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________________ सूत्र ४८० स्त्री-राग निषेध चारित्राचार [३३५ अगुण पिकाहानी पर कविताको पति समणं पि बवासीणं, साथ दि ताव एगे कुष्पंति । अधुबा भोयहि णत्येहि, त्यो दोससंकिणो होति ॥ कुबंशि संपवं साहि, पाभट्ठा समाहिजोगेहि । तहा समगा गसमेंति, आतहिताय सण्णिसेज्जाओ ॥ मह गिहाई अवहटु, मिस्सौभायं पत्यता एगे। सुषमागमेव पति, बायावीरिवं कुसीलाणं ॥ सुख पति परिसाए, मह रहस्सम्मि दुक्कर करेलि । जाति य गं सहापेवा, माइल्ले महासवेऽयं सि ।। सपं तुक्कचन वयह, आटो हि पकत्यती बाले । बाजुबीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्यो ।। उदासीन तपस्वी साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देख कर कोई-कोई व्यक्ति ऋद्ध हो उठते हैं । अथवा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन साधु के लिए बना. कर रहते या देते देखकर वे उस स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लगते हैं। समाधि योग से भ्रष्ट पुरुष ही उन स्त्रियों के साथ संसर्ग करते हैं इसलिए श्रमण आत्महित के लिए स्त्रियों के निवास स्थान (निपद्या) पर नहीं जाने। बहुत से लोग घर से निकलकर प्रबजित होकर भी मिथभाव अर्थात् कुछ गृहस्व का और कुछ साधु का पों मिला-जुला आचार अपना लेते हैं। इसे वे मोक्ष का मार्ग ही कहते हैं। (सच है) कुशीलों के वचन में ही शक्ति होती है. (कार्य में नहीं) ___वह (कुशील) भिक्षु सभा में स्वयं को शुद्ध कहता है, परन्तु एकान्त में पास करता है । तथाविद् (उराको अंगचेष्टाओंआचार-विचारों एवं व्यवहारों को जानने वाले व्यक्ति) उसे जान लेते हैं कि यह मायावी महाधूतं है। बाल (अज) साधक स्वयं अपने दुष्कृत-पाप को नहीं कहता, तथा गुरु आदि द्वारा उसे अपने पाप को प्रकट करने का आदेश दिये जाने पर भी वह अपनी बड़ाई करने लगता है। तुम मैयुन की अभिलाषा मत करो, इस प्रकार बार-बार प्रेरित किये जाने पर बह कुशील ग्लानि को प्राप्त हो (मृ)ि जाता है (अप जाता है या नाराज हो जाता है।) कुछ पुष स्त्रियों की पोषक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रह चुके हैं, अतएव स्त्रियों के कारण होने वाले खेदों के ज्ञाता (अनुभवी) हैं एवं प्रज्ञा से सम्पन्न हैं फिर भी वे स्त्रियों के वश में हो जाते हैं। (इस लोक में परस्त्री-सेवन के दण्ड रूप में) उसके हाथपर भी छदे जा सकते हैं, अरवा उसकी चमड़ी और मांस भी उखेड़ा जा सकता है. अथवा उसे आग में डालकर जलाया जाना भी सम्भव है, और उसका अंग छीलकर उस पर नमक भी छिड़का जा सकता है। कान और नाक छेदन एवं कण्ठ का छेदन (मला काटा जाना) तो सहन कर लेते हैं, परन्तु यह नहीं कहते हैं कि 'हम अब फिर ऐसे पाप नहीं करेंगे।" राग-द्वेष से मुक्त होकर अकेला रहने वाला भिक्षु कामभोग में कभी बासक्त न बने । भोग की कामना उत्पन्न हो गई हो तो उससे फिर विरक्त हो जाये। कुछ श्रमण-भिक्षु जैसे भोग भोगते हैं, उनके भोगों को तुम सुनो। रसिया वि इत्स्यिशेसेसु, पुरिसा हस्थिवेदखतग्णा। पग्णासनिता वेगे, गारोण वसं उवकसति ।। अवि हाप-पााछेदाए, अवुवा वर्मत उक्कते। अधियताऽभितवणाह, सच्छिय खारसिक्षणाई च।। अनुसन-गासिराछेज्म, कंठच्छेदण तितिक्खंति। इति एल्प पावसंतता, न य बॅति पुणो म काहि ति ।। -सूय. सु. १, अ. ४, उ. १, मा. १०-२२ ओए सदा ण रज्जेज्जा, मोगकामी पुणो विरज्जेग्जा। भोये समणाण सुहा, जह मुंति मिलगो एगे ।।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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