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________________ सूत्र ४७८.४७६ अब्राह्म-निषेध के कारण चारित्राचार ३३३ (७) ओरालिए कामभोगे व सयंकाएणं सेवइ, ७. औदारिक काम-भोगों को न स्वयं काया से सेवन करता है, (4) गोवि य अण्णं फाएणं सेवावे. ८. न अन्य को काया से सेवन कराता है, (९) काएग सेवंत पि अण्णं न समणुकाबई । ६. सेवन करते हुए अन्य की काया से अनुमोदना नहीं करता है, (१०) विष्वे करमभोगे णेब सयं मणेण सेवति, १०. दिव्य-(देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न स्वयं मन से सेवन करता है, (११) भो वि अपणं मणे सेवावेह, ११. न अन्य को मन से सेवन कराता है, (१२) मध्ये सेवंतं पि अण्णं न समजाणा, १२. सेवन करते हुए की न मन से अनुमोदना करता है, (१३) विम्वे कामभोगे व समायाए सेवावेद, १३. दिव्य-कामभोगों को न स्वयं वचन से सेवन करता है, (१४) गोवि अण्णं वायाए सेवावेइ, १४. न अन्य को वचन से सेवन कराता है, (१५) वायाए सेवंतं पि मणं म समणुजाण । १५. सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना नहीं करता है, (१६) निवे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ । १६. दिव्य-कामभोगों को न स्वयं काया से सेवन करता है, (१७) कोवि अगं काएणं सेवायेह, १७. अन्य को काया से रोवन कराता है, (१) कारणं सेवंतं पि अग्णं न समणुजाणइ ।' १८, सेवन करते हुए अन्य की काया से अनुमोदना नहीं राम.१८, सु. १ करता है। SIXE अब्रह्म निषेध के कारण-३ अधम्मस्स मूलं अधर्म का मूल है - १७९, अबभरियं घोरं, पायं तुरहिट्ठियं । ४.७६. अब्रह्मचर्य जगत में घोर-सबसे भारी प्रमाद का कारण नायरति मुणी लोए, भेयाययणज्जियो । है, दुर्बल व्यक्ति ही इसका सेवन करते हैं तथा इसका सेवन दुरधिष्ठित- धृणा एवं जुगुप्सा जनक है, चारित्र भंग के स्थान (भदावतन) से दूर रहने वाले मुनि इसका आचरण नहीं करते। मूलमेयमहम्मस महानोससमुस्स। __ वह अब्रह्मचर्य अधर्म का भूल (बीज-जड़) है और महान तनहा मेहुण संसलिंग निरगंथा बज्जयंति ॥ दोषों की राशि ढेर है। इसलिए निग्रंथ मैथुन का; संमगं काके - दसवै. ६१५-१६ वर्जन करते हैं। १ (क) तीन प्रकार के मथुन है—१. दिव्य, २. मानुष्य और ३ तैयंक्य ! इन तीनों से विरति ही ब्रह्मचर्य है। यदि प्रश्येक विरति के तीन करण तीन योग से विकल्प प्रस्तुत किये जाते तो विकल्प होते। इस प्रकार तीनों विरति २१. विकल्प होते हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य के १६ भेदों में औदारिक कामभोगों के नौ विकल्पों के अन्तर्गत मनुष्यों और तिर्यञ्चों की मथुन विरति समाविष्ट कर ली गई है। मेष नौ विकल्पों में केवल दिव्य कामभोगों की विरति ही कही गई है। (ख) उत्त. अ.३१, गा.१४ । (ग) इसी प्रकार अब्रह्म के १८ प्रकार हैं आव० श्रमण सूत्र ४ में ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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