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________________ ३३२ वरणामुयोग वेश्याभों को गली में आवागमन निषेध सूत्र ४७६-४७६ पुरवं बंटा पच्छा फासा, पुथ्वं फासा परछा वंडा । विषय सेवन करने के पहले अनेक पाप करने पड़ते हैं, वाद में भोग भोगे जाते हैं, अथवा कभी पहले भोग भोगे जाते हैं बाद में उसका दण्ड मिलता है। इच्चेसे कसहा संगकरा भवंति परिलेहाए आगमेसा प्राणवेज्ज इस प्रकार के काम मोग कलह और आसक्ति, पैदा करने अणासेवणाए। दाले होते हैं। स्त्री-संग ,सं होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को आगम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझकर आत्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे। अर्थात् स्त्री का सेवन न करने का मुद्दा संकल्प करे। से गो काहिए, जो पासगिए, णो संपसारए, णो मामए, जो ब्रह्मचारी कामकथा न करे, (वामनापूर्ण दृष्टि से) स्त्रियों कतकिरिए, वहगुते अज्मपसंशे परिवगए सवा पावं ।। को न देने, परस्पर कामुक भावों-संकेतों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्व न हरे, शरीर की साज-सज्जा से दूर रहे, वचन गुप्ति का पालक वह मुनि वाणी से कामुक आलाप न करे, मन को भी काम-वासना की ओर जाते हुए नियन्त्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे। एतं मोणं समणुवासेज्जाप्ति । ति बेमि ।। इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक -बा. सु० १,०५, उ०४, सु. १६४.१६५ प्रकार से बसा ले-जीवन में उतार लें। ११. गणिका-आवागमणणिसेहो ११. वेश्याओं की गली में आवागमन निषेध४७७. न चरेज वेससामते बंभरवसाणुए। ४७७ ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि वेश्या बाड़े के समीप न जाये । बंभयारिस्स तस्स होज्जा तत्थ विसोतिया ॥ वहाँ दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका हो सकती है साधना का स्रोत मुड सकता है। अणायणे घरंतस्स संसरगीए अधिकच गं । अस्थान में बार-बार जाने वाले के (वेश्याओं का) संसर्ग होज्ज वयागं पीला सामग्णम्मि य संसओ। होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और श्रामण्य में सन्देह हो सकता है। सम्हा एवं बियाणित्ता वोस दुग्गइवणं । इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त वजए वेससामंतं मुणी एगंतमस्सिए ॥ (मोक्ष मार्ग) का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या-बाड़े के -दस० अ० ५, उ०१, गा०६-११ समीप न जाये । बंभचेरस्स अट्ठारस गारा ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार .. ४७८. अट्ठारसविहं बमे पण्णत्ते, तं जहा .. ४७८. ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है जैसे(१) ओरालिए कामभोगे पेव सयं मणेणं सेवइ, १. ओदारिक (शगेर वाले मनुष्यों-तियंचों के) काम भोगों को न मन से स्वयं सेवन करता है, (२) नोवि अण्णं मणेणं सेवाइ, २. न अन्य को मन से सेवन कराता है, (३) मजेणे सेवंतं पि अयं न समाजाशक, ३. सेवन करते हुए अन्य को न मन से अनुमोदना करता है। (४) ओरालिए कामभोगे व सर्थ यायाए सेवा, ४, औदारिक - कामभोधों को न वचन से स्वयं सेवन करता है, (५) नोषि अण्णं वायाए सेवायेह, ५. न अन्य को बचन से सेवन कराता है, (६)वायाए सेवेत पि अण्ण न समजाणद, ६. सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना नहीं करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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