मन्थों को सपरिक्षेष और सबाहिदिक ग्राम पावत्राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में दो मास तक दसना कल्पता है । एक मास ग्राम आदि के बन्दर और एक मास ग्रामादि के बाहर । ग्राम आदि के अन्दर बसने वाले निर्ग्रन्थों को ग्राम आदि के अन्दर बसे घरों में भिक्षाचर्या करना कल्पता है। के स्वामी से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हो या न हो) उपाश्रय कृष्ण उ. १, सु. २५ में बसना कल्पता है । ग्राम आदि के बाहर बसने वाले निर्ग्रन्थों को ग्राम आदि के बाहर बसे घरों में भिक्षाचर्या करना कल्पता है। नियों को (खुले द्वार) माले उपाधय में ना कल्पता है । नियों को मारक की विधा या अतिया मे नियन्थों को आगमन गृह में चारों ओर से छप्पर के नीचे अथवा बाँस की जाली युक्त घर में या आकाश के नीचे बसना कल्पता है । नियों को पुरुष सागारिक (केवल पुरुष निवास वाले) उपाश्रय में बसना कल्पता है । खुले घर में, वृक्ष के नीचे हेमन्त और ग्रीष्म में नियंत्थियों की वसतिवास मर्यादा७५. निर्ग्रन्थियों को सपरिक्षेष और अबाहिरिक ग्राम — यावत्--- राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में दो मास तक बना कल्पता है । - यावत् निन्थियों को सपरिक्षेप और सबाहिरिक ग्राम--- राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में चार मास तक बसना कल्पता है । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रन्थियों के कल्य उपभय चारित्राचार : एषणा समिति [११५ अम्तो को भासे, बाहि वो मासे। दो मास ग्राम आदि के अन्दर और दो मास ग्राम आदि के बाहर । मन्तो वसमाणीणं, अन्तो भिक्खारिया। माम आदि के अन्दर बसने वाली निग्रंथियों को ग्राम आदि के अन्दर बसे घरों में भिक्षाचर्या करना कल्पता है। बाहि असमाणीणं, वाहि भिजवायरिया। ग्राम आदि के बाहर बसने वाली नियंथियों को ग्राम -नण. उ. १. सु. - बादि के बाहर बने घरों में भिशाचर्या करना कल्पता है । जिग्गंथीणं कप्पणिज्ज वसहिओ --- . निग्रंथियों के कल्प्य उपाश्रय . . ७६. कप्पड निग्गंधीणं, सागारिय-निस्साए वत्थए । ७६. निर्ग्रन्थियों को सागारिक की निश्रा से (उपाश्रय के स्वामी -कप्प. उ. १. सु. २४ से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त होने पर) उपाश्चय में बसना बाल्पता है। कप्पा निग्गं पीण, इस्थि-सागारिए जवस्सए बस्थए। निर्ग्रन्थियों को स्त्री-सागारिक केवल स्त्रियों के निवास -कप्प. उ.१.सु.३१ वाले) उपाश्रय में बसना कल्पता है। कम्पा निगमीण, पश्चिम सेबजाए वायए। निम्रन्थियों का प्रतिबद्ध (उपाश्रय की भित्ति से संलग्न) --कप्प. उ. १, सु. ३२ शय्या में बसना कल्पता है । कप्पा निग्गंधीग, गाहावा-कुलस्स मज्मं मम्मेण गंत गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग वस्थए । -कप्प. उ. १, सु. ३५ हो उस उपाश्रय में निग्रन्थियों को बसना कल्पता है । गिरगंय-णिग्गंयोणं कप्पणिज्जा उबस्सया- निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के कल्पा उपाश्रय७७. कप्पा निग्गंधाण वा निग्गयीण वा अप्पसागारिए उबस्सए ७७. निम्रन्थों और निर्ग्रन्थियों का अल्प-सागारिक (गृहस्थ निवास प्प. उ.१, सु. २७ रहित) उपाधय में बसना कल्पता है। कम्पा निगंयाण वा निषीण या अधित्सकम्मे अपस्सए निम्रन्थों और निग्नन्थियों को चित्र-रहित उपाश्रय में बसना वस्थए। -कप्प. उ. १, सु. २२ कल्पता है । गामाइसु जिग्गंय-णिग्गंधीणं वसणविहि ग्रामादि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रहने की विधि७८. से गामंसिवा-जाब-रायहाणिसि वा, अभिनिवाए, अभि-७८, नियंन्थों और नियंन्थियों को अनेक बगडा, अनेक द्वार निषवाराए अभिनिवखमणपवेसाए, कप्पद निग्गंयाण य और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम --यावत-राजधानी में मिगधोण य एषयमो बत्थए। -कप्प. उ. १, मु. ११ समकाल वसना कल्पता है । अभिक्कत किरिया कप्पणिज्जा बसही अभिक्रान्त क्रिया कल्पनीय शय्या -- ७६. खलु पाईगं वा-जाव-उदोणं वा संतेगतिया साता भवति, ७६. हे आयुरुमन् ! इस संसार में पूर्व याषत् उत्तर दिशा में कई बालु होते हैंतं जहा-गाहापती वा-जाव-कम्मकरीओ वा, तेसि चणं जैसे कि--गृहस्वामी यावत् नोकर-नौकरानियाँ लादि आयररगोयरे णो सुणिसते भवति, त मदहमाहि. तं पत्ति- उन्होंने निर्गन्य साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में तो यमाणेहि त रोयमाणेहि, रहवे समग-भाहण-अतिहि विवण सम्यकृतया नहीं सुना है, किन्तु श्रद्धा प्रतीति एवं अभिरुचि रखते वणीमए समुहिम तस्य तस्य अगारोहिं अगारा, सिताई हए उन गृहस्थों ने (अपने-अपने ग्राम या नगर में) बहुत से भवंति, संजहा—आएसणाणि वा-जाव-भवणगिहाणि वा। णाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि दरिद्रों और भिखारियों आदि मे उई प्रय से गृहस्थों ने जगह-जगह मकान बनवा दिये हैं जैसे - लुहारशाला यावत् भूमि गृह आदि।। जे भयंतारो तहप्पगारा आएसणाणि घा-जाव-भवागिहाणि जो अमण भगवन्त इस प्रकार के लोहकारशाला यावत् भा सेहि ओवतमाहि ओवतंति अपमाउसो! अभिषकत- भूमिगृह आदि आचास स्थानों में, जहाँ शाक्यादि थमण ब्राह्मण किरिमा या वि भवति । आदि पहले ठहर गए हैं, उन्हीं मे दाद में आकर ठहरते हैं तो -आ. सू.२ अ.२, उ, २, मु. ४३५ बह शय्या अभिकान्त क्रिया वाली (निदोष) हो जाती है । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६] परणानुयोग अस्प सावध किया-कल्पनीय शय्या सूत्र १ अध्याकिरिया जागतिजा कहाणी... अल्प सावध क्रिया-कल्पनीय पाय्या५०. इह खलु पाईणं या-जान-उवीणं वा संगतिया सहा मति ८०. इस संसार में पूर्व यावत् उत्तर दिशा में, कई श्रद्धालु व्यक्ति -जाव-तं रोयमाणेहि अप्पणो सयट्ठार तत्व तत्य अगारीहिं होते हैं पावन दे अभिरुचि से प्रेरित होकर उन्होंने अपने निजी अंगाराई चेतियाई भवंति, प्रयोजन के लिए यत्र-अत्र मकान बनवाए हैं, तं जहा-आएसगाणि वा-जाव-भवणगिहाणि वा, जैसे कि- लोहकारणाल यावत् भूमिगृह आदि । महता पुरषिकायसमारंभेणं, उनका निर्माण पृथ्वीकार के महान समारंभ से, महत्ता आउकायसमारंभेणं, अपकाय के महान् समारंभ से, महता तेउकायसमारंमेष, तेउकाय के महान समारंभ से, महता वाडकायसमारंभेणं, बाउकाय के महान् समारंभ से, महता वणस्सहकापसमारंभेणं, पनस्पतिकाय के महान् समारंभ में, महता तसकायसमारंभेगं महया सरमेणं, महया समारभेण, सकाय के महान् समारम्भ से इस प्रकार महान संरम्भ, महया आरंभेष, समारम्भ एवं आरंभ से, महता विकवरूहि पावकम्मकिश्चेहि, तथा नाना प्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है, सं जहा-छावणतो, मेषणतो, संथार-वार-पिहणतो, जैसे-छत डालने, लीपने, संस्तारक कक्ष सम करने तथा सीतोपए वा परिदृविर पुरे भवति, मपनिकाए वा उश्णा- वार का दरवाजा बनाने से हुआ है तथा वहां सचित्त पानी लियपुख्खे भवति, डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएमणाणि वा-जाब-नवम-गिहामि जो पूज्य निमन्थ श्रमण इस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा अपने वा उवापति, उवागरिता इतराहतरेहि पाहडेहि वट्टति लिए निर्मित) लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वासस्थानों एगपख ते कम्म सेवंति, अयमाउसो| अप्पसावजकिरिया में आकर रहते हैं, अन्यान्य सावध कर्म निष्पन्न स्थानों का उपयावि भवति। -आ सु. २, अ.२, उ.२, सु. ४४१ योग करते हैं वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते है। हे आयुष्मन् ! उन श्रमणों के लिए बह शय्या अल्प सावध क्रिया (निदोष) रूप होती है। RINA शम्यषणा-निषेध-२ गिहारंभकरण णिसेहो गृह-निर्माण-निषेधप.न सब निहाई कुग्वेजा, मेव आनेहि कारए। ८१. भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवार । ग्रह गिहमाम्म समारम्भे भूयाणं हौसई बहो ॥ निर्माण के सभारम्भ (प्रवृत्ति) में प्रस और स्थावर. सूक्ष्म और ससाणं पावरागं सृढमाणं गायराण । गदर जीवों का वध देखा जाता है। इसलिए संयत भिक्षु गृहतम्हा गिहसमारम्भ संजओ परिवणए ।। समारम्भ का परित्याग करे । -उत्त. अ. ३५, गा. ८-९ हतं गाणुजाणेजा, आयगुसे जिरिए । प्रामों में था नगरों में श्रद्धालुओं के कुष्ठ आश्रय स्थान होते डागाई संति सहीणं, पामेसु नगरेसु वा ।। है, उनके निर्माण में होने वाली हिसा' का आस्मगुप्त गितेन्द्रिय -मूय. सु. १, अ. ११, गा. १६ मुनि अनुमोदन नहीं करते हैं। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियों के बकल्प्य उपाश्रय चारित्राचार : एषगर समिति [६३५ णिगंयाणं अकप्पणिज्जा उपस्सया नियों के कान्य माण८२. भो कप्पड़ निग्गंयाणं इत्यि-सागारिए उसस्सए वत्पए। २. निर्गन्धों को स्त्री-गागारिक (स्त्रियों के निवास वाले) उपा -कप्प.उ.१, सु. २८ श्रय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पाड निगंथाणं, पडिवसेज्जाए बत्थए। निग्रंथों को प्रतिबद्ध (गृहस्थ के घर में संलग्न छत वाली) -कप्प. उ. १. सु. ३२ शय्य" में बसना नहीं कल्पता है। नो कम्पा निग्थाणं, गाहाबद-कुलस्स मजसं मजमेण गंतुं गृह के नध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग वस्थए । - कप्प. उ. १, सु. ३४ हो उस उपाश्रय में निग्रंथ्यों को बसना नहीं कल्पता है। णिगंधोणं अकम्पणिज्ज उबस्सया - निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय२३. मोकप्पद निग्गीणं, पुरिस-सागारिए उबस्सए वत्थए। ८३. निग्न स्थियों को पुरुष-सागारिक (केवल पुरुष निवास वाले) -कप्प, द. १. सु. ३० उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पर निगाणं, आवणगिहंसिया, रत्थामुहंसि बा, निर्गन्मियों को दुकान युक्त मह में, गली के प्रारंभ में, सिंघाडगंसि वा, तियसि वा, चउमासिवा, चच्चरसि वा, शृंगाटकाकार स्थान में, तिराहे में, चौराहे में, अनेक मागं मिलने अन्तरावगंसि वा वस्यए। -कण, उ.१. सु. १२ के स्थान में (बने हुए गृही में) या दुकान में बसना नहीं कल्पता है। मो कप्पर निग्गंधीगं सामारिय अणिस्साए अस्थए । निर्गन्धियों को सामारिक की अनिधा से (उपाश्रय के स्वामी - वप्प. उ. १, मु.२३ से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हुए बिना) उपाथय में बसना नहीं कल्पता है। नो कप्पद निग्गंधीण-अहे आगमणगिहसि वा, प्रियकगिहसि निग्रंथियों को आगमन गृह में, चारों ओर से खुले घर में, का, वसीमूससि वा, रुक्खमूलसि बा, अम्माषगासियंति वा छप्पर के नीचे (वा बोस की जाती युक्त गृह में), वृक्ष के नीचे वस्थए । कण्य, उ. २, सु. १ मा आकाश के नीचे बसना नहीं कल्पता है। णिग्गंध-णिग्गयीणं अकप्पणिज्जा उवस्या- नियंग्य-निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय४. नोकप्पह निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा, सागारिप यस्मए ६४. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को सागारिक (गृहस्थ के निवास पत्थए। - कप्प. उ. १, नु. २६ दाले) उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है । नो कप्पह निग्गंधाण वा निग्गयोण वा, सचित्तकम्मे उस्लए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को सचित्र उपाश्रय में बसना वत्थए। __ - कण. उ. १. सु. २१ नहीं कल्पता है। से जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा-अस्सिपंडियाए एग पदि साधु ऐसा उपाधय जाने, जो कि (भाषक गहस्थ द्वारा) साहम्मिपं समुहिस्स पाणाई-जाव-ससाई समारन्म समुहिस्स, इसी प्रतिज्ञा से अर्थात् किसी एक साधमिक साधु के उरश्य से प्राणी –यावत्--- सत्वों का समारम्भ करके बनाया गया है, 'प्रतिबद्ध शय्या'---द्रव्यतः भावतश्च प्रतिबद्ध उपाश्रयः । द्रव्यतः पुनरयम्-पृष्ठवंशः' - बलहरगं, म योपाश्रये गृहस्थगृहेण सह संबंद्धः स द्रव्य प्रतिबद्ध उच्यते । प्रलवणे स्थाने रूपे शब्दे पेति चत्वारो भेदा भाव प्रतिबद्धे भवंति ।। -- कल्पभाष्य उ.१सू. ३० भावार्थ-(१) द्रव्य प्रतिबद-उपाश्रय और गृहस्थ गृह की छत एक ही बलधारण आधार पर हो। (२) भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय ४ प्रकार का होता है यथा-(१) स्त्रियों की व साधु की प्रमण मूमि एक हो । (२) हवा प्रकाश आदि के लिये अन्यत्र खड़े रहने बैठने का स्थान साधु का व स्त्रियों का एक हो। (३) जिस उपाश्रय में बैठे-बैठे ही स्त्रियों के दिखते हों। (४) जिस उपाश्रय में स्त्रियों के अनेक प्रकार के शब्द सुनाई देते हों। इस प्रकार के द्रव्य और भाव प्रतिवद उपाश्रय में रहना साधु को नहीं कल्पता है । । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ परमानमोग निम्ध-निन्थियों के लिए अकरूय उपाश्रय कीयं, पाभिवं, अच्छेज्ज, अणिसटु, अमिहर आहटु खरीदा गया है, उधार लिया गया है. छीना गया है, स्वामी की तेति। अनुमति के बिना लिया गया है या अन्य स्थान से लामा गया है। तहप्पमारे उपस्सए पुरिसंतरको बा, अपुरिसंतरकडे वा ऐसा उपाश्रय चाहे वह अन्य पुरुष को दिया हो या न दिया बहियागीहडे या, अगीहो बा, अत्तट्टिए वा, अगत्तट्टिए वा. हो. बाहर निकाला गया हो या न निकाला गया हो, स्वीकृत हो परिभुत्ते वा, अपरिभुत्ते वा, आसेविते या, लगासेविने वा, या अस्वीकृत हो, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त अथवा आसेवित हो जी ठाणं मा, सेज वा, णिमीहियं वा चेतेजा। या अनासेरित हो उसमें स्थान, गम्या एवं स्वाध्याय न करे। एवं बहवे साहम्मिया, एनं साहम्मिणि, बहवे सराहम्मिणीओ। जैसे एक साधर्मिक साधु का कहा से ही बहुत से गार्मिक ----आ. गु. २, अ. २, उ. १. सु. ४१३ साधुओं एक साधभिगी साध्वी, बहुत-सी सामिगी साध्वियों का भी समझना चाहिए। से मिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्ज पुष उअस्सयं जाणेना- भिक्षु या भिक्षणी यदि ऐसा उपाश्रय जाने, जो बहुतके बहने समण-जाब-वणीमए पगणिय-पणिय समुद्दिस पाणाई श्रमणों यावत् --भिखारियो को गिन-गिन कर उनके चहं श्य जाव-सत्ताह समारम्र-जाव-अभिहर आहटु चेतेति सेप्राणी--यावत्-सत्वों का समारम्भ करक-पावत्--अन्य सहापगारे उबस्सए पुरिसंतरको या, अपरिसंतर कडे वा स्थान से लाकर दे तो ऐसा (उपाश्रय) पुरुषांतरकृत हो अथवा -जाय-अणासेविते गो ठाणं ला, सेनं वा, णिसोहियं वा, पुरुषान्तरकृत न हो-यावत् -अनासेवित हो तो उसमें स्थान, चैतेजा। -आ. मु. २. अ. १. उ.१, सु. ४१४ शय्या एवं स्वाध्याय न करे। से मिक्लू वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा- भिक्षु यः भिक्षुणी ऐसा उपाश्रय जाने कि - जो स्त्रियो से, सइस्थिय, समुदळ, सपसुभत्तपाणं । तहप्यगारे सागारिए बालकों से, पशुओं से तथा खाने पीने योग्य पदार्थों से युक्त हो उबस्सए णो ठाणं वा, सेज वा, णिसीहिम वा. चैतेजा। ऐसे सागारिक के उराश्रय में स्थान, शम्या एवं स्वाध्याय न __ --आ. सु २, अ. २, उ. १, सु. ४२० करे। आपागमेयं भिक्खुस्स गाहावतिकुलेण सद्धि संवसमाणस्स, माधु का गृहपतिकुल के साथ (एक ही मकान में) निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है। अससगे वा, विमूहया वा, छाती गाणं उत्साहज्जा, गृहस्व परिवार के साथ निवास करते हुए माधु के हाप, पर, आदि का कदानित स्तम्भन हो जाए अथवा सूजन हो पाए, विशूचिका या वमन की व्याधि हो जाए, अण्णतरे वा से बुक्से रोगात के समुप्पज्जेज्जा । अथवा अन्य कोई दुख या रोगातक पैदा हो जाए। अस्संजते कसुणपटियाए तं भिक्खुस्स गातं तेल्सेप वा, घएक ऐसी स्थिति में वह गृहस्थ करुणा भाव से प्ररित होकर उस बा, बसाए वा, णवणीएण वा. अभयेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, भिक्षु के शरीर पर तेल, घी, वसा अथवा नवनीत से मालिश सिणारेण वा, भक्केण वा, लोदेण वा, चष्णेण या, चुण्णण करेगा अथवा सिणाप - सुगंधित दव्य समुदाय, कल्क, लोध, वर्णक, वा, पउमेण था, आघंसेज्ज दश, पसेज वा, उय्वलेज वा, चूर्ग, या पद्म से एक बार घिसेगा, जोर से थिसेगा, शरीर पर उपज वा, सीओदगवियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, लेप करेगा, अथवा शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन उन्छोलेज बा, पहोएज्ज वा, सिणावेज्ज वा, सिचेज्ज वा, करेगा । अथवा प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जस से एक बार राणा वा, वामपरिणाम कटु अगणिकायं उज्जालेन्ज वा, घोएगा या बार-बार घएगा, मल-मलकर नहाएगा, अथवा पज्जालेज वा. उजालेता, पज्जालेत्ता, काय आतावेज मस्तक आदि पर पानी छोटेगा, अभया अरणी की लकड़ी को वा, पयावे वा। परस्पर रगड़ कर अग्नि उज्वलित-प्रज्वलित करेगा। अग्नि को सुलगाकर और अधिक प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा पा अधिक तपाएगा। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष ४ निम्रन्थ-मिप्रन्थियों के लिए अकालय उपाधय चारित्राचार : एषणा समिति [६३९ मह मिक्लू पं पुस्खोवविट्ठा-जाव-एस उपएसे में तहप्पगारे (इस तरह गृहस्थ कुल के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक सामारिए उवस्सए णो ठागं वा, सेज्मं वा, णिसोहियं वा दोषों की संभावना देखकर) तीर्थकर प्रभु ने भिक्षु के लिए पहले चेतेना। -आ. सु. २, अ.२, उ.. सु. ४२१ से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है- यावत्-उपदेश दिया है कि वह ऐसे गृहस्थ संसक्त मकान में कापोत्सर्ग, शय्या और स्वाध्याय न .. . . ... .. आयाणमेयं मिस्स गाहावलिया सशि संवतमाणस । गृहस्थ के साथ ठहरने वाले साधु के लिए बह कर्मबंध का कारण है। इह खलु गाहावास्स अप्पगो सयट्ठाए विरुवस्वाई भिषण- क्योंकि वहाँ गृहस्व के अपने स्वर्ष के लिए पहले नाना पुवाई भवंति। प्रकार के काष्ठ (लकड़ियां) काट कर रखी हुई होती हैं, अह पच्छा भिक्खूपरियाए विरूवरूवाई वाल्याई भिवेज्ज उसके पश्चात् यह माधु के लिए भी विभिन्न प्रकार के वा किणेग्ज वा, पामिकचेज वा दारणा वा बायपरिणाम काष्ठ को काटेंगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ कटु अगणिकायं जज्जालेग्ज वा, पज्जालेत वा, से काष्ठ का पार्पण कर अग्निकाय को उज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा। तत्य मिरा अभिकलेज्जा आयावेत्तए वा, पयावेसए वा, ऐसी स्थिति में सम्भव है वह साधु भी गृहत्य की तरह विट्टित्तए था। शीत निवारणा आताप और प्रताप लेना चाहेगा। तथा उसमें आसक्त होकर नहीं रहना चाहेगा। अह मिक्खूर्ण पुग्वोवविट्ठा-जाब-एस उबएसे जं तहपगारे इसलिए तीर्यवरों ने मिशुओं के लिए ऐमी प्रतिज्ञाउवस्सए जो ठागं वा सेज्ज वा मिसीहि वा चैतेज्जा। यावत् - उपदेश दिया है. कि साधु ऐसे उपाश्रय में स्थान, शम्या ___ --आ. सु. २, अ. २, रु. २, सु. ४२६ एवं वाध्याय न करें। आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उबस्सए संबसमःणस्स । साधु के लिए गृहस्थ-संसर्ग युक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है, हह खलु गाहावती वा-जाब-कम्मकरीओ वा अण्णपणं क्योंकि उनासे गृहस्वामो-यावत्-नौकरानियाँ कदाचित अश्कोसति वा, वहति वा, समंति बा, गद्देवेति वा । परस्पर एक-दूसरे को कटु वचन कहें, मारे गोटें, बंद करे या उपद्रव करें। अह मिक्लू उच्चावयं मण गियच्छेज्जा-एते बलु अण्णमणं उन्हें ऐसा करते देख भिक्ष के मन में ऊँचे नीचे शाब आ अक्कोसंतु वा, मा वा अक्कोसंतु-जाव-मा वा उहवेतु। सकते हैं कि ये परसर एक-दूसरे को भला-बुरा कहें अयवा नहीं कर्हे-यावत्--उपद्रव करें या नहीं करें। अह मिरलूगं पुष्खोवविट्ठा-जाव-एस उपएसे जं तहप्पगारे इसलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही सधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा सागारिए उवस्सए णो दाग था, मेजवा णिसोहियं वा, बताई है-यावत् -उपदेश दिया है कि यह गृहस्थयुक्त उपा तेन्ना। -आ. सु. २, अ. २, उ. १ सु. ४२२ श्रय में कायोत्सर्ग, शय्या और स्वाध्याय न करे । से मिक्खू वा भिक्षी या से पुण उयस्सवं आणेज्जा- यदि भिक्षु मा भिक्षणी ऐसे उपाश्रय को जाने कि--- इस इह खलु गाहावती वा-जान-कम्मरीजो वा, अण्णमाणं उपाश्रय में गृहस्वामी यावत्-कर्म करने वाली परस्पर एक अश्कोसंति वा-जाव-उद्दति वा, णो पण्णस्त मिक्खमा- दूसरे को कोसती है,- यावत्-उपनाव करती है, प्रज्ञावान् साधु पवेसाए-जाय-चिताए । से एवं गमचा तहप्पगारे जवस्सए को इस प्रकार के उपाय में निर्गमन प्रवेश करता-यावत-- गो ठाणं वा, सेम था, णिसीहिय वा तेजा। धर्ममितन करना कितनहीं है। यह जानकर साधु उस प्रकार -आ. मु. २, अ.२, उ.३, सु. ४६ के उपाय में स्थान, शव्या एवं स्वाध्याय न करे । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०) चरणानुयोग आयानमै साहयतीहि सद्धि संग इह खलु गाहावती अप्पणी सअट्टाए अगणिकार्य उज्जालेज्ज बा, पजालेज वा विज्झावेज्ज वा । अह भिक्खू उara मणं नियच्छेज्जा निनिधियों के लिए अकरूप्य उपाध "एते तु भगणिकार्य पज्जा विजायें।" वा मा वा बा, भा वा पज्जातंतु, विज्झायेंतु या मावा P अह भिक्खूणं पुरुषोविठ्ठा जाव एस उबएसे जं तपगारे उस्सए जो ठाणं धा, सेज्जं वा विसीहियं वा चेतेज्जा । ब. सु. २. अ. २. ३. १. सु. ४२३ आयागमे विश्वस्त गाहाबतीत संवयमाणा । - - अह विणू उपाय म "रिवासा पो का एरिशिया इति इति वा णं मणं साएजा । । अह भिक्लूर्ण पृथ्वोवfवट्ठा जान एस उवएसे जं तत्पगारे उस्सए जो ठाणं वा सेज्यं या गिसीहियं वा तेज्जा । - आ. सु. २, अ. २, उ. १. सु. ४२४ आपागमे चिन्तु महावत संवसमा दाहालको वा हाि मुण्हाओ वा गाहावतिधातीओ वा गाहाचतिवासीओ वा. गाहावतिकम्मकरीओ या तासि च ण एवं वृत्तपुष्यं भवति "जे हमे भवंति समणा भगवंतो सोलमंता वयमंता, गुणमंता, संजता, संडा भयारी, उवरता मेहणातो घातो जो एसि कप्पति नेम्मदरियारनाए आट्टिए। सूत्र -४ गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इस लिए कर्मबन्ध का कारण है कि, उसमें गृहस्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को जित प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा। वहाँ रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊँचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं नह गुम्यों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है (उसमें निम्नोक्त कारणों से राग के भाव उत्पन्न हो सकते हैं 1 ) के गाडि वा दुवा. मोबा, मोलिए जैसे कि उसमें कुण्डन करनी मि वा, हिरणे था, सुषण्णे वा कडगाणि वा तुडियाणि या, मुक्ता, चाँदी, सोना या सोने के कड़े, बाजूबंद, तोतला हर तिसरगाणि या पाचाणि वा हारेका जाना अठारह लड़ी का हार, तौ लड़ी का हार, एकाबली बलो वा मुसावली चा कणगावली वा रयणावली वा हार मुक्तावली हार, कनकावली हार, रत्नावली हार, अथवा हाए । कृत दर विभूषित युवति या कुमारी 1 या कुमारि दो गृहस्थ अग्नि को उज्वलित करे, अथवा उज्वलित न करे तथा ये अग्नि को प्रज्वलित करे अथवा न करे, अग्नि को बुझां दे अथवा न बुझा दे !' इसलिए तीर्थकरों ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा यताई है पावत् उपदेश दिया है कि वह उपश्रम में स्थान शय्या एवं स्वाध्याय न करे वस्त्राभूषण भूषण आदि कन्या को देखकर, भिक्षु के मन में ऊंचे-नीचे संकल्प विकल्प आ सकते हैं वि "ये आभूषण आदि मेरे घर में भी थे इसी प्रकार की थी, या ऐसी नहीं थी ।" उद्गार भी निकाल सकता है अथवा मन ही मोदन भी कर सकता है । अतः तीर्थकर प्रभु ने पहले से ही साधुओं के लिए ऐसी प्रतिज्ञा यावत् उपवेश दिया है कि साधू ऐसे उपाधय में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । एवं मेरी कन्या भी वह उस प्रकार के मन उनका अनु गृहस्थों के साथ एक जगह निवास करना साधु के लिए कर्म बन्ध का कारण है. क्योंकि उसमें गृहरनियाँ, गुहस्थ की पुत्रियों प धायमाज्ञाएँ दासियां या नौकरानियाँ भी रहती हैं। उनमें कभी परस्पर ऐसा वार्तालाप भी होना सम्भव है कि दो मारवा होते हैं. ये शीलवान शनिष्ठ गुणवान गंयभी लाखों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुन धर्म से सदा उपरत होते हैं। अतः मैथुन सेवन इनके लिए कल्पनीय नहीं है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४ निग्रम्प-निन्थियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय जाय खलु एवं मेहरिया टेक पुतं खलु सा लज्जा ओर्यास्स तेयस्स वच्चस्स, जर्सास, संपरापिय आलोयदरिसिणिज्जं ।" एप्पगार जिग्घोस सोन्या जिसम्म तासि च प अतरी सो तं तदस्सि भिवकुं मेम्मपरिवारमा आउ वेज्जा । अह भिक्खू णं पुग्यो दिट्ठा जात्र एस उवएसे जं तहपगारे सागारिए उबस्सए जो ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसीहियं वा तेज्जा इह खलु गाहत्वइस्स अप्पणो स्यट्टाए विश्वरूवे भोयणजाते उपखडिले सिया, वह पच्छा भिक्खूपडियाए असणं वा - जाव- साइमं वा उवक्खडेज्ज था. उनकरेज्ज वा । तं च भिफ्लू अभिकजा भोत्तए वा. पायए था विर्यात्तए वा । -आ सु. २, अ. २, उ. १, सु. ४२५ करे । यामेातीविसमा अहम पुग्योfट्टा-जाय एस उसे जं तहत्यमा रे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा गिसोहियं वा तेजा। - आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४२८ गाहावती नामेगे सुइसमायारा भवंति भिक्खू य अभिणाणए मोमायारे से गंधे मधे पडिकले पहिलोमे यादि भवति जं पुरुवकम्मं तं पच्छाकम्मं जं पच्छाकम्मं तं पुत्वकम्मं, पिडियाए बट्टमाणा करेज्जा वा णो वा करेज्जा । क्यारे बस्सए जो ठाणं या सेज्जं था, पिसांहियं का चेतेज्जा | - आ. भु. २, अ २, उ. २, सु. ४२७ सेम वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उवस्मयं माणेज्जाइह खलु गाहावती वा जाव-कम्मकरीओ डा. अण्णमण्णस्य मातंग वानमा ि बा चारित्राचार एवणा समिति पोथी इनके हाथ मैथुन -कीड़ा में प्रवृत्त होती है, उसे ओजस्वी, तेजस्वी, प्रभावशाली - (रूपवान् ), यशस्वी, संग्राम में शुरवीर चमक-दमक वाले एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है।" इस प्रकार की बातें सुनकर मन में विचार करके उनमें से पु-प्राप्ति भी कोई स्त्री उपस्वी भिक्षु को मैन सेजन के लिए अभिमुख र ऐसा है। इसलिए तीर्थंकरों ने साधुओं के प्रतिज्ञा यावत् उपदेश दिया है गृहस्थों से संसक्त उपाश्रय में स्थान, -- [ ६४१ लिए पहले से ही ऐसी कि साधु उस प्रकार के शय्या और स्वाध्याय न गृहस्थों के साथ निवास पाने साधू के लिए वह का कारण है, क्योंकि वहाँ गृहस्थ ने अपने लिए नाना प्रकार के भोजन तैयार किये हुए होते हैं उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अन - यावत् — स्वाद्य आहार तैयार करेगा उसकी सामग्री जुटा एगा 1 उस आहार को साधु खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा । इसलिए के लिए तीर्थकरों ने यह प्रतिज्ञापत् उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के उपाश्रय में स्थान शय्या एवं स्वाध्याय न करे । कोई गृहस्थ शोचाचार-परायण होते हैं और भिक्षु स्नाव न करने वाले तथा मौकाचारी होते हैं। इस कारण उनके शरीर या वस्त्रों से आने वाली दुर्गन्ध उस गृहस्थ के लिए प्रतिकूल और अप्रिय भी हो सकती है । इसके अतिरिक्त वे गृहस्य ( स्नानादि ) जो कार्य पहले करते अब भिक्षुओं की अपेक्षा से बाद में करेंगे और जो कार्य बाद में करते थे मे पहने अथया भिक्षुओं के कारण वे असमय में भोजनादि त्रिवाऐं करेंगे या नहीं भी करेंगे । इसलिए तीर्थकरों से भिक्षुओं के लिए पहले से ही प्रतिज्ञा -- यावत् – उपदेश दिया है कि साधु ऐसे उपाश्रय में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय करे । भित्र या भिक्षुणी अगर ऐसे उपाय को जाने कि वहां गृहस्वागी-घावत्-नौकरानियों एक दूसरे के शरीर पर तेल. • यावत्-नवनीत से मर्दन करती है या चुपड़ती है, तो प्राज्ञ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ] चरणानुयोग ww नित्य-निधियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय मक्खेति वर णो पण्णस्स विखमण-पवेसाए जाब-चिलाए, से एवं जत्रा तत्पगारे उबस्सए जो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहिये वा चेतेज्जा । -- आ. सु. २. अ. २. व. २, सु. ४४७ सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उतस्सर्व जाणेज्जरगाहातिकुलसमझेणं गंत्तुं बस्थए, पडिबद्ध वा णो पण्णस्स क्खिमण पचेसाई-जाब चिताए से एवं तहप्पगारे उस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा, णिसोहिपं वा चैतेज्जा । -- आ. सु. २, अ २, उ. ३, सु४४६ fort या भिक्खुणी वा से वजं पुण उवस्यं जाणेज्जा-दह आ. सु. २, अ. २. उ. ३. सु. ४५० सेभिक्खू व भिक्षी या से उपजामे खलु गाहावती वा जात-कम्मकरीओ वा अण्णनण्णस्स गायं सिणाणेण वा कण वा जाव-पउमेण वा भाधनंति वर पसंति वा उच्चलेति वा उयोंति वा णो पण्णस्स निक्मण पसाए-जावता एवं मया तहारे से पच्चा उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहिये या चेतेक्ज़र । - आ. मु. २, अ. २, उ. २, सु. ४५१ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाय को जाने कि जो गृहस्थों ससागरियं सागणियं सउदयं णो पण्णस्स णिक्षमण से संसक्त हो, अग्नि से मुक्त हो, जन से युक्त हो तो बुद्धिमान् साधु वेखाएको पन्नस्तदाय-पृष्ठ-परि-मीनियन-प्रवेश करता एक्स नहीं है और न ही ऐसा उ उचित योगचिताए । से एवं गच्चा तत्पगारे उस्सए जो डा वाचना, पूच्छा परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग चिन्तन के वापर वा लिए उपयुक्त है। यह जानकर साधु ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, य्या और स्वाध्याव न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि जिसमें निकाश करने पर गृहस्य के घर में से होकर जाना आना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ घर से प्रतिबद्ध ( संलग्न) है, यहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना — यावत् चिन्तन करना उचित नहीं है यह जानकर ऐसे उपाश्रय में साधु स्थान, शय्या और स्वाध्याय न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि वहाँ गृहस्वानी यावत्-नौकरानियां परस्पर एक दूसरे के शरीर को प्रासुक शीतल जन या उष्ण जल से धोती है। बार बार धोती है। सींचती है या स्नान कराती है, तो ऐसा स्थान बुद्धिमान साधु के जाने-आने — यावत् — धर्मचिन्तन के लिए उपयुक्त नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, शस्या एवं स्वाध्याय न करे । माहावती वा जाव-कम्मकरीओ वा अण्णमरणस्स गायें, सीतोगविद्वेण वा उसिनोषत्रिय डेण वा उच्छोलेति का पघोषैति वा, सिवंति या सिणावेति वा णो पण्णस्स freeमण पसाए जाव- चिताए से एवं tear तपगारे उणी ठाणं या सेज्जं वा पिसीहियं वा तेज्जा । अ. सु. २, अ. २. उ. ३. सु. ४५२ सेवा क्या मेवं पुरा उस्ता इह खलु माहावती वा जान-कम्मकरीओ वा, निगिया ठिला. विविणा वालीणा घेतु विष्णवेति रहसि या मंत मंतति णो पष्णरव निवस्वमण-पवेसाए जाव-बिताए से एवं बच्चा तहष्वगारे उबस्सए णां ठाणं वा सेवा, निसा । सूत्र ८४ - आ. सु. २, अ. २, उ. ३, सु. ४५३ सेभिक्खू या भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवस्यं जाणेज्जाआइष्णं संविधं जो पतनपान बिताए एवं उत्सवो या, साधु का वह आना-जाना — यावत् प्रमंचितन करना उचित नहीं है, यह जानकर साधु उस प्रकार के उपाश्रय में, स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । भिक्षु भिक्षुणी यदि ऐसे उपाय को जाने कि वहाँ गृह स्वामी- यावत्-नौकरानियों परस्पर एक दूसरे के शरीर को स्नान (सुगंधित द्रव्य ससुदाय ) से, कल्क से- यावत् - पद्मचूर्ण से मलती है, रगड़ती है, मैल उतारती है, उबटन करती है, वहाँ साधु का निकला या प्रवेश करता यावत्-धर्मवित आज करना उपयुक्त नहीं है। यह जानकर ऐसे उपाश्रय में साधु स्पान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । यानी नदि ऐसे उपाय को जाने कि जहां ह पलि— यावत्-नौकरानियाँ आदि नग्न खड़ी रहती हैं या बैठी रहती है और नग्न होकर मे मन्धर्म विषय परस्परप्रार्थना करती है, अथवा किसी रहस्यमय अकार्य के सम्बन्ध में गुप्तमंत्रा करती है, तो प्राज्ञ साधु का निर्गमन प्रवेश यावत्धर्म चिन्तन करना उचित नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, माय्या एवं स्वाध्याय न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि वह स्त्रीपुरुषों आदि के चित्रों से सुसति है तो ऐसे उपाय में प्र साधु को नियंनवेज करना वात् धर्मन्निकर Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८५-८६ wwww सेवा विसोहि वा हित्य परिषद उपस्सस्स बोसाई गृहस्थ ८५. से मिक् वाखूणी या उच्चाश्वासवणे उदबाहिज्ज मा रातो या बियाले वा गाहावतिकुलस्स दुबाराहं भवं गुणेज्जा, तेणो य तस्संधिवारी अणुपविसेज्जा, तस्स मिक्स णो कम्पति एवं ए तस्स हवं, अण्णस्स हवं अयं सेणे, अयं उबश्वरए, अर्थ हंता अर्थ एवमामी" तर मह प्रतिवद्ध उपाय के दोष - - आ. सु. २. अ. २. उ. ३, सु. ४५४ स्थान, शव्या एवं स्वाध्याय न करें । ग्रहस्थ प्रतिबद्ध उपाय के दोप "अयं तेथे पविसति वा णो या पविसति उपल्लियति वा गोवा उवल्लियति, आपतति वा जो त्रा नापतति, वयइ वा णो वा वयइ तेह असेचं लेणमिति कति । पुष्पोद्वारा उपनेता ए णो ठाणं वा, सेज्जं वा जिसीहियं वा चंतेा । -आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४३० सुन उवस्सयस्स परूवणा८६. से यणो सुलमे फासुए छ असलज्जे, णो य खलु सुखे हमेहि पाहि तं जहा- छावणतो लेवणतो संबार दुवार विहाणतो पडवासणाओ । सेव परियारले हारते, निमीहियारसे, सेजा संचार-पिंडवासणारते, संति भिक्खुणी एवममवाणो शिवापविमायमाणा माहिता । चारित्राचार एषणा समिति [६४३ मतगतिया पाडिया या भवति एवं स पृथ्वा भवति, परिभाइधपुध्या मयति परिमुतपुरवा भवति, पराभव । उचित नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु - ८५ व भिक्षु या भिक्षुणी रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा होने पर गृहस्थ के घर का सारभाग खोलेगा, उस समय नौकर देखने वाला कोई चोर घर में प्रविष्ट हो जाएगा तो उस समय साधु को ऐसे कहना कल्पनीय नहीं है कि "यह चोर प्रवेश कर रही है या प्रवेश नहीं कर रहा है. यह छिप रहा है या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है जा रहा है या नहीं जा रहा है, इसने चुराया है या किसी दूसरे ने चुराया है। उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन चुराया है । यही चोर है, यह उसका उपचारक (साथी) है। यह घातक है, इसी ने यहाँ वह बनाया है" और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है उस तपस्वी साधु पर चोट होने की शंका होती है। अतः तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है - पावत्—उपदेश दिया है कि साधु ऐसे उपा श्रम में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याव न करे । शुद्ध उपाश्रय की प्ररूपणा ८६. प्राशुक, उंछ, एपणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है ओर न हो इन सावध कर्मों (पापयुक्त क्रियाओं) के कारण उपाश्रय शुद्ध निर्दोष मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से कहीं उसे लीपने पोतने से, कहीं संस्तारक भूमि सम करने से कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं आहार की एकणा के कारण से । कई साधु विहार चर्या परायण होते हैं. कई कायोत्सर्ग करने वाले होते हैं. कई स्वाध्यायरत होते हैं, कई साधु या संस्तारकः एवं पिण्ठपात (आहार पानी) की गवेषणा में रत रहते हैं । तथा भिक्षु सरल होते हैं, मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए होते हैं, एवं निष्कपट साधु साया नहीं करने वाले होते हैं वे शय्या के विषय में इस प्रकार कहते हैं - "कई मकान गृहस्य के खाली पड़े रहते हैं, स्थ के मेहमान आदि के लिये रखे हुये होते हैं। बारे में प्राप्त हुए होते हैं, कई मकान गुहस्य के समय समय पर काम में लिये जाने वाले होते हैं, कोई मकान गृहस्थ के पूर्ण रूप से अनुपयुक्त होते हैं या दान किये हुए होते हैं। ( इस प्रकार के मकान गृहस्थ के लिये बने हुए होने से साधु को कल्पनीय होते हैं) कई मकान गृहकई मकान बॅट Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] चरणानुयोग प० एवं बियागरेमाणे समिया वियागरे ? - उ०- हंता भवति । - आ. सु. २, अ. २, ३, सु. ४४३ अभिवर्ण साम्य आगमण वसहि जिसेहो ८७. मे आगंतारे वा आरामागारे या वा परिया वा अभिहम्मद ओस माहिणी ओतेश्या erture सानिक के आगमन को शया का निषेध उवद्वान हिरिया स - आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३२ कालाकिंत किरिया सरुवं८८. से आगंतारेसु वा जाव-परिया वसहेसु वर जे भयंतारी उडु नद्भियं वा वासाषासियं वा कप्पं उधातिथित्ता तथैव भुज्जो मुज्जो संवसंति मयमाउसो । कालातिक्त किरिया वि भवति । - आ. सु. २, म. २, उ. २, सु. ४३३ - -- परवा जे मा द्वियं वा वासवासिया कप्पं ज्वातिपावित्तर तं दुगुणा गुण अपरिहरा तत्येष ज्योति माउसो | उक्द्वाणकिरिया यावि भवति । - एग से पुणरागमण कालमेरा ६०. सं याचि परं पमाणं दीयं च वासं न तहि वसेज्जा । सुतस्स मग्गेग चरेज्ज भिक्खू, सुत्तस्त अत्थो जह आणवेद । दम. चू. २, गा. ११ अणभिक्कंत किरया सहवं ६१. इह खलु पाई वा जाव-उदीणं वा संगतिया सढा भवंति जावरोमा बहने समय-माहन अतिहि-शिक्षण aणीमए समुद्दिस्स तत्थ लक्ष्य अगारोहि अगाराई चेतिताई भवंति तं जहा आएसणाणि वा जात्र भवणमित्राणि वा । भतारोहणारा आएगाण वाजायचा बा तेहि अगोषतमाणेहि ओषयति अपमाउसो ! अभिवर्क तकिरिया यानि भवति । - आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३६ प्र गृहस्यों को इस तरह उपाश्रय संबंधी कथन करने वाला क्या सम्यक् कथन करता है ? उ०- हाँ सम्यक् कथन करता है, अर्थात् इस तरह सही स्वरूप समझाना उचित है । -आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४३४ शय्या उपस्थान ऋिश दोष से युक्त हो जाती है । बारंबार साथमिक के आगमन कीया का निषेध उद्यान में निर्मित विवाहस्थ के घरो में या तापसों के महों में जहाँ सामिका बार-बार आते-जाते (ठहरते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधु न ठहरे। ९०-९१ कालातियन्त क्रिया का स्वरूप ८८. हे आयुष्मन् ! जिन पत्रिकाला यावत्-मठों में श्रमण भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मासकल्प (शेषकाल ) या वर्षावास कल्प (चातुर्मास ) बिताया है, उन्हों स्थानों में अगर वे बिना कारण निरुतर निवास करते हों तो उनकी वह शय्या ( वसतिस्थान ) कालातिक्रान्त किया दोष से युक्त हो जाती है । - ! उपस्थान क्रिया का स्वरूप८१.चित्राला पावत् मों में, जिन साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मास कल्प या वर्षावास कल्प बिताया है, उससे दुगुना मुना मदन का समय अपन बिताए बिना ही स्थानों में ठहर जाते हैं तो उनको दह भिक्षु के एक क्षेत्र में पुनः आने की काल मर्यादा ६०. भिक्षु ने जहाँ वर्षा त्रास किया है वहाँ उत्कृष्ट एक वर्ष तक पुनः आकर न रहे। किंतु (दुगुणा काल व्यतीत करना आदि ) सूत्रोक्त विधि का सूत्र का अर्थ (भाव) जिस तरह आज्ञा दे उसी प्रकार आचरण करें । अनभिन्त क्रिया का स्वरूप - ९१. हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व यावत् उत्तर दिशा में का होते हैं, या अभिप्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, वनीवक आदि के उद्देश्य से गृहस्वों ने जगह है, जैसे कोह शाला - यावत् - भूमिगह आदि । -- जो भ्रमण ऐसे लोहकारशाला बावत् भूमिगृहों में आकर पहले-पहल ठहरते हैं, तो वह प्रय्या अनािन्त क्रिया माजी है. अल्पनीय है।) - Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२-६४ ard किया का स्वरूप वज्जकिरिया सरूवं २. इह खलु पाईणं वा जाव उदीर्ण वा संतेगइया सहा नवंति तं जहा - गाहाबती वा जाव-कम्मकरीलो या, तेसि च णं एवं बुराश्वं भवति जे हमे भवंति समया भगवंतो सीलता जाव जवरत मेगाओ धम्माल पोतु एवेति भवारा कति आधारुम्मिए उवस्सए वत्थए से ज्जाणिमाणि अहं अप्पो समाए बेतिया भवंति से जहा एखपाणिक मनगिहाणि वा सथ्याणि ताणि समणाणं णिसिरामो -अनिवाई वयं पच्छावि अप्पणो सट्टाए चेलेस्सामो तं जहाआएसणाणि वा जाव - भवगिहाणि वा । 7 एतप्पा जिग्घोषं सच्चा जिसम्म जे भयंतारी तहमारा आसाणा उरात इतरा तितरेहि पाहुडेह वट्टति अथमाउसो । वज्जकिरिया यांवि भवति । - आ. सु. २. अ. २, उ. २. सु. ४३७ पारिवाचार एवा समिति शिया का स्वरूप ६२. इस संसार में पूर्व यावत् - उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु होते हैं जैसे कि गृहस्वामी - यावत्-नौकरानियाँ उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि " म भगवन्त शीलवान यावत् मैथुनधर्म के स्थानी होते है इनके लिए दोष से युक्त उप श्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है। अतः ये जो हमारे अपने लिए हुए हैं जैसे कि लोकराजा यावत्भवनगृह से सब मकान हम इन अभणों को दे देंगे। और हम अपने प्रयोजन के लिए बाद में दूसरे लोहकारशाला - पावत्भवनगृह आदि मकान बना लेंगे." [ ६४२ गृहस्थों का इस प्रकार का वार्ताला सुनकर तथा समझकर भी योनि प्रकार के सहकाराला यावत्भवनगृह में आकर ठहरते हैं वहाँ ठहर कर के अन्यान्य छोटे बड़े घरों का उपयोग करते हैं, तो हे आयुष्मन् श्रमशो ! उनके लिये वह या क्रिया वाली होती है । महावक्शकिरिया सख्यं महावर्ण्यक्रिया का स्वरूप ६३. इस संसार में पूर्व पावत्—उसर दिशा में कई श्रद्धालु से होते हैं. पावन से प्रेरित होकर वे बहुत २३. खलु पाई वा जाब-जवीणं वा संतेगलिया सड्ढा भवंति जामा महणण-पण पराभव समुत्थिता अगारी नारा बेतिया मंतिह्मण पावत्वारों को गिनकर उनके उसे जहा आणि माजा भयाण वा यहाँ-वहाँ लोहाराला पावत् भूमिगृह बननाते हैं। जो नि साधु उस प्रकार के लोहकारशाला यावत् में आकर रहते है, यहाँ रहकर वे अन्याय छोटे-बड़े घरों का उपयोग करते हैं तो हे आयुष्मन् ! वह शस्या उनके जेता तहय्याराहं आएसणाणि वा जाव-भवमाणि का उतारेपालि भूमि जenraat | महावज्जकिरिया यावि भवति । - आ. सु. २. अ. २, उ. २, सु. ४३८ लिए महावज्यं क्रिया से युक्त हो जाती है । सावजकिरिया सवं ६४. खलु पाई वा जात्र उदीर्ण वा संगतिया सड्डा अवंति ये मग समुह सत्य हस्थ अमारी अगाराई तिला जहा आसनगि वा जान वणगिहाणि वा. जेता हत्याराई वातामिवाभहाणि या उपागच्छति उदागति इतराइतरेह पहिति अमाउसो | सावज्जकिरिया यादि भवंति । - आ. सु. २, अ. २. उ. २, सु. ४३९ दोष से युक्त हो जाती है । महासावज्ज किरिया सरू१२. वाजवणं या सगतिया सढा भवंति जायमाह एवं समासमुद्दिस तत्तत्य - सावय क्रिया का स्वरूप १४, इस संसार में पूर्व पावत् उत्तर दिशा में वई श्रद्धालु होते है- असे प्रेरित होकर वे अनेक प्रकार के के उद्देश्य से जहाँ तहाँ लोहकारमानापावत्भूमिगृह बनवाते है । जो निर्मन्थ साधु उस प्रकार के लोहकारशाला - यावत्भूमिगृह में आकर ठहरते हैं तथा अन्यान्य छोटे बड़े गृहों का उपयोग करते हैं, हे आयुष्यन् ! उनके लिए वह अम्मा सा - महासविच किया का स्वरूप ६५. इस संसार में पूर्व पावत्—उत्तर दिशा में कई यक्ति है यावत् अभिरुनि से प्रेरित होकर उन्होंने एक ही Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६] परगानुयोग प्राम आदि में निर्गन्ध-निग्रंथियों के रहने का निषेध सूत्र ६६-६५ अगारीहि अगाराई तिताई भवति, तं जहा-आएसणाणि प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला मा-जाव-भवणगिहाणि या, महता पुढविकायसमारमेणं-जात्र- --यावत्-भूमिगृह आदि मकान जहाँ तहाँ बनवाए हैं। उन महता तसकायसमारंभेणं, महता सर मेणं, महता समारंभेणं, मकानों का निर्माण पृथ्वीकार के महान समारम्भ से-यावत्महता आरंभेण महता विरूवरूवेहि पावकम्मकिच्चहि, तं प्रसवाय के महान समारंभ से, इस प्रकार महान् सरम्भ-समारम्भ जहा–छायणतो लेवणतो संचार-चुकार-पिहणतो, सीसोना और भारत से तर जा . रागन मर्मजनक कृत्यों परिदृवियपुच्चे भवति, अगणिकाए वा उजालियपुन्ने भवति । से हुआ है जैसे कि त आदि डाली गई है, उसे लंपा गया है संस्तारक कक्ष को सम बनाया गया है, द्वार के दरवाजा लगाया गया है, तथा वहाँ शीतल सचित्त पानी डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित को गयी है। जे भयंतारो तहप्पगाराव आएसणाणि वा-जाव-प्रया जो निम्रन्थ बम्ण उस प्रकार के लोकारशाला-पावत्गिहाणि वा, जवागच्छति उवाच्छित्ता इतरादतरेहि पाहि भूमिगृह में आकर रहते हैं तथा अन्यान्य छोटे-बड़े गृहों में ठहरते स्ट्रति दुपक्वं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! महास वज- हैं, वे द्विपक्ष (दव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का किरिया यावि भवति । सेवन करते हैं । हे आयुष्मन् ! उन श्रमणों के लिए यह शय्या -आ. सु. २, अ. २, उ. २, सु. ४४० महासावध क्रिया दोष से युक्त होती है। एगदुवारवतेसु गामाइसु णिग्गंथ-णिग्योण णिसिद्ध ग्राम आदि में निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रहने का निषेध बसण१६. से गार्मसि वा-जाव-रायहाणिसि वा, एगवगडाए, एगवा- १६. गिग्रंन्यों और निर्यमियों को एक वर.का, एक द्वार और एक राए, एगनिक्खमणपवेसाए,नोकप्पई निमांयाण य निग्गयीण निष्क्रमण प्रवेश बाले ग्राम--पावत्--राजधानी में भिन्न-भिन्न प एगयो बत्थए। - काप. उ. १, सु.१० उपाथयों में भी) रामपाल बनना नहीं करपता है। णिगंथ-णिगंथी दगतीरंसि णिसिद्ध किच्चाई- निन्थ-निग्रंथियों के लिए पानी के किनारे पर निषिद्ध कार्य१७ नो कप्पइ निर्णयाण वा निग्गीण वा, बगतीरंसि चिट्ठतए १७. निम्रन्थ और निग्रन्थियों को दकतीर (जल के किनारे) पर वा, निसीइत्सए या, तुट्टित्तए ना, निदाइत्तए श, पयता- खड़ा होना, बैठना, शयन करना. निद्रा लेना, ऊँघना, अशन इसए वा, असणं यश-जाव-साइमं वा बाहरितए था, उच्चारं --यावत्- स्वादिम आहार का खाना-पीना, मल-मूत्र, श्लेष्म, वा, पासवर्ष वा खेलं जा सिंघाणं वा परिवेत्तए, समायं नासामल आदि का परित्याग करना-स्वाध्याय करना, धर्म या करित्तए. धम्मजागरियं वा जागरित्तए. काउसका दा जागरिका (रात्रि जागरण) करना तथा खड़े पा बैठे कायोत्सर्ग ठाणं ठाइत्तए। - कप्प उ. १, सु. २० करना नहीं कल्पता है । णिग्गंथी उवस्सए णिग्गंथाणं णिसिद्ध किच्चाई - निग्रंथियों के उपाधय में निर्ग्रन्थों के लिए निषिद्ध कार्य-- १८. नो कप्पइ निगांयाणं निग्गयीणं उबस्सर्यास--- १८. निग्रंन्यों को निर्गन्थियों के उपाश्रय में१. चिद्वत्तए वा. २. निसीइसए वा, ३. तुपट्टिसए बा, १. खडे होना, २. बैठना, ३, लेटना, ४. निदाइत्सए बा, ५. पयलाइत्तए वा, ६-६. असणं वा ४, निद्रा लेना, ५. ऊँघ लेमा, ६-६. अशन-पावदजाव-साइमं बा, आहारं आहारेत्तए. स्वादम का आहार करना, १०. उपचारं वा, ११. पासवणं वा, १२. खेल बा, १०. मल, ११. भूत्र, १२. कफ और १३. सिंघाणं श परिवेसए, १४. समझायं वा करेत्तए, १३. नाक का मैल त्यागना, १४. स्वाध्याय, १५. साणं वा माइतए, १६. काउसग्गं या करिसए, १५. ध्यान तथा १६ खड़े या बैठे कायोत्सर्ग झरना ठाणं वा ठाइतए। -कप्प. उ. ३, मु.१ नहीं कल्पता है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६-१०१ निर्गन्यों के उपाश्रय में निर्गन्धियों के लिए निषिद्ध कार्य चारित्राचार : एषणा समिति [६४. निगंथरणं उबस्सए निग्गयोणं णिमिद्ध किवाई- निग्रन्थों के उपाश्रय में निययियों के लिए निषिद्ध काय-- १६. नो कप्पद निग्गयी निगथा उवस्मयंसि घिट्टित्तए MEE. निम्रयियों को निग्रन्थों से उपाथय में ठहरना-पावत्__-जात्र-ठागं वा ठाइत्तए । - कप्प. उ. ३. सु. २ बड़े या बैठे कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता है । णिसीहियाए णिमित किच्चाई स्वाध्यायभूमि में निषिद्ध कार्य१००. जे सत्य दुवाया था, तिबग्गा बा, पउवग्गा वा, पंचवम्मा १००. यदि स्वाध्यायभूमि में दो-दो तीन-सीन चार-चार या वा, अभिसंधारेज्जा मिसीहियं गमणाए, पाँच-पाँच के समूह में एकत्रित होकर (साधु) जाना चाहे तो, ते णो अण्णमण्णस्स काय आलिगेज्ज वा, विलिगेग्ज वा, वहां एक-दूसरे के शरीर का परस्पर आलिंगन न करें, न बुवेज्ज वा, दंतेहिं वा, अच्छिवेज वा विग्छिवेज्ज वा, ही एक दूसरे से चिपटे, न वे परस्पर चम्बन करें, न ही दांतों -आ. सु. २, अ. ६, सु. ६४३ और नखों से एक दूसरे का छदन करें। शय्येषणा विधि-निषेध-३ अतंलिक्ख उवस्सयस्स विहि-णिसेहो अन्तरिक्ष उपाश्रय के विधि-निषेध-- १०१. मिक्खू वा, भिक्यूणी वा से जर्ज पुण उबस्सयं जागेज्जा, १.१. भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐने उपाश्रय को जाने, तं जहा खंसि वा-जाय हम्मियसलसि था, अण्णतरसि था जो कि स्तम्भ पर बना है-यावत् : प्रासाद के तल पर तहप्पगारंसि अंतलिपखजायंसि गणरथ आगाढागाहिं कार- बना हुआ है, अश्या अन्य भी इसी प्रकार के अन्तरिक्षजात पहिणो ठाणं वा, सेज्जं वा. णिमीहियं वा चेतेन । स्थान है, तो किसी अत्यंत गढ कारण के बिना उक्त प्रचार के उपाश्रय में स्थान शय्या और स्वाध्याय न करे। से य आहच्य तिते सिया, कदाचित कारणवश ऐसे उपराव में ठहरना पड़े तो णो सत्य सोतोगवियडेण वा, उसिमोदगवियडेण वा, वहाँ प्रासुक शीतल जल से ग उष्ण जल से हाथ, पैर, हत्याणि वा, पाबाणि था. अच्छीणि वा, वंताणि वा मुहं आंख, दौत, या मुंह एक बार या बार-बार न धोए, वा. उच्छलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, गो तस्य उसई पकरेग्जा, तं जहा-उच्चारं बा, पासवणं वहाँ पर किसी भी प्रकार का व्युन्सर्जन न करे, पथा उच्चार वा, खेलं वा, सिंघाणं वा, यंतं या, पित्तंबा, पूतिया, सोणियं (मन) प्रस्त्रवण (मूश्री मुख का मन, नाक का मैल बमन, पित्त, वा, अण्णतरं वा सरीरावयवं । मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मन का स्याग वहां न करें। केवली यूया-आयाणमेयं । क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है। से तस्य ऊसट्ठ पकरेभाणे पयलेज्ज बा, पबज्ज बा, से वह वहां पर मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या तत्य पयलमागे बा, पवउमाणे वा, ऋत्य वा-ज्ञाय-सीस या गिर पड़े। पर से फिसलने वा गिरने पर उसके हाय-यावतअण्णतरं वा कार्यसि ईदियजातं खूसेज्ज या पाणाणि या शिर तथा शरीर के किसी भी भाग में या अन्य किसी इन्द्रिय -जाव-सत्ताणि वा जमिहणेज्म वा-जाव अवरोधज्ज था। पर चोट लग सकती है, तथा प्राणी--यावत् सत्व भी घायल हो सकते हैं--यावत्-प्राणरहित हो सकते हैं। अह भिक्खूणं पुख्योवविटा एस पडण्या-जाब-एस उवएसे, जे अत: भगवान् ने पहले से ही साधु के लिये ऐसी प्रतिज्ञा तहम्पमारे उबस्सए अंतलिक्खजाते णो ठाण वा सेज वा बताई है--पावत्- जयदेश दिया है कि इस प्रकार के अतरिक्ष मिसीहियं वा तेज्जा। जान उपाश्रय में स्था, गया एवं स्वाध्याय न करे। -आ. सु. २, अ.