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सूत्र ४८-४६
छन्मस्थ-यावत्-परमावधियों का क्रम से सिब होने न होने का प्ररूपण
धर्म-प्रशापना
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जस्त गं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं सोपसमे कडे जिसवे ज्ञानावरणीय कमों का क्षयोपशम हुआ है, यह केवली भबइ, से ण सोच्चा केवलिस्स वा-जान-तप्पक्खिय- से-पावत्- केवली पाक्षिक उपा मिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त उपासियाए या केवलिपन्नतं धम्म लमज्जा सवणयाए। धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। से लेण?णं गोयमा एवं उच्च
गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता हैबस नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खमओयसमे करे जिसके जानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम दृआ है, वह केवली भवड, सेणं सोच्दा केवलिस वा-जाव-तपक्षिय- से -यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर केवली प्रजप्त उवासियाए वा केवलिपन्नतं धम्म सभेज्जा सवणयाए। धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। जस्म नाणावरणिज्जाणं कम्मा खओवसमे नो करें जिसके ज्ञानाबरणीय कमों का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह भवइ. से णं सोच्चा फेवलिस्त वा-जाव-तपक्खिय- केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उपामिका से सुनकर केवली सवासियाए वा केलिपन्नतं घम्म नो लभेज्जा प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण प्राप्त नहीं करता है।
सबणयाए। -वि. स. १, उ, ३१, सु. ३२ छउमस्य जाय परमाहोरिणं कमसो असिज्मणाइ-सिज्झ- छद्मस्थ-- यावत्-परमावधियों का क्रम से सिद्ध होने न णा परूवणं
होने का प्ररूपण४९. १०-छउमस्थे गंभंते ! मणसे तोतमणतं मासयं समयं, ८९. प्र.-भगवन् ! क्या बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में
केवलेग संजमेणं, केवलेग संवरेणं, केवलेणं बंभनेर. छद्मम् मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवासेणं, केवलाहि पवरणमाताहि सिन्झिसु--जान- वास से और केवल (अष्ट) प्रवचनमाता (के पालन) से मिद्ध हुआ सरुवदुक्खाणमंतकरिसु?
है, बुद्ध हुआ है,-यावत् समस्त दुःखों का अन्त करने वाला
हुआ है ? ०-गोयमा ! नो इण? सम? ।
उ० हे गौतम ! यह अर्ध समर्थ नहीं है। प. से केपट्टणं अंते ! एवं बुनर-"मणूसे तीतमतं प्र.-भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि सासतं समय-जाव- अंत फरसु?"
पूर्वोक्त छद्मरथ मनुष्य-यावत्- समस्त दुःखों का अन्तकर नहीं
हुआ? ज०-गोयमा ! जे केह अंतकरा वा, अंतिमसरोरिया वा उ.-गौतम ! जो भी कोई मनुष्य, कर्मों का अन्त करने वाले,
सम्वदुक्खामत करेंसुवा, करेंति वा, करिस्संति वा, चरम शरीरी हुए है, अथवा समस्त दुःखों का जिन्होंने अन्त किया सम्वे ते उत्पननाण-दसणधरा अरहा जिणे केवली है, जो अन्त करते हैं या करेंगे, वे सब उत्पन्न ज्ञानदर्शनधारी भविता सप्तो पस्छा सिमंति–जाव-सब्वदुक्खाण- अहन्त, जिन और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध हुए हैं, बुद्ध हुए मंतकरेंसु वा, करेति वा, करिस्संति वा, से तेणटुपं हैं, मुक्त हुए हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, और उन्होंने समस्त गोपमा ! एवं बुबह-"मणूसे तोतमणतं सासत दुःषों का अन्त किया है, वे ही करते हैं और करेंगे, इसी कारण समय-जाव--सम्बदुक्खाणमंतं करसु।" हे गौतम ! ऐसा कहा है कि-यावत्-समस्त दुःखों का अन्त
किया। पडापन्ने वि एवं चेव, नवरं "सिजाति" माणियम्वं वर्तमान काल में भी इसी प्रकार जानना । विशेष यह है कि
"सिद्ध होते हैं', ऐगा कहना चाहिए । अणागते वि एवं चेष, नवर "सिजिमसति" माणि- तथा भविष्यकाल में भी इसी प्रकार जानना । विशेष यह है यहवं ।
कि 'सिद्ध होंगे', ऐसा कहना चाहिए। जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ चि, सहा परमाहोहिओ जैसा छद्मस्थ के विषय में बाहा है, वैसा ही आधोवधिक वि । तिग्णि तिणि झालावगा भाणियावा । और परमाधोवधिक के विषय में जानना चाहिए और उसके तीन
-वि. स. १, उ.४, सु. १२-१५ तीन आलापक कहने चाहिए।