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________________ ३४२] चरणानुयोग इत्वीरागणिसेहो ४८०, जे छये से सागारियं ण सेवे । कट्ट एवं अविनागतो दितिया मंग्स बालि आ. मु.१.५.१.१२ नो रम्बसी गिज्ज्जा, गंडवच्छासु उणेगचितासु । जाओ पुरिसं पोलिसा, खेलति जहा व दाह ॥ नारीसु नोपनिषना इस्यो विश्वज अणगारे ! धम्मं च पेस नन्वा, तत्य ठवेज्ज भिक्खू अध्याणं ॥ न मिति महावीरे वाऊ व जालमचेति, विद्या लोगंसि इथिओ || सेति आदिमाते से अभा बंधम्मुषका नावखंति जीवितं ॥ छोड़ दे उत्त, अ. द गा १८ १६ को स्थापित करे । सनस्कि अह सेवा घोडा पाव मस् एवं विवेगमाबाट संवासो न कापती दिए । लम्हा उ वज्जएं इत्थी, विसलित्तं व कंटगं गच्चा । जोए कुली सी आवासिय से वि स्त्री-राग निषेध जे एवं उचं अणुगिया. अण्णयरा हू ते कुसीला तस्सिए वि से भिक्खु, यो विहरे सह णमित्यी ॥1 अदिरा हाहि धातोहि अव दासोह महती वा कुमारी संघ सेवा अनगारे ॥ अणाति होलि गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणस्सोऽसि ॥ स्त्री-राग निषेध - ४०. ओ कुशल है यह मैथुन सेवन नहीं सेवन करके छिपाता है या अनजान काम) की दूसरी मूर्खता है। जिनके दक्ष में गांठें (ग्रन्थियाँ) हैं, जो अनेक चित्त (कामनाम वाली है, जो पुरुष को प्रलोभन में खरीदे हुए दास की भाँति उसे नचाती है (वासना की दृष्टि से ऐसी ) राक्षसी स्वरूप (साधना विघातक) स्त्रियों में आसक्त नहीं होना चाहिए। - सू. सु. १, अ. १५, गा. ८-९ ( असंयमी) जीवन जीने की आकांक्षा नहीं करते । सूत्र ४५० करता और जो मंथुन बनता है यह उस मूर्ख अनुसार स्त्रियों में न हो उनके को धर्म को श्रेष्ठतम जानकर उसी में अपनी आत्मा पूर्वकृत कर्म नहीं है. यह महावीर्यवान् नहीं मरा ( और नहीं जन्मता) जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है, वैसे ही वह (साधक) लोक में प्रिय होने वाली स्त्रियों को पार पा जाता है, (वह स्त्रियों के वश में नहीं होता) । जो साधक जन स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सर्वप्रथम मोक्षगामी होते हैं । समस्त (कर्म) बन्धनों से मुक्त वे साधुजन जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, वैसे ही स्त्री के वश में होने के पश्चात् बहु साधु पश्चाताप करता है । इस प्रकार अपने आचरण का विपाक जानकर रायद्वेषरहित भिक्षु को स्त्री के साथ संवास (स) करना नहीं कल्पता है । स्त्रियों को विप से लिप्त कांटे के समान समझकर साधु स्त्रीसंसर्ग से दूर रहे | स्त्री के वश में रहने वाला जो साधक गृहस्थों के घरों में अकेला जाकर अकेली स्त्री को धर्मकया करता है वह भी "निर्ग्रन्थ" नहीं है । दो इस (स्वी संवर्ग) या स्थाज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त है, वह अवश्य ही कुशीलों, (पाश्वस्थ अवसभ आदि चारित्रों में से कोई एक है। इसलिए बहु चाहे उत्तम उपस्वी भी हो तो भी स्त्रियों के साथ बिहार न करे । भिक्षु अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं, घाय-माताओं अपना दासियों या बड़ी उम्र की स्त्रियों अथवा कुंआरी कन्याओं के साथ भी वह अनगार सम्पर्क परिचय न करे । किसी समय (एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को) देखकर ( उस स्त्री के) ज्ञातियों अथवा हितैषियों को अप्रिय लगता है। गोते है यह साधु कामभोगों में है. भ भी है। ये साधु से कहते हैं (तुम इसका पोषण करो) क्योंकि इसके पुरुष हो ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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