२ ,१, सु. ४१६ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८] चरणानुयोग एवणीय और अनेषणीय उपाश्रय सूत्र १०२ एसणिज्जा अणेसणिज्जा व उवस्मया एषणीय और अनेषणोय उपाश्रय१०२. से मिक्तू वा भिक्खूणी या अभिकखेज्जा उबस्सयं एसित्तए १७२ भिभु या भिक्षुणी उपाश्रय की गवेषण करना चाहे तो से अणुपविसित्तागामं वा-जाव-रायहाणि वा से ज पुग ग्राम यावत् - राजधानी में प्रवेश करने साधु के योग्य उगाश्रय उबस्मयं जाणेज्जा-सअंड-जाव-मक्कडा संताणयं । का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि उपाश्य अंडों से - यावत- मकड़ी के जाले आदि से मुक्त है तो, तहप्पगारे उवस्सए जो ठाणं वा सेज वा, मिसीहियं वा ऐसे उपाश्रय में स्थान, शय्या और स्वाध्याय न करे । चेतेज्जा। से मिस्त था भिक्खूणी वा से वजं पुण उचस्सयं जाणेजा भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को मंडों से—यावत्अपंड-जाव-मक्कडा-संताणय । मवडी जानों से रहित जान तो, तहप्पगारे उबस्सए पडिलेहित्ता पमग्जित्ता ततो संजयामेव ऐसे उपाथय का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उसमें यवना ठाणं वा, सेउजं वा णिसीहियं वा चेतेजा। पूर्वक स्थान, पाव्या एवं स्वाध्याय करे । -आ. सु. २, अ,२,उ.१.सु. ४१२ से विलू वा मिक्खूणी वा से ज्ज पुण अवस्सयं जाणेज्जा भिक्षु या भिक्षुगी यदि ऐसा उपाश्रय जाने जो श्रमण बहवे समण-जाय वणीमए समुहिस्स पाणाई-जाव-सत्ताई .. यावत्-भिखारी के उद्देश्य से प्राणी-यावत्-मयों का समारम्भ-जाव-अमिहरं आहट्ट तेति । ममारम्भ करके बरा हे-यावत् --अन्य स्थान से लाकर दे तो तहदगारे उपस्सए अपुरिसंतरकडे-जाव-अणासेरिते णो ठाणं ऐसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत -मायत- -अनासेवित दा, सेनं का, मिसीहियं वा तेज्जा । हो तो उसने स्थान. पाय्या एवं न्दाध्याय न करे। अह पूण एवं जाणेज्जा पुरिमंतर कडे-जान-आसेविते, पडिले- यदि यह 'जाने कि उपायय पुरुपान्तरकृत-यावत्-आसेवित हित्ता पमज्जिता ततो संजयामेव ठाणं या, सेज्ज वा, णिमी- है तो प्रतिवेदन तथा प्रमार्जन भर उसमें वतनापूर्वक स्थान, हिर्य वा, चेतेज्जा। शय्या एवं स्वाध्याय करे। -आ. सु. २, अ. २, उ. सु. ४१४ से भिक्षू वा भिमखूणी वा से ज्ज पुण उवस्सयं जाणेज्ना- भिक्षु मा भिक्षुणी यदि ऐसा उप थमा जाने जो कि गृहस्य अस्संजए भिक्खपडियाए कडिए था, उक्कं दिए बा, छत्ते वा, ने माधुओं के निमित्त काठादि लगाकर स्वारिग विया है, बांस लेते बा, घळे वा, मठे वा, संमठे वा संपधूविए बा। आदि से बाँधा है, यास आदि से आच्छादिश किया है, गोबर आदि रो लीपा है, मॅबारा है, घिमा है या चिकना किया है, ऊबड़खाबड़ स्थान को समतल बना है. दुर्गन्ध आदि को मिटाने के लिए धूप आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया है। तहप्पगारे उवरसए अपुरिसंतरकडे-जाव-अण सेविए गो ठाणं ऐसा उपायय यदि अपुरुपान्तरकृत यावत्-अनासेत्रित हो वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा। तो उसमें स्थान शय्या और स्वाध्याय न करे। अह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे-जाब-आसेविते, पहिले- यदि यह जाने वि वह उपाश्रय पुरस्पान्तरकृत -यावत्हिसा पज्जिता ततो संजयामेव हाणं वा सेज वाणिसी- आसेविस है तो भतिलेखन एवं प्रमार्जग करके पतनापूर्वक उसमें हियं वा चेतेश्जा । --- आ. मु २, अ. २, उ.१, सु. ४१५ स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्पुण उवस्सर्य माणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसा उपाश्रय जाने कि गृहस्थ ने साधुओं अस्संजते सिक्नुपडियाए खुडिया ओ नुवारियामओ महल्लियाओ के लिए छोटे द्वार को बड़ा बनाया है यावत्-संस्तारक कुस्खा-जाव-संथारगं संथरेज्जा बहिया वा णिणारख । बिछाया है, अथवा कुछ सामान बाहर निकाला है। तहप्पगारे उपस्सए अपरिसंतरकडे-जाव-अणासेविए णो ठाणं ऐसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत-यावत्-- अनासेदित था, सेमजं वा. मिसीहियं वा चैतेज्जा। हो तो वह स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न बारे। अह पूण एव जाणेजा पुरिसंतरक-जाव-आसेविते, पडिले- यदि यह जान वि वह उपाश्रय पुरखान्तरकृत -- यावत् - हिता पमज्जित्ता. ततो संजयामेव ठाणं वा, मिसीहियं चा आसेवित है तो प्रतिदिन पर्य प्रगार्जन करच यतापूर्वक उसमें चेसेज्जा । -आ. सु. २, अ. २, उ.१,सु. ४१६ स्थान, वाण्या एवं स्वाध्याय करे । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२-१०३ तृण पराल मिमिस उपाभय का विधि-निषेध चारित्राचार : एषमा समिति [६४ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से उजं पुण उवस्मयं जाणेज्जा- भिक्षु वा भिक्षुणी ऐसा उपाश्रय जाने कि गृहस्थ साधुओं के अस्संजए भिक्खपडियाए उबकपमुयाणि कवाणि वा, मूलाणि निमित्त से. पानी से उत्पन्न हुए लन्द मूल, पत्र, फूल, फल, बीज वा, पत्ताणि वा, पुष्पाणि वा, फलाणि वा, धीयाणि या, और हरी को एक स्थान से दुसरे स्थान ले जाता है या भीतर से हरियाणि वा, ठाणाओ ठाणं साहति, बहिया वाणिण्णक्ल । कन्द आदि पदार्थो को बाहर निकालता है। तहप्यारे उबस्सए अपुरिसंतरकर जाब-अणालेविते णो ठाणं ऐसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत-यावत् - अनासेवित हो बा, सेम्जं वा, मिसीहियं वा येतेजा। सो वहाँ स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । मह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे-आब-प्रासेविते, पछि- यदै यह जाने कि वह उपाश्रय पुरुषान्तरकृत-यावत्लेहिता पमज्जिता ततो संजयामेव ठाणं वा सेज्ज वा जासेवित है तो प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक स्थान, मिसीहियं वा चेतेज्जा। शच्या एवं स्वाध्याय करे। -आ. सु. २, अ. २, उ.२, सु. ४१७ से भिक्खू या भिक्खू गो वा से जं पुण उपस्सयं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षणी ऐसा उपाश्रय जाने कि गृहस्थ साधुओं को अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं या, फलगं वा, गिस्सेणि बा, ठहराने की दृष्टि से (उसमें रखे हुए) चौकी, पाट, नीसरणी या उदूनतं वा, ठाणाओ ठाणं साहति, बहिया वा णिण्यक्षु । ऊपल आदि सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, अथवा अन्य मामान बाहर निकालता है। तहप्पगारे उबस्सए अपुरिसंतरकरे-जाव-अगासेविते मो ठाणं ऐसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकुत-यावत्-अनासेवित्त हो तो वा, सेज्जं बा, णिसोहियं वा चैतेज्जा । माधु उसमें स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे। अह पुण एवं जाणेज्जा - पुरिसंतरकडे-नाव-प्रासेविते, पति- यदि यह जाने फि उपाश्रय पुरुषान्तरकृत - यावत् - आसे. सेहिता पमज्जित्ता ततो संजयामेव ठाणं वा, सेज्जं वा, बित है तो प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक स्थान, मिसीहियं वा तेज्मा । शय्या एवं स्वाध्याय करे । -आ. सु. २, अ, २, उ.१, सु. ४१८ तण पलाल णिम्मिय उबस्सय विहि-णिसेहो तृण पराल निर्मित उपाश्रय का विधि-निषेध१०३. से मिक्खू वा भिक्खूणी वा मे जंपुग उत्स्स आणेग्जा, १०३. भिल या भिक्षुणी उपायय के सम्बन्ध में यह जाने कि तृण तं जहा - तणपुंजेसु बा, पलालपुंजेसु वा. समंडे-जाव-मक्का पुंज ने बना गृह या पुआल पुंज से बना गृह अंडे-यावत्-- संताणए। मकड़ी के जालों से युक्त है। तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा, सेजलं वा, णिसीहियं या इस प्रकार के उपाय में स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न चेतेज्जा । करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से चं पुण उवस्सयं जाणेज्जा भिन या भिक्षुणी उपाषय के सम्बन्ध में यह जाने कि तृणतं जहा-तणपुजेसु वा पलालपुंजेसु वा अपंडे-जाव-मक्कडा पुंज से बना गृह या पुत्राल पूंज से बना गृह अंडों यावत्संताणए। भकढी के जालों से युक्त नहीं है। तहापगारे उबस्सए पडिलेहिता पमज्जिता ततो संजयामेव इस प्रकार के उपाश्रय में प्रतिलेखन प्रमार्जन करके यतना ठाणं वा, सेज्ज था, णिसीहियं बा चैतेजा। पूर्वक स्थान, शम्या एवं स्वाध्याय करे। -आ. सु.२, अ. २, उ. २, सु. ४३१ से तणेसु वा, तणपुंजेसु वा, पलालेसु वा, पलालपुंजेसु वा, जो उपाथय तृण या तृण पुंज, पराल या परालपुंज से बना अप्पडेसु-जाव-मक्कडा संतापएसु, अहे सवणमायाए । हो और वह अंडे - यावत्-मकड़ी के जालों से रहित हो तथा उस उपाश्रय के छत की ऊँचाई कानों से नोची हो तो । नो कप्पह निग्ग याण वा, निमांधीण वा, तहप्पगारे उबस्सए ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्धों और नियंन्थियो को हेमन्त ग्रीष्म हेमंत-गिम्हासु वत्थए। ऋतु में बसना नहीं कल्पता है। से तणेसु वा-जाव-माकडासंताणएसु, उरिपसवणमायाए । जो उपाय तृप या तृणपुंज से बना हो-यावत्---मकड़ी के जालों से रहित हो (मार हो) उपाश्रय की छत की ऊंचाई कानों से ऊँची हो तो, Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ६५०] धरणामुयोग कपाट रहित द्वार वाले उपाश्रय का विधि-निषेध सूत्र १०४-२०५ - कप्पइ निम्पयाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उपस्सए ऐसे उपाश्रय में निग्रंन्यों और निम्रन्थियों को हेमन्त तथा हेमंत-गिम्हासु वत्था। ग्रीष्म ऋतु में बसना कल्पता है। से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु था, पलालपुजेसु वा, जो उपाश्रय तृण या तृणपुंज या पराल या परालज से बना अप्पडेभु-जाव-सबकडासंताणएमु अहेरपणिमुक्कमउडेसु। हो और वह अंडे-यावत--मकड़ी के जालों से रहित हो किन्तु नो कप्पह निरगंयाण चा निग्गीण वा तहप्पगारे उवस्सए उपाश्रय के छत की ऊँचाई खड़े व्यक्ति के सिर में ऊपर उठे सीधे वातावासं वत्थए। दोनों हाध जतनी ऊँचाई से नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थों और निशियों को वर्षावास बसला नहीं कल्पता है। से तणेसु वा-जाव-मक्कडा संताणएमु उप्पि रयणिमुक्फमउ- जो उपाश्रय नृण से बना हो यावत् -- मवड़े के जालों से रेसु। . रहित हो और साथ ही उपाश्रय के छत की नाई खड़े व्यक्ति के सिर से ऊपर उठे सीधे दोनों हाथ जितनी ऊँचाई से अधिक कप्पड निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा तहप्पगारे उवस्साए हो तो ऐसे उपाश्रय में निर्गन्ध और नियन्थियों को वर्षावास में वासावासं बस्थए। -कप. उ. ४, सु. ३५-३८ वसना कल्पता है । अयंगुयदुवारिय उवस्सयस्स विहि-णिसेहो कपाट रहित द्वार वाले उपाधय का विधि-निषेध ।। १०४. नो कप्पद निग्गयोणं, अवंगुयदुवारिए उवस्सए बत्थए। १०४. निर्गन्थियों को खुले द्वार वाले उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। एग पत्यारं अंतो किच्चा, एग पत्यार वाहि फिच्चा, किन्तु परिस्थितिवश ठहरना पड़े तो एक पर्दा द्वार के अन्दर ओहाडिय चिलिमिलियागंसि एवं गं कापड पत्थए। करके और एक पर्दा द्वार के बाहर करके इस प्रकार चिलि मिलिका बाँध बर उसमें बराना कल्पता है । ओमहिज्जुत्त अवस्सयस्स विहि-णिसेहो--- धान्य युक्त उपाश्रय के विवि-निषेध१०५. उवस्सपस्स अंतोखगडाए सालीणि वा, वीहीणि वा, १०५. उपायय के भीतर शालि, व्रीहि. मूंग, उडद, तिल, कुलत्थ. मुम्माणि श्रा, मासापि वा, तिलाणि वा कुलत्थाणि वा, गेहूं, जो या उनार अव्यवस्थित पड़े हों या अनेक जगह गड़े हों गोधमाणि बा, जवाणि या, जवजवाणि वा, उक्वित्ताणिया, म बिखरे हुए हो. या विशेष बिखरे हुए हों तो, विविखसाणि वा, विहकिष्णाणि वा, विपदण्णाणि वा।। नो कप्पद निग्गंधाण वा, निग्गंधीण दा, अहालंदमवि निग्रंथों और नियन्थियों को वहाँ "यथालन्दकाल" तक भी यत्पए। बसना नहीं कल्पता है। अह पुण एवं जाणेज्जा - नो उक्वित्ताई, नो विक्वित्ताई, यदि निम्रन्थ और निग्रन्थियां यह जान जाये कि (उपाश्रय . नो थिइ किष्णाई, नो विपकिष्णाई। वे. परिक्षेप या आँगन में शालि-यावत्-जयजय) इक्षिप्त, विक्षिप्त, यतिकीर्ण और त्रिप्रकीर्ण नहीं है, रासिकहाणि वा, पुंजकडाणि वा, भित्तिकवाणि वा, कुलि- किन्तु राशिकृत, पुँजकृत, भित्कृित, कृतियाकृत तथा याकडाणि वा, संघियाणि वा, मुद्दियाणि वा. पिहियाणि वा। सांछित, मुद्रित या पिहित है तो, कप्पड़ निधाण वा निग्गयीण वा, हेमन्तु-गिम्हासु उन्हें हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु मे वहाँ बनना कल्पता है। वत्थए। अह पुण एवं जाणेज्जा नो रासिफडाई, नो पुंजकडाई, यदि नियंध और नियन्थियां यह जाने कि (उपाश्रय के नो भित्तिकमाई नो कुलियाकडाई। परिक्षेग वा आँगन में शालि-यावत्-जवजव) राजि कृत, पुंजकृत, भित्तिकृत या कुलिकाकृत नहीं है, कोट्टाउत्ताणि वा, पल्लाइत्ताणि बंग, संचाउत्ताणि वा किन्तु कोसे में या पल्य में भरे हुए हैं, मच पर या माले पर मालाउत्साणिवा, ओलित्ताणि वा, विलिनाणि वा, पिहियाणि सुरक्षित हैं, मिट्टी या गोबर से लिपे हुए हैं, उके हुए, चिन्ह लिये या, लंछियाणि वा, मुद्दियाणि वा । हुए या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वहाँ वर्षावास में बसना कापड निग्गयाम श्रा, निग्गयीण वा वासायास बत्थए। करपता है। - कप्प..२, सु. १-३ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र १०६-१०७ आहार युक्त उपाश्रय के विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६५१ आहार जुत्त उपस्सयस्त विहि-सही आहार युक्त उपाश्रय के विधि-निषेध.. १०६. उत्स्सयस्स अंतोषगडाए-पिण्डए बा, लोपए था, खीरं १०६. उपाश्रय की परिधि में पिण्डरूप वाद्य, लोचक-यावा आदि, वा. वहि वा. नवणीए था, सपि वा, तेल्ले चा, फाणिय वा, दूध, दही, नवनीत, घृत, तेल, गुड़, मालपुए, पूड़ी और धीखण्ड पूर्व वा. सक्कुली वा, सिहरिणो वा। (शिखरण) उक्खित्ताणि वा, विक्खित्ताणि वा, विइगिरणाणि वा, विष्प- उत्क्षिप्त विक्षिप्त व्यतिकर्ण और विपकी है तो, इण्णाणि वा। नो कप्पइ निग्गंधाण या निग्गंथीण बा, महालंदमवि वत्थए। निग्रन्थों और निम्रन्थियों को वहाँ "पथालन्दकाल' बसना भी नहीं कल्पता है। मह पुण एवं जाणेज्जा -नो उक्सित्ताई, नो विश्वित्ताई, यदि निन्थ और निम्रन्थियां यह जाने कि (उपाश्रय की नो विइकिग्णाई वा, नो विपदण्णाई वा। परिधि में या आंगन में पिण्डरूप खाद्य-यावत्-- श्रीखण्ड) संक्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण या चित्रवीर्ण नहीं है, रासिकहाणिया, पुंजकदाणि वा. भित्तिकवाणि वा, कृलि- किन्तु राशिकृत, पुंजकृत, भिनिकृत, कुलिकाकृत तथा लांछित याकखाणि वा, लछियाणि वा. मुदियाणि बा, पिहियाणि वा। मुद्रित या पिहित है सो, कप्पड निरगंथाण था, निग्गंथोण वा हेमंत-गिम्हासु निम्रन्थों और निग्रन्थियों को वहां हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु बत्थए। में बसना कल्पता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-नो रासिकमाई-त्राव-नो फुलिया- नियन्य और निर्गन्धियाँ यदि यह जाने कि (आश्रय के कडाई। भीतर में पिण्डरूप खाद्य-पावत्-श्रीखण्ड) राशिकृत-यावत् कुलिकाकुत नहीं है, कोढाउत्ताणि वा, पल्लाउत्साणि था, मंचाउत्ताणि वा, किन्तु कोठे में या पल्य में भरे हुए हैं, मंच पर या माले पर मालाउत्ताणि वा, भिउत्साणि वा, करभि-उत्ताणि वा नुरक्षित है, कुंभी या दोघी में घरे हुए हैं, मिट्टी शगोबर से औलित्ताणि वा, चिलित्ताणि वा, पिहियागि वा, लंछियाणि लिप्त हैं, ढके हुए, चिन्ह किये हुए या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वा. मुष्टियाणि वा। कप्पइ निग्गंधाण वा, निग्गंधीण वा वहाँ वर्षावास करना कल्पता है । वासावासं वत्थए। -कप. उ. २, सु. ८-१० मामाइसु वासाबास विहि-णिसेहो ग्रामादि में चातुर्मास करने का विधि-निषेध१०७. से भिक्खू वा मिक्खूणी वा से ज्जं पुण जाणेजा-मामं वा १०७. भिक्षु या भिक्षुणी ग्राम-पावत् ---राजधानी के सम्बन्ध -जाव-रायहाणि वा। में यह जाने किइमंसि खलु गामंसि वा-जाब-राबहागिसि वा जो महती इस ग्राम-यावत् -राजधानी में स्वाध्याय योग्य विशाल बिहार भूमि, गो महती बियार भूमी । भूमि नहीं है, मलमूत्र विसर्जन के लिए विशाल स्थंडिल भूमि णो सुलभे पोह फलग सेज्जा-संयारए । पीठ फलक शम्या संस्तारक भी सुलभ नहीं है, जो सुलमे फासुए उछे अहेसगिज्जे । प्रारुक निदोष एषणीय आहार पानी भी सुलभ नहीं है, बहवे जत्थ समण-ज्ञाव-वणीमगा उबागया उवागमिस्संति य जहाँ बहुत से श्रमण-मावत्-भिखारी आये हुए है या अच्चाइण्णा विती, णो पण स्स णिप्रखमण पवेसाए-जाय- जावेंगे, तथा मागों में जनता की भीड़ भी अधिक रहती है। चिताए। प्रज्ञावान् साधू को वहाँ निकालना प्रवेश करना--यायत्-धर्म सेवं गच्चा तहप्पगार गाम वा-जाय-रायहाणि वाणो वासा- चिन्तन कारमा उपयुक्त नहीं होता है, ऐसा जानकर इस प्रकार के बासं उपसिएज्जा। ग्राम-पावत् । राजधानी में वर्षाचास नहीं करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण जाणेज्जा-गाम घा भिक्षु या भिक्षुणी ग्राम-- यावत्-राजधानी के सम्बन्ध में जाव-रावहाणि वा। यह जाने कि, Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२] घरगानुयोग वहुभुत वसति निवास विधि-निषेध मूत्र १०७-१११ इमंसि स्खलु गामसि बा-जाव-रावहाणिसि था, महतो इस ग्राम--यावत्--राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल विहारभूमि, महतो वियारभूमि । भूमि है, मल-मूथ-विसर्जन के लिए विशाल स्थग्विल भूमि है, सुलभे जत्थ पौढ-फलग-सेज्जा-संथारए, यहाँ पीठ, फलक, गच्या-संस्तारक को प्राप्ति भी सुलभ है, सुख फासुए उछे अहेसणिज्जे, प्रामुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है,। जो जत्थ बहबे समण-जाव-वणीमगा उवागया उवागमिस्संति जहाँ बहुत-से श्रमग-- पावत्- भिखारी आये हुए नहीं हैं य। और न आयेंगे अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स जिखमण-पबेसाए-जाव-चिंताए। तथा यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी कम है, जिससे सेवं णच्या तहप्पगारं गाम वा-जाव-रायह "णि बा तजो कि प्राज्ञ साधु का निकलना और प्रवेश करना-यावत्-धर्म संजयामेव पासावासं उपसिएग्जा। चिन्तन करना हो सकता है, अतः इस प्रकार जानकर साधु ऐसे - आ. मु० २, २०३, २०१, सु० ४६५-४६६ ग्राम यावत्-राजधानी में यतनापूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। बहुमयस्स वसइ वासाई विहि-णिसेहो- बहुधुर वसति निवास-विधि-निषेध१०८. से गामसि वा जाव सनिवेसंसि वा अभिनिव्वगए, अभि- १०८. भिन्न-भिन्न वाड़, प्राकार या द्वारवाले और भिन्न-भिन्न निद्वाराए, अभिनिफ्लमण-पवेसणाए नो कप्पर बहुर सुयम्स निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम- यावत्-- सनिवेग में अकेले बहुश्रुत बम्मागमस्स एवाणियस्स भिक्खुस्स वत्यए किमंगपुण अप्प- और बहुआयमश भिक्षु को भी बराना नहीं कल्पता है तो अल्पश्रुत सुयस्स अप्पागमस्स? और अल्पाममज्ञ भिक्षु को (पूर्वोक्त ग्राम यावत् - सग्निवेश में) वसना कैसे कल्प सकता है? १०६. से गामंसि वा जाव सनिवेसंसि वा एगवगडाए, एपवाराए, १०६. एक बाड़, प्राकार या द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश एगनिक्खमण-पवेसाए कप्पड़ बहस्सुयस्स बम्मागमस्स एगा- वाले ग्राम- यावत्-सन्निवेग में अकेले बहुश्रुत और बहु आगमन णिवस्स भिक्षुस्स यथए दुहओ कालं भिक्खुभावं पडिजाग- को वसना कल्पता है यदि बह भिक्षुभाव (सयमभाव) के प्रति रमाणस्स। -मबहार, उ.६, सु. १४-१५ सतत जागृत हो तो। काउसग्ग हेउ ठाणस्स विहि-णिसेहो कायोत्सर्ग के लिए स्थान का विधि-निषेध११०. से भिक्ष वा भिक्खूगी वा अभिकंज्जा ठाणं महत्तए। ११०. भिक्षु या भिक्षुणी यदि किसी स्थान में कायोत्सर्ग से रहना से अणुपविसेज्जा गाम बा-जाव-रायहाणि वा। चाहे तो वह पहले ग्राम-यावत् -राजधानी में पहुंचे, से अणुपविसित्ता गाम बा-जाव-रायहाणि वा से ज्ज पुष्प वहाँ ग्राम-यावस् - राजधानी में पहुंच कर वह जिस ठागं जाम्जा -स-जात्र-मपकवासंताणयं । स्थान को जाने कि यह अंडों-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त है, तो तहप्पगारं ठाणं अफामुयं-जाट-णो परिगाहेज्जा, उस प्रवार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। एवं सेज्जा-गमेण नेयध्वं नाव उदयपमूयाई ति।' इसी प्रकार इमसे आगे की स्थानवणा सम्बन्धी वर्णन - आ. सु. २, अ. ८, उ. १, सु. ६३७ मध्यषणा अध्ययन में निरूपित उवक प्रत कादि तक के वर्णन के समान जान लेना चाहिए। णिसोहियाए गमण विहि-णिसेहो--- स्वाध्यायभूमि में जाने के विधि-निषेध१११. से भिक्खू वा भिवखूणी वा अभिकखेज्जा णिसीहियं १११. भिक्षु या भिक्षुणी स्वाध्यायभूमि में जाना चाहे तो, गमणाए। मे पुण णिसीहियं जाणमा सबंड-जाव माकडासंतागर्य, वह स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध में रह जाने कि जो अंडों, -~~-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त हो तो, १ आ. सु. २, अ, २, उ. १, सु. ४१२-४१७ पर्यन्त । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र १११-११४ अन्तर गृहस्थानावि प्रकरण चारित्राचार : एषणा समिति १६५३ तहप्पगारं णिसोहियं अफासुयं-जाव-णो एज्जा । जस प्रकार की स्वाध्यायभूमि को अमासुक समक्ष कर यावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी या अभिकलेजा णिसाहियं गमणाए, भिक्ष या भिक्षुणी स्वाध्याय भूमि में जाना चहे तो से ज्ज पुण निसीहियं जाणेज्जा-अप्पड जान-मक्कडासंताणयं। वह स्वाध्याय भूमि के सम्बन्ध में यह जाने कि जो अंडों तहप्पगार मिसीहियं कासुयं-जाव-घेएज्जा। -यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है उस प्रकार की स्वा व्याय भूमि को प्रासुक सनझबार-यावत्--ग्रहण करे । एवं सेउजागमेण यच्च जाब उदयपस्यापि त्ति । इसी प्रकार इससे आगे का स्वाध्यायभूमि सम्बन्धित वर्णन -आ. सु. २, अ. २, उ.८, सु. ६४१.६४२ शय्येवणा अध्ययन में निरूपित उवय प्रसूत कंवादि तप के वर्णन के समान जान सेना चाहिए । अंतोगिहठाणाइ पगरणम् अन्तर गृहस्थानादि प्रकरण११२. नो कप्पद निगंयाण वा निगंधीण वा--अंतरपिहंसि ११२. निर्ग्रन्थों और निर्गन्थियों को गृहस्थ के घर में या दो घरों आसपसरसा, चिटिशए पालिसीसर का, तुट्टित्तए का, के मध्य में ठहरना, बैठना-यावत्- खड़े होकर कायोत्सर्ग करना निदाइत्तए वा, पयलाइत्तए वा, वसग वा, पाणं वा, साइमं नहीं कल्पता है। वा, साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चार वा पासवर्ग वा यदि वह यह जाने कि-मैं व्याधि-ग्रस्त, जरा-जीर्ण, तपस्वी खलं वा सिंघाणं वा परिवेत्तए, सज्मायं वा करित्तए, क्षाणं या दुर्बल हूँ। वा, शाइसए, फाउत्सर्ग वा करित्तए, ठाणे वा ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणिज्जा - वाहिए, जराअण्णे, तबस्सी, अथवा (भिक्षाटन से) क्लान्त कर मूक्छित हो जाए या दुष्यले, किलते मुन्छेन्ज वा, पवडेज्ज वा एवं से कप्पड गिर पड़े तो उसे गृहस्थ के घर में या दो परों के मध्य में ठहरना अंतरगिहंसि आसइत्तए वा जाव-ठाणं वा ठाइत्तए। -पावत्-कायोत्सर्ग कर स्थित होता कल्पता है। - -कम.उ. ३, सु. २१ अवग्रह ग्रहण विधि-४ पंचविहा उग्गहा पांच प्रकार के अवग्रह११३. सुर्य मे आउस तेर्ण भगवया एवमक्खायं-इन खलु बेरेहि ११३. हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार सुना मगवंतेहि पंचविहे उग्गहे पणते, तं जहा है कि इस जिन-प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने पांच प्रकार का अवग्रह अर्थात् पाँच प्रकार की आज्ञा बताई है। जैसे कि१. देवियोगहे, २. रामओगहे, (१) देवेन्द्र-अवग्रह (२) राजावग्रह, ३. गाहावतिउगहे, ४. सागारिय उग्गहे. (३) गृहपति-अवग्रह, (४) सागारिक-अवग्रह, और ५. साहम्मिय उग्गहे। (५) साधर्मिक-अवग्रह । -आ. सु. २, अ.७, उ. २, सु. ६३५ उग्गह गहण विहि आज्ञा ग्रहण करने की विधि११४. विहयधूया नायकुलवासिणी, सा वि यावि ओगह अणुश्न- ११४. पिता के घर पर जीवनयापन करने वाली विधवा लड़को वेयन्वा किमग पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा. से वि या की भी आज्ञा ली जा सकती है अतः पिता, भाई, पुत्र का तो वि ओगहे ओगेव्हियग्वे । पहे वि ओग्गही अणुनवेयय्यो। कहता ही क्या ? उनकी भी आज' ग्रहण की जा सकती है तथा -बव. उ.७, सु. २४-२५ मार्ग में ठहरना हो तो उस स्थान की भी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। १ वि० स०१६, उ०२, सु० १० Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४] चरथानुयोग पूर्वगृहीत नवग्रह के ग्रहण की विधि पुध्व गहिय उग्गहस्स गहण विहि पूर्व गृहीत अवग्रह के ग्रहण की विधि११५. बाल इत्य, कसरि गवि परिहार- ११५. कोई अचित्त उपयोग में आने योग्य यस्तु भी उपाश्रव में रिहे सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुनवणा चिट्ठा अहालंदमदि हो उसका भी उनी पूर्व की (विहार करने वाले श्रमणो से गृहीत) उग्गहे। आज्ञा से जितने कान रहना हो उपयोग किया जा सकता है। से बत्थूसु-अव्वावडेट अबोगसु अपरपरिम्यहिएम. अमर- जो घर, काम में न आ रहा हो, कुटम्ब द्वारा विभाजित न परिग्गहीएसु सच्चैव जग्गहस्स पुच्चागुलवणा चिट्ठइ अहाल द- हो, जिस पर किसी अन्य का प्रभुत्व न हो अथवा किसी देव यावि उग्गहे। द्वारा अधिकृत हो तो उसमें भी उसी पूर्व की (विहार करने वाले श्रमणों द्वारा ग्रहीत) अज्ञा से जितने काल रहना हो ठहरा जा सकता है। से वत्थूसु वायदेसु परपरिम्गहिएसु भिक्षुमावस्स अट्टाए जो घर काम में आ रहा हो, कुटुम्ब द्वारा विभाजित हो घोच्चपि उम्गहे अणु अवेयावे सिया अहालन्दमवि उगहे।। वा (पूर्व रहे श्रमों के विहार करने पर) अन्य में परिगृहीत हो गया हो तो भिक्षु भाव के लिए जितने समय रहता हो उसकी दुनरी धार आज्ञा लेनी चाहिये । से अणुकुसुवा, सच्चेव जग्गहस्म पुब्वाणुनवा चिट्टइ। मिट्टी आदि से निर्मित दिवाल के पास, ईट आदि से निर्मित अहालंदमवि उग्गहे। --कप्प. उ. ३, सु. २६-३२ दिवाल के पास, चरिका (कोट के यास का मार्ग) के पास, खाई के पास, सामन्य पथ के पास, बाड या कोट के पास भी उसी पूर्व की (बिहार करने वाले श्रमणों द्वारा ग्रहीत) आज्ञा से जितने काल रहना हो ठहरा जा सकता है। उग्गह खेत्तपमाणं अवयह क्षेत्र का प्रमाण११६. से गामसि वा जाव-सन्निवेससि वा कप्पद निरगंधाण बा ११६. निर्ग्रन्थों और निम्रन्थियों को ग्राम यावत्-सन्निवेश में निग्गंधीण वा सध्वी समता सक्कोसं जोयणं उग्गहं चारों ओर से एक कोश सहित एक योजन का अवग्रह ग्रहण ओगिहिसाणं चिद्वित्तए। -कप्प. उ. ३. सु. ३४ बरके रहना कल्पता है, अर्थात् एक दिशा में दाई कोश क्षेत्र में जाना आना बाल्पता है। जग्गह गहण बसण-विकेगा अवग्रह के ग्रहण करने का और उसमें रहने का विवेक११७. से आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु वा, अगुवाइ उगह ११७. साधु पथिकशालाओं यावत् –परिवाजकों के आवासों जाएज्जा, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समट्टिाए ते जग्गाहं का विचार करके अवग्रह ग्रहण करे, उस उपाश्रय के स्वामी की अषुण्णवेज्जा -- या जो अधिष्ठाता हो तो उसकी आज्ञा माँगे और कहेकाम खलु आउसो ! अहालवं अहापरिणाय वसामो, जाव "हे आयुष्मन् ! आफबी इच्छानुसार जितनी अवधि तक आउसो, जाव आउसंतस्स उम्गहे, गाव साहम्मिया, एता जितने काल तक की अनुमा दोगे उतने समय तक हम निवास ताब जगह ओगिणिहस्सामो तेण पर विहरिस्सामो।' करेंगे और जितनी अवधि तक आयुष्मन् की अनुज्ञा है उस अवधि में यदि अन्य सामिक जितने आएगे के भी उसी अवधि तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे उसके बाद हम और वे विहार फर देंगे।" से कि पुण तत्थ उम्महसि एषोग्राहियंसि ? उक्त स्थान में अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या क्या विवेक रखे? जे तत्व समणाण वा, माहणाण वा, दंलए वा, छत्तए वा वह यह ध्यान रखे कि-वहाँ पहले उहरे हुए शाश्यादि -जब-चम्मछेदणाए वा, त णो अतोहितो बाहि गीणज्जा, श्रमगों या ब्राह्मणों के दार, छत्र यावत्-चच्छेदनक आदि १ आ. सु.२, म.७.उ. १, सु. ६०० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११७-१२० सचित पृथ्वी आदि का अवग्रह निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६५५ बहियाओ चा जो अंतो पवेसेजा, णो सुत्त वा ग पडियो- उपकरण पड़े हों, उन्हें वह भीतर से बाहर न निकाले और न हेज्जा, णो तेसि किंचि ति अप्पत्तियं परिणीयं करेज्जा। ही बाहर से अन्दर रखे, तथा किसी सोए हुए को न जमाए। -आ. सु.२.अ. ७, इ.२, सु. ६२१-६२२ उनके गाथ बिचित मात्र भी अनीतिजनक या प्रतिकूल व्यवहार न करे, (जिससे उनके हृदय को आघात पहुंचे ।) अवग्रह ग्रहण निषेध-५ सचित्त पुढवो आईणं उगह णिसेहो--- सचित्त पृथ्वी आदि का अवग्रह निषेध११८. से भिक्खू वा भिक्खूणी या से ज्जं पुण उमगहं जाणेग्जा-- ११६. भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे अवग्रह स्थान को जाने, जो अणंतरहियाए पुढवीए-जाव-मक्क डा.संताणए तहप्पगारं सचित पृथ्वी के निकट हो यावत्-मकड़ी के जाले से युक्त उम्गहें णो ओगिण्हेज्ज वा, पगिण्हेज्ज वा। हो, तो इस प्रकार के स्थान का अवग्रह -"आज्ञा" ग्रहण न - आ. सु. २, अ. ७, उ.१.नु.६१२ बरे । अंतलिक्खजात उगहाणं णिसेहो - अन्तरिक्ष जात अबरहों का निषेध११६. से मिक्खू वा भिक्षूणी वा से ज्ज पुण उग्गहं जाणज्जा-११६. भिक्षु या भिक्षुगी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, यथा-ठूठ, थूणंसि बा, गेहलुगंसि धा, उसुयालसि वा, कामजलसि वा, देहली, उखल, स्नान करने की चौकी तथा अन्य भी ऐसे जन्तअषणयरसि वा, तहापगारेसि अंत लिक्खजायसि दुम्बर्द्ध-जाव- रिक्ष जात "आकाशीय" स्थान जो कि दुबंद्ध - यावत्-चला. चसाचले, जो उगह ओगिण्हेन्ज वा पगिण्हेज्ज वा। चल हो उनका अपग्रह ग्रहण नहीं करे । से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से उजं पुण उमगह जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे अवग्रह को जान, जो घर की कच्ची खंधसि वा. मितिसि वा सिलसि वा, लेलुसि वा, अण्णयरंसि पतली दीवार, ईंट आदि की पक्की दीवार, शिला म शिलाखंड वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि दुब्बवे-जाव-चताचले पत्थर आदि अन्य भी ऐसे आकाशीय स्थान जो कि दुर्बद्ध जो उगहं ओगिण्हेज बा, पगिण्हेज्ज वा। -यावत्-चलाचल हो उनका अत्रग्रह ग्रहण न करे । से भिक्खू वा भिक्खूणी बा से ज्ज पुण उग्गहं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे अवग्रह को जाने-जो स्तम्भ गृह खंधसि वा, मंचसि वा, मालसि बा, पासायसि वा, हम्मि- चान, ऊपर की मंजिल, प्रासाद, हवेली की छत तथा अन्य भी यततंसि वा, अण्णयरसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि ऐसे आकाशीय स्थान जो कि दुबंद-यावत्-चलाचल हो, दुबवे-जाव-चलाचले, णो उग्गहं ओगिण्हेज्ज वा पगिण्हेर उनका अवह ग्रहण न करे। वा। --आ. सु. २, अ. ७, उ. १, सु. ६१३-६१५. सागारिय संजुत्त उबस्सयस्स उगह णिसेहो- गृहस्थ संयुक्त उपाश्रय का अवग्रह निषेध१२०. से भिक्खू वा मिक्खूणी चा से जं पुण जग्गाहं जाणेज्जा- १२०. भिनु या भिक्षुगी ऐसे अवग्रह को जाने, जो गृहस्थों से ससागारियं, सागणिय, सउदयं सहत्यि, सखुदाई, सपमु. संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो और जल से युक्त हो तथा जो मसपाणं णो पण्णस्स णिक्तमण पवेसाए-जाव-धम्माणुओर स्त्रियाँ, छोटे बच्चे, पशु और खाद्य सामग्री से युक्त हो प्रज्ञादाद चिताए. साधु के लिए ऐम आवास स्थान निगंगन-प्रवेश – यावत् -धर्मा नुवोग चिन्तन के योग्य नहीं है, सेवं गचा तहप्पगारे उबस्सए ससागारिए-जाव-सपसु- यह जानकर गे गृहस्थ से संनक्त यावत् -पशु और खाद्य भरापाणे, नो उग्गहं ओगिहेज्ज वा, पगिरहेज्ज वा। सामग्री से युक्त उपाश्रय का अवयह ग्रहण न करे। -आ. सु. २, भ.७, उ. १, सु. ६१६ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६] वरणानुयोग गृहस्य के घर से संलग्न उपायय का अवाह निषेध rwww.wwwww पडिबद्ध उवसयस्स उगह णिसेहो-- गृहस्थ के घर से नंलग्न उपाश्रय का अवग्रह निषेध१२१. से भिक्खू या, भिक्खूणी वा से जं पुण जगह जाणेज्जा- १३१. भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे अवग्रह स्थान को जाने कि जिसमें गाहावतिकुलस्स मसंमजोणं गहुँ बस्थाए, घडिवर वा, णो टहरने पर गृहस्थ के घर में से होकर जाना-आना पड़ता हो अथवा पण्णस्स णिक्खमण पवेसाए-जाय-यामागुओग चिताए, जो गृहस्थ के घर रो संलग्न हो वहाँ प्रज्ञावान साधु को निकलना और प्रवेश करना-यावत्-धर्मानुयोग चिन्तन करना उचित नहीं है, से एवं गच्चा तहप्पगारे उवरसए णो उग्गहं ओगिरहेन्ज वा, यह जानकर ऐसे उपाश्रय का अवग्रह ग्रहण न करें। पगिण्हेज्ज वा। -आ. सु. २, अ. ७, न. १, सु. ६१५ अकप्पणिज्ज उवस्मयाण उगह णिसेहो अकल्पनीय उपाथयों का अवग्रह निषेध१२२. से मिक्स्न बा, भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उग्यहं जायेज्जा-१२२. भिक्ष या भिक्षुणी ऐसे अवग्रह स्थान को जाने, जिनमें इह खलु गाहायती वा जाव-फम्मकरोओ वा, अन्नमन गृहस्वामी-यावत्-नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे पर आक्रोश अबकोर्स तिवा-जाव-उद्दवति वा । तहेव तेल्लादि, रिणाणादि, करते हों- यावत्-उपद्रव करते हो इसी प्रकार परस्पर एक सीओदगवियडादि, णिगिणाठित्ता जहा मज्जाग आलावा, दूसरे के शरीर पर लेल आदि लगाते हों. स्नानादि सुगन्धित द्रव्य वरं उग्गह बत्तव्यता । लगाते हों, शीतल या उष्ण जल से गात्र सिंचन आधिकरते हों -आ. सु. २, अ. ७, उ. १, सु. ६१८ या नग्न स्थित हो इत्यादि वर्णन शय्या अध्ययन के आलापकों की तरह यहाँ समान लेना चाहिए इतना विशेष है कि यहाँ अब ग्रह की वक्तव्यता कहनी चाहिए। सचित्त उवस्सयस्त जग्गह णिसेहो सचित्र उपाधय का अवग्रह लेने का निषेध-- १२३. से मिक्ख वा भिक्लूणी बा से ज्जं पुण उगाहं आमज्जा- १२३. भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे अवग्रह स्थान को जाने कि जो स्त्री आइग्ण संलेक्वं, णो पण्णस्स णिक्यमण पवेसाए-जाब- पुरपों आदि के चित्रों से आकीर्ण हो, ऐसा उपाश्रय प्रजावान साध घम्माणुओगचिताए से एवं जच्चा, तहप्पगारे उपए णो के निर्गमन-प्रवेश--यावत्-धर्मानुयोग चिन्तन के योग्य नहीं है। उग्गहं ओगिण्हेज वा, पगिरहेज्ज वा । यह जानवार ऐसे उपाथव का अवग्रह ग्रहण न करे । -आ. सु. २, अ. ७, इ. १. सु. ६१९ संस्तारक ग्रहण विधि-६ आगंतुग समणाणं सेज्जा संचारगस्स विहि आगन्तुक धमणों के शय्या संस्तारक की विधि१२४ जदिवस च समणा निम्ग या सेज्जासंथारयं विप्पजहंति १२४. जिस दिन श्रमण-निग्रंथ गम्या-संस्तारक छोड़कर बिहार तदिवस च णं अवरे समणा निगंथा हवमागच्छेजा सकमेव कर रहे हों उसी दिन या उसी समय दूसरे श्रमण-निग्रंत्य का जावें ओम्गहस्स पुग्वाणुनषणा घिदृह अहानमवि उम्गहे। तो उसी पूर्व गृहीत आज्ञा से जितने भी समय रहना हो शव्या -कप्प. उ. ३. सु. २८ संस्तारक को ग्रहण करके रह सकते हैं । सेज्जासंथारग गहणं विहि शय्या संस्तारक के ग्रहण की विधि१२५. गाहा उबू पम्जोसथिए । ताए गाहाए, ताए पएनाए ताए १२५. हेमन्त ग्रीष्म या वर्षाकाल में किसी घर में ठहरने के लिए उवासंतराए, जमिण जमिणं सेम्जासंथारगं समेजमा, तमिणं रहा हो उस घर के उन स्थानों में जो जो अनुकूल स्थान या तमिगं ममेव सिया। संस्तारक मिले वे वे मैं ग्रहण करू । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२५-१२९ www नियों के कल्प्य आसन मेरा य से अगुजाज्जा, तस्सेव लिया । बेरा य से नो अणुजाणेला नो तस्सेव सिया । एवं से कापड अहारानिति ॥ - बव. उ. ८ सु. १ विभ्ययाणं कप्पणिज्ज आसगाई - सावस्सयति असणंसि असइत्तए वा. १ १२६. कप्पनिया तुर्यात्तिए या कप्पइ निग्रगंधाणं सविसाणंसि पोठंसि वा फलगंसि वा, आइए वा तुयट्टिए वा । अप्प . सु. ३७-३३ सेज्जासंवारग आणण विहि - सेम्जा, जं चक्किया एमेणं हत्येणं ओगिज्न जाब- एगार वा बुयाई वा तियाहं वा अाणं परिवहित्तए, एस में हेमंत गिम्हालु भविस्स । से य अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा-जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिण्झ-जात्र एगाहं वा, बुयाहं वा तियाया अपरिवहिए एव सेय अहालहसगं सेज्जासंधारगं गयेसेज्जा जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्न जान एयाहं वा दुयाहं वा, तियाहं वा चज या या पंचा वा घूरमवि अद्धाणं परिवहिलए एम मे बुढाबासामु भविस्सइ । -उप सु. २-४ सेज्या संथारगस्स पुणरवि अणुष्णा १२८. कप्पए निर्णाण वा निम्नयोण या पाडिहारियं वा लामारिया सेनाधार अवेता बहिया नोहरितए । कम्पह निगंधाण वा निमोण वा पाडिहारियं वा सागारिय-संतियं वा सेज्जासंघारगं सवप्पपा अप्पिणिता दोच्चं पिओमा अणुखता अहि. ७-६ सेज्जा संचारण संचरण बिही १२.भा.अभिलासेजार भूमि परिहारिया या पवत्तएणं वा, थेरेण वा गणिणा वा गणहरेण वा गणा कप्प. उ. २, सु. १६ । चारित्राचार : एषणा समिति [६५७ किन्तु स्थविर यदि उस स्थान के लिए आशा दे तो वहाँ शय्या संस्तारक करना कल्पना है। यदि स्थविर आज्ञा न दें तो वहाँ शय्या संस्तारक करना नहीं कल्पता है । स्थविर के आज्ञा न देने पर ययारत्नाधिक (दीक्षा पर्याय से ज्येष्ठ-कनिष्ठ) क्रम से शय्या संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है । निर्ग्रन्थों के कल्प्य आसन १२६. निसाको साग (अवलम्बनयुक्त पर बंदना एवं शयन करना कल्पता है । निर्ब्रन्थ साधुओं को सविषाण पीठ (बाजोट) पर या फलक (शयन का पाट) पर बैठना एवं शयन करना कल्पता है । शय्या संस्तारक के लाने को विधि १२७. श्रमण यथासम्भव हल्के सध्या संस्तारक का अन्वेषण करे। वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से ग्रहग करके लाया जा सके तथा एक दो तीन दिन तक के मार्ग से लाया जा सकता है। इस प्रयोजन से कि यह शय्या संस्तारक मेरे हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में काम आएगा ।" श्रमण यथासम्भव हल्के या संस्तारक का अन्वेषण करे । वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से ग्रहण करके लाया जा सके तथा एक दो तीन दिन तक के मार्ग से लाया जा सकता है। इस प्रयोजन से कि "यह शय्या संस्कारक मेरे वर्षावास में काम आएगा।" श्रमण यथासम्भव हल्के शय्या संस्तारक की याचना करे । वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से उठाकर लाया जा सके तथा एक, दो, तीन, चार, पाँच दिन में पहुंचे इतने दूर (दो कोश उपरान्त) के मार्ग से भी लाया जा सकता है इस प्रयोजन से कि "यह शय्या संस्तारक मेरे वृद्धावास में काम आएगा।" शय्या संस्कारक को पुनः आशा लेने की विधि १२. निर्ग्रन्थ निन्थियों को प्रातिहारिक या शय्यातर का शय्या संस्कारक दूसरी बार आशा लेकर होति से बाहर से जाना कल्पता है । निर्ब्रन्थ निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक मा शय्यातर का व्या संस्तारक सर्वथा सौंप देने के बाद दूसरी बार आज्ञा लेकर ही काम में लेना कल्पता है । शय्या संस्तारक के बिछाने की विधि १२६. विमा निक्षुषी या संस्कार भूमि की प्रतिलेखना करना चाहे तो वह आचार्य उपाध्याय प्रवर्तक स्थविर, गणी, गणधर गणावच्छेदक, बालक, वृद्ध, शैक्ष (नवदीक्षित) ग्लान एवं Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] चरणानुयोग www www शय्या संस्तारक पर बैठने व शयन की विधि 7 वच्छेदएण था, बालेग वा. बुड्वेण वा, सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा, मज्मेण वा, समेण वा विसमेण या पवाएण वा. शिवासेण वा पडिलेहिय पडिले हिय पमज्जिय पतिता संघा -- आ. सु. २. अ. २, उ. ३, सु. ४६० ( १ ) सेन्जाबारे आरोहण सयण विहि१३०, सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफानुयं सेज्जासंथारा संचरिता अभिकलेज्मा, बफासुए सेन्नासंधारण दुकहिनए । सेभिक्खू या भिक्खुगी वा बहुफालुए लेज्जासंथारए दुरूहमाणे पाय पमज्जिय पमज्जिय ततो संजयामेव बहुफासुए सेसेज्जासंधारए दुरुहेज्जा हुम्हहिता ततो संजया मेव बहुफाए मेज्जासंथारए सज्जा । सेवामा समा जो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पायेण गावं कारण कार्य आसाएज्जा से अवासाय अवासायमाणे ततो संजयामेव बहुफाए सेवाभासा सेभिक्खू वा भिक्खूणी वा ऊससमाणे वा नीससमा वा कासमाणे वा, छोयमाणे वा जंमायमाणे वा उड्डोए वा, वातजिसमे वा करेमाणे, पुण्यामेव आसयं बा पोसयं वा पाणिणा परिपिता तसो संजयामेच ऊससेज्ज वा जाव वायसिगं वा करेज्जा । -आ. सु. २, अ. २. उ. ३, सु. ४५०-४६१ अण्णसंभोइयाणं पीढाई नियंतण विही १३१. से आगंतारेसु वाजय परियावसहेनु वा अणुवीद अहं जाएजा जाव से विपुण तत्योसि एवोस? जे तत्य साहम्मिया अष्णसंभोइया समगुण्णा उगच्छेज्जा जे तेण सयमेतिए, पीछे वा फलए वा सेज्जासंधारए वा रोगले एसएस उपमित वयं परिपरिवार बीयि सूत्र १२०-१३२ अतिथि साधु के लिये किनारे का स्थान मध्यस्थान या सम और विषम स्थान वातयुक्त या निर्वातिस्थान को छोड़कर अन्य भूमि का बार-बार प्रतिलेखन एवं प्रभाव वारके अपने लिए अत्यन्त प्रागुकास्तरको नाक संस्कारक पर बैठने व शयन की विधि १३०. भिक्षु या भिक्षुणी अत्यन्त प्राक शय्या संस्तारकः बिछाकर उस अति प्राशुक शय्या संस्तारक पर चढ़ना चाहे तो भिक्षु यः भिक्षुणी उस अति प्रासु शय्या-संस्तारक पर चढ़ने से पूर्व मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भली-भांति प्रमाजैन करके फिर यतनापूर्वक उस अतिमायुक या संस्तारक पर आरू होने और रूट होकर यतनापूर्वक उस पर शयन करे। भिक्षु या भिक्षुणी उस कतिपासुन शन्या संन्तारक पर शयन करते हुए परस्पर एक दूसरे के हाथ से हाथ पैर से पैर और शरीर से शरीर की आशालना नहीं करे. इस प्रकार माशालना न करते हुए पतनापूर्वक अशा संन्तारक पर सोदे । fra या भिक्षुणी ( पाय्या संस्तारक पर संति-बैठते हुए) श्वास लेते हुए श्वारा छोड़ते हुए खांनते हुए. श्रींकते हुए. उबासी लेते हुए, डकार लेते हुए या वायु निसर्ग करते हुए पहले ही मुंह या अपनवार को हाथ से ढक कर पतनापूर्वक श्वास लेवे - यावस् - वायुनिसर्ग करे । अन्य सांयोगिक को पीठ आदि के निमन्त्रण विधि १३१. साधु पथिकशालाओं यावत् परियाजकों के आवासों मैं विनार कर अग्रह ग्रहण करे यावत्वग्र ग्रहण करने के वाद और क्या करे ? यदि वहाँ माधभिक, अन्य सांयोगिक, समनोज साधु आ जाये तो स्वयं के लिए ग्रहण किये हुए पीड, फल व शय्या गोमंस्तानि जन्य साथीक साधुओं को निमन्त्रण कर दे दें। किन्तु उनके लिए अन्य ही लाकर देवे ऐसा न करे । , सामारिक केशरा संस्कारक की प्रत्यर्पण विधि आ सु. २. अ. ७ . १, सु. ६१० सागारिय सेज्जा संधारगा पचविणण विही१३२. कप्पइ निग्गंथाण वा निमांदीण वा सागारिय संतियं नेज्जा- १३२. निर्ग्रन्थ और निन्थियों को यागारिक का ग्रहण किया संचारयं आयाए विगरणं कट्ट संपल्वइसए । हुआ शय्या संस्तारक व्यवस्थित करके विहार करना कल्पता है। -कम उ. ३. सु. २६ विप्पण सेवासंवारवाणं गवेसण बिही-१३३. इह खलु निमाण वा निगोयोण वा पारिहारिए वा सागारियां लिए था सेवा संचार विष्वणसेज्जा से य अणु गवेसियले सिया । खोए हुए शय्या संस्तारक के अन्वेषण को विधि१३३.नि और निधियों को पातिहारिया याचारित वा शय्या संस्तारक यदि गुम हो जाये तो उसका अन्वेषण करना चाहिए । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३३-१३६ प्रतिलेखन किये बिना शय्या पर शयन करने वाला पाप-श्रमण होता है चारित्राचार : एषणा समिति [६५६ से य अणुगवेसमाणे लभेज्जा तस्सेब पडिवायथ्ये सिया। अन्वेषण करने पर यदि मिल जाये तो उसी को दे देना चाहिए। से य अणुगसमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पद वोच्चंपि अग्देषण बारने पर कदाचित् न मिले तो पुन: आज्ञा लेकर उग्गहं अणुण्णवेसा परिहारं परिरित्तए। अन्य शा संस्तारक ग्रहण करके उपयोग में लेना कल्पाता है। ...कृष्प. उ. ३. सु. २५ अपडिलेहिए सेज्जासंथारए सुबमाणो पावसमणो--- प्रतिलेखन किये बिना शय्या पर शयन करने वाला पाप श्रमण होता है - १३४. ससरक्खपाए सुबई, सेन्जं न पडिलेहह। १३४, जो सचित्त रज से भरे हुए परों का प्रमार्जन किये बिना संथारए अणाउत्ते, पावसमणि त्ति बुच्चई। ही सो जाता है और सोने के स्थान का प्रतिलेखन नहीं करता -उत्त. अ. १७, गा.१४ - इस प्रकार बिछौने (या सोने) के विषय में जो असावधान होता है वह पाप-श्रमण कहलाता है। अणुकूल पडिकूलाओ सेज्जाओ अनुकूल और प्रतिकुल शय्यायें१३५. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा, १३.. संवमशील भिक्षु या भिक्षुणी को, समा वेगथा सेम्जा भवेज्जा, कभी सम शय्या मिले, विसमा वेगा सेज्जा भवेज्जा, कभी विषम शय्या मिले, पवाता वेगया सेज्जा भवेग्जा, कभी वायु युक्त शय्या मिले, णिवाता वेगया सेज्जा भयेमा, कभी निर्मात् शय्या मिले. ससरक्खा वेगया सेन्जा भवेजा, कभी धूल युक्त शय्या मिले, अप्पसरवला वेगया सेज्जा भवेज्जा, कभी धूल रहित शरमा मिले, सर्वस-मसगा वेगया सेज्जा भवेज्जा, कमी डास मच्छरों से युक्त शय्या मिले, अप्पस-मसगा वेगया सेज्जा मवेज्जा. कभी डांस मच्छरों से रहित शय्या मिले, सपरिसाडा बेगया सेज्जा भवेन्जा, कभी जीर्ण-शीर्ण शय्या मिले, अपरिसाहा गया सेज्जा भवेज्जा, कभी सुदृढ शय्या मिले, सउवसांगा बेगया सेज्जा भयेज्जा, कभी उपसगं युक्त शय्या मिले, णिरुषसगा वेगया सेज्मा भवेज्जा, को उपसर्ग रहित शय्या मिले। तहप्पगाराई सेग्जाहि संविज्जमाणाहिं पहियतराग विहारं इन ग्याओं के प्राप्त होने पर उसमें समचित्त होकर संयम बिहरेन्जा । णो किचि वि गिलाएजजा । में रहे, किन्तु मन में जरा भी खेद या ग्लानि का अनुभव न —आ. मु.२, अ. २. उ. ३, सु. ४६२ करे। संस्तारक ग्रहण विधि निषेध-७ करपणिज्जा अकप्पणिज्जा सेज्जा संथारगा कल्पनीय अकल्पनीय प्रय्या संस्तारक१३६. से मिक्खू वा भिक्खूणी था, अभिकंखेज्जा संथारगं एसित्तए। १३६. भिक्षु या भिक्षुणी संस्तारक की गवेषण करना चाहे और से ज्जं पुण संभारगं जाणेज्जा-रा अंड-जान मक्का -संताणगं, यह जाने कि वह मंस्तारक अण्डों से-यावत् --मकड़ी के जालों नहप्पगारं संथारग अफासूर्य-जा-णो पहिगाहेज्जा। से युक्त है तो ऐसे सस्तारक को अप्रासुक समझकर-यावत् -- ग्रहण न करे। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० चरणानुयोग शम्या संस्तारक ग्रहण का विधि-निषेध सूत्र १३६-१३८ से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा मे ज्ज पुण संथारग जाज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी संन्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि बह अप्पा-जान-मक्कडा-संताणगं गल्यं, तह पगारं संपारगं अण्डों-यावत् -मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु भारी अफासुय-जात्र-णो पनिगाहेजा। है, ऐसे संस्तारक को अप्रामुक ममझकर-- सावत्-ग्रहण न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से ज्जं पुषः संथारगं जाणेग्गा - भिक्षु या भिक्षुणी नस्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि वह अप्पड-जाव-मपकडा-संसाणगं लहुयं, अप्पबिहारियं, तहप- अण्डों यावत् -गकड़ी के जानों से रहित है. हल्का भी है, गार संथारगं अफामुयं-आब-णो पडिगाहेज्मा । किन्तु अनानिहारिक है अर्थात् दाता वापरा नना नहीं चाहता हो ऐसे संस्तारक को अप्रासुवः मनझकर-पावत्-ग्रहण न करे । से मिषन वा, सिक्खूणी वा से ज्ज पुण संथारंग जाणेज्जा भिक्षु वा भिक्षुणी संस्तारक के सम्बन्ध में यह जान कि वह अप्पर-जाब-मक्कडा-संताणगं. लहुयं, पबिहारिय, णो बहा- अण्डों यावत् -मवाड़ी के जालों से रहित है, हल्का पी है, यचं, तहप्पगारं संयारगं अफासुयं-जाव-ण पटिगाहेज्जा।। प्रातिहारिक भी है, किन्तु ठीक से बँधा हुआ नहीं है तो ऐसे संस्तारक को आसुक समझकर-यावत्-प्रहण न करे। से भिक्खू वा, भिक्खूणो वा अभिकखेज्जा संचारगं एसित्तए। भिक्षु या भिक्षुणी संस्ता रक की गवेषणा करना चाहे और से ज्ज पुग संथाराग-जागेज्जा-अप्य-जाव-मक्कडा-संताणप, यह जाने कि अण्डों-यावत् - मकड़ी के जालों से रहित है। लहुयं, पारिहारियं, अहाबद्धं । तहप्पगार संथारगं फासुयं हल्का है, पुनः लौटाने योग्य है और नुदृढ़ भी है तो ऐसे संस्ताएसणिज्जं त्ति मण्णमाणे तामे संते पडियाहेम्जा । रक को प्रासुक और एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे । -आ. सु.२, अ.२, उ. ३, सु. ४५५ (५) सेज्जासंथारग गहणं विहि-णि सेहो शय्या संस्तारक ग्रहण का विधि-निषेध१३७. नो कप्पह निगंयाण वा निग्गथीण वा पुष्यामेव ओगहं १३७. निग्रंथ निधियों को पहले शय्या-संस्तारका ग्रहण करना ओगिहिता तो पच्छा अणुन्नवेत्तए । और बाद में उनकी आज्ञा लेना नहीं कल्पता है। कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गयीण वा पुष्यामेव ओग्यहं अणुन- निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को पहले भाज्ञा लेना और बाद में शम्या वेत्ता तो पच्छा ओगिमिहत्तए । संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-इह खन्नु निग्गंधाण वा निर्गधीप यदि यह जाने कि -निर्गन्ध निग्रंन्थिरों को यहां प्रातिया नो सुलभे पाहिरिए सेज्जा संथारए ति कट्ट एवं णं हारिक शय्या-संस्तारक मुलभ नहीं है तो पहने स्थान या शय्या कम्पह पुवामेव ओग्गहं ओपिहिता तो पच्छा अणुनवेत्तए। मंस्तारक ग्रहण वारना और बाद में अज्ञा लेना वल्पता है। (किन्तु ऐसा करने पर यदि संबतों के और शय्या-संस्तारक के स्वामी के मध्य किसी प्रकार का कलह हो जाये तो आब ये उन्हें इस प्रकार कहे "हे आर्यों! एक ओर तो तुमने इनकी वसति ग्रहण की है दूसरी ओर इनसे कठोर वचन बोल रहे हो) हे आर्यों ! इस प्रकार तुम्हें इनके साथ ऐगा दुहरा अपराधामय ब्यवहार नहीं करना चाहिए। "मा बहउ अज्जो | बिइय" ति बा अणुलोमेणं अग्लोमे- इन प्रकार आचार्य को अनुकूल वचनों से उसे (वसति के पव्ये सिया । ...ब. ज. =, सु. १०-१२ स्वामी को) अनुकूल करना चाहिए। संथारपस्स पच्चप्पण विहि-णिसेहो-- संस्तारक प्रत्यर्पण विधि-निषेध१३८. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा अभिनेता संथारग' पञ्चप्पिा ५३८. भिक्षु या भिक्षुणी यदि संम्नारक वापस लोटाना चाहे तो णित्तए । से ज्ज पुर्ण संथारगजाणेज्जा-सअंडं-जान-मक्कड़ा- वह संस्तारा के सम्बन्ध में जाने वि अडों यावत् - मकड़ी के संताणग, तहप्पगारं संथारग गो पच्चप्पिणेज्जा। जालों से गुन है तो ऐसे संस्तारक को वापस न लौटाए। से भिक्खू वा, मिक्वणी वा अभिकलेज्जा संथारग पच्चप्पि- भिक्षु या भिशृणी यदि संस्तारक बापस सौंपना चाह, उस णित्तए । से ज्जं पुण संयारग' जाणेज्जा-अपंजाब- समय उस संस्तारक को अण्डो-यावत्-मकड़ी के जालों से Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३८-१४१ निप्रन्थियों के अकल्पनीय आसन चारित्राचार : एषणा समिति ३६१ मक्का -संताणग, तहप्पगारं संपारग पहिलेहिय-पडिलेहिय, रहित जाने तो ऐसे संस्तारक को बार-बार प्रतिलेखन तथा पमज्जिय-पमस्जिय, आताविय-आताविय, विणिबुणिय-धिणि- प्रमार्जन करने, मूर्य की धूप दे देकर एवं झाड़ झाड़कर पतनाबुणिय, ततो संजयामेव पच्चपिणेज्मा । पूर्वक वापस लौटावे । - आ. सु. २, अ. २, उ. ३. सु. ४५८: संस्तारक ग्रहण निषेध-८ णिगंथीणं अकप्पणीय आसणाई निन्थियों के अकल्पनीय आसन-- १३६, नो कप्पद निमावीणं सावस्सयंसि मासणसि आसइतए वा, १३६. निर्घन्धी-साध्वियों को सावश्य (अवलम्बन युक्त) आसन तुट्टिसए था। पर बैठना एवं शपन करना नहीं कल्पता है । नो कप्पह निराधीणं सविसापंसि पीसि वा, फलगसि वा, निर्ग्रन्थी-साध्वियों को सविधाण (छोटे-छोटे स्तम्भ युक्त) आसइत्तए वा, तुघट्टितए वा । —कारण उ. ५. सु. ३६-३८ पीठ या फलक पर बैठना एवं शयन नहीं कल्पता है । वोच्चं उगाहं विणा सेज्जासंथारंग गहण णिसेहो- दुसरी बार आज्ञा लिए बिना शय्या संस्तारक ग्रहण का निषेध१४०. नो कप्पद निग्गंधाण वा, नियोण या, पाबिहारियं वा, १४०. निम्रन्थ-निर्गन्धियों को प्राविहारिक या शय्यातर का शय्या सागारियस नियंका सेज्जासंचारग बोच्चपि ओग्गहं अण्णुन- संस्तारक दूसरी बार आज्ञा लिए बिना बस्ती के बाहर ले जाना वेता बहिया नीहरित्तए। नही कल्पता है। नो कप्पड निराधाण वा, निगयीण वा, पाडिहारियं वा, निग्रंन्य निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक या शय्यातर का शय्यासागारियसंतियं वा सेज्जासंथार सम्वप्पण्णा अप्पिणिता संस्तारक सर्वथा सोप देने के बाद दूसरी बार आज्ञा लिए बिना दोच्चपि ओपगह अणणुनवेत्ता अहिद्वित्तए। काम में लेना नहीं कल्पता है । -वव.