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________________ ३१०] बरणानुयोग अन्यतोथिकों द्वारा अवसावान का आक्षेप - स्थविरों द्वारा उसका परिहार सूत्र:४८..४६ भारहियं आगाए अणुवालियं रखा। अनुपालित-निरन्तर सेवित और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आराधिन होता है। एवं गयमुणिणा भगवया पण्णवियं पहवियं पसिवं सिद्धं इस प्रकार भगनान् ज्ञातमुनि महावीर स्वामी ने इस सिद्धसिबयर सासणमिग माधविर्य सुवेसियं पसायं । वरषासन का कथन किया है. विशेष प्रकार से विवेचन किया -4. सु. २, अ, ३, सु. १६ है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिये इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त कल्याणकारी-मंगलमय है। अन्नउस्थिएहिं अदत्ताचाणाक्खेवो-थेरेहि तपरिहारो अन्यतीथिकों द्वारा अदत्तादान का आक्षेप - स्थविरों द्वारा उसका परिहार४४१ तेणं कालेणं सेणं समएणं रापगिहे नपरे । वणओ। गुण- ४४६. उस काल उस समय में राजगृह नगर था। (औषपातिक सिलए बेइए वषणओ-जाव-पुडविसिलापट्टओ वण्णओ तस्स सूत्र में वर्णित चम्पानगरवत् जानना) गुणशीलक चैत्य था, गं गुणसिलपास चेयस अदूरसामसे बहवे अन्नउस्थिषा यावत् - पृथ्वी शिलापट्टक था। (यह वर्णन औपपातिक सूत्र परिषति । के पूर्णभद्र वैत्य की भांति समझना तज्ञा शिलापट्टा तक का वर्णन जानना) उस गुणशीलक चैत्य के आस-पास (इर्द-गिर्द) बहुत से अन्यतीर्थिक रहत थे। तेणं कालेणं तेर्ग समएणं समणे भगवं महावीरे आविगरे उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्म के जाव-समोसते-जाव-परिसा परिगया। आदि संस्थापक-यावर पधारे। (यह वर्णन बोपपातिकवत् जानना)-यावत्-परिषद् धर्मोपदेश सुनकर वापिस लोट गयी। तेणे कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अनेक अंतेवासी थेरा भगवंतो आसिसम्पन्ना कुलसम्पन्ना जाव-जीवि- शिष्य जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न-यावत् ---जीवन की आशा रहित यासा-मरणमयविष्पमुकका समस्त भगवनो महावीरस्स और मरण भव से रहित स्थविर भगवन्त श्रमण भगवान महावीर अदूरसामसे उड्ट जाणू अहोसिस हाणकोट्टोवगया संजमेणं के आन-पास घुटने खड़े रखकर, सिर नीचे झुकाकर, ध्यान गोष्ट तवसा अप्पा मावेमाणा-जाव-विहरति । को प्राप्त होकर संयम-तप से आत्मा को भाविन करते हुए विचरते थे। भए पं से अपरियथा जेणेव मेरा भगवन्तो तेणेव उवा- एकदा वे अन्यतीथिक जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ आये । गच्छति, उवाछित्ता ते घेरे भगवन्ते एवं बयासी -"तुम्मे उनके पास आकर स्थविर भगवन्नो को इस प्रकार कहा .."हे अजो तिविहं तिविहेणं असंजय-अधिरय अपडिय-अपचच- आर्यो ! तुम विविध-विविध से (तीन करण तीन योग से) वखाय पावकम्मा सकिरिया असंबुडा, एगंतवजा, एगंतवाला असंयत, अविरत, अप्रतिहत पापकर्म वाले और अप्रत्याख्यान या विभवह । पाप कर्म वाले हो, क्रिया राहित हो, असंवृत्त हो, एकान्त हिंसा कारक, एकान्त अज्ञानी भी हो।" तए णं ते घेरा भगवन्तो ते अनउस्थिए एवं वयासी - ततः स्थविर भगवन्तों ने अन्यतीथिकों में इस प्रकार पूछा--- "केण कारणेगं अज्जो ! तिषिह तिविहेगं असंजय-अविरय- "हे आर्यो ! किस कारण से हम विविध-त्रिविध से असंयतअप्पडिय-अप्परचक्खाय-पावकम्मा-जाव-एगंतबाला यावि अविरत-अप्रतिहत पापकर्म और अप्रत्याख्यान पाप कर्म वाले भवामो?" ---यावत-एकान्त अज्ञानी है ?" तए णं ते अन्न उरिषया मेरे भगवन्त एवं बयासी तदनन्तर अन्य तीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा"तुम्मे ग अज्जो! अदिन्नं गेहह, अविन्न मुंजह, अविनं "हे आयं ! तुम अदत (बिना दिये) ग्रहण करते हो, अदत्त सासिग्नह । प्तए णं तुम्मे अदिन्नं गेम्हमाणा, अदिग्नं मुंज- भोजन करते हो, अदन का स्वाद लेते हो. इस प्रकार तुम मागा, अविन्न सातिजमागा निविहं तिविहेगं असं नस- अदत ब्रहग करते हुए, अदत्त भोजन करते हुए, अदत्त की
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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