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मत्र ४४७-४४८.
तुतीय महावत की पांच भावना
चारित्राचार
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एवं साहारण-पिडपायला समिति जोगेण माविमो भबह इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा आचरण विच पात्र समिति अंतरप्पा ।
के योग से भावित होता है। निच्च अहिकरण-करण-कारायण-पावकम्मबिरसे दत्तमणुनाय वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने व कराने के ओग्गहराई।
दोष से विरत होता हुआ दत्त-अनुज्ञात अवग्रह रुचि बाला
बनता है। पंचमग-१. साहम्मिरसु विणो पजियम्यो।
पंचम --(१) साधर्मी के प्रति विनय का प्रयोग करना
चाहिए। २. उचगरण-पारणासु विणओ पउंजियायो ।
(२) रोगी आदि के सेवा के लिए, पारणा तपश्चर्या की
समाप्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए। ३. वायण-परियट्टमासु विणको पउंजियवो ।
(३) वाचना-नये ग्रन्थ के अध्ययन में तथा परिवर्तना
सूत्रार्थक के दुहराने में विनय का प्रयोग करना चाहिए । ४. वाण-गहण पुख्छणासु विणओ पउँजिपथ्यो ।
(४) सार्मिकों को आहारादि देने में या उनसे माहारादि ग्रहण करने में अपना सूत्रार्थ की पृच्छा में विनय का प्रयोग
करना चाहिए। ५. निमखमण-रवेसणासु विणओ पक्षियम्यो ।
(५) उपाथय से निकलते समय या उपाश्रय में प्रवेश करते
समय विनय का प्रयोग करना चाहिए । ६. गुवसु साहमु तवस्सीसु य विणओ पउंजियम्को।
(६) गुरुओं की, साधुओं की, तपस्वियों की बिनय करनी अग्नेसु य एवमाविसु बसु कारणसएसु विणओ पजियग्यो। चाहिए इत्पादि ऐसे अनेक प्रसंगों में विनय का प्रयोग करना
चाहिए। विणोषियो, तषो विधम्मो, सम्हा विणओपजियायो। "विनय तप है. तप धर्म है. इसलिए ओं. साधाओं
तपस्वियों के प्रति बिनय का प्रयोग करना चाहिए।" एवं विगएण भाविमो भवई अंतरप्पा ।
इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा बिनय से भावित होता है णिच्वं अहिगरकरण-कारावण-पावकम्म बिरए, बत्तमण- वह दुर्गति में ले जाने वाले पाप कर्मों के करने व कराने के दोषों ज्णाय ओग्गहराई।
से सदा विरत होता हुआ दत्त-अनुशात के अवग्रह की रुचि वाला --प. सु. २, अ.३, सु. १०-१५ बनता है। उपसंहारो
उपसंहार-- ४४८. एवमिगं संवरइस बारं सम्म संवरियं होह सुष्पणिहियं, ४४.. इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रूप से सुरक्षित
एवं पंचहि वि कारणेहि मण-वय-काप-परिरविवाहि णिचं सुसेवित इन पाँच भावनाओं से संवर का ग्रह द्वार-अस्तेय महावत आमरणतं च एस जोगो यग्यो घिदमया मइमया अणासको सम्यक् प्रकार से संवृत-आचरित और सुप्रणिहित स्थापित हो अकसुसो अण्दिो अपरिस्साबो असकिसिट्टो सुखो सम्पजिण- जाता है। अतएव धैर्यवान् तया मतिमान् साधक को चाहिये कि मणुण्णाओ।
बह मानव का निरोध करने वाले, निर्मल (अकलुग) निच्छिद्रकर्म-जल के प्रवेश को रोकने वाले, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेमा का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात
इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे । एवं सइयं संवरबारं फासिय पालियं सोहियं,
इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) दत्तानुज्ञात नामक तृतीय मंबरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित-निरतिचार आचरित
या शोभाप्रदायक सीरिवं
तीरित-अन्त तक पार पहुंचाया हुआ किट्टियं,
कीर्तित-दूसरों के समक्ष आदरपूर्वक कथित