उ.८, सु. ६ सेज्जासंचारग पच्चप्पणेण विणा विहार णिसेहो- शय्या संस्तारक लौटाए बिना विहार करने का निषेध१४१. नो कप्पा निर्णयाग वा, निग्गयीण यश पाछिहारियं सेन्जा- १४१. निर्गन्ध और निग्रन्थियों को प्रातिहारिक शय्या संस्तारक संथारयं आयाए अपव्हिटु संपन्यइत्तए । ग्रहग करके उसे लौटाये विना विहार करना नहीं कल्पता है। नो कप्पाइ निर्वाधाण वा. निगायीण का मागारियसंतियं निर्गन्ध और निम्रन्थियो को शय्यातर वा शाय्या संस्तारक सेज्जासंथारयं आयाए अविकरण कर संपव्याहत्तए। ग्रहण करके उसे यथावस्थित किये बिना विहार करना नहीं -कप्प. उ. ३, सु. २४-२५ कल्पता है। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२] चरणानुयोग शया-संस्तारक सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र १४२-१४३ संस्तारक सम्बन्धी प्रायश्चित्त-६ सेज्जा संथारगार्ण पायच्छित्त सुत्ताई शय्या संस्तारक सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र१४२. जे मिक्स उशियं सेज्जा संथारगं परं पजोसयाओ उवा- १४२. जो भिक्षु शीत या ग्रीष्म ऋतु में ग्रहण किये हुए न्या इणावेद, उवाइणावसं वा साइज्जन । मंस्तारक को पयुपण (संवत्सरी) के याद रखता है. रचाता है रखने वाले क अनुमोदन करता है। जे भिक्षू वासावासिय सेजला संथारगं परं दसरापकप्पाओ जो भिन्न वर्षावास के लिए ग्रहण किये गए शय्या संस्तारक उवाइमावेइ जवाहणाबत या माइज्जद। को वर्षावास के बाद दम-रात से अधिक रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उद्धिय वा वासावासिय मेज्मा संथारग उरि- जो भिक्षु फोष माल या वर्षावास के लिये ब्रहण किये गये सिञ्जमाण पेहाए न ओसारेइ न मोसारत वा साइज्जइ । गम्या संस्तारक वो वर्षा में भीगता हुआ देखकर भी नहीं हटाता है, नहीं हटवाता है या नहीं हटाने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू पाबिहारियं सेज्जा संयाग दोचपि अण्णणुग्ण- जो भिक्षु प्रातिहारिवा श-या संस्तारक को दूसरी बार बाजा वित्ता याहि नीणेइ, नोणतं वा साइमाइ । लिए बिना बाहर ले जाता है, बाहर ले जाने के लिए कहता है और बाहर ले जाने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू सागारिपसंतिय सेन्जा संथारगं दोचंपि अणणुण्ण- जो भिक्षु शय्यातर का शय्या संस्तारक को दूसरी बार वित्ता बाहि नोणेइ, नीतं वा साइजह । आज्ञा लिये बिना बाहर ले जाता है बाहर ले जाने के लिए कहता है, वाहर ले जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पारिहारियं वा सागारियस तियं वा सेज्जासंथारगं जो भिक्षु मातिहारिक या शय्यातर का शय्या संस्तारक वोच्चपि अणणुष्णवित्ता बाहिं नीणेइ, नोणेत वा साइजद्द। दूसरी बार आज्ञा लिए बिना बाहर ले जाता है बाहर ले जाने के लिए कहता है और बाहर ले जाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पाडिहारिय सेज्जा संथारगं आयाए अपरिहट्ट जो मित प्रातिहारिक शय्या संस्तारक को ग्रहण करके संपव्ययइ संपवयंत वा साइजइ । लौटाये बिना विहार करता है विहार करनाता है, विहार करने बाने का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सागारियसंतिय सेन्जा संथारगं आयाए अतिगरणं जो भिक्षु शय्यातर के गया-संस्तारक को लेकर व्यवस्थित कटु अणपिगिता संपवयद, संपब्वयं वा साइज्जई। किरी विना और लोटाये बिना विहार करता है, विहार करवाता है और विहार करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू पाडिहारियं वा सामारियसंलियं त्रा सेजा जो भिञ्ज प्रातिहारिक या शान्यातर को शय्या संस्तारक खो संथारगं विप्पणळे न गधेसइ, न गवेतंसं वा साइन्जद। जाने पर उसकी गवेषणा नहीं करता है, नही करवाता है, नहीं करने वाले वा अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवग्जाइ मासिय परिहारट्टाणं उपाध्वयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त) आता है। -नि, इ. २, सु. ५७-५८ सागारिय सेज्जासंथारयं अणणण्णाबिय गिण्हमाणस्स सागारिक का शय्या संस्तारक बिना आज्ञा लेने का पायपिछत्त सुत्तं-- प्रायश्चित्त सूत्र -- १४३. जे भिक्खू पाबिहारिय वा सागारिय-संति वा सेज्जा- १४३. जो भिक्षु प्रातिहारिक या शय्या तर के गाय्या-संस्तारक को संधारयं पच्चप्पिणित्ता दोच्छ पि अणगुणविय अहिदुइ लौटा कर दूसरी बार आज्ञा लिए बिना ही परिभोग करता है, अहिले वा साइज्जइ। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे भावउजद मासियं परिहारट्ठाणं उपाइयं। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि, उ.५, सु- २३ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १४४-१४७ सुरायुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध र प्रायश्चित्त चारित्राचार : एवणा समिति [६६३ शग्यषणा-विधि निषेध-प्रायश्चित्त-१० सुराजुस वसण उत्स्सय विहि-णिसेहो पायरिछतंच- सुरायुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त१४४. उपस्सयस्स अंतोयगडाए, सुरा वियर कुम्भे वा; सोविरक १४४. उपाश्रय के भीतर सुर और सौवीर ने मरे कुम्भ रखे वियत फुम्भे वा, उवनिकलते सिया, नो कप्पद निगंथाण हुर हो तो निग्रंथों और नियंन्धियों को वहाँ "यथालन्दकाल" वा, निम्गयीण वा, अहालंदवि वत्थए । भी बसना नहीं कल्पता है। हुरत्या म उबस्स पडिलेहमाणे नो लभेम्जा, एवं से कप्पड़ कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो एगरायं वा दुरापं वा वत्थए । उक्त उपाश्रय में एक या दो रात बसना कल्लता है। जे तत्य एमरायाओ वा, वुरायाओ वा पर बसत से सन्तरा जो वहाँ एक या दो रात से अधिक वसता है वह मर्यादा छए वा, परिहारे वा। -कप्प. उ. २, सु. ४ उल्लंघन के कारण दीक्षामचंद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। सीओदजुत्त उस्सय वसण विहि-जिसेहा पायच्छित्तं च--- जल युक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त१४५. उबस्सयस्स अंतोषगहाए सीओ रंग-विपरकुम्ने पा, उसिणो- १४५ उपायय के भीतर अपित्त शीत जल या उष्ण जल से भरे दगवियजकुम्भे वा, उनिक्सिते सिधा, नो कप्पइ निग्गंधाण हुए कुम्भ रखे हों तो नियन्यों और निन्थियों को वहाँ "यथावा, निगयोग वा. अहालंदमधि वस्थए । लन्दकाल" भी बसना नहीं कल्पता है। हुरत्था य उवासयं पडिलेहगाणे नो लज्जा , एवं से कप्पा कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो एगरायं वा. दुरायं वा यथए । उक्त उपाश्रय में एक या दो रात बसना कल्पता है। जे तत्थ एगराधाओ वा. दुरायाओ वा परं वसह, से सन्तरा जो वहाँ एक या दो रात से अधिक बसता है वह मर्यादा छए वा, परिहारे वा। कप्प. उ. २, रा. ५ उल्लंघन के कारण दीक्षाच्छेद या तषरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। जोई जुत उबस्सय बसण विहि-णिसेहो पायच्छित्तं च - ज्योतियुक्त उपाधय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त१४६. उचस्सयस्त अंतोवाडाए, सम्बराइए जोई मियाएज्जा, नो १४६. उपाश्रय के भीतर सारी रात अग्नि जले तो निन्ध और कापड निर्णयाण वा निगंथीण या अहालंवधिवत्थए। निग्रंथियों को बहो "यथालन्दकाल" भी बसना नहीं कल्पता है। हुरत्था य उवस्मयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पा कदाचित् गवेषण करने पर भी अन्य उपायय न मिले तो एगरायं वा दुरायं वा वस्थए । उक्त उपाश्रय में एक या दो रात उसना कल्पत है। जे तत्थ एमरायाओ वा, दुराषाओ वा पर वसइ, से संतर। जो वहाँ एक या दो रात से अधिनः बसता है वह मर्यादा छए वा, परिहारे वा। --बाप्प. उ. २, पृ. ६ उल्लंघन के कारण दीक्षाकद या तररूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। पईवजुत्त उबस्सय वसग विहि-णिसेहो पायच्छित्तं च- दीपक युक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त-- १४७. उवस्सयस्स असोयगडाए, सम्बराइए पईवे बियेज्जा नो १४७. उपाश्रय के भीतर सारी रात दीपक जले तो निन्थों कप्पई निग्गंधाण वा, निग्गयोण वा बहालंदवि वत्थए। और नियन्थियों को यहाँ 'यथालन्दकाल" भी बसना नहीं कल्पता है। हुरत्या य उवस्सयं पडिलेहमाणे नोलभेज्जा, एवं से कप्पा कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाय न मिले तो एगरायं वा, बुरायंबा वत्थए। उक्त उपाश्रय में एक या दो रात बसना कल्लता है। ala Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४] चरणानुयोग अल्पज्ञों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त सूत्र १४८.१५० जे तत्य एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं बसइ, से संतरा जो वहाँ एक या दो रात से अधिक बसता है वह मर्यादा छए वा, परिहारे वा। -कप्प. उ. २, मु. ७ उल्लंघन के कारण दीक्षाच्छेद या तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अगड सुयाणं वसणस्स विहि-णिसेहो पायच्छित्तं च- अल्पशों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त१४८. से गामंसि वा-जाप-सम्रियेससि या एगवगडाए एगदुवाराए, १४८. एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश एगनिक्षमण-पबेसाए नो कप्पड बरणं अगडसुयाण एगयओ वाले ग्राम यावत-सन्निवेश में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) यस्थए। भिक्षुओं को एक माथ बसना नहीं कल्पला है। अस्थि याई के आपार-पप्पघरे, नस्थि याई गं के यदि उनमें कोई आचार कल्पधर हो तो वे दीक्षाच्छेद या छए वा, परिहारे था। परिहार प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं । नत्यि याइंग के आधार-पकप्पधरे से संतरा छए था, यदि उनमें कोई आचार-कल्पधर न हो तो वे मर्यादा उल्लंपरिहारे वा। घन के कारण दीक्षाच्छेद वा रूपरूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं । से गामसि वा-जाव-सनिवेससि वा अभिनिवगडाए, अभि- अनेक प्राकार वाले, अनेव द्वार वाले और अंक निष्क्रमणनिवबुधाराए, अभिनिक्खमण-पवेसाए प्रवेश वाले ग्राम-यावत्- सत्रिवेश में अनेक अकृत-धुत नो कप्पा बहुणं वि अगउसुयाण एगयओ चत्वए। (अल्पज्ञ) भिक्षुओं को एक साथ वसना नहीं कल्पता है। अस्थि याई ण केई आयार-पकप्पधरे जे तत्तिय रणि संव- यदि उनमें कोई आचार-कल्पधर हैं तो वे दीक्षाच्छेद या सइ, नस्थि ण के छेए का, परिहारे वा। तपरूप प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। नस्थि पाई केइ आधार-पकप्पधरे जे तत्तिय रयणि संव- यदि उनमें कोई आचार'-कल्पधर न हो तो वे दीक्षाच्छेद या सइ, सध्यसि तेसि तप्पत्तिम छेए वा, परिहारे वा। तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होते हैं। -दम. उ. ६. सु. १२-१३ नितियशसं बसमाणस्स पायच्छित सुतं नित्य निवास का प्रायश्चित सूत्र - १४६. जे भिक्खू नितिय-वास वसइ, वसंत या साइजइ । १४६. जो भिक्षु नित्यवास अर्थात कल्प मर्यादा से अधिक बसता है, बसवाता है या बसने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं । उसे मासिक उद्घानिक परिहारस्थान प्राय श्चत्त) आता है। -नि. उ. २, सु. ३७ उद्देसियाइसेज्जासु पवेसणस्स गायच्छित सुत्ताई और शिकादि शय्याओं में प्रवेश के प्रायश्चित्त सूत्र१५०. जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणु-पविसइ, अणुप्पविसंत वा १५० जो भिक्षु मौशिक शय्या में प्रवेश करता है, प्रवेश साहज्जा। करवाता है, या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खु सपाहुग्यिं सेग्जं अगुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा जो भिक्षु मपाइ साधु के निमित्त निर्माण के ममय को साइजह। परिवर्तन करके बनाई गई) शय्या में प्रवेश करता है. प्रवेश बरवाता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सपरिकम्म सेज्ज अणुप्पविसइ अणुष्पविस्तं वा जो भिक्षु परिकर्म युक्त (साधु के निमित सुधार की हुई। साइज्जइ। शय्या में प्रवेश करता है, प्रवेश करवाता है, या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजई मासियं परिहारट्टाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६०-६२ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुत्र १५१-१५६ कुलों में रहने का प्रायश्चित्त सूत्र दुच्छिय कुल पायच्छित सुतं११.पापा का घुमित कुलों में रहने का प्रायश्चित - १५१. जो भिक्षु घृणित कुलों की शय्या में आश्रय स्थान लेता लाता है, या लेने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्मासिक उपातिक गरिहाल्या आता है । निर्ग्रन्थियों के उपाय में अविधि से प्रदेश करने का प्रायश्चित्त सूत्र १२. चीन उपरसवंत अविहीए अपविसह १५२. जो मिनि के उपाश्रय में अविधि से प्रवेश करता है, प्रवेश करवाता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। अणुत्पवितं वा साइज्ज उसे मासिक उद्भातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) बाता है । साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासि परिहाराणं उपधाइयं । - नि.उ. १६. सु. ३० गिंयो उबस्सए अविहि पवेसणस्स पायच्छित सुतं ३ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारद्वाणं उम्द्याइयं । - नि. उ. ४. सु. furiथी आगमणपहे उवगरण-ठवणस्स पाच मुस १२. गावा रहरणं वा मुहपत्तियं वा अन्ययरं वा उकारणजाएं os, ठवतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवजह गासियं परिहारट्ठाणं उग्घा इयं । - नि उ. ४. सु. २४ सरिसणिग्ययस्स आवासे अदिष्णुं पायच्छि १५४. जे जिथे गिंयस्स सरिसगस्स अंते ओवासे संते, ओवासं ण दे ण देतं वा साइज्जद 14 तं सेवमाणे आज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उपायं । -नि. उ. १७, मु. १२१ सरिसग्गिंथीए आवास अदिष्णस्स पायच्छित सुतं१५४. जा जियांची सिरिया से ओवासं ण देव देतं वा साइज । तं सेवमाणे यावज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाहयं । - नि. उ. १७. नु. १२२ उवस्सए णायगाणं असावणस्स पायच्छित सुशाई१५६. जे मिक्णाय वा अणावगं था. उवासगं वा अणुवःसगं वा अंतो उवस्सस्स अहं वा राई कसिणं वा राई संघसा बेई, संवसावतं वा साइज । चारित्राचार एषणा समिति जे भिक्षू णाय वा अणायगं या अणुवासगं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई, कसिणं या राई वसावे, तं [६०५ निर्ग्रन्थियों के आगमन पथ में उपकरण रखने का प्रायश्चित सूत्र - १५३. जो भिक्षु निर्ग्रन्थियों के आगमन पथ में दंड, लाठी, रजोहरण का मुख वस्त्रिका अथवा अन्य कोई उपकरण रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक उपातिक परिहारस्थान (पति) माता है। स्वधर्मी निर्ग्रन्य को आवास न देने का प्रायश्चित्त सूत्र - १५४ जो निर्ग्रन्थ सहरा ( आचार वाले) निग्रन्थ को उपाथय में ठहरने के लिए स्थान होते हुए भी स्थान नहीं देता है, न दिवाल है, न देने वाले का अनुमोदन करता है। इसे पर्यातिक प्रद्यानिक परिहारस्थान ( आता है। निधीको आवास न देने का प्रायश्चित सूत्र १५५. जननी में हरने के लिए स्थान होते हुए भी स्थान नहीं देती है, न दिवाली है या न देने वाली का अनुमोदन करती है। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (शश्चित ) आता है। स्वजन आदि को उपाश्रय में रखने का प्रायश्चित्त सूत्र - १५६. जो भिक्षु स्वजन या परजन, उपासक या अन्य कोई भी स्त्री को उपाश्रय में आधी रात या पूरी रात रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु स्वजन या परजन, उपासक या अन्य कोई स्त्री को आधी रात या पूरी रात रखकर उसके निमित्त उपाश्रय से Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६] धरणानुयोग राजा के समीर ठहरने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र १५६-१५१ पहुच्च णिषस्यमई वा, पविसह बा, मिक्समतं वा पविसंत निष्क्रमण-प्रवेश करता है, करवाना है या करने वाले का अनुथा साहज्जा । मोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मातियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्मालिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइयं । ___-- नि. उ. ८. सु. १२-१३ आता है। राय समोवे विहरणाई पाछिस सुत्रा राजा के समीप ठहरने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र--- १५७. अह पुण एवं जाणेज्जा 'इहज्ज रायत्तिए परिसिए" १५. पति एक ज्ञात हो जाणे वि. आज या क्षत्रिय राजा रहे भिक्खू ताए निहाए ताए पएसाए ताए उवासंतराए, विहारं हुए हैं तब जो भिक्षु उस गृह में उस प्रदेश में उस अवकाशान्तर वा करेड, सज्लायं वा करेड, असणं घा-जान-सादम वा में बिहार करता है (ठहरता है।, स्वाध्याय करता है, अशन आहारेह, उच्चार वा, पासवणं वा परिवेद, परिवेतं वा -यावत् - स्वाद्म ना आहार करता है, मल-मूत्र का परित्याग साइज्जइ। करता है, वरवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवजा चाउम्मासियं परिहाराणं उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्याइयं । -नि. उ. १, सु. ११ आता है। वस्त्रषणा : वस्त्रेषणा का स्वरूप-१ [१] णिग्गंथ-निग्गंथोणं वत्येसाणा सहवं निग्रंथ-निर्ग्रन्थियों की वस्त्र षणा का स्वरूप--- १५८. वत्वं पडिगह कंबल पापुंछणं' उपगहं च कडासण एतेसु १५८ वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोटम (पांठ पोंछने चेव जाणेज्जा। का बस्त्र), अवग्रह-स्थान और कटासन आदि (जो गृहस्थ के लिए -आ. सु. १, अ. २, उ, ५, मु. ८६ (क) लिमित हो) उनकी याचना परे । पडिलेहणाऽणतरमेव वत्थ गहण विहाणं वस्त्र का प्रतिलेखन करने के बाद वरत्र ग्रहण का विधान१५६. सिया से परो मेत्ता वत्थं निमिरेग्जा, से पुष्व मेव आलो. १५६. यदि गृहस्वामी (साधु के द्वारा यावना करने पर वस्त्र (ताकर साधु को दे, तो वह पहले ही उसे बहे"आउसो ! ति वा, भहणी ! ति वा. तुमं चेषणं संति आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम्हारे वस्त्र को मैं अदर पत्थं अंतो अंतेणं परिलहिस्सामि।" और बाहर चारों ओर से भली-भाँति देखेंगा।" केवली बूया -"आयाणमेव ! केवली भगवान ने कहा है-'प्रतिलवन किए बिना बस्त्र सेना कर्मवन्धन का कारण है।" १ अतीत में "पायछणं" कैसा उपकरण था-वह बर्तमान में समझना अति कठिन है क्योंकि कहीं "पायपुंछणं" रजोहरण माना गया है और कहीं "पावण" तथा "रजीहरण' अलग-अलग कहे गये हैं। प्रश्नव्याकरण तथा दशकालिक सूत्र में पायमणं" का अर्थ 'पैर पोछने का वस्त्र किया गया है। इन दोनों स्थलों में दोनों उपकरणों का एक साय कथन हुआ है। अतः दोनों ही भिन्न भिन्न उपकरण होना सिद्ध होता है । आ. सु. २, म. १०, सु. ६४५ में मल-विसर्तन आवश्यक हो तो उस समय अपना "पाचपुष्ण" हो तो उसका उपयोग को, न हो तो साथी श्रमण से लेकर उसका उपयोग करे । इससे अनुमान होता है कि यहां पर मल विसर्जन के बाद मलद्वार को पोंछने के लिए प्रयुक्त जीर्ण-वस्त्र के खण्ड को पायप्छणं" माना है। इन विभिन्न मन्तव्यों के होते हुए भी यह निश्चित है कि अतीत में "पायपुंछण" एक आवश्यक उपकरण था। इसलिए इसका अनेक जगह उल्लेख है। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३६-१६२ हेमन्त और पीएम में वस्त्र ग्रहण करने का विधान चारित्राचार : एषणा समिति [६६७ बत्यं ते ओबद्ध सिया-कंबले घा-जाव-रपणावली वा पाणे कदाचित उस वस्त्र के सरे पर कुछ बंधा हो, यथा-कुण्डल वा, बोए वा, हरिए बा। बंधा हो,-यावत्-रत्नों की माला बंधी हो, अथवा प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बंधी हो। अह भिक्खूर्ण पुख्योबविट्ठा-जाब-एस उपएसे, अं पुथ्यामेव अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों ने पहले वस्थं अंतो अंतेणं पडिलेहेग्जा। से ही ऐसी प्रतिज्ञा यावत् -उपदेश दिपा है कि साधु वस्त्र -आ. सु. २, अ. ५, उ.१, सु.५६८ ग्रहण करने से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-वाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे। हेमंत-गिम्हासु वत्थ गहण विहाणं हेमन्त और ग्रीष्म में वस्त्र ग्रहण करने का विधान१६०, कप्पा निग्गंधाण या, नियंथीण वा बोच्नसमोसरणुद्द- १६०. निर्ग्रन्थों और निग्रन्थियों को द्वितीय समवसरग (हेमन्त संपत्ताईसाई पग्गिाहेत्तए।' -कप्प. उ. ३, सु. १७ और ग्रीष्म) में वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है । पम्यज्जापरियाय कमेण वस्थ गहण विहाणं- प्रवज्या पर्याय के क्रम से वस्त्र ग्रहण का विधान१६१. कप्पद निगंथाण वा, निमग्रंथीम था अहाराणियाए चेलाई १६१. निर्ग्रन्थों और नियन्थियों को चारित्र पर्याय के क्रम से वस्त्र पढिगाहित्तए। -कप्प. उ. ३, सु. १८ प्रहण करना कल्पता है। निग्रन्थ को वस्त्रषणा-विधि-१ [२] णिग्गंथाणं वस्थाह एसणा विही निर्ग्रन्थों की वस्त्रंषणा विधि१६२. निर्गय व णं गाहाकुलं पिबवामपणियाए अनुपविट्ट का १६२. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यदि वत्पेण या पडिग्गाहेण वा, कवलेण वा, पायपुंछणे ण वा कोई बस्त्र, पात्र, कम्बल, पादनोंछन लेने के लिए कहे तो वस्त्रादि उनिमंतेजा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय लायरियपायमूले को ''सागारकृत" ग्रहण कर, उन्हें आचार्य के चरणों में रखकर स्वेत्ता, दोच्च पि उमगह अण्णवित्ता परिहारं परिहरिप्सए। तथा उसे ग्रहण करने के लिए आचार्य से दूसरी बार आज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। निग्गयं च बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि या, विचार भूमि मल-मूत्र विसर्जन स्थान) या विहारभूमि निपखंत समाण, केह वस्थेण वा, परिगहण वा, कंशलेण वा, (स्वाध्याय भूमि) के लिए (गाय से) बाहर निकले हुए निर्ग्रन्थ पायपुंछणेण वा, उनिमंतेग्जा, कप्पड़ मे सागारकडं गहाय को यदि कोई वस्त्र, पात्रा, कम्बल, पादपोंछन लेने के लिए कहे आयरियपायमूले वित्ता दोस्व पि उगह अणुण्णवित्ता तो बस्त्रादि को "सागारकृत" ग्रहण करे उसे आचार्य के चरणों परिहारं परिरित्तए। - वप्प. उ. १, मु. ४०-४१ में रखकर तथा उसे ग्रहण करने के लिए आचार्य से दूसरी बार आज्ञा लेकर अपने पास रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। १ एक वर्ष के दो विभाग हैं एक वर्षावास काल और दूसरा ऋतुबद्ध काल । वर्षावास काल में भिक्षु-भिक्षुणियां चार मास तक विहार नहीं करते हैं। जहां वर्षावास करने का उनका संकल्प होता है वहीं रहते हैं। ____ ऋतुबद्धकाल में अपने अपने कल्प के अनुसार भिक्षु-भिक्षुणियाँ विहार करते रहते हैं इसलिए वर्षावास को प्रथम समवसरण और ऋतुबद्धकाल को द्वितीय समयसरण कहा गया है। -बृहत्कल्प भाष्य गा. ४२४२ च ४२६७ । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८] . चरणानुयोग निम्न्धी की वस्त्रषणा विधि सूत्र १६३-१६४ निर्गन्धिनी की वस्त्रषणा विधि-१ [३] जिग्गंथीए वत्थेसणा विहो निग्रंन्यो को वस्त्रपणा विधि१६३. निग्गयीए य पाहावइकुलं पिंडबायपडियाए अणुप्पविट्टाए, १६३. गृहस्थ में घर में आहार के लिए गई दुई निर्बन्दी को यदि चेल? समुप्पज्जेज्जा, बस्त्र की आवश्यकता हो तो अपनी निश्रा ("यह वस्त्र में अपने नो से कप्पद अप्पणो निस्साए चेलं परिग्याहत्तए । लिए ग्रहण कर रही है"--इस मंकल्प) ने वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। कम्पइ से पत्तिणी-निस्साए चेलं पडिमाहितए । किन्तु प्रयतिनी की निश्रा (मैं यह वस्त्र प्रवर्तिनी के चरणों में रख दूंगी वह जिसे देना चाहेगी दे देगी। यदि वह रखेगी तो मैं वापस तुम्हें लौटा दूंगी ऐसे संकल्प से) वस्त्र लेना करुपता है। नो य से तत्थ पत्तिणो सामागा सिया, जे से तत्थ सामाणे यदि वहाँ प्रतिनी विद्यमान न हो तो जो आचार्य, उपाआयरिए वा, उपमाए बा, पयत्तए वर येरे वा, गणो वा, ध्याय, प्रवतंक, स्थावर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक (आदि जो गणहरे या, गणावच्छेइए वा, जं चन्नपुरओ कट्ट विहरति, गीतार्थ) वहाँ विद्यमान हो अथवा जिसे प्रमुख करके विचर रही कप्पड़ से तनीसाए चेलं पडिग्गाहेत्तए । है उसकी निश्रा से वस्त्र लेना वाल्पता है । – ण. ३. ३, सु. १३ णिग्गंथीए वत्थुग्गह विही निग्रंथी की वस्त्रावग्रह विधि१६४. नियथि च गं गाहाबइकुल पिंडबायपजियाए अणुपबिटु केइ १६४. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निम्रन्थी को यदि वत्येण वा, पडिग्गहेण श, कंवलेण वा, पायपुंछोण वा कोई वस्त्र, पाय, कम्बल, पादपोंछन लेने के लिए कहे तो बस्शादि उत्रनिमंतेज्जा, को "सागारकृत" ग्रहण कर उन्हें प्रवतिनी चरणों में रखकर कापद से सागारकडं गहाय पवसिणिपायमूले ठवित्ता, बोच्चं तया उन्हें ग्रहण करने के लिए प्रवर्तिनी ने दूसरी बार अज्ञा पि जगह अप्पम्प वित्ता परिहार परिहरितए । लेकर उसे आने पास रखना और उसका उपयोग करना कल्पवा है। निगथि च णं बहिया बियारभूमि था, बिहारभूमि वा, विचार भूमि या स्वाध्याय भूमि के लिए उपाश्रम से) णिक्खंति समाणि केइ बस्येण वा, पडिग्गहेग वा, कंबनेण बाहर भिवली हुई निरन्थीबो यदि बोई बस्य पाच, कम्बल, वा, पायपुंछण वा उवनिमंतेज्जा. पप्पड़ से सागारकडं पादपोंछन लेने के लिए कहे तो घस्त्रादि को "सागारकृत" ग्रहण गहाय पवित्तिपिपायमूले टवेता, दोस्वं पि उम्गहं अणुष्ण- कर, उरो प्रवर्तिनी के चरणों में रखकर तथा उसे ग्रहण करने के वित्ता परिहारं परिहरित्तए । – कप्प. उ. १. सु. ४२-४३ लिए उनसे दूसरी बार आज्ञा लेकर अपने पास रखना नौर उनका उपयोग करना कल्पना है। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औ शिकादि वस्त्र के ग्रहण का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६६६ निर्ग्रन्थ निम्रन्थी को वस्त्रैषणा का निषेध-१ [१] उद्देलियाई बल्थ गहण णिसेहो औदेशिकादि वस्त्र के ग्रहण का निषेध -- १६५. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा से जं पुष वत्थं जाणेज्जा -- १६५. भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र के तम्बन्ध में यह जाने कि दाता अस्सिपडियाए एगं साहम्मिय समूहिस्स पाणाद-जात्र-सत्ताई ने अपने लिए नहीं बनाया है किन्तु एक सामिक साधु के लिए समारम्भ समुद्दिस, कोयं, पामिश्च अच्छिा, अभिहाँ प्राणी--यावत्-सत्वों का समारम्भ करके बनाया है, खरीदा है, आहटु चेएइ। उधार लिया है, छीनकर लाया है, दो स्वामियों में से एक की आज्ञा के बिना लाया है और अन्य स्थान से यहाँ लाया है। तं तहप्पगारं वत्थं पुरिसंतरकडं वा, अपुरिसंतरकर्ड या. इस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिया हुआ हो या न बहिया जोहा वा, अणीहा वा, अत्तट्टियं वा. अगत्तट्टियं दिया हो. बाहर निकाला गया हो मान निकाला गया हो, स्वीवा, परियुत्तं था, अपरिभुत्तं वा, आसेवियं या, अणासेवियं कृत हो या अस्वीकृत हो, उपमुक्त हो या अनुपभुक्त हो, मेवित वा, अफासुयं अणेसणिज्जं ति मम्पमागे लाभे संते णो पडि- हो या अनासेवित हो इस प्रकार के वस्त्र वो अप्रासुक एवं अनैषग्गाहेजा। णीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। से मिक्खू वा, भिक्खूणो वा से ज्न पुण चरथं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र कसम्बन्ध में यह जाने कि-दाता अस्सिपडियाए बहवे साहम्मिया समुहिस्स पाणाई-जाव- ने अपने लिये नहीं बनाया है किन्नु अनेक सार्मिक माधुओं के सत्ताई समारकम समुहिस्स-जावणो पडिमाहेज्जा । लिए प्राणी-यावत्-सत्वों का समारम्भ करके बनाया है -यावत्-ग्रहण न करें। से भिक्खू बा, मिष्यणी वा से ऑपुण वत्थं जाणेषजा- भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने कि-दाता अस्सिपडियाए एमं साहम्मिणि समुहिस्स पागाई-जाव-सत्ताई ने अपने लिये नहीं बनाया है किन्तु एक मार्मिणी सादी के समारब्भ समुद्दिस्स-जाव-पो परिग्गाहज्जा । लिये प्राणी यावत् - सत्त्वों का समारम्भ करके बनाया है -यावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू या, भिक्खूणी वा से ज्नं पुण वत्थं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने कि -- दाता अस्सिपटियाए बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स पाणाह-जाव- ने अपने लिये नहीं बनाया है किन्तु अनेक सामिक माध्वियों के सत्ताई समारम्भ समुहिस्स-जावणो परिगाहेजा। लिये प्राणी यावत्-सत्वों का समार-भ करके बनाया है --. आ. सु. २, अ. ५, उ. १, सु. ५.५५ (क) -यावत् ग्रहण न करे। समणाइ पगणिय निम्भिय वत्थस्स णिसेही धमणादि की गणना करके बनाया गया बस्त्र लेने का निषेध .. १६६ से भिक्खू था, भिक्खूणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा-- १६६ भिक्षु या भिक्षुणी बस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने कि अनेक बवे समण-माहण-अतिहि किविणवणीमए, पगणिय-पगणिय- श्रमण ब्राह्मण-अतिथि कृपण-भिखारियों को गिन-गिन कर उनके समुहिस्स-जाद-आहट्ट एइ । उद्दम्य से बनाया है-याक्त-अन्य स्थान से यहां लाया है । तं तहप्पगारं वस्य पुरिसंतरक वा, अपुरिसंतरका वाइस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिया हुआ हो या न -जावणो पडिग्गाज्जा। दिया हुआ हो यावत्- ग्रहण न करे। -आ. सु. २. अ. ५, उ, १, नु. ५.५५ (स्त्र) अद्ध जोयगमेराए पर बत्थेतणाए गमण णिसेहो- अर्धयोजन से आगे वस्त्र षणा के लिए जाने का निषेध१६७. से भिक्यू वा भिक्खूणी वा पर अजोयगमेराए वत्थपडि- १६७. निक्षु या भिक्षुणी को वस्त्र ग्रहण करने के लिए आधे याए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए । योजन से आगे जाने का विचार नहीं करना चाहिए । ---आ. मु.२, अ. ५. उ.१, सु. ५५४ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७०] चरणानुयोग बामूल्य वस्त्रों के ग्रहण का निषेध सूत्र १६८-१६६ महतणमोल्लाण वत्थाणं गहण णिसेहो बहुमूल्य वस्त्रों के ग्रहण का निषेः - १६८, से भिक्षु बा भिषणी चा से जाई पुण षस्थाई जागेब्जा १६८. भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि ये नाना प्रकार के घिरूवरुवाई महउणमोल्लाई, त जहा । वस्त्र गहाधन समाप्त होने वाला (वह मूल्य) है, जैसे किआईणगाणि या, आजिनक - चूहे आदि के चर्म से बने हुए, सहिणाणि या. श्मण= वर्ण और अदि आदि के कारण बहुत सूक्ष्म पा मुलायम, सहिणकल्लाणाणि वा, प्रतक्ष्णकल्याण - सूक्ष्म और मंगलमय निम्हों से अंकित. आयाणि वा, आजक= किसी देश की सूक्ष्म रोएँ वाली बकरी के रोम से निष्पन्न, कायाणि वा, कायक: इन्द्रनील वर्ण कपान से निर्मित, खोमियाणि वा, क्षौमिक सामान्य पान से बनाया गया वस्त्र, दुगुल्लाणि वा, नुकूल-गोदा में उत्पन्न विशिष्ट कार से बने हुए वस्त्र, पट्टाणि वा, पट्टसूत्र- रेशम के वस्त्र, मलयाणि वा, मलयज = (चन्दन) के सूत से बने या मलयदेश में बने वस्त्र, पतुष्णाणि घा, पतुण =वल्कल तन्तुओं से निमित बस्त्र, अंसुयाणि बा, अंधुक=बारीक वस्त्र, चीगंसुयाणि वा, चीमांक: चीन देश के बने अत्यन्त सूक्ष्म एवं कोमल वस्त्र, वेसरागाणि वा, देश-राग-एक प्रदेश से रंगे हुए, अमिलाणि बा, अमिल=होस देश में निर्मित, गग्जलाणि वा. गजल= पहनते समय बिजली के समान कड़कड़ शब्द करने बाले वस्त्र, फालियाणि वा. स्फटिक के समान स्वच्छ वस्त्र, कोयवाणिया, कंबलगा णि बा, पावाराणि वा, अण्णतराई कोयकोवव देश में उत्पन्न वस्त्र, विशेष प्रकार के वा, सहरपगाराई वत्पाई मजवणमोल्लाई लाभे संते णी पारसी कम्बल मोटा कम्बल) तथा अन्य इसी प्रकार के बहमुल्य पडिगाहेजा। -आ. सु. २. अ. ५. उ. १, सु. ५५७ बस्त्र प्राप्त होने पर भी उन्हें ग्रहण न करे। मच्छ चम्माई णिम्मिय वत्थाणं गहण-णिसेहो -- मत्स्य चम'दि से निर्मित वस्त्रों के ग्रहण का निषेध१६१. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से जं पुण आईणपाउरणाणि १६६. माधु या साध्वी यदि चमं से निष्पन्न ओढ़ने के वस्त्र जाने वस्थाणि जाणेज्जा, तं जहा जैसे किउहाणि वा, औद्र-सिंधु देश के मत्स्य के चर्म और सूक्ष्म रोम से निष्पन्न वस्त्र, पेसाणि वा, पेष-सिन्धु देश के सूक्ष्म चर्म बाले जानवरों से निप्पन्न पेसलेसाणि वा, पेषलेश-उसी के चर्म पर स्थित सूक्ष्म रोमों से बने हुए बस्त्र, किण्हमिगाईगगाणि वा, गोल भिगाईणगाणिवा, गोरमिगाईण- कृष्ण मृग के चर्म, नील मृग के चर्म, गौर मृग के चर्म से गाणि वा, निर्मित वस्त्र, कणगाणि या, कणगकताणि वा, सुनहरे सूत्रों से निर्मित वस्त्र, सोने की कांति वाले वस्त्र, कणगपट्टाणि था, कणगखइयाणि वा, कणगफुसियाणि वा, सुनहरे सूत्रों की पट्टियों से बने हुए वस्त्र, सोने के पुष्प बग्याणि वा, विवग्घागि वा, आभरणाणि का, आभरण- गुच्छों से अंकित परत, सोने के तारों से जटिन और स्वर्ण चन्द्रि Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६६-१७२ संकेत वचम से घर ग्रहण का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६७१ विचिताणि वा, अण्णतराणि वा, तह पगाराणि आईणपाउ- काओं से पशित, व्याघ्रचर्म, चीते का चम, आभरणों से मण्डित, रणाणि पत्याणि लामे संते गो पहिगाहेज्जा। आभरणों से चित्रित वे तथा अन्य इसी प्रकार के चर्म निष्पन्न -- आ. सु.२. अ. ५. उ. १, सु. ५५८ प्रावरण = वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । संगार क्यणेण कालाणतर बत्य गवण णिसेहो -- संकेत वचन से वस्त्र ग्रहण का निषध१७०. सिया णं एयाए एसणाए एसमार्ण पासित्ता परे बदेम्जा- १७०. उक्त वस्त्र एषणाओं से बस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ कहे कि-- "आउसंतो समणा ! एज्जाहि तुम मासेग वा बसराग "आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ, एक मास तथा वा, पंचरातेण वा. सुतेवा, सुतसरे का तो ते वयं आजसो। दस या पांच रात के बाद अयबा कल या परसों आना, जप हम अण्णतरं वस्यं दासामो।" तुम्हे किसी एक प्रकार का वस्त्र देंगे।" एतप्पगार णिग्धोसं सोचा हिस्सम्म से पुख्खामेव वालो- इस प्रकार का कथन सुनकर समझकर वह उसे पहले ही एजजा। कह दे - "आउसो 1 ति वा, भगिणी ! ति वा पो खलु मे कप्पति "आयुष्मन् गृहस्। अथवा बहन ! भुटो इस प्रकार के एतप्पगारे संगार वयणे पडिसुणसए अभिकं खसि मे दार्ज अवधिसूत्रक वचन साकार करना नहीं कल्पता है यदि मुत्रे वस्त्र इवाणिमेव बलया हि" देना चाहते हो तो अभी दे दो।" से वं वदंतं परो वदेज्जा . . राा के इस प्रकार कहने पर भी यदि गृहरा यों कहे कि -- "आउसंतो समणा ! अणु गच्छाहि. तो ते वयं अण्णतरं वत्थं "आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ । थोड़ी देर बाद आना, वासामो।" से पुवामेव मालोएग्जा हम तुम्हें कोई वस्त्र दे देंगे।" ऐसा बाहने पर वह पहले ही उरो कहे ... "आजसो ! ति था, भइणी । ति वा, णो खलु मे कप्पति "आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! मेरे लिए, इस प्रकार एथप्पगारे संगारवयणे पजिसुणे लए, अभिकखसि मे दाउं के अवधि सूचक वचन स्वीकार करना नहीं करपता है, यदि इथाणिमेव दलयाहि ।" मुझे देना चाहते हो तो अभी दे दो।" -आ. सु. २. अ. ५, उ. १. नु ५.६१-५६२ अफासुय बस्थ गहण णिसेहो-- अप्रासुक बस्त्र ग्रहण करने का निषेध१७१. से सेवं ववंत परो णेता वदेमा--- १७१. साधु के इस कार बहने पर भी गृहस्थ घर के किसी सदस्य (बहन आदि) को (बुला कर) वो लहे कि"आउसो ! ति चा, भमिणी । ति वा, आहर एवं वस्त्रं "आयुष्मन् भाई! या बहन ! यह वस्त्र लाओ हम उसे समणस्स वासामो, अबियाई बयं पन्छा वि अपणो सबढाए धमण को देंगे । हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी पाणाई-जात्र-सत्ताई समारम-जाव-सामो।" एतप्पगारं प्राणी-यावत्- गल्वों का नमाराम करके और उद्देश्य करके निग्घोस सोच्चा निसम्म तहप्पणारं वत्य अफासुब-जान-गो यावत् -अन्य बस्त्र बनवा लेंगे।' इस प्रकार का कान पड़िगाहेज्जा। -आ. भु.२, म. उ. १.. ५६३ मुनकर समझकर उस प्रकार के बस्व को अासुक जानकर -यावत-ग्रहाम करे । परिकम्मकय वत्थ गहण-णिसेहो - परिकर्मकृत वस्त्र ग्रहण का निषेध-- १७२. सिया णं परो गेत्ता वदेज्जा -- १७२. गृहस्वागी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"आउसो । ति वा. भरणी! ति बा, आहर एवं वत्थं, "आयुष्मन् भाई ! जयबा बहन ! यह वस्त्र लाओ हम उसे सिणाणेण षा, कपकेण बा, लोण वा वपणेण घा, चुपणेण स्नान (सुगन्धित द्रव्य समुदाय) से, कल्क से, लोध से, वर्ण से, वा, पउमेण वा, आपंसित्ता या पथसित्ता वा समणस्स चूर्ण से या पद्म से एक बार या बार बार घिसकर श्रमण को बासामो।" एतप्पणारं निघोसं सोन्या निसम्म से पुरवामेव आलो. इस प्रकार का नया सुनकर समझकर वह पहले से हो उसे Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२] चरणानुयोग अमग के निमित्त प्रक्षालित वस्त्र के ग्रहण का निषेध सूत्र १७२-१७५ "आउसो ! ति बा, भइणी ! तिवा, मा एतं सुमं यत्थं "आयुष्मन गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! तुम वस्त्र को सिणाणण वा-जाव-पउमेग वा आधरूह या पधंसाहिवा, स्नान (सुगन्धित दव्य समुदाय) से-यावत्-पदमादि सुगन्धित अभिकखसि मे दातु एमेव बलयाहि । द्रव्यों से घर्षण वा प्रघर्षण मत करो। यदि मुझं देना चाहते हो तो ऐसा ही दे दो।" से सेवं बवंतस्स परो सिणाणेण वा-जाद-पउमेण वा साधु के द्वार इस प्रकार कहने पर भी यह गृहस्थ स्नान आवंसित्ता वा पसित्ता वा वलएक्जा, तहप्पगारं वत्थं सुगन्धित द्रव्य समुदाय) से-यावत् पदमादि सुगन्धित द्रव्यो अफासुयं-जाव-णो पबिगाहेज्जा। से एक बार या बार बार घिसकर उस वस्त्र को देने लगे तो उस —आ. सु. २. अ. ५ उ. १. सु. ५६४ प्रकार के वस्त्र को अधासुक जागकर--यावत-ग्रहण न करे। समणद्देसिय पक्खालिय वत्यस्स गहण-णिसेहो श्रमण के निमित्त प्रक्षालित वस्त्र के ग्रहण का निषेध१७३. से गं परी पेत्ता पम्मा --- ५७३. गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि"आउसो ! ति वा भरणी! ति बा, आहर एवं पत्थं "आयुष्मन् भाई! या बहन ! उम वस्त्र को लाओ, हम सीओदगवियोण वा, उसिणोदवियांण वा उच्छोलेता उसे प्रामुक शीतल जल से या प्रामुक उष्ण जल से एक बार या वा, पधोवेत्ता वा समणस्स णं दामामो।" बार-बार धोकर श्रमण को दे दंगे।" एयरपगारं निग्नोसं सोचा निसम्म से पुरुषामेव आलो- इस प्रकार सुनकर समझकर यह पहले ही उस कह दे । एमा--"आउसो ! ति वा भइणी ! ति वा मा एमं तुम "आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती वहम ! इस बस्त्र को बत्थं सीओदगषियडेण वा, उसिणोदावियरेण वा, उच्छोलेहि तुम प्रासुक फोतल जल या उष्ण जल से एक बार या बार-बार वा, पधोवेहि या अभिकसि मै दातुं एमेव दग्नमाहि।" मत धोओ । चदि मुझं देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" से सेवं बदंतस्स परो सीओदगविय डेण वा उसिणोक्गवियप इन प्रकार वहने पर भी यदि वह गहस्य उस वस्त्र को वा, उच्छोलेता वर, पधावेत्ता बा वलएज्जा, तहप्पगारं ठंडे पानी या गर्म पानी से एक बार या बार-बार धोकर साधु वत्थं अफासुयं जाद-गो पटिगाहेज्जा । न देने लगे तो उसे अमुक जानकर--- यावत् : ग्रहण न करे। —आ. सु२, अ. ५, ज. १, सु. ५६५ कंदाइ विसोहिय वत्थस्स गहण-णिसेहो -- कंदादि निकालकर दिये जाने वाले व-त्र के ग्रहण का निषेध१७४. से णं परो णेसा बवेजा १७४. गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"आउसो ! ति या भहणो 1 ति वा, आहर एयं वत्वं कदाणि "आयुष्मन् भाई ! या बहन ' उस वस्त्र को लाओ हम वा-जाब-हरियाणी वा विसोहेला समणस्त गं बासामो।" उसमें से कन्द-यावत्-हरी (वनस्पति) को विशुद्ध कर (निकाल कर) माधु को देंगे।" एतप्पगारं णियोस सोच्चा निसम्म से पुरखामेव आलो. इस प्रकार सुनकर समझकर वह पहले ही उसे कहे - एज्जा'आउसो ति वा, महणी ! तिवा, मा एताणि तुम कंदाणि __"आयुतान् गृहस्थ ! या बहन ! इस वस्त्र में से कन्द वा-जाब-हरियाणि वा विसोहेहि, णो खलु मे कप्पति -यावत्-हरी मत निकालो मेरे लिए इस प्रकार का बस्त्र एयप्पगारे वत्ये पडिगाहित्तए।" ग्रहण करना कल्पता नहीं है।" से सेवं बवंतस्स परो कदाणि वा-जाव-हरियाणि वा बिसो- माधु के द्वारा इस प्रकार इन्कार करने पर भी वह गृहस्थ हेता दलएज्जा । तहप्पगार वरयं अफासुर्थ-जाव-ण पडिगा- कन्द-यावत्-हरी वस्तु को त्रिशुद्ध करके (निकाल करके) हेज्जा। -आ. सु. २, अ. ५. उ. १, सु. ५६६-५६७ वस्त्र देने लगे तो इस प्रकार के वात्र को अघासुक जानकर - यावत्-ग्रहण न करे। धासावासे बत्थ-गहण-णिसेहो-- वर्षावास में वस्त्र ग्रहण का निषेध--- १७५. नो कप्पा निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा पदमसमोसरणुस- १७५. निर्ग्रन्थों और नियंत्रियों को प्रथम ममवसरण में वस्त्र पत्ताई खेलाई पडिगाहेत्तए। - कप्प. उ. ३. सु. १६ ग्रहण करना नहीं कल्पता है। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७६-१७१ रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण का विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६७३ - - - - - - - निर्ग्रन्थ-निर्गन्थिनी वस्त्रैषणा के विधि-निषेध–१ [५] राईए वत्याए गहण विहि-णिसेहो -- रात्रि में बस्त्रादि ग्रहण का विधि-निषेध -- १७६. नो कप्पइ निम्गंधाण वा, निग्गंथीण वा. १४६. निग्रंन्यों और निन्थियों को, राओ वा, वियाले वा, रात्रि में या विकाल में, धत्थं वा, पडिगहं वा, कम्बलं वा, पायपुंछणं वा पडिगा- बस्त्र, पात्र, वाम्बल और पादपोंछन लेना नहीं कल्पता है । हेलए, ननस्थ एगाए हरियाडियाए केवल एक "हताहृतका' को छोड़कर (पहले पुराई गयी, पीछे दागम लौटाई गई वस्द'हताहृतिका" कही जाती है ।) सा वि य परिभुत्ता वा, घोषा वा, रत्ता वा, घट्टा बा, ___ यादे वह परिभुक्त, धौत, रक्त, पृष्ट, मृष्ट या सम्प्रमित भी मट्टावा, संपधूमिया था। --कृप. उ. १, सु. ४५ किया गया हो (तो भी रात्रि में लेना कल्पता है ।) समणाइ उद्देसिय णिम्भिय वत्थस्स गहण बिहि-णिसेहो- श्रमणादि के उद्देश्य से निमित वस्त्र लेने के विधि-निषेध१७७. से भिक्खुवा, भिक्खूणी वा से उन पुरवत्थं जाणेज्जा --- ११७. भिक्षु या भिक्षुणी अस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने कि अनेक बहवे सभण-माहण-अतिहि-फिविण वणीमए समृदिस्स-जाय- श्रवण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-भिखारियों के उद्देश्य से बनाया है बाहटु चेएइ। -पावत्-अन्य स्थान से वहां लाया है। तं तहप्पगारं वयं अपुरिसंतरकडं अबहिया गोहां इस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिया हुआ नहीं हो, बाहर अणतट्रियं, अपरिमृतं अगासेवियं अफासुर्य-गात्र-णो पडिगा- निवाला नहीं हो. स्वीकृत किया हो, उपभुक्क न हो, आसेवित हेज्जा । न हो, उसको अप्रामुक जानकर- यावत् ग्रहण न करें। अह पुण एवं जाणेम्जा पुरिसंतरकर्ड बहिया णीहडं यदि यह जाने कि इस प्रकार का वस्त्र अन्य पुरुष को दिवा अद्वियं, परिमुत्तं आसेचिये फासुयं-जाव-पशिगाहेज्जा। हुआ है, बाहर निकाला है, दाता द्वारा स्वीकृत है, उपमुक्त है, -~आ. सु. २, न. २, उ. १, सु, ५५५ (य) आरोक्ति है. उसको प्रानुक समझाकर यावत् -ग्रहण करें। कोयाइ दोस जुत्त वत्थ गहण विहि-णिसेहो क्रीतादिदोष युक्त वस्त्र ग्रहण का विधि-निषेध - १७८. से भिक्खू वा, भिक्षुणी वा से ज्ज पुण वयं जाणेज्जा -- १७८. भिनु या भिक्षुणी बस्त्र के विषय में यह जाने कि--गृहस्थ अस्संजते भिक्खु पडियाए लोतं वा, धोपं वा, रत या, घट्ठ माशु के निमित्त उसे खरीदा है, धोया है. रंगा है, घिस कर वा, मटु चा, संमट्ठ चा, संपधूवितं वा, तहप्पगारं वत्यं माफ किया है. चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया मपुरिसंतरक-जाव अगासेवितं अफासुयं-जाय-यो पविगा- है, धूप इमादि से सुवासित किया है ऐसा वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत हैज्जा । -यावत्-किसी के द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, ऐसे वस्त्र को अप्रासुक समझकर-यावत्-ग्रहण न करें। अह पुणेव जाणेज्जा पुरिसंतरक-जाव-पडिगाहेज्जा । यदि (साधु या साध्वी) यह जान जाए कि वह वस्त्र -आ. सु २, अ. ५, उ. १. सु. ५५६ पुरुषान्तरकृत है—यावत्-ग्रहण कर सकता है। कोयाइ दोस जुत्त वत्थ गहण पायच्छित्त सुत्ताइं- कीतादि दोषयुक्त वस्त्र ग्रहण करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- १७६. से भिक्खू वत्वं कियेइ, किणावेइ, कोयं जाहट्ट वेज्जमाणं १७६, जो भिक्षु बस्त्र को खरीदता है, परीदनाता है, खरीदा पडिग्गाहेछ, पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ । हुबा लाकर देते हुए को लेता है, लियाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू वत्थं पामिस्नेह, पामित्यावेज, पामिच्चाटु जो भिक्षु वस्त्र को उधार लेता है. उधार लिवाता है, उधार देजमाणं पडिग्गाहेछ, पडिग्गाहेत वा साइज्जद । लाकर देते हुए को लेता है, लेयाता है या लेने वाले का अनुमो दन करता है। जे मिक्खू वत्वं परिबट्टेड, परिपट्टावेइ, परियट्टियमाहट्ट जो भिक्षु बस्थ को परिवर्तन करता है. परिवर्तन करवाता है देन्जमाणं पडिग्गरोड, पडिम्गात वा साइज्जह ! या परिवर्तन करके लाये हुए वस्त्र को लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४] चरणानुयोग जे भिक्खू वस्थं अच्छेज्जं अणिसिद्ध, अभिहडमाहटु वैज्जमाया डिवाइ तं सेवमाणे आयज्ज चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । नि.उ.१८, सु. २४-२७ अहरेग वत्थ विवरण वाच्छित्तगुप्साई१८०. जे भिक्खू अगं वत्थं णि उद्दिसियं गणि समृद्दिसिवं तं गणि अणापुच्छिय अणामतिय अण्णमण्णस्स वियरद्द, वियतं वा साइज्जड बाबा रस्स बा, थेरियाए या (१) अहत्यच्छिष्णस्स (२) अपायsure, (३) अकण्णछिष्णस्स (४) अणासच्छिण्णस्स (५) अणीच्छिण्णस्स सक्क्स्स देइ देतं वा साइज्जइ । रस् जे भिक्खू अइरेगं वत्थं खुहुगस्स वा, खुड्डियाए वा वारियार (१) हत्यचिणस्स (२) पाय (३) कण्णछिष्णस्स ( ४ ) णासच्छिण्णस्स, (५) ओच्छि oute अकस्स न देइ, न देतं वा साइज्जइ । वत्थ धारण कारणाई १०१ (१) हरियलि (२) गुंछावत्तियं, (२) प एसणिज्जाणि वत्थाणि१०२. अतिरिक्त वस्त्र वितरण के प्रायश्चित सूत्र (१) (२) वा (२) गावा सं से ज्जं पुण व जागेउजा, तं परिहार उद -- नि. उ. १८, सु. २५-३० -ठाण. अ. ३, उ. ३, सु. १७६ वा जवस अहा- आता है। अतिरिक्त वरष वितरण के प्रायश्चित जो भिक्षु आच्छेद्य, अनिरृष्ट और सामने लाये गये वस्त्र को लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। उपासिकात परिहारस्थान (अति) वस्त्र धारण - २ [१] सूत्र १७६ १८२ जो भिक्षु अतिरिक्त वस्त्र को जिसके १. हाथ, २. पैर, ३. बदन, ४. नाक और ५ होठ कटे हैं ऐसे क्षुल्लक या सुल्लिका के लिए स्थविर और स्थविरा के लिए जो अशक्त हैं उन्हें नहीं देता है, नहीं दिलवाता है या नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। कठ - १८०. जो भिक्षु अतिरिक्त वस्त्र को गणी के उद्देश्य से या किसी विशेष गणी के उद्देश्य से लाये गये वस्त्र को उस गणी से बिना पुणे, बिना आमन्त्रण दिये यदि किसी अन्य को देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है । " जो भिक्षु अतिरिक्त वस्त्र को १. जिसके हाथ कटे हुए नहीं हैं, २. पैर कटे हुए नहीं हैं, ३. काम, ४. नाक और ५. होठ कटे हुए नहीं हैं ऐसे क्षुल्लक या भुल्लिका स्थविर या स्थविरा जो सशक्त हैं उनके लिए देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनु मोदन करता है । वस्त्र धारण के कारण १०) तीन कारणों से वस्त्र धारण करें, यथा- १. २. ३. एषणीय वस्त्र १०२. भाभी की गा करना चाहे तो वे वस्त्रों के सम्बन्ध में जाने। वे वस्त्र इस प्रकार हैं- सेवानिवार के लिए)। 1 (पुणा निवारण के लिए)। मेतादि परीषद के निवारण के लिए)। १. जागमिक जीवों के अव्यको से निष्पन्न वस्त्र । २. मांगिक अली की छाल से निष्पन्न वस्त्र । ३. सानिक सण से निष्पन्न वस्त्र | - Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८२-१८३ एषणीय वस्त्र धारण करने का विधान चारित्राचार : एषणा समिति [६७५ (४) पोत्तगं वा, ४. पोत्रक-ताह भादि के पत्रों से निष्पन्न वस्त्र: (५) सोमियं वा, ५. क्षोमिक-कपान (सई) से बने वस्त्र । (६) तूलकवा , ६. तूलकृत-आक आदि की गई से बने हुए वस्त्र । तहम्पमारं वत्वं जे पिग्गथे तरणे हुगव बलवं अपायके इन वस्त्रों में से जो निर्ग्रन्थ मुनि तरुण है समय के उपद्रव विरसंधयणे, से एमं वस्यं धारेज्जा, जो बिदये। (प्रभाव से रहित है, बलवान है, रोग-रहित है और स्थिर हनन -आ. सु. २. अ.५, उ१, सु.५५३ (बढ़ संहनन) बाला है वह एक ही (प्रकार के) वस्त्र धारण करे, दूमरा नहीं। आहेसणिज्जवस्थ धारण विहाणं-- एषणीय वस्त्र धारण का विधान१८३. से भिक्खू बा, भिक्षूणी वा अहेसपिज्जाई वस्थाई १८३. भिक्ष. या भिक्षणी एरणीय वस्त्रों की याचना करें और जाएजा, अहापरिग्महियाई बस्थाई धारेजा, णो धोएज्जा, जैसे वस लिए हों जैसे ही वस्त्रों का धारण करे, परन्तु (विभूषा णो रएज्जा, णो धोत्तरत्ताई वस्थाई धारेज्जा-अपलिउंचमाणे के लिए) न उन्हें धोए, न उन्हें रैने और न धोए हुए तथा न रंगे गामतरेसु ओमलिए । हए वस्त्रों को पहने उन (विना धोए या रगे) साधारण बस्यों को प्रामान्तरों में न छिपाते हुए विचरण करे। एतं खलु अत्यधारिस्स सामग्गियं । यही वस्त्रधारी भिक्षका आवार है। -आ. सु. २, भ.५, .१, सु.५८१ * * १ (क) कप. उ. २, सु. २९ । (ख) एवं तथाप्रकारमन्थदपि धारेमदित्युत्तरेण सम्वन्धः । -आ. टीका पृ. ३१ (ग) कप्पड णिगंथाण वा णिगयीण वा पंच बत्थाई धारितए वा, परिहत्तए वा, तं जहा–१. जंगिए, २. भंगिए, ३. मणए. ४. पोतिए, ५. तिरीडगट्टए णामं पंचमए। - ठाणं, म. ५, उ. ३, सु.४४६ (घ) कम्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा त्तो बयाई धारित्तए वा परिहरितए वा, वनहा -१. गिते, २. भंगिते. ३. खोमिते। --ठाणं. अ.३, उ. ३, सु. १७५ (ङ) उपर्युक्त कल्प्य वस्त्रों की संख्याओं में और नामों में भिन्नता है। वाणांग सूत्र हाणा तीन में तीन प्रकार के वस्त्र प्राह कहे हैं और 'खोमिए' से सूती वस्त्र का कथन हुआ है। बहकल्प सूत्र और ठाणांग सूत्र ठाणा ५ में पांच प्रकार के वन्त्र कहे हैं । इन दोनों स्थलों में मध्या व नाम नहश हैं। तथा यहाँ 'पोत्तिए' से सूती बस्त्र का कथन हुआ है। आचारांग सूत्र के प्रस्तुत सूत्र में 'पोत्तियं' और 'खोमियं' दोनों ही शब्दों का भिन्न अयं में प्रयोग हुआ है तथा 'तिरीडपट्ट' के स्थान पर 'तूलकई' का कथन हुआ है। इस प्रकार सर्व कल्प्य वणित वस्त्र संख्या सात होना फलित होता है। २ "अवम" का अर्थ अल्प या साधारण होता है। "अवम" शब्द यहां संख्या, परिमाण (नाप) और मूल्य तीनों दृष्टियों से अल्पता या साधारणता का द्योतक है। कम से कम मूल्य के साधारण से और थोड़े से वस्त्र से निर्वाह करने वाला भिक्षु "अवमचेलक" कहलाता है। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ] चरणानुयोग एक बरधारी म निर्ग्रन्थ के वस्त्र धारण की विधि-२ [२] एगवत्थधारी मिस्सू एक पत्रधारी भिक्षु १८४. जे भिक्खु एगेण बत्थे परिवसिते पायबिलिए तस्स गो १८४, जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा एवं भवति — बितियं वत्थं जाइस्सामि स्वीकार कर चुका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता है कि 'मैं दूसरे वस्त्र की याचना करू" । से अस णिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिगहियं वत्थं धारेज्जा -जाव एवं खु वत्यधारिस्स सामरियं । पुण एवं जातिि अहा परिष्वत्यं परवेज अदुवा एमसाने, अदुवा अबेले, लाववियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णायते भवति । अयं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमेन्वा सवतो सध्याए सम्मत्तमेव समभिजाणिया । aloreधारी भिक्खू १५४ वहिरिति णं गो एवं भवति-"ततियं तत्थं जाइस्सामि । से आहेसारवाई जाएजा महापरिग्नहिया त्या भारेज्जा- जाब- एतं खु वत्थधारित सामरियं । अह पुण एवं जाणेज्जर "ज्यातिषते खलु हेमंते पविणे" अहापरिजृष्णाई पत्याई परिटुवेज्जा, ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अनुवा अचेले, म्हे अदुवा - आ. सु. १, अ. ८ . ६ सु. २२०-२२१ भांति आचरण में लाए । दोरी भिक्षु लाघवयं आगममाणे तवे में अभिसमण्णागते भवति ' जय भगवता पवेदितं तमे असिमेच्छा सवतो सन्यसाए सम्मतमेव सममिजाणिया । वह यथा एणीय वस्त्र की याचना करे और यथा गृहीत वस्त्र को धारण करें- यावत् उस एक वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री (धकरण समूह है। सूत्र १८४-१८५ जब शिशु यह जाने कि अब ऋतु आ गई है वह जो जो त्याग करे। यदि दन पर) में रहे अचेल (वस्त्र रहित हो जाए। हेमन्त ऋतु बीत गई है ग्रीष्म वस्त्र हो गये है उसका जीर्णन हुआ हो तो वह एक शाटक (आच्छा यदि जीर्ण हो गया हो तो उसे परठकर बढ़ इस प्रकार वस्त्र परित्याग से लाघवता प्राप्त करते हुए उस मुनि को सहज ही तप प्राप्त हो जाता है। भगवान ने जिस प्रकार से उसका निरूपण किया है, उसे उसी रूप में महराईपुर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वाना भली १८५. जो भिक्षु दो वस्त्र और तोमरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि 'मैं तीन रे वस्त्र की याचना करू ॥ वह अपनी कल्पदानुसार एमणीन वस्त्रों की याचना करे और गृहीत वस्त्रों को धारण करे यावत् द्विवस्त्रधारी भिक्षु यही सामग्री है। जब भिक्षु यह जाने गीत गई है, श्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जो वस्त्र जीर्ण हो गए हैं, उनका परित्याग करें। यदि जीर्ण न हुये हों तो दो वस्त्र में ही रहे, यदि एक वन्त्र जीर्ण हुआ हो तो उसका परित्याग करके एक शादक ( आच्छादन पद) में रहे, यदि दोनों जीर्ण हो जायें तो उनका परित्याग करके अचेल हो जाए । इस प्रकार वस्त्र परित्याग से लाघवता प्राप्त हुए उस मुनि को सहज ही प्राप्त हो जाता है । भगवान ने जिस प्रकार से इसका प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराईपूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वाना सम्यक् - आ. सु. १. अ. ८. ३. ५. सु. २१६-२१७ प्रकार से जाने व क्रियान्वित गरे । Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६-१०० wwwwwwwww तिवत्थधारी भिक्खु– १६. जीनाम हि परिसिले पाहि यो एवं भवति, "चउत्थं वत्थं जाइस्सामि ।" १ से असई भरपाई जाएगा महापरियहवाई सत्थाई धरेला जागृतं वत्यारिस्स सामग्मियं । अह गुण एवं जागेज्जा उवातिक्ते खलु हेमंते गिरहे पविणे अहारजाईवा परिवेश अनुवा संतरे अनुवा ओम असा लाघवियं आसेमाणे तवे से अभिसमण्णागते भवति । जतं भगवता पवेवितं तमेव अभिसमेच्या सव्वतो सम्बताए सम्मतमेव समभिजाणिया । णिग्गंची संपादीयमाणं १८७. जा विग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेल्जा एवं हत्यविरं हित्त्मा एकवारं प्यारे वह संविज यह एमे संसीवेज्जा । आ. सु. २. अ. ४, उ. १, नु. १५३ (ख) गंभीर संघाडी सिवान पायच्छितं- " अणं. अ. ४, उ. १, सु. २४६ । चारित्राचार : एषणा समिति -आ. सु. १. अ. उ. ४, सु. २१३-२१४ प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे । तं सेवमाय पाउमावि परिहार उत्पाद - नि. उ. १२, सु. ७ तीन वरधारी भिक्षु १०६. जो और पी पात्र रखने की मर्शदा में स्थित है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँ।" तो वह यक्ष- एपणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरि गृहस्थों को धारण करे उस तीन वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री है। निर्धन्यो की वस्त्र धारण की विधि-२ [३] जब भिक्षु यह जान ले कि हेमन्त ऋतु दी गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है। तब वह निजत्रों को कोई जाने उन परित्याग कर दे। यदि जीणं न हुए हों तो तीन वस्त्र में हो रहे यदि एक जीर्ण हो गया तो उसका परित्याग करके दो वस्त्र में रहे. यदि दो जीर्ण हो गये हीं तो उनका परित्याग करके एक शाटक (एक ही वस्त्र) वाला होकर रहे । अथवा तीनों वस्त्र जीर्ण हो जाने पर अचेलक हो जाए । इस प्रकार बस्त्र परित्याग से लाववता प्राप्त करते हुए उस मुनि के तप (रोदरी और काकलेज) सहज हो जाता है । [६७७ भगवान ने जिस प्रकार से इसका प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराईपूर्वक जानकर सन प्रकार से सर्वात्मना सम्यक १८ पीएन या गारो थासिघ्यावे, सिव्यातं वा साज्जइ । निर्ग्रन्थियों के चादरों का प्रमाण १८७. जो साध्वी है, वह चार संघाटिका (नगर) धारण करेउसमें एक दोहा प्रमाण विस्तृत दो तीन हाथ प्रमाण विस्तृत और एक बार हाथ प्रमाण विस्तृत (लम्बी होनी चाहिए इस प्रकार के विस्तार युक्त वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे वस्त्र के साथ सीं ले - निर्वन्धी की साड़ी लाने का प्रायश्चित्त सूत्र- की निको पाटी (वाड़ी आदि को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से सिलवाता है या मिलवाने वाले का अनुमोदन करता है । उसे भाविक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८] चरणानयोग वस्त्र ग्रहण के विधि-निषेध सूत्र १८६.१६१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी वस्त्र धारण के विधि-निषेध-२ [४] वस्थस्स गहण बिहि-णिसेहो-. वस्त्र ग्रहण के विधि-निषेध१८६. से भिक्खू बा, भिषखूणी वा से जं पुण बत्थं जाणेज्जा--- १६. भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों में सजे-जाय-संताणगं ताप्पगारं वत्थं अफासुय-जान-णो --यावत् – मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के वस्त्र पडिगाहेज्जा। को अप्रामुक जानकार-यावत् ग्रहण न करे । से भिक्खू वर, भिक्खुणी वा ने जं पुण उत्थं आणेज्जा- भिक्षु या भिधुणी पत्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों से अप्पड-जाम-संताणगं, अणलं, अभिरं, अधुवं, अधारणिज्ज, --यावत्- मकड़ के जानों से तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य रोइज्जत ण रुचति, तहप्पगारं वस्र्थ अफासुयं-जावणो करने में असमर्थ है. अस्थिर है (अर्थात् टिक ऊ नहीं है, जीर्ण है) पश्चिगाहेज्जा। अ य (शेरे समय के लिए दिया जाने वाला) है, धारण करने के योग्य नहीं है अपनी रुचि के अनुकूल नहीं है तो ऐसे वस्त्र को अप्रासुक समझकर-यावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू या, भिक्खूणी था से जं पुण वत्थं जाणे ज्जा- भिक्षु वा भिक्षुणी वस्त्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों से अप्पर-जाव-संताणय, अलं, थिर, धुवं, घारेणिज्जं वश्चति, .- यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, अभीष्ट कार्य करने में तहप्पगारं वत्वं फासुयं-जाव-पडियाहेज्जा । समर्थ है, स्थिर है, ध्रुव है, धारण करने के योग्य है, अपनी -आ, सु. २, अ. ५, उ. १, सु. ५६९-५७१ रुचि के अनुकूल है तो ऐसे वस्त्र को प्रासुक नमबर-यावत-- ग्रहण कर सकता है। धारणिज्ज अधारणिन्ज वत्थस्स पायच्छित्त सुत्ताई- धरणीय-अधारणीय वस्त्र के प्राथश्चित्त सूत्र१९०. जे मिक्खू वस्य आणलं, अथिरं, अधुवं, अधारणिज्ज धरेह, १९०. जो भिक्षु अयोग्य, अस्थिर, अधव एवं अधारणीय पस्त्र धरत वा साइजइ। . को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पत्य अलं, थिर, धुवं, धारणिय न धरेड, न जो भिक्षु योग्य, स्थिर, ध्रुव एवं धारणीय वस्त्र को धारण धरतं वा साइज्जद। नहीं करता है, नहीं करवाता है और नहीं धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिका चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१८, नु.३१-३२ आता है। जे भिक्खू-वस्थं वा, कंबसं वा, पायछणं वा, जो भिक्षु वस्त्र को, कम्बल को, पादपोंछन को, जो कि अलं, थिर, धुष, धारणिज्ज पलि छविय पलिछिदिय परिट्ठ- योग, मिथर, शुव और धारणीय हैं उनके टुकड़े-टुकड़े करके वेद, परिवेतं वा साइज्जइ। परठता है, परसवात है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आयज्जइ मासिवं परिहारहाणं उग्धाइ। उने मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६५ आकुचणपट्टगस्स गहण विहि-णिसेहो-. आकुंचनपदृग के ग्रहण का विधि निषेध१६१. नो कप्पद निग्गंथीणं आकुंचणपट्टगं धारिसए वा, परि- १९१. निर्ग्रन्थी साध्वियों को आकुंचन पट्टक (चार अंगुल विस्तार हरितए वा। वाला पर्यस्तिका वस्त्र) रखना या धारण करना नहीं क्ल्पता है। कप्पा निरगंथाणं आणपट्टग' धारित्तए वा, परिहरिसए किन्तु निन्य साधुओं को आकंचन पटक रखना या धारण वा। -कैप्प. उ. ५. सु. ३४-३५ करना कल्पतर है। १ आनणपट्ट-पर्यस्तिकापट्ट स च पर्यस्तिकापट्ट किशः इत्याहगाहा-फल्लो अचित्तो अह आविओ वा, चउरंगुलं विस्थडो असंधिमो अ। विस्स महेउं तु सरीरमस्सा दोसा अवटु भगया ण एव ।। -बहत्वल्प भाष्य, भा, ५, गा. ५६६८ पु. १५७४ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९२-१६६ अवग्रहानन्तकादि के ग्रहण का विधि-निषेध पारिवाचार : एषणा समिति [६७६ उग्गहणतमाईणं गहण विहि-णिसेहो अवग्रहानन्तकादि के ग्रहण का विधि-निषेध१६२. नो कप्पइ निम्मंयाणं १९२. निग्रेन्यों कोउग्राहणन्तगं वा, जग्गहपट्टग वा, धारित्तए वा, परिहरताए (१) अवग्रहानन्तक (चोलपट्टक के अन्दर गुप्तांग को आवृत वा। करने का वस्त्र) और (२) अवग्रहपट्टक (अनग्रहानन्तक को आवृत करने का वस्त्र) रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है । कप्पइ निग्गंधीण किन्तु निर्गस्थियों कोउग्गणन्तगं वा, जगहपट्टगं वा धारिसए वा परिहरितए (१) अवयहानन्तक-साड़ी के अन्दर (गुप्तांग को भावत' वा । - कप्प. उ.. सु. ११-१२ करने का वस्त्र) और (२) मवग्रहपट्ट क (काटिप्रदेश से जानुपर्वन्त पहना जाने वाला कच्छा-जांघिया) राखना या उसका उपयोग करना कल्पना है। कसिणाकसिणवत्थाणं विहि-णिसेहो कृत्स्नाकुलम्न वस्त्रों का विधि-निषेध - १६३, नो कप्पइ निर्गथाण वा निग्गंधीग या....कसिणाई बत्थाई १६३. निर्ग्रन्गों और चिन्थियों को कृत्स्न वस्त्रों का रखना या धारितए वा, परिहारत्तए वा । उपयोग करना नहीं कल्पता है। कप्पड निरगंधाण या, निग्गंधीण 4. अफसिणाचं बत्थाई गिन्तु निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अकरस्न स्त्रों का रखना धारित्तए वा परिहा रित्तए वा। -बाप्प उ. ३, सु. ७-८ या उपयोग करना बाल्पता है। कसिण वत्य धरणपायच्छित्तसुतं कृत्स्न वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त सूत्र-- १६४. जे भिक्खू कसिणाई वत्थाई रेइ. धरेंनं वा साइजद । १९४. जो भिक्षु कृत्स्न वस्त्र धारण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज मासियं परिहान्डाणं उग्धाइयं । उसे मामिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । -नि. इ.२, सु.२३ भिन्नाभिन्न वत्थाणं विहि-णिसेहो . भिन्नाभित्र वस्त्रों का विधि-निषेध१६५. नो कप्पा निम्गंधाण वा. निममीण वा अभिलाई वत्थाई १६५. निग्रन्थों और नम्रन्थियों को अभिन्न वस्त्रों का रखना या धारितए वा, परिहरिसए वा । उपयोग करन नहीं कल्पता है। कप्पर निगयाण वा, निगवीण वा मिलाई पत्याई निर्गन्यों और निग्रन्थियों को भिन्न वस्त्रों का रखना या यारित्तए वा, परिहरित्तए वा। - वप्प. उ. ३ सु. ६-१० उपयोग करना कल्पता है । अभिन्न यत्थधरण पायच्छित्त सुतं अभिन्न वस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त मुत्र - १६६. जे भिक्षु अभिनाई वत्थाई घरे धरेतं वा साइज्जह ।। १६६. जो भिक्षु अभिन्न वस्त्र धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। . तं सेवमाणे आवस्जद मासियं परिहारटुरणं उधाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि.उ.२, सु. २४ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. घरणानुयोग वस्त्र सुगन्धित करने का और धोने का निषेध सूत्र १९७-१६८ वस्त्र प्रक्षालन का निषेध-३ से त्या वस्थाणं गंधिकरण धोवण-णिसेहो बस्त्र सुगन्धित करने का और धोने का निषेध१६७. से भिक्खू वा, भिक्खूणी था “पो णवए मे अत्थे" ति कट्ट १६७. "मेरा बस्त्र नया नहीं है" ऐसा सोच कर भिक्षु या गो बदेसिएण सिणाण वा-जाव-पउमेण बा, आपसेज्ज भिक्षुणी उसे (पृराने वस्त्र को) अल्प य बहुत सुगन्धित द्रव्य वा, पघंसेज्ज वा। समुदाय से—यावत्-पदम राग ने आधर्षित प्रर्षित न करे। सक्का भिषणी या जो णवए मे वत्थे" त्ति कटु "मेरा वस्त्र नया नहीं है। इस अभिप्राय से भिक्षु या शिक्षणी जो बहदेसिएण सीओदबियडेण वा, उसिणोवगयियज्ञेण वा, उस मलीन वस्त्र को अल्प वा बहुत शीतल या उप प्रासूफ जल उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा। से एक बार या बार-बार प्रक्षालन न करे। से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा "दुग्भिगधे मे वत्ये" ति कटु "मरा बम्ब दुर्गन्धित है" इस अभिप्राय से भिनु या भिक्षणी णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा-जाव-पउमेण बा, आधसेज्ज अल्प या बहुत सुगन्धित द्रव समुदाय से-वावत् -पदम राग वा, पप्रंसेज्ज वा। से आपषित-प्रषित न करे। से भिक्खू था, भिवषूणी वा "दुभिगंधे मे वत्थे ति कट्टु मेरा बस्त्र दुर्गश्रित है" इस अभिप्राय से भिक्षया भिक्षणी गोहदेसिएण सीतोदयचियडेण बा, उसिणोनगवियडेण था. उमा मलिन वस्त्र को अस्प या बहन गीतला या उगगक जल उच्छोलेज्ज वा. पधोएज्ज वा। से बार या बार-बार न धोए । -आ. सु. २, अ २, ३. १. मु. ५७२-५०४ वत्य-गंधिकरणस्स धोवणस्स य पायच्छित्तसुताई- वस्त्र को सुगन्धित करने और धोने के प्रायश्चित्त सूत्र१६८. जे भिक्खू "नो नवए मे नत्थे लो" ति कटु बहुदेसिएण। ११. जो भिक्षु "गुले गया वस्त्र नहीं मिला है। ऐगा मोव लोण वा-जाव-अण्णेण वा आघसेज्ज वा पत्रसज्ज दा कार लोध ग-यावत्-वणं से एक बार बार-बार घिसे. आसतं वा पसतं वा साइज्जई। घिसयावे, घिगने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू "नो नवए मे वत्थे लछे" ति कट्टु बहुदेसिएण जो भिक्षु "मुझे नया वस्त्र नहीं मिला है" ऐसा सोन करके सीमोदगवियोण बा, सिणोवगवियडेण बा, उच्छोलेन्ज अदित्त शीतल जल से या अचित्त उष्ण जल से धोये, भूनावे, वा, पधोएज्म वा, जच्छोलेंत वा, पधोएतं या साइजइ। धोने वाले का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवजह घाउम्मासियं परिहारटाणं उग्धाइयं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारमान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १८. सु. ३६-३७ आता है। जे निक्स् "नो नवए मे वत्थे लझे" ति फटु बहुदेवसिएण' जो भिक्षु "मुझे नवा वस्त्र नही मिला है" ऐसा सोच करके लोखेण वा-जाव-वण्णण वा आधसे ज्ज वा, पसेज्न धा पुराने लोध से-थावत्-वर्ण से एक बार या बार-बार घिसे, आघसंत वा, प,सतं वा साइज्जह । घिसनावे, घिसने वाले का अनुमोदन करे ।। जे भिक्खू "नो नवए मे यत्थे लढे" ति कटु बहुदेवसिएण जो भिक्षु "मुझे नया वस्त्र नहीं मिला है" ऐसा सोच करके सीओदर्गावपण वा उसिणोदवियरेण वा, उन्छोलेज्ज वा, पुराने अचित्त नीतल जल से या अचिन्न उष्ण जल से धोये, पधोएज्ज वा, उच्छोलतं बा, पधोएंत वा साइज्जइ। धुलावे, धोने वाले का अनुमोदन करे । १ 'बहुदेसिएणं' का अर्थ है अल्प या बहुत लेप्य पदार्थ से कार्य करना। २ 'बहुदेवसिएण' के अनेक अर्थ है यथा-- बहुत दिन ने लेप्य पदार्थ, बहुत दिन तक अपने पास रखे हुए पदार्थ, बहुत दिन तक एक वस्त्र के लेप्य पदार्थ लगाना या धोना इन्यादि । अथवा यह भी संभव है कि 'बहुदेसिएण' शब्द से ही लिपि दोष से 'बहुदेव भएण' का पाठ बन गया हो तथा भित्र-भिन्न प्रतियों में विभिन्नता हो जाने से दोनों पार वृद्धि होकर प्रचलित हो गये हों। क्योकि 'बहुदेसिएण" के सूत्र का अर्थ जितना स्पष्ट और संगतियुक्त है उतना 'बहुदेवसिएणं' का नहीं है। लोद्रादि अनेक दिन के होने में कोई दोष नहीं होता है तथा अचित्त जज अनेक दिन का होना या रखना सम्भव नहीं है। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९८ वस्त्र को सुगन्धित करने और धोने के प्रापश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [६८१ तं सेवमाणे आवम्जइ चाउम्भासियं परिहारष्ट्राण उग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) --नि. उ, १८, मु. ३६-४. भाता है। जे मिक्खू "बुभिगंधे मे बत्थे लद्धे" ति कटु बहदेसिएण जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्धी वस्त्र मिला है" ऐसा सोच करके लोण वा-जाव-याणेण वा, आयसेज चा, पघसेज्जा , लोध से-यावत् वर्ण से एक बार या बार-बार घिसे, घिरवावे, आघंसतं वा, पसंत वा साइज्जइ । घिसने वाले का अनुमोदन करे। में भिक्खू "बुदिभगंधे में वत्थे ला" ति कटु बहुवेसिएग जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्धी दस्व मिला है" ऐसा सोच करके सौओवगवियडेण वा, उसिणोदगवियशेण वा. उच्छोलेज्ज अचित्त शीत जल से या अचित्त उरुण जल से धोये, धुलावे, वा, पधोएज्ज या, उरछोलतं था, पयोएत वा साइजह। धोने वाले का अनुमोदन करे। ते सेवमाणे आवज्जन चाउम्भासिमं परिहारट्टाणं उधाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१८, सु. ४२-४३ आता है। जे भिक्छु "दुभिगंधे मे वत्थे लढे" ति कट्ट बहुदेवसिएण जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्धो वस्त्र मिला है" ऐसा सोच करके लोण वा-जाव-वणेग वा, माघ सेका वा, पधं मेज यश, पुराने लोध से-यावत्-वर्ण से एक बार या बार-बार घिसे, आघसंत वा, पसंतं वा साइजह । घिसावे, पिसने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू "बुमिगंधे मे वत्थे लो" ति केटु बहुवेबसिएण जो भिक्षु "मुशे ढुगन्धी वस्त्र मिला है" ऐसा सोच करके सोओवगलियडेग वा, डा.गोविण वा, छोलेज पुरान आपत्त शोत जल से या अचित्त जस जल से धोये, धुलावे, वा, पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा, पधोएतं वा साइज्जह।। धोने वाले का अनुमोदन करे । तं सेवमाणे भावज्जइ चाउ-मासिय परिहारट्ठाणं उधायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि.उ. १८, मु. ४५-४६ आता है। १ (क) निणीभ भाष्य में निम्न मूत्र अधिक प्राप्त होते हैं। जे भिक्खनो नाइए मे मुभिगंधे वत्थे लवे" त्ति कटु लोदेण वा-जान-वण्रोण वा आधसज्ज वा, पप सेज्ज वा, आघसतं वा, पसंतं वा साइज्जइ । जे भिवम्व "गो नवए मे सुमिपंधे वत्थे लो" ति कटु बदेसिएण सीओदमवियडेण वा, उनिणोदगविबड़ेण वा, उच्छोलेज्ज या, पधोएज्ज ना, उच्छोलेंतं वा, पधोएंत वा साइज्जइ । -नि० उ०१८, सु०४-४६ जे भिखू "नो नवए में सुब्भिगंधे वत्थे लछे" त्ति कटु बहुदेवसिएण लोदेण वा-जाव-वोण वा नाघनेज्ज वा, पपसेज्ज वा, आपसंत वा, पसतं वा बाइज्जा । जे भिक्यू 'नो पवए में सुब्भिगंधे वत्] लड्ने" त्ति कटु बहुदेवसिएण सीओदगविण्डेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज ना, पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं बा, पधोगत वा साइज्जइ । -नि० उ० १८, ०५१-५२ (ख) जे भिक्त सुभिगंधे पडिगहे लद्धे - त्ति कटु दुन्भिगंधे करेइ, करैत वा साइज्जा । मे भिक्यू दुन्भिगंधे पडिग्गहे लढे-रि कट सुरिकगंधे करेइ, करेंत वा साइजा ! स्व. पूज्य थी अमोलक ऋषिजी म. तथा स्व० पूज्य श्री धासोलालजी म. सम्पादित प्रतियों में ये दो सूत्र अधिक उपलब्ध हैं। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२] चरणानुयोग विहित स्थानों पर वस्त्र सुखाने का विधान सूत्र १६६-२०१ www वस्त्र-आतापन-४ बत्यआयावण विहित ठाणाई विहित स्थानों पर वस्त्र सुखाने का विधान-- १६६. से मिषन वा, भिक्षुणी वा अभिकलेज वरयं मायावेत्तए १६६. भिक्षु या भिक्षुणी लस्त्र को धूप में सुखाना चाहे तो उस या पयावेत्तए वा, तहप्पयारं वत्थं से तमादाए एगंतमवरक- वस्त्र को लेकर एकान्त में जाये, वहाँ जाकर देगे कि जो भूमि मेज्जा एर्गतमवस्कमिता अहे सामजिसि वा-जाब-गोम- अग्नि से दग्ध हो--यावत् -गोबर के ढेर वाली हो या अन्य यरासिसि वा अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि चंदिल्लति पनि- ऐसी कोई स्थंडिल भूमि हो उसका भलीभांति प्रतिलेखन एवं सेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय ततो संजयामेय वत्वं रजोहरणादि से प्रमार्जन करके तत्पश्चात् तनापूर्वक उस वस्त्र आयावेज्ज वा, पयावेज वा। को धूप में सुखाए। -आ. सु. २, म.५,उ.१, सु. ५७६ वस्थ आयावण णिसिद्ध ठाणाई-. निषिद्ध स्थानों पर वस्त्र सुखाने का निषेध२००. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा अभिकर्लज्जा-वत्थं आया- २००. भिक्षु या भिक्षुणी वस्त्र को धूप में सुखाना चाहे तो ऐसे वेत्तए वा, पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्वं णो अणतरहिताए वस्त्र को सचित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर-~-यावत्-मकही पुढवीए-जाव-मक्कडासंताणए, आयावेज वा, पयावेज्ज वा। के जाले हो ऐसे स्थान में न सुखाए । से भिक्खू वा, भिक्षुणी या अभिकंखेज्जा बत्वं आमात्तए भिक्षु वा भिक्षुणी बस्त्र को धुन में सुखाना चाहे तो वह वैसे वा, पयावेत्तए वा, तहप्पयारं वस्थं यूणसि वा, गिहेसुगंसि वस्त्र को ढूठ पर, दरवाजे वी देहली पर, उसल पर, स्नान करने पा, उसुयालंसि बा, कामजलसि वा, अश्णयरे वा तहप्पगारे की चौकी पर, अन्य इस प्रकार के और भी अन्तरिक्ष-आकाशीय अंतलिक्खजाते दुब्बो दुषिणक्वित्ते अणिकपे चलाचले णो स्थान पर जो भलीभाँति बंधा हुआ नहीं है, ठीक तरह से भूमि आयावेज्ज वा, पयावेज वा। पर गड़ा हवा या रखा हुआ नहीं है, निश्चल नहीं है, चनाचल है, वहाँ वस्त्र को न सुखाए। से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा अभिकनेउजा वत्थं आयावेतए भिनु या भिक्षुगी यदि वस्त्र को धूप में सुस्पाना चाहे तो बह धा, पयावेत्तए वा, तहप्पगार वन्थं फुलियसि षा, मितिसि वैसे वस्त्र को ईंटों से निर्मित दीदार पर, मिट्टी से निर्मित दीवार वा, सिलसि वा, लेलसि वा, अण्णतरे वा तहप्पमारे अंत- पर, शिला पर, शिला बह-पत्थर पर या अन्य किसी इस प्रकार लिक्खजाते दुबशे-जाव-चलाचले णो आयावेत का पयावेज के अन्तरिक्ष (आकाशीय) स्थान पर जो कि भलीभांति स्थिर वा। नहीं है-यावत् - चलाचल है, (वहाँ बस्त्र को) न सुचाए। से भिक्खू वा, भिक्खूणी या अभिकलांज्या वत्वं आपावेत्तए भिक्षु या भिक्षणी बरत्र को धूप में सुखाना चाहे तो उन वा, पयावेत्तए वा. सहप्पगारं वत्वं वंसि वा-जाय-हम्मिघ• वस्त्र को स्तम्भ पर - यावत् - महल की छत पर अथवा इध तलंसि वा अण्णतरे या तहप्पगारे अंततिखजाते दुबद्धे प्रकार के अन्य अन्तरिक्ष स्थानों पर जो कि, दुर्बद्ध-यावत्-- -जाव-चलाचले णो आपावेज वा, पयावेज वा। चलाचल हो, वहां वस्त्र को सुखाए। - आ. सु. २. अ. ५, उ. १, मु. ५७५-५७६ णिसिद्ध ठाणेसु वत्थ आतावण-पायच्छित सुत्ताई- निषिद्ध स्थानों पर वस्त्र सुखाने के प्रायश्चित्त सूत्र२०१. जे भिक्खू भणंतरहियाए पुढबीए वत्थं आयावेज्ज बा, पया- २०१. जो भिक्षु वस्त्र को सवित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर वेज्ज वा, आपायन या, पयावंत या माइज्जा। सुखावे, सुखवावे, सुखाने वाले का अनुमोदन करें। - - - - - १ "अंतरिक्ष जातं' जो स्थल भूमि से ऊँना हो और उसके पास में ही एक या अनेक दिशा में खुला आकाश हो जिससे व्यक्ति या वस्तु के गिरने का भय बना रहता हो उसे 'अंतरिक्ष जात' आकाणीय स्थल कहा जाता है। ऐसे स्थलों पर साधु को बैठना, सोना, रहना, तथा वस्त्र आदि सुखाना नहीं कल्पता है । आचा० ० २, अ० २, उ.१ में ऐसे स्थल पर पहले से गिर जाने आदि स्थिति का वर्णन है। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन २०१ निषित स्थानों पर वस्त्र सुखाने के प्रायश्चित्त पूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [६८३ जे भिक्खू ससिणिवाए पुढवीए अत्यं आयावेज्ज वा, पया- जो भिक्षु स्निग्ध पृथ्वी पर वस्त्र को सुखावे, सुखबावे, बेज्ज वा, आयात बा, पयावंत वा साइज्जइ सुखाने वाले का अनुमोदन करे ।। जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए वत्थं आयावेज्ज वा, पयावेज जो भिक्षु सचित्त रज वाली पृथ्वी पर बल को सुखावे, वा, आयावतं वा, पयावर्त वा साहज्जद। सुखवावे, सुखाने वाले का अनुमोदन करे । जे मिक्खू मट्टियाकडाए पुढवीए वत्थं आयावेज वा. पया- जो भिक्षु सचित्त मिट्टी बिखरी हुई पृथ्वी पर बस्त्र को वेज्ज वा, आयार्वतं वा, पयावतमा साइज्ज। सुनावे, सुखवावे, सुनाने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू चित्तमंताए पुढयोए वत्थं आयावेज वा, पया- जो भिक्ष सचित्त पृथ्वी पर वस्त्र को सुखाचे, सुखवाय, वेज्ज घा, आवावंत बा, पयावंतं वा साहणा। सुखाने वाले का अनुमोदन करे ।। से भिक्खू वित्तमंताए सिलाए वत्थ आयावेज्ज वा, पयावेज जो भिक्षु सचित्त शिल' पर वस्त्र को सुखावे, सुखवावे, घा, आयावत वा, पयावत वा साइज्जइ । सुखाने वाले का अनुमोदन करे। जे सिक्ख चित्तमंताए लेलूए वत्यं आपावेज षा, पयावेज्ज जो भिक्षु सचित्त शिला खंड आदि पर वस्त्र को सुखावे, वा, आयादतं वा, पयावत वा साइमिड। सुखवावे, सुखाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू कोलाषासंसि वा वारुए जीवपइदिए, सअंडे, जो भिक्षु दीमक बादि जीवों से युक्त काष्ठ पर, तथ- अंडे, सपाणे, सबीए, सहरिए, समोसे, सउदए, सत्तिग-पग- प्राणी, बीज, हरी वनस्पत, ओस, उदक, उत्तिग (कोड़ी आदि वगमट्टिय-मक्कडा-संताणगंसि बत्वं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज के घर) लीलन-फूलन, गीली मिट्टो और मकड़ी के जालों युक्त वा, आयावतं वा, पयावतं वा साइज्जइ । स्थान पर चस्व को सुखावे, मुखबारे, सुखाने वाले का अनुमोदन _करे। जे भिक्खू पूर्णसि बा, गिहेलुगंसि वा, उसुयासि वा, काम- जो भिक्षु ढूंठ, देहली, ऊखल या स्नान करने की चौकी जालंसि वा, अग्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिपसजायंसि तथा अन्य भी इस प्रकार के अन्तरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान चुम्बद्धे-जात्र-चलाचले वत्वं आपावेल बा, पयावेज्ज था, जो शिपिल-यावत्-अस्थिर हो उन पर वस्त्र सुखाये, सुखवावे आयावंतं वा, पयावंतं वा साइजई। सुखाने वाले का अनुमोदन करे। जे भिक्खू कुलियंसि बा, भित्तिसि बा, सिलसि वा, लेलुसि जो मिस इंट को दीवाल, निट्टी आदि की दीवाल, शिला, वा, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि दुम्बवे शिलाखंड आदि तथा अन्य भी इसी प्रकार के अन्तरिक्षजात -जावत्रलाचले वत्थं आयायेज्ज वा, पयावेज्न वा आमावतं (आकाशीय) स्थान जो शिथिल-यावत्-अस्थिर हो उन पर वा, पयावतं वा साइज्जइ। वस्त्र सुसावे, सुखवारे, सुखाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू खंधसि वा, मंसि या, मालंसि वा, पासायसि जो भिक्षु स्कन्ध पर, मंच पर, माल पर, प्रासाद पर, वा, हम्मिपतलसि वा, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंत- महल (हवेली) के छत पर तथा अन्य भी इस प्रकार के अंतरिक्ष लिक्खजायंसि बुचडे-जाव चलाचले बत्थं आयावेज वा, जात (आकाशीय) स्थान जो शिथिल-यावत्-अस्थिर हों उन पयावेज्ज वा, आयातं वा, पयावत वा साइजइ। पर वस्त्रा सुसावे, सुखवावे, सुखाने वाले का अनुमोदन करे । सं सेवमाणे आबज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाण उग्धाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिन परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १८, सु. ५३-६३ जाता है। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪] चरणानुयोग ~~~ प्रातिहारिक वस्त्र प्रहण करने में माया करने का निषेध वस्त्र प्रत्यर्पण का विधि- निषेध - ५ पाडिहारिय वत्थगणे माया णिसेहो २०२. से एमओए हेण वा जावाहेण वा विश्ववसिय विश्ववसिय उथा गच्छेज्जा तहपगार ( ससंधियं) वत्वं नो अध्पणा व्हेज्जा, नो अशमस्स देन्जा, नो पामिस्वं कुब्जा, तो वरभेण वश्य-परिणाम करेजा, — नो परं संकमित्ता एवं वदेज्जर- "आजसंतो समणा aferae एयं वत्थं धारितए वा परिहरिए वा ?" विरं तं नोपनिििदय पतिडिबिय परिवे बहु तहृपगार वत्णं ससंधियं तस्स क्षेत्र निसिरेज्जा । नो य णं सातिज्जेज्जा । वयणेण वि भाणियन्त्र | www. चिरं वा यो पदिय पतिह्निपि परिमा जहा मेयं यत् पावगं परो मण्णइ । सूत्र २०२ - २०३ प्रतिहारिक वस्त्र ग्रहण करने में माया करने का निषेध२०२. कोई एक शिशु को अन्य भए प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करके एक दिन यावत् प दिन कहीं अन्यथ रह रहकर वस्त्र देने जावे तो वस्त्रदाता भिक्षु उस लाये हुए वस्त्र को क्षतविक्षत जानकर न स्वयं ग्रहण करे, न दुसरे को दे न किसी को उधार दे न उस वस्त्र को किसी परत्र के अपने में दे । न किसी दूसरे भिक्षु को इस प्रकार कहे "हे आयुष्मत् श्रमण ! इस वस्त्र को रखना या उपयोग में लेना चाहते हो ?" (तथा) उस हड़ वस्त्र के टुकड़े कर के परिपत भी नहीं करे - फेंके भी नहीं । इसी प्रकार अनेक भिक्षुओं के सम्बन्ध में भी आलापक कहना चाहिए। से एगो मोया सम्म से हंता कोई एक भिक्षु इस प्रकार का संवाद सुनकर समझकर अहमवि मुत्तगं मुत्तगं पारिहारिथं वत्थं जाइता । एगाहे सोचे- मैं भी अल्पकाल के लिए किसी से प्रातिहारिक वस्त्र बा-जाना वा विकी याचना करके एक दिन वा पाँच दिन बड़ी अन्य स्वामि, अवियाई एवं ममेव सिया । रहकर आऊंगा।" इस प्रकार से वह वस्त्र मेरा हो जायेगा । "भाट्टणं संफासे नो एवं फरेज्जा ।" आ. सु. २, अ. ५, उ. २, सु. ५५३ अपहरण भए त्यस विष्णकरण जिसेहो २०३. सेनानी या दो वताई बत् C. करेवनाणी वाई वाई दण्णलाई करेजा अष्णं वा वत्थं लमिस्सामि ति कट्टु नो अष्णमण्णस्स बेन्जा, नोपामिन् कुज्जर, नो कोण स्थपरिणाम करंज्या, नो परं उपसंकमित्त एवं वदेज्जा- 'आउसंतो समणा ! एवं वत् पारिएका परिहरिए या ? बीच में से साधे हुए उस वस्त्र को उसी ले जाने वाले भिक्षु को दे दे किन्तु वस्त्रदाता उसे अपने पास न रखे। ( सर्वज्ञ भगवान् ने कहा यह मायावी आचरण है, अतः इस प्रकार नहीं करना चाहिए । अपहरण के भय से वस्त्र के विवर्ण करने का निषेध - २०३. साधु मा साथ् सुन्दर वर्ग वा अन्वर ) न करे तथा वि असुन्दर ) वस्त्रों को सुन्दर वर्ग वाले न करे। "मैं दूसरा नया (सुन्दर) वस्त्र प्राप्त कर लूंगा" इस अभि प्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र के और न ही वन्त्र की परस्पर अदलाबदली करे और न दूरारे साधु के पास जाकर ऐसा कहे कि "है आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना का पहनना चाहते हो ?" इसके अतिरिक्त उस टुकड़े करके पर भी नहीं, इस भावना से कि मेरे इस वस्त्र को लोग अच्छा नहीं समझते । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०३-२०७ चोरों के भय से उन्मार्ग में जाने का निषेध परं च अहारी पपिहे पहाए तस्स बसचिवाणाए णो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा- जाव-ततो संजयशमेव गामाणुगामं इज्जेज्जा । बै - आ. सु. २, अ. ५, उ. २, सु. ५८४ विवरण करे | आमोस भएन उम्मान गमण जिसेहो२०४ मा भवानामाना माने अंतरा से विहंसिया से पुण विहं जायेज्जा- इमसि खलु विबहा त्या छेशा पोटी मार्ग में बहुत से चोर तेसि भोभो उम्मम्गेण गच्छेज्जा- जाब- ततो संजयामेव गामा गामं | आ. सु. २. अ. ५. उ. २, सु. १८५ आमोसगाहारियवरयस्स जानना विहि-गिरोहो२०५. से भिक्खू या, भिक्खूणी या गामाणुगाम हूइज्माणे अंतरा से आमोगा संपडियाय से आमोगा एवं चदेज्जा । "आजसंतो समणा ! आहरेतं वत्थं देहि, णिविवचाहि" - बंदिय-वंदिय जाएज्जा, गो अंजलि कट्टु जाएज्जर, पो पडियाए जाएजा धम्मियाए जायगाए जाएज्जा, मावा उ त्यस विवरण पायसिस मुसाई२०६. जे भिक्खू वणमंतं वत्थं विवषणं करे, करें या साइज्जद । freejar वण्णमंत करेद, करें वा साइज्ज६ । "आयुष्मन् श्रमण ! यह बस्त्र लाओ हमारे हाथ में दे दो या हमारे सामने रख दो ।" इस प्रकार कहने पर साधु उन्हें वे यत्र न दे, अगर वे बलपूर्वकले उन्हें भूमि पर रख दे। पुनः लेने के लिए उनकी स्तुति (प्रा) करके हाथ जोड़कर या धीन-वचन कहकर याचना न करे अर्थात् उन्हें इस प्रकार से वापस देने का न कहे । यदि माँगना हो तो उन्हें धर्मवचन कहकर - आ. सु. २, अ. ५ . सु. ५०६ समझाकर माँगे, अथवा मौन भाव धारण करके उपेक्षा भाव से रहे बरम के विवण करने के प्रायश्चित सूत्र तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मातियं परिहाराणं वा । - नि. ज. १८, सु. ३३ ३४ चारित्राचार एवणा समिति तथा मार्ग में चोरों को सामने आता देखकर उस वस्त्र की रक्षा हेतु प्रोों से भयभीत होकर साधु उन्मार्ग से न जाए पावसाविभाव में स्थिर होकर संयमपूर्वकामानुपा सलोम धम्म विहि-गिरोहो २०७. नो कप्प निषीणं सलोमाई चम्माई अहिट्टित्तए । [६८ चोरों के भय से उन्मार्ग से जाने का निषेध २०४. मामनुप्रास विचरण करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के मार्ग में बटत्री वाला सम्बा मार्ग हो और वह यह जाने कि-- इस से लिए जाते हैं, तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से न जाए- यावत् समाश्रि भाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । घरों से अपहरित यन्त्र के याचना का विधि-निषेध२०५ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के मार्ग में चोर हरण करने के लिए आ जाएं और कहें कि धर्म सम्बन्धी विधि- निषेध - ६ २०६. जो भिक्षु वर्ग वाले वस्त्र को विवेगं करता है, दिवर्ण कर वाता है अथवा विवर्ण करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु वित्र वस्त्र को वर्णवाला करता है, वर्णवान् कराता है अथवा वर्णवान् करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्मानिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । लोचन के विधि-निषेध २०७. को उपयोग में लेना नहीं कल्पता है। वासनादि कार्यों के लिए रोम सहित नर्म Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६] चरणानुयोग सरोम चर्म के उपयोग का प्रायश्चित सूत्र सूत्र २०७-२१२ प्पड निरगंथाणं सलोमाइं चस्मा अहिद्वित्तए, किन्तु निम्रन्थों को शयगासनादि कार्यों के लिए रोम-सहित चर्म को उपयोग में लेना कल्पता है। वह भी परिभुक्त (काम में लिया हुआ) हो, अपरिभुक्त (नया) से विय परिभुत्ते, नो चेन णं अपरिभुने, से वि य पाडिहारिए, नो चेवणं अपादिहारिए, पातिहारिक (लौटाया जाने वाला) हो, अपातिहारिक (न लौटाया जाने वाला) हो। से षि य एगराइए, नो चेव णं अणंगराइए। केवल एक रात्रि में उपयोग करने के लिए लाग जावे, पर -कप. उ. ३, सु. ३-४ अनेक भत्रियों में उपयोग करने के लिए न लाया जावे । सलोम चम्म अहिट्ठाणस्स पायग्छित्तसुतं सरोम चर्म के उपयोग का प्रायश्चित्त सूत्र---- २०८. मे भिक्खू सलोमाई चम्मा अहिटइ, महिदुत वा २०८. जो भिक्षु रोम सहित चर्म को उपयोग में लेता है. लिवाता साइज्जई। है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवम्जद चाजम्मासियं परिहारदाण उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १२, सु. ५ जाता है। कसिणाकसिण चम्म विहि णिसेहो कृत्स्नाकृत्स्न चर्म का विधि-निषेध२०६. नो कप्पर निग्गंथाण बा, निग्गंधोण वा कसिणाई चम्माई २०६. निर्गन्थों और मिग्रंन्धियों को अखण्ट चर्म पास में रचना धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा । या उसका उपयोग करता नहीं कल्पता है। कप्पा निग्गंधाण वा निग्गंधीष गा सिणा गया सन्तु निगो और निन्थियों को चर्म खण्ड पास में रखना घारेत्तए चा, परिहरित्तए वा। -कप्प. उ. ३, सु. ५-६ या उसका उपयोग करना कल्पता है। अखण्ड चम्म धारण पायच्छित सुतं अखण्ड चर्म धारण करने का प्रायश्चित्त सूत्र२१०. जे मिक्सू कसिणाई चम्माई धरेइ धरतं वा साइज्जद। २१०. जो भिक्ष कृत्स्न (अखण्ड) चर्म वो धारण करता है, धारण करवाता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवमा मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिया परिहारस्थात (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. ३. २, सु. २२ चिलमिली को विधि-७ चिलमिली धारण-परिहरण विहाणं चिलमिली रखने का तथा उपयोग करने का विधान२११. कप्पद निग्गंधाण वा, निग्गंधीण या, २११. निर्ग्रन्थों और नियन्थियों को चेल-मिलिनिलिका रखना खेलथिलिमिलिय' धारित्तए वा, परिहारत्तए वा। और उसका उपयोग करना कल्पना है। -कप्प. उ. १, सु.१६ चिलमिली सयंकरण-पाच्छित्त सुत्तं चिलमिलिका के स्वयं निर्माण करने का प्रायश्चित्त सूत्र२१२. भिक्खू सोत्तियं वा, रज्जुयं वा, चिलमिल सयमेव करेइ, २१२. जो भिक्षु सूत की अथवा रस्सी की चिलमिली का निर्माण करेंसं वा साहज्जइ। स्वयं करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। १ चिलिमिलिका यह देशी शब्द है, यह छोलदारी के आकार वाली एक प्रकार की वस्त्र-कुटी (मच्छरदानी) है तथा बृहत्कल्प सूत्र उ.१ में द्वार पर लगाये गये पर्दे को भी चिन मिनिका कहा गया है। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१३-२१६ चिलमिलिका के निर्माण कराने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राधार : एषणा समिति [६५७ त सेवमाणे बावज्जद मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं । उसे नासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। –नि उ. २, सु. १३ चिलमिली कारावण पायपिछत्त सुत्तं चिलमिलिका के निर्माण कराने का प्रायश्चित्त सूत्र२१३. जे मिक्यू सोत्तियं वा, रज्जुब का, चिलमिलं अण्णस्थिएण २१३. जो भिक्ष, सूत की अथवा रस्सी की चिलमिली का निर्माण वा गारथिएण वा कारेइ. कारतं वा साइग्जद । अन्यतीथिक वा गृहस्थ से करवाता है या करने गले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आपज्जह मासिय परिहारशरणं उग्घाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्यान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. २, सु. १४ वस्त्रषणा सम्बन्धी अन्य प्रायश्चित्त-८ - - अण्णस्थियाईणं वत्थाइदाणस्म पायच्छित सुत्त अन्यतीथिकादिक को बस्त्रादि देने का प्रायश्चिन्त सूत्र२१४. जे भिक्खू अण्ण-उस्थिग्रस्त वा, गारस्थियस्स वा वयं वा, २१४. जो भिक्ष अन्यतीथिक वो या गृहस्थ को वस्त्र, पात्र, पडिग्गहं वा, कंबलं बा, पायपुंछणं वा धेर, यस क्ष काबिस वा पादछिन देता है, दिलाता है या देने वाले का अनुसाइजह। मोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ घाउम्मासियं परिहारटाणं उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ७ आता है। अजाणिययस्थ गहणस्स पायचिछत्त सुतं अज्ञात वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त मूत्र२१५. जे भिषन जायणावत्य वा, णिमंतणावत्यं वा अजाणिय, २१५. जो भिक्ष, याचित वस्त्र तथा निमन्त्रित बस्त्र को जाने अपुच्छिय, अगवेसिय पडिग्गाहेइ पनिगाहेंत वा साइम्जा । बिना, पूछे बिना, गवेषणा किए बिना लेता है, लिवाता है, लेने काने का अनुमोदन करता है। से य वस्ये चउण्ह अण्णयरे सिया, तं जहा वह वरत्र चार प्रकार के वस्त्रों में से किसी एक प्रकार का होता है, यथा(१) णिच्च-णियसिए, १. नित्य काम में आने वाला, (२) मजणिए, २. स्नान के बाद पहना जाने वाला, (३) छण्णूसविए. ३. उत्सव में जाने के समय पहनने योग्य, (४) रायदुवारिए। ४. राजमभा में जाते सनय पहनने योग्य । त सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उघाइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५. सु. १६. आता है। दुमुठियकुलाओ वत्थाइ गणस्स पायच्छिस सुतं- धृणित कुल से वस्त्रादि ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र२१६. जे भिक्खू दुगुछियफुलेसु वत्यं वा, परिगहं था, कंबल वा, २१६, जो भिक्षु पूणित कुलों में वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादौंछन पायपुंछणं वा पडिग्गाहेद, परिगाहेत या साइज्जड। लेता है, लिवाता है वा लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जइ चाउम्भासियं परिहारटुाणं उग्धाइयं । उसे चातुर्मासियः उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. च १६, सु. २१ आता है। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८] परणानुयोग मार्गावि में वस्त्र की पाचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र पत्र २१७-२२१ उग्घोस जायणाए पायच्छित्त सुत्ताई मार्गादि में वस्त्र की याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र११२ गाना गागं वा, उरामा , अणुवासग २१७. जो भिक्ष स्वजन से, परिजन से, उपासक से. अनुपासक वा, गामंतरंसि का, गामपहरारंसि था, बत्थं ओमासिय से, ग्राम में या ग्राम पथ में, वस्त्र मांग-मांग कर नाचना करता है, ओभासिय जायह, जायंत वा साइज्जइ । याचना करवाता है या याचना करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू गायग वा, अणायगं वा, उवासगं वा, अणुवासगं जो भिक्ष म्बजन को, परिजन को. उपासक को, अनुपानक ता, परिसामग्माओ उटुवेत्ता वस्थे ओभासिर जायइ, जायतं को परिषद् में से उठाकर (उससे) माँग-माँगकर वन्त्र की याचना वा साइजई। करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारटाणं उरघाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. १८, सु.७१-७२ आता है। वत्थणीसाए बसणस्स पायच्छित्त सुत्ताई वस्त्र के लिए रहने के प्रायश्चित्त सूत्र२१८. जे सिक्खू वत्पणीसाए उडुबवं वसइ, वसंत वा साइज्जइ। २१८, जो भिता वस्त्र के लिए ऋतुबद्ध बाल (सी या गर्मी) में रहता है, रहवाता है या रहने वाले का अनुमोदा बारता है। जे भिक्खू वत्थणीसाए वासावासं वसइ, वसंत या साइज्जइ। जो भिक्ष वरा के लिए वर्षावास में रहता है. रहनाता हे या रहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ घाउम्मासिय परिहारहाणं उग्याइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिवा परिहारस्थान (प्रायश्चिन) -नि..१८, सु.७३-८४ आता है। सचेल अचेलसह यसणरस पायच्छित्त सुत्ताई सचेल अचेल के साथ रहने के प्रायश्चित्त सूत्र२१६. जे भिक्खू सचेले सघेलयाणं मजमे संवसह, संबसंत वा २१६. जो सचेल भिक्ष सनेलिकाओं के बीच में रहना है, रहसाइज्जह। दाता है यो रहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू सचेले अचेलयाण मज्ने संवसइ, सवसंत का जो सचेल भिक्षु अवेलिकाओं के बीच में रहता है, रहवाता साइज्जद। है वा रहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अचेले सचेलयाणं माझे सबसइ, संबसंत था जो अचेल भिशु सचेलिकाओं के बीच में रहता है। रहवाता साइन्जई। है या रहने वाले का अनुमोदान करता है। जे भिक्खू अचेले बरेलयाण मज्ने संवसइ, संवसंत वा जो अचेल भिक्षु अबलिकाओं के बीच में रहता है। रहवाता साइज्जद । है या रहने वाले का अनुमोदन करना है। तं सेवमाणे आयज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्माशिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ. ११, सु. ८०-९० आता है। गिहिवत्योवजोगकरणस्स पायच्छित्त सुत गृहस्थ के वस्त्र उपयोग करने का प्रायश्चित्त सूत्र२२०. जे भिक्खू विहिवत्थं परिहेद, परिहेंत या साइज्तइ। २१.. जो भिधा गृहस्थ के नास्त्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद चाजम्मासिय परिहारदाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १२. सु. ११ जता है। दीहमुत्तकरणपायच्छित सुत्ताई .... देर्घसूत्र बनाने के प्रायश्चित्त सूत्र२२१. जे भिक्षु अप्पणो संघाडीए दोहसुत्ताई' करेइ, करेंत वा २२१. जो भिक्षु अपनी संघाटि (चादर) के लम्बी डोरियां बांधता साइण्जा। है, बंधवाता है या वाँधने वाले का अनुमोदन करता है। १ नहर को दी सूत्र करने का तात्पर्य यह है कि शरीर पर बांधने में छोटी होती है तो उसके किनारों पर बाँधने के लिए डोरी लगाई जा सकती है वह बन्धन मुत्र (डोरी) ऐसे प्रमाण में हो कि बाँधने के बाद ४ अंगुल में अधिक होरी शेष न रहे। अगले सूत्र में अनेक प्रकार के कपास (रूई) को दीर्घ मूत्र करने का ज्ञानपर्य है कि उन-उन कपासों (रूइयों। को तकली चर्या आदि से कातना । अतः इस' सूत्र से मून' आदि कासने, कताने आदि का प्रायश्चित कहा गया है । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२१-२२३ भिक्ष की चादर सिलाने का प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [६८९ जे भिक्खू सण-कप्पासाओ बा, जषण-कपास ओ वा, पोंड- जो भिक्षु सन, ऊन, पोण्ड (रुई) या अभिल के कपास को कप्पासाओ या, अमिलकप्पासाओ वा, दोहसुत्ताई करे, कातकर सूत बनाता है, बनवाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करेंतं वा साइज्जद। करता है। त सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाजय। उसे मासिक उद्घारिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) बाता है। -नि. उ. ५, सु. १२, २४ । भिक्खुस्स संघाडो सिवावण पायच्छित्त सुत्तं- भिक्षु की चादर सिलवाने का प्रायश्चित्त सूत्र२२२. जे भिक्षु अप्पणो संघाडि अण्णास्थिएण वा, गारस्थिएण २२. जो भिक्ष अपनी संघाटि (ओढ़ने की चादर) को अन्यवा सिध्याबद्द, सिब्वायत वा साइज्जइ । तीथिक या गृहस्थ से सिलवाता है या सिलवाने वाले का अनु मोदन करता है। त सेवमाणे आवजह मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -.नि. उ १, सु. १२ वस्थपरिकम्म पायच्छित्त सुत्ताई वस्त्र परिकर्म के प्रायश्चित सूत्र२२३. जे भिक्खू वत्थस्स एग पडियाणियं देह, देतं श साइज्जद्द। २२३. जो मिक्ष वस्त्र के एक थेगली देता है. दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वरथस्स परं तिण्ह परियाणियाणं देइ, देंतं वा जो भिक्ष वस्त्र के तीन गलियों से अधिक थेगले देता है, साइज्जई। दिलवाता हे या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अविहीए यत्य सिवइ, सिम्वतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु अविधि से (वन को) सीता है, सिलबाता है या मीने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक् वत्थस्स एम फालिय गठियं करेइ. करतं वा जो भिक्षु फटे हुए वस्त्र के एक गांठ देता है, दिलवाता है साइज्जह। या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वस्थस्स परं तिा कालिय-गठियाणं करेइ. करेंतं जो भिक्षु फटे हुए वस्त्र को टोन से अधिक गाँट देता है, या साइजइ । दिलवाता है मा देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बत्थस्स एग फालिय गण्ड गत वा साइज्जद। जो भिक्ष एक सिलाई करके वस्त्रों को जोड़ता है, जुड़वाता है या जोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू बत्यस्स पर तिलं कास्निया गंठेह, मंठेनं धा जो भिक्ष तीन से अधिक मिलाई करके वरहों को जोड़ता साइज्जई। है, जुडवाता है या जोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठेड, गत वा साइजह। जो भिक्ष वात्र को अविधि से जोड़ता है, जुड़वाता है या जोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू व अतज्जाएणं महेइ, गहेंतं या साइज्जइ । जो भिक्ष विजातीय वस्त्रों को जोड़ता है, जुड़वाता है या जोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू अहरेग-गहिम वत्यं परं दिवढाओ मासाओ जो भिक्ष तीन से अधिक सिलाई आदि किये हुए वस्त्र को धरेइ, यरतं वा साइज्जइ। डेढ़ मास से अधिक धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जह मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं । उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ---नि, उ.१, सु. ४७-५६ आता है। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१०] घरमानुयोग एवणीय पात्र सूत्र २२४२२६ निर्गन्ध निर्ग्रन्थिनी के पात्रषणा की विधि-१ एसणिज्ज पायाई एषणीय पात्र२२४. से भिक्खू वा, भिक्षणी वा अभिकंज्जा पायं एसित्तए, २२४. भिक्ष या भिक्षणी यदि पात्र को एषणा करना चाहे तो से जं पुण पायं जाणेज्जा, नं जहा वह पाओं के सम्बन्ध में जाने, वे पात्र इस प्रकार है- . लाउयपायं वा, रारुपायं वा, (१) तुम्बे का पात्र (२) लकड़ी का पात्र और मट्टियापायं या (३) मिट्टी का पात्र तहप्पगारं पाय जे णिग्थे तरुप्पे जुगर्व बसवं अप्पायके इन पत्रों में से जो निग्रंय मुनि तरुण है, रामय के उपद्रव थिर-संधयणे से एगं पायं घारेज्जानो बिइयं । (प्रभाव) से रहित है, बलवान् है. दोग-रहित और स्थिर संहनन –आ, सु. २, अ. ६, इ. १, सु. ५८८ (दृढ़ संहनन) बाला है. वह एक ही प्रकार के पात्र धारण करे, दूसरे प्रकार के पात्र धारण न करे । पडिग्गह-पडिलेहणाणतरमेव पडिग्गह-गहण-विहाणं- पात्र प्रतिलेखन के बाद पात्र ग्रहण करने का विधान२२५. सिया से परो ता पडिग्गहं पिसि रेज्जा, से पुन्यामेव २२५. यदि गृहनायक पात्र (को सुसंस्कृत आदि किये बिना है) आलोएज्जा लापर साधु को देने लगे तो साधु लेने से पहले उनसे कहे - "बाजसो ! ति वा भरणी! ति वा, तुम व गं संलियं "आयुगमन गृहस्थ ! या बहन ! मैं तुम्हारे इस पात्र को पडिग्गह, अंतोतेण पडिले हिस्सामि । अन्दर बाहर-चारो ओर से भली-गानि पतिलेखन कर।" केवलो बूया - आयाणमेयं, क्योंकि प्रतिलखन किए बिना पात्र ग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया है। अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा, सम्भव है उस पात्र में जीव जन्तु हों, बीज हो या हरी वनस्पति आदि हो। अह भिषक्षण पुच्चोवदिट्टा-जाब-एस उपएसे, जे पुवामेव अतः भिलओं के लिए तीर्थकर आदि आन्त पुरुषों ने पहले पडिग्यहं अंतो अंतेण पडिलेहेज्जा । से ही ऐसी प्रतिज्ञा-यावत-उपदेश दिया है कि माधु को पात्र -आ. सु. २, अ.६, उ.१, सु. ५६ ग्रहण करने से पूर्व ही उस पाप का अन्दर बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। थेरगहिय गडिगहाईणं विही स्थविर के निमित्त लाये गये पात्रादि की विधि२२६. निम्मथचणं माहावइकुल पडिग्रहपडियाए अणुपस्टुि २२६. गृहस्थ के पा में पात्र ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट समाणे केह बोहि पडिमाहेहि उवनिमंतज्जा--- निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पात्र ग्रहण करने के लिए उपरिमंत्रण करेएमं आउसो ! अप्पणा पष्टिभंजाहि, एगं मेराणं दलयाहि "आयुष्मन् ! श्रमण इन दो पात्रों में मे एक पात्र आप स्वयं रखना और दूसरा पात्र स्थविर मुनियों को देना।" । "से य तं पडिगाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियव्या सिया। (इस पर) बह निर्गन्ध श्रमण उन दोनो पत्रों को ग्रहण कर जत्येष अणुगसमाणे येरे पासिज्जा तत्व अणुप्पदायवे ले और (स्थान पर आकर) स्थविरें की गवेषणा करे। गवेषणा सिया, नो चेव अणुगवेसमाणे घेरे पासिज्जा. तं नो करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं पर पात्र उन्हें अप्पणा परिभजेज्जा, नो अग्णेसि दाबए, एगते अणावाए दे दे । यदि गवेषण करने पर भी स्थविर मुनि कहीं न दिखाई दे तो उस पात्र का स्वयं भी उपभोग न करे और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, विन्तु एकान्त अनापत जहाँ आवागमन १ कप्पइ पिगंधाण वा, णिग्गथीण वा तमो पायाई धारिसए वा, परिहरित्तए वा. तं जहा-लास्यपाए वा. दारूपाए वा, मट्टिया -सणं. अ. ३, उ. ३, सु. १७८ पाए वा। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२६-२२ अतिरिक्त पात्र वितरण के प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार : एबमा समिति [६९t अचित्ते बहुफासुए पंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिहा- न हो ऐसी) अचित्त या बहु वासुक स्थडिल भूमि का प्रतिलेखन्न वेयवे सिया। एवं प्रमार्जन फरके वहाँ (उस पात्र को) परिष्ठापन करे । (परठ दे)। एवं जाब दसहि पडिग्गहेछि ! इसी प्रकार तीन चार यावत् स पात्र तक का कपन पूर्वोक्त कथन के समान कहना चाहिए । जहा पडिगह वत्तत्रया भणिया एवं गोच्छा-रयहरण-चोल- जिस तरह पात्र को वक्तव्यता कही उसी प्रकार गोच्छा, पट्टाग-कंबल-लट्ठी-संधारण वत्तव्बया य भणियवा जाव रमोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, संस्तारक का वर्णन भी दसहिं संथारएहिं उचणिमंतेजा जाव परिदयात्रेयच्ने सिया। कह देना चाहिये यावत् गृहस्थ बस संस्तारक का निमात्रण करे -वि. स. ८. स. ६, सु. ५-६ यावत् स्थविर के नहीं मिलने पर परठ देना चाहिए। अइरेग-पडिग्गह-वियरण पायच्छित्त सत्ताई . अतिरिक्त पत्र वितरण के प्रायश्चित्त सूत्र-. २२७. जे भिक्खू अइरेग पडिग्गहं गणि उद्दिसिय गणि समुद्दिसिय २२७. जो भिक्षु गणि के निमित्त अधिक पात्र लेता है, गणि को तं गाण अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियर, पूछे बिना या निमन्त्रण किये बिना एक दूसरे को देता है, दिलवियरत वा साइजइ। वाता है या देने वाले का अनुमोदन करना है। जे मिक्खू अइरेगं पडिगई खुर डगस्स या, खुडियाए बा, जो भिक्षु, बाल साधु साध्वी के लिए, अथवा इस साधु भेरगस्स वा, भेरियाए वा, अ-हस्थच्छिपणस्स, अ-पायलिछ- साध्वी के लिए जिनके कि हाथ, पैर, माक, मान, होंठ, कटे हुए एणस्स, अ-णासच्छिण्णस्स, अ-कणच्छिण्णस्स, अणोदच्छि- नहीं है जो सशक्त है, अतिरिक्त पात्र रखने की अनुज्ञा देता है, पणस्स, सक्कस्स बेह, देतं वा साइजद । दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अइरेग परिगहं अगस्स वा, इडियाए पर, जो भिक्ष बाल साधु साध्वो के लिए अथवा वुद्ध साधु भेरगस्स पा, रियाए वा, हत्यनिरुपणस्स, पायच्छिष्णस्स, साध्वी के लिए जिन कि हाय. पैर, नाक, होट कटे हुए हैं, जो मासच्छिपणस, कण्णमिछाणस्स, ओटुच्छिणस्स, असक्कस्स अशक्त हैं, अतिरिक्त पात्र रखने की अनुता नहीं देता है न दिलन बेइ, न दतं वा साइज्जद। . माता है या न देने वाले का अनुमोदन करता है। स सेवमाणे आवजह चाउम्भासियं परिहारद्वाप उम्घायं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिका परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१४सु. ५-७ आता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्मिनी के पात्रषणा का निषेध-२ उद्देसियाई पाय-गहण णिसे हो औद्दोशिकादि पात्र के ग्रहण का निषेध२२६, से भिक्खू वा, मिक्खूणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा- २२८. भिक्ष या भिक्ष णी पात्र के सम्बन्ध में यह जाने के दाता अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिम पाणाई-जाव-ससाइं में अपने लिए नहीं बनाया है किन्तु एक सार्मिक साधु के लिये समारटम समुहिस्स, की, मामिच्चं, अन्छि, अणिसिद्ध, प्राणी-यावत्-सलों का ममारम्भ करके बनाया है, खरीदा अमिहर आहट्ट घेएछ । है, नधार लिया है. छीनकर लाया है, दो स्वामियों में से एक की आज्ञा के बिना लाया है अथवा अन्य स्थान से पहा लाया है। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरक वा, अपुरिसंतरका था, इस प्रकार का पात्र अन्य पुरुष को दिया हुआ हो या न बहिया णीहा वा, अणीहा था, अत्तट्टियं वा, अणसट्टियं वा, दिया हो, बाहर निकाला गया हो या न निकाला गया हो, परिमुसं वा, अपरिभुतं वा, बासेविषं वा, अणासेवियं वा स्वीकृत ही या अस्वीकृत हो, उपभुक्त हो या अनुपभुक्त हो, अफासुमं असणिज्जति भण्णमा लामे संते णो पडिग्गा- सेवित हो या अनासेवित हो उस पात्र को अमासुक एवं अनंषणीय हेज्जा । समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२) धरणानुयोग श्रमणादि को गणना करके बनाया गया पात्र लेने का निषेध माया से पाये जानेमा अलि पहिया बहवे साहसिया समुद्दिस पाना-द सत्ताईसमारम्भ समुहस्साको पडिगाना | से भिक्खू या. भिक्खुणी या से वजं पुण पाये जाणंजा -- असि पहिया एवं साहमण समृदिपागाई जाय सत्ता समारम्भ समुद्दिस्स-जात्र णो परिगहिज्जा । से मिलू वा मिनी वा से ज्जं पुन पार्थ जाणेअसि पडियार बह नाहम्मिणी समुद्दिस्स पाणाईजाद सप्लाई समान्य समुद्राची परिगाना | - आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६० (क) समणाइ पणिय निम्मिच पायस्स णिसेहो - २२९. सेक्सूचो का से ज्जं पुण पाये जाणे या, जाणेज्जाये समण-माण अतिहि किविण वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स जाब- आह एद । संहत्यारं पारित या अतिवाद गोडिया | ...., J. 1. 5. XEO (5) अद्ध जोयणमेराए पर पायपडियाए गमण णिसेहो - भिक्षु, या भिक्षुणी पात्र के सम्बन्ध में यह जाने ने अपने लिए नहीं बनाया है किन्तु बनेका लिये प्राणी - पावत् सत्त्रों का समारम्भ करके -- यावत् ग्रहण व करें। वा साइज्जइ । जे भिक्खू पर अजयमेराओ सायंसि पायं अभि अहा पापडिया साहा भिक्षु, या भिणी पात्र के सम्बन्ध में यह जाने कि दाता ने अपने लिये नहीं बनाया है किन्तु एक साथी के लिये प्राणी यावत् सत्वों का समारम्भ करके बनाया है। - यावत्-ग्रहण न करें । - - यावत् ग्रहण न करे । २२०-६१२ भिक्षु, या भिक्षु iters के सम्बन्ध में यह जाने कि दाता ने अपने लिये नही बनाया है किन्तु अनेक साथमिक साध्वियों के लिये प्राणी - यावत् - सत्वों का समारम्भ करके बनाया है - कि दाता धुओं के बनाया है। श्रमणादि की गणना करके बनाया गया पात्र लेने का निषेध - २२६. या पात्र के सम्बन्ध में यह जाने कि भिक्षु भिक्षुणी अनेक श्रमण-ब्राह्मण अतिथि कृपण भिखारियों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से बनाया है- यावत्-अन्य स्थान से यहाँ लाया है। इस प्रकार का पाथ अन्य पुरुष को दिया हुआ हो या न दिया हुआ हो- यावत् ग्रहण न करे । आधे योजन की मर्यादा से आगे रात्र के लिए जाने का निषेध २०. सेवा परं बोपगमेरा पापड २१० मि मा भियोजन के उपरान्त पाने के लिए जाने का विचार भी न करें । एगो अभिसंधारेज्जा गमणाए । - आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५५६ पापडिया अजोयणमेरा नंदगस्स पायसि गुताई पात्र हेतु अयोजन की मर्यादा भंग करने के प्रायदिवस सूत्र २१-२२१. आधे योजन से आगे पान के लिए जाता है. भेजता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। जो मि विकट परिस्थिति में भी का योजन से अधिक दूर से पात्र को सामने लाकर देते हुए को लेता है, लिवाता है। या लेने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चि) आता है। - तंवणाने भाव दिवं परिहारद्वागं अगुवाइ - नि. उ. ११, सु. ७05 महद्वणमोल्लागं परिग्रहाणं गहरा पिसेहो २३२. से भिक्खू या, भिक्खुणी या से जाइ पुण पाया जाणेज्जा २३२. गृहस्य के घर में पात्र के लिए प्रविष्ट भिक्ष, या भिक्षुणी विश्ववाई महणमा जहा तं यह जाने कि नाना प्रकार के महामूल्यवान पात्र हैं, जैसे कि बहुमूल्य वाले पात्र ग्रहण करने का निषेध Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३२-२३३ निषित पत्र के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [६६३ (१) अयपायाणि (२) उपाचाणि वा, (१) लोहे के पात्र, (२) रांगे के पात्र, (३) तंबपायाणि वा, (४) सीसगपायाणि वा, (३) तांबे के पात्र, (४) सीसे के पात्र, (५) हिरणपायाणि वा, (६) सुवण्णपायाणि सा, (५) चांदी के पात्र, (६) सोने के पात्र, (७) रोरियपायाणि वा, (७) पीतल के पात्र, (८) हारपुडपायाणि वा, (८) हारपुट अर्थात् मणी रत्न जटिन लोहादि के पात्र, (६) मणिपायाणि षा, (१०) कापपायागि वा, (8) मणि के पात्र, (१०) कांच के पात्र, (११) सपायाणि वा. १२) संबपायाणि वा, (११) कासे के पात्र, (१२) शंख के पात्र, (१३) सिंगयायाणि या, (१४) तपायाणि था, (१३) सींग के पात्र, (१४) दांत के पात्र, (१५) चेलपायाणि पा. (१६) सेलपाणि वा, (१५) वस्त्र के पात्र, (१६) पत्थर के पात्र, (१७) चम्मपायाणि वा, (१७) चमड़े के पात्र, अग्णपराई वा बहप्पगाराहं विश्वश्वाई महाणमोल्लाई अपना दूसरे भी इसी तरह के नाना प्रकार के महामूल्मवान् पायाई अफासुयाई-जान-मो पडिगाहेज्जा। पात्रो को अप्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहग न करे । से भिक्खू वा, भिक्खूणी सा से जाई पुण पायाई भाणेज्जा गृहस्थ के घर में पात्र के लिए प्रविष्ट भिक्ष, या भिक्षणी विरूवरूवाई महखणबंधणाई तं जहा–अयबंधषाणि वा उन पात्रों को जाने जो नाना प्रकार के महामूल्यवान् बन्धन वाले -जान-बापजातिमा नरागानगप्पगाराष्टं विरूव- है, जैसे कि - लोहे के बन्धन वाले यावत् -चन के बन्धन रूवाई महबणबंधगाई पाराई अफासुयाई-जावणो पउिगा- वाले अथवा अन्य भी इसी तरह के नाना प्रकार के महमूल्यवान् हेजा। -आ. सु. २, अ. ६. उ. १, मु. ५६२-५६३ बरधन बाले पात्रों को अप्रामुक जानकर-पावत्-ग्रहण न करे । णिसिद्ध पाय पायच्छित सुताई निषिद्ध पात्र के प्रायश्चित्त सूत्र२३३, जे मिक्लू २३३. जो भिक्ष - (१) अय-पायाणि वा, (२) तउय-पायाणिवा, (१) लोहा के पात्र, (२) रांगा के पात्र, (३) तंव-पायाणि वा, (४) सीसा पायाणि वा, (३) तांबा के पात्र, (४) सीमा के पात्र, (५) हिरण-पायागि वा, (६) सुवण्ण-पायाणि वा, (५) चांदी के पात्र, (६) सोना के पात्र, (७) रोरिय-पायाणि वा. (७) पीतल के पात्र, (6) हारपुड-पायाणि वा, (८) गणी रत्न जटित लोहादि के पार, (६) मणि-पायाणि वा, (१०) काय-पायागि वा, (6) मणि के पात्र, (१०) कांच के पात्र, (११) कंस-पायाणि वा, (१२) संख-पायागि था, १११) कांसा के पात्र, (१२) शंख के पार, (१३) सिंग-पायाणि वा, (१४) दंत-पाचाणि वा, (१३) सिंग के पात्र, (१४) दांत के पात्र, (१५) चेल-पायाणि वा, (१६) सेल-पायाणि वा, ११५) वस्त्र के पात्र (१६) पत्थर के पात्र, (१७) चम्म-पायाणि वा। (१७) चनं के पात्र तथा अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि पायाणि करेइ, करेंतं वा अन्य भी इस प्रकार के पात्र करता है, करवाता है या करने साहज्जइ। वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अय-पायाणि वा-जाब-अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि जो भिक्ष, लोहे के पात्र-यावत्-अन्य भी इस प्रकार के पायाणि वा घरे, धरतं वा साइज्जइ। पात्र रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्स मय-बंधणाणि वा-जाव-बंधणाणि वा फरेइ, करतं जो भिक्ष पात्र को लोहे के बन्धन-पावत्- अन्य भी इस वा साइजइ। प्रकार के बन्धन लगाता है, लगवाता है रा लगाने वाले का अनुमोदन करता है। १ अंक पायाणि और वदर पापाणि दो पात्रयावक भब्द निशीय सूत्र की अनेक प्रतियों में अधिक मिलते हैं । Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४] वरणानुयोग संकेत वचन से पात्र ग्रहण का निषेध सूत्र २३३-२२६ जे भिक्षु अय-बंधणाणि बा-जात्र-बंधणाणि वा घरेश, धरतंगो भिक्ष, लोहे के बन्धन-पावत्-अन्य भी इस प्रकार वा साइज्जई। के बन्धन वाले पाच रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान प्रापश्चित्त) -नि. उ.११, सु. १-२-४-५ आता है। संगार बयणण पडिग्गह गहण गिसेहो संकेत वचन से पात्र ग्रहण का निपंच२३४. से गं एताए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वदेज्जा - २.३४. पात्र एषणाओं से पार की गवेपणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ यहे कि"आउसंतो समणा ! एज्माहि तुमं मासेण वा, दसरातेण वा, आयुष्मान् श्रमण | तुम इस समय जाओ एक मास या पंचरातेण वा, सुते या, सुततरे षा, तो ते वयं आउसो ! दस या पांव रात के बाद अथवा कल या परसों आना, तब हम अण्णतरं पायं वासामो।" सुम्हें कोई पात्र देंगे।" एनप्पगारं णिग्योस सोच्चा निसम्म से पुष्वामेव आलोएज्जा- इस प्रकार का कथन सुनकर समझकर साधु से पहले ही वह दे"अाउसो ! ति चा, भगिणी ! ति वा, णो खतु मे कम्पति “आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! मुझे इस प्रकार का एतप्पगारे संगार ययणे पडिसूणेत्तए, अभिखसि मे दाउं संकेतगूर्वक वचन स्वीकार करना नहीं कल्पता है। अगर मुझे वाणिमेव बलयाहि ।" दात्र देना चाहते हो तो अभी दे दो।" से पेव वदंत परो ववेज्जा ___साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह पहस्था यो माहे कि"आउसंतो समणा ! अणुगच्छाहि तो ते वयं अपणतरं पायं आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ। योड़ी देर बाद दासामो।" आना. हम तुम्हें कोई पात्र दे देंगे।" से पुवामेव आलोएज्जा ऐसा कहने पर राधु उसे पहले ही कह दे, 'आचसो ! ति बा, भइणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति "आयुष्मन् गृहस्थ ! अबवा बग ! मुझे इस प्रकार से एयप्पगारे संगारवयणे पविणेत्तए अभिकसि मे दाउं संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना नहीं कल्पता है। अगर मुझे इयाणिमेव बलयाहि ।" देना चाहते हो तो अभी दे दो।" —आ. सु. २. अ. ६. उ. १, सु. ५६६ (वास्त) अफासुय पडि गगह गहण णिसेहो. अप्रामुक पात्र-ग्रहण करने के निषेध२३५. से सेवं वर्चत परो णेत्ता घदेज्जा २३१. साधु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ घर के किसी सदस्थ (बहन आदि को बुलाकर) यों कहे कि"बाउसो । ति वा, भगिणी 1 ति बा, आहरेतं पायं समणस्स "आयुष्मन् भाई या बहन ! यह पात्र लाओ, हम उसे श्रमण बासामो अवियाई वयं पच्छा बि अपणो सयढाए पाणाई को देगे। हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी प्राणी -जाव-सत्ताई समारम्भ-जाव-तेरसामो। -यावत्-सलों का समारम्भ करके और उद्देश्य करके - यावत् - अन्य पात्र बनबा लेंगे। एतप्पगार निधोसं सोना निसम्म तयाम्पगारं पायं अफासुर्य इस प्रकार का कथन सुनकर समझकर उस प्रकार के पात्र जाय-पो पडिगाहेज्जा। को अवासुकै जानकर-यावत-ग्रहण न करे । -आ. सु. २, अ. ६, उ. १, ९.५६६ (ग) परिकम्मकय पडिग्गह गण-गिसेहो परिकर्मकृत पाहण का निषेध२३६. से गं परो णेत्ता वएज्जा २३६. कदाचित् कोई गृहस्वामी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे१ तीसरा और छठा सूत्र "परिभुजइ" के हैं अतः ये दो सूत्र अधिक होने पर छह सूत्र हो जाते हैं । Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३६-२३७ श्रमण के निमित्त प्रक्षालित पात्र के ग्रहण का निषेध चारित्राचार एवगा समिति [ ६६५ "आजसो ! ति वा, महणि ! ति वा आहरेय पाय तेल्लेण था. घण वा जवणीएण वा बसाए वा अम्मंगेला वा मा या समप्यस्स णं दासामो।" एक्प्पर गिर सोच्या सिम्म से पुन्यामेव आमोना "आउसो | ति वा मणि । ति वा मा एवं तुमं पाय सेल्लेण वा जाव बसाए वा अयंगाहि वा मला हि वा, अभिमेामे।" से सेयं वयं परो तेल्लेण वा जान बसाए वा अन्सनेला ar, Rrder at everजा हत्यारं पायें अकासु जाव णो पि सिया णं परो नेता वदेज्जा "उसो ! ति या भइणी । ति वा, आहर एवं पायं सिणा पेण वा जात्र पचमेण वा आसित्ता वा पत्ता वा समणस्स णं दालामो ।" एतप्पारं निग्पोस सोन्ना निसम्म से यामेज एज्जर "आउसो ! ति वा अणी ! ति वा मा एतं तुमं पायें सिणाणेण था- जाच पउमेण वा आवंसाहि वा पसाह वा मेलाह।" "आयुष्मन् भाई ! या बहुत ! वह पात्र लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या वसा अल्प या अधिक चुपड़कर साधु को देंगे।" - आ. सु. २. अ. ६, उ. १, सु. ५६७ (३) समद्देसिय पक्खालिय- डिग्गहस्स गहन जिसेहो २३७. से णं परो नेता वबेन्जा- "ब्राउसो ! ति वा महणी ! ति वा, आहर एवं पायं सीओदन वियण वा उसिणोगविक्षेण वा उच्छोलेत्ता वा पधोवेत्ता वा समree णं दासानो" एप्पमारं निम्पो सोचा निसम्म से पुण्यामेट आलो एक्जा "आजसो ! तिवा, भहणी 1 ति वा मा एवं सुमं पायें सीओदगवियण श. उसिणोगविथ डेण वा उच्छोलेहि वा. पहिया । दाह" से सेवं जयंतस्थ परोसनविय या उसिणोगविय शेण था, उच्छोलेता वा, पधोवेत्ता वा बलएज्जा । तह्यगारं सफासु जावो पा -- आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६७ (ख) इस प्रकार का कथन सुनकर एवं उस पर विचार करके वह पहले से ही कह ""आयुष्मत् गृहरु ! या आयुष्णाति बहन ! तुम इस पात्र को तेल से - यावत् चों से अल्प या अधिक न चुपड़ो यदि मुझे पात्र देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ तेल से - यावत् चर्बी से अल्प या अधिक चुपड़कर पाप देने लगे तो उस प्रकार के पात्र को अनासुफ जानकर — यावत् ग्रहण न करें । कदाचित गृहस्वामी पर के किसी क "आयुष्मन् भाई अथवा बहुन ! वह पात्र लाओ, हम उसे स्नान (सुगन्धित अन्य समुदाय ) से यावत्-पदमादि सुगन्धित पदार्थ से एक बार या बार-बार घिसकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार का कथन सुनकर एवं समझकर वह साधु पहले मे ही कह दें "आत् ! गृहस्थ था बहन ! तुम इस पात्र को स्नान (सुन्य समुदाय) से - यावत् समादि सुगन्धित द्रव्यों से आपण या प्रघर्षण मत करो। यदि मुझे वह पात्र देना दो तो ऐसे ही दे दो।" से से परो सिणाषेण वा जाव-परमेण वा क्षाधं साधु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ स्नान (सुगंधित सिता वा पावा हा पायं अकाव्य समुदाय से) यावत् पद्मादि सुगन्धित द्रव्यों से एक - जाव णो पडिगाज्जा बलएज्जा - बार या बार-बार घिसकर पत्र देने लगे तो उस प्रकार के पात्र को जानकर यावत् ग्रहण न करे । श्रमण के निमित्त प्रक्षालित पात्र के ग्रहण का निषेध - २३७. कदाचित् गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि "आयुष्मत् भाई या बहन ! उस पात्र को लाभो. हम उसे प्राक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोकर श्रमण को देंगे ।" इस प्रकार की बात सुनकर एवं समझकर वह पहले ही दाता से कह दे- "आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस पात्र को तुम प्रामुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या बार-बार मत धो । यदि मुझे इसे देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ उस पात्र को ठंडे पानी से या गरम पानी से एक बार या बार-बार धोकर साध को देने लगे तो उसे अप्रासु जानकर यावत् — ग्रहण न करे । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६] चरणानुयोग कन्दादि निकालकर दिए जाने वाले पात्र के ग्रहण का निषेध सूत्र २३८-२३६ wwwwwwwwwwww कंदाइ-विसोहिय-पडिग्गहस्स गहण णिसेहो कन्दादि निकालकर दिये जाने वाले पात्र के ग्रहण का निषेध२३८. से गं परो पत्ता बवेज्जा २३८. यदि वह गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"बाउसो ! ति, या भइणी । तिवा, आहर एवं पार्य कंदाणि "आयुगमन ! भाई या बहन ! उस पात्र को लाओ, हम या-जाव-हरियाणि वा वसाहता समणस्स दासामो" उसमें से कन्द-यावत - हरी बनस्पति (निकालकर.) विशुद्ध करके साधु को देंगे।" एतप्पगारं णिग्योसं मोच्चा निसम्म से पुब्बामेव आलोएज्जा, इस प्रकार गुनकर नमनाकर वह पहले ही दाता से कह दे - 'आउसो ! ति वा, भइणी ! ति बा. मा एताणि तुमं "आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस पात्र में से कन्द कंदाणि वा-जाद-हरियाणि वा विसोहेहि, पो खलु मे कप्पति -यावत्-हरी वनस्पति (निकालकर) विशुद्ध मत करो मेरे एपपगारे पाये पडिगाहितए । लिए इस प्रकार का पात्र ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है। से सेदं वदंतस्स परो कदाणि वा जात्र-हरियाणि का विसो- साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह कन्द- यावत् - हेत्ता दलएज्जा । तहप्पगारं पाय अफामुय-जाव-गो पडिया- हरी वनस्पति को (निकालकर) विशुद्ध करके देने लगे तो उस हेम्जा । -आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६५ (ग) प्रकार के पात्र को अप्रासुक लानकर-यावत् - ग्रहण न करे। उद्देसिय पाण-भोयण सहिय पडिग्गह गहण णिसेहो- भौशिक पान-भोजन सहित पात्र ग्रहण का निषेध२३६. से णं परो णेत्ता बदेज्जा २३६. (दानित) पोई गृहमायक साधु से इस प्रकार पन्हे''आउसंतो समणा ! मुहत्तम मुहुत अच्छाहि -जाय-ताब 'आयुष्मन् अंग! आप मुहर्तगर्पन्त (छ समय) ठहरिए । अम्हे असणं वा-जाव-साइमं वा उबकरेसु वा. उघबखाउँसु था, जब तक हन आना-यावत् स्वादिम आहार जुटा लें मा तो ते वय आउसो ! सप्माणं समोयणं पडिगह दासामो, तैयार कर लें, तब हम आप को पानी और भोजन से भरकर तुच्छए पडिगहे दिग्णे समणस्स णो सुख, गो साहु भवति ।" पात्र देंगे क्योंकि साधु को खाली पात्र देगा अच्छा और उचित नही होता। से पुव्यामेव आलोएज्जा इस पर साधु पहले ही उस गृहस्थ से कह दे -- "आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो सतु मे कप्पति 'आयुष्मन् गृहस्थ . या बहन ! मेरे लिए आधाकर्मी अशन आधाकम्मिए असणे वा-जाव-साइमे या भोत्तए वा, पायए यावत---स्वादिम लाना या पीना कल्पनीय नहीं है। अतः वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडे हि, अमिक खसि मे वा तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो। प्रमेव दलयाहि ।" यदि मुझे पान देना चाहते हो तो ऐसा (बाली) ही दे दो।" से सेवं वक्तस्स परो असणं वा-जाव-साइमं बा, उक्करेत्ता, साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि कोई गृहस्थ अशन उवखरेता सभाणं सभोयणं पजिगह वलएज्जा, तह पगारं –यावत् -स्मादिम आहार की सामग्री जुटाकर अथवा तैयार परिग्गहं अफासुय-जाव-णो पष्टिगाहेजा। कारके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे, तो -आ. सु. २, अ. ६. र. १, सु. ५६८ उस प्रकार के पाब को अरासुक समझकर--थावत्-ग्रहण न करे। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४०-२४२ श्रमणादि के उद्देश्य से निर्मित पात्र लेने के विधि-निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [६६७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी पावैषणा के विधि-निषेध-३ . . . . -." समणाइ उदेसिय मिम्मिय पायस्स विहि-णिसेहो- श्रमणादि के उद्देश्य से निर्मित पात्र लेने के विधि निषेध-- २४०. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से ज्ज 'पुण पाय जाणेज्जा-- २४०. विक्षु या भिक्षुणी पात्र के सम्बन्ध में यह जाने कि अनेक बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए समुदिम्स-जाव- श्रमण ब्रह्मण-अतिथि-कृपग-भिखारियों के उद्देश्य से बनाया है आहटु चेए । - पावत्-अन्य स्थान से यहाँ लाया है। तंतहप्पमा पपुरिनिरक. असहिगान पयिं . इस प्रकार का पात्र अन्य पुरुष को दिया हुआ नहीं हो, अपरिभुतं अणासेवियं अफासु-जावणो पजिगरहेज्जा । बाहर निकाला नहीं हो, स्वीकृत न किया हो, उपमुक्त न हो, आसेवित न हो, उसको अप्रासुक जानकर यावत - ग्रहण न करें। अह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकई बहिया पोहर्ष, अत्तट्टियं यदि यह जाने कि इस प्रकार का पात्र अन्य पुरुष को दिया परिषुतं आसेवियं फासुर्य-जाव-पहिगाहेज्जा। हुआ है, दाहर निकाला है, दाता द्वारा स्वीकृत है, उपभुक्त है, -आ. सु. २. अ. ६, तु.१, सु. ५६१(क) असेवित है. उसको प्रासुक समझाकर-यावत-ग्रहण करें। कोयाई दोस जुत्त पाय-गहण दिहि णिसेहो-- क्रीतादि दोष युक्त पात्र ग्रहण का विधि निषेध२४१. से भिक्खू वा भिवषणी वा से पुण पायं जाणज्जा - २४१. भिक्षु या भिभुगी पात्र के विषय में यह जाने कि गृहस्थ असंजए भिक्ख परियाए कीयं बा, धोयं वा, रत्तं वा, घट्ट ने साधु के निमित्त से उसे मरीदा है, धोया है, रंगा है, घिसकर वा, मटुवा, समटुवा, संपधूवियं बा-तहप्पगारं पायं साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया अपरिसंतरकर-जाव-प्रणासेवियं अकामुय-जाव-नो पडिगा- है. धूप इत्रादि से मुनासित किया है ऐसा वह पात्र पुरुषांतरकृत हेज्जा । नहीं है-यावत्-किसी के द्वारा आसेवित नहीं हुआ है. ऐसे पात्र को प्रासुक समझकर--यावत-ग्रहण नहीं करे।। अह पुण एवं जाणेज्जा–पुरिसंतरकष्टु-जाव-आसेवियं फासुयं यदि (साधु या साध्वी) यह जान जाये कि यह पात्र पुस्ता-जाव-पडिगाहेजा। तरकृत है-यावत् -आसेवित है तो प्रामुक समझकर-यावत- आ. शु. २. अ. ६, उ. १, सु. ५६१ (ख) ग्रहण कर सकता है। कीयाइ-दोससहिय-पाय-गहणस्स पायच्छित सुत्ताई- क्रोतादि दोष युक्त पात्र ग्रहण के प्रायश्चित्त सूत्र२४२. जे भिक्खू परिगह किणेइ, किणावेइ, कीयमाहटु दिन- २४२. जो भिक्षु पात्र खरीदता है, खरीदवाता है, खरीदा हुआ मागं परिष्माहेइ, पडिमाहेंत या साइजद।। लाकर देते हुए को लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनु भोदन करता है। जे भिक्खू पतिमाहं पामिश्चेद, पामिच्चावेड, पामिच्चमा- जो भिक्षु पात्र उधार लेता है, उधार लिवाता है या उधार हट्ट दिनमाण पडिग्गाहेइ, पहिगाहेंत या साइज्जह । लाकर देते हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पडिमाह परियट्टइ, परियट्टावेह, परियट्टियमा- जो भिक्षु पात्र को अन्य पात्र से बदलता है, बदलवाता है, हटु विज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत का साहजह। बदला हुआ लाकर देवे उसे लेता है, नियाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। ले भिक्खू पडिग्गह अकछेज्ज अणिसिद्ध अमिहामाहटु जी भिक्षु छीना हुआ, दो स्वामियों में से एक की इच्छा दिजमाणं पडिरगाहेइ, पडिमाहेंतं वा साइज्जइ । बिना दिया हुवा, या सामने लाकर दिया हुआ पात्र लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासिस परिहारष्ट्रःणं उमघाइयं । उसे उद्घातिका चातुर्मासिकः परिहारस्यान (प्रायश्चित्त! -नि. ए. १४, मु. १.४ भाता है। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] परमानुयोग पात्र के ग्रहण का निषेध सूत्र २४३.२४५ पडिग्गहस्स गहण विहि-णिसेहो पात्र के ग्रहण का विधि-निषेध२४३. से मिक्सू दा, भिक्खूणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा सर २४३. भिक्षु या भिक्षुणी पात्र के सम्बन्ध में जाने कि अन्डों से हार-संतान हाणारं यं अफासुर्य-जाद-को परिगा- -यावत्-मवड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के पात्र हेज्जा। को अप्रासुक जानकर-यावत्--ग्रहण न करे। से मिका, मिल्लूनी वा से नं पुण पाय जाना अप्पा भिक्षु या भिक्षुणी पात्र के सम्बन्ध में जाने कि अण्डों से -जाव-संतापगं अणसं, अपिर, भघुवं, अधारजिज, यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है, किन्तु उपयोग में आने रोइज्जतं न पचति, तहप्पगारं पाय अफासु-जाव-जो योग्य नहीं है, अस्थिर है (टिकाऊ नहीं है, जीर्ण है) अधद पनिगाहेजना। (थोड़े समय के लिए दिग जाने वाला) है, धारण करने के योग्य नहीं है, अपनी रुचि के अनुकूल नहीं है तो उस प्रकार के पात्र को अप्रासुक समझकर—यावत्-ग्रहण न करे । से मिक्सू वा, भिक्खूणी वा से पुण पाय जाणेज्ना अप्पर भिक्ष या भिक्षणी पात्र के सम्बन्ध में जाने कि यह पाय -जाव-संताणगं, मल, पिर, धुवं, धारणिग्णं, रोइजंतं अण्डों से-यावत्-मकड़ी के जालों से रहित है. उपयोग में इस्वति, तहप्पणारं पापं फासु-जाव-परिगाहेजा। आने योग्य है, स्थिर है, या घव है, धारण करने योग्य है, --आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ६०. (क) अपनी रुचि के अनुकूल है तो उस प्रकार के पात्र को प्रासुक समझकर-यावत-ग्रहण करे। धारणिज्ज-अधारणिकज-पडिग्गहस्स पापच्छित्तसुत्ताई- धारण करने योग्य और न धारण करने योग्य पात्र के प्रायश्चित्त सूत्र२४४. भिक्खू परिग्यहं अणलं, मपिर, मधुवं, अपारगिजं, २४४. जो भिक्ष कान के अयोग्य, अस्थिर, अध व. धारण करने घरेश, धरेंसं वा साइजः। के अयोग्य ऐसे पात्र को धारण करता है, धारण करवाता है, धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। भिक्खू पडिग्गहं मल, घिर, धुवं, धारणिज्छ न घरे न जो भिक्ष काम के योग्य, स्थिर, धव, धारण करने योग्य घरेंसं वा साइजद। पात्र को धारण नहीं करता है, नहीं करवाता है, नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। मेवमाणे भावग्जा पाउम्मासिवं परिहारट्ठाणं उाधाइयं उसे उपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१४, मु. ८-९ आता है। में मिमलू लाय-पाय चार पाय वा मट्टिया-पाय वा, जो भिक्ष, टुम्बे के पात्र को, काष्ठ के पत्र को, मिट्टी के अलं, विरं, युवं, पारगिजं परिमिविध परिभिदिय परिवेश, पात्र को पर्याप्त (काम में आने योग्य), दुड (टिकाऊ), ध्र व एवं परिट्टवेतं वा साइज्जा । धारण करने योग्य होते हुए भी तोड़ फोड़ कर परठता है, परठ वाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमा आवमा मासियं परिहारट्रागं उग्याइये। उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६४ अइरेग पडिग्गहदाणस्स विहि-णिसेहो अतिरिक्त पात्र देने का विधि निषेध२४५. कपर निगपाण वा, निग्ग्रंथोण या हरेगपडिग्गाहं अम- २४५. निर्गन्ध-निग्रंथियों को एक दूसरे के लिए अधिक पात्र मन्नस्स अट्ठाए दूरमवि अवाणं परिवहितए. बहुत दूर ले जाना कल्पता है। (अधिक पात्र लेते सनय तीन विकल्प होते हैं) "सो वा धारेस्सह, वह धारण कर लेगा, अहं वा गं धारेस्सामि, मैं रख लूंगा, अग्ने वा गं धारेस्सर" (अथवा अन्य को आवश्यकता होगी तो उसे दे दूंगा। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४५-२५० मगत पात्र धारण विधान बारित्राचार : एषणा समिति [tt नो से कपर ते अणापुग्छिय, अणामंतिय अन्नमन्नेसि बाई जिनके निमित्त पात्र लिया है उन्हें लेने के लिए पूछे बिना वा अगुप्पदाउ था। निमन्त्रण किये बिना दूसरे को देना वा निमन्त्रण करना नहीं कल्पता है। कम्पइ से ते आपुछिय आमंतिय अन्नमसि वाउं या उन्हें पूछने व निमन्त्रण करने के बाद अन्य किसी को देना अणुप्पदा वा -यव. उ. ८, गु. १६ या निमन्त्रण करना कल्पता है । पान धारण विधि-निषेध-६ सवटय पात्तधारण बिहाणं सवस्त पात्र धारण विधान२४६. कप्पइ निगांधाणं सवेष्टय लाउय धारेत्तए वा परिहरिसए २४६. निन्य साधुओं को मवन्त (डन्ठल सहित) अलाबु (तुम्बी) वा। रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। कप्पट निग्गंयाणं सदेण्टयं पायकेसरिय" धारित्तए वा निग्रंन्ध साधुओं को सवन्त पात्रकेसरिका रखना या उसका परिहरितए वा। -कप्प. उ. ५, सु. ४१, ४३ उपयोग करना कल्पता है । सर्वेटय-पात्त-धारण-णिसेहो सवन्त पात्र धारण निषेध२४ . नो कप्पद निग्गंधौणं सवेण्टम लाखयं धारेतए पा परि- २४७. निपन्थी साध्वियों को सवृत्त (उन्ठल-सहित) मलाबु हरित्तए वा।' (तुम्बी) रखना या उपयोग करना नहीं कल्पता है। नो कम्पह निमयीमं सवेण्टयं पायकेसरिय धारिसए वा निग्रंथी साध्वियों को सवन्त पात्रकेसरिका रखना या उसका परिरित्तए था। -कप्प. उ. ५, सु. ४००४२ उपयोग करना नहीं कल्पता है। घडिमत्त धारण विहाणं घटिमात्रक धारण का विधान२४८. कप्पा निग्गंधीणं अन्तोलितं घरिमतय धारितए वा परि- २८. निम्रन्थियों को अन्दर की ओर लेप किया हुआ घटीमात्रक हरित्तए वा। -कप्प. उ. १, सु.१७ (भूत्र-विसर्जन पात्र) रखना और उसका उपयोग करना कल्पता है। घडिमत्त धारण णिसेहो घटिमात्र धारण का निषेध२४६. नो कप्पड निरगंयाणं अन्तोलितं घग्नित्तय चारित्तए वा २४८, नियन्त्रों को अन्दर की ओर लेग किया इमा घटीमात्रक परिहरितए वा। --कप्प. उ. १, सु. १८ रखना और उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। कप्पणीय पाय संखा कल्पनीय पात्रों की संख्या२५.. कप्पद निम्मंथाणं तिनि पायाई घउत्थं उड धारिसए। २५०. नियन्य को तीन पात्र और चौथा मात्रक रखना कल्पता है। कप्पर निगची पत्तारि पाया पंचमं सूर्ण पारितए। नियन्थियों को चार पात्र लोर पांचवा मात्रक रखना -कप्प. उ. ५, सु. ३० कल्पता है । १ तुम्बी प्रमाण लकड़ी के एक सिरे पर वस्त्र खण्ड को छोधकर पात्र आदि के भीतरी भाग के पौछने वाले उपकरण को "पात्र केसरिका" कहते है। २ तुम्बी के ऊँचे उठे हुए हन्टल को देखने से भी कदाचित् साध्वी के मन में विकार पैदा हो सकता है अतः उन्ठलयुक्त तुम्बी के रखने का निषेध किया गया है। ३ यह सूत्र बहत्वल्पसूत्र की एक प्रति में मिला है। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..] धरणानुयोग २२. विहित स्थानों पर पात्र मुलाने का विधान परिग्गह आयावणविहित ठाणा २५१. से भिक्खू बा. भिक्खुणी या अभिरुंखेज्जा पार्थ आयावेतए वा पयायेत वा तहपगार पायें से तम्पदा एवंतमवक्क मेज्जा एगतमवक्कमिता अहे शाम थंडिल्लंसि वा जाब गोमयरासिंसि वा अष्णतरंसि वा तहम्यगारसि थंडिल्लंस पहिले पहिले मयि मयि ततो जयामेव पायं आया वेज्ज या पथाबेडज वा । पात्र आतापन के विधिनिषेध – ७ " - आ. सु. २, ६, उ. १, सु. ६०० (घ) परियह आताषण सिकाईवृणी या से पाया तयार पा नो अयंतर हिया -जाद मक्कासंताणए आयरवेज्ज या पयावेज्ज वा । सेवाविपार्थ आयात वा पयावेत व तदगारं पायं पूर्णसि वा जाव-कामजलंसि वा अण्णयरंसि वा तहम्पगारंसि अंतलिय जायंसि दुबद्ध-जाव- चलाचले जो आवावेज्ज या पत्रावेन्ज वा । से मिफ्लू वा. भिक्खुणी वा अभिकखेज्जा पार्य आपल निजामति वा, अष्णतरंसि वा तहम्यगारंसि सलिखजायंसि युद्ध - जाव चलाचले णो आया वेज्ज वा पयावेन्ज या । सेभिक्खू या भिक्खुणी वा अभिकखेल्ना पाय लावावेसर या पात्तए था, वहपगारं पायं संसि वा जाव हम्मिय वातरंसि या यासि अंत ब- नाव - चलाचले णो आयवेज्ज वा पयाजेज्ज वर । - आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ६०० () सासु पनि आवावयास पायच्छित सुताई २५३.रहियाए पीए परिणा पावेज वा आधावतं वा ययावंत या साइज मिसमिकाए बीए कियाहं आया पवेज्ज वा आयात पर पयावेत या साइज्जइ जे भिक्खू ससरकखाए पुढीए पडिग्ग्रहं आया वेज्ज वा, पयावेज्ज वा आयावेतं वा स्यातं वा साइज्जद जेवढी पनि जावावा. परवेज वर आयावेतं वा पयायेतं वा साइज्जइ । सूत्र २५१-२५३ को wwwwwwww विहित स्थानों पर पात्र सुखाने का विधान २५१. भिक्षु या भिक्षुणी पात्र जे धूप में सुखाना चाहे तो पात्र को लेकर एकान्त में जाये, वहाँ जाकर देखे कि जो भूमि अग्नि से दग्ध हो - थावत् (सूखे ) गोवर के ढेर बाली हो या अन्य भी ऐसी स्थंडिल भूमि हो उसका भलीभांति प्रतिलेखन एवं मोहरणादि से प्रमार्जन करके उत्पा सुखाए । निषिद्ध स्थानों पर पात्र सुखाने का निषेध - पा२२. या मिणी पात्र को धूप में खाना चाहे तो वह एवं पात्र की पृथ्वी के निकट की अति पृथ्वी पर - यावत्-मकड़ी के जाले हों ऐसे स्थान में न सुखाये । भिक्षु या भिक्षुणी पात्र को धूप में सुखाना चाहे तो वह उस प्रकार के पात्र को ठूंठ पर - यावत् स्नान करने की चौकी पर अन्य भी इस प्रकार के अन्तरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान पर जो कि भलीभांति बंधा हुआ नहीं है यावत् चलाचल है, वहाँ पात्र को न सुखाये । भिक्षु या भिक्षुणी यदि पात्र को धूप में मुखाना चाहे तो इंट की दीवार पर पायादि पर या अन्य भी प्रकार के अन्तरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान पर जो कि भलीभाँति बँधा हुआ नहीं है यावत् चलाचल है, वहाँ पात्र को न सुखाए । भिनु या भिक्षुणी पात्र को धूप में मुखाना चाहे तो उस पात्र को स्तम्भ परयावत् महल की छत पर अन्य भी इस प्रकार के अन्दर जात (बाकाशीय) स्थानों पर जो कि बंड - यावत् चलाचल हो वहाँ पात्र को न सुखाए । निषिद्ध स्थानों पर पात्र सुखाने के प्रायश्चित सूत्र२५३. जो भिक्षु वित्त पृथ्वी के निकट की अचित पृथ्वी पर कोई पाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है । जो पृथ्वी पर पात्र को सुनता है. मनाता है या सुखाने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु सनित्त रज युक्त पृथ्वी पर पात्र को सुखाता है, खानेवाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु सचित मिट्टी बिखरी हुई पृथ्वी पर पात्र को सुनाता है, बाता है या पाने वाले का अनुमोदन करता है। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे २५३-२५४ प्रातिहारिक पात्र ग्रहण करने में माया करने का निषेध चारित्राचार एषणा समिति ने भिक्खू चिसमंताएं पुढबीए पहिं आया वेज्ज ना, गयाबेज्ज बा, आयात वा पयातं वा साइज्लइ भबिताए लिए भाकपावेज्ज वा आयात या पयावेत या साइज्जइ । जे हुए परिवा वेज्ज या भयावेतं वा पयायतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू कोलावासंसि का वालए जीवरइट्टिए, सअंडे-जान माता परिवशवेन वा वेदना आयातं वा पयातं वा साइज्जइ । जे भिक्खु थूर्णसि वा जाव- कामजलंसि वा अण्णयरंति वा राहत्यगारसि अंत लिखजायंसि दुबले - जाय- चलाचले पडिग्गहं आयावेज वा पयाबेज्ज या, आयातं वा पयातं वा साइज । जे भिक्खू संयंसि वर जाव- हम्मियतलंसि वा अध्ययरंसि वा तहष्पगारसि अंतलिषखजायंसि नुब्बये जाव चलाचले पहिं आयवेिज्ज वा पयावेज वा आयावेत वा पयायेतं वा तरइज्जइ । जे भिक्खू कुलियंस वा जाव-लेलुंसि वा अण्णयसि वा जो भिक्षु ईंट की दीवार पर यावत् — शिलाखंड आदि सम्यगारसितल जानेपर भवा जन्य भी ऐसे अंतरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान पर यायावेज श. पयावेज वा आयातं वा पयास वा जो कि भलीभाँति बंधा हुआ नहीं है - यावत् चलाचत है वहाँ पान को सुखा है, सुवाता है या युवाने वाले का अनुमोदन करता है । साहज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारद्वाणं उधाइयं । ---नि. उ. १४. सु. २४-३४ भिक्षु पृथ्वी पर पात्र को सुखाता है, ता है या सुखाने नाते का अनुमोदन करता है। परपोता है. रा अपोदन करता है। है या सुखाने वाले जो भिक्षु सहित शिलाखंड आदि पर पान को सुखाता है, सुखाता है या सुखाने वाले का अनुगोधन करता है। पर जो भिक्षु दीमक आदि जीन युक्त तथा अंयुक्त स्थान यावत् - मकड़ी के जाले युक्त स्थान पर पात्र को सुखाता है, सुजाता है या सुखाने वाले का अनुमोदन करता है। पर यावत् स्नान करने की चौकी पर अथवा अन्य भी ऐसे अंतरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान पर जो कि भलीभाँति बँधा हुआ नहीं है— यावत् चलाचल है वहाँ पात्र को सुखाता है, सुखवाता है या सुखाने वाले का अनुमोदन करता है। पारिहारिय पायगहणे माया जिसेहो २५४. से एगइओ मुत्तगं सुहागं पारिहारिथं पाये जाता एगाहेण वा जान पंचाहेण वा विश्ववस्थि विप्पवसिय उवा गच्छेजा, तहगारं स संधियं पायें नो अपणा व्हेज्जा नो अन्नमनस बेजा, नो पामिच्वं कुज्जा, मो पाएण पायपरिणाम करेजा, जो भिक्षु स्कंध पर - यावत् महल की छत पर अथवा अन्य भी ऐसे अंतरिक्ष जात (आकाशीय) स्थान पर जो कि भलीभांति बँधा हुआ नहीं है - घावत् चलाचल है वहीं, पात्र को सुखता है, सुखवाता है या सुखाने वाले का चनुमोदन वारता है । पात्र प्रत्यर्पण का विधि-निषेध-द toot - उसे उपावितामसिक परिहारस्थान ( जाता है । प्रातिहारिक पात्र ग्रहण करने में गाया करने का निषेध-२५४. कोई एक भिक्षु किसी अन्य भिक्षु से अल्पकाल के लिए प्रातिहारिक पात्र की याचना करके एक दिन यावत् पाँच दिन कहीं अन्यत्र रह रहकर पात्र देने बावे तो पात्रदाता मिथु उस लाये हुए पात्र की क्षतविक्षत जानकर न स्वयं ग्रहण करे, न दूसरे को दे, न किसी को उधार दे न उम पात्र को किसी पात्र के बदले में दे । + - Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२ परणानुयोग पात्र के विवणं आदि करने का निषेध सूत्र २५४-२५६ नो पर स्वसंकभिता एवं वदेज्जा-"आउसतो समगा न किसी दुमरे भिक्षु को इस प्रकार कहें "हे आयुष्मन यमिकखति एवं पायं चारित्तए वा, परिहरिसए वा ?" थिरं श्रमण ! इस पात्र को रखना या उपयोग में लेना चाहते हो?" पाणं संत नो पसिछिविय पलिधिदिय परिवेज्जा (तथा) उस हद पात्र के टुकड़े-टुकड़े करके परिष्ठापन भी नहीं करे-फेंके भी नहीं। तहप्पगारं पापं ससंधियं नस्सव निसिरेजा। नो य गं बीच में से सोधे हुए उस पात्र को उसी ले जाने वाले भिक्ष सातिज्जेज्जा। को दे दे किन्तु पात्रदाता उसे अपने पास न रखे। एवं बह वयण विभाणियध्वं । इसी प्रकार अनेक भिक्षुओं के सम्बन्ध में भी आलापक कहना चाहिए। से एगइओ एपप्पगारं णिग्धोसं सोया णिसम्म--से हतो कोई एक भिक्षु इस प्रकार का संवाद सुनकर समझकर सोचे महमवि मुत्तगं मुहत्तगं पारिहारियं पाये जाइत्ता-एगा- "मैं भी बल्पकाल के लिए किसी से प्रातिहारिक पात्र की याचना हेग वा-जाव-पंचाहेण वा विप्पवसिय विष्पवासिय उवागन्छि- करके एक दिन यावत्-पांच दिन कहीं अन्यत्र रहकर स्सामि, भक्यिाई एवं ममेव सिया। आऊँगा।" इस प्रकार से वह मेरा हो जायेगा। "माइट्ठाणं संफासे नो एवं फरेया।" सवंश भगवान ने कहा) यह मायावी आचरण है, अत: -आ. सु. २, भ. ६, उ. २, सु, ६०५(ग) इस प्रकार नहीं करना चाहिए । पायस्स विषण्णाइकरण णिसेहो पात्र के विवर्ण आदि करने का निषेध२५५. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा पो बण्णमता पायाई विवग्णाई २५५. भिक्षु या भिक्षुणी सुन्दर वर्ण वाले पत्रों को विवर्ण करेज्जा, गो विवग्णाहं पायाई वणमंताई करेजा, (असुन्दर) न करे तथा विवर्ण (असुन्दर) पानों को सुन्दर वर्ण वाले न करे । "अण्णं वा पायं लमिस्सामि" ति पटु नो अपणमण्णस्स "मैं दूसरा नया (सुन्दर) पत्र प्राप्त कर लूंगा" इस अभिदेजा, नो पामिरचं कुखजा, नो पारण पायपरिणामं करेज्जा, प्राय से अपना पुराना पात्र किसी दूसरे साधु को न दे, न किसी नो परं उवसंकमित्त एवं वदेज्जा--''आउसंतो रुमणा! से उधार पात्र ले, न है पात्र की परस्पर अदलाबदली करे और अभिकलति एवं पायं धारितए वा, परिहरित्तए वा?" न दूसरे साधु के पास जाकर ऐस' कहे कि- "हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे पात्र को धारण करना चाइते हो ?" घिर वा संत को पसिछिदिय पलिछविय परिद्ववेजा, इनके अतिरिक्त उस सुदृढ़ पात्र के टुकड़े-टुकड़े करके परठे महा मेयं पायं पावगं परो मम्मद । भी नहीं, इस भावना से कि मेरे इस पात्र को लोग अच्छा नहीं सम्झते। परं च पं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स पायस्स गिदाणाय तथा मार्ग में चोरों को नामने आता देवकर (उस पात्र गो तेसिं मीओ उम्मगोणं गच्छेम्जा-जाब-ततो संजयामेव की रक्षा हेतु) उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से न जाये गामाणुगाम पूराजेन्मा। -पावत्-समाधि भाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक ग्राभानु–आ, सु. २, भ. ६, उ. २, मु. ६०५. (५) ग्राम विचरण करे। पडिग्गहस्स वण्णपरिवण पायच्छित्त सुत्ता पात्रका वर्ण परिवर्तन करने के प्रायश्चित्त सूत्र२५६. मे भिक्खू बण्णमंतं पडिग्गहं विषणं करे, करत वा २५६. जो भिक्षु अच्छे वर्ण वाले पात्र को विवर्ष परखा है, साइम्जा। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिरबू विवगं पशिगह पम्णमत करेह, फरतं वा साइजइ। जो भिशु विवर्ण पात्र को अच्छा करता है, फरवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे भावस्जद चाउम्मासि परिहारटुाणं उग्धाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १४, सु. १०-११ आता है। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५७-२५६ चोरों के भय से उन्मार से जाने का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [७०३ आमोसगभएण उम्मग्ग-गमण णिसेहो घोरों के भय से उन्मार्ग से जाने का निषेध २५७. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा गामाणुगाम दूइजमाणे अंतरा २५७. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के से विहं सिपा, से जंपुर्ण विहं जाणेज्जा-इमंसि खतु मार्ग में अटवीवाला लम्बा माग हो और वह यह जाने किविहंसि यहवे आमोसगा पायपटियाए रूपजिया गया , इस अटवीबहुल मार्ग में बहुल से पोर पात्र छीनने के लिए आते जो तेसि भीओ उम्मग्गे गच्छेज्जा-जाव-ततो संजयामेव गामा- है, तो साधु उनसे भयभीत होकर जन्मार्ग से न जाए-यावत् - पुगामं वइग्वेज्जा। समाधि भार स्थिर होकर यमपूर्वक प्रामानुग्राम विचरण -आ. सु. २, अ. ६, उ, २, सु. ६०५ () करे । आमोसगावहारिय पायस्स जायणा णिसेहो- चोरों से अपहरित पात्र के याचना का विधि-निषेध२५८. से भिक्खू वा, मिक्खूणी वा गामाणुगाम इज्जमाणे अंतरा २५८. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के मार्ग से आमोसगा संपडियाऽगरछेज्ताते गं आमोसगा एवं में चोर पात्र हरण करने के लिए आ जाएं और कहे किबदेज्जा । "आउसंतो समणा ! आहरेतं पायं देहि, णिक्खियाहि" "आयुष्मन् श्रमण ! यह पात्र लाओ हमारे हाथ में दे दो या हमारे सामने रख दो।" तं गो वेज्जा, णिक्खिषेज्जा, इस प्रकार कहने पर साधु उन्हें दे पात्र न दें, बगर वे बलपूर्वक लेने लगें तो भूमि पर रख दें। णो पंपिय जाएगा, णो अंजलि कदर जाएग्जा, णो कलुण- पुनः लेने के लिए उनकी स्तुति (प्रशंसा) करके, हाथ जोड़कर पबियाए जाएज्जा, धम्मियाए जायणाए जाएज्जा, तुतिणीय- या दीन-वचन कहकर याचना न करे अर्थात् उन्हें इस प्रकार से णावेण वा उवहेज्जा। वापस देने को न कहे। यदि मांगना हो तो उन्हें धर्मवचन कह-आ. सु. २, स. ६, उ.२, सु. ६०५ (च) कर समझा कर मांगे, अथवा मौन भाव धरण करके उपेक्षा भाव से रहे। पात्र-परिकर्म का निषेध पाय परिकम्म पिसेहो पात्र के परिकन का निषेध२५६. से मिक्खू वा भिक्खूणी वा "णो गदए मे पाये ति कट्ट" २५६. भिक्षु या भिक्षुणी "मेरा पात्र नया नहीं है" ऐसा सोचकर णो बदेसिएण तेल्लेण वा-जाव-गवणीएण वा, मक्खेज वा, उसके अल्प या बहुत तेल-वावत्-नवनीत न लगावे, न बारमिलिंगेजज था। बार लगावे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा "गो गयए मे पाये ति ऋ?" भिक्षु या भिक्षुणी "मेरा पात्र नया नहीं है" ऐसा सोचकर जो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाब-पउमेण वा आघसेज्ज वा, उसे अल्प या बहुत सुगंधित द्रव्य समुदाय से-यावत्-पह्मचूर्ण प,सेज वा । से न पिसे, न बार-बार घिसे । से भिवासू वा मिक्खूणी वा “णो गवए में पाये ति कट्ट" भिम या भिक्षुणी ''मेरा पात्र नया नहीं है" ऐसा सोचकर णो बहुवेसिएग सीओदगविपण वा, उसिणोजगवियडेग वा, उसे अल्प या बहुत अचित पीत जल से या अचित्त उरुण जल उम्छोलेज वा, पधोएब्ज था। से न धोये, न बार-बार धोये। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा "बुग्भिगंधे मे पाये ति कट्ट" भिक्षु या भिक्षुणी "मेरा पात्र दुर्गन्धवाला है" ऐसा सोचणो यहदेसिएण तेल्नेण वा-जाव-गवणीएण घा, मक्खेज्ज वा, कर उसके अल्प या बहुत तेल-यावत्-नवनीत न लगावे, न मिलिगेज्म वा। बार-बार लगावे। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४] चरणानुयोग पात्र परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र २५३-२६० से भिक्खू वा भिक्खूणी वाणिगी ये पारे लि कर मिया मिली “मेर पात्र दुर्गधनाला है" ऐसा सोचकर गो बाहवेसिएण सिणाणेण या-जाव-परमेण वा, आधसेन्ज वा, उसे अल्प या बहुत सुगन्धित द्रव्य समुदाय से - यावत् - पद्मचूर्ण पसेजन वा। से न घिसे, न बार-बार घिसे । से मिक्सू वा मिक्खूणी वा "दुरिभगंधे में पाये ति कटुटु" भिक्षु पा भिक्षुणी "मेरा पात्र दुर्गन्धवाला है" ऐसा सोचणो बहुदेसिएण सीओदगवियण वा. उसिणोदावियरेण वा, कर उसे अल्प या बहुत अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण उम्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज था। जल से न धोये, न बार-बार धोये । -आ. सु. २, अ. ६, ज. १, सु. ६०० (ख) पाय परिकम्म पायच्छित्त सुत्ताई पात्र परिकर्म करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- २६०. जे भिक्खू "नो नवए मे परिगहे लडे" ति कट्ट बहवेसि- २६५. जो भिक्षु "तुझे नया पात्र नहीं मिला है" ऐसा सोचकर एग सेल्लेण वा-जाव-णवणीएम वा, मक्वेज्ज वा, मिलि- पात्र के अल्प या बहुत तेल-यावत्-मस्खन लगावे, बारगेज बा, मक्खेत वा, मिलिगत वा साइजह। बार लगावे, लगवावे, बार-बार लगवावे लगाने वाले का बार बार लगाने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू "नो नबए मे पडिग्गहे लये" ति कटु बहुवेति- जो भिक्षु 'नया पात्र मुझे नहीं मिला है" ऐमा मोचकर एण लोशेण वा-जाव-वण्ण वा, उल्लोलेन्ज वा, उश्वलेज्ज- पात्र के अल्प या बहुत लोध से—यावत् - वर्ण से लेप करे. बारवा, उल्लोलत वा, उज्वलंतं वा साइज्जद । बार लेप करे, लेप कराव, बार-बार लेप करताचे, लेप करने वाले का बार-बार लेग करने वाले का अनुमोदन गरे। जे निकषु "नो नचए मे पडिग्गहे लहूं" त्ति कट्ट बहुवेलि- जो शिशु म नया पात्र नहीं मिला है' ऐमा सोचकर एण सीओदगविघडेण वा, उसिणोगवियण वा. उच्छो- पात्र को अल्प वा यहुत अत्रित्त गीत जल मे या अचिरा उष्ण सज्ज था, पधोएग्ज वा, उच्छोलतं चा, परोप्त वा से धोये, बार-बार धोये, धुलाये, बार-बार ध्रुलावे, धोने वाले साइज्जह। का बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू "नो नवए से पडिम्यहे लडे" ति कटु बलदेव- जो भिक्षु "मुझे नया पात्र नहीं मिला है" ऐसा सोचकर सिएण तेल्लेण वा जाव-णबीएण वा मक्सज्ज वा, मिलि- पात्र के रात रखा हुआ तेल-यावत्-नवनीत लगावे, बारगेज्ज बा, मक्खेंतं वा, मिलिगत वा साइजद । बार लगावे, लगवाने, बार बार लगवाये, लगाने वाले का यार बार लगाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू-"नो नवए मे पडिग्गहे लखे" ति कटु बहवेव- जो भिक्षु "मुले गया पात्र नहीं मिला है" ऐसा सोचकर सिएण सोवेग वा-जाव-वणे ण वा, उल्लोलेज या, उस्त्र- पात्र के रात रपे हुए लोध-यावत् वर्ण से लेप करे, बार-बार लेज वा, उल्लोलेंतं वा, उम्वलेंतं वा साइज्जइ । लेप करे, लेप करावे, बार बार लेप बरादे, लेप करने वाले का बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू-"नो नवए में पडिग्गहे तो"त्ति कटु बलवेच- जो भिक्षु "नय पात्र नुसे नहीं मिला है। ऐसा सोचकर सिएण सौओबगवियडेण वा, उसिगोविगवयग वा, उच्छो- पाष को रात रखे हुए अचित्त शीत जल में व अनित्त उखाण जल लेज वा, पधोएज्ज घर, उच्छोलेत वा, पधोएंत वा से धोये, बार-बार धोये, धुलाचे बार-बार धुलावे, धोने वाले का साइजद। वार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू "बुन्मिगंधे मे पडिग्गहे लखे" ति कटु बहुवेनि- जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्ध वाला पात्र मिला है" ऐसा सोचकर एण तेल्लेण वा-जान- णवणीएण वा, मक्खंज्ज बा, भिलिगेम पात्र के अल्ल या बहुत तेल-यावत्-नवनीत लगावे, बार-बार वा, मक्खेतं वा, मिलिगेसं या साइजह । लगाने, लगवाये बार-बार लगवावे लगाने वाले का बार-बार लगने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्षू-“बुजिमगंधे मे पडिग्गाहे लडे" ति कटु बहुदेसि- जो भिक्षु 'मुझे दुगन्ध वाला पात्र मिला है" ऐसा सोचकर एण लोदेण पा-जाव-धरणेण वा, उन्छोलेज्ज वा, उपवलेज्ज पात्र के अल्प या बहुत लोध से.-यावत्-वर्ण से लेप करे, वा, उल्लोलेंतं वा, उबलतं या साइण्या। बार-बार लेप करे, लेप कराव, बार-बार लेप करावे, लेप करने बाजे का बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६०.२६३ पात्र का स्वयं परिस्कार करने का प्रायश्चित्त सम चारित्राचार : एषणा समिति [७.५ जे भिक्खू "बुरिमगंधे मे पडिगहे सद्धे "प्ति कटु बहुवेसि- जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्ध वाला पात्र मिला है" ऐसा सोचकर एण सीओवगवियण का, उसिणोदईवयोण वा, उच्छोलेग्ज पात्र को अल्प या बहुत अचित्त शीट जल से या अचित्त उष्ण वा, पधोएज्ज वा, उच्छोलेत या, पधोवतं वा साइज्मह। जल से धोये, बार-बार धोये, धुलावे, बार-बार धुलावे, धोने वाले का बार-बार धोने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्तू-"दुरिमगंधे मे पडिग्गहे सडे" ति कट्ट बहुवेब- जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्ध वाला पात्र मिला है" ऐसा सोचकर सिएण तेल्लेण वा-जाव-णवीएण वा, मक्खेग्ज वा, मिलि- पत्र के रात रखा हुआ तेल-यावत् -नवनीत लगावे, बारपेज्ज वा, मक्खतं बा, भिलिगत वा साइजइ। बार लगावे, लगवावे बार-बार लगवावे, लगाने वाले का बार बार लगाने वाले का अनुमोदन करे। जे मिक्खू "दुरिभगंधे मै पडिम्महे लो" ति कट्ट बहुदेव- जो भिक्षु "मुने दुर्गन्ध बाला पात्र मिला है" ऐसा सोचकर सिएण लोण वा-जाव-चण्णण का, उल्लोलेज्ज वा, उन्य- पात्र के रात रखे हुए सोध-यावत् -- वर्ण से लेप करे, बारलेग्ज वा, जल्लोलेंतं वा, उवलेतं वा साइज्जा । बार लेप करे, लेप करावे, बार-बार लेप करावे, लेप करने वाले का बार-बार लेप करने वाले का अनुमोदन करे । जे भिक्खू "दुहिमगंधे मे पडिगहे लढे" ति कटट बहवेव- जो भिक्षु "मुझे दुर्गन्ध वाला पात्र मिला है" ऐसा संचकर सिएण सीओसगवियोण वा, उसिणोगवियडेण था, उच्छो- पात्रको रात रखे हुए अचित्त शीत जल से या अचित्त उष्ण जल लेज्ज था, पधोएज्ज था, उच्छोलेंतं वा, पधोएतं वा से धोये, बार-बार धोये, धुलावे, बार-बार धुलावे, धोने वाले साइजह। का बार-बार धोने वादे का अनुमोदन करे। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासिवं परिहारट्टाणं उग्धाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ---नि. उ. १४, सु. १२-२६ आता है। सयं पायपरिकम्म करणस्स पायपिछत्तसुत्तं-- पात्र का स्वयं परिष्कार करने का प्रायश्चिस सू २६१. जे भिक्खू लाउय-पाय दा-दा-पाय वा, मट्टिया-पायं वा, २६१ जो भिक्ष "तुम्ब पात्र, काष्ठपात्र, या मृतिका पात्र का सयमेव परिघट्ट वा, संठावेह वा, जमावड़ वा, परिघट्टन्तं स्वयं निर्माण करता है, आकार सुधारता है, विषम को सम वा, संठवेंतं बा, जमावत वा साइज्मा । बारता है, निमार्ण करवाता है, आकार सुधरवाता है, विषम को सम करवाता है या निर्माण करने वाले ना अकार सुधारने वाले का विषम को सम करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारट्ठाणं उघाइयं। उसे मासिक उघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, सु. २५ आता है। पाय परिकम्म कारावणस्स पायच्छित्त सुतं- पात्र के परिष्कार करवाने का प्रायश्चित सूत्र२६२. जे भिक्खु लाउय-पाय था, हात-पाय वा, मट्टिया-पाय दा, २६२ जो भिक्षु तुम्ब पात्र, काष्ठ पात्र या मुक्तिका पात्र का अण्णउत्थिएण था, गारस्थिएण वा, परिघट्टावेहवा, संठायेा परिघट्टण, संठयग, जमावण का कार्य अन्यती थिक या गृहस्थ से वा, जमावेइ बाअलमप्पणी करणयाए मुहममवि नो कप्पइ, से कराता है. तथा स्वयं करने में समर्थ होते हुए "गृहस्थ से जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरह, वियरंत वा किंचित् भी कराना नहीं कल्पता है" यह जानते हुए या स्मृति साइरगह। में होते हुए भी अन्य भिक्षु को गृहस्थ से कराने की आजा देता है, दिवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाग अणुग्धाइय। उसे मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता -नि. ३. १. मु. २६ है। पाय कोरण पायच्छित्त सुत्तं पात्र को कोरने का प्रायश्चित्त सूत्र२६३. जे भिक्खू पडिगह कोरेह, कोरावेह, कोरियं आहट्ट वेज्ज- २६३. जो भिक्षु पात्र को कोरता है, कोरवाता है, कोरकर देते माणं पहिगाहेछ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजइ पाउम्मातिय परिहारदाण उग्घाइयं। उसे उपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि, उ.. १४. सु. ४१ आता है। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६] परणानुयोग पात्र सन्धान-बन्धन के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र २६४-६५५ पाय संघाण-बंधण पायच्छिस सुत्ताई पात्र सन्धान-बन्धन के प्रायश्चित्त सूत्र-- २६४. जे मिक्स पायस्स एपकं तुड़ियं तइ ततं वा साइजह । २६४. जो भिक्षु पात्र के एक 'गली देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। विषयू पा लियापक सतं या जो भिक्षु पात्र के तीन थेपली से आधक देता है, दिलगता साइज्जा। है, देने वाले का अनुमोदन करता है। (जे भिक्खू पार्य अविहीए नई तात वा साइजद।) (जो भिक्षु पात्र के अविधि से थेगसी देता है, दिलवाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है।) में भिमसू पायं अविहीए बंधइ. बंधतं वा साइजह । __जो भिक्षु पात्र को अविधि से बांधता है, बँधवाता है या बाँधने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधन, बघत वा साइजा। जो भिक्षु पात्र को एक बन्धन से बांधता है, बंधवाता है, या बांधने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिक्खू पायं पर तिण्हं बंधागं बंधइ, बंधतं या साइजद। जो भिक्षु पात्र के तीन से अधिक बन्धन बाँधता है, बंधाता है या बांधने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बइरेगधणं पायं दिवढाओ मासाओ परेण घरेड, जो भिक्षु डेढ़ मास के बाद अतिरिक्त (अधिक) बन्धन वाले घरेसं या साइज्मा। पात्र को रखता है, रखवाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवस्जद मासिय परिहारद्वाणं अणुग्धाइय। उसे अनुद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता - --नि.उ.१.. ४१-४६ है। पावेषणा सम्बन्धी अन्य प्रायश्चित्त-१० पडिग्गहाओ तसपाणाईणं णिहरणस्स पायच्छित्त सुताई- पात्र से त्रसप्राणी आदि निकालने के प्रायश्चित्त सूत्र२६५. जे मिक्खू पडिग्गहातो पुरविकार्य नीहा नोहराबेइ, नीह- २६५ जो भिक्ष पात्र से (सचित्त) पृथ्वीफाय को निकालता है, रियं पाहट्ट वेजमाणं पडिग्गाहे पडिग्यात वा निकलवाता है, निकालकर देते हुए को लेता है. लिचाता है, सेने साइज्जइ। वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू पडिग्गहातो आपकायं नोहरह, नौहराबेर, जो निक्ष पात्र से (सचिस) अम्काय को निकालता है, नोहरियं माहटु बेजमाणं पशिग्गाहेइ, पजिग्गाहेंतं वा निकल जाता है, निकाल कर देते हुए को लेना है, लिवाता है, साइजन । लेने वाले का अनुमोदन करता है। से मिक्खू पडिगहातो तेउबकायं नीहरइ, मोहर वेइ, नीहरियं जो भिक्ष, (मिट्टी के) पात्र से (सचित्त) अग्निकाय को आहट्ट देज्जमाणं पविगाहेइ, पविगाहेंतं वा साइजह। निकालता है, निकलवाता है. निकाल कर देते हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षु परिगहाओ संवाणि वा मूलाणि वा, पत्ताणि वा. जो भिक्ष पात्र से (सचित्त) कन्द, मूल, पत्र, पृष्प, फल, पुष्पाणि दा, पलाणि वा, नीहराइ, नोहरावह, नीहरियं निकालता है, निकलवाता है, निकालकर देते हुए को लेता है। माह वेज्जमाणं पडिग्गाहेइ-पडिम्गाहेंतं वा साइजह। लिवाता है, लेने वाले का अनुनोदन करता है। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूच २६५-२६५ पात्र के लिए निवास करने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [७.. जे भिक्खू पडिग्गहातो ओसहि-बीयाई नाहर, नीहरावेद, जो भिज, पात्र से औषधि अर्थात् गेहूँ आदि धान्य और नीहरियं आहट्ट देज्जमागं पडिग्गाहेर, पडिगाहेंतं वा जीरा बीज आदि को निकालता है, निकलवाता है, निकालकर साइज्जह। देते हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिषय पडिग्गहातो तसपाणजाई नोहरह, नीहरावेद, जो भिक्ष पात्र से त्रस प्राणियों को निकालता है किन नोहरियं आहट्ट बेज्जमाएं पडिग्गाहेड, पडिग्गाहेंत या बाता है, निकालकर देते हुए को लेता है, लिवाता है, लेने वाले साइजइ। का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारटागं घाइये। उसे उबातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १४, सु. ३५-४० आता है। पडिग्गहणीसाए वसमाणस्स पायच्छित सुत्ताई पात्र के लिए निवास करमे के प्रायश्चित्त सूत्र२६६. जे मिक्सू पांडग्गणीसाए उबड बसइ, बसंत वा २६६. जो भिक्ष, पात्र के लिए ऋतुबद्ध काल (सर्दी या गर्मी) में साइजह। रहता है, रहवाता है, रहने वाले का अनुनोदन करता है। जे मिक्खू पडिग्गहणीसाए वासावासं बसह, वसंतं वा जो भिक्ष पात्र के लिए वर्षावास में रहता है, रहवाता है, साइजह। रहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्भासियं परिहारदाण उग्धाइयं । उने उद्घातिक चातुर्मालिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) बाता -नि.उ.१४, सु. ४४-४५ है। ओभासिय-जायणाए पायच्छित्त सुत्ताई मांग-मांगकर याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र२६७. जे मिक्खू गायगं वा, अणायगं था, उवासन या, अगुवासगं २६७. जो भिक्षु स्वजन से, परिजन से, उपासक से, अनुपासक वा गामंतरंसि वा, गामपहंतरंसि या पमिगह ओमासिय से ग्राम में या ग्रामपथ में पात्र मांग-मांगकर याचना करता है, ओमातिय जायह, जायंतं वा साइज्जह । करवाता है, याचना करने वाले का अनुमोदन करता है । जे भिकल्लू णायग वा, अणायगं वा, उवासन था, अणुवासगं जो भिक्ष स्वजन को, परिजन को, उपासक को, अनुपासक बा परिसामनाओ उहवेता पडिगहं सोमासिम ओभासिय को परिषद में से उअकर (उससे) मांग-मांगकर पात्र की याचना जापा, जायंतं वा साइज्जद । करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह घाउम्मासिय परिहारहाणं उग्घाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १४, सु. ४२-४३ आता है। णियगादि-गवेसिय पडिगह धरणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- निजगादि गवेषित पात्र रखने के प्रायश्चित्त सूत्र - २६८. मे मिक्स नियगावेसियं पडिगह परो धरत वा साइजह। २६८. जो भिक्ष निजक-गवेषित (अपने सगे सम्बन्धी के द्वारा दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। से भिम पर-गदेसियं पडिग्गहं घरेइ धरत का साइज्वइ । जो भिक्ष पर-गवेषित (सामान्य गृहस्थ द्वारा दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनु. मोवन करता है। भिप पर-गवेसियं परिगह घरेह घरत वा सान्जा । जो भिक्ष. वर-गवेषित (प्राभ-प्रधान पुरुष द्वारा दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का मत मोदत करता है। मे भिक्त पल-गवेसिपं पबिगहुं धरेइ घरत या सागर । जो भिक्ष बल-गवेषित (बलवान्-माक्ति सम्पन्न पुरुष द्वारा दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ ] चरणानुयोग ww जे भिक्खू लव- गवेसियं पहिं घरे घरतं वा साइज । सेवामा परिहारद्वा - नि. उ. २, सु. २७-३१ है । मा. सु. १, अ. २, उ. ५. सु. , काष्ठवण्ड वाले पादप्रछन का विधि-निषेध आ. सु. १, अ. नि. उ. ५, सु. ६५ नि. उ. १६. सु. १६-२० पायपुंडण एषणा : [पाय एषणा का स्वतन्त्र प्रकरण आचारांग सूत्र में नहीं है। आगमों में जहाँ जहाँ पायछण एषणा के स्वतन्त्र पाठ मिले हैं वे इस प्रकरण में संकलित किये गये हैं। जहाँ-जहाँ "दस्थ जाव-पाथपुंछ" ऐसा पाठ है वे सब स्थल निर्देश नीचे अंकित किये गये हैं, उन्हें उन स्थानों से समझ लेवें । उ. २. सु. २०५ १ पायेति तं पापं जो कि लब-वेषित (पात्र दान का फल बताकर दिलाये गये) पात्र को धारण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे उपातिकासिक परिन (प्रायश्वित) आता दाड पायपुंछन विहि-जिसेहो २६९. तो कप निग्गंधीगं वारूदण्डयं पायपुछणं धारेलए वा पहिरिएका आ. सु. १, म. ८. उ. १, सु. १६९ कप्प. उ. १, सु. ४०-४१ नि. न. १५. सू. ८७-६८ नि. उ. १६, सु. २६ ] सूत्र २६८-२६९ आ. सु. १ . उ. २, सु. २०४ कप्प उ. १, सु. ४२-४३ नि. ए. १५ तु. १५३ - १५४ गांव पोंछने का अंद पायछण रजोहरण से भिन्न उपकरण है - यह आगमों के निम्नांकित कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट है। दश भ. ४ में पायछण और रजोहरण को भिन्न-भिन्न उपकरण कहा गया है। प्रश्न. भु. २, अ. ५ में भी दोनों उपकरण भिन्न-भिन्न कहे हैं। देवरिया में उपकरणों के अन्तर्गत काष्ठदण्ड वाले पात्रोंछत का विधि-निषेध- २६. निधी (साध्वियों ) को दारूदण्ड (काष्ठ डण्डी वाला) पादोच्छन रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है । -नि. उ. ५, सु. १५-१८ और रजोहरण को थिये। न हो तो दूसरे करके आ. सु. २. १० में ऐसा विधान है कि "स्वयं के समीप पाय अत्यावश्यक कार्य से नित्रत होये ।" इस विधान से पायपुंछष का रजोहरण से भिन्न होना स्वयं सिद्ध है। क्योंकि रोहण आवश्यक औषिक उपकरण है अतः वह सबके पास होता ही है । के लिए डयुक्त पायण" रखना निषिद्ध है और साधु के लिए विहित है। इससे भी बप. ५ में इनकी मित्रता सिद्ध होती है। निशीथ उ. २ में काष्ठ दण्डयुक्त "पायपुंजण " रखने पर प्रायश्चित्त विधान हैं । निशीथ उ. ५ में काष्ठ दण्डयुक्त "पायपुंण" एक निर्धारित अवधि के लिए प्रातिहारिक पीछा लौटाने की शर्त पर लाने का विधान है और निर्धारित अवधि में न लौटाने पर प्रायश्चित्त का विधान है। रजोहरण कभी पीछा लौटाने की शर्त पर नहीं लाया जाता, न ही उसके लिए निर्धारित अवधि होती है, किन्तु रजो हरण तो काष्ठ दण्डयुक्त ही बनाया और सदा रखा जाता है और उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है। इस प्रकार "पाप" की रजोहरण से मित्रता सिद्ध है। ऐसे अन्य को अनेक आगम विधान हैं जिनसे दोनों की भिता सिद्ध होती है। चूणियों ओर टीकाओं के रचना काल में कहीं-कहीं दोनों की एकता मान लेने पर भ्रान्ति हुई है अतः इन उद्धरणों से प्रान्ति का निराकरण कर लेना चाहिए । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र.२६६-२७१ काष्ठदार वाले पावमोचन के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : एषणा समिति [७०६ - - - -- - - - ---- . . . कप्पद निग्गंधाणं दारूदासयपायछणं धारेत्तए वा परिहरि- किन्तु निर्ग्रन्थ (साधुओं) को दारूदण्ड वाना पादोंछन तए वा। -कप्प. उ. इ., स. ४४-४५ रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। दारूबण्डग पायपुंछणस्स पार्याच्छत्त सुत्ताई काष्ठ दण्ड वाले पादपोंछन के प्रायश्चित्त सूत्र२७०. (१) जे भिक्खू वारूबाइयं पाहणं करेइ, करेंत या २७०. १. जो भिक्ष, काष्ठ दण्डवाला पादप्रोमछन करता है, साइजह । करवाता है करने वाले का अनुमोदन करता है। (२) जे भिक्खू दारू पायपुछ सिह, pिar २. लक्ष काष्ठदण्ढ़ वाला' पादपोञ्छन ग्रहण करता है। साइजइ। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। (३) जे भिक्खू दारुदण्उयं पायपुंछणं धरैइ, घरेतं वा ३. जो भिक्ष काष्टदण्ड वाला पादप्रोग्छन धारण करता है, साइक्जा। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। (४) जे भिक्खू दारूदण्डयं पायपुंछग वियर वियरेतं वा ४. जो भिक्ष काष्ठदण्ड बाला पादप्रोञ्छन दूसरों को ग्रहण साइम्जा। करने को अनुज्ञा देता है, दिलवाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। (५) से मिरवू शकवण्यं पायपुंछग परिमाएह, परिभायंतं ५. जो भिक्षु काठ दंडवाले पादप्रोग्छन को देता है, दिनबा साइजह । बाता है. देने वाले का अनुमोदन करता है। (६) जे भिक्खू दारूण्डयं पावपुंछणं परिमुंजइ, परिभुजतं ६. जो भिक्षु काष्ठदंड वाले पादप्रोग्छन का परिभोग करता या साइज्ज है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। (७) जे भिक्खू वाहवण्डयं पायपुंरुणं पर विवड्डालो मासाओ ७. जो भिक्षु काष्ठ दंड वाले पादप्रोञ्छन को डेढ़ मास से धरेह, धरतं वा साइज्जइ। अधिक धारण करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। (८) जे भिक्खू दारूवण्यं पायधूछम विनुपावेड, विसुयावेत ८, जो भिक्षु काष्ठ दंड वाले पादपोञ्छन को धूप में सुखाता वा साइजा। है, सुखदाता है, सुखाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह मासियं परिहारहाणं उग्याइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. २, सु. १-८ अता है। पायपुंछणं न पच्चप्पिणंतस्स पायच्छित सुत्ताई-- पदोंछन के न लौटाने का प्रायश्चित्त सूत्र२७१. जे भिक्खू पडिहारिये पामपुंछणं जाहत्ता-तामेव रयणी २७१. जो भिक्षु प्रातिहारिक पादप्रोञ्छन की याचन करके इसे पञ्चप्पिणिस्सामि ति" सुए पच्चप्पिणा पञ्चप्पिणतं वा "आज ही लोटा दूंगा" ऐसा कहकर कल लौटाता है, लौटवाता साइम्जा। है लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पाहिहारियं पायपुंछणं जाता "सुए पच्चप्पि- जो भिक्षु प्रतिहारिक (लोटाने योग्य) पादप्रोग्छन की णिस्सामि ति" तामेव रयणि पच्चम्पिण पम्वपिणतं वा याचना करके कल लौटा दूंगा ऐसा कहकर उसी दिन लौटाता साइम्जद। है. लोटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। मे मिक्खू सागारियसंतियं पापपुर्ण जाइत्ता 'तामेव रणि जो भिक्षु शय्यातर के पादत्रोञ्छन की याचना करके आज ही पञ्चप्पिणिसामि ति" सुए पच्चप्पिणतं वा सादरमहा लोटा दूंगा ऐसा कहकर कल लौटाता है, लौटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता "सुए पच्चप्पि- जो भिक्षु शय्यातर के पादप्रोञ्छन की याचना करके "कल णिस्सामि ति" तामेव रणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा लोटा दूंगा" ऐसा कहकर उसी दिन लोटाता है, लौटवाता है, साइजह । लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषमा मासियं परिहारहाणं उघाइय। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.५, सु. १५-१५ आता है। -- ---- - - -- Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१०] परगानुयोग एषणीय रजोहरन सब १७२-२७३ रजोहरण एषणा [रजोहरण एषणा का स्वतन्त्र प्रकरण आचारोग में नहीं है। आगम में जहाँ-जहाँ रजोहरण सम्बन्धी स्वतन्त्र सूत्र मिले हैं वे इस प्रकरण में संकलित किये गये हैं । अन्यत्र जहां-जहाँ रजोहरण का कथन है उन सबके स्थल निर्देश गेचे अंकित किये गये हैंकप्प. उ. ३, मु. १४-१५ दस. म. ४, सु. ५४ पह.सं.१,सु. ११ प्रश्न. सं. ५, सु.5 नि. उ. ४, सु. २४ आव. अ.४] एसणिज्ज रयहरणाई एषणीय रजोहरण२७२. कप्पह निम्नमाण वा निमाथीण वा-इमा पंच रयहरणाई २७२. निग्रंथों और निर्ग्रन्थियों को इन पाँच प्रकार के रजोहरणो धारितए वा, परिहरितए वा, तं जहा को रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। यथा(१) ओरिणए, १. औणिक-भेड़ों की ऊन से निष्पन्न) रजोहरण । (२) उट्टिए, २. बौष्टि-ऊँट के केशों से निष्पन्न) रजोहरण । (३) सागए, ३. सानक - (सन के बल्कल से निष्पान) रजोवरण | (४) वन्वाचिप्पए, ४. वरचाचिपक-(बच्चक नानक घास से निष्पन्न) रजोहण । (५) मुंजचिप्पए नार्म पंचमे। -कप्प. उ. २, सु. ३० ५. मुंजचिप्पक--(मुंज से निष्पन्न) रजोहरण । रयहरणस्स पायच्छित्त सुताई रजाहरण सम्बन्धी प्रायश्चित्त सत्र२७३. (१) भिमखू अतिरेग-पमाणं रयहरगं धरेड. घरतं वा २७३. १. जो भिक्षु प्रमाण से अधिक रजोहरण रखता है, रखसाइजह। वाता है, रखने वाग्ने' का अनुमोदन करता है। (२) जे भिमस्तू सुटुमाई रमहरण-सोसाइं करेइ, करेंतं वा २. भिक्षु रजोहरण की फलिया सूक्ष्म करता है, करवाता है, साइबह। करने वाले का अनुमोदन करता है। (३) मे भिक्खू रयहरणं कंजूमगबंधेणं बंधड, बंधतं वा ३. जो भिक्षु रजोहरण को वस्त्र लपेट कर बांधता है, बंधसाइग्नह। वाता है, बाँधने वाले का अनुमोदन करता है। (४) जे भिक्खू रयहरणस्स अविहीए बंधा, बंयंत वा ४. जो भिक्षु रजोहरण को अविधि से बांधता है, धवाता साइब्जा। है, बांधने वाले का अनुमोदन करता है। (५) जे मिक्सू रयहरणस्स एक्कं बंध देइ, ३ वर५. जो भिक्ष रजोहरण को एक बंध देता है, दिलाता है, देने लाइसजा। __ वाले का अनुमोदन करता है। (६) मिक्यू श्यहरणस्स परं सिहं बंधाणं देह, वैतं वा ६.जो भिक्षु रजोहरण के तीन से अधिक बंध देता है, दिलाता है, देने वाले का अनुमोदन करता है। (७) भिक्खू त्यहरणं अणिसट्टघरेघरसं या सारजह। ७.जो भिनु आगम विरुद्ध रजोहरण को रखता है, रखवाप्ता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। १ हरई रओ जीवाण, बझं अभिन्तरं च ज तेणं । रथहरणति पवुच्चइ, कारणमिद कज्जीवयाराको । संयम जोगा इत्थं, रओहरा तेसि कारणं ने पं । रयहरणं त्वयारा, भण्णइ सेणं रओकम्मं ॥ -पिण्डनियुक्ति टीका बाह्य रज और आभ्यन्तर कर्मरज का जो हरण करता हो वह कारण में कार्य का उपचार करके उसे रजोहरण कहा है। योगों के संयम से जो कर्मरज का हरण करने में कारणभूत है बह रजोहरण उपचार से माभ्यन्तर रज का हरण करने बाना है। २ जाग..,...सु.४४६। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोच्छकावि के वितरण का विवेक बारित्राचार : एवणा समिति [११ (4) जे भिक्खू रयहरणं पोसटु धरेद, धरतं वा साइग्मइ। . जो भिक्षु रजोहरण को अपने शरीर के प्रमाण से अधिक दूर रखता है, रस्नदाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। (8) जे मिक्यू रयहरणं अहि, अहितं वा साइम्गह। . जो भिक्षु रजोहरण पर बैठता है, बिठनाता है, बैठने वाले का अनुमोदन करता है। (१०) जे मिक्लू रयहरणं उस्सीसमूले सुवेइ, उस वा १०. जो भिक्षु रजोहरण को शिर के नीचे रखता है, रखसाइजह। वाता है, रखने वाले का अनुमोदन करता है। (११) जे मिक्बू रपहरणं सुपट्ट, तुपट्टतं वा साइजद। ११. जो भिक्षु रजोहरण पर सोता है, सुलाता है, सोने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे बावज्जा मासिय परिहारद्वाणं उग्धाइय। उसे उपातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५, सु. ६७-७७ गोच्छगाईणं वियरण विवेगो गोच्छकादि के वितरण का विवेक२७४. निग्गंयं गाहावा कुलं पिंडवाय पडियाए अगुपविट्ठ २७४. निम्रन्थ गृहपति-कुल में गोचरी के लिये प्रवेश करने पर केह, दोहिं गोम्छग रयाहरण चोलपष्टग-कंबल-सट्ठी संथारगेहि कोई गृहस्य उसे दो गुच्छक (प्रजनी] रजोहरण, चोलपट्टक, कंबल, जानिमंतेजा लाठी और संस्तारक (बछौना) ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे"एग आउसो ! अप्पमा परिभुजाहिं एवं बेरार्ण वलयाहि" "आयुष्मन् श्रमण ! (इन दोनों में से एक का आप स्वयं से य तं पडिग्गाज्मा तहेव-जाव-तं नो अपणा परिसुन्जेम्जा, उपयोग करें और दूसरा स्थविरों को दे देना।" इस पर वह नो अन्नेसि दावए सेस तं चेव-जाव-परिद्वावेयवे सिया। निग्रन्थ उन दोनों को ग्रहण कर ले। शेष सारा वर्षन पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत्- उसका न तो स्वयं उपयोग करे और न दूसरे साधुनों को दे, शेष सारा वर्णन पूर्ववत समझना-यावत्-उसे परठ देना चाहिए। एवं तिहि-जाव-दसहि गोच्छग----रयहरण-चोलपट्टग लट्ठी इसी प्रकार तीन-चावत्-पस गुच्छक रजोहरण बोलपट्टक, कंबल-संथारहि। --वि. सु. ८, उ, ६, सु.५ कम्मल, लाठी और संस्तारक तक का कपन पूर्व के समान कहना चाहिए। HAR , एवं जहा पडिग्गवत्तव्वया भगिया एवं गोच्छग-रयहरण-चोलपट्टग-कंबल-लट्ठी-सयारगेहि बत्तन्वया य भाणियवा-आव-दतहिं मथारएहि उवनिमंतेज्जा-जाव-रिट्ठावेयच्चे सिया। इस सूचना सूत्र के अनुसार यह पाठ व्यवस्थित किया है । यह सूचना सूत्र देखें पात्र प्रकरण में । -वि. सु.८, 3. ६, सृ.६ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) आदान-निक्षेप समिति का स्वरूप-१ आयाण भंड-मत्तणिक्खेवणसमिइ सरूवं आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति का स्वरूप२७५. जे पि य समणस्स सुविहियस्स सजिग्गहधारिस्म भवति २७५ पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो भी काष्ट के पात्र, भायण-मंडोवहि-उवगरणं । मिट्टी के पात्र, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसे(१) पडिगहो, (२) पादबंधण. २. पाप-बन्धन, (३) पादकेसरिया (४) पादठवणं च, ३. पात्र केसरिका, ४, पात्रस्थापनिका. (५-७) पबलाई तिनंव, (८) रयताणं च, ५-७. तीन पटल, ८. रजस्त्राण, (E) गोच्छओ, (१०-१२) सिन्नच म पच्छावं, ६. गोच्छक, १०-१२, तीन प्रच्छादक (१३) रयोहरणं, (१४) घोल पट्टक, १३. रजोहरण. १४. घोलपट्टक, (१५) मुहर्णतकमादियं एवं पि नंजमस्स उबवू हणट्ठमाए १५. मुखबस्त्रिका आदि ये सब संयम की वृद्धि के लिए होते वायायव-समसग-सीय परिरक्षणढाए। हैं तथा प्रतिकून वायु, धूप, डांस-मछर और शीत से रक्षण के लिए हैं। उवगरणं एग-दोस-रहियं परिहरियय्वं संजएण। इन सब उपकरणों को राग और डेप से रहित होकर साधु को धारण करने वाहिए। निच्वं पडिलेहण-पप्फोडण-पमन्जणाए, अहो य राओ य सदा इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना अप्पमतेम होइ सततं निक्लिवियस्यं च गिहियध्वं च चाहिए । दिन में और रात्रि में निरन्तर अप्रमत रहकर भाजन, मायण-मंडोबहि-उक्मरण। -पह. सु. २. अ. ५, सु. भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए। उवगरण धारण कारण उपकरण धारण के कारण२७६. पिबत्यं व पायं व, कंबलं पायपंछणं । २७६. साधु जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादत्रोंशन (आदि तपि संजम सज्जट्ठा, धारति परिहरति य । उपकरण) रखते हैं उन्हें मंयम की रक्षा के लिये और लज्जा - दस. म. ६, गा. १६ (निवारण) के लिए ही रखते हैं और उनका उपयोग करते हैं। सव्व भंडग संजुत्त गमण विही सर्व भण्डोपकरण सहित गमन विधी२७७. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए २७४. भिक्षु या भक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाना पविसितुकामे सव्वं मंडगमायाए गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडित चाहे तो सर्व भण्डोपकरण लेकर ही जाये और आवे। याए णिक्खमेज्ज वा पविसेज वा। से मिक्खू वा भिक्खूणी वा बहिया विहार भूमि वा विद्यार- भिक्षु या भिक्षुणो उपाश्रय से बाहर की स्वाध्याय भूमि में भूमि वा णिवलममाणे वा, पविसमाणे या सर्व मंकामाचाए या मलोत्सर्ग भूमि में जाता हुमा भी सवं भण्डोपकरण लेकर ही बहिया विहार-भूमि वा बियार-भूमि वा जिमखमेज वा, जावे और आवे। पविसेज्ज वा। १ अन्य स्थविर के निमित्त लाये गये गोच्चक, रजोहरण, कंबलादि के सन्दर्भ हेतु देखिए रजोहरणषणा । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७७-२७८ माहरण मात्र महाविद्या सान्निर : रादान-निक्षेप समिति [७१३ से भिक्स्यू वा मिक्खूणी वा गामा पुगाम दूबजमाणे सर्व भिक्षु मा भिक्षुणी ग्रामानुग्राम विहार करते समय भी सर्व मंङगमायाए गामाणुगाम दूइज्जेजा। भण्डोपकरण लेकर ही जाये और आवे। से भिक्छ वा भिक्खूणी वा अह पूण एवं जाणे ज्जा भिक्षु या भिक्षुणो यदि यह जाने कितिव्वदेसियं वा पास वासमाणं पेहाए, अल्प या अधिक वर्षा बरस रही है, तिव्ववेसिव या महियं सग्णिवयमाणि पेहाए, अल्प या अधिक धुंअर गिर रही है, महावाएण वा रयं समुदयं पेहाए, महाबायु से रज गिर रही है, तिरिच्छ-संपाइमा वा तसा-पाणा संथा सस्त्रिययमाणा पेहाए, तिरछे उड़ने वाले वस त्राणी अत्यधिक गिर रहे हैं तो सर्व से एवं गच्चा णो सम्व भंडगमायाए गाहावाह-कुलं पिडवाय- भण्डोपकरण लेकर भी गृहस्थ के घर में आहार के लिए न जाये पडियाए णिक्त मेज्ज वा पविसेज्ज वा। और न आवे । बहिया बिहार-भूमि वा वियार-भूमि वा णिक्लमेज वा इसी प्रकार उपाश्रय से बाहर को स्वाध्याय भूमि में या पविसेज वा, मलोत्सर्ग भूमि में भी न जावे और न आवे । गामाषुगाम वा दूइज्जेज्जा। इसी प्रकार ग्रामानुग्राम बिहार भी न करे । - आचा. सु. २, अ. १, उ. ३, सु. ३४४ उवगरण अवग्गह-गण विहाणं उपकरण अवग्रह-ग्रहण विधान२७८. हि वि सखि संपवइए तेसिपि या', २७८. जिन साधुओं के साथ या जिनके पास बह प्रमजित हा है, विचरण कर रह है या रह रहा है, उनके भी(१) छत्तयं वा', (२) मत्तय वा, १. छत्रक, २. मात्रक (तीन प्रकार के भाजन) (३) बंडगं वा, (४लट्टि था, ३. दण्ड (बाहुप्रमाण) ४. लाझी (शरीर प्रमाण) (५) मिसियं वा ५. भृषिका-काष्ट का भासन, (६) णालियं वा, ६. नालिका (शरीर प्रमाण से चार अंगुल अधिक लाठी) (७) वेलं वा, ७. वस्त्र, (८) चिलिमिलि वा, ८. चिलिमिलिका (यवनिका, पर्दा या मच्छरदानी) (8) चम्मयं घा, ६. चर्म, (१०) चम्म-कोसयं वा. १०. चर्मकोश, (अंगुली आदि में पहनने का साधन)। (११) चम्मच्छणय वा, ११ चर्म-छेदनक (चर्म काटने का रास्त्र, तेसि पुवामेव उपगहं अणणुण्णवेत्ता अपडिलेहिय अपमस्जिय आदि उपकरणों को पहले उनसे अवग्रह अनुज्ञा लिए बिना तथा गो गिम्हेज्ज वा पगिण्हेज्ज वा, प्रतिलेख्न प्रमार्जन किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे। (क) इसी प्रकार वस्षणा तथा पारेषणा में भी ऐसे सूत्र हैं--अन्तर केवल इतना ही है कि वस्त्रषणा में (आ. सु. २, अ. ५, उ. २, सु. ५८२) “सब्वभंडगमायाए" के स्थान में "सन्चचीवरमायाए" है और रात्रषणा में (आ. सु. २, म. ६, उ. २, सु. ६०५) "सब्दपडिग्गहमायाए" है। शेष सब समान है। (स) न चरेज वासे वासंते, महियाए व पडतोए । महावार व वायंते, तिरिच्छ संपाहमेमु वा॥ -देस. अ... उ. १, गा. ८ इस गाथा' में भी सूत्रोक्त चारों प्रसंगों में गोचर जाने का निषेध है। सूत्रोक्त चारों प्रसंगों में पद्यपि बाहर की स्वाध्याय भूमि में तथा उच्चार प्रसत्रग भूमि में जाने का निषेध है, किन्तु उपाश्रय में स्वाध्याय करने का और उपाश्रय के समीप की उच्चार प्रस्रवण भूमि में उच्चारादि के परिष्ठापन का निषेध नहीं है तथा महिया व रजघात में स्वाध्याय करना सर्वथा वजित है। २ प्रस्तुत सुत्रपाठ में छाता (छत्रक) चमच्छेदना आदि उपकरण का उल्लेख है। जबकि दशवकालिक सूत्र में "छत्तस्स धारणाएं" कहकर इसे अनाचीणं में बताया गया है । इस विषय में आचाराग वृतिकार एवं चूर्णिकार समाधान इस प्रकार करते हैं कि किसी देश विशेष में वर्षा के समय कारणवश साप्प छत्र रख सकता है। कोंकण आदि देश में अत्यन्त वृष्टि होने के कारण ऐसा सम्भन हो सकता है। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४] चरणानुपोग एकाकी स्थविर के भण्णोपकरण और उनके आदान-निक्षेपण को विधि मूत्र २७८-२८२ तेसि पुण्यामेव उपगहं अणुण्णविय, पडिलेहिय, पमजिजय अपितु उनसे पहले ही ग्रहण करने की आज्ञा लेकर, उनका तओ संजयामेव ओगिरहेज वा पपिण्हेज्ज वा। प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक एक या अनेक बार -आ. सु. २, अ.७, ३.१, सु. ६०७ (ग) ग्रहण करे। एमागी विरस्स भंडोवरणाणं आयाण-णिक्खेवण विही- एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और उनके आदान निश्शेषण की विधि२७६. थेराणं घेरभूमिपत्ताणं कापड दण्डए वा, भण्डए वा, छत्तए २७६. स्थविरत्व प्राप्त (एकाकी) स्थविर को दण्ड, भाण्ड, छत्र, बा, मत्सए वा, लट्रिया वा, मिसे वा, चेसे वा, चलचिलि- मात्रक, लाठी, काष्ट का आसन, स्त्र, वस्त्र की चिलमिलिका, मिलि वा, चम्मे वा, चम्मकोसे वा, चम्मपलिच्छेयणए वा, चर्म, चर्मकोष और चर्मपरिच्छेदनक, मविरहित स्थान में रखकर अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुल पिण्डवाय-परियाए अर्थात् किसी को संभलाकर गृहस्थ के घर मे आहार के लिए पविसित्तए वा निक्खमित्तए था। जाना-आना कल्पता है। कप्पड़ गं सनियट्टचारीणं शेयपि उग्गहं अणुश्वेत्ता परि- भिक्षाचर्या से निवृत्त होने पर जिसको देख-रेख में दण्डादि हरित्तए। -वव.उ. 5, सु. ५ रखे गये हैं उससे दूसरी बार आज्ञा लेकर ग्रहण करना मल्पता है । वंडाईण परिघट्टावणस्स पायच्छित्त-सुतं दण्डादि के परिष्कार करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र२७. जे भिक्खू दण्डव वा, लट्ठिय वा, अवलेहणिय वा, वेणुसूई २८०, जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका और बांस को सुई वा, अण्णउत्थिरण वा, गारपियएण वा परिघट्टावेद वा. को घिसना, सुधारना, उपयोगी बनाना आदि कार्य अन्यतीथिक संठावेइ वा जमावेइ वा । अलमप्पमणो करणयाए सुहममवि या गृहस्थ से कराता है तथा स्वयं कर सकता हो तो गृहस्य से नो कप्पह जाणमाणे मरमाणे अण्णमण्णस्स वियरह वियरतं किंचित् भी कराना नहीं कल्पता है यह जानते हुए, स्मृति में वा साइजह। होते हुए भी अन्य साधु को गृहस्थ से कराने की अनुमति देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहाराणं अणुयाइय। उसे मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १, सु. ४० आता है। बंडगाईणं परिवणस्स पायच्छित्त-मुत्तं दण्डादि के परठने का प्रायश्चित्त सूत्र२८१. जे भिक्खू बंजगं वा-जाव-वेणुसई या पलिमंजियं पलिप्रजिय २८१. जो भिक्षु दण्ड- यावत्-बांस की सुई को तोड़-तोड़कर परिटुवेद, परिष्टुवेत वा साइजह । परठता है, परवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा मासिय परिहारट्ठाण उग्घाइय। उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ५. सु. ६६ अतिरित्त उवहि-धरणस्त पायच्छित्त-सुतं अतिरिक्त उपधि रखने का प्रायश्चित्त सूत्र आतारक्त उपाय २८२. जे मिक्खू पमाणाइरितं या, गणणाईरितं वा जयहिं धरेख, २८२. जो भिक्षु प्रमाण से और गिनती से अधिक उपधि धारण धरत वा साइज्जइ। __ करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारद्वार्ण उग्धाहय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. ३.१६, सु. ४० आता है। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५३-२८५ शम्या-संस्तारक मादि प्रतिलेखन विधान चारित्राचार : साक्षम-निक्षेप समिति [७१५ उपकरण का प्रतिलेखन--२ सेज्जा-संथारगाई पडिलेहण विहाणं - शय्या सस्तारक आदि प्रतिलेखन विधान२८३. धुवं च पडिलेहेजा जोगसा पाय कंव। २६३, मुनि पाद कम्बल (पर पोंछने का गरम कपड़ा) शय्या, सेजमुच्चारभूमि च संथारं अनुवाऽऽसणं ॥ उच्चार भूमि, संस्तारक अथवा बासन का यपासमय प्रविलेखन -दस. ब, ८, गा. १७ करे । उबहि-उबओग बिही उपधि को उपयोग में लेने की विधि२४. बोहोयहोवगहिय', भण्डगं दुविहं मुणौ। २८४. मुनि ओघ-उमधि (सामान्य उपकरण) और औपग्रहिकगिहन्तो निक्सिवन्तो य, पउंग्ज इमं विहिं ।। पनिमेष उपकरण दोनों गाल के करों देते और रखने में इस विधि का उपयोग करेपरषुसा पडिलेहिसा, पमज जयंबई। सदा सम्यक्-प्रवृत्त और यतनाशील यति दोनों प्रकार के आइए निविक्षवेजावा, मुहमओ वि समिए मया ॥ उपकरणों को सदा चक्ष से प्रतिलेखन कर तथा रजोहरण आदि --उत्त. अ, २४, गा. १३-१४ से प्रमार्जन कर उन्हे ले और रखे। अप्पमाय-पमाय-पडिलेहणा अप्रमाद-प्रमाद-प्रतिलेखना के प्रकार२८५. शनिवहा अप्पमायपजिलेहणा पणता, तं जहा २८५. प्रमाद रहित प्रतिलेखना छह प्रकार की कही गई (१) अपस्चावितं (२) अवलित (३) अणानुबंधि, १. अतिता---गरीर या बस्त्र को हनचाते हुए प्रतिलेखना करना। २. अवलिता-शरीर पा वस्त्र को मुड़ाये बिना प्रतिलेखना करना । ३. अनानुवरधी-उताचल रहित मा वस्त्र को मटकाये विना प्रतिलेखना करना । ४. अमोसली-वस्त्र के ऊपरी, नीचते आदि भागों को मसले बिना प्रतिलेखना करना । ५. चटपूर्वा-नवखोड़ा-प्रतिलेखन किये जाने वाले वस्त्र को पसारकर और बोषों से भली-भांति देखकर उसके दोनों भागों को तीन-तीन बार खखेरना षटपूर्वी प्रतिलेखना है, वस्त्र को तीन-तीन बार एंज कर तीम-तीन बार शोधना नवखोड़ा है। (४) अमोसलि, (५) छप्पुरिमा जव बोरा १ छ पुरिमा नद खोरा का विवरण-"पुरिमा"= विभाग | "खोडा"=विभाग के विभाग-खंड । इन्हें चहर की प्रतिसे बना विधि से इस प्रकार समझनाश्रमण के बढ़ने की चद्दर की लम्बाई का पूरा माष ५ हाथ होता है और चौड़ाई का पूरा माप ३ हाथ होता है। सर्वप्रथम चद्दर की चौड़ाई के मध्य भाग से मोड़कर दो समान पट कर लें, प्रथम एक पट की चौड़ाई हेढ़ हाथ और लम्बाई ५ हाथ रहेगी । इसके बार पट की लम्बाई के तीन समान भाग करें, प्रत्येक भाग के ऊपर से नीचे तक तीन-तीन खंड करे । प्रत्येक खंड पर दृष्टि डालकर प्रतिलेखन करें। इसी प्रकार दूसरे पट के भी तीन समान भाग करें और प्रत्येक भाग के ऊपर से नीचे तक तीन-तीन संड करें। प्रत्येक खंड पर दृष्टि डालकर प्रतिलेखन करें यह चद्दर के एक पार्श्व भाग की प्रतिलेखना हुई। (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६] परगानुयोगे प्रतिलेखना में प्रमत्त पाप-बमण सूत्र २०५-२७ wwwA (६) पाणीपागविसोहणी । छब्बिहा पमायपडिलेहणा पण्णसा तंजहा (१) आरमडा, ६. पाणिप्राण विशोधनी-हाथ के ऊपर वस्त्र-गत जीब को लेकर प्रासुक स्थान पर परठना । प्रमाद--पूर्वक की गई प्रतिलेखना छह प्रकार की कही गई है। जैसे १. अरमटा-सावल से दस्त्रादि को सम्यक् प्रकार से देखे बिना प्रतिलेखन करना। २. सम्मळ -मर्दन करके प्रतिसेखना करना । ३. मोसली-बस्त्र के ऊपरी, नीचले या तिरछे भाग का प्रतिलेखन करते हुए परसर पट्टन बरना । ४. प्रस्फोटना-वस्त्र की धुलि को टकाते हुए प्रतिलेखन (२) संमद्दा, (३) बम्जेयवा व मोसली ततिया. (४) पप्फोडगा चउत्थी, (५) विक्खित्ता, ५. विक्षिप्ता-प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों के ऊपर रखना। (E) वेइया छट्ठी। ६. वेदिका--प्रतिलेखना करते समय विधिवत् न बैठकर -ठाणं. अ. ६, सु. ५०३ प्रतिलेखन करना । पडिलेहणा पमत्तो पावसमणो प्रतिलेखना में प्रमत्त पाप श्रमण-- २८६. पडिलेहेड पमत्ते, अब उसइ पायकम्बल । २८६. जो असावधानी से प्रतिलेखन करता है जो पाद-कम्बल पडिलेहणाअणाउने, पायसमणि त्ति बुच्चई॥ (पैर पोंछने का गरम कपड़ा) को जहाँ कहीं रख देता है, जो प्रतिलेखन में असावधान होता है, वह पाप-प्रमाण वलाता है। पडिलेहेइ पमत्ते, से किचि है निसामिया । जो कुछ भी बातचीत हो रही हो उसे सुनते हुए प्रतिलेखना गुरुपरिमावए निरवं, पावसमणि ति बच्चई ।। में असावधानी करता है तथा जो शिक्षा देने पर गुरु के सामने -उत. अ. १७, गा. ६-१० बोलने लगता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। संथारं फलग, पीठं निसेज्जं पायकम्बल। जो बिछोने, पाट पीठ, आसन और पैर पोंछने का गरम अप्पमज्जियमारूहा, पावसमणि त्ति वुन्छ । कपड़ा का प्रमार्जन किये बिना (तथा देखे बिना) उन पर बैठता -उत्त. अ. १७, गा. ७ है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। उहि अपहिले हणाल पायच्छित सुतं उपाध अप्रतिलेखन का प्रायश्चित्त सूत्र २८७. जे मिक्खू इत्तरिय पि उहि न पहिलेहेड, न पडिलेहेंत वा २८७. जो भिक्ष अलग उपधि का भी प्रतिलेखन नहीं करता है, साइजा। नहीं करवाता है और नही करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा मासिब परिहारट्ठाणं उग्याइय। __उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. ३. २, सु. ५९ इस प्रतिलेखना में पूर्ण चद्दर का एक पाव भाग ६ भागों में और १८ खंडों में विभक्त किया गया है। इसी प्रकार पूर्ण गद्दर का दूसरा पार्श्व भाग भी ६ भागों में और १५ खंडों में विभक्त किया जाए और उसकी प्रति लेखनापी जाए, इस प्रकार एक रद्दर की प्रतिलेखना में चद्दर के बारह भाग (पुरिमा) और छत्तीस खंड (लोहा) लिये जाते हैं । सूत्र में चादर के एक पाश्र्व भाग की अपेक्षा से "छ पुरिमा' कहे गये तथा एक पार्श्व भाग के एक पट की (लम्बाई पांच हाय और चौड़ाई डेढ हाथ की अपेक्षा से "नय खोडा" कहे गये हैं। उत्त. अ.२६, गा. २५-२६ । २ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८८-२६० प्रातिहारिक सई आदि के २२६ पण को ६िधि चारित्राचार : आदान- निक्षेप समिति ७१७ उपकरण का प्रत्यर्पण एवं प्रत्याख्यान-३ पटिहारिअ सुई आईणं पच्चयण विही प्रातिहारिक सूई आदि के प्रत्यर्पण की विधि२८८. से आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु घा-जाव-से कि पुण २८. धर्मशाला यावत्-परिव्राजकों के आश्रम में--यावत् - तत्थोग्गहंसि एवोग्गहिय सि? आज्ञा ग्रहण कर लेने के बाद साधु और कसा करे ? जे तत्व गाहावतीण वा-जाद-कम्मकरीण वा सूई क पिप्पलए गृहस्थ-यावत्-नौकरानियों से कार्यवश सूई, कैची, कर्णवा, कण्णसोहणए वा, णहच्छेवणए वा, तं अप्पणो एगल्स शोधनक, या नख छेदनक आदि अपने स्वयं के लिए प्रातिहारिक अदुाए पडिहारियं जाइसा णो अण्णवष्णस वेज्ज बा अणुप- रूप से याचना करके लाया हो तो वह उन चीजों को परस्पर वैज्ज वा। एक दूसरे साधु को न दे अथवा न सौरे । सय करणिज्जं ति कटु से तमायाए तस्य गच्छज्जा, किन्तु स्वयं का कर्तव्य समझकर उन प्रातिहारिक उपकरणों गरिछत्ता पुष्यामेव उत्ताणए हत्ये कटु, भूमीए या ठवेत्ता, को लेकर गृहस्थ के यहाँ जाये और खुले हाथ में रखकर वा 'इमं सलु-इमं खलु ति आलोएज्जा, पो चेव गं सय भूनि पर रखकर गृहस्थ से बाहे-"म्ह तुम्हारा अमुक पदार्थ है, पाणिणा परपाणिसि पच्चप्पिणेता। यह तुम्हारा अनुक पदार्थ है।" (इसे संभाल लो, देख लो) ---आनु.२, .७, उ. १, सु. ६ परन्तु उन सूई आदि उपकरणों को साधु अपने हाथ से गृहस्थ के हाथ पर रखकर न सौपे । अविहीए सई आईणं पच्चप्पिणस्स पायच्छित सुत्ताद- अविधि स सूई आदि के प्रत्यपंग करने के प्रायश्चित्त सूत्र२८६. जे भिक्खू अविहीए सूई पचपिणइ, पच्चप्पिणतं वा २८६. जो भिक्ष सूई को अविधि से प्रत्यर्पण (वापिम सौंपरा) साइजह। करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं पच्चप्पिणा, पच्चप्पिणत वा जो भिक्ष, कैची को अविधि से प्रत्यर्पित करता है, फरवात। साइजइ. है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्स्यू अविहोए नहच्छेणगं पच्चरिपणइ, पच्चप्पिणतं वा जो भिवा नख छेदनक को अविधि से प्रत्यर्षित करता है, साइजई। __ करवाता है, करने गले का अनुनोदन करता है। जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणगं पच्चप्पिणइ, पश्यपितं जो भिक्ष कर्णशोधनक को अविधि से प्रत्यर्पित करता है, पर साइज्जइ। करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह मासिय परिहारद्वाणं अणुग्याइय। इसे मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. १, सु. ३५-३० आता है। णिच्छियकडे काले दवाइय न पच्चप्पिणतस्स पायच्छित निश्चित काल में दण्डादि के न लौटाने के प्रायश्चित्त सुत्ताह२६०. जे भिक्खू पाडिहारिय' दंग्यं वा-जाव-वेणसई वा जाइत्ता २६०. जो भिक्ष लौटाने योग्य दण्ड-पावत्-बांस की सूई की "तामेव रणि पच्चप्पिणिस्सामि ति" सुए पच्चप्पिणा याचना करके "आज ही लौटा दूंगा" ऐसा कहकर कल लोटाता पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ । है, लौटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पारिहारिय दंडय' वा-जाव-वेणुसुई वा जाइत्ता जो भिक्ष लौटाने योग्य दण्ड-पावत् -बांस की सूई की "सुए पच्चप्पिणिस्सामिति' तामेव रयण पच्चप्पिणइ, याचना करख ''कल लौटा दूंगा" ऐसा कहकर आज ही लौटाता पन्चप्पिणं का साइज्जह ।। है, लौटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू सागारिय-संतिय वंजय वा-जाव-वेगुसर वा जो भिक्ष शय्यातर के दण्ड, यावत्-बास को सूई की जाइता "तामेव रणि पच्चप्पिणिस्सामि ति" सुए पच्चप्पि- याचना करके "आज ही लौटा दूंगा" ऐसा कह कर कल लौटाता गद, पञ्चप्पिणतं वा साइज्जर । है, लोटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] परमानुयोग उपधि प्रत्याख्यान का फल सूण २६०-२६२ जे भिक्खू सागारिय-संतिय बंग्य' वा-जाव-वेणुलई वा जो भिक्षु शय्यातर के दण्ड,-यावत्-- बांस की सुई की जआइत्ता "सुए पच्चप्पिणिस्सामि ति' तामेव रणि याचना करके "कल लौटा दूंगा" ऐसा कहकर आज ही लौटाता पश्चप्पिणा, पच्चप्पिणतं वा सापज्जा। है, लौटवाता है, लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ भासिय परिहारटुाग उम्घाइय। उसे मासिक अनुद्घातिक परिहरान (श्चित्त) -नि. उ. ५, सु. १६-२२ आता है । उवहि-पस्वक्वाण फलं उपधि प्रत्याख्यान का फल - २६१.५०-उवहि-पच्चक्लाणे पते ! जीये कि जणया? २९१.प्र.-भ-ते ! उपधि प्रत्याख्यान से जीव क्या उपार्जन करता है? उ.-उबहि पस्चक्खाणेणं अपलिमषं जगवइ, निरवहिए 30-उपधि प्रत्याख्यान से स्वाध्याय आदि में निर्विघ्नता गं औवे निक्कलो उबहिर्मतरेग य न संकिलिस्सई। प्राप्त करता है। उपधि विहीन जीव निरीह (आकांक्षा रहित) -उत्त. अ. २६, सु. ३६ बन जाता है और उपधि के अभाव में संक्लेश नहीं पाता है। पभट्ठ उवगरणस्स एसणा पतित या विस्मृत उपकरण की एषणा२९२. निम्मथस्स णं गाहावइकुल पिण्डवाय-पडियाए अनुपविटुस्स २६२. निर्यन्व गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे और अहालहुसए उबगरणजाए परिम्म? सिया, कहीं पर उसका कोई लघु उपकरण गिर जाएसंच केई साहम्मिए पासेज्जा, कम्पह से सागारका गहाय उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक श्रमण देखे तोमामाराम भार एवं परमा "जिसका यह उपकरण है उसे दे दूंगा" इस भावना से लेकर जाए और जहाँ किसी श्रमण को देखे वहाँ इस प्रकार कहे१०-इमे भे अज्जो कि परिवाए। प्र-“हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो?" उ.-से व बएग्जा-"परित्राए" तस्सेव पडिणिज्जाए- 30---वह कहे-"हां पहचानता हूँ" तो उस उपकरण को यम् सिया। उसे दे दे। सेय वएग्जा-'नो परिमाए" तं नो अप्पणा परि- यदि वह कहे-"मैं नहीं पहनानता हूँ।" तो उस उपकरण मजेना, नो अरमन्नास वावए एगते महफासुए का न स्वयं उपभोग करे और न अन्य किसी को दे किन्तु एकांत पण्डिले परिदृयेयवे सिया।। मासुक (निजींद) भूमि पर उसे परठ दे। निगंथस्स पं अहिया विद्यारभूमि वा विहारभूमि का स्वाध्याय भूमि से या उच्चार-प्रस्रवण भूमि से निकलते हुए निश्चन्तस्स महालहुसए उवगरणमाए परिम्म? निर्धन्य का कई लघु उपकरण गिर जाएसिया, रोच कई साहम्मिए पासेमा, कप्पइ से सागारकडं उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक धरण देखे तोगहाय अत्येय अन्नभन्न पासेज्जा तस्येव एवं वएग्जा- “जिमका यह उपकरण है उसे दे दूंगा।" इस भावना से लेकर जाए और जहाँ किसी श्रमण को देखे वहाँ इस प्रकार कहेप.-"इमे मे भक्जो ! कि परिवाए ? प्र.-"हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो?" •-से य एज्जा -"परिमाए" तस्सेन पडिणिज्जाएपब्वे ३०-वह कहे-"हाँ पहनानता हूँ" तो उस उपकरण सिया। को उसे दे दे। से य वएग्जा-"नो परित्राए" सं नो अप्पणा परि- यदि वह कहे "मैं नहीं पहनानता हूँ" तो उस उपकरण का भुजेज्जा, नो अनमन्त्रस्स दावए एगले बहुफासुए न स्वयं उपयोग करे और न अन्य किसी को दे किन्तु एकान्त पण्डिले परिवेपव्वे सिया। प्रासुक भूमि पर उसे छोड़ दे। सामानुपाम विहार करते हुए निर्घन्य का यदि कोई उपकरण उदगरणजाए परिभट्ठसिया, गिर जाए Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६२ ww प० ४० पतित था विमृत उपकरण की एयणा साहम्मिए पाज्मा, कम्प से सागारक गहाय दूरमवि श्रद्धाणं परिवहितए, जस्त्र अशमन्नं पासा तत्व एवं घएक्जा " इमे मे अज्जो ! कि परिचाए ? से ज्जा" परिणा" तोष डिभिजाए यध्ये सिया । से व वएज्जा - "नो परिझाए" तं नो अपणा परिमुंजेडा नो अमनस्स धावए एवं बहुफासुए पहिले परिवेयर सिया । व उप सु. १३-१५ · प्र उस उपकरण को यदि कोई साधर्मिक श्रमण देखे तो "जिसका यह उपकरण है उसे दे दूंगा इस भावना से वह उस उपकरण को दूर तक भी लेकर जाए और जहाँ किसी श्रमण को देखे यहाँ इस प्रकार कहे- प्र० - " हे आयें ! इस उपकरण को पहचानते हो ?" वह कहे - "हाँ पहचानता हूँ" तो उस उपकरण को उ० चारित्राचार आदान-निक्षेप समिति उसे दे दे । [ote यदि वह कहे "मैं नहीं पहचानता हूँ" तो उस उपकरण को न स्वयं उपभोग करे और न अन्य किसी को दे किन्तु एकान्त प्रासु भूमि पर उसे छोड़ दे। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. चरणानुयोग परिष्ठापना समिति का स्वरूप सूत्र २६३-२६५ (५) उच्चार-प्रस्त्रवण निक्षेप समिति परिष्ठापना की विधि-१ परिट्रावणिया समिई सहवं.२६३. उच्चारं पासवणं, खेल सिधाण-जल्लियं । आहारं उहि देह, अन्नं वावि तहाविहं ।। -उत्त. अ. २४, गा, १५ उपचारं पासवणं, खेल सिंघाण जल्लियं । फामुयं पहिले हित्ता, परिष्ट्रावेज संजए ।। ___-दस. न.६, मा.१८ पंडिलस्स चउभंगो२६४. अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए ।। -उत्त. अ. २४, गा.१६ परिवारमा सानातिका स्वरूप२६६. उपचार- मल प्रस्रवण' = सूत्र, एलेप्म, मुंह के अन्दर का कफ, सिंघाणक - नासिका कामल, जल्ल-शरीर पर का मैल, आहार, उपधि, शरीर या उसी प्रकार की दूसरी कोई उत्सर्ग करने योग्य वस्तु का श्रमण स्थण्डिल में उत्सगं करे । संयमी मुनि प्रासुक (जीव रहित) भूमि का पतितेखन कर वहाँ उच्चार, प्रस्रवण, श्लेम, नाक के मल और शरीर के मैल का उत्सर्ग करे। स्थण्डिल को चोभंगी२६४. चार प्रकार के स्थगिडल १. अनापात-असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो और वे दुर से भी न देखते हैं। २. अनापात-संलोक-जहाँ लोरों का आवागमन हो, किन्तु वे दूर से देखते हों। ३. आपात-असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन हो, किन्तु वे देखते न हों। ४. मापात-संलोक--जहाँ लोगों का आवागमन भी हो, और वे देखते भी हों। दस लक्षण युक्त स्थंडिल में परठने का विधान२६५. १. जहाँ कोई आता नहीं और देखता भी नहीं। २. जहाँ पर मल-मूत्रादि डालने से किसी व्यक्ति को आघात न पहुंचे। ३. भूमि सम हो। ४. पोलार रहित अर्थात् तृपादि से आच्छादित व दरारों से युक्त न हो। ५. कुछ समय पहले ही अचित हुई हो। ६. विस्तीर्ण हो (कम से कम एक हाथ लम्बी चौड़ी हो) । ७. बहुत गहराई (कम से कम चार अंगुरू नीचे) तक अचित्त हो। ८. प्रामादि से कुछ दूर हो। ६. मूषक, चींटियां आदि के बिलों से रहित हो । १०. बस प्रागियों एवं बीजों से रहित हो । तो वहाँ भिक्षु या भिक्षुणियां मल-मूत्रादि का परित्याग करें। वस लक्षण जुत थंडिले परिद्वयण विहाणो२६५, अणवायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए। समे अतिरे पावि, अचिरकालकमि य॥ विस्थिपणे दूरभोगाडे, नासन्ने बिलवजिए। ससाण बीयरहिए, उच्चाराईणि बोसिरे ॥ --उत्त. अ. २४, गा.१७-१८ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६६-२९६ उपचार-प्रस्त्रवण भूमि के प्रतिलेखन का विधान चारित्रधार : परिष्ठापनिका नमिति [७२१ उच्चार-पासवण भूमि पडिलेहण विहाणं उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन का विधान--- २६६. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा सभाणे वा बसमाणे वा, गामा- २६६. भिक्षु या भिणी स्थिर वास हो, मासकल्प आदि रहे हों गुगामं इज्जमाणे वा, पुष्षामेव परणस्स उच्चार-पासवण- या प्रामानुप्राम विहार करते हुए कहीं ठहरे हों तो प्रज्ञावान् साधु भूमि पडिलेहेज्जा । को चाहिए कि वह उपचार प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन करे। केवली बूया-आयाणमेयं । केबली भगवान ने कहा है कि (प्रतिलेखन नहीं करना) कर्म बन्ध का कारण है। अप्पडिलेहियाए उच्चार-पासवणभूमिए, भिक्खू बा भिक्खूथो (क्योंकि) भिक्ष या भिक्षुणी रात्रि में या विकास में अप्रतिवा रातो बा, बियाले बा, उच्चार-पासवर्ण परिदृवेमाणे लेखित भूमि में मल-मूत्रादि का परिष्ठापन करता हुआ फिसल पयलेज्ज वा, पवटेज्ज वा, से तत्य पयलमाणे वा, पवडमाणे सकता है या गिर सकता है। फिसलने या गिर पड़ने से उसके वा हत्थं वा-जाव-इवियजायं लूसेज्जा वा, पाणाणि वा-जाव- हाथ-यावत् -किसी भी अंगोपांग में चोट लग सकती है। वहाँ सत्ताणि वा अभिहणेज वा-जाव-वारोयेजा वा। स्थित प्राण. यावत्-सत्व का हनन हो सकता हे-यावत् वे मर सकते हैं। अह मिफ्लूणं पुस्खोवदिट्ठा-जाव एस अवएसे, जं पुवामेव इसलिए भिसु को पहले से ही यह प्रतिज्ञा यावत्-उपदेश पण्णस्स उच्चार-पासवणभूमि परिलेहेन्जा। दिया है कि प्रज्ञावान् साधु पहले से ही मल-मूत्र परिष्ठापन भूमि -आ सु. २, अ. २, उ. ३, सु. ४५६ की प्रतिलेखना करे। उच्चारण उब्बाहिज्जमाणे करणिज्ज विही मल-मूत्र की प्रबल बाधा होने पर करने की विधि२६५. से भिक्ख या भिक्खूणी वा उच्चारणासवण-किरियाए उच्चा- १७. भिक्षु या भिक्षुणी मल-मूत्र की प्रवल बाधा होने पर अपने हिज्जमाणे सयरस पाचपुंछणस्स1 असतीए ततो पछा पादोश्छनक के अभाव में साधमिम' साधु से उसकी याचना साहम्मियं जाएज्जा। -आ. सु. २, अ. १०, सु. ६४५ करे। उच्चाराईणं परिवण विही-- मल-मूत्रादि को परठने की विधि२९८. से भिक्खू वा, भिक्यूणी वा सयपाततं वा परमाततं वा गहाय २६८. (उच्चार प्रत्नत्रण विसर्जन योग्य स्थण्डिल न मिले तब) से समायाए! एगतमबक्कमेज्जा, अणावायसि, असंलोसि, भिक्षु या भिक्षुणी स्वपात्रक (स्वभाजन) या परणात्रक (ट्नसरे का अप्पपाणंसि-जात्र-मक्कडासंताणयंसि आहारामंसि या उव- भाजन) लेकर उपाश्रय या बगीचे के एकान्त स्थान में चला जाए. स्ससि या ततो संजयामेष उस्मार-पासवणं बोसिरेज्जा। जहां पर कोई आता-जाता न हो और कोई देखता न हो तथा प्राणी यावत्-ककड़ी के जालों से रहित हो, वहाँ यतनापूर्वक मल-मूत्र विसर्जन करे। उच्चार-पासवणं वोसिरित्ता से तमायाए एगतमवक्कमेम्जा विसर्जन करके उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जाए, अणावायसि-जाव-मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि सामरि- जहाँ कोई आता-जाता न हो यावत्-~मकड़ी के जाले न हो, लंसि वा-जाव-अण्णयरसि वा तहप्पगारंसि पंडिलंसि ऐसी वगीचे के पास की भूमि में, दग्य अचित्त भूमि में यावत्अचित्तसि ततो संजयामेव उच्चार-पासवर्ण परिवेन्मा। इसी प्रकार की अन्य अचित्त भूमि में यतनापूर्वक मल-मूत्र का -आ. सु. २, अ. १. सु. ६६७ परिष्ठापन करे। समणसरीर परिक्षण उवगरणगहण विही श्रमण के मृत शरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि२६१. भिक्खू प राओ वा बियाले वा आहच्च वीसभेज्जा संच २६६. यदि कोई भिक्षु रात्रि में या विकाल में मर जाय तो उस १ 'पाय'छणं"-पादपुरुछनसमाध्यादा ज्वारादिकं कुर्यात् --पादपंछनसमाध्यादिकनिति-टीकाकार ने "पादपुच्छनक" शब्द का अर्थ 'समाधि पात्र आदि' किया है। जो आज भी व्यवहार में "समाधिया" शब्द प्रचलित है। —आ. टीका. सु. १६५ की वत्ति पत्र ४०६ (पृ. २७३) र बगीचे के पास की स्थंडिल योग्य भूमि में । क Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२] धरणानुयोग उद्देशिक आदि स्थग्लि में मल-मूत्रारि के परटने का निषेध सूत्र २६६-३०१ सरीरगं के वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेज्जा एगते बहुफासुए मृत भिक्षु के शरीर को कोई वयात्त्य करने वाला साधु एकान्त पएसे परिदृवेत्तए। में सर्वथा अचित्त प्रदेश में परठना चाहे उत समयअस्थि य इत्य केइ सायारियसं तिए उवगरपजाए अचित्ते यदि वहाँ उपयोग में माने योग्य गृहस्ट का कोई अचित्त परिहरणारिहे कप्पह से सांगारकर्ड गहाय तं सरीरग एगते उपकरण (वहन योग्य काष्ठ) हो तो उसे पुनः लौटाने का कहकर बलफासुए पएसे परिवेत्ता तत्येय उवनिक्विवियच्ये सिया । ग्रहण करे और उससे उस मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त और - कप्प. उ. ४, सु. २६ सर्वथा अचित प्रदेश पर परठ कर उस वहन-काष्ठ को यथास्थान रख देना चाहिए। गामाणुगामं चूइज्जमाणे भिक्खू व आहन्त्र वीसुभेज्जा, तं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ भिक्षु यदि अस्मान मार्ग में स सरीरंग केह साहम्मिए पासेज्जा, कप्पद से तं सरीरगं ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए और उगके शरीर को कोई श्रमण देखें ''मा सागारिय" ति कटु एगते चित्ते बडफासुए पंडिल्ले और यह जान ले कि यहां कोई गृहस्थ नहीं है तो उस मृत धमण पहिलहिता यमज्जित्ता परिवेत्तए । के शरीर को एकान्त निर्जीव भूमि में प्रतिलेखन व प्रमार्जन करके परठना कल्पता है। अत्यि य इत्य फेह साहम्मिय संतिए उचारणाए परिहर- यदि उस गृत श्रमण के कोई उपकरण उपयोग में लेने योग्य गारिहे कप्पइ से सागारकड गहाय वोच्चपि ओगमहं अपन• हों तो उन्हें नागार कृत ग्रहण कर पुन: आचार्यादि की आज्ञा बेत्ता परिहार परिरित्तए । -बव. उ. ७. सु. २१ लेकर उपयोग में लेना कल्पता है। परिष्ठापना का निषेध-२ उद्देसियाई डिले उच्चाराईणं परिट्रवण-णिसेहो- उद्देशिक आदि स्थंडिल में मल-मूत्रादि के पठने का निषेध३००. से भिक्ख वा मिक्खूणी वा से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा ३००. भिक्षु या निक्षुणी यदि इस प्रकार का स्थण्डिल जाने कि अस्सिपड़ियाए किसी गृहस्थ ने अपने लिये न बनाकरएग साहम्मियं समुहिस्स एक साधगिक साधु के लिए, बहवे साहम्मिया समुदिस्स बहुत से मार्मिक साधओं के लिए, एग साहम्मिणि समृद्दिस्स, एक नामिणी साध्वी के लिए बहवे साहम्मिणोओ समुद्दिस्त बहुत सी साधर्मिणो साध्वियों के लिए तथा बहवे समण, माहण, अतिहि, किवण, वणीमगे पणिय बहुत से धमण, ब्राह्मण, अतिथि, वरिद्री या भिखारियों को पगणिय समुहिस्स पाणाई-जाव-ससाई समारल्म समुहिस्स गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी-यावत् सत्वों का समा-जाव-एइ, रम्भ करके स्वंडिल बनाया है यावत्-देता है. तहप्पगारं पंडिलं पुरिमंतरकष्टं बा, अपुरिसंतरा वा जाव वह पुरुषान्तरकुत हो या पुरुषान्तरवृत्त न हो-यावत् - उस गो उच्चार-पासवणं बोसि रेज्जा। स्थाण्डिल भूमि में मल-मूत्र विसर्जन न करे । -आ.सु.२, अ. १०, मु. ६४८ परिकम्म कए थंडिले उपचाराईणं परिट्रवणणिसेहो- परिकर्म किये हुए स्थंडिल में मल-मुत्रादि के परठने का निषेध३०१. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं जाणेजा- ३०१. भिक्षु या भिक्षुण इस प्रकार का स्वरिङल जाने कि गृहस्थ अस्सिपंछियाए कीयं वा, कारियं वा, पामिच्चिया, छन्नं ने साधु के लिये खरीदा है, बनवाया है, उधार लिया है, उस पर Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०१-३०२ विभिन्न स्थानों में मल-मूत्रादि के परठने का निषेध चारित्राचार : परिठापनिका समिति [४२३ . ... . ... ..... .... . . -...-- वा, घटुंबा, मट्ठबा लित्तं वा, समढेवा, संपधूषितं वा पप्पर छाया है या छत डाली है, उसे सम किया है, कोमल या अण्णतरंसि वा सहप्पगारंसि पंडिलसि णो उच्चार-पामवणं चिकना बना दिया है, उसे तीचा पोता है, संवारा है, धूप आदि बोसिरेज्जा । -आ. सु. २, अ.१०, गु. ६५० पदार्थों से सुगन्धित किया है अथवा अन्य भी इस प्रकार के मारम्भ समारम्भ करके तैयार किया है तो उस प्रकार के स्थंडिल पर भिक्षु मल-मूत्र विसर्जन न करे । विविह ठाणेसु उच्चाराईणं पपिटवणगिसेहो विभिन्न स्थानों में मल-मूत्रादि के परटने का निषेध३०२. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-इह ३०२. भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहां कि खलु गाहावती वा-जाव-कम्मकरोओ वा, फंदाणि वा-जाव- गृहपति-यावत्-नौकरानियाँ कन्द,-यावत्-हरी वनस्पहरियाणि चा, अंतातो वा बाहि नाहरति चहियाओ वा अंतो तियों को अन्दर से बाहर ले जा रहे हैं या बाहर से अन्दर ले साहरति, अण्णतरंसि वा तहप्पगार सि पंडिलंसि जो उस्चार- जा रहे हैं, अथवा अन्य भी उसी प्रकार की स्थण्डिल पर मलपासवणं वोसिरेन्जा। मुत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी बा मे जं पुण हिल जाणेज्जा-- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे स्थण्डिल को जाने जो कि स्तम्भगृह, संधसि बा, पीडसि वा मंचंसि वा, मातंसि वा, अट्टसि बा, चबूतदा, मचान, माला, अटारी, महल या अन्य भी इस प्रकार पासाचं सि वा, अण्णतरंसि वा, तहप्पगारंसि वा पंडिलंसि णो का कोई स्थान है वहां पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। उच्चार-पासवणं बोसिरेज्जा। से भिक्खू वा भिमखूणी वा सेज पुण थंडिलं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि सचित्त अणंतरहियाए पुटवीए-जाब-कक्कडासंतागपंसि. अण्णतरंसि पृथ्वी के निकट है. यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त है एवं वा, तहप्पगारंसि थंडिलं सि णो उच्चार-पासवणं योसिरेज्जा । अन्य भी इसी प्रकार का स्थण्डिल है वहाँ पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी या से जे पुणं पंडिलं जाणेज्जा-ह भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने कि जहां पर वसु गाहावती या-जाव-कामकरीओ वा कंदाणि वा-जाव- गृहस्थ या भोकरानियों ने कंद-यावत् - हरियाली आदि हरियाणि वा परिसाउँसु वा परिसाउंति या परिसाडिसंति फैलाई है. फैला रहे हैं, फैलायेंगे अथवा अन्य भी इस प्रकारका धा, अण्णतर सि वा तह पगारंसि अंडिलंसि जो उन्नार- स्थन्डिल हो वहां पर नल-मूत्र का त्याग न करे । पासवणं वोसिरेज्जा। से भिक्खू वा भिषयूणी वा से ज पुण यडिल जाणेज्जा-यह भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने कि-वहाँ खलु गाहावती वा-जाव-फम्मकरीओ वा. सालीणि वा पर गृहस्थ-यावत् -नौकदानियों ने शाली, बीहि (धान), मुंग, घोहीणि या, मुग्गाणि वा, मामाणि या तिलाणि था, उड़द, तिल, कुलत्थ, जौ और ज्यार आदि बोए हैं, बो रहे हैं कुलत्थाणि बा. जवाणि बा, जवजवाणि वा, परिसुवा, या बोएँगे, अथवा अन्य भी इस प्रकार को स्थण्डिल हो वहाँ पदरंति वा, पइरिस्संति वा. अण्णतरसि वा सहप्पगारंसि मल-मूत्र का विसर्जन न करे। थंडिल सि णो उच्चार-पासवणं वोमिरेजसा । से भिवातू वा भिक्खूणी या से जं पुण थंडिल जाणेज्जा–आमो- भिल या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थाण्डिल को जाने कि, जहाँ पर याणि वा, घसाणि बा, भिलुयाणि वा, विज्जलाणि या, कचरे के ढेर हो, भूमि फटी हुई या पोली हों, भुमि पर दरारें खाणुयाणि वा, कहाणि या, पगत्तागि वा, करीणि घा, पड़ी हों, ठूट हों, ईख के इंडे हों, बड़े-बड़े गहरे गड्डे हों, पदुग्गाणि वा, समाणि वा, विसमाणि वा, अण्णतरसि वा गुफायें हों, किले को दीदार हों, सम-विषम स्थान हो अथवा तहप्पगारंसि भंडिलसि पो उपचार-पासवणं वोसिरेज्जा। अन्य भी इसी प्रकार के ऊबड़-खाबड़ स्थण्डिल पर मत्त-मूत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू पा भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं आणज्जा-- भिक्षु या भिक्षणी यदि ऐसे स्थपिडल को भाने, जहाँ माणुसरंधणाणि वा, महिसकरणाणि वा, वसमकरणाणि वा, मनुष्यों के भोजन पकाने के चूल्हे आदि हो, अथवा भैन, बैल, अस्सफरणाणि वा, कुक्फुउकरणाणि था, मक्काकरणाणि वा घोड़ा, मुर्गा या बन्दर, लावक पक्षी, बत्तक, तीतर, कबूतर, Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४] धरणानुयोग विभिन्न स्थानों में मल-मूत्रादि के परठने का निषेध लावयफरणाणि वा. सट्टयकरणाणि वा, तित्तिरकरणाणि वा, कपिजल आदि के आश्रय स्थान हों, अथवा अन्य भी इसी प्रकार कबोतकरणाणि वा, कपिलनकरणाणि वा. अण्णतरसि वा के स्थान हों तो वहां चल-मूत्र विसर्जन न करें। तहप्पगारंसि पंडिल सि को उस्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। से मिक्सू वा भिक्खूणो वा से जं पुण यंडिलं जाणेन्जा-बेहा. भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐन स्थाण्डिल को जाने, जहाँ फाँसी णसट्टाणेमुवा, गिद्धपिट्ठाणेसु वा, तरूपवणटाणेसु वा मेरुपड- पर लटकाने के रथान हों, गिों का कलेवर खाने का स्थान हो, गट्टाणेसु वा, विसभक्षणाणेसु वा, अगणिफंदणाणेसु बा, वृक्ष पर से गिरकर मरने का ग्थान हो, पर्वत से झंगापात करके अण्णतरसि वा तहप्पगारंसि थंडिल सि णो उच्चार-पासवर्ण भरने के स्थान हो, विषभक्षण करके भरने के स्थान हों, या वोसिरेज्जा। आग में गिरने के स्थान हों, अथवा अन्य इस प्रकार के स्थान हों वहाँ पर मल-मूत्र त्याग न करें। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुष थंडिलं जायजा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जैसे किआरामाणि वा, उज्जाणाणि वा, वणाणि वा, वरसंडागि बगीचा (उपवन), उद्यान, बग, वनखण्ड, देवकुल, नभा, प्याऊ पा, देय मुलागि पा, सला पाया, जण एसि हो अथवा अन्य भी इा प्रकार के (कोई पवित्र या रमणीय) मा तहप्पगारंसि यडिलं सि णो उच्चार-पासवणं बोसिरेज्जा। स्पान हों तो यहां मल-मूत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी खा से जं पुण यंडिलं जाणेजा - भिक्ष या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डित को जाने, जैसे किअट्टालयाणि वाचरियाणि वा, वाराणि वा, गोपुराणि वा, कोट को अटारी हो, किले और नगर के बीच के मार्ग हो, चार अण्णतरसि वा तहप्पगारंसि ५डिलसि णो उच्चार-पासवणं हों, नगर के मुख्य द्वार हों अथवा अन्य भी इस प्रकार के स्थल वोसिरेज्जा। हों तो वहाँ मल-मूत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण थंडिलं जाणेजा- भिक्षु या भक्षुशी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने कि जहाँ तिमाणि वा, चउक्कागि वा, चच्चराणि बा, चजमुहाणि बा, तीन मार्ग मिलते हो, चार मार्ग मिलते हों, अनेक मार्ग मिलते अषणतरंसि या तहप्पगारंसि डिलंसि णो उच्चार-पासवणं हो, चतुर्मुख स्थान हों, अथवा अन्य भी इस प्रकार के स्थान हो वोसिरेज्जा। वहाँ मल मूत्र विसर्जन न करे । से भिक्खू वा भिक्खूणी या से जं पुण यंडिलं जाणेजा- भिक्षु या भिक्षुगी ऐसे स्थण्डिल को जाने कि जहाँ लकड़ियाँ इंगालकाहेसु बा, लारजाहेसुवा, मयबाहेसु वा, मडपथभि- जलाकर कोवले बनाये जाते हैं, साजी बार आदि तैयार किये यासु शश, मध्यप्रेतिएम वा, अग्णतरंसि वा तहप्पगारंसि जाते हैं. मुर्दै जलाने के स्थान है, मृतक के स्तूप हैं, मृतक के पंडिलंसि जो उस्चार-पासवणं बोसिरेज्जा । चंत्य हैं, उथवा अन्य भी इस प्रकार के कोई स्थण्डिल हों तो __ वहाँ पर मल-मूत्र विसर्जन में करे । से भिक्खू या मिक्खूणी वा से जं पुण थंडिल जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने कि जो नदी पविआयतणेमुवा, पंकायतणेसु वा, ओघायतणेसुबा, सेयण- के तट पर बने स्थान हैं, पंकबहुल आयतन हैं, जल प्रवाह के पहंसि वा, अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि यंडिलंसि णो स्थान हैं, जल ले जाने के मार्ग हैं, अथवा अन्य भी इस प्रकार उच्चार-पासषणं योसिरेग्जा। के जो स्थण्डिल हो, वहाँ मल-मूत्र विसर्जन न करे। से भिक्खू पा भिक्खूणो वा से जं पुण डिलं जाणेजा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐस स्थण्डिल को जाने कि मिट्टी णवियासु वा मट्टियखाणिया, गवियासु वा, गोलेहणियासु, की नई खान हैं, नई हल चलाई भूमे है, गायो के चरने की गवायणीसुवा, खाणीसु वा. अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि भूमि है, अम्प खाने हैं. अथवा अन्य इस प्रकार की कोई स्थण्डिल पंडिलंसि गो उच्चार-पासवणं योसिरेज्जा। हो तो वहाँ मल-मूत्र विसर्जन न परे । से भिक्खू या भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं जाणेम्जा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे स्थगिडल को जाने, जहाँ डालडागवन्वसि वा, सागवति वा, मूलगवच्चं सि या, हत्प- प्रधान शाक के सेत है, पत्र-प्रधान शाक के खेत हैं मूली गाजर कुरवचसि या, अण्णवरंसि वा तहापणारंसि पंडिलसि गो के खेत हैं, हस्नंकुर वनस्पति विशेष के खेत है, अभवा अन्य भी उच्चार-पासवणं शेसिरेग्जा। उस प्रकार के स्थल . तो नही पर मल-मूत्र विसर्जन ना करे। से भिक्खू वा भिक्यूगो वा से जं पुण थंडिल जाणेना- भिक्षु मा भिक्षुणी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहां बीजक असणवणंसि वा, सणनगंसि वा, धायइवणसि वा, केयई- वृक्ष का वन है; एटमन का दन है, धातक (आवला) वृक्ष का Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासुक-अप्रामुक स्थंडिल में परठने का विधि-निषेध चारित्राचार : परिष्ठापनिका समिति [७२५ वर्णसि वा, अंबवणंसि वा, असोगवणंसि या, णागवणसि या, वन है, केवढे का उपवन है, आम्रवन है, अशोक वन है, नागवत पुनागवणंसि वा, अण्णयरेसु या तह पगारेसु पत्तीवएसु वा, है, या पुभागधों का वन है, अथवा अन्य भी इस प्रकार के पुष्फोवएसु वा, फलोबएसु वा, बीओवएमु वा, हरितोचएमु स्थण्डिल जो पत्रों, पुष्पों, फलों, बीजो या हरियाली से युक्त हों, वा को उच्चार-पासवर्ण योसिरेज्जा । उनमें मल-मूत्र विसर्जन न करे । -आ. न. २, अ. १०, सु. ६५०-६६६ परिष्ठापना के विधि-निषेध-३ फासुय-अफासुय पंडिले परिवण विहि-णिसेहो--- प्रामुक-अप्रासुक स्थण्डिल में परठने का विधि-निषेध३०३. से भिक्खू या भिक्खूणी या से जं पुण यंडिलं जाणेज्जा- ३०३. भिक्ष या भिक्ष णो ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो सजाव-मक्कडासंताणय तहप्पणारंसि वडिलसि णो कि अण्डों-यावत् - मकड़ी के जालों से युक्त है तो उस प्रकार उच्चार-पासवर्ण बोसिरेज्जा । के स्थण्डिल पर नल-मूत्र का विसर्जन न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणो वा से जं पुग यडिलं जाणेज्जा-- भिक्षु या भिक्षुणी ऐसी स्थण्डिल भूनि को जाने, जो अण्डे अप्पर-जाव-मक्कडासंताणयं तहप्पयारंसि पंडितंसि उपचार- रहित-पावत्-मकड़ी के जालों से रहित है तो उस प्रकार के सास पोसिरेजा। स्थ ल पर मल-मूत्र विसर्जन कर सकता है। -आ. सु. २. अ.१०.सु. ६४६-६४७ समण माहणाई उद्देसिय थंडिले परिदृवण विहि-णिसेहो- श्रमण-ब्राह्मण के उद्देश्य से बनी स्थपिउल में परठने का विधि-निषेध३०४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं जाणेज्जा- ३०४. भिक्ष या भिक्षणी यदि ऐसे स्थाण्डिल को जाने कि गृहस्थ बहवे समण-माहग अतिही-किवण-वणीमग-समुद्विस्त पाणाई ने बहुत से शाक्यादि श्रमप, ब्राह्मण, अतिथि, फुपण या भिखा-जाब-ससाई-समारम्भ-जाब-तेति, तहप्पगारं पंडिलं रियों के उद्देश्य से प्राणी-यावत् -मत्वो का समारम्भ करते अयुरिसंतरकर-जाय-अणासेवियं, गो उच्चार-पासवणं -यावत्-बनाया है तो उस प्रकार की स्थण्डिल भूमि अपुरवोसि रेज्जा। पान्तरकृत-पावत्-अनासेवित है तो उस में मल-मूत्र का बिसर्जन न करे। अह पुणेव जाणेज्जा पुरिसंतरकडं-जाव-आसेवियं, तो यदि यह जाने कि पुरुषालवृत-यावत्--आसेवित हो गई संजयामेव उपचार-पासवणं वोसिरेज्जा। है तो उस प्रकार को स्थण्टिन भूमि में मल-मूत्र विसर्जन करे । -ना.सु. २, अ.१०, सु. ६४६ विति Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६] चरणानुयोग निषिद्ध स्थानों पर उच्चार प्रलवण परिष्ठापन के प्रायश्चित्त मूत्र निषिद्ध परिष्ठापना सम्बन्धी प्रायश्वित्त - ४ सिद्धठाणे उच्चारा-परिवणस्स पायच्छित सुताई- निविय स्थानों पर उधाण परिष्ठापन के प्राय शिवसूत्र ३०५. (१) जे भिक्खू गिनि वा गि मुहंसि वर, गिह-दुबारियंसि रामायण ३०५. जो भिक्षु घर में, घर के मुँह पर घर के द्वार पर घर के प्रतिद्वार पर घर के द्वार के साथ के स्थान में, घर के आंगन गिह- बच्चसि वा उच्चार पासवणं परिवेह परिट्टतं वा में घर की शेष भूमि में मल-मूत्र परता है, परठवाता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है । साइज्जद । (२) परिका निसा भडग-लेणंसि वा महवच्चसि श, उच्चार पासवणं परिबेश परिद्वत वा साइज्जइ । (३) जे भिक्खू इंगाल-दाहंसि वा खार दाहंसि वा, गात दाहंसि वा तुसवाहंसि था. सदाहंसि वा उच्चार- पासवर्ण परिवेद, परितं वा साइज्ज । (४)विधावा बोला अभि विमा वा मट्टिया साणि परिमाणवा भुज्यमाना वा उपरि साइज्जइ । जो भिक्षु मुर्दाघर में, मुर्दे की रास पर, मुर्दे के स्तूप पर, मुर्दे के आश्रय स्थान पर, मुर्दे के समन पर गुर्दे के स्थण्डिल पर शमशान के चौतरफ की भूमि पर मल-मूत्र परठता है। परवाता है या रटने वाले का अनुमोदन करता है। जो को बनाने की भूमि पर भी धार आदि बनाने की भूमि पर पशुओं को डसने की भूमि पर तु जलाने की भूमि गर, भूसा (अनाज का छिलका) जलाने की भूमि पर मल-मूत्र परता है, परठवाता है या परहने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु, नवीन हल चलाई भूमि में या नवीन मिट्टी की असान में हाँ किन के लिये जाते हों या नहीं क परि है अनुमोदन करता है । जो भिक्षु, नमी वाली भूमि पर कीचड़ पर पलक पर मल-मूत्र परठता है, परनाता है या परने वाले का अनुमोदन करता है । (५) जे भिक्खू सेयायणंसि वा पंर्कसि या पणगंसि वा उपचारास परिसि सूत्र ३०५ (६) जे भिक्खू उंबर बच्चंसि वा पग्गोह-वसि वा असोरथ वंस व पिलखु-बच्चंसि वा उच्चार- पासवर्ण परिवेड परि या साइ www. (७) जे भिक्खू डाग वच्तंसि वा, साग-बच्वंसि वा मूलयgreat व कोभरि बसि वा खारवत्वंसि वा जीरय- बच्चति वा, दमण-बच्वंसि वा मरुग-बच्वंसि वा उच्चार पासवर्ण परिवेद परिवेल वा साइज्ज (c)वता पालवर्णति बा वासवति वा उपचारासरणं परिवेष परि वा साइज्जइ । (१) अोगवति या विवा चंपग वर्णसि वा धूप-वर्णसि वा अरणयरेसु वा तत्पगारेसु वा पत्तोबएसु, पुष्कोषएसु, फलोबएसु, बीओएस उच्चार पासवणं परिद्ववेइ, परिद्वर्वेत या साइज्जइ । जो भिक्ष उंबर ( गूलर), बड संग्रह करने के स्थान पर मल-मुत्र परने वाले का अनुमोदन करता है। जो भी ले, कोसुंबर, भागा, जीरा, दमक (सुगन्धित वनस्पति विशेष ) मरुग ( वनस्पति विशेष) के संग्रह के स्थान या उत्पन्न होने की वाडियों में मल-मूत्र परठता है, परठवाता है या पठने वाले का अनुमोदन करता है । पर है पता है याने वाले का अनुमोद जो भाई शालि कुसुंभ या कास के खेत में मलकरता है । पीपल और पीपली के फूल परठता है, परवाता है या जो मन में वन में चं आम्रवन में, या अन्य भी ऐसे स्थल जो कि पत्र, पुष्पा, फल और बीज आदि से युक्त हीं वहाँ मल-मूत्र परता है, परदवाता है या पठने वाले का अनुमोदन करता है। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०५ निवि स्थानों पर उच्चार प्रलवण परिष्ठापन के प्रायश्चित सूत्र चारित्राचार : परिष्ठापनिका समिति तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारद्वाणं उधाइयं । - नि. उ३, सु. ७१-७६ उच्चार पासवर्ण परिषेद भिक्खू खुडागंस थंडिलंसि परिद्वतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज मासियं परिहारद्वाणं उच्चाइयं । - न . ४, सु. १०४ जे भिक्खू आगंतागारे या आरामागारे या गाहाबड़कुलेसु वा परियावसहेसु वा उच्चार- पासवर्ण परिवे, परि वा साइज । जे भिक्खु उज्जाति वा उज्जाणगिर्हसि था, उज्जानसालंसि वा निज्जासि वा निज्जाजगिर्हसि वा निज्जाण सालसि या उच्चार पासवणं परिवेद, परितं वा 3 साइज्जइ । जे भिक्खू अट्टसिया, अट्टात्यंसि वा चरियंसि वा पागारंसि वा दारंसि या, गोपुरंसि वा उच्चार पासवणं परिट्ट ये परिवेत या साइज्जइ । भवानी या गाव का उच्चार पासव परिवेद परिका साइज्जइ । भक्तासिया मित्रा निसासि वा कूडागारंसि वा. कोदुगारंसि वा उच्चारपरि परि वा साइन 7 जे भिक्खू तहिंसि वा तणसालंसि वा तुसगिहंस वा समालंसि वा, मुसहिसि वा भुससालसि वा उच्चार परवणं परिद्ववेद, परितं वा साइज्जइ । पसर परिसा परि था, परियासिया, कुवियसालंसि वा कुवियहिंसिया उच्चार पासवणं परिवेड परिटुतं वा साइज । बा गोहित वा महाकुल वा महाहिंसिया उपचारावणं परिवेड परि का साइज्जद । माउस्या परिहार उ - नि.उ.१५, सु. ६६-७४ जे भिक्स् अनंत रहियाए पुढबीए उच्चार पासवगं परिष्टुवेद, परितं या साइज्जद । [७२० उसे मासिकात परिहारस्थान (आमश्चित्त) आता है। जो भिक्षु छोटी-सी स्थण्डिल भूमि में उच्कार प्रलवण पर ठता है, परवरता है या परखने वाले का अनुमोदन करता है। उद्घाटन (प्राय) जाता है। भरा जायसवा सासि वा उच्चारावणं परिवैद पति का वाहन गृह में साइज्जइ । को भिक्षु धर्मशालाओं में उद्यानों में गाथापति दों में या आश्रमों में मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु उद्यान में, उद्यान ग्रह में उद्यानशाला में नगर के बाहर बने हुए स्थान में, नगर के बाहर बने हुए घर में, नगर के बाहर बनी हुई शाला में मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु चबूतरे पर अट्टालिका में, चरिका में, प्राकार पर, करता है, करवाता है द्वार में, गोपुर में, मल-मूत्र का परित्याग या करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु जल मार्ग में, जल पथ में, जलाशय के तौर पर, जल स्थान पर, मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 7 1 जो भिक्षु शून्य गृह में शून्य शाला में टूटे घर में, दूकी शाला में, कूटागार में कोष्ठागार में मल-मूत्र का परित्याग करता है. करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु तृण गृह में तृणशाला में, तुम गृह में, सशाला में, भुस (छिलके) गृह में, भुजशाला में मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु यान शाला में, यान गृह में वाहन शाशा में, करता है. करवाता है वा शिवा करने वाले का अनुमोदन करता है । जो में परिव्राजक गृह में, परित्याग करता है, करता है । में, विक्रय गृह में परित्राजा कर्मशाला में, कर्म गृह में मल-मूत्र का करवाता है या करने वाले का अनुमोदन 2 निगाला में, बैलगृह में महाकृत में महा भें महागृह मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्वित) आदा है । जो पृथ्वी के निकट की भूमि पर मल-मूत्र का परित्याग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८] चरणानुयोग अन्यतीयिकावि के साथ न्यडिल जाने का प्रायश्चित सत्र सत्र ३०५.३०७ जे भिक्खू ससिणिवाए पुढवीए उच्चार-पासषण परिवेइ, जो भिक्षु सस्निग्ध पृथ्वी पर उच्चार-पत्रषण परठता है, परिवेत वा साइज्जइ । परठवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्सू ससरक्खाए पुढवीए उच्चार-पासवर्ग परिदृवेइ. जो भिक्षु सचित्त रज युक्त पृथ्वी पर उच्चार-प्रसवण परठता परिट्टतं वा साइज्जई। है, परठवाता है, या परठने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू मट्टियाकडाए पुढयोए उच्चार-पासवणं परिदुबेई, जो भिक्षु सचित्त मिट्टी बिखरी हुई पृथ्वी पर उच्चारपरितुवेंतं या साइज्जद। प्रस्रवण परलता है, परठवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषलू वित्तमंताए पुद्रवीए उच्चार-पासवणं परिदृवेद, जो भिक्ष नचित्त पृथ्वी पर उच्चार-प्रस्रवण पटता है, परिट्रयेंतं वा साइज्जड़। परवाता है या गरठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वित्तमंताए सिलाए उच्चार-पासवर्ष परिवेद, जो भित सचित्त थिला पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है, परित वा साइजइ। परटवाता है या परटने वाले का अनुमोबन करता है । जे भिक्षू चित्तमंताए लेलुए उच्चार-पासवर्ण परिटुवेइ, जो भिक्ष चित्त शिलाखण्ड आदि पर उच्चार-प्रस्रवण परिटुवेंतं वा साइजह। परटता है, परवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कोलाषासंसि वा वारुए जीवपट्ठिए, सअंडे जाव. जो भिक्ष, दीमक लगे जीव युक्त काष्ठ पर तथा अण्डे मक्कडा-संताणए, उच्चार-पासवर्ण परिदृचेइ, परिवेनं वा -पावत्-मकड़ी यो जालों से युक्त स्थान पर उच्चार-प्रस्रवण साइज। परठता है. परटवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू यूपसि वा. गिहेलुपंसि वा, उसुयालंसि बा, काम- ओ भिक्ष दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, अनिएकम्प या चरमाचल, ठूठ जसंसि मा, दुबो दुनिखित्ते, अनिकपे चलाचले, उच्चार- पर, देहली पर, ओखली पर या स्नान पीट पर उच्चार-प्रस्रवण पासवणं परिवह, परिवेंतं वा साइज्जइ । पर ता है, परठबाता है या पग्लने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कुलियंसि बा, भित्तिसि बस, सिलंति वा, ले लुंसि जो भिक्ष दुद्ध, दुनिक्षिप्त अनिष्यम्प पा चलाचल मिट्टी वा, अंतलिक्खजायंसि या बुब्बजे, दुनिखित्ते अणिकपे, चला- को दीवार पर, इंद्र आदि की भिन्नि पर, शिला पर या शिला चले उच्चार-पासवणं परिवेद, परिर्वतं वा साइज्जई। खण्ड-पत्थर आदि अन्तरिक्षजात स्थानों पर उचचार-प्रसव परटला है, परठवाता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू खधंसि वा, फसहंसि वा, मचंसि चा, मंबंसि वा, जो भिक्ष दुर्बद्ध, दुनिक्षित, अनिष्णम्प या बलाबल स्कन्ध, मालसि वा, पासायंसि चा, हम्मियतलंलि बा, अंजलिक्ख- टांड, मंत्र, मण्डए, माला, महल श हवेली के छत आदि अन्त. जायंसि वा, दुग्धवे. दुनिखित्ते, अनिकपे चलाचले उच्चार- रिक्षजात स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण परखता है, परवाता है पासवर्ण परिवंड, परिठ्ठवतं वा साइज्जइ । या परठने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासि परिहारष्टठाणं उग्धाइयं। उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि, उ. १६, सु. ४१-२१ आता है। अण्णउत्थियाइ सजि थंडिल-गमण-पायच्छित्त सुतं- अन्यतीथिकादि के साथ स्थंडिल जाने का प्रायश्चित्त सुत्र३०६. जे भिक्खू अण्णउस्थिएणं वा मारथिएण वा परिहारिओ ३०६. जो भिक्ष, अन्य तीथिक या गहस्थ के साथ अथवा परि वा, अपरिहारिएण सति चहिया बिहार-भूमि विधार-भूमि वा हारिक साधु अपरिहारिक के साथ उपाश्रय से बाहर की स्वाणिक्खमा वा पविसई वा जिक्खमंतं वा पसितं वा घ्याय भूमि में या स्थण्डिल में प्रवेश करता है या निष्क्रमण साइज्जई। करता है, प्रवेश कराता है या निष्क्रमण कराता है, प्रदेण करने वाले का या निष्क्रमण करने गले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे मापन्जाइ मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त) आता है। -नि, उ.२, सु. ४१ आउडे ठाणे उच्चाराइ परिट्टवणस्स पायच्छित्त सुतं-- आवृत स्थान में मल-मूत्र परटने जाने का प्रायश्चित्त सूत्र - ३०७. जे भिषामू दिया वा राओ वा वियाले वा उच्चार-पासवणे ३०७. जो भिक्ष दिन में, रात में या विकाल (संध्या में) मल Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०७-३१० उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन न करने के प्रायश्चित्त सूत्र चारित्राचार : परिष्ठापनिका समिति [७२९ उज्याहिजमाणे सपायं महाय, परपायं वा, जाइत्ता उच्चार- मूत्र के वेग से बाधित होने पर अपना पात्र लेकर या दूसरे के पासवणं परिवेत्ता, अणुगए सूरिए एई एतं वा पात्र को याचना कर उनमें मल-मूत्र त्याग करके जहाँ सूर्य का सहजह ताप नहीं आता है ऐसे स्थान पर परठता है, परठवाता है या परटने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेषमाणे आवजह मासिय परिहाराषं उग्धाइय। उसे उद्घातिक मासिक परिहारल्यान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि.उ. ३ 7.50 उच्चार-पासवण भूमि अउिलेहणस्स पाच्छित्त सुत्ताई- उच्चार-प्रस्रवण भूमि के प्रतिलेखन न करने के प्राय श्चित सूत्र३०८, जे भिक्यू साणुप्पए उपचार-पासवणभूमि न पहिलेहेछ न ३०८. जो भिक्ष, चतुर्थ प्रहर में उच्चार-प्रवण (मल-मूत्र पशिलेहेंतं वा साइज्जइ । त्यागने) की भूमि का प्रतिलखन नहीं करता है, नहीं करवाता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्यू तओ उच्चार-पासवणभूमिओ न पडिलेहेइ न पडि- जो भिक्षु तीन उच्चार-प्रत्रवण भूमियों का प्रतिलेखन नहीं लेहेंतं वा साइज्जइ। करता है, नहीं करवाता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन बारता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहार ठाण उम्घाइयं । उसे उदयपालिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चिन) जाता है । --नि. ४, सु. १०२-१.३। उच्चाराइ अविहिए परिदवणस्स पायच्छित सुत्तं- अविधि से मल-मूत्रादि परठने का प्रायश्चित्त सूत्र३०६. जे भिक्खू उच्चार-पासवर्ण अग्रिहीए परिट्ठवंड, परिवेत ३०६. जो भिक्ष, उच्चार-प्रश्रवण (मल-मूत्र) को अविधि से परवा साहजह। ठता है, परवाता है या पररने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषाजा मासियं परिहारानं उमघायं। उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। '-नि. उ ४, सु. १०५ थंडिल सामायारीणं अकरणस्स पायच्छित्त सुताई- स्थंडिल सामाचारी के पालन नहीं करने के प्रायश्चित्त सूत्र३१०. जे भिक्खू उच्चार-पासवणं परिवेत्ता न पुंछ, न पुंछतं ३१०. जो भिक्ष, उच्चार-प्रस्रवण का त्याग करके (मलद्वार को) वा साइज्ज। नहीं पूंछता है, नहीं पुंछवाता है या नहीं पूंछने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू उच्चार-पासवणं परिवेसा कठेप वा, किलि- जो भिक्ष उच्चार-पत्रवण क त्याग करके काष्ट से, बांस वेण वा, अंगुलियाए वा, सलागाए वा, पुंण्ड, पृष्ठतं वा की खपच्ची से, अंगुली से या शल का से, पूंछता है. पुंछवाता है साइज्जद। यो पूंछने बाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उच्चार पासवर्ण परिवेसा णायमह, णायमंतं जो भिक्ष उच्चार-प्रस्रवण का श्याग करके आचमा नहीं वा साइजई। करता है, नहीं करवाता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उच्चार-पासवणं परिवेत्ता तत्थेष आयमइ, जो भिक्ष उच्चार प्रत्रवा का त्याग कर वहीं आचमन आयमतं वा साइन। करता है, बरवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू उच्चार-पासवर्ण परिवेता महबूरे आयमइ जो भिक्ष, उच्चार-प्रसवण का त्याग करके अधिक सूर आयम वा साइजइ। जाकर आचमन करता है, करवाता है या करने वाले का अनु मोदन करता है। जे भिक्खू उच्चार-पासवर्ण परिक्षेसा परं तिष्हं गावापुराण जो भिक्ष उच्चार-प्रसवण का त्याग करके तीन से अधिक आयमइ, आयमंतं वा साइजह । नावापूर (पसली) से आचमन करता है. करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजद मासियं परिहार ठाणं उम्पादयं । उसे मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त आता है। नि, उ. ४, सु. १०६.१९१ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३०] घरगानुयोग गुप्ति का स्वरूप सब ३११-३१४ www www गुप्ति गुप्ति-अगुप्ति-१ गुत्तिओ सरूवं गुप्ति का स्वरूप३११. एयाओ पंचसमिईओ, समासेण विवाहिया । ३११. ये पांच समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं। यहाँ से क्रमशः एतो व तओ गुत्तीओ, बोच्छामि अणुपुष्वसो ।। तीन गुप्तियाँ कहूँगा। -उत्त. अ. २४, मा.१६ गुती भियत्तणे वुत्ता सुभत्येसु सम्वनो। अशुभ व्यापारों से सर्वथा निवृत्ति को गुप्ति कहा है। -~-उत्त. अ. २५, गा. २६ (२) तिगुत्तो संजओ त्रिगुप्ति नंयत्३१२. हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइबिए। ३१२. जो हाथों और पैरों को यतनापूर्वक प्रवृत्त करता है, अजनप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तरचं च बियाणइ जे स भिक्खू ॥ वाणी में पूर्ण विवेक रखता है, इन्द्रिपों को पूर्ण संयत रखता है। -दम. अ. १०, गा. १५ अध्यात्म भाव में लीन रहता है, भली-भांति समाधिस्थ है और जो सूत्र व अर्थ का यथार्थ रूप से शाता है वह भिक्षु है। गुत्ति अगुत्तिप्पगारा गुप्ति तथा अगुप्ति के प्रकार३१३. तओ गुत्तिओ पण्णताओ, तं जहा २१३. गुप्ति तीन प्रकार की कही गई है(१) मणगुसी, (२) बहमुत्ती, (३) कायगुत्ती'। १. मन गुप्ति, २. वचन गुप्ति और ३. कायगुप्ति । संजयमणुस्साणं तओ प्रतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा---- संयत गनुष्यों के तीनों मुप्तियाँ कहीं गई है(१) मणगुत्ती, (२) वइगुत्ती, (३) कायगुसो । १. मन गुरित २. वचन गुप्ति और ३. कायगुप्ति । तओ अगुत्तीओ पण्णत्ताओ. तं जहा अगुप्ति तीन प्रकार की कही गई है(१) मणअगुती, (२) वइअगुती, (३) कायअगुत्ती । १. मन अगुम्सि, २. रचन-अगुप्त, ३. काय-मगुप्ति । -साण. भ. ३, उ. 1,सु. १३४ मन-गुप्ति-२ गणगुत्ती सरूवं३१४. संस्भ समारम्भे आरम्भे य तहेष य । मणं पवत्तमाण तु निमत्तेज्ज जयं जई ।। -उत्स. अ. २४, गा. २१ मन गुप्ति का स्वरूप३१४, यतनाशील यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान मन का निवर्तन करे । १ आव० अ० ४, सु० २२ । २ मन, वचन और काया के निग्रह को गुप्ति और अनिग्रह को अप्ति कहते है। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१५-३१७ घर प्रकार की मन-गुप्ति चारित्राचार : गुप्ति वर्णन [७३१ चविहा मणगुती-- चार प्रकार को मन-गुप्ति३१५ सच्चा तहेध मोसाय, सच्चा मोसा तहेव य। ११५. सत्या, मृषा, नत्यामृषा और चोगे असल्यामृषा-इस चउत्थी असच्चमोसा प मणमुत्ती चन्विहा ॥ प्रकार मनो-मुप्ति के चार प्रकार है । -उत्त. अ.२४, गा.२० मणस्स दुटुस्सोवमा मन को दुष्ट अश्व की उपमा ३१६. केशीकुमार श्रमण ने गीतम को पूछा३१६. ५० -अयं साहसिओ भीमो, दुगुस्सो परिधावई । प्र.-"यह साहसिक, भयंकर, पुष्ट अश्व जो चारों तरफ जंसि गोयम ! आमढो, कहूं तेण न होरसि ?॥ दौड़ रहा है गौतम ! तुम उस पर चढ़े हुए हो। फिर भी वह तुम्हें उन्मार्ग पर कैसे नहीं ले जाता है ?" गणधर गौतम ने इस प्रकार कहाज-पथावन्तं निगिम्हामि, सुपरस्मीसमाहियं । उ०-दौड़ते हुए अश्व को मैं धुत रश्मि से ("श्रुतज्ञान न मे गच्छद उम्मगर्ग, मग्गं च पडिवज्जइ । की लगाम से) वश में करता हूँ। मेरे अधीन हुआ अव उन्मार्ग पर नहीं जाता है, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है।" केशी ने गौतम को पूछा4.-आसे य इह के बुसे ? कसी गोपममानवी । प्रा-"अश्व किसे कहा गया है ?" केसिमेवं बुबंतं तु, गोयमो इषमम्बी ।। केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार महाउ०—मणो साहसियो भीमो, बुट्ठस्सो परिधाई। उ-मन ही साहसिक, भयंकर और दुष्ट अश्य है, जो तं सम्मं निगिहामि, धम्मासमाए कम्थगं ॥ चारों तरफ दौड़ता है। उसे मैं अच्छी तरह वश में करता हूँ। -उत्त. अ. २३, गा. ५५-५८ धर्म शिक्षा से वह कन्थक (उत्सम जाति का अश्य) हो गया है।" अथवा उस मन रूपी कंथम (अश्व) को मैं धर्म शिक्षाओं से सम्यग् रूप से वश में करता हूँ। बस चित्त समाहिट्ठाणा दस चित्तसमाधि स्थान३१७. बह खनु थेरेहि मगवतेहिं इसचित्त-समाहिट्ठाणा एण्णता। ३१७. इस आहेत प्रवचन में स्वदिर भगवन्तों ने दश चित्त समाधिस्थान कहे हैं। 4.---कयरे खलु ते थेरिहि भगवंतेति बम चित्तसमाहिट्ठागा प्र....-भगवन् ! दे कौन मे दस चित्तममाधिस्थान स्थविर पण्णता ? भगवन्तों ने कहे हैं ? उ.- इमे खलु ते बेरिहिं भगवतेहि दस वित्तसमाहिढाणा २०-ये दश चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे पण्णत्ता। __ -दसा. द. ५, सु. १-२ हैं। जैसे"अज्जो!" इति समरे भगवं महावीरे समणा- "हे आर्यो!" इस प्रकार आमन्त्रण कर श्रमग भगवान निग्गथा य निग्गंधीओ य आमंतिता एवं बयासी महावीर निम्रन्थ-निन्थियों से कहने लगे "मग॥ १ सत्या मनोगुप्ति-सत्य वस्तु का मन में चिन्तन, यथा-जगत् में जीव विद्यमान है। २ असरया मनोगुप्ति-असत्य वस्तु का मन में चिन्तन, यथा-जीद नहीं है। ३ सत्या-मृषा मनोगुप्ति-कुछ सत्य और कुछ असत्य वस्तु का मन में चिन्तन, पथा - आम्र आदि नाना प्रकार के वृक्षों को देखकर "यह आम्र वन है" ऐमा चिन्तन करना । बन में आम वृक्ष हैं यह तो सत्य चिन्तन है किन्तु पलाश, स्वदिर, धन आदि नाना प्रकार के वृक्ष भी वन में हैं अतः उक्त चिन्तन असत्य भी है। ४ असत्या अमृषा मनोगुप्ति जो चिन्तन सत्य और असत्य नहीं है, यथा-किसी आदेश या निर्देश का चिन्तन–'हे देवदत्त ! घड़ा ला" या "मुझे अमुक वस्तु लाकर दे" इत्यादि चिन्तन । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२] धरणानुयोग व्याकुल चित्तवृत्ति वाले के दुष्कृत्य सूत्र ३१४-३१८ "ह खलु अज्जो! निग्गंथागं वा निग्गंधीणं वा "हे मार्यो ! निर्ग्रन्थ और नियंन्थियों को, जो ईसिमित हरिया-समियाणं, भासा-समियाणं, एसणा-सम्यिाणं, वाले, भाषा समिति वाले, एषणासमिति बाले, आदान-भाण्डआयाण-भंड-मत्त-निमखेवणा-समियागं, उच्चार- मात्रनिक्षेपणासमिति वाले, उच्चार-प्रसवण खेल-मिधाणक-जल्ल पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिद्वावणिया-समियाण, (मैल) की परिठापनासमिति वाने, मनःस मिति वाले, वाक मथ-समियाण, वय-समियाण, फाय समियाणं. मण- समिति वाले कायसमितिवाले, मनोगुप्ति पाले. वचनमुप्ति वाले, गुप्तीणं वयगुत्तीणं, काय-गुत्तीण गुत्तिवियाणं, गुत्त- कायगुप्ति वाले तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, मानार्थी, आत्मा बभयारीणं, आयट्ठीण, आयहियाणं, आय-मोईण, आय. का हित बरने बाले, आत्लयोगी, आरम्पराक्रमी, पाक्षिक पोषधों परक्कमाणं, पक्षिय-पोसहि एसु समाहिपत्ताग नियाय- में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले मुनियों को ये माणाणं इमाइं इस वित्त-समाहि ठाणाई), असमप्पण- पूर्व अनुप चित्तसार या हो जाते हैं । पुवाई समुष्पज्जेज्जा : तं जहा(१) धम्मचिता वा से असमुप्पण्णपुस्खा समुप्पज्जेज्जा १. पहिले कभी उत्पन्न नहीं हुई ऐसी धर्म-भावना उत्पन्न सर्व धम्मं जाणित्तए। हो जाय जिससे वह सर्वश्रेष्ठ धर्म को जान ले । (२) सण्णि-जाइ-सरणेग सण्णि-णाणं वा से असमुप्प २. पहले नहीं हुर संशि-जातिस्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्व पणपुथ्ये समुपज्जेज्जा, अप्पणो पौराणियं जाई उन्मों का स्मरण करले । सुमरित्तए। (३) सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्णपुले समुप्पज्जेजा, ३. पूर्व अदृष्ट यथार्थ स्वप्न दिस जाय। बहातच्च सुमिणं पासित्तए। (४) देवरसणे वा से असमुप्पग्ण-पुज्वे समुप्पज्जेज्जा, ४. पूर्व अदृष्ट देव-दर्शन हो जाय और दिव्य देव-ऋद्धि, विध्य देविकि, दिब्य देवजुई. दिवं देवाणुभावं दिव्य देव-ध वि और दिव्य देवानुभाव दिख जाय । पासित्तए। (५) ओहिणाणे वा से असमुप्पण-पुष्ये समुप्पज्जेज्जा ५. पहले नहीं हुआ अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाय और उसके ओहिणा लोग जागित्तए। द्वारा वह लोक को जान लेवे। (६) ओहिसगे वा से असमुप्पण्ण-पुटवे समुष्पज्जेम्जा, ६. पहले नहीं हुआ अवधिदर्शन उत्पन्न हो जाय और उसके ओहिगा लोयं पासित्तए। द्वारा यह सरोक को देख लेवे। (७) मणपज्जयनाणे वा से असमुप्पण-पुथ्वे समुप्प. ७. पहले नहीं हुआ मनःपयंवज्ञान उत्पन्न हो जाय और जजेजजा, अंतो मणुस्सखित्तेमु अढाइजेसु दीव- मनुष्य-क्षेत्र के भीतर अडाई द्वीप दो समुद्र में रहे हुए संजी समहसु सम्णोणं पचितियाणं एज्जत्तगाणं मणोगए पचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के चनोगत भावों को जान ले। भावे जाणिसए। (६) केवलणाणे वा से असमुपाण-पुल्वे समुप्पज्जेज्जा, ८. पहले नहीं हुआ कंवलज्ञान उत्पत्र हो जय और सम्पूर्ण केवलकप्यं सोयालोयं जाणित्तए। लोक-अलोक को जान लेवे । (E) केवलवंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुष्वे समुप्पामेज्जा, ६. पहले नहीं हुआ केवलदर्पन उत्पन्न हो जाप और सम्पूर्ण केवलकप्पं सोयालोयं पासित्तए। लोक-अलोक को देख लेवे । (१०) केवल-भरणे वा से असमुप्पण्ण-पुर्व समुप्प- १०. पूर्व अप्राप्त केवल मरण प्राप्त हो जाय तो वह सर्व उजेक्ला, सध्वमा पहाणाए। -दसा. द. ५, सु.६ दुःखों के सर्वथा अभाव को प्राप्त हो जाता है। इन दस स्थानों से समाधि (आत्मानन्द) भाव की प्राप्ति होती है। सकिलिटुचिस्स अकिच्चाई व्याकुल चित्तवृत्ति वाले के दुष्कृत्य३१८. अगेगचित्त खलु अयं पुरिसे, से मेयणं अरिहह पूरइत्तए । ३०८. वह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला है। बह चलनी को जल से भरना चाहता है। १ (क) ठाणं अ. १०, सु. ७५५ (स) सम. स. १०, सु. १ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस प्रकार की समाधि चारित्राचार : पुतिर्णन सूत्र ३१८-३२२ [७३३ से अण्णवहाए, अपणपरियावाए, अग्णपरिमाहाए, जणवय- बह (तृष्णा की पूर्ति के हेतु व्याकुल मनुष्य) दूसरों के वध बहाए, जणवयपरियायाए, जणययपरिग्गहाए । के लिए दूसरों के परिताप के लिए और दूसरों को परिग्रहण के -आ. सु. १, अ. ३, २.२, सु. ११८ लिए तथा जनपद के वट के लिए, जनपद के परिताप के लिए और जनपद को परिग्रहण के लिए प्रवृत्ति करता रहता है । वसविहा समाहो दस प्रकार की समाधि३१६. सविधा समाधी पण्णता, तं जहा-- ३१६ समाधि दस प्रकार की कही गई है। जैसे(१) पाणातिवायबेरमणे । १. प्राणातिपात-विरमण। (२) मुसावायवेरमणे। २. मृषावाद-विरमण। (8) आदिणाणताणावेरमणे । ३. अदत्तादान-विरमण । (४) मेहणवेरमणे । ४. मैथुन-विरमण । (५) परिग्गहवरमगे। ५. परिग्रह-विरमण। (६) इरियासमिति । ६. ईयासमिति । (७) मासासमिति । ७. भाषासमिति । (८) एसणासमिति । ८. एषणासमिति । (8) आयाण-मंड-मत्त-णिपदेवणासमिति । ६. आदान भाण्ड अमत्र (पात्र) निक्षेपणा समिपि । (१०) उच्चार - पासवण -शैल-सिंघाणग जल्स-परिटायपिया १०. उच्चार प्रसवण खेर सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापना समिति । -ठाणं अ. १०, सु. ७११ समिति । दसविहा असमाही दस प्रकार की असमाधि३२०. दसविधा असमाधी पण्णता, तं जहा-- ३२०. असमाधि दस प्रकार की कही गई है । जैसे(१) पाणातिवाते । १. प्राणातिपात-अविरमण । (२) मुसावाए। २. मृषावाद-अविरमण । (३) अविण्णाया। ३. अदत्तादान-अविरमण। (४) मेहणे । ४. नथुन-अविरमण ! (५) परिजगहे। ५. परिग्रह-अविदमण। (६) इरियाऽसमिती। ६. इया-असमिति (७) भासाऽसमिती। १७. भाषा-असमिति । (८) एसणाऽसमिती। . एषणा-असमिति । (६) आयाण-भंड-मत्त-गिक्खेवगाऽसमिती । .. आदान-भाण्ड-अमत्र (पात्र) निक्षेप की असमिति । (१०) उच्चार-पासवण-खेल सिंषाणा-जल्ल-परिट्रायणिया- १०. उच्चार-प्रत्रवण खेल सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापना की ऽसमिती । -ठाणे. अ.१०,सु.७११ असनिति । मणगुरायाए फलं मन को वश में करने का फल३२१. १०--मणगुत्तयाए णं भन्ने । जोवे कि जणयह ? ३२१. प्रा-भन्ने 1 मनोगुप्तता (कुशल' मन के प्रयोग से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.--मणगुत्तयाए णं जीधे एगग्ग जणयह । एगग्गचित्रंण उ-मनो-गुप्तता से वह एकाग्रता को प्राप्त होता है। जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । एकाग्रचित्त वाला जीव (अशुभ संकल्पों से) मन की रक्षा करने -उत्त अ. २६, सु. ५५ वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है। मणसमाहारणयाए फलं मनसमाधारणा का फल३२२.५०-मणसमाहारणयाए णं भरते जीवे किजणया? ३२२.प्र-मन्ते ! मन-समाधारणा (मन को आगम माथित भावों में भली-मति लगाने) से जीव क्या प्राप्त करता है? Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४] वरणानुयोग मन की एकाग्रता का फल मूत्र ३२२-३२८ उ.-मणसमाहारणयाए णं एगगं जणयह । एाग जण- उ०-मन-समाधारणा से यह एकाग्रता को प्राप्त होता है। इत्ता नाणपज्जवे जणयद । नाणपज्जवे जणइना एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवों (ज्ञान के विविध प्रकारां) सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्त न निज्जर। को प्राप्त होता है। ज्ञान-पर्यवों को प्राप्त कर सम्यकदर्शन को -उत्त. अ. २६, सु. ५८ विशुद्ध करता है और मिच्या-दर्शन को क्षीण करता है। एगग्गमणसं निवेसणयाए फलं मन को एकाग्नता का फल३२३. प. एपगमणसंनिवेसणयाए गं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? २२३. प्र.-भन्ते ! एका अस (आलम्बन) पर मन को स्थापित करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-एगग्गमणसंनिवेसणयाए गं चित्तनिरोह करेइ ।। उ.-एकान-मन की रथापना से गह चित्त वा निरोध --उत्त. अ. २६, मु.२७ करता है। TARA वचन-गुप्ति-३ बयगुती सरूवं वचनगुप्ति का स्वरूप३२४. संरम्भ समारम्भे, आरम्भ य तहेव य । ३२४, यतनाशीत यति संरम्भ, सबारम्भ और आरम्भ में ___षयं पक्त्तमाणं तु, नियत्तेन्ज जयं नई॥ अवर्तमान वचन का निवर्तन करे। -उत्त. ब. २४, गा. २३ चउविहा वइगुत्ती चार प्रकार की वचन गुप्ति३२५. समचा तहेव मोसा य, समता मोसा तहेव य । ३२५, सत्या, मृषा, सत्ता-मृषा और चौथी असरया-मृषा-इस घउत्थी असच्चमोसा, वइगुती चम्विहा ।। प्रकार वचन मुप्ति के चार प्रकार हैं। --उत्त. अ. २४, गा. २२ अपगुत्तस्स किच्चाई बचन गुप्त के कृत्य३२६. गुत्तो वईए व समाहिपत्ते, लेसं समाहटु परियथएज्ना ॥ ३२६. बचन से गुप्त साधु भाव समाधि को प्राप्त कर विशुद्ध -गूय. मु. १, अ.१०, मा. १५ लेण्या के साथ संगम में पराक्रम करे । वइगुत्ति पल्वर्ण वचनगुप्ति का प्ररूपण३२७. से नहतं भगवया पवेदितं आसपणेण जाणया पासया। ३२७, जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान महावीर अनुवा गुती बहगोयरस्स। ने जो सिद्धान्त कहे है उनका उसी प्रकार से प्ररूपण करे अथवा -आ.सु. १, अ.८, उ. १, सु. २०१ वाणी विषयक गुप्ति से मौन साध कर रहे । बहगुत्तयाए फले वचन गुप्ति का फल३२८. ५०-वयगुत्तयाए पं मन्ते जीवे कि जणयह? ३२८. प्र०-भन्ते ! वाग्-गुप्तता (कुशल वचन प्रयोग) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-वयगुत्तयाए णं निधियारं जणयह "निविषयारेणं उ-वाग्-गुप्तता से वह निर्विकार भाव को प्राप्त होता जोवे वगुत्ते अज्ञप्पजोगसाहणजुत्ते" यावि पवा। है। निर्विकार भाव प्राप्त वाग्-गुप्त जीव अध्यात्म-योग के साधन -उत्त. ४. २६. गा. ५६ चित्त की एकाग्रता आदि से युक्त हो जाता है। १ संकप्पो सरंभ, परितापको भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ, सुई वाई सम्वेसि ।। -उत्त. न. २४, टीका हिसा का संकल्प संरम्भ, प्राणियों को परिताप (कष्ट) देना समारम्भ, और प्राणियों को उपद्रक्षित करना आरम्भ है। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२६-३३२ वचन-समाधारण का फल चारित्राचार : गुप्ति वर्णन [७३५ mmwomar mmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwmmmmmmmmmm वयसमाहारणयाए फलं वचन-समाधारणा का फल३२६. ५०-अयसमाहारणयाए णं अन्ते । जीवे कि जण या ? ३२६.५०-भन्ते : वा-समाधारणा (वाणी को स्वाध्याय में भली-मोति लगाने) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-वयसमाहारणयाए वयसाहारणदसणपज्जवे विसोड -वाक्-समाधारणा से वह वाणः के विषयभूत दर्शन हेइ । वयसाहारणसणपज्जबे विसोहेता सुलहबोहि- पर्यत्रों (सम्यक्-दर्शन के प्रकारों) को विशुद्ध करता है। प्राणी के यत्तं निव्वत्तेह, दुल्लहयोहियतं निजरेद। विश्यभूत दार्शन-पर्यवों को विशुद्ध कर बोधि की सुलभता को - उत्त. ब. २६, सु. २६ प्राप्त होता है और बोधि को दुर्लभता को क्षीण करता है । काय-गुप्ति-४ कायगुत्ती सरूवं - कायगुप्ति का स्वरूप३३०. संरम्भ समारम्भे, आरम्भे य तहेव च। ३३०. यतनावान् यति संरन, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त कार्य पवतमागं तु, नियत्तेज जयं जई ।। होती हुई काया के निवर्तन करे । -जुत्त. अ. २८, गा. २५ कायगुत्ती अणेगविहा-- कायनुप्ति के अनेक प्रकार-- ३३१. ठाणे निसोयणे चेव, तहेब य तुथट्टणे । ३३१. खड़े होने में बैठने में, सोने में, विषम भूमि को उल्लंघन उल्लंघण पल्लंघणे, इन्दियाण य जलणे ।। में तथा रूड्डा, खाई वगैरह के प्रलंघन करने में और इन्द्रियों के -उत्त, अ २४, गा. २४ प्रयोग में प्रवर्तमान मुनि कायगुप्ति करे । कायगुत्ती महत्तं कायगुप्ति का महत्व३३२. सहि पलिछिणहि आयाणसोतगढिते आले अस्वोच्छिण्ण-३२. नेत्र आदि इन्द्रिय विषयों से निवृत्त होकर भी कोई बाल बंधणे अमिक्कत-संजोए। तमंसि अबिजाणओ आणाए प्राणी मोहादि के उदयबा आनशे में गूद्ध हो जाता है, वह जन्मसंभो णत्यि सिमि। जरमों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, वह विषयों के संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह-अन्धकार में निमग्न वह अज्ञानी धाने आरमहित को नहीं जान पाता । इस प्रकार उसे तीर्थंकरों की आज्ञा का लाभ नहीं प्राप्त हता। अर्थात् वह आज्ञा का जाराधक नहीं हो सकता ऐसा मैं कहता हूँ। अस्स गस्थि पुरे पच्छा मम्मे तस्स कुओ लिया ? जिसके विषयासक्ति का पूर्व संस्कार नहीं है और भविष्य का संकल नहीं है तो बीच (वर्तमान) में इसके विषयासक्ति का विकल्प कहाँ से होगा? अर्थात् विषय विकल्प नहीं रहेगा। से हु पन्नाणमंते से आरंभोतरए। बही वास्तव में प्रज्ञावान् है, बुद्ध है और आरम्भ से विरत सत्ममेयं ति पासहा। जेणं बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं । पलिछिदिय बाहिरगं च सोतं णिक्कम्मसी इह मच्चिरहि । उसका आचरण सम्यक है, ऐसा तुम देखो सोचो। विषयासक्ति से ही पुरुष बन्ध, घोर-बन्ध और दारुण-परिताप को प्राप्त करता है। अतः बाह्य परिग्रह आदि एवं अन्तरंग राग-द्वेष आदि आस्रवों का निरोध करके मनुषों के दोच रहते हुए निष्कमंदी बनना चाहिये। । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६] चरणानुयोग कम्फ ततो मनात गुराया फलं ३३३. प० - कायगुत्तयाए णं भरते ! जीवे कि जणय ? थी। -- मा. सु. १, अ. ४, उ. ४, सु. १४४-१४५ उनसे अवश्य ही निवृत्त होने । कायगुप्ति का फल उ०- कायगुयाए में संवरं जणयह संवरेगं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करे ॥ कायसमाहारणयाए फलं३३४.५० -कायसमाहारणयाए णं भन्ते ! जो कि जगह ? उ०- कायसमाहारणयाए णं चरितवे विसोहेड । दिसा महणायचरितं विमोच महत्वाचरितं विसोहेला चलारि केवलकम्मसे वेद । तपच्छा साह, बुजाइ मुख्य परि निवाए सक्खाणमन्तं करे । इंनियणिग्गह फलं ३३५० सोइन्दिय निरगणं भन्ते ! जीवे कि जनपद ? उ०- सोइन्दिय निम्यहेणं मणुग्रामम्ने सहं राम शेस निग्गहं जगह, तरपच्चइयं कम्म न बन्छ, पुध्वबद्ध निज्जरे । - उत्त.. २६, सु. ५७ के आश्रमों का निरोध कर देता है । कायसमाघारणा का फल ३३४. अ० भन्ते ! काय साधारणा (संयमयोगों में काया को भली-भांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०- काय रामाधारणा से वह चरित्रपर्यो (चार के प्रकारों को विशुद्ध करता है नारियों को विशुद्ध कर वाया चारित्र को प्राप्त करने योग्य वृद्धि करता है या ख्यात चारित्र को विशुद्ध कर केवल के विद्यमान चार कर्मो ( आयुष, वेदनीय, नाम और गोत्र ) को क्षीण करता है। उसके --सत. अ. २६, सु. ६० पश्चात् सिद्ध होता है, वुद्ध होता है, मुक्त होता है परिनिर्वाण की प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है । इन्द्रियनिग्रह का फल - ३३५. प्र० भन्ते ! श्रोत्रेन्दिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०- श्रीन्दिय के निग्रह से वह मनोश और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह राग-द्वेष निमित्तक कर्म बन्धन नहीं करता और पूर्व बद्ध कर्म को क्षीण करता है । ! ०न्तेन्द्रिय का निग्रह करने से दी क्या प्राप्त करता है ? उ०- चक्षु इन्द्रिय के निग्रह करने से वह मनोज और मनोरूमों में होने वाले राम और कान करता है। वह रामन्द्रयनिमित बन्धन नहीं करता और पूर्व-बढ कर्म को क्षीण करता है। प्र० भन्ते ! धाम- इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? प० क्खिन्दियनिग्रहेण भन्ते 1 जीवे कि जलय । येसु रागवोस निग्गहं जणयह, तप्यन्वद्दयं कम्मं न बन्ध पुरुवयं च निज्जरे । ०निगं ममुप्रामने प० पाणिन्दिय निरगणं भन्ते ! जीवे बैंक जनयद्द ? उ०- ग्रामदिनि मामले www.DANG राम-बोस निहं जणयह, सरपण्यइथं कथं न मन्धइ, पुश्ववसं निज्जरेह । प० - विम्मिदिय निग्गणं सन्ते ! जीवे कि जनपद ? सूत्र ३३२-३३५ कर्म अपना फल अवश्य देते हैं, यह जानकर ज्ञानी पुरुष काय गुप्ति का फल - २२२] [२०] अन्ते! नाय काय के प्रयोग से जीव क्या प्राप्त करता है ? काय गुप्ति से यह संदर (अशुभ प्रवृत्ति के निरोध) को प्राप्त होता है । संवर प्राप्त कायगुप्त जीव फिर पाप कर्म उ० घ्राण इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह राग-द्वेष निमित्तक कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्व वद्ध कर्म को क्षीण करता है । प्र०—भन्ते ! जिह्वा - इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३५-३३६ अप्रमत्त मुनि के अध्यवसाय चारित्राचार : गुप्ति-वर्णन [७३७ 30-जिबिम्बिय निग्गहेणं मणुनामणुग्नेसु रसेमु राग-दोस- ---जिह्वा-इन्द्रिय के नियह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ निग्गहं जणयह, तप्पाचदयं कम्म न बघड, पुष्यबळ रसों में होने वाले राग और ष का निग्रह करता है वह रागच निजरे। द्वेष निमित्तक कर्मबन्धन नहीं करता है और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षोण करता है: १०–फासिन्दिय निगहेणं मन्ते । जोवे कि जणयह ? प्र--भन्ते ! स्पर्ग-इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या करता है? उ०—फासिन्दिय निग्गहेणं मणुनामगुन्नेसु फासेमु राग-बोस- उ० - स्पर्श-इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अपनोश निग्गहं जणपड, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुग्वबळ स्पों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह करता है। वह राग-द्वेष च निउजरेड। ---उत्त. अ. २६, सु. ६४ से ६८ निमित्तक कर्म-बन्धन नहीं करता है और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षीण करता है। अप्पमत्तअग्झयमाणं-- अप्रमत्तमुनि के अध्यवसाय३३६. आवंती केआवंती लोगसि अणारंभजीबी, एतेसु चेव अगा- ३३६. इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे मनुष्यों रमजीवो। के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीती है। एत्योबरते तं झोसमाणे अयं संधी ति अवषम्यु, सायद्य आरम्भ से उपरत मुनि यह मनुष्यभव उत्तम अवसर है ऐसा देखकर को पोषण करता हुमा प्रमाद न करे। जे हमस्त विम्गहस्स अयं खणे ति भन्नेसी। "इस ओदरिक शरीर या यह अमूल्य क्षण है" इस प्रकार जो क्षणान्वेषी है वह मदा अपमान रहता है। एस मग्गे आरिएहि पवेरिते। यह (अप्रमाद का मार्ग) तीर्थकरों ने बताया है। उद्विते णो पमादए। साधक इसमें उस्थित होकर प्रमाद न करे। जाणित्तू दुक्खं पत्तेयं सातं । प्रत्येक का सुख और दल (आना-अपना स्वतन्त्र होता है यह) जानकर प्रमाद न करे । पुढो छंदा इह माणवा। इस जगत् में मनुष्य पृथक्-पृथक् अध्यवसाय वाले होते हैं, पुढो दुक्खं पवेदितं । उनका दुःख भी पृथक-पृथक् होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। से अविहिसमाणे अणवयमाणे पुट्ठो फासे विष्मणोल्लए । वह जानकर साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता एस समिया परिवाए विवाहिते। हुआ, असत्य न बोलता हुआ, परोषहों और उपसर्गों के होने पर उन्हें समभावपूर्वक सहन करे ! ऐसा साधक सम्यक् प्रत्रज्या वाला कहलाता है। जे अससा परावहि कम्मेहि उदाह ते आतंका फुसति । इति जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं है मदाचित् उसे उपराष्ट्र बोरे । ते फासे पुट्ठोऽधियासते । रोगातंक उत्पन्न हो जाय तो उन उत्पत्र दुःखों को भली-भांति नहन करे ऐसा तीर्थकर महावीर ने कहा है। से पुख्ख पेतं पसछा पेतं, भेउरधम्म, विसणधम्म, अधुवं. यह शरीर पहले या पीछे अवश्य छूट जायेगा । छिन्न-भिन्न अणितियं, असासतं, चपोषचदर्थ, विप्परिणाम धम्म । पास होना और विध्वंस होना इसका स्वभाव है। यह अध्रुव है, एवं स्वसंधि । अनित्य है, अशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय (घट-बढ़) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है। इस प्रकार शरीर-स्वभाव का विचार करे। समुपेहमाणस्स एगायतणरतस्स बह विप्पमुक्कस्स णस्थि माग जो इस प्रकार शरीर स्वभाव का विचार करता है, इस विरयस सिबेमि आत्म-रमणरूप एक आयतन में लीन रहता है तथा मोह ममता -आ. सु०१, अ० ५,०२, सु०१५२-१५३ से मुक्त है, उस विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है । ऐसा मैं कहता हूं। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ वरणानुयोग कापवण्ड का निषेध सूत्र १३३७-१३३८ se. कायदंडणिसेहो कायदण्ड का निषेध३३७. उड्वं अहं तिरिय विसासु सम्बतो सप्वाचति च णं पाडि- ३३७. ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं में सब प्रकार से यक्कं जीवेहि कम्मत्तमारंभेणं । एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर कम-सभारम्भ किया जाता है। तं परिणाय मेहावी व सर्व एतेहिं काएहि दर समारंभेज्जा यह जानकर मेधावी साधक स्वयं इन जीवों के प्रति दण्डणेवणेहिं एतेहि फाएहि र समारंभावेज्जा, वाणे समारम्भ न करे, न दूसरों से दण्ड समारम्भ करवाये और दण्टएतेहि काहि बंड समारंभते वि समणुनाणेजा। समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करें। में यण्णे एतेहि काहि व समारंमंति तेसि पिवयं अन्य जो भी इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड-समारम्भ करते लग्जामो। है उनके कार्य से भी हम लज्जित होते हैं । (ऐसा अनुभव करे ।) तं परिणाम मेहायो तंबा कर अणं वा जो बंडमी दर यह जानकर दण्डभीर मेधावी मुनि हिंसा दण्ड का अथवा समारंभेज्जासि । मृषावाद आदि किसी अन्य दण्ड का दहसमारम्भ न करे। -आ. सु. १, अ.८, उ.१, सु. २०३ अथिरासणो पावसमणो अस्थिरासन वाला पापश्रमण है१३३८. अथिरासणे कुक्कुईए. जत्थ तत्थ निसीयई। १३३८, जो स्थिरासन नहीं होता, बिना प्रयोजन इधर-उधर आसम्मि अणाउत्ते, पावसमगे ति बुच्चई॥ चक्कर लगाता है, जो हाथ, पैर आदि अवयवों को हिलाता --उत्त.अ. १७, गा.१३ रहता है, जो जहाँ कहीं बैठ जाता है-इरा प्रकार आसन (या बैठने) के विषय में जो असावधान होता है. वह पाप-श्रमण कहलाता है। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नं. १ अवशिष्ट पाठों का विषयानुक्रम से संकलन (कित पुरुलांक और सुत्रों के अनुसार पाठक अवलोकन करें) पृष्ठ १५ पृष्ठ १५ भगवओ धम्म-देसणा भगबान की धर्म देशनासूत्र २० (क) ततो गं समणे भगवं महावीरे उम्पमाणसणधरे सूत्र २०(क) अनुतर जान-दर्शन के धारक श्रमा भगवान अप्पागं च लोग च अभिसमिक्स पुवं वेवाणं महावीर ने केवलज्ञान द्वारा अपनी आत्मा और लोक को घमाइक्वंती, ततो एग्धा मणुसाणं । सम्यक प्रकार से जानकर पहले देवों को, तत्पश्चात् मनुष्यों को -आ.स. २. अ. १५, सु. ७७५ धर्मोपदेश दिया। पुण्ठ ३० सोच्चा वई मेधावी पंडिपागं निसामिया । तमि- सूत्र ३३. आचार्य की यह वाणी सुनकर. मेघाची साधक हृदयंगम याए धम्मे आरिएहि पोइए'। करे कि- आयों ने समता में धर्म कहा है। --आ. सु. १, अ. ५, इ. ३, सु. १५७ (ख-ग) पृष्ठ ३० पृष्ठ ३० सूत्र १३, (ख) बुविहे सामाइए पप्णते, तं जहा--- सूत्र ३३. (ख) सामायिक दो प्रकार की कही गई है, यया(१) अगारसामाहए वेध, (२) अणगारसामाइए (2) अगार सानायिक, (२) अनगार सामायिक । चेद। ठाणं. अ. २, उ. १, मु. पृष्ठ ३१ पृष्ठ ३१ सूत्र ३३. (ग) तिविहा पावणा पण्णता, सं जहा सूत्र ३३. (ग) प्रज्ञापना तीन प्रकार की होती है, यथा-- (१) पाणपण्णवणा, (२) बंसणपग्णवणा, (१) ज्ञान प्रशापना, (२) दर्शन प्रज्ञापना, (३) चरिसपण्णवणा। (३) चरित्र प्रज्ञापना। सिविहे सम्मे पण्णते, तं जहा सम्यक् तीन प्रकार का होता है, यथा-- (१) माणसम्मे, (२) सणसम्मे, (३) चरित- (१) ज्ञान सम्यक्, (२) दर्शन सम्प, (३) चरित्र सम्यक् । सम्मे। -ठाणं. अ. ३, सु. १९८/२-३ पृष्ठ ५१ पृष्ठ ५१ जिग्गंथाणं आयार धम्मो निर्ग्रन्थों का आचार धर्मसत्र ७.. (क) नाण-वेसणसंपन्न संजमे य तवे रयं। सूत्र १०. (क) ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, गणिमागमसंपन्नं उज्जाम्मि समोसा ॥१॥ आगम-सम्पदा से युक्त आचापं को उद्यान में विराजित देखकर - : - १ आ. सु. १, अ. ६, उ. ३, सु. २०६ (ख) -. ५.. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० ] चरणानुपन पृष्ठ ८० सूत्र ११३. रायाणो राममच्चा य माहना अबुव खत्तिया । हो ? | खि सोमिओ तो सह सिखाए मुसमाउलो, आइक्वक विक्णो ॥ ३ ज्ञान की उत्पत्ति के कारण fa ! मत्यकामा निर्मााणं सुणेह मे । आयारगोयरं भीमं सयलं दुरहिट्टियं ॥४॥ नन्नत्थ एरिसं वृत्तं जं लोए परमदुच्चरं । विद्वानभाइन्स न भूयं न भविरह ||५ का अखंड- फुडिया कायम्वर, तं सुणेह जहा तहा ॥ ६ ॥ ॥ - दस. अ. ६ ग्रा. १-६ पृष्ठ ५६ णाणस्स उपपत्ति अणुपत्ति-कारणा ८४. (ख) वो ठाणाई अपरियाता आया जो केवलमामि गिरोह जहा (१) आमेन (१) परिव दोहामा परियाता आया केवलमा भिथियो उपसंहा (१) आरंभेचे (२) परिम्हे चैव । -अ. अ. २, उ. १, नु. ५४-५५ चारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा(१) बंदति णाममेगे, णो वंदावेति, (२) वंदावेति णाममेगे, पो बंदति, (३) एगे दिव (४) एगे जो बंदति । धत्तारि पुरिसजाया पष्णता, तं जहा-(२) सारे गाममे मी सकारा (२) सकारावे नाम, भोसरे (३) एगे सबका रेह वि, सवकाशवेध वि (४) ए पो रेड को सकारा तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा(१) सम्मामेति भाग (२) सम्माणायेति नामसि परिशिष्ट १ राजा और राजमन्त्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय निश्चलात्मा होकर भवन्! आपका आभार-गोचर है?" ऐसा पूछे जाने परदेशात शन्त सर्वप्राथियों के लिए सुखावह शिक्षाओं से समायुक्त और गरम विचक्षण गणी उन्हें बढ़ते है। हे राजा आदि जनो ! धर्म के प्रयोजनभूत मोक्ष की कामना वाले निर्ग्रन्थों के भीम (कायर पुरुषों के लिए) दुरधिष्ठित और सम्पूर्ण उपचार गोवर को मुझ से सुनो। जो लोक में अत्यन्त दुश्चर है, वह श्रेष्ठ आचार जिन शासन के अतिरिक्त कहीं नहीं कहा गया है। सर्वोच्च मोक्ष स्थान को प्राप्त कराने वाला ऐसा आचार अन्य मत में न कभी था और न ही भविष्य में होगा । बालक हो या बुद्ध, अस्वस्थ हो या स्वस्थ, सभी को जिन गुणों का अर्थात् आचार-नियमों का पालन अखण्ड और अस्फुटित रूप से करना चाहिए, वे गुण यथातथ्यरूप में मुझ से सुनो। पृष्ठ ५६ ज्ञान की उत्पत्ति अनुत्पत्ति के कारण सूत्र ८४ (ख) आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध अभिनिवोधिक ज्ञान को प्राप्त नहीं करता । आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जानकर और छोड़कर आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है । पृष्ठ ८० सूत्र ११३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा- (१) कुछ पुरुष बन्दना करते है, किन्तु मरते नहीं; (२) कुछ पुरुष बन्द करते है, करते नहीं, (३) कुछ पुरुष वन्दना करते भी है और करवाते भी है, (४) कुछ पुरुष न वन्दना करते हैं और न करवाते हैं । पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा (१) कुछ पुरुष सत्कार करते हैं, किन्तु वाले नहीं (२) कुछ पुरुष सत्कार करवाते है, किन्तु कत नहीं (३) कुछ पुरुष सरकार करते भी हैं और करवाते भी है. (४) कुछ पुरुष न सरकार करते हैं और न करवाते हैं । पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा (१) कुछ पुरुष सम्मान करते हैं कि करवाते नहीं, (२) कुछ पुरुष सम्मान करवाते हैं, किन्तु करते नहीं, Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ^^^ (३) एवं सम्मावि, सम्मागातिथि P (४) एगे जो सम्मामेति णो सम्माणावेति । पृष्ठ १६५ अणउत्थिवानं दंसणपण्णवणा पृष्ठ १७८ सूत्र २७४. ठाणं. अ. ४, उ. १. अन्य affesों को दर्शन प्रज्ञामन २२. (मेलि आधारगोयरे यो सुते इह आरंभट्टी, अणुवयमाणा 'हणपाणे', दातमाणा, हणतो यावि समगुजाण माणा, सु. २५६, ६-८ जाग्रहस पवई सुतियाकडे विवा कल्लाणे ति वा पाए सि वा साहू ति का असाहू ति बा सिद्धीति वा सिद्धी ति वा रिति वा निरएवा जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवे माणा । एत्य वि जाणह अकहा । -आ. सु. १, . उ. १, सु. २०० ( ग ) एवं सिणो सुक्खाते जो सुषण्णते धम्मे भवति । -आ. सु. १, अ. प उ १, सु. २०२ (क) जेके लोन अतिरिमाया अम्मेण पुट्ठा मादिति । आरंभसता गहिया य लोए, धम्मं ण जागति विमुखहे ॥६॥ पुढो य छंदा छह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुडो य वायं । बालरस पकुश्व बेहं, अदुवा अप्रिमादति । - आ. सु. १ . उ. १ सु. २०० (क) ग्रहण करते हैं । पृष्ठ २०५ सूत्र ३०४ (ख) तभो क्या पण्णत्ता, रमसंजयस्स ||७|| - सूय. मु. १, अ. १० . १६-१७ तं जहा -- हमे वए मज्झिमे बए पछि ए तिहिं वहिं माया केवलेणं संषरेणं मंबरेज्जा सं जहा पढने थए, मज्झिमे ए, पच्छिमे वए । - ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६३ (३) कुछ पुरुष सम्मान करते भी है और करवाते भी हैं, (४) कुछ पुरुष न सम्मान करते हैं और न करवाते हैं । पृष्ठ १६५ अन्यतीयिकों की दर्शन प्रज्ञापना २६१. (मनुष्यलोक में कई साधकों को भावारीवर सुपरिचित नहीं होता 1 वे आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं । ये इस प्रकार कथन करते हैं कि- "प्राणियों का वध करो" अथवा स्वयं यह करते हैं और प्राणियों का वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं । अथवा इस प्रकार का बाचरण करने वाले वे अदत्त वा (वे इस प्रकार पण करते हैं--) दुष्कृत है। कल्याण है, पाप है । साधु है, बसा है। तिथि है। गर्मि नई है? (art नरक है, नरक नहीं है। इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनकी पूर्वोक्त प्ररूपणा में नहीं है, ऐसा जानो । कोई भी हेतु इस प्रकार उनका धर्म न तो युक्ति-संगत होता है और न ही सुप्ररूपित होता है । पृष्ठ १७८ सूत्र २७४. इस लोक में जो आत्मा को क्रियारहित मानते हैं और दूसरे के पूछने पर मोक्ष का अस्तित्व बतलाते हैं, वे लोग आरम्भ में आसक्त और विषय-भोगों में गृद्ध हैं। वे मोक्ष के कारणरूप धर्म को नहीं जानते । जगत में मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इस कारण कोई क्रियावाद को मानता है तो कोई उससे विपरीत अक्रियावाद को तथा कोई ताजे जन्मे हुए बच्चे के शरीर को काटकर अपना सुख मानते हैं, वस्तुतः ऐसे असंयमी लोग दूसरों के साथ बंद हो बढ़ाते हैं । पृष्ठ २०५ सूत्र ३०४ ( ख ) तीन प्रकार के व्य कहे गये हैं, पत्राप्रथम वय, मध्यम वय और अन्तिम वय । दोनों ही क्यों में वारमा सम्पूर्ण होता है । यथा प्रथम वय, मध्यम वय और अन्तिम वयं । के द्वारा संवृत Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२] चरणानुयोग ब्रह्मचर्य के अनुकूल जन परिशिष्ट १ सूत्र ३.४. (ग) बो ठागाई अपरिपाणेत्ता आयः पो केवलेगं संब- सूत्र ३०४. (ग) आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने रेणं संवरेज्जा, तं जहा और छोडे बिना आत्मा सम्पूर्ण संवर के द्वारा संबूत नहीं होता। आरंभे अंध, परिगहे वेव। वो गाई परियाणेत्ता आया केवले संघरेणं आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जानकर और संवरेज्जा, तं जहा छोड़कर आत्मा सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होता है। आरभे चेब, परिग्गहे वेष। -ठाणं, अ, २, उ. १,नु.५४-५५ पृष्ठ २२५ पृष्ठ २२५ सूत्र ३२५. (ख) ततो गं समणे भगवं महावीरे उप्पक्षणाणसण- सूत्र ३२५.६(खतत्पश्चात् केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमग धरे गोतमाधीगं समगाणं णिगंयाण पंच महत्व. भगवान महावीर ने गौतम आदि थमण-निर्ग्रन्थों को (लक्ष्य करके) पाई समावणाई छज्जीवणिकायाद्रं आहवखंति भावना सहित पंच महायतों और पृथ्वीकाय से लेकर उसकाय भासति परवेति, तं जहा-पुतवीकाएन्जाक्-तस- तक षड़जीवनिकायों के स्वरूप का व्याख्यान किया। सामान्य. काए। -आ.सु २, अ. १५, सु. ७७६ विशेष रूप से प्ररूपण किया। पृष्ठ ३२२ पृष्ठ ३२२ बंभचेराणुकुलाजणा ब्रह्मचर्य के अनुकूल जनसत्र ४५८. (ख) दो ठाणा अपरियाणेता आया जो केवर बंभ- सूत्र ४५८. (ब) आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने चेरवासमाषसेम्जा तं जहा और छोड़े बिना आत्मा सम्पुर्ण ब्रह्मचर्पवास को प्राप्त नहीं आरंमे घेव, परिग्गहे चेव । करता। वो तापाई परियाणे जजा आया केवलं बंभचेरवास- आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जानकर और मावसेज्जा, तं जहा ____ छोड़कर बात्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्वदास को प्राप्त करता है। आरंभे घेव, परिग्गहे चेव । -ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ५४-५.५ पृष्ठ ४१४ __पृष्ठ ४१४ : सूत्र ६२७. (ख) सचित्त पढवीआइए निसिज्माकरण पायच्छित्त सुताई-- सचित्त पृथ्वी भादि पर निषा करने के प्रायश्चित्त सत्र-. सूत्र ६१७. (ख) जे मिक्स माउग्गामस्स मेहण-वडियाए "अगंतर- जो भिक्ष स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से चित्त हियाए पुढवीए" णिसीयावेज्ज वा, तुपट्टावेज्जया, पृथ्वी के निकट की भूमि पर स्त्री को विटाता है या मुनाता है णिसीयात बा, तुयावेत वा साइज्जद । अथवा बिठाने वाले का या मुलाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहण वडियाए 'सास- जो भिक्षु स्त्री के सात मैथुन सेवन के संकल्प से स्निग्ध णिकाए पुढवीए" णिसीयावेज ना, तुयट्टावेज भूमि पर स्त्री को विठाता है या सुलाता है अथवा बिझने वाले वा, णिसोयावतं वा, तुयट्टायेत वा साज्जा का या सुलाने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण-वडियाए "सस- जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से चित्त रक्खाए पुढवोए" णिसीपावेज वा, तुपट्टावेज रज युक्त भूमि पर स्त्री को बिठाता है या सुलाता है अथवा बा, णिसीयावेत वा, तुपट्टावेत वा साइजह । बिठाने वाले का या सुनाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुग-यग्यिाए "मट्टिया- जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से मचित्त कराए पुदवाए” णिसीयावेज वा, तुपट्टावेज्ज था, मिट्टी युक्त भूमि पर स्त्री को बिठाला है या मुलाता है अथवा णितीयावेत या, तुपट्टावेत वा सादज्जा। बिठाने वाले का या मुलाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेलण-वजिशाए "चित्त- जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से मचित्त मंताए पुरवोए" णिसीयावेज वा, तुपट्टावेज वा, पृथ्वी पर स्त्री को बिठाता है या मुलाता है अथवा बिठाने वाले णिसीयात वा, तुपट्टावेत या साहज्जइ। मा सुलाने वाले का अनुमोदन करता है। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ अक-पल्पक में निवद्यादि करने के प्रायश्चिस सूत्र [७४३ जे भिक्ष माउग्गामस्स मेहुण-वडियाए "चित- जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से सपित्त मंताए सिलाए" णिसीयावेज्ज वा, सुपट्टावेज्ज वा, शिला पर स्त्री को निठाता है या सुलाता है अथवा बिठाने वाले णिसीयात वा, तुयट्टायेतं वा साइम्जइ। का या सुलाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खु माउग्गामस्स मेनुग-वडियाए “चित्त- जो भिक्षु स्त्री के साथ मथुन सेवन के संकल्प से सर्विस मंताए लेलुए" णिसोयावेज था, युयट्रावेज्ज वा, मिट्टी के ढेले पर या पत्थर के टुकड़े पर स्त्री को बिठाता है या णिसीयावत वा, तुयथावतं वा साइज्जह । सुलाता है अथवा बिठाने वाले का' या मुलाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्यू माउग्मामस्स मेहण टियाए कोलावा- जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन के संकल्प से घुन या दीमक संसि वा दारुए जोवपट्टीए; सडे, सपाणे, लग जाने से जो काट जीव युक्त हो उस पर तथा जिस स्थान सबीए, सहरिए. सोते. सउदए. सउत्तिग-पग- में अडे, त्रप्त जीव, बोज, हरी, घास, ओस, पानी, कीड़ी आदि दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणगंसि णिसीयावेज्ज वा, के बिल, बोलन-फूलन, गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले हों, वहां तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावतं वा, तुपट्टावेतं वा पर स्त्री को बिठाता है या मुलाता है अथवा बिटाने वाले या साइज्जह। सुलाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवग्जइ घाउम्मासिय परिहारट्टागं उसे चातुर्मामिक अनुवातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्धाइयं । —नि. ३.७, सु. ६५-७४ आता है। अंक-पलियंकसि निसिज्जाकरण पायच्छित सुताई- अंक-पल्वंक में निषद्यादि करने के प्रायश्चित्त सूत्र जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा, पलिय कसि जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से स्त्री को वा, णिसीयावेज वा, तुषट्टावेज्ज वा, णिसीयावतं वा, अर्धपत्यका आसन में या पूर्ण पल्यंकासन में बिठाता है या सुलाता तुपट्टावेत वा साहज्जा । है अथवा बिठाने वाले का या सुलाने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्बू माउन्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा, पलियं- जो मिक्षु स्त्री के साथ बुन सेवन के संकल्प से स्त्री को कसि वा. णिसीयावेत्ता वा, तुयट्टावेत्ता वा, असणं वा-जाध- एक जंघा पर अर्थात् गोद में या पल्यंकासन में बिठाकर या साइमं वा अणग्धासेग्ज वा अगुप्पाएज्ज वा, अणुग्धासंतं वा सुलाकर अरान-पावत् –स्वाद्य खिलाता है या पिलाता है अणुप्पाएंत वा साइज्जइ । अथवा खिलाने पिलाने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवजह घाउम्मासिय परिहारहाण अणु ग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. .७, सु. ७५-७६ आत है। आगंतारादिसु निसिज्जाइकरण पापच्छित्त सुत्ताई- धर्मशाला आदि में निषद्यादि करने के प्रायश्चित्त सत्र जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियए आगंतारेसु था, जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से स्त्री को आरामागारेमु था, गाहावइफुले दा, परियावसहेसु वा धर्मशाला में, बगीचे में, गृहस्थ के घर में या परिव्राजक के स्थान णिसीयावेज्ज वा, तुपट्टायेज्ज वा, णिसीयावेतं वा, तुपट्टायत में बिठाता है या सुलाता है अथवा बिठाने वाले या सुलाने वाले या साइजह । का अनुमोदन करता है। मे भिवस्तू माउरमामास मेहुणवडियाए आगंतारेसु वा, जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से स्त्री को आरामागारसुवा, गाहावह कुलस वापरियावसहेसु वा, धर्मशाला में, बगीचे में, गृहस्थ के घर में या परिवाजक के स्थान णिसीयावेत्ता वा, तुयावेत्ता वा, असणं वा-जाव-साहम में बिठाकर या सुनाकर अगन-यावत् -स्वाद्य खिलाता है या वा अणुग्घासेज्ज बा, अगुपाएन वा, अणुग्यासंतं वा, पिलाता है अथवा खिलाने-पिलाने वाले का अनुमोदन करता है। अणुपाएंत या साइज्म । तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारट्टावं अणुग्धा- उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) इयं । --नि. उ.७, मु. ७७-७८ आता है। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४] चरणयोग पोयल एमखेवणाईए पछि सुताईजे भिक्खू माजगाम मेहुणवडियाए अमणभाई पोग्गलाई नोहर, नोहरं वा सा ज्जइ । मेडिया पुगल प्रक्षेपणादि के प्रायश्वित सूत्र जेमिमा उकिरड, उवरितं वा साइज मोगलाई तं सेवमाणे आवज्ज चाउम्मासयं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं । - नि. प. ७, सु ८०-८१ पपक्खीण अंग संचालणाई पायच्छित्त सुत्ताईजे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अलयरं पसुजायं वा या पक्स का पुष्ांस का सीसंसि वा गहाय संचाले संचालतं वा साइज्जइ । जे भिक्खु भाग्ामहल मेहणवडियाए अग्नयर सुजायं वा परजायं वा, सोमंसि कहें या कलिचं वा, अंगुलियं वा सागं या अणुष्पवेसिता संचालेह, संचालेलं वा साइज्जइ । जेमिमाह मेवडियाए अन्य नावा पविसजाय वा अयसिरियत्ति कट्टु आलिंगेज्ज वा परिस्सएज्ज वा परिचुम्बेज वा छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा आलिगंत या परिस्तयंतं वा परिघुवंतं वा छितं वा विच्छिवंत या साइज्ज तं सेवमाणे आवश्य धाउम्मासि यं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं । - नि. उ. ७, सु. ८२-८४ भत्तपाणाई आयाण पवाण करणं पायच्छित्त साई भगवविपाए असणं बाजार-साइ या देह देतं वा साइज । जे मिक्लू मागामस्स नेणवडियाए असणं वा जाव - साइमं वा, परिच्छ, परिच्छ वा साइन । जे भिक्खू माजगामस्त मेणवाडयाए वत्थं वा जाव-पायया वा साइ जे भिक्खू माउन्गामस्स मैगवजियाए हथं वा जाब-पायगं वा पहियाहेडा " परिशिष्ट १ युगल प्रक्षेणादि के प्रायश्चित सूत्र जो भिक्षु स्त्री के साथ मधुन सेवन के संकल्प से अमनोज गजों को निवाला है या निकालने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से मानोश पुगलों का प्रक्षेप करता है या प्रक्षेप करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुमशक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। पशुपक्षियों के अंग संचालनादि के प्रायश्चित्त सूत्र जो शुत्रा मैसे किसी भी जाति के पशु या पक्षी के (१) पाँच को (२) को), (३) पूंछ को था ( ४ ) मस्तक को पकड़कर संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी के श्रोत अर्थात् अपान द्वार था योनिद्वार में काष्ठ, पत्री, अंगुली या बेंत आदि की शलाका प्रविष्ट करके संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है । जो शिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी को "यह स्त्री है" ऐसा जानकर उसका आलिंगन (शरीर के एक देश का स्पर्श) करता है, परिष्वजन (पूरे शरीर का स्पर्श करता है, मुख का चुम्बन करता है या नख आदि से एक बार या अनेक बार छेदन करता है या आलि गन आदि करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चानुमसिन अनुद्धांतिक (परिहारस्थान) आता है । भक्त-मान आदि के वादान-प्रदान करने के प्रायश्चित सूत्र— जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से उसे अशन - यावत्-- स्वाव देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है । जो भी केस मेन सेवन के से उससे अशन — यावत्-स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से उसे वस्त्र - यावत्-पादपोंछन देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से उससे वस्त्र - यावत्पादप्रोछन ग्रहण करता है या महण करने का अनुमोदन करता है । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ वाचना देने मेने के प्रायश्चित्त सत्र [७४५ तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणु घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक (परिहारस्थान) प्रायश्चित्त -नि, उ. ७, सु. ८५-८८ आता है। वायणा आयाण-पयाण पायच्छित्त सुत्ताई घाचना देने लेने के प्रायश्चित्त सूत्रजे भिक्खू माउग्मामरस मेट्रणज्यिाए सम्झायं वाएइ, धाएंतं जो भिक्ष स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से सूत्रार्थ था साइज्जद। की वाचना देता है या वाचना देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू माजग्गामस्स मेहगवटियाए सज्मायं पडिच्छद जो भिक्ष श्री के साय मैथुन सेवन के संकल्प से सूत्रार्थ परिच्छंतं या साइज्ज। की दाघमा लेता है या वाचना लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहास्दाणं अणुघाइयं । रसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) –नि उ.७, सु. ८९-६० आता है। आकारकरण पाच्छित्त सुतं आकार करने का प्रायश्चित्त सूत्र . जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अग्रणयरेणं इंचिएणं जो भिक्ष स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प में किसी भी आकारं फरेड, करेंतं वा साइजा। इन्द्रिया से (अर्थात् आँस्त्र हाथ आदि किसी भी अंगोपांग से) किसी भी प्रकार के आकार को बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाण अणुग्घाइयं। उसे चातुर्माशिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ७. सु. ६१ आता हैं। पृष्ठ ४१६ पृष्ठ ४१६ मूत्र ६१५. (ख) जे भिक्खू माउम्पामस्स मेणबडियाए अण्णयरं सूत्र ६१८. (स) जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से तेइच्छं आउट्टइ, बाउत वा साइम्जा। किसी प्रकार की चिकित्सा करता है या करने वाले का अनुमोदन तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारहाणं उसे पातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त अणुग्धाइयं । -नि. उ. ७, सु. ७६ आता है। पृष्ठ ४१८ पृष्ठ ४१५ अंग सवालणां पायच्छित्त सुर--- अंग संचालन का प्रायश्चित्त सूत्रसूत्र ६२३. (ख) जे मिक्खू माउणामस्स मेहुणजियाए अक्वंसि सूत्र ६२३. () जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से था, उरुसी वा, उपरसि वा, थर्णसि वा गहाय न्त्री के अक्ष, ऊरु, उदर या स्तन को ग्रहण कर मनास्ति करता संचालेह, संचालतं वा साइज्जइ । है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्पान (प्रायश्चित्त अणुग्याइयं । -नि.उ.७, सु. १३ आता है। पुष्ठ ४२० वृष्ठ ४२० मेहुण बडियाए बत्थ-करणस्स पायच्छित्त सुत्ताई- मंथन के संकल्प से वस्त्र निर्माण करने के प्रायश्चित्त सूत्रसूत्र ६२६, (ख) जे मिक्खू माउम्गामस्स मेहण बडिपाए- सूत्र ६२६. (ख) जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से . (१) आपणाणि वा, (१) मूषक आदि के चर्म से निष्पन्न दस्त्र, (२) सहिणाणि वा, (२) सूक्ष्म वस्त्र, (३) सहिणकल्लाणागि वा, (३) सूक्ष्म व सुशोभित बस्त्र, (४) आयाणि वा, (४) अजा के मूक्ष्म रोम से निष्पन्न बस्त्र (५) कायाणि वा. (३) इन्द्रनीलवर्णी कपास से निष्पन्न वस्त्र, (६) सोमियाणि वा, (६) सामान्य नपास से निष्पन्न सूती वस्त्र, Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६] घरणानुयोग मैथुन के संकल्प से वस्त्र निर्माण करने के प्रायश्चित्त सत्र परिशिष्ट १ (७) दुगुल्लाणि वा, (७) गौड देश में प्रसिद्ध या दुगुन वृक्ष से निष्पन्न विशिष्ट कपास का वस्त्र () तिरोड पट्टाणि वा, (८) तिरीड वृनावयव से निष्पन्न बन्त्र, (e) मलपाणिवा, (E) मलयागिरि चन्दन के पत्रों से निष्पन्न वन्त्र, (१०) पत्तण्णाणि वा, (१०) बारीक वालो-संतुओं से निष्पन्न वस्त्र, (११) बसुयाणि वा, (११) दुगुल वृक्ष के अभ्यंतरावयव से निष्पा बस्त्र, (१२) चिणंसुयाणि वा. (१२) चीन देश में निष्पन्न अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र, (१३) वेसरागाणि चा, (१३) देश विशेष के रंगे वस्त्र, (१४) अमिलाणि वा, (१४) रोम देश में बने वस्त्र. (१५) गजलाणि वा, (१३) चलने पर आवाज करने वाले वस्त्र, (१६) फालिहाणि वा, (१६) स्फटिक के समान स्वच्छ वस्त्र (१७) कोयवाणि वा, (१७) वस्त्र विशेष = "कोतवोवरको", (१८) कंबलाणि वा, (१६) पावराणि वा, (१६) कम्बल विशेष ='खरडग पारिगादि पावरगा"। (२०) उद्दाणि वा, (२०) सिन्ध देश के मफ के चमं से निष्पन्न वस्त्र, (२१) पेसागि था, (२१) सिन्धु देश के सूक्ष्म चमं वाले पशु से निष्पन्न वस्त्र, (२२) पेसलेसाणि वा, (२२) उसी पशु की सूक्ष्म पश्मी से निष्पन्न बस्त्र, (२३) किण्हनिगाईणगाणि वा, (२३) कृष्ण मृग चर्म, (२४) नीलमिगाईणगाणि या (२४) नील मृग चर्म, (२५) गोरमिगाईणगाणि वा, (२५) गौर मृग चर्म, (२६) कणमाणि वा, (२६ स्वर्ण रस से लिप्त गाक्षात् स्वर्णमय दिखे ऐसा बन्ध, (२७) कणयंताणि बा, (२७) जिसके किनारे स्वर्ण रस रंजित किसे हो ऐसा वस्त्र, (२८) कणगपट्टाणि वा (२८) स्वर्ण रसमय पट्टियों से युक्त वस्त्र, (२६) कणगखचियाणि वर, (२६) सोने के तार जड़े हुए वस्त्र, (३०) कणगफुसियाणि वा, (३०) सोने के स्तबक या फूल जड़े हुए वस्त्र (३१) बघाणि वा, (३१) व्याघ्र चर्म, (३२) विवधाणि वा, (३२) चीते के चर्म, (३३) आभरण-चित्ताणि वा, (३३) एक विशिष्ट प्रकार के आभरण युक्त वस्त्र, (३४) आभरण-विचित्ताणि वा करेइ. करेंतं वा (३४) अनेक प्रकार के आभरग युक्त बस्त्र बनाता है या साइजह। बनाने वाले का अनुमोदन करता है। सूत्र :२६. (ग) जे भिक्खू माजग्गामस्स मेटण-वखियाए आइणाणि सूत्र ६२९. (ग) जो भिक्षु स्त्री के साथ में वुन सेवन के संकल्प से वा-जान-आभरण-विचित्ताणि था घरेड, धरत वा मुषक आदि के चर्म से निष्पत वस्त्र । यावत्---अनेक प्रकार के साइजइ। आभरण गुरू वन्च धारण करता है या धारण करने वाने का अनुमोदन करता है। सूत्र ६२६. (घ) जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहग-वडियाए आरणाणि सूत्र ६२६ (घ) जो निक्ष स्वी के साथ मैबुग सेवन के संकल्प से या-जाब-आमरण-विचित्ताणि वा पिगटेड, पिणतं मूषक आदि के चर्म से निष्पा बस्त्र -यावत्-अनेक प्रकार के वा साइजह। आभरण युक्त वस्त्र पहनता है या पहनने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवश्शा चाउम्मासिय परिहारट्टाणं उसे चातुर्मागिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्णइयं -नि.उ.७, सु. १०-१२ आता है। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ अकेली स्त्री के साथ रहने के प्रायश्चित तत्र [७४७ पृष्ठ ४२३ पृष्ठ ४२३ एगाणीए इत्थीए सद्धि संवासकरण पायच्छित सुताई- अकेली स्त्री के साथ रहने के प्रायश्चित्त सुत्रसूत्र ६३६. (ख) जे भिक्खू (१) आगंतारेसि वा, (२) आरामागा- गूत्र ६३६. (ख) जो भिक्षु (१) धर्मशाला में, (२) उद्यान गृह रसि वा, (३) गाहावदकुलंलि बा, (४) परिवार में, (३) गृहस्थ के घर में या (४) परित्राजक के आश्रम में ससि बा. एगो एगिस्थिए सद्धि विहारं वा फरेइ, अकेला अकेली स्त्री के साथ रहता है, स्वाध्याय करता है, अशन सन्मापं वा करेड, असणं वा-जाब-साइम वा -यावत् -- स्वाद्य का आहार करता है, उच्चार प्रस्रवण परठता आहारेड, उपचार वा पासवणं वा परिठ्ठयेह, है, या कोई साधु के न कहने योग्य कामकथा कहता है या नहुने अग्णयर दा अणारियं पिटुटर असमगपाउग्गं कहं वाले का अनुमोदन करता है । कहेछ, कहेंतं वा साइज्जा । जे भिक्खू (१) उजाणसि वा, (२) उज्जाणगिहंसि जो भिक्षु (१) नगर के समीप ठहरने के स्थान में, १२) था, (३) उज्जायसालसि वा, (४) णिज्जाणंसि नगर के ममीप ठहरने के गृह में. (३) नार के समीप ठहरने वा. (५)णिज्जाणगिहंसि वा, (६) णिज्जाणसा- की शाला में, (४) राजा आदि के नगर निर्गमन के समय ठहरने लसि वा एगो एपिरियए सद्धि विहार वा करेइ के स्थान में, (५) पर में, (६) शाला में अकेला अकेली स्त्री के -जाब-असमणपाउणं कहं कहेइ, कोत या साथ रहता है यावत्-साधु के न करने योग्य कामकया कहता साइज्जइ। है या कहने वाले का अनुमोदन करता है।। जे भिक्खू (१) असि वा, (२) अट्टालयसि वा, जो भिक्ष (१) प्राकार के ऊपर के गृह में, (२) प्राकार के (३) चरियसि वा, (४) पगारंसि वा, (५) दारंसि झरोखे में, (३) प्रकार य नगर के बीच के मार्ग में, (४) प्राकार में, वा, (६) गोपुरंसि वा एगो एगिरिधए सरि बिहार (५) नगर द्वार में या (६) दो द्वार के बीच के स्थान में अकेला वा करेइ-जाब-असमणपाजगं कह कहेइ, कहेंत वा अकेली स्त्री के साथ रहता है-यावत्-साधु के न कहने योग्य साइज्जद। कामकथा कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू (१) दग-मग्गसि वा, (२) दग-पहंसि जो भिक्षु (१) जलाशय में पानी आने के मार्ग में, (२) वा, (३) बग-तीरंसि बा, (४) इंग-ठाणसि वा जलाशय से पानी से जाने के माम में, (२) जलाशय के तट पर, एगो एगिथिए सद्धि विहारं वा करेइ-जाव-असम- (४) जलाशय में, अकेला अकली स्त्रो के साथ रहता है णपाउग्गं कहं फहेइ, कहेंतं वा साइज्जह। -मावत-साधु के न बहने योग्य कामकथा कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू (१) सुण्ण-गिहंसि था, (२१ सुपण जो भिक्षु (१) शून्य गृह में (२) शून्य थाना में, (३) सालसि वा, (३) भिषणविहंसि वा, १४) भिरण- खण्डहर गृह म, (४) खण्डहर गाला में, (५) झोपड़ी में, (६) सालसि वा. (५) कूडागारंसि वा, (६) कोवा- धान्यादि के कोठार में अकेला अकेली स्त्री के साथ रहता है गारपि वा एगो एगिथिए सद्धि विहारं ना करेह -पावत्-साधु के अयोग्य कामकथा कहता है या कहने वाले -जाव-अस मणपाउम्मं कहं कहेइ, कहेंतं वा का अनुमोदन करता है। साइज्जइ। जे भिक्खू (१) तणगिहसि वा, (२) तणसालसि जो भिक्षु (१) तृण गृह में, (२) तृण शाला में, (३) शालि वा, (३) तुसगहंसि वा, (४) तुससालसि दा, आदि के तुष गृह में, (४) तुष शाला में (५) मूंग, उड़द आदि (५) मुसगिहसि वा (६) भुससालसि वा एगो के भुस गृह में, (६) भुसशाला में अकेला अकेली स्त्री के साथ एगिथिए सरि विहारं वा फरेइ-जाव-असमणपा- रहता है-पावत्- साधु के अयोग्य कायकथा कहता है या उम्र कह कहेइ, कहेंतं वा साइज्जइ। कहने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खू (१) जाणसालसिवा, (२) जाणगिहंसि जो भिक्षु (१) यान गृह में, (२. यान शाला में, (३) बाहन वा, (३) बाहगिहसि बा, (४) वाहणसालसि गृह में या (४) वाहन गाला में अकेला अकेली स्त्री के साथ वा एगो एगिस्थिए सदि विहार वा करेइ-जाव- रहता है- यावत्-साधु के अयोग्य कामकथा कहता है या कहने असमणपाडगं कह कहेइ, कहेंत या साइजछ। वाने का अनुमोदन करता है। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ चरणानुयोग राजा और उनकी रानियों को देखने का प्रायश्चित्त सूत्र परिशिष्ट १ जे मिका (१) पणियगिहंसि वा, (२) परियसा- जो भिनु (१) विक्य झाला (दुकान में, (२) विक्रय गृह संसि वा, (३) कुविगिरमि वा, (४) कुवियसा- (हाट) में, (३) चूना आदि बनाने की शाला में या ४) चूना सि वा एगो एगिस्थिए सद्धि विहारं का करेइ बनाने के गृह में अकेला बकेली स्त्री के साथ रहता है यावत्-जात्र-असमणपाउम्मं कहं कहेड, कहेंतं वा साह- साधु के अयोग्य कामकथा कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू (१) गोण्सालसि था, (२) गोणगिहंसि जो भिक्षु (१) गौशाला में, (२) गौगृह में, (३) महाशाला वा, (३) महाकुसंसि वा, (४) महागिहंसि वा एगो में या (४) महागृह में अकेला अकेली स्त्री के साथ रहता है एपिरिषए सशि विहारं वा फरेह-जाब-असमण- -पावत्-साहु के अयोग्य कामकथा कहता है या कहने वाले पाउगं कह कह कहेंतं वा साइज्मइ । का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारदाणं उसे चातुर्मासिक अनुपातिक (परिहार स्थान) प्रायश्चित्त अणुग्धाइयं । नि, उ, ८, सु. १-१ आता है। पृष्ठ ४३२ पृष्ठ ४३२ सूत्र ६४७. इतेहि पंचहि महब्बतेहि पणवीसाहिं य भाव- सूत्र ६४७. इन (पूर्वोक्त) पाँच महानतों और उनकी पच्चीस णाहि संपन्ने अणगारे अहसुत्तं अहाकप्पं, अहा- 'भाजनाओं से सम्पन्न अनगार यथावत, यथाकल्प और यथामार्ग मगं अहातचं सम्मं काएण कासित्ता पालित्ता यथार्थ रूप में इनका काया से सम्यकः स्पर्ण कर, पालन कर. सोहिसा तौरित्ता किट्टित्ता आराहिता अगाए शोधन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्व का कीर्तन करके. अणुपालित्ता भवति । __ आराधना कर, भगवान् को आज्ञा के अनुसार इनका पालन करने -आ. सु. २, म. १५, सु. ६२ वाला होता है । पृष्ठ ४३५ पृष्ठ ४३५ सूत्र ६५६. (ख) ते अगवकममाणा, अपतिवातेमाणा. अपरिग्गहे. मुत्र ६५६. (ख) वे काम-भागों को साकांक्षा न रखने वाले, माणा, णो परिगहावंति सध्यावति घणं लोगसि, प्राणियों की हिमा न करने वाले और परिप्रह नहीं रखने वाले ऐसे निर्ग्रन्थ मुनि रामग्र लोक में अपरिग्रहवान् होते हैं। णिहाय दंडं पाहि पावं कन्म अकुम्बमाणे, एस जो प्राणियों के लिए दण्ड का त्याग करके हिसादि पाप कर्म महं अगये विवाहिते। नहीं करता, उसे ही महान नियंग्य कहा गया है। ओए जुदमस्स खेतपणे, उववायं चयणं च णच्चा। राग-द्वेष से रहित छु तिमान् अर्थात् संयम का ज्ञाता, जन्म - आ. सु., अ.८,.३, सु. २०६ (ख) और मरण के स्वरूप को जानकर शरीर की भनित्यता का अनुचिन्तन करें। पृष्ठ ४६२ गृष्ठ ४६२ राईणं तह तेसि इत्थियाणं अवलोयणस्म पायच्छित राजा और उनकी रानियों को देखने के प्रायश्चित्तत्र सुत्ताईसूत्र ७१०. (ख) जे मिक्खू रणोतियाणं मुदिया मुखाभि- सूत्र ७१०. (ख) जो भिक्षु शुद्ध वंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा सित्तरणं आगच्छमाणाण वा णिगच्छमाणाण वा के आने जाने के समय उन्हें देखने के संकल्प से एक कदम भी पयमवि चक्षुईसण-डियाए अभिसंधारेइ अभि- लता है या चलने वाले का अनुमोदन करता है । संघारत वा साइम्जा। जे भिक्खू रणो खत्तियाण मृदियाग मुडानि- जो भिक्ष शुद्ध वंशज मूभिषिक्त धत्रिय राजा की सर्व सित्ताणं इत्थीओ सम्वालंकार-विभूसियाओ पयमवि अलंकारों से विभूषित रानियों को देखने के संकल्प से एक दम चपखुर्वसण-वडिपाए अभिसंधारेइ अभिसंहारत वा भी चलता है या चलने वाले का अनुमोदन करता है। साइजह । त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्भासियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्मासिक अनुदघातिक परिहारस्थान) प्रायश्चित्त अणुग्धाइयं । --नि. उ.६, सु. ८-९ आता है। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I परिशिष्ट १ पृष्ठ ४६९ ग्राम-राम वसीकरणाईनं पायच्छित सुताई सूत्र ७२२.क्यू गायारविवयं अलीकरे, अतीकरता (ख) साइज्जइ । जे नि ग्राम रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र पृष्ठ ४५८ सूत्र ७४६. गामारविक्रयं [अच्चीकरे, बच्चो या साइज्जइ । जे भिक्खू गरमा रक्खियं अत्थोकरे, अत्यीक वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जद उचाइयं । पृष्ठ ४६६ रणा रक्क्षय सीरवाणं पापच्छिल मुसाई सूत्र ७२२. (ग) में भिक्खू खणार विखयं अत्तोकरे, अतीक साइज्जइ । मासि परिहारट्ठा - नि. उ. ४, सु. ४०-४२ पृष्ठ ४७४ क्रिस पंचमहालगा सूत्र ७२५ जे भिक्खु रण्णारस्वियं अधीक रेड, अच्ची करतं वा साइज्जइ । जे भिक्यू रण्णारक्खियं अस्थीकरेड, अत्यीक वा साइज्जइ । तं सेवमध्ये बावज्जद मासियं परिहारद्वाणं उग्धादयं । -नि. उ. ४, सु. ४६-४८ उम्म सायं हि सत्यादागाई लोगंसि तं विज्जं परिजाणिया || - सू. सु. १, आ. ६, मा. १० wwwwww पृष्ठ ४६६ राज्य रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित -- वा सूत्र ७२२. (ग) जो भिक्षु राज्य रक्षक को अपने वश में करता है या वग में करने वाले का अनुमोदन करता है । गुणकीर्तन करता है या जब विहराहि जोग, अयाणा पंचा दुतरा । असासनमेव पक्कने, वीरेह सम्पदेयं सू. सु. ६, अ. २, उ. १ मा ११ ४०) रणोलिया मुदियानं मुद्धामा मंसखायाण वर, मच्छ-खाण वा छविखायाण पृष्ठ ४६६ ग्राम रक्षक को वश में करने आदि के प्रायश्चित्त सूत्र - ७२२. (क्षक को अपने पक्ष में करता है या वश में करने वाले का अनुमोदन करता है । सूत्र जो भिक्षु ग्राम रक्षक की प्रशंसा गुण कीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु ग्राम रक्षक को अपनी तरफ आकृष्ट करता है या आकृष्ट करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे मासिक उपातिक (परिहारस्थान ) प्रायश्वित आता है। जो भिक्षु राज्य रक्षक की करने वाले का अनुमोदन करता है। www. fuve जो भिक्षु राज्य रक्षक ने अपनी तरफ आकृष्ट करता है या आकृष्ट करने वाले का अनुमोदन करता है । पृष्ठ ४७४ भिक्षु के पांच महतोंका उसे सामिपातिक परिहारस्थान प्राि आता है। - सूत्र ७२५ (घ) असत्य भाषण, स्त्री एवं परिग्रह का ग्रहण, बिना दिये वस्तु लेना एवं प्राणी हिया से लोक में वध के स्थान है। विद्वान् मुनि इन्हें जानकर इनका त्याग करे। पृष्ठ ४८८ 1 सूत्र ७४६. हे पुरुष तू यत्न करता हुआ, पचि सनिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर विचरण कर, क्योंकि सूक्ष्मप्राणियों से परिपूर्ण मार्ग को उपयोग और यतना के बिना पार करना दुष्कर है। अतः ग्रास्त्र में या जिनशासन में संयम पालन की जो प्रेति बताई है, उसके अनुसार संयम पथ पर चलना चाहिए । सभी तीर्थकरों ने इसी का ही सम्यक् प्रकार से उपदेश दिया है। पृष्ठ ५६२ पृष्ठ ५१२ बहिया निवारा आहार व पायच्छित सुतं बाहर गये हुए राजा के आहार ग्रहण करने का प्राय स्थित सूत्र- J व सूत्र ९४७) आदि खाने लिये बाहर गये हुए शुद्ध वंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750 बरणानुयोग ओवध सम्बन्धी कीतादि बोवों के प्रायश्चित्त सत्र परिशिष्ट / वा, बहिया णिग्गयाणं असणं वा, जाव-साइम वा अशन-पावत्-स्वाध को ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले पजिग्गाहे, परिग्गाहेंतं वा साइना का अनुमोदन करता है। तं सेवमार्ग पर घाममा परिदामं . उदासिक अनुद्घात्तिक (परिहारस्थान) प्रायश्चित्त उग्घाय। -नि. उ.६.सु.१० आता है। पृष्ठ 560 गृष्ट 560 ओसहस्स कीयाई दोसाणं पायपिछत्त सुत्ताई औषध सम्बन्धी क्रीनादि दोषों के प्रायश्चित्त सूत्रसूत्र 11. (ख) भिक्षु वियर किगड, किणावे की आहट्ट सूत्र 111. (स) जो भिक्षु औषध (किमी रोग विशेष की दवा) देज्जमाणे परिगाहेछ, पसिगाता साइजा। वरीदता है, खरीददाता है या साधु के लिये खरीदकर देने वाले से ग्रहण करता है अयवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वियपामिश्वर पामिन्चावेई, पामिश्च जो भिक्षु औषध उधार लाता है. उधार लिवाता है या राइटर बेजमा परिमाहेर, पशिगाहेंवा उधार लाने वाले से ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का साइम्जा / __ अनुमोदन करता है। जे मिक्ल बिया परिपट्रा, परिपट्टावेह, परिट्टियं जो मिक्ष औषध को बदलता है बदलवाता है या बदलवा. आहट रेजमा परिग्गाहेइ. पडिग्गानं वा वर लाने वाले से ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुसाइना। मोबन करता है। मे भिम विय अच्छेज्ज, अणिसिदठं, अमिह जो भिक्षु छीन कर लाई हई, स्वामी की आजा विता आहट बेग्जमा पडिग्गाहेड, पडिग्यातं पा लाई हुई अमेधा सामने लाईई औषध को ग्रहण कारता या साहज्जा। ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्स गिलागस्स अदाए परं तिथं बियर- जो भिक्षु ग्लान के लिए तीन दत्ति (हीन मात्रा से अधिक दत्तो पडिग्गाहेर पडिग्गाहेंतं वा साइजा। औषध ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिलू विपर गहाय गामाणुगाम वाया जो भिक्षु औषध माय में लेकर प्रामानुग्राम विहार करता है बुइग्जत वा साम्जद। ___ या विहार करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वियां गालेह पालाइ गालिपं आहट्ट जो भिन्न औषध को स्वयं गालता है, गलवाता है या गालदेजमागं परिपाइ परिणाहतं वा साइजान कर देने वाले से ब्रह्म करता है अथवा प्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजा चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक (परिहारस्थान) प्रायश्चित्त जग्वाह -नि उ. 16. मु.१-७ आता है। RER